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15 May, 2013

जंकयार्ड डायरीज

तुम कोई उदास कविता नहीं हो कि तुम्हारे खो जाने पर आंसू बहाए जाएँ...तुम तो जिंदगी का रस हो, राग हो, नृत्य हो...तुम्हारे होने से धूप निकलती है...तुम पास होते हो तो जैसे सब कुछ थिरक उठता है...अब किसी दिन ऐसी ही कोई धुन गुनगुनाते आओगे कि पाँव रुक नहीं पायेंगे तो मैं क्या करूंगी बताओ...फिर कभी कभी सोचती हूँ बड़ी खूबसूरत चीज़...सोलह साल की लड़की होती है तो सोचती है...क्या वो मुझसे प्यार करता है...नहीं करता है...कुछ भी महसूस करता है मेरे लिए...मगर ३० की उम्र पहुँचने पर ऐसी छोटी चीज़ों में वक़्त जाया नहीं करते, इसलिए मैं तुम्हें कह सकती हूँ...डांस विद मी...मुझे जो चाहिए उसके बारे में अब दुआएं नहीं करती...तुमसे पूछ सकती हूँ और अगर तुम ना कह दो तो मैं उस लम्हे को वहीँ बिसार कर आगे बढ़ जाउंगी. मेरी फितरत नदी के विपरीत सी होती जा रही है. पहले तो समंदर के पास की नदी जैसा कुछ ठहराव था मगर अब पहाड़ी नदी जैसा बाँध तोड़ता बहाव है. मैं रुक नहीं सकती...ठहर नहीं सकती...मुझसे प्यार है तो मेरे साथ बह जाओ वरना नदी किनारे अनेक सभ्यताओं के बसने के निशान हैं...तुम भी किसी विस्मृत सभ्यता जैसे हो जाओगे जिसका बचा हुआ टुकड़ा टुकड़ा मिलेगा, पूरा कुछ कभी नहीं हो पायेगा...वो शब्द जो तुमने मुझसे कहे ही नहीं कोई ऐसी लिपि हो जायेगी जिसे सुलझाते पुरातत्त्वेत्ता उम्र गुज़ार देंगे.

जब हमें बहुत सी बात छुपानी होती है तो या तो हम बहुत चुप हो जाते हैं या बहुत बोलते हैं...इतनी सारी बातों में वो बात भी खो जाती है जो हम कहना चाहते तो हैं मगर सिर्फ एक उस बात को कहने में डरते हैं. आई लव यू ऐसी ही कोई शय है...दुनिया जहान की बातें करते हुए...फिल्मों पर बहस करते हुए...तुम्हारे पसंदीदा लेखक की कोई कविता पढ़ते हुए कहोगे मुझसे...मैं जानती हूँ...वैसे ये शब्द हैं भी काफी खतरनाक, इन्हें बाकी शब्दों के ककून में ही लपेट कर रखना चाहिए. बिना दस्ताने की उँगलियों से छू लो तो फ्रॉस्टबाईट हो सकता है. अगली बार मेरे गले लगो तो गौर से महसूस करना...मेरे गुडबाय में आई लव यू की खुशबू आती है. तुमने यूँ तो बहुत विदा के गीत सुने होंगे...आजकल किस गीत से गुज़र रहे हो? वो लैम्पशेड याद है जो हमने मिल कर बनाया था? हर रंग के रिबन में लपेट कर कांच की चूड़ियों संग...ड्रीम कैचर जैसा दिखता वो लैम्पशेड तुम्हारे ख्वाबों को रोशनी से भरता है क्या?

तुम्हारा प्यार किसी सोलर लैम्प जैसा है...जब तुम होते हो तो तुम्हारी मुस्कुराहटें सहेज कर रख देता है...बारिशों वाले दिन के लिए और जैसा कि बैंगलोर का मौसम है, इस लैम्प की अक्सर जरूरत पड़ती है. फिर इस मुस्कुराते उजाले में मैं शैडो डांस करती रहती हूँ...मेरी परछाई मुझसे कहीं ज्यादा डार्क और मिस्टीरियस है...कई बार तो मुझे अपनी परछाई खुद से ज्यादा अच्छी लगती है. 

सोच रही थी कि लोगों को कभी चीज़ों से नहीं जोड़ना चाहिए...लोग चले जाते हैं पर वो इनऐनीमेट चीज़ें कतरा कतरा जान लेती रहती हैं. मैं उन सारी चीज़ों से दूर नहीं भाग सकती जो तुम्हारे साथ रहते हुए मुझे अच्छी लगती थीं. वाईट लिली...वाईट चोकोलेट...वाईट फॉक्स मिंट...वाईट अल्ट्रा माइल्ड सिगरेटें...मेरी वाईट शर्ट...कमरे में आता सफ़ेद धूप का संगमरमर के सफ़ेद फर्श पर गिरता पहला टुकड़ा. तुम सफ़ेद रंग हो...तुमसे सारे रंग की रोशनियाँ निकलती हैं. 

खैर जाने दो...ऐवें ही कुछ कुछ लिखने का मन कर रहा था...बहुत सारा वर्कलोड होता है तो दिमाग में कुछ शब्द फँस जाते हैं...इन्हें लिखना जरूरी होता है वरना कुछ नया लिखने में दिक्कत होती है. जंकयार्ड डायरीज... ऐसा ही कुछ लिखने के लिए होती हैं. कल कोई तो कहानी लिखने का मन कर रहा था...फिर कभी...आज फिर ऑफिस को देर हो जायेगी...लिखेंगे बाकी वाकया ऐसे ही. आजकल लिखना प्यार की तरह हो गया है...भागते दौड़ते, दो मिनट निकाल कर लिखते हैं...बहरहाल...ओके...टाटा...लव यू...बाय. 

01 May, 2013

स्लो मोशन राईटिंग



आजकल मुझे कोई स्क्रीन अच्छी नहीं लगती. घर आते ही लैपटॉप टीवी से कनेक्टेड और गाने चालू. स्क्रीन ऑफ. मोबाईल चार्जिंग पर. किचन में या तो खाना बनाती हूँ या रोकिंग चेयर पर झूलते हुए अख़बार या मैगजीन पढ़ती हूँ. चैन और सुकून लगता है. आज सुबह लैपटॉप खोला लेकिन फिर जैसे इरीटेशन होने लगी. लिख रही थी, सोचा अपलोड कर देती हूँ. कभी बाद में अपनी हैण्डराईटिंग देखूंगी इधर. कोपियाँ तो जाने कहाँ जायेंगी.
ये जो लिफाफा सा दिख रहा है, एक छोटा सा पाउच है, पेन रखने के लिए.
खास नहीं. बस. ऐसे ही. 

27 April, 2013

न लिखना, न पढ़ना, न फिल्में देखना

लिखना या तो मुश्किल होता है या तो एकदम आसान. मुझे मुश्किल से लिखना नहीं आता. कितनी बार होता है कि अन्दर बहुत कुछ उमड़ घुमड़ रहा है पर शब्दों का आकार नहीं लेता...तब एक चुभन सी होती रहती है. जैसे कोई कील चुभी हो पाँव में...सिर्फ चलते वक़्त टीसती है. 

किसी को पढ़ना उसकी आत्मा से बात करने जैसा है. लेखक जितनी ही बड़ी कल्पना की दुनिया रचता है, उतनी ही सच्चाई से अपने आप को उसमें लिखते जाता है. मुझे कम लोगों का लिखना पसंद आता है. जाने क्यूँ कि किसी का लिखा छू नहीं पाता है दिल को. कुछ मिसिंग सा लगता है, जैसे उसने कुछ लिखना चाहा है जिसमें मैं डूबना चाहती हूँ पर पानी इतना उथला है कि चाह कर भी खुद को पूरा खोना नहीं हो पाया. मुझे फंतासी अच्छी लगती है. किसी ऐसी दुनिया में खो जाना जहाँ कुछ भी सच्चा न हो आसान होता है. किसी को पढ़ना कहीं भाग जाने का रास्ता खोलता है, ये लिखते हुए ऐलिस इन वंडरलैंड याद आती है. 

इधर काफी दिनों से कुछ अच्छा नहीं पढ़ा...कुछ भी अच्छा नहीं. मुराकामी की नार्वेजियन वुड रखी हुयी है, एक पन्ना भी पढ़ने का मन नहीं किया है. अकिरा कुरासावा की जीवनी जो कि बड़े शौक़ से खरीदी थी, जब कि उतने ही पैसे थे जेब में. कर्ट कोबेन के जर्नल्स पढ़ती हूँ कभी कभार. हैरी पोटर नहीं पढ़ा बहुत साल से शायद. दुष्यंत कुमार...अब अच्छे नहीं लगते. अज्ञेय...कभी कभी थोड़ा सा पढ़ती हूँ. और कोई नाम याद नहीं आ रहा. फिलहाल कोई पूछे कि तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है तो तुम्हारे पसंदीदा लेखक कौन हैं तो मेरे पास कोई नाम नहीं होगा. मैंने आखिरी कोई किताब कब पढ़ी थी...1Q84, शायद साल होने को आया. मैं टुकड़े में पढ़ नहीं सकती और एक पूरा समय मेरे पास है नहीं. 

कभी कभी सोचती हूँ कि आज के दस साल बाद शायद इस ऑफिस में बिताये लगभग एक साल के समय को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगी. इस दौरान कितना कुछ खो गया मुझसे. मैंने लिखना बहुत कम कर दिया...मुझे सोचने का वक़्त ही नहीं मिलता. घर और ऑफिस के बीच भागती हुयी फुर्सत के लम्हों को ढूंढती रहती हूँ जब मैं कुछ सोच सकूं. इधर काम का प्रेशर भी इतना है कि अपने लिए वक़्त ही नहीं मिलता. इस पूरे हफ्ते मेरे पास कोई मेजर प्रोजेक्ट नहीं था. मेरे पास बहुत वक़्त था कुछ पढ़ने के लिए...कुछ लिखने के लिए मगर मैंने कुछ नहीं किया. लिखना भी एक आदत होती है जब आप चीज़ों को देखते हो और कुछ शब्दों में वे खुद ढलते चलते जाते हैं, लिखना हमेशा एफर्टलेस होता है, कोशिश करके लिखा नहीं जा सकता. 

कुछ फिल्में देखने की कोशिश की. कल दो फिल्में देखीं. इटरनल सनशाइन ऑफ़ दा स्पॉटलेस माइंड और आयरन मैं ३. दोनों फिल्मों ने मुझे निराश किया. आयरन मैन से तो मुझे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी मगर इटरनल सनशाइन मैंने बहुत दिनों से टाल रखी थी...फुर्सत में देखने के लिए. उसका कांसेप्ट कितना अच्छा था...कहानी के साथ कितना कुछ अच्छा किया जा सकता था. फिल्म हड़बड़ी में बनायी गयी लगती है जैसे कोई डेडलाइन छूट रही हो. कांसेप्ट के साथ जो रोमांस शुरू होता है, जब धीमी आंच पर पकता है...बहुत वक़्त लगता है तब जा कर एसेंस कैप्चर हो पाता है. आजकल मुझे कहानियां भी उतना नहीं बांधतीं जितना कांसेप्ट बांधता है. शायद वोंग कार वाई की ज्यादा फिल्में देखने का असर है. इधर हाल में सोर्स कोड देखी थी...अच्छी लगी थी. 

कुछ पसंद करना मुश्किल क्यूँ होता जा रहा है. मैं क्या ओवेर्टली क्रिटिकल हो गयी हूँ चीज़ों के प्रति? नार्मल तरह से सोचूं तो मुझे आजकल कुछ अच्छा नहीं लगता, किसी चीज़ पर खुश नहीं होती. पहले चीज़ें अनकोम्प्लिकेटेड हुआ करती थीं. बारिशों में खुश, बहार में खुश, पतझड़ में खुश और जाड़ों में तो ख़ुशी से पागल. छोटी छोटी चीज़ों में खुश हो जाने वाली वो लड़की जाने कहाँ छुप गयी है. जिंदगी में एक लिखने के अलावा न कभी कुछ समझ में आया न कभी कुछ करने की कोशिश की. हर कुछ दिन में लेकिन जब ऐसा फेज आता है तो कुछ खुराफात मचती है. जैसे घर पेंट करने का मन करता है. खुद से ड्रिल करके घर में कुछ तसवीरें टांगने का मन करता है. बेसिकली कुछ ऐसा करने का मन जिसमें हाथ व्यस्त रहे...कलम से कुछ न लिखूं तो कुछ तो करूँ. इन फैक्ट खाना बनाना भी अच्छा लगता है. पर मम्मी वाला हाल है, नार्मल दाल चावल बनाने में अच्छा नहीं लगता. पास्ता, थाई ग्रीन करी, चाऊमिन जैसा कुछ बनाने का मन करता है. 

ये खुद को समझना कितना मुश्किल होता है. कोई किताब नहीं आती अपने ऊपर. क्या क्या करने का मन करता है...फिर से कहीं भाग जाने का मन करता है. समंदर किनारे खूब सारी रेत हो...लहरों पर रेस लगाऊं, साइकिल चलाऊं...कुछ करूँ...कुछ ऐसा जो करके सुकून मिले. बेसिकली खुद के होने को हमेशा वैलिडेट करने की जरूरत होती है. आखिर हम कर क्या रहे हैं...जिस दिन इसका जवाब नहीं मिलता जवाब ढूँढने की कवायद शुरू हो जाती है. 

कहानियों के किरदार कहीं चले गए हैं. कविताओं का राग भी. बस कुछ इने गिने शब्द हैं, इनका कोलाज है. मुझे एक लम्बी छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. तुम्हारे ही साथ कि अब तुम साथ नहीं होते तो सब अधूरा लगता है. भले ही तुम दूसरे वाले झूले पर अपने पसंद की किताब पढ़ते रहो और मैं अपनी. मगर एक लम्बी छुट्टी, सबसे दूर...फार फ्रॉम दा मैडिंग क्राउड. जिंदगी इतनी छोटी है वाकई कि मुझे लगती है!




How happy is the blameless vestal's lot!
The world forgetting, by the world forgot.
Eternal sunshine of the spotless mind!
Each pray'r accepted, and each wish resign'd.

09 April, 2013

द हारमोनियम इन माय मेमोरी

हम अपने आप को बहुत से दराजों में फिक्स डिपाजिट कर देते हैं. वक़्त के साथ हमारा जो हिस्सा था वो और समृद्ध होता जाता है और जब डिपाजिट की अवधि पूर्ण होती है, हम कौतुहल और अचरज से भर जाते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा सहेज के रख पाए हैं. 

ऐसा एक फिक्स डिपोजिट मेरे हारमोनियम में है. छः साल के शाश्त्रीय संगीत के दौरान उस एक वाद्य यंत्र पर कितने गीतों और कितने झगड़ों का डिपोजिट है. आज सुबह से उस हारमोनियम की आवाज़ को मिस कर रही हूँ. हमारा पहला हारमोनियम चोरी हो गया था. शहर की फितरत, वहां चोर भी रसिक मिजाज होते हैं. दूसरा हारमोनियम जो लाया गया, कलकत्ते से लाया गया था. बहुत महंगा था क्योंकि उसके सारे कलपुर्जे पीतल के थे, उसमें जंग नहीं लगती और बहुत सालों तक चलता. उस वक़्त हमें मालूम नहीं था कि बहुत साल तक इसे बजाने वाला कोई नहीं होगा. उस वक़्त हम भाई बहन एक रियाज़ करने के लिए जान देते थे. 

हम उसे बहुत प्यार से छूते थे. नयी लकड़ी की पोलिश...चमड़े का उसका आगे का हवा भरने वाला हिस्सा...उसके सफ़ेद कीय्ज ऐसे दीखते थे जैसे बारीक संगेमरमर के बने हों. मैं अक्सर कन्फ्यूज होती थी कि वाकई संगेमरमर है क्या. उस वक़्त हमारी दुनिया छोटी थी और कोई चीज़ हो सकती है या नहीं हो सकती है, मालूम नहीं चलता था. हारमोनियम को गर्मी बहुत लगती थी तो गर्मियों में एक तौलिया भिगो कर, निचोड़ कर उसके ऊपर डाल देते थे और बक्सा बंद कर देते थे. कभी कभी ऐसा शाम को भी करते थे. 

गाना गाने को लेकर हमारी अलग बदमाशियां थी. राग देश में जो छोटा ख्याल सीखा था उसके बोल थे 'बादल रे, उमड़ घुमड़, बरसन लागे, बिजली चमक जिया डरावे'. मजेदार बात ये थी कि जून जुलाई के महीने में अक्सर छुट्टी में रियाज़ में यही राग गाती थी. अब बारिश होती थी तो अपने आप को तानसेन से कम नहीं समझती थी कि मेरे गाने के कारण ही बारिश हो रही है. जिमी ने संगीत सीखना मुझसे एक साल बाद शुरू किया था. वो छोटा सा था तो उसके हाथ हारमोनियम पर पूरे नहीं पड़ते थे. सर हम दोनों को अलग अलग ख्याल सिखाते थे. मैं हमेशा हल्ला करती थी कि सर जिमी को ज्यादा अच्छा वाला सिखाते हैं. राग देश में भी सर उसको कोई और छोटा ख्याल सिखाये कि उसका नाम बादल है न...बादल रे गायेगा तो अच्छा थोड़े लगेगा उसको. 

जिमी हमसे बहुत अच्छा गाता था बचपन में, एक्जाम देने जाते थे तो एक्जामिनर उससे प्यार कर बैठते थे. एक तो एकदम छोटा प्यारा और बहुत मासूम लगता था उसपर आवाज़ इतनी मीठी थी कि एक्जामिनर खुश होकर दो चार और राग सुनने के मूड में आ जाता, जिमी का और गाने का मूड नहीं होता लेकिन...एक तो हम लोग एक ही राग पूरा अच्छे से रियाज़ करके जाते थे, आलाप, ख्याल और तान के साथ. एक्जामिनर खुशामद करता, कोई भजन ही सुना दो...सर बोलते...अरे जिमी वो वाला सुना दो न जो अभी पिछले सन्डे सिखाये थे. जिमी गाता...एक्जामिनर सर या मैडम उसको खूब आशीर्वाद देते. हम दिल ही दिल में सोचते अच्छा है मेरा आवाज़ उतना अच्छा नहीं है, हमको अभी एक ठो और गाना गाने कोई बोले तो यहीं जान चला जाए. एक्जाम का खौफ होता था. एक बड़ा सा हॉल होता था उसमें पूरे शहर के दिग्गज बैठे होते थे...सबको सुनते थे तो कमाल लगता था, उसपर एक्जामिनर कभी कभी अच्छा अच्छा को सुन कर खुश नहीं होता था. हम तो डरे सहमे आधा चीज़ वहीँ भूलने लगते थे. एक उसी एक्जाम और एक उसी ऑडियंस का हमको लाइफ में डर लगा है. वरना हम बड़े तीस मारखां थे...कहीं, किसी से नहीं डरते. 

हारमोनियम हम पटना लेकर आये...वहां कभी कभी रियाज़ करते थे, डर लगता था पड़ोसी हल्ला करेंगे. दरअसल रियाज़ करने का असल मज़ा भोर में है, जब सब कुछ एकदम शांत हो, हलकी ठंढी हवा बह रही हो. पटना में वही गाते थे पर हारमोनियम नहीं बजा पाते थे. याद नहीं कितने साल पहले आखिरी बार हारमोनियम बजाया था. कल रिकोर्डिंग स्टूडियो में थी...शीशे के उस पार जाते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है, गीत के बोल भूलने लगती हूँ, जबकि मैंने लिखे हैं और मुझे हर शब्द जबानी याद है. कल आर्टिस्ट को आलाप लेते देखा तो पुराने दिन याद आये...अब तो सपने में भी ऐसा आलाप नहीं ले सकती. 

शायद हारमोनियम का फिक्स डिपोजिट कम्प्लीट हो गया है. अबकी देवघर जाउंगी तो ले आउंगी अपने साथ. बहुत सालों से टाल रही हूँ, पर इस बार सर से भी मिलूंगी. अन्दर बहुत सा खालीपन भर गया है...उसे कुछ सुरों से, कुछ लोगों से, कुछ आशीर्वादों से भरूँगी. 
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इस सब के दरमयान चुप चुप रोउंगी कि मम्मी के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कहीं कभी भी. उसकी याद खुशबू की तरह है...कुछ कहती नहीं...दिल में कहीं बसती है. कल सुबह दराजों को हवा लगा कर कपड़े वापस रख रही थी, मम्मी के बुने सारे स्वेटर थे...वो थी यहीं कहीं. किसी दूसरे कमरे में फंदे गिनती...पीठ से लगा कर बित्ता हिसाब करती. मैं थक गयी हूँ उस खालीपन को दुनिया भर के काम से भरती हुयी. थक कर सो जाना चाहती हूँ हर रोज़ मगर याद भी कोई धुन की तरह ही है...कहीं नहीं जाती. मैं जाने कब उसके बिना जीना सीखूंगी. 
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बहुत दिन से रियाज़ करने का मन कर रहा है. सुर सारे भटक गए हैं. स थोड़ा ऊपर जो जाता है...कोमल ग ठीक से नहीं लगता है...नी जाने कैसा तो सुनने में आता है. पहले जब रियाज़ करती थी तो एक एक सुर पहले साधती थी. अब फिर से थोड़ा जिंदगी को साध रही हूँ. बहुत कुछ सुर से भटक गया...बहुत कुछ स्केल से अलग है. केओस को थोड़ा कम कर रही हूँ. जैसे कुछ सबसे खूबसूरत राग जिनमें सारे स्वर नहीं लगते, कुछ स्वर निषेध होते हैं. कभी कभी होता है...सन्डे को सुबह का वक़्त होता है...यूट्यूब पर कोई पसंद का गीत लगा देती हूँ और दूसरे कमरे में रोकिंग चेयर पर बैठ कर सिलास मारीनर जैसा कोई पुराना क्लासिक पढ़ती हूँ. जिंदगी अच्छी लगती है. सुकून लगता है. लगता है कि बहुत अच्छे से रियाज़ कर के उठे हों. मन शांत होता है. 

याद में स्वर आते हैं...कुछ शुद्ध, कुछ कोमल...गु ज री या  गा आ ग र  भ र ने ए  च ली  रे
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शीर्षक एक कोरियन फिल्म के नाम से. 

12 March, 2013

एक अच्छे वीकेंड की डायरी

एक सुख की जगह होती है...खालीपन के ठीक पास...वहां पर जब होती हूँ अक्सर कुछ नहीं लिखती हूँ. पिछला वीकेंड बेहतरीन था. फ्राइडे को विमेंस डे था. ऑफिस में इतना अच्छा लगा. लगभग चार बजे एक चोकलेट मूस वाला एक डेजर्ट मिला...किसी लड़के को नहीं दिया गया कि स्पेशल डे है आज. जोर्ज को दिखा दिखा के चिढ़ा के खाने का अपना मज़ा था. फिर एक इंटरनल मीटिंग थी तो हम सारे उसमें व्यस्त हो गए. कांफेरेंस रूम के बाहर बहुत शोर हो रहा था...हमने दरवाजा खोल के देखा तो रेड वाइन की बोतलें थीं, बहुत सारे चोकलेट के डिब्बे थे, वाइन ग्लासेस थे और पूरा ऑफिस जुटा हुआ था. 

सेलेब्रेशन में पहले वाईन...स्पेशियल लोगों के लिए...ऑफिस की सारी लड़कियां/औरतें रेसिप्शन पर थीं...चीयर्स के टाइम पर सारे लड़कों के हाथ में कैमरा था...इतने सारे फ्लैश हो रहे थे कि सेलेब्रिटी जैसी फीलिंग आ रही थी. फिर बहुत सारा शोर होता रहा...बहुत सी अच्छी अच्छी बातें. मैं वाइन कभी नहीं पीती पर शायद माहौल का असर था कि अच्छी लग रही थी. थोड़ा सा टिप्सी थी. चोकलेट और वाइन का कॉम्बो किलर था. फिर हमारे लिए राहिल ने डांस भी किया. वो हमारे ऑफिस का रॉकस्टार है. बहुत सारी सीटियाँ बजीं...बहुत सारा शोर फिर से. राहिल ने सबको चोकलेट का डिब्बा गिफ्ट किया...अपनी अपनी श्रद्धा से कुछ लड़कियों ने वापस में गाल पर किस दिया...कुछ ने हग किया...बहुत अच्छा लग रहा था. वापस सीट पर आई तो वहां फूलों का गुलदस्ता रखा था. मूड बेहतरीन था. आई लव माय ऑफिस. :)

घर आई तो वीकेंड गप्पें साढ़े तीन बजे तक चलती रहीं. अगली सुबह पोंडिचेरी निकलना था. ६ बजे का अलार्म लगा कर सोये मगर उठते और तैयार होते ४ बज गए. लॉन्ग ड्राइव टू पोंडिचेरी...३५० किलोमीटर...कुछ अच्छे गाने सुनते, गप्पें मारते कोई ३ बजे पहुँच गए. खाना खाया और सो गए. शाम को समंदर किनारे टहलने गए. कुणाल को समंदर की हवा बहुत अच्छी लगती है. खास तौर से रॉक बीच पर शाम में ट्रैफिक बंद होता है तो सिर्फ लोग चहलकदमी करते हुए दिखते हैं. बीच साइड के छोटे सफ़ेद घर, फ्रेंच आर्किटेक्चर...जरा सी हमें यूरोप की फीलिंग आ रही थी. बाहर गए बहुत टाइम हुआ न...अब हम घुमक्कड़ हो गए हैं दोनों. देखें उसका अगला प्रोजेक्ट कब आता है. इस बार मैं फ़्रांस या इटली घूमने के मूड में हूँ :)

ला कैफे में फ्रैपे और फ्रेंच फ्राईज...फुल अनहेल्दी खाना खाया. अगली सुबह आश्रम ९ बजे पहुंचना था तो सो गए. १० को साकिब का भी बर्थडे है. हम उसे और कुणाल को जुड़वाँ कहते हैं. साकिब एक साल छोटा है उससे. अरविंदो आश्रम में जन्मदिन के दिन श्री अरविन्द के कमरे में ध्यान करने दिया जाता है. हमने सुबह टोकन कटाया और कमरे के बाहर सीढ़ियों पर कुछ देर बैठे रहे. मुझे वहां बहुत से अपने लोगों की याद आई...एकदम चुप बैठे हुए मैंने उनके लिए कई दुआएं की...वो जहाँ हों, खुश रहें. 

उस कमरे में बहुत शांति मिलती है...जैसे सब कुछ ठहर गया हो. ये दुनिया की कुछ उन आखिरी जगहों में से है जहाँ होने पर मैं कहीं भाग नहीं जाना चाहती...रहना चाहती हूँ. साँस लेना चाहती हूँ...कपूर की खुशबू में डूबे उस कमरे को अपने अन्दर बसा लेना चाहती हूँ. 

वहां से बाहर आ के कुछ किताबें खरीदीं...दिलीप मामा के साथ थोड़ा चाय कॉफ़ी...दिलीप मामा हमें अपना रूम दिखाने ले गए. उन्होंने कहा कि कमरा थोडा अस्त-व्यस्त है. मैंने कहा मुझे केओस अच्छा लगता है. मामाजी के पास बहुत सी किताबें थीं और उन्हें स्कल्पचर का शौक़ था तो जाने कहाँ कहाँ की मूर्तियाँ थीं. उनके पास श्री माँ और श्री अरविन्द की एक स्पेशियल तस्वीर थी जिसमें उन दोनों के सिग्नेचर थे. मामाजी बड़े इंट्रेस्टिंग हैं. स्वामी विवेकानंद पर बनी एक बंगाली फिल्म के लिए उन्होंने काम किया है. एक छोटा सा रोल भी निभाया है. उन्होंने कुणाल को बर्थडे पर एक टी-शर्ट दी...दो-तीन किताबें...मुझे एक गणेश जी की छोटी सी मूर्ती...फूलों के लिए एक मेटल स्टैंड और एक बेहद खूबसूरत पीतल की संदूकची दी. ऐसा लग रहा था जैसे मेरा ही बर्थडे हो. 

बारह बजे हम पोंडिचेरी से निकल गए. वापसी का ७ घंटे का सफ़र. बैंगलोर में फिर पूरी पलटन के साथ बर्थडे सेलेब्रेट करना क्यूंकि ये पहली बार था कि कुणाल और साकिब इस दिन एक साथ थे. मोहित, नीतिका, अभिषेक, चन्दन, रमन, दिनेश, सकीब, कुणाल और मैं सब मिल कर एक नए रेस्टोरेंट में गए...ब्लैक पर्ल. मस्त जगह थी. पाईरेट वाला डिकोर था. खाना बहुत अच्छा...मूड बहुत अच्छा. घर वापस आते एक बज गया. 

अगली सुबह फिर ऑफिस...आज जोर्ज और नेहा पुणे गए हुए हैं शूट पर. मन नहीं लगता उनके बिना...ऑफिस खाली लगता है. आज बहुत वर्कलोड भी नहीं है. लाइफ थोड़ी अच्छी...थोड़ी सेटल्ड सी लग रही है. एंड फॉर अ चेंज मुझे ये अच्छा लग रहा है. इतना सब लिखना इसलिए कि सिर्फ उदासियाँ दर्ज नहीं होनीं चाहिए. 

बहार का मौसम...खुशामदीद. :) 

07 March, 2013

फीवर ९९ और हम


दो दिन से ९९ डिग्री बुखार है. न चढ़ कर ख़त्म होता है, न उतर कर ख़त्म होता है. इस बुखार में अजीब किस्म से घालमेल हो रहा है चीज़ों का. आज दिन भर किसी काम में मन नहीं लगा. बस दिन भर फेसबुक पर रही...कुछ पुरानी पोस्ट्स पढ़ीं...कुछ मनपसंद फिल्मों के दृश्यों और जिंदगी में कन्फ्यूज होती रही. कई बार लगता रहा कि इन द मूड फॉर लव वाली गली से गुज़र रही हूँ और किसास किसास बज रहा है.

कुछ अजीब किस्म के रंग हैं...उनका अपना भूगोल है, वे इसी धरती के किसी मानचित्र में नहीं मिलेंगे. मैं ऐसे किसी शहर में हूँ. किसी दीवार पर उकेरे गए नाम देखती हूँ. सड़क की गर्द और गुबार से भरी गलियां हैं जिनमें कितने साल पहले लिखे गए नाम भी हैं. ये चिट्ठियां कभी पहुँचीं? किसी ने कभी ठहर कर नामों के इस गलीज स्लम में अपना कुछ ढूँढा भी होगा...तो फिर इस सारी ग्रैफिटी में एक विशाल 'आई मिस यू' क्यूँ लिखा नज़र आता है. या कि मेरी आँखों का दोष है...मेरी दूर की नज़र ख़राब है. मुझे अपने से एक फुट से ज्यादा नहीं दिखता. जिंदगी के साथ भी ऐसा ही कुछ है. इस लम्हे से आगे देखने का कोई चश्मा नहीं बना है.

बिना चश्मे के मुझे लोग तो दिखते हैं मगर उनके चेहरे का भाव नहीं पढ़ सकती...बेसिकली उनकी आँखें नहीं दिखती हैं. हालाँकि कानों में हेडफोन हैं और कोई पसंद का गीत बज रहा है मगर मैं किसी से बात करना चाहती हूँ. भले मुझे उनकी भाषा समझ नहीं आये, उन्हें मेरी भाषा समझ नहीं आये. मैं एक कैमरा लटकाए घूम रही हूँ...हवा का एक बेहद प्यारा झोंका आता है और इस तनहा शहर में जैसे मुस्कराहट का एक बीज रोप जाता है. मैं देखती हूँ सड़क पर एक टूटा हुआ क्लचर गिरा हुआ है. याद आता है किसी वसंत में तुम्हारे साथ एक चेरी के गुलाबी फूलों वाले शहर में चल रही थी. मेरे बंधे हुए बालों में उलझे हुए चेरी नन्हें गुलाबी फूलों को निकलते हुए तुमने कहा था 'बाल खुले रहने दो न, अच्छे लगते हैं'. दुनिया की सबसे घिसी हुयी लाइन होने के बावजूद उस वसंत में कितना नया लगा था तुमसे सुनना.

स्क्रीन के ग्लेयर से आँखों में जलन होने लगी है. दोपहर होने को आई...ये कैसी धूप है, जलाती भी नहीं...रहम भी नहीं करती...ठीक उस मुकाम पर रखती है जहाँ मैं दवा नहीं खाऊँ कि खुद से ठीक होना है...मगर तकलीफ इतनी होगी कि एक कदम से दूसरे कदम तक की दूरी में जान चली जायेगी. कराह को अन्दर ही कहीं दबाते हुए मुस्कुराती हूँ...लोग कहते हैं चेहरे का रंग उतर गया है...आँखों की रौशनी डिम हो गयी है. मैं आइना देखती हूँ...आज अपनी आँखों पर ध्यान नहीं जाता...देखती हूँ होठ सूख गए हैं और चेहरा भी उतर गया है. वाश बेसिन में चेहरा धोती हूँ और एक मुखौटा चढ़ाती हूँ. हँसते हुए कहती हूँ कि 'बीमार होती हूँ तो भी लगती नहीं'...थोड़ा और बीमार लगती शायद तो छुट्टी मिल जाती.

इतनी थकान नहीं होनी चाहिए लेकिन...मगर बुखार आये भी तो बहुत साल बीत गए...जाने कैसा लगता है बुखार आने पर...शायद ऐसा ही लगता होगा...जैसे किसी दस मंजिला बिल्डिंग से नीचे फेंके गए हैं और हालाँकि हड्डियों का सुरमा बन गया है मगर जान बाकी है. कभी सर में दर्द ज्यादा उठता है, कभी कन्धों के दर्द से बेहाल हो जाती हूँ...कभी आँखों की जलन से आंसू निकल आते हैं.

जैसा कि होता है...दिन भर कुछ न करने के बाद शाम को एक बेहतरीन कांसेप्ट लिखा...ऐवें ही मूड फ्रेश हो गया. इधर लगभग चार महीने बाद बाईक ठीक कराई है. मुझे अपनी बाईक चलाने से ज्यादा अच्छा कुछ और लगता हो मुझे याद नहीं आता. आज दोपहर बहुत सारी चोकलेट भी खायी है. अभी बस जरा स्विट्ज़रलैंड टाईप हॉट चोकलेट विद विस्की मिल जाती तो क्या बात होती.

थर्मामीटर ठीक से नहीं लगाया था...अब लगाया थोड़ी देर पहले तो देखती हूँ कि बुखार मियां अब तक मौजूद हैं...तशरीफ़ ले नहीं गए हैं. मेहमाननवाज़ी एक्सटेंड करना कोई अच्छी बात है भला! सारी प्लानिंग चौपट हो गयी...क्या क्या न सोच रखा था इस हफ्ते के लिए. खुदा न खस्ता, बुखार को भी आने का टाइम नहीं मालूम होता है. खैर. लिखने से मूड अच्छा होता है इसके प्रूफ के लिए मैं अक्सर अपनी पोस्ट्स पढ़ती हूँ. आज का काम क्लोज हो गया है...कल का भी सब जुगाड़ ठीक ही लग रहा है. लिख के थोड़ा सर हल्का हुआ तो दर्द भी कम होगा ही कभी न कभी.

कभी कभी दुआओं का कोटा ख़त्म हो जाता है, वैसे में एक्सप्रेस एंट्री करनी पड़ती है...खुदा इसलिए बीमार कर देता है हमें. चलिए आप हमारे ठीक होने के लिए ऊपर खुशामद करिए हम तब तक पिज़्ज़ा और चोकोलावा केक पर हाथ साफ़ करते हैं. बाई द वे....अगर आपको हमारे स्वर्ग के वर्शन पर भरोसा है तो वहां पर एक चोकोलावा का पेड़ है...जिसमें हमेशा अनगिन केक लगे होते हैं. यूँ हाथ बढ़ाया और टप्प से तोड़ लिया. खैर. लगता है बुखार चढ़ रहा है. बकिया बरगलाना फिर कभी.  

06 March, 2013

कश्मीर उसकी आवाज़ में पनाह पाता है

मैंने हीर को कभी नहीं देखा...मगर इस लड़की को गाते सुना तो लगा शायद हीर गाती तो ऐसा ही कुछ गाती...रुबाब की आवाज़ किन पहाड़ों की गूँज लिए लौटती है ये जाने के लिए सवाल करने पड़ते हैं मगर गीत से उबरूं तब तो कुछ पूछूं उससे.

कल एक रिकोर्डिंग के लिए स्टूडियो गयी थी...छोटा सा प्रोजेक्ट था लेकिन गीत के बोल मैंने लिखे थे...और हिंदी का गीत था तो थोड़ा देखना भी था कि सही उच्चारण है या नहीं...मीटिंग के बाद स्टूडियो पहुंची तो उसे देखा...उसका इंट्रो नेहा ने कुछ ऐसे दिया...बहुत खूबसूरत है यार. आवाज़ की खूबसूरती के साथ चेहरे पर भी इतना पानी...और बात से बात निकलती है तो इस कश्मीरी को गाते सुना. कश्मीर उसकी आवाज़ में पनाह पाता है...याद के कितने जंगल पार कर गयी मैं उसके गीत को सुनते हुए.

सूफिस्टिकेशन नाम से उसके अल्बम का पहला गाना सुना मैंने...पंजाबी में ये गीत स्टूडियो की दीवारों में कितना जज़्ब हुआ मालूम नहीं मगर मन के रेगिस्तान में ऐसा ही कोई दरिया बहने को मचल रहा था...स्टूडियो बहुत स्वार्थी होता है, आवाज़ की एक गमक भी बाहर नहीं जाने देता है. उसकी परवरिश में सूफी घुला हुआ है...बचपन से ऐसे ही गीत सुने हैं उसने...इश्क का ऐसा कोई रंग है...आभा हान्जुरा...कश्मीर के पहाड़ों का गीत तलाशती हुयी. गीत की रिकोर्डिंग के लिए कश्मीर जा कर वहां के आर्टिस्ट्स को खोजना. गीत में रुबाब बजता है...वो कहती है कैसे वहां की वादियों से यहाँ बैंगलोर आ गयी, इन्डियन आइडल...और भी कुछ किस्से.

कैसा रेगिस्तान बिछता है कि हीर कि एक पुकार लौटा सके ऐसा कुछ दूर दूर तक नहीं है...मैं आँखें बंद कर रात उसकी आवाज़ के नाम कर देती हूँ...कित्थे नैना न जोड़ी...कित्थे नैना न जोड़ी...तैनू वास्ता खुदा का. क्या कोई पिछले जन्म का वास्ता रहा होगा या कि हर लड़की में एक हीर सी होती है? कैसी आवाज़ है, जैसे हवा का ककून हो...इर्द गिर्द और कुछ भी नहीं है...कितनी शुद्ध...क्या आत्मा से गए गीत हैं? इस पुकार में वो कितनी घुली है? उससे बात करती हूँ तो जानती हूँ कि दर्द बिछोह का है...अपनी मिट्टी से दूर बसने का...डर खो देने का है...एक गहरी आह भारती हूँ उसे सुन कर...इस आर्टिफिशियल दुनिया में भी कहीं कुछ सच्चा है.

उसे देखती हूँ...यादों के कोलाज में कश्मीर की खिलखिलाती नदियाँ आती हैं...आवाज़ लौटने वाले पहाड़ आते हैं...एक घोड़ावाला आता है...शोहैब...कहता है कि दीदी फिर लौट कर आना...लाल चौक पर मेरे नाम से जब भी ढूंढोगे मिल जाऊँगा. कश्मीर में जब भी कोई ब्लास्ट होता है...लाल चौक पर लाठीचार्ज होता है...मैं मन में उसके लिए दुआ मांगती हूँ.

हमें अपना काम अच्छा लगता है...मुझे लिखना अच्छा लगता है...उसे गाना अच्छा लगता है...म्यूजिक डाइरेक्टर हमें किस्से सुना रहा है. कहीं स्टूडियो के बाहर एक भागती दुनिया है...बहुत ट्रैफिक का शोर है...जिंदगी की आधापापी है...स्टूडियो के दोनों दरवाजे लगते हैं तो सब छूट जाता है. हम कुछ लोग होते हैं...कितने तरह का संगीत होता है...आलाप होता है...लयकारी होती है...गमक है...विलंबित ख्याल और ध्रुपद है.

मैं दिल से आभा को बहुत सी दुआएं देती हूँ उम्मीद करती हूँ कि कश्मीर की जिन आवाज़ों की तलाश में वो निकली है, वे उसे मिल जायें और फिर हम उसके रास्ते कुछ पुरानी कहानियां सुन सके. आप फुर्सत में है तो ये गीत सुनिए...दिन के क़त्ल का सामान है...

04 March, 2013

रात से भोर का कोलाज

देर रात काम करना...नींद को देना भुलावे...सपनों को भेजना कल आने के मीटिंग-पोस्टपोनमेंट रिक्वेस्ट...खिड़की के पल्ले से आती हवा का विंडचाइम को रह रह कर चुहल से जगाना...ख़ामोशी सा कोई निर्वात रचना...

लिखना जाने क्या क्या...कैसे शब्द ढूंढना...कहाँ से लाना साम्य...कैसे तलाशना शब्दों के अर्थ...कैसे दृश्यों में खोना...लिखना स्क्रिप्ट...लिखना लिरिक्स...खो जाना किसी और समय में...परीकथाएँ बुनना...चौखट पकड़े सोचना किसका तो नाम...हाँ...मर मिटना नीत्ज़े पर...नेरुदा पर...स्पैनिश...जर्मन...क्या क्या पढना...किन किन भाषाओँ में इंस्ट्रुमेंटल सुनना...खोजना शब्द...सलीके के...

करना ऑफिस का काम और मेरी जान, भूल जाना उस लड़की को जिसे चिट्ठियां लिखने की आदत थी, जिसे किस्से सुनाने में लुत्फ़ आता था...जो फोन कर के कहती थी जरा वो कविता सुना दो ना...तुम्हारी आवाज़ से किसकी तो याद आती है...जिसे वो सारे लोग अच्छे नहीं लगते जिन्हें कविता कवितायेँ अच्छी नहीं लगती...

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उलाहने देना भोर की किरणों को...नींद भरी आँखों से सर दर्द को देखना...याद करना शामों को...इस वसंत में आई हुयी पतझड़ की शामें...सड़क के दोनों ओर बेतरतीबी से बिछे हुए पत्तों का ढेर. सूखे पत्तों की कसमसाती महक...उँगलियों में मसल देना एक पत्ते की पीली नसों को...जैसे खतों के कागज़ में लगाना आग. 

बौरायी हवा में आम के बौर का घुल जाना...ये कैसी गंध है...मिली-जुली...किधर का दरवाज़ा खोलती है...कोई आदिम कराह है...मेरा नाम पुकारती है...समय के उजाड़ मकानों में मुझे टोहती है...एक मैं हूँ...धूल में लिखती हुयी कविता...मिटाती अपनी हस्ती को. देखती हूँ अपना नाम उँगलियों के पोरों में. पार्क में खिलते हैं फिरोजी रंग के फूल...पाती हूँ उनकी जड़ों में मेरी टूटी हुयी दवात. 

भूल जाना लिखना...भूल जाना खुद को...बंद कर देना किसी गहरे हरे दवात में अगली बहार के मौसम के लिए...भूल जाना कि नयी कोपलों का रंग होता है सुर्ख लाल...आँखों को कहना कि न पढ़े कविता...कानों को कहना कि न सुने उसका नाम कि उस नाम से उग आती है कलमें कितने रंग कीं मेरे अन्दर...सियाह रातें जब दर्द में चीखती हैं तब जा कर जनमती है कविता...

तरबीब से जीना जिंदगी को लड़की...समेटना सब कुछ अपने अन्दर मगर ब्लैक होल की तरह...मत भेजना प्रकाश की एक किरण भी बाहर कि तुम्हारी तस्वीर भी न खींच पाएं लोग...निर्वात से जानें तुम्हें ऐसा हो तुम्हारा गुरुत्व...सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है सुपरनोवा...मरते हुए तारे की आखिरी पुकार होती है...अनगिन गैलेक्सीज पार कर तुम्हारे दिल को छलनी कर जाती...सबसे पास का तारा...प्रोक्सिमा सेंचुरी.

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तकलीफों के इस बेसमेंट में थोड़ी मुस्कुराहटें बचाए रहना...किचन के डिब्बे में रखना थोड़ा दालचीनी का पाउडर...घड़ी में घुलना जरा जरा सा...थोड़ी स्ट्रोंग बनना...यहाँ की फ़िल्टर कॉफ़ी की तरह. 

कैमरा को देख कर कहना...स्माइल प्लीज :)

03 February, 2013

पातालगंगा

इक नदी थी कि जिसे उसके बहते हुए रहने का धोखा था...सालों पड़ती ठंढ में पानी जम गया था...नदी अब बर्फ की एक चट्टान सी हो गयी थी...टनों मोटी बर्फ की चादर थी. कौन जानता था नदी के दिल का हाल. गाँव की बूढी औरतें ही थीं जो कहती थीं कि नदी के सीने में अब भी गर्म पानी का सोता है, सोने के रंग की मछलियाँ हैं...मोती बुनती सीपियाँ हैं...डूबी हुयी किश्तियाँ हैं...लिखी हुयी चिट्ठियां हैं, समंदर तक पहुँचाने के लिए.

नदी थी कि देख नहीं सकती थी कुछ भी, उसे महसूस होती थी अपने बदन पर प्रियतम की उँगलियाँ...कि वो धीरे धीरे सरकती थी बंजर मैदानों पर और उसे लगता था कि एक दिन दूब उगेगी इन्ही ढलानों में, हरी मखमली दूब. नदी पागल थी कि सपने देखती थी समंदर के...ग्लेशियर से निकल कर भी डूबना चाहती थी समंदर के अन्दर बहने वाली किसी नदी में. बरक़रार रखना चाहती थी किसी पहाड़ की उँगलियों की गर्मी, बर्फ की परतों के नीचे. उसने सुना था कि बर्फ में चीज़ें कभी ख़राब नहीं होतीं.

किसी पहाड़ ने समेटा था एक बार उसे अपनी बांहों में...नदी उसी दिन पिघलनी शुरू हुयी थी मगर पिघलते ही उसे छोड़ कर आना पड़ा था वो पहाड़ी कबीला जो उसके सदानीरा होने के गीत गाता था. घाटियों के लोगों के दिल पत्थर थे...उनके किनारे घिसते घिसते नदी छिलती जाती...परत दर परत छूटती जाती. किसी ने कहाँ समेटा छूटी हुयी नदी के टुकड़ों को. नदी के आंसू कोयला खदानों की अमानत हो गए.

कभी कभी पूरी नदी सिर्फ एक पुकार का शब्द बन जाती थी मगर नदी की शिराओं में आवाज़ सफ़र करते ही गुम हो जाती थी. कोई भी नहीं बुला पाता उसे जिसे नदी बुलाती थी. नदी की एक सखी थी... पातालगंगा... मरनेवालों को पार लगाती थी. नदी में रोज जान देती थीं कितनी लहरें.

नदी थी कि बंजर मैदानों की फटी बिवाईयों पर जड़ी बूटियों सी उगती जाती थी...नदी थी कि प्रवासी पक्षियों को रास्ता दिखाती थी...नदी थी कि हीर को रांझे से जुदा करती थी और मिलाती थी.

गीतों में कहते हैं कि नदी है...मगर गीत गाती औरतों की आँखों में देखो तो जानोगे कि नदी थी...

01 February, 2013

सलेटी उदासियाँ

याद का पहला शहर- साहिबगंज.
साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान...स्कूल जाते हुए पड़ती बहुत सारी सीढियां, साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं...साइकिल चलाते हुए बबलू दादा.
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मेरी आँखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं...इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं उनमें. मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो.

भरा पूरा ससुराल, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग...जैसी हूँ वैसे अपनाने वाले सारे लोग...सब बहुत अच्छा और अनगिन अनगिन लोग. सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं. मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है.

कभी कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा हुए हैं. समझ नहीं आता कि क्या चाहिए और क्यों. सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली खाली सा क्यों लगता है. कब समझ आएँगी चीज़ें. कैसा अतल कुआँ है कि आवाज़ भी वापस नहीं फेंकता...किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो. ये  मैं हर वक़्त बेसब्र और परेशान क्यूँ रहती हूँ.

ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है. छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है. ऑफिस का काम करने थोडा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया. छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है. बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं. पुराने हीटर, कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान, एक टूटी बाल्टी, कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है...समझ नहीं आता कि कहाँ एक शुरू होता है और कहाँ दूसरा ख़त्म.

मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं...मौसम अजीब उदासी से भरा हुआ है. आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है. मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा. मेरा किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा. एक बार अपने वाले घर जाने का मन है. जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाउंगी तो मम्मी भी वहीँ होगी. दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं. कभी कभी लगता है कि वो यहीं है, मैं ही मर चुकी हूँ कि वो सारी चीज़ें जिनसे ख़ुशी मिलती थी कहीं खोयी हुयी हैं और मुझे दिखती नहीं.

रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी, उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा. तैयार हुयी शाम की पार्टी के लिए. लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं. पास में ही. हर बार साड़ी पहनती हूँ, अनगिन लोग पूछते हैं कि इतना अच्छा साड़ी पहनना किससे सीखी...हम हर बार कहते हैं...मम्मी से. सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दीखते हैं...किसी भीड़ में नहीं खोते...एकदम अलग.

सब अच्छा है फिर भी मन उदास है...ऐसे ही...कौन समझाए...फेज है...गुजरेगा. 

02 January, 2013

हैप्पी न्यू इयर २०१३

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं ।
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नये साल में उम्मीदों की एक सुबह...
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नए साल में हम कैम्पिंग करने एक नदी किनारे गए थे. छोटे छोटे टेंट्स और खाने पीने का थोड़ा सामान.

शहर को पीछे छोड़ते हुए गाँव शुरू हो चुके थे...गाँव की भी आखिरी सीमा से एक पगडण्डी शुरू होती थी...उधर से आगे बढ़ते हुए दो छोटी पहाड़ियों के ऊपर कोई किलोमीटर से ऊपर का सफ़र था.

जब हम घाटी में पहुँचते तो जैसे पूरी दुनिया पीछे छोड़ आये थे. साथ थे ९ लोग...कुणाल और मैं, मोहित-नीतिका, कुंदन, चन्दन, साकिब और रमन और दिनेश.

कहीं से कोई शोर नहीं...कहीं एक इंसान नहीं दूर दूर तक...नए साल का कोई हल्ला नहीं, कोई फ़िक्र नहीं मुझे ऐसा ही शांत नया साल चाहिए था. एक बार नए साल में ताज गए थे...वहां डांस फ्लोर पर किसी ने हमारी दोस्त के साथ बदतमीजी की, एक बार नहीं कई बार...और ताज वालों ने उसे होटल से बाहर तक नहीं निकाला. हमें कम से कम ताज से ऐसी उम्मीद नहीं थी. लगा कि कम से वहां तो सेफ्टी होगी. उसके बाद कभी नया साल मनाने का उत्साह ही नहीं रहा. बाहर जाकर पार्टी और हल्ला करने की अब मेरी उम्र नहीं रही. मुझे अब बहुत शोर शराबा और नौटंकी करना अच्छा नहीं लगता है.

३१ की सुबह घर में दो रोटियां बनाने के बाद गैस ख़त्म हो गयी थी...सुबह से भूखे ही थे. दिन में ऑफिस का ये हाल था कि दस मिनट निकाल कर बगल की दूकान से एक पैकेट चिप्स ला के खाने की फुर्सत नहीं थी. सुबह से एक सेब खाया था बस. ढाई बजे बैंगलोर से निकले...और इस बार कार मैं ड्राइव कर रही थी. हमें पहुँचते पहुँचते पांच बज गए थे. भूख के मारे बुरा हाल था...फिर गरम गरम पकोड़े मिले खाने को...जान में जान आई. आलू और मिर्च के पकोड़े. हैंगोवर से बचने के नुस्खों में एक था...पहले कोई तली हुयी चीज़ खा लो...

कुंदन, कुणाल और चन्दन 
नदी किनारे एक राफ्ट बंधा हुआ था...तारे उग आये थे...मुझे खुले में सितारों के नीचे सोये बहुत वक़्त हुआ था. कौन सी बातें थी अब याद नहीं पर अच्छा लग रहा था. सबसे अच्छा लग रहा था कि सेफ महसूस कर रहे थे कि सब अपने लोग हैं. किसी तरह की टेंशन नहीं थी. अधिकतर नेटवर्क नहीं था तो कोई फोन करके परेशान भी नहीं कर सकता. देर तक मूंगफली खाते और भूंजा फांकते वक़्त कटा...फिर अलाव जलाया गया. अलाव के इर्द इर्द बैठे हुए हमने पहाड़ी के पीछे उगता चाँद देखा...पूरा जंगल चांदनी में नहा गया था. मैं फिर से ट्राईपोड ले जाना भूल गयी थी कम रौशनी में फोटो ऐसे खींचे जाते थे कि रेडी बोलते ही फोटोग्राफर समेत सारे सब्जेक्ट्स सांस रोक लेते थे. थोड़ी सी मूवमेंट से भी फोटो ब्लर आ जाती थी.

रात को थोड़ा डांस थोड़ा गाना...थोड़ा चिल्लाना...थोड़ा थोड़ा करके सब बहुत हो गया. सुबह ६ बजे नेचर वाक पर जाना था. मोहित का हल्ला कि मैं सबको उठा दूंगा...चार बजे सो कर ६ बजे तो सब उठने से रहे लेकिन हल्ला करने में सब रेडी...

सात बजे मेरी नींद खुली तो बाकी किसी टेंट में कोई हलचल नहीं दिख रही थी. सुबह का समय, सब एकदम शांत था. कैमरा, अपनी नोटबुक, पेन तीनो उठा कर वहीं नदी किनारे चली गयी. सूरज का रंग फीका था और नदी का पानी रूपहला. हर साल की शुरूआती आदत...डायरी लिखना. सो कुछ तसवीरें खींचीं, एक आध गिलास पानी टिकाया और फिर जैसे धूप गरमाती गयी खुद के साथ थोड़ा वक़्त बिताया. नेरुदा की किताब ट्वेंटी पोयम्स ऑफ़ लव एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर नयी डिलीवर हुयी थी फ्लिप्कार्ट से. कुछ कवितायें पढ़ीं. कोई अख़बार नहीं...कोई मेल नहीं...कोई एसएमएस नहीं. कभी कभी जीने के लिए दुनिया से कटना भी जरूरी होता है. सुबह की कॉफ़ी तैयार हो रही थी. नौ बजते बजते बाकी लोग उठे.

दिन का मेन अट्रेक्शन था लाइफ जैकेट पहन कर नदी में 'डेड मैन फ्लोट' करना. अधिकतर को तैरना नहीं आता था. नदी में थोड़ी थोड़ी दूर पर पानी गर्म और ठंढा था. हम कितनी देर तो नदी में ही रहे. फिर खाने का कोई इन्तेजाम नहीं था तो एक डेढ़ बजे निकले...भूख लगनी शुरू हो गयी थी. रस्ते में जहाँ से घाटी दिखती थी एक राउंड फोटो सेशन चला. बैंगलोर पहुँचते चार बज गए थे. खाने पर हम इस तरह से टूटे जैसे एक साल के भूखे हों. चाइनीज...थाई...इन्डियन...जिसने जो मंगाया, सबने खाया. कोई पच्चीस रोटियां, पांच प्लेट चाव्मीन, एक प्लेट चावल, एक थाई ग्रीन करी, पांच चिली पनीर...कहाँ गया किसी को मालूम नहीं.

घर पर आराम करने के मूड में आये कि पेट में दर्द शुरू. मुझे शिमला मिर्च से अलर्जी है...हमेशा प्रॉब्लम नहीं होती...पर जब होती है जान चली जाती है. और दर्द कभी दिन में शुरू नहीं होता...रात में होता है कि हॉस्पिटल में भी इमरजेंसी में जाना पड़े. कल भी आसार बुरे दिख रहे थे. दर्द के मारे जान जा रही थी उसपर डि-हाईड्रेशन. पता नहीं कितना तो ओआरएस पिया और कोई तो टैबलेट खायी. अभी सुबह उठी हूँ तो लगता है पुर्जा पुर्जा दर्द कर रहा है. बुखार बुखार सा लग रहा है...ऑफिस में इनफाईनाईट काम है...गैस ख़त्म है सो उसका इन्तेजाम करना है...कुणाल की मौसी-मौसाजी और बच्चे आये हैं तो रात का कुछ अच्छा खाना बनाना है. बाप रे! दिन बहुत लम्बा लग रहा है और चलने की हिम्मत नहीं. कल रात दोनों बच्चों को माइक्रोवेव में मैगी बना कर खिलाये थे. आज पता नहीं नाश्ता का क्या करेंगे. दस बजे टाइप्स गैस एजेंसी खुलेगी. बाबा रे...पैक्ड डे अहेड!

१३ मेरा लक्की नंबर है. देखे ये साल क्या रंग दिखाता है...नए साल में नयी उम्मीदें...नए सपने...आप सबको भी हैप्पी न्यू इयर. 

14 December, 2012

खोये हुए लोग कहाँ चले जाते हैं?

बहुत साल पहले दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था...मैं उसे देख कर हमेशा बहुत उदास हो जाती थी. सोचती थी कि ये दुनिया कितनी बड़ी है कि इतने सारे लोग खो जाते हैं और किसी का पता भी नहीं मिलता. मर जाने से ज्यादा बुरा है खो जाना...मर जाने में एक स्थायित्व है. लोग रो पीट कर समझा लेते हैं...कैसी भी परिस्थिति में जी लेते हैं. लेकिन खोये हुए लोग अपने पीछे एक इंतज़ार छोड़ जाते हैं. फिर कोई उस मोड़ से आगे नहीं बढ़ता जहाँ उसका हाथ छूटा था. सब कुछ लौट लौट कर वहीं आता है.

मुझे एक ज़माने में खो जाने का मन करता था...लुका छिप्पी खेलते हुए मैं अक्सर सोचती थी कि अगर ऐसा हुआ कि मैं खो जाऊं और कभी न मिलूँ तो? मैं टीवी में खोये हुए लोगों को बहुत गौर से देखती थी और सोचती थी अगर कोई मिलेगा तो मैं पक्का उसे इस एड्रेस पर पहुंचा दूँगी.

जब से पोलैंड से लौटी हूँ एक अजीब चीज़ होती है...अख़बार में अक्सर मरे लोगों की तसवीरें छपती हैं. मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्यूँ करते हैं. मैं उन तस्वीरों को देखती हूँ तो अजीब सा महसूस होता है, जैसे कि मैं उनको दूर से जानती हूँ...जैसे मरने के बाद वो मेरी दुनिया का हिस्सा बन गए हैं. उनकी कोई कहानी होती है जो उन्हें कहनी होती है...वो मुझसे कहना चाहते हैं. मैं पेपर पलट कर रख देती हूँ और कैल्विन और होब्स में खो जाती हूँ...एक शैतान बच्चा और एक स्टफ टाइगर...इससे ज्यादा कॉम्प्लिकेशन हैंडल नहीं कर सकती हूँ.
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आज सुबह अखबार में बैंगलोर फिल्म फेस्टिवल के बारे में छपा था...आज ही अपनी बुकिंग कराई है. ऑफिस के और भी तीन चार लोगों की बुकिंग करायी है. पांच सौ रुपये का डेलिगेट पास है...इसमें कोई डेढ़ सौ फिल्में दिखा रहे हैं. मन तो कर रहा है कि हफ्ते भर की छुट्टी लेकर सारी फिल्में देख जाऊं, लेकिन गड़बड़ है कि जोर्ज भी जा रहा है...हमने कहा तो बोला...एय...छुट्टी मैं लेकर जाऊँगा...तुम लोग यहाँ काम सम्हालो. असल में होगा ये कि वीकेंड पर जो फिल्में हैं वो तो देख लेंगे, क्रिसमस वाले दिन भी तीन चार फिल्में देखी जा सकती हैं. उसके अलावा रात के शायद कोई शो देख पाऊं, डिपेंड करता है कि जिस हौल में लगा होगा वो घर से कितनी दूर है. एक दोस्त है निशांत वो भी जा रहा है...अभी कुणाल की बुकिंग नहीं कराई है, उसके घर आने पर करेंगे. टोटल में बहुत से लोग हैं तो अकेले देखने का टेंशन नहीं है. नेहा आज दिन भर ऑफिस से बाहर रही है तो उसकी टिकट भी नहीं हुई है...लौट के आती है तो उसको पकड़ते हैं. मिस करती हूँ उसको. बड़े दिन बाद किसी से थोड़ी दोस्ती हुयी है. बच्ची है वैसे तो...मुझसे छः साल छोटी है...पर हाँ...अच्छा लगता है कि कोई लड़की दोस्त है, गॉसिप करने के लिए, शोपिंग के लिए, उसके जिंदगी और प्यार पे ज्ञान देने के लिए...जरूरत सी लगती है. नन्ही परी है मेरे लिए. अच्छी. प्यारी.
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सिंपल होने का मन करता है...लगता है कि मन इतने सारे पैरलल ट्रैक्स पर एक साथ सोच नहीं पाता तो अच्छा होता न...इतनी उलझन नहीं होती. शामें अक्सर डिप्रेसिंग होती हैं. मुझे समझ में ये नहीं आता कि खुद के साथ तालमेल बिठाने के लिए कितनी जिंदगी चाहिए. अब भी मैं खुद को समझ क्यूँ नहीं आती...जब कि बहुत सी चीज़ें बार बार घटती हैं...मैं फिर वहीं कैसे चोट खाती हूँ. दो कमरों का घर है, साढ़े चाल साल होने को आये, मुझे अब तक दीवारें कहाँ है पता क्यूँ नहीं है. अब भी टकरा जाती हूँ...कितने सारे नीले निशान होते हैं. अचानक से मन बहुत बहुत उदास हो आया है...सोचती हूँ तो पाती हूँ कि अचानक नहीं है...एक जिंदगी किसी और जिंदगी की रिपीट तो नहीं हो सकती. देजा वू है...
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काश तुम्हारा ऑफिस इतनी दूर नहीं होता...सिर्फ एक नज़र तुम्हें देखने का कितना मन कर रहा है...कोर्नर हाउस में आइसक्रीम खाने का...एक अच्छी फिल्म साथ देखने का. अपने घर जाने का मन कर रहा है...तुम्हारे ऑफिस होते हुए. कभी कभी लगता है एकदम अकेली हूँ और बेहद रोने का मन करता है...फिर काम में भी मन नहीं लगता. मम्मी की बेतरह याद आ रही है सुबह से. और कितने साल लगेंगे उसके बिना जीना सीखने में?

30 November, 2012

लव पैरालल्स ऑन ए ट्रैम्पोलीन

कल की शूट पर एक ट्रैम्पोलीन का इन्तेजाम था...एक वृताकार स्टील का फ्रेम होता है जिसपर एक बेहद हाई-टेंशन झेल सकने वाला ख़ास तरह का कपड़ा बंधा होता है. दोपहर को ट्रैम्पोलीन सेट अप हुआ...अब लोगों को बताना था की भैय्या आपको इस चीज़ पर कूदना है...और हम चूँकि ऐसा कोई काम लोगों को करने नहीं बोलते जो हमने खुद पहले कभी नहीं किया हो तो तुर्रम खान बनके पहले खुद चढ़ लिए ट्रैम्पोलीन  पर. इंस्टिंक्ट है कि जब पैर जमीन से हटते हैं तो इंसान को डर लगता है...चाहे हवा में उड़ना हो चाहे पानी में तैरना हो. ट्रैम्पोलीन जम्प करने का तरीका ये है कि दोनों पंजों को एक साथ रखें और बीच में जम्प करें...छोटे छोटे जम्प लेने से, जैसा कि वेव में होता है या झूले की पींगों में...एम्पलीट्यूड बढ़ता जाता है.

तो कूदना तो बहुत आसान था...फिर डायरेक्टर ने कहा...हाँ अब...लुक एट द कैमरा...एंड स्माइल...तो एक तो पहली बार जम्प करते हुए दिशा पता नहीं चलती है...आसमान में ऊपर जा तो रहे हैं मगर किधर...उसपर नीचे गिरेंगे किधर वो पता नहीं है...उसके ऊपर लुक एट द कैमरा...बाबा रे! और उसपर स्माइल...हे भगवान! मुस्कुराना कभी इतना मुश्किल नहीं लगा था. पहली बार थोड़ा समझ में आया कि जब हम किसी चीज़ पर ध्यान केन्द्रित कर रहे होते हैं तो चेहरे पर एकाग्रता का भाव होता है...उसमें मुस्कुराना एक काम होता है...पार्ट ऑफ़ दा प्रोसेस. नारद जी कैसे एक लोटा दूध त्रिलोक में लेकर घूमते हुए नारायण नारायण जपना भूल गए थे...बेचारे नारद जी  का सारा ध्यान दूध को गिरने से बचाने में लगा था.

खैर...पहली बार के हिसाब से बहुत ही लाजवाब काम किये हम. दूसरी बार जब ट्रैम्पोलीन सेट हुआ तो हम तैयार होकर एकदम ड्यूड बन गए थे. हमारे साथ एक बन्दा था जो हवा में कूदते हुए पलटी मार सकता था...हमने ऐसी कलाबाजी पहले तो नहीं देखी थी. जब वो नीचे उतरा तो पहला वाक्य यही आया...यु डोंट हैव फीयर इन योर हार्ट...तुम्हारे दिल में डर नहीं है. (अनुवाद अपने खुद के लिए चिपकाया है :O वो क्या है कि कुछ वाक्य अंग्रेजी में ज्यादा अच्छे लगते हैं...और बोला भी अंग्रेजी में ही था...तो इमानदारी बरतते हुए). ट्रैम्पोलीन पर कूदना अच्छा ख़ासा थका देने वाला अनुभव होता है...सांसें तेज़ चलने लगती हैं...पसीने छूट जाते हैं.

सही तरीके से जम्प करने के लिए कुछ छोटे छोटे जम्प लेने चाहिए फिर धीरे धीरे जैसे झूले की पींगें बढ़ती हैं वैसे ही जब हवा में कुछ ज्यादा ऊंचे जा रहे हैं तब आप अपने पोज मार सकते हैं...जैसे कि हवा में दोनों पैर पूरे ऊपर मोड़ना या फिर हाथों से भरतनाट्यम की मुद्रा बनाना इत्यादि...ये सब करते हुए जरूरी है कि आप कैमरा की ओर देखें और मुस्कुराएं जरूर...तब जाके एक अच्छा शॉट आता है. कल बड़ी अच्छी धूप थी बैंगलोर में और जमीन तपी हुयी थी...उसपर कुछ देर नंगे पाँव खड़े रहे...दौड़ते भागते रहे.
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नवम्बर सनलाईट. तुम. उफ़.
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मुझे सफ़र करते हुए और काम करते हुए बहुत भूख लगती है...तो मैं खाने पीने का पूरा इंतज़ाम करके चलती हूँ...चोकलेट...बिस्किट...जूस...कुछ स्नैक्स...और जाने कैसे मैंने कभी लोगों को खाने के बारे में थोड़ा सा ध्यान रखते या प्लानिंग करते नहीं देखा है. खैर...सबको मेरी तरह भूख लगती भी नहीं होगी. तो कल भी मैंने राशन पानी का इन्तेजाम कर रखा था...लेकिन मुझे ठीक मालूम नहीं था कि क्रू में लोग कितने होंगे...तो तीन बजते मेरा राशन ख़तम और मेरी भूख शुरू. तो फिर लगभग पांच बजे कैंटीन जा के कुछ कूकीज ले कर आई...किसी ने बताया था कि बिस्किट वो होते हैं जो मशीन से बनते हैं और कुकी वो होती है जो हाथ से बनती है...खैर...मुझे बहुत से लोग बहुत सा भाषण देते हैं. तो कल फिर बेचारे भूखे प्यासे लोग काफी खुश हुए...जोर्ज ने बोला...अब से पूजा को हर शूट पर ले जायेंगे (actually he said...now onwards Puja is a part of every shoot) जब आपको भूख लगी होती है तो आप अच्छी तरह से परफोर्म नहीं कर पाते हैं क्यूंकि दिमाग का एक हिस्सा हमेशा ये सोचता रहता है 'भूख लगी है'. वैसे तो ऐसे भी लोग होते हैं जो खाना पीना छोड़ कर काम करते हैं. पर मैं वैसी हूँ नहीं. मैं वैसे काम करने के पहले इन्तेजाम करके चलती हूँ.
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तुम मेरी याद  में उग आते हो.
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ट्रैम्पोलीन जम्प...प्यार के जैसे...हवा में उड़ रहे होते हैं...ऊपर जाते हुए मालूम नहीं होता कितना ऊपर जायेंगे...नीचे आते हुए मालूम नहीं होता कैसे गिरेंगे...मुंह के बल...एकदम फ़्लैट...पीठ के बल...या फिर पैरों पर तमीज से लैंड करेंगे. जरूरी ये सब होता भी नहीं है न...जरूरी होता है कि जब हम हवा में हो...उस फ्रैक्शन ऑफ़ सेकण्ड में...एक अच्छा पोज होल्ड कर सकें...जब हम प्यार में हों...उस लम्हे भर...जी सकें...मुस्कुरा सकें...बिना ये सोचे हुए कि आगे क्या होने वाला है. जरूरी है कि थोड़े बहादुर हों...कुछ गलतियाँ कर सकें...गिरने के डर से ऊपर उठ सकें...बिना ये सोचे हुए कि आसपास के लोग देख कर हंस रहे हैं...हम पर हंस रहे हैं...बेखबर दोनों हाथों को पूरा फैलाए हुए आसमान को बांहों में भर सकें...तो क्या हुआ अगर हम नीचे एकदम फ़्लैट-आउट होते हैं. प्यार हमें थोड़ा बेवक़ूफ़ होने की इजाजत देता है...कभी कभी मुझे लगता है कि हमें प्यार होता ही इसलिए है कि हम डर से निकल सकें...उसके सामने कुछ भी कह सकें...बिना ये सोचे हुए कि वो मुझे एकदम ही पागल समझेगा...इत्यादि.
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तुम मुझे बहुत रुलाते हो
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प्यार ये तो नहीं होता कि सिर्फ उस लम्हे आपसे प्यार होगा...प्यार तब भी होगा जब आप गिरेंगे...चोट आई होगी...तब उठाने समझाने प्यार ही तो आता है. प्यार ये कि कह सकें...जो दिल करे...कर सकें दुनिया भर का झगड़ा...हो सकें वो जो होने में डरते हैं. प्यार में डर नहीं होता. बेवकूफी में भी डर नहीं होता. तो अगर A=B and B=C, तो A=C तो माने...प्यार यानी बेवकूफी?

ये हर इक्वेशन में प्यार कमबख्त कहाँ से एंट्री मार जाता है...सोच रही हूँ प्यार वाले पैराग्रफ्स को डिलीट मार दें...लेकिन फिर जाने दो...इतना एडिटिंग करने का सरदर्द कौन ले. दो दिन से इनफाईनाईट काम है...दिन भर दौड़...भाग...उसपर ये सैटरडे वर्किंग. उफ़...वर्ल्ड इज नोट फेयर. हम सोच रहे हैं...कि इतना सोचना कोई अच्छी बात नहीं है...अपनी फिल्म लिखते हैं...सारे टाइम दिमाग में कोई और फिल्म चलती रही...कुछ लोग, थोड़ी लाइटिंग...थोड़ा म्यूजिक... ओ तेरे की! ये तो पैरलल सिनेमा हो गया!!

दो दिन में इतने लोगों से मिली कि सर घूम रहा है...कितने लोगों से बात की...कितनों को मस्का लगाया कितनों को बुद्धू बनाया...बहला के फुसला के पुचकार के रिकोर्डिंग के लिए तैयार किया...गज़ब किया! अपनी पीठ ठोके दे रहे हैं. मैं कहाँ डेस्क जॉब में फंसी हूँ...मुझे ऐसे ही काम में मज़ा आता है...किसी रिकोर्डिंग स्टूडियो में होना चाहिए. रुको...एक आध फिल्म बनाते हैं फिर...जैसे कल जोर्ज नेहा के बारे में बोला...कि अब वो किसी भी रिकोर्डिंग स्टूडियो में जाने के लिए रेडी है. वापसी की लॉन्ग ड्राइव थी...अकेले...पसंदीदा म्यूजिक के साथ...बहुत सारा कुछ सोचने का वक़्त मिल गया.
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मैं ये सब क्यूँ लिख रही हूँ...रिकोर्ड के लिए...कल को खुद ही सेंटी होकर सोचते हैं कि खाली डार्क लिखते हैं...तो आज थोड़ी धूप सही. सुबह हुयी...सात-साढ़े सात टाईप...धूप में खड़े हैं...चेहरा गर्म हो रहा है. सोच रहे हैं. जिंदगी बड़ी खूबसूरत है. 

18 November, 2012

जिंदगी, तुम्हारे जवाबों के लिए मेरे पास सवाल नहीं हैं

मैंने उसे बचाए रखा है जैसे सिगरेट के आखिरी कश में बचा रह जाता है थोड़ा सा तुम्हारे होठों का स्वाद...हाँ...मैंने बचा रखी है अब भी अपने अन्दर थोड़ी सी वो लड़की जिससे तुम्हें प्यार हुआ था. कि अब याद नहीं आखिरी बार कब चलाई थी बाईक...कितने दिनों से टूटी हुयी है पेट्रोल की टंकी...ठीक नहीं कराती हूँ...सर्विस स्टेशन नहीं भेजती हूँ...मगर आज भी चाबियों के गुच्छे में मौजूद है घर की और चाबियों के साथ ही बाईक की चाबी भी...
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एक एक करके इस घर में मेरी कितनी सारी कलमें खो गयीं...अब बस एक बची है...पर्पल कलर की...कितना सोचती हूँ पर फिर कहाँ खरीदती हूँ नयी कलम...सियाही की बोतलें भी तो आधी हो गयीं हैं अब. कितनी सारी कोपियाँ खरीद रखी हैं पर कहाँ लिख पाती हूँ तुम्हें एक पन्ने की चिट्ठी भी. गहरे हरे रंग से लिख रही हूँ आजकल...तुम्हें याद है वो ग़ालिब का शेर...हम बियाबां में हैं और घर में बहार आई है. कितना कुछ है तुमसे कहने को पर अब शब्दों में विश्वास नहीं होता और तुम मेरी खामोशियाँ नहीं समझते.
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देर रात वायलिन के तारों से नस काटने की कोशिश की थी...ख़ामोशी की झील पर...झिलमिल कुछ टुकड़े...इतने खूबसूरत कि मरने नहीं देते. आज चाँद भी बेहद तीखा और धारदार था, हंसुली की तरह...चांदनी में कोई गीत गाते हुए कटिया से धान की फसल काटती औरतें याद आयीं. यूँ याद नहीं आ सकती, मैंने कभी औरतों को धान काटते नहीं देखा है.
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मैं पैरानोइड हो गयी हूँ...आज फिर कुछ लोगों को देखा...
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बंगलौर की कुछ बेहद ठंढी शामें हैं. सिगरेट पीने का मन करता है...पीती नहीं हूँ कि ऐसे ही शौक़ से एक कश दो कश मारते हुए आदत लग जायेगी. मेरे पास एक हल्दी के रंग की शॉल है...जैसे दिल्ली में तुमने खो दी थी न, वैसी ही...आज देर रात सड़क पर सन्नाटा और कोहरा पसरा हुआ था. बहुत मन हुआ कि स्लीवलेस कोई टॉप पहन कर, बाएँ कंधे पर शॉल डाल कर थोडा सड़क पर टहल लूं...साइकिल चलाते हुए देखा कि सारे सूखे पत्तों को एक जगह इकठ्ठा कर दिया गया है...शायद सुबह इनमें आग लगाई जायेगी. आज से पहले ध्यान नहीं गया था कि पतझड़ आ गया है. मन के मौसम से वसंत को गए तो जैसे कितने महीने बीत गए. हर बार सोचती हूँ और बर्फ जमने नहीं देती...विस्की अकेले पीने का मन था आज.
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आप जैसे हो वैसे खुद को एक्सेप्ट कर लो या जैसा होना चाहते हो वैसे खुद को बदल लो...इनमें से कुछ नहीं हो सकता है तो कागज़ उठाओ...पागलों/लेखकों/कवियों की दुनिया में स्वागत है.
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शराब बहुत बुरी चीज़ है ऐसा सब कहते हैं...मैंने बहुत ज्यादा लोगों को कुछ पीते हुए देखा नहीं है...जो थोड़े लोगों को देखा है वैसे में देखा है कि पीने के बाद लोग बेहतर इंसान हो जाते हैं...दिल में जो है कह पाते हैं...प्यार है तो जता पाते हैं...अक्सर देखा है पहला काम कि लोगों को बताना कि वो कितने इम्पोर्टेन्ट हैं लाइफ में.
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लैपटॉप क्रैश करने से दो मेजर दिक्कतें हैं...आईफोन पर अपनी पसंद के नए गाने नहीं डाल सकती और फोटो नहीं देख सकती...कोई बैक-अप नहीं था तो सब कुछ याद करना होता है. ऐसे में अक्सर याद कुछ और करने चलती हूँ याद कुछ और आ जाता है.
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जनवरी की वो रात याद आ रही है...जयपुर में यही रात के कोई ढाई बज रहे थे...हम अपने होटल से निकल कर...निशांत के सौजन्य से किसी नेता की गाड़ी में अपने होटल जा रहे थे...गलत रास्ता था...सो कुछ दूर पैदल चलना था...हील्स में चलने में दिक्कत थी...मैंने बूट्स उतार दिए थे. ठंढ के दिन थे...सड़क पर नंगे पाँव चल रही थी. पूरी पलटन...आगे आगे मैं और डेल्टा...रास्ता खोजने के लिए...और पीछे कुणाल और पौन्डी...डेल्टा को चिढ़ाते हुए टर्रर्र टर्रर्र करते हुए. थोड़े से टिप्सी...बहुत सारे खुश...आज सब लखनऊ में मुझे मिस कर रहे हैं...मैं यहाँ उन्हें मिस कर रही हूँ.
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जिंदगी के साथ लव-हेट रिलेशनशिप है...

थे बहुत बे-दर्द लमहे खत्मे-दर्दे-इश्क़ के
थी बहुत बे-महर सुबहें मेहरबां रातों के बाद
-फैज़
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'और बता, कैसी है?'
'ठीक हूँ'
'अच्छा, तो अब झूठ बोलना भी सीख लिया'
(@#$%%^^&*((&^%)
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कहानी वाली लड़की का क्या हुआ? 
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b.r.e.a.t.h.e

29 October, 2012

अधीरमना...

Temples are temporary suspensions from the insanity of the world. Our refuge from the mad mad rush of life.
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मन कहता है कि शांति अगर यहाँ भी नहीं तो कहाँ...ज्वारभाटा के भी आने का नियत वक़्त होता है...चाँद के मूड के हिसाब से समंदर में लहरें नहीं उठतीं...वहां भी डिसिप्लिन है. समंदर किनारे टाइड के आने का वक़्त बड़ा खतरनाक और सम्मोहक होता है. समंदर बहुत तेजी से उठता है, जैसे कि कहीं रुकना ही नहीं हो...लहरें जैसे चन्द्रमा को लील जाने के लिए ऊंची होती जाती हैं. अभी तो किनारे पर बैठे थे...खेल रहे थे और पल में डुबा देने को तैयार हो जाती हैं लहरें. समंदर की तुलना इसलिए मन से की जाती है. मैंने भी ऐसा ही कुछ सोच के अपने ब्लॉग का नाम लहरें रखा था कि मन में हमेशा कोई न कोई ख्याल उठता ही रहता है.

मेरी नैचुरल स्टेट...केओटिक है...मैं स्थिरमना नहीं रहती. सफ़र में रहती हूँ तो कमसे कम कुछ देर चैन रहता है. नवम्बर आने को है...साल का ये समय मैं अक्सर सबसे ज्यादा लिखती हूँ...परेशान रहती हूँ...और साल के इसी वक़्त अक्सर कुछ नया मिलता है...कुछ अद्भुत जो पहले कभी नहीं देखा.

विजयादशमी सफ़र की शुरुआत के लिए अच्छा दिन होता है...उस दिन निकलने से सफ़र अच्छा रहता है. सदियों पहले बने गए नियमों के पीछे कुछ तो कारण होगा ही. इस विजयादशमी को हम रामेश्वरम और मदुरै के लिए सफ़र में चले थे. इनोवा में पीछे की सीट काफी स्पेशियस रहती है और रास्ते में गाना सुनते, हल्ला करते और फोटो खींचते जाया जा सकता है. आसमान मेरी पसंद के शेड का नीला था और बादल मेरी पसंद के शेड के वाईट. साउथ की सड़कें काफी अच्छी हैं, बंगलोर से मदुरै लगभग आठ लेन की सडकें थीं और ट्रैफिक भी कम था.

हर कुछ दिन की नौटंकी हो जाती है कि अब नहीं लिखूंगी...अब कुछ भी नहीं लिखूंगी...मगर फिर कुछ ऐसा हो जाता है कि लिखे बिना रहा नहीं जाता...अंग्रेजी में कहें तो I am cursed to write....लिखने के लिए अभिशप्त हूँ. हर कुछ बदलते रहता है...मौसम बदलते हैं, खिड़की पर के नज़ारे बदलते हैं, दिन से शाम...शाम से रात...फिर ये मन की स्थिति हमेशा केओटिक क्यूँ रहती है ये भी तो कभी मूड बदल कर शांत हो जाए. कि चलो...लेट्स टेक अ ब्रेक...आज कुछ नहीं सोचेंगे...सिंगल ट्रैक पर चलेंगे...ऑफिस में हैं तो ऑफिस का काम करेंगे...घर में हैं तो खाना क्या बनाना है इस बारे में सोचेंगे. सारे लोग तो ऐसे परेशान नहीं होते. चैन से रहते हैं...ये बेचैनी मुझे ही क्यों. पिछले साल से कुछ ज्यादा ही आती हैं मन में सुनामी लहरें...उनके जाने के बाद उजाड़ जमीन पर जाने क्या क्या बाकी रह जाता है.

कितने कितने सारे सवाल हैं...जवाब एक का भी नहीं. लोग कैसे गुज़ार लेते हैं जिंदगी बिना ये सोचे हुए कि इस जिंदगी का करना क्या है. ऑफिस है...बहुत अच्छा है...काम भी इंट्रेस्टिंग है मगर कुछ ऐसा नहीं कि सुबह उठ के इस बात पर खुश हुआ जाए कि आज ऑफिस जाना है. वो क्या है जो मुझे खींचता है? आखिर क्या चीज़ रोकती है मुझे...मेरे सारे डर मेरे अन्दर के ही तो हैं. मैं जो दुनिया रचती हूँ उसके किरदार स्याह होते हैं...डर लगता है कि मेरे लिखने भर से वो जिन्दा न हो जाएँ. उस एंटी-हीरो को लिखते हुए वो मेरे अन्दर पनाह पाने लगता है...जैसे ग्रहण लगता है वैसे ही उसके मन का कालापन मेरी आँखों के आगे अँधेरा करने लगता है. मेरे लिखने से चीज़ें होने लगती हैं.

मंदिर एनेर्जी के श्रोत होते हैं. वहां जाने पर कुछ देर के लिए लगता है जैसे दुनिया ठहर गयी है. बहुत सालों से लगातार होते हुए मंत्रोच्चार से वहां के पत्थर भी द्वारपाल जैसे हो गए हैं और विचारों पर बाँध बना देते हैं...लगता है कि मन थमा है. कि शिवलिंग को देखने की इच्छा इतनी सान्द्र है कि कुछ और सोच नहीं सकती. वहां सब शांत होता है. मगर वहां भी ये मालूम होता है कि ये थामना थोड़ी देर का है...बाहर जाते ही पहले से ज्यादा कोलाहल होगा. मुझे लगता है कि अगर यहाँ भी नहीं तो फिर कहाँ. मैं क्या लिख दूं कि ये उफान थम जाए...कि ये ज्वारभाटा उतर जाये.

थोड़ा और फोकस...थोड़ा और...वो जो कागज़ है न...उसपर...वो जो सियाही है न...उसपर. लिखना और जीना अलग नहीं हैं...जैसे मैं और केओस अलग नहीं हैं. मैं केओटिक नहीं हूँ...मैं केओस हूँ. मूर्त रूप...अधीरमना...

बहुत कम आवाजें मुझे बाँध पाती हैं...अनजान रास्तों कहीं दूर से आवाज़ आती है...बचपन की निश्चिन्तता वाले दिनों जैसी...इस गीत में एक अनुरोध का स्वर है...एक याचना का...एक प्रार्थना का...लंगर डालने पर भी जहाज लहरों के साथ थोड़ा थोड़ा डोलता रहता है...बस वैसे...ठहरती हूँ...जरा सी...बस जरा सी...

केशव...नित कल्कि शरीरं...जय जगदीश हरे...

18 October, 2012

जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.

कैल्सब्लैंका...ओ कैसब्लैंका...कहाँ तलाशूँ तुम्हें. ओ ठहरे हुए शहर...ठहरे हुए समय...तुम्हें तलाशने को दुनिया के कितने रास्ते छान मारे...कितने देशों में घूम आई. कहीं नहीं मिलता वो ठहरा हुआ शहर. मैं ही कहाँ मिलती हूँ खुद को आजकल. कितने दिनों से बिना सोचे नहीं लिखा है...पहले खून में शब्द बहते थे...अब जैसे धमनियों में रक्त का बहाव बाधित हो रहा है और थक्का बन गया है शब्दों का. कहीं उनका अर्थ समझ नहीं आता. कभी कभी हालत इतनी खराब हो जाती है कि चीखने का मन करने लगता है...मैं कोई टाइम बम हो गयी हूँ आजकल. कोई बता दे कि कितनी देर का टाइमर सेट किया गया है.

क्या आसान होता है धमनियां काट कर मर जाना? खून का रंग क्या होता है? कभी कभी लगता है नस काटूँगी तो नीला सा कोई द्रव बाहर आएगा. ऐसा लगता है कि खून की जगह विस्की है धमनियों में...नसों में...आँखों में...कितनी जलन है...ये मृत कोशिकाएं हैं. आरबीसी कमबख्त कर क्या रहा है मुझे इन बाहरी संक्रमणों से बचाता क्यूँ नहीं...कैसे कैसे विषाणु हैं...मैं कोई वायरस इन्क्युबेटर बन गयी हूँ. 

मैं पागल होती जा रही हूँ. पागल दो तरह के होते हैं...एक चीखने चिल्लाने और सामान तोड़ने वाले...एक चुप रह कर दुनिया को नकार देने वाले...मुझे लगता है मैं दूसरी तरह की होती जा रही हूँ. ये कैसी दुनिया मेरे अन्दर पनाह पा रही है कि सब कुछ धीमा होता जा रहा है...सिजोफ्रेनिक...बाईपोलर...सनसाइन जेमिनी. खुद के लिए अबूझ होती जा रही हूँ, सवाल पूछते पूछते जुबान थकती जा रही है. वो ठीक कहता था...मैं मासोकिस्ट ही हूँ शायद. सारी आफत ये है कि खुद को खुद से ही सुलझाना पड़ता है. इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. उसपर मैं तो और भी जिद्दी की बला हूँ. नोर्मल सा डेंटिस्ट के पास भी जाना होता है तो बहादुर बन कर अकेली जाती हूँ. एकला चलो रे...

क्या करूं...क्या करूँ...दिन भर राग बजते रहता है दिमाग में...उसपर गाने सुनती हूँ सारे साइकडेलिक... तसवीरें देखती हूँ जिनमें रंगों का विस्फोट होता है...सपनों में भी रंग आते हैं चमकदार.. .सुनहले...गहरे गुलाबी, नीले, हरे...बैगनी...नारंगी. कैसी दुनिया है. दुनिया में हर चीज़ नयी क्यूँ लगती है...जैसे जिंदगी बैक्वार्ड्स जी रही हूँ. बारिश होती है तो भीगे गुलमोहर के पत्तों से छिटकती लैम्पपोस्ट की रौशनी होती है तो साइकिल से उतर कर फोटो खींचने लगती हूँ...जैसे कि आज के पहले कभी बारिश में भीगे गुलमोहर के पत्ते देखे नहीं हों. अभी तीन चार दिन पहले बैंगलोर में हल्का कोहरा सा पड़ने लगा था. या कि मैंने लेंस बहुत देर तक पहन रखे होंगे. ठीक ठीक याद नहीं. 

आग में धिपे हुए प्रकार की नोक से स्किन का एक टुकड़ा जलाने के ख्वाब आते हैं...बाढ़ में डूब जाने के ख्याल आते हैं. कलम में इंक ज्यादा भर देती हूँ तो लगता है लाइफ फ़ोर्स बहने लगी है कलम से बाहर. ये कैसी जिजीविषा है...कैसी एनेर्जी है...डार्क फ़ोर्स है कोई मेरे अन्दर. खुद को समेटती हूँ. शब्दों से एक सुरक्षा कवच बनाती हूँ. कोई  मन्त्र बुदबुदाती हूँ...सांस लेती हूँ...गहरे...अन्दर...बाहर...होटों पर कविता कर रहा है अल्ट्रा माइल्ड्स का धुआं...जुबान पर आइस में घुलती है सिंगल माल्ट...जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.


17 October, 2012

...and the world comes crashing down

इधर कुछ दिन पहले मेरा लैपटॉप क्रैश कर गया...कोई खबर नहीं...कोई अंदेशा नहीं...कोई भनक नहीं...बस ऐसे ही चलते फिरते...अचानक से क्रैश. ऑफिस की सारी फाइल्स उसमें हैं...पिछले तीन महीने का सारा काम वहीं है...अभी परफोर्मेंस रिव्यू का टाइम है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

दूसरी तकलीफ है कि मैंने फोटोग्राफ्स के बैकअप नहीं लिए थे. हर बार ऐसा होता है कि जब मैं अपने फोटोग्राफ्स मेमोरी कार्ड से लैपटॉप पर ट्रांसफर करती हूँ तो साथ ही हार्ड डिस्क में भी सेव कर लेती हूँ. पुरानी आदत है. इस बार के यूरोप ट्रिप पर हार्ड डिस्क लेकर गयी नहीं थी तो सारे फोटो सिर्फ लैपटॉप में थे. डीएसएलआर मेमोरी भी ज्यादा खाता है उसपर पहली बार अच्छा कैमरा लेकर गयी थी तो बहुत सी फोटो भी खींची थी. छुट्टी से वापस आते ही सीधे ऑफिस...और ऑफिस से फुर्सत मिली नहीं कभी बैकअप करने की. लैपटॉप क्रैश भी कर सकता है ऐसा सोचा ही नहीं था कभी. कुछ स्लो हो गया हो...पुराना हो गया हो या ऐसी कोई और तकलीफ हो तो फिर भी समझ में आता है...चलते फिरते क्रैश. इंसानों की तरह अनप्रेडिक्टेबल हो गए हैं आजकल डिजिटल उपकरण भी.

लैपटॉप की आदत हो गई थी. इधर एक साल में कितना तो म्यूजिक इकठ्ठा किया था. कुछ यूट्यूब से डाउनलोड किया कुछ इधर उधर की सीडीज से कॉपी किया. अभी आई-फोन में सारा म्यूजिक पड़ा है लेकिन जैसे ही उसे किसी लैपटॉप से कनेक्ट करूंगी सारा म्यूजिक इरेज हो जाएगा. एप्पल की ये बंद/क्लोज्ड प्रणाली मुझे नहीं पसंद है...अभी कितना आसान होता अगर बाकी फोन्स की तरह आईफोन भी एक युएसबी ड्राईव की तरह काम करता...मैं सारी म्यूजिक फाइल्स किसी और लैपटॉप पर कॉपी कर सकती थी.

ऑफिस का आधा काम गूगल ड्राइव पर बैकअप में डाल रखा है लेकिन पर्सनल फाइल्स कहीं भी बैकअप नहीं की हैं. लगता है इसी को डिवाइन सिग्नल की तरह लेना चाहिए कि कुछ डेटा हमेशा क्लाउड में बैक अप करके रखना चाहिए. मुझे क्लाउड कभी पसंद नहीं आया...ऑनलाइन जितना कम हो सके चीज़ें डालती हूँ...पहले तो पिकासा पर फोटोज अपलोड कर देती थी मगर अब उसकी भी जरूरत नहीं महसूस होती. ऑफिस से दूसरा लैपटॉप अलोट हो गया है. नया डेल वोस्त्रो. इसका वजन काफी कम है तो ऑफिस से घर इसे लेकर आने जाने में भी तकलीफ नहीं होती है. जब पुराने लैपटॉप का बैकअप आ जाएगा तो ऑफिस की फाइल्स गूगल ड्राइव में शिफ्ट कर दूँगी और रोज रोज ऑफिस लैपटॉप ले कर नहीं जाउंगी. घर का लैपटॉप अलग...ऑफिस का अलग.

आज जितनी फाइल्स रिकवर हो सकती हैं...होकर आ जायेंगी. वायो मैंने काफी तमीज से इस्तेमाल किया था. सारी फाइल्स अच्छे से आर्डर में सेव की थीं. जाने कितना कुछ वापस आएगा कितना कुछ बिट्स और बाइट्स की मेट्रिक्स में हमेशा के लिए खो जाएगा. मुझे कभी लिखे हुए के जाने का अफ़सोस नहीं होता. उसमें बहुत सारे वर्ड ड्राफ्ट्स थे, आधी कहानियां. दो आधी कहानियां मिल कर एक पूरी कहानी नहीं बनाती...दो आधी कहानियां ही रहती हैं. अपने लैपटॉप को काफी मिस कर रही हूँ. मेरी म्यूजिक फाइल्स...मेरी पसंद की फिल्में...तसवीरें.

लिखने का काम इधर कुछ दिनों से कॉपी पर डाल रखा है फिर से. आजकल ग्रीन इंक में थोड़ा ब्लैक  मिक्स करके लिख रही हूँ. दो रंग के इंक्स से लिखने में बहुत अच्छा लगता है. पन्ने भरते जा रहे हैं. ऑफिस में एक आध लोगों ने कभी कभार मांग कर मेरे पेन से लिखा है...पेन बहुत अच्छा है. नेहा गोवा गयी थी तो वहां से मेरे लिए एक बेहतरीन नोटबुक लायी थी...डायरी ऑफ अ डायरी...बहुत अलग तरह के पन्ने हैं उसमें और ज्यादा जीएसएम पेपर है तो फाउन्टेन पेन से लिखा हुआ दूसरी ओर नहीं दीखता. आइवरी पन्ने पर किसी भी रंग की इंक अच्छी लगती है. ऑफिस में टीम के अधिकतर लोग अपनी पेन को लेकर सेंटी हैं. मेरा और जोर्ज का एक ही पेन है...लैमी...हाँ उसका काले रंग का है और मेरे पास सफ़ेद, हरा और पर्पल कलर का है. कल घर की सफाई में कुछ इरेजर मिले...अब सोच रही हूँ थोड़ा सा पेन्सिल से लिखूं...सिर्फ इरेजर से मिटाने के सुख के लिए.

लगता है इस साल में जितना लिखना था आलरेडी लिख चुकी हूँ. अब कुछ खास लिखने का मन नहीं करता. नॉर्मली साल का ये समय ऐसे ही ब्लैंक जाता है...फिर नवम्बर आते आते जैसे जैसे शाखों से पत्ते गिरेंगे और सड़क पर कतार में बिछेंगे मुझे भी कागज़ की पैरलल लाइनें याद आएँगी और लिखने का मन करेगा.

फिलहाल बहुत सा अलग अलग संगीत सुन रही हूँ...कर्टसी तृश. बात कुछ ऐसे होती है...पूजा हैव यू हर्ड दिस सोंग....और सुने बिना जवाब होता है...नो तृश आई हैव हर्ड वैरी फ्यू इंग्लिश सोंग्स...प्ले इट प्लीज. अंग्रेजी संगीत सुनते हुए सोनिया को मिर्ज़ा ग़ालिब सुना रही थी...

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको जबां और 

यूट्यूब के अलावा विमेयो, एटट्रैक्स और ऐसा ही बहुत कुछ और सुन रही हूँ...अपने एक्सपेरिमेंट. विएना में ओपेरा सुनने के बाद कुछ क्लासिक वेस्टर्न म्यूजिक भी सुनना शुरू किया है. शोपें...मोजार्ट...खैर बहुत ज्यादा नहीं सुना है इसलिए नाम नहीं लूंगी. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं. क्लासिक. उनपर लिखने का मन नहीं कर रहा...जैसे मन के तल में वो कहीं सिंक हो रही हैं तो मैं उनको वक़्त दे रही हूँ.

कभी कभी बहुत शोर होता है...कभी कभी बहुत सन्नाटा. शांति कहीं नहीं है. मन अशांत है. कुछ दिन में पोंडिचेरी जाने का प्लान है. वहां समंदर किनारे बहुत अच्छा लगता है. उम्मीदें हैं. जिंदगी है. आज बस ऐसे ही कुछ लिख जाने का मन किया...खास नहीं.
कहीं किसी पैरलल दुनिया में सब अच्छा होगा. अपनी जगह पर होगा.


12 October, 2012

गुजारिशें...


चलो,
हथेलियों से उगायेंगे बारिशें 
किसी शहर में 
जहाँ होंगी गलियां
खुरदुरी चट्टानों से बनी हुयीं 

सुनो,
चौराहे पर आती है 
अनगिन वाद्ययंत्रों की आवाज़ 
बहती हवा के साथ बह कर 
संतूर की धुन चुनते हैं 
बारिश के बैकड्रॉप में 

देखो,
नदी पर पाल वाली नावों को
नक़्शे में ढूंढो हमारा घर 
गुलाबी हाइलाईटर से मार्क करो 
दिल से दिमाग के रास्ते को
भटक जाती हूँ कितनी बार 

लिखो,
एक ख़त मुझे 
ऐसी भाषा में जो मुझे नहीं आती 
समझाओ एक एक शब्द का अर्थ 
पन्ने पर करना वाटरमार्क 
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर 

रचो,
एक दुनिया 
कि जिसमें मेरी पसंद के सारे लोग हों
ढूंढ के लाओ खोये हुए किस्से 
टहकते ज़ख्म, अधूरी कवितायें
सीले कागज़ और टूटी निब वाले पेन 

जियो 
इस लम्हे को मेरे साथ
कि छोटी है उम्र की रेखा 
ह्रदय रेखा से 
जैसे प्यार होता है बड़ा
जिंदगी और मौत से

06 October, 2012

याद का कोमल- ग

फणीश्वर नाथ रेणु...मारे गए गुलफाम/तीसरी कसम...ठेस
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लड़की की पहले आँखें डबडबाती हैं और फिर फूट फूट कर रो देती है. उसे 'मायका' चाहिए...घर नहीं, ससुराल नहीं, होस्टल नहीं...मायका. आह रे जिंदगी...कलेजा पत्थर कर लो तभियो कोई एक दिन छोटा कहानी पढ़ो और रो दो...कहीं किसी का कोई सवाल का जवाब नहीं. कहीं हाथ पैर पटक पटक के रो दो कि मम्मी चाहिए तो चाहिए तो चाहिए बस. कि हमको देवघर जाना है.

काहे पढ़ी रे...इतना दिन से रक्खा हुआ था न किताब के रैक पर काहे पढ़ी तुम ऊ किताब निकाल के...अब रोने कोई बाहर से थोड़े आएगा...तुम्ही न रोएगी रे लड़की! और रोई काहे कि घी का दाढ़ी खाना है...चूड़ा के साथ. खाली मम्मी को मालूम था कि हमको कौन रंग का अच्छा लगता था...भूरा लेकिन काला होने के जरा पहले कि एकदम कुरकुरा लगना चाहिए और उसमें मम्मी हमेशा देती थी पिसा हुआ चिन्नी...ई नहीं कि बस नोर्मल चिन्नी डाल दिए कि खाने में कचर कचर लगे...पिसा चिन्नी में थोड़ा इलायची और घर का खुशबू वाला चूड़ा...कितना गमकता था. खाने के बाद कितने देर तक हाथ से गंध आते रहता था. चूड़ा...घी और इलायची का. 

काम न धंधा तो भोरे भोरे चन्दन भैय्या से बतिया लिए...इधरे पोस्टिंग हुआ है उनका भी...रेलवे में स्टेसन मास्टर का पोस्ट है...आजकल ट्रेनिंग चल रहा है. अभी चलेगा जनवरी तक...आज कहीं तो हुबली के पास गए हैं, बोल रहे थे कि ट्रेन उन सब दिखा रहा था कि ट्रैक पर कैसे चलता है. भैय्या का हिंदी में अभी हम लोग के हिंदी जैसा दू ठो स्विच नहीं आया है. हिंदी बोलते हैं तो घरे वाला बोलते हैं. हमारा तो हिंदी भी दू ठो है...एक ठो बोलने वाला...एक ठो लिखने वाला...एक ठो ऑफिस वाला एक ठो घर वाला. परफेक्शन कहिन्यो नहीं है. भैय्या से तनिये सा देर बतियाते हैं लेकिन गाँव का बहुत याद आता है. लाल मंजन से मुंह धोना...राख से हाथ मांजना...कुईयाँ से पानी भरना. नीतू दीदी का भी बहुत याद आता है. लगता है कि बहुत दिन हुआ कोई हुमक के गला नहीं लगाया है...कैसी है गे पमिया...ससुराल वाला कैसा है. अच्छा से रखता है न...मेहमान जी कैसे हैं? चाची के हाथ का खाना...पीढ़िया पर बैठना. 

इस्कूली इनारा का कुइय्याँ का पानी से भात बनाना रे...गोहाल वाला कुइय्याँ के पानी मे रंग पीला आ जाता है. आज उसना चौर नै बनेगा, मेहमान आये हैं न...बारा बचका बनेगा...ऐ देखो तो गोहाल में से दू चार ठो बैगन तोड़ के लाओ और देखो बेसी पुआल पे कूदना नै...नै तो कक्कू के मार से कोई नै बचाएगा. साम में पुआ भी बना देंगे...मेहमान जी को अच्छा लगता है. बड़ी दिदिया कितने दिन बाद आएगी घर. जीजाजी को ढेर नखड़ा है...ई नै खायेंगे...ऐसे नै बैठेंगे. खाली सारी सब से बात करने में मन लगता है उनको. 

आंगन ठीक से निपाया है आज...रे बच्चा सब ठीक से जाओ, बेसी कूदो फांदो मत...पिछड़ेगा तो हाथ गोड़ तूत्बे करेगा. राक्षस है ई बच्चा सब...पूरा घर बवाल मचा रखा है...लाओ त रे अमरुद का छड़ी, पढ़ाई लिखाई में मन नै लगता है किसी का. एक ठो रूम है जिसमें एक ठो पुराना बक्सा है...तीन चार ठो बच्चा उसी में मूड़ी घुसाए हुए हैं कि कितना तो पुराना फोटो, कोपी, कलम सब है उसमें. सब से अच्छा है लेकिन ऊ बक्सा का गंध. गाँव का अलमारी में भी वैसा ही गंध आता है. वैसा गंध हमको फिर कहीं नै मिला...पते नै चलता है कि ऊ कौन चीज़ का गंध है. 

गाँव नै छूटता है जी...केतना जी कड़ा करके सहर में बस जाइए...गाँव नै छूटता है...नैहर नै छूटता है. मम्मी से बात किये कितना साल हुआ...दिदिमा से भी बाते नै हो पाता है. चाची...बड़ी मम्मी...सोनी दीदी, रानी दीदी, बोबी दीदी, बड़ी दिदिया, बडो दादा, भाभी, दीपक भैय्या, छूटू दादा, बबलू दादा, गुड्डी दीदी, जीजू, तन्नू, छोटी, अजनास...बिभु भैय्या...कितने तो लोग थे...कितने सारे...पमिया रे पम्मी रे पम्मी. 

देवघर...मम्मी जैसा शहर...जहाँ सांस लेकर भी लगता था कि चैन और सुकून आ गया है. कहाँ आ गए रे बाबा...केतना दूर...मम्मी से मिलने में एक पूरी जिंदगी बची है. अगले साल तीस के हो जायेंगे. सोचते हैं कि पचास साल से ज्यादा नहीं जियेंगे किसी हाल में. वैसे में लगता है...बीस साल है...कोई तरह करके कट जाएगा. कलेजा कलपता है मैका जाने के लिए. कि मम्मी ढेर सारा साड़ी जोग के रखी है...कि मम्मी वापस आते टाइम हाथ में पैसा थमा रही है...मुट्ठी बाँध के. के दशहरा आ रहा है दुर्गा माँ के घर आने का...और फिर नवमी में वापस  जाने का...कि कोई भी हमेशा के लिए थोड़े रहता है. कि खुश रहना एक आदत सी होती है. कि नहीं कहने से ऐसा थोड़े होता है मम्मी कि तुमको भूल जाएँ हम. काश कि भूल पाते. 

मिस यू माँ...मिस यू वैरी वैरी मच. 

03 October, 2012

चुप का शोर...


When I look at my shadow
I often wonder
Amongst us,
which one is darker?


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ग्रे...उजले रंग में थोड़ा सा भी काला रंग मिलाने से ग्रे बन जाता है मगर काले रंग को थोड़ा सा भी हल्का करने के लिए उसमें बहुत सारा सफ़ेद रंग मिलाना पड़ता है. किरदार भी ऐसे ही होते हैं. थोड़ा सी सियाही और हीरो एंटी-हीरो में तब्दील हो जाता है मगर विलेन को थोड़ा सा भी अच्छा बनने के लिए अपनी पूरी जीवन शैली ही बदलनी पड़ती है.

कहानी का श्याम पक्ष लिखना मुश्किल है...इसलिए नहीं कि ऐसे किरदार रचने मुश्किल हैं बल्कि अपने अंदर के अँधेरे का डर इतना ज्यादा है कि सूरज पर ग्रहण लग सकता है. लंबे समय तक कोई किरदार साथ रह जाए तो सच और कहानी के बीच का फासला मिटने लगता है. कहानी सिर्फ अच्छे लोगों की नहीं होती। वो तो कहानी का सिर्फ एक हिस्सा होता है...प्रतिनायक, कहानी को उसके नज़रिए से भी देखना होता है. लंबी कहानी लिखना खुदके साथ शतरंज खेलने जैसा है. जब आप पाले बदल कर दुश्मन के खेमे से खेलते हो तब आप खुद के दुश्मन हो जाते हो...तब कई बार ये भी लगता है कि काले सफ़ेद प्यादे कुछ नहीं...जीतने की रणनीति एक जैसी ही होती है. खून उतने ही करने होते हैं...चालें वैसी ही खतरनाक चलनी होती हैं।
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आजकल लाल फूलों के खिलने का मौसम है। मुझे उनका नाम नहीं पता। सड़क के दोनों ओर सूखे हुए पत्तों और धूल के साथ लाल-नारंगी-धूसर फूल भी दिखते हैं। मैं मुराकामी की एक किताब पढ़ रही थी. IQ84. सच और सपने की बारीक रेखा के इस पार उस पार डांस करती हुयी कहानी है. रात को जब साइकिल चलाने निकलती हूँ दुनिया स्लो मोशन में चलने लगती है. पैदल चलते हुए भी ऐसा कभी नहीं लगा था. फेंस-सिटर्स. ऐसे लोग जो निर्णय नहीं ले सकते. आर या पार की बात आती है तो उस फेंस/बाउंडरी/चारदीवारी पर ही घर बना लेते हैं. मैं जब साइकिल पर होती हूँ तो ऐसा लगता है कि मेरी दुनिया और मेरी कहानियों के बीच एक दीवार बनती जा रही है...बहुत लंबी और ऊंची...चीन की दीवार की तरह और मैं कहीं जाना नहीं चाहती...उसी दीवार पर घंटों रहना चाहती हूँ.
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'काला रे सैय्याँ काला रे...काली जबां की काली गारी...काले दिन की काली शामें...'
-गैंग्स ऑफ वासीपुर के गीत से

प्रतिनायक के बारे में लिखते हुए उसके नज़रिए से दुनिया देखती हूँ...लगता है सब सही तो है. वहाँ फिर खून भी माफ होता है, गालियाँ माफ होती हैं, प्यार न कर पाने की क्षमता, विध्वंस करने की उसकी प्रवित्ति...सब सही है क्यूंकि उसकी दुनिया में वो नायक है...प्रतिनायक नहीं...उसके नियमों से वो सही है. नीत्ज़े की कही एक पंक्ति है 'He who fights with monsters might take care lest he thereby become a monster.' अक्षरशः अनुवाद ये होगा कि 'जो दानव से लड़ता है उसे इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वो खुद ही दानव न बन जाए'. प्रतिनायक को लिखते हुए एक दूरी बना के रखनी पड़ती है. कहानी में सबसे महत्वपूर्ण रोल उसका ही होता है. सबसे जरूरी होता है कंट्रास्ट बनाना...जितनी तेज रौशनी होती है, परछाई उतनी ही काली होती है...फीकी रौशनी की परछाई फीकी ही होती है.
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Our deepest fear is not that we are inadequate. Our deepest fear is that we are powerful beyond measure. It is our light, not our darkness that most frightens us.
(Not sure about the sources)
हमें डर अपने अंधेरों से नहीं...अपने उजालों से लगता है...हम अपनी कमजोरियों से नहीं...अपनी अकूत क्षमताओं से डरते हैं. 
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मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं खामोश जहाँ हूँ मुझे वहाँ से पढ़ो 
-निदा फाजली 

इधर कुछ बहुत अलग अलग चीज़ें पढ़ी...विन्सेंट वैन गोग की जीवनी...लस्ट फॉर लाइफ...एक कलाकार के जीवन की छटपटाहट का सबसे बेहतरीन उदहारण मिला है मुझे. किसी से डिस्कस कर रही थी तो उसने कहा कि लस्ट फॉर लाइफ बहुत डार्क है...उदास कर देने वाला. मैंने मुस्कुरा कर कहा...मुझे पता है...मैं भी कुछ कुछ वैसी ही हूँ. मुझे भी सियाह और उदास कर देने वाली चीज़ें पसंद हैं. 

कितना ज्यादा विरोधाभास है जीवन में...मैं जितना बोलती हूँ उतना ही चुप रहती जाती हूँ. बहुत गहरा कुआँ होता है मन...सीली सीढ़ियाँ...अँधेरा...कितनी ही बार उतरती हूँ...कितना भी नीचे उतरती हूँ काई लगी दीवारें उतनी ही डरावनी लगती हैं. जैसे काला गाढ़ा पानी रिस रिस कर भर रहा है. मन की तलछट पर से ऊपर देखती हूँ...किसी बहुत गहरे पथार के कुएं की तरह ऊपर एक गोल खिड़की दिखती है जिससे दिन में भी तारे नज़र आते हैं. आसमान काला होता है...बीच सावन बरसते परदेस में भिगाने वाला काला. 

कोई सवालों का झग्गड़ झुलाता है नीचे...अनगिन प्रश्चिन्हों के हुक...पानी में जवाबी बाल्टियाँ गिरी हुयी हैं. कुएं में लोहे के टकराने की आवाजें होती हैं और गोल दीवारों से टकराती हुयी अजीब धुन पैदा होती है...दिल की धड़कन के जैसी...अनियमित. 
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Interrobang=?! or ?!

शब्दों/संकेतों की दुनिया लाजवाब है. कुछ कुछ चीज़ें पढ़ते हुए पहली बार इन्टेरोबैंग से सामना हुआ था. इंटेरोगेशन मार्क और क्वेस्चन मार्क को मिला कर बना ये चिन्ह बहुत से फोंट्स में पाया जाता है. ये ऐसी मानसिक अवस्था को दर्शाता है जब आप चकित हैं और मन में अनेकों सवाल भी हैं. बहुत दिन बाद मैंने अपना फैवआइकन बदला है. मज़े की बात ये है कि ये चिन्ह अंग्रेजी के P अक्षर जैसा लगता है...तो ब्लॉग के लिए परफेक्ट है. 
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पहेली जिंदगी नहीं होती...हम हो जाते हैं. खुद से मिलते रहना जरूरी है. थोड़ा भाषण देना जरूरी है. बहुत दिन बाद लिखो तो बेहद फालतू चीज़ें लिखती हूँ...मगर बहुत दिन पहले एक दोस्त को कहा था...लिखने से मोह करना...लिखे हुए से नहीं. तो लिखने की आदत को बरकरार रखने के लिए इतना सारा कुछ.
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आँख से सुबुक गिर पड़ता है पांचवां आँसू...पगली नमक से मर जायेंगे चिरामिरा के पौधे. घबराती हूँ, आँचल बारिश में तानती हूँ आसमान पर. रोकती हूँ गाँव पर आने वाले फ्लैश फ्लड को...डूब जाती हूँ...कोई जाल में छांक लेता है लाश को.

कांच का गुलदान उठा कर सामने फेंका है दीवार पर...किरिच किरिच चेहरा गिरा है फर्श पर.

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