कर्ण ने बदन से छील कर उतारा था कवच...दान में देने के लिए। कैसे देवता थे वे, जिन्होंने कवच दान में माँग लिया! मैं दिल का कवच ऐसे ही उतार दूँ छील के?
***
आज एक नए कैफ़े में आई हूँ, बहुत सुंदर नाम है इसका। Paper& Pie. आगा शाहिद अली की कविता Stationery की एक पंक्ति है, The world is full of paper, write to me. काग़ज़ से बहुत लगाव है। इतना कि इस दुनिया को इसलिए आग लगाने का मन नहीं करता कि कभी कभी लगता है ये दुनिया काग़ज़ पर लिखी हुई है, शायद। इसे पानी में तैरने वाली नाव बनना है आख़िर को।
पेपर ऐंड पाई।
कुछ दिन पहले ऑफिस के एक पुराने कलीग से मिलना था, तो उसके घर के पास की जगह गए थे। उसने इस कैफे का पता दिया था, कि अच्छी जगह है। हम हड़बड़ में मिले थे। एक घंटा टाइप्स…बोला, अगली बार फुर्सत में मिलेंगे। और हम कहे, कि फुर्सत नहीं मिलेगी कभी…इतना भी मिल लेंगे तो ठीक है। कैफ़े की थीम सफेद थी। कैरमेल कलर का फर्नीचर। शोर नहीं। कम्फर्टेबल। अच्छा लगा।
हर नाम का एक क़िस्सा होता है। हमको इस किस्से से हमेशा मतलब क्यों होता है? इस कैफे के नाम के साथ के लोगो था। जैसे स्टारबक्स का लोगो एक साईरन(siren) है…इन दिनों नई कंपनी के नाम, लोगो वग़ैरह के बारे में सोच रहे, रिसर्च कर रहे। दिमाग़ में यही सब चल रहा था। इंदिरानगर के कैफे में पहली बार आए थे…इसी लोगो का एक फोटो खींच कर दोस्त को भेजा। उसने पूछा ये क्या है? और हमने कहा कि प्रूफ कि लोगो से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कुछ भी रख लो नाम, कैसा भी बना लो लोगो।
आज बहुत साल बाद इंदिरानगर ऐसे इत्मीनान से आए हैं। यहाँ पहली बार घर था…दस साल रही उसी घर में। भयंकर नास्टैल्जिया घेरता है। मैं इस इलाक़े के सभी पेड़ों को पहचानती हूँ। फूलों के मौसम में कहाँ फूल आयेंगे, वो भी। सारी गालियाँ, सारे चौराहे, आसमान का हर टुकड़ा चीन्हा हुआ लगता है। कभी-कभी उस लड़की की याद आने लगती है जो यहाँ अठारह साल पहले आई थी। दिल्ली के अपने सारे प्यारे दोस्तों को छोड़ कर…उस एक लड़के का हाथ थामे जिससे मुहब्बत की थी। चमकीले, रूई के फाहे की तरह हल्के दिन थे…घर में कोई फर्नीचर नहीं था। हम वाक़ई दो बक्से लेकर आए थे। कपड़े और किताबें, बस…और ढेर सारा प्यार। एक नए शहर में नई शुरुआत करने।
जिस घर में रह रही हूँ, एक साल भी नहीं हुआ है। मकान-मालिक ने खाली करने कह दिया है। बात सही है, मकान-मालिक है। जब उसका मन करे, खाली करने को बोल सकता है। लेकिन ऐसे दो बच्चे, सास, एक पति-पत्नी…बड़ा सा परिवार है, बहुत सारा सामान…चार कमरों का घर है। किराया भी बहुत ज़्यादा है। इस घर में 3000sq.ft. के आसपास का अपना लॉन है। बच्चों को बहुत अच्छा लगता था यहाँ से वहाँ दौड़ते रहते थे दिन भर। बड़े शहरों में अपना गार्डन या लॉन होना तो एकदम ही मुश्किल है। इतने सालों में ऐसे खुली ज़मीन वाला कोई घर नहीं देखा कभी। विला के सामने गोल्फ कोर्स है। सुबह सूरज उगता हुआ दिखता था…बच्चे धूप में कुनमुना के उठते थे। गहरे गुलाबी रंग की बोगनविला थी। विंडचाइम नाचती रहती थी, अक्सर। उसकी धुन नींद में झूलती रहती। गार्डन में एक ओर बार बना हुआ है, उसके सामने छोटा सा पौंड है…गोल्फ कोर्स के लिए। लेकिन वहाँ सुबह-सुबह कभी कभी लिखने बैठती थी। धुंध में। ठंढ में। चाँदनी रात में स्टडी टेबल से चांद उगता हुआ दिखता था। कई बार सूरज उगने के टाइम-लैप्स बनाए। ये ऐसा घर था, जिसमें कुछ साल इत्मीनान से रहने का मन था। अपने से ज़्यादा, बच्चों के लिए। ये उनके दौड़ने-भागने-खेलने कूदने के दिन हैं। सभी दोस्तों के बच्चे आते थे तो सबको खूब मन लगता था। पर ठीक इसलिए है, कि जो चीज़ अपनी नहीं, उससे ज़्यादा लगाव क्यों होना…शायद ज़्यादा दिन रुक जाते, तो ज़्यादा दुखता। अभी तो इतनी सुंदर जगह रह रहे हैं, इसका यक़ीन भी ठीक से नहीं हुआ था। सपने जैसा ही लगता था कई बार। कुछ ऐसा इत्तिफ़ाक़ रहा कि बच्चों के जन्म के छह साल में चौथे घर में जा रहे हैं। जिससे भी बात करेंगे, अपना घर ख़रीदने की तरफ़दारी करेगा…कि जैसा भी हो, घर अपना होना चाहिए।
कुँवर नारायण की एक कविता है, बहुत सुंदर। कई साल पहले अनुराग को ज़िद कर के कुछ लिखने को कहा था, तो यही कविता काग़ज़ पर लिख के दी थी उसने…उस दिन भी दुखा था इसे पढ़ना। शायद उन दिनों वह भी घर शिफ्ट कर रहा था। फ़िलहाल, याद नहीं…लेकिन यह कविता आज शाम से मन में घूम रही है…
कभी कभी इतना बेघर हो जाता है मन
कि कपड़े बदलते हुए भी लगता है
जैसे घर बदल रहा हूँ
- कुँवर नारायण
इस साल दिवाली बहुत सुंदर थी। घर पर सब के सो जाने के बाद दिल शुक्रगुज़ार था। तो मकान मालिक को एक लंबा, सुंदर सा मेसेज लिखा। जान-पहचान के सभी लोगों का कहना है कि उसी मेसेज के कारण मक़ान मालिक ने घर ख़ाली करने को कहा है। पता नहीं कैसे, पर सबको इस तरह की फीलिंग समझ में आती है, सिवाए मेरे। कि कोई उनके घर में रह कर इतना ख़ुश है, उसे इस घर की अच्छी चीज़ों से फ़र्क़ पड़ता है…कोई घर की हर छोटी-बड़ी चीज़ को नोटिस करता है, उससे जीवन में आई सुंदरता को लेकर शुक्रगुज़ार है…मेरा ये acknowledgement ही उन्हें अच्छा नहीं लगा। हम सोचते रहते हैं, कि दुनिया इस तरह की हो जाएगी तो हम बदल तो नहीं जाएँगे। कितनी कम बार होता है कि आपको कुछ अच्छा लगे और आप उन्हें बता पायें। कितनी ज़्यादा बार होता है कि कुछ अच्छा लगे, कोई अच्छा लगे तो आप चुप ही रहते हैं। Status-quo जो मेंटेन करना होता है। जबकि ज़िंदगी में बदलाव के सिवा कुछ भी परमानेंट नहीं है, लोग बदलाव से इतना डरते हैं कि हर बदलाव को बुरे की तरह ही सोचते हैं…जब कि बदलाव अच्छे के लिए भी तो हो सकता है, या कि कुछ अलग के लिए ही हो जाये…इसे अच्छे-बुरे के काले-सफेद में न बाँटें। हमने जितने घर बदले हैं, हर बार पिछले घर से कुछ अलग, कुछ बेहतर, कुछ सुंदर ही मिला है। शायद सिर्फ़ बदलाव की बात नहीं है, बात है कि हमारी मर्जी से नहीं हो रहा। फिर ऐसे समय पर हो रहा है जब बहुत कुछ ऐसे ही बदल रहा होता है…साल ख़त्म हो रहा होता है, नए साल के नए प्लान्स बन रहे होते हैं। छुट्टी मनाने जायेंगे…फिर लौटते ही घर बदलना होगा। ऐसे में छुट्टी पर जाने की जगह घर में रह कर खूब सी पार्टी करने का मन कर रहा। एक तरह का क्लोजर। पता नहीं क्या। कोई अफ़सोस न बाक़ी रहे।
One must imagine Sisyphus happy.
- Camus
बदलाव के साथ, ज़िंदगी में होने वाली सारी अब्सर्डिटी समझते हुए, हम फिर भी खुश रह सकते हैं…छोटी छोटी चीज़ों में। ख़ुशी कोई अल्टीमेट डेस्टिनेशन नहीं हो सकता। रोज़ की छोटी-छोटी चीज़ें अगर हमें ख़ुशी नहीं दे सकतीं तो हम कुछ भी हासिल कर लें, हमेशा कुछ और चाहिए होगा। मैं बेटियों को भी सिखाने की कोशिश करती हूँ, कि चाह का कोई अंत नहीं। जो सुंदर है, जो पास है, जो अपना है…उसके लिए खुश रहें तो ख़ालीपन कहीं होगा ही नहीं…और बिना खालीपन के उदासी रहेगी कहाँ?
मैंने लैवेंडर वाली चाय ऑर्डर की…कप से भाप उठ रही थी। उसपर हथेली रखी तो पुरानी कहानी की पंक्ति याद आई, उसकी शिराएँ लैवेंडर रंग की हैं। कितनी सुंदर कलाई थी, काटने में दुख हुआ था, कहानी में भी। चाय पीते हुए सोचती रही, शाम से कितनी काली कॉफ़ी पी रखी है, याद नहीं। कड़वाहट नहीं आती ज़ुबान पर, न दिल में। जाने कैसे हो गया है दिल इतना फॉरगिविंग।
हाँ, मुझसे छूट गया है तुम्हारा हाथ। लेकिन यही कायनात है, इक रोज़ सिगरेट पीते हुए सोचा था, मैं तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहती हूँ और कायनात ने मान लिया था। पिछली बार डेंटिस्ट के पास गई थी तो सोच रही थी, ख़ुशी का कोई ऐसा इंटेंस लम्हा नहीं है कि इमोशनल एनेस्थीसिया की तरह काम कर सके। तो कायनात ने सोचा, कुछ लम्हे लिख दे मेरे हिस्से में।
मुझसे छूट गया है तुम्हारा हाथ। लेकिन मुझे मालूम है तुम्हारे ब्रांड की सिगरेट, तुम्हारा फ़ेवरिट कलर और तुम्हारे पसंद की ड्रिंक। मन करे तो मैं भी विस्की पी कर आउट हो सकती हूँ। मन करे तो कहानी में तुम्हें रख सकती हूँ सहेज कर। कि मेरे पास हैं ऐसे शब्द जिनमें से तुम्हारी ख़ुशबू आती है।
तुम्हें पता है, there is only one absolute unit of longing, loneliness and love.
‘बस यूँ ही, तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था।’
आज एक नए कैफ़े में आई हूँ, बहुत सुंदर नाम है इसका। Paper& Pie. आगा शाहिद अली की कविता Stationery की एक पंक्ति है, The world is full of paper, write to me. काग़ज़ से बहुत लगाव है। इतना कि इस दुनिया को इसलिए आग लगाने का मन नहीं करता कि कभी कभी लगता है ये दुनिया काग़ज़ पर लिखी हुई है, शायद। इसे पानी में तैरने वाली नाव बनना है आख़िर को।
पेपर ऐंड पाई।
कुछ दिन पहले ऑफिस के एक पुराने कलीग से मिलना था, तो उसके घर के पास की जगह गए थे। उसने इस कैफे का पता दिया था, कि अच्छी जगह है। हम हड़बड़ में मिले थे। एक घंटा टाइप्स…बोला, अगली बार फुर्सत में मिलेंगे। और हम कहे, कि फुर्सत नहीं मिलेगी कभी…इतना भी मिल लेंगे तो ठीक है। कैफ़े की थीम सफेद थी। कैरमेल कलर का फर्नीचर। शोर नहीं। कम्फर्टेबल। अच्छा लगा।
हर नाम का एक क़िस्सा होता है। हमको इस किस्से से हमेशा मतलब क्यों होता है? इस कैफे के नाम के साथ के लोगो था। जैसे स्टारबक्स का लोगो एक साईरन(siren) है…इन दिनों नई कंपनी के नाम, लोगो वग़ैरह के बारे में सोच रहे, रिसर्च कर रहे। दिमाग़ में यही सब चल रहा था। इंदिरानगर के कैफे में पहली बार आए थे…इसी लोगो का एक फोटो खींच कर दोस्त को भेजा। उसने पूछा ये क्या है? और हमने कहा कि प्रूफ कि लोगो से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कुछ भी रख लो नाम, कैसा भी बना लो लोगो।
आज बहुत साल बाद इंदिरानगर ऐसे इत्मीनान से आए हैं। यहाँ पहली बार घर था…दस साल रही उसी घर में। भयंकर नास्टैल्जिया घेरता है। मैं इस इलाक़े के सभी पेड़ों को पहचानती हूँ। फूलों के मौसम में कहाँ फूल आयेंगे, वो भी। सारी गालियाँ, सारे चौराहे, आसमान का हर टुकड़ा चीन्हा हुआ लगता है। कभी-कभी उस लड़की की याद आने लगती है जो यहाँ अठारह साल पहले आई थी। दिल्ली के अपने सारे प्यारे दोस्तों को छोड़ कर…उस एक लड़के का हाथ थामे जिससे मुहब्बत की थी। चमकीले, रूई के फाहे की तरह हल्के दिन थे…घर में कोई फर्नीचर नहीं था। हम वाक़ई दो बक्से लेकर आए थे। कपड़े और किताबें, बस…और ढेर सारा प्यार। एक नए शहर में नई शुरुआत करने।
जिस घर में रह रही हूँ, एक साल भी नहीं हुआ है। मकान-मालिक ने खाली करने कह दिया है। बात सही है, मकान-मालिक है। जब उसका मन करे, खाली करने को बोल सकता है। लेकिन ऐसे दो बच्चे, सास, एक पति-पत्नी…बड़ा सा परिवार है, बहुत सारा सामान…चार कमरों का घर है। किराया भी बहुत ज़्यादा है। इस घर में 3000sq.ft. के आसपास का अपना लॉन है। बच्चों को बहुत अच्छा लगता था यहाँ से वहाँ दौड़ते रहते थे दिन भर। बड़े शहरों में अपना गार्डन या लॉन होना तो एकदम ही मुश्किल है। इतने सालों में ऐसे खुली ज़मीन वाला कोई घर नहीं देखा कभी। विला के सामने गोल्फ कोर्स है। सुबह सूरज उगता हुआ दिखता था…बच्चे धूप में कुनमुना के उठते थे। गहरे गुलाबी रंग की बोगनविला थी। विंडचाइम नाचती रहती थी, अक्सर। उसकी धुन नींद में झूलती रहती। गार्डन में एक ओर बार बना हुआ है, उसके सामने छोटा सा पौंड है…गोल्फ कोर्स के लिए। लेकिन वहाँ सुबह-सुबह कभी कभी लिखने बैठती थी। धुंध में। ठंढ में। चाँदनी रात में स्टडी टेबल से चांद उगता हुआ दिखता था। कई बार सूरज उगने के टाइम-लैप्स बनाए। ये ऐसा घर था, जिसमें कुछ साल इत्मीनान से रहने का मन था। अपने से ज़्यादा, बच्चों के लिए। ये उनके दौड़ने-भागने-खेलने कूदने के दिन हैं। सभी दोस्तों के बच्चे आते थे तो सबको खूब मन लगता था। पर ठीक इसलिए है, कि जो चीज़ अपनी नहीं, उससे ज़्यादा लगाव क्यों होना…शायद ज़्यादा दिन रुक जाते, तो ज़्यादा दुखता। अभी तो इतनी सुंदर जगह रह रहे हैं, इसका यक़ीन भी ठीक से नहीं हुआ था। सपने जैसा ही लगता था कई बार। कुछ ऐसा इत्तिफ़ाक़ रहा कि बच्चों के जन्म के छह साल में चौथे घर में जा रहे हैं। जिससे भी बात करेंगे, अपना घर ख़रीदने की तरफ़दारी करेगा…कि जैसा भी हो, घर अपना होना चाहिए।
कुँवर नारायण की एक कविता है, बहुत सुंदर। कई साल पहले अनुराग को ज़िद कर के कुछ लिखने को कहा था, तो यही कविता काग़ज़ पर लिख के दी थी उसने…उस दिन भी दुखा था इसे पढ़ना। शायद उन दिनों वह भी घर शिफ्ट कर रहा था। फ़िलहाल, याद नहीं…लेकिन यह कविता आज शाम से मन में घूम रही है…
कभी कभी इतना बेघर हो जाता है मन
कि कपड़े बदलते हुए भी लगता है
जैसे घर बदल रहा हूँ
- कुँवर नारायण
इस साल दिवाली बहुत सुंदर थी। घर पर सब के सो जाने के बाद दिल शुक्रगुज़ार था। तो मकान मालिक को एक लंबा, सुंदर सा मेसेज लिखा। जान-पहचान के सभी लोगों का कहना है कि उसी मेसेज के कारण मक़ान मालिक ने घर ख़ाली करने को कहा है। पता नहीं कैसे, पर सबको इस तरह की फीलिंग समझ में आती है, सिवाए मेरे। कि कोई उनके घर में रह कर इतना ख़ुश है, उसे इस घर की अच्छी चीज़ों से फ़र्क़ पड़ता है…कोई घर की हर छोटी-बड़ी चीज़ को नोटिस करता है, उससे जीवन में आई सुंदरता को लेकर शुक्रगुज़ार है…मेरा ये acknowledgement ही उन्हें अच्छा नहीं लगा। हम सोचते रहते हैं, कि दुनिया इस तरह की हो जाएगी तो हम बदल तो नहीं जाएँगे। कितनी कम बार होता है कि आपको कुछ अच्छा लगे और आप उन्हें बता पायें। कितनी ज़्यादा बार होता है कि कुछ अच्छा लगे, कोई अच्छा लगे तो आप चुप ही रहते हैं। Status-quo जो मेंटेन करना होता है। जबकि ज़िंदगी में बदलाव के सिवा कुछ भी परमानेंट नहीं है, लोग बदलाव से इतना डरते हैं कि हर बदलाव को बुरे की तरह ही सोचते हैं…जब कि बदलाव अच्छे के लिए भी तो हो सकता है, या कि कुछ अलग के लिए ही हो जाये…इसे अच्छे-बुरे के काले-सफेद में न बाँटें। हमने जितने घर बदले हैं, हर बार पिछले घर से कुछ अलग, कुछ बेहतर, कुछ सुंदर ही मिला है। शायद सिर्फ़ बदलाव की बात नहीं है, बात है कि हमारी मर्जी से नहीं हो रहा। फिर ऐसे समय पर हो रहा है जब बहुत कुछ ऐसे ही बदल रहा होता है…साल ख़त्म हो रहा होता है, नए साल के नए प्लान्स बन रहे होते हैं। छुट्टी मनाने जायेंगे…फिर लौटते ही घर बदलना होगा। ऐसे में छुट्टी पर जाने की जगह घर में रह कर खूब सी पार्टी करने का मन कर रहा। एक तरह का क्लोजर। पता नहीं क्या। कोई अफ़सोस न बाक़ी रहे।
ये साल बहुत तेज़ी से बीता। बहुत व्यस्त रही, पारिवारिक चीज़ों में। सीखा यह कि जो मिला है, उसमें संतोष होना चाहिए। कि सब कुछ तो किसी को भी नहीं मिलता। तो कुछ न कुछ तो रहेगा ही अफसोस के खाते में। फिर, न चाहते हुए भी इतने अफ़सोस जमा हो गए हैं दिल में, लिखने चलें तो बचा हुआ जीवन कम पड़ जाये। फिर क्या मालूम, कितना जीवन बचा है। Camus कहते थे, जीवन में सब कुछ absurd है। कुछ भी प्लान नहीं कर सकते। Camus की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हो गई थी। वे सिर्फ़ 46 साल के थे। उनके साथ उनका पब्लिशर भी था।
One must imagine Sisyphus happy.
- Camus
बदलाव के साथ, ज़िंदगी में होने वाली सारी अब्सर्डिटी समझते हुए, हम फिर भी खुश रह सकते हैं…छोटी छोटी चीज़ों में। ख़ुशी कोई अल्टीमेट डेस्टिनेशन नहीं हो सकता। रोज़ की छोटी-छोटी चीज़ें अगर हमें ख़ुशी नहीं दे सकतीं तो हम कुछ भी हासिल कर लें, हमेशा कुछ और चाहिए होगा। मैं बेटियों को भी सिखाने की कोशिश करती हूँ, कि चाह का कोई अंत नहीं। जो सुंदर है, जो पास है, जो अपना है…उसके लिए खुश रहें तो ख़ालीपन कहीं होगा ही नहीं…और बिना खालीपन के उदासी रहेगी कहाँ?
मैंने लैवेंडर वाली चाय ऑर्डर की…कप से भाप उठ रही थी। उसपर हथेली रखी तो पुरानी कहानी की पंक्ति याद आई, उसकी शिराएँ लैवेंडर रंग की हैं। कितनी सुंदर कलाई थी, काटने में दुख हुआ था, कहानी में भी। चाय पीते हुए सोचती रही, शाम से कितनी काली कॉफ़ी पी रखी है, याद नहीं। कड़वाहट नहीं आती ज़ुबान पर, न दिल में। जाने कैसे हो गया है दिल इतना फॉरगिविंग।
हाँ, मुझसे छूट गया है तुम्हारा हाथ। लेकिन यही कायनात है, इक रोज़ सिगरेट पीते हुए सोचा था, मैं तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहती हूँ और कायनात ने मान लिया था। पिछली बार डेंटिस्ट के पास गई थी तो सोच रही थी, ख़ुशी का कोई ऐसा इंटेंस लम्हा नहीं है कि इमोशनल एनेस्थीसिया की तरह काम कर सके। तो कायनात ने सोचा, कुछ लम्हे लिख दे मेरे हिस्से में।
मुझसे छूट गया है तुम्हारा हाथ। लेकिन मुझे मालूम है तुम्हारे ब्रांड की सिगरेट, तुम्हारा फ़ेवरिट कलर और तुम्हारे पसंद की ड्रिंक। मन करे तो मैं भी विस्की पी कर आउट हो सकती हूँ। मन करे तो कहानी में तुम्हें रख सकती हूँ सहेज कर। कि मेरे पास हैं ऐसे शब्द जिनमें से तुम्हारी ख़ुशबू आती है।
तुम्हें पता है, there is only one absolute unit of longing, loneliness and love.
‘बस यूँ ही, तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था।’


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