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18 September, 2019

ताखे पर रखी चिट्ठियाँ

बहुत दिन पहले किसी से बात हो रही थी। याद नहीं किससे। उन्होंने कहा, तुम्हारे जेनरेशन में कमसे कम ये अच्छा है कि कोई चिट्ठी नहीं लिखता। किसी के जाने के बाद, रिश्ता टूटने के बाद... कभी ये दिक्कत नहीं आती कि चिट्ठियों का क्या करना है। हम लोग में तो सबसे बड़ी दिक्कत यही होती थी। रख सकते नहीं थे कहीं भी...और कितना भी मनमुटाव हो गया हो, चिट्ठी फेंकने का भी मन नहीं करता था।

मुझे अपने पूरी ज़िंदगी में देखे वो कई सारे घर याद आए। गाँव के घर, जिनमें एक ताखा होता था लकड़ी का। जहाँ चीज़ें एक बार रख के भुला दी जाती थीं। ये प्लास्टिक के पहले की बात है। उन्हीं दिनों जो सबसे ज़्यादा मिलते थे वो थे चिट्ठियों के पुलिंदे। मैं छोटी थी उस समय लेकिन फिर भी मालूम होता था कि इनमें जान होती है। साड़ी या ऐसे ही किसी कपड़े से टुकड़े में कई बार लपेटे और पतले पतले धागों से बँधे हुए। दिखने में ऐसा लगता था जैसे ईंट हो। उस ज़माने में लिफ़ाफ़ों की एक ही साइज़ आती होगी। अभिमंत्रित लगते थे वे पुलिंदे। मैंने कई कई बार ऐसे कपड़ों में सहेजे पुलिंदों को खोल खोल कर पढ़ा है। आप इस ज़माने में यक़ीन नहीं कर सकते कि उन दिनों डाकखाना कितना efficient हुआ करता था। चिट्ठियों में मेले में मिलने की बात होती थी। अगले हफ़्ते किसी दोस्त के यहाँ किसी शाम के छह बजे टाइप जाने की बात होती थी। कोई पसंद के रंग के कुर्ते, दुपट्टे या कि स्वेटर की बात भी होती थी। ऐसे पुलिंदों में ही काढ़े हुए रूमाल भी होते थे अक्सर। एक आध बार किसी शर्ट की पॉकेट भी मिली है मुझे। 

मैं बहुत छोटी होती थी उन दिनों। उम्र याद नहीं, कोई पाँच आठ साल की। जब ऐसे ताखे पर चढ़ने के लिए किसी सीढ़ी की ज़रूरत नहीं होती थी। मैं किसी खिड़की, दीवार में बने छेद को पकड़ कर लकड़ी पर झूल जाती थी और ऊपर चढ़ जाती थी। गाँव में छत ज़्यादा ऊँची नहीं होती थी...ख़ास तौर से घरों के पहले तल्ले में। फिर मेरा वज़न भी बहुत कम होता था तो ताखे के टूटने का डर नहीं लगता था। 

जबसे मैंने पूरा पूरा पढ़ना सीखा, ऐसे काम जब मौक़ा मिले, कर डालती थी। उस समय थोड़ा सा भय होता था कि कुछ ग़लत कर रही हूँ। लेकिन उन दिनों सजा थोड़ी कम मिलती थी। ज़्यादा डाँट कपड़े गंदे होने पर मिलती थी। किसी को लगता नहीं था कि मुझे चिट्ठियों की कुछ समझ होगी भी।

आख़िरी चिट्ठियाँ मुझे उन दिनों समझ नहीं आती थीं। उनमें अक्सर परिवार की बात होती थी। घर वाले नहीं मानेंगे टाइप। तुम तो समझते/समझती हो टाइप। मुझे लगता, उस उम्र के लोग बहुत समझदार होते हैं। कि एक दिन मैं भी समझ जाऊँगी कि आख़िरी चिट्ठियाँ आख़िरी क्यूं होती हैं। 

इन बातों को बहुत साल बीत गए। वैसी चिट्ठियों का पुलिंदा अपने सूती कवर और बारीक धागों के साथ चूल्हे में झोंके जाते हुए देखे। बढ़ती उम्र की अपनी क्रूरता होती है। बचपन की अपनी माफ़ी। उन दिनों खाने में नमक ज़्यादा लगता। दीदियों/चाचियों/भाभियों की आँख भरी भरी लगती। भैय्या/चाचा खाने की थाली थोड़ा ज़ोर से पटकते। कुआँ ख़ाली कर देंगे इस तरह नहाते। गोहाल में रेडीयो चलाते और दीवार के पीछे चुक्कु मुक्कु बैठ बीड़ी पीते। 

ऐसा लगता, घर में कोई मर गया हो। मैं थोड़ी भी समझदार हो चुकी होती तो वैसे किसी दिन क़सम खा लेती कि कभी भी चिट्ठियाँ नहीं लिखूँगी। लेकिन मैंने दूसरी ही चीज़ सोच ली… कि कभी प्यार नहीं करूँगी। पता नहीं, चिट्ठी नहीं लिखने का वादा भी पूरा कर पाती ख़ुद से कि नहीं, क्यूँकि प्यार…

मुझे मत कहो कि मैं तुम्हें चिट्ठियाँ लिखूँ… हर चिट्ठी में मेरी आत्मा थोड़ी सी रह जाती है… तुम्हारे यहाँ तो चूल्हा भी नहीं होता। कुछ जलाने की जगहें कितनी कम हो गयी हैं। कभी काग़ज़ भी जलाए हैं तुमने? इतना आसान नहीं होता। दुखता है अजीब क़िस्म से...किसी डायरी का पन्ना तक। चिट्ठी जलाना तो और भी बहुत ज़्यादा मुश्किल होता है। तुम पक्का मेरी चिट्ठियाँ समंदर में फेंक आओगे। हमारे धर्म में जलसमाधि सिर्फ़ संतों के या अबोध बच्चों के हिस्से होती है। वादा करो कि जब ज़रूरत पड़े मेरी चिट्ठियाँ जला दोगे…सिर्फ़ तब ही लिखूँगी तुम्हें।

और तुम क्या पूछ रहे थे, मेरे पास तुम्हारा पता है कि नहीं। बुद्धू, मुझे तुम्हारा पता याद है।

ढेर सारा प्यार,
तुम्हारी…

14 August, 2019

सपना। बर्फ़। तुम।

सुबह उठी थी तो भोर का टटका सपना था। बहुत साल पहले पूजा के लिए फूल तोड़ने जाती थी, दशहरा के समय तो फूल ऐसे लगते थे। रात की ओस में भीगे हुए। थोड़ी नींद में कुनमनाए तो कभी एकदम ताज़गी लिए मासूम आँखों से टुकुर टुकुर ताकते। सफ़ेद पाँच पत्तों वाले फूल। कई बार चम्पा। कभी कभी गंधराज भी। मुझे सफ़ेद पत्तों वाले फूल बहुत पसंद रहे। ख़ास तौर से अगर ख़ुशबू तो तो और भी ज़्यादा। आक, धतूरा... रजनीगंधा, हरसिंगार...

सपने में तुम्हारा शहर था। मैं पापा और कुछ परिवार के लोगों के साथ अचानक ही घूमने निकल गयी थी। तुम्हारा शहर मेरे सपने में थोड़ा क़रीब था, वहाँ बिना प्लान के जा सकते थे। तुम समंदर किनारे थे। तुमने चेहरे पर कोई तो फ़ेस पेंटिंग करा रखी थी...चमकीले नीले रंग की। या फिर कोई फ़ेस मास्क जैसा कुछ था। तुम्हारी बीवी भी थी साथ में। हम वहाँ तुमसे मिले या नहीं, वो याद नहीं है।

मेट्रो के दायीं तरफ़ एक बहुत बड़ा सा म्यूज़ीयम था। आर्ट म्यूज़ीयम। घर के सारे लोग जाने कहाँ गए, मैं अकेली वहाँ अंदर चली गयी। वहाँ अद्भुत पेंटिंग्स थीं। आकार में भी काफ़ी बड़ीं और बेहद ख़ूबसूरत थीम्ज़ पर। मैं म्यूज़ीयम के सबसे ऊपर वाले फ़्लोर पर थी और फिर जाने कैसे छत पर। इसी बीच कोई बदमाश बच्चा छत पर के टाइल्ज़ उखाड़ने लगा एक एक कर के। छत पर भगदड़ सी मच गयी क्यूँकि बाक़ी टाइल्स उखड़ने लगी थीं और लोग फिसल कर गिर सकते थे। तभी पुलिस आती है और लोगों को स्थिर होने को कहती है। लोग डिसप्लिन में एक दूसरे के पीछे क़तार में लग जाते हैं। पुलिस उस बच्चे को पकड़ लेती है और नीचे उतार देती है। सब लोग भी अलग अलग तरफ़ से छत से उतर आते हैं। मैं नीचे उतरती हूँ तो ध्यान जाता है कि मैंने इस गेट से एंटर नहीं किया था और इतने बड़े म्यूज़ीयम में कितने गेट हैं मुझे मालूम नहीं, न ही ये मालूम है कि उनमें से मेरा गेट कौन सा है कि उसी गेट पर मैंने अपनी जैकेट और बूट्स जमा किए हैं। आसपास भीड़ बहुत है। तब तक तुम कहीं से आते हो, मैं बताती हूँ कि मेट्रो के पास वो गेट है जिससे मैं अंदर गयी थी। तुम मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ उस भीड़ में से लिए चलते हो। साथ में हमारे हाथ गर्म हैं, दस्ताने की ज़रूरत नहीं है। हम उस गेट से मेरे जूते और कोट लेते हैं। तुम कोट पहनने में मेरी मदद करते हो।

हम वहाँ से किसी इमारत की छत पर जाते हैं। हल्की ढलान वाली छत है। बर्फ़ पड़ी हुयी है लेकिन ठंड नहीं लग रही है। हम उस बहुत ऊँची इमारत की छत पर बैठे बैठे बहुत देर तक बातें करते हैं। मेरे पास एक दो मीठे टाको हैं जो मैंने एक कुकिंग शो में देखे थे। उनके अंदर फेरेरो रोचेर भरे हुए हैं। हम बहुत ख़ुश होकर वो खाते हैं। थक जाने पर हम दोनों ही उस छत पर पीठ के बल लेट जाते हैं, एक दूसरे के एकदम पास और आसमान देखते हैं। हमारे मुँह से भाप निकल रही होती है। हम फिर किसी चिमनी के पास थोड़ा टिक कर बैठते हैं। इस बार हम कुछ कह नहीं रहे हैं। हमने एक दूसरे को बाँहों में भरा हुआ है। हम अलविदा के लिए ख़ुद को तैय्यार कर रहे हैं। हम सपने में भी जानते हैं कि अब जाना है। तुम मुझे वहाँ से अपना घर दिखाते हो। बहुत ऊँचे फ़्लोर पर है, जहाँ लाइट जल रही है...कहते हो कि वहाँ से पूरा शहर दिखता है। मैं पूछती हूँ, ये छत और हम तुम भी... तुम कहते हो हाँ।

हम दोनों रुकना चाहते हैं एक दूसरे के पास, एक दूसरे के साथ... लेकिन सपने के किनारे धुँधलाने लगे हैं। हम थोड़ी और ज़ोर से पकड़ लेते हैं एक दूसरे का हाथ... आसपास सब कुछ फ़ेड हो रहा है। तुम भी धुँधला जाते हो और फिर सफ़ेद धुँध में घुल जाते हो। मेरी हथेली पर तुम्हारी गर्माहट मेरे धुँध में घुलते घुलते भी बाक़ी रहती है।

***
मैं जागती हूँ तो मेरी हथेली पर तुम्हारी गर्माहट और ज़ुबान पर चोक्लेट का हल्का मीठा स्वाद है। मैं पिछले काफ़ी दिनों से ख़ुद को कह और समझा रही हूँ कि मुझे तुम्हारी याद नहीं आती। कि न भी मिले तुमसे, तो कोई बात नहीं। लेकिन मेरे सपनों को इतनी समझ नहीं। तुमसे मिलना बेतरह ख़ुशी और बर्दाश्त से बाहर की उदासी लिए आता है। मैं जागती हूँ तो तुम्हें इतना मिस करने लगती हूँ कि दुखने लगता है सब कुछ। हूक उठती है और तुम्हें याद करने के सिवा और कोई ख़याल बाक़ी नहीं रहता।

जिनसे मन आत्मा का जुड़ाव रहता है, ऐसे लोग जीवन में बहुत कम मिलते हैं। ऐसा बार बार क्यूँ लगता है कि तुम किसी पार जन्म से आए हो? ऐसा मुझे सिर्फ़ बर्न जा के लगा था कि कोई ऐसी याद है जो इस जन्म के शरीर की नहीं, हर जन्म में एक, आत्मा की है।

मैं अब भी नहीं जानती कि तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो... क्या किसी सुबह तुम भी यूँ ही परेशान होते हो कि जिससे एक बार ही मिले हों, सिर्फ़, उसकी याद थोड़ी कम आनी चाहिए, नहीं?

***
Let's see each other again. Then, if you think we shouldn't be together, tell me so frankly... That day, six years ago, a rainbow appeared in my heart. It's still there, like a flame burning inside me. But what are your real feelings for me? Are they like a rainbow after the rain? Or did that rainbow fade away long ago?
-2046

01 August, 2019

My happy place

नसों में कोई कहानी उमगती है। मैं बारिश में गंगा किनारे बैठी हूँ। तुम्हारी आवाज़ में एक ठंडापन है जो मुझे समझ नहीं आता। बाढ़ में खोयी चप्पल की बात हो कि महबूब के दिल तोड़ने का क़िस्सा। तुम तो इतनी दूर कभी नहीं थे? 

फिर? कोई तो बात हुयी होगी। हम वाक़ई एक दूसरे से एकदम कट गए हैं ना? पता है, तुम्हें सुनाए बिना मेरी कोई कहानी पूरी ही नहीं महसूस होती। जब से तुमने मुझे पढ़ना छोड़ा है, मैंने ठीक ठीक लिखना छोड़ दिया है।

एक अमेरिकन टीवी सीरीज़ है, सूट्स। वकीलों की कहानी है। इसमें लीड में एक बहुत ख़ूबसूरत सा बंदा है... उसका नाम है हार्वी स्पेक्टर। वैसे लोग जिन्हें लोग इमोशनली अनवेलबल कहते हैं। इसके पीछे की कहानी ये है कि वो जब ग्यारह साल का था, तब उसने एक बार अपनी माँ को किसी और के साथ अपने घर में देख लिया था और उसकी माँ ने उसे ये बात उसके पिता को बताने से मना की थी। उसने माँ की बात तो रख ली लेकिन उस बात का ज़ख़्म उसे कितना गहरा लगा था ये सीरीज़ में उसके सभी रिश्तों में दिखती थी। उसके ऑफ़िस में एक बेहद बदसूरत सी बत्तख़ की पेंटिंग लगी थी। इक एपिसोड में कुछ ऐसी घटना घटी कि एक विरोधी ने उसे हर्ट करने के लिए उसका कुछ छीनना चाहा... वो जानता था कि पैसों से उसे कोई दुःख नहीं पहुँचेगा, तो इसलिए वो उस पेंटिंग को उतार ले गया।


आगे पता चलता है कि हार्वी की माँ एक पेंटर थी... उस हादसे के पहले की एक दोपहर वो पेंट कर रही थी और हार्वी उन्हें देख रहा था... उसकी माँ के साथ ये उसकी आख़िरी ख़ुशहाल याद थी। इसलिए ये पेंटिंग उसे इतनी अज़ीज़ थी।

सीरीज़ में सबसे ज़्यादा मुझे एक यही चीज़ ध्यान आती रही जबकि उसमें कई अच्छे केस और कई अच्छे किरदार थे। हम हमेशा लौट के किसी ख़ुश जगह पर जाना चाहते हैं। जहाँ कोई दुःख न था। कुछ लोग ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि उनके लिए ऐसी तमाम जगहें होती हैं। उनके जीवन में कोई all encompassing दुःख नहीं होता जो कि हर ख़ुशी को फीका कर दे।

कुछ लोग हमारे लिए ऐसे ही ख़ुश वाली जगह होते हैं। मैं इक बार ऐसे ही किसी लड़के से मिली थी। he was my happy place। मैं याद करना चाहती हूँ कि ज़िंदगी में आख़िरी बार सबसे ज़्यादा ख़ुश कब थी तो उससे वो मुलाक़ात याद आती है। ये बात मुझे बेतरह उदास करती है कि मेरे पास लौट के जाने के लिए बहुत कम जगहें हैं। दिल्ली मेरे लिए यही शहर है। मैं अपनी माँ के साथ पहली बार पिज़्ज़ा खाने गयी थी, अपने ख़ुद के पैसों से। मैंने अपने दोस्तों के साथ अपनी पसंद की किताबों की ख़रीददारी की। अपने सबसे फ़ेवरिट लेखक के हाथ चूमे। मुझे बेतरह एक स्टेशन और उसे अलविदा कहना याद आता रहता है। एक ग्लास विस्की और एक ग्लास वोदका...और एक सिगरेट। मैं ज़िंदगी में एक ही बार किसी की जैकेट की गर्माहट और ख़ुशबू में घिरी बैठी थी और ख़याल सिर्फ़ इतना था कि वो चला जाएगा। इतनी गहरी उदासी भी बहुत कम आती है ज़िंदगी में।

पता नहीं तुम कभी लिखना शुरू करोगे या नहीं। अब अधिकार नहीं जताती लोगों पर, तुम पर भी नहीं।

इन दिनों बारिश का धोखा होता है। नए पुराने लोग याद आते हैं। मैं कहना चाहती हूँ कि मेरे मरने के बाद अगर किसी बात को न कह पाने का अफ़सोस होगा तुम्हें, तो वो बात मेरे जीते जी कह देना।

29 July, 2019

इंतज़ार की कूची वाला जादूगर

इक उसी जादूगर के पास है, इंतज़ार का रंग। उसके पास हुनर है कि जिसे चाहे, उसे अपनी कूची से छू कर रंग दे इंतज़ार रंग में। शाम, शहर, मौसम… या कि लड़की का दिल ही।

एकदम पक्का होता है इंतज़ार का रंग। बारिश से नहीं धुलता, आँसुओं से भी नहीं। गाँव के बड़े बूढ़े कहते हैं कि बहुत दूर देश में एक विस्मृति की नदी बहती है। उसके घाट पर लगातार सोलह चाँद रात जा कर डुबकियाँ लगाने से थोड़ा सा फीका पड़ता है इंतज़ार का रंग। लेकिन ये इस पर भी निर्भर करता है कि जादूगर की कूची का रंग कितना गहरा था उस वक़्त। अगर इंतज़ार का रंग गहरा है तो कभी कभी दिन, महीने, साल बीत जाते है। चाँद, नदी और आह से घुली मिली रातों के लेकिन इंतज़ार का रंग फीका नहीं पड़ता।
एक दूसरी किमवदंति ये है कि दुनिया के आख़िर छोर पर भरम का समंदर है। वहाँ का रास्ता इतना मुश्किल है और बीच के शहरों में इतनी बरसातें कि जाते जाते लगभग सारे रंग धुल जाते हैं बदन से। प्रेम, उलाहना, विरह…सब, बस आत्मा के भीतरतम हिस्से में बचा रह जाता है इंतज़ार का रंग। भरम के समंदर का खारा पानी सबको बर्दाश्त नहीं होता। लोगों के पागल हो जाने के क़िस्से भी कई हैं। कुछ लोग उल्टियाँ करते करते मर जाते हैं। कुछ लोग समंदर में डूब कर जान दे देते हैं। लेकिन जो सख़्तज़ान पचा जाते हैं भरम के खारे पानी को, उनके इंतज़ार पर भरम के पानी का नमक चढ़ जाता है। वे फिर इंतज़ार भूल जाते हैं। लेकिन इसके साथ वे इश्क़ करना भी भूल जाते हैं। फिर किसी जादूगर का जादू उन पर नहीं चलता। किसी लड़की का जादू भी नहीं। 

तुमने कभी जादूगर की बनायी तस्वीरें देखी हैं? वे तिलिस्म होती हैं जिनमें जा के लौटना नहीं होता। कोई आधा खुला दरवाज़ा। पेड़ की टहनियों में उलझा चाँद। पाल वाली नाव। बारिश। उसके सारे रंग जादू के हैं। तुमसे मिले कभी तो कहना, तुम्हारी कलाई पर एक सतरंगी तितली बना दे… फिर तुम दुनिया में कहीं भी हो, जब चाहो लौट कर अपने महबूब तक आ सकोगे। हाँ लेकिन याद रखना, तितलियों की उम्र बहुत कम होती है। कभी कभी इश्क़ से भी कम। 

अधूरेपन से डर न लगे, तब ही मिलना उससे। कि उसके पास तुम्हारा आधा हिस्सा रह जाएगा, हमेशा के लिए। उसके रंग लोगों को घुला कर बनते हैं। आधे से तुम रहोगे, आधा सा ही इश्क़। लेकिन ख़ूबसूरत। चमकीले रंगों वाला। ऐब्सलूट प्योर। शुद्ध। ऐसा जिसमें अफ़सोस का ज़रा भी पानी न मिला हो। 

हाँ, मिलोगे इक उलाहना दे देना, उसे मेरी शामों को इतने गहरे रंग के इंतज़ार से रंगने की ज़रूरत नहीं थी।

08 June, 2019

मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।

तुमसे मुहब्बत... खुदा ख़ैर करे... जानां, मुझे तो तुम्हारे बारे में लिखने में भी डर लगता है। कुछ अजीब जादू है हमारे बीच कि जब भी कुछ लिखती हूँ तुम्हारे बारे में, हमेशा सच हो जाता है। कोई ऑल्टर्नट दुनिया जो उलझ गयी है तुम्हारे नाम पर आ कर...डर लगता है, लिखते लिखते लिख दिया कि तुम मेरे हो गए हो तो... या कि लो, आज की रात तुम्हारे नाम… या कि किसी शहर अचानक मिल गए हैं हम…क्या करोगे फिर?

यूँ ही ख़्वाहिश हुयी दिल में कि हर बार मुझे ही इश्क़ ज़्यादा क्यूँ हो... कभी तो हो कि चाँदभीगे फ़र्श पर तड़पो तुम और ख़्वाब में बहती नदी के पानी के प्यास से जाग में जान जाती रहे…

के बदन कहानियों का बना है और रूह कविताओं से … मैं तुम्हारे शब्दों की बनी हूँ जानां… तुम्हारी उँगलियों की छुअन ने मुझमें जीवन भरा है…किसी रोज़ जान तुम्हारे हाथों ही जाएगी… इतना तो ऐतबार है मुझे…

तुम इश्क़ की दरकार न करो…बाँधो अपना जिरहबख़्तर… भूल जाओ मेरे शहर का रास्ता…भूल जाओ मेरे दिल का रास्ता। लिखती हूँ और ख़ुद को कोसने भेजती हूँ। कि ऐसा क्यूँ। तुम्हारी ख़ातिर…इश्क़ में थोड़ा तुम भी तड़प लो तो क्या हर्ज है। मगर तुम्हारी तड़प मुझे ही चुभती है…कि मेरे हिस्से की नींद तुम्हारे शहर चली गयी है और उन ख़्वाबों में मुझे भी तो जाना था… तुम जाने किस मोड़ पर इंतज़ार कर रहे होगे…

मेरी हथेलियों में प्यास भर आती है। ऐसा इनके साथ कभी नहीं होता… कभी भी नहीं, सिवाए तब कि जब बात तुम्हारी हो। मेरे हाथों को वरना सिर्फ़ काग़ज़ क़लम की दरकार होती है… छुअन की नहीं… किसी भी और बदन की नहीं। तो फिर कौन सा दरिया बहता है तुम्हारे बदन में जानां कि जिसे ओक में भर पीने को रतजगे लिखाते हैं मेरे शहर में। मैं डरती हूँ इस ख़याल से कि तुम्हें छूने को जी चाहता है… तुम्हें छू लेना तुम्हें काग़ज़ के पन्नों से ज़िंदा कर कमरे में उतार लाना है…तुम ख़यालों में हो फिर भी तुम्हारे इश्क़ में साँस रुक जाती है…तुम मूर्त रूप में आ जाओगे तो जाने क्या ही हो… मैं सोच नहीं पाती… मैं सोचने से डरती हूँ। तुम समझ रहे हो मेरा डर, जानां?

तुम्हें चूमना पहाड़ी नदी हुए जाना है कि जिसका ठहराव तुम्हारी बाँहों के बाँध में है…मगर फिर लगता है, तुम्हें तोड़ न डालूँ अपने आवेग में… बहा न लूँ… मिटा न दूँ… कि जाने तुम क्या चाहते हो… कि जाने मैं क्या लिखती हूँ… 

कि देर रात अमलतास के पीछे झाँकता है चाँद… मैं सपने में में तलाश रही होती हूँ तुम्हारी ख़ुशबू…हम यूँ ही नहीं जीते इश्क़ में बौराए हुए।

के जानां, मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।

18 May, 2019

… तुम्हारा घर होना है।

'मुझे अभी ख़ून करने की भी फ़ुर्सत नहीं है'।

उसने हड़बड़ में फ़ोन उठाया, हेलो के बाद इतना सा ही कहा और फ़ोन काट दिया। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया... कि उसे फ़ोन काटने की फ़ुर्सत है, बाय बोलने की नहीं... उसी आधे सेकंड में बाय बोल देती तो मैं फ़ोन तो आख़िर में काट ही देता।  फिर उसकी बातें! हड़बड़ में ख़ून कौन करता है… कैसे अजीब मेटफ़ॉर होते थे उसके कि उफ़, कि मतलब ख़ून करना कोई फ़ुर्सत और इत्मीनान से करने वाली हॉबी तो है नहीं। कि अच्छा, फ़्री टाइम में हमको पेंटिंग करना, कहानियाँ लिखना, किताबें पढ़ना, ग़ज़लें सुनना और ख़ून करना पसंद है। लेकिन ये बात भी तो थी कि उसके इश्क़ में पड़ना ख़ुदकुशी ही था और अगर वो तुम्हें एक नज़र प्यार से देख ले तो मर जाने का जी तो चाहता ही था। ऐसे में ख़ून करने की फ़ुर्सत का शाब्दिक अर्थ ना लेकर ये भी सोचा जा सकता था कि उसे इन दिनों सजने सँवरने की फ़ुर्सत नहीं मिलती होगी… कैज़ूअल से जींस टी शर्ट में घूम रही होती होगी। उसके गुलाबी दुपट्टे, मैचिंग चूड़ियाँ और झुमके अलने दराज़ में पड़े रो रहे होते होंगे। आईने पर धूल जम गयी होगी। ये भी तो हो सकता है। फिर मेरे दिमाग़ में बस हिंसक ख़याल ही क्यूँ आते हैं।

प्रेम का मृत्यु से इतना क़रीबी ताना बाना क्यूँ बुना हुआ है। ये सर दर्द क्या ऑक्सिजन की कमी से हो रहा है? उसकी बात आते मैं ठीक ठीक सोचना समझना भूल जाता हूँ। कभी कभी तो लगता है कि साँस लेना भी। वैसे शहर में प्रदूषण काफ़ी बढ़ गया है… फिर दिन भर की बीस सिगरेटें भी तो कभी न कभी अपना असर छोड़ेंगी… साँस जाने किस वजह से ठीक ठीक नहीं आ रही। मुझे शायद कुछ दिन पहाड़ों पर जा कर रहना चाहिए। किसी छोटे शहर में… जहाँ की हवा ताज़ी हो और लड़कियाँ कमसिन। कि जहाँ मर जाना आसान हो और जिसकी लाइब्रेरी में बैठ कर इत्मीनान से मैं अपना सुसाइड नोट लिख सकूँ। 

वो एक ख़लल की तरह आयी थी ज़िंदगी में…छुट्टी के दिन कोई दोपहर दरवाज़ा खटखटा के नींद तोड़ दे, वैसी। बेवजह। अभी भी न उसके रहने की कोई ठोस वजह है, न उसके चले जाने पर कोई बहुत दुःख होगा। जैसे ज़िंदगी में बाक़ी चीज़ें ठहर गयी हैं… वो भी इस मरते हुए कमरे की दीवार पर लगा वालपेपर हो गयी है… किनारों से उखड़ती हुयी। पुरानी। बदरंग। सीली। उसके रहते कमरे का उजाड़ ख़ुद को पूरी तरह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता है। न मैं कह पाता हूँ उससे… इस बुझती शाम में तुम यहाँ क्या कर रही हो…तुम्हें कहीं और होना चाहिए… यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है…

उसके आने का कोई तय समय नहीं होता और ये बात मुझे बेतरह परेशान करती है कि न चाहते हुए भी मुझे उसका इंतज़ार रहता है। उसके आने की कोई वजह भी नहीं होती तो मैं मौसम में उसके आने के चिन्ह तलाशने लगा हूँ… कि जैसे एक बेहद गर्म दिन वो सबके लिए क़ुल्फ़ी और मेरे लिए चिल्ड बीयर का एक क्रेट ले आयी थी… आइस बॉक्स के साथ। उसे याद भी रहता था कि मुझे किस दुकान का कैसा नमकीन पसंद है। कभी कभी वो यूँ ही मेरे घर के परदे धुलवा देती, चादरें बदलवा देती और कपड़े ड्राईक्लीन करवा देती। लेकिन इतना ज़्यादा नहीं कि उसकी आदत लगे लेकिन इतना कम भी नहीं कि उसका इंतज़ार न हो। 

कभी कभी वो महीनों व्यस्त हो जाती। उसका कोई इवेंट होता जो कि आसमान से उतरे लोगों के लिए होता। उनकी ख़ुशी के सारे इंतज़ाम करते हुए वो एकदम ही मुझसे मिलने नहीं आती। बस, कभी बर्थ्डे पर केक भिजवा दिया। कभी नए साल पर फूल। लेकिन ख़ुद नहीं आती। मुझे समझ नहीं आता मैं इन चीज़ों पर नाराज़ रहूँ उससे या कि ख़ुश रहूँ कि अपनी व्यस्तता में भी उसे मेरा ध्यान है। 

वो व्यस्त रहती थी तो ख़ुश रहती थी। सुबह से शाम तक काम और प्रोजेक्ट ख़त्म होने के बाद के पैसों से ख़ूब घूमना। चीज़ें ख़रीदना। फिर नए प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले के दो चार दिन एकदम ही परेशान हो जाती थी… कि जैसे भूल ही जाएगी लिखना पढ़ना। देर रात तक विस्की और फिर सुबह उठने के साथ फिर से विस्की। खाना खाती नहीं थी कि उल्टी… ऐसी लाइफ़स्टाइल क्यूँ थी उसकी पता नहीं। फिर मैं क्या था उसका, वो भी पता नहीं। सिर्फ़ एक कमरा जो हमेशा उसकी दस्तक पर खुलता था… दिन रात, सुबह… किसी भी मौसम… किसी भी मूड मिज़ाज माहौल में… रहने की इक तयशुदा जगह… उम्र का कोई पड़ाव… 

एक दिन मुझे असाइलम का डेफ़िनिशन समझा रही थी… ‘पागलखाना न होता तो पागलों को जान से मार देते लोग… या कि पागल लोग पूरी दुनिया को इन्फ़ेक्ट कर देते… पागल कर देते… असाइलम यानी कि जहाँ लौट कर हमेशा जाया जा सके… जैसे विदेशों में मालूम, आपके देश की एम्बसी होती है… पनाह… जहाँ जाने की शर्त न हो… असाइलम… तुम… कि तुम मेरा असाइलम हो।’ 

काश कि वो दुनिया की किसी डेफ़िनिशन से थोड़ी कम पागल होती। कि मैं ही बता पाता उसे, कि तुम पागल हो नहीं… थोड़ी सी मिसफ़िट हो दुनिया में… लेकिन ऐसा होना इतना मुश्किल नहीं है। कि तुम मेरे लिए ठीक-ठाक हो।

कि मुझे तुम्हारा असाइलम नहीं… तुम्हारा घर होना है।

15 May, 2019

ख़्वाब गली

सपने ठीक ठीक किस चीज़ के बने होते हैं, मालूम नहीं। हमें जो चाहिए होता है...इस दुनिया में बिखरी जो तमाम ख़्वाहिशें हैं... मेरी नहीं, किसी और की, किसी और वक़्त में किसी की माँगी हुयी कोई दुआ...सच की... कि हम जो महसूसना चाहते हैं, भले ही वो हमारी ज़िंदगी में कभी न घटे लेकिन वैसा होने से हम कैसा महसूसते, ये हमें सपने में दिख जाता है। एक थ्योरी तो यह भी कहती है कि अगर आपने सपने में किसी को देखा है तो इसका मतलब वो व्यक्ति आपको याद कर रहा था, बेतरह।

जानां। आज पूरी रात कई सारे सपनों में बीती। हर सपना टूटने के बाद दूसरा शुरू हो जाता था। इन सारे सपनों में बस तुम ही कॉमन रहे। क्यूँ देखा तुम्हें पूरी रात मालूम नहीं। सुबह को दो सपने याद हैं।

मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो खाना बना रही है और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर बरामदे से भीतर आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।

मैं तुम्हारी बीवी से बात कर रही हूँ। गाँव का कच्चा मकान है और मिट्टी वाले चूल्हे। वो बड़े से पतीले पर चढ़ा भात देख रही है...जो कि खदबद कर रहा है...और मैं वहीं चुक्कुमुक्कु बैठी हूँ लकड़ी के पीढ़ा पर और हम जाने किस बात पर तो हँस रहे हैं। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी है और बहुत सुंदर लग रही है। बहुत ही सुंदर। मेरा गाँव वाला घर है और वहाँ कोई शादी ब्याह टाइप कुछ है, जो ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन ऐसा ही कुछ होने में दूसरे घर की औरतों को भंसा में जाने मिलता है। तुम बाहर से आए हो...आँगन के पार से देखते हो हमें बात करते और हँसते हुए और ठिठक जाते हो। तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब मुस्कान है। मोना लीसा स्माइल। कि जैसे तब होती है जब सीने से कोई बोझ उतर जाता हो।

बस से हम ठीक अपने देवघर वाले घर के सामने उतरे हैं। मैं और तुम, घर के बाक़ी लोग आगे चले गए हैं। मेरे तुम्हारे, दोनों के घर वाले। मेरे घर के पहले तल्ले पर जाने के लिए पीछे का छोटा वाला दरवाज़ा है और वहाँ तक जाने वाली छोटी सी गली है... सामने से पड़ोसी और उसके साथ एक और लड़का आता हुआ दिख रहा है। मैं गली की दूसरी साइड चली गयी हूँ ... वैसे तो हमारी बात नहीं होती, लेकिन कोई दूसरा लड़का है उनके साथ और मैं नहीं चाहती वो मुझे टोके।

लोहे का गेट खोल कर हम अंदर घुसते हैं और फिर लकड़ी वाला दरवाज़ा मैं चाबी से खोलती हूँ... इतनी देर में तुमने जूते उतार के बाहर रख दिए हैं। तुम जब अंदर आते तो तो मैं देखती हूँ, जूते बाहर हैं। मैं उन्हें उठा लेती हूँ... कि हमारे यहाँ कोई बाहर नहीं खोलता जूते। लेदर के पुराने ओल्ड फ़ैशन जूते... मेरे पापा पहनते हैं ऐसे ही...बाटा वाले। मैं आगे बढ़ती हूँ, तुम्हें चाबी दी है...दरवाज़ा लॉक करने के लिए। सीढ़ियों से ऊपर चढ़े हैं। दायीं तरफ़ पहला कमरा मेरा है। मेरी स्कूल की किताबें लगी हुयी हैं। लंच बॉक्स और पेंसिल बॉक्स रखा हुआ है। खिड़की के पास मेरा सिंगल बेड है। तकिए के पास कुछ किताबें पसरी हुयी हैं... एक आधी नोट्बुक और पेन पेंसिल भी।

तुम्हें पीठ में दर्द हो रहा है। दाएँ कंधे के थोड़े नीचे। शायद बस में चोट लगी थी या ऐसा ही कुछ। मैं कहती हूँ कि विक्स लगा देती हूँ। तुम कहते हो कि कोई ज़रूरत नहीं है, थोड़ा सा दर्द है... ऐसे ही ठीक हो जाएगा। मैं ज़िद करती हूँ कि थोड़ा सा लगा के पीठ दबा ही दूँगी तो दिक्कत क्या है... ऐसे दर्द में रहने की क्या ज़रूरत है। तुम अपनी शर्ट के बटन खोलते हो और आधी शर्ट उतार कर बेड पर लेट जाते हो... मैं विक्स लगा रही हूँ... मेरी हथेली गर्म लग रही है... तुम्हें शायद चोट लगी है कि वहाँ कत्थई निशान है, लगभग मेरी हथेली जितना। मैं हल्के हल्के विक्स लगाती सोच रही हूँ... मैंने पहले कभी इतने intimately तुम्हें छुआ नहीं है। कभी कभी सिर्फ़ तुम्हारा हाथ पकड़ा है और सिर्फ़ एक बार तुम्हारे बाल ठीक किए हैं। मैं पहली बार जान रही हूँ तुम्हें छूना कैसा है। तुम्हारा कंधा साँवला है और त्वचा एकदम चिकनी जिसमें थोड़ी सी चमक है। मुझे नेरुदा याद आते हैं... the moon lives in the lining of your skin...क्या गोरखधंधा हो तुम खुदा जाने...

तुम उठ कर बैठते हो...शर्ट के बटन लगा रहे हो...काली चेक शर्ट है... कॉटन की... मैं पहली बार तुमसे मिली थी तो तुमने यही शर्ट पहनी हुयी थी। खिड़की वाली दीवार पर टेक लगा कर बैठते हो... मैं तुम्हारी लेफ़्ट ओर बैठी हूँ तुम मुझे गले लगाते हो... मैं तुम्हारे सीने पर सर रख कर बैठी हूँ... तुमने बाँहों में घेर कर माथे पर हथेली रखी हुयी है...और हल्के से मेरा सर थपथपा रहे हो...बाल सहला रहे हो...

मैं आँख बंद करती हूँ कि जान जाती हूँ ये सपना है और सब कुछ एक हूक की तरह सीने में हौल करता है... तुम मुझे चूमते हो... सपने और जाग के बीच बने बारीक पुल पर...

मैं जागती हूँ तो मेरी हथेलियों में इक गर्माहट की याद है। पहली चीज़ मन किया कि तुमसे पूछ लूँ, तुम्हें कोई चोट तो नहीं लगी है... फिर अमृता प्रीतम याद आती हैं... जब वे साहिर के सीने पर विक्स लगा रही होती हैं। फिर मैं भूल जाती हूँ दोनों को। मुझे तुम्हारी बेइंतहा याद आयी है। रुला देने वाली। कि वाक़ई होना चाहिए इस दुनिया में ऐसा कि किसी को ऐसे याद करने के बजाए, हम जा सकें उससे मिलने। फ़्लाइट पकड़ कर उतर सकें उसके शहर। मिल सकें, पी सकें एक कॉफ़ी...कह सकें, इस याद से तो मर जाना बेहतर था।

ऐसी किसी सुबह लगता है कि शायद तुमने भी मुझे याद किया हो... इतना नहीं, थोड़ा कम सही।

लव यू।

25 April, 2019

मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे

इन दिनों किंडल ऐप डाउनलोड कर लिया है और उसपर एक किताब गाहे बगाहे पढ़ती रहती हूँ। उसमें एक दूसरी किताब की बात है जो कि एक उपन्यास के बारे में। इस उपन्यास का नाम है lost city radio, एक रेडीओ प्रेज़ेंटर है जो युद्ध के बाद रेडीओ स्टेशन में काम करती है और सरकार के हिसाब से ख़बरें पढ़ती है… लेकिन उसका एक कार्यक्रम है जिसमें वो खोए हुए लोगों के नाम और उसके बारे में और जानकारियाँ देती है। युद्ध के बाद खोए हुए अनेक लोग हैं। पूरे देश में उसका प्रोग्राम सबसे ज़्यादा लोग सुनते हैं…उसका चेहरा कभी मीडिया के सामने उजागर नहीं किया जाता।

मैं इस उपन्यास को कभी पढ़ूँगी। लेकिन उसके पहले इसकी दो थीम्स जो कि मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। आवाज़ें और खो जाना या तलाश लिया जाना। मैं आवाज़ों के पीछे बौरायी रहती हूँ। जितने लोगों को मैंने डेट किया, कई कई साल उनसे बात नहीं करने के बावजूद उनकी आवाज़ मैं एक हेलो में पहचान सकती हूँ… जबकि बाक़ी किसी की आवाज़ मैं फ़ोन पर कभी नहीं पहचान पाती, किसी की भी नहीं। लड़कों की आवाज़ तो मुझे ख़ास तौर से सब की एक जैसी ही लगती है। गायकों में भी सिर्फ़ सोनू निगम की आवाज़ पहचानती हूँ…वो भी आवाज़ नहीं, वो गाते हुए जो साँस लेता है वो मुझे पहचान में आ जाती है… पता नहीं कैसे। मुझे आवाज़ों का नशा होता है। मैं महीने महीने, सालों साल एक ही गाना रिपीट पर सुन सकती हूँ… सालों साल किसी एक आवाज़ के तिलिस्म में डूबी रह सकती हूँ।

बारिश की दोपहर मिट्टी की ख़ुशबू को अपने इर्द गिर्द महसूसते हुए सोचती रही, उसकी आवाज़ का एक धागा मिलता तो कलाई पर बाँध लेती…मौली… कच्चे सूत की। उसकी आवाज़ में ख़ुशबू है। गाँव की। रेत की। बारिश की। ऐतबार की। ऐसा लगता है वो मेरा कभी का छूटा कोई है। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं…जन्मपार के रिश्ते। मैं उसके साथ का कोई शहर तलाशती हूँ। एक दिन न, मैं आपको समंदर दिखाने ले चलूँगी। मुझे सब मालूम है, उसके घर के सबसे पास कौन सा समंदर है, वहाँ तक जाते कैसे हैं। एक दिन मैं अपने उड़नखटोला पर आऊँगी और कहूँगी, ऐसे ही चल लो, रास्ते में कपड़े ख़रीद देंगे आपको। बस, अभी चल लो। फिर सोचती हूँ कि ऐसे शहर क्यूँ मालूम हैं मुझे। कि रात जब गहराती है तो बातें कितने पीछे तक जाती हैं। बचपन तक, दुखों तक, ख़ुशी के सबसे चमकीले लम्हे तक। दिन में हम वैसी बातें नहीं करते जैसी रात में करते हैं। मैं समंदर की आवाज़ में उलझे हुए सुनना चाहती हूँ उन्हें…कई कई पूरी रात। चाँद भर की रोशनी रहे और क़िस्से हों। सच्चे, झूठे, सब। मुझे उन लड़कों से जलन होती है जो उनके साथ रोड ट्रिप पर जाते हैं और पुराने मंदिर, क़िले, महल, दुकानें देखते चलते हैं। जो उन्हें गुनगुनाते हुए अपना पसंद का कोई गीत सुना पाते हैं। उनसे बात करते हुए लगता है कि ज़िंदगी कितनी छोटी है और उसमें भी कितना कम वक़्त बिताया हमने साथ। मगर कितना सुंदर। कि बाक़ी लोग पूरी उम्र में भी कोई ऐसी शाम जी पाते होंगे… मैं सोचती हूँ, पूछती हूँ और ख़ुद में ही कहती हूँ, कि नहीं। कि कोई दो लोग दूसरे दो लोगों की तरह नहीं होते। न कोई शाम, शहर या धुन्ध ख़ुद को कभी दोहराती है।

कभी कभी लगता है मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे। आज एक बहुत साल पहले पढ़ा हुआ शब्द याद आ रहा है। अरबी शब्द है, ठीक पता नहीं कैसे लिखते हैं, एक लिस्ट में पढ़ा था, उन शब्दों के बारे में जो अनुवाद करने में बहुत मुश्किल हैं…यकबरनी… यानी तुम मुझे दफ़नाना…

मुझे नहीं मालूम कि मुझे ऐसी छुट्टियाँ सिर्फ़ किसी कहानी में चाहिए या ऐसे लोग सिर्फ़ किसी क़िस्से में लेकिन उनसे बात करते हुए लगता है ज़िंदगी कहानियों जैसी होती है। कि कोई शहज़ादा होता है, किसी तिलिस्म के पार से झाँकता और हम अपनी रॉयल एनफ़ील्ड उड़ाते हुए उस तिलिस्म में गुम हो जाना चाहते हैं। 

hmmm

उससे बात करते हुए अक्सर माँ की याद आती है। माँ के जाने के साथ मेरे जैसी एकदम ज़िद्दी लड़की की सारी ज़िद एकदम हाई ख़त्म हो गयी। मैं इतनी समझदार हो गयी कि कभी किसी चीज़ के लिए किसी को दुबारा कहा भी नहीं। उसके जाने के हाई बाद मैं बहुत fiercely इंडिपेंडेंट भी हो गयी, किसी से ज़रा सी भी मदद माँगने में मेरी मौत आती है। मुझे कमज़ोर हो जाने से डर लगता है। मैं किसी से एक ग्लास पानी भी माँग नहीं सकती। पिछले साल पैर टूटने के बाद मैंने थोड़ा सा ख़ुद को बदला, कि अगर ख़ुद से नहीं कर सकते तो ज़रा सा किसी से पूछ सकते हैं…कमज़ोर होना इतना डरावना भी नहीं। 

बहुत साल पहले उसने एक दिन कहा था, ‘मैं तुम्हारा मायका हूँ, तुम अपने को इतना अकेला मत समझा करो। मैं काफ़ी हूँ तुम्हारे लिए’। मैं कैसी कैसी चीज़ें पूछती थी उससे। धनिया पत्ता की चटनी में डंडी डालेंगे या सिर्फ़ पत्ते। उस वक़्त जब कि मेरी पूरी दुनिया में कोई भी नहीं था, वो मेरी दुनिया में आख़िरी था जो मेरे साथ खड़ा था…last man standing. उसके लिए ये इतनी ही छोटी सी बात थी, जितनी मेरे लिए बड़ी बात थी। वो सिर्फ़ मेरे प्रति थोड़ा सा काइंड था लेकिन उसकी इस ज़रा सी काइंडनेस ने मेरी दुनिया सम्हाल रखी थी। आप कभी कभी नहीं जानते इक आपके होने से किसी की ज़मीन होती है पैर के नीचे। मैं उसे कभी भी ठीक समझा नहीं सकती कि वो क्या था, है। 

अंग्रेज़ी में एक शब्द होता है, pamper … हिंदी में जिसे लाड़ कहते हैं। या थोड़ा और बोलचाल की भाषा में, माथा चढ़ाना। मैं कई सालों से इस शब्द के दूसरे छोर पर हूँ। जिनसे भी मैंने कभी प्यार किया है, वे जानते हैं कि मेरे लिए सब कुछ उनके लिए होता है। शॉपिंग करने गयी तो अपने से ज़्यादा उनके लिए सामान ख़रीद लाऊँगी। चिट्ठियाँ, रूमाल, किताबें, अच्छे काग़ज़ वाली नोट्बुक, झुमके, बिंदी, फूल … सब कुछ होता है मेरे इस लाड़-प्यार-दुलार में। घर में जो छोटे हैं उन्हें इसी तरह मानती हूँ बहुत। उनकी पसंद की चीज़ मालूम होती है। उनके पसंद के रंग, उनके पसंद के फूल। मगर इस शब्द के दूसरी ओर नहीं रही मैं कितने साल से। कि ज़िद करके कह दूँ, मैं नहीं जानती कुछ, बस, चाहिए तो चाहिए। 

वो मुझे मानता है। पैम्पर करता है। इक छोटी सी चीज़ थी, कि शाम मेरे हिसाब से चल लो, घूम लो… और उसने हँस के कह दिया, लो, शाम तुम्हारे नाम… जो भी कहोगी, आज सब तुम्हारी मर्ज़ी का। आइसक्रीम खाओगी, ठीक है… यहाँ से फ़ोटो खींच दूँ, ठीक है…. ऊपर सीढ़ियों पर जाना है, ठीक है… बैठेंगे थोड़ी देर… ठीक है। कभी कभी जैसे ज़िंदगी भी कहती है, लो आज तुम्हारी सारी माँगें मंज़ूर। कि मैं वैसे भी बहुत छोटी छोटी चीज़ों में ख़ुश हो जाती हूँ। वो बिगाड़ रहा है मुझे। मैं कहती हूँ, सर चढ़ा रहे हो, भुगतोगे। वो हँसता है कि तुम क्या ही माँग लोगी। 

मैं एक दिन उसके गले लग के ख़ूब ख़ूब रोना चाहती हूँ कि मम्मी की बहुत याद आती है। कब आएगा वो टाइम, कि जिसके बारे में लोग कहते थे कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। इतनी severe ऐंज़ाइयटी होती है। सुबह, शाम, रात। तुम ज़रा सा रहो। इन दिनों। कि जब थोड़ा चैन आ जाएगा, तब जाना। 

उसे फ़ोन करती हूँ तो न हाय, हेलो, ना मेरा नाम… बस, हम्म… और मैं हँस देती हूँ… कि पहले फ़ोन करती थी तो बस इतना ही था, ‘बोलो’… मैं कहती थी तुम न मुझे रेडियो की तरह ट्रीट करते हो, कि बटन ऑन करोगे और सब ख़बरें मिल जाएँगी। उसका होना अच्छा है। उसका होना मुझे बचाए रखता है। 

17 April, 2019

मैं precious, और तुम, बेशक़ीमत

उसे क़रीब से जानना थोड़ा unsettling है। अस्थिर। जैसे अपनी धुरी पर घूमते घूमते अचानक से थोड़ा डिस्को करने का मन करने लगे। जैसे बाइक उठा के घर से बाहर निकलें तो सब्ज़ी ख़रीदने के लिए और उड़ते उड़ते चले जाएँ एयरपोर्ट और दो चार घंटे वहाँ कॉफ़ी पीते और सोचते रहें कि उसके शहर चले जाएँ टिकट कटा के या कि किसी शहर जाएँ और उसको वहाँ बुला लें।  इस सारे सोचने और क़िस्सों का शहर रचते हुए काग़ज़ पर लिखते जाएँ ख़त, उसको ही। कि जैसे मेरे लिखने से हम ज़रा से याद रहेंगे उसको, हमेशा के लिए। कि जैसे कई टकीला शॉट्स के बाद भी होश में रहें और वो हँस के कहे कि पानी नीट मत पीना, थोड़ी सी विस्की मिला लेना तो उस आवाज़ के ख़ुमार में बौरा जाएँ। कि उसकी हँसी सम्हाल के रखें। कि इसी हँसी की छनक होगी न जब उसके इश्क़ में दिल टूटेगा।

हम बहुत हद तक एक जैसे हैं। जैसे आज शाम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि मौसम इतना अच्छा था कि दोपहर में छत पर  कुर्सी निकाल कर बैठा और रेलिंग पर पैर टिका दिए और किताब ख़त्म की। इस तरह जगह की डिटेलिंग सिर्फ़ मैं करती हूँ। कि यहाँ घूम रही हूँ, ये कर रही हूँ, सामने फ़लाना पेड़ है, हवा चल रही है, विंड चाइम पगला रही है। इट्सेटरा इट्सेटरा। फिर ये भी लगता है कि सुनने वाले को ये डिटेल्ज़ बोरिंग तो नहीं लगते। कि मैं क्या ही कह रही हूँ फ़ालतू बातें। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर खिड़की के सामने नारियल का पेड़ है या आम का या डेकोरेटिव पाम का… लेकिन मुझे फ़र्क़ पड़ता है तो मैं कहती हूँ ऐसे। लेकिन पहली बार कोई ऐसा था, जिसने इतनी छोटी सी डिटेलिंग की ताकि मैं देख सकूँ ठीक उस रंग में जैसी उसकी दोपहर थी। बात सिर्फ़ इतनी भी होती तो ठीक था…बात ख़ास इसलिए है कि मैंने पूछा नहीं था। उसने ख़ुद से बताया। वो शहर में होता तो उड़ते उड़ते जाती बाइक पर, सिर्फ़ उसे ज़ोर से hug करने के लिए।

वो पूछता है, तुम्हें मैं समझ में आता हूँ। मैं सोचती हूँ, क्या कहूँ। थीसीस की है तुमपर। तुम्हारे हर शब्द को लिख के रखा है। तुम्हारी आँखों का रंग हर क़िस्से में झलकता है। तुम्हारे कहे बिना बात समझती हूँ। तुम्हारे आधे सेंटेन्सेज़ सही सही पूरे करती हूँ और तुम नाराज़ नहीं होते हो। तुम्हारी याद में अटकी फ़िल्मों के नाम मुझे सूझते हैं। लेकिन, यूँ तो कोई किसी को ताउम्र साथ रह के भी नहीं जान सकता और किसी को जानने के लिए एक मुलाक़ात ही काफ़ी होती है। एक बात बताऊँ वैसे, मुझे कभी नहीं मालूम था कि तुमने कॉलेज में कितनी लड़ाई वग़ैरह की थी...लेकिन तुम्हारे साथ चलते हुए एक एकदम ही स्ट्रेंज सी निश्चिन्तता होती थी। जैसे कि कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। ये सिर्फ़ एक दिन की छोटी सी बात से आयी थी। वो दिल्ली का अजीब सा मुहल्ला था...लड़के जैसे लड़कियाँ घूरने के लिए ही पैदा हुए थे। बहुत अजीब जगह, जहाँ डर लगे। तुमने बिना कुछ कहे, मेरा हाथ पकड़ा और साथ में चलने लगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में आश्वस्ति थी। कुछ चीज़ें जो हम शब्दों के बग़ैर कहते हैं। स्पर्श की भाषा में। उस दिन पता चला मुझे। तुम्हारे साथ डर नहीं लगेगा, कभी भी।

मुझे उसकी हँसी अच्छी लगती है। और उसकी आँखें। और उसकी बातें। और उसका शब्दों का एकदम ठीक ठीक इस्तेमाल करना। कि ग़लती से भी, कभी भी एक शब्द ग़लत नहीं बोल सकता। इम्पॉसिबल। कि इसपर शर्त लगायी जा सकती है। हार जाने वाली शर्त। पर उससे हारना अच्छा लगता है। उसके कम शब्दों में कुछ शब्द जो मेरे नाम के इर्द गिर्द गमकते हैं। precious. कितना साधारण सा शब्द है। लेकिन वो कहता है तो ख़ास लगता है। कि भले ही वो मेरे लिए बेशक़ीमत हो। मैं उसके लिए सिर्फ़ क़ीमती हूँ, तो भी चलेगा। कि वो आप कहता है, मुझे नहीं मालूम, ग़ुस्से में कि दुलार में। पर कहता है तो अच्छा लगता है। कि मुझे आप सिर्फ़ पापा कहते हैं।

अजीब सी किताब है। Norwegian Wood। लेकिन जब वो कहता है कि वो मुझे कभी नहीं भूलेगा। उसका उसकी पसंद की भाषा में कहना। I will always remember you. बहुत प्यारा महसूस होता है। जैसे किसी एक साल मैथ के इग्ज़ैम में सच में 99 मार्क्स आ गए हों। कि ग़लती से सारे सवाल सही बन गए थे।

द लेकहाउस याद आ रही है। जिसमें वो लड़की के लिए शहर के नक़्शे में एक रूट चार्ट करता है कि यहाँ जाओ, ये देखो… और लड़की उस रास्ते पर चलती है, सोचती हुयी… कि काश हम सच में साथ होते… फिर सामने वो बड़ी सी दीवार आती है, जिसपर कमोबेश दो साल पुरानी ग्रफ़ीटी बनी हुयी है। कि केट, मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस ख़ूबसूरत शनिवार की शाम का शुक्रिया। कैमरा ‘together’ शब्द पर जा के ठहरता है। प्यार में कैसी कैसी चीज़ें लोगों को क़रीब ले आती हैं। कि दूरी सिर्फ़ मन में होती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा हो सकता है कि उसके शहर में बारिश हो और यहाँ की हवा में खुनक आए।

फिर द ब्लूबेरी नाइट्स का वो सीन, जब कि लड़की पूरी दुनिया में भटकती हुयी भी उस कोने की छोटी वाली दुकान के लड़के को पोस्टकार्ड भेजती है। कहती है उससे, पता नहीं तुम मुझे कैसे याद करोगे। उस लड़की की तरह जिसे ब्लूबेरी पाई पसंद थी, या उस लड़की की तरह, जिसका दिल टूटा हुआ था।

मैं सोचती हूँ कि मुझे क्या याद रहेगा। इमारत से पीठ टिकाए बैठना। आसमान को देखते हुए हँसना। दिल्ली मेट्रो के स्टेशन पर विदा कहते हुए फ़्लाइइंग किस देना। क्या क्या। कि कहानी और सच के बीच अंतर करना सीखना ज़रूरी है वरना मैं भी किसी पागलपन की कगार पर तो हूँ ही। कब से एक कहानी के बाहर भीतर कर रही हूँ। किरदार मेरे साथ साथ शहर घूमते हैं और मैं जाने क्या कुछ महसूसती हूँ। कि कोई एक शहर हो जिसमें मेरी पसंद की सारी जगहें हों। वो कॉफ़ीशॉप्स जहाँ मेरे पसंद की कॉफ़ी मिलती है। वो पोस्ट बॉक्स जहाँ से तुम्हें पोस्टकार्ड गिराया था। पतझर का सुनहले पत्तों वाला मौसम। डाकटिकटों में रचे-बसे शहर जहाँ में जाना चाहती हूँ एक शाम कभी।

मुझे लिखने से डर लगने लगा है। लिखे हुए लोग ज़िंदगी में मिल जाते हैं। जब तीन रोज़ इश्क़ लिखा था तो उसमें लड़की एक घंटे में एक पैग विस्की पीती है...विस्की के पैग से समय नापा जा सकता है। मैंने तब तक ऐसे किसी इंसान को नहीं जाना था जो ड्रिंक्स के हिसाब से घंटे माप सके। और फिर मैं तुमसे मिली। उस दिन पता है, मन किया तुम्हें वो पूरी कहानी पढ़ के सुनाऊँ... कि देखो, अनजाने में ऐसा लिखा है।

तुम हो मेरे इंतज़ार में? या कि सिर्फ़ मैंने लिखे हैं इतने सारे शहर कि जिनका कोई सही डाक पता नहीं। तुम मुझे चिट्ठियाँ लिखने से मना करो। मेरी चिट्ठियों से सबको ही प्यार हो जाता है। without exception। मेरी चिट्ठियाँ उतनी ही पर्फ़ेक्ट हैं, जितनी मैं flawed। फिर चिट्ठियों से प्यार करोगे और लड़की से नफ़रत। क्या करेंगे फिर हम।

मैं पूछती हूँ उससे। तुम जानते हो न, मैं क्यूँ चाहती हूँ कि किसी को याद रहूँ। कि मुझे मालूम है किसी दिन आसान होगा मेरे लिए कलाइयाँ काट कर मर जाना। उसकी आवाज़ में फ़िक्र है। कि ऐसी बातें मत करो। मुझे नहीं चाहिए प्यार मुहब्बत। मुझे बस, थोड़ी सी फ़िक्र चाहिए उसकी…बस। मैं उसकी आँखें याद करूँगी और दुनिया के सबसे फ़ेवरिट सूयसायड पोईंट से कूदना मुल्तवी कर दूँगी। हाँ इसे प्यार नहीं कहते। लेकिन इतना काफ़ी है, कि इसे ज़िंदगी कहते हैं। और तुम्हारे होने से ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और मेरी हँसी में जादू। इससे ज़्यादा मुझे नहीं चाहिए। 

08 April, 2019

तिलिस्म सिर्फ़ तोड़े जाते हैं, उनसे मुहब्बत नहीं की जाती...

लड़की कोहरे की बनी होती तो फिर भी ठीक होता। वो सिगरेट के धुएँ की बनी थी। उँगलियों में रह जाती। बालों में उलझ जाती। बिस्तर, तकिए, कम्बल…जब जगह बसी रहती। तलब वैसी ही लगती थी उसकी। रोज़। रोज़। रोज़। सुबह, शाम, रात…नींद के पहले, जागने के बाद।
कैसे चूमता कोई उसे? क्यूँ चूमता कोई उसे?

लड़की - शब्दों की बनी, उदास, ख़ुशनुमा, गहरे शब्दों की। वो चाहती कि वो फूलों की बनी हो। आँसुओं की या किसी और टैंजिबल चीज़ की - हवा, पानी, मिट्टी, आग जैसी चीज़ों की… लड़की चाहती कि उसे छुआ जा सके। 
ताकि उसे तोड़ा जा सके। 

कितना लड़ सकती थी वो…ज़िंदगी के इस मोड़ पर थकान इतनी ज़्यादा थी कि उसने हथियार रख दिए। वो रोयी भी नहीं। बस उसकी आवाज़ ज़रा सी काँपी। ‘मैं नहीं करती तुमसे प्यार’। वो एक छोटा सा सवाल पूछना चाहती थी इस आत्मसमर्पण के बाद। 
‘ख़ुश?’


उसके पास सच की दुनिया नहीं थी। कहानियाँ थी सिर्फ़। और दोस्त। इस दुनिया में कहानी के मोल कुछ भी नहीं ख़रीदा जा सकता। 


माँगने को भी कुछ नहीं था उसके पास। किसी के हिस्से ज़रा सा सुख माँगना भी अधिकार में आता है। प्राचीन मंदिर और मक़बरे उसके भीतर उगते। वसंत की बेमौसम बारिश का कोई राग भी। टीन की छत पर बेतहाशा बरसती बारिश…चुप्पी महबूब का नाम चीख़ती। दूर किसी छत पर बारिश में भीगता लड़का गुनगुनाता, इस बात से बेख़बर कि लड़की तिलिस्म होती जा रही है। और मेरी जान, तिलिस्म सिर्फ़ तोड़े जाते हैं, उनसे मुहब्बत नहीं की जाती...

लड़की कभी कभी सीखना चाहती बाक़ी चीज़ें। झूठ बोलना, जिरहबख़्तर बाँधना। ख़ुदकुशी के तरीक़े। लौट सकना। करना थोड़ा कम प्यार किसी से। सीमारेखा बनाना। और अपनी उदासी में ज़रा कम ख़ूबसूरत दिखना।
कि हर कोई उसे उदास देखना न चाहे। 

मुहब्बत मैथ भी नहीं, फ़िज़िक्स का कोई unsolvable equation हुए जाती। एकदम अबूझ। इक रोज़ उसे क़ुबूल करना ही पड़ता कि इतनी उलझी हुयी चीज़ उसे ज़रा भी समझ नहीं आती। कि step-by-step marking के बावजूद उसके नम्बर बहुत कम आएँगे।
जाने कितने साल वो ज़िंदगी के इसी क्लास में गुज़ारेगी कि जिसे कहते हैं, moving on. 


Suicide letter उसका मास्टरपीस था। दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत प्रेम पत्र।


वो नहीं जानती थी प्यार के बारे में कुछ ज़्यादा। उसने ऐसा कोई दावा भी कभी नहीं किया। उसके इर्द गिर्द लेकिन बहुत समझदार लोग थे। सबने उससे कहा, किसी के लिए फूल ख़रीद लेने की ख़्वाहिश को प्यार नहीं कहते। 


29 March, 2019

इस वसंत के गुलाबी लोग, हवा मिठाई की तरह मीठे, प्यारे और क़िस्सों में घुल जाने वाले

इतनी कोमलता कैसे है इस दुनिया में? कितनी ख़तरनाक हो सकती है कोमलता?
इस कोमलता से जान जा सकती है क्या? इतनी कठोर दुनिया में कैसे जी सकता है कोई इतना कोमल हो कर।

स्पर्श को कैसे लिखते हैं कि वो पढ़ते हुए महसूस हो? इतने साल हो गए, अब भी कुछ बहुत गहरे महसूस होता है तो लिखना बंद हो जाता है। कि कैसे, इतनी कोमलता कैसे है इस दुनिया में? कैसे बचे रह गए हो तुम, इतना कोमल होते हुए भी। 

ये सारे आर्टिस्ट्स ऐसे क्यूँ होते हैं? पिकासो की तस्वीर देखते हुए उसकी आँखों का वो हल्का का पनियल होना क्यूँ दिखता है किसी भागते शहर की भागती मेट्रो में ठहरे हुए दो लोगों को एक दूसरे की आँखों में। इतने क़रीब से देखने पर आँखें ज़रा ज़रा लहकती हैं। मैं भूल जाती हूँ उसे देख कर पलकें झपकाना। ऊँगली से खींच कर काजल लगाती हूँ ज़रा सा ही, कि बचा रहे थोड़ा सा प्यार हमारे बीच। 

दिल्ली में इस बार हिमांशु वाजपेयी की दास्तानगोई थी। उससे मिल कर अंकित की फिर याद आयी। आम की दास्तान सुनना असल में तकलीफ़देह था। अंकित की इतनी याद आयी। इतनी। परसों एक दोस्त से मिली तो उस वाकये का ज़िक्र करते हुए कह उठी, मैं अंकित को ज़िंदगी भर नहीं भूल सकती। उसका होना जादू था। एक क़िस्से का जादू, किसी फ़रिश्ते सा। कि उसमें कुछ था जो इस दुनिया का नहीं था। कि वो जाने किस दुनिया का लड़का था। फिर इतनी कम उम्र में कौन लौटता है इस तरह अपने ईश्वर के पास। 

मुझे बहुत प्यारे लोगों से डर लगता है। ये डर बहुत दिनों तक अबूझ था, इन दिनों थोड़ा सा मुझे समझ में आ रहा है। ये जो फूल सा हाथ रखना होता है। सिर्फ़ अंकित ने रखा था…जब हम आख़िरी बार मिले थे। मुझे उस दिन भी उसका हाथ बिलकुल रोशनी और दुआओं का बना हुआ लगा था। मगर फिर अंकित नहीं रहा बस उसके तितलियों से हाथ रह गए हैं मेरे काँधे पर। उसके जीते जी कितना कुछ था वो। मैंने वो मैं क्यूँ नहीं लिखी कभी उसको। उसकी ईमेल id उसकी हैंडराइटिंग में मेरी नोटबुक पर है। कि कहा नहीं कभी उसके जीते जी।
***

तस्वीर खींचते हुए वो मुस्कुराया और फिर तस्वीर देखी मोबाइल पर…हमारे बीच ज़रा सी दूरी थी। उसने काँधे पर हाथ रखा और मुझे ज़रा सा अपने क़रीब खींच लिया। उसके हाथ इतने हल्के कैसे थे?

उसे विदा कहने के लिए मैं कार से उतरी। ऐसे कैसे गले लगाते हैं किसी को जैसे वो फ़्रैजल हो। एकदम ही नाज़ुक, कि छूने से टूट जाएगा। जैसे कोई तितली आ बैठी हो हथेली पर अचानक। precious। कितना क़ीमती है वो मेरे लिए। कितना प्यार उमड़ता है कभी कभी। जल्दी आना, उसने कहा। ज़्यादा मिस मत करना, मैंने कहना चाहा, पर कहा नहीं।

वे लड़के होते हैं ना, जिनसे मिलने ख़ाली हाथ जाने का मन नहीं करता। हम थोड़े अपॉलॉजेटिक से हो जाते हैं। सॉरी, आज मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं लायी। कहानी सुनोगे? नयी सुनाएँगे, जो किसी को नहीं सुनायी है अभी। वो लड़के जिन से मिल कर जाने मन में कौन सी मौसी, दीदी, फुआ की याद आ जाती है जो हमारे लिए हमेशा कुछ न कुछ लेकर ही आती थी बाहर से। जिनके आने का इंतज़ार हमारे भीतर बसता था। जो मेरी ज़िंदगी में कभी नहीं रहीं, लेकिन जिनकी कमी मुझे हमेशा खली। 

हम जब शायद कुछ और उम्र दराज़ हो जाएँगे तो तुमसे पूछ सकेंगे और तुम्हारा हाथ पकड़ कर बैठ सकेंगे किसी कॉफ़ी शॉप में, बिना कोई एक्स्प्लनेशन दिए बग़ैर। तुम्हारे सामने बैठ कर नर्वस हो कर लगातार कुछ न कुछ कहे जाने की बेबसी नहीं होगी। हम चुपचाप बैठ कर देख सकेंगे तुमको, आँख झुकाए बग़ैर। बिना कुछ कहे। किसी अकोर्डिंयन की धुन को रहने देंगे हमारे बीच, जैसे वक़्त का एक वक्फ़ा हमेशा के लिए याद रह जाएगा। हमेशा। जिसपर कि तुम यक़ीन नहीं करते हो। 

कुछ और समय बाद बुला सकूँगी तुम्हें अपने घर खाने पर। सिर्फ़ दाल भात चोखा। दिखा सकूँ तुम्हें दुनिया भर से लायी हुयी छोटी छोटी चीज़ें…कि ज़िद करके दे सकूँ तुम्हें चिट्ठियाँ लिखने का सुंदर काग़ज़, कि लिखो मत। रखना लेकिन पास में। कभी किसी को चिट्ठी लिखने का मन किया और काग़ज़ नहीं मिला सुंदर तो क्या ख़राब काग़ज़ पर लिख के दोगे। 

एक तुम्हारी आउट औफ़ फ़ोकस फ़ोटो खींच लूँ, अपनी ख़ुशी के लिए। अपने धुँधले किसी किरदार को तुम्हारी शक्ल दूँगी। कि तुम ज़रा से और ख़ूबसूरत होते तो मुश्किल होती। अच्छा है तुम्हारा ऐसा होना, कि अच्छा है मेरा भी इन दिनों कुछ कम ख़ूबसूरत होना। हम अपने से बाहर की दुनिया देख पाते हैं। तुम्हें देखते ही रहने का मन करता रहता तो तुम्हें शूट कैसे करती।

***

वो कितना मीठा और हल्का सा है। हवा मिठाई जैसा। उसके साथ होना कितना आसान है। जैसे पचास पैसे में ख़रीद कर खा लेने वाली हवा मिठाई। जिसके लिए ज़्यादा सोचना नहीं पड़ता। किसी की इजाज़त नहीं लेनी पड़ती। बचपन की एक छोटी सी ख़ुशी…उसके साथ ज़रा सा होना। सड़क पार करते हुए अचानक से हाथ पकड़ लेना। उससे मिलने के पहले आते हुए रास्ते में छोटी सी मुस्कान मुसकियाना। 
कोमल होना। प्यारा होना। अच्छा होना। 

इस बेरहम दुनिया में ज़रा सा होना किसी की पनाह। किसी का शहर, न्यू यॉर्क। किसी की पसंद की कविता की किताब के पहले पन्ने पर लेखक का औटोग्राफ। 

इस दुनिया में मेरे जैसा होना। इस दुनिया का इस दुनिया जैसा होना।

बदन दुखता रहे, हज़ार हस्पताल की दौड़ भाग के बाद, कितने इंजेक्शंज़ और जाने कितने टेस्ट्स की थकान के बाद। 

हर कुछ के बाद भी। किसी शाम कह सकना ज़िंदगी से। शुक्रिया। फिर भी। काइंड होने के लिए। कि मुहब्बत मुझे जीने का हौसला देती है और लिखना मुझे जीने के लायक़ मुहब्बत। 

लव यू।

11 March, 2019

बौराने वाले मौसम के लिए

पता है, किसी लड़के से दोस्ती करने के लिए ज़रूरी है कि लड़का थोड़ा कम ख़ूबसूरत हो और लड़की भी थोड़ी कम प्यारी हो। कि दो ख़ूबसूरत लोग कभी आपस में दोस्त तो हो ही नहीं सकते। कि मन ही अंदर से गरियाना शुरू हो जाता है, 'धिक्कार है...डूब मरो, ऐसे लड़के से कोई दोस्ती करता है!'। ये क्या क़िस्से कहानियाँ बक रही हो... कविता सुनाओ। लेकिन समय पर कविता याद थोड़े आती है। कि ख़ूबसूरत लड़कियों के साथ भी तो प्रॉब्लम होती है... ज़िंदगी में कभी फ़्लर्ट किया हो तो जानें... मतलब, बस एक नज़र देखना भर होता था और दुनिया भर के लड़के क़दमों में बिछे मिलते थे... क़सम से, कोई बढ़ा चढ़ा के नहीं बोल रहे हैं। अब ऐसे में क्या ही जाने लड़की कि कोई लड़का अच्छा लग रहा है तो क्या कहें उससे। तारीफ़ करें? उसकी आवाज़ की, उसकी हँसी की, उसके ड्रेसिंग सेंस की? ज़्यादा डेस्प्रेट तो नहीं लगेगा? कि क्या ज़माना आ गया है, तारीफ़ करने में डर लगने लगा है। उफ़! वाक़ई उमर हो गयी है अब... ये सब सूट नहीं करता इस उमर को। ग़ालिब ने कोई शेर लिखा होगा, कि कोई लड़का अच्छा लगने लगे तो क्या कहते हैं उसे… उन्हूँ… परवीन शाकिर ने पक्का लिखा होगा। वो क्या था, “बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की, चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी”… हाँ लेकिन भरी दुपहरिया बोलने में कैसा तो लगेगा, एकदम फ़ीलिंग नहीं आएगी। उसपे लड़के ने पूछ दिया कि जमाल कौन है तो हे भगवान, क्या ही समझाऊँगी उसको! ये लड़कियाँ इतना कम क्यूँ लिखती हैं रोमांटिक.. अंग्रेज़ी में तारीफ़ करने से जी ही नहीं भरता, वरना लाना डेल रे का गाना चला देती, कुछ बातें तो समझ आ जातीं शायद। लेकिन, उफ़, वहाँ भी तो लेकिन है। अंग्रेज़ी गाना कभी भी एक बार में एकदम शब्द दर शब्द समझ भी तो नहीं आता। थोड़ा समय तो ऐक्सेंट खा ही जाता है। दिमाग़ किताबों के पन्ने पलट रहा है, कुछ तो चमकेगा ही कहीं, परवीन का शेर है, धुँधला रहा है, छूट रहा है पकड़ से। आपसे किसी लड़की ने कहा है कभी, कोई ख़ूबसूरत लड़का पास में बैठा हो तो याद में जो किताब के पन्ने पलटते हैं हम, वो कोरे होते जाते हैं? हाँ, याद आया, एकदम से माहौल पर फ़िट, ‘अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ…इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ’, उफ़, आपा ने बचा लिया। फिर वो भी तो याद आ रहा है साहिर और अमृता का प्ले, एक मुलाक़ात, मतलब शेखर सुमन कितने अदा से कहता था, ‘ये हुस्न तेरा, ये इश्क़ मेरा, रंगीन तो है बदनाम सही, मुझपर तो कई इल्ज़ाम लगे, तुझ पर भी कोई इल्ज़ाम सही’। साथ वाली फ़ोटो में ये शेर लिख के टैग कर दूँ तो क्या ही स्कैंडल होगा। वो रहने दो, अब तो वो भी याद आने लगा, ‘जब भी आता है तेरा नाम मेरे नाम के साथ, जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं’। मगर इस शेर के साथ एक पुराने दोस्त की महबूब सी याद जुड़ी हुयी है। इसे छू नहीं सकते। इश्क़ में इतनी ईमानदारी तो रखनी ही चाहिए कि पुराने प्रेमियों वाले शेर नए वाले प्रेमियों के लिए न इस्तेमाल करें। लेकिन ये इश्क़ थोड़े है, ये तो ज़रा सी हार्म्लेस फ़्लर्टिंग है। ज़रा सा नशा जैसे। हल्का वाला, मारियुआना। इसमें तो थोड़ी ब्लेंडिंग चलनी चाहिए। नए पुराने का कॉक्टेल।

इस फीके से शहर में दुनिया की सबसे अच्छी कॉफ़ी मिलती है। फ़िल्टर कॉफ़ी। एकदम कड़क, ख़ूब ही मीठी। कुछ कुछ उन नए लोगों की तरह जो पहली बार में अच्छे लगते हैं। हाँ, बहुत अच्छे नहीं। पहली बार में बहुत अच्छे लगने वाले लोगों से ऐसा ख़तरनाक क़िस्म का इश्क़ होता है कि कुछ भी भूलना पॉसिबल नहीं होता है उनके बारे में। मुझसे पूछो तो मेरे मेमरी कार्ड में यही अलाय बलाय इन्फ़र्मेशन भरा हुआ है। किसी की आँखों का रंग, किसी के कपड़ों का रंग। कहीं बजता हुआ किसी दूसरी भाषा का गीत जिसका एक शब्द भी समझ नहीं आता। कोई रैंडम सी कोरियन फ़िल्म जिसमें लड़की मुड़ कर अंतिम अलविदा कहती है, ‘सायोनारा’ और सब्टायटल्ज़ पढ़ती हुयी लड़की के दिल में एकदम से बर्छी धंसी है… उसे ये शब्द पता है। वो सुन कर जानती है कि अब वो लौट कर नहीं आएगी। पियानो की धुन है, बहुत तेज़, बहुत तीखी। जानलेवा।

वो लड़के को एक कहानी सुनाना चाहती है। इस उलझन के लिए लेकिन कहानियों में कविताएँ उतरती हैं। उसे लगता है चुप रहना बेहतर होगा। वो मुस्कुराती है किसी पुराने दोस्त को याद करके। उसे शहर घुमाने का वादा जाने कब पूरा होगा।

सुबह सुबह सोच रही है कि लो मेंट्नेन्स होना कोई इतनी अच्छी बात नहीं है, ऐसे वही लोग होते हैं जिनका कॉन्फ़िडेन्स थोड़ा कम होता है। पहले उसे ऐसा बिलकुल नहीं लगता था लेकिन अब वो सोचती है कि डिमैंडिंग होना चाहिए। कि हक़ की लड़ाई सबसे पहले पर्सनल लेवल पर होती है। आप अगर अपने अपनों से अपने हिस्से का अटेन्शन नहीं माँगेंगे तो बाहर किसी से अपना हक़ कैसे माँगेंगे। कि कोई आपको इतना टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड क्यूँ ले हमेशा। कि आपके पास लौट आने को एक रास्ता क्यूँ हो। कि पुल जलाने ज़रूरी होते हैं, इसलिए कि उन पुलों पर से चल कर जो महबूब आते हैं उनके हाथ में ख़ंजर होता है। वे आपका गला रेत कर आपको मरने के इंतज़ार में छोड़ सकते हैं… ये तो तब, जब आपके महबूब रहमदिल हुए तो, वरना तो इंतज़ार एक धीमी मौत है सो है ही।

कभी कभी लगता है, कितना नेगेटिव हो सकते है हम। अच्छे खासे प्यारे लड़के से बात शुरू होकर जलते हुए पुल और मौत तक आ गयी है। कितना मुश्किल होता है कॉफ़ी के लिए पूछना। कि बेवजह वक़्त बिताना। किसी से थोड़ा सा वक़्त माँगना। कि सब कुछ ग़दर कॉम्प्लिकेटेड है। कि हम हर छोटी सी बात के आगे पीछे हज़ार दुनियाएँ बनाते हुए चलते हैं। इन हज़ारों ख़्वाहिशों वाली हज़ारों दुनिया में कोई एक दुनिया होती है जिसमें हम किसी एक शहर में रहते हैं। अक्सर मिला करते हैं चाय कॉफ़ी पे और साथ में लिखते हैं कहानियाँ। कि हम कई बार एक दूसरे से की जाने वाली बातें किरदारों के थ्रू करते हैं। कि धीरे धीरे हम दोनों किसी कहानी के किरदार हो जाते हैं।

10 December, 2018

Paper planes and a city of salt


जिस दिन मुझे ख़ुद से ज़्यादा अजीब कोई इंसान मिल जाए, उसको पकड़ के दन्न से किसी कहानी में धर देते हैं।

इधर बहुत दिन हो गए तरतीब से ठीक समय लिखा नहीं। नोट्बुक पर भी किसी सफ़र के दर्मयान ही लिखा। दुःख दर्द सारे घूम घूम कर वहीं स्थिर हो गए हैं कि कोई सिरा नहीं मिलता, कोई आज़ादी नहीं मिलती।
चुनांचे, ज़िंदगी ठहर गयी है। और साहब, अगर आप ज़रा भी जानते हैं मुझे तो ये तो जानते ही होंगे कि ठहर जाने में मुझ कमबख़्त की जान जाती है। तो आज शाम कुछ भी लिखने को जी नहीं कर रहा था तो हमने सिर्फ़ आदत की ख़ातिर रेख़्ता खोला और मजाज़ के शेर पढ़ कर अपनी डायरी में कापी करने लगी। हैंडराइटिंग अब लगभग ऐसी सध गयी है कि बहुत दिनों बाद भी टेढ़ी मेढ़ी बस दो तीन लाइन तक ही होती है, फिर ठीक ठीक लिखाने लगती है।
इस बीच मजाज के लतीफ़े पढ़ने को जी कर गया। और फिर आख़िर में मंटो के छोटे छोटे क़िस्से पढ़ने लगी। फिर एक आध अफ़साने। और फिर आख़िर में मंटो का इस्मत पर लिखा लेख।
उसके पहले भर शाम बैठ कर goethe के बारे में पढ़ा और कुछ मोट्सार्ट को सुना। कैसी गहरी, दुखती चीज़ें हैं इस दुनिया में। कमबख़्त। पढ़ वैसे तो रोलाँ बार्थ को रही थी, कई दिनों बाद, फिर से। "प्रेमी की जानलेवा पहचान/परिभाषा यही है कि "मैं इंतज़ार में हूँ"'। इसे पढ़ते हुए इतने सालों में पहली बार इस बात पर ध्यान गया कि मुझे प्रेम कितने अब्सेसिव तरीक़े से होता है। शायद इस तरह डूब कर, पागलों की तरह प्रेम करना मेरे मेंटल हेल्थ के लिए सही नहीं रहा हो। यूँ कहने को तो मजाज भी कह गए हैं कि 'सब इसी इश्क़ के करिश्मे हैं, वरना क्या ऐ मजाज हैं हम लोग'। फिर ये भी तो कि 'उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ाँ मेरे दिल से, देखूँगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और जियादा'। 

कि मैंने उम्र का जितना वक़्त किसी और के बारे में एकदम ही अब्सेसिव होकर सोचने में बिताया है, उतने में अपने जीवन के बारे में सोचा होता तो शायद मैं अपने वक़्त का कुछ बेहतर इस्तेमाल कर पाती। सोचने की डिटेल्ज़ मुझे अब भी चकित करती है। मैंने किसी और को इस तरह नहीं देखा। यूँ इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि मैं चीज़ों को लेकर इन्फ़िनिट अचरज से भरी होती हूँ। बात महबूब की हो तो और भी ज़्यादा। गूगल मैप पर मैंने कई बार उन लोगों के शहर का नक़्शा देखा है, जिनसे मैं प्यार करती हूँ। उनके घर से लेकर उनके दफ़्तर का रास्ता देखा है, रास्ते में पड़ने वाली दुकानें... कुछ यूँ कि जैसे मंटो से प्यार है तो कुछ ऐसे कि उसके हाथ का लिखा धोबी का हिसाब भी मिल जाए तो मत्थे लगा लें। ज़िंदा लोगों के प्रति ऐसे पागल होती हूँ तो अच्छा नहीं होता, शायद। हमारी दुनिया में ऐसे शब्द भी तो हैं, ख़तरनाक और ज़हरीले। जैसे कि स्टॉकिंग।

मैं एक बेहतरीन stalker बन सकती थी। पुराने ज़माने में भी। इसका पहला अनुभव तब रहा है जब मुझे पहली बार किसी से बात करने की भीषण इच्छा हुयी थी और मेरे पास उसका फ़ोन नम्बर नहीं था। मैंने अपने शहर फ़ोन करके अपनी दोस्त से टेलिफ़ोन डिरेक्टरी निकलवायी और लड़के के पिताजी का नाम खोजने को कहा। उन दिनों लैंडलाइन फ़ोन बहुत कम लोगों के पास हुआ करते थे और हम नम्बरों के प्रति घोर ब्लाइंड उन दिनों नहीं थे। तो नाम और नम्बर सुनकर ठीक अंदाज़ा लगा लिया कि हमारे मुहल्ले का नम्बर कौन सा होगा। ये उन दिनों की बात है जब किसी के यहाँ फ़ोन करो तो पहला सवाल अक्सर ये होता था, 'मेरा नम्बर कहाँ से मिला?'। तो लड़के ने भी फ़ोन उठा कर भारी अचरज में यही सवाल पूछा, कि मेरा नम्बर कहाँ से मिला तुमको। फिर हमने जो रामकहानी सुनायी कि क्या कहें। इस तरह के कुछेक और कांड हमारी लिस्ट में दर्ज हैं।

ये साल जाते जाते उम्मीद और नाउम्मीद पर ऐसे झुलाता है कि लगता है पागल ही हो जाएँगे। न्यू यॉर्क का टिकट कटा के कैंसिल करना। pondicherry की ट्रिप सारी बुक करने के बाद ग़ाज़ा तूफ़ान के कारण हवाई जहाज़ लैंड नहीं कर पाया और वापस बैंगलोर आ गए। पेरिस की ट्रिप लास्ट मोमेंट में कुछ ऐसे बुक हुयी कि एक दिन में वीसा भी आ गया। कि पाँच बजे शाम को पास्पोर्ट कलेक्ट कर के घर आए और फिर सामान पैक करके उसी रात की फ़्लाइट के लिए निकल भी गए। 

कि साल को कहा, कि पेरिस ट्रिप अगर हुयी तो तुमसे कोई शिकायत नहीं करूँगी। जिस साल में इंसान पेरिस घूमने जाए, उस साल को बुरा कहना नाइंसाफ़ी है... और हम चाहे और जो कुछ भी हों, ईमानदार बहुत हैं। फिर बचपन में इसलिए तो प्रेमचंद की कहानी पढ़ाई गयी थी, 'पंच परमेश्वर', फिर किसी कहानी में उसका ज़िक्र भी आया। कुछ ऐसे ही वाक़ई बात मन में गूँजती रहती है, लौट लौट कर। 'बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?'। तो इस साल की शिकायतें वापस। साल को ख़ुद का नाम क्लीयर करने का मौक़ा मिला और २०१८ ने लपक के लोक लिया।

मगर ये मन कैसा है कि आसमान माँगता है? ख़ुशियों के शहर माँगता है। इत्तिफ़ाकों वाले एयरपोर्ट खड़े करता है और उम्मीदों वाले पेपर प्लेन बनाता है। ऐसे ही किसी काग़ज़ के हवाई जहाज़ पर उड़ रहा है मन और लैंड कर रहा है तुम्हारे शहर में। कहते हैं सिक्का उछालने से सिर्फ़ ये पता चलता है कि हम सच में, सच में क्या चाहते हैं। इसलिए पहले बेस्ट औफ़ थ्री, फिर बेस्ट औफ़ फ़ाइव, फिर बेस्ट औफ़ सेवन... और फिर भी अपनी मर्ज़ी का रिज़ल्ट नहीं आया तो पूरी प्रक्रिया को ही ख़ारिज कर देते हैं। 

इक शहर है समंदर किनारे का। अजीब क़िस्सों वाला। इंतज़ार जैसा नमकीन। विदा जैसा कलेजे में दुखता हुआ। ऊनींदे दिखते हो उस शहर में तुम। वहाँ मिलोगे?

25 October, 2018

सितम



फ़िल्म ब्लैक ऐंड वाइट है लेकिन मैं जानती हूँ कि उसने सफ़ेद ही साड़ी पहनी होगी। एकदम फीकी, बेरंग। अलविदा के जैसी। जिसमें किसी को आख़िरी बार देखो तो कोई भी रंग याद ना रह पाए। भूलना आसान हो सफ़ेद को। दरवाज़े पर खड़े हैं और उनके हाथ में दो तिहायी पी जा चुकी सिगरेट है। मैं सोचती हूँ, कब जलायी होगी सिगरेट। क्या वे देर तक दरवाज़े पर खड़े सिगरेट पी रहे होंगे, सोचते हुए कि भीतर जाएँ या ना जाएँ। घर को देखते हुए उनके चेहरे पर कौतुहल है, प्रेम है, प्यास है। वे सब कुछ सहेज लेना चाहते हैं एक अंतिम विदा में। 

मिस्टर सिन्हा थोड़ा अटक कर पूछते हैं। 'तुम। तुम जा रही हो?'। वे जानते हैं कि वो जा रही है, फिर भी पूछते हैं। वे इसका जवाब ना में सुनना चाहते हैं, जानते हुए भी कि ऐसा नहीं होगा। ख़ुद को यक़ीन दिलाने की ख़ातिर। भूलने का पहला स्टेप है, ऐक्सेप्टन्स... मान लेना कि कोई जा चुका है। 

मेरा दिल टूटता है। मुझे हमेशा ऐसी स्त्रियाँ क्यूँ पसंद आती हैं जिन्होंने अपने अधिकार से ज़्यादा कभी नहीं माँगा। जिन्होंने हमेशा सिर्फ़ अपने हिस्से का प्रेम किया। एक अजीब सा इकतरफ़ा प्रेम जिसमें इज़्ज़त है, समझदारी है, दुनियादारी है और कोई भी उलाहना नहीं है। उसके कमरे में एक तस्वीर है, इकलौता साक्ष्य उस चुप्पे प्रेम का... अनकहे... अनाधिकार... वो तस्वीर छुपाना चाहती है। 

बार बार वो सीन क्यूँ याद आता है हमको जब गुरुदत्त वहीदा से शिकायती लहजे में कहते हैं, 'दो लोग एक दूसरे को इतनी अच्छी तरह से क्यूँ समझने लगते हैं? क्यूँ?'। 

इंस्ट्रुमेंटल बजता है। 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम'। यही थीम संगीत है फ़िल्म में हीरोईन का। मुझे याद आता है मैंने तुमसे एक दिन पूछा था, 'कौन सा गाना सुन रहे हो?', तुमने इसी गाने का नाम लिया था... और हम पागल की तरह पूछ बैठे थे, कौन सा दुःख है, किसने दिया हसीं सितम तुम्हें। तुम उस दिन विदा कह रहे थे, कई साल पहले। लेकिन मैं कहाँ समझ पायी। 

जिस लम्हे सुख था, उस दिन भी मालूम था कि ज़िंदगी का हिसाब बहुत गड़बड़ है। लम्हे भर के सुख के बदले सालों का दुःख लिखती है। कि ऐसे ही दुःख को सितम कहते हैं। फिर हम भी तो हिसाब के इतने ही कच्चे हैं कि अब भी ज़िंदगी पूछेगी तो कह देंगे कि ठीक है, लिखो लम्हे भर का ही सही, सुख। 

तकलीफ़ है कि घटने की जगह हर बार बढ़ती ही जाती है। पिछली बार का सीखा कुछ काम नहीं आता। बस, कुछ चीज़ें हैं जो जिलाए रखती हैं। संगीत। चुप्पी। सफ़र। 

इन दिनों जल्दी सो जाती हूँ, लेकिन मालूम आज क्यूँ जागी हूँ अब तक? मुझे सोने से डर लग रहा है। कल सुबह उठूँगी और पाऊँगी कि दिल तुम्हें थोड़ा और भूल गया है। फ़ोन पड़ा रहेगा साइलेंट पर कहीं और मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। कि मैं अपने लिखे में भी तुम्हारा अक्स मिटा सकूँगी। कि मैं तुम्हें सोशल मीडिया पर स्टॉक नहीं करूँगी। तुम्हारे हर स्टेटस, फ़ोटो, लाइक से तुम्हारी ज़िंदगी की थाह पाने की कोशिश नहीं करूँगी। कि तुमसे जुड़ा मोह का बंधन थोड़ा और कमज़ोर पड़ेगा। दिन ब दिन। रात ब रात। 
अनुभव कहता है तुम्हें मेरी याद आ रही होती होगी। दिल कहता है, 'चल खुसरो घर अपने, रैन भए चहुं देस'। अपने एकांत में लौट चल। जीवन का अंतिम सत्य वही है।
आँख भर आती है। उँगलियाँ थरथराती हैं। कैसे लिखूँ तुम्हें। किस हक़ से। 
प्यार।

03 October, 2018

ऑल्टर्नेट दुनिया का अलविदा

नामा-बर तू ही बता तू ने तो देखे होंगे
कैसे होते हैं वो ख़त जिन के जवाब आते हैं
~ क़मर बदायुनी

हमने कितनी फ़ालतू चीज़ें सीखीं अपने स्कूल में। किताबों की वो कौन सी बात है जो काम आती है बाद की ज़िंदगी में। वे पीले हरे रिपोर्ट कार्ड जो सीने से लगाए घर आते और उसमें लिखे रैंक - 2nd, 5th, 7th दिखा कर ख़ुश होते। हर बार वही बात सुनते, कि ध्यान से पढ़ो। ये सोशल स्टडीज़ में सिर्फ़ ७० काहे आए हैं। हाइयस्ट कितना गया, वग़ैरह।

हमें चिट्ठियाँ लिखनी सिखायी गयीं, प्रिन्सिपल को छुट्टी के लिए आवेदन देने को, सांसद को शहर की किसी मुसीबत के बारे में बताने को, पिता को पैसे माँगते हुए चिट्ठी। हमें किसी ने सिखाया होता कि प्रेम पत्र कैसे लिखते हैं, माफ़ी कैसे माँगते हैं, अलविदा कैसे कहते हैं। चिट्ठी लिखते हुए हिंदी उर्दू के कितने सारे सम्बोधन हो सकते हैं… ‘प्रिय’ के सिवा… कि मैं किसी चिट्ठी की शुरुआत में, ‘मेरे ___’ और आख़िर में सिर्फ़ ‘तुम्हारी___’ लिखना चाहती हूँ तो ये शिष्टाचार के कितने नियम तोड़ेगा। आख़िर में क्या लिखते हैं? सादर चरणस्पर्श या आपका आज्ञाकारी छात्र के सिवा और कुछ होता है जो हम किसी को लिख सकें… प्रेम के सिवा जो पत्र होते हैं, वे कैसे लिखते हैं।

हमने उदाहरण में अमृता प्रीतम के पत्र क्यूँ नहीं पढ़े? निर्मल वर्मा, रिल्के, प्रेमचंद, दुष्यंत कुमार या कि बच्चन के पत्र ही पढ़े होते तो मालूम होता कि चिट्ठियों के कितने रंग होते हैं। तब हम शायद तुम्हें चिट्ठी लिखने की ख़्वाहिश के अपराधबोध में डूब डूब कर मर नहीं रहे होते। मंटो ने जो ख़त खोले नहीं, पढ़े नहीं, उनमें क्या लिखा था?

मैंने पिछले कुछ सालों में जाने कितने ख़त लिखे। मैंने जवाब नहीं माँगे। ख़त दुआओं की तरह होते रहे। हमने दुआ माँगी, क़ुबूल करने का हिस्सा खुदा का था। हमने कभी दूसरी शर्त नहीं रखी कि जवाब आएँ तो ही ख़त लिखेंगे। लेकिन जाने क्यूँ लगा, कि तुम मेरे ख़तों का जवाब लिख सकोगे। लेकिन शायद तुमने भी स्कूल में नहीं पढ़ा कि वे लोग जो सिर्फ़ दोस्त होते हैं, दोस्त ही रहना चाहते हैं, उन्हें कैसी चिट्ठी लिखते हैं। तुम नहीं जान पाए कि मुझे क्या लिखा जा सकता है चिट्ठी में। ‘हाले दिल यार को लिखूँ क्यूँकर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।

तुम्हें पता है, अगर आँख भर आ रही हो तो पूरा चेहरा आसमान की ओर उठा लो और गहरी गहरी सांसें लो तो आँसू आँखों में वापस जज़्ब हो जाते हैं। बदन में घुल जाते हैं। टीसते हैं आत्मा में लेकिन गीली मिट्टी पर गिर कर आँसुओं का पौधा नहीं उगाते। आँसुओं के पौधे पर उदासियों का फूल खिलता है। उस फूल से अलविदा की गंध आती है। उस फूल को किताब में रख दो और भूल जाओ तो अगली बार किताब खोलने के पहले धोखा होता है कि पन्नों के बीच कोई चिट्ठी रखी हुयी है। लेकिन हर चीज़ की तरह इसका भी एक थ्रेशोल्ड होता है। उससे ज़्यादा आँसू हुए तो कोई ट्रिक भी उन्हें मिट्टी में गिरने से रोक नहीं सकती, सिवाए उस लड़के के जिसकी याद में आँखें बौरा रही हैं...वो रहे तो हथेलियों पर ही थाम लेता आँसू को और फिर आँसू से उसके हथेली में सड़क वाली रेखा बन जाती...उस सड़क की जो दोनों के शहरों को जोड़ती हो।

क्या तुम सच में एकदम ही भूल गए हो हमको? मौसम जैसा भी याद नहीं करते? साल में एक बार? क्या आसान रहा हमको भूलना? तुम्हें वे दिन याद है जब हम बहुत बात किया करते थे और मैं तुमसे कहती थी, जाना होगा तो कह के जाना। मैं कोई वजह भी नहीं पूछूँगी। मैं रोकूँगी तो हरगिज़ नहीं। लेकिन तुम भी सबकी ही तरह गुम हो गए। क्या ये मेरी ग़लती थी कि मैंने सोचा कि तुम बाक़ियों से कुछ अलग होगे। हम कैसे क्रूर समय में जी रहे हैं यहाँ DM पर ब्रेक ऑफ़ कर लेते हैं लोग। घोस्टिंग जैसा शब्द लोगों की डिक्शनरी ही नहीं, ज़िंदगी का हिस्सा भी बन गया है। ऐसे में अलविदा की उम्मीद भी एक यूटोपीयन उम्मीद थी? क्या किसी पर्फ़ेक्ट दुनिया में एक शाम तुम्हारा फ़ोन आता और तुम कहते, देखो, मेरा ट्रैफ़िक सिग्नल तुमसे पहले हरा हो गया है, मैं पहले जाऊँगा… मुड़ के देखूँगा भी, पर लौटूँगा नहीं… तुम मेरा इंतज़ार मत करना। सिग्नल ग्रीन होने पर तुम भी चले जाना शहर से, फिर कभी न लौटने के लिए।

या कि टेलीग्राम आता। एक शब्द का। विदा…
मैं समझ नहीं पाती कि विदा के आख़िर में तीन बिंदियाँ क्यूँ हैं। लेकिन उस काग़ज़ के टुकड़े से रूह में उस दिन को बुक्मार्क कर देती और तुम्हें भूल जाती। अच्छा होता ना?

देखो ना। मेरी बनायी ऑल्टर्नट दुनिया में भी तुम रह नहीं गए हो मेरे पास। तुम जा रहे हो, बस 'विदा' कह कर। बताओ, जिस लड़की की ख़्वाहिशें इतनी कम हैं, उन्हें पूरा नहीं होना चाहिए?

01 October, 2018

वयमेव याता:

जिन चीज़ों को गुम हो जाना चाहिए…

१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।

वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।

२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।

फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।

मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।

३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।

४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।

५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।

कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।

६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।

मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir! 

10 July, 2018

सोना बदन और राख दिल वाली औरतों का होना

कोई नहीं जानता वे कहाँ से आती थीं
सोना बदन और राख दिल वाली औरतें
कविताओं से निष्कासित प्रेमिकाएँ?
डेथ सर्टिफ़िकेट से विलुप्त नाम?
भ्रूण हत्या में निकला माँस का लोथड़ा?
बलात्कार के क्लोज़्ड केस वाली स्त्रियाँ?

उन्हें जहाँ जहाँ से बेदख़ल किया गया
हर उस जगह पर खुरच कर लिखतीं अपना नाम
अपने प्रेमियों की मृत्यु की तिथि
और हत्या करने की वजह
वे अपने मुर्दा घरों की चौखट लाँघ कर आतीं
अंतिम संस्कार के पहले माँगती अंतिम चुम्बन

किसी अपशकुन की तरह चलता उनका क़ाफ़िला
वे अपनी मीठी आवाज़ और साफ़ उच्चारण में पढ़तीं
श्राद्धकर्म के मंत्र। उनके पास होती माफ़ी
दुनिया के सारे बेवफ़ा प्रेमियों के लिए।

वे किसी ईश्वर को नहीं मानतीं।
सजदा करतीं दुनिया के हर कवि का
लय में पुकारतीं मेघ, तूफ़ान और प्रेम को
और नामुमकिन होता उनका आग्रह ठुकराना।

कहते हैं, बहुत साल पहले, दुःख में डूबा
कवि, चिट्ठियों के दावानल से निकला
तो उसकी आँखों में आग बची रह गयी
उस आग से पिघल सकती थी
दुनिया की सारी बेड़ियाँ।

उन्हीं दिनों
वे लिए आती थीं अपना बदन
कवि की आँखों में पिघल कर
सोना बन जाती थीं औरतें
उनके बदन से पैरहन हटाने वाली आँखें
उम्र भर सिर्फ़ अँधेरा पहन पाती थीं।

औरतें
लिए आतीं थीं अपना पत्थर दिल
कवि की धधकती आँखें, उन्हें
लावा और राख में बदल देतीं
उनसे प्रेम करने वाले लोग
बन जाते थे ज्वालामुखी

बढ़ती जा रही है तादाद इन औरतों की
ये ख़तरा हैं भोली भाली औरतों के लिए
कि डरती तो उनसे सरकार भी है
नहीं दे सकती उन्हें बीच बाज़ार फाँसी।

सरकारी ऑर्डर आया है
सारे कवियों को, धोखे से
मुफ़्त की बँट रही मिलावटी शराब में
शुद्ध ज़हर मिला कर
मार दिया जाए।

इस दुनिया में, जीते जी
किसी को कवि की याद नहीं आती।

ना ही उसके बिन बन सकेंगी
सोना बदन और राख दिल वाली औरतें
कि जो दुनिया बदल देतीं।

ये दुनिया जैसी चल रही,
चलती रहनी चाहिए।
तुम भी बच्चियों को सिखाना
कविता पढ़ें, बस
न कि अपना दिल या बदन लेकर
कवि से मिलने चली जाएँ।

औरतों को बताएँ नियम
कवि से प्रेम अपराध है
बनी रहें फूल बदन, काँच दिल
बनी रहें खिलता हुआ हरसिंगार
बनी रहें औरतें। औरतें ही, बस।

26 April, 2018

तुमसे बात करना
बारिश में भीगना था
पोर पोर से उड़ती थी
ललमटिया देहगंध
छम छम हँसता था
आम का बौर 

तुमसे बात करके
धुल जाती थी कविताएँ
दिखते थे नए, चमकीले बिम्ब
तुम हँसते थे, और
पिकासो का नीला अवसाद
धुल जाता था आत्मा से

तुमसे बात किए बिना
मैं उजड़ता हुआ किला हूँ
टूटती मुँडेरों वाला
जिस पर दुश्मन या दोस्त
कोई भी आक्रमण कर सकता है

बरसों बीते तुमसे बात किए हुए
मैं इन दिनों,
तलवार की सान तेज़ करती हूँ
दुर्गा कवच पढ़ती हूँ
जिरहबख़्तर पहन के सोती हूँ
डरती हूँ

अपने टूटे हुए दिल से खेलती
सोचती हूँ अक्सर
जाने तुम मेरे हृदय का कवच थे
या तुमने ही मेरा कवच तोड़ा है।

14 March, 2018

सपने में एक नदी बहती थी

मेरे सपनों में कुछ जगहें हमेशा वही रहती हैं। बहुत सालों तक मुझे एक खंडहर की टूटी हुयी दीवाल का एक हिस्सा सपने में आता रहा। उन दिनों मैं बिलकुल पहचान नहीं पाती थी कि ये कहाँ से उठ के आया है। आज पहली बार उस बारे में सोचते हुए याद आया है कि पटना में नानीघर जाने के रास्ते रेलवे ट्रैक पड़ता था। रेलवे ट्रैक के किनारे किनारे दीवाल बनी हुयी थी। वो ठीक वैसे ही टूटी थी जैसे कि मैं सपने में देखती आयी रही थी, कई साल। हाँ सपने में वो हिस्सा किसी क़िले की सबसे बाहरी चहारदिवारी का हिस्सा होता था।

इन दिनों जो सपने में कई दिनों से देख रही हूँ, लौट लौट कर जाते हुए। वो एक मेट्रो स्टेशन है। मैं हमेशा वही एक मेट्रो स्टेशन देखती हूँ। काफ़ी ऊँचा। कोई तीन मंज़िल टाइप ऊँचा है। और मैं हमेशा की तरह सीढ़ियों से चढ़ती या उतरती हूँ। इसे देख कर कुछ कुछ कश्मीरी गेट के मेट्रो की याद आती है। वहाँ की ऊँची सीढ़ियों की। मैं कब गयी थी किसी से मिलने, कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन पर उतर कर? याद में सब भी कुछ साफ़ कहाँ दिखता है हमेशा। या कि अगर दिखता ही हो, तो हमेशा जस का तस लिख देना भी तो बेइमानी हुआ। वो कितने कम लोग होते हैं, जिनका नाम हम ले सकते हैं। किसी पब्लिक फ़ोरम पर। ईमानदारी से। फिर ऐसे नाम लेने के बाद लोग एक छोटे से इन्सिडेंट से कितना ही समझ पाएगा कोई। हर नाम, हर रिश्ता अपनेआप में एक लम्बी कहानी होता है। छोटे क़िस्से वाले लोग कहाँ हैं मेरी ज़िंदगी में।

इस मेट्रो स्टेशन के पास नानी की बहन का घर होता है। स्टेशन से कुछ डेढ़ दो किलोमीटर दूर। हमेशा। मैं जब भी इस मेट्रो स्टेशन पर होती हूँ, मेरे प्लैंज़ में एक बार वहाँ जाना ज़रूर होता है।

आज रात सपने में में इस मेट्रो स्टेशन से उतर कर तुम्हारे बचपन के घर चली गयी। शहर जाने कौन सा था और मुझे तुम्हारा घर जाने कैसे पता था। और मैं ऐसे गयी जैसे हम बचपन के दोस्त हों और तुम्हारे घर वाले भी जानते हों मुझे अच्छे से। तुम घर के बरांडे में बैठ कर कॉमिक्स पढ़ रहे थे। हम भी कोई कॉमिक्स ले कर तुमसे पीठ टिकाए बैठ गए और पढ़ने लगे। आधा कॉमिक्स पहुँचते हम दोनों का मन नहीं लग रहा था तो सोचे कि घूमने चलते हैं।

हम घूमने के लिए जहाँ आते हैं वहाँ एक नदी है और मौसम ठंढा है। नदी में स्टीमर चल रहे हैं। जैसे स्विट्ज़रलैंड में चलते थे, उतने फ़ैन्सी। हम हैं भी विदेश में कहीं। मैं स्टीमर जहाँ किनारे लगता है वहाँ एक प्लाट्फ़ोर्म बना है। तुम कहते हो तैरते हैं पानी में। मैं कहती हूँ, पानी ठंढा है और मेरे पास एक्स्ट्रा कपड़े नहीं हैं। तभी प्लैट्फ़ॉर्म शिफ़्ट होता है और मैं सीधे पानी में गिरती हूँ। पानी ज़्यादा गहरा नहीं है। तुम भी मेरे पीछे जाने बिना कुछ सोचे समझे कूद पड़ते हो। फिर तुम तैरते हुए नदी के दूसरे किनारे की ओर बढ़ने लगते हो। मुझे तैरना ठीक से नहीं आता है पर मैं ठीक तुम्हारे पीछे वैसे ही तैरती चली जाती हूँ और हम दूसरे किनारे पहुँच जाते हैं। ये पहली बार है कि मैंने तैरते हुए इतनी लम्बी दूरी तय की है। हम पानी से निकलते हैं और सीढ़ियों पर खड़े होते हैं। इतना अच्छा लग रहा है जैसे लम्बी दौड़ के बाद लगता है। पानी साफ़ है। थोड़ा आगे सीढ़ियाँ बनी हुयी हैं और दूसरी ओर पहाड़ हैं। मैं कहती हूँ, आज मुझे तुम्हारे कपड़े पहनने पड़ेंगे। थोड़ी देर घूम भटक कर वापस जाने का सोचते हैं। उधर रेस्ट्रांट्स की क़तार लगी हुयी है नदी किनारे। हम उनके पीछे नदी की ओर पहुँचते हैं तो देखते हैं कि उनकी नालियों से नदी का पानी एकदम ही गंदा हो गया है। कोलतार और तेल जैसा काला। वहाँ से पानी में घुसने का सोच भी नहीं सकते। हम फिर तलाशते हुए नदी के ऊपर की ओर बढ़ते हैं जहाँ पानी एकदम ही साफ़ है। तुम होते हो तो मुझे पानी में डर एकदम नहीं लगता। हम हँसते हैं। रेस करते हैं। और नदी के दूसरे किनारे पहुँच जाते हैं। तुम्हारी सफ़ेद शर्ट है उसका एक बटन खुला हुआ है। मैं अपनी हथेली तुम्हारे सीने पर रखती हूँ। पानी का भीगापन महसूस होता है।

हम किसी डबल बेड पर पड़े हुए एक स्टीरियो से गाने सुन रहे हैं। एक किनारे मैं हूँ, लम्बे बाल खुले हुए हैं और बेड से नीचे झूल रहे हैं।एक तरफ़ तुम दीवार पर टाँग चढ़ाए सोए हुए हो। घर में गेस्ट आए हैं। तुम्हारी दीदी या कोई किचन से चिल्ला के पूछ रही है मेरे घर के नाम से मुझे बुलाते हुए...ये मेरा पटना का घर है...और स्टीरियो प्लेयर वही है जो मैंने कॉलेज के दिनों में ख़ूब सुना था। कूलर पर रख के, कमरे में अँधेरा कर के, खुले बाल कूलर की ओर किए, उन्हें सुखाते हुए। तुम मेरे इस याद में कैसे हो सकते हो। इतनी बेपरवाही से।

***
सपने में चेहरे बदलते रहे हैं, सो याद नहीं कितने लोगों को देखा। पर जगहें याद हैं और पानी की ठंढी छुअन। फिर मेरे पीछे तुम्हारा पानी में कूदना भी। सुकून का सपना था। जैसे आश्वासन हो, कि ज़िंदगी में ना सही, सपने में लोग हैं कितने ख़ूबसूरत।

तेज़ बुखार में तीन दिन से नहाए नहीं हैं, और सपना में नदी में तैर रहे हैं! 

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