03 November, 2024

Be my love in the rain

सुबह-सुबह एक चिट्ठी लिखने को मन अकुलाया हुआ उठा है। लेकिन ये बेवक़ूफ़ाना सवाल किससे पूछें। कि हम अपना टूटा हुआ मन लेकर जायें कहाँ! 

बारिश सोचती हूँ। हम सब बारिश के मौसम में अलग बर्ताव करते हैं। बारिश के प्यार करने वाले कई क़िस्म के लोग होते हैं। कुछ लोग बारिश आते ही घर के भीतर भाग जाते हैं कि भीग न जायें। कुछ लोग दुकानों के आगे छज्जों के नीचे खड़े हो जाते हैं। बाइक वाले लोग पुल-पुलिया के नीचे भी बारिश के थम जाने का इंतज़ार करते हैं। हम जिस जलवायु के होते हैं, वह हमारा कुदरती बर्ताव निर्धारित करती है। हमारे तरफ़ बारिश ऐसे अचानक कभी भी नहीं बरसती थी…उसके आने का नियत मौसम होता था। जेठ की कड़कड़ाती गर्मी के बाद आती थी बारिश। ज़मीन से एक ग़ज़ब की गंध फूटती थी। बारिश होते ही हम हमेशा दौड़ कर बाहर आ जाते। यहाँ वहाँ ज़मीन पर बने गड्ढों में कूदते। छत से गिर कर आ रही पानी की धार में झरने जैसा नहाने का मज़ा आता। मगर यह बचपन की बात थी।

पता नहीं हम कब बड़े हो गये और बारिश हमसे छूट गई। हम पटना में रहते थे। यहाँ कुछ चीज़ें एकदम बाइनरी थीं…लड़कों के लिए और लड़कियों के लिए दुनिया एकदम अलग थी। उस समय थोड़ी कम महसूस होती थी, अब थोड़ी ज़्यादा महसूस होती है। लड़कपन में बहुत कुछ बदला…जैसे बारिश हमारे लिए सपने की चीज़ हो गई। सपने में भी हम बारिश से बचते-बचाते चलते थे। हम सालों भर अपने कॉलेज बैग में छाता लेकर जाते थे कि बेमौसम बारिश में भीग न जायें। उस दिन में तीन तरह के अचरज थे। पहला कि हम छाता ले जाना भूल गए। दूसरा कि उस रोज़ बारिश हो गई - बे-मौसम। और तीसरा कि उस रोज़ हमको सरप्राइज देने मेरा बॉयफ्रेंड अचानक शहर आया हुआ था और हम उससे मिल रहे थे।

वो मेरा पहला बॉयफ्रेंड था। उन दिनों बॉयफ्रेंड ही कहने का चलन था। पटना के जिस मुहल्ले में हम रहते थे वहाँ बहुत से गुलमोहर के पेड़ थे। उस रोज़ मैंने आसमानी रंग का जॉर्जेट का सलवार सूट पहना था। हम उस रंग को पानी-रंग भी कहते थे। कॉलेज में लंच के बाद के एक्स्ट्रा सब्जेक्ट्स वाले क्लास होते थे और फिर प्रोजेक्ट्स करने होते थे। उस रोज़ मैंने लंच के बाद के क्लास नहीं किए। हमारे कॉलेज के सामने कचहरी थी और उधर बहुत दूर दूर तक सुंदर सड़क थी। कोलतार की काली सड़कें, उनमें गड्ढे नहीं थे। सड़क पर पेड़ थे। भीड़ एकदम नहीं थी। उन दिनों शहर में लोग कम थे और दोपहर को मुख्य सड़कों पर ही लोग दिखते थे, भीतर वाली सड़कें कमोबेश ख़ाली हुआ करती थीं। हम पैदल चलते चलते कई किलोमीटर भटक चुके थे। ऑटो में बैठ कर अपने मुहल्ले के आसपास वाली सड़क पर उतर गये।

उसने मेरा बैग मुझसे ज़बरदस्ती छीन के टांग लिया था। मुझे उसकी ये चीज़ बहुत अच्छी लगी थी। कि बैग भारी था। उसमें कॉलेज की सारी किताबें और नोटबुक थे। तुम थक गई होगी, इतना देर से बैग लेकर चल रही हो, हमको दे दो। इतना ही सरल था। बीस साल पुरानी बात है। लेकिन याद है। केयर और प्यार, बड़ी बड़ी चीज़ों में नहीं होता। और याद, ऐसी ही छोटी चीज़ें रहती हैं, ताउम्र।  वहाँ गुलमोहर के पेड़ थे और सुंदर घर बने हुए थे। हम यूँ ही टहल रहे थे और बतिया रहे थे। पिछले कई घंटों से। मेघ लगे, और एकदम, अचानक बारिश होने लगी। मूसलाधार। मैं बहुत घबरा गई। आसपास न कोई दुकान थी, न कोई छज्जा…वहाँ सिर्फ़ घर थे और सारे घरों के आगे बड़े बड़े दरवाज़े थे। ‘भीग जाएँगे तो मम्मी बहुत डाँटेगी’ का लगातार मंत्र जाप जैसा बड़बड़ाना शुरू किए हम…हमको भीगने का डर जो था सो था, मम्मी की डाँट का उससे बहुत बहुत ज़्यादा डर था। कि हम भीगते हुए घर नहीं पहुँच सकते थे। उसने एक दो बार मेरा नाम लिया लेकिन हम अपने मन के एकालाप में एकदम ही नहीं सुने। आख़िर को उसने मेरे दोनों कंधों को पकड़ कर मुझे झकझोर दिया… “पम्मी! पम्मी! ऊपर देखो!” मैंने ऊपर देखा…ऊपर उसका सुंदर चेहरा था…और आसमान से पानी बरस रहा था…पूरे चेहरे पर बारिश…जैसे पानी बेतरह चूम रहा हो चेहरा…मैंने आँखें बंद की…ऐसा होता है मुहब्बत में भीगना। उस लम्हे मुझे आगत का डर नहीं था। कोई हमेशा का सपना नहीं था। बारिश हमारे इर्द गिर्द भारी पर्दा बन रही थी। कुछ नहीं दिख रहा था। उसने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था। मुझे अब घर भी लौटना था। हमारी हथेली में बारिश थी। हमारी हथेली में फिर भी थोड़ी गर्माहट थी।

गोलंबर आये तो भाई छाता लिए इतंज़ार कर रहा था। कि कहाँ से इतना भीगते आयी हो। तेज़ बारिश और तेज हवा। छाता के बावजूद भीगना तो था ही। इसलिए घर जा कर डाँट नहीं पड़ी। भाई माँ को चुग़ली नहीं किया कि पहले से भीगे हुए आए थे। उस दिन के बाद बारिश होती तो भाग कर आँगन जाते थे, सब कपड़ा अलगनी से उतारते थे। और फिर अगर घर में कोई नहीं होता था तो थोड़ा सा भीग लेते थे। चुपचाप। प्यार को भी दिल में ऐसे ही चोरी-छुपे रहने की इजाज़त थी।

कॉलेज में हम इतने भले स्टूडेंट थे। जब कि उन दिनों बुरा बनना बहुत आसान था। कॉलेज गेट के बाहर चाट-गुपचुप-झालमुरी खाने वाली लड़कियों तक को बुरी लड़कियों का तमग़ा मिल जाता था। उसके लिए क्लास बंक कर के फ़िल्म जाने जैसा गंभीर अपराध करने की ज़रूरत नहीं थी। हमारी अटेंडेंस 100% हुआ करती थी। हम कभी एक क्लास भी नहीं छोड़े, ऐसे में एक दिन भी कॉलेज नहीं आये तो प्रोफेसर को इतनी चिंता हो गई कि घर फ़ोन करने वाली थीं। वो तो भला हो दोस्तों का, कि उन्हें बहला-फुसला दिया वरना हम अच्छे-ख़ासे बीमार होने वाले थे कुछ दिनों के लिए। 

मुहब्बत तो हमेशा से ही आउट-ऑफ़-सिलेबस थी। तो क्या हुआ अगर हम इस पेपर के सबसे अच्छे विद्यार्थी हो सकते थे।

वे लड़के जिनसे हमने १५-२० साल की कच्ची उम्र में मुहब्बत की थी, मुझे अब तक याद क्यों रह गये हैं। मैं यह सब भूल क्यों नहीं जाती? हमारी मुहब्बत में होना तो कुछ था ही नहीं। समोसे के पैसे बचा कर std कॉल करना। कभी-कभार डरते हुए चिट्ठियाँ लिखना। और बाद में ईमेल। याहू मेल ने वो सारी ईमेल डिलीट कर दीं, जिसमें से एक में उसने लिखा था कि तुम मेरी धूप हो…सनशाइन। बादलों वाले जिस शहर में मैं रहती हूँ…धूप के लिए मेरा पागलपन अब भी क़ायम है। मुझे लिखने को ऐसी खिड़की चाहिए जो पूरब की ओर खिलती हो।

मैं याद में इतना पीछे क्यों चलते जा रही हूँ! जब कि सपने में कुछ भी नहीं देखा है। कई रातों से लगातार सोई नहीं हूँ ढंग से। आँखें लाल दिख रही थी आईने में आज। जलन भी हो रही है और थकान भी।

दिल्ली पढ़ने गई तो अगस्त का महीना था। वो शहर में मेरी पहली रात थी। अकेले। मम्मी-पापा स्टेशन जा चुके थे। मैं हॉस्टल में थी। बहुत तेज़ बारिश शुरू हुई। IIMC हॉस्टल से भागते हुए बाहर निकली थी मैं। पीले हैलोजेन लाइट से भीगा हुआ कैंपस था। यहाँ भय नहीं था। मैं भीग रही थी। मैं नाच रही थी। मैं आज़ाद थी। ये मेरा अपना शहर था। मेरी मुहब्बत का शहर। दिल्ली से उस एक रात से हुई मुहब्बत ने मुझे कई साल तक जीने का हौसला दिया है। 

बैंगलोर आयी तो जिस मुहल्ले में रहती थी यहाँ बहुत पुराने पेड़ थे। गुलमोहर। सेमल। सड़कों पर सुंदर घर थे। इस शहर की बारिश मेरी अपनी थी। मैं अक्सर चप्पल घर पर छोड़, बिना फ़ोन लिए, नंगे पाँव बारिश में भीगने चल देती थी। घर से थोड़ी दूर पर पंसारी की दुकान थी, जहाँ से सब्ज़ी-दूध-दही और बाक़ी राशन लिया करती थी। मैं वहाँ भीगते हुए पहुँचती। एक ऑरेंज आइस क्रीम ख़रीदती। हिसाब में लिखवा देती, कि पैसे बाद में दूँगी। बारिश में भीगती, ऑरेंज आइसक्रीम खाती सड़कों पर तब तक टहलती रहती जब तक भीग के पूरा सरगत नहीं हो जाती। घर लौटती और गर्म पानी से नहाती। कॉफ़ी या फिर नींबू की चाय बनाती। अक्सर मैगी भी। फिर चिट्ठियाँ लिखने बैठती, या फिर ब्लॉग पर कोई पोस्ट। ऐसा मैंने उन सारी दुपहरों में किया जब मेरी नौकरी नहीं होती थी। 

2018 में वो गुलमोहरों वाला मुहल्ला मुझसे छूट गया। हम जिस सोसाइटी में आये यहाँ पेड़ नहीं थे। दूर दूर तक खुली सड़कें। बारिश छूट गई। फिर मैंने बारिश को जी भर के तलाशा। घर से कुछ दूर एक झील थी। एक शाम वहाँ बाइक लेकर ठीक पहुँची ही थी कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। मैंने स्पोर्ट शूज़ पहने थे। वे उतार कर डिक्की में रख दिये। पैदल वहाँ झील के किनारे चल दी। कच्ची सड़क में बहुत सा पानी भर गया था। कुछ कंकड़ भी थे। पैरों को कभी-कभी चुभते। झील पर बेतरह बारिश हो रही थी। आसमान और झील सब पानी के पर्दे में एकसार हो रखा था। बारिश रुकने के बाद मैंने चाय की टपरी पर सिगरेट ख़रीदी। एक कप कॉफ़ी पी। बारिश में सिगरेट भीग भीग जा रही थी। तो बार बार जला कर पी। उस एक रोज़ की बारिश ने मुझे कई महीनों तक ज़िंदा रहने का हौसला दिया। 

रॉबर्ट फ्रॉस्ट की एक कविता है, बारिश और तूफ़ान के बारे में...इसकी एक पंक्ति है, "Come over the hills and far with me, and be my love in the rain." बारिश को लेकर मेरे पागलपन को देखते हुए एक दोस्त ने एक बार शेयर की थी, कि तुमको तो बहुत पसंद होगी। मैंने कभी पढ़ी ही नहीं थी। लेकिन पढ़ी, और फिर कितनी अच्छी लगी...कैसी आकुल प्रतीक्षा है इसमें...ऐसा घनघोर रोमांटिसिज्म...बारिश इन दिनों अपने घर की बालकनी से देखती हूँ। इक्कीसवें माले का वह घर बादलों में बना हुआ है। मैं दो तरफ़ की बालकनी खोल देती हूँ और देखती हूँ कि घर के भीतर बादल का एक टुकड़ा चला आया है। मैं बालकनी में खड़ी, भीगते हुए बादलों को देखती हूँ...शहर सामने से ग़ायब हो जाता है...बादलों के पीछे इमारतें लुक-छिप करती रहती हैं। आख़िर को मैं एक कॉफ़ी बना कर अपनी स्टडी टेबल पर बैठती हूँ और लिखने की बजाय सारे समय बादल ही देखती रहती हूँ। 

बच्चे इस महीने पाँच साल के हो जाएँगे। मैंने उनको को बारिश से बचा कर नहीं रखा। उन्हें बारिश से प्यार करना सिखाया। वे बारिश होते ही बाहर भागते हैं। उनके साथ मैं भी। सड़क किनारे पानी में कूदते हुए। लॉन में आसमान की ओर चेहरा उठाए, जीभ बाहर निकाले बारिश को चखते ये मेरे बच्चे ही हैं…पानी में भीगते, लोटते, कूदते…उनके साथ मुझे भी इजाज़त है कि मन भर भीग लूँ। कि मेरे बच्चे, मेरी तरह ही, कभी बारिश में भीग कर बीमार नहीं पड़ेंगे।

***

उसने कहा, उसे मेरे साथ बारिश देखनी है।
मेरे मन के भीतर तब से बारिश मुसलसल हो रही है। मैं नहीं जानती उसका शहर बारिश को कैसे बरतता है। वो ख़ुद बारिश में भीगता है, मुझे मालूम है। मेरी सूती साड़ियाँ बारिश में भीगने को अपना नंबर गिन रही हैं। मैं एक पागल गंध में डूबी हुई हूँ। 

***

A Line-storm Song

  • Share on Facebook
  • Share on Twitter
  • Share on Tumblr
  • View print mode

The line-storm clouds fly tattered and swift,  
  The road is forlorn all day,  
Where a myriad snowy quartz stones lift,  
  And the hoof-prints vanish away.  
The roadside flowers, too wet for the bee,
  Expend their bloom in vain.  
Come over the hills and far with me,  
  And be my love in the rain.  

The birds have less to say for themselves  
  In the wood-world’s torn despair
Than now these numberless years the elves,  
  Although they are no less there:  
All song of the woods is crushed like some  
  Wild, easily shattered rose.  
Come, be my love in the wet woods; come,
  Where the boughs rain when it blows.  

There is the gale to urge behind  
  And bruit our singing down,  
And the shallow waters aflutter with wind  
  From which to gather your gown.     
What matter if we go clear to the west,  
  And come not through dry-shod?  
For wilding brooch shall wet your breast  
  The rain-fresh goldenrod.  

Oh, never this whelming east wind swells    
  But it seems like the sea’s return  
To the ancient lands where it left the shells  
  Before the age of the fern;  
And it seems like the time when after doubt  
  Our love came back amain.       
Oh, come forth into the storm and rout  
  And be my love in the rain.

No comments:

Post a Comment

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...