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07 November, 2024

मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट, कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं


हमारे देश में अधिकतर लोगों का वक़्त उनका ख़ुद का नहीं होता। गरीब हो कि अमीर, एक आधापापी अब तामीर में शामिल हो गई है। हम जहाँ हैं, वहाँ की जगह कहीं और होना चाहते हैं। समय की इस घनघोर क़िल्लत वाले समय में कुछ लोगों ने अपने लिए थोड़ा सा वक़्त निकाल रखा है। यह अपने लिए वाला वक़्त किसी उस चीज़ के नाम होता है जिससे दिल को थोड़ा करार आये…वो ज़रा सा ज़्यादा तेज़ भले धड़के, लेकिन आख़िर को सुकून रहे। यह किसी क़िस्म का जिम-रूटीन हो सकता है, कोई खेल हो सकता है, या कला हो सकती है।

इस कैटेगरी की सब-कैटेगरी में वो लोग जिन्होंने इस ख़ास समय में अपने लिए कला के किसी फॉर्म को रखा है। नृत्य, गायन, लेखन, पेंटिंग…इनके जीवन में कला का स्थान अलग-अलग है। कभी यह हमारी ज़रूरत होती है, कभी जीने की सुंदर वजह, कभी मन के लिये कोई चाराग़र। मेरे लिये अच्छी कला का एक पैमाना यह भी है कि जिसे देख कर, सुन कर, या पढ़ कर हमारे भीतर कुछ अच्छा क्रिएट करने की प्यास जागे। उस कथन से हम ख़ुद को जोड़ सकें। हमारे समकालीन आर्टिस्ट्स क्या बना रहे हैं, उनकी प्रोसेस कैसी है…उनके डर क्या हैं, उनकी पसंद की जगहें कौन सी हैं, वे कैसा संगीत सुनते हैं…किसी हमउम्र लेखक या पेंटर से मिलना इसलिए भी अच्छा लगता है कि वे हमारे समय में जी रहे हैं…हमारे परिवेश में भी। हमारे कुछ साझे सरोकार होते हैं। अगर लेखन में आते कुछ ख़ास पैटर्न की बात करें तो विस्थापन, आइडेंटिटी क्राइसिस, उलझते रिश्ते…बदलता हुआ भूगोल, भाषा का अजनबीपन…बहुत कुछ बाँटने को होता है।

कहते हैं कि how your spend your days is how you spend your life. मतलब कि हमारे जीवन की इकाई एक दिन होता है…और रोज़मर्रा की घटनायें ही हमारे जीवन का अधिकतर हिस्सा होती हैं। मैं बैंगलोर में पिछले 16 साल से हूँ…और कोशिश करने के बावजूद यहाँ की भाषा - कन्नड़ा नहीं सीख पायी हूँ। हाँ, ये होता था कि इंदिरानगर के जिस घर में दस साल रही, वहाँ काम करने वाली बाई और मेरी कुक की बातें पूरी तरह समझ जाती थी। मुझे कुछ क्रियायें और कुछ संज्ञाएँ पता थी बस। जैसे ऊटा माने खाना, केलसा माने काम से जुड़ी कोई बात, बरतिरा माने आने-जाने संबंधित कुछ, कष्ट तो ख़ैर हिन्दी का ही शब्द था, निदान से…मतलब आराम से…थिर होकर करना। उनकी बातचीत अक्सर घर के माहौल को लेकर होती थी…उसके बाद अलग अलग घरों में कामवालियों की भाषा नहीं समझ पायी कभी भी। मैं शायद भाषा से ज़्यादा उन दोनों औरतों को समझती थी। उन्होंने एक बीस साल की लड़की को घर बसाने में पूरी मदद की…उसकी ख़ुशी-ग़म में शामिल रही। उनको मेरा ख़्याल था…मुझे उनका। वे मेरा घर थीं, उतना ही जितना ही घर के बाक़ी और लोग। ख़ैर… घर के अलावा बाहर जब भी निकली तो आसपास क्या बात हो रही है, कभी समझ नहीं आया…सब्ज़ी वाले की दुकान पर, किसी कैफ़े में, किसी ट्रेन या बस पर भी नहीं…कुछ साल बाद स्टारबक्स आया और मेरे आसपास सब लोग अंग्रेज़ी में सिर्फ़ स्टार्ट-अप की बातें करने लगे। ये वो दिन भी थे जब आसपास की बातों को सुनना भूल गई थी मैं और मैंने अच्छे नॉइज़ कैंसलेशन हेडफ़ोन ले लिये थे। मैं लूप में कुछ इंस्ट्रुमेंटल ही सुनती थी अक्सर। 2015 में जब तीन रोज़ इश्क़ आयी तो मैं पहली बार दिल्ली गई, एक तरह से 2008 के बाद पहली बार। वहाँ मेट्रो में चलते हुए, कहीं चाय-सिगरेट पीते, खाना खाते हुए मैं अपने आसपास होती हुई बातों का हिस्सा थी। ये दिल्ली का मेरा बेहद पसंदीदा हिस्सा था। मुझे हमेशा से दिल्ली में पैदल चलना, शूट करना और कुछ से कुछ रिकॉर्ड करना भला लगता रहा है।

हिन्द-युग्म उत्सव में भोपाल गई थी। सुबह छह बजे की फ्लाइट थी, मैं एक दिन पहले पहुँच गई थी। सफ़र की रात मुझे यूँ भी कभी नींद नहीं आती। तो मेरा प्रोसेस ऐसा होता है कि रात के तीन बजे अपनी गाड़ी ड्राइव करके एयरपोर्ट गई। वहाँ पार्किंग में गाड़ी छोड़ी और प्लेन लिया। दिन भर भोपाल में दोस्तों से बात करते बीता। मैं वहाँ पर जहांनुमा पैलेस में रुकी थी, जो कि शानदार था। इवेंट की जगह पर शाम में गई, वहाँ इंतज़ाम देखा और उन लोगों के डीटेल लिए जिनसे अगले दिन इवेंट पर AI के बारे में बात करनी थी। भर रात की जगी हुई थी, तो थकान लग रही थी। रात लगभग 7-8 बजे जब रेस्टोरेंट गई डिनर करने के लिए तो हेडफ़ोन नहीं लिये। किंडल ले लिया, कि कुछ पढ़ लेंगे। कुछ सुनने का पेशेंस नहीं था। रेस्टोरेंट ओपन-एयर था। मैंने एक सूप और खाने का कुछ ऑर्डर कर दिया। मेरे आसपास तीन टेबल थे। दो मेरी टेबल के दायीं और बायीं और, और एक पीछे। इन तीनों जगह पर अलग अलग लोग थे और वे बातों में मशगूल थे। मुझे उनकी बातें सुनाई भी पड़ रही थीं और समझ भी आ रही थीं…यह एक भयंकर क्रॉसफेड था जिसकी आदत ख़त्म हो गई थी। मैं बैंगलोर में कहीं भी बैठ कर अकेले खाना खा सकती हूँ। सबसे ज़्यादा शोर-शराबे वाली जगह भी मेरे लिये सिर्फ़ व्हाइट नॉइज़ है जिसे मैं मेंटली ब्लॉक करके पढ़ना-लिखना-सोचना कुछ भी काम कर सकती थी। मैं चाह के भी किंडल पढ़ नहीं पायी…इसके बाद मुझे महसूस हुआ कि समझ में आने वाला कन्वर्सेशन अब मेरे लिये शोर में बदल गया है। एक शहर ने मुझे भीतर बाहर ख़ामोश कर दिया है।

बैंगलोर में मेरे पास एक bhk फ्लैट है - Utopia, जिसे मैं अपने स्टडी की तरह इस्तेमाल करती हूँ। लिखना-पढ़ना-सोचना अच्छा लगता है इस स्पेस में। लेकिन शायद जो सबसे अच्छा लगता है वो है इस स्पेस में अकेले होना। ख़ुद के लिए कभी कभी खाना बनाना। अपनी पसंद के कपड़े पहनना…देर तक गर्म पानी में नहाना…स्टडी टेबल से बाहर की ओर बनते-बिगड़ते बादलों को देखना। यह तन्हाई और खामोशी मेरे वजूद का एक हिस्सा बन गई है। बहुत शोर में से मैं अक्सर यहाँ तक लौटना चाहती हूँ।

मुराकामी की किताबें मेरे घर में होती हैं। किंडल पर। और Utopia में भी। ६०० पन्ने की The wind up bird chronicles इसलिए ख़त्म कर पायी कि यह किताब हर जगह मेरे आसपास मौजूद थी। कुछ दिन पहले एक दोस्त से बात कर रही थी, कि The wind up bird chronicles कितना वीभत्स है कहीं कहीं। कि उसमें एक जगह एक व्यक्ति की खाल उतारने का दृश्य है, वह इतना सजीव है कि ज़ुबान पर खून का स्वाद आता है…उबकाई आती है…चीखें सुनाई पड़ती हैं। कि मैं उस रात खाना नहीं खा पायी। वो थोड़े अचरज से कहता है, But you like dark stuff, don’t you? दोस्त हमें ख़ुद को डिफाइन करने के लिए भी चाहिए होते हैं। मैंने एक मिनट सोचा तो ध्यान आया कि मैं सच में काफ़ी कुछ स्याह पढ़ती हूँ। कला में भी मुझे अंधेरे पसंद हैं।

दुनिया में कई कलाकार हैं। इत्तिफ़ाक़न मैं जिनके प्रेम में पड़ती हूँ, उनके जीवन में असह्य दुख की इतनी घनी छाया रहती है कि कैनवस पर पेंट किया सूरज भी उनके जीवन में एक फीकी उजास ही भर पाता है। शिकागो गई थी, तब वैन गो की बहुत सारी पेंटिंग्स देखी थीं। वह एक धूप भरा कमरा था। उसमें सूरजमुखी थे। मैं वहाँ लगभग फफक के रो देना चाहती थी कि वैन गो…तुमने कैसे बनाए इतने चटख रंगों में पेंटिंग्स जब कि तुम्हारे भीतर मृत्यु हौले कदमों से वाल्ट्ज़ कर रही थी। अकेले। कि पागलपन से जूझते हुए इतने नाज़ुक Almond Blossoms कैसे पेंट किए तुमने…कि स्टारी नाइट एक पागल धुन पर नाचती हुई रात है ना? मैं ऐसी रातें जाने कहाँ कहाँ तलाशती रहती हूँ। कि जब न्यू यॉर्क में MOMA में स्टारी नाइट देखी थी तो रात को टाइम्स स्क्वायर पर बैठी रही, रात के बारह बजे अकेले…चमकती रोशनी में ख़ुद को देखती…स्याही की बोतल भरती बूँद बूँद स्याह अकेलापन से…

यह दुनिया मुझे ज़रा कम ही समझ आती है। अधिकतर व्यक्ति जब कोई अच्छा काम कर रहे होते हैं तो वे चाहते हैं कि उन्हें एक मंच मिले, उन पर स्पॉटलाइट हो…वे गर्व मिश्रित ख़ुशी से सबके सामने अपनी उपलब्धियों के लिए कोई अवार्ड लेने जायें। मंच पर उन लोगों के नाम गिनायें जिन्होंने इस रास्ते की मुश्किलें आसान कीं…जो उनके साथ उनके मुश्किल दौर में खड़े रहे। ऐसे में दुनिया का अच्छाई पर भरोसा बढ़ता है और उन्हें लगता है मेहनत करने वाले लोग देर-सवेर सफलता हासिल कर ही लेते हैं। इन दिनों जिसे hustle कहते हैं। कि ऑफिस के अलावा भी कुछ और साथ-साथ कर रहे हैं। कि उन्होंने ख़ुद को ज़िंदा रखने की क़वायद जारी रखी है।

मुझे अपने हिसाब का जीवन मिले तो उसमें रातें हों…कहीं चाँद-तारे की टिमटिम रौशनी और उसमें हम अपनी कहानी सुना सकें। अंधेरा और रौशनी ऐसा हो कि समझ न आए कि जो सच की कहानी है और जो झूठ की कहानी है। कि किताब के किरदारों के बारे में लोग खोज-खोज के पूछते हैं कि कहाँ मिला था और मेरे सच के जीवन के नीरस होने को झूठ समझें। कि सच लिखने में क्या मज़ा है…सोचो, किसी का जीवन कहानी जितना इंट्रेस्टिंग होता तो वो आत्मकथा लिखता, उपन्यास थोड़े ही न।

मैं विरोधाभासों की बनी हूँ। एक तरफ़ मुझे धूप बहुत पसंद है और दूसरी तरफ़ मैं रात में एकदम ऐक्टिव हो जाती हूँ - निशाचर एकदम। घर में खूब सी धूप चाहिए। कमरे से आसमान न दिखने पर मैं अवसाद की ओर बढ़ने लगती हूँ। और वहीं देर रात शहर घूमना। अंधेरे में टिमटिमाती किसी की आँखें देखना। देर रात गाड़ी चलाना। यहाँ वहाँ भटकते किरदारों से मिलना…यह सब मुझे ज़िंदा रखता है।

एक सुंदर कलाकृति हमें कुछ सुंदर रचने को उकसाती है। हमारे भीतर के स्याह को होने का स्पेस देती है। हमें इन्स्पायर करती है। किसी के शब्द हमारे लिए एक जादू रचते हैं। कोई छूटा हुआ प्रेम हमारे कहानी की संभावनायें रचता है। हम जो जरा-जरा दुखते से जी रहे होते हैं…किसी पेंटिंग के सामने खड़े हो कर कहते हैं, प्यारे वैन गो…टाइट हग्स। तुम जहाँ भी रंगों में घूम रहे हो। प्यारे मोने, क्या स्वर्ग में तुम ठीक-ठीक पकड़ पाये आँखों से दूर छिटकती रौशनी को कभी?

मेरी दुनिया अचरज की दुनिया है। मैं इंतज़ार के महीन धागे से बँधी उसके इर्द गिर्द दुनिया में घूमती हूँ। जाने किस जन्म का बंधन है…उसकी एक धुंधली सी तस्वीर थी। खुली हुई हथेली में जाने एक कप चाय की दरकार थी या माँगी हुई सिगरेट की…बदन पर खिलता सफ़ेद रंग था या कोरा काग़ज़…

जाने उसके दिल पर लिखा था किस-किस का नाम…जाने कितनी मुहब्बत उसके हिस्से आनी थी…
मेरे हिस्से सिर्फ़ एक सवाल आया था…उसके काँधे से कैसी ख़ुशबू आती थी? 

जलता हुआ दिल सिगरेट के धुएँ जैसा महकता है। भगवान ही जानता है कि कितनी पागल रातें आइस्ड वाटर पिया है। बर्फ़ीला पानी दिल को बुझाता नहीं। नशा होता है। नीट मुहब्बत का नशा। कि हम नालायक लोग हैं। बोतल से व्हिस्की पीने वाले। इश्क़ हुआ तो चाँद रात में संगमरमर के फ़र्श पर तड़पने वाले। आत्मा को कात लेते किसी धागे की तरह और रचते चारागार जुलाहों का गाँव कि जहाँ लोग टूटे हुए दिल की तुरपाई करने का हुनर जानते। कि हमारे लिये जो लोग ईश्वर ने बनाये हैं, वे रहते हैं कई कई किलोमीटर दूर…कि उनके शहर से हमारे शहर तक कुछ भी डायरेक्ट नहीं आता…न ट्रेन, न प्लेन, न सड़क…हर कुछ के रास्ते में दुनियादारी है…

हम थक के मुहब्बत के उसी ईश्वर से दरखास्त करते, कि दिल से घटा दे थोड़ी सी मुहब्बत…कि इतने इंतज़ार से मर सकते हैं हम। कि कच्ची कविताओं की उम्र चली गई। अब ठहरी हुई चुप्पियों में जी लें बची हुई उम्र।

लेकिन दिल ज़िद्दी है। आख़िर, किसी लेखक का दिल है, इस बेवक़ूफ़ को लगता है, हम सब कुछ लिख कर ख़त्म कर देंगे। लेकिन असल में, लिखने से ही सब कुछ शुरू होता है।


***
कलाई पर प्यास का इत्र रगड़ता है
बिलौरी आँखों वाला ब्रेसलेट
इसके मनके उसकी हथेलियों की तरह ठंढे हैं।

***
इक जादुई तकनीक से कॉपी हो गये
महबूब के हाथ
वे हुबहू रिप्लीकेट कर सकते थे उसका स्पर्श
उसकी हथेली की गर्माहट, कसावट और थरथराहट भी

प्रेमियों ने लेकिन फेंक दिया उन हाथों को ख़ुद से बहुत दूर
कि उस छुअन से आती थी बेवफ़ाई की गंध।

***

मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट
कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं


18 July, 2024

सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?


उसकी तस्वीर देखती हूँ। दिल में ‘धक’ से लगा है कुछ।

ब्लैक एंड वाइट तस्वीर है। मैं याद में उस तस्वीर के रंग तलाशती हूँ। उनकी आँखें कैसी लगती हैं धूप में? कैमरे के लेंस से उन्हें जी भर देखना चाहती हूँ। रुक के। फ्रेम सेट करने के लिए लेकिन ज़रूरी है कि धूप में हल्की सुनहली हुई उनकी आँखों के अलावा जो पूरा शख़्स है, वो फ्रेम में कितना फिट हो रहा है, ये भी देखूँ।

आँखों का कोई एक रंग नहीं होता। धूप में कुछ और होती हैं, चाँदनी में कुछ और। दिन में कुछ और, रात में कुछ और। प्रेयसी के सामने कुछ और, ज़माने के लिए कुछ और। ब्लैक ऐंड व्हाइट कैमरे में जो नहीं पकड़ आता, वो भी तो एक रंग होता है…सलेटी का कौन सा शेड है वो? डार्क ग्रे आइज़। मन फ़िल्म वाले कैमरे से उनकी तस्वीर खींचना चाहता है। निगेटिव में देखना चाहता है उन पुतलियों को…मीडियम के हिसाब से बदलते हैं रंग। उस नेगेटिव में स्याह सफ़ेद दिखता है और सफ़ेद स्याह। अच्छा लगता है कि मैंने फोटोग्राफी सीखने के दरम्यान डेवलपिंग स्टूडियो में बहुत सा वक़्त बिताया था। मैं याद में अपने प्रेजेंट की घालमेल करती हूँ। स्टूडियो में सिर्फ़ लाल रंग का बल्ब जलता है। लाल। मेरे दिल में धड़कता…मुहब्बत भरा…उस नाम में, उस रंग में रौशन। मैं निगेटिव लिए खड़ी हूँ, उसे डिवलप करते हुए मेरे पास ऑप्शन है कि मैं उन आँखों को थोड़ा गहरा या थोड़ा हल्का बना दूँ…मैं चुन सकती हूँ अपनी पसंद का ग्रे। मैं पॉज़िटिव को डेवलपर के घोल में डालती हूँ। सफ़ेद काग़ज़ पर कौन से शेड में आएगा वो धूप से बना शख़्स?

कब खींची थी मैंने ये तस्वीर? याद नहीं आ रहा। लेकिन उन आँखों में चमकता हुआ एक सितारा है, इसे मैं पहचानती हूँ। मुहब्बत के नक्षत्र में जब इसका उदय हुआ था, तब इसका नामकरण मैंने ही किया था। यह सितारा मेरे नाम का है। मेरा अपना। जब कभी राह भटकती हूँ और ख़्यालों की दुनिया में ज़्यादा चलते हुए पाँव थक जाते हैं तो यह सितारा मुझसे कहता है, पूजा, यहाँ आओ। मेरे पास बैठो। यह तुम्हारे ठहरने की जगह है। यहाँ रहते हुए तुम्हें कहीं और भाग जाने का मन नहीं करेगा।

विलंबित लय में गाते हैं तो ताल साथ में सुनते हैं…लयकारी में आलाप लेते हुए ध्यान रखते हैं कि कहाँ पर ‘सम’ है। क्योंकि वहीं सब ख़त्म करना होता है। फिर से नया सुर उठाने के पहले।

सम सैंड ड्यून। पहली बार सुना था, तब से कई बार सोचा है कि क्यों उसका नाम सम है। मगर सिर्फ़ सोचा है, पूछा नहीं है। आजकल आसान है न सब कुछ जान लेना। गूगल कर लो, किसी दोस्त से पूछ लो, चैट जीपीटी से पूछ लो। ऐसे में किसी सवाल का जवाब नहीं चाहना। सिर्फ़ सवाल से मुहब्बत करना।

मुहब्बत। हमारे लिए सवाल नहीं है। स्टेटमेंट है। एक साधारण सा वाक्य। इसके साथ बाक़ी दुख नहीं आते सवालों की शक्ल में। ‘हमें आपसे मुहब्बत है’। There is a finality to love that I find hard to explain. Like the desire to keep typing every time I open my iPad and start writing something.

आज बहुत बहुत दिन बाद इत्मीनान की सुबह मिली थी। ऐसी सुबहें रूह की राहत होती हैं।

कभी कभी ऐसे में किसी को वीडियो कॉल करने का मन करता है। पर्दे हवा में नाच रहे हों। कभी जगजीत सिंह, तो कभी नुसरत बाबा की आवाज़ हो…कोई ग़ज़ल, कोई पुराना गीत…मद्धम बजता रहे, राहत की तरह। बहुत तेज़ हवा बह रही है, पर्दे हवा में नाच रहे हैं। हल्की धूप है। मैं सब्ज़ियाँ काटते काटते कभी उधर देख लेती हूँ। मन हल्का है।

खाना बनाते हुए उनकी याद क्यों आती है अभी फ़िलहाल? हमने जिनके साथ जीवन के बहुत कम लम्हे बिताये हों, उनके सिर्फ़ कुछ चंद फ़ोन-कॉल्स में उनके हिस्से का आसमान-ज़मीन सुना हुआ, देखा हुआ कैसे लगता है। हमारी मुहब्बत क़िस्सा-कहानी है। कविता है। डायरी है।

मैं मशरूम पास्ता बनाती हूँ अपने लिए। सोचती हूँ, किसी के ख़्याल और मुहब्बत में गुम। मुहब्बत में कितनी सारी जगह होती है। हमको बहुत अच्छा खाना बनाना नहीं आता। शौक़िया ही बनाते हैं। लेकिन इस कम खाना-बनाने खिलाने में भी हमारे हाथ का आलू पराठा और चिनियाबदाम की चटनी वर्ल्ड फ़ेमस है। कभी कभी इस फ़िरोज़ी किचन में खड़े होकर सोचते हैं। और कुछ हो न हो, मेरे दोस्तों को एक बार यहाँ आना चाहिए। और हमको उनके लिए आलू पराठा और चटनी बनानी चाहिए। इसके बाद एक कप नींबू की चाय हो, आधी-पूरी, मूड के हिसाब से। या फिर कॉफ़ी। सिगरेट हो। बातें हों। चुप्पी हो।

और अगर हम दोनों के दिल में लगभग बराबर-बराबर मुहब्बत या दोस्ती या लगाव हो…तो बारिश होती रहे, आसमान में सलेटी बादल रहें और हम इस सुकून में रहें कि दुनिया सुंदर है। जीने लायक़ है।

कि जिस घर का नाम Utopia है, जिसका होना नामुमकिन है। वो है। सच में। मेरा अपना है।

17 April, 2024

मेरा दिल जलता हुआ सूरज है। बदन के समंदर में बुझता हुआ।

बदन में पिघले हुए शब्द बहते रहते हैं। धीपते रहते हैं उँगलियों के पोर। सिगरेट हाथ में लेती हूँ तो लाइटर की ज़रूरत नहीं होती।  दिल कमबख़्त, सोया हुआ ज्वालामुखी है, सिर्फ़ सपनों में फटता है। कहीं सूनामी आते हैं तो कहीं भूचाल। कभी रातों-रात पहाड़ उठ खड़े होते हैं कभी ऊँची इमारतें नेस्तनाबूद हो जाती हैं। सपनों का भूगोल बदलता रहता है। तुम बिसरते हो। कुछ भी रुकता कहाँ है। 


***


उसके इर्द-गिर्द गुनहगार तितलियाँ उड़ती रहती थीं। उनमें से एक भी अगर हथेली पर बैठ गई तो किसी का खून करने की इच्छा भीतर घुमड़ने लगती थी। 


पिछले कुछ सालों में जो बहुत सारा ग़ुस्सा बदन में जमा हो था और घड़ी घड़ी फट पड़ता था, क्या वो सिर्फ़ तेज़ी से बहता खून था? हाई-ब्लड प्रेशर इक छोटी सी गोली से कंट्रोल हो गयाउसके साथ ही दुनिया के प्रति हम थोड़े से कोमल हो गये। ग़ुस्सा थोड़ा सा कम हो गया। 


क्या मुहब्बत भी इसी तरह वाक़ई बदन का कोई केमिकल लोचा है? किसी दवाई से इसी तरह बदन में बेहिसाब दौड़ती मुहब्बत को थोड़ा रेस्ट मिल जाएगा? वो किसी बस-स्टॉप पर रुक जायेगी? तुम्हारा इंतज़ार करेगी



***


सब ओर गुनाहों की ख़ुशबू है। बदन में, आत्मा में। छुअन में। लिबास में। स्याही में। 

मेरी ओर लपटें लपकती हैं, आँखों को लहकाती हुई। दिख नहीं रहा ठीक से। वो क्या है जो ठीक से नहीं जल रहा कि यहाँ इतना धुआँ है। क्या आँख से उठता है आँसू का बादल


मेरा दिल जलता हुआ सूरज है। बदन के समंदर में बुझता हुआ। 


***


ख़ुशी की हर चीज़ से गुनाहों की गंध आती है। 

गिल्ट। हमारे जीवन का केंद्रीय और स्थायी भाव है इन दिनों। 


***


कौन मेरे जलते हुए दिल पर आँसू छिड़क रहा है


***


मुझे पता है कि तुम आग के बने हो और मेरी दुनिया काग़ज़ की है। फिर भी, तुम्हें छू कर अपनी उँगलियाँ जलाना चाहती हूँ। 

क्या हम छुअन के प्रति सबसे ज़्यादा निर्दयी इसलिए होते हैं क्योंकि यह सबसे ईमानदार इंद्रिय है? बातों से झूठ बोलना आसान है, आँखों से झूठ बोलना फिर भी थोड़ा मुश्किल, लेकिन किया जा सकता है, गंध तो अनुभव के हिसाब से अच्छी-बुरी होती है और बदलती रहती है, स्वाद भीलेकिन स्पर्शबिलकुल झूठ नहीं होता इसमें। हम ख़ुद को स्पर्श के प्रति फुसला नहीं सकते। 

हमारा बदन एक बाग होता है, किसी को छूने भर से हमारे भीतर के सारे पौधे मर जाते हैं। 


***


ख़ुशबू is the most subjective sense of all. हमें सिखाया जाता है कि ये खुश-बू है, ये बद-बू हैनॉन-वेजीटेरियन जिस ख़ुशबू से दीवाने हो जाएँगे कि लार टपकने लगी, वेजीटेरिएंस माँस या मछली की उस गंध को बर्दाश्त नहीं कर सकते। मितली आती है, मन घूमता है। 


किसी का लगाया हुआ इत्र आपको सिरदर्द दे सकता हैकिसी के दो दिन से नहीं नहाए बदन से आते फ़ीरोमोन्स आपकी सोचने-समझने और सही निर्णय लेने की क्षमता को कुंद कर सकते हैं। मुझे रात-रानी की गंध एकदम बर्दाश्त नहीं होती। लिली की तेज़ गंध भी कई लोगों को पसंद नहीं होती। रजनीगंधा और गुलाबों की ख़ुशबू से शादियों का सजा हुआ कमरा और कार की याद रहती है। 


लिखते हुए मुझे सिगरेट की गंध चाहिए होती है। एक समय शौक़ से चाहिये होती थी, अब ज़रूरत है। 


मैं तुमसे हमेशा पब्लिक में मिली। तुम्हें गले लगाते हुए एक मिनट आँख बंद करके वहाँ रुक नहीं सकते थे। मैं तुम्हारी ख़ुशबू से अनजान रही। ख़ुशबू को पहचानने के लिए आँख बंद करनी ज़रूरी है। वरना देखा हुआ उस ख़ुशबू की आइडेंटिटी को भीतर थिर होने नहीं देता। मैंने तुम्हारी जैकेट उतरवा के उसे सूँघा 


एक दिन इस दुनिया में हम दोनों नहीं होंगे। लेकिन मेरी कहानियाँ होंगी। तुम्हारी भी। इन आधे अधूरे क़िस्सों में तुम पूरे पूरे महसूस होगेअपनी ख़ुशबू, अपनी दमक मेंउस लम्हे में ठहरे हुए जब घास के लॉन पर तुम्हें पहली बार दूर से देखा था। धूप की ख़ुशबू लपेटे हुए। 


***


एक समय में अफ़सोस के पास एक छोटी सी मेज़ की दराज थी जिसमें मैंने चिट्ठियाँ रखी थीं, अधूरी। उन में तुम्हारा नाम नहीं था। उनके आख़िर में, हस्ताक्षर से पहले, ‘प्यारनहीं लिखा था। अब अफ़सोस की पूरी पूरी सल्तनत है। उसमें कई शहर हैं। समंदर हैं जो मुझे देखने थे तुम्हारे साथ। मौसम हैं जो तुमसे दूर के शहर में मेरे मन पर खुलते हैं। इतनी छोटी ज़िंदगी में जिया हुआ कितना कम है और मुहब्बत कितनी ज़्यादा। हिसाब कितना ग़लत है ना, सोचो तो!


***


शब्दों का कोई मोल नहीं होता। जान के सिवा। 

किसी समय जब ज़िंदगी इतनी मुश्किल लगी थी कि उससे आसान किसी ऊँची इमारत से कूदना या फंदे में झूल जाना था उस समय कविता की किसी पंक्ति को पढ़ के, किसी किताब को सीने से लगा कर लगा था कि हमारा दुख जीने वाले लोग थे दुनिया में और उन्होंने इस लम्हे से गुज़र कर आगे भी जिया हैहम भी कर सकते हैं ऐसा। 


लिखना सिर्फ़ ये दिलासा है कि हम अकेले नहीं हैं। हम लिखते हैं लेखकों/कवियों का हमें जिलाये रखने का जो क़र्ज़ है, उसको थोड़ा-बहुत उतारने के ख़ातिर। 

और अपनी कहानियाँ जो सुनाने का मन करता है, सो है ही। 

इतने दिन में यही लगता है कि ब्लॉग हमारा घर है। लौट के हमें यहीं आना था। 

सो, हम गए हैं। 

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