बहुत समय पहले की बात है...एक युवक था...आदर्शों में डूबा हुआ...दुनिया को बदलने के ख्वाब देखता हुआ...वो एक कवि था...पोलैंड एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा था उस वक्त...युवक के परिवार में भी कोई शख्स नहीं बचा था...उसने चर्च की ओर रुख किया पादरी बना. फिर चर्च के एक एक पायदान चढ़ते हुए वैटिकन...और फिर...एक मिनट रूकती है...
अलीशिया की आँखों में खुशी नाच उठी है...जैसे वो कोई उसका अपना था...अपने दिल पर हाथ रख कर कहती है...इस छोटे से पोलैंड से उठ कर गया वो लड़का...वो कवि...वो आइडियल लड़का...'पोप' बनता है...यू नो...पोप जॉन पौल २...वो पोलैंड से था...हमारा अपना पोप. उस वक्त पोलैंड में कम्युनिस्ट रूल था...वे लोगों को एक बराबर मानते थे इसलिए धर्म के खिलाफ थे. जॉन पौल ने पोलैंड आने का प्रोग्राम बनाया. कम्युनिस्ट अथोरिटी को ये पसंद नहीं आया और वे तैयार थे कि खून खराबा होगा और कोई क्रांति होगी तो वे कितनी भी हद तक जाकर उसे शांत करेंगे. लोगों में इस बात की उत्सुकता थी कि जब कम्युनिस्ट जेनेरल जरुज्लेसकी और पोप मिलेंगे तो कैसे मिलेंगे...क्या पोप उनसे हाथ मिलायेंगे...पोप ने कमाल का उपाय निकाला...उन्होंने जेनरल को अपने प्लेन में अंदर बुलाया...और आज तक कोई नहीं जानता कि अंदर क्या हुआ था...जब बाहर आये तो दोनों हाथ हिला रहे थे पब्लिक की ओर. अलीशिया बताती है कि लोग जेनरल
जरुज्लेसकी से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं...अब वो कोई १०० साल की उमर का आदमी होगा मगर अब भी उसके घर के आगे खड़े होकर गालियाँ देते हैं और पत्थर फेंकते हैं...उसके हिसाब से अब उसे उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए...लेकिन...नफरत इतनी आसानी से खत्म नहीं होती. एक गहरी सांस! उफ़.
पोलिश लोग पोप से बहुत प्यार करते थे और एक गर्व की भावना से भरे हुए थे...उनके 'मास' में आने के लिए सारे लोगों में उत्सव जैसा उत्साह था...कम्युनिस्ट सरकार ने लोगों को पोप से मिलने से रोकने के लिए अनेक उपाय किये...मास के दिन सारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद था...लोगों को ऑफिस में बहुत ज्यादा काम दे दिया गया और ऐसे अनेक तरीके कि लोग अपने घर से बाहर जा ही न पाएं. लेकिन लोगों ने मास अटेंड करने के लिए ४० किलोमीटर तक से पैदल आ गए थे. पोप को पोलिश रिवोलूशन में एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है. मास के बाद जब पोप अपने घर में आराम करने आये तो उनके साथ पूरा जनसमूह उमड़ पड़ा...तो वो अपने क्वार्टर से बाहर खिड़की पर खड़े हो गए और लोगों से बात करते रहे. उस पूरी रात लोग उनकी खिड़की के नीचे खड़े रहे...कोई गीत गा रहा था...कहीं कविता सुनाई जा रही थी...कहीं प्रार्थनाएं हो रही थीं...कहीं हँसी मजाक हो रहा था...और इस सारे वक्त सारे लोग रुके रहे और पोप अपनी बालकनी नुमा खिड़की पर उनके साथ पूरी रात बातें करते रहे. उस दिन के बाद से नियम हो गया कि पोप जब भी पोलैंड आते अपनी खिड़की पर जरूर आते और लोग उनसे मिलने वहीं खिड़की के नीचे खड़े रहते. उनके रेसिडेंशियल क्वाटर का एरिया हमेशा पोप से जुड़ी जगह हो गयी...जब पोप का देहांत हुआ तो पूरे दो हफ्ते तक वो सड़क...जो कि क्राकोव की एक बेहद बीजी सड़क है...दो हफ्ते तक वो सड़क फूलों और मोमबत्तियों से जाम रही. ये थी कहानी उस पोलिश पोप की जिससे पोलिश बहुत प्यार करते हैं...जो कवि था...और जिसने क्रांति की उम्मीद लोगों के दिलों में जलाए रखी.
दूसरी कहानी है...क्राकोव की...कहानी के बहुत सारे वर्शन हैं...तो हम आपको अलीशिया का वर्शन सुनाते हैं...बहुत साल पहले की बात है क्राकोव में एक राजा रहता था...लेकिन उसका एक पड़ोसी था जो उसको बिलकुल पसंद नहीं था...होता है...हम अक्सर अपने पड़ोसियों को पसंद नहीं करते...वावेल पहाड़ी पर, विस्तुला नदी के किनारे एक गुफा में ड्रैगन रहता था...और ड्रैगन वर्जिन लड़कियों को ही खाता था...हर कुछ दिन में वर्जिन लड़कियां उठा ले जाता था...अब यू नो...राजा को भी वर्जिन लड़कियां पसंद थीं और जैसा कि होता है...वर्जिन लड़कियां हमेशा संख्या में कम होती हैं...तो राजा को ड्रैगन से कॉम्पिटिशन पसंद नहीं था...इसलिए उसने मुनादी कराई कि जो भी योद्धा ड्रैगन को मार देगा उसे बहुत सारा राज्य और एक खूबसूरत राजकुमारी मिलेगी. बहुत से योद्धा ड्रैगन की गुफा में गए...पर कोई भी वापस नहीं लौटा. आखिर राजा ने मुनादी कराई कि कोई आम इंसान भी ड्रैगन को मार देगा तो उसको भी वही इनाम मिलेगा. एक मोची के यहाँ एक छोटा सा लड़का काम करता था...स्कूबा...उसने कहा वो ड्रैगन को मार देगा तो सब लोग उसपर बहुत हँसे...मगर छोटे, बहादुर स्कूबा ने हार नहीं मानी...उसने एक मेमने के अंदर बहुत सारा सल्फर भर दिया और उसे ड्रैगन की गुफा के सामने बाँध दिया...ड्रैगन बाहर आया और मेमने को खा गया. अब ड्रैगन के पेट में सल्फर के कारण जलन होने लगी(अब उन दिनों में ईनो तो था नहीं कि ६ मिनट में गैस से छुटकारा दिला दे ;) ;) ) तो ड्रैगन विस्तुला नदी में कूद गया और खूब सारा पानी पीने लगा...वो कितना भी पानी पीता जलन कम ही नहीं होती...आखिर वो पानी पीते गया पीते गया और बुम्म्म्म्म्म्म्म से फट गया. सब लोग खुश...स्कूबा की शादी राजकुमारी से हो गयी और वो लोग खुशी खुशी रहने लगे.
ये तो हुआ परसों का बकाया उधार...
कल मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं था...मुझे वावेल कैसल घूमना था और शाम को ३ बजे एक पैदल टूर होता है जुविश क्वार्टर का वो देखना था...आधा दिन मेरा फोन में चला गया. अभी भी मेरा फोन काम नहीं कर रहा...उससे काल्स नहीं हो रहे...बस इन्टरनेट काम कर रहा है. तो अभी मेरे पास एक फोन है इन्टरनेट के लिए और एक फोन है नोकिया का कॉल करने के लिए...नोकिया वाले सिम में पैसे खतम हैं...तो मैं सिर्फ फोन अटेंड कर सकती हूँ...अगर कोई फोन करे तो.
मेरा दिन यहाँ ७ बजे शुरू होता है...८ बजे कुणाल के ऑफिस के टैक्सी आती है...उसके बाद का टाइम में थोड़ा बिखरा सामान समेटने और नहा के तैयार होने में जाता है. फिर लिखने में कोई घंटा डेढ़ घंटा लगता है...ग्यारह के आसपास मैं तैयार हो जाती हूँ. कल मुझे फ्री वाल्किंग टूर वाले दिखे नहीं...उनके साथ घूमने में मज़ा आता है...वो कहानियां सुनाते चलते हैं इसलिए मैं उनके साथ ही जुविश क्वार्टर देखना चाहती हूँ.
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टावर के ऊपर की खिड़की में |
कल फोन में नया नंबर लिया और सोचे कि क्या करें तो सबसे पहले जाके मार्केट में जो इकलौता टावर बचा है उसपर चढ़ने का टिकट कटा लिए. खतरनाक घुमावदार ऊँची नीची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए टावर की आधी ऊँचाई पर खड़ी सोच रही थी कि मैं हर बार ऐसा क्यूँ करती हूँ...टावर देखते ही चढ़ने का मन क्यूँ करता है. मुझे क्लौस्ट्रोफोबिया है...बंद जगहों से डर लगता है...ऊँची जगहों से डर लगता है और ये टावर बंद भी है और ऊँचा भी है...माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति से पूछा गया कि आप माउंट एवेरेस्ट पर क्यूँ चढ़े तो उसका कहना था...क्यूंकि वो है...बिकॉज इट इज देयर...कुछ वैसा ही मेरा हाल है. तो टावर था तो चढ़ गयी :) अच्छा लगा...वहाँ से नज़ारा अच्छा था शहर का...फोटो वोटो खींच के नीचे उतरे. फिर फोन के चक्कर में पड़े...कोई ढाई टाइप बज गया. भूख के मारे चक्कर आने लगे.
फिर सारे रेस्टोरेंट का मेनू पढ़ते पढ़ते एक जगह पास्ता विथ पेस्तो सौस दिखा...वो वेजेटेरियन होगा ये सोच कर खुश हो गए...और खाने बैठ गए. टाउनहाल की नीवों पर बने इस स्क्वायर पर रेस्टोरेंट्स हैं...चारों तरफ...कुछ दूर में विस्तुला नदी बहती है...लोग सड़कों पर खड़े कोई वायलिन, गिटार, अकोर्दियान बजाते रहते हैं...हवा में मिलीजुली आवाजों की खुशबू थी. आइस टी पी रही थी और सोच रही थी...किसी की याद में नहीं...पूरी की पूरी खुद के साथ. मैं किसी और के साथ होना नहीं चाहती थी...मैं किसी अतीत में खोयी नहीं थी...वर्तमान के साथ किसी और लम्हे का एको नहीं था...ऐसा कोई दिन कभी नहीं आया था...कभी नहीं आएगा...मुझे खुद के साथ होना अच्छा लगा. मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी...मैं इत्मीनान से आइस टी पीते हुए सामने के स्क्वायर पर आते जाते लोगों को, उनके कपड़ों को, उनकी मुस्कुराहटों को देख रही थी...धूप थोड़ी तिरछी पड़ने लगी थी...हवा में हलकी सी खुनक थी...मौसम ठंढा था और धूप से गर्म होती चीज़ें थी...सब उतना खूबसूरत था जितना हो सकता था. मैं मुस्कुरा रही थी. मैं वाकई बहुत बहुत साल बाद अपने आज में...उस प्रेजेंट मोमेंट में पूरी तरह से थी...खुश थी.
पास्ता बहुत अच्छा था...खाना खा के मैंने जुविश क्वार्टर देखना मुल्तवी किया...वाकिंग टूर वाले लोग दिख भी नहीं रहे थे...सोचा टहलते हुए किला देख आती हूँ या नदी किनारे बैठती हूँ जा कर. मुझे लगता है मैं धीरे धीरे वापस से वही लड़की होने लगी हूँ जिससे मैं बहुत प्यार करती थी...अपनी गलतियों और अपनी बेवकूफियों को थोड़ा सा दिल बड़ा करके माफ कर देना चाहती हूँ.
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The Monument. 1975-1986. A monument to show the two great men that invented socialism to be set in a country in which socialism had become a reality. Creation of statues of Karl Marx and Friedrich Engels. (From the exhibition- Stories from a vanished country) |
सामने एक एक्जीबिशन दिखा...स्टोरीज फ्रॉम अ वैनिशड कंट्री...गायब हुए देश की कहानियां...तो मैं एक्जीबिशन देखने चली गयी. GDR- जर्मन डेमोक्रटिक रिपब्लिक जो कि बर्लिन की दीवार के पूर्वी हिस्से में था...एक आदर्श कम्युनस्ट देश की तरह स्थापित किया जा रहा था...जहाँ सारे लोग बराबर थे. इस प्रदर्शनी में कई सारी तसवीरें थीं जो उस खोये हुए देश की कहानियां सुनाती थीं...जीडीआर में खुद को एक्सप्रेस करने की आजादी नहीं थी...सारे लोग यूनिफार्म पहनते थे और एक जैसे ब्लाक्नुमा घरों में रहते थे. तस्वीरों और उनके शीर्षक एक अजीब तिलिस्मी दुनिया रच रहे थे मेरे इर्द गिर्द...आधी दूर जाते जाते लगने लगा कि मैं उन तस्वीरों में ही कहीं हूँ...जीडीआर में लोग जब एक लाइन लगी देखते थे तो उसमें लग जाते थे...बिना ये जाने कि किस चीज़ की लाइन लगी है...अगर वस्तु उनके काम कि नहीं है तो वे उसे उस चीज़ से बदल सकते थे जो उन्हें चाहिए होती थी. काला-सफ़ेद तिलिस्म...उचटे हुए लोग...हर तस्वीर से एक अजीब उदासी रिसती हुयी...ऐसा लग रहा था जैसे मेरा चेहरा उनमें घुलता जा रहा है...हर रिफ्लेक्शन के साथ मैं थोड़ी थोड़ी खोती जा रही हूँ...जीडीआर में लोगों के चेहरे नहीं होते थे...इंडिविजुअल कुछ नहीं...कोई अलग आइडेंटिटी नहीं...आप बस भीड़ का हिस्सा हो...आपका अपना कुछ खास नहीं. मनुफैकचर्ड लोग...खदानों, कारखानों में काम करते लोग...कामगार...बेहद अच्छे खिलाड़ी...लेकिन आइना देखो तो कुछ नज़र नहीं आता. एक्जीबिशन देखना एक अजीब अनुभव था...कुछ इतना डिस्टर्बिंग और रियलिटी से काट देने वाला कि मैं बाहर आई तो अचानक से इतनी सारी रौशनी और हँसते मुस्कुराते लोग देख कर अचंभित हो गयी...मुझे लग रहा था जिंदगी में रंग होते ही नहीं हैं...और हॉल से बाहर भी ग्रे रंग की ही दुनिया होगी...लोग मिलिट्री यूनिफार्म में होंगे. तस्वीरों और शब्दों में कितनी जान होती है ये कल महसूस हुआ.
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विस्तुला नदी किनारे पेड़ की छाँव में बैठ कर किताब पढ़ना... |
फिर कुछ खास नहीं...टहलते हुए किले के पास चली गयी...देखा कि लोग घास में आराम से लेट कर किताब पढ़ रहे हैं या गप्पें मार रहे हैं...थोड़ा बहुत और भटकी...फेसबुक पर कुछ फोटो अपडेट की और बस...वापस आ गयी. दिन के आखिर में आखिरी ख्याल ये आया...कि मैं बहुत अच्छी हूँ...और मैं खुद से बहुत प्यार करती हूँ...और सबसे खूबसूरत लम्हा वो होता है जिसे हम जी रहे होते हैं. ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ इस जीवन के लिए...इन रास्तों और इस सफ़र के लिए और अपने दोस्तों और अपने परिवार के लिए...और सबसे ज्यादा कुणाल के लिए.
चीयर्स!