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15 September, 2014

चार दिन की जिन्दगी है, तीन रोज़ इश्क़



कॉफ़ी का एक ही दस्तूर हो...उसका रंग मेरी रूह से ज्यादा सियाह हो. लड़की पागल थी. शब्दों पर यकीन नहीं करती थी. उसे जाते हुए उसकी आँखों में रौशनी का कोई रंग दिख जाता था...उसकी मुस्कराहट में कोई कोमलता दिख जाती थी और वो उसकी कही सारी बातों को झुठला देती थी. यूँ भी हमारा मन बस वही तो मानना चाहता है जो हम पहले से मान चुके होते हैं. किसी के शब्दों का क्या असर होना होता है फिर. तुम्हारे भी शब्दों का. तुम क्या खुदा हो.
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दोनों सखियाँ रोज शाम को मिलती थीं. उनके अपने दस्तूर थे. रात को थपकियाँ देती लड़की सोचती थी कि अगली सुबह किसी दूर के द्वीप का टिकट कटा लेगी और चली जायेगी इतनी दूर कि चाह कर भी इस जिंदगी में लौटना न हो सके. उसका एक ही सवाल होता था हमेशा...वो चाहती थी कि कोई हो जो सच को झुठला दे...बार बार उससे एक ही सवाल पूछती थी...
'प्लीज टेल मी आई डोंट लव हिम...प्लीज'
वो इस तकलीफ के साथ जी ही नहीं पाती थी...मगर कोई भी नहीं था जिसमें साहस का वो टुकड़ा बचा हो जो उसकी सियाह आँखों में देख कर सफ़ेद झूठ कह सके...यू डोंट लव हिम एनीमोर...

तब तक की यातना थी. शाम का बारिश के बाद का फीका पड़ा हुआ रंग था. घर भर में बिना तह किये कपड़े थे. वेस्ट बास्केट में फिंके हुए उसके पुराने शर्ट्स थे जो जाने कितने सालों से अपने धुलने का इंतज़ार करते करते नयेपन की खुशबू खो चुके थे. सबसे ऊपर बिलकुल नयी शर्ट थी, एक बार पहनी हुयी...जिसकी क्रीज में उसका पहला हग रखा हुआ था. उसी रात लड़के ने पहली बार चाँद आसमान से तोड़ कर शर्ट की पॉकेट में रख लिया था. तब से लड़की सोच रही है कि चाँद को कमसे कम धो कर, सुखा कर और आयरन कर वापस आसमान में भेज दे...मगर नहीं...इससे क्रीजेस टूट जाएँगी और उसके स्पर्श का सारा जादू बिसर जाएगा. दुनिया में लोग रोजे करते करते मर जाएँ इससे उसे क्या. वो भी तो मर रही है लड़के के बिना. किसी ने कहा जा के उससे कि वो प्यार करती है उससे. फिर. फिर क्या पूरी दुनिया के ईद का जिम्मा उसका थोड़े है. और चाँद कोई इतना जरूरी होता तो अब तक खोजी एजेंसियों ने तलाश लिया होता उसे. मगर लड़की ड्राईक्लीनर्स को थोड़े न उसकी शर्ट दे देगी. पहली. आखिरी. 

फूलदान में पुराने फूल पड़े हुए थे. कितने सालों से घर में ताज़े फूलों की खुशबू नहीं बिखरी थी. लड़की ने तो फूल खरीदने उसी दिन बंद कर दिए थे जिस दिन लड़के ने जाते हुए उसके लिए पीले गुलाबों का गुलदस्ता ख़रीदा था. हम उम्र भर दोस्त रहेंगे. वो उसे कैसे बताती, कि जिस्म में इश्क का जहर दौड़ रहा है...जब तक कलाई में ब्लेड मार कर सारा खून बहाया नहीं जाएगा ये दोस्ती का नया जुमला जिंदगी में कुछ खुशनुमा नहीं ला सकता...मगर इतना करने की हिम्मत किसे होती भला...उसकी कलाइयाँ बेहद खूबसूरत थीं...नीलगिरी के पेड़ों जैसी...सफ़ेद. उनसे खुशबू भी वैसी ही भीनी सी उठती थी. नीलगिरी के पत्तों को मसलने पर उँगलियों में जरा जरा सा तेल जैसा कुछ रह जाता था...उसे छूने पर रह जाती थी वो जरा जरा सी...फिर कागजों में, कविताओं में, सब जगह बस जाती थी उसकी देहगंध.

लड़की को अपनी बात पर कभी यकीन नहीं होता था. वो तो लड़के के बारे में कभी सोचती भी नहीं थी. मगर उसे यकीन ही नहीं होता था कि वो उसे भूल चुकी है. उसे अभी भी कई चौराहों पर लड़के की आँखों के निशान मिल जाते थे...लड़का अब भी उसे ऐसे देखता था जैसे कोई रिश्ता है...गहरा...नील नदी से गहरा...वो क्यूँ मिलता था उससे इतने इसरार से...काँधे पर हल्के से हाथ भी रखता था तो लड़की अगले कई सालों तक अपनी खुशबू में भी बहक बहक जाती थी. मगर इससे ये कहाँ साबित होता था कि वो लड़के से प्यार करती है. वो रोज खुद को तसल्ली देती, मौसमी बुखार है. उतर जाएगा. जुबां के नीचे दालचीनी का टुकड़ा रखती...कि ऐसा ही था न उसके होठों का स्वाद...मगर याद में कहाँ आता था टहलता हुआ लड़का कभी. याद में कहाँ आती थी साझी शामें जब कि साथ चलते हुए गलती से हाथ छू जाएँ...किसी दूकान के शेड के नीचे बारिशों वाले दिन सिगरेट पीने वाले दिन कहाँ आते थे अब...वो कहाँ आता था...अपनी बांहों में भरता हुआ...कहता हुआ कि आई डोंट लव यू...यू नो दैट...मगर फिर भी तुम हो इतना काफी है मेरे लिए. उसे 'काफी होना' नहीं चाहिए था. उसे सब कुछ चाहिए था. मर जाने वाला इश्क. उससे कम में जीना कहाँ आया था जिद्दी लड़की को. किसी दूसरे शहर का टिकट भी तो इसलिए कटाया था न कि उसकी यादों से न सही, उससे तो दूर रह लेगी कुछ रोज़...

अपनी सखी से मिलती थी हर रोज़...सुनाती थी लड़के के किस्से...सुनाती थी और बहुत से देशों की कहानियां...और जैसे कोई ड्रग एडिक्ट पूछता है डॉक्टर से कि मर्ज एकदम लाइलाज है कि कोई उपाय है...पूछती थी उससे...

'प्लीज टेल मी आई डोंट लव हिम, प्लीज'.

20 May, 2012

ताला लगाने के पहले खड़े होकर सोचना...कुछ देर. फिर जाना.

यूँ तो ख्वाहिशें अक्सर अमूर्त होती हैं...उनका ठीक ठीक आकार नहीं नहीं होता...अक्सर धुंध में ही कुछ तलाशती रहती हूँ कि मुझे चाहिए क्या...मगर एक ख्वाहिश है जिसकी सीमाएं निर्धारित हैं...जिसका होना अपनेआप में सम्पूर्ण है...तुम्हें किसी दिन वाकई 'तुम' कह कर बुलाना. ये ख्वाहिश कुछ वैसी ही है जैसे डूबते सूरज की रौशनी को कुछ देर मुट्ठी में भर लेने की ख्वाहिश.

शाम के इस गहराते अन्धकार में चाहती हूँ कभी इतना सा हक हो बस कि आपको 'तुम' कह सकूं...कि ये जो मीलों की दूरी है, शायद इस छोटे से शब्द में कम हो जाए. आज आपकी एक नयी तस्वीर देखी...आपकी आँखें इतनी करीब लगीं जैसे कई सारे सवाल पूछ गयी हों...शायद आपको इतना सोचती रहती हूँ कि लगता है आपका कोई थ्री डी प्रोजेक्शन मेरे साथ ही रहता है हमेशा. इसी घर में चलता, फिरता, कॉफी की चुस्कियां लेता...कई बार तो लगता भी है कि मेरे कप में से किसी ने थोड़ी सी कॉफी पी ली हो...अचानक देखती हूँ कि कप में लेवल थोड़ा नीचे उतर गया है...सच बताओ, आप यहीं कहीं रहने लगे हो क्या?

ये 'आप' की दीवार बहुत बड़ी होती है...इसे पार करना मेरे लिए नामुमकिन है...हमेशा मेरे आपके बीच एक फासला सा लगता है. जाने कैसे बर्लिन की दीवार याद आती है...जबकि मैंने देखी नहीं है...हाँ एक डॉक्यूमेंट्री याद आती है जिसमें लोग उस दीवार के पार जाने के लिए तिकड़म कर रहे हैं...गिरते पड़ते उस पार चले भी जाते हैं...कुछ को दीवार के रखवाले संतरी गोलियों से मार गिराते हैं फिर भी लोगों का दीवार को पार करना नहीं रुकता है. अजीब अहसास हुआ था, जैसे सरहदें वाकई दिलों में बनें तभी कोई  बात है वरना कोई भी दीवार लोगों को रोक नहीं सकती है. मैंने एकलौती सरहद भारत-पाकिस्तान की वाघा बोर्डर पर देखी है...उस वक्त सरसों के फूलों का मौसम था...और बोर्डर के बीच के नो मैंस लैंड पर भी कुछ सरसों के खेत दिख रहे थे. बोर्डर को देखना अजीब लगा था...यकीन ही नहीं हुआ था कि वाकई सिर्फ कांटे लगी बाड़ के उस पार पकिस्तान है...ऐसा देश जहाँ जाना नामुमकिन सा है. बोर्डर की सेरिमनी के वक्त गला भर आया था और आँखें एकदम रो पड़ी थीं...सिर्फ मेरी ही नहीं...बोर्डर के उस पार के लोगों की भी...हालाँकि मुझे उनकी आँखें दिख नहीं रहीं थी जबकि उस वक्त मुझे चश्मा नहीं लगा था. पर मुझे मालूम था...हवा ही ऐसी भीगी सी हो गयी थी.

आपको याद करते हुए कुछ गानों का कोलाज सा बन रहा है जिसमें पहला गाना है जॉन लेनन का 'इमैजिन'. इसमें एक ऐसी दुनिया की कल्पना है जिसमें कोई सरहदें नहीं हैं और दुनिया भर के लोग प्यार मुहब्बत से एक दूसरे के साथ रहते हैं...'You may say I'm a dreamer, but I am not the only one'...कैसी हसीन चीज़ होती है न मुहब्बत कि यादों में भी सब अच्छा और खूबसूरत ही उगता है...दर्द की अनगिन शामें नहीं होतीं...तड़पती दुपहरें नहीं होतीं. आपने 'strawberry fields forever' सुना है? एक रंग बिरंगी दुनिया...सपनीली...जहाँ कुछ भी सच नहीं है...नथिंग इज रियल. मेरी पसंदीदा इन द मूड फॉर लव का बैकग्राउंड स्कोर भी साथ ही बज रहा है पीछे. बाकियों का कुछ अब याद नहीं आ रहा...सब आपस में मिल सा गया है जैसे अचानक से पेंट का डब्बा गिरा हो और सारे रंग की शीशियाँ टूट गयीं.

कल सपने में देखा कि जंग छिड़ी हुयी है और चारों तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...पर हमारे पास बचने के अलावा कोई उपाय नहीं है...सामने से दुश्मन आता है पर मेरे हाथ में एक रिवोल्वर तक नहीं है...मैं बस बचने की कोशिश करती हूँ. एक इक्केनुमा गाड़ी है जिसमें मेरे साथ कुछ और लोग बैठे हैं...ऊपर से प्लेन जाते हैं पर वो भी गोलियाँ चलाते हैं...कुछ लोग मुस्कुराते हुए आते हैं पर उनके हाथ में हथगोला होता है...हम चीखते हुए भागते हैं वहां से. छर्रों से थोड़ा सा ही बचा है पैर ज़ख़्मी होने से...कुछ गोलियाँ कंधे को छू कर निकली हैं और वहाँ से खून बहने लगा है. सब तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...कोई सुरक्षित जगह ही नहीं है...मुझे समझ नहीं आता कि कहाँ जाऊं. फिर एक मार्केट में एक दूकान है जहाँ एक औरत से बात कर रही हूँ...उनके पास कोई तो बहुत मोटा सा कपड़ा है जिससे जिरहबख्तर जैसा कुछ बनाया जा सकता है लेकिन औरत बहुत घबरायी हुई है, उसके साथ उसकी छोटी बेटी भी है...बेटी बेहद खुश है. सपने में किसी ने सर पर गोली मारी है...मुझे याद नहीं कि मैं मरी हूँ कि नहीं लेकिन सब काला, सियाह होते गया है.

मुझे मालूम नहीं ऐसा सपना क्यूँ आया...कल ये ड्राफ्ट आधा छोड़ कर सोयी थी...

कुछ बेहद व्यस्त दिन सामने दिख रहे हैं...तब मुझे ऐसे फुर्सत से याद करके गीतों का कोलाज बनाने की फुर्सत नहीं मिलेगी...याद से भूल जायेंगे सारी फिल्मों के बैकग्राउंड स्कोर्स...कविताएं नहीं रहेंगी...लिखने का वक्त नहीं रहेगा...फिर मेरे सारे दोस्त खो जायेंगे बहुत समय के लिए. कल नील ने फोन कर के झगड़ा किया कि तू मुझे क्या नहीं बता रही है...तू है कहाँ और तुझे क्या हुआ है. बहुत दिन बाद किसी ने इतना झगड़ा किया था...मुझे बहुत अच्छा लगा. मैंने उसे झूठे मूठे कुछ समझा कर शांत किया...फिर कहा मिलते हैं किसी दिन...बहुत दिन हुए. मैं बस ऐसे ही वादे करती हूँ मिलने के. मिलती किसी से नहीं हूँ. आजकल किसी किसी दिन बेसुध हो जाने का मन करता है...मगर मेरे ऊपर पेनकिलर असर नहीं करते और मुझे किसी तरह का नशा नहीं चढ़ता. मैं हमेशा होश में रहती हूँ.

एक सरहद खींच दी है अपने इर्द गिर्द...इससे सुरक्षित होने का अहसास होता है...इससे अकेले होने का अहसास भी होता है.

10 February, 2012

Write a letter to me.

किसी दिन तुम मांग लोगे ये सारे दिन वापस जो मैंने तुमसे बात करते हुए बिताये थे...ये कहते हुए कि ये दिन तुम्हारे थे...ये घंटे तुम्हारे थे...कि इनका कोई बेहतर इस्तेमाल हो सकता था मेरी बकवास बातों के अलावा...मैं जो इतनी पागल हूँ कि अपने लम्हे भी करीने से लगा के नहीं रखती...तुम्हें तुम्हारे दिनों, लम्हों, सालों के साथ गलती से भेज दूँगी मेरी कुछ उदास दोपहरें भी...कुछ चुप्पी रातें भी...गलती से मिक्स हो जायेंगे मेरे और तुम्हारे दिन जब मैं तुम्हें लौटाऊंगी तुम्हारे लम्हे. तुम कितने दिन बर्बाद करोगे उस पुलिंदे से अपने हिस्से के लम्हे तलाशते हुए...जाने दो न...रहने दो न मेरा जो है...क्यूँ चाहिए तुम्हें ये लम्हे...इत्ती लम्बी तो है ही जिंदगी कि मैं कुछ लम्हों पर अपना हक मांग सकूँ. 

दोनों सवाल उतने ही जरूरी हैं...वो मुझे इतना क्यों जानता है...वो मुझे इतना कैसे जानता है...

पूरी पूरी रात नीम बेहोशी में बड़बड़ाती रही 'तुम मेरे कोई नहीं हो'...सुबह उठने तक भी इस बात पर यकीन नहीं होता है. तुमसे बात करती हूँ तो सारे वक़्त मैं ही बोलती रहती हूँ...तुम्हारी शायद ही कोई बात सुनती हूँ फिर भी लगता है तुम्हें बहुत जानती हूँ...तुमसे झगड़ा भी कर लूंगी...पर वाकई सिर्फ ये जानने से कि तुम्हारी जिंदगी में क्या क्या हुआ तुम्हारा जिंदगीनामा लिखा जा सकता है, यू नो ऑटोबायोग्राफी...पर तुम्हें जान नहीं सकता कोई. पता नहीं क्यों...लगता है कि तुम्हारी दोस्त होती...कोई बहुत पुरानी दोस्त होती तो तुम्हें बहुत अच्छे से जान पाती...फिर किसी रात इतना न रोती...तुमसे झगड़ा करती कि तुम्हें तुमसे ज्यादा जानती हूँ, बहस मत करो मुझसे.

किसको यकीन दिलाना चाहती हूँ...खुद को ही न...तुम्हें क्यों कहती हूँ फिर...बार बार बार...आज खुद ही जिद्द करके तुमसे फोन रखवाया...इतने सालों में...अब पता है कैसा लग रहा है...जैसे अचानक तुम कहीं बिछड़ गए हो...जैसे भीड़ में चलते हुए अचानक से तुम्हारा हाथ छूट गया है मेरे हाथ से और मैं इत्ती छोटी सी हूँ कि तुम मुझे ढूंढ नहीं पाओगे और मैं इतनी पागल भी तो हूँ कि कहीं तुम्हारा इंतज़ार नहीं करुँगी...उस शहर से बाहर को जो हाइवे जाता है वहां निकल पडूँगी...मर गयी तो ठीक वरना वैसे भी तुम्हारे बिना दूसरे किसी शहर में जीना कोई कम तकलीफदेह थोड़े है.

मुझे एक चिट्ठी लिखो न...मैंने तुम्हें कितनी सारी चिट्ठियां लिखी हैं...तुम ही न कहते हो तुम्हें बातें करना नहीं आता...पर जवाब देना आता है...मेरी किसी चिट्ठी का जवाब दे दो...कभी...मर जाउंगी न तो बहुत अफ़सोस करोगे...देखना...फिर मेरी चिट्ठियां देखना...तब वो 'येडा येडा येडा' नहीं लगेंगी...वैसे चिट्ठियां तुम्हें लिखती हूँ पर उनमें खुद को बचा जाने की कोशिश ही तो है...गनीमत है तुम्हारे पास मेरी चिट्ठियां तो हैं...कहीं किसी को यकीन तो होगा कि ये लड़की जिन्दा थी कभी...कि उसने वाकई कागज़ पर कलम से चिट्ठियां लिखीं थी...और तुम झूठ कहते हो...मैं नहीं जी रही पचासी बरस तक...मेरे पास बहुत कम जिंदगी है...बहुत कम. तो प्लीज मुझे एक चिट्ठी लिख दो ना...तुम कौन सा मुझ से प्यार करते हो जो लिखने में तुम्हें दिक्कत आएगी. पता है, पहले तुम मुझसे बात करते थे तो कभी कभी मजाक में मुझे स्वीटहार्ट कह देते थे...मैं कैसे पिघल जाती थी तुम्हें नहीं पता...कितनी मुश्किल से छुपा जाती थी अपनी मुस्कान...

वाकई कोई हो...कोई हो जो बिठा के समझाए...बेटा ये जिंदगी होती है...ये रिश्ते होते हैं...रास्ते इधर के होते हैं...कुछ लोग मिलते हैं, कुछ लोग अपने रस्ते चले जाते हैं...कोई हो जो बतलाये कि तुम मेरे क्या हो...कि आखिर क्यों इतने कुछ हो तुम मेरे...क्यों...क्यों...क्यों...मुझे सुना हुआ याद नहीं होता...उस किसी को मुझे गले लगाके बताना होगा कि तुम क्या हो मेरे...कि क्यों तुम्हारे छू देने से जी जाती हूँ मैं...बताओ ना...तुम्हारे छू लेने से कैसे जी जाती हूँ मैं...उस किसी को कहो न कि मुझे समझाए कि तुम एकदम आम से इंसान हो...तुम में कुछ ख़ास नहीं है...मैं ही जो पागलों की तरह प्यार करती हूँ तुमसे इसलिए सब मुझसे है...मेरे इतने सारे 'I shouldn't have loved you this much' मुझे खुद ही समझ नहीं आते...मुझे कोई समझाता क्यूँ नहीं है यार!


किसी दिन इतनी पी लेना कि सच और झूठ में अंतर पता नहीं चले...मुझे कोई और समझ कर 'I love you' कह देना...कोई भी और...जिसपर भी तुम्हें प्यार आता हो...बस एक बार...बस एक बार...बस एक बार. मैं भी भूल जाउंगी उस लम्हे को जिंदगी भर के लिए...मगर...मौत के पहले के उस एक लम्हे में जब जिंदगी की फिल्म रिवाईंड होगी...उस लम्हे इस झूठ को याद कर लेने देना कि जब तुमने मुझे 'आई लव यू' कहा था. 

04 February, 2012

अश्क़ और इश्क़ में एक हर्फ़ का ही तो फर्क है.

तुम्हारी जिंदगी में मेरी क्या जगह है?’
तिल भर
बस?’
हाँ, बस। बायें हाथ की तर्जनी पर, नाखून से जरा ऊपर की तरफ एक काले रंग का तिल है...वही तुम हो।‘’
वहीं क्यूँ भला?’
दाहिने हाथ से लिखती हूँ न, इसलिए
ये कैसी बेतुकी बात है?’
अच्छा जी, हम करें तो बेतुकी बात, तुम कहो तो कविता
मैंने कभी कुछ कहा है कविता के बारे में, कभी तुम्हें सुनाया है कुछ...तो ताने क्यों दे रही हो?’
नहीं...मगर मैंने तुम्हारी डायरी पढ़ी है
तुम्हें किसी चीज़ से डर लगता भी है, क्यूँ पढ़ी मेरी डायरी बिना पूछे?’
तुम मेरी जिंदगी में किसकी इजाजत ले कर आए थे?’
तुमने कभी कहा कि यहाँ आने का गेटपास लगता है? फिर तुमने वापस क्यूँ नहीं भेजा?’

तुम शतरंज अच्छी खेलते हो न?’
तुम मुझसे प्यार करती हो न?’
तुमसे तो कोई भी प्यार करेगा
मैंने ओपिनियन पोल नहीं पूछी तुमसे...तुम अपनी बात क्यूँ नहीं करती?’

मेरे मरने की खबर तुम तक बहुत देर में पहुंचेगी, जब तुम फूट फूट कर रोना चाहोगे मेरे शहर के किसी अजनबी के सामने तो वो कहेगा "अब तो बहुत साल हुये उसे दुनिया छोड़े...अब क्या रोना.....तुम्हें किसी ने बताया नहीं था....अब तो उसे सब भूल चुके हैं"...'
तुम मुझसे पहले नहीं मरने वाली हो, इतना मुझे यकीन है
अच्छा तो अब काफिर नमाज़ी होने चला है, तुम कब से इतनी उम्मीदों पर जीने लगे?’

लड़के ने लड़की का बायाँ हाथ अपने हाथ में लिया और तिल वाली जगह को हल्के हल्के उंगली से रगड़ने लगा। लड़की खिलखिलाने लगी।
क्या कर रहे हो?’
तुम्हारा क्या ठिकाना है लड़की, देख रहा हूँ कि सच में तिल ही है न कि तुमने मुझे बहलाया है
भरोसा नहीं हमपे और इश्क़ की बातें करते हो! बचपन से है तिल...कुछ लिखते समय जब कॉपी को पकड़ती हूँ तो हमेशा सामने दिखता है। ये तिल मेरे लिख हर लफ्ज का नजरबट्टू है...तुम्हें चिट्ठी लिखती हूँ तो वो थोड़ा सा फिसल कर तुम्हारे नाम के चन्द्रबिन्दु में चला जाता है।
यानि तुम्हारे साथ हमेशा रहूँगा...चलो तिल भर ही सही
ऐसा कुछ पक्का नहीं...दायें हाथ में एक तिल था...अनामिका उंगली में...पता है उसके कारण वो उंगली ढूंढो वाला खेल कभी खेल नहीं पाती थी...साफ दिख जाता था...वो तिल मुझे बहुत पसंद था...कुछ साल पहले गायब हो गया। आज भी उसे मिस करती हूँ...अपना हाथ अपना नहीं लगता।

तुम चली क्यूँ नहीं जाती मुझे छोड़ कर?’
इस भुलावे में क्यूँ हो कि तुम मेरे हो? मैंने कोई हक़ जताया तुमपर कभी? कुछ मांगा? तुमने कुछ दिया मुझे कभी? तो तुम कैसे मेरे हो? आँखें मीचते उठो...मैंने आज सुबह ही उगते सूरज से दुआ मांगी है...दिल पे हाथ रख के...कि तुम मुझे भूल जाओ।

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एक दिन बाद।

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तुमसे पहली बार बात कर रहा हूँ, फिर भी तुम मुझे जाने क्यूँ बहुत अपनी लग रही हो...जैसे कितने सालों से जानता हूँ तुमको...माफ करना...पहली बार में ऐसी बातें कर रहा हूँ तुम भी जाने क्या सोचोगी...पर कहे बिना रहा नहीं गया।'
इस बार लड़की कुछ न कह सकी, उसकी आँखों में पिछले कई हज़ार साल के अश्क़ उमड़ आए।
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उस नासमझ लड़की की दोनों दुआएँ कुबूल हो गईं थी।
लड़का उसे हर सिम्त भूल जाता था।
वो उस लड़के को कोई सिम्त नहीं भूल पाती थी।

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जब हम किसी से बहुत प्यार करते हैं तो उसकी खुशी की खातिर दुआएँ मांग तो लेते हैं...पर यही दुआएँ कुबूल हो जाएँ तो जान तुम्हारी कसम...ये इश्क़ जान ले लेगा हमारी किसी रोज़ अब। 

28 January, 2012

जिंदगी से लबरेज़...मुस्कुराहटों सी खनकती हुयी...नदी सी बहती...बेपरवाह...


दुनियादारी की अदालत लगी है...मेरे घर के लोग, जान-पहचान वाले, कुछ अपने लोग, कुछ पक्के वाले दुश्मन, कुछ पुराने किस्से, कुछ टूटी कवितायें, गज़लों के कुछ बेतुके मिसरे...सब इकट्ठा हैं...वकील पूरे ताव में है...जोशो-खरोश में मुझसे सवाल कर रहा है...आपने क्या किया है अपनी जिंदगी के साथ? कोई बड़ा तीर मारा है...न सही कुछ महान लिखा है, क्या पढ़ा है, दोस्तों के नाम पर आपके पास कितने लोग हैं? कहते हैं कि भगवान ने आपको बड़ी बड़ी खूबियों से नवाजा है...आपने उनका क्या किया है। दुनियादारी के टर्म में समझाओ कि आज तक के तुम्हारी जिंदगी का हासिल क्या है? आखिर इतनी बड़ी जिंदगी बेमतलब गुजरने की सज़ा जरूरी है मिलोर्ड वरना लोग ऐसे ही खाली-पीली टाइम खोटी करते रहेंगे...मोहतरमा को जिंदगी बर्बाद करने के लिए सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए...आप खुद ही इनसे पूछिये, देखिये जैसे चुपचाप खड़ी हैं...ऐसे लोगों को चैन से जीने दिया गया तो सबका जीना मुहाल हो जाएगा...आप इनसे पूछिये कि ये रेस का हिस्सा क्यूँ नहीं हैं...जब सबको कहीं न कहीं पहुँचने की हड़बड़ी है, इनके पास जिंदगी का कोई रूटमैप क्यूँ नहीं है। यायावर की जिंदगी का उदाहरण पेश कर रही हैं ये और उसपर बेशरम हो के हँसती हैं...इनसे पूछा जाए कि इनहोने अपनी पूरी जिंदगी क्या किया है?

जज साहब मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखते हैं...और दोहराते हैं...मोहतरमा...आपने अपनी जिंदगी भर क्या किया है?

मेरी आँखों में कोई गीत उन्मुक्त हो नाच उठता है...मैं मुसकुराती हूँ और पूरी जनता को देखती हूँ...वकील को और आखिर में जज साहब को। 

और जितनी जिंदगी उस एक शब्द में आ सकती है समेट कर जवाब देती हूँ...एक शब्द में...
इश्क!

24 January, 2012

शी लव्स मी नॉट...

उसने एक गहरी सांस ली
डूबने के ठीक पहले वाली
या फिर 
चूमने के ठीक बाद वाली 
उसे ठीक से याद नहीं

....
आँख के रस्ते तक सरसों के पीले खेत थे...जैसे किसी सुघड़, सुशील लड़की ने एकदम करीने से धरती पर पीली सरसों के रंग की चादर बिछायी हो और तुम्हारे ख्यालों में खोये हुए बिस्तर की सलवटें ठीक की हों. ख्वाबों के कौन कौन से कतरे उठा के साइड वाले कूड़ेदान में डाली हों...कि उसे तो सब था...नासमझ सी कुछ उम्मीदें परदे पर टंगी होंगी कि जब उसने धूल की तरह डस्टर से झाड़ा होगा तुम्हारा नाम...

वीरानी गलियों में रात रास्ता भटक गयी होगी...किसी लैम्पोस्ट से पूछा होगा तुम्हारे देश का पता...रौशनी कमबख्त आँखों में भर गयी होगी और रात को सोने न दिया होगा...कितनी देर जागी होगी तुम्हें सोचते हुए...कितने गाने सुने होंगे, कितने शेर पढ़े होंगे और आखिर में जब कुछ याद न रह पाता होगा तो तुम्हारे इकलौते ख़त को फिर से बड़े अहतियात से खोला होगा और शब्दों को छू कर तुम्हें छू लेने का गुमान पाले सोयी होगी.

लड़की वाकई नासमझ है जो तुमसे प्यार करती है...या कि तुमसे प्यार करते हुए नासमझ हो गयी है...तुम्हें कौन बतलाये...फिलहाल तो इतना जान लो कि बड़ी खराबियां हैं उसमें...ज्यादा बताउंगी तो कौन जाने प्यार करो ही न उससे...फिलहाल तो इतना जानो कि जब उसे तुम्हारी बेतरह याद आती है...बेतरह मतलब एकदम ऐसी कि सांस न ले पाए तो वो चुप हो जाती है...उसके पहले, काफी पहले तक वो मुस्कुरा के बातें करती रहती है...उसकी चुप्पी तुम जान भी न पाओगे मेरी जान. तुम्हारे प्यार में इतना तो सीख ही लिया उसने कि तुमसे झूठ बोल लेती है...तुम क्यूँ उसका ऐतबार करते हो...तुम्हें लगता है न कि वो उदास है तो बस उसकी आवाज़ सुन कर तसल्ली करते ही क्यों हो...उसके पास जाओ तो सही...हाँ वो ऐसी है कि कभी न कहेगी कि उदास है...पर वो ऐसी भी तो है कि जबरदस्ती खींच कर अपने सीने से लगाओगे तो तुम्हारे कांधे से कोई चिनाब बह निकलेगी.

वो एकदम अच्छी लड़की टाईप नहीं है...पर जाने क्यूँ तुमसे बात करते हुए उसका अच्छा होने का मन करने लगता है...सलीके से बातें करना...थोड़ा ठहरना...बिना तुम्हारे मांगे वो अपने किनारे बनाने लगती है. उसे तुम्हें बहा ले जाने में डर लगता है...तुम्हें किसी ने बताया कि पार्टी पर उसने सिर्फ इस डर से कि तुम्हारा नाम उसके होठों पर आ जाएगा सिर्फ तीन लार्ज व्हिस्की पी...ऑन द रॉक्स. तुम इतना तो जानते हो न कि उसका सिगरेट पीने का मन कब करता है और वो तब भी सिगरेट नहीं पीती...तो बता दूं उस रात उसने बहुत सी सिगरेटें पी थीं...फिर उदास होते शहर की बुझती रोशनियों में तुम्हारे चेहरे का नूर देखा था.

उफ़क पर किसी दूर शहर का प्रतिबिम्ब था कि सितारों का कोई जखीरा तुम्हारे चेहरे जैसा लगा था...उँगलियों में फंसी सिगरेट ख़त्म होने वाली थी जब उसने एक गहरा कश लिया और तुम्हारी याद के साथ उसे सीने में कैद कर लिया...सांस बुझती रही गर्म कोयलों के साथ कि खुले में अलाव तापते हुए उसने सिर्फ तुम्हें याद किया...यकीन करो पार्टी में कोई ऐसा नहीं था जिसने उसे मुड़ के न देखा हो...उसके चेहरे पर एक बड़ी खुशमिजाज़ सी मुस्कराहट थी...बहुत जिंदगी थी उसके चेहरे पर...और तुम तो जानते हो जिंदगी से ऐसा लबरेज़ चेहरा सिर्फ इश्क में होता है.

तुमने उसे उस रात डांस करते हुए नहीं देखा...यूँ तो वो इतना अच्छा डांस करती है कि फ्लोर पे लोग डांस करना भूल के सिर्फ उसकी अदाएं देखते हैं...पर कल वो दूसरे मूड में थी...उसके सारे स्टेप्स गड़बड़ थे पर वो हंस रही थी बेतहाशा...वो खुश थी बहुत...कहने को वो किसी और की बांहों में थी पर उससे पूछो तो उसकी आँखों के सामने बस एक ही चेहरा था...तुम्हारा. 




कब तक कोई इस खुश-ख्याल में जिए कि तुम्हारी बांहों में मर जाना कैसा होता होगा?

06 January, 2012

कच्चे कश्मीरी सेब के रंग का हाफ स्वेटर

जब ख़त्म हो जायें शब्द मेरे
तुम उँगलियों की पोरों से सुनना


जहाँ दिल धड़कता है, ठीक वहीँ
जरा बायीं तरफ
अपनी गर्म हथेली रखो
इस ठिठुरते मौसम में
दिल थरथरा रहा है

मेरे लिए एक हाफ स्वेटर बुन दो
हलके हरे रंग का
कि जैसे कच्चे कश्मीरी सेब
और जहाँ दिल होता है न
जरा बायीं तरफ
एक सूरज बुन देना
पीला, चटख, धूप के रंग का

सुनो ना,
ओ खूबसूरत, पतली, नर्म, नाज़ुक
उँगलियों वाली लड़की
जब फंदे डालना स्वेटर के लिए
तो जोड़ों में डालना
मैं भी इधर ख्वाब बुनूँगा
तुम्हारी उँगलियों से लिपटे लिपटे

मेरे लिए स्वेटर बुनते हुए
तुम गाना वो गीत जो तुम्हें पसंद हो
और कलाइयों पर लगाना
अपनी पसंद का इत्र भी
फिर कुनमुनी दोपहरों में
मेरे नाम के घर चढ़ाते जाना

हमारा प्यार भी बढ़ता रहेगा
बित्ता, डेढ़ बित्ता कर के
कि हर बार, मेरी पीठ से सटा के
देखना कि कितना बाकी है
मुझे छूना उँगलियों के पोरों से

एक दिन जब स्वेटर पूरा हो जाएगा
ये स्वेटर जो कि है जिंदगी
तुम इसके साथ ही हो जाना मेरी
और मैं तुम्हारे लिए लाया करूंगा
चूड़ियाँ, झुमके, मुस्कुराहटें और मन्नतें
और एक, बस एक वादा
छोटा सा- मैं तुम्हें हमेशा खुश रखूँगा!

02 January, 2012

ब्लैक कॉफ़ी विथ दो शुगर क्यूब प्यार

मन की कच्ची स्लेट पर लिखा है
आँख के काजल से तुम्हारा नाम

खुली हथेली पर बनायीं हैं
मिट जाने वाली लकीरें
और मुट्ठी बंद कर दी हैं
गुलाबी होठों के बोसों से
अब कैसे जाओगे छूट के, बोलो?

आज अचानक ही हुयी बरसातें
कि जैसे तुम आये थे एक दोपहर
धूप की चम्मच से मिलाया था
ब्लैक कॉफ़ी में दो शुगर क्यूब प्यार

याद है, अलगनी पर छूट गया था
तुम्हारा फेवरिट मैरून मफलर
तब से हर जाड़ों में
तुम मेरे गले में बाँहें डाले
गुदगुदी लगाते हो मुझे
दुष्ट!

तुम्हारे लिए कुछ किताबें खरीद दूं?
कितनी फुर्सत है तुम्हें
कि मुझे पढ़ते रहते हो


सुनो!
इतनी भी दिलफरेब नहीं हैं
तुम्हारी आँखें
कि मैं बस तुम्हें लिखती रहूँ
शकल भी देखी है कभी, आईने में?


चलो!
अब न पूछो कि कहाँ
तुमने फोन पर कहा था एक दिन
फ़र्ज़ करो,
मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलता हूँ
कहीं दूर एक खुला सा मैदान हो
जहाँ से वापस आने का रास्ता हो
या वहीं ठहर जाने का...ऑप्शन
मैं उस ख्वाब से निकली ही नहीं
आज तक भी.

बातें बहुत सी हुयीं है
अब कुछ यूँ करो ना
कभी सामने आ जाओ अचानक
और जब बेहोश हो जाऊं ख़ुशी से
अपनी बांहों में थाम लेना...
बस.

अरे हाँ...जब आओगे ही
तो लौटा देना
वो बोसे जो मैंने तुम्हारे ख्वाबों में दिए थे.
गिन के पूरे के पूरे. साढ़े अट्ठारह
अठारह तुम्हारी बंद पलकों पर
और आधा बोसा
होटों पर...बस.
इससे ज्यादा मैथ मुझे नहीं आता
केस क्लोज्ड. 

मन के बाहर बारिश का शोर था...


मन के बाहर बारिश का शोर था...
बहुत सा अँधेरा था
कोहरे की तरह और कोहरे के साथ
गिरती हुयी ठंढ थी
रात का सन्नाटा था
घड़ी की टिक टिक थी 

खुले हुए बालों में अटकी
लैपटॉप से आती रोशनी
के कुछ कतरे थे

आँखों में उड़ी हुयी नींद के
कुछ उलाहने थे 
तुम्हारे दूर चले जाने के
कुछ  डरावने ख्याल थे 
तुम भूल जाओगे एक दिन 
ऐसी भोली घबराहट थी 

मन के अन्दर बस एक सवाल था
कैसा होगा तुम्हें छूना
उँगलियों की कोरों से
अहिस्ता, 
कि तुम्हारी नींद में खलल ना पड़े 

गले में प्यास की तरह अटके थे
सिर्फ तीन शब्द
I love you
I love you
I love you

01 January, 2012

काँपती उँगलियों से खोलना...

बीता हुआ साल कुछ वैसा ही है
जैसे स्टेशन पर भीड़ में खोया हुआ वो एक चेहरा
जो ताजिंदगी याद रहता है 

अनगिनत सालों में 
ये साल भी गुम जाएगा कहीं
सिवाए उस एक शाम के 
तो ए बीते हुए साल
तू सब कुछ रख ले अपने पास
उस एक शाम के बदले

वो शाम कि जिसमें 
बहुत सी बातें थी 
बादलों का रंग था 
मौसम की खुशबू थी 
हवाओं के किस्से भी थे 

वो शाम कि जिसमें
दिल धड़कता था
आँखें तरसती थीं
उँगलियाँ कागज़ पर 
अनजाने 
कोई नाम लिख रहीं थी 
तलवे सुलग उठ्ठे थे 
मन बावरा हो गया था 

पंख उग गए थे
पैरों तले जमीन को
मैं पहुँच गयी थी
उन बांहों के घेरे में

उस एक शाम 
सब छूट गया था पीछे
कि जब उसने 
काँपती उँगलियों से खोली थीं 
मेरे जिस्म की सब गिरहें
और 
मेरी रूह को आज़ाद कर दिया था 

30 December, 2011

बात बस इतनी है जानां...


बड़ी ठहरी हुयी सी दोपहर थी...और ऐसी दोपहर मेरी जिंदगी में सदियों बाद आई थी...ये किन्ही दो लम्हों के बीच का पल नहीं थी...यहाँ कहीं से भाग के शरणार्थियों की तरह नहीं आए थे, यहाँ से किसी रेस की आखिरी लकीर तक जल्दी पहुँचने के लिए दौड़ना नहीं था। ये एक दोपहर आइसोलेशन में थी...इसमें आगे की जिंदगी का कुछ नहीं था...इसमें पीछे की जिंदगी का छूटा हुआ कुछ नहीं था। बस एक दोपहर थी...ठहरी हुयी...बहुत दिन बाद बेचैनियों को आराम आया था।

जाड़ों का इतना खूबसूरत दिन बहुत दिन बाद किस्मत को अलोट हुआ था...धूप की ओर पीठ करके बैठी थी और चेहरे पर थोड़ी धूप आ रही थी...सर पर शॉल था जिससे रोशनी थोड़ी तिरछी होकर आँखों पर पड़ रही थी...घर के आँगन में दादी सूप में लेकर चूड़ा फटक रही थी...सूप फटकने में एक लय है जो सालों साल नहीं बदली है...ये लय मुझे हमेशा से बहुत मोहित करती है। दादी के चेहरे पर बहुत सी झुर्रियां हैं, पर इन सारी झुर्रियों में उसका चेहरा फूल की तरह खिला और खूबसूरत दिखता है। कहते हैं कि बुढ़ापे में आपका चेहरा आपकी जिंदगी का आईना होता है...उसके चेहरे से पता चलता है कि उसने एक निश्छल और सुखी जीवन जिया है। आँखों के पास की झुर्रियां उसकी हंसी को और कोमल कर देती हैं...दादी चूड़ा फटकते हुये मुझे एक पुराने गीत का मतलब भी समझाते जा रही है...एक गाँव में ननद भौजाई एक दूसरे को उलाहना देती हैं कि बैना पूरे गाँव को बांटा री ननदिया खाली मेरे घर नहीं भेजा...लेकिन भाभी जानती है कि ननद के मन में कोई खोट नहीं है इसलिए हंस हंस के ताने मार रही है। दोनों के प्रेम में पगा ये गीत दादी गाती भी जाती है बहुत फीके सुरों में और आगे समझाती भी जाती है।

यूं मेरे दिन अक्सर ये सोचते कटते है कि परदेसी तुम जो अभी मेरे पास होते तो क्या होता...मगर आज मैं पहली बार वाकई निश्चिंत हूँ कि अच्छा है जो तुम मेरे पास नहीं हो अभी...इस वक़्त...मम्मी ने उन के गोले बनाने के लिए लच्छी दी है...जैसे ये लच्छी है वैसे ही पृथ्वी की धुरी और बनता हुआ गोला हुआ धरती...पहले तीन उँगलियों में फंसा कर गोले के बीच का हिस्सा बनाती हूँ...फिर उसे घुमा घुमा कर बाकी लच्छी लपेटती हूँ। गोला हर बार घूमने में बड़ा होता जाता है। ऐसे ही मेरे ख्याल तुम्हारे आसपास घूमते रहते हैं और हर बार जब मैं तुम्हें सोचती हूँ...आँख से आँसू का एक कतरा उतरता है और दिल पर एक परत तुम्हारे याद की चढ़ती है। गोला बड़े अहतियात से बनाना होता है...न ज्यादा सख्त न ज्यादा नर्म...गोया तुम्हें सोचना ही हो। जो पूरी डूब गयी तो बहुत मुमकिन है कि सांस लेना भूल जाऊँ...तुमसे प्यार करते रहने के लिए जिंदा रहना भी तो जरूरी है। याद बहुत करीने से कर रही हूँ...बहुत सलीके से।

हाँ, तो मैं कह रही थी कि अच्छा हुआ जो तुम मेरे पास नहीं हो अभी। आज शाम कुछ बरतुहार आने वाले हैं भैया के लिए...घर की पहली शादी है इसलिए सब उल्लासित और उत्साहित हैं...दादी खुद से खेत का उगा खुशबू वाला चूड़ा फटक रही है, उसको मेरी बाकी चाचियों पर भरोसा नहीं है। दादी दोपहर होते ही शुरू हो गयी है...उसकी लयबद्ध उँगलियों की थाप मुझे लोरी सी लग रही है। तुलसी चौरा की पुताई भी कल ही हुयी है...गेरुआ रंग एकदम टहक रहा है अभी की धूप में। तुलसी जी भी मुसकुराती सी लग रही हैं। हनुमान जी ध्वजा के ऊपर ड्यूटी पर हैं...बरतुहार आते ही इत्तला देंगे जल्दी से।

दोपहर का सूरज पश्चिम की ओर ढलक गया है अब...शॉल भी एक कंधे पर हल्की सी पड़ी हुयी है...जैसे तुम सड़क पर साथ चलते चलते बेखयाली में मेरे कंधे पर हल्के से हाथ रख देते थे...ऊन का गोला पूरा हो गया है। मम्मी ने दबा कर देखा है...हल्का नर्म, हल्का ठोस...वो खुश है कि मैंने अच्छे से गोला बनाया है, उसे अब स्वेटर बुनने में कोई दिक्कत नहीं होगी। फिरोजी रंग की ऊन है...मेरी पसंदीदा। उसे हमेशा इस बात की चिंता रहती थी कि मुझे कोई भी काम सलीके से करना नहीं आएगा तो मेरे ससुराल वाले हमेशा ताने मारेंगे कि मायके में कुछ सीख के नहीं आई है, वो अब भी मेरी छोटी छोटी चीजों से सलीके से करने पर खुश हो जाती है।

आँगन में बच्चे गुड़िया से खेल रहे हैं...दीदी ने खुद बनाई है...मेरी दोनों बेटियों को ये गुड़िया उनकी बार्बी से ज्यादा अच्छी लगी है...वो जिद में लगी हैं कि इनको शादी करके शहर में बसना जरूरी है इसलिए वो उन्हें अपने साथ ले जाएँगे और स्कूल में कुछ जरूरी चीज़ें भी सीखा देंगी। उन्हें देखते हुये मैं एक पल को भूल जाती हूँ कि तुम मेरी याद की देहरी पर खड़े अंदर आने की इजाजत मांग रहे हो। उनपर बहुत लाड़ आता है और मैं उन्हें भींच कर बाँहों में भर लेती हूँ...वो चीख कर भागती हैं और आँगन में तुलसी चौरा के इर्द गिर्द गोल चक्कर काटने लगती हैं।

हवा में तिल कूटने की गंध है और फीकी सी गुड़हल और कनेल की भी...हालांकि चीरामीरा के फूलों में खुशबू नहीं होती पर उनका होना हवा में गंध सा ही तिरता है...मैं जानती हूँ कि घर के तरफ की पगडंडी में गहरे गुलाबी चीरामीरा लगे हुये हैं और गुहाल में बहुत से कनेल इसलिए मुझे हवा में उनकी मिलीजुली गंध आती है। दोपहर के इस वक़्त कहीं कोई शोर नहीं होता...जैसे टीवी पर प्रोग्राम खत्म होने पर एक चुप्पी पसरती है...लोग अनमने से ऊंघ रहे हैं...गाय अपनी पूँछ से मक्खी उड़ा रही है...कुएँ में बाल्टी जाने का खड़खड़ शोर है...और सारी आवाज़ों में बहुत सी चूड़ियों के खनकने की आवाज़ है...जैसे ये पहर खास गाँव की औरतों का है...हँसती, बोलती, गातीं...आँचल को दाँत के कोने में दबाये हुये दुनिया में सब सुंदर और सरल करने की उम्मीद जगाती मेरे गाँव की खुशमिजाज़ औरतें। साँवली, हँसती आँखों वाली...जिनका सारा जीवन इस गाँव में ही कटेगा और जिनकी पूरी दुनिया बस ये कुछ लोग हैं। पर ये छोटी सी दुनिया इनके होने से कितनी कितनी ज्यादा खूबसूरत है।


मैं अपने घर, दफ्तर, बच्चों, लिखने में थोड़ी थोड़ी बंटी हुयी सोचती हूँ जिंदगी इतनी आसान होती तो कितना बेहतर था...
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पर तुम भी जानते हो कि ये सारी बातें झूठ हैं...दादी को गए कितने साल बीत गए, माँ भी अब बहुत दिन से मेरे साथ नहीं है...तुम भी शायद कभी नहीं मिलोगे मुझसे...बच्चे मेरे हैं नहीं...और गाँव की ऐसी कोई सच तस्वीर नहीं बन सकती...तो बात है क्या?
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बात बस इतनी है जानां...कि आज पूरी पूरी दोपहर जाड़ों में धूप तापते हुये सिर्फ तुम्हें याद किया...दोपहर बेहद बेहद खूबसूरत गुजरी...पर तुम ही बताओ जो एक लाइन में बस इतना कहती तो तुम सुनते भी?

22 December, 2011

बस एक लड़की थी...जो लिफाफे की दीवारों में जिन्दा चिन दी गयी थी

मगर वो इतनी बुरी थी कि उसने मुझसे सिर्फ ख़त लिखने की इजाज़त ली पर ख़त के साथ अपनी उदास बेचैनियाँ  भी पिन करके भेज दीं..वो ख़त क्या था एक सुलगते लम्हे का दरवाजा था जिसमें हाथ बढ़ा कर मैं उसे अपनी बांहों में भर सकता था...भरना चाहता था.

कुछ हर्फ़ कागज़ पर थे, कुछ हाशिये पर...कुछ आंसुओं के कतरे थे...कुछ रात की खामोशियों में सुने गए गीतों के मुखड़े...सन्नाटों के पेड़ से तोड़े कुछ फूल भी थे. मुस्कुराहटों के बीज थे जो इस गुज़ारिश के साथ भेजे गए थे कि इन्हें ऐसी जगह रोपना जहाँ धूप भी आती हो और छाँव भी मिलती हो...मन के आँगन में तब से एक क्यारी खोद रहा हूँ जहाँ उन्हें सही मौसम, हवा पानी मिल सके.

एक आखिरी कश तक पी गयी सिगरेट का बुझा हुआ टुकड़ा था जिसे देख कर आँखों में धुआं इस कदर गहराने लगा कि किसी की शक्ल साफ़ नहीं रही...इस परदे के पार किसी का कोई वजूद बचा ही नहीं. मैं देर तक इस ख्याल में खोया रहा कि उसने दिन के किस पहर और किन लोगों के सामने इस सिगरेट को अपने होठों से लगाया होगा...क्या बालकनी में कॉफ़ी पीते हुए सिगरेट पी जैसा कि वो हमेशा लिखा करती है या कि सड़क पर टहलते हुए लोगों की घूरती निगाहों को इग्नोर करते हुए किसी अजीज़ से फोन पर बात करते हुए पी. कोई होगा फोन के उस तरफ जो कि उससे जिरह कर सके कि सिगरेट न पिया कर...बहुत बुरी चीज़ होती है.

उसके हर्फ़ भी उसकी तरह शरीर थे, रोते रोते खिलखिला उठते थे...उनके बारे में कुछ भी कहना बहुत मुश्किल था...जितनी बार उसका ख़त पढ़ता हर्फों के रंग बदल जाते थे...समझ नहीं आता था कि लड़की में कितनी परतें हैं और इन सारी परतों को उसने कागज़ में क्यूँ उतारा है...मैं उसके 'प्रिय____' की ऊँगली पकड़ कर सफ़र शुरू तो करता था पर वो हर्फ़ भी अक्सर साथ छोड़ जाता था. मैं उसकी असीम तन्हाइयों को अपनी बांहों के विस्तार में भरने की कोशिश करता मगर हर बार लगता कुछ छूट जा रहा है...वो इतना सच थी कि पन्नों से मेरी आँखों में झांक रही थी और इतना झूठ कि यकीन की सरहद तक ख्याल नहीं जाता कि इस पन्ने पर वही जज़्ब हुआ है जो उसने किसी दिन दोपहर को खिड़की खोल कर खुली धूप में लिखा है.




वहाँ कोई सवाल न था...बस एक लड़की थी...जो लिफाफे की दीवारों में जिन्दा चिन दी गयी थी...वो ख़त से जब निकल कर मेरी बाँहों में आई तो आखिरी सांसें गिन रही थी. मैंने उसका चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भरा हुआ था जब उसने पहली और आखिरी बार मुझे 'आई लव यू' कहा...और मैं उसे अब कभी यकीन न दिला पाऊंगा कि मैं उससे कितना प्यार करता हूँ. 

21 December, 2011

कभी मिलोगे मुझसे?

मैंने जिंदगी से ज्यादा बेरहम निर्देशक अपनी जिंदगी में नहीं देखा...मुझे इसपर बिलकुल भी भरोसा नहीं. दूर देश में बैठे हुए सबसे वाजिब डर यही है कि तुमसे मिले बिना मर जायेंगे. एक बेहद लम्बा इंतज़ार होगा जिसे हम अपना दिल बहलाने के लिए छोटे छोटे टुकड़े में बाँट कर जियेंगे...यूँ ऐसा जान कर नहीं करेंगे पर जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा अगर ये जान जायें कि इंतज़ार सांस के आखिरी कतरे तक है.

हो ये भी सकता है कि कई कई बार हम मिलते मिलते रह जायें...कि कोई ऐसा देश हो जो मेरे तुम्हारे देश के बीच हो...जिसमें अचानक से मुझे कोई काम आ जाए और तुम्हें भी...तुम्हें धुएं से अलेर्जी है और मुझे नया नया सिगरेट पीने का शौक़...तो जिस ट्रेन में हमारी बर्थ आमने सामने है...उसमें मैं अपनी सीट पर कभी रहूंगी ही नहीं...कि मुझे तो सिगरेट फूंकने बाहर जाना होगा. जब मैं लौटूं तो तुम किसी अखबार के पीछे कोई कहानी पढ़ रहे हो...और जिंदगी, हाँ हाँ वही डाइरेक्टर जो सीन में दीखता नहीं पर होता जब जगह है...जिंदगी अपनी इस लाजवाब कहानी की बुनावट पर खुश जो जाए. सोचो कि उसी ट्रेन में, तुम्हारी ही याद में सिगरेट दर सिगरेट फूंकती जाऊं और सपने में भी ना सोचूं कि जो शख्स सामने है बर्थ पर तुम ही हो. जिंदगी के इन खुशगवार मौकों पर हमें यकीन नहीं होता न...तो कह ये भी सकते हैं कि जिंदगी जितनी बुरी डायरेक्टर है...हम कोई उससे कम बुरे एक्टर भी नहीं हैं. हमेशा स्क्रिप्ट का एक एक शब्द पढ़ते चलते हैं...थोड़ी देर नज़र उठा कर अपने आसपास देखें तो पायेंगे कि हमारी गलती से कई हसीन मंज़र छूट गए हैं हमारे देखे बिना.

कोई बड़ी बात न होगी कि उस शहर की सड़कों पर हम पास पास से गुजरें पर एक दूसरे को देख ना पाएं...तब जबकि मेरी भी आदत बन चुकी हो इतने सालों में कि हर चेहरे में तुम्हें ढूंढ लेती हूँ पर जब तुम सामने हो तो तुम्हें पहचान ना पाऊं कि अगेन, जिंदगी पर भरोसा न हो कि वो तुम्हें वाकई मेरे इतने करीब ले आएगी. उस अनजान शहर में जहाँ हमें नहीं मिलना था...जहाँ हमें उम्मीद भी नहीं थी मिलने की...मैं अपने उन सारे दोस्तों को फोन करती हूँ जिनके बारे में जानती हूँ कि उन्होंने मुझे इश्क हो जाने की दुआएं दी होंगी...सिगरेट के अनगिन कश लगते हुए फ़ोन पर बिलखती हूँ...कि अपनी दुआएं वापस मांग लो...इश्क मेरी जान ले लेगा. एक सांस भी बिना धुएं के अन्दर नहीं जाती...एक एक करके सारे दोस्तों को फोन कर रही हूँ...सिगरेट का पैकेट ख़त्म होता है, नया खुलता है, शाम ढलती है...कुछ दिखता नहीं है धुएं की इस चादर के पार...मैंने अपनेआप को एक अदृश्य कमरे में बंद कर लिया है और उम्मीद करती हूँ कि तुम्हारी याद यहाँ नहीं आयगी...इस बीच शहर सो गया है और बर्फ पड़नी शुरू हो गयी है. स्कॉच का पैग रखा है...प्यास लगी है...रोने से शरीर में नमक और पानी की कमी हो जाती है, उसपर अल्कोहल से डिहाईडरेशन भी हो रहा है.

अगली बदहवास सुबह सर दर्द कम करने के लिए कॉफ़ी पीने सामने के खूबसूरत से कॉफ़ी शॉप पर गयी हूँ...तुम्हारे लिखे कुछ मेल के प्रिंट हैं...कॉफ़ी का इंतज़ार करती हुयी पढ़ रही हूँ...चश्मा उतार रखा है टेबल पर. इस अनजान शहर में किसी चेहरे को देखने की इच्छा नहीं है...कोई भी अपना नहीं आता यहाँ...सामने देखती हूँ...सब धुंधला है...दूर की नज़र कमजोर है न...कोई सामने आता हुआ दिखता है...सफ़ेद कुरते जींस में...तुम्हारी यादों के बावजूद मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आते हैं जब मेरा सबसे पसंदीदा हुआ करता था कुरते और नीली जींस का ये कॉम्बिनेशन. ऐसा महसूस होता है कि कोई मेरी ओर देख कर मुस्कुराया है. मैं चश्मा पहनने के लिए उठाती हूँ कि सवाल आता है...आपके साथ एक कॉफ़ी पी सकता हूँ...तुम जिस लम्हे दिखते हो धुंधले से साफ़ ठीक उसी लम्हे तुम्हारी आवाज़ तुम्हारे होने का सबूत दे देती है.

एक लम्हा...अपनी बाँहें उठा चुकी हूँ तुम्हें गले लगाने के लिए फिर कुछ अपनी उम्र का ख्याल आ जाता है कुछ शर्म...तुम्हारी आँखों में झाँक लेती हूँ...अपने जैसा कुछ दिखता है...कंधे पे हाथ रखा है और सेकण्ड के अगले हिस्से में मैं हाथ मिलाती हूँ तुमसे. तुमने बेहद नरमी से मेरा हाथ पकड़ा है...मैं देखती हूँ कि तुम्हारे हाथ बिलकुल वैसे हैं जैसे मैंने सोचे थे. किसी आर्टिस्ट की तरह खूबसूरत, जैसे किसी वायलिन वादक के होते हैं...आमने सामने की कुर्सियों पर बैठे हैं. कहने को कुछ है नहीं...बहुत सारा शोर है चारों तरफ...कैफे में कोई तो गाना बज रहा था...ठीक इसी लम्हे ख़त्म होता है...अचानक से जैसे बहुत कुछ ठहर गया है...मुझे छटपटाहट होती है कुछ करने की...तुम्हारे माथे पर एक आवारा लट झूल रही है...मैं उँगलियों से उसे उठा कर ऊपर कर देती हूँ...कैफे में नया गाना शुरू होता है...ला वि एन रोज...फ्रेंच गाना है...जिसका अर्थ होता है, जिंदगी को गुलाबी चश्मे से देखना...मेरा बहुत पसंदीदा है...तुम जानते हो कि मुझे बेहद पसंद है...तुम भी कहीं खोये हुए हो.

ये कितनी अजीब बात है कि जितनी देर हम वहाँ हैं हमने एक शब्द भी नहीं कहा एक दूसरे को...यकीन नहीं होता कि कुछ शब्द ही थे जो हमें खींच के पास लाये थे...कुछ अजीब से ख्याल आ रहे थे जैसे कि क्यूँ नहीं तुम मेरा हाथ यूँ पकड़ते हो कि नील पड़ जाएं...कि किसी लम्हे मुझे कहना पड़े...हाथ छोड़ो, दुःख रहा है...कि मैं सोच रही हूँ कि मैंने कितनी सिगरेट पी है...और तुम्हें सिगरेट के धुएं से अलेर्जी है...या कि तुमने सफ़ेद कुरता जो पहना है, क्या मैंने कभी तुम्हें कहा था कि मेरी पसंदीदा ड्रेस रही है कोलेज के ज़माने से और आज मैंने इत्तिफाकन सफ़ेद कुरता और नीली जींस नहीं पहनी है...ये लगभग मेरा रोज का पहनावा है. कि तुम सामने बैठे हो और जिंदगी से शिकायत कर रही हूँ कि तुम पास नहीं बैठे हो!

इसके आगे की कहानी नहीं लिख सकती...मुझे नहीं मालूम जिंदगी ने कैसा किस्सा लिखा है...पर उसकी स्क्रिप्टराइटर होने के बावजूद मेरे पास ऐसे कोई शब्द नहीं हैं जो लिख सकें कि किन रास्तों पर चल कर तुमसे अलग हुयी मैं...कि तुमसे मिलने के बाद वापस कैसे आई...कि तुम्हारे जाने के बाद भी जीना कैसे बचता है...इश्क में बस एक बार मिलना होना चाहिए...उसके बाद उसकी याद आने के पहले एक पुरसुकून नींद होनी चाहिए...ऐसे नींद जिससे उठना न हो. 

10 December, 2011

वसीयत

मौत की सम्मोहक आँखों में देखते हुए मैं तुम्हें बार बार याद करती हूँ...इत्मीनान है कि तुम्हें आज शाम विदा कह चुकी हूँ...बता भी चुकी हूँ कि तुमसे कितना प्यार करती हूँ...दोनों बाँहों के फ़ैलाने से जितना क्षेत्रफल घिरता है, उतना...मेरे ख्याल से इतने प्यार पर तुम अपनी बची हुयी जिंदगी बड़े आराम से काट लोगे...मुझे यकीन है...तुम बस याद रखना कि ये वाक्य संरचना नहीं बदलेगी 'मैं तुमसे प्यार करती हूँ' कभी भी 'मैं तुमसे प्यार करती थी' नहीं होगा. मेरे होने न होने से प्यार पर कोई असर नहीं होगा.

मैं ऐसे ही मर जाना चाहती हूँ, तुम्हारे इश्क में लबरेज़...तुम्हारी आवाज़ के जादू में गुम...तुम्हारे यकीन के काँधे पर सर रखे हुए कि तुम मुझसे प्यार करते हो. इश्क के इस पौधे पर पहली वसंत के फूल खिले हैं...यहाँ पतझड़ आये इसके पहले मुझे रुखसत होना है...तुम ये फूल समेट कर मेरे उस धानी दुपट्टे में बाँध दो...मेरे जाने के बाद दुपट्टे से फूल निकाल कर रख लेना और दुपट्टा अपने गाँव की नदी में प्रवाहित कर देना...उसके बाद तुम जब भी नदी किनारे बैठोगे तुम्हें कहीं बहुत दूर मैं धान के खेत में अपना दुपट्टा हवा में लहराते हुए, मेड़ पर फूल से पाँव धरते नज़र आउंगी. मेरा पीछा मत करना...मेरा देश उस वक़्त बहुत दूर होगा.

यकीन करना कि मैं कहीं नहीं जा रही...तुम्हारे आसपास कहीं रहूंगी...हमेशा...हाँ ध्यान रखना, मेरी याद में आँखें भर आयें तो उस रात पीना नहीं...कि खारा पानी व्हिस्की का स्वाद ख़राब कर देता है और तुम तो जानते ही हो कि व्हिस्की को लेकर मैं कितना 'टची' हो जाती हूँ. तुम्हें ऐसा लगेगा कि मैं ये सब नहीं देख रही तो मैं आज बता देती हूँ कि मरने के बाद तो मैं और भी तुम्हारे पास आ जाउंगी...आत्मा पर तो जिस्म का बंधन भी नहीं होता, न वक़्त और समाज की बंदिशें होती हैं उसपर...एकदम आज़ाद...मेरे प्यार की तरह...मेरे मन की तरह. 

जिंदगी जितनी छोटी होती है, उतनी ही सान्द्र होती है...तुम तो मेरे पसंद के सारे लोगों को जानते हो कि जो कम उम्र में मर गए...कर्ट कोबेन, दुष्यंत कुमार, गुरुदत्त, मीना कुमारी...उनकी आँखों में जिंदगी की कितनी चमक थी...जिसके हिस्से जितनी कम जिंदगी होती है उसकी आँखों में खुदा उतनी ही चमक भर देता है. तुमने तो मेरी आँखें देखी हैं...क्या लगता है मेरी उम्र कितने साल है?

इतनी शिद्दत से किसी को प्यार करने के बाद जिंदगी में क्या बाकी रह जाता है कि जिसके लिए जिया जाए...मैं नहीं चाहती कि इस प्यार में कुछ टूटे...मुझे इस प्यार के परफेक्ट होने का छलावा लिए जाने दो. मैं टूट जाने से इतना डरती हों कि वक़्त ही नहीं दूँगी ये देखने के लिए कि हो सकता है इस प्यार में वक़्त के सारे तूफ़ान झेल लेने की ताकत हो. 

मुझे चले जाने से बस एक चीज़ रोक रही है...फ़र्ज़ करो कि तुमने मेरे ख़त नहीं पढ़े हैं...ये ख़त भी तुम तक नहीं पहुंचा है...अपने दिल पर हाथ रख के जवाब दो, तुम्हें पूरा यकीन है तो सही कि मैं तुमसे बेइंतेहा प्यार करती हूँ या कि मेरे जाने के बाद कन्फ्यूज हो जाओगे? 
मेरे बाद की कोई शाम...




मैं तुम्हारे नाम अपनी बची हुयी धड़कनें करती हूँ...कि मोल लो इनसे इश्क के बाज़ार में तुम्हें जो भी मिले...याद का सामान जुगाड़ लो कि भूली हुयी शामों में राहत हो कि एक पागल लड़की ने चंद छोटे लम्हों के लिए सही...तुम्हें प्यार बहुत टूट के किया था. 

09 December, 2011

मौन की भाषा में 'आई लव यू' कहना...

कैसा होता होगा तुम्हें मौन की भाषा में 'आई लव यू' कहना...जब कि बहुत तेज़ बारिश हो रही हो और हम किसी जंगल के पास वाले कैफे में बैठे हों...बहुत सी बातें हो हमारे दरमियाँ जिसमें ये भी बात शामिल हो कि जनवरी की सर्द सुबहों में ये आसमान तक के ऊंचे पेड़ बर्फ से ढक जाते हैं.

एक सुबह चलना शुरू करते हुए जंगल ख़त्म न हो पर दिन अपनी गठरी उठा कर वापस जाता रहे...उस वक़्त कहीं दूर रौशनी दिखे और हम वहां जा के शाम गुजारने के बारे में सोचें. किसी ठंढे और शुष्क देश में ऐसा जंगल हो जिसमें आवाजें रास्ता भूल जाया करें. कैफे में गर्म भाप उठाती गर्म चोकोलेट मिलती है...कैफे का मालिक एक मझोले से कद का मुस्कुराती आँखों वाला बूढ़ा है...वो मुझसे पूछता है कि क्या मैं चोकलेट में व्हिस्की भी पसंद करुँगी...मेरे हाँ में सर हिलाने पर वो तुम्हारा ड्रिंक पूछता है...तुम उसे क्या लाने को कहते हो मुझे याद नहीं आता. शायद तुम हर बार की तरह इस बार भी किसी अजनबी से कहते हो कि अपनी पसंदीदा शराब लाये. लोग जिस चीज़ को खुद पसंद करते हैं, उसे सर्व करते हुए उसमें उनकी पसंद का स्वाद भी 'घुल जाता है.

उस अनजान देश में...जहाँ मैं तुम्हारे अलावा किसी को नहीं जानती...जहाँ शायद कोई भी किसी को नहीं जानता, वो बूढ़ा हमें बेहद आत्मीय लगता है. बाहर बेतरह बारिशें गिरने लगी हैं और ऐसा लगता है कि आज रात यहाँ से कोई और राह नहीं जन्मेगी. बारिश का शोर हर आवाज़ को डुबो देता है और मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे मैं सामने कुर्सी पर नहीं, तुम्हारे पास बैठी हूँ, तुम्हारी बाहों के घेरे में...जहाँ तुम्हारी धड़कनों के अलावा कोई भी आवाज़ नहीं है और वक़्त की इकाई तुम्हारी आती जाती सांसें हैं.

जब कोई आवाजें नहीं होती हैं तो मन दूसरी इन्द्रियों की ओर भटकता है और कुछ खुशबुयें जेहन में तैरने लगती हैं...तुम्हारी खुशबू से एक बहुत पुराना वक़्त याद आता है...बेहद गर्म लू चलने के मौसम होते थे...जून के महीने में अपने कमरे सोयी रहूँ और पहली बारिश की खुशबू से नींद खुले...तुम्हारे इर्द गिर्द वैसा ही महसूस होता है जैसे अब रोपनी होने वाली है और धान के खेत पानी से पट गए हैं. गहरी सांस लेती हूँ अपने मन को संयत करने के लिए जिसमें तुम्हारा प्यार दबे पाँव उगने लगा है.

मुझे आज शाम ही मालूम पड़ा है कि नीला रंग तुम्हें भी बेहद पसंद है...मैं अनजाने अपने दुपट्टे के छोर को उँगलियों में बाँधने लगी हूँ पर मन कहीं बंधता नहीं...सवाल पूछता है कि आज नीले रंग के सूट में तुमसे मिलने क्यूँ आई...मन का मिलना भी कुछ होता है क्या. सोचने लगती हूँ कि मैं तुम्हें अच्छी लग रही होउंगी क्या...वैसे ही जैसे तुम मुझे अच्छे लगने लगे थे, जब पहली बार तुम्हें जाना था तब से. आई तो थी यहाँ लेखक से मिलने, ये कब सोचा था कि उस शख्स से प्यार भी हो सकता है. सोचा ये भी तो कहाँ था कि तुम फ़िल्मी परदे के किसी राजकुमार से दिखोगे...या कि तुम्हारी आँखें मेरी आँखों से यूँ उलझने लगेंगी.

मैं अब भी ठुड्डी पर हाथ टिका तुमसे बातें कर रही हूँ बस मन का पैरलल ट्रैक थोड़ा परेशान कर रहा है. तुमसे पूछती हूँ कि तुम्हें उँगलियों की भाषा आती है क्या...और सुकून होता है कि नहीं आती...तो फिर मैं तुम्हारे पास बैठती हूँ और तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेती हूँ...हथेली के पीछे वाले हिस्से पर उँगलियों से लिखती हूँ 'I' और पूछती हूँ कि ये पढ़ पाए...तुम न में सर हिलाते हो...फिर मैं बहुत सोच कर आगे के चार अक्षर लिखती हूँ L-O-V-E...तुम्हें गुदगुदी लगती है और तुम हाथ छुड़ा कर हंसने लगते हो. मुझे लगता है कि जैसे मैं घर में बच्चों को लूडो खेलने के नियम सिखा रही हूँ, जानते हुए कि वो अपने नियम बना के खेलेंगे...आखिरी शब्द है...और सबसे जरूरी भी...तीन अक्षर...Y-O-U. तुम्हारे फिर इनकार में सर हिलाने के बावजूद मुझे डर लग जाता है कि तुम समझ गए हो.










तुमसे वो पहली और आखिरी बार मिलना था...वैसे हसीन इत्तिफाक फिर कभी जिंदगी में होंगे या नहीं मालूम नहीं...मैं अपनी रूह के दरवाजे बंद करती हूँ कि तुम्हारी इस एक मुलाकात के उजाले में जिंदगी की उदास और याद की तनहा शामें काटनी हैं मुझे. यकीन की मिटटी पर तुम्हारे हाथ के रोपे गुलाब में फूल आये हैं...इस खुशबू से मेरी जिंदगी खुशनुमा है कि मैंने तुमसे कह दिया है कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ. 

25 November, 2011

आवाज़ घर

रात एक आवाज़ घर है जिसमें याद की लौटती आवाजें रहती हैं. लम्हों के भटकते टुकड़े अपनी अभिशप्त प्रेमिकाओं को ढूंढते हुए पहुँचते हैं. आवाज़ घर में अनगिन दराजें हैं...और दराजों की इस बड़ी सी आलमारी पर कोई निशान नहीं है, कोई नंबर, कोई नाम नहीं. कोई नहीं जानता कि किस दराज से कौन सा रास्ता किधर को खुल जाएगा.

हर दराज़ में अधूरी आवाजें हैं और ये सब इस उम्मीद में यहाँ सकेरी गयी हैं कि एक दिन इन्हें इनका जवाब मिलेगा...इंतजार में इतने साल बीत गए हैं कि कुछ सवाल अब जवाब जैसे हो गए हैं. जैसे देखो, दराज का वो पूर्वी किनारा...हिमालय के जैसा है...उस दराज तक पहुँचने की कोई सीढ़ी नहीं है. पर तुम अगर एकदम मन से उसे खोलना चाहोगे न तो वो दराज नीचे होकर तुम्हारे हाथों तक आ जायेगी. जैसे कोई बेटी अपने पापा के कंधे पर चढ़ना चाहती हो तो उसके पापा उसके सामने एकदम झुक जाते हैं, घुटनों के बल...जहाँ प्यार होता है वहां आत्माभिमान नहीं होता. उस दराज में एक बहुत पुराना सवाल पड़ा है, जो कभी पूछा नहीं गया...इसलिए अब उसे जवाब का इंतज़ार भी नहीं है. सवाल था 'क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?'. जब सवाल के पूछे जाने की मियाद थी तब अगर पूछ लिया जाता तो इसे शान्ति मिल जाती और ये एक आम सवाल होकर हवा में उड़ जाता...मुक्त हो जाता. पर चूँकि पूछा नहीं गया और सालों दराज में पड़ा रहा तो उम्र की सलवटों ने इस किशोर सवाल को बूढ़ा और समझदार बना दिया है. पके बालों वाला ये सवाल साधना में रत था...इसमें अब ऐसी शक्ति आ गयी है कि तुम्हारे मन के अन्दर झाँक के देख लेता है. इसे वो भी पता है जो खुद तुम्हें भी नहीं पता. इस दराज को खोलोगे तो बहुत सोच समझ कर खोलना, क्यूंकि इससे मिलने के बाद तुम्हारी जिंदगी कभी पहले जैसी नहीं रह पायेगी.

ठीक तुम्हारे हाथ की ऊंचाई पर जो सुनहली सी दराज है न, वो मेरी सबसे पसंदीदा दराज है...पूछो कैसे, कि मैंने तो कोई नाम, नंबर नहीं लिखे हैं यहाँ...तो देखो, उस दराज का हैंडिल दिखा तुम्हें, कितना चमकदार है...तुम्हारी आँखों जैसा जब तुम मुझसे पहली बार मिले थे. दराज के हैंडिल पर जरा भी धूल नहीं दिखेगी तुम्हें...इसे मैं अक्सर खोलती रहती हूँ...कभी कभी तो एक ही दिन में कई बार. इस दराज में तुम्हारी हंसी बंद है...जब तुम बहुत पहले खुल कर हँसे थे न...मैंने चुपके से उसका एक टुकड़ा सकेर दिया था...और नहीं क्या, तुम्हें भले लगे कि मैं एकदम अव्यवस्थित रहती हूँ, पर आवाजों के इस घर में मुझे जो चाहिए होता है हमेशा मिल जाता है. बहुत चंचल है ये हंसी, इसे सम्हाल के खोलना वापस डब्बे में बंद नहीं होना चाहती ये...तुम्हारा हाथ पकड़ कर पूरे घर में खेलना चाहती है...इसकी उम्र बहुत कम होती है न, कुछ सेकंड भर. तो जितनी उर्जा, जितना जीवन है इसमें खुल के जी लेती है.

अरे अरे...ये क्या करने जा रहे हो, ये मेरी सिसकियों की दराज है...एक बार इसे खोल लिया तो सारा आवाज़ घर डूब जाएगा. फिर कोई और आवाज़ सुनाई नहीं देगी...वो नहीं देखते मैंने इसे अपने दुपट्टे से बाँध रखा है कि ये जल्दी खुले न...फिर भी कभी कभार खुल जाता है तो बड़ी मुश्किल होती है, सारी आवाजें भीग जाती हैं, फिर उन्हें धूप दिखा के वापस रखना पड़ता है, बड़ी मेहनत का काम है. इस दराज से तो दूर ही रहो...ये सिसकियाँ पीछा नहीं छोड़ेंगी तुम्हारा...और तुम भी इसी तिलिस्म के होके रह जाओगे. यायावर...तुम्हें बाँधने का मेरा कोई इरादा नहीं है. मैं तो तुम्हें बस दिखा रही थी कि कैसे तुम्हारी आवाज़ के हर टुकड़े को मैंने सम्हाल के रखा है...तुम्हें ये न लगे कि मैं तुम्हारी अहमियत नहीं समझती.












तुम्हारी ख़ामोशी मुझे तिनका तिनका तोड़ रही है. बहुत दिनों से इस आवाज़ घर में कोई नयी दराज़ नहीं खुली है...तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा मिलेगा?

24 November, 2011

लव- वाया रॉयल एनफील्ड

परसों साकिब की बाईक फाइनली आ गयी...रोयल एनफील्ड थंडरबर्ड. बैंगलोर में एनफील्ड की लगभग चार महीने की वेटिंग चल रही है. तो बुक कराये काफी टाइम हुआ था और हमारे इंतज़ार को भी. शाम जैसे ही फोन आया की 'भाभी, बाईक आ गयी'...भाभी दीन दुनिया, मोह-माया सब त्याग कर फिरंट. कार उठाये और यहीं से हल्ला कि अकेले मत चले जाना, हम आ रहे हैं. फिर डेयरी मिल्क ख़रीदे, बड़ा वाला...कि मिठाई कौन खरीदने जाए...और शुभ काम के पहले कुछ मीठा हो जाए. कुणाल आलरेडी हल्ला कर रहा था कि हमको टाइम नहीं है, उसपर हम हल्ला कर रहे थे कि तुमको बुला कौन रहा है. उसको वैसे भी बाईक का एकदम भी शौक़ नहीं है.

तो लगभग पांच बजे हम इंदिरानगर से चले और कोरमंगला से साकिब और अभिषेक को उठाये फिर जयनगर, एनफील्ड के शोरूम. ओफ्फफ्फ्फ़ क्या जगह थी...कभी इस बाईक पर दिल आये, कभी उस पर. कभी डेजेर्ट स्टोर्म पर मन अटके कभी क्लास्सिक क्रोम जानलेवा लगे. पर सबमें प्यार हुआ तो थंडरबर्ड से...सिल्वर कलर में. दिल तो वहीं आ गया कि ये वाली बाईक तो उठा के ले जायेंगे. समस्या बस इतनी कि कुणाल को बाईक पसंद नहीं है. खैर...साकिब की बाईक आई, हमने डेरी मिल्क खा के शुभ आरम्भ किया...उफ्फ्फ क्या कहें...उस बाईक पर बैठ कर दुनिया कैसी तो अच्छी लगने लगती है. लगता है जैसे सारे दुःख-तकलीफ-कष्ट ख़तम हो गए हैं. मन के अशांत महासागर में शांति छा गयी है...कभी लगे कि जैसे पहली बार प्यार हुआ था, एकदम १५ की उम्र में, वैसा ही...दिल की धड़कन बढ़ी हुयी है...सांसें तेज़ चल रही हैं और हम हाय! ओह हाय! किये बैठे हैं. घर वापस तो आ गए पर दिल वहीं अटका हुआ था, थंडरबर्ड में...सिल्वर रंग की.

अब मसला था कि कुणाल को बाईक पसंद नहीं है...और थंडरबर्ड कोई छोटंकी बाईक नहीं है कि हम अपने लिए खरीद लें...ऊँची है और चलाने के लिए कोई ६ फुट का लड़का चाहिए होगा. हमने अपनी पीठ ठोंकी कि अच्छे लड़के से शादी की, कुणाल ६'१ का है...और थंडरबर्ड चलाने के लिए एकदम सही उम्मीदवार है. दिन भर, सुबह शाम दिमाग में बाईक घूम रही थी...कि ऐसा क्या किया जाए...और फिर समझ नहीं आ रहा था कि लड़के को बाईक न पसंद हो ठीक है...पर ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी को एनफील्ड से प्यार न हो. जिस बाईक को देख कर हम आहें भर रहे हैं...वो तो फिर भी लड़का है. कल भोरे से उसको सेंटी मार रहे थे कि क्या फायदा हुआ इतना लम्बा लड़का से बियाह किये हैं कभियो एक ठो चिन्नी का डब्बा भी दिया किचन में रैक से उतार के. हाईट का कोई फायदा नहीं मिला है हमको...अब तुमको कमसेकम बाईक तो चला दी देना चाहिए मेरे लिए. उसपर भी हम खरीद देंगे तुमको, पाई पाई जोड़ के, खूब मेहनत करके. बाईक भी सवा लाख की है, इसके लिए कितना तो मेहनत करना पड़ेगा हमें. कुणाल के पसंद की कोई चीज़ हो तो हम उससे खरीदवा लें. अपने पसंद की चीज़ तो खुद खरीदनी चाहिए ना. तो हम दिन भर साजिश बुन ही रहे थे कि कैसे कुणाल को बाईक पसंद करवाई जाए.


इन सब के बीच हमें ये नहीं पता था कि कुणाल ने एनफील्ड कभी चलाई ही नहीं है. कल रात साकिब और कुणाल ऑफिस से लौट रहे थे जब जनाब ने पहली बार चलाई. मुझे पहले ही बोल दिया था कि तैयार होके रहना घूम के आयेंगे...तो मैंने जैकेट वैकेट डाल के रेडी थी घर के नीचे. डरते डरते बैठी, कुणाल का ट्रैक रिकोर्ड ख़राब है. मुझे पहली ही डेट पर बाईक से गिरा दिया था. (लम्बी कहानी है, बाद में सुनाउंगी). तो हम बैठे...कोई रात के ११ बजे का वक़्त...बंगलौर का मौसम कुछ कुछ दिल्ली की ठंढ जैसा...इंदिरानगर गुडगाँव के सुशांत लोक जैसा...एक लम्हा था कि जैसे जादू सा हुआ और जिंदगी के सारे हिस्से एक जिगसा पजल में अपनी सही जगह आ के लग गए. हलकी हवा, कुणाल, थंडरबर्ड और मैं...और उसने इतनी अच्छी बाईक चलाई कि मुझे चार साल बाद फिर से कुणाल से प्यार हो गया. फिर से वैसा लग रहा था कि जैसे पहली बार मिली हूँ उससे और वो मुझे दिल्ली में घुमा रहा है. लगा कि जैसे उस उम्र का जो ख्वाब था...एक राजकुमार आएगा, बाईक पे बैठ कर और मेरा दिल चोरी कर के ले जाएगा...वैसा कुछ. कि कुणाल वाकई वही है जो मेरे लिए बना है. कितना खूबसूरत लगता है शादी के चार साल बाद हुआ ऐसा अहसास कि जिसने महसूस किया हो वही बता सकता है.

It was like everything just fell into place...and I know he is the one for me :) Being on bike with him was like a dream come true...exactly as I had imagined it to be, ever in my teenage dreams. My man, a bike I love...weather the way I like it and night, just beautiful night in slow motion...dreamy...ethereal.

और सबसे खूबसूरत बात...कुणाल को एनफील्ड अच्छी लगी, दरअसल बेहद अच्छी लगी...घर आ के बोला...अच्छी बाईक है, खरीद दो :) :)

पुनःश्च - It is impossible for a man to not fall in love with a Royal Enfield. There is something very subliminal...maybe instinct. I don't know how the bike-makers got it right but for me a man riding a Royal Enfield is the epitome of perfection, like the complete man from Raymond adverts. The classic, masculine image of a man before being toned down by the desire to fit into the metrosexual category. It signifies the change from being a boy to being a man. Be a man, ride an Enfield.

The views and opinions in this blog are strictly of the blog author who has a right to publish any gibberish she wants to...the busy souls are requested to find someplace else to crib!! ;) ;) I will not clarify any of the terms like metrosexual man, raymonds man, classic...whatever :D :D

19 November, 2011

जिंदगी, आई लव यू!

बंगलौर में सर्दियाँ शुरू हो गयी हैं...यहाँ के साढ़े तीन साल में ये पहले बार है जब मौसम वाकई ठंढा सा हो रहा है. अख़बारों में भी आया है कि इस बार बंगलोर हर बार से थोड़ा ज्यादा ठंढा है. प्यार के बारे में मेरे अनगिनत थ्योरम में एक ये भी है कि 'Winter is the season to fall in love'. ठंढ का मौसम प्यार करने के लिए ही होता है.

सोचिये अच्छा सा कोहरा पड़ रहा हो, आप एकदम अच्छे से जैकेट, टोपी, दस्ताने, जींस और अच्छे वाले जूते पहन कर सड़क पर चल रहे हों...कोई गाना बज रहा हो बैकग्राउंड में...मन में या फिर हेडफोन्स में...कोई भी...जैसे कि मान लीजिये आजकल हमको ताज़ा ताज़ा कर्ट कोबेन से प्यार हुआ है तो दिन भर निर्वाणा के गाने सुनती रहती हूँ. तो मान लीजिये कि दिल्ली(हाय दिलरुबा दिल्ली, ठंढी आह भर लूँ!) की सड़कें हैं और गीत के बोल कुछ ऐसे हैं 'Come as you are' तो आपका दिल नहीं करेगा कि आपके हाथों को दस्तानों में नहीं किसी नर्म नाज़ुक लड़की के हाथों में होना चाहिए...फिर गर्म कॉफ़ी के कप के इर्द गिर्द उँगलियाँ लपेट कर आप किन्ही खाली रास्तों पर टहलते रहते...बोलते तो मुंह से भाप निकलती और ठंढ की गहरी रातों की ख़ामोशी में उसकी हंसी कुछ ऐसे खनकती कि आपको मालूम भी नहीं चलता कि आपको उससे प्यार हो रहा है...और जब तक आपको ये डर लगता कि शायद आपको उससे प्यार हो जाएगा, आपको आलरेडी प्यार हो चुका होता. फिर कभी उसे ज्यादा ठंढ लगती तो कंधे पर हाथ रखते और उसे थोड़ा अपने करीब खींच लाते...And on one of these days while sauntering on lonesome roads you could whisper 'I love you' in her ear ever so lightly that the poor girl might be totally confused...कि आपने वाकई उसे 'आई लव यू' कहा है or the wind is playing tricks with her mind.

मेरे तरफ कहते थे कि जाड़ों का वक़्त अच्छा खाना खाने का होता है...तो जाड़ों में मस्त पकोड़े खाइए, सड़क किनारे ठेले से मैगी या चाउमीन या फिर वो बांस की टोकरियों में बने मोमो खाइए...गर्म भाप उठती हो तभी फटाफट खा लेना पड़ेगा क्यूंकि ठंढी हो जाने पर इनका मज़ा नहीं आता. आपको कभी न कभी तो आइसक्रीम से प्यार हुआ होगा...न हुआ हो तो अब कर लीजिये कौन सी देर हो गयी है. जाड़ों में आइसक्रीम पिघलती भी देर से है तो लुत्फ़ उठा कर खायी जा सकती है, प्यार अगर ज्यादा उमड़ रहा हो तो बाँट के भी खायी जा सकती है...पर प्लीज किसी लड़की से उसके हिस्से की आइसक्रीम मत मांगिएगा...हम लड़कियां शेयर करने में थोड़ी कंजूस होती हैं. हाँ जिंदगी में कुछ नए रंग ट्राय करने हैं तो बर्फ का गोला खाइए...काला खट्टा गोला. थोड़ा खट्टा, थोड़ा मीठा रस में डूबा हुआ...प्यार की तरह. प्यार उस सफ़ेद बर्फ के चूरे की तरह होता है, उसे थोड़ी थोड़ी देर में जिंदगी के रंग बिरंगे अनुभवों में डुबाना पड़ता है...तब ही साथ रहना जादू सा होता है.

 ओह प्यार! मैं कितना भी लिख लूँ, मेरे पास लिखने को चीज़ें कभी ख़त्म नहीं होतीं...मेरे अन्दर के कवि को हमेशा किसी न किसी से प्यार हुआ रहता है...आप प्यार में होते हो तो खुश होते हो. कभी कर्ट से प्यार हो गया तो दिन भर उसके गाने सुन रही हूँ...उसकी आँखों में देख रही हूँ और बेतरह उदास हो रही हूँ कि वो इस दुनिया में नहीं है वरना एक बेहद खूबसूरत चिट्ठी उसके नाम भी लिखती...डूब के...कभी किसी पेंटर के रंगों पर मर मिटे कि कैनवास में जिंदगी नज़र आने लगी. वैन गोग के बारे में कहते हैं कि वो ऐसे पेंट करते थे जैसी चीज़ें उन्हें दिखती थीं...अपने समय में वो भी गरीब रहे, उदास रहे और जीते जी सफलता नहीं देखी. मॉने की पेंटिंग के धुंधले रंग जाड़ों की सुबहें जैसी लगेंगी. दुनिया में कितना कुछ है प्यार हो जाने को.

मुझे जब भी कुछ नया मिलता है तो एक बार प्यार हो जाता है...कभी कवि से, कभी चित्रकार से, कभी गिटार से...किसी की आँखों से, कभी रूह में घुलती आवाज़ से...फिर ' La vie en rose' या कि दुनिया गुलाबी चश्मे से दिखती है...खूबसूरत, बेइन्तहा. दिल टूटता भी है...सब बिखरने सा बिखर जाता है पर फिर कलम टाँके लगा देती है और मैं फिर प्यार करने, टूटने और फिर प्यार में गिरने को तैयार हो जाती हूँ.

A poet is continually in love.

नवम्बर आखिरी चल रहा है...आज सोच रही हूँ लम्बी ड्राइव पर जाऊं, मैसूर रोड पर वाले कॉफ़ी डे में गरम कॉफ़ी...ब्राउनी विद चोकलेट सौस...रात को डिनर में कुछ अच्छा खाना बनाऊं...और फाइनली रॉकस्टार देख लूँ.

मेरी जिंदगी के खास लोगों के लिए ये फुटनोट...बस मुझे याद रहे इसलिए...प्यारे आकाश को उसके जन्मदिन पर मेरा ढेर सारा आशीर्वाद...और ढेर सी खुशियों की दुआएं...तुम मेरे सबसे सबसे फेवरिट हो.

And a shout out to Anupam Giri...You are superawesome...THANKS A TON Sir!!!

La vie, Je t'aime!

19 October, 2011

खुराफातें

कल  कुणाल कलकत्ता से वापस आ रहा था, चार दिन के लिए ऑफिस का काम था. कह के तो सिर्फ दो दिन के लिए गया था, पर जैसा की अक्सर होता है, काम थोड़ा लम्बा खिंच गया और रविवार की रात की जगह मंगल की रात को वापस आ रहा था.

मैंने कार वैसे तो पिछले साल जनवरी में सीखी थी, पर ठीक से चलाना इस साल शुरू किया. अक्सर कार से ही ऑफिस जा रही हूँ. इसके पीछे दो कारण रहे हैं, एक तो मेरा ऑफिस १० किलोमीटर से दूर जाने वाली जगह हो जा रहा है, और दूसरा स्पोंडीलैटिस का दर्द जो बाइक चलाने से उभर आता है. बंगलोर की सडकें बड़ी अजीब हैं...ये नहीं की पूरी ख़राब है, एकदम अच्छी सड़क के बीचो बीच गड्ढा हो सकता है. ऐसा गड्ढा किसी भी दिन उग आता है सड़क में. तो आपकी जानी पहचानी सड़क भी है तो भी आप निश्चिंत हो कर बाइक तो चला ही नहीं सकते हैं. अब मैं कार अच्छे से चला लेती हूँ. हालाँकि ये सर्टिफिकेट खुद को मैंने ही दिया है...और कोई  मेरे साथ बैठने को तैयार ही नहीं होता. कुणाल के साथ जब भी कहीं जाती हूँ तो वही ड्राइव करता है. उसका कहना है कि हफ्ते भर ऑफिस की बहुत परेशानी रहती है उसे, फिर वीकेंड पर टेंशन नहीं ले सकता है. मैं कभी देर रात चलाती भी हूँ तो सारे वक़्त टेंशन में रहता है. 

वर्तमान में लौटते हैं...सवाल था एअरपोर्ट जाने का...वैसे मेरे ममेरे भाई भी इसी शहर में रहते हैं तो पहले सोचा था उनके साथ चली जाउंगी. फिर पता चला उन्हें ऑफिस में बहुत काम है...और कुणाल की फ्लाईट ८ बजे पहुँच रही थी. इस समय ट्रैफिक भी इतना रहता है कि जाने में कम से कम दो घंटे लगते. आने के पहले कुणाल से पूछा था की क्या करूँ, बस से आ जाऊं तो उसने मना कर दिया था. बंगलौर में एअरपोर्ट जाने के लिए अच्छी वोल्वो बसें चलती हैं, जिनसे जाना सुविधाजनक है. अब जैसे ही कुणाल ने फ्लाईट बोर्ड की हमारा मन डगमग होने लगा कि जाना तो है. पहले तो सब्जी वगैरह बनाने की तैयारी कर रही थी, दूध फाड़ के पनीर निकाल लिया था और उसे  टांग कर छोड़ दिया था. ताज़े पनीर से सब्जी में बहुत अच्छा स्वाद आता है. 

अब मैं दुविधा में थी...या तो खाना बना सकती थी क्यूंकि पता था कुणाल और साकिब(उसका टीममेट) ने सुबह से कुछ ढंग का खाया नहीं था...तो एकदम भूखे आ रहे थे...या फिर मैं अकेले एअरपोर्ट जा सकती थी...जो कि कुणाल ने खास तौर से मना किया था. अब अगर आप मुझे जरा भी जानते हैं तो समझ गए होंगे की मैंने क्या किया होगा. रॉकस्टार के गाने सीडी पर बर्न किये और जो कपड़े सामने मिले एक मिनट में तैयार हो गयी...साथ में हैरी पोटर की किताब भी...की अगर इंतजार करना पड़े तो बोर न होऊं. 

मैंने कभी इतनी लम्बी दूर तक गाड़ी नहीं चलाई थी...और तो और हाईवे पर सबके साथ होने पर भी नहीं चलाई थी...एअरपोर्ट नैशनल हाईवे नंबर सात से होते हुए जाना होता है. इस रास्ते पर जाने का कई बार मेरा दिल किया है...पर हमने खुद को समझा कर कहानी लिखने में संतोष कर लिया था. खैर...इतना किन्तु परन्तु हम करते तो इस दर्जे के मूडी थोड़े न कहलाते. 

रास्ते में बहुत ट्रैफिक था...पर गाने सुनते हुए कुछ खास महसूस नहीं हुआ. रोज की आदत भी है सुबह ऑफिस जाने की. मज़ेदार बात ये हुयी की आजकल मेट्रो के लिए या फ़्लाइओवेर बनाने के लिए सड़कें खुदी हुयी हैं. पहले जब भी इस रास्ते पर गयी हूँ एकदम अच्छी सड़कें हैं. रेस कोर्स रोड तक तो सही थी, गोल्फ ग्राउंड भी आया था, उसके बाद विंडसर मैनर का ब्रिज भी आया था...आगे एक फ़्लाइओवेर आया, यहाँ मैं पूरा कंफ्यूज थी कि मैं कोई गलत रास्ता लेकर आउटर रिंग रोड पर आ गयी हूँ. रास्ता इतना ख़राब मैंने कभी नहीं देखा था इधर. 

अब चिंता होने लगी...इतने ट्रैफिक में अगर गलत रस्ते पर आ गयी हूँ तो वापस जाने में देर हो जाएगी और कुणाल की फ्लाईट लैंड कर जायेगी...तब क्या कहूँगी कि मैं कहीं खोयी हुयी हूँ. फ़्लाइओवर पर ही गाड़ी रोकी और बाहर निकल कर पीछे वाली कार वाले से पूछा 'ये एयरपोर्ट रोड तो नहीं है न?' पूरा यकीन था कि बोलेगा तुम कहीं टिम्बकटू में हो...पर उसने कहा कि ये एयरपोर्ट रोड ही है. जान में जान आई. 

उसके बाद अच्छा लगा चलाने में...डर तो खैर एकदम नहीं लगा. ७० के आसपास चलायी...गड़बड़ बस ये हुयी कि कभी पांचवे गियर में चलने की नौबत ही नहीं आई शहर में तो मुझे लगा था कि वो गियर ८० के बाद लगाते हैं. आकाश को फोन भी किया पूछने के लिए तो उसने उठाया नहीं. खैर...मैं दो घंटे में पहुँच गयी थी एअरपोर्ट. आराम से वहां काटी रोल खाया और मिल्कशेक पिया. 

कुणाल जब लैंड किया तो मैंने कहा की मैं एअरपोर्ट में हूँ. एकदम दुखी होके बोलता है 'अरे यार!'. और फिर जब बाहर आया तो मैंने कहा ...कुणाल वाक्य पूरा करो...मैं एअरपोर्ट... और उसने कहा कार से आई हूँ. मैंने कहा हाँ...अब तो बस...उसकी शकल, क्या कहें...बाकी लोगों के सामने डांटा भी नहीं. बस बोला की ये गलत बात है यार....ऐसे भागा मत करो. 

बस...अच्छी रही मेरी लौंग ड्राइव...और अब मैं उस झील किनारे जाउंगी किसी दिन. जब जाउंगी फिर एक कहानी बनेगी....देखते हैं कब आता है वो दिन.

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