लिखना आत्महत्या जैसा कुछ था. टेबल के किनारे बेहद तीखे थे. कवि इतना बेसुध था कि उसे ध्यान नहीं रहता, दर्द महसूस नहीं होता. बहुत मुश्किल से जोड़े गए पैसों से एक नया टेबल ख़रीदा था. जल्दबाज मजदूरों ने टेबल फिक्स करते हुए उसे बड़ी हिकारत से देखा था. जैसे वो टेबल का इस्तेमाल करना डिजर्व नहीं करता. कि जैसे वो मजदूर उसकी कहानियों के गरीब लेखक को देखना चाहते थे. उसने एक बार कहा था कि टेबल के किनारों को रेगमाल से थोड़ा घिस दें. मजदूर उसकी बात सुनकर ऐसे हँसे थे जैसे कोई सस्ता लतीफा सुनाया गया हो.
वो अपने आलीशान घर में ऐसे रहता था जैसे किसी मजबूर रिश्तेदार को उसे जबरदस्ती गोद लेना पड़ा हो. टेबल खरीदने की मजबूरी भी इसलिए थी कि झुक कर लिखने के कारण उसकी रीढ़ की हड्डी घिसने लगी थी. जिंदगी में एक इसी रीढ़ के कारण उसने बहुत कुछ सहा था...अब इस उम्र में झुकना मंजूर नहीं था उसे. शीशम की लकड़ी से बने उस टेबल के किनारे उस रोज़ भी तीखे थे. उन्होंने उसे कुछ ऐसे बरगलाया था जैसे जूते का दूकानदार जूते बेचता है...अभी चुभ रहा है, चमड़ा बाद में नर्म हो जाएगा...गर्मी में फैलेगा. वगैरह वगैरह. कवि ने बेचैनी से इर्द गिर्द देखा था मगर न तो बीवी न बच्चे ही उसकी मदद को आये.
वो जब भी लिखने बैठता, टेबल की तीखी धार उसकी कलाइयों पर लम्बी पतली धारियां बनाती जाती थी. बेतहाशा लिखने के पागलपन वाले मौसम आये थे. उसे मालूम नहीं चलता मगर टेबल जैसे खून डोनेट करने की सुई जैसा उसके बदन से बूँद बूँद खून का प्यासा हुआ जा रहा था. कुछ दिनों में टेबल के नीचे एक आध बूंद खून की टपक जाती थी. उसने वहां पर सोख्ता रख दिया था. कागज़ के टुकड़े-ब्लोटिंग पेपर को खून और स्याही में क्या अंतर पता चलता. जैसे बारिश में बाल्टी रखी होती थी टपकते छत के नीचे, बाकी घर सूखा रहता था.
मगर लगता ये है कि कवि इतना अकेला और इतना बेसुध क्यूँ है. दर्द से बेपरवाह क्यूँ है. टेबल की तीखी धार को सरेस पेपर से रगड़ कर चिकना करने वाला कोई तो होगा दुनिया में. इतने सारे किरदार रचे हैं उसने, एक बढ़ई का किरदार रच देता तो समझ जाता कि इतना मुश्किल नहीं है एक टेबल ठीक करना. कवि को दर्द की आदत थी, कुछ वैसे ही जैसे छोटे शहरों में लोगों को बिजली के आने जाने की आदत हुयी रहती है. घड़ी बांधते हुए विरक्त भाव से निशानों को देखता. फिर घड़ी के ख़राब होने की परेशानी हो रही थी. हालाँकि वो चाहे तो घड़ी बांयें हाथ पर बाँध सकता था. आईने के सामने खुद को देख रहा था तो आज भी सालों पुरानी याद पीछा नहीं छोड़ रही थी. एक लड़की ने छेड़ा था, राखी बाँध दूँगी...उसने घड़ी दिखाते हुए कहा था...मेरी बहन है...इस भागते वक़्त ने मुझे राखी बाँधी है, देखती नहीं हो...कैसे इसकी रक्षा करने को कविता, कहानियां सकेरता रहता हूँ. लड़की हँसते हुए गयी थी...जिस दिन दायें हाथ से घड़ी उतारोगे मेरी रक्षा करने का भार उठाना.
कवि ने दराज़ से सफ़ेद रुमाल निकला. रूमाल के दायें कोने पर उसके नाम का पहला अक्षर लिखा था. नामों का खेल...उन दोनों के नाम एक ही अक्षर से शुरू होते थे. सफ़ेद रुमाल दायीं हथेली पर बाँधा. उसके ऊपर घड़ी पहनी. उसके कुरते करीने से इस्त्री किये हुए रखे थे. सफ़ेद कुरते एक तरफ, रंग वाले कुरते एक तरफ. सुर्ख पीला कुरता पहनते हुए उसके होठों पर मुस्कान अनायास खेल गयी. आखिरी बार लड़की को उसने उसकी हल्दी की रस्म पर ही तो देखा था. जिद थी कि उसकी शादी में नहीं जाएगा.
वो कैसे दिन थे न...हँसते हुए घबराहट नहीं होती थी. हाथ से कुछ छूट जाता था तो अफ़सोस नहीं होता था. या कि अफ़सोस दिल में ऐसे गहरे दफन करके रख दिए गए थे. जीवन की संध्या में अफ़सोस की खुशबू वाले फूल खिल रहे थे. इन्हें करीने से रखने का सलीका सीख रहा था वो आजकल. एक कांच के गुलदान में सबरंगी अफ़सोस थे...तीन चार दिन ताज़े रहते थे, फिर उनकी जगह नए अफ़सोस ले लेते थे.
आईने के सामने खड़ा था...याद नहीं था कहाँ जाने के लिए तैयार हुआ था. कल रात उसका सपना देखा था. लड़की ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा था, तुम्हारा हाथ चूम सकती हूँ? सपना बेहद सच्चा सा था. उसने अपनी कलाईयाँ सूंघी...दालचीनी की खुशबू थी तो सही...या कि टेबल दालचीनी की लकड़ी से बनी थी? उसे ख्याल नहीं कि मजदूरों ने क्या कहा था...उसे लकड़ियों की समझ भी नहीं थी...समझ तो उसे लड़कियों की भी नहीं थी.
बहरहाल...टेबल की तीखी धार से उसकी कलाइयाँ कटती थीं...ख्वाबों में लड़की के दुपट्टे से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की सियाही से दालचीनी की खुशबू आती थी...कवि की कलाइयों से दालचीनी की खुशबू आती थी.
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कवितायें भले कालजयी हों मगर कवि की उम्र कुछ साल ही होती है. कवि की कब्र पर एक दालचीनी का पेड़ उगा. लोग कहते थे कि उस दालचीनी के पेड़ से एक लड़की की खुशबू आती थी.
सब तो लिख दिया तुमने...!
ReplyDeleteसच है, "कवितायें भले कालजयी हों मगर कवि की उम्र कुछ साल ही होती है."
इसलिए तो कहते हैं, लिख जाने के बाद कवि से बहुत बड़ी हो जाती है कविता!
और हां... सच कहते थे लोग---
"कवि की कब्र पर एक दालचीनी का पेड़ उगा. लोग कहते थे कि उस दालचीनी के पेड़ से एक लड़की की खुशबू आती थी."
भावपूर्ण।
ReplyDeleteअच्छा लेखन, लेकिन कम टिप्पणी देखकर लगता है, दोष लेखन में नहीं, हमारे देने में है। उम्दा लेखन।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {मंगलवार 20/08/2013} को
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉग समूह
hindiblogsamuh.blogspot.com
पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra
क्या बात, बहुत सुंदर
ReplyDeletewaah...kya kehne....bahut hi khoob likha hai Pooja:-)
ReplyDeleteलिखते लिखते तो मेरे हाथ पर भी धारियाँ बन जाती हैं, मैं भी बढ़ई को बुलवाकर किनारों को घिसवाउँगा। पर जब मन के नुकीले किनारे छीलें तो क्या करे गरीब लेखक।
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