30 November, 2011

हाय! साकी को शर्माना भी ना आये

हसरत-ऐ-नाज़ उठाना भी न आये
वो रूठें तो मनाना भी ना आये 
क्यूँ इश्क में गिरफ्तार हुए बैठे हो
तुम्हारे हाथों में तो पैमाना भी न आये 

खुद की खुद्दारियों में उलझे हो 
तुम्हें तो खुद को मिटाना भी ना आये 

खुदा की बंदगी से मुख्तलिफ यूँ
वो बुला ले तो निभाना भी ना आये 

हम हैं तलबगार नाज़ुक-मिजाज़ी के
हाय! साकी को शर्माना भी ना आये 

वो जो पूछें गली में आने का सबब 
हमें देने को बहाना भी ना आये 

लौट तो जाएँ तेरे दीदार के बाद
जीते-जी तेरे दर से जाना भी ना आये 

जिस्म से रूह तक सब मिल्कियत तुम्हारी है 
हमें तो सजदे में सर झुकाना भी ना आये 

29 November, 2011

जिंदगी, रिवाईंड.

आपके साथ कभी हुआ है कि आप अन्दर से एकदम डरे हुए हैं...कहीं से दिमाग में एक ख्याल घुस आया है कि आपके किसी अजीज़ की तबियत ख़राब है...या कुछ अनहोनी होने वाली है...और आपको वो वक़्त याद आने लगता है जब आपको पिछली बार ऐसा कुछ  महसूस हुआ था...नाना या दादा के मरने से कुछ दिन पहले...कुछ एकदम बुरी आशंका जैसी.

ऐसे में मन करे कि माँ हो और उससे ये कहें और वो सुन कर समझा दे...कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है, और उसके आश्वाषणों की चादर चले आप चैन से सो जायें. अचानक से ऐसा डर जैसे पानी में डूबने वाले हैं...मुझे पानी से बहुत डर लगता है...तैरना भी नहीं आता, पर डर एकदम अकारण वाला डर है. किसी को अचानक खो देने का डर...या शायद मन के अन्दर झांकूं तो अपने मर जाने का डर. कि शायद मेरे मर जाने के बाद भी बहुत दिनों तक लोगों को पता न चले...कि उनको जब पता चले तो जाने कैसे तो वो मुझसे झगड़ा कर लें कि हमसे पूछे बिना मर कैसे सकती हो तुम, अरे...एक बार बताना तो था.

मैं अपने मूड स्विंग्स से परेशान हो चुकी हूँ...सुबह हंसती हूँ, शाम रोती हूँ और डर और दर्द दिल में ऐसे गहरे बैठ जाता है कि लगता है कोई रास्ता ही नहीं है इस दर्द से बाहर. इस दर्द और डिप्रेशन/अवसाद में बंगलौर के मौसम का भी बहुत हाथ रहता है, मैं मानती हूँ. मुझे समझ ये नहीं आता कि मैं मौसम से हूँ या मौसम मुझसे.

जिंदगी ऐसी खाली लगती है कि लगता है अथाह समंदर है और मैं कभी किसी का तो कभी किसी का हाथ पकड़ कर दो पल पानी से ऊपर रहने की कोशिश करती हूँ पर मेरे वो दोस्त थक जाते हैं मेरा हाथ पकड़े हुए और हाथ झटक लेते हैं. मैं फिर से पानी के अन्दर, सांस लेने की कोशिश में फेफड़ों में टनों पानी खींचती हुयी और जाने कैसे तो फेफड़ों को पता भी चलने लगता है कि पानी का स्वाद खारा है. आँख का आंसू, समंदर का पानी, जुबान का स्वाद...सब घुलमिल जाता है और यूँ ही जिंदगी आँखों के सामने फ्लैश होने लगती है.

ऐसे में मैं घबरा जाती हूँ पर फिर भी हिम्मत रखने की कोशिश करती हूँ...याद टटोलती हूँ और धूप का एक टुकड़ा लेकर गालों पर रखती हूँ कि वहां का आंसू सूख जाए और तुम्हारी आवाज़ को याद करने की कोशिश करती हूँ कि जब तुमसे बात करती थी तो मुस्कुराया करती थी. तुम्हें शायद दया भी आये मेरी हालत पर तो मुझे बुरा नहीं लगता कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे हाथ को एक लम्हे और पकड़ना चाहती हूँ...मैं पानी में डूबना नहीं चाहती.

यूँ देखा जाए तो मुझे शायद मौत से उतना डर नहीं लगता जितना पानी में डूब कर मरने से...आँखों को जिंदगी की फिल्म दिखेगी कैसे अगर सामने बस पानी ही पानी हो, खारा पानी. दिल की धड़कन एकदम जोर से बढ़ी हुयी है और सांस लेने में तकलीफ हो रही है. ऐसे में किसी इश्वर को आवाज़ देना चाहती हूँ कि मेरा हाथ पकड़े क्षण भर को ही सही...फिलहाल सब कुछ एक लम्हे के लिए है...ये लम्हा जी लूँ फिर अगला लम्हा जब सांस की जरूरत होगी शायद किसी और को याद करूँ.

एक एक घर उठा कर स्वेटर बुनती हूँ, मम्मी के साथ पटना के पाटलिपुत्रा वाले घर के आगे खुले बरांडे पर...मुझे अभी घर जोड़ना और घटाना नहीं आया है...सिर्फ बोर्डर आता है वो भी कई बार गलत कर देती हूँ. उसमें हिसाब से पहले एक घर सीधा फिर एक घर उल्टा बुनना पड़ता है...एक घर का भी गलत कर दूँ तो स्वेटर ख़राब हो जाएगा. गड़बड़ और ये है कि मुझे अभी तक घर पहचानना नहीं आता...ये काम बस मम्मी कर सकती है. जिंदगी वैसी ही उलझी हुयी ऊन जैसी है...मफलर बना रही हूँ...एक घर सीधा, एक घर उल्टा...काम करेगा, ठंढ से बचाएगा भी पर खूबसूरती नहीं आएगी इसमें...सफाई नहीं आएगी. कुछ नहीं आएगा. जिंदगी थोड़ी वार्निंग नहीं दे सकती थी...बंगलौर में ठंढ का मौसम बढ़ रहा है और मैं चार सालों से अपने लिए एक मफलर बुनने का सोच रही हूँ...पर मेरे सीधे-उलटे घर कौन देख देगा?

मम्मी का हाथ पकड़ने की कोशिश करती हूँ...वो दिखती है, एकदम साफ़...हंसती हुयी...मगर उसका हाथ पकड़ में नहीं आता...फिर से पानी में गोता खा गयी हूँ. उफ्फ्फ....सर्दी है बहुत. दांत बज रहे हैं.

आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है...ठीक वैसे ही जैसे हाल में फिल्म दिखाने के पहले होता है...अब शायद जल्दी शुरू होने वाली है. जिंदगी, रिवाईंड. 

खाली दिमाग का घंटाघर!

यूँ ही राह चलते क्या तलाशते रहते हो जब किसी से यूँ ही नज़रें मिल जाती हैं...किसी को तो ढूंढते हो. वो क्या है जो आँखों के सामने रह रह के चमक उठता है. आखिर क्यूँ भीड़ में अनगिन लोगों के होते हुए, किसी एक पर नज़र ठहरती है. वो एक सेकंड के हजारवें हिस्से में किसी की आँखों में क्या नज़र आता है...पहचान, है न? एक बहुत पुरानी पहचान. किसी को देख कर न लगे कि पहली बार देखा हो. जैसे कि इस खाली सड़क पर, खूबसूरत मौसम में अकेले चलते हुए तुम्हें उसे एक पल को देखना था...इतना भर ही रिश्ता था और इतने भर में ही पूरा हो गया.

रिश्तों की मियाद कितनी होती है? कितना वक़्त होता है किसी की जिंदगी में पहली प्राथमिकता होने का...आप कभी भी ताउम्र किसी की प्राथमिकता नहीं बन सकते, और चीज़ें आएँगी, और लोग आयेंगे, और शहर मिलेंगे, बिसरेंगे, छूटेंगे...कितना बाँधोगे मुट्ठी में ये अहसास कि तुम्हारे इर्द गिर्द किसी की जिंदगी घूमती है.

कुछ लोग आपके होते हैं...क्या होते हैं मालूम नहीं. वो भी आपसे पूछेंगे कि उनका आपसे रिश्ता क्या है तो आप कभी बता नहीं पायेंगे, किसी एक रिश्ते में बाँध नहीं पाएंगे. प्यार कभी कभी ऐसा अमूर्त होता है कि पानी की तरह जिस बर्तन में डाल दो उसका आकार ले लेता है. उनकी जरूरत के हिसाब से आपका उनसे रिश्ता बदलते रहता है. प्योर लव या विशुद्ध प्यार जैसा कुछ होता है ये. इसमें दुनियादारी की मिलावट नहीं होती. ऐसा कोई न कोई तो होता है...जो एक्जैक्टली आपका क्या लगता है आप खुद भी नहीं जान पाते. जानते हैं तो बस इतना कि आप उसे खुश देखना चाहते हैं. बस. इंग्लिश में एक ऐसा वाक्य आता है दिमाग में ऐसे लोगों के बारे में...हिंदी में मैं परिभाषित या अनुवाद नहीं कर पाती...यु बिलोंग टु मी(You Belong To Me) खास खास इस वाक्य को समझा भी नहीं पाउंगी, पर ऐसा ही कुछ होता है.

वैसे लोग होते हैं न...जैसे आपसे कोई दस साल छोटी बहन या भाई, आप उसे अपनी जिंदगी की सबसे मुश्किल चीज़ें भी बताते रहते हो...ये जानते हुए कि उसे नहीं समझ आ रहा. पर वो बहुत समझदारी से आपकी हर समस्या को सुनेगी...सुनती रहेगी. पर कभी किसी एक दिन उसकी छोटी सी दुनिया की छोटी सी समझ से एक ऐसा वाक्य निकलेगा कि आपकी समस्या एकदम कपूर की तरह उड़ जायेगी. आप चकित रह जायेंगे कि ये इसने खुद बोला है या इसके माध्यम से किस्मत आपको कोई रास्ता दिखा रही है.

मुझे लगता है प्यार की सबसे पहली डेफिनेशन होती है कि आपके लिए किसी की ख़ुशी जरूरी हो जाए. इसके आगे आप कुछ सोचते ही नहीं, न अच्छा न बुरा, दुनिया एकदम लीनियर हो जाती है. सब कुछ सीधी लाइन में चलता है. Cause and Effect नहीं रहता, बस एक चीज़ होती है, उसके चेहरे पर हंसी...मुस्कराहट. इसके लिए आप कुछ भी करने को तैयार रहते हो...जिस भगवान से गुस्सा हुए बैठे हो, उससे भी हाथ जोड़ कर उसकी ख़ुशी मांग लेते हो. सड़े हुए जोक्स मरते हो, जहरीले पीजे सुनते हो...सब करते हो, बस उसे एक बार हँसते हुए सुनने के लिए.

मैंने बहुत कम पढ़ा और लिखा है...पर जितनी जिंदगी जी है उससे एक चीज़ ही दिखती है मुझे, प्यार. आज भी इसके लिए सब वाजिब है...सब सही है...सब जस्टिफाइड है...मुझे जाने क्यूँ कभी प्यार पर लिखने से मन नहीं भरता. कुछ लोग...नहीं मालूम मेरे क्या हैं, बस मेरे हैं...इस बात पर यकीन है.

डेस्टिनी/किस्मत कुछ तो होती है वरना कुछ लोगों से आप जिंदगी भर नहीं मिल पाते और आप जानते तक नहीं कि क्या खाली है...तो सवाल घूम कर वहीं आ जाता है...भरी भीड़ वाले कमरे/रेलवे स्टेशन/तेज चलती गाड़ी/ट्रेन/एयरपोर्ट...आपको किसी की आँखों में एक लम्हे कौन सी पहचान नज़र आ जाती है कि आपको कहीं और देखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है.

ये कौन से रिश्ते हैं जो समझ नहीं आते...ये कैसे रिश्ते हैं जो एक लम्हे में पूरी जिंदगी जी लेते हैं...या फिर ये वो लोग हैं जो आपके अगले जन्म में आपसे मिलेंगे...अभी तो बस मार्क किया है आपको.

जब दिमाग में कोई ख्याल नहीं चल रहा होता...क्या चलता है? जब आप किसी को नहीं ढूंढ रहे होते, क्या ढूंढते हो? जब आपको कोई काम नहीं है तो मेरा ब्लॉग क्यूँ पढ़ते हो ( ;) बस देख रही थी कि कोई पढ़ भी रहा है कि नहीं, बहुत ज्ञान दे रही हूँ ऊपर :) )
बर्न की पार्लियामेंट बिल्डिंग से
अगर कोई आगे चलता हुआ जा रहा है तो ऐसे सवाल क्यूँ आते हैं कि वो पलटे तो हम देख सके कि उसकी आँखों का रंग कैसा है. मैं सदियों सदियों जाने किसकी आँखें स्केच कर रही हूँ जो पूरी ही नहीं होती. ऐसा कोई भी तो नज़र नहीं आता जिसकी आँखें वैसी हैं जो मुझे पेंट करनी हैं...मैं किसे तलाश कर रही हूँ. आइना देखती हूँ तो कई बार लगता है...खुद की तलाश शायद इसी को कहते हैं. किताबें कहती हैं, सब कुछ तुम्हारे अन्दर है...सोचती हूँ, सोचती हूँ...अपने अन्दर उतर नहीं पाती...जाने कहाँ सीढ़ी है. ध्यान करने बैठती हूँ तो चाहने लगती हूँ कि तुम खुश रहो...सबके मुस्कुराते चेहरे सामने आने लगते हैं.

दिन भर सोच सोच के परेशान हो जाती हूँ...दिकिया के लिखने बैठ जाती हूँ...आजकल जाने क्या हो गया है...दिन भर लिखती ही रहती हूँ, लिखती ही रहती हूँ. क्या है जो ख़त्म नहीं होता? क्या लिखना है ऐसा...ऐसा क्या कहना है जो कहा नहीं गया है. चुप जो जाओ री लड़की!!

Q: What's cooking?
A:  Disaster
Q: Where did you get the recipe?
A: It's a girl called Puja...She is THE recipe for disaster!!!

26 November, 2011

लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां

चलो, कमसे कम मौसम तो अच्छा हुआ. अच्छा भी क्या ख़ाक हुआ, मूड का पागल हिसाब है. आज देर रात से बहुत बारिश हो रही है और हवाएं तो ऐसे चल रही हैं की जैसे घने जंगलों में रह रही हूँ कहीं. बारिश अच्छी लग रही है, बेहद अच्छी. जैसे बचपन की सखी हो, राजदार, सरमायेदार.

पिछले कुछ दिनों से मौसम अजीब सा हो रखा था, न धूप निकलती थी, न बारिश होती थी...बस जैसे इंतज़ार में रखा हो मौसम ने भी. स्टैंडबाय मोड पर...कि पहले मैं अपना मूड सेट करूँ...उसके हिसाब से मौसम आयेंगे. जैसे जैसे चेहरे पर मुस्कान आती गयी, मौसम भी दरियादिल होते गया...पहले तो मेरी सबसे पसंदीदा, फुहारों वाली बारिश...कि जैसे कह रहा हो, कहाँ थी मेरी जान, मैंने भी तुम्हारी मुस्कराहट को बड़ा मिस किया...और मैं शैतान मौसम से ठिठोली कर रही हूँ, झगड़ा कर रही हूँ कि तुम्हें कौन सी मेरी पड़ी थी, तुम तो खाली अपना सोचते हो, तुमको हमसे क्या मतलब...और ये मस्का भी पक्का कोई कारण से लगा रहे हो, सच्ची सच्ची बताओ क्या काम है मुझसे, कहाँ सिफारिश लगवा रहे हो मुझसे.

फ़िल्मी होना कोई हमसे सीखे, या फिर बंगलौर के मौसम से. तो जब मौसम ने देख लिया की हलकी बारिश से मेरा मूड ख़राब नहीं हो रहा, तब फुल फॉर्म में आ गया...और क्या जोरदार बारिश हुयी कि सब धुल गया. जैसे कंठ से पहला स्वर फूटा हो, शब्द पकड़ने लगी फिर से. हवाओं में श्लोक गूंजने लगे, अगरबत्ती में श्रुतियां महकने लगीं...कुछ आदिम गीत के बोल आँख की कोर में बस गए. तुम्हारे नाम का पैरेलल ट्रैक थोड़ा लाइन पर आया तो दुर्घटना की सम्भावना घटी. कोहरे वाले मौसम में तुम्हारे हाथ याद आये.

छप छप करती बारिश में लौट रही हूँ तो कुछ शब्द गीले बालों से टपक रहे हैं...कुछ शब्द गा रही हूँ तो हवाएं लिए भाग रही है...अंजुली बांधती हूँ तो तुम्हारा नाम खुलता है उसमें...कैसी तो लकीरें मिलती जा रही हैं तुम्हारी हथेली से...सब बारिश का किया धरा है, इसमें मेरा कोई दोष नहीं. कल को जो चाह कर भी मेरी जिंदगी से दूर जाना चाहोगे न तो बारिश जाने नहीं देगी, देख लेना. कुछ चीज़ें अभी भी तुमसे जिद करके बातें मनवाना जानती हैं. तुमने जाने कब आखिरी बार बारिश देखी थी...तुम्हें याद है?

चलो मेरे शहर का मौसम जाने दो...दिल्ली में कोहरा पड़ने लगा न...एक काम करो, थोड़ा सा लिफाफे में भर कर मुझे कूरियर कर दो...न ना, साधारण डाक से मत भेजना, आते आते सारा कोहरा बह जाएगा लिफ़ाफ़े से...और फिर लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां भी सील जायेंगी. सबसे फास्ट वाले कूरियर वाले को पकड़ना...मैं वो थोड़ा सा कोहरा अपनी आँखों में भर लूंगी...फिर शायद मुद्दतों बाद मुझे सपनों वाली नींद आएगी...नींद में सफ़ेद बादलों का देश भी होगा...और एक डाकिया होगा जो तुम तक मेरी बारिशें पहुंचाता है.

सुबह के इस पहर सब खामोश है, शहर अभी सोया हुआ है...सब के जागने में अभी थोड़ा वक़्त बाकी है. कहते हैं इस पहर में हर दर्द शांत हो जाता है...सभी को नींद आ जाती है. फिर बताओ भला, मैं क्यूँ दुनिया से अलग जागी हुयी हूँ? मुझे कोई दर्द नहीं है इसलिए? रात सोयी नहीं और अब इतनी देर हो गयी है तो सोच रही हूँ, सूरज का स्वागत कर ही लूं...कितना तो वक़्त हुआ उसे आते नहीं देखा...हमेशा जाते देखती हूँ. तुम्हारी तरह...तुम कब चले आये जिंदगी में पता ही नहीं चला.






भोर की पहली आवाजों के साथ जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल ज़ेहन में तैर जाती है...एक पंक्ति चमकती है...जैसे छठ पर्व में सूरज की पहली किरण उतरी हो और उसे अर्घ्य दे रही हूँ. 

'तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है...'

25 November, 2011

आवाज़ घर

रात एक आवाज़ घर है जिसमें याद की लौटती आवाजें रहती हैं. लम्हों के भटकते टुकड़े अपनी अभिशप्त प्रेमिकाओं को ढूंढते हुए पहुँचते हैं. आवाज़ घर में अनगिन दराजें हैं...और दराजों की इस बड़ी सी आलमारी पर कोई निशान नहीं है, कोई नंबर, कोई नाम नहीं. कोई नहीं जानता कि किस दराज से कौन सा रास्ता किधर को खुल जाएगा.

हर दराज़ में अधूरी आवाजें हैं और ये सब इस उम्मीद में यहाँ सकेरी गयी हैं कि एक दिन इन्हें इनका जवाब मिलेगा...इंतजार में इतने साल बीत गए हैं कि कुछ सवाल अब जवाब जैसे हो गए हैं. जैसे देखो, दराज का वो पूर्वी किनारा...हिमालय के जैसा है...उस दराज तक पहुँचने की कोई सीढ़ी नहीं है. पर तुम अगर एकदम मन से उसे खोलना चाहोगे न तो वो दराज नीचे होकर तुम्हारे हाथों तक आ जायेगी. जैसे कोई बेटी अपने पापा के कंधे पर चढ़ना चाहती हो तो उसके पापा उसके सामने एकदम झुक जाते हैं, घुटनों के बल...जहाँ प्यार होता है वहां आत्माभिमान नहीं होता. उस दराज में एक बहुत पुराना सवाल पड़ा है, जो कभी पूछा नहीं गया...इसलिए अब उसे जवाब का इंतज़ार भी नहीं है. सवाल था 'क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?'. जब सवाल के पूछे जाने की मियाद थी तब अगर पूछ लिया जाता तो इसे शान्ति मिल जाती और ये एक आम सवाल होकर हवा में उड़ जाता...मुक्त हो जाता. पर चूँकि पूछा नहीं गया और सालों दराज में पड़ा रहा तो उम्र की सलवटों ने इस किशोर सवाल को बूढ़ा और समझदार बना दिया है. पके बालों वाला ये सवाल साधना में रत था...इसमें अब ऐसी शक्ति आ गयी है कि तुम्हारे मन के अन्दर झाँक के देख लेता है. इसे वो भी पता है जो खुद तुम्हें भी नहीं पता. इस दराज को खोलोगे तो बहुत सोच समझ कर खोलना, क्यूंकि इससे मिलने के बाद तुम्हारी जिंदगी कभी पहले जैसी नहीं रह पायेगी.

ठीक तुम्हारे हाथ की ऊंचाई पर जो सुनहली सी दराज है न, वो मेरी सबसे पसंदीदा दराज है...पूछो कैसे, कि मैंने तो कोई नाम, नंबर नहीं लिखे हैं यहाँ...तो देखो, उस दराज का हैंडिल दिखा तुम्हें, कितना चमकदार है...तुम्हारी आँखों जैसा जब तुम मुझसे पहली बार मिले थे. दराज के हैंडिल पर जरा भी धूल नहीं दिखेगी तुम्हें...इसे मैं अक्सर खोलती रहती हूँ...कभी कभी तो एक ही दिन में कई बार. इस दराज में तुम्हारी हंसी बंद है...जब तुम बहुत पहले खुल कर हँसे थे न...मैंने चुपके से उसका एक टुकड़ा सकेर दिया था...और नहीं क्या, तुम्हें भले लगे कि मैं एकदम अव्यवस्थित रहती हूँ, पर आवाजों के इस घर में मुझे जो चाहिए होता है हमेशा मिल जाता है. बहुत चंचल है ये हंसी, इसे सम्हाल के खोलना वापस डब्बे में बंद नहीं होना चाहती ये...तुम्हारा हाथ पकड़ कर पूरे घर में खेलना चाहती है...इसकी उम्र बहुत कम होती है न, कुछ सेकंड भर. तो जितनी उर्जा, जितना जीवन है इसमें खुल के जी लेती है.

अरे अरे...ये क्या करने जा रहे हो, ये मेरी सिसकियों की दराज है...एक बार इसे खोल लिया तो सारा आवाज़ घर डूब जाएगा. फिर कोई और आवाज़ सुनाई नहीं देगी...वो नहीं देखते मैंने इसे अपने दुपट्टे से बाँध रखा है कि ये जल्दी खुले न...फिर भी कभी कभार खुल जाता है तो बड़ी मुश्किल होती है, सारी आवाजें भीग जाती हैं, फिर उन्हें धूप दिखा के वापस रखना पड़ता है, बड़ी मेहनत का काम है. इस दराज से तो दूर ही रहो...ये सिसकियाँ पीछा नहीं छोड़ेंगी तुम्हारा...और तुम भी इसी तिलिस्म के होके रह जाओगे. यायावर...तुम्हें बाँधने का मेरा कोई इरादा नहीं है. मैं तो तुम्हें बस दिखा रही थी कि कैसे तुम्हारी आवाज़ के हर टुकड़े को मैंने सम्हाल के रखा है...तुम्हें ये न लगे कि मैं तुम्हारी अहमियत नहीं समझती.












तुम्हारी ख़ामोशी मुझे तिनका तिनका तोड़ रही है. बहुत दिनों से इस आवाज़ घर में कोई नयी दराज़ नहीं खुली है...तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा मिलेगा?

24 November, 2011

विल यू एवर मिस मी?

मैं महज़ कागज़ का टुकड़ा भर हूँ तुम्हारे लिए कि खतों में मेरी आँखें चमकती हैं? तुम तो कहते थे कि खतों से खुशबू आती है तुम्हें...मुझे तुम्हारी बात पर कभी यकीन नहीं था इसलिए तो ख़त में इत्र छिड़क कर भेजती थी कि अगली बार कभी कहो तो नाम पूछ लूँ कि अच्छा, बताओ तो सही, कौन सी खुशबू आती है...और अगर तुमने सही नाम ले लिया तब मान जाउंगी कि मेरे ख़त पढ़ने के बाद तुम्हारी उँगलियाँ सिगरेट नहीं, एक दूसरी ही गंध में महकती हैं...नहीं?

खतों की अपनी जिंदगी हो जाती है न...मेरे खतों में मेरा एक हिस्सा चला जाता है जो तुम मानो ना मानो, तुम्हारे घर की जासूसी कर आता है. मैंने ख़त लिखे ही इसलिए हैं कि मेरे शब्द कूदते, फांदते तुम्हारे मन के उदास कोनों को बुहार दें...तुम नहीं जानते, मुझे जादू आता है. तुम जब भी ख़ामोशी में हँसते हो मुझे मालूम चल जाता है तुम मेरी बेवकूफी पर हँसते हो...पर पता है, मैं ख़त इसलिए नहीं लिखती कि मुझे तुम्हें दिखाना है कि मैं कित्ती होशियार हूँ...वो तो मैं बहुत हूँ...हाँ, तुम नहीं मानते, अरे सब कहते हैं बाबा! पर चिट्ठी इसलिए लिखती हूँ कि तुम खुश होते हो जब वो बुड्ढा पोस्टमैन तुम्हें अपने घर के दरवाजे पर दिखता है. अरे अब तो दोस्ती कर लो उससे...फिर उसे किस्से सुनाना कि ये कौन पागल लड़की है जो तुम्हें आज के दौर में भी चिट्ठियां लिखती है. तुम यही सोचते हो न मन में...पागल लड़की...है न? है ना?

तुम आजकल मुझसे भी झूठ बोलने लगे हो, मुझे मालूम नहीं कि क्यूँ...पर प्लीज मुझसे झूठ मत बोला करो...लड़ लो, झगड़ लो...सता लो मुझे...गुस्सा हो जाओ, डांट लो...पर यूँ मुझसे झूठ मत बोलो. मुझे भी तुम्हारा झूठ पकड़ना आता है. मुझसे झूठ बोलकर कहाँ जाओगे बाबा...किसी से तो सच बोलो. वैसे भी तो तुम जो बोलोगे उसका उल्टा ही समझूंगी. तुम्हें लगता होगा मैं एकदम ही बुद्धू हूँ...पर मैं हूँ नहीं. हाँ तुम्हारी तरह इंटेलिजेंट नहीं हूँ पर इतना भी नहीं कि तुम्हारी बातों को पकड़ नहीं पाऊं. अच्छा, दूसरे लोग क्यूँ नहीं पकड़ पाते? दूसरे लोगों के पास इतनी फुर्सत नहीं है न...मेरे पास बहुत सी फुर्सत है जो मैं तुम्हारे बारे में सोच सोच के बिताती हूँ...और जब तुमसे बातें करती हूँ तो बातों के अन्दर की आवाज़ सुनते सुनते...यु नो रीडिंग बिटवीन द लाइंस. तुम्हें पढ़ना थोड़ा मुश्किल है...तुम सब कुछ छुपा जाते हो. बहुत मेहनत करनी होती है...तैरना न आने पर भी डाइव मारनी होती है...डर भी लगता है पर तुम्हारे लिए इतना तो करना पड़ेगा. तुम्हें पता है बस मम्मी थी, जिसकी आँख के इशारे से डर जाती थी मैं...एक तुम हुए हो...सोच के भी डर जाती हूँ कि तुम्हारी भृकुटी तन गयी होगी. फ़ोन पर डराए हो और किसी को भी इस तरह?

कर लो झगड़ा मुझसे, जी भर कर लो...जब मर जाउंगी न तब याद आएगी मेरी. तुम्हें क्या...तुम तो जिद्दी हो बला के...तुम्हें पता भी नहीं चलेगा बहुत दिन तक...और देखना न, जब पता चलेगा न बहुत अफ़सोस करोगे. सेंटी मार रही हूँ तुम्हें, और क्या करूँ...रूठ के बैठे हो...उसपर मानते भी नहीं कि रूठे हो...मनाऊं भला कैसे...हद्द हो. पर सोचो भला...क्या मिस करोगे तुम...सिर्फ चिट्ठियां लिखने वाली लड़की को कितना मिस कर सकता है कोई. जो मान लो, मरुँ न भी...बस खो जाऊं कभी...कहीं. 

विल यू एवर मिस मी?


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कोरी चिट्ठी, तुम्हारे नाम...जो मन चाहे लिख लो...अब तो मान जाओ बाबा...क्या बच्चे की जान लोगे?

लव- वाया रॉयल एनफील्ड

परसों साकिब की बाईक फाइनली आ गयी...रोयल एनफील्ड थंडरबर्ड. बैंगलोर में एनफील्ड की लगभग चार महीने की वेटिंग चल रही है. तो बुक कराये काफी टाइम हुआ था और हमारे इंतज़ार को भी. शाम जैसे ही फोन आया की 'भाभी, बाईक आ गयी'...भाभी दीन दुनिया, मोह-माया सब त्याग कर फिरंट. कार उठाये और यहीं से हल्ला कि अकेले मत चले जाना, हम आ रहे हैं. फिर डेयरी मिल्क ख़रीदे, बड़ा वाला...कि मिठाई कौन खरीदने जाए...और शुभ काम के पहले कुछ मीठा हो जाए. कुणाल आलरेडी हल्ला कर रहा था कि हमको टाइम नहीं है, उसपर हम हल्ला कर रहे थे कि तुमको बुला कौन रहा है. उसको वैसे भी बाईक का एकदम भी शौक़ नहीं है.

तो लगभग पांच बजे हम इंदिरानगर से चले और कोरमंगला से साकिब और अभिषेक को उठाये फिर जयनगर, एनफील्ड के शोरूम. ओफ्फफ्फ्फ़ क्या जगह थी...कभी इस बाईक पर दिल आये, कभी उस पर. कभी डेजेर्ट स्टोर्म पर मन अटके कभी क्लास्सिक क्रोम जानलेवा लगे. पर सबमें प्यार हुआ तो थंडरबर्ड से...सिल्वर कलर में. दिल तो वहीं आ गया कि ये वाली बाईक तो उठा के ले जायेंगे. समस्या बस इतनी कि कुणाल को बाईक पसंद नहीं है. खैर...साकिब की बाईक आई, हमने डेरी मिल्क खा के शुभ आरम्भ किया...उफ्फ्फ क्या कहें...उस बाईक पर बैठ कर दुनिया कैसी तो अच्छी लगने लगती है. लगता है जैसे सारे दुःख-तकलीफ-कष्ट ख़तम हो गए हैं. मन के अशांत महासागर में शांति छा गयी है...कभी लगे कि जैसे पहली बार प्यार हुआ था, एकदम १५ की उम्र में, वैसा ही...दिल की धड़कन बढ़ी हुयी है...सांसें तेज़ चल रही हैं और हम हाय! ओह हाय! किये बैठे हैं. घर वापस तो आ गए पर दिल वहीं अटका हुआ था, थंडरबर्ड में...सिल्वर रंग की.

अब मसला था कि कुणाल को बाईक पसंद नहीं है...और थंडरबर्ड कोई छोटंकी बाईक नहीं है कि हम अपने लिए खरीद लें...ऊँची है और चलाने के लिए कोई ६ फुट का लड़का चाहिए होगा. हमने अपनी पीठ ठोंकी कि अच्छे लड़के से शादी की, कुणाल ६'१ का है...और थंडरबर्ड चलाने के लिए एकदम सही उम्मीदवार है. दिन भर, सुबह शाम दिमाग में बाईक घूम रही थी...कि ऐसा क्या किया जाए...और फिर समझ नहीं आ रहा था कि लड़के को बाईक न पसंद हो ठीक है...पर ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी को एनफील्ड से प्यार न हो. जिस बाईक को देख कर हम आहें भर रहे हैं...वो तो फिर भी लड़का है. कल भोरे से उसको सेंटी मार रहे थे कि क्या फायदा हुआ इतना लम्बा लड़का से बियाह किये हैं कभियो एक ठो चिन्नी का डब्बा भी दिया किचन में रैक से उतार के. हाईट का कोई फायदा नहीं मिला है हमको...अब तुमको कमसेकम बाईक तो चला दी देना चाहिए मेरे लिए. उसपर भी हम खरीद देंगे तुमको, पाई पाई जोड़ के, खूब मेहनत करके. बाईक भी सवा लाख की है, इसके लिए कितना तो मेहनत करना पड़ेगा हमें. कुणाल के पसंद की कोई चीज़ हो तो हम उससे खरीदवा लें. अपने पसंद की चीज़ तो खुद खरीदनी चाहिए ना. तो हम दिन भर साजिश बुन ही रहे थे कि कैसे कुणाल को बाईक पसंद करवाई जाए.


इन सब के बीच हमें ये नहीं पता था कि कुणाल ने एनफील्ड कभी चलाई ही नहीं है. कल रात साकिब और कुणाल ऑफिस से लौट रहे थे जब जनाब ने पहली बार चलाई. मुझे पहले ही बोल दिया था कि तैयार होके रहना घूम के आयेंगे...तो मैंने जैकेट वैकेट डाल के रेडी थी घर के नीचे. डरते डरते बैठी, कुणाल का ट्रैक रिकोर्ड ख़राब है. मुझे पहली ही डेट पर बाईक से गिरा दिया था. (लम्बी कहानी है, बाद में सुनाउंगी). तो हम बैठे...कोई रात के ११ बजे का वक़्त...बंगलौर का मौसम कुछ कुछ दिल्ली की ठंढ जैसा...इंदिरानगर गुडगाँव के सुशांत लोक जैसा...एक लम्हा था कि जैसे जादू सा हुआ और जिंदगी के सारे हिस्से एक जिगसा पजल में अपनी सही जगह आ के लग गए. हलकी हवा, कुणाल, थंडरबर्ड और मैं...और उसने इतनी अच्छी बाईक चलाई कि मुझे चार साल बाद फिर से कुणाल से प्यार हो गया. फिर से वैसा लग रहा था कि जैसे पहली बार मिली हूँ उससे और वो मुझे दिल्ली में घुमा रहा है. लगा कि जैसे उस उम्र का जो ख्वाब था...एक राजकुमार आएगा, बाईक पे बैठ कर और मेरा दिल चोरी कर के ले जाएगा...वैसा कुछ. कि कुणाल वाकई वही है जो मेरे लिए बना है. कितना खूबसूरत लगता है शादी के चार साल बाद हुआ ऐसा अहसास कि जिसने महसूस किया हो वही बता सकता है.

It was like everything just fell into place...and I know he is the one for me :) Being on bike with him was like a dream come true...exactly as I had imagined it to be, ever in my teenage dreams. My man, a bike I love...weather the way I like it and night, just beautiful night in slow motion...dreamy...ethereal.

और सबसे खूबसूरत बात...कुणाल को एनफील्ड अच्छी लगी, दरअसल बेहद अच्छी लगी...घर आ के बोला...अच्छी बाईक है, खरीद दो :) :)

पुनःश्च - It is impossible for a man to not fall in love with a Royal Enfield. There is something very subliminal...maybe instinct. I don't know how the bike-makers got it right but for me a man riding a Royal Enfield is the epitome of perfection, like the complete man from Raymond adverts. The classic, masculine image of a man before being toned down by the desire to fit into the metrosexual category. It signifies the change from being a boy to being a man. Be a man, ride an Enfield.

The views and opinions in this blog are strictly of the blog author who has a right to publish any gibberish she wants to...the busy souls are requested to find someplace else to crib!! ;) ;) I will not clarify any of the terms like metrosexual man, raymonds man, classic...whatever :D :D

अन अफेयर विथ बाइक्स/मुहब्बतें

मुझे बाइक्स से बहुत ज्यादा प्यार है...पागलपन की हद तक...कोई अच्छी बाईक देख कर मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है...और ऐसा आज से नहीं हमेशा से होता आ रहा है. पटना में जब लड़के हमारी कॉन्वेंट की बस का पीछा बाईक से करते थे तो दोस्तों को उनके चेहरे, उनका नाम, उनके कपडे, उनके चश्मे याद रहते थे और मुझे बाईक का मेक...कभी मैंने किसी के चेहरे की तरफ ध्यान से देखा ही नहीं. एकलौता अंतर तब आता था जब किसी ने आर्मी प्रिंट का कुछ पहना हो...ये एक ऐसा प्रिंट है जिस पर हमेशा मेरा ध्यान चला जाता है. तो शौक़ हमेशा रहा की बाईक पर घूमें...पर हाय री किस्मत...एक  यही शौक़ कभी पूरा नहीं हुआ.

Enticer 
दिल्ली में पहला ऑफिस जोइन किया था, फाइनल इयर की ट्रेनिंग के लिए...वहां एक लड़का साथ में काम करता था, नितिन...उसके पास क्लास्सिक एनफील्ड थी. मैं रोज देखती और सोचती कि इसे चलाने में कैसा मज़ा आता होगा. नितिन का घर मेरे घर के एकदम पास था, तो वो रोज बोलता कि तू मेरे साथ ही आ जाया कर. पर मैं मम्मी के डर के मारे हमेशा बस से आती थी. नितिन का जिस दिन लास्ट दिन था ऑफिस में उस दिन मेरे से रहा नहीं गया तो मैंने कहा चल यार, आज तू ड्रॉप कर दे...ऐसा अरमान लिए नहीं रहूंगी. उस दिन पहली बार एनफील्ड पर बैठी थी, कहना न होगा कि प्यार तो उसी समय हो गया था बाईक से...कैसा तो महसूस होता है, जैसे सब कुछ फ़िल्मी, स्लो मोशन में चल रहा हो. ये २००४ की बात है...उस समय नयी बाईक आई थी मार्केट में 'एनटाईसर-Enticer' बाकियों का तो पता नहीं, मुझे इस बाईक ने बहुत जोर से एनटाईस किया था, ऐसा सोलिड प्यार हुआ था कि सदियों सोचती रही कि इसे खरीद के ही मानूगी. ऑफिस में अनुपम के पास एनटाईसर थी...वो जाड़ों के दिन थे...और अनुपम हमेशा ग्यारह साढ़े ग्यारह टाईप ऑफिस आता था. वो टाइम हम ऑफिस के बाकी लोगों के कॉफ़ी पीने का होता था. बालकनी में पूरी टीम रहती थी और अनुपम सर एकदम स्लो मोशन में गली के मोड़ पर एंट्री मार रहे होते थे. ना ना, असल में स्लो मोशन नहीं बाबा...मेरी नज़र में स्लो मोशन. उस ऑफिस से जब भी घर को निकलती थी, एक बार हसरत की निगाह से एनटाईसर और एनफील्ड दोनों को देख लेती थी. दिल ज्यादा एनटाईसर पर ही अटकता था, कारण कि ये क्रूज बाईक थी, तो ये लगता था कि इसपर बैठने पर पैर चूम जाएगा(बोले तो, गाड़ी पर बैठने के बाद पैर जमीन तक पहुँच जायेंगे).

शान की सवारी- राजदूत
१५ साल की थी जब पापा ने राजदूत चलाना सिखाया था, मेरा पहला प्यार तो हमेशा से वही गाड़ी रहेगी. हमारी राजदूत मेरे जन्म के समय खरीदी गयी थी, इसलिए शायद उससे कोई आत्मा का बंधन जुड़ गया हो. आप यकीन नहीं करेंगे पर उस १०० किलो की बाईक को गिरे हुए से मैं उठा लेती थी. कलेजा चाहिए बाईक चलने के लिए...और गिराने के लिए तो उससे भी ज्यादा :) मैं बचपन में एकदम अपनी पापा कि मिनी फोटोकॉपी लगती थी और सारी हरकतें पापा वाली. अब तो फिर भी मम्मी का अंश भी झलकता है और आदतें भी. मम्मी भड़कती भी थी कि लड़की को बिगाड़ रहे हैं...पर मेरे प्यारे इंडलजेंट पापा अपनी राजकुमारी को सब सिखा रहे थे जो उनको पसंद था. राजदूत जिसने चलाई हो वो जानते हैं, उसका पिक अप थोड़ा स्लो है, पर जल्दी किसे थी. राजदूत के बाद पहली चीज़ जो चलाई थी वो थी हीरो होंडा स्प्लेंडर...विक्रम भैय्या आये थे घर पर मिलने और हमने भैय्या के पहले उनकी बाईक ताड़ ली थी...हमने इशारा करके कहा, चाहिए. भैय्या बोले, हाँ हाँ पम्मी, आओ न घुमा के लाते हैं तुमको...हम जो खांटी राड़ हुआ करते थे उस समय, बोले, घूमने के लिए नहीं, चलाने के लिए चाहिए. उस समय मुझे सब बिगाड़ते रहते थे...भैय्या की नयी स्प्लेंडर, भैय्या ने दे दी...कि जाओ चलाओ. ऊपर मम्मी का रिअक्शन बाद में पता चला था, कि लड़की गिरेगी पड़ेगी तो करते रहिएगा शादी, बिगाड़ रहे हैं इतना. खैर. स्प्लेंडर का पिक अप...ओह्ह...थोड़ा सा एक्सीलेरेटर दिया कि गाड़ी फुर्र्र बस तो फिर यह जा कि वह जा....देवघर की सड़कें खाली हुआ करती थीं...बाईक उड़ाते हुए स्पीडोमीटर देखा ही नहीं. उफ्फ्फ्फ़ वो अहसास, लग रहा था कि उड़ रही हूँ...कुछ देर जब बहुत मज़ा आया और आसपास का सब धुंधला, बोले तो मोशन ब्लर सा लगा तो देखा कि गाड़ी कोई ८५ पर चल रही है. एकदम हड़बड़ा गए. भैय्या की बाईक थी तो गिरा भी नहीं सकते थे. जोर से ब्रेक मारते तो उलट के गिरते दस फर्लांग दूर...तो दिमाग लगाए और हल्का हल्का ब्रेक लगाए, गाड़ी स्लो हुयी तो वापस घुमा के घर आ गए.

ये सारी हरकतें सन १९९९ की हैं...मुझे यकीन नहीं आता कि उस समय कितनी आज़ादी मिली हुयी थी उस छोटे से शहर में. एक दीदी थीं, जो लाल रंग की हीरो होंडा चलाती थीं, उनको सारा देवघर पहचानता था. इतनी स्मार्ट लगती थीं, छोटे छोटे बॉय कट बाल, गोरी चिट्टी बेहद सुन्दर. मेरी तो रोल मॉडल थीं...आंधी की तरह जब गुजरती थी कहीं से तो देखने वाले दिल थाम के रह जाते होंगे. मैं सोचती थी कि मैं ऐसे देखती हूँ...शहर के बाकी लड़के तो पागल ही रहते होंगे प्यार में.

उसी साल जून में हम पटना आ गए...देवघर में आगे पढने के लिए कोई ढंग का स्कूल नहीं था और पापा का ट्रान्सफर भी पटना हो रखा था. बस...पटना आके मेरी सारी मटरगश्ती बंद. मुश्किल से एक आध बार बाईक चलाने मिली, वो भी बस मोहल्ले में, वो भी कितनी मिन्नतों के बाद. मुझे कार कभी पसंद नहीं आई...मम्मी, पापा दोनों ने कितना कहा कि सीख लो, हम जिद्दी...कार नहीं चलाएंगे...बाईक चलाएंगे. उस समय स्कूटी मिली रहती थी बहुत सी लड़कियों को स्कूल आने जाने के लिए. मम्मी ने कहा खरीद दें...हम फिर जिद पर, स्प्लेंडर खरीद दो. खैर...स्प्लेंडर तो क्या खरीदाना था, नहीं ही आया. मैं कहती थी कि स्कूटी को लड़कियां चलाती हैं, छी...मैं नहीं चलाऊँगी, मम्मी कहे कि तुम क्या लड़का हो. बस...हल्ला, झगडा, मुंह फुलाना शुरू.

मुझे बाईक पर किसी के पीछे बैठने का शौक़ कभी नहीं रहा...एक आधी बार बैठी भी किसी के साथ तो दिमाग कहता था कि इससे अच्छी बाईक तो मैं चला लूंगी इत्यादि इत्यादि. साड़ी पहनी तो तभी मन का रेडियो बंद रहता था..कि बेट्टा इस हालत में चला तो पाएगी नहीं, चुप चाप रहो नहीं तो लड़का गिरा देगा बस, दंतवा निपोरते रहना.

तब का दिन है...और आज का दिन है. आज भी कोई नयी बाईक आती है तो दिल की धड़कन वैसे ही बढ़ती है...सांसें तेज और हम एक ठंढी आह लेकर ऊपर वाले को गरिया देते हैं कि हमें लड़की क्यों बनाया...और अगर बनाना ही था तो कमसे कम दो चार इंच लम्बा बना देता. खैर...यहाँ का किस्सा यहाँ तक. बाकिया अगली पोस्ट में. 

19 November, 2011

जिंदगी, आई लव यू!

बंगलौर में सर्दियाँ शुरू हो गयी हैं...यहाँ के साढ़े तीन साल में ये पहले बार है जब मौसम वाकई ठंढा सा हो रहा है. अख़बारों में भी आया है कि इस बार बंगलोर हर बार से थोड़ा ज्यादा ठंढा है. प्यार के बारे में मेरे अनगिनत थ्योरम में एक ये भी है कि 'Winter is the season to fall in love'. ठंढ का मौसम प्यार करने के लिए ही होता है.

सोचिये अच्छा सा कोहरा पड़ रहा हो, आप एकदम अच्छे से जैकेट, टोपी, दस्ताने, जींस और अच्छे वाले जूते पहन कर सड़क पर चल रहे हों...कोई गाना बज रहा हो बैकग्राउंड में...मन में या फिर हेडफोन्स में...कोई भी...जैसे कि मान लीजिये आजकल हमको ताज़ा ताज़ा कर्ट कोबेन से प्यार हुआ है तो दिन भर निर्वाणा के गाने सुनती रहती हूँ. तो मान लीजिये कि दिल्ली(हाय दिलरुबा दिल्ली, ठंढी आह भर लूँ!) की सड़कें हैं और गीत के बोल कुछ ऐसे हैं 'Come as you are' तो आपका दिल नहीं करेगा कि आपके हाथों को दस्तानों में नहीं किसी नर्म नाज़ुक लड़की के हाथों में होना चाहिए...फिर गर्म कॉफ़ी के कप के इर्द गिर्द उँगलियाँ लपेट कर आप किन्ही खाली रास्तों पर टहलते रहते...बोलते तो मुंह से भाप निकलती और ठंढ की गहरी रातों की ख़ामोशी में उसकी हंसी कुछ ऐसे खनकती कि आपको मालूम भी नहीं चलता कि आपको उससे प्यार हो रहा है...और जब तक आपको ये डर लगता कि शायद आपको उससे प्यार हो जाएगा, आपको आलरेडी प्यार हो चुका होता. फिर कभी उसे ज्यादा ठंढ लगती तो कंधे पर हाथ रखते और उसे थोड़ा अपने करीब खींच लाते...And on one of these days while sauntering on lonesome roads you could whisper 'I love you' in her ear ever so lightly that the poor girl might be totally confused...कि आपने वाकई उसे 'आई लव यू' कहा है or the wind is playing tricks with her mind.

मेरे तरफ कहते थे कि जाड़ों का वक़्त अच्छा खाना खाने का होता है...तो जाड़ों में मस्त पकोड़े खाइए, सड़क किनारे ठेले से मैगी या चाउमीन या फिर वो बांस की टोकरियों में बने मोमो खाइए...गर्म भाप उठती हो तभी फटाफट खा लेना पड़ेगा क्यूंकि ठंढी हो जाने पर इनका मज़ा नहीं आता. आपको कभी न कभी तो आइसक्रीम से प्यार हुआ होगा...न हुआ हो तो अब कर लीजिये कौन सी देर हो गयी है. जाड़ों में आइसक्रीम पिघलती भी देर से है तो लुत्फ़ उठा कर खायी जा सकती है, प्यार अगर ज्यादा उमड़ रहा हो तो बाँट के भी खायी जा सकती है...पर प्लीज किसी लड़की से उसके हिस्से की आइसक्रीम मत मांगिएगा...हम लड़कियां शेयर करने में थोड़ी कंजूस होती हैं. हाँ जिंदगी में कुछ नए रंग ट्राय करने हैं तो बर्फ का गोला खाइए...काला खट्टा गोला. थोड़ा खट्टा, थोड़ा मीठा रस में डूबा हुआ...प्यार की तरह. प्यार उस सफ़ेद बर्फ के चूरे की तरह होता है, उसे थोड़ी थोड़ी देर में जिंदगी के रंग बिरंगे अनुभवों में डुबाना पड़ता है...तब ही साथ रहना जादू सा होता है.

 ओह प्यार! मैं कितना भी लिख लूँ, मेरे पास लिखने को चीज़ें कभी ख़त्म नहीं होतीं...मेरे अन्दर के कवि को हमेशा किसी न किसी से प्यार हुआ रहता है...आप प्यार में होते हो तो खुश होते हो. कभी कर्ट से प्यार हो गया तो दिन भर उसके गाने सुन रही हूँ...उसकी आँखों में देख रही हूँ और बेतरह उदास हो रही हूँ कि वो इस दुनिया में नहीं है वरना एक बेहद खूबसूरत चिट्ठी उसके नाम भी लिखती...डूब के...कभी किसी पेंटर के रंगों पर मर मिटे कि कैनवास में जिंदगी नज़र आने लगी. वैन गोग के बारे में कहते हैं कि वो ऐसे पेंट करते थे जैसी चीज़ें उन्हें दिखती थीं...अपने समय में वो भी गरीब रहे, उदास रहे और जीते जी सफलता नहीं देखी. मॉने की पेंटिंग के धुंधले रंग जाड़ों की सुबहें जैसी लगेंगी. दुनिया में कितना कुछ है प्यार हो जाने को.

मुझे जब भी कुछ नया मिलता है तो एक बार प्यार हो जाता है...कभी कवि से, कभी चित्रकार से, कभी गिटार से...किसी की आँखों से, कभी रूह में घुलती आवाज़ से...फिर ' La vie en rose' या कि दुनिया गुलाबी चश्मे से दिखती है...खूबसूरत, बेइन्तहा. दिल टूटता भी है...सब बिखरने सा बिखर जाता है पर फिर कलम टाँके लगा देती है और मैं फिर प्यार करने, टूटने और फिर प्यार में गिरने को तैयार हो जाती हूँ.

A poet is continually in love.

नवम्बर आखिरी चल रहा है...आज सोच रही हूँ लम्बी ड्राइव पर जाऊं, मैसूर रोड पर वाले कॉफ़ी डे में गरम कॉफ़ी...ब्राउनी विद चोकलेट सौस...रात को डिनर में कुछ अच्छा खाना बनाऊं...और फाइनली रॉकस्टार देख लूँ.

मेरी जिंदगी के खास लोगों के लिए ये फुटनोट...बस मुझे याद रहे इसलिए...प्यारे आकाश को उसके जन्मदिन पर मेरा ढेर सारा आशीर्वाद...और ढेर सी खुशियों की दुआएं...तुम मेरे सबसे सबसे फेवरिट हो.

And a shout out to Anupam Giri...You are superawesome...THANKS A TON Sir!!!

La vie, Je t'aime!

17 November, 2011

कैन यू हीयर मी?


तुम्हारे लिए कितना आसान है यूँ खुली किताब की तरह मुझे पढ़ लेना, वो भी तब जब मुझे न झूठ बोलना आता है न तुमसे कुछ भी छिपा सकती हूँ कभी. तुमने जब जो पूछा हमेशा सच बोल गयी बिना सोचे कि सच के भी अपने सलीब होते हैं जिनपर दिन भर तिल तिल मरना होता है.

मैं तो इसी में खुश थी कि तुमसे प्यार करती हूँ, कब तुमसे कुछ माँगा जो तुम मुझसे पूछने लगे कि किस हक से मैं तुमसे सवाल कर रही हूँ. मेरा कौन सा हक है तुमपर. कभी भी कब रहा था. बस ये ही ना पूछा था कि ऐसे तुम सभी को पढ़ लेते हो या ख़ास मुझे पढ़ पाते हो. तुम एक सवाल का भी सीधा जवाब नहीं होगे, दिप्लोमटिक वहां भी हो जाते हो 'चाहूँ तो पढ़ सकता हूँ'. इससे बेहतर तो जवाब ही नहीं देते तुम.

ऐसे कैसे नरम, मासूम से ख्वाब थे कि सुनकर आँखें रोना बंद ही नहीं करतीं...दिल रो रहा है ऐसे कि लगता है मर जाउंगी. प्यार हमेशा ऐसा डर लेकर क्यूँ आता है कि लगता है गहरे पानी में डूब रही हूँ. सांस सीने में अटकी हुयी है. लोग माने न पाने प्यार का फिजिकल इफेक्ट होता है, आखिर पूरी दुनिया में किसी को भी प्यार होता है तो सबको ऐसा ही लगता है न कि जैसे सांस अटकी हुयी है सीने में. न खाना खा पा रही हूँ न किसी काम में मन लग रहा है. कॉपीचेक के लिए किताब कब से रखी हुयी है, इग्नोर मोड में डाल रखा है.


हाँ मेरा दिल करता है कि दोनों हाथों में एक बार तुम्हारा चेहरा लेकर देखूं कि तुम्हारी आँखों का रंग वाकई कैसा है. तुम्हें देखे इतने दिन हो गए कि तुम्हारा चेहरा याद में धुंधलाने लगा है...और तुम कहते हो कि तुमसे कभी न मिलूं...यूँ जैसे कि तुम बगल वाली बालकनी में रहते हो और हम रोज शाम अपने चाय और कॉफ़ी के कप उठा कर चियर्स करते हैं. बात तो यूँ करते हो जैसे दिल्ली बंगलोर में दूरी ही न हो, जैसे मैं जब चाहूँ ट्रांसपोर्ट होकर तुम्हारे ऑफिस के बाहर छोले कुलचे वाली साइकिल के पास तुम्हारा इंतज़ार कर सकती हूँ.

मुझे कभी भी प्यार हुआ तो मैंने छुपाया नहीं था...कोई कारण होगा न कि सिर्फ तुम एक्सेप्शन थे इस रूल के...कल जाने क्या मिल गया तुम्हें मेरे मुंह से कुबूल करवा के...हाँ मैं करती हूँ तुमसे प्यार...अब मैं क्या करूँ...अब मैं क्या करूँ. ये शाम जैसे हवा ज्यादा डेंस हो गयी है और सांस नहीं ली जा रही है, तुमसे बात करने का मन कर रहा है. पागल हो रही हूँ धीरे धीरे...उठा के फ़ेंक दो वो सारी चिट्ठियां कि जिनसे तुमने चीट questions बना लिए मुझे समझने के लिए.

तुम्हें लगा है कभी. डर. ऐसा. क्या करते हो ऐसे में? तुम्हारी आवाज़ के सिक्के ढलवा लूँ? जब दिल करे मुट्ठी में भर के खनखना लूँ. दिल करता है कहीं बहुत बहुत तेज़ बाईक चलाऊं और किसी दूर झील के किनारे जब कोई भी न देखे...जी भर के चिल्ला लूँ...आई लव यू...आई लव यू...कैन यू हियर मी?

12 November, 2011

बाल्टी भर पानी की कहानी

बहुत साल पहले घर में कुआँ होता था...पानी चाहिए तो बाल्टी लीजिये और कुएं से पानी भर लो. घर में दो कुएं होते थे, एक भीतर में आँगन के पास घर के काम के लिए और एक गुहाल में होता था खेत पथार से लौटने के बाद हाथ पैर धोने के लिए, गाय के सानी पानी के लिए और जो थोड़ा बहुत सब्जी लगाया गया है उसमें पानी पटाने के लिए. मुझे ध्यान नहीं कि मैंने पानी भरना कब सीखा था.

कुएं से अकेले पानी भरने का परमिशन मिलना बड़े हो जाने की निशानी हुआ करती थी. पहले पहल कुएं में बाल्टी डालना एक सम्मोहित करने वाला अनुभव होता था. बच्चों को छोटी बाल्टी मिलती थी और सीखने के लिए पहले रस्सी धीरे धीरे डालो, बाल्टी जैसे ही पानी को छुए बाल्टी वापस उठानी होती थी. उस समय पता नहीं होता था कि नन्हे हाथों में कितना पानी का वजन उठाने की कूवत है. इसलिए पहले सिर्फ बाल्टी को पानी से छुआने भर को रस्सी नीचे करते थे और वापस खींच लेते थे. मुझे याद है मैंने जब पहली बार बाल्टी डाली थी पानी में, गलती से पूरी भर गयी थी...मैं वहां भी खोयी हुयी सी कुएं में झुक कर देखने लगी थी कि बाल्टी में पानी भरता है तो कैसे हाथ में थोड़ा सा वजन बढ़ता है. उस वक़्त फिजिक्स नहीं पढ़े थे कि बोयंसी (buoyancy) के कारण जब तक बाल्टी पानी में है उसका भार पानी से निकलने पर उसके भार से काफी कम होगा. जब बाल्टी पानी से निकली तो इतनी भारी थी कि समझो कुएं में गिर ही गए थे. सोचे ही नहीं कि बाल्टी भारी हो जायेगी अचानक से. फिर तो मैं और दीदी(जो बस एक ही साल बड़ी थी हमसे) ने मिल कर बाल्टी खींची. एकदम से जोर लगा के हईशा टाइप्स.

शुरू के कुछ दिन हमेशा कोई न कोई साथ रहता था कुएं से पानी भरते समय...बच्चा पार्टी को स्पेशल हिदायत कभी भी कुएं से अकेले पानी मत भरना...उसमें पनडुब्बा रहता है, छोटा बच्चा लोग को पकड़ के खा जाता है...रात को चाँद की परछाई सच में डरावनी लगती हमें. हर दर के बवजूद हुलकने में बहुत मज़ा आता हमें. उसी समय हमें बाकी सर्वाइवल के फंडे भी दिए गए जैसे की कुएं में गिरने पर तीन बार बाहर आता है आदमी तो ऐसे में कुण्डी पकड़ लेना चाहिए. हमने तो कितनी बार बाल्टी डुबाई इसकी गिनती नहीं है. कुएं से बाल्टी निकलने के लिए एक औजार होता था उसे 'झग्गड़' कहते थे. मैंने बहुत ढूँढा पर इसकी फोटो नहीं मिल रही...कभी घर जाउंगी तो वहां से फोटो खींच कर लेती आउंगी. एक गोलाकार लोहे में बहुत से बड़े बड़े फंदे, हुक जैसे हुआ करते थे...उस समय हर मोहल्ले में एक झग्गड़ तो होता ही था...एक से सबका काम चल जाता था. अगर झग्गड़ नहीं है तो समस्या आ जाती थी क्यूंकि बाल्टी बिना सारे काम अटक जाते थे. वैसे में कुछ खास लोग होते थे जो कुएं में डाइव मारने के एक्सपर्ट होते थे जैसे की मेरे बबलू दा, उनको तो इंतज़ार रहता था कि कहीं बाल्टी डूबे और उनको कुएं में कूदने का मौका मिले.

घर पर कुएं के पास वाली मिटटी में हमेशा पुदीना लगा रहता था एक बार तरबूज भी अपने आप उगा था और उसमें बहुत स्वाद आया था. मेरे पापा तो कभी घर पर बाथरूम में नहाते ही नहीं थे...हमेशा कुएं पर...भर भर बाल्टी नहाए भी, आसपास के पेड़ पौधा में पानी भी दिए वही बाल्टी भर के. हम लोग भी छोटे भर कुएं पर नहाते थे...या फिर गाँव जाने पर तो अब भी अपना कुआँ, अपनी  बाल्टी, अपनी रस्सी. हाँ अब मैं बड़ी दीदी हो गयी हूँ तो अब मैं भी सिखाती हूँ कि बाल्टी से पानी कैसे भरते हैं और जो बच्चा पार्टी अपने से ठीक से पानी भर लेता है उसको सर्टिफिकेट भी देते हैं कि वो अब अकेले पानी भरने लायक हो गया है.

जब पटना में रहने आये तो कई बार यकीन नहीं होता था कि वहां मेरे कितने जान पहचान वाले लोगों ने जिंदगी में कुआँ देखा ही नहीं है...हमारी तो पूरी जिंदगी कुएं से जुड़ी रही...हमें लगता था सब जगह कुआँ होता होगा. उस वक़्त हम कुआँ को कुईयाँ बोलते थे अपनी भाषा में तो उसपर भी लोग हँसते थे. हमारा कहना होता था कि जो लोग देखे ही नहीं हैं वो क्या जानें कि कुआँ होता है कि कुइय्याँ. नए तरह का कुआँ देखा राजस्थान में...बावली कहते थे उसे जिसमें नीचे उतरने के लिए अनगिनत सीढ़ियाँ होती थीं.

जब छोटे थे, सारे अरमान में एक ये भी था कि कभी गिर जाएँ कुईयाँ में और जब लोग हमको बाहर निकाले तो हमारे पास भी हमेशा के लिए एक कहानी हो जाए सुनाने के लिए जैसे दीदी सुनाती थी कि कैसे वो गिर गयी, फिर कैसे बाहर निकली और सारे बच्चे एकदम गोल घेरा बना के उसको चुपचाप सुनते थे. दीदी जब गिरी थी तो बरसात आई हुयी थी, कुएं में एक हाथ अन्दर तक पानी था...तो लोटे से पानी निकलते टाइम दीदी गिर गयी...कुआँ के आसपास पिच्छड़(फिसलन) था तो पैसे फिसला और सट्ट से कुएं में. फिर एक बार मूड़ी(सर) बाहर निकला लेकिन नहीं पकड़ पायी, दोबारा भी नहीं पकड़ पायी, तीसरी बार एकदम जोर से कुएं का मुंडेर पकड़ ली दीदी और फिर अपने से कुएं से बाहर निकल गयी. फिर बाहर बैठ के रो रही थी. भैय्या गुजरे उधर से तो सोचे कि एकदम भीगी हुयी है और काहे रो रही है तो बतलाई कि कुइय्याँ में गिर गयी थी.

कितना थ्रिल था...कुआँ था, गिरना था, बाल्टी थी, पनडुब्बा था...गाँव की मिटटी, आम का पेड़ और कचमहुआ आम का खट्टा मीठा स्वाद. जिसको जिसको यकीन है कि बिना कुआँ में गिरे एक बाल्टी पानी भर सकते हैं, अपने हाथ ऊपर कीजिये :)

09 November, 2011

सियाही

निब का आगे का नुकीला हिस्सा टूटता है और धारदार स्टील उसकी ऊँगली में धंस जाता है. बेहद तेजी से खून बहता है और लड़की अचंभित सी गहरे लाल रंग के खून में मिलती काली स्याही देखती रह जाती है. सफ़ेद कागज़ पर एक तरफ से खून की धारा बहती है और दूसरी तरफ काली सियाही की...दोनों मिलकर  ऐबस्ट्राक्ट सा कुछ रच रहे हैं...अमूर्त जिसमें देखो तो सब कुछ दिख जाए. लड़की गहरी उसांस लेती है जैसे खुद को समझा रही हो कि ये तो होना ही था एक दिन. तुम्हें भी पता था, मुझे भी. सादे कागज़ पर अब बहुत सारी कहानियां रची जा चुकी हैं पर लड़की जैसे स्लो मोशन में स्टेच्यु हो गयी है. देख रही है...खून बह रहा है, दर्द हो रहा है, स्याही गिर रही है, टेबल पर बिखर रही है...उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा. ऊँगली में निब धंसा हुआ है, गहरे.
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उसकी आँखें काली थीं...एकदम गहरी, रात की तरह...उसे जान पाना बहुत मुश्किल था. ब्लैक होल में से रौशनी भी बाहर नहीं आती. उसकी आँखें सब कुछ सोख लेती थीं, पर वापस कुछ नहीं करतीं. शायद उन्होंने स्वार्थी होना दुनिया से सीखा हो...लड़कों से भी सीख सकती हैं...बुराइयाँ बहुत तेजी से फैलती हैं. (स्याही भी तो गिर रही है, पैरेरल स्टोरी में जहाँ लड़की खिड़की किनारे वाली टेबल पर धूप में अमूर्त में आकार ढूंढ रही है).
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उसके पास दुनिया भर की तन्हाई थी...जैसे दवात को अक्षयपात्र होने का वरदान मिला हो. कलम, निब, स्याही और सफ़ेद कागज़...इतने भर दुनिया थी उसकी. उसके पात्र पैदा होते और पन्नों में ही मर जाते...वो स्टेच्यु ही बनी रहती. जब पहला अबोर्शन कराया था कितना खून बहा था...और दर्द...दर्द तो पन्नों से उभर आता है. उसकी चीखों जैसा जो कि मुंह पर हाथ रखने से बंद नहीं होतीं थी, न कमरे का दरवाजा बंद करने से. यकीन करना कहाँ मुमकिन था कि इस शताब्दी में भी लड़कियों को जन्म लेने की इजाजत नहीं थी. या शायद यकीन करना बहुत आसान था...समाज के कुछ सियाह हिस्से उसके हिस्से में नहीं आये थे कभी. उसके हिस्से बस खुला आसमान था और सादे कागज़. आज उसे देर रात तक रोना था...बिलख बिलख कर उस बेटी के लिए जिसकी रक्षा नहीं कर पायी वो.
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उसे बहुत से सवालों का जवाब देना था जिसमें प्रमुख ये था कि वो कलमुंही सिर्फ बेटियां क्यूँ पैदा करना चाहती है...ये सवाल सिर्फ उसकी सास ही नहीं उसके पन्नो से उभर कर किरदार भी पूछते थे. वो इतनी बेबस हो जाती कि किरदारों का गला घोंट देती, कुछ को खाने में जहर मिला के मार देती और कुछ किरदार उसे इतना तड़पाते कि वो इंतज़ार करती और उनके बेटों के हिस्से में उम्र भर का अकेलापन लिख देती...ये अभिशप्त बेटे थे जिन्हें कभी उनका प्यार नहीं मिला...वो किसी लड़की की एक नज़र के लिए तरस तरस कर मर जाते थे. उसकी कहानियां दिन चढ़ते वीभत्स होती जा रहीं थी...जैसे उसके पाँव भारी होते किसी किरदार की जिंदगी में भयानक उथल पुथल मच जाती. वो किरदार जो उसकी खुली हंसी और खिली धूप में जीते थे उनकी जिंदगी में कभी सुनामी आता कभी भूचाल...और मरना...वो तो नियति बनती जा रही थी. 
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नियति के खेल अनोखे होते हैं...सास ने पता लगते ही उसका खास ख्याल रखना शुरू कर दिया था...इस बार खानदान का चिराग आने वाला था घर में. आखिर उसका वंश आगे बेटे से ही तो बढेगा...लड़की राजरानी की तरह रहती थी, खुली खिड़की में धूप तापती थी, सबको लगा था कि इस बार उसकी आँखों में कोई रौशनी की किरण चमकेगी. 
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ऊँगली में निब धंसा हुआ था...गहरे...और बहुत देर धंसा रहा...बहुत देर खून बहने के कारण लड़की टेबल पर बेहोश हो गयी...होश आया तो उसने खुद को अस्पताल में पाया...मोनिटर पर सिर्फ एक ही दिल की धड़कन सुनाई पड़ रही थी...बेड के इर्द गिर्द मुखोटा लगाये किरदार खड़े थे, पति, सास, ननद और पूरा कुनबा...उसे समझ नहीं आया कि उनके दुःख का कारण उसका जिन्दा बचना है या घर के चिराग का बुझ जाना. लड़की पागलों की तरह हंस उठी और इतनी देर हंसती रही कि उसे सेडेट करना पड़ा...ऑपरेशन के टाँके खुल गए और इन्टरनल ब्लीडिंग के कारण डॉक्टर उसे बचा नहीं पाए. 
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लड़की के पति की दूसरी शादी करा दी गयी...हफ्ते भर में ही नयी दुल्हन ने चीख चीख कर पूरे मोहल्ले को बता दिया कि उसका पति 'नामर्द' है. 

02 November, 2011

बारिशों से, बारिशों में लिखे खत

इकतरफा प्यार भी इकतरफे खतों की तरह होता है...किसी लेखक की बेहद खूबसूरत कवितायें पढ़ कर हो जाने वाले मासूम प्यार जैसा. किसी नाज़ुक लड़की के नर्म हाथों से लिखे मुलायम, खुशबूदार ख़त जब किसी लेखक तक पहुँचते हैं तो उसे कैसा लगता होगा? घुमावदार लेखनी में क्या लड़की के चेहरे का कटीलापन नज़र आता है? क्या सियाही के रंग से पता चलता है की उसकी आँखें कैसी है? काली, नीली या हरी.

हाथ के लिखे खतों में जिंदगी होती है...लड़की को मालूम भी नहीं होता की कब उसके दुपट्टे का एक धागा साथ चला गया है ख़त के तो कभी पुलाव बनाते हुए इलायची की खुशबू. लेखक सोचता की लड़की कभी अपना पता तो लिखती की जवाब देता उसे...कि कैसे उसके ख़त रातों की रौशनी बन जाते हैं. पर लड़की बड़ी शर्मीली थी, दुनिया का लिहाज करती थी...घर की इज्ज़त का ध्यान रखती थी...और आप तो जानते ही हैं कि जिन लड़कियों के ख़त आते है उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. 

तो हम बात कर रहे थे इकतरफी मुहब्बत की...या कि इकतरफी चिट्ठियों की भी. ऐसी चिट्ठी लिखना खुदा के साथ बात करने जैसा होता है...वो कभी सीधा जवाब नहीं देता. आप बस इसी में खुश हो जाते हैं कि आपकी चिट्ठियां उस तक पहुँच रही हैं...कभी जो आपको पक्का पता चल जाए कि खुदा आपके ख़त यानि कि दुआएं सच में खोल के पढ़ता है तो आप इतने परेशान हो जायेंगे कि अगली दुआ मांगने के पहले सोचेंगे. गोया कि जैसे आपने पिछली शाम बस इतना माँगा था कि वो गहरी काली आँखों वाली लड़की एक बार बस आँख उठा कर आपकी सलामी का जवाब दे दे. आप जानते कि दुआ कबूल होने वाली है तो खुदा से ये न पूछ लेते कि लड़की से आगे बात कैसे की जाए...भरी बारिश...टपकती दुकान की छत के नीचे अचकचाए खड़ा तो नहीं रहना पड़ता...और लड़की भी बिना छतरी के भीगते घर को न निकलती. न ये क़यामत होती न आपको उससे प्यार होता. आप तो बस एक बार नज़र उठा कर 'वालेकुम अस्सलाम' से ही खुश थे. 

यूँ कि बारिशों में किसी ख़ास का नाम न घुला तो तब भी तो बारिशें खूबसूरत होती हैं...अबकी बारिश में यादें यूँ घुल गयीं कि हर शख्स उसके रंग में रंग नज़र आता है. जिधर नज़र फेरें कहीं उसकी आँखें, कहीं भीगी जुल्फें तो कहीं उसी भीगी मेहंदी दुपट्टे का रंग नज़र आता है. हाय मुहब्बत भी क्या क्या खेल किया करती है आशिकों से! घर पर बिरयानी बन रही है और मन जोगी हो चला है, लेखक अब शायर हो ही जाए शायद, यूँ भी उसके चाहने वाले कब से मिन्नत कर रहे हैं उर्दू की चाशनी जुबान में लिखने को. कब सुनी है लेखक ने उनकी बात भला कितने को किस्से लिए चलता है अपने संग, हसीं ठहाके, दर्द, तन्हाई, मुफलिसी, जलालत...लय के लिए फुर्सत कहाँ लेखक की जिंदगी में. 

कौन यकीन करे कि लेखक साहब आजकल बारिश में ताल ढूंढ लेते हैं, मीटर बिना सेट किये सब बंध जाता है कि जैसे जिंदगी खातून की आँखों में बंध गयी है. आजकल लेखक ने खुदा को बैरंग चिट्ठियां भेजनी शुरू कर दी हैं...पहले तो सारे वादे दुआ कबूल होने के पहले पूरे कर दिए जाते थे...पर आजकल लेखक ने उधारी खाता भी शुरू करवा लिया है खुदा के यहाँ. दुआएं क़ुबूल होती जा रहीं हैं और खुदा मेहरबान. 

कुछ रिश्ते एक तरफ से ही पूरी शिद्दत से निभाए जा सकते हैं. जहाँ दूसरी तरफ से जवाब आने लगे, खतों की खुशबू ख़त्म हो जाती है. वो नर्म, नाज़ुक हाथों वाली लड़की याद तो है आपको, जो लेखक को ख़त लिखा करती थी? जी...जैसा कि आपने सोचा...और खुदा ने चाहा...लेखक को अनजाने उसी से प्यार हुआ. दोनों ने एक दुसरे को क़ुबूल कर लिया. 

मियां बीवी भला एक दुसरे को ख़त लिखते हैं कभी? नहीं न...तो बस एक खूबसूरत सिलसिले का अंत हो गया. तभी न कहती हूँ...सबसे खूबसूरत प्रेम कहानियां वो होती हैं जहाँ लोग बिछड़ जाते हैं. 

आप किसी को ख़त लिखते हैं तो उनमें अपना नाम कभी न लिखा कीजिए.

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