23 July, 2012

वक्त कम है...मुहब्बत ज्यादा

'कवितायें पढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं मिल रही'
'और मुझे?'
'तुम्हें पढ़ने के लिए तो एक लम्हा काफी होगा'
'तो?'
'तो, क्या?'
'कब आ रही हो मुझसे मिलने?'
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लड़की हाथ में उम्र की छोटी सी रेखा को ऊँगली से ट्रेस करती हुयी सोचती...कमबख्त जिंदगी इतनी छोटी क्यूँ है...रोज थोड़ी थोड़ी खींचती उम्र की रेखा को...सोचती शायद कुछ दिन...कुछ लम्हे और बढ़ जाएँ. कि जैसे किसी से बिछड़ते हुए उनका हाथ छूटे तो उसे तुरंत कोट की गर्म जेब में रख दिया जाए...उन हाथों की गर्मी फिर एकाकीपन के पूरे रास्ते साथ रहती है...कभी कभी तो पूरी जिंदगी भी. 
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जब वो बहुत छोटी सी थी...उसके नन्हे से हाथ की रेखाएं उभरनीं शुरू भी नहीं हुयी थीं कि एक बंजारे जिप्सी ने कह दिया था कि आपकी बच्ची बहुत कम साल जियेगी. घर में उस दिन जो कोहराम मचा उसके अलावा भी माँ बाप ने वाकई उसे इस तरह पाला था जैसे जाने कौन सा दिन आखिरी हो. उस पर दुःख की हलकी सी परछाई भी नहीं पड़ने दी थी...परीकथाओं की राजकुमारी जैसी पली बढ़ी थी वो. उसने तो क्लास में भी कॉज इफेक्ट नहीं पढ़ा था...न्यूटन के तीनो नियम उसे प्रैक्टिकली समझ नहीं आते थे. 
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उसे किसी से प्यार हो जाना था ये तो उस ओरेकल में नहीं दिखा था...लड़की को बस ये मालूम था कि उसकी  जिंदगी बहुत छोटी सी है...मगर किसी दिन क्लासिकल म्यूजिक सुनते हुए उसे लगता था कि वो किसी रौशनी जैसी चीज़ से पूरी भर गयी है और चाइनीज लैंटर्नस् की तरह हवा में फ्लोट करते हुए किसी अनजान देश की ओर निकल जायेगी. एक दिन कोलेज ट्रिप पर गयी हुयी थी जब उसने पहली बार उस कवि की कवितायें सुनीं. वो एक लैंग्वेज क्लब था जहाँ पिछले कई सालों से लोग मिलते थे और अपने अपने प्रान्त की कहानियां और कवितायें सुनाते थे...अंग्रेजी का ये क्लब उनके ट्रिप का हाईलाईट था. मंच पर हलकी रौशनी थी...कवि की रचनायें उसकी मातृभाषा में थीं...वो पहले मूल कविता पढ़ता और फिर उनके अनुवाद समझाता जाता. उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं थी...पर शायद अच्छी कवितायें किसी भाषा की मोहताज़ नहीं होतीं...उनका संसार व्यापक होता है. 
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उन्हें समझ नहीं आता कि वे एक दूसरे की भाषा सीख रहे थे या एक दूसरे को...अनगिन चिट्ठियां आतीं...वे एक दूसरे को अपने भाषा का सबसे खूबसूरत काव्य पढ़ने को देते...लोक संगीत की सीडीज बर्न करके भेजते...फिल्मों के लिए सब टाइटल्स लिखते...फ़ाइल बनाते और भेजते. कविता, संगीत, फिल्में...इसके अलावा नीला आसमान तो एक ही था. लड़की को तब तक मालूम नहीं था कि प्यार आम इंसानों के जीवन में भी बेतरह उलझनें पैदा कर देता है...फिर उसके पास तो वक्त भी कम था...वो कैसे जान पाती कि उसका कवि अब उसकी टूटी हिंदी की कच्ची कवितायें ठीक करके उसे वापस क्यूँ नहीं भेजता...क्यूँ उसके अनगिन खतों के चंद जवाब भी नहीं आते...क्यूँ इन्तेज़ार की चौदह चाँद रातें उसके नाम लिख दी गयी हैं...उसे समझ नहीं आता था कि प्यार सबके लिए अलग अलग रंग लेकर आता है. तकलीफ भी पहली बार हुयी थी...पहले तो उसे लगा कि उस बंजारे की भविष्यवाणी सच होने वाली है...वो वाकई मरने वाली है...फिर धीरे धीरे दिन बीते तो उसे लगा कि तकलीफ में होने से जिंदगी लंबी लगती है. चंद दिनों में ही उसे लगा कि उसने एक लंबी और भरपूर जिंदगी जी है. 
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एक छोटी सी जिंदगी में अफ़सोस के लिए जगह नहीं होती. उसे भारत जाना था...बस एक बार उस मिट्टी को छूने...उस हवा में सांस लेने...उस आसमान के नीचे एक लंबी ख्वाबों भरी नींद के लिए. उसकी हिंदी बहुत अच्छी हो गयी थी और उसके शहर में हिंदुस्तान से बहुत टूरिस्ट आते थे. उसने लोगों को हिंदी में टूर कराने का एक छोटा सा ग्रुप बनाया. शुरुआत के दिन से उसका एक भी दिन खाली नहीं जाता...हमेशा बहुत से लोग हो जाते हैं. टूर शुरू करने के पहले वो सबसे हाथ मिलाती है...कभी गले लगती है...और मुस्कुराते हुए कहानी सुनाती है...एक छोटी सी जिंदगी की...इस बड़े से शहर में.

यूरोप की बेतरह खूबसूरत इमारतों के बारे में बताते हुए उसकी नीली आँखों में कभी कभी कोई आवारा सफ़ेद बादल चुभ जाता था...फिर बिन मौसम बरसातों को उसके स्कार्फ का रेशमी बाँध थाम लेता था...कल तनहा डेन्यूब नदी के किनारे बैठ कर तीसरी कसम का गाना सुना रही थी लोगों को...दुनिया बनाने वाले...कहानी के बीच में पूछती है...अनजान लोगों से...हैव यू एवर बीन इन लव...डज इट एवर फेड अवे?
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बारिश में इन्द्रधनुष के रंग ही तो बरसते हैं...वरना तो सब फीका ही रहता धरती पर...वैसे ही...प्यार जिंदगी में घुलता है और खुशबू के रंग से पेंट करता है...फिर आँखों में मुस्कराहट की सफ़ेद रौशनी चमकती है...पहले प्यार सी मासूम...पहले प्यार सी सदाबहार...और पहले प्यार सी पहली. 

19 July, 2012

हरकारे ओ हरकारे!

I miss you.
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जैसे किसी ने कभी मेरा नाम नहीं पुकारा हो...जैसे मेरा कोई नाम हो ही नहीं...मैं सिर्फ एक संख्या हूँ...बाइनरी डिजिट्स से बनी ऐस्काई कोडिंग में रची कोई कविता...तुमने कौन सी कुंजी से जान लिया मेरे नाम का उच्चारण...तुम वो पहले व्यक्ति थे जिसने मेरा नाम पुकारा था.

हम एक मौन प्रजाति के जीव थे...कोई भी बोलना नहीं जानता था...आँखें उठाना नहीं जानता था...हम एक दूसरे को देखते तो थे पर किसी के चेहरे पहचान नहीं सकते थे...ऐसे में तुम जाने कैसे मेरी आँखों को बाँध सके थे...वो पूरा एक मिनट था जब तुमने मेरी ओर देखा था...उतनी देर में गार्डों ने २० लोगों की रोल-कॉल कम्प्लीट कर ली थी.

हमें खास जेनेटिक प्रयोगशालाओं में बनाया गया था...हमारा जीवन चक्र नियमित होता था और इस चक्र को अनियमित करने वाले जितने भी कारक थे उनका समय समय पर उन्मूलन किया जाता रहता था. नियत समय पर जीने और मरने वाले हम लोग खेत में लगे अरबी या खरीफ की फसल जैसे ही तो थे.
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ये बहुत बुरी बात है कि इतने पर भी प्रेम जैसी कोई चीज़ मेरे अंदर बची रह गयी है. कि जैसे किसी जर्मन कवि ने कहा था कि अब इस भाषा में कभी भी कविताएं नहीं रची जा सकेंगी. उन्होंने फिर आजीवन कुछ नहीं लिखा.  मेरी हालत ऐसी है जैसे कि अंदर कहीं आग लगी हुयी है और मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही हूँ. मैं जानती हूँ कि मेरे लिए लिखना जरूरी है...मगर इस वक्त...इस वक्त...मैं दिल्ली में होना चाहती हूँ.
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I miss you.
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हालाँकि मैं जानती हूँ कि मैं जिस तुम के पीछे भागती हूँ वो दरअसल मेरी खुद को ढूँढने की कोशिश है. लोग आइनों की तरह होते हैं...उनमें आपका खुद का अक्स दिखता है. तलाश एक ऐसे आईने कि है जिसमें अक्स धुंधला न दिखे. बस.
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आह...जरा सी जो कच्ची फाँक मिल जाती तुम्हारी आवाज़ की तो क्या बात होती!                                                                      

17 July, 2012

क्राकोव डायरीज-४-अतीत के सियाह पन्नों से

इतिहास की किताबें हमें 'होलोकास्ट' के बारे में कुछ नहीं बताती हैं. शायद बचपन इस लायक होता भी  नहीं है कि इतिहास की इस क्रूरतम घटना की विभीषिका को समझ सके. मैंने होलोकास्ट के बारे में पहली बार सिलसिलेवार ढंग से २००५ में पढ़ा. इन्टरनेट के इस्तेमाल के वो शुरूआती दिन थे.
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होलोकास्ट...फाइनल सोल्यूशन टू द जुविश प्रॉब्लम...शोआह...ये कुछ टर्म हैं जो नाजी जर्मन लोगों के द्वारा लाखों यहूदियों के सिस्तेमटिक सामूहिक हत्या को कहा गया है. हिटलर के हिसाब से यहूदी एक निम्न रेस थे और बहुत तरीके ढूँढने के बाद आखिरकार निर्णय लिया गया कि संसार को उनसे छुटकारा दिलाने का एक ही तरीका है...उनकी सामूहिक हत्या.
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यहूदी मुख्यतः व्यापारी वर्ग होते थे. १६वीं शताब्दी में पोलिश राजा काज्हिमिर महान ने उन्हें पोलैंड में बसने के लिए बुलाया था और व्यापार के लिए अवसर प्रदान किये थे. कज्हिमिर धर्मों की एकता में विश्वास रखता था. उस समय से पोलैंड में बहुत से यहूदी बस गए थे. 
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द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी ने पोलैंड पर कब्ज़ा कर लिया था. जर्मन फौज...जिसे SS कहते थे ने सिलसिलेवार ढंग से यहूदियों को पहले शहर से बाहर निकाला. क्राकोव शहर से बाहर एक शहर था कजिमिर...जो कि राजा के नाम पर बसा था. यहाँ पर घेट्टो बनाये गए और क्राकोव से सारे यहूदियों को अमानवीय परिस्थिति में रहने को भेज दिया गया. एक कमरे के घर में लगभग २५ लोग रहते थे. कजिमिर से रेल लाइन गुज़रती थी...यहाँ से यहूदियों को दूसरे कोंसन्त्रेशन कैम्प, जैसे कि औस्वित्ज़ भेजने में आसानी होती. 

Memorial at Kazimierz
कजिमिर तक जाने वाली जुविश वाक में तीन घंटे लगते हैं. क्राकोव के मेन मार्केट स्क्वायर से चलते हुए हम कजिमिर पहुँचते हैं. यहाँ पर लोगों की याद में ट्राम स्टेशन के पास मेमोरियल बनाया गया है. जिन यहूदियों को कोंसेंत्रेशन कैम्प भेजा गया उन्हें लगता था कि वे वापस लौट कर आयेंगे इसलिए उन्होंने अपना कीमती सामान जैसे कि सोना और अन्य बहुमूल्य आभूषण फर्नीचर में छुपा दिए. जब घेट्टो से फर्नीचर निकाला गया तो बहुत सारा मेटल निकला...इस मेटल को पिघला कर कुर्सियां बना दीं गयीं और स्क्वायर पर मेमोरियल के रूप में ये कुर्सियां हैं. मेमोरियल ठहरे हुए लोगों का...सफ़र में होने का प्रतीक है. 

काजिमिर आने और यहाँ से कांसेंत्रेशन कैम्प में जाने वाले लोगों को ये नहीं मालूम था कि वहाँ से कोई लौट कर नहीं आएगा. उस स्क्वायर पर खड़े होकर महसूस होता है कि उनमें से कोई भी कहीं नहीं गया है. मरने के बाद भी सारे लोग वापस लौट कर आ गए हैं. उनकी आत्माएं अभी भी वहीं भटकती हैं...कि उनका कुछ सामान यहाँ है जो उन्हें बहुत कीमती लगता है. ये वाकई ठहरे हुए लोगों का स्क्वायर है...जहाँ से कोई कहीं नहीं जाता. 

Ghetto wall
कजिमिर घेट्टो की दीवारों का आर्किटेक्चर उस समय की कब्रगाहों के जैसा था...ये सेमिसर्किल वाली दीवारें लोगों को इस बात का अहसास दिलाने के लिए थीं कि ये तुम्हारी कब्र है...यहाँ से तुम मर कर ही निकलोगे. घेट्टो की दीवार के दो हिस्से अभी भी मौजूद हैं. उनमें से एक ये हिस्सा है. घेट्टो के बची हुयी इमारतों में अब भी लोग रहते हैं. मैं सोच कर थरथरा जाती हूँ कि लोग कैसे उन इमारतों में रह पाते हैं जिनसे इतना क्रूर अतीत जुड़ा हुआ है.

लोगों को घेट्टो में कैद करना फाइनल सोल्यूशन का पहला हिस्सा था...जिसमें यहूदियों को आम नागरिकों से अलग हटा कर रख दिया गया था. वे बाकी पूरी दुनिया से कट गए थे. घेट्टो के बीच गुजरने वाली ट्रेन से अक्सर बाकी पोलिश लोग उनकी मदद के लिए खाना या कभी कभार अखबार फ़ेंक देते थे. एक बार इसी तरह एक ट्रेन से एक पोलिश व्यक्ति ने खाना फेंका तो जर्मन फ़ौज ने देख लिया. उसी वक्त ट्रेन रुकवा कर ट्रेन में सफ़र करने वाले सारे यात्रियों को उसी स्क्वायर पर गोली मार दी गयी. यहूदियों की मदद करने पर न केवल उस व्यक्ति बल्कि उसके पूरे परिवार को उसी समय शूट कर दिया जाता था. 

बहादुरी...किसे कहते हैं? एक फौजी...सैनिक की बहादुरी समझ में आती है...उसे अपनी जान का भय नहीं रहता क्यूंकि वह सोच कर जाता है कि एक न एक दिन मौत आनी ही है...मगर युद्ध में ऐसे कई नायक होते हैं जिनकी गाथाएं मालूम नहीं होती. ना केवल अपनी जान का खतरा, बल्कि अपने पूरे परिवार के मर जाने का खतरा होने के बावजूद अनगिनत पोलिश नागरिकों ने यहूदियों की कई तरह से भाग जाने में मदद की. कई बार ऐसे मौके आते थे कि यहूदी जमीन के नीचे बने नालों से होकर विस्तुला नदी तक पहुँच जाते थे...जहाँ अन्य पोलिश नागरिक उन्हें स्मगल करके दूसरे शहरों और देशों तक पहुंचा देते थे. 

Schindler's Museum
जिन लोगों ने यहूदियों की रक्षा की...कई बार अपनी जान का जोखिम लेते हुए भी, इनमें से एक नाम सबसे ऊपर आता है...ओस्कर शिंडलर का. शिंडलर एक जर्मन था और अपनी फैक्ट्री में उसने यहूदियों को काम पर रखा था...उसने लगभग ११०० यहूदियों की जान बचाई और ये यहूदी आज भी अपने आप को शिंडलर्स ज्यूस कहते हैं. शिंडलर एक विवादित कैरेक्टर है, कई कहानियां कहती हैं कि उसे पहले यहूदियों को सिर्फ इसलिए काम पर रखा क्यूंकि वे मुफ्त में काम करते थे...मगर धीरे धीरे जब उसने देखा कि घेट्टो में किस तरह यहूदियों का क़त्ल हो रहा है तो उसने जी जान से अपनी फैक्ट्री में काम करने वाले यहूदियों की रक्षा की. ओस्कर शिन्दलर की फैक्ट्री का पूरा हिस्सा एक म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया है जिसमें द्वितीय विश्व युद्द में होने वाली घटनाओं का ब्यौरा है. ये म्यूजियम देखने में तीन घंटे लगते हैं और मैं अभी तक यहाँ जा नहीं पायी हूँ. 

टूर पर चलते हुए अवसाद इतना गाढ़ा होता है कि कई बार लगता है डूब के उबरने के कोई आसार नहीं हैं. घेट्टो में रहने वाले लोगों की लाचारी...उनकी तकलीफें...हत्या...चीखें...सब कुछ हवा में ठहरा हुआ है. कहते हैं कि आवाजें कहीं नहीं जातीं. मन को थोड़ी शांति म्यूजियम के बाहर यहूदियों की किताब...तालमुड की लिखी एक कहावत से मिलता है...Whoever saves one life, saves the world entire'...जिसने एक जान भी बचाई है उसने पूरी दुनिया की रक्षा की है. तीन घंटे का ये टूर...यहूदी शब्द पर खत्म होता है...शालोम...अर्थात शान्ति...इसे शुरुआत और आखिर में इस्तेमाल करते हैं. 
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लिखने का वक्त नहीं मिल पा रहा और मानसिक स्थिति भी खराब रह रही है...उसपर यहाँ बहुत बारिशें हो रही हैं. धूप में रहने पर अधिकतर मन प्रसन्न महसूस करता है...बारिशें कुछ दिन तो अच्छी लगती हैं मगर ज्यादा दिन होने पर, खास तौर पर ऐसे किसी अनुभव से गुजरने के बाद अवसाद को ही जन्म देती हैं. बुरे सपनों के कारण नींद एकदम नहीं आती...रात जागते बीतती है और डर इतना लगता है कि अकेले दिन में भी होटल के कमरे में दिल की धड़कन बढ़ी रहती है. 

कल मैं औस्वित्ज़ गयी थी जो कि सबसे बड़ा कांसेंत्रेशन कैम्प था. तीन मिलियन लोग इस कैम्प में मारे गए जिनमें से ९० प्रतिशत यहूदी थे...और ये ऑफिसियल आंकड़े हैं. असल में क्या हुआ था उसकी सही सही मालूमात नहीं है. जब से वापस लौटी हूँ सदमे में हूँ...समझ नहीं आ रहा क्या सोच के खुद को समझाऊं...वो तसवीरें मन से कैसे इरेज करूं. लिख कर शान्ति मिलेगी ऐसा सोच कर पोस्ट लिखने बैठी...पर अब लगता है कि बंद कमरे के इस होटल में और रही तो जान चली जायेगी. इसलिए बाहर टहलने जा रही हूँ. बाहर अनगिन बारिशें हो रही हैं. ठंढ बेतहाशा बढ़ गयी है. शायद शाम को लिख सकूंगी वापस लौट कर...या फिर कल सुबह. 

दुआएँ कीजिये...इस देश के लिए...आत्माओं की शांति के लिए...
और फिर थोड़ी सी उम्मीद बचे तो मेरे लिए भी थोड़ी दुआएँ मांग लीजिए...

16 July, 2012

क्राकोव डायरीज-३-बारिशों का छाता ताने

यूँ तो इस कासिदाने दिल के पास, जाने किस किस के लिए पैगाम हैं
जो लिखे जाने थे औरों के नाम, मेरे वो खत भी तुम्हारे नाम हैं
-जान आलिया
डायरी में लिखा हुआ...
12th July, 12:26 local time Krakow
किले के पीछे विस्तुला नदी बहती है. मैं नदी किनारे बैठ कर हवा खा रही हूँ. लोगों के आने जाने की आवाजें हैं. नदी की लहरों का शोर. घूमने को कई सारे म्यूजियम हैं, देखने को कई सारी जगहें...ऐसे में बिना कुछ किये बैठे रहने में वैसा ही भाव है जैसे गर्मी की छुट्टी का होमवर्क नहीं करने में था. M lovin it :)
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वे धूप की खुशबू में भीगे दिन थे...गुनगुनाते हुए. 
मेरे फोन में 3G आ गया था तो शहर घूमना थोड़ा आसान हो गया. मुझे वैसे भी रास्ते अच्छे से याद रहते हैं. क्राकोव में मैं जहाँ ठहरी हूँ वो 'ओल्ड टाउन' का हिस्सा है. सारे किले, पुराने चर्च, म्यूजियम आसपास ही हैं और पैदल घूमा जा सकता है. १२ की सुबह आराम से तैयार होकर घूमने निकली तो सोचा ये था कि यहाँ का जो मुख्य किला है...वावेल कैसल उसके अंदर के म्यूजियम घूमूंगी. आज दूसरा रास्ता लिया था कैसल जाने के लिए. इस रास्ते के एक तरफ पार्क था और दूसरे तरफ बिल्डिंग्स. यूरोप का आर्किटेक्चर लगभग एक जैसा ही है...स्लोपिंग छत वाले घर और बालकनी...खिड़कियों के बाहर फूलों वाले गमले जिनमें अक्सर लाल फूल खिले रहते हैं. 

इस दूसरे रास्ते पर चलते हुए किले के नीचे पहुँच गयी...नदी के किनारे. यहाँ ड्रैगन की गुफा का बाहरी दरवाजा है...जहाँ एक ड्रैगन बना हुआ है जिसके मुंह से आग निकलती है. नदी के लिए क्रूज भी यहीं से मिलते हैं. क्राकोव में बहुत सारा स्टूडेंट पोपुलेशन है इसलिए यहाँ धूप में पढ़ते हुए लोग दिख जाते हैं...नदी किनारे, पेड़ के नीचे पढ़ते लिखते लोग देख कर लगता है कि जिंदगी इसी का नाम है. कोई बारह बज रहे थे और माहौल इतना अच्छा था कि कहीं जाने का मन ही नहीं कर रहा था. शहर में आये हुए ये तीसरा दिन था. कुछ खास देखा नहीं था अभी...कैसल में भी म्यूजियम हैं, राजाओं की कब्रें हैं और इसके अलावा टाउन स्क्वायर जिसका मूल नाम रैनेक ग्लोव्नी होता है में भी एक बड़ा सा म्यूजियम है जिसे क्लोथ हॉल म्यूजियम कहते हैं. इसके अलावा ३ बजे मेन स्क्वायर से जुविश क्वाटर के लिए टूर शुरू होता है...उसे देखने का भी दिल था.

घोर गिल्ट महसूस करने के बावजूद मैं वहाँ कुछ देर ठहरी रही...ठंढ के दिन में धूप...उसपर इतनी खूबसूरती...सारा गिल्ट महसूस करने के बावजूद कहीं जाने का दिल नहीं कर रहा था. सोच ये रही थी कि यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड लिखने में कितना मज़ा आएगा...किले की बुर्ज पर बने कमरेनुमा वाच टॉवर को देखा तो बिलकुल पुराने जमाने के लाल-डिब्बे जैसा दिखा. कुछ देर वहीं धूप खाने के बाद ऊपर किले पर पहुंची और पोस्टकार्ड ख़रीदा...फिर खाने का इन्तेज़ार करते हुए पोस्ट कार्ड पर पता और मेसेज लिखा. फिर कार्ड को असली वाली पोस्टबोक्स में गिराया. यहाँ के स्टैम्प्स बहुत अच्छे लगते हैं मुझे.

टाउनहाल की नींवें
आज की कहानी है नीवों की...पार्ट वन में आपने यहाँ की नींव के बारे में सुना...अब बारी थी उन्हें असल में जा कर देखने की. क्लोथ हॉल म्यूजियम एक बड़ी सी इमारत है. जब मैंने सोचा कि आज म्यूजियम देखना है तो मुझे लगा कि ईमारत में जाना है...सीढ़ियाँ नीचे की ओर जाते हुए देख कर भी मुझे नहीं लगा था कि म्यूजियम दरअसल ऊपर की इमारत नहीं...वाकई टाउन स्क्वायर की गिरी हुयी इमारत की नींवों में है. म्यूजियम के एंट्रेंस में एक विडीयो चल रहा था...मुझे लगा कि कोई दीवार है...जिसपर प्रोजेक्शन है...मगर तकनीक इतनी आगे बढ़ गयी है...वो असल में हवा में थ्री डी प्रोजेक्शन था...कोई दीवार नहीं थी. 


१५०० AD: मेन टावर, क्राकोव टाउनहाल
क्राकोव का टाउनहाल १२वीं शताब्दी से उसी जगह पर है. म्यूजियम में बहुत सालों पुरानी बनी नींवें थीं...थ्री डी टेक्निक और प्रोजेक्शन से हर सदी के साथ कैसे नींव की रूपरेखा बदली ये भी दिखता था. १६ वीं शताब्दी में जहाँ आज का टाउनहाल है वहाँ पर एक बहुत बड़ा बाजार हुआ करता था फिर एक भीषण आग में सब जल कर भस्म हो गया. आर्कियोलॉजिकल सर्वे में उस समय का काफी कुछ सामान मिला है. पुराने जमाने में लुहार, स्वर्णकार किस तरह काम करते थे इसे मोडेल्स और छोटी फिल्मों के माध्यम से दिखाया गया है. यहाँ कई सारे स्कूल के बच्चे भी आये हुए थे जिनके साथ टीचर और गाइड भी थीं. नीवें पूरे टाउन स्क्वायर के नीचे नीचे हैं...और म्यूजियम भी इन्ही नींवों के बीच बना हुआ है...यानी कि पूरा अंडरग्राउंड है. सबसे अधिक आश्चर्य हुआ जब एक जगह पानी की परछाइयाँ देखीं. मुझे लगा कि फिर से कोई इन्तेरैक्तिव वीडियो है...पानी में पैर भी देखे...बहुत देर बाद जाकर अहसास हुआ कि नींव की सुरंगनुमा गलियारों में चलते हुए मैं मेन स्क्वायर के बड़े से झरने के ठीक नीचे खड़ी हूँ...और जो पानी है वो उसी फाउंटेन का है...और जो पैर नज़र आ रहे हैं वो असल में ऊपर पानी में खेलते बच्चों के हैं...किसी वीडियो फिल्म के नहीं. म्यूजियम इतना बड़ा है कि अगर लोग कम हों तो कई बार डर लग जाए कि कहीं खो न जायें.
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उस शाम से हर शाम बारिशें हो रही हैं...मैं सोचती हूँ अच्छा हुआ कि धूप में कुछ देर बैठने का मन था तो बैठ लिए...कल का दिन कैसी बारिशें लिखा के लाता है कोई नहीं जानता. इधर बारिशें होती हैं तो मैं जींस मोड़ कर...फ्लोटर्स पहन कर फोन-वोन होटल के कमरे पर छोड़ कर  निकल जाती हूँ. भीगता हुआ शहर भीगती लड़की की तरह ही खूबसूरत दिखता है. पुरानी पत्थर की बनी इमारतें...और सड़कें. बारिश में लगभग हर कोई भागता हुआ दिखता है...एक मैं ही हूँ जो इस शहर की कहानियां सुनने को भटकती रहती हूँ. रंग बिरंगे छाते तन गए हैं हर तरफ और शोर्ट्स में घूमने वाली लड़कियां जींस और जैकेट में बंध गयी हैं.

हर शहर में पहली बारिश की खुशबू एक ही होती है फिर इस शहर में क्या खास है...फुहारों में वायलिन की आवाज़ भी आती है...यहाँ की बारिश में संगीत घुला होता है. मैं यहाँ कभी हेडफोन लगा कर नहीं घूमती कि यहाँ के हर चौराहे पर कोई न कोई संगीत का टुकड़ा ठहरा होता है...कभी वायलिन, कभी गिटार तो कभी ओपेरा गाती लड़की तो कभी बांसुरी की तान छेड़ता कोई बूढा...यहाँ कितना संगीत है...और कितनी ही उदासी. यहाँ की हवाएं ऐसे ठहरती हैं जैसे गले में सिसकी अटकी हो.

पूछना बादलों से मेरा पता...
मैं बारिशों में यहाँ की दुकानें देखती हूँ...सबके लिए कुछ न कुछ लेकर जाउंगी इस शहर से...दोस्तों के लिए पोस्टकार्ड छांटती हूँ...सबसे अलग, सबसे अच्छे...सबसे रंग भरे...क्या भेज दूं यहाँ से...इस शहर से मुझे प्यार हो गया है...यहाँ से लोगों से...गलियों से...पुरानी, रंग उड़ी इमारतों से...किले के नीचे चुप  बहती विस्तुला से...ड्रेगंस...स्ट्रीट आर्टिस्ट्स...बारिश...हवा...पानी...सबसे. बहुत सी बारिशों में बैठ कर पोस्टकार्ड लिखती हूँ...किले की खिड़की से बारिश बाहर बुलाती है...मैं पोस्टकार्ड पर फूँक मार रही हूँ...इंक पेन से लिखा है...यहाँ और देश की बारिश में धुल न जाए.

कितना अच्छा लग रहा है...इतने अच्छे और खूबसूरत देश में...बारिशों को देखते हुए...बहुत से अच्छे प्यारे दोस्तों को लिखना...कि जैसे जितनी मैं यहाँ हूँ...उतनी ही भारत में भी. कि जैसे दुनिया वाकई इतनी छोटी है कि आँखों में बस जाए. कि प्यार वाकई इतना है कि पूरे आसमानों में बिखेर दो...कि तुम्हारे शहर में बारिशें हो तो समझना, मैंने दुआएँ भेजी हैं.

बस...दूर देश से आज इतना ही.

Mood Channel: Edit Piaf- Bal dans ma rue

11 July, 2012

क्राकोव डायरीज-२-गायब हुए देश की कहानियां

बहुत समय पहले की बात है...एक युवक था...आदर्शों में डूबा हुआ...दुनिया को बदलने के ख्वाब देखता हुआ...वो एक कवि था...पोलैंड एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा था उस वक्त...युवक के परिवार में भी कोई शख्स नहीं बचा था...उसने चर्च की ओर रुख किया पादरी बना. फिर चर्च के एक एक पायदान चढ़ते हुए वैटिकन...और फिर...एक मिनट रूकती है...अलीशिया की आँखों में खुशी नाच उठी है...जैसे वो कोई उसका अपना था...अपने दिल पर हाथ रख कर कहती है...इस छोटे से पोलैंड से उठ कर गया वो लड़का...वो कवि...वो आइडियल लड़का...'पोप' बनता है...यू नो...पोप जॉन पौल २...वो पोलैंड से था...हमारा अपना पोप. उस वक्त पोलैंड में कम्युनिस्ट रूल था...वे लोगों को एक बराबर मानते थे इसलिए धर्म के खिलाफ थे. जॉन पौल ने पोलैंड आने का प्रोग्राम बनाया. कम्युनिस्ट अथोरिटी को ये पसंद नहीं आया और वे तैयार थे कि खून खराबा होगा और कोई क्रांति होगी तो वे कितनी भी हद तक जाकर उसे शांत करेंगे. लोगों में इस बात की उत्सुकता थी कि जब कम्युनिस्ट जेनेरल जरुज्लेसकी और पोप मिलेंगे तो कैसे मिलेंगे...क्या पोप उनसे हाथ मिलायेंगे...पोप ने कमाल का उपाय निकाला...उन्होंने जेनरल को अपने प्लेन में अंदर बुलाया...और आज तक कोई नहीं जानता कि अंदर क्या हुआ था...जब बाहर आये तो दोनों हाथ हिला रहे थे पब्लिक की ओर. अलीशिया बताती है कि लोग जेनरल  जरुज्लेसकी से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं...अब वो कोई १०० साल की उमर का आदमी होगा मगर अब भी उसके घर के आगे खड़े होकर गालियाँ देते हैं और पत्थर फेंकते हैं...उसके हिसाब से अब उसे उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए...लेकिन...नफरत इतनी आसानी से खत्म नहीं होती. एक गहरी सांस! उफ़.

पोलिश लोग पोप से बहुत प्यार करते थे और एक गर्व की भावना से भरे हुए थे...उनके 'मास' में आने के लिए सारे लोगों में उत्सव जैसा उत्साह था...कम्युनिस्ट सरकार ने लोगों को पोप से मिलने से रोकने के लिए अनेक उपाय किये...मास के दिन सारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद था...लोगों को ऑफिस में बहुत ज्यादा काम दे दिया गया और ऐसे अनेक तरीके कि लोग अपने घर से बाहर जा ही न पाएं. लेकिन लोगों ने मास अटेंड करने के लिए ४० किलोमीटर तक से पैदल आ गए थे. पोप को पोलिश रिवोलूशन में एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है. मास के बाद जब पोप अपने घर में आराम करने आये तो उनके साथ पूरा जनसमूह उमड़ पड़ा...तो वो अपने क्वार्टर से बाहर खिड़की पर खड़े हो गए और लोगों से बात करते रहे. उस पूरी रात लोग उनकी खिड़की के नीचे खड़े रहे...कोई गीत गा रहा था...कहीं कविता सुनाई जा रही थी...कहीं प्रार्थनाएं हो रही थीं...कहीं हँसी मजाक हो रहा था...और इस सारे वक्त सारे लोग रुके रहे और पोप अपनी बालकनी नुमा खिड़की पर उनके साथ पूरी रात बातें करते रहे. उस दिन के बाद से नियम हो गया कि पोप जब भी पोलैंड आते अपनी खिड़की पर जरूर आते और लोग उनसे मिलने वहीं खिड़की के नीचे खड़े रहते. उनके रेसिडेंशियल क्वाटर का एरिया हमेशा पोप से जुड़ी जगह हो गयी...जब पोप का देहांत हुआ तो पूरे दो हफ्ते तक वो सड़क...जो कि क्राकोव की एक बेहद बीजी सड़क है...दो हफ्ते तक वो सड़क फूलों और मोमबत्तियों से जाम रही. ये थी कहानी उस पोलिश पोप की जिससे पोलिश बहुत प्यार करते हैं...जो कवि था...और जिसने क्रांति की उम्मीद लोगों के दिलों में जलाए रखी. 

दूसरी कहानी है...क्राकोव की...कहानी के बहुत सारे वर्शन हैं...तो हम आपको अलीशिया का वर्शन सुनाते हैं...बहुत साल पहले की बात है क्राकोव में एक राजा रहता था...लेकिन उसका एक पड़ोसी था जो उसको बिलकुल पसंद नहीं था...होता है...हम अक्सर अपने पड़ोसियों को पसंद नहीं करते...वावेल पहाड़ी पर, विस्तुला नदी के किनारे एक गुफा में ड्रैगन रहता था...और ड्रैगन वर्जिन लड़कियों को ही खाता था...हर कुछ दिन में वर्जिन लड़कियां उठा ले जाता था...अब यू नो...राजा को भी वर्जिन लड़कियां पसंद थीं और जैसा कि होता है...वर्जिन लड़कियां हमेशा संख्या में कम होती हैं...तो राजा को ड्रैगन से कॉम्पिटिशन पसंद नहीं था...इसलिए उसने मुनादी कराई कि जो भी योद्धा ड्रैगन को मार देगा उसे बहुत सारा राज्य और एक खूबसूरत राजकुमारी मिलेगी. बहुत से योद्धा ड्रैगन की गुफा में गए...पर कोई भी वापस नहीं लौटा. आखिर राजा ने मुनादी कराई कि कोई आम इंसान भी ड्रैगन को मार देगा तो उसको भी वही इनाम मिलेगा. एक मोची के यहाँ एक छोटा सा लड़का काम करता था...स्कूबा...उसने कहा वो ड्रैगन को मार देगा तो सब लोग उसपर बहुत हँसे...मगर छोटे, बहादुर स्कूबा ने हार नहीं मानी...उसने एक मेमने के अंदर बहुत सारा सल्फर भर दिया और उसे ड्रैगन की गुफा के सामने बाँध दिया...ड्रैगन बाहर आया और मेमने को खा गया. अब ड्रैगन के पेट में सल्फर के कारण जलन होने लगी(अब उन दिनों में ईनो तो था नहीं कि ६ मिनट में गैस से छुटकारा दिला दे ;) ;)  ) तो ड्रैगन विस्तुला नदी में कूद गया और खूब सारा पानी पीने लगा...वो कितना भी पानी पीता जलन कम ही नहीं होती...आखिर वो पानी पीते गया पीते गया और बुम्म्म्म्म्म्म्म से फट गया. सब लोग खुश...स्कूबा की शादी राजकुमारी से हो गयी और वो लोग खुशी खुशी रहने लगे. 

ये तो हुआ परसों का बकाया उधार...

कल मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं था...मुझे वावेल कैसल घूमना था और शाम को ३ बजे एक पैदल टूर होता है जुविश क्वार्टर का वो देखना था...आधा दिन मेरा फोन में चला गया. अभी भी मेरा फोन काम नहीं कर रहा...उससे काल्स नहीं हो रहे...बस इन्टरनेट काम कर रहा है. तो अभी मेरे पास एक फोन है इन्टरनेट के लिए और एक फोन है नोकिया का कॉल करने के लिए...नोकिया वाले सिम में पैसे खतम हैं...तो मैं सिर्फ फोन अटेंड कर सकती हूँ...अगर कोई फोन करे तो.

मेरा दिन यहाँ ७ बजे शुरू होता है...८ बजे कुणाल के ऑफिस के टैक्सी आती है...उसके बाद का टाइम में थोड़ा बिखरा सामान समेटने और नहा के तैयार होने में जाता है. फिर लिखने में कोई घंटा डेढ़ घंटा लगता है...ग्यारह के आसपास मैं तैयार हो जाती हूँ. कल मुझे फ्री वाल्किंग टूर वाले दिखे नहीं...उनके साथ घूमने में मज़ा आता है...वो कहानियां सुनाते चलते हैं इसलिए मैं उनके साथ ही जुविश क्वार्टर देखना चाहती हूँ. 

टावर के ऊपर की खिड़की में 
कल फोन में नया नंबर लिया और सोचे कि क्या करें तो सबसे पहले जाके मार्केट में जो इकलौता टावर बचा है उसपर चढ़ने का टिकट कटा लिए. खतरनाक घुमावदार ऊँची नीची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए टावर की आधी ऊँचाई पर खड़ी सोच रही थी कि मैं हर बार ऐसा क्यूँ करती हूँ...टावर देखते ही चढ़ने का मन क्यूँ करता है. मुझे क्लौस्ट्रोफोबिया है...बंद जगहों से डर लगता है...ऊँची जगहों से डर लगता है और ये टावर बंद भी है और ऊँचा भी है...माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति से पूछा गया कि आप माउंट एवेरेस्ट पर क्यूँ चढ़े तो उसका कहना था...क्यूंकि वो है...बिकॉज इट इज देयर...कुछ वैसा ही मेरा हाल है. तो टावर था तो चढ़ गयी :) अच्छा लगा...वहाँ से नज़ारा अच्छा था शहर का...फोटो वोटो खींच के नीचे उतरे. फिर फोन के चक्कर में पड़े...कोई ढाई टाइप बज गया. भूख के मारे चक्कर आने लगे. 

फिर सारे रेस्टोरेंट का मेनू पढ़ते पढ़ते एक जगह पास्ता विथ पेस्तो सौस दिखा...वो वेजेटेरियन होगा ये सोच कर खुश हो गए...और खाने बैठ गए. टाउनहाल की नीवों पर बने इस स्क्वायर पर रेस्टोरेंट्स हैं...चारों तरफ...कुछ दूर में विस्तुला नदी बहती है...लोग सड़कों पर खड़े कोई वायलिन, गिटार, अकोर्दियान बजाते रहते हैं...हवा में मिलीजुली आवाजों की खुशबू थी. आइस टी पी रही थी और सोच रही थी...किसी की याद में नहीं...पूरी की पूरी खुद के साथ. मैं किसी और के साथ होना नहीं चाहती थी...मैं किसी अतीत में खोयी नहीं थी...वर्तमान के साथ किसी और लम्हे का एको नहीं था...ऐसा कोई दिन कभी नहीं आया था...कभी नहीं आएगा...मुझे खुद के साथ होना अच्छा लगा. मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी...मैं इत्मीनान से आइस टी पीते हुए सामने के स्क्वायर पर आते जाते लोगों को, उनके कपड़ों को, उनकी मुस्कुराहटों को देख रही थी...धूप थोड़ी तिरछी पड़ने लगी थी...हवा में हलकी सी खुनक थी...मौसम ठंढा था और धूप से गर्म होती चीज़ें थी...सब उतना खूबसूरत था जितना हो सकता था. मैं मुस्कुरा रही थी. मैं वाकई बहुत बहुत साल बाद अपने आज में...उस प्रेजेंट मोमेंट में पूरी तरह से थी...खुश थी. 

पास्ता बहुत अच्छा था...खाना खा के मैंने जुविश क्वार्टर देखना मुल्तवी किया...वाकिंग टूर वाले लोग दिख भी नहीं रहे थे...सोचा टहलते हुए किला देख आती हूँ या नदी किनारे बैठती हूँ जा कर. मुझे लगता है मैं धीरे धीरे वापस से वही लड़की होने लगी हूँ जिससे मैं बहुत प्यार करती थी...अपनी गलतियों और अपनी बेवकूफियों को थोड़ा सा दिल बड़ा करके माफ कर देना चाहती हूँ.

The Monument. 1975-1986. A monument to show
the two great men that invented socialism to be set
in a country in which socialism had become a reality.
Creation of statues of Karl Marx and Friedrich Engels.
(From the exhibition- Stories from a vanished country)

सामने एक एक्जीबिशन दिखा...स्टोरीज फ्रॉम अ वैनिशड कंट्री...गायब हुए देश की कहानियां...तो मैं एक्जीबिशन देखने चली गयी. GDR- जर्मन डेमोक्रटिक रिपब्लिक जो कि बर्लिन की दीवार के पूर्वी हिस्से में था...एक आदर्श कम्युनस्ट देश की तरह स्थापित किया जा रहा था...जहाँ सारे लोग बराबर थे. इस प्रदर्शनी में कई सारी तसवीरें थीं जो उस खोये हुए देश की कहानियां सुनाती थीं...जीडीआर में खुद को एक्सप्रेस करने की आजादी नहीं थी...सारे लोग यूनिफार्म पहनते थे और एक जैसे ब्लाक्नुमा घरों में रहते थे. तस्वीरों और उनके शीर्षक एक अजीब तिलिस्मी दुनिया रच रहे थे मेरे इर्द गिर्द...आधी दूर जाते जाते लगने लगा कि मैं उन तस्वीरों में ही कहीं हूँ...जीडीआर में लोग जब एक लाइन लगी देखते थे तो उसमें लग जाते थे...बिना ये जाने कि किस चीज़ की लाइन लगी है...अगर वस्तु उनके काम कि नहीं है तो वे उसे उस चीज़ से बदल सकते थे जो उन्हें चाहिए होती थी. काला-सफ़ेद तिलिस्म...उचटे हुए लोग...हर तस्वीर से एक अजीब उदासी रिसती हुयी...ऐसा लग रहा था जैसे मेरा चेहरा उनमें घुलता जा रहा है...हर रिफ्लेक्शन के साथ मैं थोड़ी थोड़ी खोती जा रही हूँ...जीडीआर में लोगों के चेहरे नहीं होते थे...इंडिविजुअल कुछ नहीं...कोई अलग आइडेंटिटी नहीं...आप बस भीड़ का हिस्सा हो...आपका अपना कुछ खास नहीं. मनुफैकचर्ड लोग...खदानों, कारखानों में काम करते लोग...कामगार...बेहद अच्छे खिलाड़ी...लेकिन आइना देखो तो कुछ नज़र नहीं आता. एक्जीबिशन देखना एक अजीब अनुभव था...कुछ इतना डिस्टर्बिंग और रियलिटी से काट देने वाला कि मैं बाहर आई तो अचानक से इतनी सारी रौशनी और हँसते मुस्कुराते लोग देख कर अचंभित हो गयी...मुझे लग रहा था जिंदगी में रंग होते ही नहीं हैं...और हॉल से बाहर भी ग्रे रंग की ही दुनिया होगी...लोग मिलिट्री यूनिफार्म में होंगे. तस्वीरों और शब्दों में कितनी जान होती है ये कल महसूस हुआ. 
विस्तुला नदी किनारे
पेड़ की छाँव में बैठ कर किताब पढ़ना...

फिर कुछ खास नहीं...टहलते हुए किले के पास चली गयी...देखा कि लोग घास में आराम से लेट कर किताब पढ़ रहे हैं या गप्पें मार रहे हैं...थोड़ा बहुत और भटकी...फेसबुक पर कुछ फोटो अपडेट की और बस...वापस आ गयी. दिन के आखिर में आखिरी ख्याल ये आया...कि मैं बहुत अच्छी हूँ...और मैं खुद से बहुत प्यार करती हूँ...और सबसे खूबसूरत लम्हा वो होता है जिसे हम जी रहे होते हैं. ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ इस जीवन के लिए...इन रास्तों और इस सफ़र के लिए और अपने दोस्तों और अपने परिवार के लिए...और सबसे ज्यादा कुणाल के लिए. 

चीयर्स!

10 July, 2012

क्राकोव डायरीज-१-अलीशिया के नाम

क्राकोव...पोलैंड.
9:34 am

कल मेरा क्राकोव में पहला दिन था...मैं अधिकतर ट्रैवेल डायरीज नहीं लिखती...पर पुराने अनुभव को देखते हुए पाती हूँ कि अगर न लिखूँ तो बहुत सी चीज़ें भूल जाउंगी. इसलिए इस बार जो चीज़ें मुझे सबसे अच्छी लगीं उनको यहाँ सहेज कर रख रही हूँ.

पिछले कुछ दिनों में मैं बैंगलोर से मुंबई...वहाँ से दुबई...वहाँ से म्यूनिक और आखिरकार क्राकोव पहुंची हूँ. पोलैंड आने का प्लान दो बार कैंसिल होकर ये तीसरी बार फाइनल हुआ है. इस बीच एयरपोर्ट पर घंटों का इन्तेज़ार था...म्यूनिक में हमारा वीसा लग गया था तो हम एयरपोर्ट के बाहर इंतज़ार कर रहे थे. वहाँ एक छोटा सा मेला लगा हुआ था...लाजवाब किस्म की अल्कोहल पीते हुए और जादू के कारनामे देखते हुए वक्त कैसा कटा मालूम ही नहीं चला. म्यूनिक की शाम मेरी अब तक की देखी हुयी शामों में सबसे खूबसूरत थी. वहाँ सूरज की रौशनी कम ही नहीं हुयी...पूरा चमकता हुआ गहरा नारंगी सूरज डूब गया...पूरे आसमान को गहरा नारंगी करते हुए.


हम क्राकोव रात के बारह बजे पहुंचे. अधिकतर मैं किसी देश जाती हूँ तो वहाँ के बारे में अच्छे से पढ़ कर जाती हूँ...पर पोलैंड का प्रोग्राम इतनी बार कैंसिल हुआ कि यकीं ही नहीं था कि आयेंगे भी...तो बिना कुछ पढ़े आ गयी. सुबह मुझे पीने का पानी और सिम कार्ड खरीदना था तो होटल से निकल कर मार्केट स्क्वायर की ओर चल पड़ी. मार्केट स्क्वायर के बीच में एक फाउंटेन है...मैं फोटो खींच रही थी तो देखा कि एक ग्रुप है जिसमें एक बोर्ड उठाए एक लड़की लोगों को जगह के बारे में बता रही थी...बोर्ड पर लिखा था 'Freewalkingtour Join Us'. मैं अधिकतर गाइड नहीं लेती हूँ...खुद घूमने में अच्छा लगता है...पर वहाँ जो लड़की खड़ी थी उसके बात करने का ढंग निराला था. मैं ग्रुप के साथ हो ली. 

हमारी टूर गाइड का नाम अलीशिया था...जिंदगी से भरी हुयी...पोलैंड के बारे में गर्व और प्यार से बात करती हुयी...इतिहास की कहानियों को वाकई कहानी की तरह सुनाती...उसने हमें पोलैंड का इतिहास बताया...राजाओं के किस्से बताये...नाज़ी जर्मन के अत्याचार बताए और ये सब थोड़ी सी मुस्कराहट के साथ कि बोझिल न हो...इतिहास मुझे सबसे बोरिंग सब्जेक्ट लगा था...कि इतिहास में क्यूँ रूचि होगी...मगर इतिहास ऐसे पढ़ाना चाहिए. पोलैंड पर और पोलिश लोगों पर कितने अत्याचार हुए...उन्हें सुनाने के दो तरीके हो सकते थे...एक तो फ़िल्मी देवदास टाइप रोना धोना...कि हमारी दुखभरी गाथा...एक था थोड़ा हँसी मजाक करते हुए...अपनी जिंदगी से जोड़ते हुए किस्से बुनना...अलीशिया ने वही किया. हँसते हुए उसने सारी कहानियां सुनायीं. उनमें से कुछ मेरी सबसे पसंदीदा मैं आपसे शेयर कर रही हूँ. ये मैंने जो सुना उस याद पर लिखा गया है...तो गलत हो सकता है...पोलिटिकली गलत हो सकता है वैसे में कृपया बता दें ताकि मैं बदलाव कर सकूं.

अलीशिया के हिसाब से...पोलिश लोग बहुत शिकायत करते हैं...ये अच्छा नहीं है...ये खराब है...खोट निकालते रहते हैं...लेकिन जैसे ही वो चीज़ उनसे छीनने की कोशिश करो...वो उसके लिए जान लगा देंगे...फिर वही चीज़ उनको जान से प्यारी हो जायेगी. ऐसा यहाँ की हर इमारत के बारे में किस्सा है.

क्राकोव के मार्केट स्क्वायर में एक टावर है...पहले यहाँ एक पूरी इमारत थी...यहाँ का टाउनहाल, मुख्य ईमारत के साथ लगे कुछ छोटी इमारतें भी थीं. नाज़ी छोटी इमारतों को गिरा कर एक आडियल टाउनहाल बनाना चाहते थे मगर पूरी इमारत कुछ ऐसी गुंथी हुयी थी कि बराबर की बिल्डिंग्स गिराने के क्रम में पूरा टाउनहाल गिर गया और अब बस एक टावर बचा है...और बचे हैं टाउनहाल की नींव. बिल्डिंग की नींव में लोगों के मनोरंजन का इन्तेजाम था. एक तरफ थे यातनागृह...टॉर्चर चेम्बर्स...एक्सिक्युशन चेम्बर्स और एक तरफ थे बार जहाँ यूरोप की सबसे अच्छी बियर मिलती थी...इन दोनों चेम्बर्स के बीच एक खिड़की खुलती थी...ताकि आप अपना बियर एन्जॉय करते हुए लोगों को मरते हुए देख सकें...ये लिखते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं. ये खिड़की यहाँ की सबसे प्रसिद्ध खिड़की थी.

जब नाज़ियों ने पोलैंड पर कब्ज़ा कर लिया तो हिटलर नहीं चाहता था कि पोलिश लोग पढ़ें...वो सिर्फ सस्ते कामगारों की तरह उनका इस्तेमाल करना चाहता था. उसने एक बार पोलैंड के सारे अच्छे साइंटिस्ट और प्रोफेसर्स को बुलवाया कि एक कोन्फेरेंस है जहाँ उन्हें जर्मन कल्चर के बारे में बताया जाएगा...फिर उसने उन सबको कंसन्ट्रेशन कैम्पस में भेज दिया. पूरा यूरोप सन्न रह गया क्यूंकि उस समय वैज्ञानिकों को संत के जैसा दर्जा दिया जाता था...वे हर जंग और हर सरहद से ऊपर होते थे...कोई भी देश या व्यक्ति उन्हें नुक्सान पहुंचाने के बारे में सोचता भी नहीं था. यूरोप के लोगों ने हिटलर पर बहुत दबाव डाला तो आखिर छः महीने बाद जिन साइंटिस्ट्स के जुविश(यहूदी) रूट्स नहीं थे, उन्हें छोड़ दिया गया. मगर छः महीने कैम्पस में अमानवीय तरीके से रहने के कारण अधिकतर साइंटिस्ट्स मर गए, कुछ में आगे काम करने की ताकत नहीं बची. जो साइंटिस्ट्स बचे थे और जिनमें आगे काम कारने की इच्छा थी...उन्होंने काम बरक़रार रखा...लेकिन उस वक्त यूनिवर्सिटीज नहीं थीं...कोलेज बंद कर दिए गए थे. फिर लोगों ने उपाय निकाला...सीक्रेट ग्रुप्स का...लोगों में पढ़ने और पढाने की कैसी अदम्य लालसा थी...जान का जोखिम था लेकिन लोग मिलते थे...किसी को किसी का नाम पता नहीं होता...न छात्र का न टीचर का...न जगह फिक्स होती थी...जगह बदल बदल कर, लोग बदल बदल कर लोग पढ़ते रहे. इस तरह पोलैंड में अनेक सीक्रेट सोसाइटीज बनीं पढ़ने के लिए.

अगर आपका पोलैंड जाने का मन है और घूमना है...तो ऐसे वाकिंग टूर जरूर कीजिये...इससे आपको यहाँ के लोग, उनके सपने, आज़ादी का मतलब और मकसद...कला का जीवन में महत्व पता चलता है...और सबसे ज्यादा कि हम जिंदगी को कितना टेकेन-फॉर-ग्रांटेड लेते हैं...जिंदगी सिर्फ किसी के प्यार में डूब कर सपने देखने से कहीं ज्यादा बड़ी है और ये दुनिया हम जितनी जानते हैं उससे कहीं ज्यादा विस्तृत...खूबसूरत और सहेजने लायक है...अलीशिया...मेरी ये पोस्ट तुम्हारे लिए...मैं जानती हूँ तुम इसे समझ नहीं पाओगी...लेकिन ये मेरा तुम्हारे जन्मदिन का तोहफा...हैप्पी बर्थडे लड़की.

और दो कहानियां बहुत मजेदार हैं...यहाँ के किले...वावेल कैसल की और पोप जान पौल की...वो अगली बार बताती हूँ. कहानियां बहुत सी हैं...मगर सारी सुनाने लगी तो आज की कहानी नहीं सुन पाउंगी...११ बजे एक और टूर है जिसे सुनने जाना है...तो बाकी कहानी लौट कर लिखती हूँ. 


यहाँ शामें कोई ९ बजे होती हैं...रात दस बजे तक रौशनी ही रहती है...मार्केट स्क्वायर में मेला सा लगा रहता है...लोग बियर पीते...घूमते फिरते रहते हैं. मैं भी घूमने निकलती हूँ :) बाकी कहानी फिर कभी...

06 July, 2012

एक ओक भर सांस...


उसकी आवाज़ नीम नींद के किसी गलियारे में भटकती है...आधे भिड़े हुए दरवाज़े खटखटाती है...रौशनी की बुझती हुयी लकीर से उलझती है...मुझे छू कर पहचानती है...उस आवाज़ ने मेरी आँखें नहीं देखीं हैं.

आवाज़ है कि काँधे पर खुशबू बांधती है...लंबी पतली उँगलियों से मेरी गिरहें खोलती है...उसकी आवाज़ है कि गाँव की कच्ची याद कोई...टीसते ज़ख्म खोलती है और सिलती है...धान की बालियों सी तीखी काट है उस की.

एक दिन पुराना पूर्णिमा का चाँद है कि जैसे घिस गया है सिक्का कोई एक तरफ से...वो खनखनाता है मेरी खिलखिलाहटों में...बिखेरता है जैसे कबूतरों को चुगाती है दाना कोई लड़की...मेरी कलाइयां थाम लीं थीं उसने आज.

कतरा है आवाज़ का मैं रोज जमा करती हूँ गुल्लक में थोड़ा थोड़ा...जिस दिन पूरा हो जाएगा उसके होठों का मानचित्र मैं ऊँगली बढ़ा कर पोंछ दूँगी खून का नन्हा सा कतरा जो उभर आया है...सिसकियाँ रोकते रोकते.

वो जिस्म है भी कि रूह है कोई कि जो बात करती है मुझसे कि कैसे छू कर देखते हैं आवाज़ को...कि ऐसा भी हुआ है कि वो कहता जाता है जाने क्या कुछ...पर मैं सुनती हूँ सिर्फ साँसों की नदी का बहना... कल... कल... कल...कल. वो कभी मुझसे सच में नहीं मिलेगा?

वो कैसे देखेगा मेरी नब्ज़...उसके छूते ही तो बढ़ जाती हैं न सांसें...धड़कन...मैं ख्वाब में भी उसकी आवाज़ को ढूंढती चलती हूँ...वो कहता है जरा कलाई दिखाओ तो...यहाँ...ठीक यहाँ ब्लेड मारना और पानी में डुबा देना कलाइयां...मैं तुम्हें मौत और जिंदगी के बीच मिलूँगा कहीं.

अधिकतर ऐसा होता है कि जिंदगी में लोग होते हैं और उसके साथ जुड़ी आवाज़ होती है...यहाँ आवाज़ है...पर उससे जुड़ा वो कैसा है मुझे मालूम नहीं.

मेरा गला सूखता है...होठों पर जीभ फिराती हूँ तो लगता है उसके होठों को छू लिया है...बिजली का करंट लगता है. उसके होठों का स्वाद बीड़ी जैसा है...बीड़ी धूंकनी होती है...सिगरेट की तरह नफासत नहीं है उसमें. मैं एक बार देखना चाहती हूँ कि जब वो मेरा नाम लेता है तो उसके होठ किस तरह हिलते हैं...क्या वैसे ही  जैसे मैं हमेशा सोचती आई हूँ?

केमिस्ट्री के नियम समझा नहीं सकते कि मुझमें और उसमें कौन सा बौंड है...फिजिक्स पीछे हट जाता है कि ये कौन सा एनर्जी कन्वर्शन है कि उसकी आवाज़ सुनती हूँ तो खाए पिये बगैर भी दिन गुज़र जाता है. 

दुनिया को जिस क्लीन सोर्स ऑफ एनर्जी की जरूरत है न...वो हम सबके अंदर है...एनर्जी ऑफ केओस...एनर्जी ऑफ मैडनेस...एनर्जी ऑफ इश्क.

मैं उससे पूछती हूँ...कि तुम्हारा नाम कुछ खास है कि मुझे लगता है...पूछती हूँ...नुक्ते का फर्क...ग़ और ग में...वो समझाता है गिलास वाला ग नहीं...ग़ालिब वाला ग. मैं हँसती हूँ...अच्छा...गधा वाला ग नहीं...हम दोनों की आवाज़ घुलती जा रही है एक दूसरे में. जैसे हम दोनों घुलते जा रहे हैं...एक दूसरे में. उसके नाम से मैं सुनने लगी हूँ...मेरे नाम से वो बुलाने लगा है...

कंठमणि ...ओह! हिंदी के कुछ शब्द कितने सुन्दर हैं...अडैम्स एप्पल में वो बात कहाँ...सारी मुसीबत की जड़ यही है न...अपने हाथों से उसका गला दबा के मार दूं...फिर इस आवाज़ के पीछे नहीं भागूंगी.

रति की तरह विलाप करती हूँ...आह अनंग...तुम्हारी आवाज़ मुझे बाँहों में नहीं भर सकती है...नीम अँधेरे में आँखों को ढके हुए करवट बदलती हूँ...मेरे उसके बीच सिर्फ सांसों की नदी बहती है...एक ओक भर सांस उठा कर उसके हिस्से का दिन जी लेती हूँ...एक पाल भर नाव बढ़ा कर उसकी हिस्से की प्यास.

आह...अनंग! आह अनंग! 

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01 July, 2012

आसमां की रेत-घड़ी


Meet me in July...
कभी एक कहानी लिखने बैठी थी जिसमें मॉनसून था...लड़का था एक...टपकती छतों के नीचे खड़े होकर कुल्हड़ में चाय पीती लड़की थी...भीगे दुपट्टे से छूटा रंग था...कागज़ की नावें थीं...बोतल में बंद चिट्ठियां...अब बस शीर्षक रह गया है...बाकी पूरी कहानी धुल गयी.
#तुम्हारे लिए
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Of delays and more...
क्या कुछ नहीं आता लौट कर...मॉनसून भी तो हर साल आता है...बस एक साल देर से आया थोड़ा...उसी साल मेरे जन्मदिन पर तुम मेरे शहर में नहीं थे. तो बारिशें भी तुम्हारे साथ लेट दाखिल हुयीं थी जिंदगी में. करीने से लगे क्रोटन के पौधे पानी में भीगते हुए उदास हो गए थे...महीने भर से तुम्हारे इंतज़ार में मेरा दुपट्टा भी कुछ कुछ फीका होने लगा था. तुमने तो वादा किया था न...मेरे जन्मदिन पर आओगे...मैंने तो याद भी दिलाया था तुम्हें...तुम भूल गए...तुम व्यस्त थे. वैसे एक बात बताऊँ...हम जिनसे प्यार करते हैं न...उनके लिए वक्त हमेशा होता है हमारे पास. 
#बिसरते हुए
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Yes. I miss you. 
यूँ तो सब कुछ बदल गया है. मेरी जिंदगी में कायदे से तुम्हारी यादों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. मैं टाईमपास थी न तुम्हारे लिए. फुर्सत होती, माहौल होता, मूड होता तो तुम्हारी जिंदगी में मेरी जगह होती...गलती मेरी कहाँ थी...प्यार ऐसे ही होता है. तुम्हारी याद लेकिन बेहद बदतमीज है...ऑफिस टाइम में आने के पहले दरवाजा नहीं खटखटाती...फोन के पहले मेसेज करके पूछती नहीं कि फुर्सत है? तुम्हारी यादें मुझपर इतना हक जताती हैं जितना तुमने भी कभी नहीं जताया. फ़िल्टर कॉफी...कोल्ड कॉफी...कॉफी विद आइसक्रीम...सब कुछ तो है.
बस. तुम्हारे बिना कुल्हड़ वाली चाय में सोंधापन नहीं लगता. 
#दोराहे   
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Some goodbyes are forever.
ट्रेन के सफ़र में मिले थे हम. मालूम था कि इसके बाद फिर कभी नहीं मिलना होगा. तीन दिन के सफ़र में चार मौसम आये थे. ठंढ, गर्मी, बारिश और पतझड़. हरे खेत थे. जलते पलाश के जंगल. पागल होती नदियाँ. बाँहों में भरता तूफ़ान. हमने एक दूसरे के साथ उतने दिनों में ही एक जीवन भर के सपने देख लिए. एक सफ़र में रजनीगन्धा के पौधे रोपे गए...उनमें फूल खिले और वे फिर जमींदोज भी हो गए. 
सालों बाद फिर कहीं मिले भी तो क्या एक दूसरे को पहचान पाते हम?
#कसक 
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It still hurts.तुमसे प्यार करते हुए जिरहबख्तर नहीं पहना था. तुम जिस्म में कहीं भी चोट दे सकते थे. लेकिन तुमने दिल को चुना. तुम मेरा सर कलम कर सकते थे. तुमने नहीं किया. तुम्हें मालूम है मैं अब तुम्हारा नाम नहीं लेती...बहुत तकलीफ होती है. बेहद. तुम सही कहते थे. तुम नहीं जानते प्यार क्या होता है. तुम्हें समझने के कोशिश में मैं प्यार भूल गयी. आज की डेट में मुझे नहीं मालूम प्यार क्या होता है.
#कुछ भी नहीं 
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मैं बस एक पुरसुकून नींद सोना चाहती हूँ...तुम अंदाजा नहीं लगा सकते मैं कितनी थकी हुयी हूँ...मैं कितनी सदियों से प्यास हूँ...तुम कितने जन्मों से रेगिस्तान.

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