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27 May, 2012

पूरा पूरा कुछ नहीं...अधूरी अधूरी सब कुछ.

आप १४० पर हड़बड़ में नहीं पहुँच सकते.

मैं गाड़ी की स्पीड की बात कर रही हूँ...१४० किलोमीटर प्रति घंटा.

ऐसा नहीं होगा कि आप एक्सीलेरेटर को पूरा नीचे तक दबा दिए तो गाड़ी उड़ती हुयी १४० टच कर जायेगी.
ऐसा हो भी सकता है. पर वो कारें दूसरी तरह की होती हैं. मैं एक नोर्मल कार की बात कर रही हूँ...जैसे कि मेरे पास है. स्कोडा फाबिया. एक साधारण, मिड-लेवल कार...ये कारें हमारे पागलपन के लिए नहीं, हमारी सुरक्षा के लिए बनी हैं.

कोई क्यूँ चलाना चाहेगा कार को १४० की स्पीड पर...जैसा कि मैं खुद से कहती हूँ...१४० मजाक नहीं होता. ८० पर गाड़ी चलाना तेज रफ़्तार माना जाता है. १०० पर चलाने पर अगर कुछ लोग गाड़ी की बैक सीट में हैं तो मुमकिन है कि एक आध बार टोक दें...गाड़ी थोड़ा धीरे चलाओ प्लीज. १२० की स्पीड हाइवे पर गाड़ी को ओवर टेक करने के लिए अक्सर जरूरी होती है. बहुत मूड हुआ तो १२५ और महज छूने की खातिर कि कैसा लगता है १३० पर चलाना कई बार लोग स्पीडोमीटर पर ध्यान देते हुए स्पीड बढ़ा भी सकते हैं. एक बार फिर सुई १३० टच कर जाए तो वापस लौट आते हैं. कभी हुआ है कि भीड़ में कोई शख्स आगे जा रहा है और कौतुहल इतना बढ़ जाए कि आपको तेज कदम बढ़ा कर उसका चेहरा देखना हो...वैसा ही कुछ.

१४० पर चलाने के पहले के हालात और १४० के दरमयान क्या चलता है दिमाग में? जी...दिमाग कमबख्त १४० पर भी सोचना बंद नहीं करता...इस स्पीड में भी पैरलल ट्रैक चलाता है. वैसे अगर आपने चला रखी है गाड़ी तो फिर पढ़ने का सेन्स नहीं बनता कि आप जानते हैं कि कैसा लगता है...मगर फिर भी, हर अनुभव दूसरे से अलग होता है कि हर इंसान के सोचने समझने और रिएक्ट करने के तरीके अलग होते हैं. उसमें भी मैं तो जाने किस मिट्टी से बन के आई हूँ.

इतने भाषण के बाद क्रोनोलोजिकल आर्डर में बात करती हूँ. भोर का पहला पहर था...चार बज रहे होंगे...एकदम सन्नाटा. फिर कोई दस मिनट के आसपास चिड़िया पार्टी हल्ला करना शुरू की. मेरे घर के पीछे एक बहुत बड़ा सा पेड़ है...वही सबका अड्डा है. अँधेरा अपने सबसे सान्द्र फॉर्म में था...यू नो...सूरज उगने के पहले सबसे ज्यादा अँधेरा होता है...वही वक्त. मेरा मन थोड़ा छटपट कर रहा था...या फिर कह सकते हैं कि कहीं भाग जाने का मन कर रहा था...बहुत लंबी सड़क पर

बैंगलोर से बाहर जाने के सारे रास्ते मुझे मालूम है...वैसे अब तो आईफोन में जीपीएस है पर उसके पहले भी साधारण नक़्शे को मैं ही पढ़ती थी और हम घूमने जाते थे...इसलिए शहर का अच्छे से आइडिया है. सारे रास्तों में मुझे सबसे मायावी लगता है हाइवे नंबर ७ जो बहुत से घुमावदार शहरों से होकर कन्याकुमारी जाता है. मुख्यतः दो या तीन रास्ते हैं लेकिन जिनपर ड्राइव करने जाया जा सकता है. घर से निकलते ही सोचना पड़ता है किधर जाएँ...एक रास्ता है ओल्ड मद्रास रोड...जो हाइवे नंबर ४ है...चेन्नई जाता है. पोंडिचेरी जाने के लिए भी इस रास्ते को लिया जा सकता है. एक रास्ता है एयरपोर्ट होते हुए...जिसपर आगे चलते जायें तो हैदराबाद पहुँच जायेंगे. कोरमंगला होते हुए भी एक रास्ता बाहर को जाता है...जिसका सबसे बड़ा आकर्षण है १० किलोमीटर लंबा चार लेन का फ्लाईओवर...इसमें कोई खास मोड़ भी नहीं हैं...एकदम सीधी सड़क है. एयरपोर्ट के रस्ते में अच्छा ये था कि वहाँ मेरी पसंद की कॉफी मिलती है...मगर चार बजे सुबह एयरपोर्ट का रास्ता काफी बिजी रहता है. नाईस रोड भी ले सकती थी पर उधर के रास्ते जाने के लिए थोड़ा मैप ज्यादा देखना पड़ता...तो फिर सोचा कि इलेक्ट्रोनिक सिटी फ्लाईओवर के तरफ निकलते हैं आसानी से पहुँच जायेंगे और भीड़ कम रहेगी.

मैं कार बहुत हिसाब से चलाती हूँ...इतने साल में अब अच्छी ड्राइवर का खिताब मिल चुका है. काफी कण्ट्रोल में और नियमों के हिसाब से चलाती हूँ. अक्सर शांत रहती हूँ गाड़ी चलाते हुए...कार के शीशे उतार के चलाती हूँ...एसी चलाना पसंद नहीं है. सुबह इनर रिंग रोड...कोई ट्रैफिक नहीं था...सिल्क बोर्ड होते हुए आगे और फ्लाईओवर सामने. मेरे फोन में एक प्लेलिस्ट है 'लव मी डू'...बीटल्स के एक ट्रैक के नाम पर. इसमें मेरे सारे सबसे पसंद के गाने हैं...ऐसे गाने जिनसे मैं कभी बोर नहीं हो सकती. क्लासिक. सुबह यही प्लेलिस्ट चल रही थी. हवा में हलकी सी ठंढ थी, जैसे दूर कहीं बारिशें हुयी हों...आसमान में एक तरफ सलेटी रंग के बादल दिखने लगे थे...भोर की उजास फ़ैल रही थी.

फ्लाईओवर स्वप्न सरीखा है...स्विटजरलैंड की सड़कें याद आ गयीं. एकदम सीधी बिछी हुयी सड़क...शहर के कोलाहल से ऊपर...ऐसा लगता है किसी और दुनिया में जी रहे हैं...जहाँ न शोर है, न लोग हैं, न कोई ट्रैफिक सिग्नल. किसी से गहरे प्यार में होना इस फ्लाईओवर के अलावा की दुनिया है...और किसी से अचानक औचक प्यार हो जाना ये फ्लाईओवर...भले ही मुश्किल से दस मिनट का सफ़र होगा...मगर कभी न भूल जाने वाला अनुभव. मिस्टर ऐंड मिसेज अइयर देखते हुए नहीं सोचा था पर रिट्रोस्पेक्ट में हमेशा सोचती हूँ...प्यार की उम्र हमेशा कम ही होती है...और जब कम होती है तो हम बिना किसी रिजर्वेशन के जीते हैं...फिर हमारे पास लौट के जाने को कुछ नहीं होता है...तो दस मिनट से कम के लिए ही सही पर हम पूरी शिद्दत से वो होते हैं वो हम हैं...वो जीते हैं जो हम जीना चाहते हैं. लिविंग ऑन द एज जैसा कुछ.

फ्लाईओवर पर स्पीड लिमिट ८० है. कच्ची उम्र का डायलोग. रिश्ते की लिमिट काँधे तक है. उसके नीचे छू नहीं सकते. सोच नहीं सकते. उसके होटों का स्वाद कैसा है. मैं जब पागल होती हूँ तो १५ की उम्र में क्यूँ लौटती हूँ? स्पीड लिमिट ८० है...इसके कितने ऊपर तक छू सकते हैं? सीधी...सपाट सड़क...दूर दूर तक कोई गाडियां नहीं. न आगे न पीछे. पैर एक्सीलेटर पर हलके हलके दबाव बनाता है...इंटरमिटेन्टली. थोड़ा प्रेशर फिर कुछ नहीं. सुई आगे बढती है...१००...थोड़ी देर बाद फिर १२०...दुनिया अच्छी सी लगने लगी है. १३०...दिल की धड़कन तेज हो गयी है...वो पहली बार इतने करीब आया है...उसकी साँसों में ये कैसी खुशबू है...मीठी सी...१३०...बहुत देर से सुई १३० पर है...अब सब रुका हुआ सा लगता है.

कैसी हूँ मैं...१३० की स्पीड पर सब ऐसा लगता है जैसे रुका हुआ हो...धीमा हो...खंजर दिल में है...मैं रिस रही हूँ...ऐसिलेरेटर पर फिर हल्का दबाव बनाती हूँ...दूर दूर तक कोई गाड़ी नहीं है...थोड़ा और...अब सब कुछ बेहद तेज़ी से मेरी ओर आ रहा है...आसपास चीज़ें इतनी तेज हैं जैसे मैं वक्त में पीछे जा रही हूँ...टाइम ट्रैवेल जैसा कुछ...जिंदगी और आगे का रास्ता जैसे फिश आई लेंस से देख रही हूँ...एक छोटा सा शीशा है जिसमें से मेरी पूरी जिंदगी गुज़र रही है आँखों के सामने से जैसे पुरानी कहानी में एक अंगूठी से ढाके की मलमल का पूरा थान निकल आता था.

१४०...पॉज...एकदम जैसे सांस रुक गयी हो. फ्रैक्शन ऑफ अ मोमेंट...क्या उतना ही छोटा जब पहली बार अहसास हुआ था कि प्यार हो गया है मुझे?

सब कुछ रिवाइंड हो रहा है...एक इमेज उभरती है कि कार अगर फ्लाईओवर की बाउंड्री से टकराएगी तो प्रोजेक्टाइल की तरह गिरेगी. मैं विचार को झटक देती हूँ...सामने नज़र आती सड़क के अलावा लोग बहुत तेज़ी से आ जा रहे हैं...जैसे जिंदगी वाकई एक १४० की स्पीड से दौड़ती हुयी कार है और जिंदगी में आये हुए सभी लोग सिर्फ एक धुंधला सा अक्स.

मैंने एक्सीलेरेटर छोड़ दिया है और बेहद हलके ब्रेक मारती हूँ...लगभग छूती हूँ...जैसे खुद को रोकना...कि उससे प्यार नहीं करना है...हलके ब्रेक्स...थोड़ी थोड़ी देर पर. स्पीड घटती है...१३०...१२०...१००...८०. अब ठीक है...अब सब स्टेबल है. फ्लाई ओवर भी थोड़ी देर में खत्म हो जाएगा. उम्र...अगले महीने २९ की हो जाउंगी...जिंदगी भी थोड़ी देर में खत्म हो जायेगी.

टोल प्लाज़ा आ गया है...टू वे टोल...मैं शीशे के बोक्स में बैठे उस लड़के को देख कर मुस्कुराती हूँ. जब तक वो छुट्टा निकाल रहा है...टोल बूथ के दूसरी तरफ दो लोग खड़े हैं...मुझे कौतुहल से देखते हैं. इतनी इतनी भोर में अकेली लड़की गाड़ी लेकर शहर से बाहर क्यूँ जा रही है. मुझे हमेशा से लोगों का ये बेहद उलझा हुआ चेहरा बहुत पसंद है. मैं हलके गुनगुनाने लगती हूँ...टोल का टिकट लेकर आगे बढ़ी हूँ. यहाँ हाइवे है...इस समय बैंगलोर की तरफ आने वाले बहुत से ट्रक दिख रहे हैं दूसरी लेन में. अभी भी अँधेरा है तो उनकी हेडलाइट्स जली हुयी हैं. हाइवे पर बहुत देर बहुत दूर तक ड्राइव करती हूँ...अब लौटने का मन है...हाई बीम के कारण रोड दिख नहीं रहा है ढंग से...यू टर्न या तो राईट लेन से होगा या लेफ्ट लेन से फ्लाईओवर के नीचे से. जिंदगी ऐसी ही है न...लौटने का या तो सही रास्ता होता है या गलत.

इत्तिफाक कहूँ या फितरत...लेफ्ट लेन में यू टर्न मिला है...बहुत ध्यान से कार मोड़ती हूँ...कुछ देर रुक कर देखती हूँ...कोई गाड़ी नहीं आ रही. हाइवे पर ध्यान ज्यादा देना होता है...स्पीड बहुत तेज रहती है तो अचानक से गाड़ी आ सकती है सामने...वैसे में कंट्रोल में रहना जरूरी होता है. कोलेज बंक मार कर जेएनयू में टहलते हुए कई बार टीचर भी दिख जाते थे. वैसे में नोर्मल रहना होता है जैसे किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में जाना पड़ा था कहीं और अब लौट रहे हैं.

लौटते हुए बहुत से ट्रक हैं रास्ते में और उन्हें ओवरटेक करना पड़ा है...वापस लौटना वैसे भी हमेशा उतना आसान नहीं होता जितना कि चले जाना...अवरोध होते ही हैं. १२० पर ओवरटेक करती हूँ...गानों पर ध्यान देती हूँ...फ्लाईओवर फिर से सामने है...पर इस बार स्पीड बढ़ाऊंगी तो जाने किसका अक्स ठहर जाएगा...डरती हूँ. ८० की स्थिर स्पीड पर चलाती हूँ. ले बाई है. गाड़ी पार्क करती हूँ. एसएलआर निकालती हूँ...ट्राइपोड लाना भूल गयी. खुद को कोसती हूँ कि फोटो अच्छी नहीं आ पाएंगी. गाड़ियां भूतों की तरह भागती हैं कैमरे के व्यूफाइंडर में से...कुछ ऐसे ही फोटो उतारती हूँ...फिर फोन से खुद की एक तस्वीर उतारती हूँ. जानती हूँ मेरी फेवरिट रहेगी बहुत दिनों तक.

शहर जागने लगा है...मैं पूरी रात नहीं सोयी हूँ. फिर भी थकी नहीं हूँ...जरा सी भी. पहचाने रास्तों पर लौट आई हूँ...सिल्क बोर्ड के पास बहुत से फूल बिकते रहते हैं सुबह...जासमिन की तीखी गंध आई है अंदर तक...मैं बारिशों वाले दिन और बालकनी में कॉफी की याद करती हूँ...एक सिगरेट पीने का मन करता है. दिल की धड़कन बढ़ी हुयी है अब तक. कार पार्क करती हूँ. एहतियात से घर का लॉक खोलती हूँ.

कॉफी बनाती हूँ...सूरज उग गया है पर दिख नहीं रहा...बहुत बादल हैं. मैं हमेशा उन लोगों को बहुत एडमायर करती थी जो बहुत तेज़ी से कार चलाते हुए भी स्थिर रह सकते हैं...खुद को वहाँ देखती हूँ तो अच्छा लगता है. कुछ लोग खतरे का बोर्ड देख कर आगाह होते हैं...कुछ लोग खतरे का बोर्ड देखते ही वही काम करने चल देते हैं. मैं दूसरे टाइप की हूँ. फिर से वो साइन टांग देने का मन कर रहा है. 'Danger Ahead. You might fall in love with me'...लेकिन...कोई फायदा नहीं...फिर से खुद से प्यार हो गया मुझे.

थोड़ी पागल...थोड़ी खतरनाक...थोड़ी आवारा...थोड़ी नशे में...जरा सी बंजारामिजाज...थोड़ी घुमक्कड़...थोड़ी थोड़ी प्यार में. पूरा पूरा कुछ नहीं...अधूरी अधूरी सब कुछ. 

03 March, 2012

फिगरिंग मायसेल्फ आउट

लिखो. काटो. लिखो. काटो.
लिखना जितना जरूरी है काटना भी उतना ही जरूरी है...लिख के मिटाओ मत...पेन्सिल से मत लिखो कि पेन्सिल की कोई याद बाकी नहीं रहती...इरेजर बड़ी सफाई से मिटाता है...जैसे कि गालों से पोछती हूँ आंसू...तुम्हें सामने देख कर...नहीं सामने कहाँ देखती हूँ...इन्टरनेट पर देख कर ही...तुम जब तस्वीरों में हँसते दिखते हो...बड़े भले से लगते हो...मैं अपनी बेवकूफी पर हंसने लगती हूँ. बहुत मिस करती हूँ दिल्ली का वक़्त जब सारे दोस्त साथ में थे...

कल दो अद्भुत चीज़ें देखीं...Lust for life...Van Gogh की जिंदगी पर बनी फिल्म देखी और गुरुदत्त पर एक किताब पढ़ी...गुरुदत्त जब २८ साल के थे उन्होंने प्यासा का निर्माण किया था...अबरार अल्वी २६ के...सोच रही हूँ उम्र के सींखचों में लोगों को बांटना कितना सही है...क्या उन्हें मालूम था कि जिंदगी बहुत थोड़ी है...क्या उन्होंने शिद्धत से जिंदगी जी थी. अजीब हो रखी है जिंदगी भी...गुरुदत्त की चिठ्ठियाँ पढ़ती हूँ, लगता ही नहीं है कि इस शख्स को गए इतने साल हो गए...लगता है ये सारे ख़त उसने मुझे ही लिखे हैं...कुछ हिंदी में, कुछ इंग्लिश में और कुछ बंगला में...ताकि मेरी बांगला थोड़ी अच्छी हो सके. प्रिंट हुए पन्नों से एक पुरानी महक महसूस होती है. इस बार दिल्ली गयी थी तो स्मृति ने एक चिट्ठी दिखाई जो मैंने उसे ९९ में लिखी थी...उसने मेरी कितनी सारी चिट्ठियां सम्हाल के रखी हैं...मेरे हिस्से तो बस इंतज़ार और उसे ढूंढना आया...कितने सालों उसे तलाशती रही...तब जबकि उसे लगता था कि मैं उसे भूल गयी हूँ...कैसा इत्तिफाक था न...फ़िल्मी कि दुनिया के दो हिस्सों में हम दोनों अलग अलग तरह से एक दूसरे को याद करना और सहेजना कर रहे थे. 


कल की किताब का नाम था 'Ten years with Guru Dutt...Abrar Alvi's journey' लेखक का नाम सत्य सरन है...मुझे सारे वक़्त समझ नहीं आया कि किताब इंग्लिश में क्यूँ थी...हिंदी में क्यूँ नहीं. बैंगलोर में होने के कारन बहुत सी चीज़ें मिस हो जाती हैं...उसमें सबसे ज्यादा खोया है मेरा किताबें ढूंढना...दिल्ली में सीपी में किताबें खरीदने का अपना मज़ा था...अनगिन किताबों को देखना, छूना, उनकी खुशबू महसूसना और फिर वो किताब खरीदना जिसने हाथ पकड़ कर रोका हो. गुरुदत्त पर ये किताब बहुत अच्छी नहीं थी...पर कहानियां बेहद दिलचस्प थीं...अबरार अल्वी की नज़र से गुरुदत्त को देखना बहुत अच्छा लगा. गुरुदत्त मुझे बहुत फैसीनेट करते हैं...उनपर लिखा हुआ कुछ भी देखती हूँ तो खरीद लेती हूँ अगर पास में पैसे रहे तो. गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब एक दिन ऐसे ही दिखी थी...थोड़ी महँगी थी...मंथ एंड चल रहा था...सोची कि सैलरी आने पर खरीद लूंगी...फिर वो किताब जो गायब हुयी तो लगभग दो साल तक लगातार हर जगह ढूँढने के बाद मिली.


गुरुदत्त भी बहुत सारे रीटेक लेते थे...प्यासा के बारे में पढ़ते हुए वोंग कर वाई याद आये...उनकी भी 'इन द मूड फॉर लव' ऐसे ही बिना स्क्रिप्ट के बनी थी...फिल्म किरदारों के साथ आगे बढती थी...सोचती हूँ...किसी की भी जिंदगी के रशेस ले कर कोई अच्छा डाइरेक्टर एक बेहतरीन फिल्म बना सकता है. किसी भी से थोड़ा पर्सनल उतरती हूँ...अपनी जिंदगी के पन्ने पलटती हूँ...कई बार लगता है कि ऊपर वाला एक अच्छा निर्देशक है पर एडिटर होपलेस है...उसे समझ नहीं आता कि रोती हुयी आँखें स्क्रीन पर बहुत देर नहीं रहनी चाहिए और ऐसी ही कुछ माइनर मिस्टेक्स पर हम मिल कर काम करेंगे तो शायद कुछ अच्छा रच सकेंगे.


मेरा एक स्क्रिप्ट पर काम करने का मन हो रहा है...पर फिर मुझे रोज एक दोस्त की जरूरत पड़ने लगती है जो मेरा दिन भर का सोचा हुआ सुने...दिल्ली के IIMC के दिन याद आते हैं...पार्थसारथी पर के...कुछ शामें...चाय के कुल्हड़ में डूबे...घास पर अँधेरा घिरने के बाद भी देर तलक बैठे ... अपने-अपने शहरों में गुम कुछ दोस्त...सोचने लगती हूँ कि दोस्तों का कितना बड़ा हिस्सा था मेरे 'मैं' में...कि उनके बिना कितनी खाली, कितनी तनहा हो गयी हूँ. जाने तुम लोगों को याद है कि पर राज, शाम, सोनू, बोस्की, इम्बी...तुम लोग कमबख्त बहुत याद आते हो. विवेक...कभी कभी लगता है थैंक यू बोल के तेरे से थप्पड़ खा लूं...बहुत बार सम्हाला है तूने यार. 


मैं जब मूड में होती हूँ तो एक जगह स्थिर बैठ नहीं सकती फिर मुझे बाहर निकलना पड़ता है...बाइक या कार से...वरना घर में पेस करती रहती हूँ और बहुत तेज़ बोलती हूँ...सारे शब्द एक दूसरे में खोये हुए से. हाथ हवा में घूम घूम कर वो बनाते रहते हैं जो उतनी तेज़ी में मेरे शब्द मिस कर जाते हैं.


दूसरा एक मेजर पंगा है...आई नो किसी और को ये नहीं होता...I need a muse...I need to be madly in love to work on something...फिलहाल कोई आइडिया ऐसा नहीं है कि रातों की नींद उड़ जाए...दिन को सो न पाऊं...हाँ जिस तरह का बिल्ड अप है शायद कोई उड़ता ख्याल आ ठहरे...तब तक इस इन्सिपिड थौट का कुछ करती हूँ. कुछ है जो सी स्टोर्म की तरह मन में भंवरें बना रहा है...


बहुत कुछ है...बहुत कुछ बिखरा हुआ इस खूबसूरत जिंदगी में...लेकिन फ़िलहाल...दोस्त, तेरी याद आ रही है...बंगलौर बहुत दूर है मगर यहाँ सबसे अच्छे कैफे हैं जहाँ धूप का टुकड़ा होता है...खिलते फूल होते हैं...खुनकी लिए हवाएं होती हैं और मैं होती हूँ न...मुस्कुराती, गुनगुनाती...सुन न...एक असाइंमेंट सेट कर न इस शहर का...तेरे से मिलने का मन कर रहा है. बहुत दिन हुए दोस्त!

27 January, 2012

दिल्ली- याद का पहला पन्ना

Towards PSR
प्लेन के रनवे पर चलते ही दिल में बारिशें शुरू हो गयीं थीं...हलके से एक हाथ सीने पर रखे हुए मैं उसे समझाने की कोशिश कर रही थी कि इस बार जल्दी आउंगी...इतने दिन नहीं अलग रहूंगी इस शहर से...मगर दिल ऐसा भरा भरा सा था कि कुछ समझने को तैयार ही नहीं था...जैसे ही प्लेन टेकऑफ़ हुआ दिल में बड़ी सी जगह खाली हो गयी...आंसू ढुलक कर उस जगह को भरने की कोशिश कर रहे थे. अनुपम को बताया तो पूछता है कि प्लेन पर रो रही थी, किसी ने कुछ बोला नहीं...ये कोई ट्रेन का स्लीपर कम्पार्टमेंट थोड़े था कि आंटी लोग आ जायेंगी गले लगा लेंगे कि बेटा कोई नहीं...फिर से आ जाना दिल्ली...ऐसे नहीं रोते हैं...कोई पानी बढ़ा देगी पीने के लिए...कोई पीठ सहलाने लगेगी और सब चुप करा देंगी मुझे. प्लेन में बगल में एक फिरंगी बैठा था...मैं जी भर के रोई और फिर आँखें पोछ कर पानी पिया...चोकलेट खाई और डायरी निकल कर कुछ लिखने लगी...इस बीच कुछ कई बार अनुपम का और स्मृति का डायरी में लिखा हुआ पढ़ लिया...मुस्कुराना थोड़ा आसान लगा. 

मुझे कोई खबर नहीं कि मैं रोई क्यूँ...ख़ुशी से दिल भर आया था...सारी यादें ऐसी थीं कि दिल में उजली रौशनी उतर जाए...एक एक याद इतनी बार रिप्ले हो रही थी कि लगता था कि याद की कैसेट घिस जायेगी...लोग धुंधले पड़ जायेंगे, स्पर्श बिसर जाएगा...पर फिलहाल तो सब इतना ताज़ा धुला था कि दिल पर हाथ रखती थी तो लगता था हाथ बढ़ा कर छू सकती हूँ याद को. 

इतना प्यार...ओह इतना प्यार...मैं जाने कहाँ खोयी हुयी थी...मैं वापस से पहले वाली लड़की हो गयी...बिलकुल पागल...एकदम बेफिक्र और धूप से भरी हुयी...मेरी आँखें देखी तुमने...ये इतने सालों में ऐसे नहीं चमकती थीं. अपने लोगों से मिलना...मिलते रहना बेहद जरूरी है...क्यूंकि जानते हो...ईमेल के शब्द बिसर जायेंगे...फोन पर सुनी आवाज़ खो जायेगी...मगर भरे मेट्रो स्टेशन पर उसने जो भींच के गले से लगाया था ना...वो कहीं नहीं जाएगा अहसास...स्मृति...सॉरी यार...क्या करूँ मुझे लोगों की परवाह करना नहीं आता...अब तेरे गले लगने के पहले भी सोचती तो मैं तुझसे मिलती ही न...मुझे तेरे चेहरे पर का वो शरमाया सा अहसास याद आता है...वाकई हम कॉलेज में मिले होते तो एकदम दोस्त नहीं होते...तू देखती है न...मेरी कोई दोस्त है ही नहीं कॉलेज के टाइम की. 

Smriti&Me
I know, I know...
झल्ली लग रही हूँ :) 
पहले दिन ही स्मृति के साथ पार्थसारथी गए...IIMC का अपना होस्टल दिखाया उसे...और पैदल चल दिए...जेऐनयू के रास्तों पर...वहाँ पत्थरों में जड़ें गहरायीं और जो मिटटी में था इश्क उसे फिर से अपने सिस्टम में भरने दिया...हवाएं...शाम...तोतों का उड़ता झुण्ड...हरियाली...सब वैसा ही था...मेरे अन्दर जो लड़की कहीं खो गयी थी, वापस लौट के चली आई...दुपट्टा लहराते हुए. मैं लगातार बोलती जा रही थी...सॉरी स्मृति रे...सोचती हूँ मेरे साथ चलना कैसा होगा...मैं वहाँ जा कर एकदम अपने फुल फॉर्म में आ जाती हूँ...वो मेरी दुनिया की सबसे पसंदीदा जगहों में से है और मैं तुझसे बहुत प्यार करती हूँ इसलिए तेरे साथ उधर गयी थी...वहाँ बैठ कर पुराने दोस्तों को याद किया...कुछ को फोन किया...और लौट आई. 

रात की बस थी जयपुर के लिए...पर जयपुर गए नहीं उस रात...उसे कैंसिल करा के सुबह आठ बजे की बस की...जयपुर का रास्ता दोनों तरफ सरसों के खेतों से भरा हुआ था...बस में एकदम आगे वाली सीट थी...कुणाल को फिट करने के लिए आगे की सीट ली थी...मैं तो किसी भी जगह अट जाती हूँ. खैर...बड़ा खूबसूरत रास्ता था...दोनों तरफ पहाड़...सरसों के खेत...जाने क्या क्या...आधी नींद आधे जगे हुए में देखा...कभी ख्वाब लगता तो कुछ और दोस्त भी ख्वाबों में टहलते हुए चले आते...तब उन्हें sms कर देती...देखो कहे देती हूँ जिसको जिसको sms  किया है...इसी कारण किया होगा :) 

जयपुर करीब तीन बजे पहुंचे...अंकन...जिसकी शादी का रिसेप्शन अटेंड करने हम गए थे...हमें खुद रिसीव करने आया :) हम VIP  गेस्ट जो थे. रात की कोकटेल पार्टी का हाल दूसरी पोस्ट में :) 

21 January, 2012

जिंदगी के सबसे खूबसूरत लम्हों की तसवीरें नहीं होतीं...


क्या कहूँ...आज के दिन का वाकई कुछ याद नहीं है...सिवाए इसके कि जितनी तुमने बाँहें खोली थीं उनमें पूरा आसमान आ जाता...
रिश्ते पर जाती हूँ तो बस इतना है कि मैं बहुत खुश थी...और तुम भी. बस. 

बहुत देर से कोरा पन्ना खुला हुआ है...जानती हूँ कि कुछ नहीं लिख सकूंगी...कुछ भी नहीं...तुम्हें इतने सालों बाद देखना...तुम्हें छूना...तुम्हारे गले लगना...

बस...आने वाले कई सालों के लिए इसे यहाँ सहेज के रख रही हूँ...कि आज इक्कीस जनवरी २०१२ की रात मेरे चेहरे पर एक मुस्कान थी...तुम्हारे कारण...दिल में धूप उतरी थी...सब कुछ अच्छा था...कहीं कोई दर्द नहीं था...एक लम्हा...सुकून था. 

La vie, Je t'aime!

Life, I love you!

जिंदगी...मुझे तुझसे मुहब्बत है!

14 October, 2010

फिर जाना, फिर लौटना

उस वक़्त में
ज्यादा नहीं लगती थी दूरी
IIMC के हॉस्टल से पैदल 
गंगा ढाबा तक की
रात के कितने बजे भी
क्योंकि जानती थी
सड़कों के ख़त्म होने पर
दोस्त इंतजार करते होंगे
कि सर्द रातों में मिलेगी गर्म कॉफ़ी 
और उससे भी जलती बहसें 
कि वापस कोई आएगा साथ
सिर्फ रास्ते का अकेलापन बांटने के लिए
कि बारिश हुयी तो
खुल जायेंगे किसी भी होस्टल के दरवाजे 
कि पार्थसारथी जाने के लिए
कोई रोकेगा नहीं 
किसी के साथ घूमते रहने भर से
नहीं चुभेंगी शक की निगाहें
तब हुआ करती थी
हर पगडंडी की अलग खुशबू

किसी आने वाले कल में
मांगी जायेगी पहचान
JNU में अन्दर जाने के लिए भी
पार्थसारथी पर बैठा होगा दरबान
लुप्त हुए पगडंडियों के अवशेष
अकेले ढूँढने पड़ेंगे
कॉफ़ी का बिल चुकाने के लिए
किसी से झगड़ना नहीं होगा
कोई बताने वाला नहीं होगा
कि टेफ्ला की कौन  सी डिश सबसे अच्छी है 
बारिशों के लिए 
लेकर जाना होगा छाता 

घबराहट होती है
कि कैसा होगा 
अकेले उन्ही रास्तों पर चलना 
ये जानते हुए कि मेन गेट पर 
भी कोई नहीं होगा

कि कितना दर्द होगा
कि कैसी आह होगी
सभी यादों को दफना दूं
कोई कब्रगाह होगी?

13 October, 2010

दिल्ली...पहचान तो लोगी मुझे?

वक़्त नहीं लगता, शहर बदल जाते हैं. ये सोच के चलो कि लौट आयेंगे एक दिन, जिस चेहरे को इतनी शिद्दत से चाहा उसे पहचानने में कौन सी मुश्किल आएगी...मगर सुना है कि दिल्ली अब पहचान में नहीं आती...कई फिरंगी आये थे उनके लिए सजना सँवरना पड़ा दिल्ली को. दिल्ली की शक्लो सूरत बदल गयी है.
सुना है महरौली गुडगाँव के रास्ते पर बड़ा सा फ़्लाइओवर बना है और गाड़ियाँ अब सरपट भागती हैं उधर. मेरे वक़्त में तो IIMC से थोड़ा आगे बढ़ते ही इतना शांत था सब कुछ कि लगता ही नहीं था कि दिल्ली है...खूब सारी हरियाली, ठंढी हवा जैसे दुलरा देती थी गर्मी में झुलसे हुए चेहरे को...कई सार मॉल भी खुल गए हैं...एक बेर सराय का मार्केट हुआ करता था, छोटा सा जिसमें अक्सर दोस्तों से मुलाक़ात भी हो जाया करती थी. छोटी जगह होने का ये सबसे बड़ा फायदा लगता था...और फिर साथ में कुछ खाना पीना, समोसे वैगेरह...चाय या कॉफ़ी और टहलते हुए वापस आना कैम्पस तक. 
JNU तो हमारे समय ही बदलने लगा था...मामू के ढाबे की जगह रेस्तारौंत जैसी कुर्सी टेबलों ने ले ली, वो पत्थरों पर बैठ कर आलू पराठा और टमाटर की चटनी खाना और आखिर में गुझिया, चांदनी रात की रौशनी में...टेफ्ला में दीवारों पर २००६ में जो कविता थी मेरे एक दोस्त की, जिसे मैं शान से बाकी दोस्तों को दिखाती थी वो भी बदल दी गयी. पगडंडियों पर सीमेंट की सड़कें बन गयीं...जंगल अपने पैर वापस खींचने लगा...समंदर पे आती लहरों की तरह. 
जो दोस्त बेर सराय, जिया सराय में रहते थे वो पूरी दिल्ली NCR में बिखर गए. पहले एक बार में सबके घर जाना हो जाता था...इधर से उठे उधर जाके बैठ गए...अब किसी चकमकाती मैक डी या पिज़ा हट में मिलना होगा...एसी की हवा दोस्ती को छितरा देती है, बिखरने लगती है वो आत्मीयता जो गंगा ढाबे के मिल्क कॉफ़ी में होती है. अब तो पार्थसारथी जाने के लिए आईडी कार्ड माँगा जाने लगा है...कहाँ से कहें कि ये जगह JNU  में अभी पढने वाले लोगों से कहीं ज्यादा उनलोगों के लिए मायने रखती है जो यहाँ एक जिंदगी जी कर गए थे. पता नहीं अन्दर जाने भी मिलेगा कि नहीं.
१५ नवम्बर, किसी कैलेंडर में घेरा नहीं लगाना पड़ा है...आँखों को याद है कि जब दिल्ली आउंगी मैं, दो साल से भी ऊपर हुए...जाने कैसी होगी दिल्ली...याद के कितने चेहरों से मिल सकूंगी...नयी कितनी यादों को सहेज सकूंगी. बस...ख्वाहिशों का एक कारवां है जो जैसे डुबो दे रहा है. दिल्ली...जिंदगी का एक बेहद खूबसूरत गीत.

29 July, 2010

मेरा बिछड़ा यार...




इत्तिफाक...एक अगस्त...फ्रेंडशिप डे...और हमारी IIMC का रियुनियन एक ही दिन...वक़्त बीता पता भी नहीं चला...पांच साल हो गए...२००५ में में पहला दिन था हमारा...आज...पांच साल बाद फिर से सारे लोग जुट रहे हैं...


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आखिरी दिन...कॉपी पर लिखी तारीख...आज से पांच साल बाद हम जहाँ भी होंगे वापस एक तारीख को यहीं मिलेंगे...उस वक़्त मुस्कुरा के सोचा था...यहीं दिल्ली में होंगे कहीं, मिलने में कौन सी मुश्किल होगी...आज बंगलोर में हूँ...जा नहीं सकती.


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मैं फेसबुक बेहद कम इस्तेमाल करती हूँ...आज तबीयत ख़राब थी तो घर पर होने के कारण देखा...कम्युनिटी पर सबकी तसवीरें...गला भर आया...और दिल में हूक उठने लगी...जा के एक बार बस सब से मिल लूं तो लगे कि जिन्दा हूँ.


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भर दोपहर स्ट्रिंग्स का गाना सुना...मेरा बिछड़ा यार...सुबह के खाने के बाद कुछ खाने को था नहीं घर पर...बाहर जाना ही था...कपडे बदले, जींस को मोड़ कर तलवे से एक बित्ता ऊपर किया, फ्लोटर डाले और रेनकोट पहन कर निकली ब्रेड लाने...गाना रिपीट पर था...कुछ सौ मीटर चली थी कि बारिश जोर से पड़ने लगी...


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रेनकोट का हुड थोड़ा सा पीछे सरकाती हूँ...तेज बारिश चेहरे पर गिरती है, आँखों में पानी पानी...बरसाती नदी...और बंगलोर पीछे छूट गया...जींस के फोल्ड खुल गए, ढीला सा कुरता और हाथों में सैंडिल...कुछ बेहद करीबी दोस्त...एक भीगी सड़क. गर्म भुट्टे की महक, और पुल के नीचे किलकारी मारता बरसाती पानी. ताज़ा छनी जिलेबियां अखबार के ठोंगे में...गंगा ढाबा की मिल्क कॉफ़ी और वहां से वापस आना होस्टल तक...


उसकी थरथराती उँगलियों को शाल में लपेटना...भीगे हुए जेअनयू के चप्पे चप्पे को नंगे पैरों गुदगुदाना...पार्थसारथी जाना...आँखों का हरे रंग में रंग जाना...दोस्ती...इश्क...आवारगी...जिंदगी.
IIMC my soul.
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काश मैं दिल्ली जा सकती...
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करे मेरा इन्तेजार...मेरा बिछड़ा यार...मेरा बिछड़ा यार...

14 June, 2010

कहीं से तो लौट के आओ जिंदगी

बारिशों में खोयी हो
अलसाई सी सोयी हो
थकी हो उदास हो
हाँ, मेरे आसपास हो
वहीँ से लौट आओ जिंदगी

ठहरा सा लम्हा है
भीगी सी सडकें हैं
चुप्पी सी कॉफ़ी है
बुझी सी सिगरेट है
वहीं बिखर जाओ जिंदगी

वो चुप मुस्कुराता है
हौले क़दमों से आता है
छत पे सूरज डुबाता है
अच्छी मैगी बनाता है
उससे हार जाओ जिंदगी

इश्क की थीसिस है
डेडलाइन की क्राईसिस है
जिस्म की तपिश है
रूह की ख्वाहिश है
इसमें उलझ जाओ जिंदगी

शब्द होठों पे जलते हैं
कागज़ पे खून बहता है
आँखें बंजर हो जाती हैं
शहर मर जाता है
अब अंकुर उगाओ जिंदगी

अब भी वापसी की राह तकती हूँ
कहीं से तो लौट के आओ जिंदगी. 

26 April, 2010

पैराशूट से उतरता चाँद

सच को लिखना जितना आसान होता है, उसको जीना उतना ही मुश्किल।
ऐसा ही दर्द के साथ भी होता है।

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एक भाषा है, जिसके कुछ ही शब्द मुझे आते हैं, पर उसके ये शब्द गाहे बगाहे मुझसे टकरा जाते हैं और मैं सोचती रह जाती हूँ कि ये महज इत्तिफाक है या कुछ और। जेऐनयू क्यों मेरी जिंदगी के आसपास यूँ गुंथा हुआ है। ऑफिस से कब्बन पार्क दिखता है, दूर दूर तक फैली हरी चादर पेड़ों की कैनोपी...और इनके बीच लहकता हुआ गुलमोहर। बायीं तरफ स्टेडियम भी। और सामने डूबता सूरज, हर शाम...और अक्सर होती बारिशें।

ऐसा था पार्थसारथी रॉक, जेऐनयू में। सामने दिखता हरा भरा जंगल, और उसके बीच लहकती बोगनविलिया। और दायीं तरफ ओपन एयर थियेटर की सफ़ेद दीवार...

कुछ भी तो नहीं बदला है, सूरज अभी भी वैसे ही हर शाम डूबता है, हर शाम। बस नहीं दिखता है तो चाँद, जेट के पीछे से पैराशूट बाँध कर उतरता हुआ चाँद।
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some lost alphabet tatooes your name in my blood. love can never be skin deep it seems.

19 April, 2010

यादों का पैलेट

IIMC के आखिर के कुछ दिन थे, सबकी प्लेसमेंट आ रही थी। अधिकतर लोग दिल्ली में ही कहीं ना कहीं ट्रेनिंग कर रहे थे। ये हमारा आखिरी एक महीना था जेअनयू कैम्पस में और हमारी लाल दीवारों से जुड़े कुछ रिश्ते गहराने लगे थे। उस वक़्त ये नहीं लगा था की अब के बाद फिर शायद बहुत दिन हो जायेंगे किसी से मिले हुए, फिर देखे हुए...या शायद बात किये हुए भी।

मेरे खास दोस्तों में एक की बॉम्बे में ट्रेनिंग आई, स्टार प्लस की...मुझे सुबह ही पता चल गया। बहुत ख़ुशी हुयी कि अच्छी जगह ट्रेनिंग लगी है उसकी पर बात जैसे तीर की तरह चुभी वो ये कि आखिरी एक महीना भी छीना जा रहा है मुझसे...और मैं इस अचानक के लिए तैयार नहीं थी।

दिन भर हम एक दुसरे को देख कर कतराते रहे, किसी और रास्ते मुड़ जाते रहे। कभी अचानक लाइब्ररी चले गए तो कभी कैंटीन...आँखों में आता पानी अच्छा नहीं लगता। कहते हैं जाने वालों को हँस कर विदा करते हैं क्योंकि वो चेहरा ही यादों का सबसे साफ़ चेहरा होता है। धुंधला कर भी उसके रंग फीके नहीं पड़ते।

पर IIMC के छोटे से कैम्पस में दिन भर आप एक दुसरे से नहीं भाग सकते। मैं पानी पीने झुकी थी और पीछे मुड़ते ही उसे पाया...मैं नहीं चाहती थी कि मेरी आँखें गीली हों, मैं उसका चेहरा साफ़ देखना चाहती थी, धुंधला नहीं। पर ऐसा मेरे बस में नहीं था।

मैंने उससे कहा "ऐसा नहीं होगा कि तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकूँगी, ऐसा भी नहीं है कि तुमसे मैं रोज मिलती थी पिछले कुछ दिनों जब हम एक साथ थे। पर ये था कि आते जाते एक तुम्हारे चेहरे की आदत हो गयी थी। उस आदत से बहुत दर्द हो रहा है ये सोच कर कि अब कभी अचानक तुम नहीं नज़र आओगे कैम्पस में। तुम्हें ढूंढती रहती थी पहले ऐसा नहीं था, तुम्हें तलाशती रहूंगी ऐसा नहीं है...पर ये जो कमबख्त आदत है आँखों की, तुम्हें देख कर मुस्कुराने की...तुम बहुत याद आओगे यार, तुमको बड़ा मिस करुँगी।"

और मेरी यादों में उसकी गीली आँखें ही आती हैं अब तक...वो बोला था, इसलिए नहीं मिल रहा था तुझसे, पता था तू रुला देगी...मैं जा रहा हूँ, तुझे रोते देखा नहीं जाएगा, और मैं तेरे सामने रोना नहीं चाहता। तू बहुत ख़राब है रे पुज्जी कसम से।

इन आँखों को किसी की आदत ऐसी पड़ती ही क्यों है...कुछ लोग जैसे सूरज की तरह होते हैं, उनके आने से रोशन हो जाती है जिंदगी। ऑफिस में एक शख्स था ऐसा, मेरे नए ऑफिस में...वो इस हफ्ते जा रहा है। इतना कम वक़्त में तो आदत भी नहीं होती किसी की...पर मुझे दुःख हो रहा है उसके जाने पर। अभी जब कि उससे ठीक से बात भी नहीं की थी कभी...कैसे करती, मुझे कन्नड़ नहीं आती और उसे हिंदी।

अजीब होती है ये आँखों की आदत...शाम ढल रही है, डूबता सूरज, घर लौटते पंछी...और यादों में कहीं खोती हुयी सी मैं, V...आज तेरी बड़ी याद आई।

23 February, 2010

मेरी कोई सजा हो

कहीं से कोई आसमां टूटे, कहर बरपा हो
तुम बिन जी रही हूँ मेरी कोई सजा हो

आतिशें शाम को सुलगाएं, सूरज जलता रहे
घर जाने के रास्ते में रुकता, थमता जलजला हो

भूल जाऊं सारे शब्द, खो जाएँ किताबें मेरी
दर्द टूट के उभरे और लिखना न आता हो

हाथों में उभर आये टूटी कई लकीरें
इन रास्तों में मंजिल का कोई पता ना हो

13 December, 2009

लौट के आ जाएँ कुछ दिन बीते

बंगलौर में पढ़ने लगी है हलकी सी ठंढ
कोहरे को तलाशती हैं आँखें
मेरी दिल्ली, तुम बड़ी याद आती हो

पुरानी हो गई सड़कों पर भी
नहीं मिलता है कोई ठौर
नहीं टकराती है अचानक से
कोई भटकी हुयी कविता
किसी पहाड़ी पर से नहीं डूबता है सूरज

पार्थसारथी एक जगह का नाम नहीं
इश्क पर लिखी एक किताब है
जिसका एक एक वाक्य जबानी याद है
जिन्होंने कभी भी उसे पढ़ा हो

धुले और तह किए गर्म कपड़ों के साथ रखी
नैप्थालीन है दिल्ली की याद
सहेजे हुयी हूँ मैं, फ़िर जाने पर काम आने के लिए

जेएनयू पर लिखे सारे ब्लॉग
इत्तिफाकन पढ़ जाती हूँ
और सोचती हूँ की उनके लेखकों को
क्या मैंने कभी सच में देखा था
किसी ढाबे पर, लाइब्रेरी में...

मुझे चाहिए बहुत से कान के झुमके
कुरते बहुत से रंगों में, चूड़ियाँ कांच की
सरोजिनी नगर में वही पुरानी सहेलियां
वही सदियों पुरानी बावली के वीरान पत्थर
इंडिया गेट के सामने मिलता बर्फ का गोला
टेफ्ला की वेज बिरयानी और कोल्ड कॉफ़ी
बहुत बहुत कुछ और...पन्नो में सहेजा हुआ

शायद इतना न हो सके...
ए खुदा, कमसे कम एक हफ्ते का दिल्ली जाने का प्रोग्राम ही बनवा दे!

19 February, 2009

पुराने दोस्त

आज एक पुराने दोस्त से बात हुयी
और जाने कैसे जख्मों के टाँके खुल गए

सालों पुरानी बातें जेहन में घूमने लगीं
खुराफातों के कुछ दिन अंगडाई लेकर उठे

बावली में झाँकने लगी कुछ चाँद वाली शामें
पानी में नज़र आई किसी की हरी आँखें

सड़कों पर दौड़ने लगी कुछ उंघती दुपहरें
परछाई में मिल गया एक पूरा हुजूम

सीढियों पर हंसने लगे कुछ पुराने मज़ाक
फूलों पर उड़ने लगी मुहब्बत वाली तितली

बालकनी में टंग गया तोपहर का गुस्सैल सूरज
गीले बालों में उलझ गई पीएसार की झाडियाँ

सड़कों पर होलिया गई फाग वाली टोली
रंगों में भीग गया पूरा पूरा हॉस्टल

चाय की चुस्कियों में घुल गए कितने नाम
पन्नो के हाशियों पर उभर गई कैसी गुफ्तगू

गानों का शोर कब बन गया थिरकन
फेयरवेल बस उत्सव सा ही लगा था बस

पर वो जाने पहचाने चेहरों की आदत
कई दिनों तक सालती रही...

उस मोड़ से कई राहें जाती थी
और हम सबकी राहें अलग थी

कभी कभी लगता है
जेअनयू के उसी पुल पर
हम सब ठहरे हुए हैं...
जिसके पार से दुनिया शुरू होती थी

आज हम सब इसी दुनिया में कहीं हैं
पुल के उस पार के जेअनयू को ढूंढते हुए

यूँ ही कभी कभी
कोई दोस्त मिल जाता है

तो चल के उस पुल पर कुछ देर बैठ लेते हैं
इंतज़ार करते हैं...शायद कुछ और लोग भी लौटें

जाने उस पुल पर अलग अलग समय में
हम में से कितने लोग अकेले बैठते हैं...

कभी इंतज़ार में...और कभी तन्हाई में।

19 November, 2008

जागने का वक्त आ गया है.

हमें याद है की १०वीं में हमारा सिविक्स नाम का विषय होता है...उसी में हम संविधान के बारे में पढ़ते थे। हम जब fundamental rights के बारे में पढ़ते हैं तो उसी पैराग्राफ में हमारी duties के बारे में भी लिखा होता है। ऐसा क्यों होता है कि हम अपने अधिकारों को लेकर बहुत सचेत रहते हैं और हो हल्ला भी मचाते हैं पर अपनी जिम्मेदारियों का क्या? क्या अपनी जिम्मेदारियां ताक पर रखने के बाद हमें अपने अधिकारों के लिए लड़ने का हक है?
इस दौर में सब सब सवाल करते हैं कि आप क्या कर रहे हो...समाज के लिए...देश के लिए वगैरह वगैरह, ये सवाल करने के पहले वो ये बताएं कि उन्होंने क्या किया है, किस बदलाव कि दिशा में कदम उठाये हैं?
आज मैं भी ऐसे ही एक बदलाव के बारे में कहना चाहती हूँ जी बहुत जरूरी है। और ये है वोट देना, हममें से अधिकतर लोग सरकार को कोसते हैं उसकी हर नाकामी पर, मगर जब वोट देने का वक्त आता है हम अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट जाते हैं। हालाँकि मैं मानती हूँ कि इसका एक बहुत बड़ा कारन ये है कि कोई भी एलेक्टीओं में खड़ा होने वाला नेता इस काबिल नहीं होता कि उसे चुना जाए। सारे भ्रष्ट और अक्सर अपराधिक पृष्ठभूमि के होते हैं। पर वोट देना पहला कदम है हमारे देश के लिए कुछ सार्थक करने कि दिशा में।
हम कॉलेज में थे जो चुनाव और राजनीति को गंभीरता से लेते थे...जेएनयू में तो खास तौर से इस तरह कि हवा चलती है कि आप किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित हो ही जाते हैं। मेरे कुछ दोस्त ऐसे भी हैं जिन्होंने राजनीति में उतरने का और चीज़ों को बदलने का प्रण लिया है। मुझे उन पर गर्व है, मैं सीधे इलेक्शन में उतर तो नहीं सकती पर मैंने वादा किया है कि उनका इलेक्शन कैम्पेन मैं सम्हालूंगी।
मैं और मेरे जैसे कई लोग इस लिए भी वोट नहीं दे सकते क्योंकि हमारा नाम हमारे घर कि वोटर लिस्ट में जुदा है, और हम रहते हैं दूसरे शहर में...अब वोट कैसे दें।मुझे ये मालूम नहीं था कि किसी भी शहर में ६ महीने तक रहने के बाद हम अपना नाम वहां की वोटर लिस्ट में शामिल करने के लिए आवेदन दे सकते हैं। और वोट करने के लिए बस लिस्ट में नाम होना जरूरी है, वोटर आइडी कार्ड नहीं है तो DL या PAN कार्ड भी चलता है।इस सारी प्रक्रिया को बिल्कुल आसान कर दिया है टाटा टी ने अपने नए वेबसाइट में
मेरा आपसे अनुरोध है कि आप www.jaagore.com पर जरूर जाएँ। वाकई वोट करना अब बिल्कुल आसान हो गया है। मैंने अपने सारे दोस्तों को इस बारे में बताया और उन्होंने भी सूचना को आगे forward किया।ummid है इन छोटे छोटे क़दमों से ही हमारा हमारे अपने भारत का सपना पूरा होगा।

वंदे मातरम्

01 September, 2008

एक खूबसूरत गीत...

Chachi420-EkWohDin...

यहाँ की शामें यादों सी होती हैं...

खूबसूरत, और हर बार अलग ही रंग में बिखरी हुयी

वही चहचहाहट वही झुंड के झुंड लौटते पंछी

कभी कभी कमरे में बैठती हूँ तो लगता है वापस जेएनयू पहुँच गई हूँ...

अपने हॉस्टल के कमरे में...

जहाँ बालकनी से नर्म धूप कमरे तक आती थी

जाडों में आराम से बाल सुखाते हुए, जगजीत की कोई ग़ज़ल सुनते रहते थे

आँखें मूंदे हुए....आवारा ख्याल यूँ ही चहलकदमी करते रहते थे

वो भी क्या दिन थे..उफ्फ्फ

ख़ुद से मुहब्बत हुआ करती थी तब

और आइना कहता था...बा-अदब होशियार :)

तब मुझे काजल लगना बड़ा पसंद हुआ करता था

और कभी कभी शौक़ से बिंदी भी

अब तो जैसे वक्त भागता रहता है

जींस और टी शर्ट डाली और निकल गए

जाने आजकल आईने में कैसी दिखती हूँ

अब कहाँ हो पाती है गुफ्तगू

अब कहाँ वक्त मिलता है

की ढूंढ के एक मनपसंद गीत सुनूँ

फ़िर भी कभी कभी...

ये गीत सुनने का वक्त निकल लेती हूँ...मुझे बेहद पसंद है...

सोचा अकेले सुनने में क्या मज़ा आप भी सुनिए :)

एक शाम सा खुशनुमा और उदास गीत एक साथ।






24 July, 2008

वाह बंगलोर...आह दिल्ली

बंगलोर एक खूबसूरत शहर है, खास तौर से दिल्ली से आने के बाद यहाँ के छोटे छोटे दो मंजिल के घर बड़े प्यारे लगते हैं। पर वो कहते हैं न, शहर की भी आदत होती है। जैसे सुबह सुबह अख़बार पढने की, चाहे आपके पास खबरों का कोई दूसरा मध्यम भी हो, अख़बार पढ़े बिना मन नहीं लगता।

कुछ वैसे ही दिल्ली की आदत है, खास तौर से जेऐनयू की गलियों में भटकने की आदत...अब इतनी दूर आ गई हूँ कि जाना सपना ही लगता है, पता नहीं अब कब जा पाऊँगी, बड़ा दुःख होता है। वो गलियां जैसे कहीं मुझमें ही भटकती रहती हैं मैं ख़ुद अपने अन्दर के रास्तों पर कुछ बिखरे लम्हे उठाती रहती हूँ। फ़िर याद आता है गुडगाँव और वो कितनी सारी रातें और कितनी सारी बातें। नैवैद्यम का डोसा, सुबह सुबह mac d पहुँच जाना, वो ऑफिस की इतनी भाग दौड़। वो हॉस्टल का खाना...

और मुझे यकीन नहीं होता की मैं सबसे ज्यादा मिस करती हूँ दिल्ली की बारिश...उससे जुड़ी सैकड़ों यादें, पकोडे, कॉफी और वो घुमावदार सड़कें जहाँ अक्सर मैं ख़ुद से टकरा जाती थी। बंगलोर में भी रोज बारिश होती है, पर यहाँ भीगने का मन नहीं करता(बीमार भी पड़ जाती हूँ)।

एक नए शहर में जिंदगी की नई शुरुआत करनी है, सब कुछ फ़िर से शुरू करना है...एक एक करके दो कमरों के अपार्टमेन्ट को घर बनाना है।
तो कमर कस के तैयार हूँ।
ॐ जय श्री गणेशाय नमः

06 July, 2008

अरसा पहले...

वो बातें और हुआ करती थी
वो ज़माने और हुआ करते थे

ठोकरों में रखते थे दुनिया को
वो हौसले और हुआ करते थे

हम ख़ुद ही अपने खुदा होते थे
वो ज़ज्बे और हुआ करते थे

रौंद देते थे हालातों की नागफनियाँ
वो काफिले और हुआ करते थे

जिनमें देने में खुशी मिलती थी
वो रिश्ते और हुआ करते थे

अब तो लगता है पुराने हो गए हम
वो नए और हुआ करते थे

29 May, 2008

अपने लोग

कुछ लोग साथ चला करते थे
कुछ वक्त पहले

ऐसा नहीं होता था कि एक ही ओर जाना होता था
ऐसा भी नहीं कि कुछ काम होता था

ये भी नहीं कि चाय या सिगरेट कि तलब हो किसी को
ये भी नहीं कि एक ही ढाबे का खाना पसंद आता था

हम साथ चलते थे क्योंकि
हमें साथ चलना अच्छा लगता था

रास्ते तो तब भी अलग होते थे
रस्ते अब भी अलग ही हैं हमारे

ये अलग रास्तों पर चलने कि थकन
ये अपनी मंजिल पर जल्दी पहुँचने की होड़

ये नहीं हुआ करती थी उस समय
घंटों टहलना, ठहरना, बातें करना

कभी पार्थसारथी रॉक पर बैठना
सूर्यास्त और चंद्रोदय देखना

जाने कब ये वक्त बीच में आ गया
जाने कब हम अपने अपने रास्ते चलने लगे

और जाने कब...
कई मोड़ों पर मुड़ते मुड़ते
हम सब खो गए...

अपने रास्तों पर
अपनी जिंदगी में
अपनी नौकरी में
अपनी व्यस्तताओं में

सब अपना...
सिवाए...अपनों के.

06 May, 2008

एक रोज मैंने सोचा

बहुत दिन हो गए
अपने आप से नहीं मिली हूँ
सोचती हूँ थोड़ा वक्त निकाल
मिल आऊं एक रोज़


जैसे उस नीली जींस के
पिछले पॉकेट में रखा हुआ है
मेरा पुराना वालेट
और थोडी रेजगारी
वैसे ही
कहीं भुलाई हुयी हूँ मैं


अब तक रखा
कॉलेज का आईडी कार्ड
जैसे अभी भी उसी पहचान
में पाना चाहती हूँ ख़ुद को
जिन आंखों में
सपनो पर बन्धन नहीं होते थे


कहीं किसी पहाड़ी की चोटी पर
दुपट्टे से खिलवाड़ करती हुयी
वहीं की हवा में
कहीं उड़ती हुयी हूँ मैं शायद


सोच रही हूँ
मिल आऊं
अपने आप से

इससे पहले कि
अपना पता ही भुला दूँ

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