मुझे अँधेरा पेंट करना है, रौशनी तो अब तक कितने लोगो ने पेंट की है, कितने मौसमों की तरह...सूर्यास्त और चाँद रातों की तरह...
तुम ये क्यों नहीं कहती की मुझे खुशबू पेंट करनी है?
मैं क्यों कहूं और तुम मुझे क्यूँ बता रहे हो?
और तुम शोर पेंट क्यों नहीं करती?
जब मैं कह रही हूँ की मुझे क्या पेंट करना है तो तुम ये बाकी नाम गिनने की कोशिश क्यों कर रहे हो? तुम मेरी तरफ़ हो या अंधेरे की तरफ़...
मैं पेंटिंग हूँ, मुझे किसी की तरफ़ होने की क्या जरूरत है।
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क्या लेखक का कुछ भी अपना नहीं होता? इतना अपना की उसे किसी के साथ बांटने की इच्छा न हो ? जब तक ख्यालों को शब्द नहीं मिले हैं वह लेखक के हैं। शब्द क्या हैं? एक समाज से मान्य अर्थ की पुष्टि के यंत्र ...शब्दों से परे जो सोच है वही सत्य है। होना क्या है...existence?
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वो कौन से लोग होते hain जो माचिस की डिब्बियों पर साइन करते हैं, या १० रुपये के नोट पर अपना नाम और नम्बर छोड़ देते हैं।
मैं भी किसी पत्थर पर तुम्हारा नाम लिखना चाहती थी, बताओ न अगर मैंने लिखा होता तो क्या तुम पढ़ते? और अगर तुम पढ़ते तो क्या तुम्हें मालूम होता कि मैंने लिखा है?
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कल रात ऐसे ही कागज पर कलम घिस रही थी...बहुत दिन बाद कलम पकड़ी थी, अच्छा लग रहा था लिखना, हालाँकि लिखा हुआ खास पसंद नहीं आया. ऐसे कि बेतरतीब ख्यालों के टुकड़े हैं. कभी कभी यूँ ही ख्याल समेटना अच्छा लगता है.
PS: आज वेबदुनिया पर एक आर्टिकल आई है मेरे बारे में...आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं