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13 July, 2019

Što Te Nema ॰ कभी न पिए जा सकने वाले कॉफ़ी कप्स का इंतज़ार

मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
[साभार कविता कोश]

बहुत साल पहले कभी पहली बार पढ़ी होगी ये कविता। लेकिन कितना पहले और ज़िंदगी के किस पड़ाव पर, याद नहीं। इसकी आख़िरी पंक्ति मेरी कुछ सबसे पसंदीदा पंक्तियों में से एक है। ‘अक्सर एक व्यथा, यात्रा बन जाती है’। इसके सबके अपने अपने इंटर्प्रेटेशन होंगे, क्लास में किए गए भावानुवाद या कि संदर्भ सहित व्याख्या से इतर। 

मेरे लिए औस्वित्ज जाना एक ऐसी यात्रा थी। हमें स्कूल में जो इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें जीनोसाइड जैसे ख़तरनाक कॉन्सेप्ट नहीं होते हैं। शायद इसलिए कि हमारी किताब लिखने वालों को लगता हो कि बच्चों की समझ से कहीं ज़्यादा क्रूर है ऐसी घटनाएँ। घर पर कई साहित्यिक किताबें थीं लेकिन कथेतर साहित्य कम था, जो था भी वो कभी पसंद नहीं आया। मैंने नौकरी 2006 में शुरू की… ऑफ़िस के काम के दौरान रिसर्च करने के लिए विकिपीडिया तक पहुँची। फिर तो लगभग कई कई महीनों तक मैं जो सुबह पहना पन्ना खोलती थी, वो विकिपीडिया होता था। मैंने कई सारी चीज़ें जानी, समझीं… कि जैसे गॉन विथ द विंड में जिस लड़ाई की बात कर रहे हैं, वो अमरीका का गृहयुद्ध है और उसका पहले या दूसरे विश्वयुद्द से कोई रिश्ता नहीं है। किताब कॉलेज में किसी साल पढ़ी थी और उस वक़्त हमारे समझ से युद्ध मतलब यही दो युद्ध होते थे।
हमें जितनी सी हिस्ट्री पढ़ायी गयी थी उसमें याद रखने लायक़ एक दो ही नाम रहे थे। हिटलर के बारे में पढ़ना शुरू किया तो पहली बार विश्व युद्ध का एक और पक्ष पता चला। यहूदियों के जेनॉसायड का। पढ़ते हुए यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि अभी से कुछ ही साल पहले ऐसा कुछ इसी दुनिया में घटा है। विकिपीडिया पर हाइपरलिंक हुआ करते थे और मैंने काफ़ी डिटेल में कॉन्सेंट्रेशन कैम्प/श्रम शिविरों के बारे में, वहाँ के लोगों की दिनचर्या के बारे में, वहाँ हुए अत्याचारों के बारे में पढ़ा।
विकिपीडिया का होना मेरे जीवन की एक अद्भुत घटना थी। कुछ वैसे ही जैसे पहली बार बड़ी लाइब्रेरी देख कर लगा था कि इतनी बड़ी लाइब्रेरी है जिसकी सारी किताबें पूरे जीवन में भी पढ़ नहीं पाऊँगी। रैंडम चीज़ें पढ़ जाने की हमेशा से आदत रही और नेट पर कुछ ना कुछ पढ़ना सीखना उस आदत में शुमार होता चला गया। मैं जो हज़ार चीज़ों की बनी हूँ वो इसलिए भी कि मैं बहुत ज़्यादा विकिपीडिया पर पायी जाती थी। उसमें एक सेक्शन हुआ करता था जिसमें रोज़ एक रोचक तस्वीर और उसके बारे में कुछ ना कुछ जानकारी होती थी। 

मुझे उन दिनों बीस हज़ार रुपए मिलते थे, सारे टैक्स वग़ैरह कट कटा के…अमीर हुआ करती थी मैं। अभी से कई साल पहले ये बहुत सारे पैसे हुआ करते थे। पैसों का एक ही काम होता, किताबें ख़रीदना। कि मैं किसी भी दुकान में जा के दो सौ रुपए की किताब ख़रीद सकती हूँ, बिना दुबारा सोचे… मैंने वाक़ई उन शुरुआती दिनों के बाद ख़ुद को उतना अमीर कभी नहीं महसूस किया। बहुत कुछ ख़रीद के पढ़ा उन दिनों। हॉरर भी। द रिंग फ़िल्म दरसल तीन किताबों की ट्रिलॉजी पर बनी है - The Ring, Spiral, The loop. ये किताबें इतनी डरावनी थीं कि बुक रैक पर रखी होती थीं तो लगता था घूर रही हैं। मैंने फिर कभी हॉरर नावल्ज़ नहीं पढ़े। इतनी रात को उन किताबों के बारे में सोचने में भी डर लग रहा है… जबकि मुझे उन्हें पढ़े लगभग बारह साल बीत गए हैं। 

आज के दिन 2012 में मैं पोलैंड के क्रैको में थी। मेरी पहले दिन की टूर-गाइड ने पोलैंड के हौलनाक इतिहास को ऐसी कहानी की तरह सुनाया कि तकलीफ़ उतनी नहीं हुयी, जितनी हो सकती थी। लेकिन ये सिर्फ़ पहले दिन की बात थी। इसके बाद के जो वॉकिंग टूर किए मैंने उसमें दुःख को ढकने का कोई प्रयास नहीं था। सब कुछ सामने था, जैसे कल ही घटा हो सब कुछ। मैं औस्वित्ज़ अकेले गयी थी। जाने के पहले मुझे बिलकुल नहीं पता था कि कोई जगह इस तरह उम्र भर असर भी छोड़ सकती है। फ़िज़िक्ली इम्पैक्ट कर सकती है। या कि मृत्यु और दुःख के प्रति इतना संवेदनशील बना सकती है। वहाँ जा कर पहली बार देखा कि पंद्रह लाख लोग कितनी जगह घेरते हैं। इतने लोगों की मृत्यु के बाद की राख अभी भी मौजूद है। गैस चेम्बर में नाखूनों से खरोंची गयी दीवार जस की तस है। स्टैंडिंग सेल्स अब भी मौजूद है। वहाँ से आते हुए आख़िरी चीज़ जो गाइड ने कही थी मुझे इतने सालों में नहीं भूली। “औस्वित्ज़ में इतना दुःख है कि दुनिया भर के लोगों का यहाँ आना ज़रूरी है ताकि वे इस दुःख को महसूस कर सकें। दुःख, बाँटने से कम होता है”। 

मृत्यु पर राजनीति सबसे ज़्यादा होती है। ख़ास तौर से किसी ऐसे देश के बारे में हम पढ़ रहे हों जिसका पूरा इतिहास न पता हो तो हो सकता है हम अपनी भावुकता में किसी ग़लत पक्ष को सपोर्ट कर दें। लेकिन युद्ध में भी सिविलीयन मृत्यु पर हमेशा विरोध दर्ज किया जाता है। क्रूरता किसी के भी प्रति हो, उसे जस्टिफ़ाई नहीं कर सकते। मंटो की कहानियाँ एक निरपेक्ष दृष्टि से विभाजन के वक़्त की घटनाओं को किरदारों के माध्यम से दर्ज करती हैं। वे किसी के पक्ष में खड़ी नहीं होतीं, वे अपनी बात कहती हैं। 
Što Te Nema.   Venice 2019 pic Srdjan Sremac

आज एक दोस्त ने फ़ेस्बुक पर एक आर्ट प्रोजेक्ट की तस्वीरें शेयर कीं… इसमें दुनिया के कई बड़े बड़े शहरों के स्क्वेयर पर हर साल एक मॉन्युमेंट बनाया जाता है। इसका नाम है Što Te Nema. 

Bosnia and Herzegovina में 1995 में यूनाइटेड नेशंस के सेफ़ ज़ोन सरेब्रेनिका में ठहरे हुए शरणार्थियों में से सभी (लगभग 8000) मुसलमान पुरुषों की ले जा कर हत्या कर दी गयी थी। इन पुरुषों की पत्नियों से पूछा गया कि वे अपने पतियों की कौन सी बात सबसे ज़्यादा मिस करती हैं, तो उन्होंने कहा 'साथ में कॉफ़ी पीना'। हर साल ग्यारह जुलाई को Što Te Nema एक नए शहर में जाता है। बोस्निया में कॉफ़ी छोटे पॉर्सेलन के कप में पी जाती है जिन्हें fildžani कहते हैं। इस इवेंट के लिए पूरी दुनिया में रहने वाले बोस्निया के लोगों से ये कॉफ़ी कप्स इकट्ठा किए जाते हैं। वालंटीर्ज़ दिन भर बाज़्नीयन कॉफ़ी बनाते हैं और राहगीर इन ख़ास कॉफ़ी कप्स को पूरा भर कर रख देते हैं, उन लोगों की याद में जो लौटे नहीं। Što Te Nema का अर्थ है ‘तुम यहाँ क्यूँ नहीं हो/कहाँ हो तुम?’। इस साल ये मॉन्युमेंट वेनिस में बना था जिसमें 8,373 कप्स में कॉफ़ी भर के रखी गयी। 

पहली नज़र में तस्वीर ने आकर्षित किया और फिर कहानी पढ़ी... क्या हर ख़ूबसूरत चीज़ के पीछे कोई इतनी ही उदास कहानी होगी? इतनी बड़ी दुनिया में कितना सारा दुःख है और इस दुःख को क्या इतने कॉफ़ी कप्स में नाप के रख सकते हैं? वो हर व्यक्ति जिसने इनमें से किसी एक ख़ूबसूरत चीनी मिट्टी के बाज़्नीयन कॉफ़ी कप को बाज़्नीयन कॉफ़ी से भरा होगा, वो ख़ुद कितने दुःख से भर गया होगा ऐसा करते हुए। क्या वह किसी दुःख से ख़ाली हो पाया होगा ऐसा करते हुए?

ऐसी घटनाओं के कई पौलिटिकल ऐंगल होंगे जो मेरे जैसे किसी बाहरी को नहीं समझ आएँगे… लेकिन इसका मानवीय पक्ष समझने के लिए मुझे राजनीति समझनी ज़रूरी नहीं है। कला दुःख को कम करने के लिए एक पुल का काम करती है। जोड़ती है। दिखाती है कि हमारे दुःख एक से हैं…और इस दुःख की इकाई हमेशा कोई एक व्यक्ति ही होगा कि जिसका दुःख हमेशा पर्सनल होगा…

ये सच किसी भी संख्या में सही होता है…दुःख बाँटने से घटता है।

01 May, 2013

स्लो मोशन राईटिंग



आजकल मुझे कोई स्क्रीन अच्छी नहीं लगती. घर आते ही लैपटॉप टीवी से कनेक्टेड और गाने चालू. स्क्रीन ऑफ. मोबाईल चार्जिंग पर. किचन में या तो खाना बनाती हूँ या रोकिंग चेयर पर झूलते हुए अख़बार या मैगजीन पढ़ती हूँ. चैन और सुकून लगता है. आज सुबह लैपटॉप खोला लेकिन फिर जैसे इरीटेशन होने लगी. लिख रही थी, सोचा अपलोड कर देती हूँ. कभी बाद में अपनी हैण्डराईटिंग देखूंगी इधर. कोपियाँ तो जाने कहाँ जायेंगी.
ये जो लिफाफा सा दिख रहा है, एक छोटा सा पाउच है, पेन रखने के लिए.
खास नहीं. बस. ऐसे ही. 

17 October, 2012

...and the world comes crashing down

इधर कुछ दिन पहले मेरा लैपटॉप क्रैश कर गया...कोई खबर नहीं...कोई अंदेशा नहीं...कोई भनक नहीं...बस ऐसे ही चलते फिरते...अचानक से क्रैश. ऑफिस की सारी फाइल्स उसमें हैं...पिछले तीन महीने का सारा काम वहीं है...अभी परफोर्मेंस रिव्यू का टाइम है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

दूसरी तकलीफ है कि मैंने फोटोग्राफ्स के बैकअप नहीं लिए थे. हर बार ऐसा होता है कि जब मैं अपने फोटोग्राफ्स मेमोरी कार्ड से लैपटॉप पर ट्रांसफर करती हूँ तो साथ ही हार्ड डिस्क में भी सेव कर लेती हूँ. पुरानी आदत है. इस बार के यूरोप ट्रिप पर हार्ड डिस्क लेकर गयी नहीं थी तो सारे फोटो सिर्फ लैपटॉप में थे. डीएसएलआर मेमोरी भी ज्यादा खाता है उसपर पहली बार अच्छा कैमरा लेकर गयी थी तो बहुत सी फोटो भी खींची थी. छुट्टी से वापस आते ही सीधे ऑफिस...और ऑफिस से फुर्सत मिली नहीं कभी बैकअप करने की. लैपटॉप क्रैश भी कर सकता है ऐसा सोचा ही नहीं था कभी. कुछ स्लो हो गया हो...पुराना हो गया हो या ऐसी कोई और तकलीफ हो तो फिर भी समझ में आता है...चलते फिरते क्रैश. इंसानों की तरह अनप्रेडिक्टेबल हो गए हैं आजकल डिजिटल उपकरण भी.

लैपटॉप की आदत हो गई थी. इधर एक साल में कितना तो म्यूजिक इकठ्ठा किया था. कुछ यूट्यूब से डाउनलोड किया कुछ इधर उधर की सीडीज से कॉपी किया. अभी आई-फोन में सारा म्यूजिक पड़ा है लेकिन जैसे ही उसे किसी लैपटॉप से कनेक्ट करूंगी सारा म्यूजिक इरेज हो जाएगा. एप्पल की ये बंद/क्लोज्ड प्रणाली मुझे नहीं पसंद है...अभी कितना आसान होता अगर बाकी फोन्स की तरह आईफोन भी एक युएसबी ड्राईव की तरह काम करता...मैं सारी म्यूजिक फाइल्स किसी और लैपटॉप पर कॉपी कर सकती थी.

ऑफिस का आधा काम गूगल ड्राइव पर बैकअप में डाल रखा है लेकिन पर्सनल फाइल्स कहीं भी बैकअप नहीं की हैं. लगता है इसी को डिवाइन सिग्नल की तरह लेना चाहिए कि कुछ डेटा हमेशा क्लाउड में बैक अप करके रखना चाहिए. मुझे क्लाउड कभी पसंद नहीं आया...ऑनलाइन जितना कम हो सके चीज़ें डालती हूँ...पहले तो पिकासा पर फोटोज अपलोड कर देती थी मगर अब उसकी भी जरूरत नहीं महसूस होती. ऑफिस से दूसरा लैपटॉप अलोट हो गया है. नया डेल वोस्त्रो. इसका वजन काफी कम है तो ऑफिस से घर इसे लेकर आने जाने में भी तकलीफ नहीं होती है. जब पुराने लैपटॉप का बैकअप आ जाएगा तो ऑफिस की फाइल्स गूगल ड्राइव में शिफ्ट कर दूँगी और रोज रोज ऑफिस लैपटॉप ले कर नहीं जाउंगी. घर का लैपटॉप अलग...ऑफिस का अलग.

आज जितनी फाइल्स रिकवर हो सकती हैं...होकर आ जायेंगी. वायो मैंने काफी तमीज से इस्तेमाल किया था. सारी फाइल्स अच्छे से आर्डर में सेव की थीं. जाने कितना कुछ वापस आएगा कितना कुछ बिट्स और बाइट्स की मेट्रिक्स में हमेशा के लिए खो जाएगा. मुझे कभी लिखे हुए के जाने का अफ़सोस नहीं होता. उसमें बहुत सारे वर्ड ड्राफ्ट्स थे, आधी कहानियां. दो आधी कहानियां मिल कर एक पूरी कहानी नहीं बनाती...दो आधी कहानियां ही रहती हैं. अपने लैपटॉप को काफी मिस कर रही हूँ. मेरी म्यूजिक फाइल्स...मेरी पसंद की फिल्में...तसवीरें.

लिखने का काम इधर कुछ दिनों से कॉपी पर डाल रखा है फिर से. आजकल ग्रीन इंक में थोड़ा ब्लैक  मिक्स करके लिख रही हूँ. दो रंग के इंक्स से लिखने में बहुत अच्छा लगता है. पन्ने भरते जा रहे हैं. ऑफिस में एक आध लोगों ने कभी कभार मांग कर मेरे पेन से लिखा है...पेन बहुत अच्छा है. नेहा गोवा गयी थी तो वहां से मेरे लिए एक बेहतरीन नोटबुक लायी थी...डायरी ऑफ अ डायरी...बहुत अलग तरह के पन्ने हैं उसमें और ज्यादा जीएसएम पेपर है तो फाउन्टेन पेन से लिखा हुआ दूसरी ओर नहीं दीखता. आइवरी पन्ने पर किसी भी रंग की इंक अच्छी लगती है. ऑफिस में टीम के अधिकतर लोग अपनी पेन को लेकर सेंटी हैं. मेरा और जोर्ज का एक ही पेन है...लैमी...हाँ उसका काले रंग का है और मेरे पास सफ़ेद, हरा और पर्पल कलर का है. कल घर की सफाई में कुछ इरेजर मिले...अब सोच रही हूँ थोड़ा सा पेन्सिल से लिखूं...सिर्फ इरेजर से मिटाने के सुख के लिए.

लगता है इस साल में जितना लिखना था आलरेडी लिख चुकी हूँ. अब कुछ खास लिखने का मन नहीं करता. नॉर्मली साल का ये समय ऐसे ही ब्लैंक जाता है...फिर नवम्बर आते आते जैसे जैसे शाखों से पत्ते गिरेंगे और सड़क पर कतार में बिछेंगे मुझे भी कागज़ की पैरलल लाइनें याद आएँगी और लिखने का मन करेगा.

फिलहाल बहुत सा अलग अलग संगीत सुन रही हूँ...कर्टसी तृश. बात कुछ ऐसे होती है...पूजा हैव यू हर्ड दिस सोंग....और सुने बिना जवाब होता है...नो तृश आई हैव हर्ड वैरी फ्यू इंग्लिश सोंग्स...प्ले इट प्लीज. अंग्रेजी संगीत सुनते हुए सोनिया को मिर्ज़ा ग़ालिब सुना रही थी...

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और 

यूट्यूब के अलावा विमेयो, एटट्रैक्स और ऐसा ही बहुत कुछ और सुन रही हूँ...अपने एक्सपेरिमेंट. विएना में ओपेरा सुनने के बाद कुछ क्लासिक वेस्टर्न म्यूजिक भी सुनना शुरू किया है. शोपें...मोजार्ट...खैर बहुत ज्यादा नहीं सुना है इसलिए नाम नहीं लूंगी. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं. क्लासिक. उनपर लिखने का मन नहीं कर रहा...जैसे मन के तल में वो कहीं सिंक हो रही हैं तो मैं उनको वक़्त दे रही हूँ.

कभी कभी बहुत शोर होता है...कभी कभी बहुत सन्नाटा. शांति कहीं नहीं है. मन अशांत है. कुछ दिन में पोंडिचेरी जाने का प्लान है. वहां समंदर किनारे बहुत अच्छा लगता है. उम्मीदें हैं. जिंदगी है. आज बस ऐसे ही कुछ लिख जाने का मन किया...खास नहीं.
कहीं किसी पैरलल दुनिया में सब अच्छा होगा. अपनी जगह पर होगा.


03 October, 2012

चुप का शोर...


When I look at my shadow
I often wonder
Amongst us,
which one is darker?


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ग्रे...उजले रंग में थोड़ा सा भी काला रंग मिलाने से ग्रे बन जाता है मगर काले रंग को थोड़ा सा भी हल्का करने के लिए उसमें बहुत सारा सफ़ेद रंग मिलाना पड़ता है. किरदार भी ऐसे ही होते हैं. थोड़ा सी सियाही और हीरो एंटी-हीरो में तब्दील हो जाता है मगर विलेन को थोड़ा सा भी अच्छा बनने के लिए अपनी पूरी जीवन शैली ही बदलनी पड़ती है.

कहानी का श्याम पक्ष लिखना मुश्किल है...इसलिए नहीं कि ऐसे किरदार रचने मुश्किल हैं बल्कि अपने अंदर के अँधेरे का डर इतना ज्यादा है कि सूरज पर ग्रहण लग सकता है. लंबे समय तक कोई किरदार साथ रह जाए तो सच और कहानी के बीच का फासला मिटने लगता है. कहानी सिर्फ अच्छे लोगों की नहीं होती। वो तो कहानी का सिर्फ एक हिस्सा होता है...प्रतिनायक, कहानी को उसके नज़रिए से भी देखना होता है. लंबी कहानी लिखना खुदके साथ शतरंज खेलने जैसा है. जब आप पाले बदल कर दुश्मन के खेमे से खेलते हो तब आप खुद के दुश्मन हो जाते हो...तब कई बार ये भी लगता है कि काले सफ़ेद प्यादे कुछ नहीं...जीतने की रणनीति एक जैसी ही होती है. खून उतने ही करने होते हैं...चालें वैसी ही खतरनाक चलनी होती हैं।
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आजकल लाल फूलों के खिलने का मौसम है। मुझे उनका नाम नहीं पता। सड़क के दोनों ओर सूखे हुए पत्तों और धूल के साथ लाल-नारंगी-धूसर फूल भी दिखते हैं। मैं मुराकामी की एक किताब पढ़ रही थी. IQ84. सच और सपने की बारीक रेखा के इस पार उस पार डांस करती हुयी कहानी है. रात को जब साइकिल चलाने निकलती हूँ दुनिया स्लो मोशन में चलने लगती है. पैदल चलते हुए भी ऐसा कभी नहीं लगा था. फेंस-सिटर्स. ऐसे लोग जो निर्णय नहीं ले सकते. आर या पार की बात आती है तो उस फेंस/बाउंडरी/चारदीवारी पर ही घर बना लेते हैं. मैं जब साइकिल पर होती हूँ तो ऐसा लगता है कि मेरी दुनिया और मेरी कहानियों के बीच एक दीवार बनती जा रही है...बहुत लंबी और ऊंची...चीन की दीवार की तरह और मैं कहीं जाना नहीं चाहती...उसी दीवार पर घंटों रहना चाहती हूँ.
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'काला रे सैय्याँ काला रे...काली जबां की काली गारी...काले दिन की काली शामें...'
-गैंग्स ऑफ वासीपुर के गीत से

प्रतिनायक के बारे में लिखते हुए उसके नज़रिए से दुनिया देखती हूँ...लगता है सब सही तो है. वहाँ फिर खून भी माफ होता है, गालियाँ माफ होती हैं, प्यार न कर पाने की क्षमता, विध्वंस करने की उसकी प्रवित्ति...सब सही है क्यूंकि उसकी दुनिया में वो नायक है...प्रतिनायक नहीं...उसके नियमों से वो सही है. नीत्ज़े की कही एक पंक्ति है 'He who fights with monsters might take care lest he thereby become a monster.' अक्षरशः अनुवाद ये होगा कि 'जो दानव से लड़ता है उसे इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वो खुद ही दानव न बन जाए'. प्रतिनायक को लिखते हुए एक दूरी बना के रखनी पड़ती है. कहानी में सबसे महत्वपूर्ण रोल उसका ही होता है. सबसे जरूरी होता है कंट्रास्ट बनाना...जितनी तेज रौशनी होती है, परछाई उतनी ही काली होती है...फीकी रौशनी की परछाई फीकी ही होती है.
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Our deepest fear is not that we are inadequate. Our deepest fear is that we are powerful beyond measure. It is our light, not our darkness that most frightens us.
(Not sure about the sources)
हमें डर अपने अंधेरों से नहीं...अपने उजालों से लगता है...हम अपनी कमजोरियों से नहीं...अपनी अकूत क्षमताओं से डरते हैं. 
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मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं खामोश जहाँ हूँ मुझे वहाँ से पढ़ो 
-निदा फाजली 

इधर कुछ बहुत अलग अलग चीज़ें पढ़ी...विन्सेंट वैन गोग की जीवनी...लस्ट फॉर लाइफ...एक कलाकार के जीवन की छटपटाहट का सबसे बेहतरीन उदहारण मिला है मुझे. किसी से डिस्कस कर रही थी तो उसने कहा कि लस्ट फॉर लाइफ बहुत डार्क है...उदास कर देने वाला. मैंने मुस्कुरा कर कहा...मुझे पता है...मैं भी कुछ कुछ वैसी ही हूँ. मुझे भी सियाह और उदास कर देने वाली चीज़ें पसंद हैं. 

कितना ज्यादा विरोधाभास है जीवन में...मैं जितना बोलती हूँ उतना ही चुप रहती जाती हूँ. बहुत गहरा कुआँ होता है मन...सीली सीढ़ियाँ...अँधेरा...कितनी ही बार उतरती हूँ...कितना भी नीचे उतरती हूँ काई लगी दीवारें उतनी ही डरावनी लगती हैं. जैसे काला गाढ़ा पानी रिस रिस कर भर रहा है. मन की तलछट पर से ऊपर देखती हूँ...किसी बहुत गहरे पथार के कुएं की तरह ऊपर एक गोल खिड़की दिखती है जिससे दिन में भी तारे नज़र आते हैं. आसमान काला होता है...बीच सावन बरसते परदेस में भिगाने वाला काला. 

कोई सवालों का झग्गड़ झुलाता है नीचे...अनगिन प्रश्चिन्हों के हुक...पानी में जवाबी बाल्टियाँ गिरी हुयी हैं. कुएं में लोहे के टकराने की आवाजें होती हैं और गोल दीवारों से टकराती हुयी अजीब धुन पैदा होती है...दिल की धड़कन के जैसी...अनियमित. 
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Interrobang=?! or ?!

शब्दों/संकेतों की दुनिया लाजवाब है. कुछ कुछ चीज़ें पढ़ते हुए पहली बार इन्टेरोबैंग से सामना हुआ था. इंटेरोगेशन मार्क और क्वेस्चन मार्क को मिला कर बना ये चिन्ह बहुत से फोंट्स में पाया जाता है. ये ऐसी मानसिक अवस्था को दर्शाता है जब आप चकित हैं और मन में अनेकों सवाल भी हैं. बहुत दिन बाद मैंने अपना फैवआइकन बदला है. मज़े की बात ये है कि ये चिन्ह अंग्रेजी के P अक्षर जैसा लगता है...तो ब्लॉग के लिए परफेक्ट है. 
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पहेली जिंदगी नहीं होती...हम हो जाते हैं. खुद से मिलते रहना जरूरी है. थोड़ा भाषण देना जरूरी है. बहुत दिन बाद लिखो तो बेहद फालतू चीज़ें लिखती हूँ...मगर बहुत दिन पहले एक दोस्त को कहा था...लिखने से मोह करना...लिखे हुए से नहीं. तो लिखने की आदत को बरकरार रखने के लिए इतना सारा कुछ.
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आँख से सुबुक गिर पड़ता है पांचवां आँसू...पगली नमक से मर जायेंगे चिरामिरा के पौधे. घबराती हूँ, आँचल बारिश में तानती हूँ आसमान पर. रोकती हूँ गाँव पर आने वाले फ्लैश फ्लड को...डूब जाती हूँ...कोई जाल में छांक लेता है लाश को.

कांच का गुलदान उठा कर सामने फेंका है दीवार पर...किरिच किरिच चेहरा गिरा है फर्श पर.

07 May, 2012

चिल्लर ख्याल...सुबह सुबह ढनमनाते हुए


आजकल मेरा दिमाग जाने कहाँ रहता है...कल ऊँगली काट ली सब्जी कट करते हुए...सोच कुछ रही थी...नया चाकू था एकदम नीट कट लगा...गहरा...खून बहुत तेज़ी से बह रहा था...मुझे खून सम्मोहित करता है...टहकता...दर्द में डुबोता...तो देख रही थी तब तक कुणाल भागते आया...नल के नीचे पानी से धोना शुरू किये पर खून रुकने से रहा...फ्रिज से बर्फ निकाली और ऊँगली पर रखी...कुणाल की आँखें तब तक घूमनी शुरू हो गयीं थीं...उसे खून देख कर चक्कर आता है...दो मिनट और खड़ा रहता तो वहीं बेहोश हुआ रहता तो उसको भेजे हॉल में कि तुम जाओ हम खुद से देख लेंगे. खून का बहाव इतना तेज था कि रुक ही नहीं रहा था...कितनी भी जोर से बर्फ से दबाए रखे थे ऊँगली को एकदम तीखी धार बहे जा रही थी...उसपर एक फ्रैक्शन ऑफ सेकण्ड भी दबाव कम होता तो बस फिर से धार तेज हो जाती...सिंक एकदम लाल सा हुआ जा रहा था वो तो अच्छा था कि सिंक में कोई बर्तन नहीं थे. 

काफी देर हुआ और खून रुकने को नहीं आया तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं...बचपन में मम्मी हमेशा बर्फ लगवाती थी और खून रुक जाता था...थोड़ी देर रुकता था तो बर्फ जैसे हटाती थी दर्द भी वापस लौटता था और फिर से धार शुरू. जब कुछ नहीं हो रहा था तो सोचा पट्टी बाँधने के सिवा कोई उपाय न था...कुणाल को तो बुलाने का सवाल नहीं था...वो एक बार झांकते हुए आया कि हम बाँध देते हैं...हम उसको डान्ट धोप के भेजे कि यहाँ एक छे फुट का बेहोश लड़का हमको नहीं चाहिए...फूटो यहाँ से...हम बहादुर हैं खुद से कर लेंगे सब. फिर रुई में सैवलोन लगाये और एक बार क्लीन किये फिर खूब सारी रुई में सैवलोन लगा के ऊँगली पर कस के दबाये और लिकोप्लास्ट चिपकाये...एकदम टाईट ड्रेसिंग किये कि खून टपके न. 

सारे टाइम ऊँगली को ऊपर उठाये रखे...कुणाल कह रहा था कि हार्ट के लेवल से ऊपर रखना चाहिए कट को...हर दर्द के साथ ऐसा ही होना चाहिए न? हार्ट के लेवल से ऊपर रखा जाए उसे...फिगरेटिवली स्पीकिंग. खैर...जमीन पर बैठे और हाथ बेड पर ऊपर रखे कि खून न बहे...बीच बीच में झाँक के देख भी लेते थे कि ठीक है कि नहीं...लाल तो नहीं हो रही है पट्टी...तो देखा कि ठीक है. खून बहना रुक गया था पर उतना खून बहता देख कर मेरा मन भी कैसा कैसा होने लगा था और मेंटली लग रहा था कि थक गए हैं...हालाँकि बहुत ज्यादा खून नहीं बहा होगा...या शायद  बहा होगा, मालूम नहीं. थक के सो गए. कुणाल कुछ दूध कोर्नफ्लेक्स खाया...हम आउट थे...देखे नहीं. 

नींद खुली तो शाम हो रही थी...खून बहना रुक गया था...पर हम भी हम हैं, ढेर होशियार बनते हैं. कल तेल लगाए हुए थे बाल में तो शाम होते होते एकदम सर भारी लगना और सर दर्द शुरू हो चुका था. हमको लगा खून रुक ही गया है...आराम से शैम्पू कर लेते हैं, बचा के करेंगे. अब बचा के ठेंगा होना था...नहा के निकलते निकलते फिर से ऊँगली ने खून की जमना बहानी शुरू कर दी...खुद को खूब सारा कोसा कि बुद्धि पे बलिहारी...वगैरह...फिर से टाईट ड्रेसिंग की. 

शाम डूबते हुए छत पर गयी थी...अक्सर बाल सुखाने के लिए छत पर जाना अच्छा लगता है...कल शाम एकदम एकरंग थी...बादल भी एकदम सलेटी...कोई नारंगी, लाल, गुलाबी नहीं...आसमां भी नीला नहीं...ग्रे...छत पर बैठ कर कुछ दोस्तों के बारे में सोचा कि संडे की इस शाम वो कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे...और ये कि किसी को बहुत शिद्दत से याद करो तो क्या वाकई उसे पता चलता है...हिचकी आती है क्या? कल चाँद बहुत खूबसूरत था और बादल से छन कर चाँद की किरणें दिख रही थीं...मैंने चाँद की किरनें कभी नहीं देखी थीं इस तरह...बीम होती हुयीं. सुन्दर था सब...एकरंग होते हुए भी. 
कुणाल और साकिब के साथ रात को वाक पे निकले...मोहल्ले में इधर उधर घूमे...आइसक्रीम कैंडी खाए...रात को बहुत सेंटी हो गए थे...होपलेस केस हैं...हमको कुछ भी नहीं आता है...गुड फॉर नथिंग...लिखने का भी टैलेंट दिया ही था तो या तो खूब सारा देता या आम इंसानों टाइप आम ही रहने देता...ये न इधर के हैं न उधर के हैं. ना कुछ बड़ा तोडू टाइप लिखेंगे कि शान से किसी को दिखा सकें कि देखो बेट्टा किताब है मेरा...न चैन से बैठ के कोई खूब सारा पैसा मिलने वाला नौकरी करेंगे कि अपने पैसे पर ऐश कर सकें. 

दिमाग खराब करेंगे अपना और कुणाल का कि रे हम क्या करें हमको इतनी बेचैनी काहे है...सबको तो नहीं होती सब अपनी जिंदगी में खुश रहते हैं...हमको तो साला कोश्चन ही पता नहीं है तो आंसर कहां से ढूँढेंगे. मालूम ही नहीं है कि क्या चाहिए...बस इतना पता है कि कुछ तो है जिसके पीछे भागते जा रहे हैं...कोई तलाश है...और ये कि बेचैनी है बहुत. दर्द है बहुत. कहीं ठहरना नहीं होता है. 

सुबह उठी हूँ...देखती हूँ घुटने पर एक काला निशान है...कल किसी चीज़ से फिर टकराई होउंगी घर में...ऊँगली अलग दर्द दे रही है...बिना फर्स्ट फिंगर के इस्तेमाल के टाइपिंग भी आफत है...पर ऐसे ही जेनरली जाने क्या क्या लिखने का मन करते रहता है...इतना सारा अलाय बलाय लिखे बिना वो बाहर भी तो नहीं आता जो अंदर कहीं हिलोरें मार रहा है. पता नहीं क्या लोचा है यार...लाइफ में बहुत कन्फ्यूजन है...बहुत परेशानी है और कमबख्त जिंदगी है भी तो इतनी छोटी सी...कितनी और होगी...बहुत हुआ तो दस साल...चालीस वगैरह से ऊपर जीने का कोई खास अरमान नहीं है. जिंदगी इतनी तेज़ी से भाग रही है कि क्या कहें...परेशान हो जाती हूँ हर वीकेंड कि कमबख्त एक और हफ्ता गुज़र गया. 

आज ऐसे ही कैमरा लेकर कुछ कुछ फोटो खींचने के लिए जाने का मन है...परती जमीन सा लगता है सब कुछ...मीलों मीलों खाली...एक बबूल का पेड़ तक नहीं. जाने इस तलाश को कब सुकून मिलेगा. कुणाल कहता है कि मैं लोगों के प्रति बहुत क्रिटिकल होती हूँ इसलिए मेरे दोस्त नहीं बनते...मुझे वाकई बहुत कम लोग पसंद आते हैं...बहुत ही कम...पर जो पसंद आते हैं उनपर जान छिडकती हूँ...बहुत कम लोग मुझे पसंद करते हैं...vice-versa टाइप की चीज़ है. जिंदगी में कम लोग हों...पर अच्छे हों...मैं किसी ऐसे के साथ टाइम वेस्ट नहीं कर सकती जो मुझे पसंद न हो...मुझे समझ आता है कि मेरी जिंदगी बहुत छोटी है...बहुत छोटी तो मैं अकेली ही रह लूंगी लेकिन किसी ऐसे शख्स को बर्दाश्त नहीं करूंगी जिसे मुझे झेलना पड़े...हद होपलेस केस हूँ. 

कल अनुपम से बात कर रही थी कि यार बहुत ज्यादा डिप्रेसिंग फेज चल रहा है कमबख्त इतनी जल्दी जल्दी उदास होती हूँ कि कुछ काम ही नहीं आ रहा...लगता है पागल हो जाउंगी...कितनी शाम लगता है जान दे दूं...कहीं छत से जाके कूद जाऊं...पर उम्मीद करती हूँ कि फेज है...गुजरेगा...बस इस बार बहुत लंबा चल रहा है...मुझे इतने दिन तक उदास रहने की आदत नहीं है. दिन के सारे पहर रटती हूँ कि गुजरेगा...गहरी सांसें लो लड़की...इट विल बी आलराईट...जस्ट...सांस लेती रहो...जिंदगी ऐसी ही है...क्या करोगी...जस्ट...कीप ब्रीदिंग...ओके?

12 March, 2012

भीगे कैनवास पर पेंटिंग

हैरी पोटर हीरो है...सिर्फ इसलिए नहीं की वो बहादुर है और मौत के सामने भी हिम्मत रखता है...इसलिए भी नहीं कि वह वोल्डेमोर्ट के खिलाफ अकेला खड़ा होता है...वो ये सब है...मगर इन सबके साथ वो एक एकलौता लड़का भी है जिसके कंधे पर सर रख कर मैं सबसे ज्यादा रोई हूँ...मैं जानती हूँ कि वो समझता है क्यूंकि उसने भी अपनी माँ को खो दिया है...ये बात हमेशा उस किताब में नहीं आती...पर जब भी आती है मैं जानती हूँ कि वो कैसा महसूस कर रहा होगा. हर परेशानी के बावजूद वो इस बात का ध्यान रखता है कि उस फंतासी की दुनिया में मेरा हाथ उससे कभी न छूटे. जे के रोलिंग के बहुत से फैन्स हैं...पर मेरा शुक्रिया एकदम अलग है...हर एक किताब दुनिया में इसलिए आती है कि कहीं उसे पढ़ने के लिए कोई पैदा हुआ है...

IIMC का दूसरा सेमेस्टर चल रहा था. पहले सेमेस्टर में जो ग्रुप था अब वो ग्रुप नहीं था तो उस समय के दोस्तों के साथ वक़्त नहीं मिल पाता था. ऐसे में मोलोना से कभी कभार बात हो पाती थी...ऐसी ही एक रात उसके कमरे में बैठी थी...कोई सुबह के चार बज रहे होंगे. उसके सिरहाने हैरी पोटर की किताब थी...हमेशा की तरह. मैंने पूछा 'Why do you read this book Molo?'. उस समय तक का नियम था कि किसी भी बहुचर्चित किताब को नहीं पढूंगी...जिस किताब को अवार्ड मिला है नहीं पढूंगी...पढूंगी बस वो किताब जिसे छूने पर, पन्ने पलटने पर पढ़ने का मन करे. इसी कारण कभी हैरी पोटर नहीं पढ़ी थी कि सारे लोग पढ़ रहे थे...मोलो ने कहा कि तुम इसके चार पन्ने पढो...और अगर उसके बाद जो तुम्हारा मन करे...मैंने पढ़े चार पन्ने और फिर किताब अपने कमरे में ले गयी...मोलोना ने फिर और चार किताबें दीं पढ़ने के लिए...वो नहीं होती तो मेरी जिंदगी में हैरी पोटर नहीं होता...इन किताबों में उसका असीम प्यार भी उमड़ता है...कुछ अच्छा हुआ तो मेरे साथ बांटने का प्यार...चाहे वो किताबें हों, रात को गर्म पानी या फिर बॉयफ्रेंड का दिया डार्क चोकलेट. मुझे जानने वाले समझते हैं कि चोकलेट शेयर करने से बड़ी दोस्ती मैं इस दुनिया में नहीं जानती. मोलो के कारण ही मैं फेसबुक पर आई...वो कहीं और थी ही नहीं...दो साल तक उसका कोई पता नहीं...आखिर मुझे ही झुकना पड़ा...सिर्फ उस एक लड़की के लिए मैं फेसबुक पर हाज़िर थी.

परसों स्कूल की मेरी बेस्ट फ्रेंड का फोन आया...स्मृति के बाद एक उसको ही बेस्ट फ्रेंड की पदवी से नवाज़ा था...और उसे चिट्ठियां लिखी थीं...दो साल तक. वनस्थली के उस जंगल में मेरी चिट्ठियां...शायद रेगिस्तान का रास्ता तब से ही देख रखा था...उसकी चिट्ठियां धूलभरी आतीं...एकदम उजाड़, सुनसान...खडूस वार्डन और बुरी लड़कियों के किस्से...वहां दूर दूर तक कोई ख़ुशी नहीं दिखती. हमारी चिट्ठियों में एक्जाम के भूत का भयानक साया रहता...मेरा भी 12th बुरा बीता था...एक तो गर्ल्स स्कूल...उसपर टीचर किसी करम के नहीं...उसपर लाइब्रेरी फ्राईडे को कि जब सारी अच्छी किताबें जा चुकी हों...जिंदगी एकदम बेरंग...बस चिट्ठियां थीं और डाकिया था कि जिंदगी में कुछ जीने लायक था.

मुझे पढ़ी हुयी चीज़ें तब तक याद नहीं रहतीं जब तक उनमें मुझे अपनी जिंदगी के किसी लम्हे का अक्स न दिख जाए...चाहे मेरी तन्हाई हो या मेरी मुस्कराहट...मुझे जो चीज़ें पसंद आती हैं पागलों की तरह पसंद आती हैं. मुझे बीच का रास्ता नहीं आता...प्यार करती हूँ तो एकदम मर जाउंगी जैसा...दोस्त अगर वाकई में माना है तो जान हाज़िर है...तुम्हारी हर परेशानी मेरी...तुम्हारे सारी खुशियाँ मेरी अपनी...और एक बार दिल टूट जाता है तो फिर जिंदगी में जुड़ नहीं पाता. अब तक ब्लॉग जितना जितना भी पढ़ा है..कुछ लोग हैं जिनसे कभी एक बार मिलने का मन है...बस एक बार...छू के देखने भर के लिए...न ना...इतने भर के लिए नहीं...एक बार बाँहें गले में डाल कर ये कहने के लिए...कि तुम्हारे लिखे के बदले जान मांग लो...कुर्बान जाएँ...दुआओं सा लिखते हो दोस्त...दुआओं सा. खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बक्शे.
You are my hero! (Call me sexist but no women here ;) )


Cheers to Harry Potter, Molona, Anshu, and my beloved writers...you know who  you are :) :)
I love you. 

23 February, 2012

Life. Hurts.

विषबेल उगती है पैरों के पास से कहीं...उसके बहुत महीन कांटे हैं जो त्वचा में चुभ जाते हैं...वो न केवल परजीवी है जो की मुझसे प्राणशक्ति पाती है बल्कि उन काँटों से ही जहर भी मेरे शरीर उतारती जाती है. रिसोर्स optimisation का अद्भुत उदहारण है.

मुझे समझ ये नहीं आता की इसके बावजूद मेरी जान क्यूँ नहीं जाती...क्या वो जहर वाकई जहर नहीं है बस जहर का छलावा है...एक ऐसा द्रव्य जो वक़्त के गुजरने की रफ़्तार धीमी कर देता है...कि मेरी जिंदगी रहेगी वही कुछ साल पर लगेगी कुछ ऐसे जैसे जेल में बंद आत्मा को लगे...शरीर एक जेल ही तो है न...ऐसा जिसे तोड़ना मुमकिन न हो.


लम्हा...गुज़रता है पर नहीं गुज़रता...जिंदगी खाली साफ़ की हुयी स्लेट हो गयी है जिसमें पुराना कुछ याद नहीं है...सब एक धुंधली याद के जैसा है...कोई हंसी की किरण इस ओर तक नहीं आती कि मन में उजाला भर जाए...कोई पुराना लम्हा नहीं आता. याद के सारे फोटोग्राफ्स में एक अधूरा दर्द साथ खड़ा रहता है...धुंध भरे शीशे के पार देखती हूँ...कोई नज़र नहीं आता.


एक दो लोग हैं...पर उन्हें छूने में डर लगता है कि वो भी धुआं हो गए...उन्हें बताने तक में डर लगता है कि वो मेरी जिंदगी में कितने जरूरी हैं...किसी के गले लगने में भीगने लगती हूँ...डरती हूँ...टूट जाउंगी. ऐसे में वाकई तुम्हें बाँध के रखना चाहती हूँ...कहने में डरती हूँ...बहुत बहुत बहुत.


मैं खुद को एकदम अच्छी नहीं लगती...जाने तुम्हें कैसी लगती हूँ...सोचती हूँ...बारहा सोचती हूँ कि मुझसे कोई प्यार क्यूँ करता है...मुझे इस सवाल का जवाब कभी नहीं मिलता है. हर बार चाहती हूँ कुछ ऐसा कह दूं कि तुम्हारा दिल टूट जाए और तुम मुझसे दूर चले जाओ मगर दिल को इतना पत्थर कर ही नहीं पाती हूँ. कितना भी चाहूं तुम्हें तकलीफ न दूं...पर फितरत ही ऐसी है...तुमने मेरे हाथ देखे हैं...न न ध्यान से देखो...आंसू क्रिस्तलाइज कर गए हैं...देख रहे हो कहाँ कहाँ खूबसूरती दिखती है मुझे. पर छूना न इन्हें ये बीज हैं उस विषबेल के...तुम रो दोगे तो मैं मर ही जाउंगी.


मुझे इतना तनहा रहना एकदम अच्छा नहीं लगता...ऐसे में हमेशा दिल करता है सारे दोस्तों को फोन कर लूं...पर इतना सा हक नहीं समझती...और पता है मुझे फोन नहीं चाहिए...मुझे मेरे दोस्त दिल्ली में या और किसी शहर में नहीं चाहिए...मुझे मेरे सारे दोस्त बैंगलोर में चाहिए...मेरे पास...मुझे खींच कर गले लगाने के लिए...कि मैं फोन कर सकूँ...आ जाओ और आधे घंटे में दरवाजे पर ढेरों चोकलेट के साथ लोग खड़े हों.


ऐसे कैसे खुश होती हूँ मैं...सारी खुशियाँ कमबख्त दर्द से ही जीती हैं...यही आँखों का पानी उन्हें भी सींचता है...मगर होता है न ज्यादा दिन आंसू छुपा के नहीं रखने चाहिए...फिर किसी दिन बाँध टूट जाता है. फिर सब बह जाते हैं.


बहुत हुआ...उदासी में लिखना नहीं चाहिए...अच्छा लिखने के लिए दर्द का एक थ्रेशोल्ड होता है...उससे गुज़र जाओ तो आप भरी सेंटी, वाहियात और किसी के न पढ़ने लायक लिखते हो. लेकिन मुझसे इतना नहीं होता. डायरी लिखे बहुत साल हुए. लिख के कुछ नहीं होता...कोई दर्द नहीं घटता...लिख रही हूँ बस कि बिना लिखे भी रहा नहीं जाता.


उन सारे लोगों से माफ़ी चाहती हूँ जिन्हें आज ये पढना पड़ा है. कोशिश करुँगी कि मेरे सपनों की दुनिया जो है उसमें से बाहर न आना पड़े.


Bloody Fucking Hell. Life. Hurts.

27 January, 2012

दिल्ली- याद का पहला पन्ना

Towards PSR
प्लेन के रनवे पर चलते ही दिल में बारिशें शुरू हो गयीं थीं...हलके से एक हाथ सीने पर रखे हुए मैं उसे समझाने की कोशिश कर रही थी कि इस बार जल्दी आउंगी...इतने दिन नहीं अलग रहूंगी इस शहर से...मगर दिल ऐसा भरा भरा सा था कि कुछ समझने को तैयार ही नहीं था...जैसे ही प्लेन टेकऑफ़ हुआ दिल में बड़ी सी जगह खाली हो गयी...आंसू ढुलक कर उस जगह को भरने की कोशिश कर रहे थे. अनुपम को बताया तो पूछता है कि प्लेन पर रो रही थी, किसी ने कुछ बोला नहीं...ये कोई ट्रेन का स्लीपर कम्पार्टमेंट थोड़े था कि आंटी लोग आ जायेंगी गले लगा लेंगे कि बेटा कोई नहीं...फिर से आ जाना दिल्ली...ऐसे नहीं रोते हैं...कोई पानी बढ़ा देगी पीने के लिए...कोई पीठ सहलाने लगेगी और सब चुप करा देंगी मुझे. प्लेन में बगल में एक फिरंगी बैठा था...मैं जी भर के रोई और फिर आँखें पोछ कर पानी पिया...चोकलेट खाई और डायरी निकल कर कुछ लिखने लगी...इस बीच कुछ कई बार अनुपम का और स्मृति का डायरी में लिखा हुआ पढ़ लिया...मुस्कुराना थोड़ा आसान लगा. 

मुझे कोई खबर नहीं कि मैं रोई क्यूँ...ख़ुशी से दिल भर आया था...सारी यादें ऐसी थीं कि दिल में उजली रौशनी उतर जाए...एक एक याद इतनी बार रिप्ले हो रही थी कि लगता था कि याद की कैसेट घिस जायेगी...लोग धुंधले पड़ जायेंगे, स्पर्श बिसर जाएगा...पर फिलहाल तो सब इतना ताज़ा धुला था कि दिल पर हाथ रखती थी तो लगता था हाथ बढ़ा कर छू सकती हूँ याद को. 

इतना प्यार...ओह इतना प्यार...मैं जाने कहाँ खोयी हुयी थी...मैं वापस से पहले वाली लड़की हो गयी...बिलकुल पागल...एकदम बेफिक्र और धूप से भरी हुयी...मेरी आँखें देखी तुमने...ये इतने सालों में ऐसे नहीं चमकती थीं. अपने लोगों से मिलना...मिलते रहना बेहद जरूरी है...क्यूंकि जानते हो...ईमेल के शब्द बिसर जायेंगे...फोन पर सुनी आवाज़ खो जायेगी...मगर भरे मेट्रो स्टेशन पर उसने जो भींच के गले से लगाया था ना...वो कहीं नहीं जाएगा अहसास...स्मृति...सॉरी यार...क्या करूँ मुझे लोगों की परवाह करना नहीं आता...अब तेरे गले लगने के पहले भी सोचती तो मैं तुझसे मिलती ही न...मुझे तेरे चेहरे पर का वो शरमाया सा अहसास याद आता है...वाकई हम कॉलेज में मिले होते तो एकदम दोस्त नहीं होते...तू देखती है न...मेरी कोई दोस्त है ही नहीं कॉलेज के टाइम की. 

Smriti&Me
I know, I know...
झल्ली लग रही हूँ :) 
पहले दिन ही स्मृति के साथ पार्थसारथी गए...IIMC का अपना होस्टल दिखाया उसे...और पैदल चल दिए...जेऐनयू के रास्तों पर...वहाँ पत्थरों में जड़ें गहरायीं और जो मिटटी में था इश्क उसे फिर से अपने सिस्टम में भरने दिया...हवाएं...शाम...तोतों का उड़ता झुण्ड...हरियाली...सब वैसा ही था...मेरे अन्दर जो लड़की कहीं खो गयी थी, वापस लौट के चली आई...दुपट्टा लहराते हुए. मैं लगातार बोलती जा रही थी...सॉरी स्मृति रे...सोचती हूँ मेरे साथ चलना कैसा होगा...मैं वहाँ जा कर एकदम अपने फुल फॉर्म में आ जाती हूँ...वो मेरी दुनिया की सबसे पसंदीदा जगहों में से है और मैं तुझसे बहुत प्यार करती हूँ इसलिए तेरे साथ उधर गयी थी...वहाँ बैठ कर पुराने दोस्तों को याद किया...कुछ को फोन किया...और लौट आई. 

रात की बस थी जयपुर के लिए...पर जयपुर गए नहीं उस रात...उसे कैंसिल करा के सुबह आठ बजे की बस की...जयपुर का रास्ता दोनों तरफ सरसों के खेतों से भरा हुआ था...बस में एकदम आगे वाली सीट थी...कुणाल को फिट करने के लिए आगे की सीट ली थी...मैं तो किसी भी जगह अट जाती हूँ. खैर...बड़ा खूबसूरत रास्ता था...दोनों तरफ पहाड़...सरसों के खेत...जाने क्या क्या...आधी नींद आधे जगे हुए में देखा...कभी ख्वाब लगता तो कुछ और दोस्त भी ख्वाबों में टहलते हुए चले आते...तब उन्हें sms कर देती...देखो कहे देती हूँ जिसको जिसको sms  किया है...इसी कारण किया होगा :) 

जयपुर करीब तीन बजे पहुंचे...अंकन...जिसकी शादी का रिसेप्शन अटेंड करने हम गए थे...हमें खुद रिसीव करने आया :) हम VIP  गेस्ट जो थे. रात की कोकटेल पार्टी का हाल दूसरी पोस्ट में :) 

14 December, 2011

तुम्हारे नाम चिट्ठी

हे इश्वर!

अखबारों में आया है कि आज तेरा एक कतरा मिला है तेरे जोगियों को...तेरी तलाश में कब से भटक रहे थे...तेरी तस्वीर भी आई है आज...बड़ी खूबसूरत है...पर यकीन करो, मेरे महबूब से खूबसूरत नहीं.

मेरा महबूब भी तुम सा ही है...उसके वजूद का एक कतरा मुझे मिल जाए इस तलाश में कपड़े रंग लिए जोगिया और मन में अलख जगा ली. सुबह उसके ख्यालों में भीगी उतरी है कि कहीं पहाड़ों पर बादल ने ढक लिया चाँद को जैसे...यूँ भी पहाड़ों में चाँद कम ही नज़र आता है जाड़े के इन दिनों...कोहरे में लिपटे जाड़े के इन दिनों.

ये भी क्या दिल की हालत है न कि तुम्हारी तस्वीर देख कर अपने महबूब की याद आई...बताओ जो ढूँढने से तुम भी मिल जाते हो तो मुझे वो क्यूँकर न मिल पायेगा. आज तो यकीन पक्का हुआ कि तुम हो दुनिया में...भले मेरी हाथों की पहुँच से दूर मगर कहीं तो कोई है जिसने तुम्हें देखा है...उन्ही आँखों से कि जिससे कोरा सच देखने में लोग अंधे हो जाते थे. तुम्हारा एक कतरा तोड़ के लाए हैं.

वैसा ही है न कुछ जैसे रावण शिव लिंग ले के चला था कैलाश से कि लंका में स्थापित करेगा और पूरे देवता उसका रास्ता रोकने को बहुत से तिकड़म भिड़ाने बैठ गए थे...और देखो न सफल हो ही गए. मगर जो मान लो ना होते तो मैं कहाँ से अपने महबूब की याद आने पर शंकर भगवान को उलाहना दे पाती कि हे भोला नाथ कखनS हरब दुःख मोर! मैं देखती हूँ कि आजकल मुझे याद तुम्हारी बहुत आती है...क्या तुमपर विश्वास फिर से होने लगा है? मेरे विश्वास पर बताओ साइंसजादों का ठप्पा कि तुम हो...जैसे कि मैं इसी बात से न जान गयी थी तुम्हारा होना कि दिल के इतने गहरा इतना इश्क है...

इश्क और ईश्वर देखो, शुरुआत एक सी होती है...इश्वर का मतलब कहीं वो तो नहीं जो इश्क होने का वर दे? हाँ मानती हूँ थोड़ा छोटी इ बड़ी ई का केस है इधर पर देखो न...अपना हिसाब ऐसे ही जुड़ता है. सुबह उठी तो मन खिला खिला सा था...सोचा कि क्यूँ तो महसूस हुआ कि जिंदगी में लाख दुःख हों, परेशानियाँ हों, कष्ट हों...मैं तुम्हें तब तक उलाहना नहीं देती तब तब प्यार है जिंदगी में.

आज सुबह बहुत दिन या कहो सालों बाद तुम्हारे प्लान पर भरोसा किया है...कि तुम्हारी स्कीम में कहीं कुछ सबके लिए होता है. अभी ही देखो, घर पर कितनी परेशानी है...पर शायद ऐसा ही वक़्त होता है जब मुझे तुम पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है. तुम मेरे इस भरोसे तो रक्खो या तोड़ दो...पर लगता तो है तुम कुछ गलत नहीं करोगे.

आज सुबह मन बहुत साफ़ है...जैसे बचपन में हुआ करता था...कोई दर्द नहीं, कोई ज़ख्म नहीं, कोई कसक नहीं. सोच रही हूँ कि वो जो अखबार में जो तस्वीर छपी है...उसमें कोई जादू भी है क्या? कि अपने महबूब की बांहों में होना ऐसा ही होगा क्या? कि हे ईश्वर तेरा ये कौन सा रूप है जिससे मैं प्यार करती हूँ? नन्हे पैरों से कालिया सर्प के फन पर नाचते हे मेरे कृष्ण...वो समय कब आएगा जब मैं तुम्हें सामने देख सकूंगी!

तुम्हारे प्यार में पागल,
पूजा 

11 August, 2011

निर्मोही रे

निर्मोही रे
तन जोगी रे
मन का आँगन 
अँधियारा

निर्मोही रे
लहरों डूबे 
सागर ढूंढें 
हरकारा 

निर्मोही रे
आस जगाये
सांस बुझाए 
इकतारा 

निर्मोही रे
रीत निभाए
प्रीत भुलाए
आवारा 

निर्मोही रे
गंगा तीरे  
बहता जाए 
बंजारा

14 July, 2011

गुज़र जायें करार आते आते

मेरा एक काम करोगे? बस आईने के सामने खड़े हो जाओ और अपनी आँखों में आँखें डाल कर कह दो कि मुझे दुःख पहुँचाने पर तुम्हारी आत्मा तुम्हें नहीं कचोटती है...क्यूंकि मुझे अब भी यकीन है कि दुनिया में अगर कुछ लोगों के अंदर आत्मा बची हुयी है तो तुम हो उनमें से एक...मेरे इस विश्वास को बार बार झुठला कर तुम्हीं क्या मिलता है?

पता है...अच्छा बनना बहुत मुश्किल है, दुनिया के हिसाब से तो बाद में चला जाए सबसे पहले हमें अपने खुद के हिसाब से चलना होता है. क्यूंकि अभी भी वो वक्त नहीं आया है कि हम अपने अंदर के इंसान को गला घोंट कर मार सकें...बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं. लोग आते हैं चोट देकर चले जाते हैं और हम कुछ कर नहीं पाते...इसलिए नहीं कि हम चोट पहुँचाने के काबिल नहीं है...लेकिन इसलिए क्यूंकि हम चाह कर भी किसी को उस तरह से तोड़ नहीं सकते. अपनी अपनी फितरत होती है.

कितना अच्छा लगता है न कि तुम इस काबिल हो कि किसी को चोट पहुंचा सको...बहुत पॉवरफुल महसूस होता है...कि किसी को कुछ बोल दिया और लड़की रो पड़ी...तोड़ना सबसे आसान काम है...मुश्किल तो बनाना होता है. किसी रिश्ते को खून के आंसू सींच कर भी जिलाए रखना...सहना होता है...धरती की तरह तपना, जलना और फिर भी जीवन देना. सिर्फ इसलिए कि तुम जानते हो कि किसी को तुम्हारी जरुरत है...भले छोटी सी ही सही तुम उसकी जिंदगी का हिस्सा हो...उसे इस बात का और भी शिद्दत से अहसास दिलाना. अरे जी तो लोग भगवान से भी नाराज़ होकर लेते हैं...क्या फर्क पड़ता है किसी के होने न होने से.

बुरा बनना आसान है...कोई कुछ भी कहे तो कह दो कि हम ऐसे ही हैं...तुम्हें पता होना चाहिए था  कि हम बुरे हैं. बुरा होना कुछ नहीं होता...बस अपनी गलतियों के लिए बहाना होता है. कुछ लोग राशि को ब्लेम करते हैं और कुछ फितरत को. वाकई अच्छा बुरा कुछ नहीं होता...होती है बस जिद- दिखने की कि तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं हो. अंग्रेजी में कुछ शब्द वाकई बड़े सटीक हैं जैसे Status-Quo यानि पलड़ा बराबर का रखना. कुछ देना तो बदले में कुछ लेना भी. पता नहीं हमारे संस्कार ही कुछ ऐसे हो जाते हैं कि रिश्तों में इतना मोलतोल नहीं कर पाते.

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पता नहीं क्यूँ आज शाम बारिश ने कई पुराने ज़ख्म धुला कर नए कर दिए. कितने शिकवे गीले हुए तार पर पड़े हैं...आज दुपहर ही सुखाने डाला था...बस ऐसे ही.
होता है न जब आप सबसे खुश होते हो...तभी आप सबसे ज्यादा उदास होने का स्कोप रखते हो.

23 June, 2011

बारिश में घुले कुछ अहसास

कुछ मौसम महज मौसम होते हैं...जैसे गर्मी या ठंढ...और कुछ मौसम आइना होते हैं...मूड के. जैसे गर्मी होती है तो बस होती है...उसके होने में कुछ बहुत ज्यादा महसूस नहीं होता...आम शब्दों में हम इसको उदासीन मौसम कह सकते हैं...ठंढ भी ऐसी ही कुछ होती है...

पर एक मौसम होता है जो आइना होता है...बारिश...एकदम जैसा आपने मन का हाल होगा वैसी ही दिखेगी बारिश आपको...आसमान एकदम डाइरेक्टली आपके चेहरे को रिफ्लेक्ट करेगा...बारिश के बाद  सब धुला धुला दीखता है या रुला रुला...ये भी एकदम मूड डिपेंडेंट है...तो कैसे न कहें की बारिश मुझे बहुत अच्छी लगती है. मौसम से बेहतर मूड मीटर मैंने आज तक नहीं देखा. 

आज बंगलौर में बहुत तरह की बारिश हुयी...पहले तो एकदम तेज़ से आने वाली धप्पा टाइप बारिश...फिर फुहारें...आज चूँकि काफी दिन बाद बारिश हुयी है तो मिट्टी की खुशबू भी आई...और अभी फुहारें पड़ रही हैं. आज दिन में फिर से कॉपी लेकर बैठी थी...कुछ कुछ लिखा...ऐसे लिखना काफी सुकून देता है...रियल और वर्चुअल में अंतर जैसा...की सच में कहीं कुछ कहा है. 

बचपन की दोस्त...इतने दिनों बाद मिली है आजकल की घंटे घंटे बातें होती हैं और फिर भी ख़त्म नहीं होती...स्मृति को मैं क्लास १ से जानती हूँ...५ में जा कर मेरा स्कुल चेंज हुआ और उसके पापा का ट्रांसफर...सासाराम...फिर हमने एक दुसरे को छह साल चिट्ठियां लिखी...१९९९ में पापा का ट्रांसफर हुआ और हम पटना चले गए...उन दिनों फोन इतना सुलभ नहीं था...एक बार उसका पता खोया फिर कभी मिल नहीं पाया...कितने दिन मैंने उसके बारे में सोचा...उसकी कितनी याद आई बीते बरसों इसे मैं कैलकुलेट करके नहीं बता सकती.बहुत साल बाद फिर दिल्ली आई...ऑरकुट पर मिली भी पर कभी दिखती ही नहीं ऑनलाइन...उस समय उसके हॉस्टल में मोबाईल रखना मन था...कभी फुर्सत से बात नहीं हो पायी.

इधर कुछ दिनों पहले उसका दिल्ली आना हुआ...और फिर बातें...कभी न रुकने वाली बातें...उससे मिले इतने साल हो गए हैं फिर भी लगता ही नहीं की कुछ बीता भी हो...बचपन की दोस्ती एक ऐसी चीज़ होती है की कुछ भी खाली जगह नहीं रहती. उसका ब्लॉग भी जिद करके बनवाया...एक तो आजकल कोई अच्छे मोडरेटर नहीं हैं...उसपर चर्चा का भी कोई अच्छा ब्लॉग नहीं है...नए ब्लोगेर्स के लिए मुश्किल होती है जब कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता. (सब हमारे जैसे थेत्थर नहीं होते)

आज दर्पण से भी पहली बार देर तक बातें की...दिल कर रहा है की उससे फोर्मली superintellectual(SI) के टैग से मुक्त कर दूँ...उससे बात करना मुश्किल नहीं लगा...जरा भी. 

कल ढलती शाम एक दोस्त से घंटों बातें की...कुछ झगड़े भी..कुछ जिंदगी की पेचीदगियां भी सुलझाने की कोशिश की..पर जिंदगी ही क्या जो सुलझाने से सुलझ जाए. 

कल देर रात अनुपम से बात हुयी...बहुत दिन बाद उसे हँसते हुए सुना है....इतना अच्छा लगा कि दिन भर मूड अच्छा रहा...उसे अपनी कहानी सुनाई...कि लिख रही हूँ आजकल. और उसे भी अच्छा लगा...
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फिर बारिश...

दिल किया आसमान की तरफ मुंह उठा कर इस बरसती बारिश में पुकार उठूँ...आई लव यू मम्मी. 

15 June, 2011

कुरेदा जाता है जिसे

जैसे किसी terminally ill पेशेंट से प्यार करना...जबकि मालूम नहीं हो...तब जबकि लौटना मुमकिन न हो..पता चले की आगे तो रास्ता ही नहीं है...और जिस क्षितिज को हम जिंदगी के सुनहरे दिन मान कर चल रहे थे वो महज़ एक छलावा था...रंगी हुयी दीवार...जिससे आगे जाने का की रास्ता नहीं है.

मुझे नहीं मालूम की ये कौन सा दर्द छुपा बैठा है जो रह रह के उभर आता है...या फिर ऐसा कहें कि कुरेदा जाता है जिसे ऐसा कौन सा ज़ख्म है...
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रात कैसा तो ख्वाब देखा कि सुबह उठते ही सर दर्द हो रहा था...कल साल का पहला मालदह आम खाया...और मन था कि बस दौड़ते गाँव पहुँच गया...बंगलौर में जोर की आंधियां आई हुयी हैं और मन सीधे गाँव कि देहरी से उठ कर खेत की तरफ भागता है...जहाँ दूर दूर तक एकलौता आम का पेड़ है बस...आंधी आते ही टपका आम लूटने के लिए सब भागते हैं..खेत मुंडेर, दीवाल, अमरुद का पेड़, गोहाल सब फर्लान्गते भागते हैं कि जो सबसे पहले पहुंचेगा उसको ही वो वाला आम मिलेगा जो उड़ाती आंधी में खेत के बीच उस अकेले आम के पेड़ के नीचे खड़ा हो कर खाया जा सके...बाकी आम तो फिर बस धान में घुसियाने पड़ेंगे और जब पकेंगे तब खाने को मिलेंगे. चूस के खाने वाला आम किसी से बांटा भी तो नहीं जाता.
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जानती हूँ कि सर में उठता दर्द साइको-लोजिकल है...मन का दर्द है...रुदन है...इसका मेरे दिमाग ख़राब होने या माइग्रेन से कोई रिलेशन नहीं है...कि हवाएँ जो इतनी तेज़ चल रही हैं मुझे कहीं किसी के पास नहीं ले जायेंगी...फिर भी पंख लग जाते हैं...जीमेल खोला है...हथकढ़ की कुछ पंक्तियाँ कोट करके किसी को एक ख़त लिखने का मन है...पर लिखती नहीं...मन करता है कि फोन कर लूँ...आज तक कभी उनकी आवाज़ नहीं सुनी...पता नहीं क्यूँ बंगलौर के इस खुशनुमा मौसम में भी हवाओं को सुनती हूँ तो रेत में बैठा कोई याद आता है...रेशम के धागों से ताने बाने बुनता हुआ...पर कभी बात नहीं की, कभी नंबर नहीं माँगा...कई बार होता है कि बात करने से जादू टूट जाता है...और मैं चाहती हूँ कि ये जादू बरक़रार रहे. 
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ऐसे जब भी लिखती हूँ जैसे नशे में लिखती हूँ...कभी लिखा हुआ दुबारा नहीं पढ़ती...नेट पर लिखा कागज़ पर लिखे जैसा नहीं होता न कि फाड़ दिया जा सके...वियोगी होगा पहला कवि...इस वियोगी होने में जितना कवि की प्रेमिका की भूमिका है, उतनी ही कवि कि खुद की भी...अकेलापन...दर्द...कई बार हम खुद भी तो बुलाते हैं. जैसे मैं ये फिल्म देखती हूँ...ये जानते हुए भी कि फिर बेहद दर्द महसूस करुँगी...कुछ बिछड़े लोग याद याते हैं...दिल करता है कि फोन उठा कर बोल दूँ...आई रियली मिस यु...और पूछूँ कि तुम्हें कभी मेरी याद आती है? कुछ बेहद अजीज़ लोग...पता नहीं क्यूँ दूर हो गए...शायद मैं बहुत बोलती हूँ, इस वजह से...अपनी फीलिंग्स छुपा कर भी रखनी चाहिए.
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फिल्म का एक हिस्सा है जिसमें दोनों रिहर्सल करते हैं आखिरी बार मिलने की...
पात्र कहती है 'मुझे नहीं लगा था कि तुम्हें मुझसे प्यार हो जाएगा'
और जवाब 'मुझे भी ऐसा नहीं लगा था'

चान मुड़ कर वापस चला जाता है...कट अगले सीन...वो उसके कंधे पर सर रख के रो रही है और वो उसे दिलासा दे रहा है कि ये बस एक रिहर्सल है...असल में इतना दर्द नहीं होगा.
(जिन्होंने ऐसा कुछ असल में जिया है व जानते हिं कि दर्द इससे कहीं कहीं ज्यादा होगा...मर जाने की हद तक)
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मुझे मालूम नहीं है ये फिल्म मैं बार बार क्यूँ देखती हूँ...In the mood for love...हर बार लगता है कोई अपना खो गया है...दिल में बड़ी सी जगह खाली हो गयी है...और वायलिन मेरे पूरे वजूद को दो टुकड़ों में काट रहा है. 

हर बार प्यार कर बैठती हूँ इसके चरित्रों से...और जानते हुए भी अंत क्या है...हर बार उतनी ही दुखी होती हूँ. इतना गहरा प्यार जितनी खुशी देता है उतना ही दुःख भी तो देता है ऐसे प्यार को खोना...

किसकी किसकी याद आने लगती है...और कैसे कैसे दर्द उभर जाते हैं...कुछ पुराने, कुछ नए..लोग...कुछ अपने कुछ अजनबी...भीड़ में गुमशुदा एक चेहरा...जिसने नहीं मिली हूँ ऐसा कोई शख्स...आँखों में परावर्तित होता है एक काल-खंड जो बीत कर भी नहीं बीतता...लोग जो उतने ही अपने हैं जितने कि पराये...
फिल्म देखते ही कितने तो लोगों से मिलने का मन करता है...ऐसे लोग जो शायद किसी दूसरे जन्म में मेरे बहुत अपने थे....जाने क्या क्या.

और हर बार जानती हूँ कि मैं फिर से देखूंगी इसे...क्यूंकि दर्द ही तो गवाही है कि हमने जिया है...प्यार किया है...मरे हैं...

दूसरे कमरे में फिल्म खत्म होने के बाद भी चल रही है...और रुदन करता वायलिन मुझे अपनी ओर खींच रहा है.

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फुटनोट: पोस्ट में बहुत सी गलतियाँ होंगी...दुबारा कभी अच्छे मूड में पढूंगी तो ठीक कर दूंगी...अभी बस एक छटपटाहट से उबरने के लिए लिखी गयी है.  

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