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27 April, 2020

लड़कियाँ जिनसे मुहब्बत हो तो उनका बदन उतार कर किसी खूँटी पर टांगना ना पड़े

#rant

कुछ दिन पहले 'रहना है तेरे दिल में' देख रही थी। बहुत साल बाद हम चीज़ें देखते हैं तो हम बदल चुके होते हैं और दुनिया को एक नए नज़रिए से देखते हैं। जो चीज़ें पहले बहुत सामान्य सी लगती थीं, अब बुरी लगती हैं या बेहद शर्मनाक भी लगती हैं। ख़ास तौर से औरतों को जिस तरह दिखाया जाता है। वो देख कर अब तो सर पीट लेने का मन करता है।

काश हिंदी फ़िल्मों का रोमैन्स इतना ज़्यादा फ़िल्मी न होकर थोड़ा बहुत सच्चाई से जुड़ा हुआ होता। मुहब्बत की पूरी टाइमलाइन उलझा दी है कमबख़्तों ने।

लड़के लड़की का एक दूसरे को अप्रोच करना इतना मुश्किल बना दिया है कि समझ नहीं आता कि आपको कोई अच्छा लगता है तो आप सीधे सीधे उससे जा कर ये बात कह क्यूँ नहीं सकते। इतनी तिकड़म भिड़ाने की क्या ज़रूरत है। फिर कहने के बाद हाँ, ना जो भी हो, उसकी रेस्पेक्ट करते हुए उसके फ़ैसले को ऐक्सेप्ट कर के बात ख़त्म क्यूँ नहीं करते। ना सुनने में इन्सल्ट कैसे हो जाती है।

ख़ैर। आज मैं सिर्फ़ दूसरी दिक्कत पर अटकी हूँ।

RHTDM में मैडी कहता है कि मैं तुमसे प्यार करता था तो तुम्हारे साथ कोई ऐसी वैसी हरकत की मैंने। नहीं।

अब दिक्कत ये है कि अगर मैडी उससे सच में प्यार करता था तो उसे चूमना या उसे छूने की इच्छा अगर ग़लत है तो फिर सही क्या है। और इतना ही अलग है तो 'ज़रा ज़रा महकता है' वाला गाना क्या था, क्यूँ था?

मतलब लड़कियाँ हमेशा दो तरह की होती हैं... प्यार करने वाली जिनके साथ सोया नहीं जा सकता और सिर्फ़ सोए जा सकने वालीं, जिनसे प्यार नहीं किया जा सकता। ये प्रॉपगैंडा इतने सालों से चलता अभी तक चल रहा है। देखिए ऊबर कूल फ़िल्म, 'ये जवानी है दीवानी' में कबीर कहता है, तुम्हारे जैसी लड़की इश्क़ के लिए बनी है। कोई किसी लड़की को कभी भी कहेगा कि तुम सिर्फ़ इस्तेमाल के लिए बनी हो। और अगर दोनों ने अपनी मर्ज़ी से एक दूसरे को चुना है तो किसने किसे इस्तेमाल किया?

ये कैसे लोग हैं जो ये सब लिखते हैं। इन्होंने कभी किसी से सच का प्यार व्यार कभी नहीं किया क्या?! कोई अच्छा लगता है तो चूमना उसे चाहेंगे ना, या कोई दूसरा ढूँढेंगे जिसके साथ सोया तो जा सकता है लेकिन पूरी रात जाग के बातें नहीं की जा सकतीं। ये mutually exclusive नहीं होता है।

बॉलीवुड कहता है कि ये दो लोग कभी एक नहीं हो सकते। अब आप बेचारे आम लोगों का सोचिए। किसी को एक कोई पसंद आए और बात दोतरफा हो ये क्या कम चमत्कार है कि वो अब किसी और को तलाशे जो सिर्फ़ शरीर तक बात रखे। मतलब प्यार के लिए एक लड़की/लड़का और प्यार करने के लिए दूसरी/दूसरा! इतने लोग मिलेंगे कहाँ?

मतलब क्या *तियाप है रे बाबा!

इश्क़ वाली लड़की स्टिरीयोटाइप, इंटेलिजेंट, भली, भोली लड़की। माँ-बाप की इच्छा माने वाली, अरेंज मैरज करने वाली। ट्रेडिशनल कपड़े पहनने वाली। चश्मिश। ट्रेडिशनल लेकिन बोरिंग नहीं, सेक्सी। बहुत ज़्यादा बग़ावत करनी है तो लव मैरिज करेगी या सिगरेट शराब पी लेगी। कोई ढंग का कैरियर चुन कर कुछ बनेगी नहीं, अपने फ़ैसले करके के उसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेगी।

नॉन-इश्क़ वाली बुरी लड़की। छोटे कपड़े पहनने वाली(ये ज़रूरी है)। सिगरेट शराब, तो ख़ैर ज़रूरी है ही। अक्सर बेवक़ूफ़ भी। बेहद ख़ूबसूरत। लड़की नहीं, गुड़िया। कि जिसकी कोई फ़ीलिंज़ होती ही नहीं हैं। इस्तेमाल करो, फेंको, आगे बढ़ो।

और लड़का लड़की के बीच में 'कुछ' ऊँच नीच हो गयी तो तौबा तौबा। फ़िल्म का टर्निंग पोईंट हो जाता है। बवाल मच जाता है। pre-sex और post-sex के बीच बँट जाते हैं हमारे मुख्य किरदार।

रियल ज़िंदगी में इसलिए लोग अपराधबोध से घिरे होते हैं, कि हम उससे प्यार करते हैं तो उसको वैसी नज़र से कैसे देख सकते हैं। मेरी किताब, तीन रोज़ इश्क़ में एक कहानी है, मेरी उँगलियों में तुम्हारा लम्स न सही, तुम्हारे बदन की खुशबू तो है। इसमें ख़स की ख़ुशबू वाला ग्लिसरिन साबुन है जो लड़की स्कार्फ़ में लपेट कर लड़के को कुरियर कर देती है। तब जा के लड़का उसे 'उस' नज़र से देखने के अपराधबोध से मुक्त होता है। मुझे ऐसी कहानियाँ अच्छी लगती हैं। मुझे ऐसी लड़कियाँ अच्छी लगती हैं जो एक क़दम आगे बढ़ कर माँग लेती हैं जो उन्हें चाहिए। 

इन चीज़ों पर जो सोचते हैं कई बार उसे भी सवालों के कटघरे में खड़ा करते हैं कि हम ये सब सोच क्यूँ रहे हैं। कुछ ऐसा लिखना भी बेहद ख़तरनाक है कि कौन अपना इम्प्रेशन ख़राब करे। लेकिन इतने साल से यही सब देख-सुन के पक गए हैं। कुछ नया चाहिए। ताज़गी भरा। वे लड़कियाँ चाहिए जो ख़ुद से फ़ैसला करें, लड़के - नौकरी - सिगरेट का ब्राण्ड - शाम को घर लौटने का सही वक़्त। वे लड़कियाँ जिनसे मुहब्बत हो तो उनका बदन उतार कर किसी खूँटी पर टांगना ना पड़े। जिनकी आत्मा से ही नहीं, उनके शरीर से भी प्यार किया जा सके।


बस। आज के लिए इतना काफ़ी है। मूड हुआ तो इसपर और लिखेंगे।

11 February, 2019

फ़रवरी की यूँही वाली कोई शाम

इधर अचानक से इस बात पर ध्यान गया कि एक आर्टिस्ट - लेखक मान लो, और बाक़ी लोगों में क्या अंतर होता है। घटना छोटी सी थी, लेकिन उससे पता चला कि कोई आर्टिस्ट हमेशा चीज़ों को उसके डिटेल्ज़ के साथ देखता है। जबकि आम तौर से लोग चीज़ों को हमेशा generalise कर के देखते हैं। मेरे लिए लोगों को किसी भी वर्गीकरण में रखना मुश्किल होता है। मैं जिन्हें जानती हूँ, उनके डिटेल्ज़ के साथ जानती हूँ। उनके शहर का आसमान, उनके वसंत के रंग, उनके पसंद की किताबें... उनकी आवाज़ की कोमलता, उनकी सहृदयता ... दोस्तों के साथ के उनके क़िस्से... सब से जानती हूँ ...

यहाँ मैं भी एक generalisation ही कर रही हूँ। लेकिन ऐसा देखा है कि किसी भी आर्टिस्ट की नज़र बहुत चीज़ों पर होती है। उसे रोज़ के आसमान के अलग रंग दिखते हैं। क्लाद मौने ने एक ही जगह के अलग अलग मौसमों में चित्र बनाए कि सूरज की रौशनी हर मौसम को अलग छटा बिखेरती थी। किसी भी महान कलाकृति में अक्सर छोटी छोटी चीज़ों पर पूरा अटेंशन दिया गया होता है। हमारे मन्दिरों में जो मूर्तियाँ होती हैं उनमें गंधर्वों और अप्सराओं के कपड़े इतने अलग अलग होते हैं कि किन्हीं दो पर एक डिज़ायन नहीं मिलता।

दूसरी जिस चीज़ पर कल ध्यान गया वो ये था कि हमें बचपन में जब वर्गीकरण सिखाया गया तो हर चीज़ को एक पहले से बेहतर या कमतर तरीक़े से आँकना ही सिखाया गया। दो चीज़ें अलग हो सकती हैं, जिनकी आपस में तुलना बेमानी है, ये कम सिखाया गया। हमेशा किसी दूसरे बच्चे से बेहतर होना, किसी से ज़्यादा मार्क लाना रिपोर्ट कार्ड में, दौड़ में आगे बढ़ना जैसी चीज़ें... लेकिन हम सबकी ज़िंदगी अलग अलग होगी और हम किसी से हमेशा कॉम्पटिशन में नहीं हैं, ये कम सिखाया गया। कम लोगों को सिखाया गया। इसलिए भले ही मैं किसी की तुलना में कुछ ज़्यादा हासिल करना नहीं चाहूँ, यहाँ कुछ लोग हमेशा होंगे जो मुझसे होड़ लगाएँगे। जिन्हें इस बात से ख़ुशी मिलेगी या दुःख होगा कि हम पीछे रह गए या आगे निकल गए.

मेरे घर में कभी बहुत ज़्यादा दबाव नहीं था कि बहुत ज़्यादा पढ़ो या उससे ज़्यादा नम्बर लाओ। हाँ, लोगों को ये शौक़ ज़रूर था कि मुझे ख़ूब ख़ूब पढ़ता देखें और टोकें, कि इतना मत पढ़ो। वो एक सुख मैंने कभी नहीं दिया किसी को। पता नहीं कैसे तो, पर बचपन में सीख गए थे कि क्लास में तीसरी या चौथी पोज़ीशन लाने के लिए बहुत कम पढ़ना पड़ता है लेकिन फ़र्स्ट आने के लिए बहुत ज़्यादा पढ़ना पड़ता है और उसके बाद भी चान्स है कि आप सेकंड कर जाएँगे। कितना भी पढ़ लो, फ़र्स्ट आने की गारंटी कभी नहीं है। तो हमने तय कर लिया था। पढ़ पढ़ के जान नहीं देना है। ज़िंदगी जिएँगे ख़ुश ख़ुश। IIMC में गए तो मालूम था कि बाद की ज़िंदगी पता नहीं कैसी होगी। यहाँ रिपोर्ट कार्ड तो मिलना नहीं है तो जितना वक़्त है, थोड़ा मज़े ले लेते हैं। 

माँ के नहीं रहने पर बहुत सी चीज़ों का हिसाब ही गड़बड़ा गया था। लोग मुझे मेरे बिखरे कमरे से जज करने की कोशिश करते और मैं उन्हें करने देती। अब भी मेरे घर में स्टडी को छोड़ के सब बिखरा हुआ ही है। लेकिन मैं जानती हूँ, मुझे हर चीज़ में फ़र्स्ट नहीं आना है। एक छोटी सी ज़िंदगी है। मुझे वो करना है जिसमें मुझे ख़ुशी मिलती है। जैसे कि लिखना। लूप में जैज़ सुनना। रात को साड़ी का आँचल लहराते, बाल खोल के डान्स करना। मैं कहानी अच्छी सुनाती हूँ, लिखती अच्छा हूँ। तो लिखना पढ़ना करेंगे। बाक़ी साफ़ घर रखने वाले लोग उसमें ख़ुशी पाते हैं तो करें। मेरे घर को जज करें तो हम उनसे सर्टिफ़िकेट लेने के इंतज़ार में तो हैं नहीं। 

चीज़ों की ये absoluteness या uniqueness मैंने अब बहुत हद तक समझी और सीखी... कि मुझे सबसे अच्छी चीज़ नहीं चाहिए... कुछ ख़ास चाहिए जो ख़ास कारणों से पसंद है। लोगों के साथ भी ऐसा ही है। मेरे क़िस्म के लोग। मेरे जैसे थोड़े थोड़े। कि इसलिए वो सिंपल सी फ़िल्म Ye Jawani Hai Deewani मुझे बहुत पसंद है। वो कहती है, तुम मुझसे बेहतर नहीं हो, बस मुझसे अलग हो। 

अपने आप को इस दौड़ से थोड़ा बाहर निकाल के रखना बहुत सुकूनदेह है। मेरे पास मेरे क़िस्म की किताबें, मेरे क़िस्म के लोग हैं। मेरी चुनी हुयी चुप्पी और मेरी चुनी हुयी बातें हैं। मेरे चुने हुए सुख और मेरे ना चुन पा सकने वाले दुःख हैं। कि ज़िंदगी मेहरबान है। और जितना है, वो काफ़ी है।

01 October, 2018

वयमेव याता:

जिन चीज़ों को गुम हो जाना चाहिए…

१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।

वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।

२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।

फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।

मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।

३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।

४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।

५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।

कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।

६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।

मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir! 

17 August, 2017

'धुन्ध से उठती धुन' पढ़ना फ़र्स्ट हैंड दुःख है


कुछ अंतिम स्मृतियाँ: नेशनल ग़ैलरी में कारोली फेरेनीस के असाधारण चित्र, कासल की पहाड़ियाँ, पुराने बगीचे और फव्वारे जिन्हें देखकर ऑस्ट्रीयन कवि त्राकल की कविताएँ याद हो आतीं थीं। एक दुपहर रेस्तराँ में बैठे हुए सड़कों पर लोगों को चलते हुए देखकर लगा जैसे मैं पहले भी कभी यहाँ आया हूँ…
हवा में डोलते चेरी के वृक्ष और वह कॉटेजनुमा घर, जहाँ हम इतने दिन बुदापेस्ट में रहे थे। वह होटल नहीं, किसी पुराने नवाब का क़िला जान पड़ता था। क़िले के पीछे एक बाग़ था, घने पेड़ों से घिरा हुआ, बीच में संगमरमर की एक मूर्ति खड़ी थी और बादाम के वृक्ष...यहीं पर मुझे एक कहानी सूझी थी, एक छोटे से देश का दूतावास, जहाँ सिर्फ़ तीन या चार लोग काम करते हैं…कुछ ऐसा संयोग होता है कि उनकी सरकार यह भूल जाती है कि कहीं किसी देश में उनका यह दूतावास है। बरसों से उनकी कोई ख़बर नहीं लेता…वे धीरे धीरे यह भूल जाते हैं, कि वे किस देश के प्रतिनिधि बनकर यहाँ आए थे। बूढ़े राजदूत हर शाम अपने कर्मचारियों के साथ बैठते हैं और शराब पीते हुए याद करने की कोशिश करते हैं कि यहाँ आने से पहले वह कहाँ थे।
यह कहानी है या हमारी आत्मकथा?
~ निर्मल वर्मा, धुन्ध से उठती धुन
***

मैं इस किताब को ऐसे पढ़ती हूँ जैसे किसी और के हिस्से का प्रेम मेरे नाम लिखा गया हो। नेरूदा की एक कविता की पंक्ति है, 'I love you as certain dark things are to be loved, in secret, between the shadow and the soul’। मन के अंधेरे झुटपुटे में किताब के पन्ने रचते बसते जाते हैं। मैं कहाँ कहाँ तलाशती हूँ ये शब्द। दुनिया के किस कोने में छुपी है ये किताब। मैं लिखती हूँ इसके हिस्से अपनी नोट्बुक में। हरी स्याही से। कि जैसे अपनी हैंड्रायटिंग में लिख लेने से ये शब्द ज़रा से मेरे हो जाएँगे। हमेशा की तरह।

मैं इसे दोपहर की धूप में पढ़ती हूँ लेकिन किताब मेरे सपनों में खुल जाती है। बहुत से लोगों के बीच हम मुहब्बत से इसके हिस्से पढ़ते हैं। अपनी ज़िंदगी के क़िस्सों से साथ ही तो। कहाँ ख़त्म होती है धुंध से उठती धुन और कहाँ शुरू होता है कहानियों का सिलसिला। निर्मल किन लोगों की बात करते चलते हैं इस किताब में। उनकी कहानी के किरदार कितनी जगह लुकाछिपी खेलते दिखते हैं इस धुन्ध में। 

लिखे हुए क़िस्से और जिए हुए हिस्से में कितना साम्य है। पंकज ठीक ही तो कहता है इस किताब को, Master key. यहाँ इतना क़रीब से गुंथा दिखता है कहानी और ज़िंदगी का हिस्सा कि हम भूल ही जाते हैं कि वे दो अलग अलग चीज़ें हैं। मैं इसे पढ़ते हुए धूप तापती हूँ। मेरा कैमरा कभी वो कैप्चर नहीं कर पाता जो मैं इस किताब को पढ़ते हुए होती हूँ।

धुन्ध से उठती धुन पढ़ना मुहब्बत में होना है। मुहब्बत के काले, स्याह हिस्से में। जहाँ कल्पनाओं के काले, स्याह कमरे रचे जाते हैं। ख़्वाहिशें पाली जाती हैं। जहाँ दुनियाएँ बनायीं और तोड़ी जाती हैं सिर्फ़ किसी की एक हँसी की ख़ातिर। इसे पढ़ते हुए मैं देखती हूँ वो छोटे छोटे हिस्से कि जो निर्मल की कहानियों में जस के तस आ गए। वे अगर ज़िंदा होते तो मैं डिटेल में नोट्स बनाती और पूछती चलती इस ट्रेज़र हंट के बाद कि मैंने कितने क्लू सही सही पकड़े हैं। 

कहानियाँ ज़िंदगी के पैरलेल चलती हैं। मैं लिखते हुए कितने इत्मीनान से छुपाती चलती हूँ कोई एक वाक्य, कोई एक वाक़या, किसी की शर्ट का रंग कोई। लेकिन क्या मेरे पाठकों को भी इसी तरह साफ़ दिखेंगे वे लोग जिन्हें मैंने बड़ी तबियत से अपनी कहानियों में छुपाया है? वे शहर, वे गालियाँ, वे मौसम कि जो मैंने सच में जिए हैं।

आज एक दोस्त से बात कर रही थी। कि हमें दुःख वे ही समझ आते हैं जो हम पर बीते हैं या हमारे किसी क़रीबी पर। हमें उन दुखों की तासीर ठीक ठीक समझ आ जाती है। फ़र्स्ट हैंड दुःख। धुन्ध से उठती धुन पढ़ना फ़र्स्ट हैंड दुःख है। नया, अकेला और उदास। कोई दूसरा दुःख इसके आसपास नहीं आता। कोई मुस्कान इसका हाथ नहीं थामती। तीखी ठंड में हम बर्फ़ का इंतज़ार करते हैं। मौसम विभाग ने कहा है कि आज आधी रात के पहले बारिश नहीं होगी। 

'तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो', मेरी दुनिया में इस वाक्य की कोई जगह नहीं है। मेरे डर, मेरे अंधेरे, मेरे उदास क़िस्सों में किसी की आँखे नहीं चमकतीं। कितनी बार हलक में अटका है ये वाक्य। इसलिए मैं तुम्हें सिर्फ़ उन किताबों के नाम बताउँगी जिनसे मुझे इश्क़ है। ताकि तुम उन किताबों को पढ़ते हुए कभी किसी वाक्य पर ठहरो और सोच सको कि मैंने तुम्हें वो कहानी पढ़ने को क्यूँ कहा था। 

कभी चलना किसी पहाड़ी शहर। वहाँ की पुरानी लाइब्रेरी में एक रैक पर इस किताब की कोई बहुत पुरानी कॉपी मिल जाएगी। उस समय का प्रिंट कि जब हम दोनों शायद पहली बार किसी इश्क़ में पड़ कर उसे आख़िरी इश्क़ समझ रहे होंगे। प्रेमपत्र में बिना लेखकों के नाम दिए शायरी और कविताएँ लिख रहे होंगे। ग़लतियाँ कर रहे होंगे बहुत सी, इश्क़ में। साथ में पढ़ेंगे कोई किताब, बिना समझे हुए, बड़ी बड़ी बातों को। मिलेंगे कोई दस, पंद्रह, सत्रह साल बाद एक दूसरे से, किसी ऐसे शहर में जो नदी किनारे बसा हो और जहाँ मीठे पानी के झरने हों। याद में कितना बिसर गया होगा किताब का पन्ना कोई। या कि हमारा एक दूसरे को जानना भी। फिर भी कोई याद होगी कि जो एकदम नयी और ताज़ा होगी। एक रात पहले पी कर आउट हो जाने जैसी। थोड़ी धुँधली, थोड़ी साफ़। बीच में कहीं। भूले हुए गीत का कोई टुकड़ा। 

कोई धुन, धुन्ध से उठती हुयी। 
पूछना उस दिन मौसम का हाल, मैं कहूँगी। इश्क़। 

30 November, 2015

बुकमार्क के नक्शे पर मिलते लोग

रातें खुली किताबों जैसी होतीं हैं. उसे रातें नहीं पसंद. उसे खुली किताबें भी नहीं पसंद. न वे लोग जो किताबों को बेतरतीबी से बरतते हैं. उसे पास भतेरे बुकमार्क्स होते. वो जगह जगह से बुक मार्क इकठ्ठा करते चलती. कभी कोई न भेजा हुआ पोस्टकार्ड. स्टैम्प्स के निकल जाने के बाद के खाली स्टीकर वाले खाके. कभी फूल तो कभी कोई तिनका ही कोई. कहीं से मैग्नेटिक बुकमार्क तो कहीं मेटल वाले. किसी बुकमार्क में बत्ती जलती. तो कोई रेशम के रिबन से बना होता. कुछ भी बुकमार्क हो सकता था. ट्रेन की टिकट्स. पसंदीदा कैफे का बिल. उसके क्रश के सिग्नेचर वाला कोई पेपर नैपकिन. सिगरेट की खाली डिब्बी. कुछ भी. 

जिस दुनिया में इतना सारा कुछ हो सकता है बुकमार्क्स के लिए, वहाँ खुली किताबें क्यूँ होतीं? उसे लोग कहते कि उनका जीवन खुली किताब है. वो उनसे कहना चाहती, किताब बंद कर के रख दीजिये...कोई कॉफ़ी गिरा देगा...उड़ती चिड़िया बीट कर देगी...कोई पन्नों पर किसी भी ऐरे गैरे का फोन नंबर लिख मारेगा. जिंदगी इतनी फालतू नहीं और किताबें तो खैर और भी नहीं. क्यूँ होना खुली किताब. कि जैसे रात के पहर. सब मालूम चलता था. वो कितनी रात जगी थी. व्हाट्सएप्प पर लास्ट लॉग इन कितने बजे था. उसने रात को सोने के पहले कॉफ़ी पी या ग्रीन टी, ओल्ड मौंक या नीट विस्की...सिगरेट या बीड़ी...किसी को याद किया या नहीं...कोई गाना सुना या नहीं...ग़ालिब को पढ़ रही थी या फैज़ को...सब कुछ. खुली किताब सा था. ये खुली किताब उसे बिलकुल पसंद नहीं आती थी. 

उसे किताबें लोगों जैसी लगतीं...परत दर परत खुलतीं...हर पन्ने में कुछ और लिखा होता और सब कुछ जाने लेने का सस्पेंस उसे किताब आखिरी पन्ने से पढ़ने को मजबूर कर देता कई बार...कि जैसे किसी रिश्ते को हड़बड़ी में कोई नाम दे दिया जाए, 'दोस्ती', फिर आप उम्र भर उस लेबल से चिपके रहोगे और चाह कर भी बाहर नहीं निकल पाओगे. ये तो फिर भी गनीमत है, मान लो कोई कच्ची उम्र रही और बिहार जैसे किसी प्रदेश में रहना हुआ...तब तो एक ही रिश्ता हो सकता था किताबों से या लड़कों से, रक्षा का, 'भैय्या'. कितनी बार किताबों को आग में झोंक देने का मन किया है उसका. मगर किताबों का काम था उसकी रक्षा करना...और ये काम उन्होंने उसके भाइयों से बेहतर किया...किताबें उसे ज़माने की नज़रों से बचाती थी. स्लीपर कम्पार्टमेंट में चलते हुए वह देश के सहिष्णुता भरे माहौल में गाँधी की लिखी 'सत्य के प्रयोग' में आँखें घुसाए रहती. उसके चश्मे और किताब रुपी ढाल के पार कोई निगाह उस तक नहीं पहुँच सकती. अपनी अकेली ट्रेन यात्राओं में उसने समझ लिया था कि किताबें आपकी बेस्ट फ्रेंड हो या न हों...आपकी सबसे अच्छी बॉडीगार्ड जरूर हो सकती हैं. वो अक्सर कोई बड़ी भारी, मोटी सी किताब लिए चलती. अंग्रेजी में हो तो और भी अच्छी. कभी कभी इन किताबों के अन्दर नागराज के कोमिक्स भी रख के पढ़ लेती और अपनी इस जीत पर पूरे रास्ते मुस्कुराती जाती. स्लीपर का ऊपर का कम्पार्टमेंट कभी भी दम घुटने नहीं देता. बहुत गर्मियों में उसका भुजे हुए चावल के लावा जैसा हाल हो जाता और सर्दियों में नाक एकदम टमाटर हुयी जाती. लेकिन हर बार, किताबों के पीछे वह हमेशा खुद को बहुत सुरक्षित महसूस करती.

रांची से उसके गाँव के रस्ते में बस यही एक ट्रेन का रूट पड़ता था. वो रांची स्टेशन पर चढ़ती बाकी लड़कियों को देखती. अपने जींस टी शर्ट और उसके ऊपर पहने ढीले ढाले जैकेट में वो अलग ही नज़र आतीं. सब्भ्रांत. लड़के उन्हें नज़र बचा बचा कर देखते. उसकी तरह पूरे बदन का एक्स रे नहीं करते. लड़की उनके हाथों में कई बार 'कॉस्मोपॉलिटन' जैसी अंग्रेजी मैगजीन देखती और गहरी सांस भरती. एक बार उसने बुक स्टाल पर मैगजीन उठा कर देखी भी थी मगर सौ रुपये की किताब और उसपर के गहरे मेकउप और कम कपड़ों वाली कवर फोटो की लड़की को देख कर ही उसे यकीन हो गया कि ये किताब वो हरगिज़ अपने स्लीपर कम्पार्टमेंट की किसी भी बर्थ पर नहीं पढ़ सकती है. ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए तो कमसे कम एसी थ्री टायर का टिकट कटाना ही होता. सलवार कुर्ता पहने, दुपट्टे से बदन पूरा लपेटे, एक काँधे में कैरी बैग टाँगे धक्का मुक्की में कम्पार्टमेंट में चढ़ना अपने आप में आफत थी. एक तरफ उनके हाथ में महंगे बैग्स हुआ करते थे. पहिये वाले इन बैग्स को खींचने में कहाँ की मेहनत. आराम से एक हाथ में मैगजीन, एक हाथ में बक्से का हैंडिल. कानों में हेडफोन्स लगे हुए. ट्रेन आई नहीं कि अपना बैग सरकाती आयीं और आराम से चढ़ गयीं. लड़की कल्पना करती कि कभी उसकी दिल्ली जैसे किसी शहर में नौकरी लगेगी. फिर वो अपने पैसे से एसी टू टायर का टिकेट कटाएगी और पूरे रास्ते खिड़की वाली बर्थ पर बैठे हुए कभी बाहर के नज़ारे देखेगी तो कभी कॉस्मोपॉलिटन पढ़ेगी. अगर साथ की बर्थ के लोग अच्छे हुए...या कोई खूबसूरत लड़का हुआ तो पर्दा नहीं लगाएगी वरना अपना पर्दा खींच कर चुपचाप अपने छोटे से एकांत सुख में डोलती जायेगी. बंद किताब जैसी. 

स्लीपर में तो वो खाना खुद लेकर चढ़ती. माँ की सख्त हिदायत रहती कि रास्ते का कुछ भी लेकर खाना पीना नहीं है. कभी कभी उसे चाय की बड़ी तलब लगती. मगर फिर उसे वो सारे अख़बार के कॉलम्स याद आ जाते जिनमें नशीली चाय पिला कर न केवल लोगों के सामान की लूट-पाट हुयी, बल्कि कई बार तो जान तक चली जाती रही है. उसके पड़ोस में रहने वाली सहेली की फुआ का जौध ऐसे ही कॉलेज ज्वायन करने जा रहा था. लुटेरों को शायद खबर होगी कि कॉलेज एडमिशन का टाइम है, इस वक़्त लड़के अक्सर फीस के पैसे साथ लेकर चलते हैं. उस घटना में उसी ट्रेन में साथ जाते हुए पांच लड़के एक साथ उनके चंगुल में फंसे थे. बिहिया स्टेशन से अधमरी हालत में रेलवे पुलिस बल उन्हें उठा कर लाया था. हफ़्तों इलाज चला था तब जा कर नार्मल हो पाए थे लड़के. लेकिन एसी टू टायर में तो रेलवे के आधिकारिक चाय वाले होते हैं. युनिफोर्म पहन कर चाय बेचते हैं. आज भले वो तीस रुपये की चार कप चाय पीने का सपना भी नहीं देख सकती लेकिन एक दिन तो ऐसा होगा कि पूरी ट्रेन जर्नी में वो किताब पढ़ती आएगी और जब उसका मन करेगा या जब चाय वाला गुज़रता रहेगा, एक कप चाय माँग लेगी. अगर किसी से बातचीत होने लगी तो दोनों के किये दो कप चाय बोल देगी और खुद ही बिना शिकन के पर्स से साठ रुपये निकाल कर दे भी देगी...हँस कर कहते हुए...कि अजी साठ रुपये होते भी क्या हैं...देखिये न डॉलर तक आजकल ७० रुपये होता जा रहा है. जैसे जैसे उसके फाइनल इयर के एक्जाम के दिन पास आ रहे थे उसकी कल्पनाएँ एसी टू टायर ही नहीं आगे अमरीका तक भाग रही थीं. अब जाहिर है, अमरीका तक भारतीय रेल की पटरियां तो नहीं बिछी थीं. 

अभी पिछले महीने ही तो मोहल्ले में शादी थी तो बरात आने के बाद जनवासे का मुआयना करने वह भी अपने भाइयों के साथ गयी थी. एक बार घर से बाहर निकल जाने के बाद लड़का लड़की में भेद नहीं रहता. दौड़ दौड़ कर बाहर का बहुत सा काम किया था उसने शादी में. पंडाल बुक करने से लेकर खाने के मेनू के आइटम्स में उसकी राय पूछी गयी थी. इस बार उसने चाचा से लाड़ भरे स्वर में कह दिया कि वो भंडारी बन कर कमरे में आटे तेल का हिसाब नहीं रखेगी. वह भी भाइयों के साथ जनवासा जायेगी. एक्जाम ख़त्म हो गए थे. नयी नौकरी का ज्वायनिंग लेटर उसका पसंदीदा बुकमार्क था उन दिनों. वह फिर से दोहरा कर पाश को पढ़ रही थी. सब लोग खाना खाने गए हुए थे, मैरिज हॉल के तीनों एसी कमरे लड़के वालों के लिए बुक थे जिनमें से एक की चाभी उसे भी दी गयी थी. जयमाला के फूल उसी कमरे में रखे थे. थाल सजा कर वो कमरे में रखने के लिए आई थी. इस कमरे में सिर्फ एक ही बक्सा रखा था और बाकी कमरों की तरह आईने के पास लिपस्टिक और जल्दी में फेंकी गयी बिंदियों के स्टीकर नहीं थे. ये कमरा जाहिर तौर से लड़का और उसके दोस्तों के इस्तेमाल के लिए था. उसने थाल करीने से टेबल पर रख दिया कि तभी बिस्तर के सिरहाने उसकी नज़र पड़ी. वो देखते ही पहचान गयी. नोबल पुरस्कार विजेता विस्लावा सिम्बोर्स्का की कविताओं का संकलन, 'Map' की एक प्रति वहां रखी हुयी थी. उसने पहली बार अख़बार में इस लिटरेचर में नोबल पुरस्कार से सम्मानित सिम्बोर्स्का के बारे में पढ़ा था. उनके भाषण का एक छोटा सा हिस्सा अनुवादित होकर उनकी तस्वीर और किताब के कवर के साथ छपा था. किताब ने उसे बेतरह अपनी ओर खींचा था. कुछ तो उस तस्वीर में इंतज़ार और कुछ उसके अपने खुद के सपने जिसमें दुनिया के नक़्शे के कई देश देखने थे उसे. वह रांची में अपने बुकसेलर को कितनी बार बोल चुकी थी लेकिन किताब की प्रति अभी तक नहीं आई थी. उत्सुकता में उसने किताब का पहला पन्ना खोला...लेखिका के नाम के ऊपर हरी स्याही में लिखा था, 'आई लव यू...' कुछ इस तरह से कि पूरा वाक्य बन जाता था, आई लव यू विस्लावा सिम्बोर्स्का. उसने किताब खोली कि अन्दर से फ्लाइट टिकट बाहर गिर गया. हड़बड़ में उसने टिकट की जगह थाल से उठा कर कुछ गुलाब की पंखुड़ियाँ वहाँ डाल दीं. टिकट पर किसी विराग भट्टाचार्य का नाम लिखा हुआ था. 'विराग?!' ये कैसा नाम हुआ...कौन रखता है अपने बच्चे का नाम, विराग! वहां रुकना ठीक नहीं था. किताब को देख कर उसका मन डोल रहा था. यूँ उसने आज तक कभी किसी की किताब चुराई नहीं थी, लेकिन कभी आज तक ऐसी ईमान डोला देने वाली किताब उसके हाथ लगी भी तो नहीं थी. चुपचाप कमरे से बाहर आ गयी. 

फिर तो बाकी शादी में क्या ही मन लगना था. बार बार सोचती रही कि इन सारे लड़कों में विस्लावा सिम्बोर्स्का से प्रेम करने वाला बंगाली विराग होगा कौन. हल्ले हंगामे में शादी कटी. अगले दिन दीदी की विदाई हो गयी. इसके तीन दिन बाद वहीं रिसेप्शन भी था. वो चूँकि दीदी की थोड़ी ज्यादा ही मुन्हलगी थी तो पूरे ससुराल वालों ने भी बड़े प्यार से उसे इनवाईट किया था. बड़े ऊंचे खानदान में बियाही थी दीदी. रिसेप्शन से पहले अपनी एक छुटकी ननद को भेज दिया था उसे पूरे घर को दिखाने के लिए. कमरे में किताब पर उसकी फिर से नज़र पड़ी. इस बार तो उसने तय कर लिया कि ये मिस्टर विराग जो भी हैं, फिर से किताब खरीद के पढ़ लेंगे मगर उसे अगर अभी ये किताब नहीं मिली तो शायद उसकी जान जरूर चली जायेगी. छुटकी को जरा सा भटका कर उसने किताब अपने पर्स में रख ली. रिसेप्शन में घड़ी घड़ी उसका मन उसे काट खाने को दौड़ता. कितनी सारी फिल्मों के सीन याद आते. किसी ने बैग खोल कर देख लिया तो. नतीजन उसने उस बड़े से बैग को पल भर भी खुद से अलग नहीं किया. फोटो खिंचाने तक में बैग टाँगे रही. 

सही गलत क्या होता है इसका सच सच निर्धारण बहुत मुश्किल है. उसने सोचा था किताब की फोटोस्टेट करा के अगले ही दिन दीदी के यहाँ खुद जा के रख आएगी किसी बहाने से. या किसी के हाथ भिजवा देगी. मगर सोच के दायरे में सारी संभावनाएं कहाँ आ पाती हैं. अगले दिन दीदी के नंबर पर फोन किया तो पता चला कि वो हनीमून पर सिंगापुर चली गयी है. सरप्राइज था. अकेले घर में जा कर किताब रखने की तो उसकी हिम्मत नहीं पड़ी. अब जिस किताब को लाने से सीने पर इतना बड़ा बोझ था उसे कम करने का एक ही उपाय था...किताब का सही उपयोग. उसने किताब न केवल खुद पढ़ी बल्कि जिद कर कर के लोगों को पढ़वाई. अपने हिसाब से कई कविताओं के कच्चे पक्के अनुवाद करने की इच्छा पहली बार तब ही जागी थी. पूरे गाँव में बैठ कर उसके साथ विस्लावा की कविताओं में किसी को कोई इंटरेस्ट नहीं था, किसी को इंटरेस्ट था भी तो इस बात में कि वो लड़का कौन था. बहुत मेहनत करके उसने अपनी पसंदीदा कविताओं का अनुवाद किया और किताब के पब्लिशर के पास एक चिट्ठी भेजी कि मैं इससे कोई लाभ नहीं उठाना चाहती हूँ मगर ये कवितायें यहाँ दूर तक पहुचेंगी अगर मुझे अनुवाद को यहाँ के कुछ अख़बारों और मैगजींस में छापने की अनुमति दी जाए, उसने कुछ कविताओं का अनुवाद संलग्न कर दिया था. बचपन से दोनों भाषाओं में पढ़ना काम आया था. उसके अनुवाद में कविता की आत्मा के रंग चमकते थे. पब्लिशर का जवाब हफ्ते भर में आ गया था. लिखने का सिलसिला अनुवाद से शुरू हुआ और उसकी खुद की कविताओं का रास्ता खुलता गया. बचपन से वो खुद में अहसासों की एक झील बनाती जा रही थी और इस रास्ते से झरना फूटा था. उस दिन के बाद उसने मुड़ कर नहीं देखा. 

कवितायें उसकी खासियत थीं. वो अपने सारे खाली वक़्त में अलग अलग भाषाएँ सीखती. किसी किताब के अनुवाद के पहले उस भाषा का कामचलाऊ ज्ञान हासिल करती. उसके अंग्रेजी अनुवाद को पढ़ती. उसके मूल भाषा में लिखे को पढ़ती. वहां के लोगों के जीवन के बारे में पढ़ती. वहां के लोगों से इन्टरनेट के माध्यम से जुड़ती और कविता के श्रोत को समझने की कोशिश करती. सारा लिखा आत्मसात करने के बाद जव वो अनुवाद करती तो कविता का नैसर्गिक सौंदर्य इस तरह उभरता कि समझना मुश्किल होता कि अनुवाद ज्यादा खूबसूरत है या असल कविता. उसकी मेहनत और अनुवाद के प्रति उसकी दीवानगी को देखते हुए कई सारे लेखकों और प्रकाशक उससे जुड़ते गए. जिस सफ़र की शुरुआत ही 'Map' से हो तो नक़्शे पर के शहर तो उसे देखने ही थे. देखते देखते उसने फुल टाइम कविता लिखने, उसपर बात करने और अनुवाद करने को दे दिया. पेरिस, प्राग, बर्लिन, क्राकोव...कई सारे शहर से उसके नाम आमंत्रण आते.एक दिन...क्रैकोव से उसके लिए न्योता आया. सिम्बोर्स्का के प्रकाशक ने उसे बुलाया था. एक बड़ा सेमीनार था जिसमें सिम्बोर्स्का के लेखन, उसकी शैली और उसके प्रभाव पर चर्चा थी. सारे प्रमुख अनुवादकों को बुलवाया गया था.

लड़की ने इतने सालों में कभी Map की खुद की प्रति नहीं खरीदी थी. फ्लाइट में बैठते हुए लड़की ने वही पुरानी किताब निकाली और पढ़ने लगी. याद में शादी की गंध, खुशबुयें और वो अनजान लड़का भी घूमता रहा. रास्ते में उसे हलकी सी झपकी आ गयी. नींद खुली तो देखा कि बगल वाली सीट पर का पुरुष किताब बड़े गौर से पढ़ रहा है. चौड़ा माथा. तीखी नाक. गोरा शफ्फाक रंग. खालिस पठान खूबसूरती. उसने गला खखारा लेकिन वो तो जैसे किताब में डूब ही गया था. आखिर उसने उसे काँधे पर हल्का का हाथ रख के एक्सक्यूज मी कहा. वो चौंका और एक शरारती मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा.
'माफ़ कीजिये, मेरी किताब'
'जी'
'आप मेरी किताब पढ़ रहे हैं'
वो एक ढिठाई के साथ बोला, 'अच्छा, तो आपका नाम विराग भट्टाचार्य है, देखने से तो नहीं लगता'. किसी नार्मल केस में वो हँस देती और पूरी कहानी बयान कर देती, मगर यहाँ सेमीनार में जाने वाले कई ख्याल और शादी की मिलीजुली यादों में डूब उतरा के उसका मूड कुछ खराब सा था.
'मेरा नाम विराग भट्टाचार्य नहीं है, लेकिन ये किताब मेरी है'
'अरे, ऐसे कैसे मान लूं कि आपकी है...क्या सबूत है?'
'मेरी नहीं है तो क्या आपकी है...आपके पास क्या सबूत है कि ये आपकी किताब है?'
'क्यूंकि ये किताब मैंने खुद विराग से चुराई थी'
'जी...मतलब'...वो एकदम ही अचकचा गयी थी.
'बात कोई दस साल पुरानी है...मेरा दोस्त शिकागो से बड़े शौक़ से Map लेकर आया था और हम दोनों को उसे पढ़ जाने का भूत सवार था. मुझे शादी में आना था, बस मैंने चुपचाप उसकी किताब उठा कर अपने बैग में रख ली...शादी में जूते चोरी होना तो सुना था, किताब चोरी करने वाली सालियाँ पहली बार देख रहा हूँ'
'जी!'
'जी'
'आप झूठ बोल रहे हैं' वो सिटपिटा गयी थी.
'ठीक है मैं झूठ बोल रहा हूँ तो क्या विराग भी झूठ बोल रहा है...विराग...बता जरा इनको'
और उसकी बगल वाली सीट पर मंद मंद मुस्कुराता उसका बंगाली विराग भट्टाचार्य था...जो कि शादी में आया ही नहीं था तो उसे दिखता कैसे. 
'मैडम, ये मेरी ही किताब है...शायद आपको याद हो, इसमें एक एयर इण्डिया का टिकट भी था...मैं उसे बुकमार्क की तरह इस्तेमाल कर रहा था.'
इस हालात में हँसने के सिवा कोई चारा नहीं था. तीनो ठठा कर हँस पड़े. विराग और आहिल में शर्त लगी थी. विराग का कहना था कि किसी लड़के ने किताब उड़ाई होगी, आहिल का कहना था कि लड़की ने. फिर पूरा सफ़र बड़े मज़े में बात करते करते कटा. Map से शुरू हुआ सफ़र उन्हें अनजाने पास ले आया था. और वे मिले भी तो कहाँ, क्रैकोव जाने वाले प्लेन में! बातों बातों में कब प्लेन के लैंड करने का वक़्त आ गया मालूम भी नहीं चला. अब बात थी कि किताब किसके पास जाये. आहिल ने कहा कि टेक्निकली किताब कभी उसकी थी ही नहीं फिर भी जिस किताब से इतनी कहानियां बनी हैं उसपर उसका कोई हक नहीं है. वो अलबत्ता खुश बहुत था कि उसकी मारी हुयी किताब कितने दूर तक पहुंची. तीनों फिर सेमीनार में मिलने वाले ही थे. इन फैक्ट वे एक ही होटल में ठहरे थे. विराग ने किताब वापस करते हुए कहा कि बाकी सब तो ठीक है, हाँ बुकमार्क नहीं है...आप चाहें तो मेरा बोर्डिंग पास इस्तेमाल कर सकती हैं. 

लड़की खुश थी. गुज़रते सालों के दरमयान किताबों को ढाल बनने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हाँ उनसे कहानियां जरूर निकलती थीं कई सारी. लेकिन Map के जिंदगी में आने और आज आखिरकार विराग और आहिल से मिलना कोई कहानी नहीं कविता जैसा खूबसूरत था...सिम्बोर्स्का की कविताओं जैसा. लड़की मुस्कुराते हुए उसके बोर्डिंग पास बुकमार्क को किताब में रख रही थी.

25 September, 2015

राइटर्स डायरी - डैलस में रंगों का नृत्य

गंध है कोई. रेंगते कीड़ों जैसी चढ़ती जा रही है पैरों पर. काली लताओं जैसी. किसी गौथ टैटू की तरह. शायद आज दोपहर Millenium series की किताब 'Girl in the spider's web' पढ़ी है इसलिए. ये पूरी सीरीज मुझे बहुत पसंद आई है. लिसबेथ वैसी हिरोइन है जैसा मैं रचना चाहती हूँ बहुत दिनों से...मगर शायद थोड़ा सा बचा जाती हूँ लिखते हुए 'प्लेयिंग सेफ' जैसा कुछ. मगर किसी दिन मैं अपनी कलम को पूरी तरह से निर्भीक बना सकूंगी और रच सकूंगी किसी ऐसी लड़की को जिस पर मुझे गर्व हो.
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मुझे शब्दों की प्यास लगती है. जिन्दा शब्दों की. जिन्हें किसी जीते जागते इंसान ने लिखा है. मैं शब्दों को पढ़ते हुए इमैजिन करना चाहती हूँ उसको. उसके चेहरे पर के भाव. उसके शहर का मौसम. मगर ऐसा सारे लेखकों के साथ नहीं है. कुछ हैं जो अपने लिखे में घुले-मिले हैं. कुछ आर्टिस्ट इसी तरह होते हैं. अपनी कला में घुलेमिले. उनकी कला उनके मर जाने के हज़ारों साल बाद भी ज़िंदा रहती है. क्यूंकि उन्होंने अपनी हर कलाकृति में अपनी रूह का एक हिस्सा रख दिया होता है. मैं जब किसी म्यूजियम में पेंटिंग्स देखती हूँ तो अकस्मात् किसी पेंटिंग के सामने बहुत देर तक ठहर जाती हूँ. ब्रश स्ट्रोक्स की ऊर्जा को महसूसती हूँ. पहली बार पिकासो की पेंटिंग देखी थी वियेना में तो महसूस किया था कि महान होना शायद इसी को कहते हैं. इतने साल बाद भी उसके ब्रश स्ट्रोक्स लगता था जैसे अभी अभी उकेरे गए हों. जैसे आर्टिस्ट एक गीला कैनवास यहीं रख कर हाथ साफ़ करने गया हो. मैं उसके लौट आने का इंतज़ार करती हूँ. उलझे हुए बिम्ब और प्रतीकों वाली उस पेंटिंग के पीछे उसकी मनोदशा को जानना चाहती हूँ. इस जान पहचान के पीछे इस बात का भी हाथ रहता है कि मैंने उस आर्टिस्ट के बारे में कितना जाना है. शायद कर्ट कोबेन की आवाज़ की मर्मान्तक पीड़ा मुझे इसलिए महसूस होती है कि मैं उसके डायरी के पन्नों से गुज़र चुकी हूँ. मगर फिर भी...कर्ट की आँखों में जो स्याह अँधेरा है...उसे लाइव सुनते हुए मैं जैसे जानती हूँ कि वो इस लम्हे नज़र उठा कर देखेगा...वो देखता है और फिर जैसे स्क्रीन नहीं रहती, यूट्यूब नहीं रहता, वक्त एक बिंदु हो जाता है...मैं ठीक सामने होती हूँ उसके...उस लम्हे. मैंने उसे वाकई तब सुना है जब वो गा रहा था...'माय गर्ल माय गर्ल'. 
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मैं उसके शब्दों को अपनी ऊँगली में लेकर मसलना चाहती हूँ. बचपन में चोट लगती थी तो गेंदा के पत्तों को यूं ही मसल कर उनका रस टपकाते थे हमारे स्पोर्ट्स टीचर. ताज़ा घाव से खून बह रहा होता था. रस उसमें घुलमिल जाता. वे फिर पत्तों से ही घाव को दबा देते और अपनी जेब से एकदम साफ़ रुमाल निकालते...सफ़ेद रंग का, और पट्टी बाँध देते. फिर पीठ ठोकते हुए कहते कि खिलाड़ी को गिरने से डर नहीं लगना चाहिए. उन दिनों हम लड़के और लड़कियों में बंटे हुए नहीं थे. हम बस अपने हिस्से का खेल ठीक से खेलना चाहते थे. मैं ४०० मीटर की धावक हुआ करती थी. मुझे उन दिनों लम्बी पारी का खेल समझ आता था. अपनी सारी एनर्जी शुरू में नहीं झोंकनी चाहिए. आखिर के लिए बचा कर रखनी चाहिए. उन दिनों ज़ख्मों पर मिटटी भी रगड़ दिया करते थे हम. मिट्टी से भी घाव भर जाया करते थे. या कि उम्र ऐसी थी. बिना किसी चीज़ के भी घाव भर जाते.
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मैं पढ़ती हूँ उसका लिखा एक वाक्य. कविता का एक टुकड़ा होता है. संजीवनी बूटी के दो बूँद टपकाए गए हों जीभ पर जैसे. मैं जी उठती हूँ. 
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लास्ट टाइम डैलस आई थी तो आर्ट म्यूजियम लगभग रोज़ ही चली जाती थी. पहले दिन एक स्पेशल एक्जीबिशन लगा हुआ था, ''Between action and the unknown'. 'काजुओ शिरागा' एक जापानी आर्टिस्ट जो कि एक ख़ास ग्रुप 'गुटाई' के सदस्य थे. इसकी कहानी काफी रोचक थी. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान अपनी आइडेंटिटी क्राइसिस के दौर से गुज़र रहा था. कला और समाज में इसकी क्या जरूरत है...जब जीने के लिए बाकी चीज़ें ज्यादा जरूरी हों और समाज बहुत दिनों तक सिर्फ जीवन की बेसिक जरूरतों को किसी तरह पूरा करने में सक्षम रहा हो...जहाँ मौत और भूख चप्पे चप्पे पर दिखती हो ऐसे में कला सिर्फ साक्षी भाव से चीज़ों को देखना नहीं हो सकता...कला को भी कहीं न कहीं चीज़ों से जुड़ना होगा. चीज़ों से सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव काफी नहीं है, इसके अलावा भी कई स्तरों पर एक कलाकार को कोशिश करनी होगी कि कला को बेहतर आत्मसात कर सके. अपनी सीमाओं से ऊपर उठ सके. अपने कैनवास से इतर सोच सके. 
The artist काजुओ को जब उसके गुरु ने कहा कि पेंटिंग को उसके माध्यम से इतर होकर कुछ नया देखना और सोचना होगा...सिर्फ ब्रश उठा कर कैनवास पर किसी दृश्य को उतार देने से बढ़ कर भी कुछ होना चाहिए कला में. तो काजुओ ने 'गति' को पेंटिंग का केंद्र बनाया. उसने कैनवास को ज़मीन पर रखा और छत से एक रस्सी लटकाई...कैनवास पर जगह जगह पेंट उड़ेला और नंगे पांवों से पेंट करना शुरू किया. ये पेंट एक नृत्य सरीखा था. काजुओ का कहना था कि उन्हें पेटिंग एक मूवमेंट की तरह महसूस होती है और वे उसकी लय में कैनवास पर झूमते जाते हैं...उनका पेंट करना बहुत हद तक गति को माध्यम देने जैसा था. पेंटिंग की इस शैली को 'एक्शन पेंटिंग' या 'काइनेटिक पेंटिंग' भी कहते हैं. काजुओ को इन पेंटिंग्स को बनाते हुए आध्यात्मिक अनुभव हुए थे. कला दीर्घा में इन पेंटिंग्स को देखते हुए मैं इनके सम्मोहन में खो जाती हूँ. अधिकतर पेंटिंग्स अपने आप में एक पूरी दुनिया हैं...एक गहन भाव जो पेंटिंग्स से रिसता हुआ महसूस होता है...आत्मा को संतृप्त करता हुआ. उन्हें छूने का मन करता है. हर पेंटिंग एक सान्द्र विलयन है. किसी दूसरी दुनिया का दरवाज़ा. कैनवास गीला लगता है. जैसे छूने से रंग उतर आयेंगे जिंदगी में. मैं देर तक सोचती हूँ. अगर कोई मुझे कहे कि ऐसी कहानी लिखो जिसमें शब्द न हों...ऐसी कविता जिसमें लय न हो...ऐसा अनुभव जिसमें कुछ भी पहले जैसा नहीं हो तो मैं क्या करूंगी. क्या कोई नया माध्यम बना पाऊँगी. नया. घबराहट होती है. शब्दों की प्यास लगती है. फिर.
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कल मैं कब्रिस्तान गयी थी. पूरी दोपहर कब्रों पर लिखी इबारतें पढ़ती रही. लोगों के जन्म मरण की तारीखें. उनका काम. उनके नाम लिखे संदेसे. सोचती रही कि कैसा होता होगा मरने के बहुत सालों बाद भी जरा सी जमीन पर अपना अधिकार जमाये रखना. 

कोई कब्रिस्तान होता है दिल. यूं ही दफन रहते हैं कितने लोग. नाम. तारीखें. इक आधी इबारत कोई. मगर कब्रिस्तान के बारे में डिटेल में फिर कभी. फिलहाल. कोई कहानी है. कुछेक पोस्टकार्ड्स हैं और खोये हुए स्टैम्प्स. इस बार स्याही की बोतल लेकर आई थी कि कम न पड़ जाए. मगर इस बार लिखा नहीं है कुछ. फिर किसी दिन. फिर किसी शाम के रंग में. घुलते. बहते. मिलेंगे खुद से. मुस्कुराएंगे उड़ते हुए हवाईजहाज़ को देख कर. कहेंगे अलविदा. और वाकई जा सकेंगे तुम्हारे दिल के इस कब्रिस्तान से बाहर. अपना कोई वजूद तलाशते हुए. 

<इक गहरी साँस. जैसे अटका हुआ है कोई नाम. कोई किरदार. किसी कहानी का अंत>

10 March, 2014

फिल्म के बाद की डायरी

दिल की सुनें तो दिल बहुत कुछ चाहता है। कभी बेसिरपैर का भी, कभी समझदार सा।
इत्तिफाक है कि हाल की देखी हुयी दो फिल्मों में सफर एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार रहा है...किरदार क्युंकि सफर बहुत तरह के होते हैं, खुद को खो देने वाले और खुद को तलाश लेने वाले। हाईवे और क्वीन, दोनों फिल्में सफर के बारे में हैं। अपनी जड़ों से इतर कहीं भटकना एक अलग तरह की बेफिक्री देता है, बिल्कुल अलग आजादी...सिर्फ ये बात कि यहाँ मेरे हर चीज को जज करने वाला कोई नहीं है, हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं...और ठीक यही चीज हमें सबसे बेहतर डिफाइन करती है, जब हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं तो हम क्या करते है। बहुत समय ऐसा होता है कि हमसे हमारी मर्जी ही नहीं पूछी जाती, बाकी लोगों को बेहतर पता होता है कि हमारे लिये सही क्या है...ये लोग कभी पेरेंट्स होते हैं, कभी टीचर तो कभी भाई या कई बार बौयफ्रेंड या पति। कुछ कारणों से ये तय हो गया है कि बाकी लोग बेहतर जानते है और हमारे जीवन के निर्णय वही लेंगे। कई बार हम इस बात पर सवाल तक नहीं उठाते। इन्हीं सवालों का धीरे धीरे खुलता जवाब है क्वीन, और इसी भटकन को जस का जस दिखा दिया है हाईवे में, बिना किसी जवाब के। मैं रिव्यू नहीं लिख रही यहां, बस वो लिख रही हूं जो फिल्म देखते हुये मन में उगता है। क्वीन बहुत अच्छी लगी मुझे...ऐसी कहानी जिसकी हीरो एक लड़की है, उसका सफर है।

कई सारे लोग जमीनी होते हैं, मिट्टी से जुड़े हुये...उनके ख्वाब, उनकी कल्पनाएं, सब एक घर और उसकी बेहतरी से जुड़ी हुयी होती हैं...लेकिन ऐसे लोग होते हैं जो हमेशा कहीं भाग जाना चाहते हैं, उनका बस चले तो कभी घर ना बसाएं...बंजारामिजाजी कभी विरासत में मिलती है तो कभी रूह में...ऐसे लोग सफर में खुद को पाते हैं। कल फिल्म देखते हुये देर तक सोचती रही कि मैं क्या करना चाहती हूं...जैसा कि हमेशा होता है, मुझे मेरी मंजिल तो दिखती है पर रास्ते पर चलने का हौसला नहीं दिखता। मगर फिर भी, कभी कभी अपनी लिखने से चीजें ज्यादा सच लगने लगती हैं...हमारे यहां कहावत है कि चौबीस घंटे में एक बार सरस्वती जीभ पर बैठती हैं, तो हमेशा अच्छा कहा करो।

मुझे लोगों का सियाह पक्ष बहुत अट्रैक्ट करता है। लिखने में, फिल्मों में...हमेशा एक अल्टरनेट कहानी चलती रहती है...जैसे हाइवे और क्वीन, दोनों फिल्मों में इन्हें सिर्फ अच्छे लोग मिले हैं, चाहे वो अजनबी लड़की या फिर किडनैपर...मैं सोच रही थी कि क्या ही होता ऐसे किसी सफर में सिर्फ बुरे लोग मिलते...जिसने कभी किसी तरह की परेशानियां नहीं देखी हैं, वो किस तरह से मुश्किलों से लड़ती फिर...ये शायद उनके स्ट्रौंग होने का बेहतर रास्ता होता। मेरा क्या मन करता है कि एक ऐसी फिल्म बनाऊं जिसमें चुन चुन के खराब लोग मिलें...सिर्फ धमकी देने वाले नहीं सच में कुछ बुरा कर देने वाले लोग...सफर का इतना रूमानी चित्रण पच नहीं रहा। फिर लड़की डेंटी डार्लिंग नहीं मेरे जैसी कोई हो...मुसीबतों में स्थिर दिमाग रखने वाली...जिसे डर ना लगता हो। अजब अजब कीड़े कुलबुला रहे हैं...ये लिखना, वो लिखना टाईप...ब्रोमांस पर फिल्में बनती हैं तो बहनापे पर क्युं नहीं? कोई दो लड़कियाँ हों, जिन्हें ना शेडी होटल्स से डर लगता है ना पुलिस स्टेशन से...देश में घूमने निकलें...कहानी में थोड़ा और ट्विस्ट डालते हैं कि बाईक से घूमने निकली हैं कि देश आखिर कितना बुरा है...हमेशा कहा जाता है, खुद का अनुभव भी है कि सेफ नहीं है लड़कियों का अकेले सफर करना...फिर...सबसे बुरा क्या हो सकता है? रेप ऐंड मर्डर? और सबसे अच्छा क्या हो सकता है? इन दोनों के बीच का संतुलन कहां है?

So, when you come back, you may have a broken body...but a totally...absolutely...invincible soul...now if that is not worth the journey, I don't know what is!

मुझे हमेशा लगता था मुझसे फुल टाईम औफिस नहीं होगा...हर औफिस में कुछ ना कुछ होता ही है जो स्पिल कर जाता है अगले दिन में...ऐसे में खुद के लिये वक्त कहां निकालें! लिखने का पढ़ने का...फिर भी कुछ ना कुछ पढ़ना हो रहा है...आखिरी इत्मीनान से किताब पढ़ी थी IQ84, फिर मुराकामी का ही पढ़ रही हूं...किताबें पढ़ना भाग जाने जैसा लगता है, जैसे कुछ करना है, वो न करके भाग रही हूं...परसों बहुत दिन बाद दोस्त से मिली...श्रीविद्या...एक बच्चे को संभालने, ओडिसी और कुचीपुड़ी के रिहर्सल के दौरान कितना कुछ मैनेज कर लेती है...उसके चेहरे पर कमाल का ग्लो दिखता है...अपनी पसंद का जरा सा भी कुछ मिल जाता है तो दुनिया जीने लायक लगती है...दो तरह की औरतें होती हैं, एक जिनके लिये उनके होने का मकसद एक अच्छा परिवार है बसाना और बच्चे बड़ा करना है...जो कि बहुत जरूरी है...मगर हमारे जैसे कुछ लोग होते हैं, जिन्हें इन सब के साथ ही कुछ और भी चाहिये होता है जहां हम खुद को संजो सकें...मेरे लिये लिखना है, उसके लिये डांस...इसके लिये कुर्बानियां देते हुये हम जार जार रोते हैं मगर जी भी नहीं सकते अगर इतना जरा सा कुछ ना मिल सके।

हम डिनर पर गये थे, फिर बहुत देर बातें भी कीं...थ्री कोर्स डिनर के बाद भी बातें बाकी थीं तो ड्राईव पर निकल गये...पहले कोरमंगला तक फिर दूर माराथल्ली ब्रिज से भी बहुत दूर आगे। कल से सोच रही हूं, लड़कियों के साथ का टूर होता तो कितना अच्छा होता...मेरी बकेट लिस्ट में हमेशा से है...अनु दी, नेहा, अंशु, शिंजिनी...ये कुछ वैसे लोग हैं जिनके साथ कोई वक्त बुरा नहीं हो सकता। कोई हम्पी जैसी जगह हो...देखने को बहुत से पुराने खंडहर...नदी किनारे टेंट। बहुत से किस्से...बहुत सी तस्वीरें। जाने क्या क्या।

बहरहाल, सुबह हुयी है और हम अपने सपने से बाहर ही नहीं आये हैं...चाह कितना सारा कुछ...फिल्में, किताबें...घूमना...सब होगा, धीरे धीरे...फिलहाल कहानियों को ठोकना पीटना जारी है। फिल्म भी आयेगी कभी। औफिस में आजकल सब अच्छा चल रहा है, इसलिये लगता है कि जाने का सबसे सही वक्त आ गया है। यहां डेढ़ साल से उपर हुये, इतना देर मैं आज तक कहीं नहीं टिकी, अब बढ़ना जरूरी है वरना जड़ें उगने लगेंगी। फ्रेंच क्लासेस शुरू हैं, अगले महीने...सारे प्लान्स हैं...वन ऐट अ टाईम। 

11 July, 2012

क्राकोव डायरीज-२-गायब हुए देश की कहानियां

बहुत समय पहले की बात है...एक युवक था...आदर्शों में डूबा हुआ...दुनिया को बदलने के ख्वाब देखता हुआ...वो एक कवि था...पोलैंड एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा था उस वक्त...युवक के परिवार में भी कोई शख्स नहीं बचा था...उसने चर्च की ओर रुख किया पादरी बना. फिर चर्च के एक एक पायदान चढ़ते हुए वैटिकन...और फिर...एक मिनट रूकती है...अलीशिया की आँखों में खुशी नाच उठी है...जैसे वो कोई उसका अपना था...अपने दिल पर हाथ रख कर कहती है...इस छोटे से पोलैंड से उठ कर गया वो लड़का...वो कवि...वो आइडियल लड़का...'पोप' बनता है...यू नो...पोप जॉन पौल २...वो पोलैंड से था...हमारा अपना पोप. उस वक्त पोलैंड में कम्युनिस्ट रूल था...वे लोगों को एक बराबर मानते थे इसलिए धर्म के खिलाफ थे. जॉन पौल ने पोलैंड आने का प्रोग्राम बनाया. कम्युनिस्ट अथोरिटी को ये पसंद नहीं आया और वे तैयार थे कि खून खराबा होगा और कोई क्रांति होगी तो वे कितनी भी हद तक जाकर उसे शांत करेंगे. लोगों में इस बात की उत्सुकता थी कि जब कम्युनिस्ट जेनेरल जरुज्लेसकी और पोप मिलेंगे तो कैसे मिलेंगे...क्या पोप उनसे हाथ मिलायेंगे...पोप ने कमाल का उपाय निकाला...उन्होंने जेनरल को अपने प्लेन में अंदर बुलाया...और आज तक कोई नहीं जानता कि अंदर क्या हुआ था...जब बाहर आये तो दोनों हाथ हिला रहे थे पब्लिक की ओर. अलीशिया बताती है कि लोग जेनरल  जरुज्लेसकी से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं...अब वो कोई १०० साल की उमर का आदमी होगा मगर अब भी उसके घर के आगे खड़े होकर गालियाँ देते हैं और पत्थर फेंकते हैं...उसके हिसाब से अब उसे उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए...लेकिन...नफरत इतनी आसानी से खत्म नहीं होती. एक गहरी सांस! उफ़.

पोलिश लोग पोप से बहुत प्यार करते थे और एक गर्व की भावना से भरे हुए थे...उनके 'मास' में आने के लिए सारे लोगों में उत्सव जैसा उत्साह था...कम्युनिस्ट सरकार ने लोगों को पोप से मिलने से रोकने के लिए अनेक उपाय किये...मास के दिन सारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद था...लोगों को ऑफिस में बहुत ज्यादा काम दे दिया गया और ऐसे अनेक तरीके कि लोग अपने घर से बाहर जा ही न पाएं. लेकिन लोगों ने मास अटेंड करने के लिए ४० किलोमीटर तक से पैदल आ गए थे. पोप को पोलिश रिवोलूशन में एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है. मास के बाद जब पोप अपने घर में आराम करने आये तो उनके साथ पूरा जनसमूह उमड़ पड़ा...तो वो अपने क्वार्टर से बाहर खिड़की पर खड़े हो गए और लोगों से बात करते रहे. उस पूरी रात लोग उनकी खिड़की के नीचे खड़े रहे...कोई गीत गा रहा था...कहीं कविता सुनाई जा रही थी...कहीं प्रार्थनाएं हो रही थीं...कहीं हँसी मजाक हो रहा था...और इस सारे वक्त सारे लोग रुके रहे और पोप अपनी बालकनी नुमा खिड़की पर उनके साथ पूरी रात बातें करते रहे. उस दिन के बाद से नियम हो गया कि पोप जब भी पोलैंड आते अपनी खिड़की पर जरूर आते और लोग उनसे मिलने वहीं खिड़की के नीचे खड़े रहते. उनके रेसिडेंशियल क्वाटर का एरिया हमेशा पोप से जुड़ी जगह हो गयी...जब पोप का देहांत हुआ तो पूरे दो हफ्ते तक वो सड़क...जो कि क्राकोव की एक बेहद बीजी सड़क है...दो हफ्ते तक वो सड़क फूलों और मोमबत्तियों से जाम रही. ये थी कहानी उस पोलिश पोप की जिससे पोलिश बहुत प्यार करते हैं...जो कवि था...और जिसने क्रांति की उम्मीद लोगों के दिलों में जलाए रखी. 

दूसरी कहानी है...क्राकोव की...कहानी के बहुत सारे वर्शन हैं...तो हम आपको अलीशिया का वर्शन सुनाते हैं...बहुत साल पहले की बात है क्राकोव में एक राजा रहता था...लेकिन उसका एक पड़ोसी था जो उसको बिलकुल पसंद नहीं था...होता है...हम अक्सर अपने पड़ोसियों को पसंद नहीं करते...वावेल पहाड़ी पर, विस्तुला नदी के किनारे एक गुफा में ड्रैगन रहता था...और ड्रैगन वर्जिन लड़कियों को ही खाता था...हर कुछ दिन में वर्जिन लड़कियां उठा ले जाता था...अब यू नो...राजा को भी वर्जिन लड़कियां पसंद थीं और जैसा कि होता है...वर्जिन लड़कियां हमेशा संख्या में कम होती हैं...तो राजा को ड्रैगन से कॉम्पिटिशन पसंद नहीं था...इसलिए उसने मुनादी कराई कि जो भी योद्धा ड्रैगन को मार देगा उसे बहुत सारा राज्य और एक खूबसूरत राजकुमारी मिलेगी. बहुत से योद्धा ड्रैगन की गुफा में गए...पर कोई भी वापस नहीं लौटा. आखिर राजा ने मुनादी कराई कि कोई आम इंसान भी ड्रैगन को मार देगा तो उसको भी वही इनाम मिलेगा. एक मोची के यहाँ एक छोटा सा लड़का काम करता था...स्कूबा...उसने कहा वो ड्रैगन को मार देगा तो सब लोग उसपर बहुत हँसे...मगर छोटे, बहादुर स्कूबा ने हार नहीं मानी...उसने एक मेमने के अंदर बहुत सारा सल्फर भर दिया और उसे ड्रैगन की गुफा के सामने बाँध दिया...ड्रैगन बाहर आया और मेमने को खा गया. अब ड्रैगन के पेट में सल्फर के कारण जलन होने लगी(अब उन दिनों में ईनो तो था नहीं कि ६ मिनट में गैस से छुटकारा दिला दे ;) ;)  ) तो ड्रैगन विस्तुला नदी में कूद गया और खूब सारा पानी पीने लगा...वो कितना भी पानी पीता जलन कम ही नहीं होती...आखिर वो पानी पीते गया पीते गया और बुम्म्म्म्म्म्म्म से फट गया. सब लोग खुश...स्कूबा की शादी राजकुमारी से हो गयी और वो लोग खुशी खुशी रहने लगे. 

ये तो हुआ परसों का बकाया उधार...

कल मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं था...मुझे वावेल कैसल घूमना था और शाम को ३ बजे एक पैदल टूर होता है जुविश क्वार्टर का वो देखना था...आधा दिन मेरा फोन में चला गया. अभी भी मेरा फोन काम नहीं कर रहा...उससे काल्स नहीं हो रहे...बस इन्टरनेट काम कर रहा है. तो अभी मेरे पास एक फोन है इन्टरनेट के लिए और एक फोन है नोकिया का कॉल करने के लिए...नोकिया वाले सिम में पैसे खतम हैं...तो मैं सिर्फ फोन अटेंड कर सकती हूँ...अगर कोई फोन करे तो.

मेरा दिन यहाँ ७ बजे शुरू होता है...८ बजे कुणाल के ऑफिस के टैक्सी आती है...उसके बाद का टाइम में थोड़ा बिखरा सामान समेटने और नहा के तैयार होने में जाता है. फिर लिखने में कोई घंटा डेढ़ घंटा लगता है...ग्यारह के आसपास मैं तैयार हो जाती हूँ. कल मुझे फ्री वाल्किंग टूर वाले दिखे नहीं...उनके साथ घूमने में मज़ा आता है...वो कहानियां सुनाते चलते हैं इसलिए मैं उनके साथ ही जुविश क्वार्टर देखना चाहती हूँ. 

टावर के ऊपर की खिड़की में 
कल फोन में नया नंबर लिया और सोचे कि क्या करें तो सबसे पहले जाके मार्केट में जो इकलौता टावर बचा है उसपर चढ़ने का टिकट कटा लिए. खतरनाक घुमावदार ऊँची नीची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए टावर की आधी ऊँचाई पर खड़ी सोच रही थी कि मैं हर बार ऐसा क्यूँ करती हूँ...टावर देखते ही चढ़ने का मन क्यूँ करता है. मुझे क्लौस्ट्रोफोबिया है...बंद जगहों से डर लगता है...ऊँची जगहों से डर लगता है और ये टावर बंद भी है और ऊँचा भी है...माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति से पूछा गया कि आप माउंट एवेरेस्ट पर क्यूँ चढ़े तो उसका कहना था...क्यूंकि वो है...बिकॉज इट इज देयर...कुछ वैसा ही मेरा हाल है. तो टावर था तो चढ़ गयी :) अच्छा लगा...वहाँ से नज़ारा अच्छा था शहर का...फोटो वोटो खींच के नीचे उतरे. फिर फोन के चक्कर में पड़े...कोई ढाई टाइप बज गया. भूख के मारे चक्कर आने लगे. 

फिर सारे रेस्टोरेंट का मेनू पढ़ते पढ़ते एक जगह पास्ता विथ पेस्तो सौस दिखा...वो वेजेटेरियन होगा ये सोच कर खुश हो गए...और खाने बैठ गए. टाउनहाल की नीवों पर बने इस स्क्वायर पर रेस्टोरेंट्स हैं...चारों तरफ...कुछ दूर में विस्तुला नदी बहती है...लोग सड़कों पर खड़े कोई वायलिन, गिटार, अकोर्दियान बजाते रहते हैं...हवा में मिलीजुली आवाजों की खुशबू थी. आइस टी पी रही थी और सोच रही थी...किसी की याद में नहीं...पूरी की पूरी खुद के साथ. मैं किसी और के साथ होना नहीं चाहती थी...मैं किसी अतीत में खोयी नहीं थी...वर्तमान के साथ किसी और लम्हे का एको नहीं था...ऐसा कोई दिन कभी नहीं आया था...कभी नहीं आएगा...मुझे खुद के साथ होना अच्छा लगा. मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी...मैं इत्मीनान से आइस टी पीते हुए सामने के स्क्वायर पर आते जाते लोगों को, उनके कपड़ों को, उनकी मुस्कुराहटों को देख रही थी...धूप थोड़ी तिरछी पड़ने लगी थी...हवा में हलकी सी खुनक थी...मौसम ठंढा था और धूप से गर्म होती चीज़ें थी...सब उतना खूबसूरत था जितना हो सकता था. मैं मुस्कुरा रही थी. मैं वाकई बहुत बहुत साल बाद अपने आज में...उस प्रेजेंट मोमेंट में पूरी तरह से थी...खुश थी. 

पास्ता बहुत अच्छा था...खाना खा के मैंने जुविश क्वार्टर देखना मुल्तवी किया...वाकिंग टूर वाले लोग दिख भी नहीं रहे थे...सोचा टहलते हुए किला देख आती हूँ या नदी किनारे बैठती हूँ जा कर. मुझे लगता है मैं धीरे धीरे वापस से वही लड़की होने लगी हूँ जिससे मैं बहुत प्यार करती थी...अपनी गलतियों और अपनी बेवकूफियों को थोड़ा सा दिल बड़ा करके माफ कर देना चाहती हूँ.

The Monument. 1975-1986. A monument to show
the two great men that invented socialism to be set
in a country in which socialism had become a reality.
Creation of statues of Karl Marx and Friedrich Engels.
(From the exhibition- Stories from a vanished country)

सामने एक एक्जीबिशन दिखा...स्टोरीज फ्रॉम अ वैनिशड कंट्री...गायब हुए देश की कहानियां...तो मैं एक्जीबिशन देखने चली गयी. GDR- जर्मन डेमोक्रटिक रिपब्लिक जो कि बर्लिन की दीवार के पूर्वी हिस्से में था...एक आदर्श कम्युनस्ट देश की तरह स्थापित किया जा रहा था...जहाँ सारे लोग बराबर थे. इस प्रदर्शनी में कई सारी तसवीरें थीं जो उस खोये हुए देश की कहानियां सुनाती थीं...जीडीआर में खुद को एक्सप्रेस करने की आजादी नहीं थी...सारे लोग यूनिफार्म पहनते थे और एक जैसे ब्लाक्नुमा घरों में रहते थे. तस्वीरों और उनके शीर्षक एक अजीब तिलिस्मी दुनिया रच रहे थे मेरे इर्द गिर्द...आधी दूर जाते जाते लगने लगा कि मैं उन तस्वीरों में ही कहीं हूँ...जीडीआर में लोग जब एक लाइन लगी देखते थे तो उसमें लग जाते थे...बिना ये जाने कि किस चीज़ की लाइन लगी है...अगर वस्तु उनके काम कि नहीं है तो वे उसे उस चीज़ से बदल सकते थे जो उन्हें चाहिए होती थी. काला-सफ़ेद तिलिस्म...उचटे हुए लोग...हर तस्वीर से एक अजीब उदासी रिसती हुयी...ऐसा लग रहा था जैसे मेरा चेहरा उनमें घुलता जा रहा है...हर रिफ्लेक्शन के साथ मैं थोड़ी थोड़ी खोती जा रही हूँ...जीडीआर में लोगों के चेहरे नहीं होते थे...इंडिविजुअल कुछ नहीं...कोई अलग आइडेंटिटी नहीं...आप बस भीड़ का हिस्सा हो...आपका अपना कुछ खास नहीं. मनुफैकचर्ड लोग...खदानों, कारखानों में काम करते लोग...कामगार...बेहद अच्छे खिलाड़ी...लेकिन आइना देखो तो कुछ नज़र नहीं आता. एक्जीबिशन देखना एक अजीब अनुभव था...कुछ इतना डिस्टर्बिंग और रियलिटी से काट देने वाला कि मैं बाहर आई तो अचानक से इतनी सारी रौशनी और हँसते मुस्कुराते लोग देख कर अचंभित हो गयी...मुझे लग रहा था जिंदगी में रंग होते ही नहीं हैं...और हॉल से बाहर भी ग्रे रंग की ही दुनिया होगी...लोग मिलिट्री यूनिफार्म में होंगे. तस्वीरों और शब्दों में कितनी जान होती है ये कल महसूस हुआ. 
विस्तुला नदी किनारे
पेड़ की छाँव में बैठ कर किताब पढ़ना...

फिर कुछ खास नहीं...टहलते हुए किले के पास चली गयी...देखा कि लोग घास में आराम से लेट कर किताब पढ़ रहे हैं या गप्पें मार रहे हैं...थोड़ा बहुत और भटकी...फेसबुक पर कुछ फोटो अपडेट की और बस...वापस आ गयी. दिन के आखिर में आखिरी ख्याल ये आया...कि मैं बहुत अच्छी हूँ...और मैं खुद से बहुत प्यार करती हूँ...और सबसे खूबसूरत लम्हा वो होता है जिसे हम जी रहे होते हैं. ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ इस जीवन के लिए...इन रास्तों और इस सफ़र के लिए और अपने दोस्तों और अपने परिवार के लिए...और सबसे ज्यादा कुणाल के लिए. 

चीयर्स!

12 March, 2012

The Artist - Echoes of nostalgia

इस फिल्म के बारे में शब्दों में कुछ भी कहना नामुमकिन है...ये बस ये यहाँ सहेज रही हूँ कि इस फिल्म से प्यार हो गया है.

'द आर्टिस्ट' के बारे में बहुत कौतुहल था...ये एक मूक-फिल्म है...श्वेत-श्याम...फिल्म की ख़ामोशी आपको अपने अंदर उतरने का मौका और वक्त देती है. जैसे जैसे परदे पर फिल्म चलती है वैसे वैसे आप भी अपनी एक जिंदगी जीते रहते हैं. फिल्म में डायलोग नहीं हैं तो अधिकतर आप या तो लिप रीड करेंगे या अंदाज़ लगाएंगे कि क्या कहा जा रहा है...इस तरह फिल्म उतनी ही आपकी भी हो जाती है जितनी डायरेक्टर की. फिल्म ऐसी है जैसा प्रेम/इश्क मैं करना चाहती हूँ...जिसमें शब्दों की कोई जगह न हो...बहुत सा संगीत हो...उजले और काले रंग हों और बहुत से खूबसूरत ग्रे शेड्स...मुस्कुराहटें...अदाएं और बहुत सारी खुशियाँ.

फिल्म मुझे बचपन के उस मूक प्रेम की याद दिलाती है जिसमें आपने कभी खुद को व्यक्त नहीं किया क्यूंकि समझ भी नहीं आ रहा था कि प्रेम जैसा कुछ पनप रहा है. डायलोग के हजारों सबसेट होते हैं पर आपका मन वही डायलोग सोचता है जो आपकी जिंदगी का intrinsic हिस्सा है. फिल्म इस तरह आपके साइकी(Psyche) में शामिल हो जाती है...ये सिर्फ परदे पर नहीं चलती...पैरलली एक फिल्म आपके मन के परदे पर भी चलने लगती है जिसमें कुछ मासूम स्मृतियाँ बिना मांगे अपनी जगह बनाती चली जाती हैं. 

मैं फिल्म देखने अकेले गयी थी नोर्मल सा वीकडे था...पीछे की कतारें भरी हुयी थी मगर आगे की लगभग छह कतारें खाली ही थी...मैं वहां बीच में बैठी...फिल्म जैसे हर तरफ से आइसोलेट कर रही थी...और मैं सारे वक़्त मुस्कुरा रही थी. मन में उजाला भर जाने जैसा...मूक फिल्म होने के कारण हर लम्हा लगा कि मैं भी फिल्म का हिस्सा हूँ...यहाँ सीट पर नहीं बैठी हूँ...वहां हूँ परदे पर...फिल्म के किरदारों के बेहद पास...उनकी हंसी को सुनती हुयी...वो हंसी जो परदे के इस पार नहीं आई पर परदे के उस तरफ है. फिल्म आपके सोचने के लिए परदे के जितना बड़ा ही कैनवास देती है. इस कैनवास में बहुत से लोगों के लिए जगह होती है. अगर कम्पेयर करें तो फिल्म एक परदे पर चलने वाला भाषण नहीं बल्कि एक दोस्त के साथ किसी खूबसूरत पार्क में टहलना है...जहाँ आप कुछ बातें कहते हैं, कुछ सुनते हैं...और मन में संगीत बजता है.


फिल्म आपके मन के अन्दर उतर जाती है...दबे पांव...सीढ़ियों पर...किरदार...एक्टिंग सब. जोर्ज वैलेंटिन से प्यार न हो असंभव है...जब पहली बार Gone विथ द विंड देखी थी तो रेट बटलर से प्यार हो गया था...जार्ज वैलेंटिन वैसा ही किरदार है...जिसे आप पहली नज़र में पसंद करने लगते हैं. फिल्म का सीन जहाँ पहली बार पेगी उससे टकराती है में उसका किरदार इतना खूबसूरती से उभर कर आया है कि आप मुस्कराहट रोक नहीं सकते. फिल्म का वो हिस्सा जहाँ पेगी  एक साइड आर्टिस्ट है और उसका छोटा सा रोल है जिसमें उसे वैलेंटिन के साथ छोटा सा डांस करना है...सीन में उनकी केमिस्ट्री इतने बेहतरीन तरीके से उभर कर आती है...सीन के हर रीटेक के साथ आप भी प्यार में गहरे डूबते जाते हो. पहली बार महसूस होता है कि प्यार इसके सिवा कुछ नहीं है कि आप उस एक शख्स के साथ हँस रहे हो.

वैलेंटिन की मुस्कराहट...उसके चेहरे के हावभाव बिना शब्दों के कितना कुछ कहते हैं ये अगर ये फिल्म न बनती तो कभी जान नहीं पाती...मैं फिल्म निर्देशक Michel Hazanavicius की शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने आज के दौर में ऐसी फिल्म बनायीं जिसमें संगीत और कुछ डायलोग बोर्ड्स की मदद से इतनी खूबसूरत कहानी बुनी है जो फिल्म देखने के कई दिनों बाद तक साथ रहती है.

सादी सी कहानी एक मूक फिल्मों के कलाकार के जीवन पर बनी हुयी...उसके आसमान पर छाये होने के दिन और फिर फिल्मों में आवाज़ के आने के बाद उसके मुफलिसी के दिन...इन सबके बीच वैलेंटिन खोया हुआ सा...कुछ वैसा ही लगता है जैसे कभी कभार आज की भागती दौड़ती दुनिया में खुद को पाती हूँ...मिसफिट...कि चारों तरफ बहुत शोर है...बहुत लोग हैं...और हम अपने घर में अकेले हैं...पुरानी यादों की रील के साथ...फिल्म के अंत में बहुत थोड़ा सा हिस्सा है डायलोग का...पर वो ऐसे चकित करता है कि मारे ख़ुशी के आँख भर आती है. वैलेंटिन का एक ही डायलोग है...With pleasure...फ्रेंच एक्सेंट में...मुझे लगा था कि डायलोग फ्रेंच में ही है...पर अभी चेक किया तो देखती हूँ कि इंग्लिश में था. ओह...उसकी आवाज़ सुनना ऐसा था जैसे पूरी जिंदगी किसी की आवाज़ के लिए तरस रहे हों...पर उसे कह भी नहीं सकते...और ठीक जब आप जिंदगी और मौत के बीच की रौशनी वाली जगह पर हों...उसने 'आई लव यू' कह दिया हो.

फिल्म 1.33 :1 के ऐस्पेक्ट रेशियो पर बनी है...हाल में इसपर ध्यान गया कि परदे पर स्क्वायर सी फील आ रही है...वो एक दूसरी ही दुनिया थी जब तक परदे पर फिल्म चल रही थी...मैं उसमें पूरी तरह खोयी हुयी थी...जानती हूँ कि मैंने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है जो कहीं से भी इस फिल्म को जस्टिफाय करता है...मगर मेरे पास कहने को इतना भर ही था. अगर आपने ये फिल्म नहीं देखी है तो इसे किसी भी हाल में देख कर आइये...घर पर टीवी में देखने वाली ये फिल्म नहीं है...इसके हॉल में देखना जरूरी है. एक गुज़रे हुए दौर की याद दिलाती ये फिल्म हद तरीके से नोस्टालजिक करती है.


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बाकी यहाँ उस रात आकर जो जरा कुछ इधर उधर लिखा था...यहाँ रख देती हूँ...


Capturing a moment. The credit roll at the end of the movie The Artist.
Hopefully I'll somehow be able to put to words the feelings the movie evoked in me. 
It's like that love story I would like to be a part of...wherein there is music and laughter and you understand me even without the words...just a little smile and a flying kiss that always manages to reach you...no matter how far you are. 
To every single person who has brought me joy in my silences. I just sat there overwhelmed. Brimming with love. The way I am when I am with you. 
Some day maybe what I'll write will be coherent too right now I feel pretty intoxicated.
George Valentin I love you. ♥ ♥ 

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Sleeptyping. Again. Hopeless case. 
I want to see The artist again. 
Valentin reminds me of Rhett Butler. Seeing him onscreen has given me enough heartache to kill several of my nights.


You cannot not fall in love with Valentin :) 

03 March, 2012

फिगरिंग मायसेल्फ आउट

लिखो. काटो. लिखो. काटो.
लिखना जितना जरूरी है काटना भी उतना ही जरूरी है...लिख के मिटाओ मत...पेन्सिल से मत लिखो कि पेन्सिल की कोई याद बाकी नहीं रहती...इरेजर बड़ी सफाई से मिटाता है...जैसे कि गालों से पोछती हूँ आंसू...तुम्हें सामने देख कर...नहीं सामने कहाँ देखती हूँ...इन्टरनेट पर देख कर ही...तुम जब तस्वीरों में हँसते दिखते हो...बड़े भले से लगते हो...मैं अपनी बेवकूफी पर हंसने लगती हूँ. बहुत मिस करती हूँ दिल्ली का वक़्त जब सारे दोस्त साथ में थे...

कल दो अद्भुत चीज़ें देखीं...Lust for life...Van Gogh की जिंदगी पर बनी फिल्म देखी और गुरुदत्त पर एक किताब पढ़ी...गुरुदत्त जब २८ साल के थे उन्होंने प्यासा का निर्माण किया था...अबरार अल्वी २६ के...सोच रही हूँ उम्र के सींखचों में लोगों को बांटना कितना सही है...क्या उन्हें मालूम था कि जिंदगी बहुत थोड़ी है...क्या उन्होंने शिद्धत से जिंदगी जी थी. अजीब हो रखी है जिंदगी भी...गुरुदत्त की चिठ्ठियाँ पढ़ती हूँ, लगता ही नहीं है कि इस शख्स को गए इतने साल हो गए...लगता है ये सारे ख़त उसने मुझे ही लिखे हैं...कुछ हिंदी में, कुछ इंग्लिश में और कुछ बंगला में...ताकि मेरी बांगला थोड़ी अच्छी हो सके. प्रिंट हुए पन्नों से एक पुरानी महक महसूस होती है. इस बार दिल्ली गयी थी तो स्मृति ने एक चिट्ठी दिखाई जो मैंने उसे ९९ में लिखी थी...उसने मेरी कितनी सारी चिट्ठियां सम्हाल के रखी हैं...मेरे हिस्से तो बस इंतज़ार और उसे ढूंढना आया...कितने सालों उसे तलाशती रही...तब जबकि उसे लगता था कि मैं उसे भूल गयी हूँ...कैसा इत्तिफाक था न...फ़िल्मी कि दुनिया के दो हिस्सों में हम दोनों अलग अलग तरह से एक दूसरे को याद करना और सहेजना कर रहे थे. 


कल की किताब का नाम था 'Ten years with Guru Dutt...Abrar Alvi's journey' लेखक का नाम सत्य सरन है...मुझे सारे वक़्त समझ नहीं आया कि किताब इंग्लिश में क्यूँ थी...हिंदी में क्यूँ नहीं. बैंगलोर में होने के कारन बहुत सी चीज़ें मिस हो जाती हैं...उसमें सबसे ज्यादा खोया है मेरा किताबें ढूंढना...दिल्ली में सीपी में किताबें खरीदने का अपना मज़ा था...अनगिन किताबों को देखना, छूना, उनकी खुशबू महसूसना और फिर वो किताब खरीदना जिसने हाथ पकड़ कर रोका हो. गुरुदत्त पर ये किताब बहुत अच्छी नहीं थी...पर कहानियां बेहद दिलचस्प थीं...अबरार अल्वी की नज़र से गुरुदत्त को देखना बहुत अच्छा लगा. गुरुदत्त मुझे बहुत फैसीनेट करते हैं...उनपर लिखा हुआ कुछ भी देखती हूँ तो खरीद लेती हूँ अगर पास में पैसे रहे तो. गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब एक दिन ऐसे ही दिखी थी...थोड़ी महँगी थी...मंथ एंड चल रहा था...सोची कि सैलरी आने पर खरीद लूंगी...फिर वो किताब जो गायब हुयी तो लगभग दो साल तक लगातार हर जगह ढूँढने के बाद मिली.


गुरुदत्त भी बहुत सारे रीटेक लेते थे...प्यासा के बारे में पढ़ते हुए वोंग कर वाई याद आये...उनकी भी 'इन द मूड फॉर लव' ऐसे ही बिना स्क्रिप्ट के बनी थी...फिल्म किरदारों के साथ आगे बढती थी...सोचती हूँ...किसी की भी जिंदगी के रशेस ले कर कोई अच्छा डाइरेक्टर एक बेहतरीन फिल्म बना सकता है. किसी भी से थोड़ा पर्सनल उतरती हूँ...अपनी जिंदगी के पन्ने पलटती हूँ...कई बार लगता है कि ऊपर वाला एक अच्छा निर्देशक है पर एडिटर होपलेस है...उसे समझ नहीं आता कि रोती हुयी आँखें स्क्रीन पर बहुत देर नहीं रहनी चाहिए और ऐसी ही कुछ माइनर मिस्टेक्स पर हम मिल कर काम करेंगे तो शायद कुछ अच्छा रच सकेंगे.


मेरा एक स्क्रिप्ट पर काम करने का मन हो रहा है...पर फिर मुझे रोज एक दोस्त की जरूरत पड़ने लगती है जो मेरा दिन भर का सोचा हुआ सुने...दिल्ली के IIMC के दिन याद आते हैं...पार्थसारथी पर के...कुछ शामें...चाय के कुल्हड़ में डूबे...घास पर अँधेरा घिरने के बाद भी देर तलक बैठे ... अपने-अपने शहरों में गुम कुछ दोस्त...सोचने लगती हूँ कि दोस्तों का कितना बड़ा हिस्सा था मेरे 'मैं' में...कि उनके बिना कितनी खाली, कितनी तनहा हो गयी हूँ. जाने तुम लोगों को याद है कि पर राज, शाम, सोनू, बोस्की, इम्बी...तुम लोग कमबख्त बहुत याद आते हो. विवेक...कभी कभी लगता है थैंक यू बोल के तेरे से थप्पड़ खा लूं...बहुत बार सम्हाला है तूने यार. 


मैं जब मूड में होती हूँ तो एक जगह स्थिर बैठ नहीं सकती फिर मुझे बाहर निकलना पड़ता है...बाइक या कार से...वरना घर में पेस करती रहती हूँ और बहुत तेज़ बोलती हूँ...सारे शब्द एक दूसरे में खोये हुए से. हाथ हवा में घूम घूम कर वो बनाते रहते हैं जो उतनी तेज़ी में मेरे शब्द मिस कर जाते हैं.


दूसरा एक मेजर पंगा है...आई नो किसी और को ये नहीं होता...I need a muse...I need to be madly in love to work on something...फिलहाल कोई आइडिया ऐसा नहीं है कि रातों की नींद उड़ जाए...दिन को सो न पाऊं...हाँ जिस तरह का बिल्ड अप है शायद कोई उड़ता ख्याल आ ठहरे...तब तक इस इन्सिपिड थौट का कुछ करती हूँ. कुछ है जो सी स्टोर्म की तरह मन में भंवरें बना रहा है...


बहुत कुछ है...बहुत कुछ बिखरा हुआ इस खूबसूरत जिंदगी में...लेकिन फ़िलहाल...दोस्त, तेरी याद आ रही है...बंगलौर बहुत दूर है मगर यहाँ सबसे अच्छे कैफे हैं जहाँ धूप का टुकड़ा होता है...खिलते फूल होते हैं...खुनकी लिए हवाएं होती हैं और मैं होती हूँ न...मुस्कुराती, गुनगुनाती...सुन न...एक असाइंमेंट सेट कर न इस शहर का...तेरे से मिलने का मन कर रहा है. बहुत दिन हुए दोस्त!

24 February, 2012

शहरयार के बहाने आर्टिस्ट और आर्ट पर...


वो बड़ा भी है तो क्या है, है तो आखिर आदमी
इस तरह सजदे करोगे तो खुदा हो जाएगा 
-बशीर बद्र 

अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट का एक हिस्सा है जिसमें वो बयान करती हैं कि उनकी जिंदगी में सिर्फ तीन ही ऐसी मौके आये जब उनके अंदर की औरत ने उनके अंदर की लेखिका को पीछे छोड़ कर अपना हक माँगा था. एक पूरी जिंदगी में सिर्फ तीन मौके...

ऐसा मुझे भी लगता है कि लेखक किसी और दुनिया में जीते हैं...वो दुनिया इस दुनिया के पैरलल चलती है...उसके नियम कुछ और होते हैं...और इस दुनिया के चलने के लिए ऐसे लेखकों का होना भी जरूरी है जो शायद इस दुनिया के लिहाज़ से एक अच्छे इंसान न हों...एक अच्छे पिता, पति या बेटे न हों...हमारा समाज ऐसे ही प्रोटोटाइप बनाता है जहाँ बचपन से ही घोंटा जाता है कि सबसे जरूरी है अच्छा इंसान बनना. भला क्यूँ? कुछ लोगों की फितरत ही ऐसी होती है कि वो अच्छे नहीं हो सकते...समाज के तथाकथित मूल्यों पर...मगर अच्छे होने की कसौटी पर शायर को क्यूँकर घिसा जाए? अच्छी पूरी दुनिया पड़ी है...एक शायर बुरा होकर ही जी ले...माना उसके घर वाले उससे खुश नहीं थे...पर इसी को तो ‘फॉर द लार्जर गुड ऑफ ह्युमनिटी’ कहते हैं. गांधी जी के बेटे हमेशा कहते हैं कि वो एक अच्छे पिता नहीं थे. अगर सारे लोग एक ही अच्छे की फैक्ट्री से आने लगे तो फिर सब एकरस हो जाएगा...फिल्म में विलेन न हो तो हीरो कैसे होगा. उसी तरह जिंदगी में भी बुरे लोगों की जगह होनी चाहिए....और हम सबमें इतना सा तो बड़प्पन होना चाहिए कि कमसे कम शायर को उसकी गलितयाँ माफ कर सकें. उसकी पत्नी उसके साथ न रहे पर उससे अलग होकर तो उसे उसके जैसा बुरा होने के लिए माफ कर सके...कमसे कम मरने के बाद. ऐसी नफरत मुझे समझ नहीं आती. मुझे सिर्फ इसलिए शहरयार की एक्स-वाइफ की बातें समझ नहीं आतीं...मुझे समझ आता अगर वो उनके साथ ताउम्र रहती, घुटती रहती तब उनकी शिकायत समझ आती...पर अलग रहने के बावजूद? किसी के मरने के बाद इल्जाम कि सफाई अगर कोई है भी तो...दी न जा सके.

अच्छे तो बस रोबोट होते हैं...इंसान को गलितयाँ करने का...गलत इंसान होने का अधिकार है...उसपर शायर...पेंटर...गायक...किसी भी आर्टिस्ट को ये अधिकार मिलना चाहिए...थोड़ा सा ज्यादा बुरा होने का अधिकार...थोड़ी सी ज्यादा गलतियाँ करने का अधिकार...वो किसी को अपने दुनिया में लाने के लिए मजबूर नहीं करता...उसकी अपनी दुनिया है...उस दुनिया के होने पर इस दुनिया की बहुत सी खूबसूरती टिकी है. अगर एक खूबसूरत गज़ल की कीमत शायर का टूटा हुआ परिवार है..तो भी मैं खरीदती हूँ उस गज़ल को. एक अच्छी पेंटिंग के पीछे अगर एक नायिका का टूटा हुआ दिल है तो भी मैं खरीदती हूँ उस पेंटिंग को...कि कोई भी सबके लिए अच्छा नहीं हो सकता...और आर्ट हमेशा जिंदगी की इन छोटी तकलीफों से ऊपर उठने का रास्ता होती है. 

कुछ लोगों के लिए एक मुकम्मल इश्क ही पूरी जिंदगी का हासिल होता है...हो सकता है...उनके लिए इतना काफी है कि उन्होने से उसे पा लिया जिससे प्रेम करते थे. पर ऐसा सबके लिए हो जरूरी तो नहीं...सबके जीवन का उद्देश्य अलग होता है. अक्सर हमारे हाथ में भी नहीं होता. पर ये जो कुछ लोग होते हैं...लार्जर दैन लाइफ...उनके लिए कुछ भी मुकम्मल नहीं होता...कहीं भी तलाश खत्म नहीं होती...एक प्यास होती है जिसके पीछे भागना होता है...कई बार पूरी पूरी जिंदगी। मुझे हर आर्टिस्ट अपनेआप में अतृप्त लगता है। उसके लिए जिंदगी से गुज़र जाना काफी नहीं होता...उसके लिए बुरा देखना काफी नहीं होता...वो वैसा होता है...अन्दर से बुरा...टूटा हुआ...बिखरा हुआ. मगर एक आर्टिस्ट अपने इस तथाकथित बुरेपन में भी बहुत मासूम होता है...कई बार चीज़ें वाकई उसके बस में नहीं होतीं...शराब या ऐसी कोई आदत मुझे ऐसी ही लगती है...जो शायद बहुत प्यार से छुड़ाई जा सकती है...शायद नहीं भी। आप संगीत के क्षेत्र में देख लें...कितने सारे आर्टिस्ट ड्रग ओवेरडोज़ से मरते हैं...उन्हें बचाने की कितनी कोशिशें की जाती हैं...पर वो अपनी कमजोरियों, अपनी मजबूरीयों को कहीं न कहीं ऐक्सेप्ट कर लेते हैं तब वो जिंदगी से बड़े/लार्जर दैन लाइफ हो जाते हैं।

कहीं कहीं इनके अंदर की सच्चाई मुझे उस इंसान से ज्यादा अपील करती है जो पार्टी में दारू नहीं पीता पर पीना चाहता है...उसके मन में दबी इच्छाएँ किस रूप में बाहर आएंगी कोई नहीं जानता। कई बार यूं भी लगता है कि एक जिंदगी में अफसोस लेकर क्यूँ मरा जाए...पर समाज बहुत सी चीजों पर रोक लगाता है...नियम बनाता है...जो गलत भी नहीं हैं...वरना अनार्की(Anarchy) की स्थिति आ जाएगी...पर कुछ लोग होने चाहिए जो हर नियम से परे हों...आज़ाद हों...क्यूंकी इस आज़ादी में ही मानवता की मुक्ति का कहीं कोई रास्ता दिखता है। इनपर रोक लगाने वाले वही लोग हैं जो खुले में विरोध करते हैं क्यूंकी मन ही मन वो वैसा ही होना चाहते हैं...स्वछंद...पर इतनी हिम्मत सबमें नहीं होती। 

आर्टिस्ट मजबूर भी होते हैं और मजबूत भी...उतनी टूटन, उतना दर्द लेकर जीना क्या आसान होता है...क्या उनके आत्मा नहीं कचोटती किसी शाम कि बीवी बच्चे होते...एक परिवार होता...पर उतनी जिम्मेदारियाँ निभाना उसके लिए कहाँ आसान हुआ है। निरवाना के कर्ट कोबेन के जरनल्स की किताब है...उसके पहले पन्ने पर लिखा हुआ है...
डोंट रीड माय डायरी व्हेन आई एम गोन.
ओके, आई एम गोइंग टू वर्क नाव...व्हेन यू वेक अप दिस मॉर्निंग, प्लीज रीड माय डायरी। लुक थ्रू माय थिंग्स, एंड फिगर मी आउट.”

लगता है काश ऐसी कोई डायरी शहरयार लिख के गए होते...

सारे आर्टिस्ट्स इसी फ्रीडम के पीछे पागल रहते हैं...कर्ट की डायरी में भी हर दूसरे पन्ने पर फ़्रीडम की बातें लिखी हैं...उसके लिए पंक रॉक वाज अ वे ऑफ़ फ्रीडम. जिंदगी से बेपनाह मुहब्बत...और एक abstract सच्चाई जो मुझे सारी बुराइयों से बढ़ कर अपील करती है. मुझे ये भी समझ आता है कि उन्हें दुनिया समझ नहीं आती...कागज़ के फूल में तभी तो सिन्हा साहब कहते हैं...तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया. 


हाँ मैं जानती हूँ दुनिया मेरे जैसी नहीं है...पर दुनिया ऐसी होती तो क्या बुरा था. 

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