30 August, 2013

एनेस्थीसिया

डेंटिस्ट की खतरनाक सी कुर्सी पर बैठी लड़की सोच रही थी एनेस्थीसिया के बारे में. ऐसा कुछ है क्या जिसके बाद कोई दर्द महसूस न हो. सोचती रही इश्क से बेहतर एनेस्थीसिया उसे मालूम नहीं है. उसने सोचा डॉक्टर से पूछे कि उसके पास कोई इश्कनुमा एनेस्थीसिया है क्या. लड़की को मालूम है कि वो थोड़ी वीयर्ड है उसके हिसाब से जो चीज़ें नार्मल होती हैं वो आम लोगों को पागलपन जैसी लगती हैं. अपने अनुभवों से सीखती वो लड़की अक्सर ऐसे फुजूल सवाल अब खुद के लिए रिजर्व कर लेती है.

दो दिन हो गए. सूजन बढ़ती ही गयी है. पेनकिलर से राहत नहीं आती. हालाँकि उसका कोई हक नहीं बनता पर वो पूछना चाहती है कि तुम्हारे नाम, ख्याल या तस्वीरों को पेनकिलर की तरह इस्तेमाल करना एथिकली सही है या गलत है. सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचने भर से उसका दांत का दर्द कम हो जाये तो क्या उसे इजाजत है तुम्हारे बारे में सोचने भर की...या तुम्हें एक फ़ोन करने की? तुम क्या सोचोगे अगर कोई तुम्हें फ़ोन करके कहे कि बहुत तेज़ दर्द हो रहा है, कुछ देर मेरा ध्यान भटका दो...किसी भी और चीज़ की तरफ. तुम करोगे किसी के लिए इतना?

दर्द यूँ बुरा नहीं लगता. दर्द की महीन उँगलियाँ होती हैं...जैसे नसों में खून दौड़ता है वैसे ही दर्द भी दौड़ता है. बारीक पतली पतली उँगलियों वाला दर्द बायें गाल से होता हुआ कनपटी तक पहुँच गया है, गले का बायाँ हिस्सा सूजा हुआ है. बोलने में भी तकलीफ होती है. दर्द का स्वाद होता है. खास तौर से जब टाँके पड़े हों. खून का रिसता हुआ स्वाद. ऐसा लगता है जैसे कोई नदी बह रही हो...नमकीन धार वाली. हर कुछ देर में नमक पानी के गरारे भी करने पड़ते हैं.

चेहरे का आधा हिस्सा सुन्न पड़ गया है. दांत के दर्द को टक्कर सिर्फ और सिर्फ इश्क दे सकता है. वो भी ऐरा गैरा लफुआबाज़ टाईप इश्क नहीं. सड़कछाप आवारा वाला नहीं. गहरा दर्द. रात के पहर के साथ चढ़ता हुआ. नींद के किसी झांसे में नहीं आने वाला दर्द. अँधेरे में याद के कितने तहखानों की टहल करवा देने वाला दर्द. पेनकिलर और एंटीबायोटिक के मिक्स में उभरने वाली नीम बेहोशी में रह रह करंट के झटके लगाता दर्द. हर कुछ घंटों में अपने होने को कई गुना शिद्दत से ज्यादा महसूस करने वाला दर्द.

जिंदगी में हर चीज़ में इश्क की घुसपैठ नहीं होनी चाहिए. कम से कम दांत दर्द तो तमीज से दांत दर्द की तरह पेश आये. दर्द हो तो सब भूल जाए लड़की. भूरी आँखें. डेरी मिल्क. धूप. दिल्ली. ठंढ. बीमार की तरह कम्बल ओढ़ ले और कराहे. मगर ये कराह में किसका नाम लिए जा रही है लड़की. "खुदाया मेरे आंसू रो गया कौन". वो कहती है उसका दर्द का थ्रेशहोल्ड बाकी लोगों से ज्यादा है. बहरहाल. कुछ दिनों से कुछ भी करने की कोशिशें नाकाम हैं. पढ़ने लिखने में उसका दिल नहीं लगता. ऐसा कुछ लग रहा है जैसे एक्जाम के दिन हों और सिलेबस ख़त्म हो चुका हो. बस रिवाइज करना जरूरी हो.

जब कुछ काम न आये तो लिखना काम आता है. फिलहाल दर्द की एक तीखी लपट है. दांत के ऊपर से उठती है और वर्टिकली ऊपर दिमाग की ओर चली जाती है. मेमोरी इरेजिंग टूल टाईप कुछ है. कोई याद नहीं. कोई शख्स नहीं. सफ़ेद काली बेहोशी है. संगीत की कुछ धुनें हैं. व्हाइट नोइज जैसी कुछ. इच्छा है कि थोड़ी धूप रहती तो खून का बहाव थोड़ा तेज़ होता. उसे हमेशा धूप अच्छी लगती है. रात के इस पहर धूप कहाँ से बुला लाये लड़की.

एनेस्थीसिया मेरी बला से! मुझे तो लगता है कि लड़की का दिमाग ख़राब हो गया है. पर जाने दो. वो क्या कहते हैं हमारी हिंदी फिल्म में डॉक्टर.

'अब इन्हें दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है'

PS: अब इन्हें ब्लॉग्गिंग की नहीं, पागलखाने की जरूरत है. वगैरह वगैरह.

इस पोस्ट के माध्यम से आप आपने पाठकों को क्या सन्देश देना चाहेंगी?
हम तो क्या कहें, कह भी देते लेकिन कोई हमसे पहले कह गया है कि...और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.

बहरहाल. 

19 August, 2013

सताए हुए लोगों से पूछो रास्ता करार का


लिखना आत्महत्या जैसा कुछ था. टेबल के किनारे बेहद तीखे थे. कवि इतना बेसुध था कि उसे ध्यान नहीं रहता, दर्द महसूस नहीं होता. बहुत मुश्किल से जोड़े गए पैसों से एक नया टेबल ख़रीदा था. जल्दबाज मजदूरों ने टेबल फिक्स करते हुए उसे बड़ी हिकारत से देखा था. जैसे वो टेबल का इस्तेमाल करना डिजर्व नहीं करता. कि जैसे वो मजदूर उसकी कहानियों के गरीब लेखक को देखना चाहते थे. उसने एक बार कहा था कि टेबल के किनारों को रेगमाल से थोड़ा घिस दें. मजदूर उसकी बात सुनकर ऐसे हँसे थे जैसे कोई सस्ता लतीफा सुनाया गया हो.

वो अपने आलीशान घर में ऐसे रहता था जैसे किसी मजबूर रिश्तेदार को उसे जबरदस्ती गोद लेना पड़ा हो. टेबल खरीदने की मजबूरी भी इसलिए थी कि झुक कर लिखने के कारण उसकी रीढ़ की हड्डी घिसने लगी थी. जिंदगी में एक इसी रीढ़ के कारण उसने बहुत कुछ सहा था...अब इस उम्र में झुकना मंजूर नहीं था उसे. शीशम की लकड़ी से बने उस टेबल के किनारे उस रोज़ भी तीखे थे. उन्होंने उसे कुछ ऐसे बरगलाया था जैसे जूते का दूकानदार जूते बेचता है...अभी चुभ रहा है, चमड़ा बाद में नर्म हो जाएगा...गर्मी में फैलेगा. वगैरह वगैरह. कवि ने बेचैनी से इर्द गिर्द देखा था मगर न तो बीवी न बच्चे ही उसकी मदद को आये.

वो जब भी लिखने बैठता, टेबल की तीखी धार उसकी कलाइयों पर लम्बी पतली धारियां बनाती जाती थी. बेतहाशा लिखने के पागलपन वाले मौसम आये थे. उसे मालूम नहीं चलता मगर टेबल जैसे खून डोनेट करने की सुई जैसा उसके बदन से बूँद बूँद खून का प्यासा हुआ जा रहा था. कुछ दिनों में टेबल के नीचे एक आध बूंद खून की टपक जाती थी. उसने वहां पर सोख्ता रख दिया था. कागज़ के टुकड़े-ब्लोटिंग पेपर को खून और स्याही में क्या अंतर पता चलता. जैसे बारिश में बाल्टी रखी होती थी टपकते छत के नीचे, बाकी घर सूखा रहता था.

मगर लगता ये है कि कवि इतना अकेला और इतना बेसुध क्यूँ है. दर्द से बेपरवाह क्यूँ है. टेबल की तीखी धार को सरेस पेपर से रगड़ कर चिकना करने वाला कोई तो होगा दुनिया में. इतने सारे किरदार रचे हैं उसने, एक बढ़ई का किरदार रच देता तो समझ जाता कि इतना मुश्किल नहीं है एक टेबल ठीक करना. कवि को दर्द की आदत थी, कुछ वैसे ही जैसे छोटे शहरों में लोगों को बिजली के आने जाने की आदत हुयी रहती है. घड़ी बांधते हुए विरक्त भाव से निशानों को देखता. फिर घड़ी के ख़राब होने की परेशानी हो रही थी. हालाँकि वो चाहे तो घड़ी बांयें हाथ पर बाँध सकता था. आईने के सामने खुद को देख रहा था तो आज भी सालों पुरानी याद पीछा नहीं छोड़ रही थी. एक लड़की ने छेड़ा था, राखी बाँध दूँगी...उसने घड़ी दिखाते हुए कहा था...मेरी बहन है...इस भागते वक़्त ने मुझे राखी बाँधी है, देखती नहीं हो...कैसे इसकी रक्षा करने को कविता, कहानियां सकेरता रहता हूँ. लड़की हँसते हुए गयी थी...जिस दिन दायें हाथ से घड़ी उतारोगे मेरी रक्षा करने का भार उठाना.

कवि ने दराज़ से सफ़ेद रुमाल निकला. रूमाल के दायें कोने पर उसके नाम का पहला अक्षर लिखा था. नामों का खेल...उन दोनों के नाम एक ही अक्षर से शुरू होते थे. सफ़ेद रुमाल दायीं हथेली पर बाँधा. उसके ऊपर घड़ी पहनी. उसके कुरते करीने से इस्त्री किये हुए रखे थे. सफ़ेद कुरते एक तरफ, रंग वाले कुरते एक तरफ. सुर्ख पीला कुरता पहनते हुए उसके होठों पर मुस्कान अनायास खेल गयी. आखिरी बार लड़की को उसने उसकी हल्दी की रस्म पर ही तो देखा था. जिद थी कि उसकी शादी में नहीं जाएगा.

वो कैसे दिन थे न...हँसते हुए घबराहट नहीं होती थी. हाथ से कुछ छूट जाता था तो अफ़सोस नहीं होता था. या कि अफ़सोस दिल में ऐसे गहरे दफन करके रख दिए गए थे. जीवन की संध्या में अफ़सोस की खुशबू वाले फूल खिल रहे थे. इन्हें करीने से रखने का सलीका सीख रहा था वो आजकल. एक कांच के गुलदान में सबरंगी अफ़सोस थे...तीन चार दिन ताज़े रहते थे, फिर उनकी जगह नए अफ़सोस ले लेते थे.

आईने के सामने खड़ा था...याद नहीं था कहाँ जाने के लिए तैयार हुआ था. कल रात उसका सपना देखा था. लड़की ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा था, तुम्हारा हाथ चूम सकती हूँ? सपना बेहद सच्चा सा था. उसने अपनी कलाईयाँ सूंघी...दालचीनी की खुशबू थी तो सही...या कि टेबल दालचीनी की लकड़ी से बनी थी? उसे ख्याल नहीं कि मजदूरों ने क्या कहा था...उसे लकड़ियों की समझ भी नहीं थी...समझ तो उसे लड़कियों की भी नहीं थी.

बहरहाल...टेबल की तीखी धार से उसकी कलाइयाँ कटती थीं...ख्वाबों में लड़की के दुपट्टे से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की सियाही से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की कलाइयों से दालचीनी की खुशबू आती थी.
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कवितायें भले कालजयी हों मगर कवि की उम्र कुछ साल ही होती है. कवि की कब्र पर एक दालचीनी का पेड़ उगा. लोग कहते थे कि उस दालचीनी के पेड़ से एक लड़की की खुशबू आती थी.

12 August, 2013

तेज़ चलाओ...और तेज़...और तेज़

जानेमन, हम सोच रहे हैं कि आपका नाम 'जीशान' रख दें.
बाईक पर वो दोनों बहुत तेज़ उड़े जा रहे थे. सामने खुली सड़क थी और पीछा करते घने काले बादल. देखना ये थी कि बैंगलोर पहले कौन पहुँचता है...वो दोनों या बारिश. रेस लगी हुयी थी और सारे जिद्दी किस्म के लोग थे. इस बेखयाली में लड़की का नीला स्कार्फ जैसे बादल को चिढ़ा रहा था कि आँचल छू के दिखाओ तो जानें और लड़का सूरज की भागती किरणों के पहिये पर था. बाईक हवा से बातें कर रही थी...हवा बाईक के लिए बैकग्राउंड म्यूजिक दे रही थी. इस सारे माहौल में लड़के को अचानक से नाम बदलने की बात समझ में नहीं आनी थी, नहीं आई.
'हमारे नाम में क्या बुराई है?' पीछे मुड़ते हुए बोला...हवा उसके आधे अक्षर उड़ा कर ले गयी और एक नया गाना गाने लगी.
'इस नाम से तुम्हें सारे लोग बुलाते हैं, बहुत कोमन हो गया है तुम्हारा नाम'
'नाम का काम ही यही होता है, कितने प्यार से घर वालों ने नाम रखा है ------- ------ ----' हवा उसके नाम के सारे अक्षर उड़ा गयी और लड़की के पल्ले कुछ नहीं पड़ा. लड़की चुप.
'तुम्हें ये नया नाम रखने की क्या सूझी, नया नाम तो शादी के बाद बदलते हैं...या फिर उस ऐड की तरह...आई विल टेक अप हर सरनेम'.
'शादी के बाद तुम नाम बदल लोगे!?'
'नाम बदल लूँगा तो तुम मुझसे शादी कर लोगी?'
'तुम प्रपोज कर रहे हो?'
'तुम हाँ बोल रही हो?'
'पता है आइंस्टीन ने कहा था कि ऐनी मैन हू कैन ड्राइव सेफली व्हाइल किसिंग अ प्रेटी गर्ल इस सिम्पली नौट गिविंग द किस द अटेंशन इट डिजर्व्स'
' भाड़ में गया तुम्हारा आइन्स्टीन...मैं यहाँ ऐसा सवाल कर रहा हूँ और तुम्हें कोटेशन की पड़ी है'
'बिना भीगे बैंगलोर पहुँच गए तो कर लूंगी'
'आई विल मेक श्योर आई गिव द किस द अटेंशन इट डिज़र्वस्'
अब बस बैंगलोर जल्दी पहुंचना था...दोनों की जुबान पर बीटल्स का गीत था...Close your eyes and I'll kiss you...tomorrow I'll miss you....फुल वॉल्यूम में और बिना किसी सही ट्यून के एक साथ दोनों गा रहे थे.
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ब्लैक आउट.
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याद के आखिरी चैप्टर में जुबान पर खून का तीखा स्वाद था...जंग लगे लोहे जैसा. उसे याद नहीं कि बाईक कहाँ स्किड हुई थी...ट्रक ने कौन सा टर्न लिया था. उसने रियर व्यू मिरर में उसकी आँखें देखी थीं. हेलमेट की स्लिट से. उन आँखों में बहुत सारा प्यार और उतनी ही शरारत थी. ये हरगिज़ वो आँखें नहीं थीं जिनमें मौत नज़र आये. तो क्या खुदा से कोई गलती हो गयी थी?
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उसे किस्तों में मिटाना बहुत मुश्किल था. यकीन नहीं था वो इस तरह हिस्सा बनता गया था. बीटल्स के गीत हो या कि गुरुदत्त की फिल्में...कितने सारे सीडी कवर पर उसका लिखा कुछ न कुछ मिल जाता था. घर के कोने कोने में उसकी लिखी पुर्जियां थी और याद के कोने कोने में उसकी चिप्पियाँ. घर की दीवारों पर उसके इनिशियल्स थे. पसंद की फिल्मों के प्रिंट्स काले फ्रेम में थे...लड़की को हर कील की पोजीशन और फिर ड्रिल करता हुआ वो याद आता था. उसका टूल किट डोनेट करते हुयी कैसी फूट फूट के रोई थी वो.

बाईक सर्विसिंग के वापस आ गयी थी. लड़की को लड़कपन के बाईक सीखने वाले दिन याद आ गए. बाकी लोगों के उलट, उसने बाईक पहले सीख ली थी. वो अपने घर वालों का एकलौता बेटा था...सब काफी प्रोटेक्टिव थे उसको लेकर. पापा ने कार ले दी थी लेकिन बाईक कोई उसे न सीखने देता, न चलाने देता कभी. इसी सिलसिले में वो पहली बार छुप छुप के मिलने लगे थे. कोलेज में गर्मी की छुट्टियाँ थीं. लड़की उसे बाईक का क्लच, गियर, ब्रेक सब बता रही थी. धीरे धीरे बोलते हुए भी घबराहट में वो एक्सीलेरेटर देते चला गया था. तेज़ गाड़ी से जब दोनों फेंकाए थे तो बारिश के कारण ही बचे थे. मिट्टी और कीचड़ था इतना कि जरा भी चोट नहीं आई. उस दोपहर दोनों ने बारिश का इंतज़ार किया. मूसलाधार बारिश में कपड़े साफ़ हुए तो घर जाने लायक हालत हुयी. बाईक और बारिश से रिश्ता उम्र के साथ गहराता गया.

लॉन्ग ड्राइव्स, शोर्ट ड्राइव्स...रेसिंग. कितने सारे रास्तों से गुजरी उनकी दोस्ती. लड़का जब पहली बार दिल्ली गया तो दो पोस्टर लेकर आया. हार्ले डेविडसन के. वो फ्रेम्स दोनों ने खुद मिल कर की थीं. लकड़ी की पतली बीट्स को पेंट करने से लेकर छोटी कीलें लगाने तक. उनके कमरे बिलकुल आइडेंटिकल थे, सिवाए एक ड्रेसिंग टेबल और एक छोटे डम्ब बेल्स के.
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उसके होते हुए लड़की को कभी नहीं लगा कि वो ऐब्नोर्मल है. लड़की को कभी किसी और दोस्त की या किसी और वैलिडेशन की जरूरत महसूस नहीं हुयी. उसने कभी नहीं देखा कि उसकी बाँहें टैन हो गयी हैं या कि चेहरे पर मुहांसे निकल रहे हैं. जिंदगी में इतना सारा खालीपन अचानक से आ गया था और भरने का कोई तरीका उसे मालूम नहीं था. घर पर सबको लग रहा था कि अब वो इस बाईक के जंजाल से निकल कर सलवार कुरता पहन कर तमीज से दुपट्टा लेने वाली लड़की बनेगी. शायद तरस खा कर कोई लड़का शादी कर भी ले उससे. घर में मामियों, चाचियों, भाभियों का जमघट लग गया था. उसके स्लीवलेस टॉप और शॉर्ट्स को देख कर नाक भौं सिकोड़ती औरतें उसे कभी तोरई की सब्जी बनाने के तरीके बतातीं कभी पति को मुट्ठी में काबू करने के नुस्खे सिखातीं.
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डेढ़ महीने बाद पैर का प्लास्टर खुला. घर पराया हो रहा था. इतने सारे लोग सुबह शाम. उनकी सिम्पथी. डॉक्टर ने महीने भर का वक़्त बताया था ठीक से चलने में. घर के ईजल की जगह व्हाईट बोर्ड ने ले ली थी. हार मानना और रो कर बैठना किसी बाईकर की जिंदगी में नहीं आता. गिरने के बाद हँसते हुए उठना, बाईक की स्थिति जांचना और फिर राह पर निकल पड़ना एक आदत सी बन जाती है.

बाईक एक ऐसा बेस्ट फ्रेंड होती है जिससे प्यार ताउम्र चलता है. लड़की ने एक ऐडवेंचर क्लब का पूरा खाका तैयार कर लिया था. जिंदगी के पागलपन को एक रास्ता चाहिए था. घर पर सबको यकीन था वो कभी बाईक चला नहीं पाएगी. डॉक्टर्स ने उसकी स्थिति देख कर कहा था कि वो डिप्रेशन की शिकार है और खुद को ज्यादा फ़ोर्स न करे. उन्ही परिस्थितियों से दोबारा गुजरने पर उसमें सुसाइडल टेंडेंसी डेवेलप कर सकती है. इस वक़्त उसे थोड़े आराम की जरूरत है.

सबके डरने से उसकी भी धड़कन तेज़ हो गयी थी. जब राइडिंग गियर पहन कर वो बाईक के पास जा रही थी तो दर्जनों आँखें उसका पीछा कर रहीं थीं. उसे आज तक कभी खुद को प्रूव करने की जरूरत नहीं पड़ी थी. उसका जो दिल करता था करती आई थी. उसे कभी ये भी नहीं लगा कि वो कुछ बहुत ख़ास कर रही है. मगर आज जैसे अग्निपरीक्षा थी.

उसने हेलमेट पहना, गॉगल्स लगाये और बाईक स्टार्ट की. प्यार. दर्द. जीशान. खोना. खालीपन. सब पीछे छूटता गया. वन्स अ बाईकर. बाईकर फॉर लाइफ. जिंदगी अच्छी सी लग रही थी. जीने लायक. खुशनुमा. तेज़ रफ़्तार. इश्क जैसा कुछ. जिंदगी जैसा कुछ.

गीत फिर भी वही था...बीटल्स...टुमोरो आई विल मिस यू...

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