मुझे चीज़ों को महसूसने की अपनी इंटेंसिटी से डर लगता है। बहुत गहरा प्यार। बहुत ज़्यादा दुख। बहुत टीसता हुआ बिछोह। मैंने अपने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा अपने इमोशंस को समझने और बहुत हद तक उन पर कंट्रोल करने में उलझाया है। ये ऐसे जंगली जानवर हैं कि जिन्हें पालतू नहीं बनाया जा सकता। इनके लिए गहरे, अंधेरे, ख़ामोश तहख़ाने बनाए जाते हैं और इन्हें क़ैद कर के रखा जाता है। इन्हें कहा जाता है कि बहुत दिन तक अच्छा व्यवहार करने वाले क़ैदियों को जिस तरह खिड़की वाली कोठरियों में डाला जाता है…उसी तरह मैं उन्हें भी खुले मैदान वाली जेल में भेज दूँगी। मैं कहती हूँ कि वहाँ से चाँद दिखता है।
दो बाय दो बाय छह फुट की कोठरी में जिस खतरनाक इश्क़ को रखा गया है उसने सूरज तो क्या चाँद भी कई सालों से नहीं देखा। जीने की उम्मीद छोड़ वो गहरी नींद में चला गया है…एक क़िस्म का सोया हुआ मासूम ज्वालामुखी। इनोसेंट स्लीपिंग वॉल्कैनो। कबसे किसी ने उसका नाम नहीं पुकारा। उसने फुसफुसाहट तक नहीं सुनी। उसके सपने में तुम्हारी आवाज़ का कतरा आता है…पहाड़ से लौटती हुई आवाज़ की तरह। लेकिन तुमने मेरा नाम नहीं पुकारा है…सड़क के इस छोर से मैं कहती हूँ…बाऽऽऽऽय और दूसरी ओर से तुम हाथ हिलाते हो…तुम्हारे होंठ हिले हैं…लेकिन इस बीच दमकल का सायरन बज गया है…तुम्हारे होंटों के हिलने से लगता है बाऽऽऽऽऽऽय ही कहा होगा तुमने…हो सकता है तुमने मेरा नाम पुकारा हो…क्या मालूम…ये दमकल मेरे दिल में लहक कर जलते हुए इश्क़ को बुझाने के लिए दुनिया वालों ने भेजा होगा…इतनी आग में तुम्हारा पूरा शहर जल कर राख हो जाता।
तुम्हें मालूम, तुम्हारी आवाज़ के एक कतरे से दिल के तहखाने का ताला खुल सकता है…तुम्हारा एक वॉइस नोट है, उसमें सबसे चहकते हुए तुम ‘बाय’ कहते हो। जैसे कि तुम्हें पूरा यकीन हो कि हम जल्द मिलेंगे।
***
ट्रॉमा। किसी से बात नहीं कर सकते इस बारे में। फ़िल्म देख कर आए। उसमें धनुष का नाम शंकर है…बता रहा है उस बेवकूफ लड़की को, जो असल में इतनी बेवकूफ हो, इम्पॉसिबल है…पर उसकी थीसिस कंप्लीट हो गई है। इस लड़के के अंदर बहुत गुस्सा है…लड़की का नाम मुक्ति है, लेकिन उसने ठीक से जानने की कोशिश नहीं की है कि ट्रामा क्या है, कैसा है…वायलेंस है तो क्यों है…नफ़रत है तो कितनी है…इतनी सेल्फिश कैसे हो सकती है…आदमी है…ज़िंदा, धड़कता हुआ सामने…आँखें भर आई हैं…कहता है, “मेरी माँ का नाम कावेरी था…वो एक पाँच साल के बच्चे को बचाने में जल कर मर गई। कि ग़रीब आदमी हो तो उसकी माँ 20% बर्न्स में भी मर जाती है…कि मेरी खाल जलती है…सब जगह…यहाँ यहाँ यहाँ…लेकिन तुम साथ होती हो तो कम जलता हूँ…” बारिश होती है…धनुष उसकी चूड़ी पकड़ कर खड़ा है…इस डायलॉग को सुनते हुए आत्मा इस शरीर में घबराने लगती है। कहते हैं बर्न्स से हुई मृत्यु सबसे तकलीफ़देह मृत्यु होती है। मैं इस डायलॉग को सुनती हुई भीतर तक काँप जाती हूँ। लेकिन फ़िल्म देखते हुए नहीं कह सकती कुछ भी। किसको। क्या कहें। जिसने जिया है, उसके सिवा कोई नहीं जान-समझ सकता है। ट्रॉमा एक शब्द नहीं है…ज़िंदगी के कैनवास की सारी आउटलाइन बदल देता है। हम फिर इससे बाहर रंग भर ही नहीं सकते।
PTSD कहते हैं। Post Traumatic Stress Disorder.
एक बार एक दोस्त ने पूछा था, किसी ने तुमसे कहा नहीं, ये लो मेरा रूमाल…और ये रहा मेरा कंधा…तुम्हें जितना रोना है, रो सकती हो। हमारे यहाँ कंधे पर गमछा रखते हैं लोग। पापा के बेस्ट फ्रेंड थे, पत्रलेख अंकल। मेरी ज़िंदगी के पहले हीरो। पापा हॉस्टल लाइफ की अपनी कहानी सुनाते थे। कि कैसे वो प्याज़ लहसुन नहीं खाते थे…तो कुक को बोल कर सिर्फ़ दाल भात और भुजिया खा लेते थे। पत्रलेख अंकल को लगा बिना प्याज लहसुन खाने वाला लड़का ज़िंदगी में कैसे सर्वाइव करेगा तो कुक को बोल कर प्याज़ को लहसुन से तड़का लगवा दिए…क्या ही उमर थी उस समय…शायद 11th-12th या शायद कॉलेज फर्स्ट ईयर में आए होंगे…हमको याद नहीं, पर पापा भर आँख आँसू से रोने लगे…अंकल घबरा गए, अरे, रोता काहे है…और उस दिन जो अंकल पापा के लिए हुए…अपनी आख़िरी साँस तक रहे…उनके लिए और मेरे लिए भी। हम किनसे कितना प्यार करते हैं, उनको हमेशा बता थोड़े पाते हैं। हम अपने किसी चाचा से भी कभी इतना प्यार नहीं किए जितना अंकल से करते रहे। ज़िंदगी भर।
मार्च में देवघर गए थे। वहाँ से लौटने की फ्लाइट रोज़ तीन बजे दोपहर को होती है। देवघर एयरपोर्ट से कुसुमाहा आधा घंटा-बीस मिनट की दूरी पर है। हम बोले थे कि फ्लाइट के पहले मिलने आयेंगे गाँव। लेकिन उस रोज़ फ्लाइट बारह बजे थे। इतवार का दिन था। मैंने ठीक घर से निकलते टाइम देखा कि फ्लाइट के लिए लेट हो गए हैं। अंकल को फ़ोन किए कि आ नहीं पायेंगे। और ज़िंदगी हमारे हिस्से ऐसे अफ़सोस लिखती है। घर में खाना बनवा के रखे थे मेरे लिए। भात दाल बचका, बहुत अच्छा दही…बहुत कुछ और…लेकिन हम हड़बड़ में एयरपोर्ट चले गए मिले बिना। एक अप्रैल को जाना था कुसुमाहा, पूजा में…लेकिन पापा का कैटरेक्ट का ऑपरेशन हुआ था और डॉक्टर डाँट के ट्रैवल मना कर दिया। हमको लगा, ठीक है। एक आध महीने में चले जाएँगे। एक अप्रैल को माँ कुसुमेश्वरी का पूजा हुआ…सब परिवार और गांव का लोग आया…अंकल देर रात दर्द से उठे, घर से निकले गाड़ी में, हॉस्पिटल के लिए…दोनों बेटे साथ में थे…लेकिन हॉस्पिटल पहुँचने के पहले उनका दिल जवाब दे गया था। उनके जीते हुए डॉक्टर की बात सुने, और पूजा में नहीं गए…कि महीना भर का बात है, उसके बाद जाते रहेंगे देवघर। लेकिन ख़बर आते ही अगले दिन पापा के साथ देवघर निकल गए थे, जानते हुए कि अंतिम बार उनको देख भी नहीं पायेंगे।
मार्च में छोटी सी गाड़ी ख़रीदे थे देवघर में। स्विफ्ट। बस घर से सोलह किलोमीटर दूर कुसुमाहा आने जाने के लिए। अंकल आंटी से मिलने जुलने के लिए। साल में कई बार दिल कलपते हुए सपने से जागता है। यूकलिप्टस के पेड़ों से ढका हुआ रास्ता…जहाँ अंकल से मिलने जाना था…खाली लगता है। सुलगता है। आँख में धुआँता है। विक्रम भैया से बात करते हैं। बादल भैया से बात करते हैं। आशा दीदी, सरिता मौसी। बचपन की बातें। मम्मी की। उनके लड़कपन के दिन। वे सब कॉलेज आया-जाया करती थीं जब।
हम लोग जब छोटे थे, हर साल नानीघर जाते थे - पटना। देवघर से पटना ट्रेन में जनरल डिब्बे में। उन दिनों रूमाल या गमछा रख देने से सीट बुक हो जाती थी। ट्रेन आते ही लोग खिड़की से रूमाल अंदर डालने के लिए दौड़ते थे।
दिल पर भी ऐसे ही रूमाल रखा रहता है। इंतज़ार में।
कई कई साल।
***
बच्चों को कोई बात समझाने के पहले ख़ुद को समझानी पड़ती है। पैरेंटिंग की कोई एक गाइड बुक नहीं होती। सबका अपने-अपने हिसाब से सही ग़लत होता है। मैं बच्चों को समझाना चाहती हूँ कि प्यार और आज़ादी दोनों ज़रूरी हैं। कि हम किसी से प्यार करते हैं तो हमको ये समझना पड़ेगा कि उनको ख़ुशी किस चीज़ से मिलती है…भले उन्हें जिस चीज़ से ख़ुशी मिलती है, उससे हमें फ़िक्र हो या दुख हो…हमें उन्हें वो काम करने से रोकना नहीं चाहिए…Love is the ability to set someone free. That our love should not be a shackle, but a home to come back to. ये कॉन्सेप्ट समझना उनके लिए जरूरी है और मुझे उन्हें ठीक से समझाना जरूरी है। लेकिन हम ख़ुद को ही कहाँ समझा पाते हैं अच्छे से। इस साल एक भी सोलो ट्रिप पर नहीं गए। बेटियां मुझे miss करती हैं, और मैं उनको। The most important part of parenting is to get them ready for a world in which I am not there.
***
मेरे भीतर अभी भी बहुत भटकाव है। सतत बदलती दुनिया में जाने किस चीज़ पर ठहरती हूँ। भोर के चार बजने को आए। चौदह डिग्री दिखा रहा है मोबाइल पर। असल में ठंढ दस डिग्री के आसपास की होगी। पहले तल्ले पर खिड़की के पास डेस्क है। खिड़की से बाहर गोल्फ कोर्स दिखता है। वहाँ छोटे से पौंड में सामने वाले घर की परछाई काँपती दिखती है। पानी की वो परछाई एक अलग दुनिया है। एकदम अँधेरी रात है। बादल होंगे, तारे नहीं दिख रहे। खिड़की बंद कर दें ठंढी हवा नहीं आएगी भीतर, पर मालूम नहीं खिड़की खुली रखने की आदत छूटती नहीं। स्वेटर तो पहने हैं, लेकिन गर्म पजामे और मोजे नहीं हैं। पैर में ठंढ लग रही है। लैपटॉप के दोनों तरफ़ कैंडल जला लिए हैं। लिखते लिखते रुकते हैं तो हाथ लौ पर रख लेते हैं।
एक कैंडल का नाम तो वैसे ग्रीन बेसिलिकम है लेकिन महक रहा है पुटूस की तरह। पुटूस माने बचपन। छिले हुए घुटनों पर पुटस के पत्तों का रस लगा लिए, हो गया। उस समय की जादू जड़ी बूटी थी ये। मेरे हाथ पाँच साल की लड़की के हो गए हैं। जिसको पेंसिल छीलने, चौक का चूरा बनाने और होमवर्क भूल जाने की आदत थी। थोड़ा बड़े होने पर कबड्डी और बुढ़िया कबड्डी खेलते थे। किसी को उठा कर पटक देने में कितना मजा आता था। मिट्टी का रंग, स्वाद, गंध, टेक्सचर…सब पता था। सूखी, गीली, लाल मिट्टी। भूरी मिट्टी। काली मिट्टी। मुल्तानी मिट्टी।
***
बॉलीवुड इतना होपलेस क्यों है? कोई भी डायरेक्टर या स्क्रिप्टराइटर इतना ख़राब किरदार क्यों रचता है। हम इस तरह की बॉलीवुड हीरोइनों और हीरो से थक गए हैं। Women having the god-complex, जहाँ वे किसी को बचाने के लिए जान दिए हुए हैं, बिना देखे कि किसी को बचाये जाने की इच्छा या ज़रूरत है भी या नहीं। साइकोलॉजी में पीएचडी कर रही है और ख़ुद में एमपैथी नाम की कोई चीज़ नहीं। अगर किसी सब्जेक्ट(व्यक्ति) को चुना है, तो थोड़ी तो प्रोफेशनल ईमानदारी रखनी थी। अगर वायलेंस की रूट कॉज तक जा रही है तो उसको इतनी सी बेसिक समझ नहीं है कि कोई इस तरह का इमोशनली अन्स्टेबल व्यक्ति प्यार जैसे किसी इमोशन से कितनी गहराई से जुड़ेगा, कितनी इंटेंसिटी से कुछ भी महसूस करेगा। एक एक्स्ट्रा ट्रॉमा देना और उसको लेकर कोई ग्लानि, कोई शर्म, कोई झिझक और ईमानदारी तो छोड़ दें, बेसिक इंसानियत, ह्यूमैनिटी तक नहीं है। रिसर्च अप्रूव हो गया है, लड़का अपनी माँ के बारे में बता रहा है…पहली बार खुला है। शायद किसी के पास पहली बार अपना दुख कह रहा है। मुक्ति एक झटके में वहाँ से दौड़ कर दूसरे लड़के के गले लग जाती है। अगर वह अबीर से प्रेम करती, तो मुझे यह सीन फिर भी क्षम्य लगता क्यूँकि प्रेम में होने पर आप बाक़ी लोगों की भावनाओं से ऊपर अपनेआप को रखते हैं। लेकिन वह तो सिर्फ़ दोस्त था। तो ऐसे व्यक्ति के पास दौड़ कर अगर चली भी गई है तो लौट कर शंकर तक ठीक उसी समय आना था। उसकी फीलिंग को वैलिडेट करना था। कितना आसान है कहना, तुम ना नहीं सुन सकते थे। इस लड़की ने कभी उसे ठीक-ठीक एक इंसान की तरह न देखा, न समझा…स्वार्थी हो कर, सिर्फ़ अपना पीएचडी अप्रूव करवाया। वो भी झूठा। मेरा ख़ून खौल जाता है ऐसी फिल्में देख कर। एयरफोर्स को मज़ाक़ बना दिया है। कोई पायलट मेंटली अन्स्टेबल है तो वहाँ उससे ठीक से काउंसलिंग करने की जगह इमोशनल ब्लैकमेल किया जा रहा है। उसके भीतर गुस्सा है…और वो एक ऐसा एयरफोर्स पायलट है, जिसको सिर्फ़ लड़ना है…इस तरह की बातें करने के बावजूद उसे प्लेन उड़ाने की परमिशन के काग़ज़ पर साइन कर दिया गया है। उसकी ड्यूटी पहले देश, फिर अपनी बटालियन, फिर अंत में ख़ुद के लिए होती है। यही अभी तक की वॉर मूवीज़ में देखा है।
मुझे लगता है, ऐसा नियम होना चाहिए कि आर्मी/नेवी/और एयरफोर्स ऑफिसर्स के बारे में कोई भी फ़िल्म बनाने के पहले अप्रूवल लिया जाये ताकि नियम/कानून का मजाक न बने। एयरफोर्स में प्रोटोकॉल्स होने की कई वजहें हैं। क्रिएटिविटी के नाम पर कहानी कुछ भी बना दे रहे हैं।
मैं फ़िल्म देखी धनुष की लाजवाब एक्टिंग के लिए। हिंदी फ़िल्म में तमिल डायलॉग्स देख देख कर मेरा तमिल सीखने का मन करने लगा है। फ़िल्म में बनारस है। हम सोचते हैं, बनारस आते नहीं जब तक कि बुलावा नहीं आता। मैं आधे सपने में हूँ...ये कौन सी अल्टरनेट दुनिया है। मैं तुम्हारे साथ नाव पर बैठी हूँ। शोर बहुत है। सामने मणिकर्णिका है...कहते हैं यहाँ की आग कभी नहीं बुझी।
दो बाय दो बाय छह फुट की कोठरी में जिस खतरनाक इश्क़ को रखा गया है उसने सूरज तो क्या चाँद भी कई सालों से नहीं देखा। जीने की उम्मीद छोड़ वो गहरी नींद में चला गया है…एक क़िस्म का सोया हुआ मासूम ज्वालामुखी। इनोसेंट स्लीपिंग वॉल्कैनो। कबसे किसी ने उसका नाम नहीं पुकारा। उसने फुसफुसाहट तक नहीं सुनी। उसके सपने में तुम्हारी आवाज़ का कतरा आता है…पहाड़ से लौटती हुई आवाज़ की तरह। लेकिन तुमने मेरा नाम नहीं पुकारा है…सड़क के इस छोर से मैं कहती हूँ…बाऽऽऽऽय और दूसरी ओर से तुम हाथ हिलाते हो…तुम्हारे होंठ हिले हैं…लेकिन इस बीच दमकल का सायरन बज गया है…तुम्हारे होंटों के हिलने से लगता है बाऽऽऽऽऽऽय ही कहा होगा तुमने…हो सकता है तुमने मेरा नाम पुकारा हो…क्या मालूम…ये दमकल मेरे दिल में लहक कर जलते हुए इश्क़ को बुझाने के लिए दुनिया वालों ने भेजा होगा…इतनी आग में तुम्हारा पूरा शहर जल कर राख हो जाता।
तुम्हें मालूम, तुम्हारी आवाज़ के एक कतरे से दिल के तहखाने का ताला खुल सकता है…तुम्हारा एक वॉइस नोट है, उसमें सबसे चहकते हुए तुम ‘बाय’ कहते हो। जैसे कि तुम्हें पूरा यकीन हो कि हम जल्द मिलेंगे।
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ट्रॉमा। किसी से बात नहीं कर सकते इस बारे में। फ़िल्म देख कर आए। उसमें धनुष का नाम शंकर है…बता रहा है उस बेवकूफ लड़की को, जो असल में इतनी बेवकूफ हो, इम्पॉसिबल है…पर उसकी थीसिस कंप्लीट हो गई है। इस लड़के के अंदर बहुत गुस्सा है…लड़की का नाम मुक्ति है, लेकिन उसने ठीक से जानने की कोशिश नहीं की है कि ट्रामा क्या है, कैसा है…वायलेंस है तो क्यों है…नफ़रत है तो कितनी है…इतनी सेल्फिश कैसे हो सकती है…आदमी है…ज़िंदा, धड़कता हुआ सामने…आँखें भर आई हैं…कहता है, “मेरी माँ का नाम कावेरी था…वो एक पाँच साल के बच्चे को बचाने में जल कर मर गई। कि ग़रीब आदमी हो तो उसकी माँ 20% बर्न्स में भी मर जाती है…कि मेरी खाल जलती है…सब जगह…यहाँ यहाँ यहाँ…लेकिन तुम साथ होती हो तो कम जलता हूँ…” बारिश होती है…धनुष उसकी चूड़ी पकड़ कर खड़ा है…इस डायलॉग को सुनते हुए आत्मा इस शरीर में घबराने लगती है। कहते हैं बर्न्स से हुई मृत्यु सबसे तकलीफ़देह मृत्यु होती है। मैं इस डायलॉग को सुनती हुई भीतर तक काँप जाती हूँ। लेकिन फ़िल्म देखते हुए नहीं कह सकती कुछ भी। किसको। क्या कहें। जिसने जिया है, उसके सिवा कोई नहीं जान-समझ सकता है। ट्रॉमा एक शब्द नहीं है…ज़िंदगी के कैनवास की सारी आउटलाइन बदल देता है। हम फिर इससे बाहर रंग भर ही नहीं सकते।
PTSD कहते हैं। Post Traumatic Stress Disorder.
एक बार एक दोस्त ने पूछा था, किसी ने तुमसे कहा नहीं, ये लो मेरा रूमाल…और ये रहा मेरा कंधा…तुम्हें जितना रोना है, रो सकती हो। हमारे यहाँ कंधे पर गमछा रखते हैं लोग। पापा के बेस्ट फ्रेंड थे, पत्रलेख अंकल। मेरी ज़िंदगी के पहले हीरो। पापा हॉस्टल लाइफ की अपनी कहानी सुनाते थे। कि कैसे वो प्याज़ लहसुन नहीं खाते थे…तो कुक को बोल कर सिर्फ़ दाल भात और भुजिया खा लेते थे। पत्रलेख अंकल को लगा बिना प्याज लहसुन खाने वाला लड़का ज़िंदगी में कैसे सर्वाइव करेगा तो कुक को बोल कर प्याज़ को लहसुन से तड़का लगवा दिए…क्या ही उमर थी उस समय…शायद 11th-12th या शायद कॉलेज फर्स्ट ईयर में आए होंगे…हमको याद नहीं, पर पापा भर आँख आँसू से रोने लगे…अंकल घबरा गए, अरे, रोता काहे है…और उस दिन जो अंकल पापा के लिए हुए…अपनी आख़िरी साँस तक रहे…उनके लिए और मेरे लिए भी। हम किनसे कितना प्यार करते हैं, उनको हमेशा बता थोड़े पाते हैं। हम अपने किसी चाचा से भी कभी इतना प्यार नहीं किए जितना अंकल से करते रहे। ज़िंदगी भर।
मार्च में देवघर गए थे। वहाँ से लौटने की फ्लाइट रोज़ तीन बजे दोपहर को होती है। देवघर एयरपोर्ट से कुसुमाहा आधा घंटा-बीस मिनट की दूरी पर है। हम बोले थे कि फ्लाइट के पहले मिलने आयेंगे गाँव। लेकिन उस रोज़ फ्लाइट बारह बजे थे। इतवार का दिन था। मैंने ठीक घर से निकलते टाइम देखा कि फ्लाइट के लिए लेट हो गए हैं। अंकल को फ़ोन किए कि आ नहीं पायेंगे। और ज़िंदगी हमारे हिस्से ऐसे अफ़सोस लिखती है। घर में खाना बनवा के रखे थे मेरे लिए। भात दाल बचका, बहुत अच्छा दही…बहुत कुछ और…लेकिन हम हड़बड़ में एयरपोर्ट चले गए मिले बिना। एक अप्रैल को जाना था कुसुमाहा, पूजा में…लेकिन पापा का कैटरेक्ट का ऑपरेशन हुआ था और डॉक्टर डाँट के ट्रैवल मना कर दिया। हमको लगा, ठीक है। एक आध महीने में चले जाएँगे। एक अप्रैल को माँ कुसुमेश्वरी का पूजा हुआ…सब परिवार और गांव का लोग आया…अंकल देर रात दर्द से उठे, घर से निकले गाड़ी में, हॉस्पिटल के लिए…दोनों बेटे साथ में थे…लेकिन हॉस्पिटल पहुँचने के पहले उनका दिल जवाब दे गया था। उनके जीते हुए डॉक्टर की बात सुने, और पूजा में नहीं गए…कि महीना भर का बात है, उसके बाद जाते रहेंगे देवघर। लेकिन ख़बर आते ही अगले दिन पापा के साथ देवघर निकल गए थे, जानते हुए कि अंतिम बार उनको देख भी नहीं पायेंगे।
मार्च में छोटी सी गाड़ी ख़रीदे थे देवघर में। स्विफ्ट। बस घर से सोलह किलोमीटर दूर कुसुमाहा आने जाने के लिए। अंकल आंटी से मिलने जुलने के लिए। साल में कई बार दिल कलपते हुए सपने से जागता है। यूकलिप्टस के पेड़ों से ढका हुआ रास्ता…जहाँ अंकल से मिलने जाना था…खाली लगता है। सुलगता है। आँख में धुआँता है। विक्रम भैया से बात करते हैं। बादल भैया से बात करते हैं। आशा दीदी, सरिता मौसी। बचपन की बातें। मम्मी की। उनके लड़कपन के दिन। वे सब कॉलेज आया-जाया करती थीं जब।
हम लोग जब छोटे थे, हर साल नानीघर जाते थे - पटना। देवघर से पटना ट्रेन में जनरल डिब्बे में। उन दिनों रूमाल या गमछा रख देने से सीट बुक हो जाती थी। ट्रेन आते ही लोग खिड़की से रूमाल अंदर डालने के लिए दौड़ते थे।
दिल पर भी ऐसे ही रूमाल रखा रहता है। इंतज़ार में।
कई कई साल।
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बच्चों को कोई बात समझाने के पहले ख़ुद को समझानी पड़ती है। पैरेंटिंग की कोई एक गाइड बुक नहीं होती। सबका अपने-अपने हिसाब से सही ग़लत होता है। मैं बच्चों को समझाना चाहती हूँ कि प्यार और आज़ादी दोनों ज़रूरी हैं। कि हम किसी से प्यार करते हैं तो हमको ये समझना पड़ेगा कि उनको ख़ुशी किस चीज़ से मिलती है…भले उन्हें जिस चीज़ से ख़ुशी मिलती है, उससे हमें फ़िक्र हो या दुख हो…हमें उन्हें वो काम करने से रोकना नहीं चाहिए…Love is the ability to set someone free. That our love should not be a shackle, but a home to come back to. ये कॉन्सेप्ट समझना उनके लिए जरूरी है और मुझे उन्हें ठीक से समझाना जरूरी है। लेकिन हम ख़ुद को ही कहाँ समझा पाते हैं अच्छे से। इस साल एक भी सोलो ट्रिप पर नहीं गए। बेटियां मुझे miss करती हैं, और मैं उनको। The most important part of parenting is to get them ready for a world in which I am not there.
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मेरे भीतर अभी भी बहुत भटकाव है। सतत बदलती दुनिया में जाने किस चीज़ पर ठहरती हूँ। भोर के चार बजने को आए। चौदह डिग्री दिखा रहा है मोबाइल पर। असल में ठंढ दस डिग्री के आसपास की होगी। पहले तल्ले पर खिड़की के पास डेस्क है। खिड़की से बाहर गोल्फ कोर्स दिखता है। वहाँ छोटे से पौंड में सामने वाले घर की परछाई काँपती दिखती है। पानी की वो परछाई एक अलग दुनिया है। एकदम अँधेरी रात है। बादल होंगे, तारे नहीं दिख रहे। खिड़की बंद कर दें ठंढी हवा नहीं आएगी भीतर, पर मालूम नहीं खिड़की खुली रखने की आदत छूटती नहीं। स्वेटर तो पहने हैं, लेकिन गर्म पजामे और मोजे नहीं हैं। पैर में ठंढ लग रही है। लैपटॉप के दोनों तरफ़ कैंडल जला लिए हैं। लिखते लिखते रुकते हैं तो हाथ लौ पर रख लेते हैं।
एक कैंडल का नाम तो वैसे ग्रीन बेसिलिकम है लेकिन महक रहा है पुटूस की तरह। पुटूस माने बचपन। छिले हुए घुटनों पर पुटस के पत्तों का रस लगा लिए, हो गया। उस समय की जादू जड़ी बूटी थी ये। मेरे हाथ पाँच साल की लड़की के हो गए हैं। जिसको पेंसिल छीलने, चौक का चूरा बनाने और होमवर्क भूल जाने की आदत थी। थोड़ा बड़े होने पर कबड्डी और बुढ़िया कबड्डी खेलते थे। किसी को उठा कर पटक देने में कितना मजा आता था। मिट्टी का रंग, स्वाद, गंध, टेक्सचर…सब पता था। सूखी, गीली, लाल मिट्टी। भूरी मिट्टी। काली मिट्टी। मुल्तानी मिट्टी।
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बॉलीवुड इतना होपलेस क्यों है? कोई भी डायरेक्टर या स्क्रिप्टराइटर इतना ख़राब किरदार क्यों रचता है। हम इस तरह की बॉलीवुड हीरोइनों और हीरो से थक गए हैं। Women having the god-complex, जहाँ वे किसी को बचाने के लिए जान दिए हुए हैं, बिना देखे कि किसी को बचाये जाने की इच्छा या ज़रूरत है भी या नहीं। साइकोलॉजी में पीएचडी कर रही है और ख़ुद में एमपैथी नाम की कोई चीज़ नहीं। अगर किसी सब्जेक्ट(व्यक्ति) को चुना है, तो थोड़ी तो प्रोफेशनल ईमानदारी रखनी थी। अगर वायलेंस की रूट कॉज तक जा रही है तो उसको इतनी सी बेसिक समझ नहीं है कि कोई इस तरह का इमोशनली अन्स्टेबल व्यक्ति प्यार जैसे किसी इमोशन से कितनी गहराई से जुड़ेगा, कितनी इंटेंसिटी से कुछ भी महसूस करेगा। एक एक्स्ट्रा ट्रॉमा देना और उसको लेकर कोई ग्लानि, कोई शर्म, कोई झिझक और ईमानदारी तो छोड़ दें, बेसिक इंसानियत, ह्यूमैनिटी तक नहीं है। रिसर्च अप्रूव हो गया है, लड़का अपनी माँ के बारे में बता रहा है…पहली बार खुला है। शायद किसी के पास पहली बार अपना दुख कह रहा है। मुक्ति एक झटके में वहाँ से दौड़ कर दूसरे लड़के के गले लग जाती है। अगर वह अबीर से प्रेम करती, तो मुझे यह सीन फिर भी क्षम्य लगता क्यूँकि प्रेम में होने पर आप बाक़ी लोगों की भावनाओं से ऊपर अपनेआप को रखते हैं। लेकिन वह तो सिर्फ़ दोस्त था। तो ऐसे व्यक्ति के पास दौड़ कर अगर चली भी गई है तो लौट कर शंकर तक ठीक उसी समय आना था। उसकी फीलिंग को वैलिडेट करना था। कितना आसान है कहना, तुम ना नहीं सुन सकते थे। इस लड़की ने कभी उसे ठीक-ठीक एक इंसान की तरह न देखा, न समझा…स्वार्थी हो कर, सिर्फ़ अपना पीएचडी अप्रूव करवाया। वो भी झूठा। मेरा ख़ून खौल जाता है ऐसी फिल्में देख कर। एयरफोर्स को मज़ाक़ बना दिया है। कोई पायलट मेंटली अन्स्टेबल है तो वहाँ उससे ठीक से काउंसलिंग करने की जगह इमोशनल ब्लैकमेल किया जा रहा है। उसके भीतर गुस्सा है…और वो एक ऐसा एयरफोर्स पायलट है, जिसको सिर्फ़ लड़ना है…इस तरह की बातें करने के बावजूद उसे प्लेन उड़ाने की परमिशन के काग़ज़ पर साइन कर दिया गया है। उसकी ड्यूटी पहले देश, फिर अपनी बटालियन, फिर अंत में ख़ुद के लिए होती है। यही अभी तक की वॉर मूवीज़ में देखा है।
मुझे लगता है, ऐसा नियम होना चाहिए कि आर्मी/नेवी/और एयरफोर्स ऑफिसर्स के बारे में कोई भी फ़िल्म बनाने के पहले अप्रूवल लिया जाये ताकि नियम/कानून का मजाक न बने। एयरफोर्स में प्रोटोकॉल्स होने की कई वजहें हैं। क्रिएटिविटी के नाम पर कहानी कुछ भी बना दे रहे हैं।
मैं फ़िल्म देखी धनुष की लाजवाब एक्टिंग के लिए। हिंदी फ़िल्म में तमिल डायलॉग्स देख देख कर मेरा तमिल सीखने का मन करने लगा है। फ़िल्म में बनारस है। हम सोचते हैं, बनारस आते नहीं जब तक कि बुलावा नहीं आता। मैं आधे सपने में हूँ...ये कौन सी अल्टरनेट दुनिया है। मैं तुम्हारे साथ नाव पर बैठी हूँ। शोर बहुत है। सामने मणिकर्णिका है...कहते हैं यहाँ की आग कभी नहीं बुझी।
मुझे लगता है, हम-में कोई धागा है, जन्मपार का बँधा हुआ। फ़िल्म में कहता है, मुक्ति नहीं मिलेगी। ना इस जन्म ना कभी भी और। प्रेम में सिर्फ़ मृत्यु है। मैं नाव पर हूँ। सियाह धुआँ उठ रहा है। मेरी आत्मा में कुछ उमड़ रहा है। कोई गाँठ खुल रही है। एक सिरा तुम्हारे भीतर है इस धागे का। मुझे पक्का यकीन है, हम कई जन्म एक दूसरे से मिलते रहे हैं।
दिसंबर में इतने सारे प्यारे लोगों का जन्मदिन है। अब गिफ्ट वगैरह में मजा नहीं। मजा है कि इस दिन वाक़ई अपने पसंद के लोगों के साथ समय बिता सकें। उन्हें मिलें तो जोर की जादू की झप्पी दें और कहें। तुमसे जादू है। मेरी कहानी का। मेरा। मेरी दुनिया में बने रहना, तुम्हारे होने से सब जगमग जगमग है। सब मीठा है। और अगर जाओगे तो मीठा खाने का मजा चला जाएगा। फिर हम अपने खुली गाड़ी में चाँद ताकते, सिगरेट फूंकते तुम्हें इतना याद करेंगे कि हिचकी लेते लेते थक जाओगे।
***
इंडिगो के प्लेन कैंसिल होने के कारण उस शादी में नहीं जा पाये, जिसमें जाने का, क़सम से बहुत बहुत बहुत मन था। और अगर ये भसड़ नहीं होती, तो पक्के से होते। लेकिन ऐसे केस में डर लगता है अकेले जाने से, तो गए नहीं।
मन फिर से अंगकोर वात जाने का हो रहा है।
मन पागल है।
पिछले छह सालों में ये चौथा घर है। इतना सारा सामान बांधना, फिर से खोलना। ये घर मेरे लिए एकदम परफेक्ट था। सब कुछ अपनी जगह सही। लिखने वाली जगह के आसपास बहुत से पेड़ पौधे। सुबह कई तरह की चिड़ियों की चहचहाहट। हवा में नाचती विंड-चाइम। खुला आसमान।
एक ठंढ है जो भीतर से तारी है।
एक हिज्र का ठंढा सियाह पत्थर है। कलेजे पर रक्खा हुआ।
(लिख के पोस्ट कर रहे। कल एडिट करेंगे)

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