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23 July, 2013

शिप ऑफ़ थीसियस

मुझे फिल्म ख़त्म होने के बाद की कास्टिंग के सारे टाइटल्स तक रुकना अच्छा लगता है. कल की फिल्म 'शिप ऑफ़ थीसियस' देखने के बाद भी सारे टाइटल्स तक रुकी रही. हॉल से बाहर आते हुए मन ऐसा भरा भरा सा था कि कुछ देर एकदम चुप रहने का मन था. इतना कुछ था कहने को कि समझ नहीं आ रहा था कि शुरुआत कहाँ से करूँ. मगर मालूम था कि इस फिल्म के बारे में लिखना पड़ेगा.
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Ship of Theseus के बारे में मालूम चला, IIMC के सहपाठी अंकुर ने इस पन्ने को लाईक करने का लिंक भेजा था. ट्रेलर देखते हुए फिल्म के बारे में एक गहरी उत्सुकता बन गयी थी. वीकेंड में व्यस्त थी तो नहीं देख पायी. कल मंडे होते हुए भी रात का शो देखने की ललक थी. ऑनलाइन कटाने की कोशिश की तो पीवीआर हाउसफुल. फिर बुकमायशो से टिकट कटाई. कुणाल व्यस्त था तो सोचा अकेली चली जाऊं, फिर नेहा से पूछा, वो फ्री थी तो उसके साथ चली गयी.

फिल्म में कुछ छूट न जाए इसलिए बिफोर टाईम पहुंचे, जो कि एक तरह का रिकोर्ड ही है. पोपकोर्न और कोल्ड ड्रिंक लेकर अन्दर गए तो अचरज से भर गए. पीवीआर कोरमंगला में मंडे को रात का शो वाकई हाउसफुल था. बंगलौर जैसे शहर में जहाँ भागते दौड़ते फुर्सत नहीं मिलती, कितने सारे लोग इस फिल्म को देखने आये थे.
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फिल्म का टाइटल शिप ऑफ़ थीसियस नाम की कहानी पर है. एक शिप होता है, जैसे जैसे उसके पुर्जे ख़राब होते जाते हैं, एक एक करके उसके सारे पुर्जे, लकड़ियाँ, खम्बे, सब कुछ बदल दिया जाता है. एक वक़्त में शिप में पुराने शिप का कोई पुर्जा भी नहीं होता. शिप के ख़राब हुए पुराने पुर्जों को जोड़ कर एक शिप बना दिया जाए, तो इन दोनों में असली शिप ऑफ़ थीसियस कौन सा होगा.

फिल्म में तीन कहानियां हैं. पहली एक फोटोग्राफर की कहानी है जो बचपन में आँखों के कोर्निया इन्फेक्शन के कारण देख नहीं सकती. उसके पास एक कैमरा है जो आसपास की चीज़ों के बारे में बोल कर बताता है. वो सुन कर, महसूस कर के तसवीरें खींचती हैं. उसका पार्टनर/बॉयफ्रेंड भी उसे उसकी खींची हुयी तस्वीरों के बारे में डिटेल में बताता है. दोनों में इस बात पर बहस होती है कि अच्छी तस्वीर कौन सी है, लड़की का कहना है वो तस्वीर जो मैंने सुन कर महसूस कर के खींची है...इत्तिफाक से खींची गयी अच्छी तस्वीर भी वो अपने कलेक्शन में नहीं रखना चाहती. उसे सिर्फ वो चीज़ें रखनी हैं जिन्हें उसने खुद कम्पोज किया है, जिस कहानी को वो कहना चाहती है. ये उसका अंतिम निर्णय है कि कौन सी तस्वीर रखी जाए और कौन सी नहीं.

फिल्म का ये सीन किचन में फिल्माया गया है. मुझे याद करने पर भी याद नहीं आता कि किसी आखिरी फिल्म में इस बात पर बहस कब देखी थी कि व्हाट इज आर्ट. कि हर एक का नजरिया अलग होता है. एक आर्टिस्ट लोगों के लिए, उनके हिसाब से नहीं रच सकता...वो इसलिए रचता है कि उसे अपना कुछ कहना होता है. वरना क्या फर्क पड़ता है. फिल्म का ये सेगमेंट मेरे लिए सबसे रियल था. सवाल जैसे मेरे सवाल थे. बैकग्राउंड स्कोर में सन्नाटे का बेहतरीन इस्तेमाल था.

फिल्म की दूसरी कहानी एक जैन साधू की है. सिनेमैटोग्राफी के लिहाज़ से ये मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा है. बारिश भीगता मुंबई हो या विंडमिल के खेतों में गुज़रती साधुओं की छोटी टोली. इसमें सवाल इतने सारे और फिलोसफी इतनी गहरी कि कई बार तो लगता था कितना कुछ मिस कर गए. फिल्म को स्लो मोशन में देखने का दिल करता था.

फिल्म का तीसरा हिस्सा एक व्यक्ति के बारे में है जिसने किडनी का ओपरेशन करवाया है. इसमें मेरा पसंदीदा हिस्सा है जहाँ वो अपनी नानी से बात कर रहा होता है. नानी का कहना है जिंदगी में इतना कुछ देखने को है, इतना कुछ करने को है, तुम एक आम सी जिंदगी कैसे जी सकते हो. जवाब है कि मुझे नहीं चाहिए इतनी सारी चीज़ें. मैं अच्छा कमाता खाता हूँ, लोग मेरी इज्ज़त करते हैं, अ लिटिल ह्युमनिटी...और क्या चाहिए इंसान को. मुझे वाकई सिर्फ इतना ही चाहिए.
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फिल्म देख कर गर्व की अनुभूति होती है. हालाँकि इसे किसी कैटेगरी में नहीं डाल सकते लेकिन मिनिमलिस्ट फिल्म है. इसकी रफ़्तार कभी धीमी तो कभी बहुत तेज़ है. बहुत सारे डायलॉग नहीं हैं पर जो हैं बेहतरीन हैं. फिल्म आपको पासिव ऑब्जर्वर नहीं, अपना हिस्सा बनाती है, अपने द्वन्द, ड्यूअलिटी का हिस्सा. जहाँ आप दोनों पक्ष देखते हैं.

फिल्म देख कर लगता है कि भारतीय सिनेमा एक युग आगे जा चुका है. अपने देश में ऐसी फिल्म बन भी सकती है यकीन नहीं होता. इसके सारे सरोकार भारतीय हैं, कुछ ऐसा जो कहीं और, किसी और देश में नहीं बन सकता था. मालूम नहीं चलता कि फिल्म कहाँ से आपकी अपनी हो जाती है, महज दर्शक होने से...आप फिल्म का हिस्सा हो जाते हैं. फिल्म आज के दौर की है मगर इसके सवाल हर दौर में उतने ही महत्वपूर्ण रहेंगे. फिल्म काल-क्षय से परे है. शिप ऑफ़ थीसियस की तरह, फिल्म के कई पुर्जे उन सारे लोगों में लग गए हैं जिन्होंने इस फिल्म को देखा है. जब तक ये लोग रहेंगे, शिप ऑफ़ थीसियस विस्मृत नहीं होगा.

अगर आपको फिल्में पसंद हैं और शिप ऑफ़ थीसियस आपके शहर में लगी है तो आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. बड़ा पर्दा इन्ही चीज़ों के लिए अस्तित्व में आया है. जिंदगी की सूक्ष्म विशालताओं के लिए.

फिल्म को पांच में से साढ़े पांच स्टार्स.
Rating 5.5 out of 5 stars.

Ship of Theseus - Trailer


04 March, 2013

तुम्हारे कमरे के परदे किस रंग के हैं?

एक जिंदगी में हम अनगिन फिल्मों से गुज़रते हैं...उनमें से कुछ हमारे अन्दर घर कर लेती हैं. कुछ दृश्य हैं जो कभी कहीं नहीं जाते.

डेज़ ऑफ़ बीईंग वाइल्ड का ये सीन कुछ उन भूले हुए चेहरों की तरह है जो आपका ताउम्र पीछा करते हैं.
लड़की जरूर उससे बेपनाह इश्क करती होगी...उसे ढूंढते हुए उसके मकान पर पहुँचती है. लड़के की माँ को मालूम नहीं कि वो उसे कब देख पाएगी, देख पाएगी भी या नहीं...और वो कल घर छोड़ कर जा रही है.

लड़की की आखिरी इल्तिजा है...'क्या मैं आपका घर देख सकती हूँ?' पहली स्मृतियों के एक धीमे कोलाज की तरह घर आपकी नज़रों से गुज़रता है और अपनी सारी डिटेल्स के साथ जड़ें  जमाता जाता है दिल के इर्द गिर्द. आप घर की खूबसूरती, रौशनी की नाज़ुकी, तस्वीरों के चेहरों को खुद में बसाते जाते हैं...आपको लगता है कि लड़की के दिल में भी कुछ उम्मीदों की कोपलें खिल रही होंगी...ट्रैफिक का शोर है...दूर शायद कोई ट्रेन गुज़र रही है. लड़की कहती है 'वो मुझे हमेशा घर की सीढ़ियों के नीचे इंतज़ार करने को कहता था. मैं बेहद उत्सुक थी ये जानने के लिए कि उसका घर कैसा दीखता है. ये किसी भी दूसरे घर की तरह दिखता है'.

इश्क का ये ख़ास से आम हो जाना मुझे जाने कैसे तो बेतरह तोड़ता है...ये सीन मेरे दिमाग से उतरता ही नहीं...रंगता रहता है कितने नए अर्थ. बुनता रहता है कितने पुराने नाम...खोजता है कोई अद्भुत चीज़. मैं जैसे बिलख बिलख कर रोती हूँ...चुप...बेआवाज़. फिल्म का दूसरा दृश्य शुरू होता है...जिसमें एक फोन बूथ है...एक फोन है...पूरी रात बजता रहता है...जब कि उस फोन को उठाने वाले की पोस्टिंग कहीं और हो चुकी है...सालों इंतज़ार करके उसने अपनी पोस्टिंग कहीं और करा ली है.
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जब हमें लगता है कि कोई खो गया है...ये भी तो हो सकता है वो आपको किसी ऐसी राह पर तलाश रहा हो जहाँ जाने का कोई वादा न था..दो अलग अलग आसमानों के नीचे...किसी दूसरे समय में...


02 May, 2012

गुरुदत्त- चिट्ठियों के झरोखे से

गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब...Yours Guru Dutt, Intimate letters of a great Indian film maker by Nasreen Munni Kabir...से उनकी एक चिट्ठी का कच्चा-पक्का अनुवाद कर रही हूँ. मैंने कभी भी अनुवाद नहीं किया है इसलिए सुधार की गुंजाईश होगी. 

गुरुदत्त की इस किताब में कुल ३७ चिट्ठियां हैं जो उन्होंने गीता दत्त और अपने बेटों तरुण और अरुण को लिखी हैं. गीता दत्त की जवाबी चिट्ठियां बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिलीं हैं. गुरुदत्त चिट्ठियां पढ़ने के बाद उन्हें नष्ट कर देते थे. (ऐसा एक जगह जिक्र आया है). 

इन सारी चिट्ठियों में प्रमुखतः तीन बातें स्पष्ट होती हैं...पहली गीता दत्त के प्रति उनका अगाध प्रेम...उन्होंने हर खत में बार बार इस बात का जिक्र किया है कि वो गीता से कितना प्यार करते हैं. दूसरी...उनके काम को लेकर उनकी दीवानगी...और तीसरी एक विरक्त भाव...एक अमिट प्यास...एक तलाश, एक बेचैन खोज. 

 २१ अगस्त १९५१ को गीता को लिखी एक चिट्ठी में वो कहते हैं...'मुझे सिर्फ दो चीज़ें प्यारी हैं, एक मेरा काम और दूसरी तुम. लेकिन काम करने में जो तसल्ली मिलती है वो तसल्ली तुम मुझे नहीं दे रही हो. बस इसलिए शायद मैं शायद(sic) unhappy हूँ.' 

गुरुदत्त की चिट्ठियों में कई बार इस बात का भी जिक्र आता है कि जब मैं नहीं रहूँगा तब शायद तुम्हें अहसास हो कि मैं तुमसे कितना प्यार करता था. जुलाई १९५८ को कलकत्ता से लिखी एक चिट्ठी में वो कहते हैं...
'जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरी जिंदगी में सब कुछ वक्त से पहले हुआ. जिंदगी में मेरी शुरुआत पहले हुयी...नौकरी...काम करना जल्दी शुरू किया...पहली फिल्म काफी जल्दी बनायी...और कामियाबी भी जल्दी हासिल हुयी...पर मुझे लगता है...मैं बूढा हो रहा हूँ. मैंने जिंदगी में इतना कुछ देखा है...मुझे लगता है बहुत कम सालों में ही मैं बूढा हो गया हूँ! मुझे नहीं मालूम...
और क्या लिखूं...मैं जल्द से जल्द आने की कोशिश करूँगा पर बेहतर होगा कि मैं पहले अपना काम खत्म कर लूं. 
डार्लिंग, जो भी हो, हमेशा याद रखना कि तुम मेरा हिस्सा हो और हमेशा मेरा हिस्सा रहोगी. शायद तुम नहीं जानती कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ. शायद तुम जान नहीं पाओगी कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ. शायद- जब मैं नहीं रहूँगा- तब तुम जान पाओगी. '

खतों में छोटी छोटी काम की चीज़ें लिखी हैं...उनके शहरों के ब्योरे हैं...गीता और बच्चों को बार बार मिस करने की बातें हैं और अनगिन चीज़ों के बीच उनकी अपनी परेशानियां लिखी हैं. इन चिट्ठियों को पढ़ना उन्हें बिना किसी परदे के जानना है...

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मुझे लगता है तुम अभी से मुझसे ऊब गयी हो. मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ- मेरे पास कुछ भी नहीं है. तुम एक ऐसे विचित्र मूर्ख से प्यार करती हो जो ख्वाबों की दुनिया में रहता है- और कभी कभी उसे ख्वाब और वास्तविकता के बीच का अंतर ज्ञात नहीं रहता. और एक दिन तुम मुझसे इस कदर परेशान हो जाओगी कि बेहतर होगा कि तुम मुझसे फिर कभी न मिलो. 

मैं कभी कभी सोचता हूँ कि अच्छा होता अगर मैं पैदा नहीं हुआ होता या फिर मैं सोचता हूँ कि काश मैं मर गया होता या कि मैं वो नहीं होता जो मैं हूँ और मैं नहीं जानता तुम्हें. जिंदगी एक मूर्खतापूर्ण जद्दोजहद है- इसके अंत में भी शांति नहीं मिलती. मैं तुम्हें चाहता हूँ- तुम मुझे नहीं मिलती. तुम मिलती हो तब भी मुझे खुशी नहीं मिलती. मैं एक पागल की तरह उस सुकून की तलाश में दर ब दर भटकता रहता हूँ जो मुझे कहीं नहीं मिलता. मुझे लगता है मेरे जैसे इंसान का मर जाना ही बेहतर है. कुछ यूँ मर जाऊं कि फिर कभी इस मानसिक स्थिति के साथ पैदा न होना पड़े.
तुम सब लोग मुझसे बिलकुल अलग हो. मुझे तुम लोगों की तरह आसानी से खुशियाँ नहीं मिलतीं. इसके अतिरिक्त. तुम सब अच्छे हो. मेरे लिए ऐसा कुछ भी नहीं बचा है जो मुझे बाँध सके.

तुम इसे पढ़ कर शायद मेरे मानसिक संतुलन पर और भी ज्यादा शक करोगी.

अगर तुम्हें वक्त मिले तो अपने इस पागल प्रेमी को आकर देख लो. काश कि तुम्हें किसी बेहतर व्यक्ति से प्यार हुआ होता जो तुम्हारे लायक होता. काश कि मैं जैसा हूँ उससे बेहतर इंसान हो सकता. मैं किसी के काम का नहीं हूँ. न मैं तुम्हें खुश रख सकता हूँ, न अपने परिवार को, न अपने दोस्तों को...ऐसा जीवन का कोई फायदा नहीं है.

मैं वास्तव में बेहद थका और बेज़ार हूँ. तुम्हारे होने से कभी कभी मुझे शांति मिलती है मगर तुम्हारे भी बहुत सारे कर्त्तव्य और बाध्यताएं हैं और तुम मुझसे ज्यादा काबिल हो. अगर तुम्हारी इच्छा हो और तुम मुझे देखना चाहो तो प्लीज मुझे बताना.
G

(चिट्ठियों को पढ़ने के लिए कृपया तस्वीर पर क्लिक करें. गुरुदत्त पर एक और पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं)

24 April, 2012

गुरुदत्त को जानना एक अदम्य, अतृप्त प्यास से पूरा भर जाना है

अवचेतन मन बहुत आश्चर्यजनक होता है...नोस्टाल्जिया की परतों में गहरा गोता लगा कर कौन सी तस्वीर सामने खींच ले आएगा हम नहीं जानते...आश्चर्य होता है कि गुरुदत्त की पहली याद प्यासा के क्लाइमैक्स की है...किसी दिन दूरदर्शन पर आ रहा होगा...ब्लैक एंड वाईट छोटे से टीवी पर. 

फिर गुरुदत्त से गाहे बगाहे टकराती रही...उनके फिल्माए गीत टीवी पर खूब प्ले हुए हैं...प्यासा और कागज़ के फूल जितनी बार टीवी पर आये घर में देखे गए...तो कहीं न कहीं गुरुदत्त बचपन से मन में पैठ बनाते गए थे. कोलेज में फिल्म स्टडी के पेपर में गुरुदत्त हममें से अधिकतर के बेहद पसंदीदा थे...प्यासा और कागज़ के फूल जुबानी याद थीं...कैमरा एंगिल के डीटेल्स के साथ कि श्वेत-श्याम में प्रकाश और छाया का प्रयोग अद्भुत था. मुझे अच्छी सिनेमैटोग्राफी वाली फिल्में वैसी भी बहुत पसंद रही हैं. 

मेरा मानना है कि कला व्यक्तिपरक(subjective) होती है...क्लासिक फिल्मों में भी कुछ बेहद पसंद आती हैं...कुछ एकदम साधारण लगती हैं और समझ नहीं आता है कि दुनिया क्यूँ पागल है इस फिल्म के पीछे. फिल्म या किताब हमें वो पसंद आती है जिसमें कहीं न कहीं कुछ ऐसा मिल जाता है जो हमारे जीवन से जुड़ा होता है...कहीं न कहीं एक कांच का टूटा हुआ टुकड़ा जिसमें हम अपना एक टूटा सा ही सही अक्स देख लेते हैं. ऐसा मुझे लगता है...लोगों की अलग राय हो सकती है. 

फिल्मों पर हमेशा से इंग्लिश में लिखने की आदत कोलेज के कारण रही है... एक्जाम... पेपर... डिस्कसन... सब इंग्लिश में  होता था इसलिए बहुत सी शब्दावली वहीं की है...मगर ध्यान रखने की कोशिश करूंगी कि टेक्नीकल  जार्गन ज्यादा न हो. इधर इत्तिफाक से गुरुदत्त पर कुछ बेहतरीन किताबें मिल गयीं और फिर एक डॉक्युमेंट्री भी मिली, सब कुछ पढ़ते और देखते हुए एक सवाल बार बार कौंधता रहा कि हिंदी फिल्मों पर इतना कुछ इंग्लिश में क्यूँ लिखा गया है. किताब पढ़ कर मेंटली अनुवाद करती रही कि ये कहा गया होगा. आधी चीज़ों का जायका नहीं आता अगर अलग भाषा में लिखा गया है. डॉक्युमेंट्री भी आधी हिंदी आधी इंग्लिश में है...मैं कभी कुछ ऐसा करूंगी तो हिंदी में ही करूंगी. 

पहले रिसर्च डेटा की डिटेल्स: 
1. Yours Guru Dutt- Intimate letters of a great Indian filmmaker(गुरुदत्त के लिखे हुए ३७ ख़त, गीता दत्त और उनके बेटों तरुण और अरुण के नाम.)
2. Guru Dutt - A life in cinema (डॉक्युमेंट्री के सिलसिले में की गयी रिसर्च, कुछ अच्छी तसवीरें और लगभग डॉक्युमेंट्री के डायलोग)
3. In search of Guru Dutt/गुरुदत्त के नाम  (Documentary)
डॉक्युमेंट्री और किताब दोनों नसरीन मुन्नी कबीर की हैं...गुरुदत्त की चिट्ठियों का संकलन भी उन्हीं ने प्रस्तुत किया है. 
4. Ten years with Guru Dutt - Abrar Alvi's journey 
      - by Satya Saran (ये किताब कहीं बेहतर हो सकती थी...मुझे खास नहीं लगी पर कुछ घटनाएं अच्छी हैं जिनके माध्यम से गुरुदत्त की थोट प्रोसेस के बारे में जाने का अवसर मिलता है)

मुझे ये जानना है कि २५ से ३९ साल के अरसे में क्या कुछ सोचा होगा गुरुदत्त ने कि उसकी फिल्में अधिकतर ऑटोबायोग्राफिकल होती थीं...अगर जानना है कि एक आर्टिस्ट का मन कैसा होता है तो गुरुदत्त की फिल्में देखना और उसके बारे में जानना सबसे आसान रास्ता है. डॉक्युमेंट्री अच्छी बनी है...लोगों के इंटरव्यू बहुत कुछ कहते हैं मगर फिर भी बहुत कुछ बाकी रह जाता है...खुद के समझने और खोलने के लिए. 

गुरुदत्त- १४ महीने की उम्र में
गुरुदत्त का जन्म बैंगलोर में हुआ था...उनकी माँ वसंती पादुकोण  कहती हैं...' बचपन से गुरुदत्त बहुत नटखट और जिद्दी था...प्रश्न पूछना उसका स्वाभाव था...कभी कभी उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए मैं पागल हो जाती थी, किसी की बात नहीं मानता था...अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वो मानता था...और गुस्से वाला बहुत था...इम्पल्सिव था, मन में आया तो करेगा ही...जरूर.' 

डॉक्युमेंट्री में बस इतना ही हिस्सा है उनके बारे में...मैं सोचती रह जाती हूँ कि फिल्म मेकर ने कितना एडिट किया होगा जो सिर्फ इतना सा उभर कर आया है...फिर छोटे से गुरुदत्त के बारे में सोचती हूँ...अनगिन सवाल पूछते हुए, बहुत सारी इन्फोर्मेशन मन के कोष्ठकों में कहीं कहीं सकेरते हुए कि उनकी जिंदगी में शायद ऐसा कुछ भी नहीं बीतता था जो उनके नज़र में न आये. किताब में पढ़ते हुए कुछ प्रसंग ऐसे ही दिखते है जो पूरे के पूरे फिल्म में परिवर्तित हो गए. 

गुरुदत्त फिल्म टुकड़े टुकड़े में बनाते थे...फिल्म समय की लीनियर गति से नहीं चलती थी...जहाँ जो पसंद आया उस सीन को फिल्मा लिया गया. गुरुदत्त अनगिनत रिटेक देते थे और सीन को तब तक शूट करते थे जब तक वो खुद और फिल्म के बाकी आर्टिस्ट संतुष्ट न हो जाएं. अबरार अल्वी किताब में कहते हैं कि वो जितनी फुटेज में एक फिल्म बनाते थे उतने में तीन फिल्में बन सकती थीं. गुरुदत्त की फिल्मों की शूटिंग जिंदगी की तरह चलती थी...जैसे जैसे आगे बढ़ती थी किरदार डेवलप होते जाते थे. गुरुदत्त की फिल्म यूनिट में लगभग स्थायी सदस्य होते थे...अबरार अल्वी और राज खोसला के साथ रोज  फिल्म की शूटिंग के बाद ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन होते थे जिसमें रशेस देखे जाते थे और आगे की फिल्म का खाका तय किया जाता था. 

एक मजेदार वाकया है...वहीदा रहमान सुनाती हैं...'वो एक दिन शेव कर रहे थे और मूर्ति साहब के साथ शोट का डिस्कस कर रहे थे...तो हम लोग सब हॉल में बैठे हुए थे तो अचानक आवाज़ आई...उन्होंने इत्ती जोर से अपना रेज़र फेंका और बोले अरे क्या करते हो यार मूर्ति...तुमने बर्बाद कर दिया मुझे...तो मूर्ति साहब एकदम परेशान...मैंने क्या किया...हम तो शोट डिस्कस कर रहे थे...नहीं यार तुमसे शोट डिस्कस करते करते मैं अपनी एक तरफ की मूंछ काट दी, उड़ा दी...तो हम किसी से रहा नहीं गया तो हम हँस पड़े नैचुरली...जोर जोर से...कि तुम लोग हँस रहे हो...आज रात को शूटिंग है मैं क्या करूं...तो फिर मूर्ति साहब ने कहा...गलती आपकी थी, मेरी तो थी नहीं...फिर भी आप मुझे क्यूँ डांट रहे हैं...आप इस तरह कीजिये, दूसरी तरफ की भी मूंछ शेव कर डालिये फिर नयी नकली मूंछ लगानी पड़ेगी आपको...तो जब वो शोट के बारे में खास कर सोच रहे हों तब...बातें कर रहे हों तो सब कुछ भूल जाते थे'. 

आप प्यासा जैसी फिल्म देख कर बिलकुल अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि ये फिल्म बिना किसी फाइनल स्क्रिप्ट की बनी थी...उसमें सब कुछ परफेक्ट है...सारे किरदार जैसे जिंदगी से उठ कर आये हैं. मुझे लगता है फिल्मों में किरदारों की आपसी  केमिस्ट्री इसी बिना स्क्रिप्ट के फिल्म बनने के कारण थी...अभिनेता फिल्म करते हुए वो किरदार हो जाते थे, वैसा सोचने लगते थे, वैसा जीने लगते थे...इसलिए फिल्म में कहीं कोई रूकावट...कोई खटका नहीं होता है. बेहतरीन निर्देशक वही होता है जो सारे अनगिनत रशेस में भी वो दूरदर्शिता रखता है...जिसे पूरी फिल्म मन में बनी दिखती है और उसी परफेक्शन की तलाश में वो अनगिनत रास्तों पर चलता है जब तक कि पूरी सही तस्वीर परदे पर न उतर जाए.

गुरुदत्त पर लिखना बहुत मुश्किल है...पोस्ट भी लम्बी होती जा रही है. अगली पोस्ट में फिर गिरहें खोलने की कोशिश करूंगी कि अद्भुत सिनेमा के रचयिता गुरुदत्त कैसे थे...क्या सोचते थे...कैसी चीज़ें पसंद थीं उन्हें. अगली पोस्ट उनके निजी खतों पर लिखूंगी जो उन्होंने गीता दत्त को और अपने बेटों तरुण और अरुण को लिखीं थीं. 

12 March, 2012

The Artist - Echoes of nostalgia

इस फिल्म के बारे में शब्दों में कुछ भी कहना नामुमकिन है...ये बस ये यहाँ सहेज रही हूँ कि इस फिल्म से प्यार हो गया है.

'द आर्टिस्ट' के बारे में बहुत कौतुहल था...ये एक मूक-फिल्म है...श्वेत-श्याम...फिल्म की ख़ामोशी आपको अपने अंदर उतरने का मौका और वक्त देती है. जैसे जैसे परदे पर फिल्म चलती है वैसे वैसे आप भी अपनी एक जिंदगी जीते रहते हैं. फिल्म में डायलोग नहीं हैं तो अधिकतर आप या तो लिप रीड करेंगे या अंदाज़ लगाएंगे कि क्या कहा जा रहा है...इस तरह फिल्म उतनी ही आपकी भी हो जाती है जितनी डायरेक्टर की. फिल्म ऐसी है जैसा प्रेम/इश्क मैं करना चाहती हूँ...जिसमें शब्दों की कोई जगह न हो...बहुत सा संगीत हो...उजले और काले रंग हों और बहुत से खूबसूरत ग्रे शेड्स...मुस्कुराहटें...अदाएं और बहुत सारी खुशियाँ.

फिल्म मुझे बचपन के उस मूक प्रेम की याद दिलाती है जिसमें आपने कभी खुद को व्यक्त नहीं किया क्यूंकि समझ भी नहीं आ रहा था कि प्रेम जैसा कुछ पनप रहा है. डायलोग के हजारों सबसेट होते हैं पर आपका मन वही डायलोग सोचता है जो आपकी जिंदगी का intrinsic हिस्सा है. फिल्म इस तरह आपके साइकी(Psyche) में शामिल हो जाती है...ये सिर्फ परदे पर नहीं चलती...पैरलली एक फिल्म आपके मन के परदे पर भी चलने लगती है जिसमें कुछ मासूम स्मृतियाँ बिना मांगे अपनी जगह बनाती चली जाती हैं. 

मैं फिल्म देखने अकेले गयी थी नोर्मल सा वीकडे था...पीछे की कतारें भरी हुयी थी मगर आगे की लगभग छह कतारें खाली ही थी...मैं वहां बीच में बैठी...फिल्म जैसे हर तरफ से आइसोलेट कर रही थी...और मैं सारे वक़्त मुस्कुरा रही थी. मन में उजाला भर जाने जैसा...मूक फिल्म होने के कारण हर लम्हा लगा कि मैं भी फिल्म का हिस्सा हूँ...यहाँ सीट पर नहीं बैठी हूँ...वहां हूँ परदे पर...फिल्म के किरदारों के बेहद पास...उनकी हंसी को सुनती हुयी...वो हंसी जो परदे के इस पार नहीं आई पर परदे के उस तरफ है. फिल्म आपके सोचने के लिए परदे के जितना बड़ा ही कैनवास देती है. इस कैनवास में बहुत से लोगों के लिए जगह होती है. अगर कम्पेयर करें तो फिल्म एक परदे पर चलने वाला भाषण नहीं बल्कि एक दोस्त के साथ किसी खूबसूरत पार्क में टहलना है...जहाँ आप कुछ बातें कहते हैं, कुछ सुनते हैं...और मन में संगीत बजता है.


फिल्म आपके मन के अन्दर उतर जाती है...दबे पांव...सीढ़ियों पर...किरदार...एक्टिंग सब. जोर्ज वैलेंटिन से प्यार न हो असंभव है...जब पहली बार Gone विथ द विंड देखी थी तो रेट बटलर से प्यार हो गया था...जार्ज वैलेंटिन वैसा ही किरदार है...जिसे आप पहली नज़र में पसंद करने लगते हैं. फिल्म का सीन जहाँ पहली बार पेगी उससे टकराती है में उसका किरदार इतना खूबसूरती से उभर कर आया है कि आप मुस्कराहट रोक नहीं सकते. फिल्म का वो हिस्सा जहाँ पेगी  एक साइड आर्टिस्ट है और उसका छोटा सा रोल है जिसमें उसे वैलेंटिन के साथ छोटा सा डांस करना है...सीन में उनकी केमिस्ट्री इतने बेहतरीन तरीके से उभर कर आती है...सीन के हर रीटेक के साथ आप भी प्यार में गहरे डूबते जाते हो. पहली बार महसूस होता है कि प्यार इसके सिवा कुछ नहीं है कि आप उस एक शख्स के साथ हँस रहे हो.

वैलेंटिन की मुस्कराहट...उसके चेहरे के हावभाव बिना शब्दों के कितना कुछ कहते हैं ये अगर ये फिल्म न बनती तो कभी जान नहीं पाती...मैं फिल्म निर्देशक Michel Hazanavicius की शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने आज के दौर में ऐसी फिल्म बनायीं जिसमें संगीत और कुछ डायलोग बोर्ड्स की मदद से इतनी खूबसूरत कहानी बुनी है जो फिल्म देखने के कई दिनों बाद तक साथ रहती है.

सादी सी कहानी एक मूक फिल्मों के कलाकार के जीवन पर बनी हुयी...उसके आसमान पर छाये होने के दिन और फिर फिल्मों में आवाज़ के आने के बाद उसके मुफलिसी के दिन...इन सबके बीच वैलेंटिन खोया हुआ सा...कुछ वैसा ही लगता है जैसे कभी कभार आज की भागती दौड़ती दुनिया में खुद को पाती हूँ...मिसफिट...कि चारों तरफ बहुत शोर है...बहुत लोग हैं...और हम अपने घर में अकेले हैं...पुरानी यादों की रील के साथ...फिल्म के अंत में बहुत थोड़ा सा हिस्सा है डायलोग का...पर वो ऐसे चकित करता है कि मारे ख़ुशी के आँख भर आती है. वैलेंटिन का एक ही डायलोग है...With pleasure...फ्रेंच एक्सेंट में...मुझे लगा था कि डायलोग फ्रेंच में ही है...पर अभी चेक किया तो देखती हूँ कि इंग्लिश में था. ओह...उसकी आवाज़ सुनना ऐसा था जैसे पूरी जिंदगी किसी की आवाज़ के लिए तरस रहे हों...पर उसे कह भी नहीं सकते...और ठीक जब आप जिंदगी और मौत के बीच की रौशनी वाली जगह पर हों...उसने 'आई लव यू' कह दिया हो.

फिल्म 1.33 :1 के ऐस्पेक्ट रेशियो पर बनी है...हाल में इसपर ध्यान गया कि परदे पर स्क्वायर सी फील आ रही है...वो एक दूसरी ही दुनिया थी जब तक परदे पर फिल्म चल रही थी...मैं उसमें पूरी तरह खोयी हुयी थी...जानती हूँ कि मैंने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है जो कहीं से भी इस फिल्म को जस्टिफाय करता है...मगर मेरे पास कहने को इतना भर ही था. अगर आपने ये फिल्म नहीं देखी है तो इसे किसी भी हाल में देख कर आइये...घर पर टीवी में देखने वाली ये फिल्म नहीं है...इसके हॉल में देखना जरूरी है. एक गुज़रे हुए दौर की याद दिलाती ये फिल्म हद तरीके से नोस्टालजिक करती है.


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बाकी यहाँ उस रात आकर जो जरा कुछ इधर उधर लिखा था...यहाँ रख देती हूँ...


Capturing a moment. The credit roll at the end of the movie The Artist.
Hopefully I'll somehow be able to put to words the feelings the movie evoked in me. 
It's like that love story I would like to be a part of...wherein there is music and laughter and you understand me even without the words...just a little smile and a flying kiss that always manages to reach you...no matter how far you are. 
To every single person who has brought me joy in my silences. I just sat there overwhelmed. Brimming with love. The way I am when I am with you. 
Some day maybe what I'll write will be coherent too right now I feel pretty intoxicated.
George Valentin I love you. ♥ ♥ 

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Sleeptyping. Again. Hopeless case. 
I want to see The artist again. 
Valentin reminds me of Rhett Butler. Seeing him onscreen has given me enough heartache to kill several of my nights.


You cannot not fall in love with Valentin :) 

04 March, 2012

पान सिंह तोमर- जैसी कहानी होनी चाहिए

पान सिंह तोमर...इसके प्रोमो देखे थे तब ही से सोच रखी कि फिल्म तो देखनी ही है...पर सोच रही थी अकेले देखने जाउंगी कुणाल या फिर बाकी जिन दोस्तों के साथ फिल्में देखती हूँ शायद उन्हें पसंद न आये...ये पलटन क्या...अधिकतर लोगों का फिल्मों के प्रति आजकल नजरिया है कि फिल्में हलकी-फुलकी होनी चाहिए...जिसमें दिमाग न लगाना पड़े. हफ्ते भर ऑफिस में इतना काम रहता है कि वीकेंड पर कहीं दिमाग लगाने का मूड नहीं रहता. ब्रेनलेस कॉमेडी हिट हो जाती है और अच्छी फिल्में पिछड़ जाती हैं. अफ़सोस होता है काफी...मगर उस पर फिर कभी.


पान सिंह तोमर एक बेहतरीन फिल्म है...इसे देख कर प्रेमचंद की याद आती है...सरल किस्सागो सी कहानी खुलती जाती है...बहुत सारे प्लोट्स, लेयर्स नहीं...सीधी सादी कहानी...और सादगी कैसे आपको गहरे झकझोर सकती है इसके लिए ये फिल्म देखनी जरूरी है. बहुत दिन बाद किसी फिल्म को देखते हुए आँख से आंसू टपक रहे थे...आँखें भर आना हुआ है पहले भी मगर ऐसे गहरे दर्द होना...उसके लिए एक लाजवाब निर्देशक की जरूरत होती है. तिग्मांशु धुलिया किस्से कहने में अपने सारे समकालिक निर्देशकों से अलग नज़र आते हैं. सीधी कहानी कहना सबसे मुश्किल विधा है ऐसा मुझे लगता है. फिल्म का सहज हास्य भी इसे बाकी फिल्मों से अलग करता है.

एक अच्छी फिल्म के सभी मानकों पर पान सिंह तोमर खरी उतरती है, पटकथा, निर्देशन, एक्टिंग, एडिटिंग और लोकेशन.  बेहतरीन पटकथा, एकदम कसी हुयी...कहीं भी फिल्म ढीली नहीं पड़ती, हर किरदार की तयशुदा जगह है, यहाँ कोई भी सिर्फ डेकोरेशन के लिए नहीं है...चाहे वो पान सिंह की पत्नी बनी माही गिल हो या कि उसका बेटा. डायलोग में आंचलिक पुट दिखावटी नहीं बल्कि स्क्रिप्ट में गुंथा हुआ था तो बेहद प्रभावशाली लगा है. 


कास्टिंग...अद्भुत...इरफ़ान एक बेहतरीन कलाकार हैं...चाहे डायलोग डिलीवरी हो या कि बॉडी लैंग्वेज. कहीं पढ़ा था कि एक धावक के जैसी फिजिक के लिए इरफ़ान ने बहुत मेहनत और ट्रेनिंग की थी...फिल्म में उनके दौड़ने के सारे सीन...चाहे वो पैरों की कसी हुए मांसपेशियां हों कि बाधा पर घोड़ों के साथ कूदने का दृश्य...सब एकदम स्वाभाविक लगता है. पान सिंह एक खरा चरित्र है...जैसे हमारे गाँव में कुछ लोग होते थे...मन से सीधे...कभी कभी गंवार...उसे बात बनानी नहीं आती...सच को सच कहता है. फिल्म का सीन जब अपने वरिष्ठ अधिकारी से बात कर रहा है तो संवाद अदायगी कमाल की है...'देश में तो आर्मी के अलावा सब चोर हैं' या फिर शुरुआत का पहला सीन जो ट्रेलर में भी इस्तेमाल किया गया है 'बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में पाए जाते हैं'. एक्टिंग के बारे में एक शब्द उभरता है 'टाईट एक्टिंग किया है'.

तिग्मांशु को क्रेडिट जाता है कि ऐसी अलग सी कहानी उन्होंने उठाई तो...देश में क्रिकेट के अलावा सारे स्पोर्ट्स की बुरी स्थिति है...ओलम्पिक में जीतने वाले हमारे एथलीट्स को किसी तरह का कोई संरक्षण नहीं है...फिल्म देख कर इसका सच तीर की तरह चुभता है कि जब आप जानते हो कि बागी सिस्टम बनाता है. फिल्म में निर्देशक न्यूट्रल है...वो कहीं किसी को अच्छा बुरा नहीं कहता...खाके नहीं खींचता. फिल्म कहानी कहती है...पान सिंह तोमर की...कैसे वो पहले फौज में थे, कैसे खेल में पहुंचे और कैसे आखिर में बागी हो गए...फिल्म किस्सागोई की परंपरा को एक कड़क सैल्यूट है.

मैं रिव्यू इसलिए लिख रही हूँ कि ऐसी फिल्में देखी जानी चाहिए ताकि ऐसी और फिल्में बनें...साल में कम से कम कुछ तो ऐसी फिल्में आयें कि देख कर लगे कि फिल्म बनाने वाले लोग सोचते भी हैं. वीकेंड है...आपके पास फुर्सत है...तो ये फिल्म जरूर देख कर आइये...निराश नहीं होएंगे.


मेरी ओर से फिल्म को ४/५ स्टार्स.

31 October, 2011

रा.वन (RA.ONE) एक बार देखने लायक फिल्म है

इस शनिवार मैंने रा.वन देखी. कुछ कारणों से दिन का शो नहीं जा पाए तो लेट नाईट नौ से बारह का थ्री डी शो देखने गए...कुछ दोस्तों के साथ. बंगलौर में फेम शंकरनाग मुझे खास तौर से पसंद है क्यूंकि इसमें बहुत ही बड़ा पर्दा है. थ्री डी फिल्म के चश्मे इस बार बाकी सभी थ्री डी फिल्मों से बेहतर मिले और पहनने में बिलकुल आरामदायक थे. 

फिल्म को काफी नेगेटिव रिव्यू मिले हैं...जाने के पहले कुछ मित्रों ने भी नहीं देखने की सलाह दी...मगर हमने ख़राब से ख़राब फिल्म थियेटर में देखी है, फिल्म देखना हम अपना फ़र्ज़ समझते हैं. थोड़ी सी भी गुंजाईश लगती है तो हम जरूर जाते हैं. मुझे लगा कि इस फिल्म को लेकर मेरा नजरिया यहाँ जरूरी है. 

पहले फिल्म का नकारात्मक पक्ष, क्यूंकि मेरे हिसाब से काफी कम है. रा.वन का सबसे बड़ा विरोधाभास है इसके दर्शक वर्ग का चुनाव. फिल्म बच्चों के लिए बनाई गयी है...मगर कई जगह बेहद अश्लील है. हिंदी फिल्मों में आजकल द्विअर्थी डायलोग आम बन गए हैं पर चूँकि ये फिल्म बच्चों पर केन्द्रित है ऐसे सीन या डायलोग इस फिल्म में नहीं होने चाहिए थे. किसी भी परिवार को फिल्म देखने में आपत्ति हो सकती है. कुंजम की जगह कंडोम का प्रयोग या फिर शारीरिक हावभाव जबरदस्ती ठूंसे गए लगते हैं. फिल्म अपने मकसद में एक छोटी भूल से चूक जाती है. अगर आप इसे इग्नोर कर सकते हैं तो आगे पढ़ें...और आगे फिल्म भी देखें. 

दूसरा नकारात्मक पक्ष paairecy या फिर नक़ल कह सकते हैं...जैसे रा.वन का हार्ट सीधे आयरन मैन फिल्म से उड़ाया गया है. चंद छोटे टुकड़ों में और भी चीज़ें इधर उधर से ली गयी हैं...मैं इसे भी इग्नोर करने के मूड में हूँ...क्यूंकि कमसे कम कहानी का आइडिया असली है.

फिल्म की सबसे अच्छी चीज लगी इसका मूल कांसेप्ट या अवधारणा जिसके इर्द गिर्द कहानी घूमती है- कि सच की हमेशा जीत होती है और इस चीज़ को ऐसे दिखाना कि बीइंग गुड इज आल्सो 'कूल'. हमारे आज के बच्चे वाकई फिल्म के प्रतीक की तरह हैं, उन्हें लगता है कि अच्छा होने से क्या मिलता है. बुरे लोग ज्यादा सफल होते हैं. ऐसे में ऐसे 'अच्छे' के मूल विषय पर फिल्म बनाना हिम्मत की बात है और इस लिए मैं शाहरुख़ खान को बधाई देती हूँ कि उसने ऐसा विषय चुना. ऐसे में लगता है कि काश फिल्म में जबरदस्ती के अश्लील डाइलोग नहीं होते तो फिल्म बहुत ही ज्यादा बेहतरीन होती. 

रा.वन और भी कई जगह अच्छी लगी है. जैसे स्मोकिंग के बारे में स्क्रिप्ट में मिले हुए डायलोग. एक जगह जब छत पर जी.वन और प्रतीक बातें कर रहे हैं तो जी.वन पहली बार सिगरेट पीता है...और प्रतीक से कहता है 'तुम्हें पता है हर साल २० प्रतिशत(या ऐसा ही कुछ, ठीक से याद नहीं है मुझे) लोग सिगरेट हमेशा के लिए छोड़ देते हैं' तो इसपर प्रतीक पूछता है कि कैसे तो जी.वन जवाब देता है 'कि वो लोग मर जाते हैं'. स्मोकिंग के लिए सिर्फ एक लाइन की खानापूर्ति से बढ़ कर इस फिल्म में ऐसे एक दो और जगह पर बताया गया है कि सिगरेट अच्छी नहीं है. 

फिल्म हिंदी में बनी पहली थ्री डी फिल्म है, सिर्फ इसी एक कारण के लिए फिल्म देखने जाना जरूरी है. हिंदी को जब तक नयी तकनीक, नए दर्शक नहीं मिलेंगे पुराने लोगों के साथ ही भाषा ख़त्म हो जायेगी. आपने आखिरी कौन सी हिंदी फिल्म देखी थी जो आपके बच्चों को अच्छी लगी थी? इस फिल्म को देखने का सबसे अच्छा कारण है इसके थ्री डी इफेक्ट. आजतक किसी हिंदी फिल्म में इस तरह के इफेक्ट नहीं देखने को मिले हैं. लगभग उतने ही अच्छे शोट्स हैं जैसे हॉलीवुड/अंग्रेजी फिल्मों में होते हैं. हिंदी फिल्म में ऐसी तकनीकी उत्कृष्टता देख कर वाकई गर्व महसूस होता है. मुझे बेहद अच्छा लगा इसका तकनीकी पक्ष. चाहे फाईट सीन हों या गेम का थ्री डी माहौल, फिल्म हर जगह खरी उतरती है. खास तौर से विक्टोरिया टर्मिनस के टूटने का शोट भव्य है. सिनेमाटोग्राफी बेहद अच्छी है, लन्दन की खूबसूरती हो या डांस के स्टेप्स...सब कुछ एकदम रियल लगता है. 

हमारे बच्चे हिंदी फिल्में नहीं देखते...हिंदी फिल्में इस लायक होती ही नहीं कि बच्चे देख सकें. रा.वन में भी कुछ गलतियाँ है जिसके कारण मैं इसे पूरी तरह सही नहीं कहूँगी...पर ये कमसे कम एक शुरुआत तो है. इसे पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता. 

किसी चीज़ में बुराइयाँ देखना बहुत आसान है...पर अच्छाइयों पर भी थोड़ा ध्यान दिया जाए...फिल्म यही कहने की कोशिश करती है. एक बार फिल्म को खुले दिमाग से मौका दीजिये...रा.वन इतनी बुरी नहीं है कि आप देख न सकें. फिल्म में एक अच्छी कहानी है, अच्छे स्टार हैं जो अभिनय करते हैं. चाहे हमारा सुपरहीरो जी.वन हो या प्रतीक. एक आखिरी बात और...१०० करोड़ रुपये लगा कर हिंदी की सबसे महँगी फिल्म बनी थी 'ब्लू' अगर आपने देखी है तो आपको ये १५० करोड़ रुपये बिलकुल सही जगह खर्च किये हुए लगेंगे. 

मेरी तरफ से फिल्म को ४ स्टार(पांच में से)...एक अच्छी मसाला, टाईमपास, सुपर एफ्फेक्ट्स वाली सुपरहीरो वाली बोलीवुड फिल्म. 

फुटनोट: इससे पहले कि कोई पूछ ले...शाहरुख़ खान ने इस रिव्यू को लिखने के लिए मुझे कोई पैसे नहीं दिए हैं 

04 July, 2011

एक टुकड़ा जिंदगी (A slice of life )

पात्र: मैं, Anupam Giri (जिसे मैं अपना friend philosopher guide मानती हूँ)

वक़्त: कुछ रात के लगभग बारह बजे...कुणाल को आज देर तक काम है और मुझे फुर्सत है...अनुपम को फुर्सत रात के ११ बजे के पहले नहीं होती है. 

Context: discussing a film script i am working on nowdays


कुछ आधे एक घंटे से मैं उसको कहानी सुना रही हूँ....बिट्स एंड पीसेस में...जैसे की मेरे दिमाग में कुछ चीज़ें हैं...कुछ घटनाएं...कुछ पंक्तियाँ...कुछ चेहरे जो अटके हुए हैं. किरदारों के साथ घुलते मिलते कुछ मेरे जिंदगी के लोग...कुछ गीत....और तेज़ हवा में सालसा करती विंडचाइम...अच्छा सा मूड.
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मैं: और पता है अनुपम...ये जो कहानी है न ...पहली बार ऐसा हुआ है कि मुझे कुछ पसंद आया है और मैंने उसे २४ घंटों के अंदर कचरे के डब्बे में नहीं डाला है...और तुम ही कहते थे न...The best way to judge your work is to read it the next morning...if you still like it...its a good idea.'

अनुपम: हाँ...but you really have to know this girl inside out...her every single trait...her sun-sign...her dressing habits, her fears...dressing sense...her background...तुम उसे जितना अच्छे से जान सकती हो. 

मैं: हाँ मगर अभी मैं बाकी लड़कों का character sketch कर रही हूँ....उसे बाद में लिखूंगी.

अनुपम: What are you afraid of?...तुम्हें डर लग रहा है that in finding this girl you might accidentally  discover who you truly are?

मैं: (बिलकुल ही यूरेका टाइप मोमेंट में कुछ बुदबुदाते हुए) How well do you know me Anupam...gosh...how can you read me like this...(some intelligible sounds) yeah...i mean...no...मतलब...हाँ...उहूँ...ह्म्म्म...ok you win yar!!

(Still astounded)

18 March, 2011

सीबोनेय/ siboney

'तू अभी तक जगी क्यों है?'
'सिगरेट की तलब हो रही है...इसलिए'
'कुछ नहीं थप्पड़ खाएगी तू, आजकल तेरा दिमाग ख़राब हो गया है...सो जा चुपचाप, कल फ्राईडे है, ऑफिस तो जाना होगा'
'वो तो कल उठने के बाद...उसके लिए आज सोना पड़ेगा...पर होठों को एक सिगरेट की तलब हो रही है...और एक बालकनी की भी. वैसे तलब तो तेरी भी हो रही है पर ऐसे सात समंदर पार तुझे कैसे बुला लूं...जब तुमने स्मोकिंग छोड़ी नहीं थी...मेरे बालों में जब तुम उँगलियाँ फिराते थे बालों से धुएं की खुशबू आती थी...आह...उन दिनों तुम्हारे होठों का...जाने दो...मेरे दिमाग की वाइरिंग लूज हो गयी है.'
..................................
'सुनो'
'हाँ' 
'आज मैंने एक फिल्म देखी...२०४६ तुम कभी मेरे साथ बैठ कर ये फिल्म देख पाओगे प्लीज...जानती हूँ तुम्हारे टाइप की फिल्म नहीं है पर लगता है की तुम वैसे ही बालों में उँगलियाँ फिराते रहो और मैं तुम्हारे सीने से टिक कर पूरी फिल्म देखूं. अच्छा बता तो, क्या ये बहुत बड़ी ख्वाहिश है?'
'ह्म्म्म'
...............................
'लोग कहते हैं कि तुम्हारी टिकट बहुत महँगी है, बताओ तो एक लाख में कितने जीरो होते हैं,  हंसो मत न...जानते हो की मेरी मेरी मैथ कितनी कमजोर है. अगर तीस हज़ार बचाऊं हर महीने तो कितने दिन में तुम्हारा रिटर्न टिकट खरीदने लायक पैसे हो जायेंगे? मुझसे मिलने कब आओगे?
'पता नहीं...तुम तो जानती हो कितना मुश्किल है यहाँ सब सेटल करना...आज अचानक तुम्हें क्या हो गया है...आज फिर स्कॉच मारी हो क्या? अगली बार तुम्हारे लिए नहीं लूँगा. तुम ये सेंटी फिल्में देखती क्यों हो...खामखा क्या क्या बोलने लगती हो'.
...........................................
'तुमने तो बहुत लड़कियों से प्यार किया होगा, बताओ तो भला सबसे जियादा किससे प्यार किया...जाने दो, पता है Days of Being Wild में जो हीरो है न वो एक लड़की को कहता है कि मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगा...मरने के पहले वाले कुछ क्षण में वो उसी लम्हे को याद करता है जब उसने ऐसा कहा था. मैं सोचती हूँ कि मैं मरने के वक़्त किसे याद करुँगी...मौत धीरे धीरे आती है क्या? आपको यकीन भी नहीं होता कि आप सच में मर जायेंगे...जैसे कि प्यार, कभी नहीं लगता है कि प्यार सच में हो जाएगा.
.......................................
एक ही दुःख है...तुम्हें जब आखिरी बार किस किया था तो पता नहीं था कि ये आखिरी बार होगा. 
आह...जिंदगी, तुझसे इश्क करना कितना तकलीफदेह है!


29 November, 2010

सपनों का सच

हैमलेट शेक्सपीयर का लिखा एक प्रसिद्द नाटक है जो अक्सर या तो 10th या 12th में अक्सर कोर्स में होता है. इसी नाटक में हैमलेट का एक बहुधा उधृत हिस्सा है, हैमलेट का एकालाप....to be or not to be.... यह हैमलेट के अंतर्द्वंद का चित्रण है  जिसमें हैमलेट तर्क देता  है कि जीवन बेहतर है  या मृत्यु. इसी का एक अंश है जिसमें हैमलेट कहता है कि मृत्यु एक नींद है...पर नींद के बाद कैसे सपने आयेंगे...यानी कि मृत्यु के बाद का जीवन, जिसे 'आफ्टर लाइफ़' कहते हैं उसके बाद क्या होता है ये भी नहीं पता है.
To sleep, perchance to dream. Ay, there's the rub,
For in that sleep of death what dreams may come,
When we have shuffled off this mortal coil,
Must give us pause.



हैमलेट के इस एकालाप का एक अंश होता है 'व्हाट ड्रीम्स मे कम (What dreams may come) कल मैंने इसी नाम की फिल्म देखी, जिसकी कहानी मौत और उसके बाद के जीवन पर केन्द्रित थी. फिल्म का मुख्य किरदार...इसकी सिनेमाटोग्राफी है...फिल्म में रंगों का ऐसा अद्भुत कैनवास रचा गया है कि अनायास विन्सेंट वैन गॉ की स्टारी नाईट  की याद आ जाये. फिल्म में स्वर्ग एक ऐसी बदलती दुनिया है जो हर किसी को खुद पेंट करने की आज़ादी देती है. क्रिस जब स्वर्ग पहुँचता है तो पाता है कि वो एक ऐसी पेंटिंग है जो उसी पत्नी ने कल्पना की थी...एक ऐसी जगह की जहाँ वो पहली बार मिले थे और जहाँ वो अपना बुढापा साथ साथ गुज़ारना चाहते थे. क्रिस अपना स्वर्ग उस खास पेंटिंग से शुरू करता है और बाकी चीज़ें जोड़ता जाता है. शूटिंग खास तौर की फिल्म पर की गयी थी 'फूजी वेल्विया ' फिल्म स्टॉक कुछ खास दृश्यों को फिल्माने के लिए किया जाता है जहाँ रंगों की अधिकता जरूरी हो. ये खास फिल्म लगभग पूरी ही एक सपने को जीने जैसी है इसलिए इसका फिल्म स्टॉक भी अलग था. 





फिल्म में सोलमेट होना बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है. वैसे तो हमारे तरफ सोलमेट की बातों में अधिकतर लोग यकीं करते हैं...शादियों के बारे में कहा जाता है कि जोडियाँ ऊपर से बन कर आती हैं, वगैरह. अमेरिका में इस बात को मानने वाले कम लोग हैं...और एक अंग्रेजी फिल्म में इस तरह से मौत के बाद का जीवन दिखाना काफी रोचक और खूबसूरत था. एक एकदम अलग से सीन में हम देखते हैं कि क्रिस की पत्नी ऐनी उस पेंटिंग को आगे बढ़ाती है और एक बेहद खूबसूरत हलके जामुनी रंग का पेड़ पेंट करती है...और वैसे ही क्रिस के स्वर्ग में वही पेड़ अचानक उग आता है. पर जब ऐनी को लगता है कि क्रिस उसके साथ नहीं है और वो दुखी होकर पेड़ पर पानी डाल के मिटा देती है तो क्रिस के स्वर्ग में भी पतझड़ आ जाता है और पेड़ के सारे पत्ते उड़ जाते हैं. 


क्रिस के इस स्वर्ग में सब कुछ है बस नहीं है तो ऐनी...जिसके बिना सब कुछ अधूरा है. क्रिस को पता चलता है कि ऐनी इस स्वर्ग में नहीं आ सकती ऐनी एक कैथोलिक है और धर्म के अनुसार आत्महत्या करने वाले नर्क जाते हैं. उसकी कल्पना के विपरीत नर्क कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ शारीरिक प्रताड़ना है...नर्क एक ऐसी जगह है जहाँ पर उदासी इतनी गहन होती है कि आप अपने दुस्वप्नों में घिर जाते हैं और बाहर नहीं निकलना चाहते.
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मुझे यह फिल्म बेहद अच्छी लगी...और मुझे लगता है कि हर प्यार करने वाले इंसान को ये फिल्म एक बार देखनी चाहिए. इसकी सिनेमाटोग्राफी इतनी खूबसूरत है कि वाकई लगता है सपनो की दुनिया है जिसमें खो जाते हैं पूरी फिल्म भर. इश्क रूहानी होता है...जन्म जन्म का रिश्ता टाइप्स कुछ. मेरी तरफ से १०/१० फिल्म. आपके हाथ आये तो एकदम देख डालिए...अच्छा लगेगा.  

22 April, 2010

इन मूड फॉर लव




कुछ फिल्में देख कर लगता है की प्यार वाकई बेहद खूबसूरत चीज़ है। मुझे लगता है जिनको भी इश्क के होने का गुमान हो उनको जिंदगी में तीन फिल्में जरूर देखनी चाहिए। गॉन विथ विंड, मिस्टर एंड मिसेज अईयर और इन मूड फॉर लव(Fa yeung nin wa)

आज मैं इनमें से आखिरी फिल्म की बात करुँगी। या फिर फिल्म की नहीं, फिल्म देखने से क्या होता है उसकी बात करुँगी। इस फिल्म को देखने के लिए मैं अपूर्व की आभारी हूँ, उसने लिंक दिए थे एक गीत और कुछ सीन के। फिल्म के बारे में उसका कहना है की ऐसी फिल्में आपकी जिंदगी में शामिल हो जाती हैं, एक कर्स की तरह। उसकी तारीफ़ के और शब्द उधार लेना गलत बात होगी बाकी मैं उसपर छोड़ती हूँ उसकी जब इच्छा हो इस फिल्म के बारे में लिखे।

इस फिल्म के क्लिप मैंने अपने कॉलेज के दौरान देखे थे, हमारा एक सब्जेक्ट था वर्ल्ड सिनेमा उसमें। वोंग कार वाई के बारे में पढ़ा भी था। मैंने पोस्ट में सबसे ऊपर अपने सबसे पसंदीदा दो शोट्स लगाये हैं। पहले में एक नोवेल लिख रहा है हमारा हीरो, मिस्टर चाव। मुझे बहुत पसंद आता है इस शोट का फ्रेम, जिंदगी में कितना कुछ बिखरा पड़ा होता है, इसमें से एक सही एंगल चुनना कितना मुश्किल होता है। उसकी उँगलियों में अटकी सिगरेट उठता धुआं, ऐसा लगता है हम वाकई उस सीन में खड़े हैं और उसे काम करते देख रहे हैं। फिल्म से ऐसे जुड़ जाते हैं जैसे किसी थ्री डी फिल्म में भी जा जुड़ सकें।

दूसरा शोट है जब मिस्टर चाव और मिसेज चान एक ग्राफिक नोवेल की कहानी आगे बढ़ने के सिलसिले में देर रात काम कर रहे हैं...मिसेज चान की आँखों में जो चमक है वो वाकई यकीन दिला देती है कि प्यार नाम की कोई चीज़ होती है, और ये कहानियां और कवितायें झूठ नहीं हैं। कि शोर शराबे और भाग दौड़ की जिंदगी में एक लम्हा है ऐसा जिसके खातिर जिया जाए।

इसका संगीत ऐसा है कि सदियों बाद भी आप सुनें तो रूह में उसकी गूँज सुनाई दे। एक बार सुनकर इसका संगीत भूलना नामुमकिन है...खास तौर से जिस तरह फ्रेम दर फ्रेम फिल्म में जैसे संगीत घुलता है। फिल्म देखना वैसा है जैसे पहला प्यार या पहली बारिश, और उसे याद करने तड़पना। मेरे ख्याल से हो ही नहीं सकता है कि आप फिल्म देखें और आपको कुछ याद ना आये।

और सबसे आश्चर्यजनक है कि ये फिल्म बिना स्क्रिप्ट के बनी थी, पूरी फिल्म हर रोज नयी होती थी, और उस सारी क्लिप्पिंग में से ये फाइनल फिल्म बनायीं गयी है। निर्देशक के बारे में जीनियस के अलावा कोई शब्द नहीं आता। कुछ लोगों के धरती पर आने का एक मकसद होता है, कुछ कवि होते हैं, कुछ लेखक...पर कई फिल्मों को देखने के बाद लगता है कि कोई तो है जो वाकई सिर्फ फिल्म निर्देशन के उद्देश्य से धरती पर आया है। या फिर कोई बड़ा मकसद, जैसे प्यार के अनछुए रंग दिखाने की खातिर।

ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए, दो कारणों से, अच्छी फिल्म क्या होती है ये जानने के लिए और प्यार को महसूसने के लिए।

और इसलिए कि ब्लॉग पर इतना वक़्त बिताते हैं, इससे कितना कुछ अच्छा हो सकता है ये जानने के लिए।

विडियो के बिना अधूरा रहता...

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फिल्म को कितनी बार देख चुकी हूँ...पोस्ट compose करते हुए आया एक ख्याल...

Talking to you is like falling in love, all over again. Watching you sleep is like single malt on the rocks, slowly getting imbibed in the system till it becomes you...the light woody fragrance of the forest in darjeeling.

29 March, 2010

एक भूली सी धुन की तलाश में

अज़दक पर एक पॉडकास्ट सुना था कुछ दिन पहले। वैसे मैं पॉडकास्ट बहुत कम सुनती हूँ, अच्छा नहीं लगा अधिकतर जो भी सुना है। आवाज की जादूगरी मन मोह गयी...कितनी कितनी बार सुना, दोबारा तिबारा...जाने कब तक।

उसके अलावा जो एकदम से किसी याद के तार छेड़ता सा लगा वो था पार्श्व में बजता गीत। मुझे कमेन्ट करने में थोड़ा डर भी लगा, लेकिन कहे बिना रहा भी नहीं गया।

deja vu...मैंने बहुत कम podcasts सुने हैं, ऐसा एक भी नहीं लगा जो याद हो.
आपको आज पहली बार सुना, ये गीत जो है आपकी आवाज के दरमयान कौन सा है? बेख्याली में मैं कई बार कोई धुन गुनगुनाती रहती हूँ...ये वैसा ही गया हुआ कोई गीत लगा.
तारीफ़ के शब्द नहीं मिल रहे हैं, आज पहली बार कमेन्ट कर रही हूँ तो थोड़ा डर भी लग रहा है. आपकी आवाज बहुत अच्छी है.
और ये पोडकास्ट तो बहुत अच्छा लगा...एक छोटी सी कहानी जैसा. अगर इस गाने का कोई लिंक दे सकेंगे तो आभारी रहूंगी


उन्होंने फिल्म का नाम बताया उससे ढूंढते ढूंढते उसके जापानी version तक पहुंची...इसी सिलसिले में उसका फ्रेंच भी सुना। गीत कहीं मन में बजता सा महसूस होता था।
यूँ तो गाना या फिर सुनना अगलग अलग वजहों से होता है...मेरे लिए सबसे खूबसूरत वजह है कि संगीत को बताया नहीं जा सकता, समझाया नहीं जा सकता। कि इस गीत को सुनकर कैसा लगता है...ये एक ऐसी चीज़ है जो खुद महसूस करनी होती है। और हर एक के लिए हर गीत का अलग असर होता है।

फिर भी मैं कोशिश करुँगी कि इस गीत को सुन कर मुझे कैसा लगता है।
कदम बिलकुल हलके हों, कि डांस करते वक़्त फ्लोर को बिलकुल हलके से छुएं, जैसे कोई तितली फूल पर पल भर को रूकती है। पैर के अंगूठे पर घूम जाऊं...थोड़ा उचक कर तुम्हारी आँखों में देखूं...और जब तुम्हारी बाहों में घूमूं तो तुम्हारी आँखों में पूरे हाल का घूमना नज़र आये बस मेरा चेहरा रुका हो। डांस करना वैसे हो जैसे तन बिलकुल हल्का हो गया हो और ख़ुशी से पैर जमीन पर ना पड़ सकें।

बोल ऐसे हैं कि इनको गाने के लिए फ्रेंच सीखने का मन करे, ऐसी हलकी सी आवाज में हवा में तिरता सा गीत हो खुशबू की तरह। खूबसूरत सी गुलाबी रंग कि कोई ड्रेस हो जिसमें खूब सारी झालर हो...और रात पर रात बीतती जाए पर हम बस आँखों में आँखें डाले थिरकते रहे...और मैं कह सकूँ कि "la vie en rose/ looking at the world through rose coloured glasses".

कल सबरीना देख रही थी, एक पुरानी इंग्लिश फिल्म है audrey hepburn की...वो बेहद खूबसूरत है...और फिर मुझे याद आया कि ये गीत ऐसा सुना हुआ और आत्मा के तार छेड़ता क्यों लगता है। इसके साथ एक बेहद रूमानी प्यार का ख्वाब जो जुड़ा हुआ है।

कॉलेज में फिल्म अप्रेशिअशन के क्लास में दो फिल्में देखी थी इस बेहद खूबसूरत कलाकार की "रोमन होलीडे" और "सबरीना"। उस कच्ची उम्र में ये खूबसूरत गीत कितने शाम अकेले में गुनगुना के थिरकती रही थी...इंतज़ार में...मेरे प्रिंस चार्मिंग के इंतज़ार में। परीकथाओं पर यकीं करती थी, आज भी करती हूँ।

इसलिए ये गीत पहली नज़र के प्यार की तरह ताजगी से भरा अनछुआ सा लगता है...प्यार...दुनिया को गुलाबी चश्मे से ही तो दिखाता है।

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ये रहा



22 January, 2009

बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल...और हम :)


कल बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल का समापन था .कुछ अपरिहार्य कारणों ने मुझे रोक दिया...वरना मैं जरूर जाती। गुलाबी टाकीस देखने का मेरा बड़ा मन था। और कुछ और भी अच्छी फिल्में आ रही थी ।

बरहाल...वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। लालबाग के पास विज़न सिनेमा में फेस्टिवल चल रहा था। रजिस्ट्रेशन फी ५०० रुपये थी रजिस्टर होने के बाद एक आई कार्ड और एक बुकलेट मिली जिसमें प्रर्दशित होने वाली सभी फिल्मो के बारे में जानकारी थी...खास तौर से कौन से अवार्ड्स मिले वगैरह और कहानी के बारे में थोड़ा आईडिया...ये काफ़ी अच्छी था क्योंकि एक साथ दो फिल्में प्रर्दशित हो रही थी, तो ये निश्चय करना की कौन सी देखूँ आसान हो जाता था।


मुझे आश्चर्य लगा ये देखकर कि हॉल लगभग हाउसफुल था, मुश्किल से कुछ ही सीट खाली होंगी। मैंने नहीं सोचा था कि बंगलोर में ऐसे फिल्मों के लिए भी दर्शक मौजूद हैं। ये मेरा किसी फ़िल्म फेस्टिवल का पहला अनुभव था, और पहली बार अकेले फ़िल्म देखने का भी। दोनों अनुभव अच्छे रहे मेरे :) तो मैं निश्चिंत हूँ, कि फ़िर से कहीं ऐसा हो तो मैं जा सकती हूँ। फ़िल्म देखने वाले लोगों में महिलाएं भी बहुत थी और बाकी की भीड़ में कॉलेज स्टुडेंट से लेकर वयोवृद्ध पुरूष और महिलाएं भी दिखी। इतने सारे लोगों के बीच होना भी अच्छा लगा। बहुत दिन बाद फ़िर से लगा कि IIMC के दिन लौट आए हैं, जैसे इस वक्त कोई फ़िल्म देख कर निकलते थे तो लगता था कि कुछ तो अलग है...ये सोच कर भी मज़ा आता था कि इन लोगो के दिमाग में क्या चल रहा होगा।

आज एक फिल की चर्चा करना चाहूंगी...फ़िल्म बंगलादेश की थी...नाम था रुपान्तर. फ़िल्म में एक डाइरेक्टर एकलव्य पर एक फ़िल्म बना रहा है, गुरुदक्षिणा, कहानी जैसा कि हम सभी जानते हैं महाभारत काल की है और द्रोणाचार्य के एकलव्य के अंगूठे को गुरुदक्षिणा के रूप में मांगने की है. डायरेक्टर शूट करने एक संथाल गाँव के पास की लोकेशन पर जाता है, वहां शूटिंग देखने गाँव से कई लोग आए हुए हैं. पर जब शूटिंग शुरू होती है और एकलव्य तीर चलाता है तो लोग प्रतिरोध करते हैं और कहते हैं कि उसका तीर पकड़ने का तरीका ग़लत है, तीर को अंगूठे और पहली अंगुली नहीं, पहली ऊँगली और बीच की ऊँगली से पकड़ते हैं. यह सुनकर डायरेक्टर चकित होता है और इस बारे में रिसर्च करता है. वह पाता है कि वाकई तीरंदाजी में अंगूठे का कोई काम ही नहीं है. इससे उसकी पूरी कहानी ही गडबडाने लगती है...और शूटिंग रुकने वाली होती है.

शाम को इसी समस्या पर यूनिट के लोग भी मिल कर चर्चा करते हैं , पुराने ग्रंथों में भी कहीं भी तीर को कैसे पकड़ते हैं के बारे में जानकारी नहीं है. इस चर्चा के दौरान एक लड़की सुझाव देती है कि हो सकता है समय के साथ तीरंदाजी करने के तरीकों में बदलाव आया हो, उसकी ये बात निर्देशक को ठीक लगती है और वह उसपर सोचने लगता है. और आख़िर में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि हो सकता है तीरंदाजी वक्त के साथ बदली हो. इसी बदलाव को वह फ़िल्म का हिस्सा बनाता है...कहानी ऐसे बढती है...

जब एकलव्य के बाकी साथियों को पता चला कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा गुरुदक्षिणा में लिया है और अब एकलव्य तीर नहीं चला सकता तो वो निर्णय लेते हैं कि वो भी तीर धनुष नहीं उठाएंगे. इस बात पर एकलव्य उन्हीं रोकता है और वो वचन देते हैं कि वो उसकी आज्ञा का पालन करेंगे. यहीं पर बाकी के भील निर्णय लेते हैं कि वो भी बिना अंगूठे का इस्तेमाल किए तीर चलाएंगे. उनके लिए ये बहुत मुश्किल होता है, वो बार बार असफल होते हैं...पर उनका कहना है कि अगर हम असफल हुए तो हमारे बेटे कोशिश करेंगे अगर वो भी असफल हुए तो भी आने वाली पीढियां इसी तरह से तीरंदाजी करेंगी, अंगूठे का प्रयोग वर्जित होगा.

इतिहास में कहीं भी दर्ज नहीं है कि पहली बार सफलता किसे मिली, पर उनकी कोशिशों के कारण आज एकलव्य के साथ हुए अन्याय का बदला ले लिया गया है. और तीरंदाजी में कहीं भी अंगूठे का इस्तेमाल नहीं होता.

कहानी बहुत अलग सी लगी इसमें निर्देशक कहता भी है...कि वास्तव में क्या हुआ ये पता करना इतिहासकारों का काम है...पर मैं एक कल्पना तो दिखा ही सकता हूँ. यह एक फ़िल्म में फ़िल्म की शूटिंग है. पात्र और उनकी एक्टिंग बिल्कुल वास्तविक लगती है. कहानी की रफ़्तार थोडी धीमी है पर इसे बहुत बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया गया है.

बॉलीवुड फिल्मो की चमक दमक के बाद ऐसी यथार्थपरक फ़िल्म देखना एक बेहद सुखद अनुभव रहा. अगर आपको भी ये फ़िल्म किसी स्टोर पर मिलती है तो देखें, वाकई अच्छी है.

21 June, 2008

सिजोफ्रेनिया...कितना सच कितना सपना

कल मैंने "a beautiful mind" देखी, फ़िल्म एक गणितज्ञ की सच्ची जिंदगी पर आधारित है। नाम है जॉन नैश, प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी में अपनी phd करने आया है, अपने आप में गुम रहता है कम लोगों से दोस्ती करता है, और उसका रूममेट है चार्ल्स। जॉन एक बिल्कुल ओरिजनल थ्योरी देता है वो। बाद में वह पेंटागन से जुड़े गवर्मेंट के काम में काफ़ी मदद करता है। वह कोड बड़ी आसानी से ब्रेक कर लेता है। इसलिए सरकार उसकी सुविधाएं लेती है।

हम बाद में पाते हैं की वो स्चिजोफ्रेनिया से पीड़ित है उसका रूममेट चार्ल्स सिर्फ़ एक हैलुसिनेशन है। यही नहीं वह जिन कोड्स को ब्रेक करने के लिए दिन रात एक किए रहता है वो कोड्स भी उसके मन का वहम है। जिस व्यक्ति के लिए वो काम कर रहा है वो एक्जिस्ट ही नहीं करता।


इस फ़िल्म में हम प्यार, rationality, और इच्छाशक्ति देखते हैं। मुझे फ़िल्म काफ़ी पसंद आई। इसका एक पहलू खास तौर से मुझे व्यथित करता रहा। इसमें जॉन उन व्यक्तियों को इग्नोर करता है जो सिर्फ़ उसकी सोच में हैं। एक जगह वो कहता है की वो चार्ल्स को मिस करता है। इसी विषय पर एक और फ़िल्म देखी थी १५ पार्क अवेन्यु, कहानी में ये सवाल उठाया गया था कि सिर्फ़ इसलिए कि एक स्चिजोफ्रेनिक इंसान जिन लोगों के साथ रहता है उन्हें बाकी दुनिया नहीं देख पाती उनका होना negate कैसे हो जाता है। आख़िर उस इंसान के लिए ये काल्पनिक लोग उसकी जिंदगी का हिस्सा हैं , वो उनके साथ हँसता रोता है। यहाँ बात फ़िर से मेजोरिटी की आ जाती है, क्योंकि उसका सच सिर्फ़ उसका अपना है बाकी लोग उसमें शामिल नहीं हैं उसे झूठ मान लिया जाता है।

इन लोगों को दुःख होता होगा, अपने ये दोस्त छूटने का...और दुनिया इनके गम को समझने की जगह इन्हें पागल बुलाती है। क्यों? सिर्फ़ इसलिए की उनका सच हमारे सच से अलग है, क्योंकि हम उनकी दुनिया देख नहीं सकते इसका मतलब ऐसा क्यों हो कि ये दुनिया नहीं है। कई बार ऐसे लोगों को भूत वगैरह से पीड़ित मान लिया जाता है और इनकी जिंदगी जहन्नुम बन जाती है।

कभी कभी लगता है...काश हम थोड़े और संवेदनशील होते, दूसरों के प्रति...थोड़ा और accommodating होते किसी के अलग होने पर। किसी को एक्सेप्ट कर पाते उसकी कमियों, उसकी बीमारियों के साथ।

फिल्में ऐसी होनी चाहिए जो देखने के घंटों बाद तक आपको परेशान करती रहे, सोचने को मजबूर करे। काश ऐसी कुछ अच्छी फिल्में हमारे यहाँ भी बनती... वीकएंड है और देखने को कोई ढंग की मूवी नहीं।

लगता है मुझे जल्द ही डायरेक्शन में कूदना पड़ेगा। भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री मुझे पुकार रही है। :-D :-)

09 June, 2008

सरकार राज -review

"power cannot be given...it has to be taken"

with a tagline like that i admit i was a bit doubtful about whether the movie would be up to my expectations, i wondered if the movie was over hyped and would not be able to come up to my expectations.

yes it did and more...it exceeded my expectations. i think after a long time gap we got to see a real movie with everything brought up to perfection. it has the finesse of a legendary movie...and it should go in history like that. RGV gives us a taste of real film making, a movie as it is supposed to be.

the characters are well etched out and make a distinct mark on the movie viewers, the actors play their part to perfection, the dialogues are just to the point, subtle and hard hitting. no wonder some frustrated journos complained the movie has too many of punchlines. they seem to be seeped in cliches for such a long time they refuse to accept good dialogues as such forget appreciation.

the story is tighty edited with no extra shots or frames, the camera angles as usual ad a lot the meaning and mood of the scene being carried out. i specially liked a particular scene in which a shankar goes to rescue a kidnapped person who was as usual kept in a place manned by several gundas. here our protagonist hits an electric pole causing short circuit which sets fire to several trees around, when the fire is doused by water, it creates smoke...and using this as cover they operate. its not just the beauty of the shot but the sheer logic applied that makes you want for more.

from a director's point of view the film is perfect almost flawless. the shots chosen, the cameraword, the screenplay, selection of actors and very importantly....the background score. in indian movies its very rare to find movies whose background score is even noticed. but in this movie the score adds a hell lot of meaning to the scene. i have found better utilization in few movies , mr and mrs iyer for example.

aishwarya is an actress to watch out for, she is absolutely fantastic in her role. subtle, elegant and poised...she holds a strong foothold in the same scene as amitabh, something most actors falter in... but she stays, unshadowed...stays with her head held high.

this a movie that should be taught in media schools when explaining how to make a movie...its not an actor's movie, it owns the stamp of its director, his vision. i wish there were more of these movies...and i wish when i make a movie of my own, it has the level of perfection this movie has.

movies like this inspire several people like us who love cinema, for its larger than life image...the 70 mm magic...so cheers to RGV and Sarkar Raj

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