29 April, 2011

रेशम की गिरहें

जिंदगी सांस लेने की तरह होती है...दिन भर महसूस नहीं होती, दिन महीने साल बीतते जाते हैं. पर कुछ लम्हे होते हैं, गिने चुने से जब हम ठहर कर देख पाते हैं अपने आप को...उस वक़्त की एक एक सांस याद रहती है और किसी भी लम्हे हम उस याद को पूरी तरह जी सकते हैं.

इतना कुछ घटने के बावजूद ऐसा कैसे होता है की कुछ लोग हमें कभी नहीं भूलते...क्या इसलिए की उनकी यादों को ज्यादा सलीके से तह कर के रखा गया है...बेहतर सहेजा गया है...लगभग पचास पर पहुँचती उम्र में कितनी सारी जिंदगी जी है उसने और कितने लोग उसकी जिंदगी में आये गए. कुछ परिवार के लोग, कुछ करीबी दोस्त बने, कितनों को काम के सिलसिले में जाना...कुछ लोगों से ताउम्र खिटपिट बनी रही. 

आज शोनाली का ४९वां जन्मदिन है. सुबह उठ कर मेल चेक किया तो अनगिन लोगों की शुभकामनाएं पहुंची थीं, कुछ फूल भी भेजे थे उसके छात्रों ने और कुछ उसके परिचितों ने. घर पर त्यौहार का सा माहौल था, छोटी बेटी शाम की पार्टी के लिए गाने पसंद कर रही थी...खास उसकी पसंद के. वो याद के गाँव ऐसे ही तो पहुंची थी, गीत की पगडण्डी पकड़ के...

घर के थियेटर सिस्टम में गीत घुलता जा रहा था और वो पौधों को पानी देते हुए सोच रही थी की ऐसा क्या था उन डेढ़ सालों में. देखा जाए तो पचास साल की जिंदगी में डेढ़ साल कुछ ज्यादा मायने नहीं रखते. बहुत छोटा सा वक़्त लगता है पर ऐसा क्या था उन सालों में की उस दौर की यादें आज भी एकदम साफ़ याद आती हैं...उनपर न उम्र का असर है न चश्मे के बढ़ते नंबर का. 

'न तुम हमें जानो, न हम तुम्हें जानें, मगर लगता है कुछ ऐसा...मेरा हमदम मिल गया...' गीत के बोल शायद किसी अजनबी को सुनाने के एकदम परफेक्ट थे...अजनबी जिसने अचानक से सिफारिश कर दी हो कोई गीत सुनाने की...और कुछ गाने की इच्छा भी हो. देर रात किसी लैम्पोस्ट की नरम रौशनी में, सन्नाटे में घुलता हुआ गीत...'ये मौसम ये रात चुप है, ये होटों की बात चुप है, ख़ामोशी सुनाने लगी...है दास्ताँ, नज़र बन गयी है दिल की जुबां'. आवाज़ में हलकी थरथराहट, थोड़ी सी घबराहट की कैसा गा रही हूँ...अनेक उमड़ते घुमड़ते सवाल की वो क्या सोचेगा, आज पहली ही बार तो मिली हूँ...उसने गाने को कह दिया और गाने भी लगी. दिमाग की अनेक उलझनों के बावजूद वो जानती थी की इस लम्हे में कुछ तो ऐसा ही की वो इस लम्हे को ताउम्र नहीं भूल सकेगी. 

उस ताउम्र में से कुछ पच्चीस साल गुज़र चुके हैं, भूलना अभी तक मुमकिन तो नहीं हुआ है...और ये गीत उसे इतना पसंद है की उसकी बेटियां भी उसका मूड अच्छा करने के लिए यही गाना अक्सर प्ले करती हैं. लोग यूँ ही नहीं कहते की औरत के मन की थाह कोई नहीं ले सकता. घर में इतना कुछ हो रहा है, सब उसके लिए कुछ न कुछ स्पेशल कर रहे हैं और वो एक गीत में अटकी कहीं बहुत दूर पहुँच गयी है, पीली रौशनी के घेरे में. 

उन दिनों उसने अपने मन के फाटक काफी सख्ती से बंद कर रखे थे...और अक्सर देखा गया है कि प्यार अक्सर उन ही लोगों को पकड़ता है जो उससे दूर भागते हैं. कुछ बहुत खास नहीं था उनके प्यार में....उसे एक लगाव सा हो गया था उससे जो उनके ब्रेक अप के बाद भी ख़त्म नहीं हो पाया था. उसे पता नहीं क्यों लगता था की वो उसे ताउम्र माफ़ नहीं करेगा...इस नफरत के साथ का डर भी उसे लगता था, की वो किसी को प्यार नहीं कर पायेगा जैसा कि उसने कहा था...वो चाहती थी कि उसे किसी से प्यार हो...पर प्यार किसी के चाहने भर से नहीं हो पाता. उसे याद नहीं उसने कितनी दुआएं मांगी थी उसके लिए...जिससे कोई रिश्ता नहीं था अब.

अचानक से उसे महसूस हुआ कि चारो तरफ बहुत शोरगुल हो रहा है...गीत कुछ तीन मिनट का होगा पर इतने से अन्तराल में कितना कुछ फिर से जी गयी वो. उसकी बेटी दूसरा गाना लगा रही थी...'ऐ जिंदगी, गले लगा ले हमने भी, तेरे हर इक गम को गले से लगाया है..है न?'...उसे एक छोटा सा कमरा याद आया जिसमें वो उसे छोड़ के जाने के बाद एक आखिरी बार मिलने आई थी...रिकॉर्डर पर यही गाना बज रहा था. 

सीढ़ियों से नीचे देखा तो हर्ष उसकी पसंद के फूल आर्डर कर रहे थे...उसे अपनी ओर देखता पाकर मुस्कुराये और उसे उनपर ढेर ढेर सा प्यार उमड़ आया. जाने किस दुनिया में थी कि फ़ोन की घंटी से तन्द्रा टूटी....
'जन्मदिन मुबारक!' और उसे आश्चर्य नहीं हुआ कि इतने साल बाद भी उसकी आवाज़ पहचान सकती है. उसकी आँखें कोर तक गीली हो गयीं...'तुम्हें याद है आखिरी दिन तुमने कहा था कि मुझसे जिंदगी भर प्यार करोगी?, सच बताओ तुम मुझसे प्यार करती थी?'

'नहीं.......मैं तुमसे प्यार करती हूँ'

उस एक सवाल के बाद कुछ बहुत कम बातें हुयीं...पर आज उसे महसूस हुआ कि उसके दिल में जो सजल के लिए प्यार था वो हमेशा वैसा ही रहा. हर्ष के आने पर, उसकी दोनों बेटियों के आने पर...उन्होंने सजल के हिस्से का प्यार नहीं माँगा...सबकी अपनी जगह बनती गयी...कि उसने कभी सजल को खोया ही नहीं था.

सदियों का अपराधबोध था...बर्फ सा कहीं जमा हुआ...चांदनी सी निर्मल धारा बहने लगी और उसके आलोक में सब कुछ उजला था, निखरा हुआ...उज्वल...धवल...निश्छल. 

26 April, 2011

जो ऐसा मौसम नहीं था

वो ऐसा मौसम नहीं था 
कि जिसमें किसी की जरुरत महसूस हो 
वो ठंढ, गर्मी, पतझड़ या वसंत नहीं था
मौसम बदल रहे थे उन दिनों

तुम आये, तुम्हारे साथ 
मौसमों में रंग आये
मुझसे पूछे बगैर
तुम जिंदगी का हिस्सा बने

तुमने मुझसे पूछा नहीं
जिस रोज़ बताया था 
कि तुम मुझसे प्यार करते हो
मैंने भी नहीं पूछा कि कब तक 

यूँ नहीं हुआ कि तुम्हारे आने से
बेरहम वक़्त की तासीर बदल गयी
यूँ नहीं हुआ कि मैं गुनगुनायी
सिर्फ मुस्कराहट भर का बदलाव आया 

तुमने सोलह कि उम्र में
नहीं जताया अपना प्यार 
और मैं इकतीस की उम्र में
नहीं जता पाती हूँ, कुछ भी 

शायद इसलिए कि
हम बारिशों में नहीं भीगे
जाड़ों में हाथ नहीं पकड़ा 
गर्मियों में छत पर नहीं बैठे 

जब पतझड़ आया तो
पूछा नहीं, बताया 
कि तुम जा रहे हो 
और मैं बस इतना कह पायी 

कुबूल है, कुबूल है, कुबूल है 

22 April, 2011

वो काफ़िर

'तुम्हें देख कर पहली बार महसूस हुआ है कि लोग काफ़िर कैसे हो जाते होंगे. मेरे दिन की शुरुआत इस नाम से, मेरी रात का गुज़ारना इसी नाम से. मेरा मज़हब बुतपरस्ती की इजाजत नहीं देता पर आजकल तुम्हारा ख्याल ही मेरा मज़हब हो गया है.
'जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है'

'शेर का मतलब बताओ...मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया' 
'हमारे यहाँ नमाज़ से पहले वज़ू करते हैं, हाथ पैर धोके, कुल्ला करके...पाक होकर नमाज़ पढ़ते हैं'
'और तिलावत का मतलब?' 
'तुम'
'मजाक मत करो, शेर कहा है तो समझाओ तो ठीक से'

पर उसने तिलावत का मतलब नहीं समझाया...कहानी सुनाने लगा. एक बार मेरे मोहल्ले की किसी शादी में आया था, वहीं उसने मुझे पहली बार देखा था और उसने उस दिन से लगभग हर रोज़ यही दुआ मांगी है कि मैं एक बार कभी उससे बात कर लूं. फिर उसने मुझे अपनी कोपी दिखाई खूबसूरत सी लिखाई में आयतें लिखी हुयी थीं और हर नए पन्ने के ऊपर दायीं कोने में, जिधर हम तारीख लिखते हैं 'अमृता' उर्दू में लिखा था...उस समय मैंने हाल में उर्दू सीखी थी तो अपना नाम तो अच्छी तरह पहचानती थी. उसने फिर बताया की ये मेरा नाम है...मैंने उसे बताया की मैं उर्दू जानती हूँ.  उसने बताया की उसकी कॉपी के हर पन्ने पर पहले मेरा नाम लिखा होता है...उसकी कापियों पर काफी पहले की तारीखों पर मेरा नाम लिखा था कुछ वैसे ही जैसे मेरी कुछ दोस्त एक्जाम कॉपी के ऊपर लिखती थी...'जय माँ सरस्वती' या ऐसा कुछ. कॉपी में आयतों के बीच ये हिन्दू नाम बड़ा अजीब सा लग रहा था और नाम भी कुछ ऐसा नहीं की समझ में नहीं आये. कुछ शबनम, चाँद या ऐसा नाम होता तो शायद ख़ास पता नहीं चलता. 


'बाकी लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? तुम्हें मालूम भी है कि अमृता का मतलब क्या होता है?'
'हाँ...मेरे खुदा का नाम है अमृता' 


मैं सर पकड़ के बैठ गयी...घर पर पता चला तो घर से निकलना बंद हो जाएगा, कैरियर शुरू होने के पहले ही ख़त्म हो जाएगा....मेडिकल करना बहुत टफ था, कोचिंग नहीं जाती तो डॉक्टर बनने के सपने, सपने ही रह जाते. उससे पूछा की मुझे ये सब क्यों बता रहा है तो बोला, बता ही तो रहा हूँ, सुन लोगी तो तुम्हारा क्या चला जाएगा. कुछ माँग थोड़े रहा हूँ तुमसे. मुझे सुकून आ गया थोडा...अब जिंदगी इतनी छटपटाहट में नहीं गुजरेगी. कमसे कम खुदा को शुक्रिया कहते हुए नमाज़ पढ़ सकूँगा. 


मोहल्ले में लोग उसे लुच्चा-लफंगा कहते थे, उसे कोई काम नहीं है, बस झगड़ा, दंगे फसाद करना जानता है. सब जानने पर भी न विश्वास हुआ उनकी ख़बरों पर न उससे नफरत हुयी कभी...और डर, वो तो खैर कभी किसी से लगा ही नहीं. उन दिनों पटना में टेम्पो शेयर करना पड़ता था. पीछे वाली सीट पर तीन लोग बैठते थे, और बहुत देख कर बैठना पड़ता था की कोई शरीफ इन्सान हो. कोचिंग जाते हुए अक्सर सरफ़राज़ पाटलिपुत्रा गोलंबर पर मिल जाता था, उसे स्टशन जाना होता था. उसे कुछ भी नहीं जानती थी...पर एक अजनबी के साथ बैठने से बेहतर उसके साथ जाना लगता था. और कई सालों में उसने कभी कोई बदतमीजी नहीं की. जिस दिन वो दिख जाता पेशानी की लकीरें मिट जाती थीं. 


कहने को कह सकती हूँ की उससे कोई भी रिश्ता नहीं था...बस एक आधी मुस्कान के सिवा मैंने उसे कभी कुछ दिया नहीं, न उसने कभी कुछ कहा मुझसे. उसने पहले दिन वाली बात फिर कभी भी नहीं छेड़ी, मैंने भी सुकून की सांस ली. वैसे भी इशरत के पापा का ट्रान्सफर हो गया था तो उसके मोहल्ले में जाने का कोई कारण नहीं बनता था. मैं सरफ़राज़ के घर फिर कभी नहीं गयी...इशरत से बात किये एक अरसा हो गया है, आज भी सोच नहीं पाती की उसके उतने बड़े मकान में उसने अपने स्टडी रूम में क्यूँ रुकने क कहा, जबकि उसका बड़ा भाई वहां पढ़ रहा था. क्या इशरत को सरफ़राज़ ने मेरे बारे में बताया था या वो महज़ एक इत्तेफाक था. 


एक दिन 'राजद' का चक्का जाम था, पर हम जिद करके कोचिंग चले गए कि दिन में बंद था...शाम को कुछ नहीं होता.  क्लास चल रही थी कि खबर आई की बोरिंग रोड में कुछ तो दंगा फसाद हो गया है, फाइरिंग भी हुयी है. क्लास उसी समय ख़त्म कर दी गयी और सबको घर जाने के लिए बोल दिया. कोचिंग से बाहर आई तो देखा कर्फ्यू जैसा लगा हुआ है. दुकानों के शटर बंद, सड़क पर कोई भी गाड़ियाँ नहीं, एक्के दुक्के लोग और टेम्पो तो एक भी नहीं. पैदल ही निकल गयी...कुछ कदम चली थी की सरफ़राज़ ने पीछे से आवाज़ दी.
'उधर से मत जाओ, आग लगी हुयी है, गोलियां चल रही हैं.'
मुझे पहली बार थोड़ा डर लगा...पटना  उतना सुरक्षित भी नहीं था...पिछले साल कुछ गुंडे दुर्गापूजा के समय डाकबंगला चौक से एक लड़की को मारुती वान में खींच ले गए थे. एक सेकंड सोचा...कि सरफ़राज़ के साथ जाना ठीक रहेगा या अकेले...तो फिर उसके साथ ही चल दी...उसे अन्दर अन्दर के रास्ते मालूम थे. जाने किन गलियों से हम बढ़ते रहे...शाम गहराने लगी थी और एक आध जगह तो मैं गिरते गिरते बची, एक तो ख़राब सड़क उसपर मेरे हील्स. सरफ़राज़ ने अपना हाथ बढ़ा दिया...की ठीक से चलो. और पूरे रास्ते हाथ पकड़ कर लगभग दौड़ाता हुआ ही लाया मुझे. मैं महसूस कर सकती थी की उसे मेरी चिंता हो रही  है. 


अचानक से मेरे मुंह से सवाल निकल पड़ा कि तुम्हें सब लोग बुरा क्यों कहते हैं मेरे मोहल्ले में...यूँ तो सवाल अचानक से था...पर दिल में काफी दिन से घूम रहा था. वो उस टेंशन में भी हंसा...
'इशरत को कुछ लड़कों ने छेड़ दिया था, बताओ तुम्हिएँ कि छेड़े तो तुम्हारे भाई का खून नहीं खौलेगा? उनसे काफी लड़ाई हो गयी मेरी...क्या गलत किया मैंने, पुलिस आ गयी थी. मुझे तीन दिन जेल में डाल दिया...अब्बा ने बड़ी मुश्किल से मुझे छुड़ाया. बस, इतना सा किस्सा है'. 
'पटना का माहौल तो तुम जानती ही हो, इसलिए तुम अगर दिख जाती हूँ तो तुम्हारे साथ ही टेम्पो पर जाता हूँ...तुम्हें ऐतराज़ हो तो मना कर दो'. 
तब तक हम घर के पास आ गए थे, पर सरफ़राज़ ने उसने मुझे घर के चार कदम पर छोड़ा. उसने सर पर हाथ रखा और कहा 'अपना ख्याल रखना' ये उसके आखिरी शब्द थे. उस दिन से बाद से उससे कभी बात नहीं हुयी मेरी.
पटना के आखिरी कुछ सालों में व मुझे बहुत कम दिखा. शादी के दिन भी नहीं आया...हालाँकि मैंने कार्ड पोस्ट किया था उसके घर पर. शायद उसने घर बदल लिया हो. जाने क्यूँ मुझे लगता है, जिंदगी के किसी मोड़ पर व जरुर फिर मिलेगा...भले एक लम्हे भर के लिए सही. 


इस शेर का मतलब तो अब समझ आ गया है...पर शायद वो मुझे पूरी ग़ज़ल भी बता दे उस रोज़. 


जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है

ज़ख्म अब तक हरे हैं

तुम्हें सच में नहीं दिखते?
दायें हाथ की उँगलियों के पोर...नीले हैं अब तक
ना ना, सियाही नहीं है...माना की लिखती हूँ 
पर अब तो बस कीपैड पर ही 

तुम भूल भी गए फिर से
तुम्ही ने तो मेरी पेन का निब तोड़ा था 
मुझसे अब कभी नहीं मिलना
कह कर, आखिरी वाले दिन 

तुम क्यूँ पकड़ा करते थे मेरा हाथ
क्लास में डेस्क के नीचे, तुम्हें पता है 
एक हाथ से नोट्स कॉपी करने में
उँगलियों के पोर नीले पड़ जाते थे 

गर्म दोपहरों में, पिघला डेरी मिल्क 
उँगलियाँ झुलसा देता था
इतना तो तवे से रोटियां उतारते
हुए भी कभी नहीं जली मैं 

मेरे हाथ से फिसलती तुम्हारी उँगलियाँ
तराशी हुयी, किसी वायलिन वादक जैसी 
छीलती चली गयीं थीं मेरी हथेलियों को 
लगता था बचपन है, चोट लगने वाले दिन हैं 

आज डायरी पढ़ रही थी, २००३/४/5 की
उँगलियाँ फिर से सरेस पर रगड़ खा गयीं 
पन्ने लाल होने लगे तो  जाना 
उँगलियों के ज़ख्म अब तक हरे हैं 

13 April, 2011

उस सरफिरी, उदास लड़की का क्या हुआ?

बहुत पुरानी बात है...
दो आँखें हुआ करती थीं
बीते बरस 
उनपर कई मौसम आये और गए 

जिस दिन से तुम नहीं आये 
रात का काजल 
आँखों में फैलता चला गया 
और बेमौसम बारिश होने लगी 

जो नदी बरसाती हुआ करती थी
अब सालों भर बहने लगी
आँखों का काला रंग भी
पानी में घुल के फीका पड़ने लगा 

जो दिखते थे सारे रंग 
जिंदगी से रूठ कर चले गए 
बहार को आँखों ने पहचाना नहीं
वो इंतज़ार करते बूढ़ी हो गयी 

सुनते हैं कि बरसों की थकन से 
उसकी आँखें मर गयी थीं 
मगर ये कभी पता ही नहीं चला
उस सरफिरी, उदास लड़की का क्या हुआ?

06 April, 2011

म्युचुअल/Mutual

तुमने कहा
मुझे बस एक लम्हा चाहिए, पूरी शिद्दत से जिया एक लम्हा
मैंने कहा
मुझे तुम्हारी पूरी जिंदगी चाहिए, सारी जिंदगी 

तुमने कहा
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
मैंने कहा
तुम्हारे-मेरे रिश्ते का नाम ला कर दो 

तुमने कहा
तुम्हारे पंखों में उड़ान है, तुम पूरा आसमान नाप सकती हो, मैं तुम्हें कभी बाँध के नहीं रखूँगा
मैंने कहा
ये एक कमरा है, इसमें मैं हमारा घर बसाउंगी, इसी में रहो, समाज यही कहता है...मुझे बाहर नहीं जाना  

तुमने कहा
मेरे साथ उदास हो, मैं तुम्हें परेशान नहीं देख सकता, तुम चली जाओ, खुश रहना 
मैंने कहा 
वादा करो मुझे छोड़ कर कभी नहीं जाओगे, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती 

तुमने कहा
मेहंदी लगवा लो, वैसे भी हमारे तरफ मेहंदी में लिखे नाम का ही मोल होता है
मैंने कहा
मुझे टैटू बनवाना है, वो भी तुम्हारे नाम का ही 

तुमने कहा
मुझे भूल जाना अब
मैंने नहीं कहा
कि मुझे भूलना नहीं आता 

तुम्हें लौटना नहीं आता
और मुझे इंतज़ार नहीं भूलता...

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