17 February, 2019

नमकीन समंदर पानी में घुलता फ़िरोज़ी लड़का

उन्हें मालूम भी नहीं होता। बेपरवाही में गुज़रते हैं शहर से... एक दूसरे के सामने से भी। अपने में खोए हुए। उनके पीछे हो रही बारिश सिहरती है... उनके हिस्से की ठंड शहर ओढ़ लेता है, पतझर को थोड़ा लम्बा रुकने की गुज़ारिश करते हुए। सड़कों पर पीले पत्ते कुछ ज़्यादा दिन बिछे रह जाते हैं। पतझर एक बेहद उदार मौसम है, आप तो जानते ही होंगे।

लड़की बहुत दिन बाद अपने मुहल्ले लौटी है। ११ साल जहाँ रूक जाओ, घर हो ही जाता है। उसने पहली बार ग़ौर किया कि वो इस जगह के मौसमों को पहचानती है। यहाँ के फूलों को, पेड़ों को, आसमान के हिस्से को भी। इन रास्तों को भी तो पता है कि किसी किसी मौसम, जब सारे गुलाबी फूल खिल जाते हैं, लड़की देर रात सिगरेट क्यूँ पीती है।

वे साल में एक बार मिलते थे। बातें करते थे। चुप रहते थे बहुत देर। सड़कों पर चलते थे दूर दूर तक। कभी कभी भीड़ वाली सड़कों पर एक दूसरे का हाथ पकड़ लेते थे। कॉफ़ी पीते हुए अक्सर देखते थे एक दूसरे के हाथ, कप के इर्द गिर्द लिपटे हुए और सोचते थे कि हाथ पकड़ के बैठना कितना सिर्फ़ उन्हें असहज करेगा या आसपास बैठे और लोगों को भी। ज़िंदगी ने ठीक ठीक हिसाब रखा था, लड़की के हिस्से में स्याही तो बहुत आयी थी, क़िस्से भी बहुत… लेकिन उसकी फ़ेवरिट ब्लैक कॉफ़ी - आइस्ड अमेरिकानो पीने से डॉक्टर ने मना कर दिया था। इन दिनों, गहरी गुलाबी चाय पीती थी लड़की, बहुत मीठी ख़ुशबू वाली, बिना शक्कर की चाय… ठीक उसके होठों के रंग की। लड़के के इतने तामझाम नहीं थे, हमेशा से वही सिंपल कैपचीनो।

अच्छा, प्यारा, सादामिज़ाज लड़का था। अक्सर कपड़े भी सफ़ेद ही पहनता था। प्योर कॉटन की शर्ट्स जो ठीक ठीक आँसू सोख लेते थे। लड़की के बचपन में उसकी मम्मी स्कूल ड्रेस में एक तिकोना रूमाल आलपिन से टाँक के भेजती थी हर रोज़, जो रोज़ कहीं खो जाता था। फिर लड़ाई झगड़ा, गिरना पड़ना तो लगा ही रहता था। तो आँसू हमेशा सफ़ेद शर्ट की स्लीव में ही पोंछे गए थे। लड़की बचपन से जानती थी। सफ़ेद कॉटन की शर्ट्स अच्छे से आँसू सोख लेती हैं। लेकिन क्या ये बात लड़के को पता थी? 

उसकी शर्ट्स की ही ख़ासियत होती होगी, लड़की में इतना बचपना तो था नहीं कि हर आख़िरी मुलाक़ात में रो दे। यूँ भी काजल लगाने वाली लड़कियाँ अपने आँसुओं पर अच्छा ख़ासा कंट्रोल रख सकती हैं। वे जिनके अज़ीज़ सफ़ेद शर्ट्स पहनें आख़िरी मुलाक़ात में, वे लड़कियाँ तो ख़ास तौर से। 

लड़की हर बार उसके लिए कोई तोहफ़ा ले कर आती। कभी काढ़े हुए रूमाल। कभी बहुत दूर देश से कोई सिगरेट लाइटर। कभी किसी नए शहर में सुनी जिप्सी गानों की सीडी। इक बार बहुत सुंदर सा मफ़लर लेकर आयी। फ़िरोज़ी रंग का, बेहद नर्म ऊन से बना हुआ। जैसे लड़की पहली बार मिलती थी तो गले में बाँहें डालती थी… एकदम हौले से… जैसे लड़का कोई ख़्वाब है। टूट जाएगा। उस साल दिल्ली में ठंड भी बहुत पड़ी थी। उन्होंने उस साल ठंड के लिहाज़ से पहली बार साथ में थोड़ी सी विस्की पी थी। ये उस शहर में इस साल की आख़िरी शाम भी थी। कोहरीले शहर में हथेलियाँ इतनी ठंडी थीं कि वे हाथ थामे चल रहे थे। एक दूसरे में ज़रा ज़रा सिमटते हुए। 

लड़की साल में बस यही कुछ दिन सिगरेट पीती, जब उसके साथ होती। उसकी जूठी सिगरेट। लड़का हर साल आख़िरी दिन, जाने के ठीक पहले, एक पूरी डिब्बी सिगरेट ख़रीदता। वे रेलवे स्टेशन से बहुत दूर होते लेकिन फिर भी जैसे रेल की सीटी सुनायी देती…पटरियों पर से गुज़रती रेल की थरथराहट लड़की के बदन में भर जाती। वो सड़क पर चलते हुए भी कभी कभी पूरी थरथराने लगती थी। फिर हथेलियों को आपस में रगड़ती हुयी कहती, इस साल ठंड बहुत ज़्यादा है ना। इस बार वो कुछ यूँ ही थरथरा रही थी तो लड़के ने अपने गले से फ़िरोज़ी मफ़लर उतारा और उसके गले में लपेट दिया। लड़की ने कुछ नहीं कहा। उसके आँसू मफ़लर को गीला करने लगे। शहर के इस बिंदु से स्टेशन और एयरपोर्ट बराबर दूरी पर थे। दोनों अपना सामान लेकर चले थे, छोटे छोटे बक्से, पहियों वाले। पेवमेंट पर दाएँ बाएँ रख दिया था। जैसे सोफ़े के हत्थे होते हैं। उनके चेहरे पर पड़ती हल्की धूप आँखों की उदासी को गर्माहट दे रही थी। ख़ुद को संयत करने के लिए लड़की ने गहरी साँस ली तो महसूस किया कि हवा की ख़ुशबू थोड़ी अलग है। फ़िरोज़ी मफ़लर से लड़के की भीनी भीनी गंध आ रही थी। लड़के ने उसके काँधे पर हाथ रखा और थोड़ा सा उसे अपने पास खींच लिया। लड़की ने उसके काँधे पर सिर टिका दिया। दोनों के चेहरे पर एक उदास रोशनी थी। प्रेम और विदा की मिलिजुली।

लड़के ने डिब्बे से सिगरेट निकाल कर जलायी। लड़की को सिगरेट देते हुए ज़रा से उसके हाथ भी काँपे… कोई ट्रेन उसके भीतर भी गुज़र रही थी। इस शहर से बहुत दूर जाती हुयी। वे चुप थे। बातें इतनी थीं कि शुरू होतीं तो ख़त्म नहीं होतीं। ऐसी बातें ना कही जाएँ तो विदा कहना आसान होता है। सिगरेट ख़त्म हुयी तो लड़के ने उसे पेवमेंट पर हल्का सा रगड़ कर बुझाया और फिर जेब से वालेट निकाला। लड़की हँस पड़ी। ‘फिर से?’। ‘और नहीं क्या’, लड़का आँखें नचाता हुआ बोला। प्रेम में ये उनका छोटा सा खेल था। वालेट में रेज़गारी के साथ सिगरेट का टुकड़ा था, लड़के ने बड़े प्यार से उसे चूम कर बाय बाय कहा और अभी की बुझायी सिगरेट बट को उसमें रख दिया। फिर उसने सिगरेट की डिब्बी लड़की को दे दी। उसमें उन्निस सिगरेटें बची थीं। लड़का हर बार जाने के पहले एक पैकेट सिगरेट ख़रीदता, उसमें से एक सिगरेट जला कर दोनों पीते और फिर वो सिगरेट का डिब्बा लड़की को दे कर चला जाता। कि साल में जब भी कभी मेरी बहुत याद आए तो एक सिगरेट जला लेना और हम साथ में सिगरेट पी रहे होंगे। लड़की हर बार पूछती, साल में सिर्फ़ उन्निस दिन बहुत याद करना, कुछ कम नहीं है, लड़का कहता कि नम्बर में न बाँधो तो प्यार इन्फ़िनिट हो जाएगा। मैं नहीं चाहता तुम मुझसे इतना प्यार करो, या कि मुझे इतना याद करो। कम की बाउंड्री वो सिगरेट से जला कर मार्क कर देता था। लड़की जिरह करती, मुझपर ही लिमिट क्यूँ। तुम कर सकते हो, जितना मर्ज़ी प्यार मुझसे… लड़का कहता, तुम ज़्यादा प्यार करती हो, तुम्हें ख़ुद की कोई लिमिट बनानी नहीं आती। मैं इतने से में नहीं बाँधूँगा तो तुम मेरे प्यार में पागल, घर बार छोड़ कर बुलेट लिए निकल जाओगी दुनिया के किसी भी रास्ते पर। लड़की उसके बेसिरपैर के तर्कों पर हँसती, हँसते हँसते आँख भर आती। 

लड़की ने गले से फ़िरोज़ी मफ़लर उतार कर थोड़ी देर हाथ में लिए लिए पूछा, ‘‘मैं तुम्हारा मफ़लर रख लूँ?’। ‘रख लो’… लड़की ने उसका जवाब सुनते सुनते भी लड़के के गले में मफ़लर लपेट दिया। ‘सॉरी, थोड़ा गीला होगा। इतना रोना नहीं चाहिए था मुझे, तुम पर खिलता है। बहुत शौक़ से लायी थी तुम्हारे लिए’। लड़के ने उसे बाँहों में भरा। दोनों के बदन से एक सी ख़ुशबू आ रही थी। धूप, धुएँ और आँसुओं में हल्के भीगे फ़िरोज़ी मफ़लर की।

इक पूरा लम्बा साल और क़ायदे से देखा जाए तो सिर्फ़ अट्ठारह सिगरेटें। कि लड़की आख़िरी सिगरेट बचा कर रखती थी जब तक लड़के से दुबारा मिल न ले। पहली सिगरेट एयरपोर्ट पर पीती। स्मोकिंग लाउंज में सिगरेट जलाने के लिए एक बटन होता था जो ज़ाहिर तौर से मर्दों की हाइट के लिए होता था…लड़की पंजों पर उचक कर सिगरेट जलाती। मुस्कुराती। कि लड़का होता तो उसकी सिगरेट जला देता। कश छोड़ते हुए छत को देखती लड़की…आँखें भर आतीं। सोचती, छत पर कुछ ख़ूबसूरत बना होना चाहिए कि जब वो कश छोड़ते हुए ऊपर देखे, तो महबूब की आँखें कुछ कम याद आएँ। 

पहला हफ़्ता सबसे मुश्किल गुज़रता। पहला महीना भी। 

स्टडी टेबल पर लिखते हुए सिगरेट जला लेती। काग़ज़ से लड़के की ख़ुशबू आती। उँगलियों पर फ़िरोज़ी स्याही लगी होती तो उसका मफ़लर याद आता। वो सिर्फ़ ख़त लिखना चाहती। या कि कविताएँ। कविता लिखना शुरू करती तो हिचकियाँ आने लगती बहुत। फिर वो स्टडी से बाहर छत पर आ जाती। आधा चाँद होता आसमान में… आधा उसकी आँखों में चुभता। उसे लगता सब कुछ आधा आधा ही है दुनिया में… आधी पी हुयी सिगरेट बुझा देती। चटाई बिछा कर लेट जाती और गुनगुनाती। लड़के ने दस सिगरेटें लगातार पी रखी होतीं उस शाम और सीने में जलन हो रही होती। वो छोटी छोटी साँस लेता। सीने पर हाथ रखता और जाने किससे कहता, ‘ओह, इतना याद मत किया करो जान।’। 

अगली सुबह लड़की अपना बैग तैयार करती। कुछ कॉटन की साड़ियाँ, शॉर्ट्स, टीशर्ट्स। लोर्का, बोर्हेस और सिंबोर्सका की किताबें। लैवेंडर इत्र। स्याही की बोतल। कलमें। एयरबीऐनबी पर एक स्टूडीओ बुक करती और समंदर किनारे के शहर को निकल पड़ती ड्राइव कर के। रास्ते में जैज़ सुनती, रफ़ी को भी और 90s के गाने भी। कई बार सोचती… काश कि उसका शहर देख पाती। लड़के का शहर कोई तिलिस्म लगता उसे। गूगल के थ्री डी मैप में देखती। गालियाँ, दुकानें, उसका दफ़्तर, उसकी सिगरेट की दुकान। सब कुछ रियल लगता। कि जैसे वो लड़का भी सिगरेट के डिब्बे पर लिखी झूठी वॉर्निंग नहीं है। सच में उससे इश्क़ करने से मर सकती है वो। 

पता नहीं साल कैसे बीतता। कितना वो जलती, कितना सिगरेट सुलगती। मुश्किल होने लगता अलग अलग शहरों में जीना। दायरों में बंध के मुहब्बत करना। लड़की चाहती कि ख़रीद ले एक पूरी पैकेट सिगरेट और एक साथ पी डाले। कि साँस साँस तकलीफ़ महसूस हो, तो शायद माने कि मुहब्बत कोई अच्छी चीज़ नहीं है। लिखने भर को की गयी मुहब्बत कब ज़िंदगी में अपना हिस्सा माँगने लगती है, तय नहीं किया जा सकता। कविताएँ लिख कर उसका दिल नहीं भरता। इरॉटिका लिखती। उसके दिमाग़ में वायलेंट लवमेकिंग के दृश्य उगते। नमकीन समंदर पानी में घुलता फ़िरोज़ी लड़का। फ़िरोज़ी स्याही से लिखे क़िस्सों के किरदार फ़िरोज़ी ही होते हैं, हमेशा। फ़िरोज़ी मफ़लर से बंद कर रखी होती है उसने उसकी आँखें…इतनी ज़ोर से पकड़ी है कलाई कि गुलाबी दाग़ पड़ गए हैं उसकी उँगलियों के… लड़की समंदर किनारे सोयी हुयी है। लहर आती जाती भिगोती है उसे। वो आँख बंद करती है खोलती है… सूरज जलता बुझता है। गोल गोल लाल नारंगी रोशनियाँ नाचती हैं उसकी बंद आँखों में… हिकी… तुम समझे नहीं मैं मफ़लर ही क्यूँ लायी तुम्हारे लिए, उफ़! 

सारी सिगरेटें पी गयी है लड़की। समंदर किनारे। पूरी धूप में जलती है। बालों में खारा पानी है। बदन पर रेत। बैरा ड्रिंक रख के गया है अभी दो मिनट पहले। विस्की ऑन द रॉक्स। एक ही घूँट में पी कर ग्लास नीचे रखती है और महसूसती है कि तीखी प्यास लगी है, सर घूम रहा है, सिगरेटें ख़त्म हैं और ये पहला ही महीना है। 

उसे मेसेज करती है, ‘सुनो, सिगरेट ख़त्म हो गयी हैं ग़लती से। भिजवा दो, या लेकर आ जाओ। मैं इस शहर में हूँ’। अगली सुबह फ़ोन देखती है तो ख़ुद को लानत भेजती है कि नशे में भी इतना होश रहता है कि कौन सा मेसेज सेंड करना है और कौन सा सेव ऐज ड्राफ़्ट। क़िस्सा लिखती है, लेकिन किसी किताब में छापने के लिए नहीं।

ब्लॉग है जो कि प्राइवेट है… उसमें भी पोस्ट्स कोई पब्लिश नहीं… लेकिन वे ड्राफ़्ट्स… वे मुहब्बत के नहीं, क़त्ल के ड्राफ़्ट हैं। लड़की सोचती है उससे कहेगी कभी, ‘सुनो, मुझसे समंदर किनारे किसी शहर में कभी मत मिलना’।

15 February, 2019

हमेशा टाइप के लोग

‘अच्छा ये बताओ, अगर ऐसा हो सके, कि तुम जो भी चुनोगे… उसे पूरी तरह भूल जाओगे, तो तुम क्या भूलना चाहोगे?’
‘तुम्हें’
‘मुझे?! मुझे क्यूँ भूलना चाहोगे तुम? मुझे तो तुम ठीक से जानते भी नहीं। अभी तो कुछ ख़ास है भी नहीं भूलने को। ठीक से सोच कर जवाब दो’
‘मतलब मैं इंतज़ार करूँ, तुम्हारे साथ भूलने को कुछ ख़ास हो जाए, तब भूलूँ तुम्हें?’
‘हाँ। ये अच्छा रहेगा’
'डूब मरो समंदर में तुम’
‘तुम भूल रहे हो, मेरे शहर में समंदर नहीं है…तुम्हारे शहर में है…तुम ही काहे नहीं डूब मरते समंदर में’

अजीब लड़की थी ये… और उससे भी अजीब उसकी बातें। उफ़। मतलब। कौन हँसता है ऐसे जैसे कोई उसकी हँसी का हिसाब नहीं रखता हो। कि हम सबको गिन के मुस्कुराहटें मिलती हैं कि नहीं, और हँसी का तो स्टॉक पूरी दुनिया में कम है, उसपर ये लड़की हँसती इतनी थी जैसे सारा स्टॉक अकेले ख़त्म कर देगी। वो तो अच्छा था कि उनके शहर एक दूसरे से इत्मीनान की दूरी पर थे। इतने क़रीब कि जब जी चाहे जा सकते थे और इतने दूर कि जब जी चाहे, तब तो हरगिज़ ही नहीं जा सकते। लड़का बस लौट ही रहा था ऑफ़िस से अभी। कितना अच्छा तो दिन गया था, स्क्रिप्ट क्लोज़ हुयी थी, दोस्त पार्टी पर खींच ले गए थे। थोड़ी सी चढ़ी थी, लेकिन शराब नहीं… ख़ुशी। टैक्सी और उस लड़की का मेसेज एक साथ आया। शहर का ट्रैफ़िक अच्छा लगा उसे। कमसेकम एक डेढ़ घंटे इत्मीनान से उससे बात कर सकता था। लम्बी, बेसिरपैर की बातें। 

‘तुम्हें पता है, कुछ शब्द इग्ज़िस्ट नहीं करते क्यूँकि किसी ने वैसा महसूस नहीं किया होता। हमारा काम होता है वे शब्द बनाना। जैसे कि भविष्य की याद। तुम। मान लो तुम्हारा नाम रख दूँ इस फ़ीलिंग के लिए। अपूर्वा। कि मुझे लगता है तुम मेरे भविष्य की याद हो। तुम्हारे साथ कितना सारा कुछ है जो कभी किसी रोज़ के नाम लिखना चाहता हूँ मुझे समझ नहीं आता। 
तुम्हारे लिए शहर बनाने का मन करता है। तुम्हारे शहर की बारिश चखने का मन करता है। मुझे लगता था मेरे शहर की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है ये समंदर… लेकिन तुमसे मिलने के बाद लगता है किसी शहर की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ बस तुम हो सकती हो।’
‘ऐसे थोड़े होता है’
‘अरे, नहीं होता है तो कहा क्यूँ था, बैंगलोर आना… यहाँ की सबसे अच्छी चीज़ मैं हूँ… मेरे साथ घूमोगे तो कुछ ठीक-ठाक लगेगा शहर, वरना इस शहर में कुछ भी नहीं है… बहुत ही बोरिंग जगह है’
‘तो मैंने तो सच ही कहा था। बैंगलोर है ही बोरिंग’
‘बोरिंग ठीक है। बोरिंग की याद नहीं आती। बोरिंग दुखता नहीं। बोरिंग को भूलने की मेहनत नहीं करनी पड़ती।’
‘तुम इतने आलसी क्यूँ हो?’
‘अरे सेल्फ़-प्रेज़र्वेशन कहते हैं इसे… आत्मरक्षा।’

‘तो तुम सच में मुझे भूल जाना चाहोगे?’
‘सच में कुछ ऐसा है जिससे तुम्हें पूरी तरह भूलना मुमकिन हो?’
‘शायद होगा, पर मैं तुम्हें पूरी तरह याद हो जाऊँ, फिर पता चलेगा’
‘और जो नहीं भूल पाया तो?’
‘तो फिर क्या, लिख लेना कोई कहानी, लिख के भूलना आता तो है तुम्हें’
‘सब कुछ लिख के भूलते नहीं…कुछ लिख के याद भी रह जाता है। हमेशा।’
‘तो मैं ‘हमेशा' टाइप हूँ?’
‘तुम अपने टाइप हो। तुम्हारा कोई टाइप नहीं है’
‘हम्म…’
‘बाय फिर?’
‘फिर? मेरा नाम भूल गए तुम?’
‘हाँ। यहाँ से शुरू करते हैं। नाम भूलने से’

‘ठीक’
‘ठीक’

13 February, 2019

ढेर सवाल जवाब में मत उलझो, बुड़बक बिल्ली, अचरज से ही मरती है

शाम से सोच रहे हैं कि तमीज़ की हद कहाँ खींची जाती है। अपने आप से मुझे समझ कब आएगा! इतना क्युरीयस क्यूँ हूँ हर चीज़ को लेकर। सवाल पे सवाल पे सवाल। ऐसे सवाल जो कोई सोचेगा भी नहीं। कुछ ज़्यादा ही कल्पना है हर चीज़ को लेकर और फिर कल्पना तथ्य के कितने क़रीब है, सो पता करने के सवाल। इतना अचरज लिए जीती हूँ। हर सुबह धूप को देखती हूँ तो लगता है पहले देखा नहीं इस रंग में। कुछ ज़्यादा ही दौड़ते हैं कल्पनाओं के घोड़े...

मतलब हमसे तो बात करना ही बेकार है। कोई अच्छा लगेगा तो उसके शहर, मौसम, गली, दोस्त, किताबें... सब जान लेना होगा हमें। 

मुझे दोस्तों की याद अक्सर शाम में आती है। दिन तो ऑफ़िस के कामकाज में फुर्र हो जाता है। शाम सूरज डूबता है तो जैसे दिल भी डूबने लगता है। ऐसा लगता है एक और दिन ख़त्म हुआ जिसमें उसकी आवाज़ का नशा नहीं घुला। कि जैसे सिगरेट, दारू, ड्रग्स वालों को तलब होती है... मुझे लोगों की आदत पड़ने लगती है जल्दी... उसमें भी सिर्फ़ ज़रा सी आवाज़ चाहिए होती है अक्सर। तो फ़ोन किया शाम को। कॉलेज में हमें जब वोईस ट्रेनिंग दी गयी थी तो फ़ोन पर बात करने के तरीक़े भी सिखाए गए थे, कुछ उस समय की ट्रेनिंग कुछ अपना जीवन का अनुभव... या तो फ़ोन में हेलो से समझ जाती हूँ, वरना पूछ लेती हूँ, व्यस्त तो नहीं हैं... अंग्रेज़ी में किया तो सिंपल, good time to talk? जब लोगों के पास फ़ुर्सत होती है तो फ़ोन उठा कर पहले शब्द जो वह कहते हैं उसमें घुल जाती है। कभी मेरा नाम, तो कभी सिर्फ़ हेलो, बहुत प्यार वाले लोग हुए तो जानेमन... 

तो कल शाम की बात थी। फ़ोन किया। सरकार की आवाज़ में ज़रा सी नीम नींद थी। ज़रा सा शाम का अँधेरा। मैंने पूछा, 'क्या कर रहे थे अभी'। उन्होंने कहा, 'नहाने जा रहा था'। मेरे जैसा मुँहफट इंसान... पूछने वाली थी, आप कौन सा साबुन लगाते हैं। फिर लगा ये बदतमीज़ वाला सवाल है...तो रोक लिया। पूछा नहीं। लेकिन मन में आयी बात ना कहें तो बाक़ियों के पेट में दर्द होता है साला हमारा माथा दुखा जाता है। सवाल सीधे दिमाग़ के थ्रू जाता है और अंदर बाहर अंदर बाहर करता रहता है। ख़ुशबुएँ खँगालता हुआ। सोचता हुआ कि उस जैसा आदमी...फिर लगता है, उस जैसा तो कोई दूसरा आदमी है ही नहीं... फिर भी क़सम से सिर्फ़ साबुन के बारे में सोचता हुआ... ना उसे नहाते हुए, ना उसका भीगा बदन... कुछ भी नहीं सोचा... सोचा बस ये कि वो किस साबुन से नहाता होगा। फिर दुनिया के सारे साबुनों और उसकी गंध में डूबती रही... जिनकी गंध मैं पहचानती हूँ। कितने सारे साबुन याद आए रात भर में। 

लिरिल - उसके साथ वाला ऐड्वर्टायज़्मेंट... पटना की गरमी वाले दिन, जिसमें हमेशा सिर्फ़ लिरिल ही लगाती थी। वो मेरे घर आया हुआ था  जस्ट नहा के निकला था बाथरूम से... मतलब तौलिया लपेट कर, उफ़! क्या ही कहें पहली बार किसी लड़के को वैसे देखा था। बदन पर ज़रा ज़रा पानी की बूँदें, साँवला रंग... पहली बार लगा इसी को रेड-हॉट कहते हैं। बदन जिस पर से पानी की बूँदें भाप बन कर उड़ जाएँ। हमने शरीफ़ लड़की की तरह नज़रें फेर लीं लेकिन वो दृश्य एकदम छप गया था था मिज़ाज में। हरारत की तरह। मैं उसे क़रीब से नहीं जानती थी तो ज़ाहिर सी बात है, गंध के बारे में कुछ नहीं पता था। बाथरूम में लिरिल की सांद्र गंध थी। मैं इसी साबुन से रोज़ नहाती थी लेकिन उस रोज़ पहली बार किसी की देह गंध भी घुली हुयी महसूस की। हिंदी के तो शब्द ही ख़त्म थे, अंग्रेज़ी से उधार लेने पड़े... heady cocktail of fragrances... कुछ ऐसा कि सर घूम जाए। 

सेंट औफ़ ए वुमन का वो सीन भी याद आया कल, कर्नल कहता है, मैं इस गंध को पहचानता हूँ और ठीक ठीक नाम बता देता है, ओगिल्वि सिस्टर्ज़ सोप। जो कि डौना को उसकी ग्रैंड्मदर ने दिए हैं। फिर अपनी लिखी वो कहानी जिसमें लड़का लड़की दोनों अपनी पसंद का साबुन लाने के लिए लड़ रहे होते हैं और आख़िरी लिरिल से ही नहाते हैं। पीयर्स मेरे नानाजी लगाया करते थे। ज़िंदगी भर उन्होंने अपना साबुन नहीं बदला। मुझे अब भी बचपन में लौटना होता है तो पीयर्स ले आती हूँ। पटना में जिस घर में रहते थे, वहाँ हमारे एक पड़ोसी थे, वो सिर्फ़ लाइफ़ बॉय ही लगाते थे। ये इसलिए पता चला कि हमलोग होली का रंग छुड़ाने के लिए हमेशा लाइफ़बॉय का इस्तेमाल करते थे। एक बार लाना भूल गए तो वो आंटी हम सब को नया साबुन ला के दे दी थी, सबको मालूम था। 

मेरे दिमाग़ में ख़ुशबुओं की पूरी डिक्शनरी है। जिसमें कई लोग रहते हैं। साबुन। पर्फ़्यूम। आफ़्टर शेव लोशन। मॉस्चराइज़र। कितना कुछ मालूम रहता है। किसी का हाथ चूमा था तो उसकी उँगलियों से सिगरेट की गंध आ रही थी। जो लोग मुझे पसंद होते हैं, उनकी गंध मुझे याद होती है। और अगर नहीं होती है तो बौराने लगते हैं। समंदर किनारे भटकते हुए आँख बंद करके पूरे ध्यान से याद करने की कोशिश करते हैं कि कैसी गंध थी उसकी। किसी स्टेशन पर विदा कहते हुए। आख़िरी बार गले लगते हुए गहरी साँस लेना और सोचना कुछ भी नहीं। जाती ट्रेन को देखना। ख़ाली स्टेशन पर भरी भरी आँख और भरा भरा दिल लिए गुनगुनाना। इश्क़ की ख़ुशबू लपेटना इर्द गिर्द... किसी नर्म सी शॉल जैसे। टहलना कच्ची सड़क पर, झील किनारे। 

कि जब सोची जा सकती हैं कितनी सारी चीज़ें, पूछा जा सकता है कितना सारा कुछ... उलझना इसी सवाल पर। कि कौन सा साबुन लगाता है वो। कैसी ख़ुशबू आती है उसके गीले बदन से। रात को नहा कर निकलता है तो हवा ठंडी और दीवानी हुयी जाती है। कि वो आदमी है कि तिलिस्म। खुलता ही नहीं। बाँधता है बाँहों में। ख़यालों में। कहानियों में। चुप्पी में भी। 

Curiosity killed the cat. हम भी ना, उफ़। मर जाएँ!
Read more: https://www.springfieldspringfield.co.uk/movie_script.php?movie=scent-of-a-woman

11 February, 2019

फ़रवरी की यूँही वाली कोई शाम

इधर अचानक से इस बात पर ध्यान गया कि एक आर्टिस्ट - लेखक मान लो, और बाक़ी लोगों में क्या अंतर होता है। घटना छोटी सी थी, लेकिन उससे पता चला कि कोई आर्टिस्ट हमेशा चीज़ों को उसके डिटेल्ज़ के साथ देखता है। जबकि आम तौर से लोग चीज़ों को हमेशा generalise कर के देखते हैं। मेरे लिए लोगों को किसी भी वर्गीकरण में रखना मुश्किल होता है। मैं जिन्हें जानती हूँ, उनके डिटेल्ज़ के साथ जानती हूँ। उनके शहर का आसमान, उनके वसंत के रंग, उनके पसंद की किताबें... उनकी आवाज़ की कोमलता, उनकी सहृदयता ... दोस्तों के साथ के उनके क़िस्से... सब से जानती हूँ ...

यहाँ मैं भी एक generalisation ही कर रही हूँ। लेकिन ऐसा देखा है कि किसी भी आर्टिस्ट की नज़र बहुत चीज़ों पर होती है। उसे रोज़ के आसमान के अलग रंग दिखते हैं। क्लाद मौने ने एक ही जगह के अलग अलग मौसमों में चित्र बनाए कि सूरज की रौशनी हर मौसम को अलग छटा बिखेरती थी। किसी भी महान कलाकृति में अक्सर छोटी छोटी चीज़ों पर पूरा अटेंशन दिया गया होता है। हमारे मन्दिरों में जो मूर्तियाँ होती हैं उनमें गंधर्वों और अप्सराओं के कपड़े इतने अलग अलग होते हैं कि किन्हीं दो पर एक डिज़ायन नहीं मिलता।

दूसरी जिस चीज़ पर कल ध्यान गया वो ये था कि हमें बचपन में जब वर्गीकरण सिखाया गया तो हर चीज़ को एक पहले से बेहतर या कमतर तरीक़े से आँकना ही सिखाया गया। दो चीज़ें अलग हो सकती हैं, जिनकी आपस में तुलना बेमानी है, ये कम सिखाया गया। हमेशा किसी दूसरे बच्चे से बेहतर होना, किसी से ज़्यादा मार्क लाना रिपोर्ट कार्ड में, दौड़ में आगे बढ़ना जैसी चीज़ें... लेकिन हम सबकी ज़िंदगी अलग अलग होगी और हम किसी से हमेशा कॉम्पटिशन में नहीं हैं, ये कम सिखाया गया। कम लोगों को सिखाया गया। इसलिए भले ही मैं किसी की तुलना में कुछ ज़्यादा हासिल करना नहीं चाहूँ, यहाँ कुछ लोग हमेशा होंगे जो मुझसे होड़ लगाएँगे। जिन्हें इस बात से ख़ुशी मिलेगी या दुःख होगा कि हम पीछे रह गए या आगे निकल गए.

मेरे घर में कभी बहुत ज़्यादा दबाव नहीं था कि बहुत ज़्यादा पढ़ो या उससे ज़्यादा नम्बर लाओ। हाँ, लोगों को ये शौक़ ज़रूर था कि मुझे ख़ूब ख़ूब पढ़ता देखें और टोकें, कि इतना मत पढ़ो। वो एक सुख मैंने कभी नहीं दिया किसी को। पता नहीं कैसे तो, पर बचपन में सीख गए थे कि क्लास में तीसरी या चौथी पोज़ीशन लाने के लिए बहुत कम पढ़ना पड़ता है लेकिन फ़र्स्ट आने के लिए बहुत ज़्यादा पढ़ना पड़ता है और उसके बाद भी चान्स है कि आप सेकंड कर जाएँगे। कितना भी पढ़ लो, फ़र्स्ट आने की गारंटी कभी नहीं है। तो हमने तय कर लिया था। पढ़ पढ़ के जान नहीं देना है। ज़िंदगी जिएँगे ख़ुश ख़ुश। IIMC में गए तो मालूम था कि बाद की ज़िंदगी पता नहीं कैसी होगी। यहाँ रिपोर्ट कार्ड तो मिलना नहीं है तो जितना वक़्त है, थोड़ा मज़े ले लेते हैं। 

माँ के नहीं रहने पर बहुत सी चीज़ों का हिसाब ही गड़बड़ा गया था। लोग मुझे मेरे बिखरे कमरे से जज करने की कोशिश करते और मैं उन्हें करने देती। अब भी मेरे घर में स्टडी को छोड़ के सब बिखरा हुआ ही है। लेकिन मैं जानती हूँ, मुझे हर चीज़ में फ़र्स्ट नहीं आना है। एक छोटी सी ज़िंदगी है। मुझे वो करना है जिसमें मुझे ख़ुशी मिलती है। जैसे कि लिखना। लूप में जैज़ सुनना। रात को साड़ी का आँचल लहराते, बाल खोल के डान्स करना। मैं कहानी अच्छी सुनाती हूँ, लिखती अच्छा हूँ। तो लिखना पढ़ना करेंगे। बाक़ी साफ़ घर रखने वाले लोग उसमें ख़ुशी पाते हैं तो करें। मेरे घर को जज करें तो हम उनसे सर्टिफ़िकेट लेने के इंतज़ार में तो हैं नहीं। 

चीज़ों की ये absoluteness या uniqueness मैंने अब बहुत हद तक समझी और सीखी... कि मुझे सबसे अच्छी चीज़ नहीं चाहिए... कुछ ख़ास चाहिए जो ख़ास कारणों से पसंद है। लोगों के साथ भी ऐसा ही है। मेरे क़िस्म के लोग। मेरे जैसे थोड़े थोड़े। कि इसलिए वो सिंपल सी फ़िल्म Ye Jawani Hai Deewani मुझे बहुत पसंद है। वो कहती है, तुम मुझसे बेहतर नहीं हो, बस मुझसे अलग हो। 

अपने आप को इस दौड़ से थोड़ा बाहर निकाल के रखना बहुत सुकूनदेह है। मेरे पास मेरे क़िस्म की किताबें, मेरे क़िस्म के लोग हैं। मेरी चुनी हुयी चुप्पी और मेरी चुनी हुयी बातें हैं। मेरे चुने हुए सुख और मेरे ना चुन पा सकने वाले दुःख हैं। कि ज़िंदगी मेहरबान है। और जितना है, वो काफ़ी है।

06 February, 2019

बंदिनी

'मैं किसी और से प्यार करती हूँ'।

दुनिया का सबसे मुश्किल कन्फ़ेशन हमें अपने प्रेमी से करना पड़ता है। उस प्रेमी से जो अभी तक 'पूर्व प्रेमी' नहीं हुआ है। हमारे वर्तमान में हमें उससे प्यार है, थोड़ा सा। जिन्होंने भी कभी ज़िंदगी में कई कई बार प्रेम किया है, वे जानते हैं कि एक बिंदु आता है जब हम ठीक दो इंसानों के प्रेम में होते हैं। एक हमारा अतीत होने वाला होता है और एक हमारा भविष्य... लेकिन उस वर्तमान में दोनों प्रेमी होते हैं। कभी कभी हम नए प्रेम को एक भूल का नाम देते हैं और अपने पुराने प्रेम के पास लौट जाते हैं। कभी कभी हम नए प्रेम को ज़्यादा गहराई से महसूसते हैं और पुराने प्रेम को विदा कहते हैं। 

हम घबराहट में जीते हैं कि जैसे मर जाना इससे ज़्यादा आसान होगा। अपना दिल हमें ख़ुद समझ नहीं आता कि आख़िर ऐसा हुआ क्यूँ। हमसे ग़लती कहाँ हुयी। क्या हमने किसी और एक साथ वक़्त ज़्यादा बिताया या उसके बारे में सोचने में वक़्त ज़्यादा बिताया। हम समझते हैं कि प्यार बहुत हद तक इन्वॉलंटरी है। अपने आप हो जाने वाला। हादसा कोई। एक लम्हे में हो जाने वाला इश्क़ भी होता है जिसे हम कुछ भी करके रोक नहीं सकते। कि जैसे गॉडफ़ादर फ़िल्म में होता है। बिजली गिरना कहते हैं जिसे सिसली में। Hit by a thunderbolt. इक नज़र देख कर हम जानते हैं कि कुछ भी पहले जैसा नहीं होगा और जाने कितना कितना वक़्त लगेगा उसे भूलने में। 

भीड़ में उसे दूर से आते हुए देखा था। पास आने पर उसकी आँखें देखीं। उसकी हँसी। साथ चलते हुए पाया कि हम आराम से टहल रहे थे जैसे कि वक़्त को कोई हड़बड़ी नहीं हो कहीं जाने की। कहाँ लिख पाते हैं उस लम्हे को। हूक जैसा लम्हा। सीने में कई कई परमाणु विस्फोट करता हुआ। हम कितने शांत रहते हैं ऊपर से। ज़मीन के कई कई फ़ीट नीचे परमाणु परीक्षण होते हैं फिर भी सतह पर ग़ुबार दिखता ही है। मेरे चेहरे पर मुहब्बत दिखती है। मेरे लिखे में उसकी आँखें दूर से चमकती हैं। मैं ही नहीं, दुनिया जानती है जब मैं इश्क़ में होती हूँ। ग़नीमत यही है कि इश्क़ में लगभग हमेशा ही होती हूँ तो दिक्कत थोड़ी कम आती है। सवाल जवाब कम होते हैं। 

मैं इश्क़ में हूँ। ऐसे इश्क़ के जो चुप्पा हो गया है। चाहता है बाक़ी सभी प्रेमियों से कह दूँ, देखो… अब मुझे सिर्फ़ एक उसी से प्यार है। भले ही इसके बाद वे सब मुझसे बात करना बंद कर दें। कितनी भी तन्हाई आ जाए ज़िंदगी में, झूठ तो नहीं कह सकती न। कि दिल वाक़ई एक उसके सिवा कोई नाम नहीं लेता। कोई धुन नहीं बहती मेरे अंधेरे में। कोई और शहर पसंद नहीं आता। फिर उसकी चुप्पी भी तो ऐसी ही है, कितनी कहानियाँ रचती हुयी। वो जाने क्या सोचता है मेरे बारे में। हम क्या हैं। जस्ट गुड फ़्रेंड्ज़? या उसे भी थोड़ा डर लगता है मेरे क़रीब आने से। अपनी ज़िंदगी से थोड़े से रंग वो मेरे शहर भी भेजना चाहता है या नहीं। सोचता भी है, कभी?

मर्द अजीब होते हैं। एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर में भी लॉयल्टी की दरकार रखते हैं। औरतें लेकिन कोई हक़ नहीं माँगतीं। ऐसा क्यूँ है? मेरा मन क्यूँ करने लगा है कि दूसरी औरतों के लिए कोई परचम लहराऊँ… समझाऊँ उन मर्दों को कि वे तुम पर यूँ ही मर मिटी हैं। कल किसी और पर मर मिटेंगी। तुम उनके होने में हमेशा की कामना क्यूँ करते हो। प्यार में हमेशा जैसी कोई चीज़ होती तो तुम अपनी बीवी से और वो अपने पति से प्यार नहीं करती। शादी का मतलब तो यही होता है। फिर पूरी दुनिया में इतने सारे अफ़ेयर होते ही क्यूँ हैं? क्यूँ वही चीज़ चाहिए होती है जिसपर किसी और का नाम लिखा हो? कि सारे मनुष्य इस बंधन में स्वाभाविक रूप से नहीं बन्धते। कुछ ग़लती से भी आ जाते हैं कूचा ए क़ातिल, अर्थात शादी के मंडप में। ये औरतें जब कहें कि वे किसी और से प्यार करती हैं अब… और सवाल पूछें, can we still be friends? तो या तो दिल बड़ा कर के हाँ कह दो… या दो क़दम पीछे हट के कहो, कि शायद भविष्य में किसी दिन… लेकिन फ़िलहाल तुम्हें किसी और के साथ सोच नहीं सकता। इतना ही होता है ना। कोई उस औरत का भी तो सोचो… कितने मुश्किल से कह पायी होगी तुमसे। कि ज़रा सा प्यार तो होगा ही … अगर नहीं होता तो तुम्हारी बेरुख़ी से उसे तकलीफ़ थोड़े होती। उसे तुम्हारा दुखना परेशान नहीं करता। अपनी बात कहती और भूल जाती। लेकिन इश्क़ कमबख़्त होता ही ऐसा दुष्ट है। सबको बराबर से नहीं होता… एक समय नहीं होता। तभी तो… ‘Love is all a matter of timing’, 2046 में देखते हुए समझ आता है। इस बहती दुनिया में हम सब अलग अलग वक़्त में प्रेम कर रहे होते हैं। जी रहे होते हैं अपने एकल यूनिवर्स में… एकदम अकेले। लेकिन ज़रा भी अधूरे नहीं। हमें यक़ीन है, हमारे वक़्त में वो ज़रूर आएगा, ठीक सामने… सिगरेट का गहरा कश खींचता हुआ। बिना अलविदा कहे, बिना मुड़ के देखे लौट जाने को। 

प्रेम। क़िस्से कहानियों का प्रेम। किरदारों का प्रेम। जिन्हें सामने बिठा कर कह नहीं सकते कि इतनी मुहब्बत है तुमसे कि नॉवल पूरा नहीं कर रही कि उसमें तुम्हारी मृत्यु लिखनी है। प्रेम से कहाँ कह पाती हूँ कि दिल का टूटना भी क़ुबूल है, इसमें मर जाना भी। मेरे सपनों में दिखता है वो। एक फ़िक्स्ड दूरी पर। कवियों, लेखकों के डॉक्टर भी अलग क़िस्म के होने चाहिए। कैसे समझाऊँ कि वजूद के बीच दुखता है उसका न होना। उससे न कह पाना कि प्यार है तुमसे। मेसेज के आख़िर में hugs वाली स्माइली नहीं भेज पाना। कि शाम दुखती है सीने में… सिर्फ़ इसलिए कि एक और दिन बीत गया उससे दूर… बिना उससे कोई भी बात किए हुए… बिना उसे देखे हुए, छुए हुए। कि हम रहना चाहते हैं उसके शहर में। सिर्फ़ इस सुख में कि हम एक आसमान के नीचे ऐसी सड़कों पर हैं जो उस तक दौड़ के पहुँच जाएँगी। वो बिसर जाएगा, एक दिन। लेकिन उसके पहले कितनी कितनी बार मरूँगी मैं। अब तो याद भी नहीं आता कितने दिन हुए उससे मिले हुए। कितने साल। कि मैं इस घबराहट में कैसे जियूँ कि उससे दुबारा मिले बिना मर गयी तो! 

कर दो माफ़ हमें। नहीं कर सकते अब किसी से भी प्यार। हमारे दिल पर एक उस डकैत ने क़ब्ज़ा जमाया हुआ है। पहरा देता है दिन रात दुनाली टाँगे हुए। किसी को दाख़िला नहीं मिलेगा अब। दिक्कत ये भी है कि तुम्हें लड़ने भी नहीं देंगे उससे। मान लो जो गोला बारूद, रॉकट लौंचर लिए आ भी गए तुम तो जाने ही नहीं देंगे उस तक हम। मेरे जीते जी तुम उसकी मुस्कान की चमक भी नहीं छू पाओगे। इसलिए, विनती है… हमें भूल जाओ… हम किसी और से प्यार करते हैं।

मुहब्बत इसी अजीब शय का नाम है जहाँ ख़ुद ही डालते हैं बेड़ियाँ और करते हैं आत्मसमर्पण... फिर अपना ही नाम देते हैं - बंदिनी।

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