16 December, 2009
मेरे गिटार का इतिहास :)
चढ़ी नस नकचढ़ी होती है ये किस्सा तो आप हमसे सुन ही चुके हैं...कुछ कुछ उसी मर्ज पर ये हुआ था। उस वक़्त हम देवघर में रहते थे और दो दिनों में एक्साम था, वहां जो डॉक्टर थे उनको दिखाया गया, सिकाई और iodex तो चल ही रहा था, पर सूजन उतरने का नाम ना ले...और ना दर्द गया। वो मेरी जिंदगी का एकलौता एक्साम था जो मैंने किसी और से लिखवाया था...दर दिन भर होता ही रहता था हल्का हल्का। बहुत दिन में जब दर्द नहीं उतरा तो मेरी क्लास टीचर ने एक नस उतारने वाले के पास भेजा। देवघर बस स्टैंड के पास था वो, और शायद यही एकलौता काम करता था...उसने हाथ पकड़ के थोड़ा सा दबाया कुछ दो मिनट तक और दर्द रुक गया। सूजन भी रात भर में दूर हो गयी।
हाथ कि मुसीबत से तो छुटकारा मिल गया पर गिटार फिर दोबारा नहीं मिला कई सालों तक। पटना में जिस स्कूल में पढ़ती थी उसके रास्ते पर एक गिटार की दुकान थी, दो साल तक रोज स्कूल आते जाते मैं देखा करती थी, एक खूबसूरत सा काला गिटार टंगा हुआ था वहां। कॉलेज फर्स्ट इयर में वो गिटार पापा ने खरीद दिया था...उस वक़्त फिर इतना काम रहता था कॉलेज का कि सीखने का टाइम ही नहीं मिला। दिल्ली में भी यहीं हाल रहा।
अब जब बंगलोर में जिंदगी थोड़ी धीमी रफ़्तार से गुजर रही है, हमने सोचा कि अब नहीं तो कभी नहीं। और जा के गिटार स्कूल ज्वाइन किया। दो महीने होने को आये...थोड़ा बहुत समझ में आ रहा है अब। पर इस बुढ़ापे में कुछ सीखने में बड़ी आफत होती है। कुछ भीं आया सीखना बड़ी मेहनत का काम होता है, और कोई शोर्ट कट तो होता नहीं। इतने दिनों में क्या सीखा?
शोर के नए नए आयाम समझ में आये पहली बार। एक छोटे से कमरे में तकरीबन २५ लोग, पच्चीस तरह की चीज़ें बजा रहे हैं अपने अपने गिटार पर। क्लास ख़त्म होने के बाद भी दिमागमें सुरों की उथल पुथल जारी रहती है। कई बार लगता है कि मेरी तथाकथित लम्बी उँगलियाँ सच में बहुत छोटी हैं, तभी तो तारों को बजाने में हालत ख़राब हो जाती है।
गिटार सीखने से ज्यादा मज़ा फोकस मारने में आता है :) तभी तो दुनिया तो बता दिए हैं, कि सीख रहे हैं। यही बोलते हैं कि इस उम्र में क्या सूझी , वैसे भी अब किसी को पटाना तो है नहीं ;) तो हम अपने मन की शांति के लिए अपने जीवन की शांति भंग कर रहे हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आजकल मेरे पडोसी मुझे कुछ अजीब निगाहों से देखते हैं...पर हम बिलकुल आम इंसानों टाइप उनको देख कर मुस्कुराते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। मुझे लगता है जल्दी ही कुछ आस पड़ोस के लोग घर खाली करने वाले हैं। किसी को इधर घर चाहिए तो बता दें :) पड़ोसी का म्यूजिक फ्री मिलेगा इधर :)
कुछ छह महीनों में काम चलाऊ बजने लायक आ जाएगा ऐसा अंदेशा है :) तब तक आप लोग आराम से बिना लैपटॉप को म्यूट किये मेरा ब्लॉग खोल सकते हैं :)
उत्साह बढ़ने वाली टिप्पणियों का स्वागत है :) कृपया डराने वाली टिप्पणी ना करें :D
13 December, 2009
लौट के आ जाएँ कुछ दिन बीते
कोहरे को तलाशती हैं आँखें
मेरी दिल्ली, तुम बड़ी याद आती हो
पुरानी हो गई सड़कों पर भी
नहीं मिलता है कोई ठौर
नहीं टकराती है अचानक से
कोई भटकी हुयी कविता
किसी पहाड़ी पर से नहीं डूबता है सूरज
पार्थसारथी एक जगह का नाम नहीं
इश्क पर लिखी एक किताब है
जिसका एक एक वाक्य जबानी याद है
जिन्होंने कभी भी उसे पढ़ा हो
धुले और तह किए गर्म कपड़ों के साथ रखी
नैप्थालीन है दिल्ली की याद
सहेजे हुयी हूँ मैं, फ़िर जाने पर काम आने के लिए
जेएनयू पर लिखे सारे ब्लॉग
इत्तिफाकन पढ़ जाती हूँ
और सोचती हूँ की उनके लेखकों को
क्या मैंने कभी सच में देखा था
किसी ढाबे पर, लाइब्रेरी में...
मुझे चाहिए बहुत से कान के झुमके
कुरते बहुत से रंगों में, चूड़ियाँ कांच की
सरोजिनी नगर में वही पुरानी सहेलियां
वही सदियों पुरानी बावली के वीरान पत्थर
इंडिया गेट के सामने मिलता बर्फ का गोला
टेफ्ला की वेज बिरयानी और कोल्ड कॉफ़ी
बहुत बहुत कुछ और...पन्नो में सहेजा हुआ
शायद इतना न हो सके...
ए खुदा, कमसे कम एक हफ्ते का दिल्ली जाने का प्रोग्राम ही बनवा दे!
03 December, 2009
इश्क की सालगिरह
"मुझे भी"
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"तू रोज रोज और सुंदर कैसे होती जाती है, बहुत प्यारी लग रही है, नज़र लग जायेगी, इधर आ दाँत काटने दे"
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"मैं मोटी हो गई हूँ क्या?"
"नहीं रे कितनी क्यूट है, टेडी बेअर जैसी, खरगोश क्यूट गालों वाली"
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"सब्जी में नमक ज्यादा है न? हमको लगता है दो बार डाल दिए हैं"
"नहीं रे, झोर में ज्यादा है थोड़ा, पर आलू ठीक है, आलू निकाल के खा रहा हूँ न पराठा के साथ, बहुत अच्छी बनी है"
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"रबड़ी जल गई है रे थोड़ी सी"
"नहीं रे, सोन्हा लग रहा है बहुत अच्छा स्वाद आया है।
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मैंने सीखा:
उसे सबसे ज्यादा प्यार तब उमड़ता है जब मैं अच्छा खाना बनाती हूँ...लोग ऐसे ही नहीं कहते कि दिल तक का रास्ता पेट से होकर जाता है :) [मेरे दिल का रास्ता शायद किसी शौपिंग माल से होकर जाता है]
रात को बालकनी में खड़े होना और कुछ न कहना एक ऐसा अहसास होता है जो शायद बिना महसूस किए समझाया नहीं जा सकता।
रात को झगड़ा करके, रूठ के कभी सोना नहीं चाहिए :) भले देर हो जाए, खूब सारा मन भर झगड़ लेना चाहिए, नींद अच्छी आती है।
खाने में राहर की डाल, भात और आलू की भुजिया से अच्छी चीज़ अभी तक इजाद नहीं हुयी है।
पीने का मजा तभी आता है जब सारे लोग टल्ली होने की औकात रखते हों...जो बेचारा होश में है उसकी हालत अगली सुबह पीने वालों से ख़राब होती है :)
हालांकि सिगरेट से बहुत सी यादें जुड़ी हैं, पर सिगरेट नहीं पीनी चाहिए।
घर में कपड़ों का बटवारा नहीं होना चाहिए, जिसकी इच्छा हो दूसरे की धुली हुयी टी शर्ट मार के पहन सकता है।
जब भी रात को बारिश हो, ड्राईव पर जरूर जाना चाहिए।
कभी कभी ऑफिस बंक कर पिक्चर देखने का मजा ही कुछ और होता है।
नौ से बारह हिन्दी फ़िल्म देखना जाना बेकार है...गोल्ड क्लास में हमेशा नींद आ जाती है :)
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वक्त बहुत जल्दी गुजर जाता है, कभी तो लगता है जैसे जाने कितने दिनों से जानती हूँ तुम्हें, और कभी लगता है कि अभी कल ही तो मिली थी और इतना वक्त गुजर गया मालूम भी नहीं चला।
पहली नज़र का प्यार वाकई होता है, aaj भी सब सुबह सुबह तुम्हें देखती हूँ सबसे पहले, तुमसे प्यार हो जाता है। :)
"हर इंसान को जिंदगी में एक बार प्यार जरूर करना चाहिए, प्यार इंसान को बहुत खूबसूरत बना देता है"
02 December, 2009
बौराए ख्याल
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixmk_l8tnEkdXDkSL5oz0SmtO9AdsuMCwgEx6ABTDHRnpO2LgNCaKxhHobZ5jSHL1K3J5zD4zFrFRSFeJLk2b81vX6rIwfGPiWsRqbeAAlEiv52f6P7QQODpoiUDuYjNUpcSJMS8OLHFwr/s320/depirf-00049461-001.jpg)
लड़की
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आजादी हमेशा छलावा ही होती हैं...कितना अजीब सा शब्द होता है उसके लिए...आजाद वो शायद सिर्फ़ मर के ही हो सकती है।
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शादी में बस ownership change होती है, parents की जगह पति होता है। ससुराल के बहुत से लोग होते हैं।
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शादी एक लड़की को किस बेतरह से अकेला कर देती है की वो किसी से कह भी नहीं सकती है। सारे दोस्त पीछे छूट जाते हैं उस एक रिश्ते को बनाने के लिए।
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वो बहुत दिन झगड़ा करती है, बहस करती है अपनी बात रखने की कोशिश करती है...पर एक न एक दिन थक जाती है...चुप हो जाती है...फ़िर शायद मर भी जाती हो...किसे पता।
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एक सोच को जिन्दा रखने के लिए बहुत मेहनत लगती है, बहुत दर्द सहना पड़ता है, फ़िर भी कई ख्याल हमेशा के लिए दफ़न करने पड़ते हैं...उनका खर्चा पानी उसके बस की बात नहीं।
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तुम्हारा सच मेरा दर्द हो जाता है...मेरा सच मेरी जिद के सिवा कुछ नहीं लगता तुम्हें।
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बहुत दिन चलने वाली लड़ाई के बाद किसी की जीत हार से फर्क नहीं पड़ता।
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मेरी हार तुम्हारी जीत कैसे हो सकती है?
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हम थक जाते हैं, एक न एक दिन लड़ते लड़ते...उस दिन एक घर की चाह बच जाती है बस, जहाँ किसी चीज़ को पाने के लिए लड़ना न पड़े, सब कुछ बिना मांगे मिल जाए।
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उससे घर होता है...पर उसका घर नहीं होता...पिता का होता है या पति का।
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जब कभी बहुत लिखने का मन करता है, अक्सर लगता है मैं पागल हो गई हूँ। मेरे हाथों से कलम छीन कर फ़ेंक दी जाए और इन ख्यालों को किसी शोर में गले तक डुबा दिया जाए. मैं अपनी कहानी की नायिका को झकझोर कर उठती हूँ...पर वो महज कुछ वाक्य मेरी तरफ़ फ़ेंक कर चुप हो जाती है...इससे तो बेहतर होता की सवाल होते, कमसे कम कोई जवाब ढूँढने की उम्मीद तो रहती।
01 December, 2009
तुम बिन जीना
इन्टरनेट पर बिखरे हजारों पन्नो में
घर की कुछ धूल भरी अलमारियों में
गिटार के बेसुरे बजते तारों में
तुम्हारे पहने हुए कुछ कपड़ों में
अटक अटक के गुजरती रात में
गुजर के ठहरे हुए पिछले तीन साल में
पिछले कुछ दिनों से ढूंढ रही हूँ तुम्हारे हिस्से
सबको एक जगह शब्दों में समेट दूँ
शायद फ़िर चैन से रह सकूं तुम्हारे बगैर कुछ पल
वो लम्हे जब तुम मुझसे दूर होते हो
मुझे सबसे शिद्दत से इस बात का अहसास होता है
कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ
मगर मैं इस अहसास के बगैर ही जीना चाहती हूँ
मुझे अकेली छोड़ के मत जाया करो...
आज ये गीत बहुत दिनों बात सुना...बचपन में सुना था कई बार...पापा के टीवी के रिकार्डेड प्रोग्राम से शायद, या फ़िर रेडियो से...यहाँ डाल रही हूँ की फ़िर खोजने की जरूरत न पड़े...ताहिरा sayed का वो बातें तेरी वो फ़साने तेरे...
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21 November, 2009
आउट ऑफ़ बॉडी एक्सपीरिएंस
तुम्हारी साँसों की लय को सुनते हुए
अचानक से ख्याल आता है
कि सारी घर गृहस्थी छोड़ कर चल दूँ...
शब्द, ताल, चित्र, गंध
तुम्हारे हाथों का स्पर्श
तुम्हारे होने का अवलंबन
तोड़ के कहीं आगे बढ़ जाऊं
किसी अन्धकार भरी खाई में
चुप चाप उतर जाऊं
जहाँ भय इतना मूर्त हो जाए
कि दीवार सा छू सकूं उसको
अहसासों के परे जा सकूँ
शब्दों के बगैर संवाद कर सकूँ
किसी और आयाम को तलाश लूँ
जहाँ ख़ुद को स्वीकार कर सकूँ फ़िर से
इस शरीर से बाहर रह कर देख सकूँ
अपनी अभी तक की जिंदगी को
तटस्थ भाव से
एक लम्हे में गुजर जाए एक नया जन्म
मेरी आत्मा फ़िर से लौट आए इसी शरीर में
शायद जीवन के किसी उद्देश्य के लिए
भटकाव बंद हो जाए, कोई रास्ता खुले
छोर पर नज़र आए रौशनी की किरण
एक पल की मृत्यु शायद सुलझा दे
जिंदगी की ये बेहद उलझी हुयी गुत्थी
तुमसे पूछूं जाने के लिए
मुझे जाने दोगे क्या?
20 November, 2009
मेरी खोयी हुयी सुबह
ताकि सुबह मेरी उनींदी पलकों से उग सके
ये वो खोयी हुयी सुबह नहीं थी लेकिन
जिससे होकर मैं तुम्हारे घर तक पहुँच सकती
और खोल सकती बिना सांकल वाला दरवाजा
तुमने आँखें खोलने से इनकार कर दिया
लावारिस हो गई मेरी लायी हुयी सुबह
और अजनबी हो गया मुझमें पलता हुआ शहर
रात खफा होके दूर चली गई मुझसे
थक गई आँखें चुंधियाती रौशनी में
सपना नहीं रहा...तुम मेरे कोई नहीं रहे
भोर, सांझ, बीच दिन...थोड़ी रात
एक अबोला तुम बिन
मैं तुम्हारी कुछ नहीं रही...तुम मेरे कोई नहीं रहे
11 November, 2009
दुनिया की इस भीड़ में...सबसे पीछे हम खड़े
SABSE PEECHE HUM K... |
आज सबसे पहले ये गाना...बहुत दिन बाद कोई ऐसा गीत सुना है जो सुबह से थिरक रहा है मन में...वैसे तो ये गाना पहले भी सुना है, पर आज बहुत दिनों बाद फ़िर सुना...सिल्क रूट ने गाया है और गीत के बोल कुछ यूँ शुरू होते हैं...
जरा नज़र उठा के देखो
बैठे हैं हम यहीं
बेखबर मुझसे क्यों हो
इतने बुरे भी हम नहीं
ज़माने की बातों में उलझो ना
है ये आसान जानना
ख़ुद से अगर जो तुम पूछो
है हम तुम्हारे की नहीं
तेरी आंखों का जादू पूरी दुनिया पे है
दुनिया की इस भीड़ में, सबसे पीछे हम खड़े...
बिल्कुल फुर्सत में इत्मीनान से गाया हुआ गीत लगता है, कोई बनावटीपन नहीं, शब्द भी जैसे अनायास ही लिखे गए हैं...जैसे दिल की बात हो सीधे, कोई घुमा फिरा के नहीं कहना...बिल्कुल सीधा सादा सच्चा सा। और मुझे इस गीत का गिटार बहुत अच्छा लगता है, और माउथ ओरगन भी।
आज पूरे दिन सुना...कभी कभी सोचती हूँ की अगर मैं एक दिन अपना headphone गुमा दूँ तो मेरे ऑफिस के बेचारे बाकी लोगों का क्या होगा :)
सुबह बंगलोर में बारिश हो रही थी...बारिश क्या बिल्कुल फुहार...ऐसी जो मन को भिगोती है, तन को नहीं। बहुत कुछ पहले प्यार की तरह, उसमें बाईक चलाने का जो मज़ा था की आहा...क्या कहें। और आज सारे ट्रैफिक और बारिश और सुहाने मौसम के बावजूद मैं टाईम पर ऑफिस पहुँच गई तो दिल हैप्पी भी था। उसपर ये प्यारा गीत, काम करने में बड़ा मज़ा आया...जल्दी जल्दी निपट भी गए सारे।
वापसी में कुछ ख़ास काम नहीं था, सब्जी वगैरह खरीद कर घर तक आ गई...बस घर का यही एक मोड़ होता है जहाँ एक कशमकश उठती है...समझदार दिमाग कहता है, घर जाओ, जल्दी खाना बनाओ...और जल्दी सो जाओ, इतनी मुश्किल से एक दिन तो ऑफिस से टाइम पर आई हो...थोड़ा आराम मिलेगा शरीर को...मगर इस शरीर में एक पागल सा दिल भी तो है, एक बावरी का...तो दिल मचल जाता है...मौसम है, मूड है, पेट्रोल टंकी भी फुल है...यानि कोई बहाना नहीं।
तो आज मैं फ़िर से बाईक उडाती चल दी सड़कों पर, होठों पर यही गीत फुल वोल्यूम में, और गाड़ी के एक्सीलेटर पर हाथ मस्ती में, ब्रेक वाली उँगलियाँ थिरकन के अंदाज में। कुछ अंधेरे रास्ते, घर लौटते लोग...हड़बड़ी में...सबको कहीं न कहीं पहुंचना है। मुझे कोई हड़बड़ी नहीं है, मेरी कोई मंजिल नहीं है जहाँ पहुँचने की चाह हो...ऐसे में सफर का मज़ा ही कुछ और होता है। ऐसे में खास तौर से दिखता है की बंगलोर में लोग घर कितने खूबसूरत बनाते हैं, कितना प्यार उड़ेलते हैं एक एक रंग पर...
कम सोचती हूँ...पर कभी कभार सोचती हूँ, ख़ुद की तरह कम लड़कियों को क्यों देखा है...जो इच्छा होने पर जोर से गा सके, सीटी बजा सके, लड़के को छेड़ सके ;) उसके बगल से फर्राटे से गाड़ी भगा सके...कहाँ हैं वो लड़कियां जो मेरी दोस्त बनने के लिए इस जहाँ में आई हैं। जिन्हें मेरा पागलपन समझ में आता है...जो मेरी तरह हैं...जो इन बातों पर हँस सके...छोटी छोटी बात है...पर कई बार छोटी सी बात में ही कोई बड़ी आफत छिपी होती है। खैर, उम्मीद है मेरी ये दोस्तें मुझे इसी जन्म में कभी मिल जायेंगी।
इस सिलसिले में ऐसे ही एक लड़की से मिलने का किस्सा याद आता है...जेएनयू में मेरा तीसरा दिन था...और जोर से बारिश हुयी थी। बारिश होते ही सारे लड़कियां भाग कर हॉस्टल में चली गई थी, एक मैं थी की पूरे कैम्पस में खुशी से नाच रही थी, पानी के गड्ढों में कूद रही थी, बारिश को चेहरे पर महसूस कर रही थी। IIMC कैम्पस की वो बारिश जब सब स्ट्रीट लैंप की पीली रौशनी में नहा गया था, चाँद भीगी लटों को झटक रहा था, उसकी हर लट एक बादल बन जाती और बारिश थोडी और तेज हो जाती। तभी बारिश में मैंने एक और लड़की को देखा...वैसे ही भीगती हुयी, खिलखिलाती हुयी, खुश अपनेआप से और बारिश से...हमने एक दूसरे को देखा और मुस्कुरा दिए...वहीँ से एक दोस्ती की शुरुआत हुयी, मेरी दिल्ली में पहली दोस्त।
और उस वक्त मैं उसके नाम को महज एक अलग नाम के होने से जान सकी थी...पर आज जानती हूँ की वो वैसी क्यों थी...उसका नाम था 'बोस्की'
गुलजार की नज्मों की तरह...एक अलग सी, मुझ जैसी लड़की...
आज जाने वो कहाँ है, पर आज भी बारिश होती है रात को, और पूर्णिमा होती है तो मुझे उसकी याद आ जाती है। आज ऐसी ही एक रात थी। तुम जाने कहाँ हो बोस्की...पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है...उम्मीद है तुम वैसी ही होगी...और दिल्ली की बारिशों में शायद तुमने भी मुझे याद किया होगा।
05 November, 2009
बहुत शुक्रिया :)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgp_8xhDnhbrAKkH21bEikKygpkxXRhT8YXtzbg5KB1FszlypG__MORf-t-oXoj9xiMfHiEqiEdvIkSj7mVxS1MOXfKNZdXEgPBrg2ZsdEmI3cHmPrQ1yswPVfMXJBtD5-k5ZPHlMfxY_g6/s400/indiblog.jpg)
सबसे पहले आप सब लोगों को एक बड़ा सा धन्यवाद...थैंक यू :D आपने मुझे वोट दिया।
Indiblogger पर ब्लोग्गर ऑफ़ था मंथ में इस पर कविता के अर्न्तगत प्रतियोगिता थी। मैंने भी अपने दोनों ब्लॉग नोमिनेट किए थे। कुल १८३ प्रविष्टियाँ थी और एक हफ्ते का वक्त था वोटिंग के लिए। मुझे इतनी प्रविष्टियाँ देख कर लगा था, जाने लोग किस आधार पर वोट करेंगे। नेट्वर्किंग के नाम पर कम ही लोगों को इतना जानती हूँ की पर्सनली कह सकूँ कि भई हमारे लिए वोट कर दो...अच्छा बुरा जो लिखा है बाद में पढ़ते रहना ;)
पर आप सब का बहुत सहयोग मिला, और वोट भी तो तीसरे पायदान पर आई हूँ। बहुत दिन बाद किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था, और डरते डरते ही लिया था। कुछ वोट तो मिल ही जायेंगे इस भरोसे पर लिया था कि चलो जीरो पर आउट नहीं होंगे :)
सबसे पहले कुश को पकड़ा...तो वो भला आदमी पहले ही वोट कर चुका था मेरे लिए, हम भी बदला टिका आए वोट करके :D अच्छा फील हुआ, काफ़ी और लोगों को पढ़ा। कुछेक ब्लॉग खास तौर से पसंद आए...खास तौर से इंग्लिश के ब्लॉग, क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि मैं हिन्दी ज्यादा पढ़ती हूँ। अंग्रेजी में एक तो स्तरीय लेखन कम मिलता है ब्लॉग पर और दूसरा लम्बी पोस्ट हमको झेली नहीं जाती। आदत डालनी पड़ती है...जो अभी तक हमने डाली नहीं है। अंग्रेजी ब्लोग्स कि संख्या भी इतनी अधिक है कि एक अच्छा ब्लॉग ढूंढ़ना माने भूसे के ढेर में सुई ढूंढ़ना हुआ, ऐसे में कोई खोज खाज के बता दे तो पढ़ लेते हैं। हिन्दी में फ़िर भी आसान है, अपने पसंद के ब्लोग्स से बाकी लिंक देखती रहती हूँ।
ऐसे में एक चीज़ पर ध्यान गया, चूँकि advertising से जुड़ी हूँ तो अक्सर मार्केटिंग के अलग पक्षों पर ध्यान चला ही जाता है। १८३ ब्लोग्स में से बहुत कम लोगों ने अपनी तस्वीर लगायी थी, एक बार में सीधे ध्यान तस्वीर पर जाता है, चाहे वो किसी की ख़ुद कि हो, या और कोई भी कार्टून या फूल पौधा। तस्वीर ब्लॉग को दोबारा ढूँढने के भी काम आती है तो मुझे लगा कि कमसे कम एक तस्वीर तो होनी ही चाहिए। इसके बाद पहली बार किसी और चीज़ पर ध्यान गया, ब्लॉग का नाम...जीतने वाले ब्लॉग का नाम भी काफ़ी अलग सा है। कुछ अलग से नाम वाले ब्लोग्स को न सिर्फ़ पढने कि उत्सुकता हुयी बल्कि बाद में भी एक बार में याद आ गया।
मुझे ब्लोग्स के नाम अक्सर वो अच्छे लगते हैं जो किसी का असली नाम न हो के कुछ और हो...या फ़िर नाम से जुड़ा एक शब्द हो...इसी तरह मैंने देखा कि मुझे तसवीरें वो अच्छी लगती हैं जिनमें पूरा चेहरा न दिखे, या फ़िर एक हलकी सी झलक भर हो।
मज़ा आया बहुत, खूब से ब्लॉग पढ़े, कुछ अच्छे कुछ बोरिंग, कुछ मजेदार...वोट किया...अच्छा लगा, वोट मिले और भी अच्छा लगा। :D
Indiblogger और आप सबको एक बार फ़िर से धन्यवाद।
03 November, 2009
बरहाल जिन्दा रहता हूँ
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyJhjPckyjy_X0VY6rqCwDOc_WmpR24bNrphEjdjdQhW0SYF3Z69QztlOe_2aaB3G2nMuSVMhwhhaGgeBWWLtnawUh56aba7q46Q9nav28QK5PYm4JcoNJ738chG_i89RVp1WBhdyE5wcC/s200/alca-00003748-001.jpg)
दरिया सा भटका करता हूँ
किसी मुहाने पल भर रुक कर
जाने ख़ुद से क्या कहता हूँ
तुमसे जुदा कैसे हो जाऊं
मैं तुम में तुम सा रहता हूँ
आँसू की फितरत खो जाना
मैं गम को ढूँढा करता हूँ
जख्म टीसते हैं सदियों के
नीम बेहोश सदा रहता हूँ
जली हुयी अपनी बस्ती में
चलता हूँ, गिरता ढहता हूँ
घुटी हुयी लगती हैं साँसे
ख़ुद से जब तनहा मिलता हूँ
ख़त्म हो गई चाँद की बातें
चुप उसको ताका करता हूँ
मर जाना भी काम ही है एक
बरहाल, जिन्दा रहता हूँ
30 October, 2009
मुस्कुराने के कुछ मज़ेदार तरीके
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhj1UoUbqH9sz3VYBINadgbR80bjiGKJ3dWfw8VOBxGi7DZQR0vSdT7bQ9Gd5Nzy-zXL8XEPP4HonOz2EgrvrLQ15CCY1FKhWwAnjowjvOxKWNLRF8jyNhbq6wAgQb-pVA9hmJuAYVNSs3-/s400/fonts.jpg)
कभी कभार काम के सिलसिले में फोंट्स डाउनलोड करती रहती हूँ...तो इनपर नज़र गई...ये स्माइली नहीं हैं, फोंट्स हैं। मुझे बहुत प्यारे लगे, तो सोचा आपके साथ शेयर कर लूँ । इनका नाम है chickabiddies और आप इन्हें यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं। to jara मुस्कुराइए
29 October, 2009
भागता सूरज...मैसूर...स्कोडा फाबिया
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhiavvQFUSh0kXVRuKiXlLf0_KfqgPAX3YB05n0hPCqv4gdA-eJpPui9lmvzgWHVT48DxaVtHQrw7wS4xzLIkdczTroxA94tw2PPayGxWKm-xAMA8aieF-E8JjfSxyrbjUQoNgEFa7YydYz/s320/mysore+trip+023.jpg)
बड़ी तेज भाग रहा था
मैंने पकड़ा...इस तस्वीर में
और तब से बातें कर रही हूँ उससे
नए शहर की गलियां पहचानी लगीं
अजनबी लोगों ने भी सही रास्ता बताया
मैसूर महल बचपन में बहुत बड़ा लगा था
इस बार बहुत खाली खाली लगा, उदास भी
कुछ पुराने गानों को नए नज़ारे मिले
नारियल के पेड़ भी जैसे झूम रहे थे
सड़क किनारे बैलगाडियां, खेतों के साथ नहर
जैसे सब एक ख्वाब था...यकीं की हद तक खूबसूरत
तीन सौ किलोमीटर आने जाने के बाद
फ़िर से प्यार हो गया...
तुमसे और अपनी रेड स्कोडा फाबिया से भी
प्यार बार बार होना भी चाहिए :)
21 October, 2009
मुझे वोट दें :) :)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjU4G9G2HFHBhQX3dUhXvso_co-7VQyMZRAGfjcZwA9qCeAxv5wCQs3fj5yRFsRDu91RQpirn52JnQLB7lYKP_sfJ88MfvJPrSOixSiBskTJJoAO9bw9RempS8Dk4R45GQZPI70_JNkNtfV/s400/netagiri.jpg)
भाइयों, बहनों...वरिष्ट ब्लागरों....नए ब्लागरों...नवेले ब्लोग्गरों
सबसे अनुरोध है...विनम्र निवेदन है...इस महीने का ब्लॉगर ऑफ़ दा मंथ में कविता लिखने वाले ब्लॉगर को वोट करना है...वैसे तो मैं नहीं कहती, पर आप ही लोगों ने तारीफ़ कर कर के झाड़ पर चढा दिया है, आपके भरोसे प्रतियोगिता में हिस्सा ले लिया है। अपने हिस्से का काम मैंने कर दिया है...अब आपकी बारी है...
वर्चुअल identity है इसलिए विनम्र निवेदन ही कर सकते हैं...तो आप सबसे अनुरोध है...अगर आप मुझे अच्छा कवि समझते हैं तो यहाँ वोट दें...
इस लिंक पर और भी १८३ लोग हैं, आप पॉँच ब्लोग्स को वोट कर सकते हैं।
वोटिंग में एक हफ्ता और बचा है...यही वक्त है, जाइए जाइए इंतज़ार किसका है...वोट कीजिए...फ़िर बाद में मत कहियेगा की बताया नहीं था :D
13 October, 2009
एक लॉन्ग ड्राइव से लौट कर
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiG2OEazbeq6j1cDlC_99O-PNEBwlAH7Fawrioep3l8qFxISZ80kOA4mgpcttNdx4wy_nyJMzad_AFWERoQFNnRIMyU4Opr7nHDNqtNXwpXYCNBw_KfO14hZStBWincxAb0gOIq54Req_Yh/s200/nandi+hills+52.jpg)
जाने क्या है तुम्हारे हाथों में
कि जब थामते हो तो लगता है
जिंदगी संवर गई है...
बारिश का जलतरंग
कार की विन्ड्स्क्ररीन पर बजता है
हमारी खामोशी को खूबसूरती देता हुआ
कोहरा सा छाता है देर रात सड़कों पर
ठंढ उतर आती है मेरी नींदों में
पीते हैं किसी ढाबे पर गर्म चाय
जागने लगते हैं आसमान के बादल
ख्वाब में भीगे, रंगों में लिपटे हुए
उछल कर बाहर आता है सूरज
रात का बीता रास्ता पहचानने लगता है हमें
अंगड़ाईयों में उलझ जाता है नक्शा
लौट आते हैं हम बार बार खो कर भी
अजनबी नहीं लगते बंगलोर के रस्ते
घर भी मुस्कुराता है जब हम लौटते हैं
अपनी पहली लॉन्ग ड्राइव से
रात, हाईवे, बारिश चाय
तुम, मैं, एक कार और कुछ गाने
जिंदगी से यूँ मिलना अच्छा लगा...
09 October, 2009
पानियों के रंग
हमको भी जीने का गुमां हो जाए
ऐसे बरसे अबके बार का सावन
तेरे संग भीगने का गुमां हो जाए
कोयल ऐसे कूके मंजर आते ही
बचपन के गाने का का गुमां हो जाए
उड़ती फिरूं दिल्ली की हवाओं में ऐसी
यादों के जीने का गुमां हो जाए
मन्दिर में कोई ऐसी आरती गाएं सब
किसी भगवान के होने का गुमां हो जाए
सड़कों सड़कों क़दमों की आहट चुन लूँ
फ़िर तेरे लौट आने का गुमां हो जाए
तेरी आंखों में हँसता ख़ुद को देखूं
यूँ जिंदगी जीने का गुमां हो जाए
04 October, 2009
कार ड्राइविंग और बिल्ली
जिद्दी जिद्दी टाइप के शब्द लटक जाते हैं
गियर, एक्सीलेटर, क्लच
पांवों के पास नज़र आते ही नहीं
बहुत तंग करते हैं मुझे
गिरगिटिया स्पीडब्रेकर
अचानक से सामने आ कर
डरा देते हैं...और इसी वक्त ब्रेक
चल देता हैं कहीं और
महसूस नहीं होता पांवों के नीचे
शायद पैरों तले जमीन खिसकना ऐसा ही होता होगा
खटके से बंद हो जाती है गाड़ी
जीरो से एक गियर पर चढ़े बिना
भागने लगते हैं सड़क के सारे खम्भे
मेरी कार शुरू होने के पहले ही
बताओ भला, खम्भे में जान थोड़े होती है जो वो डरे!
हर चैनल पर बजते हैं सिर्फ़ कन्नड़ गाने
मेरी समझ से बाहर, जैसे कि गियर की डायरेक्शन
आगे पीछे, ऊपर नीचे....उफ्फ्फ्फ्फ्फ
जरा सा छूते ही एक साथ जलने लगती है बत्तियां
कभी वाइपर चलने लगता है अपने आप से
गाड़ी अपना दिमाग बहुत चलती है लगता है
घंटी बजाते गुजरता है एक साइकिल वाला
हँसते हुए ओवर टेक करता है
चौराहे पर एक बिल्ली मुझे घूरने लगती है
मैं उसके भी सड़क पार करने का इंतज़ार करती हूँ
और फ़िर बिल्ली के कटे हुए रास्ते में गाड़ी कैसे सीखूं...
घर आ जाती हूँ वापस
दिल ही दिल में बिल्ली को दुआएं देती हुयी
ड्राइविंग सीखने का एक और घंटा यूँ गुजर जाता है...
भगवान् उस बिल्ली को सलामत रखे!
22 September, 2009
टकराने के नए आयाम...और सिद्धांत
उसपर से जब कुणाल ने टेस्ट ड्राइव लिया और कहा कि मक्खन जैसी चलती है तो बस...फिसल गए हम।
अब थोड़ा इतिहास...
मैंने अपने जैसे लोग बहुत कम देखे हैं। बोले तो, एकदम नहीं, आजतक किसी से नहीं टकराई जो लगे कि मेरे दुःख दर्द से यह इंसान गुजरा हो। पटना में हमारा एक हाल और तीन कमरे का घर था, उसकी दीवारें अलबत्ता घर के बाकी लोगों के लिए स्थिर ही रहती थी, बस मुझपर खुन्नस निकालती थीं...बहुत कम ऐसा हुआ है कि मैं अपने bed से उठ कर बाहर निकली हूँ और दीवार मुझ से टकराए बिना रही हो। किस्सा कोताह ये कि दीवारें मुझे देखकर अपनी जगह छोड़ देती थीं, और कहीं और चली जाती थीं। मेरे लिए पॉइंट अ से पॉइंट बी तक जाने का एक ही रास्ता होता था, और वो रास्ता एक बार चलने के बाद बदला नहीं जा सकता था...तो पॉइंट बी जो कि दीवार का हिस्सा होता था, दीवारों की मुझसे खुन्नस के कारण अपनी जगह से हट जाता था...बस हो जाती थी टक्कर।
आम इंसानों को इस बात को समझने में जिंदगी लग जाए...मम्मी, भाई, पापा सब एक सिरे से डांटते थे कि कोई दीवार से कैसे टकरा सकता है...मैं कितना भी बोलूं कि दीवार हिली है और मुझसे टकराई है, मेरा कोई दोष नहीं...कोई मानने को तैयार नहीं। बताओ भला दीवारों पर भरोसा है, अपनी ही बेटी पर नहीं...बड़ी नाइंसाफी है।
इनकी आपसी साजिशों के कारण, मैं दीवार, दरवाजा, फ्रिज टेबल, सबसे चोट खाती रही...सारे कमबख्त मेरे रास्ते में आ के खड़े हो जाते थे मुझसे टकराने को। एक तो चोट लगती थी, उसपर डांट खाती थी कि देख कर चला करो। और मेरे दुश्मनों का नेटवर्क सिर्फ़ घर तक ही नहीं कॉलेज तक फैला था, कहीं भी गिरने टकराने की कोई आवाज होती थी, बिना देखे सब निश्चिंत रहते थे कि मेरा ही कारनामा होगा। स्टेज डेकोरेशन वगैरह से मुझे यथा सम्भव दूर रखने की कोशिश की जाती थी। इसलिए नहीं कि उन्हें मेरी बड़ी चिंता थी...मुझे आस पास देखकर सीढियाँ मचल जाती थी मुझसे टकराने को, और उनपर चढ़ कर डेकोरेशन करने वालो की साँस अटक जाती थी...या फ़िर कई बार लोग हवा में लटके भी हैं मेरे कारण। टार्ज़न के कई करतब हुए हैं हमारे ड्रामा प्रोग्राम में मैं रही हूँ तो :) ऐसा बिना स्क्रिप्ट का ड्रामा मेरे जाने के बाद लोग कितना मिस करते होंगे!
बहुत सोच समझ कर हम इस नतीजे पर पहुंचे कि हमारे लिए स्पेस और टाइम constant नहीं रहता, हमारा फ्रेम ऑफ़ रेफरेंस शायद किसी और आयाम का होता है इसलिए हम चलते कहीं हैं, पहुँचते कहीं और हैं और टकराते किसी और चीज़ से हैं। ऐसी स्थिति में जब तक खतरा हमारे ऊपर मंडरा रहा है, कोई बात नहीं...पर बाकी गरीब इंसानों का कुछ तो सोचना चाहिए इसी एहतिहात में हम आज तक कार वार से दूर ही रहे।
पर अब...दिल आ गया है...तो गाड़ी भी आ जायेगी...
सोच रही हूँ एक बार आँखें टेस्ट करवा लूँ...दिमाग टेस्ट करवाने में बहुत लफड़ा है तो उस फेर से दूर ही अच्छे हैं हम। किसी को अगर बंगलोर से ट्रान्सफर कराना है तो आप यह पोस्ट अपने बॉस को पढ़ा सकते हैं :D मैं इसी शुक्रवार से सीखने वाली हूँ...तब तक शुक्र मनाईये :)
20 September, 2009
विराम
ठुड्डी पर हाथ रखे सोच रहे हैं
पास आयें कि नहीं
अपने संग खेलाएं कि नहीं
अजनबी हो गई हूँ मैं उनके लिए
इधर कुछ दिन से मेल बुलाकत बंद थी न
इसलिए
रूठ गए हैं, छोड़ कर चले गए हैं
अलग गुट में खड़े हैं
कि जाओ तुमसे बात नहीं करते
उनका बचपना बहुत सी कट्टियों की याद दिला रहा है
और उनकी खामोशी बहुत से अबोलों की
कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती...
जैसे कि झगड़ा करने का अंदाज
कुछ लोग हाथ पैर पटकते हैं
कुछ दूसरों को उठा कर पटकते हैं
कुछ चुप हो जाते हैं
और बाकी औरों को चुप करा देते हैं
मैं दूसरी कैटेगरी में से हूँ
तो कुछ लफ्जों को गुस्से में आग लगा दी
कुछ लफ्जों की चिन्दियाँ हवा में उड़ा दीं
बाकी लफ्ज़ सहमे खड़े हैं, मुंह फुलाए से
हालाँकि गुस्सा अभी उतरा नहीं है मेरा
तो फिलहाल सिर्फ़ युद्ध विराम है...
तूफ़ान के पहले की शान्ति
01 September, 2009
लाइफ को सेकंड चांस देना चाहिए
बचपन तक तो चला, कॉलेज लाइफ तक भी चला...अब सोचती हूँ इस नज़रिए पर पुनर्विचार कर लूँ। किसी की एक गलती तो माफ़ की ही जा सकती है, खास तौर पे तब जब वो इंसान रो पीट के माफ़ी मांग रहा हो( अभी तक इत्ता बड़ा दिल नहीं हुआ है की अपने ही माफ़ कर दें)।
बंगलोर आई थी तो शुरू शुरू में आसपास की जगहों का खाना ट्राय मारा था...और भैय्या हम बड़े ब्रांड कौन्शियस हैं एक बार जो पसंद आया उसमें जल्दी फेर बदल नहीं करते...और एक बार कुछ ख़राब निकला तो कभी ट्राय नहीं करेंगे दोबारा। इस श्रेणी में दुकानें आती हैं, सब्जीवाले आते हैं, रेस्तरां आते हैं...सब कुछ जो मैं ख़ुद खरीदती हूँ।
खैर कहानी थी एक रेस्तरां की, काटी ज़ोन, यहाँ जो रोल्स खाए हमने वो चिम्मड़ थे...इस शब्द का उद्गम शायद चमड़े से हुआ होगा...यानि ऐसी हालत की दांतों ने खींच खींच कर हार मान ली। उस दिन के बाद हमने कभी वहां से आर्डर नहीं किया। अब ऑफिस में अगर खाना नहीं लाये तो लंच मंगवाना पड़ता है...और आख़िर कितने दिन डोसा इडली पर जियेंगे...हालत ख़राब होने लगी, उसपर तुर्रा ये की पिज्जा और बर्गर से भी जी उब गया...हमारा टेस्ट एकदम नॉर्थ इंडियन है कुछ चटपटा, नमकीन मसालेदार टाईप खाना चाहिए हमें।
ऑफिस में सबने कहा की काटी ज़ोन का खाना अच्छा होता है...हम भला मानने वाले थे, एक साल पुराना दांतों का दर्द दुहाई देने लगता, कि ऐसे मत करो हमारे साथ, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। बस हम अड़ियल घोडे की तरह अड़ जाते...मर जायेंगे पर वहां का खाना नहीं खायेंगे।
कुछ दिनों में वाकई मरने मरने वाली हालत आ गई, कहते हैं मुश्किल में ही इंसान को जिंदगी के बड़े बड़े फलसफे सूझते हैं...सो हमें भी सूझा...कि यार कित्ती बार हमने चाहा है की एक मौका और मिलता तो क्यों न एक मौका बेचारों को भी दिया जाए...कौन जाने उन्होंने सच में कुछ किया हो। टेस्ट करने का समय भी ऐसा चुना कि रिव्यू में कोई बायस न आए...पक्षपात से हमें बड़ी चिढ़ है। कुणाल को एअरपोर्ट छोड़ने गए थे...वहीं सोचा आज इस दुःख के मौके पर खा लिया जाए भर दम...कुणाल के बिना खाना पीना तो अच्छा लगता नहीं है हमें...आने वाले एक महीने के बदले आज ही सही।
विरही नायिका के मरियल सूखे रोल में ढलने के पहले हम टुनटुन इस्टाइल खाना चाहते थे...सो भांति भांति के रोल आर्डर किए...और हमें सुखद आश्चर्य हुआ उन्होंने वाकई अपनी कायापलट करली थी। और बेचारी दिल्ली के तरसे हुए, सीपी के काटी रोल्स खाए हुए भटके दुखी प्राणी, जैसे रेगिस्तान में पानी मिल गया हो...तवा पनीर रोल्स में जो हरी चटनी लिपटी हुयी की क्या कहें...आहा...क्या चटाखेदार स्वाद...तीखा, खट्टा, और प्याज के करारे लच्छे भाई वाह...और गरमा गरम पेश हुआ था तो खुशबू जैसे दिल्ली खींच ले गई वापस और हमें मूंग के पकोड़े, चाट और जाने क्या क्या याद आने लगा।
तो हम उस दिन अपनी गलती माने की हमें बिचारों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था...ऐसे में हमने एक साल कष्ट उठाया आख़िर हानि किसकी हुयी...हमारी। उन्हें क्या पता यहाँ कोई दिल्ली की भुखमरी लड़की रहती है, जिसे बस बहाना चाहिए होता है दिल्ली को याद करके बिसूरने का। बरहाल...हम अब से सेकंड चांस देने का सोच रहे हैं, किसी को भी पूरी तरह खारिज करने के पहले।
नोट: यह पोस्ट काटी ज़ोन से कड़ाही पनीर रोल आर्डर करने के बाद लिखी गई है। चूंकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि रोल आर्डर करने के बाद रोल्स आने के पहले हम कुछ काम नहीं कर सकते...समय का इससे अच्छा सदुपयोग क्या होगा :)
29 August, 2009
quizas...शायद
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फ़िर कल से ये गाना सुन रही हूँ...पोस्ट किए बिना दिल नहीं माना...इसी बहाने कहीं रहेगा तो सही, जो वाला सुन रही थी वो Nat King Kole का है...उफ़ क्या कमाल की आवाज है, बिल्कुल मखमल सी फिसलती हुयी, गाना सुन के पैर ऐसे थिरकते हैं कि लगता है बाँध के रखना पड़ेगा आख़िर ऑफिस में जो हैं ☺आपमें से किसी कि इच्छा होतो इसे घर में बजाइए, डांस कीजिये...हमको धन्यवाद दीजिये...हम तो वैसे प्राणियों में से हैं कि कुछ अच्छा सुनानहीं कि शुरू हो जाते हैं, हालाँकि कुणाल को धमकाते जरूर हैं कि शादी की, लाइफ पार्टनर तुम हो तो अब डांसपार्टनर कहाँ ढूँढने जाएँ, लेकिन चल जाता है...वो बेचारा भला प्राणी मेरे आए दिन बदलते म्यूजिक को झेल जाता हैइतना काफ़ी है। मैं जब भी कोई ऐसा गीत सुनती हूँ, या कोई फ़िल्म देखती हूँ, या किसी किताब का अंश कहीं पढ़तीहूँ तो अचानक से लगने लगता है, जिंदगी कितनी छोटी है और कितना कुछ है देखने को, पढने को गुनगुनाने को...
और कहाँ हम ऑफिस के जंजालों में जकड़े हुए हैं...मन का भटकता यायावर फ़िर हल्ला मचाने लगता है...मैंने अपने जैसी कम लड़कियाँ देखी हैं। हर कुछ दिन मुझे ऐसा लगने लगता है...एक अच्छा कैमरा होता SLR, एक नोर्मल सा ही videocam होता, बहुत सारे अच्छे गाने आईपॉड में और एक बाइक अच्छी वाली, और मेरा देश कुछ अच्छा होता जो मैं ये सारा सामान उठा के कहीं घूमने चल देती। बाइक न हो तो जिप्सी चलेगी...बिल्कुल बंजारों सी, जानती हूँ एक लड़की होते हुए मेरा ऐसी कोई कल्पना करना ही बेमानी है। पर कभी जिंदगी में मौका लगा तो अपने इस सपने को जरूर जियूंगी। चले जा रहे हैं मीलों मीलों कुछ नहीं, पेड़ पौधे, बंजर खाली सड़क साथ में कोई नहीं बस कोई सुरूर छाया हुआ सा गीत बज रहा है...और हमें लग रहा है कि हम अपनेआप के साथ चल रहे हैं।
कुणाल मुझे "a man trapped in a woman's body" कहता है...पता नहीं कैसे बंधन बिल्कुल पसंद नहीं हैं मुझे...कुणाल इसलिए सबसे अच्छा लगता है मुझे, समझता है बिल्कुल परफेक्टली और उड़ने का खुला आसमान देता है मुझे। मुश्किल होता है कि कोई ऐसा मिल जाए जो आपकी हर जरूरत को समझे, हर पागलपन को समझने की कोशिश करे...इसी को तो सोलमेट कहते हैं :)
बरहाल गाने का अंग्रेजी अनुवाद कुछ इस तरह से होता है:
How am I ever to know
You only tell me
Perhaps, perhaps, perhaps
A million times I ask you and then
I ask you over again
You only answer
Perhaps, perhaps, perhaps
If you can't make your mind up
We'll never get started
And I don't want to wind up
Being parted, broken hearted
So if you really love me say, "yes"
But if you don't, dear, confess
And please don't tell me
Perhaps, perhaps, perhaps
If you can't make your mind up
We'll never get started
And I don't want to wind up
Being parted, broken hearted
So if you really love me say, "yes"
But if you don't, dear, confess
And please don't tell me
Perhaps, perhaps, perhaps
Perhaps, perhaps, perhaps
Perhaps, perhaps, perhaps
and this is the original sung by Nat King Kole
Nat King Cole - Qu... |
21 August, 2009
ब्लॉग जगत के कबाब की हड्डी...
तो ऐसा हुआ की कल हमारे अपने फुरसतिया जी ने पाँच साल पूरे कर लिए...हम भी गए ताली वाली बजाने, सुबह.
पोस्ट भी पूरे फुरसतिया स्टाइल थी...और टिप्पणियां भी थोक से भाव में लोगों ने फुर्सत से लिखी थी...तो एक साँस में पढ़ते आ रहे थे ऊपर से नीचे कि एक टिप्पणी पर नज़र अटकी...आख़िर क्यों न अटकती, डॉक्टर अनुराग जो कह रहे थे...
ब्लॉग जगत के कबाब में अगर कुछ हड्डियाँ हैं तो यकीनन आप उनमें से एक हैं।
हम घबराए, दाएं बायें देखे...और मन ही मन बोले...चलो आज फाईनली अनुराग जी ने अपने दिल की बात बोली है और जैसा की हमेशा होता है...उनके दिल की बात कईयों के दिल की बात होती है...मेरी भी थी जो हम न कह सके, किसी ने तो कहा ;)
नीचे ए तो देखा कुश को बुखार चढ़ गया अनूप जी पोस्ट पढ़ के...अनूप जी ने इतना हड़काया की बिचारा बुखार में टिप्पणी देने चला आया...इससे पता चलता है, अनूप जी से कित्ता डरता है भला मानुस। उसपर भारत रत्न दिलवाने की बात हमको तो लगता है किसी ने उसे धमकी वम्कि भी दी है...कौन जाने। अब तो बुखार ठीक होने के बाद ही कुछ पता चलेगा। वैसे चुपके से कुश ने भी सच्चाई बयां करने की कोशिश की है...बधाई आपको दूँ या आपको झेलने वालों को दूँ...हम तो इस बात के लिए कुश को बधाई देते हैं...मेरे भाई, सच्चाई में बहुत ताकत होती है, चिंता मत करो...और बधाई का टोकरा इधर भेज दो...हम भी काफ़ी दिन से झेल रहे हैं जी.
एतना पढ़ उढ़ के हम भी टिप्पणी चिपकाये दिए...मगर जवाब कहाँ से आता, अनूप जी तो जैसे ही सुने की ज्ञान जी उनके पंखे हैं, बस पंखे की हवा में उड़ लिए...जमीन पार आयें तब तो हम बेचारे गरीब लोगों को प्रति टिप्पणी मिले...फ़िर दिन भर जा जा के देखत रहे, अब जवाब आया , न अब जवाब आया.
ई चक्कर में पीडी भी आया...जरूर ऑफिस से बीच में कल्टी मार के पढ़ रहा होगा हल्ला कर रहा था की एतना लंबा पोस्ट काहे लिख मारे हैं...तो अनूप जी उसको हड़का दिए...की बेटा सुस्ता के पढ़ा करो, एक साँस में bottoms up करने की कौनो जरूरत आन पड़ी है।
समीर लाल जी तो वीआईपी हैं, फ़िर भी स्माइली चिपकाना भूल गए, इसलिए दू ठो टिप्पणी किए, अनूप जी भी बड़े आदमी हैं, पाँच साल की साल गिरह पर दू दू ठो टिप्पणी मिली समीर जी की...हमको लगता है ऐसा इसीलिए की समीर जी जबसे अनूप जी को मिले थे तो अनूप जी दू साल के हुए रहे बस्स।
ढेर सारे लोग आए...एतना बधाई मिला है की टोकरा दर टोकरा अनूप जी का घर भर गया है...कोई कानपूर जाए तो उनके घर में कैसे ठहरे भला, इसलिए हम एक गिलास बधाई देने का सोच रहे थे, की कोई बधाई देने घर पहुच जाए तो अनूप जी बाहर से एक गिलास पानी पिला के विदा कर दें।
बहुत बड़ा तीर मारे हैं...उ भी पाँच पाँच ठो...एक साल का एक...सबने अनूप जी को बधाई दी...हम बाकी लोगों को देते हैं...धन्य भाग हमारे की ऐसे ऐसे ब्लॉगर हैं ब्लॉग जगत में...
डॉक्टर अनुराग ठीक कह रहे थे:
हिंदी ब्लॉग जगत की रीड में अगर कुछ हड्डियाँ है…तो यकीनन आप उनमे से एक है…
डिस्क्लेमर: इस पोस्ट को लिखने की लिखित परमिशन हमको अनूप जी ने दी है...और जो बाकी लोग लपेटे गए हैं इसलिए लपेटे गए हैं की हमको उनसे डर नहीं लगता...मतलब कि भले लोग हैं, थोड़ी बहुत जान पहचान है तो बस ग़लत फायदा उठाय लिए हैं :)
20 August, 2009
कैमरा...शौक़ और कोशिश
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhN6_AYCKf69ynbNUTMXtSCPBEfOChLiUelxpSKs3niwytJ5FbcOwXd0oKGvP99VoFXkp0SbMoEEbsSqwsWn-i3G_cj2bnBbnYGRvRljQoK7Cx1slbyfDe4Q7ctAEgyj36n3jOWBOJnEHkr/s320/invite.jpg)
IIMC में जर्नालिस्म के तीन डिपार्टमेन्ट हैं, हिन्दी, इंग्लिश और रेडियो & टीवी...शुरुआत के एक महीने सबकी क्लास एक साथ ऑडिटोरियम में होती है। मेरे अधिकतर दोस्त इसी ऑडिटोरियम में बने...आते जाते मिलते हुए।
कुछ लोग बाद में मिले...अनजाने जिनसे शायद ही कभी बात की हो एक साल के दौरान...सनी इन लोगों में से एक था...गाहे बगाहे टकरा जाते थे, पर कभी बैठ कर बहुत सी बातें नहीं की...उसके ऑरकुट पर एक से एक बेहतरीन फोटोग्राफ अपलोड होते रहते थे...इसी से मेरा ध्यान गया...फ़िर बात शुरू हुयी। मुझे भी फोटोग्राफी का बहुत शौक़ था, आज भी है...सनी ने उस वक्त एक ग्रुप ज्वाइन किया था और ये लोग मिल कर पुरानी दिल्ली की
गलियों में भटकते रहते थे, गले में कैमरा लटकाए...मैंने कितनी बार सोचा की मैं भी चलूँ...पर सोचा भर...गई कभी नहीं।
हम सबके अपने अपने शौक़ होते हैं...जिन्हें करने में एक अजीब तरह की मानसिक शान्ति मिलती है...एक सुकून, की ये मैंने ख़ुद के लिए किया है। अपने शौक़ के साथ वक्त बिताने का मतलब होता है हम अपने आप से कितना प्यार करते हैं क्योंकि ये हमें ख़ुद से जोड़े रखता है।
सनी जर्नलिस्ट है...वक्त का रोना उससे बुरा कोई नहीं रो सकता...मगर आज देखती हूँ तो अच्छा लगता है...कोई अपने सपनों की राह पर चल पड़ा है...अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वक्त निकालना बेहद मुश्किल का काम है...पर उसने ऐसा किया...
ये पोस्ट आज मैं उसके इस जज्बे को सलाम करते हुए लिखती हूँ...इस हफ्ते से उसका exhibition लगा है...दिल्ली में इंडिया हैबिटैट सेंटर में...पहला फोटोग्राफी exhibition, काश मैं दिल्ली में होती तो जरूर जाती देखने...पीठ ठोकने...कि शाब्बाश...जिंदगी जीना इसे कहते हैं...
आपमें से किसी को फुर्सत हो तो एक शाम बिताएं...इंडिया हैबिटैट सेंटर वैसे भी मेरे दिल्ली कि पसंदीदा जगहों में से है...उसपर से फोटोग्राफी जैसे और क्या चाहिए एक शाम से...बस लिखने में देर हो गई मुझे...बस कल भर ही है...१७ से २१ अगस्त टाइम था...ऐसी फंसी रह गई कि लिख ही नहीं पायी।
बधाई हो दोस्त! जिंदगी के रंग तुम्हारे कैमरा से गुजर के एक नई सोच, एक नई दृष्टि दें...मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं.
17 August, 2009
जिंदगी...तुम जो आए तो
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHitsY5rhyphenhyphenLSXEhqYXzIBVBe1uvhKk5l5Vn5f0Dc5HG8ef1tOJEN4gcAYGO9_He8gV3PHLw0ISkl0wnNySfF0_wNzt-tNr-4I05UPc4XS2uIFUNonB1hNIG613SnLMFZeWm3SZorZ6Bikt/s320/depirf-00001781-001.jpg)
बादलों का ब्रश उठाऊं
रंग दूँ आसमान...
सिन्दूरी, गुलाबी, आसमानी नीला,
तोतई हरा और थोड़ा सा सुनहला भी...
टांक दूँ एक इन्द्रधनुष का मुकुट
उगते सूरज के माथे पर
थोड़ी बारिश बरसा दूँ आज
धुल के निखर जाएँ पेड़, पत्ते सड़कें
खिला दूँ बहुत से फूल रास्तों पर
खुशबू वाले कुछ हरसिंगार...
भीनी रजनी गंधा और थोड़े से गुलाब
आम के पत्ते गूँथ लूँ
थके उदास लैम्पपोस्ट्स पर
बंदनवार सजा दूँ क्या
मौसम भीगा हुआ है आजकल
थोड़ी धूप बुला लूँ, शायद खूबसूरत लगे
क्या करूँ इंतज़ार के आखिरी कुछ लम्हों का
कट नहीं रहे हैं मुझे...
बावली हो गई हूँ मैं जैसे
कल सुबह तुम जो आ रहे हो!
बुकमार्क वाले पन्ने
हम में से हर एक को लगता है, मैं ही पागल हूँ...अभी तक उस दिन को याद करती हूँ, शायद एक मैं ही हूँ जिसे वो मुस्कान याद है वो जोश में एक साथ चिल्ला चिल्ला के गला फाड़ना याद है...वो घंटों घंटों प्रैक्टिस करना याद है। १५ अगस्त आया और चला गया...मेरे लिए महज एक छुट्टी का दिन रह गया...अकेलेपन और तन्हाई में डूबा एक बेहद बोरियत वाला दिन...दोपहर होते पन्ने फड़फड़ाने लगे...कितने सारे गीत गूंजने लगे, कितने सारे लम्हों के मिले जुले डांस करने वाली थिरकन पैरों में आने लगी।
जब बिल्कुल छोटी थी तो ग्रुप डांस में अक्सर लाइन में सबसे आगे लगती थी...सब कहते हैं बचपन में मैं काफ़ी क्यूट हुआ करती थी...तो टीचर से सबसे ज्यादा पैर में छड़ी की मार भी मैं ही खाती थी। ये वो बचपना था जब इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था की मैं कहाँ लग रही हूँ लाइन में...पर इतना मार खाना जरूर बड़ा ख़राब लगता था। पर ऐसा कोई १५ अगस्त नहीं रहा जब स्कूल के प्रोग्राम में हिस्सा न लिया हो। कुछ नहीं होता तो एक न एक साल पकड़ के भारत माता जरूर बना देते थे हमको। हम ठहरे छटपटिया...हिलना डुलना मना जैसे सजा हो जाती थी।
थोड़ा बड़े हुए तो अक्सर गाने वाली टीम में रहते थे...कितने दिन से खोज जारी रहती थी, गाने की...की सबसे अच्छा गाना हो हमारा...उसपर लगातार प्रक्टिस...गला ख़राब होने तक प्रक्टिस, फ़िर घर जा के गार्गल...आइस क्रीम बंद...ठंढा बंद...सब बंद। जब जन गण मन गाती थी, तो जैसे गर्व से एक इंच और लम्बी हो जाती थी।
उसके बाद आया स्कूल लाइफ का सबसे हसीन दौर...मार्च पास्ट में हम अपनी पलटन के कैप्टेन हुआ करते थे...झंडे को सलामी देते हुए एक अजीब सी अनुभूति होती थी...और मार्च पास्ट में एक कदम भी ग़लत नहीं...धुप में खड़े होकर कितने कितने दिन की प्रैक्टिस करते रहते थे। उस वक्त बड़ा अरमान हुआ करता था आर्मी में जाने का...जो काफ़ी दिन तक रहा...अभी भी आह भरती हूँ। वो bata के कैनवास जूते, धो के सुखा के whitener लगा के तैयार रहते थे। स्कर्ट की क्रीज़ बना बना के bed के नीचे रख देते थे, की एकदम ही न टूटे।
हर साल कमोबेश एक ही गाने हर तरफ़ से...और मुझे याद है एक भी साल ऐसा नहीं था की मैं "ए मेरे प्यारे वतन "-काबुलीवाला फ़िल्म का गीत सुन कर रोऊँ न या फ़िर ए मेरे वतन के लोगों बजता था तो जैसे अन्दर से कोई हूक सी उठने लगती थी. कॉलेज में भी अधिकतर गाने गाये, बहुत से इनाम भी जीते...और हमारा एक गीत तो पटना विमेंस कॉलेज में लोगों को इतना पसंद आया था की दिनों दिनों तक कॉलेज के हर प्रोग्राम में उसकी फरमाइश हो जाती थी। उस गीत के अंत में मैंने एक तराना जोड़ने के लिए कहा था, थोड़ा शास्त्रीय पुट देने के लिए...उससे कमाल का asar पड़ा tha...लोग अचंभित rah गए the। इत्ती तारीफ़ मिली थी की कित्त्ने दिन हम फूल कर कुप्पा रहे थे।
आप लोगों को बताना भी भूल गए की ताऊ ने हमारा interview लिया था...बहुत अच्छा अनुभव रहा, उसमें मैंने अपने IIMC के हॉस्टल के समय की १५ अगस्त वाले प्रोग्राम का जिक्र किया था...उसे मेरी एक दोस्त ने पढ़ा...जो उस डांस में हमारे साथ ही थी...और कई साल बाद हमारी बात हुयी...तुमको भी याद है...i thought i was the only one.
Most of the times we forget the magic of some shared moments...that the magic belonged to all of us...and we all remember it...some way of the other, some day or the other.
ताऊ का फ़िर से धन्यवाद...उनके कारण अरसे बाद कुछ बेहद खुशनुमा लम्हों को हमने बांटा...और फ़िर से जिया.
13 August, 2009
गिनती, मैं और तुम
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQSMHODpGA_LClYOLrseW8irVhxZWjjq3Jcq2BY_qZeOxD4_t5WRrPwzCj0HC701tW5iWm5l9veY5B4jQskwM543K3Pf6NrvSvYjKp3aGeeLv3U1EuY7b-QkXSv42Wy7vs9aS0xEu-Apvf/s320/pirf-00013522-001.jpg)
हर तीसरे दिन
मेरा हिसाब गड़बड़ा जाता है
मैं भूल जाती हूँ गिनती...
पलंग पर बिछा देती हूँ
तुम्हारे पसंद वाली चादर
सीधा कर देती हूँ सलवटें
बुक रैक पर तुम्हारी किताबें
झाड़ देती हूँ, एक एक करके
रख देती हूँ उन्हें अपनी किताबों के साथ
फेंक देती हूँ अलमारी में
धुले, बिन धुले कपड़े साथ में
मेरे तुम्हारे...हम दोनों के
जूतों को रैक से बाहर निकाल कर
धूप हवा खिलाने लगती हूँ
और अक्सर बाहर भूल जाती हूँ
जाने क्या क्या उठा लाती हूँ
अनजाने में...तुम्हारे पसंद की चीज़ें
और फ्रिज में भर देती हूँ
सारे कपड़े पुराने लगते हैं
कोई आसमानी रंग की साड़ी खरीदना चाहती हूँ
और कुछ कानों के बूंदे, झुमके, चूड़ियाँ
फ़िर से तेज़ी से चलने लगती हूँ बाइक
भीगती हूँ अचानक आई बारिश में
और पेट्रोल टैंक फुल रखती हूँ
टेंशन नहीं होती है अपनी बीमारी की
लगता है अब कुछ दिन और बीमार ही रहूँ
अब तो तुम आ रहे हो...ख्याल रखने के लिए
कमबख्त गिनती...
मैथ के एक्साम के रिजल्ट से
कहीं ज्यादा रुलाती है आजकल...
हर तीसरे दिन
मैं गिनती भूल जाती हूँ
लगता है तुम आज ही आने वाले हो...
जाने कितने दिन बाकी हैं...
08 August, 2009
एक और शाम ढल गई
आंसू अपनी राह चले आते हैं
सबने तुम बिन जीने का बहाना ढूंढ लिया है
धुल जाते हैं तुम्हारे कपड़े
नींद नहीं आती तुम्हारी खुशबू के बिना
खाली हो जाता है मेरा कमरा
झाड़ू में निकल जाते हैं
तुम्हारे फेंके अख़बार
बेड के नीचे लुढ़के चाय के कप
करीने से सज जाता है
किताबों का रैक
अलग अलग हो जाती हैं तेरी मेरी किताबें
सब कुछ अपनी अपनी सही जगह पहुँच जाता है...
तुम्हारी जगह कुछ बहुत ज्यादा खाली लगने लगती है...
07 August, 2009
अकेले हम...अकेले तुम...मेरा सामान हुआ गुम
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2S7XgVKBRGk90m3N02C1UrHt1pO5Om3UapN4_lhw6TEblNZTPaeow9fyTncSfxS0rx8XABOV7FO8j2YWgEKLNT_b_nLnoOFtx1wZoLF7p1FUOZ87FIBX1NHKkFYOLNEQclA0VHHw-4OVx/s320/cat-lonely.jpg)
मेरा क्या क्या चुप चाप ले गए हो
मुझे बिना बताये
३० दिन की हंसी...
हिसाब लगाओ तो, एक दिन का १० बार तो होता ही होगा
दिन में दो बार करीने से आइना देखना
अक्सर एक बार तुम्हें लिफ्ट देने के कारण
खर्च होता एक्स्ट्रा पेट्रोल
मोड़ पर तुम्हें ढूँढने वाले ५ मिनट
और तुम्हें देख कर १००० वाट से चमकने वाली आँखें
इन सबके बिना जी नहीं सकती मैं...सब भिजवा दो...
या खुद ही लेकर आ जाओ ना...
30 July, 2009
इंतज़ार और सही...
याद वाली सड़कें...जिनपर साथ चले थे
बेतरह तनहा सा लगता है वो मोड़
जहाँ हम मिलते थे हर रात
घर तक साथ जाने के लिए...
हमेशा मैं ही क्यों रह जाती हूँ अकेली
घर के कमरों में तुम्हें ढूंढते हुए
नासमझ उम्मीदों को झिड़की देती
दरवाजे पर बन्दनवार टाँकती हुयी
इंतज़ार के दिन गिनती हुयी
हमेशा मुझसे ही क्यों खफा होते हैं
चाँद, रात, सितारे...पूरी रात
अनदेखे सपनों में उनींदी रहती हूँ
नींद से मिन्नत करते बीत जाते हैं घंटे
सुबह भी उतनी ही दूर होती है जितने तुम
हमेशा तुमसे ही क्यों प्यार कर बैठती हूँ
सारे लम्हे...जब तुम होते हो
सारे लम्हे जब तुम नहीं होते हो
28 July, 2009
एक सबब जीने का...एक तलब मरने की...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJPgE1jeF5LwRqW0K0xYOChinrsnGpcZU044IWvJ4VJp_iPRsrjA9tV8IqD2gDt12sPhlDHFGQoBAAvJnE4N6_I53Pce_MTMgNECg51nVDIwX8tW5iNKsb2bsOscFbqPTg2WJ-xWeCmXGB/s200/71534817.jpg)
कुछ जवाबों का हमें ता उम्र इंतज़ार रहता है...खास तौर से उन जवाबों का जिनके सवाल हमने कभी पूछे नहीं, पर सवाल मौजूद जरूर थे...और बड़ी बेचारगी से अपने पूछे जाने की अर्जी लिए घूमते थे...और हम उससे भी ज्यादा बेदर्द होकर उनकी अर्जियों की तरफ़ देखते तक नहीं थे...
जिसे नफरत तोड़ नहीं सकती...उपेक्षा तोड़ देती है, नफरत में एक अजीब सा सुकून है, कहीं बहुत गहरे जुड़े होने का अहसास है, नफरत में लगभग प्यार जितना ही अपनापन होता है, बस देखने वाले के नज़रिए का फर्क होता है...
कुछ ऐसे जख्म होते हैं जिनका दर्द जिंदगी का हिस्सा बन जाता है...बेहद नुकीला, हर वक्त चुभता हुआ, ये दर्द जीने का अंदाज ही बदल देता है...एक दिन अचानक से ये दर्द ख़त्म हो जाए तो हम शायद सोचेंगे कि हम जो हैं उसमें इस दर्द का कितना बड़ा हिस्सा है...जिन रास्तों पर चल के हम आज किसी भी मोड़ पर रुके हैं, उसमें कितना कुछ इस दर्द के कारण है...इस दर्द के ठहराव के कारण कितने लोग आगे बढ़ गए...हमारी रफ़्तार से साथ बस वो चले जो हमारे अपने थे...इस दर्द में शरीक नहीं...पर उस राह के हमसफ़र जिसे इस दर्द ने हमारे लिए चुना था।
मर जाने के लिए एक वजह ही काफ़ी होती है...पर जिन्दा रहने के लिए कितनी सारी वजहों की जरूरत पड़ती है...कितने सारे बहाने ढूँढने पड़ते हैं...कितने लोगों को शरीक करना पड़ता है जिंदगी में, कितने सपने बुनने पड़ते हैं, कितने हादसों से उबरना पड़ता है और मुस्कुराना पड़ता है...
मौत उतनी खूबसूरत नहीं है जितनी कविताओं में दिखती है...
कविताओं में दिखने जैसी एक ही चीज़ है...इश्क...एक ही वजह जो शायद समझ आती है जीने की...प्यार वाकई इतना खूबसूरत है जितना कभी, कहीं पढ़ा था...और शायद उससे भी ज्यादा...
और तुम...बस तुम...वो छोटी सी वजह हो मेरे जीने की...
27 July, 2009
तुम जो गए हो...
खूबसूरत लगती है, ट्रेन की खिड़की
बाहर दौड़ते खेत, पेड़, मकानों से उठता धुआं
डूबते हुए सूरज के साथ रंगा आसमान...
तुम होते हो तो...
कुतर के खाती हूँ, बिस्कुट, या कोई टॉफी
आइस क्रीम जाड़ों में भी अच्छी लगती है
मीठी होती है तुम्हारे साथ पी गई काफ़ी...
तुम होते हो तो...
खुशी से पहनती हूँ ४ इंच की हील
१० मिनट में तैयार हो जाती हूँ साड़ी में
भारी नहीं लगती दो दर्जन चूड़ियाँ हाथों में
तुम जो गए हो तो...
अँधेरा लगा एअरपोर्ट से घर तक का पूरा रास्ता
स्याह था आसमान पर उड़ते बादलों का झुंड
शुष्क थी बालों को उलझाती शाम की हवा
तुम जो गए हो तो...
फीका पड़ गया है डेयरी मिल्क का स्वाद
अधखुला पड़ा है बिस्कुट का पैकेट
बनी हुयी चाय कप में डाल के पीना भूल गई
तुम जो गए हो तो...
तह कर के रख दी हैं मैंने सारी साड़ियाँ
उतार दी हैं खनकती चूड़ियाँ
निकाल ली है वही पुरानी जींस
तुम जो गए हो तो...
अधूरा हो गया है सब कुछ
आधी हँसी...आधी रोई आँखें
आधी जगह खाली हो गई है अलमारी में
तुम जो ले गए हो...
मुझको बाँध सात समंदर पार
आधी ही रह गई हूँ मैं यहाँ
अकेली से भी कम...एक से भी कम
तुम जो गए हो...
मुश्किल है...हँसना, खाना, रहना
तुम जो गए हो...
बहुत मुश्किल हो गया है...जीना
15 July, 2009
दरमयां
हमारे तुम्हारे...एक ख्वाब है...पलकों पर ठहरा हुआ
देखो ना, अरे...क्यों यूँ फूंक मार कर उड़ा रहे हो
क्या बच्चो की तरह इन पर यकीन करते हो
दरमयां
एक राज़ सा है...तुमसे छुपाया हुआ मैंने
इश्क के हद की गहराइयाँ भला बताते हैं किसी को
तो तुम्हें कैसे बता दूँ कितना प्यार है
दरमयां
कुछ शब्द हैं, कुछ कवितायें तुम्हारी
जो लिखते नहीं हो तुम और पढ़ती नहीं हूँ मैं
पर जानती हूँ मैं और ये जानते हो तुम
दरमयां
वक्त है, खामोशी है...हमारा होना है
फ़िर भी...दरमयां कुछ भी नहीं है...
क्योंकि होना तो हमेशा से है...और हम भी
03 July, 2009
पुरानो शेई दिनेर कोथा
|
रविन्द्र नाथ टैगोर का लिखा ये गीत यहाँ हेमंत मुखर्जी ने गाया है....
ये गीत बचपन की सोंधी यादों की तरह बेहद अजीज है मुझे। उस समय सीडी या कैसेट आसानी से नही मिलता था...और पापा को गानों का बहुत शौक़ था। तो उपाय एक ही था...हमारे पास दो टेप रिकॉर्डर थे...और उसमें से एक में हमेशा एक blank casette रहता था...cue किया हुआ, जब भी टीवी या रेडियो पर कुछ अच्छा आता, उसे हम रिकॉर्ड कर लेते.
देवघर, दुमका और झारखण्ड के कई प्रान्तों में बांगला संस्कृति की गहरी छाप है, मेरे पापा को भी बांग्ला से बड़ा लगाव है, और रबिन्द्र संगीत हमारे घर में बचपन से गूंजता रहा है। कई बार होता है कि किसी एक वक्त चेहरे धुंधले पड़ जाते हैं, पर आवाजें, या कुछ खुशबुयें हमेशा साथ रहती है।
इस गीत के साथ भी कुछ ऐसा ही है...एक भी बोल समझ में नहीं आता था, पर गाना इतना मधुर था कि इसकी धुन कितने दिन गुनगुनाती रहती थी। कई शामें याद आती हैं, सन्डे को पापा, मम्मी, जिमी और मैं, टेप रिकॉर्डर को घेर कर बैठे रहते थे और पापा चुन चुन कर कई सारे अच्छे गाने हमें सुनवाते थे। मम्मी अक्सर खाने को पकोड़ा या ऐसा ही कुछ बनाती थी...और अधिकतर ये वो शामें होती थीं जब बारिश होती रहती थी...क्योंकि उस वक्त हमारे पास हमारा प्यारा राजदूत हुआ करता था, और बारिश में बाहर जाना कैंसल हो जाता था।
तो उन सन्डे को हम दोपहर में regional वाली फिल्में देखते थे दूरदर्शन पर...और शाम को गाने सुनते थे। पकोड़े के साथ घर का बना हुआ सौस या फ़िर पुदीना की चटनी। घर में कुएं के पास पुदीना लगा हुआ था...और मम्मी फटाफट उसकी चटनी पीस देती थी...अलबत्ता हम भाई बहन लड़ते थे, कि तुम जाओ तोड़ने...और मैं चूँकि बड़ी थी तो आर्डर पास करने का हक मुझे था। अक्सर होता ये था कि खींचा तानी में दोनों को ही जाना पड़ता था।
कुर्सी पर बैठ कर हम अक्सर पाँव झुलाते रहते थे(उस वक्त छोटे थे हम तो पाँव नीचे नहीं पहुँचता था) और मम्मी से डांट खाते थे कि पाँव झुलाना अच्छी बात नहीं है। कैसेट की वो खिर खिर की आवाज, जैसे गाने का ही हिस्सा बन जाती थी। या फ़िर कई बार गाने के पहले वाले प्रोग्राम की आवाज। इसी तरह महाभारत के बीच में दो पंक्तियों का गीत आता था, वो भी रिकॉर्ड था। फ़िर कुछ सेरिअल्स में ऐसे ही गाने आते थे, जैसे नीम का पेड़, पलाश के फूल, और थोड़ा सा आसमान...इनके गीत कितने दिन सुने हम सबने।
अब कुछ भी पाना कितना आसान हो गया है बस गूगल करो और सब सामने...पर उस गीत को कैसे ढूंढें जिसके बोल ही मालूम नहीं हों...ये गीत बहुत दिन, बहुत से बांगला गीत सुनने के बाद आज मिला है। आज इसके बोल भी ढूंढ लिए मैंने...यादों की खिड़की से झांकती है एक शाम...और बादलों की गरज, सोंधी मिट्टी की महक, पकोडों के स्वाद के साथ पापा की आवाज जैसे पास में सुनाई देती है... जब पापा ये गाना गाते थे...कभी कभी.
वाकई पुराने दिन कहीं भुलाये जा सकते हैं...
Purano shei diner kotha
Bhulbi kii re
Hai o shei chokher dekha, praaner kotha
Shaykii bhola jaaye
Aaye aar ektibar aayre shokha
Praner majhe aaye mora
Shukher dukher kotha kobo
Praan jodabe tai
Mora bhorer bela phuul tulechi, dulechi dolaaye
Bajiye baanshi gaan geyechi bokuler tolai
Hai majhe holo chadachadi, gelem ke kothaye,
Abaar dekha jodi holo shokha, praner majhe aai
01 July, 2009
याद के दामन का लम्हा
रातों रातों आँखें गीली कर गया
उदास राहों में संग दोस्तों के
तुम्हें भूलने की वजहें तलाशती रही
कहानियों के दरमयान रह गए कोरे पन्ने
अनकहा लिखती रहती सुनती रही
कब से अजीब ख़्वाबों में उलझी हूँ
जिंदगी के मायने बिखर के खो गए हैं
दर्द यूँ टीसता है...जैसे मौत से बावस्ता है
और हम हैं की जख्म सहेजे हुए हैं
ऐसा नहीं कि कोई आस है तुमसे बाकी
हम उस लम्हे में ही अब तक ठहरे हुए हैं
19 June, 2009
विदाई
अरसा बीता घर के आँगन में खेले
शीशम से आती हवाएँ बुलाती हैं बहुत
झूले की डाली पर टंगी रह गई हैं कुछ कहानियाँ
उस मिट्टी में जड़ें गहराती हैं
माँ के साथ रोपे गए नारियल की
सुना है कि पानी बहुत मीठा है उसका
हर मौसम कई बार बिछा है फूलों का कालीन
मेरे कमरे को हर बीती शाम महका देती है कामिनी
मेरे कहीं नहीं होने के बावजूद भी
आम के मंजर मेरे ख्वाबों में आते हैं
बौरायी सी सुबह संग लिए
कोयल कूकती रहती है फ़िर सारा दिन
हर साल आता है रक्षाबंधन
बस भाई नहीं आता परदेस में मिलने
यादें आती हैं, घर भर में उसको दौड़ा देने वालीं
नहीं जागती हूँ अब भोर के साढ़े तीन बजे
पापा की लायी मिठाई खाने के लिए
नींद से उठ कर बिना मुंह धोये
घर से, शहर से....यादों के हर मंजर से
मेरी विदाई हो गई है...
15 June, 2009
चंद अल्फाज़...
13 June, 2009
किस्सा ऐ किताब...दिल्ली से बंगलोर
कितनी ही गुलज़ार की किताबें, कुछ दुष्यंत के संकलन और जाने कितने नामी गिरामी शायरों की किताबें खरीदते रहते थे...कहानियाँ भी बहुत पढ़ी थी यूँ ही खरीद कर। कई ऐसे भी शायरों के कलाम हाथ में आए जिनका कभी नाम भी नहीं सुना था पर पढने के बाद एक अजीब सा सुकून और अनजाना सा रिश्ता जुड़ते गया उनके साथ।
और देर शाम हरी घास पर बैठ कर जाने कितने सपने देखे...कितने सूरजों को डूबते देखा। मूंग की वादियाँ हरी चटनी के साथ खाएं...दोस्तों के साथ गप्पें मारीं... ६१५ पकड़ कर हॉस्टल आना बड़ा सुकून देता था, चाहे हाथ कितना भी दर्द कर जाएँ...किताबों का भारीपन कभी सालता नहीं था।
बंगलोर आने के बाद यही हिन्दी किताबें कहीं नहीं मिल रही थीं और हम अपना रोना सबके सामने रो चुके थे...फुरसतिया जी की एक पोस्ट पढ़ कर प्रकाशन के मेंबर बनने के बारे में भी सोच रहे थे, पर आलस के मारे apply ही नहीं किए। फ़िर ऑफिस में एक काम आया...बंगलोर के पुराने लैंडमार्क में एक है, गंगाराम बुक स्टोर, कहाँ कई पीढियां किताबें खरीदती और पढ़ती रही हैं। अब क्रॉसवर्ड और लैंडमार्क जैसी मॉल में खुले बड़े स्टोर्स के कारण गंगाराम जैसे पारंपरिक बुक स्टोर्स में कम लोग जाते हैं। और आजकल MG रोड पर मेट्रो का काम चल रहा है जो काफ़ी दिनों तक चलने वाला है...इस कारण स्टोर को कहीं और शिफ्ट करना होगा। हम इसी सिलसिले में काम कर रहे थे तो मैंने सोचा की एक बार जा के देख लिया जाए कैसी जगह है।
तो पिछले सन्डे हम abhiyaan par निकल पड़े, दिल में ये उम्मीद भी थी की शायद कहीं हिन्दी की किताबें मिल जायें...क्योंकि अगर यहाँ नहीं मिली तो पूरे बंगलोर में कहीं मिलने की उम्मीद नहीं है। शाम के पाँच बज रहे होंगे, पर स्टोर बंद था...शायद कुछ काम रहा हो शिफ्टिंग वगैरह का...ham बगल वाले bookstore में चले गये...higgin bothams naam ka store tha...कुछ कुछ कॉलेज लाइब्रेरी की याद आ रही थी वहां किताबें देख कर...
और हमें आख़िर वो मिल ही गया जो इतने दिनों से ढूंढ रहे थे बंगलोर में...एक रैक पर खूब सारी हिन्दी किताबें, मैंने बहुत सारी खरीद लीं...अब उनके पास जिनता है उसमें मेरे खरीदने लायक कुछ नहीं बहका है...पर मेरे ख्याल से अगर मेरे जैसी लड़की हर वीकएंड जा के परेशां करना शुरू कर दे तो वो अपने हिन्दी किताबों का संकलन भी बढाएँगे। तो देर किस बात की है...बंगलोर में जो भी हैं, higgin bothams पहुँच जाइए और हिन्दी की किताबें खरीद लीजिये...हमारे जैसे कुछ और खुराफाती लोग इकट्ठे हो जाएँ तो यहाँ आया हुआ हिन्दी किताबों का अकाल जरूर समाप्त हो जाएगा :)
हमें यकीं हो गया है ढूँढने से कुछ भी मिल सकता है :)
10 June, 2009
२६ कि उमर...१६ का दिल( काश ६२ कि अकल भी होती :) )
मैंने जाने कब तो तय कर लिया था...की २५ पर बचपन को अलविदा कह दूँगी...यूँ तो बचपन उसी दिन विदा हो गया था जब माँ छोड़ कर गई थी...पर आज जब मैं २६ साल की हो गई तो वाकई लगा कि अब बचपन विदा ले चुका है।
और आप मानें या न मानें, हमें लगता है कि हम अब थोड़े ज्ञानी हो गए हैं :) (सुबह ताऊ की पोस्ट भी तो पढ़ी थी)।
जिंदगी बहुत कुछ सिखा देती है और मुझे लगता है कि जब से ब्लॉग पर लिखना और पढ़ना नियमित किया है, बहुत कुछ जानने सीखने को मिला है। ब्लॉग अक्सर लोग दिल से लिखते हैं, बिना काट छाँट के इसलिए ब्लॉग पढ़ना बिना किसी को जाने एक रिश्ता कायम करने जैसा है...आप किसी की खुशी, गम, जन्मदिन, बरसी सबमें शामिल होते हैं...कोई आपको अपना समझ कर लिखता है...आभासी ही सही, पर ब्लॉग के लोग भी परिवार जैसे हो जाते हैं। मैं कुछ ही लोगों से बात करती हूँ...पर रिश्ता तो उन सबसे है जिनका ब्लॉग मैं पढ़ती हूँ, या वो मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं।
जिंदगी में ज्यादा जोड़ घटाव नहीं किया, लगा कि यही सब करती रही तो जीने का वक्त कहाँ मिलेगा...पर आँखें बंद कर के जिंदगी के कुछ बेहतरीन लम्हों को यार करती हूँ तो लगता है...मैंने जिंदगी जी है और बेहद खूबसूरती से जी है। शिकायत है तो बस खुदा से, बस इतनी छोटी सी शिकायत कि मेरे साथ मेरी खुशियों में मेरी माँ क्यों नहीं है...अभी जब मेरी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दौर शुरू हुआ है तो लगता है कि अपनी खुशियों को बाँटने के लिए उसको होना चाहिए था मेरे साथ।
पाने खोने का अजीब गणित होता है भगवान् का...इसके पचड़े में पढ़ने से कोई फायदा नहीं है...पिछले साल कुछ लोगों से फ़ोन पर बात हुयी मेरी, गाहे बगाहे होती भी रहती है, जैसे पीडी, कुश, डॉक्टर अनुराग, अपने फुरसतिया जी, ताऊ...और कुछ बेहतरीन लोगों से बात हुयी मेल पर...बेजी, सुब्रमनियम जी, गौतम जी, महेन जी...लगा कि अपने जैसे लोगों का दायरा उतना भी छोटा नहीं है जितना मैं हमेशा समझती आई थी। लम्हों के इस सफर में अगर घड़ी भर को भी कुछ दिल को छू जाता है तो अक्सर घंटों तक होठों पर मुस्कराहट रहती है। आप सब का शुक्रिया...कहीं न कहीं आपको पढ़कर, समझ कर जिंदगी थोड़ी आसान और खूबसूरत महसूस हुयी है।
सुबह आँखें खोली मैंने
आसमान रंगों से लिख रहा था
जन्मदिन मुबारक...
हवायें गुनगुना रही थीं
सूरज थिरक रहा था उनकी धुन पर
खिड़की पर खड़ा था एक बादल
बाहर घूमने की गुज़ारिश लिए
इतरा के ओढ़ा मैंने
खुशबू में भीगा दुपट्टा
हाथों में पहनी इन्द्रधनुषी चूड़ियाँ
बालों को छोड़ दिया ऐसे ही बेलौस
ऑफिस वाले खींच कर
ले गए पार्टी मनाने
काम को बंक मारा
(भगवान् ऐसा बॉस सबको दे ;) )
तभी खिड़की से आया
कुश का बधाइयों का टोकरा
और अनुराग जी का भेजा बादल
दोनों के कहा...बाहर घूम के आओ
प्लान बन गया शाम को
लॉन्ग ड्राइव पर जाने का
थोड़ी आइसक्रीम, थोड़ा भुट्टा खाने का
और थोड़ा ज्यादा वक्त 'उनके' साथ बिताने का
२६ की उमर में आँखें ऐसे चमक रही है
जैसे १६ में चमकती थी
जिंदगी ने देखा मुस्कान को
काला टीका लगा के कहा "चश्मे बद्दूर"
07 June, 2009
ऐसा भी एक दिन ऑफिस का...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBWc0jFxtMdS8Rl5eWXu6673pZ4jou4LrEOyNZIyF2elX65p35IN3iqCAcAeyhx4BQD83O7acQ0dTDPwMTmwrjtkM-j1ODaAzKwx43ff1AIuwoD7R3PjgFXm7tS9cr7V58wB_wUBrhr42s/s200/billi.jpg)
कमबख्त बादल
यादों का एक गट्ठर फेंक कर चल दिया है
मेरी ऑफिस टेबल पर
रिसने लगा है किसी शाम का भीगा आसमान
अफरा तफरी मच गई है
बिखरे हुए कागज़ातों में
डेडलाईनें हंटर लिए हड़का रही हैं
कुछ नज्में सहम कर कोने में खड़ी हैं
डस्टबिन ढक्कन की ओट से झांक रहा है
कम्प्यूटर भी आज बगावत के मूड में हैं
एक तस्वीर पर हैंग कर गया है
कलम-कॉपी काना फूसी कर रहे हैं
तभी अचानक खुल गई गाँठ
कितनी जिद्दी यादें भागा-दौड़ी करने लगीं
पूरा ऑफिस सर पर उठा लिया
मेरी यादों की हमशक्लें
सबकी दराजों में बंद थीं
सारी यादें हँसने लगी हैं बचपन वाली हँसी
एक क्षण में बाहर आ गया है
हमारे अन्दर का शैतान बच्चा
और हम सबने मिलकर...ऑफिस बंक कर दिया :)
04 June, 2009
इश्क की उम्र...
सदियों पुराने खंडहरों में
अक्सर अपनी रूह के हिस्से मिल जाते हैं
दीवारों में चिने हुए, चट्टानों पर खुदे हुए
कब के बिसराए हुए गीत
हवा की सरसराहट पर चले आते हैं
और धूल के गुबार में थिरकने लगते हैं
उभरने लगते हैं कुछ पुराने रंग
यादों को छेड़ते हैं अनजान चेहरे
टीसने लगता है जाने किस जन्म का इश्क
उजाड़ मंदिरों में होने लगता है शंखनाद
याद आने लगती हैं दुआएँ मज़ारों पर
साथ बैठा महसूस होता है इश्वर सा कोई
महसूस करती हूँ कि एक जिंदगी से
कहीं ज्यादा होती है इश्क की उम्र
तुमसे बिछड़ने का दर्द कुछ कम हो जाता है
30 May, 2009
शुक्रिया जिंदगी
आजकल तुमपर इतना प्यार आता है कि कुछ लिख ही नहीं पाती...काश तुम्हारी मुस्कान थोड़ी कम दिलकश होती, गालों पर पड़ते ये खूबसूरत गड्ढे नज़र नहीं आते, आँखें यूँ शरारत से नहीं मुस्कुरातीं
हर सुबह ऑफिस जाना कितना मुश्किल हो जाता है जब तुम्हें उनींदा सा दरवाजे पर देखती हूँ...बिना सुबह की चाय पिए तुम्हारी आँखें ही नहीं खुलतीं...मेरा भी आधा घंटा और सोने का मन करने लगता है
और वो कमबख्त लिफ्ट...इतनी जल्दी क्यों आ जाती है....वक्त थोड़ा धीरे क्यों नहीं बीतता सुबह
__________________________
घर का ताला खोलकर अंधेरे घर में कदम रखना, ट्यूब जलना...जो भुक भुक करके कितनी तो देर में जलती है, मुझे कभी भी बल्ब जलने का मन क्यों नहीं करता...वो खूबसूरत झूमर जो हॉल में लगा hai कभी तो उसकी बत्ती जलाऊं, बिजली बचने की चाह कभी उतने सारे बल्ब जलाने ही नहीं देती। तुम कैसे इतने आराम से आते ही सीधे झूमर ऑन कर देते हो...जब भी तुम्हारे बाद घर आती हूँ तो लगता है किसी परियों वाले महल में आ गई हूँ।तुम्हारे साथ खाना खाना कितना अच्छा लगता है...और तुम हो भी इतने अच्छे कि कुछ भी बनाऊं उतनी ही खुशी से खाते हो, वो भी तारीफ़ कर कर के। साथ खाने से प्यार बढ़ता है...ऐसा भी लोग कहते हैं
बस तुम्हारे होने भर से, जिंदगी कितनी खूबसूरत हो गई है...कितने रंग, कितनी खुशबुयें और कितने ख्वाब...
मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ...मेरी जिंदगी में यूँ ही चले आने का शुक्रिया
26 May, 2009
किस्सा ऐ लेट रजिस्टर: भाग २
जैसा कि आप सब लोग जानते हैं, भारत एक स्वतंत्र देश है, हमारे संविधान में लिखा है कि हम पूरे भारत में कहीं भी नौकरी कर सकते हैं, घर खरीद सकते हैं, शादी कर सकते हैं(गनीमत है, वरना भाग के शादी करने वाले कहाँ भागते...खैर!)। किसी भी राज्य से दूसरे राज्य में जाने के लिए कोई रोक टोक नहीं है(हम बिहार बंद या भारत बंद की बात नहीं कर रहे हैं)। इतने सारे अधिकार होने कि बात पर हम बहुत खुश हो जाते हैं, बचपन से हो रहे हैं सिविक्स की किताब में पढ़ पढ़ कर।
खैर, मुद्दे पर आते हैं...इतना सब होने के बावजूद...हमारे अधिकारों को चुनौती देता है हमारा नेता, जी हाँ यही नेता जिसे हम घंटों धूप में खड़े होकर वोट देकर जिताते हैं। और अगर मैं ऑफिस देर से पहुँची...और मेरे तनखा कटी, तो इसी नेता से माँगना चाहिए...नेताजी मुझ गरीब को और भी कम पैसे मिलेंगे, क्या आपका ह्रदय नहीं पसीजता...क्या आपकी आत्मा क्रंदन नहीं करती(भारी शब्द जान के इस्तेमाल किए हैं, दिल को तसल्ली पहुंचे कि नेताजी हमारे भाषण को समझ नहीं पाये)
जैसा कि आप पहले से जानते हैं...मेरा ऑफिस घर से साढ़े तीन मिनट की दूरी पर है...मैं तकरीबन १० मिनट पहले निकलती हूँ...कि टाईम पर पहुँच जाऊं। कल और आज मैं बिफोर टाइम निकली क्योंकि सोमवार को भीड़ ज्यादा होती है इसका अंदाजा था मुझे। तो भैय्या कल तो हम बड़े मजे से फुर फुर करते फ्ल्योवर पर पहुँच गए...आधे दूरी पर देखा कि लंबा जाम लगा हुआ है। और अगर आप फ्ल्योवर के बीच में अटके हैं तो आपका कुछ नहीं हो सकता...अरे भाई उड़ के थोड़े न पहुँच जायेंगे, अटके रहो, लटके रहो। monday कि सुबह का हैप्पी हैप्पी गाना दिमाग से निकल गया...और मैथ के जोड़ घटाव में लग गए...पहुंचेंगे कि नहीं। एकदम आखिरी मिनट में ऑफिस पहुंचे और मुए लेट रजिस्टर कि शकल देखने से बच गए।
जी भर के भगवान् को गरिया रहे थे, कि जाम लगना ही था तो पहले लगते, किसी शोर्टकट से पहुँच जाते हम..ई तो भारी बदमासी है कि बीच पुलवा में जाम लगाय दिए...भगवान हैं तो क्या कुच्छो करेंगे...गजब बेईमानी है. और उसपर से बात इ थी कि हमारी गाड़ी में पेट्रोल बहुत कम था, क्या कहें एकदम्मे नहीं था...बहुत ज्यादा चांस था कि रास्ते में बंद हो जाए। उसपर जाम, उ भी पुल पर, डर के मरे हालत ख़राब था कि इ जाम में अगर गाड़ी बंद हुयी तो सच्ची में सब लोग गाड़ी समेत हमको उठा के नीचे फ़ेंक देंगे।
लेकिन हम टाइम पर पहुंचे, पेट्रोल भी ख़तम नहीं हुआ tab भी भगवान को गरिया रहे थे, तो बस भगवान् आ गए खुन्नस में...आज भोरे भोरे १०० feet road पर ऐसा जाम लगा था कि आधा घंटा लगा ऑफिस पहुँचने में...जैसे टाटा ने nano बनाई कि हर गरीब आदमी अब कार में चल सकता है, ऐसे ही कोई कंपनी हिम्मत करे और सस्ते में छोटा हेलीकॉप्टर दिलवाए. पुल पे अटके बस बटन दबाया और उड़ लिए आराम से। भले ही समीरजी की उड़नतश्तरी को इनिशियल ऐडवान्टेज मिले पर हम आम इंसानों का भी उद्धार हो जाएगा.
और मैंने लिखा की बड़ाsssss सा ट्रैफिक जाम था, इसलिए लेट हो गया...आज की तनखा कटी तो नेताजी पर केस ठोक देंगे और ढूंढ ढांढ के बाकी लोगों के भी साइन करा लेंगे जो नेताजी के कारण देर से पहुंचे. मामला बहुत गंभीर है, और इसपर घनघोर विचार विमर्श की आवश्यकता है. नेताओं का कहीं भी निकलना सुबह आठ बजे से ११ बजे तक वर्जित होना चाहिए. इसलिए लिए हमें एकमत होना होगा...भाइयों और बहनों, मेरा साथ दीजिये, और बंगलोर में जिन लोगों को आज ऑफिस में इस नेता के कारण देर हुयी, मुझे बताइए. जब मैं केस ठोकुंगी तो आपका साइन लेने भी आउंगी.
मेरी आज की तनखा अगर नहीं कटी...तो मैं उसे किसी गरीब नेता को दान करने का प्रण लेती हूँ.
24 May, 2009
उस खिड़की के परदे से...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs7eHCw-38AHuBHQ869_tIyHYmVq5KG5rHMrlykR9-fzRB7AFidwN7lZwHWSLQkXKYHAmL1QNtJrNpciWnCGkFZNvYpq7SQOlBLT_6SIJcO33z7lJVNy4yiqQf1GgAl0sR3dh3Wq1qofNX/s200/little+girl.jpg)
वो सारी शामें जब तुम मेरी गली से गुजरे थे
रातों को मेरे कमरे में पूरा चाँद निकलता था
तुमको मालूम नहीं हुआ कभी भी लेकिन
उस खिड़की के परदे से तुम जितना ही रिश्ता था
तुमसे बातें करती थी तो हफ्तों गजलें सुनती थी
हर शेर के मायने में अपना आलम ही दिखता था
वो सड़कें मेरे साथ चली आयीं हर शहर
जिस मोड़ पर रुकी इंतज़ार तेरा ही रहता था
जाने तू अब कितना बदल गया होगा
मेरी यादों में तो हमेशा नया सा लगता था
23 May, 2009
वट सावित्री की कुछ यादें
बिहार/झारखण्ड के लोग वट सावित्री व्रत के बारे में जानते होंगे। ये व्रत पत्नियों द्वारा पति की लम्बी उम्र के लिए रखा जाता है, दिन भर निराहार और निर्जला रहकर अगली सुबह वट वृक्ष यानि बरगद की पूजा करने जाती हैं। इसे पारण कहते हैं, मेरा जन्म वट सावित्री के पारण के दिन हुआ था।
बचपन से इस व्रत ने बहुत आकर्षित किया है, कारण वही जो हर बच्चे का कमोबेश एक सा ही होता होगा..प्रशाद। व्रत के लिए घर में पिरकिया और ठेकुआ बनता है...पिरकिया गुझिया टाईप की एक मिठाई होती है बस इसे चाशनी में नहीं डालते, और ठेकुआ आटे में चीनी/गुड़, घी, मेवा आदि डाल कर बनाया जाता है। यह प्रशाद पूजा के एक दिन पहले बना लेती थी मम्मी और रथ के बड़े वाले डब्बे में रख देती थी...वो नीले रंग के डब्बे जिनमे सफ़ेद ढक्कन होता था, उनपर अखबार रखकर कास के बंद कर दिया जाता था, एक दिन बाद खुलने के लिए।
पिरकिया बनाना भी एक अच्छा खासा आयोजन होता था, जिसमें अक्सर आस पड़ोस के लोग मिल कर काम करते थे...हम बच्चों का किचन में जाना बंद हो जाता था, हम किचन की देहरी पर खड़े देखते रहते थे। डांट भी खाते थे की क्या बिल्ली की तरह घुर फ़िर कर रहे हो, प्रशाद है...अभी नहीं मिलेगा। पर अगर छानते हुए कोई पिरकिया या ठेकुआ गिर गया तो वो अपवित्र हो जाता था और उसको भोग में नहीं डाल सकते थे। ये गिरा हुआ पिरकिया ही हमारे ध्यान का केन्द्र होता था...और हम मानते रहते थे की खूब सारा गिर जाए, ताकि हमें खाने को मिले।
फ़िर थोड़े बड़े हुए तो मम्मी का हाथ बंटाने लगे, अच्छी बेटी की तरह...पिरकिया को गूंथना पड़ता है। हर साल मैं बहुत अच्छा गूंथती और हर साल मम्मी कहती अरे वाह तुम तो हमसे भी अच्छा गूंथने लगी है...हम कहते थे की मम्मी हर साल अच्छा गूंथते हैं, तुमको हर साल आश्चर्य कैसे होता है। पर बड़ा मज़ा आता था, सबसे सुंदर पिरकिया बनाने में।
अगली सुबह मुहल्ले की सभी अंटियाँ एक साथ ही जाती थीं, हम बच्चे हरकारा लगते थे सबके यहाँ...और सब मिलकर बरगद के पेड़ तक पहुँच जाते थे। जाने का सबसे बड़ा फायदा था की instant प्रशाद मिलता था...और वो भी खूब सारा। प्रायः प्रसाद में लीची मेरा पसंदीदा फल हुआ करता था, तो मैं ढूंढ कर लीची ही लेती थी।
बरगद के पेड़ के फेरे लगा कर उसमें कच्चा सूत बांधती थीं और फ़िर पूरी पलटन घर वापस...और फ़िर खुलता था पिरकिया का डब्बा । मुझे याद नहीं मैंने किसी बरसैत में खाना भी खाया हो, प्रशाद से ही पेट भर जाता था। वैसे उस दिन पापा खाना बनाते थे, कढ़ी चावल और मम्मी के लिए पकोड़े भी बनाते थे. ये एक अलग आयोजन होता था, क्योंकि पापा साल में बस दो बार ही किचन जाते थे, एक तीज और दूसरा वाट सावित्री यानि बरसैत के दिन.
आज सुबह एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी ५ जून को मानव श्रृंखला बन रही हैं बंगलोर में, पेड़ बचाओ, धरती बचाओ अभियान. अजीब विडंबना है...क्या ऐसी कोई भी मानव श्रृंखला मन को उस तरह से छू पाएगी जैसे हमारे त्यौहार छूते हैं. जरूरत है कुछ ऐसा करने की जो जनमानस में बस जाए...लोकगीतों की तरह, नृत्य और संगीत की . मगर हम कुछ कर सकते!
एक कल हमें कोई अपने घर बुला के पिराकिया ठेकुआ खिला दे...हम हैप्पी हो जायेंगे.