Showing posts with label Sepia. Show all posts
Showing posts with label Sepia. Show all posts

11 December, 2012

सीले बदन पर, कोई दाग पड़ा है


दिन के फरेब में रात का नशा है/ जब भी छुआ है ज़ख्म सा लगा है
सीले बदन पर कोई दाग पड़ा है/बारिशें हैं...सब धुआं धुआं है 

आँखों में कोई कल रात छुपा था, आज सुबह रकीब की लाश मिली है...कसक कोई पानी में घुली है कि दुपट्टे को निचोड़ा है तो कितना सारा दुःख गीले छत पे बहा है...थप्पड़ खाया है चेहरे पर तो होठों से खून बहा है कि तुम्हारा नाम अब भी आदतों में रहा है...कहाँ है कोई...शहर में दिल्ली का कोहरा बुला दे...कहाँ है इश्क कि जीने का अंदाज़ भूलता जाता है...

कब की बात है जानां? आसमान आधा बंटा है...तेरे शहर में बारिश और यहाँ दरिया जला है...तू गुमशुदा कि जहां गुमशुदा है...तेरे दिल तक पहुंचे वो रास्ता कहाँ है? मैं क्यूँ उदास बैठी हूँ रात के तीसरे पहर कि अचानक से बहुत सी भीड़ आ गयी है मेरी तन्हाइयों में. किसने तोड़ दी है फिरोजी रंग की दवात? डॉक्टर ने चेक करके कहा है कि मेरे खून का रंग हरा है...किसी बियाबान में रोप दो ना अमलतास के पौधे...ढूंढ दो मेरी पसंद की कलम. मेरी जान...मैं भूल गयी हूँ अपनी पसंद के गाने...मुझे बता दो तुम्हारे गम में सुकून पहुंचे वो गीत कौन सा है?

सब उतना ही पुराना है तू जितना नया है...इश्क के क्लास में ब्लैकबोर्ड सा टंगा है...सफ़ेद चौक में टीचर की उँगलियों का नशा है, सिगरेट के छल्ले बनाना सीख रहा है...मेरी कहानियों का वो शख्स कितना गुमशुदा है...पेड़ है इमली का...हैरतजदा है. तुम झूठ बोलते हो...वहां झूला पड़ा है...मेले में चलो न, तारामाछी लगा है. कितनी बात करते हो...चुप रहना मना है.

शहर से भागते पुल के ऊपर एक शहर नया बसा है...कैसी रौशनी है...कितना तमाशा है...वहां भी कोई मिलने आएगा ऐसा धोखा हुआ है...जिंदगी फानी रे बाबू...दरिया है मगर सूखा हुआ है. मैं ठहरी हुयी हूँ तू ठहरा हुआ है...कितना दूर है कोई...किसी प्लेटफोर्म पर कोई जिंदगी से बिछड़ा है...सारा किस्सा कहा हुआ है, सारा कहना सुना हुआ है...गाँव चले आता है बस में चढ़ कर, शहर के बाहर लिखवा दो, शहर में रहना मना है. तुम्हारे बाग़ में बहार नहीं आई...अँधेरा कितना घना है...कितनी बर्फ पड़ी, कितना शोर बरसा...किसने भींचा बांहों में...कौन जाग जाने को कहता है...किसी पागल दिशा से आया पगला विरहा गाता है.

कितना लिखना, कितना बाकी बचा है?
---

कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
---
कुछ भी ऐब्स्त्रैक्ट नहीं होता...जंगल में खोयी हुयी पगडण्डी भी किसी गाँव को पहुंचा ही देती है...मन के रास्ते किसी उलझे वाक्य से गुज़र कर जाते होंगे शायद...ये शायद क्या होता है?

06 October, 2012

याद का कोमल- ग

फणीश्वर नाथ रेणु...मारे गए गुलफाम/तीसरी कसम...ठेस
---
लड़की की पहले आँखें डबडबाती हैं और फिर फूट फूट कर रो देती है. उसे 'मायका' चाहिए...घर नहीं, ससुराल नहीं, होस्टल नहीं...मायका. आह रे जिंदगी...कलेजा पत्थर कर लो तभियो कोई एक दिन छोटा कहानी पढ़ो और रो दो...कहीं किसी का कोई सवाल का जवाब नहीं. कहीं हाथ पैर पटक पटक के रो दो कि मम्मी चाहिए तो चाहिए तो चाहिए बस. कि हमको देवघर जाना है.

काहे पढ़ी रे...इतना दिन से रक्खा हुआ था न किताब के रैक पर काहे पढ़ी तुम ऊ किताब निकाल के...अब रोने कोई बाहर से थोड़े आएगा...तुम्ही न रोएगी रे लड़की! और रोई काहे कि घी का दाढ़ी खाना है...चूड़ा के साथ. खाली मम्मी को मालूम था कि हमको कौन रंग का अच्छा लगता था...भूरा लेकिन काला होने के जरा पहले कि एकदम कुरकुरा लगना चाहिए और उसमें मम्मी हमेशा देती थी पिसा हुआ चिन्नी...ई नहीं कि बस नोर्मल चिन्नी डाल दिए कि खाने में कचर कचर लगे...पिसा चिन्नी में थोड़ा इलायची और घर का खुशबू वाला चूड़ा...कितना गमकता था. खाने के बाद कितने देर तक हाथ से गंध आते रहता था. चूड़ा...घी और इलायची का. 

काम न धंधा तो भोरे भोरे चन्दन भैय्या से बतिया लिए...इधरे पोस्टिंग हुआ है उनका भी...रेलवे में स्टेसन मास्टर का पोस्ट है...आजकल ट्रेनिंग चल रहा है. अभी चलेगा जनवरी तक...आज कहीं तो हुबली के पास गए हैं, बोल रहे थे कि ट्रेन उन सब दिखा रहा था कि ट्रैक पर कैसे चलता है. भैय्या का हिंदी में अभी हम लोग के हिंदी जैसा दू ठो स्विच नहीं आया है. हिंदी बोलते हैं तो घरे वाला बोलते हैं. हमारा तो हिंदी भी दू ठो है...एक ठो बोलने वाला...एक ठो लिखने वाला...एक ठो ऑफिस वाला एक ठो घर वाला. परफेक्शन कहिन्यो नहीं है. भैय्या से तनिये सा देर बतियाते हैं लेकिन गाँव का बहुत याद आता है. लाल मंजन से मुंह धोना...राख से हाथ मांजना...कुईयाँ से पानी भरना. नीतू दीदी का भी बहुत याद आता है. लगता है कि बहुत दिन हुआ कोई हुमक के गला नहीं लगाया है...कैसी है गे पमिया...ससुराल वाला कैसा है. अच्छा से रखता है न...मेहमान जी कैसे हैं? चाची के हाथ का खाना...पीढ़िया पर बैठना. 

इस्कूली इनारा का कुइय्याँ का पानी से भात बनाना रे...गोहाल वाला कुइय्याँ के पानी मे रंग पीला आ जाता है. आज उसना चौर नै बनेगा, मेहमान आये हैं न...बारा बचका बनेगा...ऐ देखो तो गोहाल में से दू चार ठो बैगन तोड़ के लाओ और देखो बेसी पुआल पे कूदना नै...नै तो कक्कू के मार से कोई नै बचाएगा. साम में पुआ भी बना देंगे...मेहमान जी को अच्छा लगता है. बड़ी दिदिया कितने दिन बाद आएगी घर. जीजाजी को ढेर नखड़ा है...ई नै खायेंगे...ऐसे नै बैठेंगे. खाली सारी सब से बात करने में मन लगता है उनको. 

आंगन ठीक से निपाया है आज...रे बच्चा सब ठीक से जाओ, बेसी कूदो फांदो मत...पिछड़ेगा तो हाथ गोड़ तूत्बे करेगा. राक्षस है ई बच्चा सब...पूरा घर बवाल मचा रखा है...लाओ त रे अमरुद का छड़ी, पढ़ाई लिखाई में मन नै लगता है किसी का. एक ठो रूम है जिसमें एक ठो पुराना बक्सा है...तीन चार ठो बच्चा उसी में मूड़ी घुसाए हुए हैं कि कितना तो पुराना फोटो, कोपी, कलम सब है उसमें. सब से अच्छा है लेकिन ऊ बक्सा का गंध. गाँव का अलमारी में भी वैसा ही गंध आता है. वैसा गंध हमको फिर कहीं नै मिला...पते नै चलता है कि ऊ कौन चीज़ का गंध है. 

गाँव नै छूटता है जी...केतना जी कड़ा करके सहर में बस जाइए...गाँव नै छूटता है...नैहर नै छूटता है. मम्मी से बात किये कितना साल हुआ...दिदिमा से भी बाते नै हो पाता है. चाची...बड़ी मम्मी...सोनी दीदी, रानी दीदी, बोबी दीदी, बड़ी दिदिया, बडो दादा, भाभी, दीपक भैय्या, छूटू दादा, बबलू दादा, गुड्डी दीदी, जीजू, तन्नू, छोटी, अजनास...बिभु भैय्या...कितने तो लोग थे...कितने सारे...पमिया रे पम्मी रे पम्मी. 

देवघर...मम्मी जैसा शहर...जहाँ सांस लेकर भी लगता था कि चैन और सुकून आ गया है. कहाँ आ गए रे बाबा...केतना दूर...मम्मी से मिलने में एक पूरी जिंदगी बची है. अगले साल तीस के हो जायेंगे. सोचते हैं कि पचास साल से ज्यादा नहीं जियेंगे किसी हाल में. वैसे में लगता है...बीस साल है...कोई तरह करके कट जाएगा. कलेजा कलपता है मैका जाने के लिए. कि मम्मी ढेर सारा साड़ी जोग के रखी है...कि मम्मी वापस आते टाइम हाथ में पैसा थमा रही है...मुट्ठी बाँध के. के दशहरा आ रहा है दुर्गा माँ के घर आने का...और फिर नवमी में वापस  जाने का...कि कोई भी हमेशा के लिए थोड़े रहता है. कि खुश रहना एक आदत सी होती है. कि नहीं कहने से ऐसा थोड़े होता है मम्मी कि तुमको भूल जाएँ हम. काश कि भूल पाते. 

मिस यू माँ...मिस यू वैरी वैरी मच. 

15 April, 2012

इन लव विद द चेक शर्ट...


तुमको कितना कहते हैं कि चेक शर्ट मत पहना करो तुमको समझ काहे नहीं आता है जी? बोले न बचपन से चेक शर्ट हमारा कमजोरी रहा है. स्कूल में मैथ के सर थे...वो एक ब्लू और ब्लैक का चेक पहन के आते थे...एकदम छोटे चेक...पर मुझे वो चेक इतना ज्यादा पसंद था कि किसी तरह तीन साल खुद को रोके कि पूछ न लें सर से कि कहाँ से ख़रीदे हैं शर्ट...फिर ये भी था कि सर केरला के थे तो अगर कह देते कि घर से ख़रीदे हैं तो क्या कहते...फिर मन का चोर तो जानता था कि चेक शर्ट तो बहाना है...वो कुछ और भी पहनते तो भी सोलिड क्रश था यार...कोई उपाय नहीं था. 
---
तू तो है ही चिंदी...हमेशा तो सोलिड कलर्स पहनना पसंद था तुझे...तेरी वो जर्मन ब्लू शर्ट कितने दिन तक मेरी फेवरिट रही थी..फिर वो काई कलर की...नेवी ब्लू...ब्लैक...मैरून...रेड...बटर कलर...कितनी अच्छी अच्छी शर्ट्स थीं तेरे पास. मुझे तू हमेशा ऐसे ही याद आता है...प्योर कलर्स में...सिंगल शेड...और कितनी अच्छी चोइस थी तेरी और तेरी मम्मी की...तू कितना अच्छा, भला लड़का टाइप लगता था. कभी तेरी शर्ट पर एक क्रीज भी नहीं देखी...तुझे भी मेरी तरह आदत थी. कितना भी आयरन करके, तह लगा के रखा हुआ हो कुछ...पहनने के जस्ट पहले आयरन करेंगे ही. पहली बार तुझे चेक शर्ट में देखा...बड़ा अच्छा लग रहा है...डिफरेंट, क्लासिक...बात क्या है, कोई लड़की पटानी है? पक्का किसी ने कहा है न कि तू चेक में अच्छा लगता है...अब बता न...देख वरना मार खायेगा बहुत...और सुन...कितना भी तेरे पास चेक शर्ट्स पड़े हों, मुझसे मिलने प्लेन शर्ट पहन के आया कर...क्यूँ...अरे पगलेट...बेस्ट फ्रेंड है तू न मेरा...बचपन से...और चेक शर्ट मेरी वीकनेस है, जानता तो है तू...तेरे से प्यार होने का अडिशनल लफड़ा नहीं चाहिए हमको अभी लाईफ में...ओके?
---
शाम का वक़्त है...आज कुछ ऐसी चीज़ों में उलझी कि खाना खाना भूल गयी...शाम हो गयी तो थोड़ा घर का सामान लेने बाहर निकली हूँ...आज बहुत दिन बाद बड़ी शिद्दत से एक सिगरेट पीने की ख्वाहिश जागी है...कोने से खोज कर मार्लबोरो का पैकेट निकालती हूँ...सिगरेट इज इन्जुरियस टू हेल्थ...हाँ हाँ...जानती हूँ बट सो इज लव...दज इट कम विद अ वार्निंग? बड़े आये तुर्रम खां...मेरी बला से! घर में रहो तो मौसम बड़ा ठहरा हुआ लगता है पर सड़क पर टहलने निकल जाओ तो दिखता है कि गुलमोहर को प्यार हुआ है और वो इश्क के रंग में डूबा है पूरी तरह...अमलतास और कई सारे रंग के फूल हैं...हलके गुलाबी...बैगनी...सफ़ेद... कुल मिला कर बेहद खूबसूरत नज़ारा है. मुझे कोलनी की सारी सड़कें याद हैं...कहाँ कैसे पेड़ हैं...किधर वो घर हैं जिनके आगे दरबान खैनी लगाते मिल जायेंगे...कहाँ बच्चे रोड पर साइकिल की प्रैक्टिस करते हैं शाम को...किधर सीनियर सिटिज़न लोग हैं...सब. 

मैं एक खाली सी सड़क पर हूँ...इधर कम लोग दिखते हैं...मैंने पहली सिगरेट सुलगाई है...हेडफोन पर किसी की आवाज़ है...पर मैं आवाज़ से बहुत दूर चली आई हूँ...कुछ देर तक आवाज़ मुझे पुकारती रहती है...मैं लौट कर आती हूँ और हँसती हूँ...कि मेरी जान वाकई...कभी कभी लगता है कि जिंदगी के धुएं में उड़ जाने से ज्यादा खूबसूरत रूपक हो ही नहीं सकता...अब आवाज़ का लहजा सख्त हो जाने की कोशिश करता है और मैं अपनी बेस्ट फ्रेंड के प्यार पर हँस पड़ती हूँ...अच्छा सुन न...जाने दे न...अच्छा मूड है, कौन सा रोज सिगरेट पीती हूँ...डांट मत न...ओकेज्नाली न...तो आज कौन सा ओकेजन है...वो गुस्से में भरी पूछती है...मैं मुस्कुराती हूँ बस. 

हवा में वसंत की गंध है...प्यार करना है तो वसंत कह लो...तारीफ करनी है तो बहार. एक वक़्त था मुझे सिगरेट के धुएं से अलर्जी थी...बर्दाश्त नहीं कर पाती थी...इसलिए कभी तबियत से स्मोकिंग की नहीं, कभी एकदम ही मूड ख़राब हुआ  तो खुद को तकलीफ देने के लिए पिया करती थी...वक़्त के साथ क्या कुछ बदल जाता है...बस नहीं बदला है तो सिगरेट का ब्रैंड...आज भी मार्लबोरो...अल्ट्रा माइल्ड्स.
---
कॉन्वेंट की ड्रेस काफी स्मार्ट हुआ करती थी...शोर्ट ब्लू एंड ब्लैक चेक स्कर्ट और व्हाइट शर्ट...मोज़े एकदम करीने से नीचे मोड़े हुए...बस स्टैंड पर वेट करती हुयी अच्छी लगती होउंगी इसका अंदाज़ बाइक पर तफरी करते लड़कों से लग जाता था. उसमें से एक मुझे बेहद पसंद था...भूरी आँखें थी उसकी और अक्सर मिलिट्री प्रिंट के ट्राउजर्स पहनता था. आँखें तो उसकी बहुत बाद में देखी थीं...वो प्रिंट मेरी आज भी सबसे पसंदीदा प्रिंट में से एक है...दोस्त चिढाती थीं मुझे कि मैं लड़कों को उनके कपड़ों से नाम देती हूँ...ब्लैक टी शर्ट, मिलिट्री प्रिंट, येलो चेक्स, वाईट एंड ब्लू...मैं उनपर हँसती थी कि मैं कपड़ों में देखती हूँ तो वैसे ही नाम देती हूँ...तुम लोग क्या बिना कपड़ों के देखती हो...उसके बाद एक  झेंपा हुआ सन्नाटा था और फिर किसी ने मुझे किसी के नाम के बारे में नहीं चिढ़ाया. मुझे आज भी लड़के मेरी पसंद के कपड़ों में ही याद रहते हैं...मेरी यादें ब्लैक एंड वाईट नहीं होतीं. 
---
धुआं फूंकते हुए ऊपर देखती हूँ...हलके नीले आसमान में पेड़ की शाखों की कैनोपी है...ब्लू चेक शर्ट...मैं अपने को-रिलेट करने की क्षमता पर खुद ही मुस्कुराती हूँ...लेफ्ट के आर्च पर बोगनविलिया में कुछ फूल आये हैं...जैसे उसकी हलकी मुस्कान...क्यूट...मैं फिर मुस्कुराती हूँ...मेरी सहेलियां मेरे प्यार में गिरने पड़ने से परेशान रहती हैं...उसे बताती तो कहती...फिर से? इसलिए उसे बताया नहीं...फोन चुप है...गाने ख़त्म...इयरफोन अब बस म्यूट करने के काम आ रहा है...सारा शोर... सारा दर्द...सारे लोग...मैं अक्सर बिना गानों के हेडफोन लगा के घूमती हूँ...ऐसे में अपने मन के गाने बजते हैं...अपनी दुनिया होती है...एकदम चुप...सिगरेट का धुआं जैसे शांत कमरे में ऊपर जा रहा है...गिरह गिरह खुलता हुआ...ये दूसरी सिगरेट ख़त्म हुयी...आखिरी का आखिरी कश. दो सिगरेट के बाद मिंट...ज़बान पर घुलता हुआ...जैसे फीके होते आसमान में उभरता अहसास...किसी चेक शर्ट से प्यार हो गया है मुझे. 

31 March, 2012

नदी में लहरों के आँसू किसे दिखते हैं

कभी नदी से उसके ज़ख्म पूछना
दिखाएगी वो तुम्हें अपने पाँव
कि जिनमें पड़ी हुयी हैं दरारें
सदियों घिसती रही है वो एड़ियाँ
किनारे के चिकने पत्थरों पर

मगर हर बार ऐसा होता है
कि नदी अपनी लहरदार स्कर्ट थोड़ी उठा कर
दौड़ना चाहती है ऊपर पहाड़ों की ओर
तो चुभ जाते हैं पाँवों में
नए, नुकीले पत्थर
कि पहाड़ों का सीना कसकता रहता है
नदी वापस नहीं लौटती 

और दुनियादारी भी कहती है मेरे दोस्त
बेटियाँ विदाई के बाद कभी लौट कर
बाप के सीने से नहीं लगतीं

पहाड़ों का सीना कसकता है
लहरदार फ्राक पहनने वाली छोटी सी बरसाती नदी
बाँधने लगती है नौ गज़ की साड़ी पूरे साल

उतरती नदी कभी लौट कर नहीं आती
मैं कह नहीं पाती इतनी छोटी सी बात
'आई मिस यू पापा'
मगर देर रात
नींद से उठ कर लिखती हूँ
एक अनगढ़ कविता
जानती हूँ अपने मन में कहीं
पहाड़ों का सीना कसकता होगा 

परायीं ज़मीनों को सींचने के लिए
बहती जाती हैं दूर दूर
मगर बेटियाँ और नदियाँ
कभी दिल से जुदा नहीं होतीं... 

20 March, 2012

दरख़्त के सीने में खुदे 'आई लव यू'

इससे अच्छा तो तुम मेरे कोई नहीं होते 
गंध...बिसरती नहीं...मुझे याद आता है कि जब उसके सीने से लगी थी पहली बार...उदास थी...क्यूँ, याद नहीं. शायद उसी दिन पहली बार महसूस हुआ था कि हम पूरी जिंदगी साथ नहीं रहेंगे. एक दिन बिछड़ना होगा...उसकी कॉटन की शर्ट...नयेपन की गंध और हल्का कच्चापन...जैसे आँखों में कपास के फूल खिल गए हों और वो उन फाहों को इश्क के रंग में डुबो रहा हो...गहरा लाल...कि जैसे सीने में दिल धड़कता है. आँखें भर आई थीं इसलिए याद नहीं कि उस शर्ट का रंग क्या था...शायद एकदम हल्का हरा था...नए पत्तों का रंग उतरते जो आखिरी शेड बचता है, वैसा. मैंने कहा कि ये शर्ट मुझे दे दो...उसने कहा...एकदम नयी है...सबको बेहद पसंद भी है...दोस्त और घर वाले जब पूछेंगे कि वो तो तुम्हारी फेवरिट शर्ट थी...कहाँ गयी तो क्या कहूँगा...मैंने कहा कि कह देना अपनी फेवरिट दोस्त को दे दिया...पर यु नो...दोस्त का इतना हक नहीं होता.
---
तुम मुझे अपने घर में किरायेदार रख लो 
और फिर लौट आने को...मन की दीवार पर पेन्सिल से लिखा है...शायद अगली दीवाली में घर पेंट होगा तो इसपर भी एक परत गुलाबी रंग की चढ़ जायेगी...पर तब तक की इस काली लिखावट और उसके नीचे के तुम्हारे इनिशियल्स से प्यार किये बैठी हूँ. तुम्हें लगता है कि पेन्सिल से लिखा कुछ भी मिटाया जा सकता है...पागल...मन की दीवार पर कोई इरेजर नहीं चलता है...तुम्हें किसी ने बताया नहीं?
सुनती हूँ कि तुम्हारे घर में एक नन्हा सा तुम्हारा बेटा है...एक खूबसूरत बीवी है...बहुत सी खुशियाँ हैं...और सुना ये भी है कि वहां एक छोटा सा स्टडी जैसा कमरा खाली है...अच्छे भरे पूरे घर में खाली कमरा क्या करोगे...वहां उदासी आ के रहने लगेगी...या कि यादें ही अवैध कब्ज़ा कर के बैठ जायेंगी. इससे तो अच्छा मुझे अपने घर में किरायेदार रख लो...पेईंग गेस्ट यु सी. मेरा तुम्हारा रिश्ता...कुछ नहीं...अच्छा मकान मालिक वो होता है जो किरायेदार से कम से कम मेलजोल रखे.
---
कितने में ख़रीदा है सुकून?
खबर मिली है कि पार्क की एक बेंच तुमने रिजर्व कर ली है...रोज वहां शाम को बैठ कर किसी लड़की से घंटों बातें करते हो. अब तो रेहड़ी वाले भी पहचानने लगे हैं तुम्हें...एकदम वक़्त से मुन्गोड़ी पहुंचा देते हैं और मूंगफली भी...और चिक्की भी...ऐसे मत कुतरो...किसी और का दिल आ गया तो इतनी लड़कियों को कैसे सम्हालोगे?
दिल्ली जैसे शहर में कुछ भी मुफ्त तो मिलता नहीं है. सुकून कितने में ख़रीदा वो तो बताओ...अच्छा जाने दो...उस पार्क के पुलिसवाले को कितना हफ्ता देते हो रोज़ वहां निश्चिंत बैठ कर लफ्फाजी करने के लिए. ठीक ठीक बता दो...मैं पैसे भिजवा दूँगी...किसी और से बात करने के लिए क्यूँ? खुश रहते हो उससे बात करके...ये भी शहर ने बता दिया है...अरे दिल्ली में मेरी जान बसती है...तुम में भी...तुम्हारा सुकून इतने सस्ते मिल रहा है...किसी और के खरीदने के पहले मैं खरीद लेती हूँ...आखिर तुम्हारा पहला प्यार हूँ.
---
सारे तारे तुम्हारी तरफदारी करते हैं 

तुम तो बड़े वाले पोलिटिशियन निकले, सारे सितारों को अपनी साइड मिला लिया है...ऐसे थोड़े होता है. एक सूरज और एक चाँद...ऐसे तो मेरा केस बहुत कमजोर पड़ जाएगा...तुमसे हार जाने को तो मैं यूँ ही बैठी थी तुम खामखा के इतने खेल क्यूँ खेल रहे हो...जिंदगी भले शतरंज की बिसात हो...इतना प्यार करती हूँ कि हर हाल में तुमसे 'मात' ही मिलनी थी. चेकमेट क्यूँ...प्लेमेट क्यूँ नहीं...मुझे ऐसे गेम में हराने का गुमान पाले हुए हो कि जिसमें मेरे सारे मोहरे कच्चे थे. इश्क के मैदान में उतरो...शाह-मात जाने दो...गेम तो ऐसा खेलते हैं कि जिंदगी भर भूल न पाओ मुझे.
लोग एक चाय की प्याली में अपना जीवनसाथी पसंद कर लेते हैं...तुम्हारी तो शर्तें ही अजीब हैं...सारी चालें देख कर प्यार करोगे मुझसे?
---
कैन आई काल यू 'हिकी'?
तुम्हारे दांतों से जो निशान बनते हैं उन्हें गिन कर मेरी सहेलियां अंदाज़ लगाती हैं कि तुम मुझसे कितना प्यार करते हो. अंदाज़ तो ये भी लगता है कि इसके पहले तुम्हारी कितनी गल्फ्रेंड्स रही होंगी...ये कोई नहीं कहता. हिकी टैटू की तरह नहीं होता अच्छा है...कुछ दिन में फेड हो जाता है. तुम्हारा प्यार भी ऐसा होगा क्या...शुरआत में गहरा मैरून...फिर हल्का गुलाबी...और एक दिन सिर्फ गोरा...दूधधुला...संगेमरमर सा कन्धा...अछूता...जैसे तुमने वाकई सिर्फ मेरी आत्मा को ज़ख्म दिए हों.
---
उनींदी आँखों पर तुम्हारे अख़बार का पर्दा 
यु नो...आई यूज्ड तो हेट टाइम्स आफ इंडिया...पर ये तब तक था जब तक कि हर सुबह आँख खोलते ही उसके मास्टहेड की छाँव को अपनी आँखों पर नहीं पाती थी...तुम्हें आती धूप से उठना पसंद था...और मुझे आती धूप में आँखें बंद कर सोना...धूप में पीठ किये खून को गर्म होते हुए महसूसना...पर तुम्हारी शिकायत थी कि तुम्हें सुबह मेरा चेहरा देखना होता था...तो तुमने अख़बार की ओट करनी शुरू की.
आज अर्ली मोर्निंग शिफ्ट थी...सुबह एक लड़का टाइम्स ऑफ़ इण्डिया पढ़ रहा था...तुम्हें देखने की टीस रुला गयी...मालूम है...आज पहली बार अख़बार के पहले पन्ने पर तुम्हारी खबर आई थी...बाईलाइन के साथ...अच्छा तुम्हें बताया नहीं क्या...तुमसे ब्रेकऑफ़ के बाद मैंने टाइम्स ऑफ़ इण्डिया...सबस्क्राइब कर लिया था.
---
सिक्स्थ सेन्स हैज नो कॉमन सेन्स 
मेरी छठी इन्द्रिय को अब तक खबर नहीं पहुंची है कि मैं और तुम अलग हो गए हैं...कि अब तुम्हारे लिए दुआएं मांगने का भी हक किसी और का हो गया है. किसी शाम तुम्हारा कोई दर्द मुझे वैसे ही रेत देता है जैसे तुम्हारे जिस्म पर बने चोट के निशान. मैं उस दोस्त क्या कहूँ जो मुझे बता रहा था कि पिछले महीने तुम्हरा एक्सीडेंट हुआ था...कह दूं कि मुझे मालूम है? वो जो तुम्हारी है न...उससे कहो कि तुम्हारा ध्यान थोड़ा ज्यादा रखे...या कि मैं फिर से तुम्हारा नाम अपनी दुआओं में लिखना शुरू कर दूं?
---
आखिरी सवाल...डू यू स्टिल रिमेम्बर टू हेट मी?

12 December, 2011

दिल्ली मेरी जान...उफ्फ्फ दिल्ली मेरी जान!

वो कहते हैं तुम्हारे जन्म को इतने साल हो गए, उतने साल हो गए...मगर दिल्ली मेरी जान...मेरे लिए तो तुम जन्मी थी उसी दिन जिस दिन पहली बार मैंने तुम्हारी मिटटी पर पैर रखा था...उसी लम्हे दिल में तुम्हारी नन्ही सी याद का चेहरा उगा था पहली बार...वही चेहरा जो कई सालों तक लौट लौट उगता रहा पार्थसारथी के चाँद में.

तुम मुझमें किसी अंकुर की तरह उगी जिससे मैंने तब से प्यार किया जबसे उसके पहले नन्हे हरियाले पत्तों ने मेरी ओर पहली बार मासूमियत से टुकुर टुकुर देखा...तुम्हारी जड़ें मेरे दिल को अपने गिरफ्त में यूँ लेती गयीं जैसे तुम्हारी सडकें मेरे पांवों को...दूर दूर पेड़ों के बीच जेऐनयु में चलती रही और तुम मेरे मन में किसी फिल्म की तरह दृश्य, रंग, गंध, स्वाद सब मिला कर इकठ्ठा होती गयी.

अब तो तुम्हारा इत्र सा बन गया है, जिसे मैं बस हल्का सा अपनी उँगलियों से गर्दन के पास लगाती हूँ और डूबती सी जाती हूँ...तुमसे इश्क कई जन्मों पुराना लगता है...उतना ही पुराना जितना आरके पुरम की वो बावली है जिसे देख कर मुझे लगा था कि किसी जन्म में मैं यहाँ पक्का अपने महबूब की गोद में सर रखे शामें इकठ्ठा किया करती थी. पत्थर की वो सीढियां जो कितनी गहरी थीं...कितनी ऊँची और बेतरतीब...उनपर नंगे पाँव उतरी थी और लम्हा लम्हा मैं बुत बनती जा रही थी...वो तो मेरे दोस्त थे कि मुझे उस तिलिस्म से खींच लाये वरना मैं वहीँ की हो कर रह जाती.

तुम्हें मैं जिस उम्र में मिली थी तुमसे इश्क न होने की कोई वजह नहीं थी...उस अल्हड लड़की को हर खूबसूरत चीज़ से प्यार था और तुम तो बिछड़े यार की तरह मिली थी मुझसे...बाँहें फैला कर. तुम्हारे साथ पहली बारिश का भीगना था...आसमान की ओर आँखें उठा कर तुम्हारी मिटटी और तुम्हारे आसमान से कहना कि मुझे तुमसे बेपनाह मुहब्बत है.

आईआईएमसी की लाल दीवारें मुहब्बत के रंग में लाल थी...वो बेहद बड़ी इमारत नहीं थी, छोटी सी पर उतनी छोटी कि जैसे वालेट में रखा महबूब का पासपोर्ट साइज़ फोटो...कि जिसे जब ख्वाइश हो निकल कर होठों से लगा लिया और फिर दुनिया की नज़र से छुपा पर वापस जींस की पीछे वाली जेब में, कि जहाँ किसी जेबकतरे का हाथ न पहुँच सके. उफ़ दिल्ली, तुम्हें कैसे सकेरती हूँ कि तुम्हारी कोई तस्वीर भी नहीं है जिसे आँखों से लगा कर सुकून आये.

दिल्ली मेरी जान...तुम मेरी तन्हाइयों का सुकून, मेरी शामों की बेकरारी और मेरी जिंदगी का सबसे खुशनुमा पन्ना हो...तुमसे मुझे दिल-ओ-जान से मुहब्बत है और तुम्हें क्या बताऊँ कि कैसी तड़प है तुम्हारी बांहों में फिर से लौट आने की.

दिल्ली तेरी गलियों का, वो इश्क़ याद आता है...
पुराने फोल्डर्स में देखती हूँ तो एक शाम का कतरा मिला है...पार्थसारथी का...अपने लिए सहेज कर यहाँ लगा रही हूँ...गौर से अगर देखोगी तो इस चेहरे को अपने इश्क में डूबा हुआ पाओगी...और हालाँकि ये लड़की बहुत खूबसूरत नहीं है...पर इश्क करते हुए लोग बड़े मासूम और भले से लगते हैं.

दिल्ली मेरी जान...उफ्फ्फ दिल्ली मेरी जान!

12 November, 2011

बाल्टी भर पानी की कहानी

बहुत साल पहले घर में कुआँ होता था...पानी चाहिए तो बाल्टी लीजिये और कुएं से पानी भर लो. घर में दो कुएं होते थे, एक भीतर में आँगन के पास घर के काम के लिए और एक गुहाल में होता था खेत पथार से लौटने के बाद हाथ पैर धोने के लिए, गाय के सानी पानी के लिए और जो थोड़ा बहुत सब्जी लगाया गया है उसमें पानी पटाने के लिए. मुझे ध्यान नहीं कि मैंने पानी भरना कब सीखा था.

कुएं से अकेले पानी भरने का परमिशन मिलना बड़े हो जाने की निशानी हुआ करती थी. पहले पहल कुएं में बाल्टी डालना एक सम्मोहित करने वाला अनुभव होता था. बच्चों को छोटी बाल्टी मिलती थी और सीखने के लिए पहले रस्सी धीरे धीरे डालो, बाल्टी जैसे ही पानी को छुए बाल्टी वापस उठानी होती थी. उस समय पता नहीं होता था कि नन्हे हाथों में कितना पानी का वजन उठाने की कूवत है. इसलिए पहले सिर्फ बाल्टी को पानी से छुआने भर को रस्सी नीचे करते थे और वापस खींच लेते थे. मुझे याद है मैंने जब पहली बार बाल्टी डाली थी पानी में, गलती से पूरी भर गयी थी...मैं वहां भी खोयी हुयी सी कुएं में झुक कर देखने लगी थी कि बाल्टी में पानी भरता है तो कैसे हाथ में थोड़ा सा वजन बढ़ता है. उस वक़्त फिजिक्स नहीं पढ़े थे कि बोयंसी (buoyancy) के कारण जब तक बाल्टी पानी में है उसका भार पानी से निकलने पर उसके भार से काफी कम होगा. जब बाल्टी पानी से निकली तो इतनी भारी थी कि समझो कुएं में गिर ही गए थे. सोचे ही नहीं कि बाल्टी भारी हो जायेगी अचानक से. फिर तो मैं और दीदी(जो बस एक ही साल बड़ी थी हमसे) ने मिल कर बाल्टी खींची. एकदम से जोर लगा के हईशा टाइप्स.

शुरू के कुछ दिन हमेशा कोई न कोई साथ रहता था कुएं से पानी भरते समय...बच्चा पार्टी को स्पेशल हिदायत कभी भी कुएं से अकेले पानी मत भरना...उसमें पनडुब्बा रहता है, छोटा बच्चा लोग को पकड़ के खा जाता है...रात को चाँद की परछाई सच में डरावनी लगती हमें. हर दर के बवजूद हुलकने में बहुत मज़ा आता हमें. उसी समय हमें बाकी सर्वाइवल के फंडे भी दिए गए जैसे की कुएं में गिरने पर तीन बार बाहर आता है आदमी तो ऐसे में कुण्डी पकड़ लेना चाहिए. हमने तो कितनी बार बाल्टी डुबाई इसकी गिनती नहीं है. कुएं से बाल्टी निकलने के लिए एक औजार होता था उसे 'झग्गड़' कहते थे. मैंने बहुत ढूँढा पर इसकी फोटो नहीं मिल रही...कभी घर जाउंगी तो वहां से फोटो खींच कर लेती आउंगी. एक गोलाकार लोहे में बहुत से बड़े बड़े फंदे, हुक जैसे हुआ करते थे...उस समय हर मोहल्ले में एक झग्गड़ तो होता ही था...एक से सबका काम चल जाता था. अगर झग्गड़ नहीं है तो समस्या आ जाती थी क्यूंकि बाल्टी बिना सारे काम अटक जाते थे. वैसे में कुछ खास लोग होते थे जो कुएं में डाइव मारने के एक्सपर्ट होते थे जैसे की मेरे बबलू दा, उनको तो इंतज़ार रहता था कि कहीं बाल्टी डूबे और उनको कुएं में कूदने का मौका मिले.

घर पर कुएं के पास वाली मिटटी में हमेशा पुदीना लगा रहता था एक बार तरबूज भी अपने आप उगा था और उसमें बहुत स्वाद आया था. मेरे पापा तो कभी घर पर बाथरूम में नहाते ही नहीं थे...हमेशा कुएं पर...भर भर बाल्टी नहाए भी, आसपास के पेड़ पौधा में पानी भी दिए वही बाल्टी भर के. हम लोग भी छोटे भर कुएं पर नहाते थे...या फिर गाँव जाने पर तो अब भी अपना कुआँ, अपनी  बाल्टी, अपनी रस्सी. हाँ अब मैं बड़ी दीदी हो गयी हूँ तो अब मैं भी सिखाती हूँ कि बाल्टी से पानी कैसे भरते हैं और जो बच्चा पार्टी अपने से ठीक से पानी भर लेता है उसको सर्टिफिकेट भी देते हैं कि वो अब अकेले पानी भरने लायक हो गया है.

जब पटना में रहने आये तो कई बार यकीन नहीं होता था कि वहां मेरे कितने जान पहचान वाले लोगों ने जिंदगी में कुआँ देखा ही नहीं है...हमारी तो पूरी जिंदगी कुएं से जुड़ी रही...हमें लगता था सब जगह कुआँ होता होगा. उस वक़्त हम कुआँ को कुईयाँ बोलते थे अपनी भाषा में तो उसपर भी लोग हँसते थे. हमारा कहना होता था कि जो लोग देखे ही नहीं हैं वो क्या जानें कि कुआँ होता है कि कुइय्याँ. नए तरह का कुआँ देखा राजस्थान में...बावली कहते थे उसे जिसमें नीचे उतरने के लिए अनगिनत सीढ़ियाँ होती थीं.

जब छोटे थे, सारे अरमान में एक ये भी था कि कभी गिर जाएँ कुईयाँ में और जब लोग हमको बाहर निकाले तो हमारे पास भी हमेशा के लिए एक कहानी हो जाए सुनाने के लिए जैसे दीदी सुनाती थी कि कैसे वो गिर गयी, फिर कैसे बाहर निकली और सारे बच्चे एकदम गोल घेरा बना के उसको चुपचाप सुनते थे. दीदी जब गिरी थी तो बरसात आई हुयी थी, कुएं में एक हाथ अन्दर तक पानी था...तो लोटे से पानी निकलते टाइम दीदी गिर गयी...कुआँ के आसपास पिच्छड़(फिसलन) था तो पैसे फिसला और सट्ट से कुएं में. फिर एक बार मूड़ी(सर) बाहर निकला लेकिन नहीं पकड़ पायी, दोबारा भी नहीं पकड़ पायी, तीसरी बार एकदम जोर से कुएं का मुंडेर पकड़ ली दीदी और फिर अपने से कुएं से बाहर निकल गयी. फिर बाहर बैठ के रो रही थी. भैय्या गुजरे उधर से तो सोचे कि एकदम भीगी हुयी है और काहे रो रही है तो बतलाई कि कुइय्याँ में गिर गयी थी.

कितना थ्रिल था...कुआँ था, गिरना था, बाल्टी थी, पनडुब्बा था...गाँव की मिटटी, आम का पेड़ और कचमहुआ आम का खट्टा मीठा स्वाद. जिसको जिसको यकीन है कि बिना कुआँ में गिरे एक बाल्टी पानी भर सकते हैं, अपने हाथ ऊपर कीजिये :)

09 October, 2011

जो लफ़्ज़ों में नहीं बंधता


जितना छोटा हो सकता था, उतना छोटा सा लम्हा है
अगर गौर से देखो समय के इस छोटे से टुकड़े से पूरी दुनिया की स्थिरता(बैलेंस समझते हैं न आप, वही) भंग हो सकती थी.
ज्वालामुखी फट सकते थे, ऊपर आसमान में राख उछलती और एक पूरा शहर नेस्तनाबूद हो जाता. ये पृष्ठभूमि में कोई तो शहर है जिसे आप नहीं जानते. राख में हम ऐसे ही अमूर्त हो जाते, सदियों के लिए...तुम्हारी बाहों में मैं, हवा में उड़ती हुयी...आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे गुनगुनाते हुए. 

हो ये भी सकता था की सूनामी लहरें उठती और इतने ऊँचे छत से भी हमें बहा ले जाती, फिर कहीं नहीं लौट के आने के लिए...या फिर भूकंप आता, ये जो हलकी दरार पड़ रही है और चौड़ी हो जाती और हम किसी हलके गुलाबी पंख की तरह हवा में गिरते, गुरुत्वाकर्षण का हमपर पूरा असर नहीं होता. 

इस एक लम्हे में दुनिया ख़त्म हो सकती थी...पर हमें परवाह नहीं...हमने इस लम्हे में जिंदगी जी ली है. हमने जितना छोटा सा हो सकता है, लम्हा...हमने इश्क किया है.

picture courtesy: Deviantart

26 September, 2011

इस आस में किनारे पे ठहरा किये सदियों तलक

आवाजों का एक शोर भरा समंदर है जिसमें हलके भीगती हूँ...कुछ ठहरा हुआ है और सुनहली धूप में भीगा हुआ भी. पाँव कश्ती से नीचे झुला रही हूँ...लहरें पांवों को चूमती हैं तो गुदगुदी सी लगती है. हवा किसी गीत की धुन पर थिरक रही है और उसके साथ ही मेरी कश्ती भी हौले हौले डोल रही है.

आसमान को चिढ़ाता, बेहद ऊँचा, चाँद वाली बुढ़िया के बालों सा सफ़ेद पाल है जो किसी अनजान देश की ओर लिए जा रहा है. नीला आसमान मेरी आँखों में परावर्तित होता है और नज्मों सा पिघलने लगता है...मैं ओक भर नज़्म इकठ्ठा करती हूँ और सपनों में उड़ेल देती हूँ...जागी आँखों का सपना भी साथ है कश्ती में. 

शीशे के गिलासों के टकराने की मद्धम सी आवाज़ आती है जिसमें एक स्टील का गिलास हुआ करता है. मुझे अचानक से याद आता है कि मेरे दोस्त मेरे नाम से जाम उठा रहे होंगे. बेतरतीब सी दुनिया है उनकी जिसमें किताबें, अनगिन सिगरेटें और अजनबी लेकिन अपने शायरों के किस्से हैं...मैं नाव का पाल मोड़ना चाहती हूँ, फिर किसी जमीन पर उतरने की हूक उठती है. जबकि अभी ही तो नयी आँखों से दूसरी दुनिया देखने निकली थी. उनकी एक शाम का शोर किसी शीशी में भर कर लायी तो थी, गलती से शीशी टूट गयी और अब समंदर उनके सारे किस्से जानता है. 

जमीन पर चलते हुए छालों से बचने के लिए इंसान ने जूते बनाये. नयी तकनीकें इजाद हुयी और एक से बढ़कर एक रंगों में, बेहद सुविधाजनक जूते मिलने लगे. जिनसे आपके पैर सुरक्षित रहते हैं...हाँ मगर ऐसे में पैर क्या सीख पाते हैं? दुनिया देख आओ, हर शहर से गले मिल लो, नदियों, पहाड़ों, रेगिस्तानों भटक आओ...मगर पैर क्या मांगते हैं...मिट्टी. तुम्हारे घर की मिट्टी, भूरी, खुरदरी कि जिसमें पहली बार खेल कर बड़े हुए. आज समंदर में यूँ पैर भीग रहे हैं तो समंदर उन्हें मिट्टियों की कहानी सुना रहा है. समंदर के दिल में पूरी दुनिया की मिट्टी के किस्से हैं.

शोर में कुछ बेलौस ठहाके हैं, कि जिनसे जीने का सलीका सीखा जाए और अगर गौर से सुना जाए तो चवन्नी मुस्कान की खनक भी है. इतनी हंसी आँखों में भर ली जाए तो यक़ीनन जिंदगी बड़े सुकून से कट जाए. तो आवाजों के इस समंदर में एक ख़त मैं भी फेंकती हूँ, महीन शीशी में बंद करके. कौन जाने कभी मेरा भी जवाब आये...कि क़यामत का दिन कोई बहुत दूर तो नहीं. 



इस आस में किनारे पे ठहरा किये सदियों तलक 
कोई हमें फुसला के वापस घर ले जाए

14 July, 2011

गुज़र जायें करार आते आते

मेरा एक काम करोगे? बस आईने के सामने खड़े हो जाओ और अपनी आँखों में आँखें डाल कर कह दो कि मुझे दुःख पहुँचाने पर तुम्हारी आत्मा तुम्हें नहीं कचोटती है...क्यूंकि मुझे अब भी यकीन है कि दुनिया में अगर कुछ लोगों के अंदर आत्मा बची हुयी है तो तुम हो उनमें से एक...मेरे इस विश्वास को बार बार झुठला कर तुम्हीं क्या मिलता है?

पता है...अच्छा बनना बहुत मुश्किल है, दुनिया के हिसाब से तो बाद में चला जाए सबसे पहले हमें अपने खुद के हिसाब से चलना होता है. क्यूंकि अभी भी वो वक्त नहीं आया है कि हम अपने अंदर के इंसान को गला घोंट कर मार सकें...बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं. लोग आते हैं चोट देकर चले जाते हैं और हम कुछ कर नहीं पाते...इसलिए नहीं कि हम चोट पहुँचाने के काबिल नहीं है...लेकिन इसलिए क्यूंकि हम चाह कर भी किसी को उस तरह से तोड़ नहीं सकते. अपनी अपनी फितरत होती है.

कितना अच्छा लगता है न कि तुम इस काबिल हो कि किसी को चोट पहुंचा सको...बहुत पॉवरफुल महसूस होता है...कि किसी को कुछ बोल दिया और लड़की रो पड़ी...तोड़ना सबसे आसान काम है...मुश्किल तो बनाना होता है. किसी रिश्ते को खून के आंसू सींच कर भी जिलाए रखना...सहना होता है...धरती की तरह तपना, जलना और फिर भी जीवन देना. सिर्फ इसलिए कि तुम जानते हो कि किसी को तुम्हारी जरुरत है...भले छोटी सी ही सही तुम उसकी जिंदगी का हिस्सा हो...उसे इस बात का और भी शिद्दत से अहसास दिलाना. अरे जी तो लोग भगवान से भी नाराज़ होकर लेते हैं...क्या फर्क पड़ता है किसी के होने न होने से.

बुरा बनना आसान है...कोई कुछ भी कहे तो कह दो कि हम ऐसे ही हैं...तुम्हें पता होना चाहिए था  कि हम बुरे हैं. बुरा होना कुछ नहीं होता...बस अपनी गलतियों के लिए बहाना होता है. कुछ लोग राशि को ब्लेम करते हैं और कुछ फितरत को. वाकई अच्छा बुरा कुछ नहीं होता...होती है बस जिद- दिखने की कि तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं हो. अंग्रेजी में कुछ शब्द वाकई बड़े सटीक हैं जैसे Status-Quo यानि पलड़ा बराबर का रखना. कुछ देना तो बदले में कुछ लेना भी. पता नहीं हमारे संस्कार ही कुछ ऐसे हो जाते हैं कि रिश्तों में इतना मोलतोल नहीं कर पाते.

-----------
पता नहीं क्यूँ आज शाम बारिश ने कई पुराने ज़ख्म धुला कर नए कर दिए. कितने शिकवे गीले हुए तार पर पड़े हैं...आज दुपहर ही सुखाने डाला था...बस ऐसे ही.
होता है न जब आप सबसे खुश होते हो...तभी आप सबसे ज्यादा उदास होने का स्कोप रखते हो.

11 July, 2011

खोये हुए मौसम

तुमने जो दिन गुमा दिए
उनमें कई खोये हुए मौसम थे
जिनका कसूर सिर्फ इतना था कि
उन्हें लौट आने के रास्ते मालूम नहीं थे

हवा टाँके हुए है...
किसी और शहर की बारिश का गीलापन
और शाम...टूटे वादों की तरह दिलफरेब
ऐसे किसी खोये हुए मौसम में
तुमसे मिलने का दिवास्वप्न. उफ़...

यादों की सारी फाइलें...
रिसाइकिल बिन में हैं बहुत दिनों से
परमानेंटली डिलीट करने में डरती हूँ
तुम कभी जो सर्च करने लगो किसी किस्से को
और नया कंप्यूटर भी इसलिए नहीं लेती...

तुमसे मिलने के लिए...
मंदिर का बहाना पहली गलती थी
भगवान को कमसेकम अपनी साइड रखते हम
उसका गुस्सा...इत्तिफकों का स्टॉक भी
इतने दिनों में कभी हमारे फेवर में नहीं होने देता..

सिर्फ इसलिए कि कुछ टूट गया...
सब कुछ खत्म तो नहीं हो जाता ना
ये कितना बड़ा हक है कि किसी वक्त तुमसे कह सकूँ
'बस तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था'
और तुम कहो 'I love you too'.



22 June, 2011

जिनसे बिछड़ना था उनसे मिलते रहे





खत जिनके जवाब आने थे, मैंने लिखे नहीं...जिनसे बिछड़ना था उनसे मिलते रहे...तुम्हारे शहर में गिरवी रखा था खुद को कि जब्त हो कर भी शायद तुमसे मिलता रहूँ...

इक अजनबी शहर में शाम गुजारते हुए..आज भी समझ नहीं आता कि धोखा किसने दिया...शहर ने...जिंदगी ने...
या तुमने.

18 May, 2011

तोरा कौन देस रे कवि?

कई दिनों बाद कुछ लिखा था कवि ने, पर जाने क्यूँ उदास था...उसने आखिरी पन्ना पलटा और दवात खींच कर आसमान पर दे मारी...झनाके के साथ रौशनी टूटी और मेरे शहर में अचानक शाम घिर आई...सारी सियाही आसमान पर गिरी हुयी थी. 

आजकल लिखना भूल गयी हूँ, सो रुकी हुयी हूँ...कवि ने एक दिन बहुत जिरह की की क्यों नहीं लिख रही...उसकी जिद पर समझ आया पूरी तरह से की मेरे किरदार कहीं चले गए हैं. पुराने मकान की तरह खाली पड़ी है नयी कॉपी...बस तुम और मैं रह गए हैं. कैसे लिखूं कहानी मैं...कविता भी कहीं दीवारों में ज़ज्ब हो रही है. अबके बरसात सीलन बहुत हुयी न. सो.

बहुत साल पुरानी बात लगती है...मैं एक कवि को जाना करती थी...बहुत साल हो गए, जाने कौन गली, किस शहर है. पता नहीं उसने कभी मुझे ख़त लिखे भी या नहीं. वो मुझे नहीं जानता, या ये जानता है कि मैंने उसके कितने ख़त जाने किस किस पते पर गिरा दिए हैं. उसके पास तो मेरा पता नहीं है...उसे मेरा पता भी है क्या भला? चिठ्ठीरसां- क्या इसका मतलब रस में डूबी हुयी चिठियाँ होती हैं? पर शब्द कितना खूबसूरत है...अमरस जैसा मीठा. 

मैं किसी को जानती हूँ जो किसी को 'मीता' बुलाता है...उसका नाम मीता नहीं है हालाँकि...पहले कभी ये नाम खास नहीं लगा था...पर जब वो बुलाता है न तो नाम में बहुत कुछ और घुलने लगता है. नाम न रह कर अहसास हो जाता है...अमृत जैसा. जैसे कि वो नाम नहीं लेता, बतलाता है कि वो उसकी जिंदगी है. उसकी. मीता.

आजकल खुद को यूँ देखती हूँ जैसे बारिश में धुंध भरे डैशबोर्ड की दूसरी तरफ तेज रोशनियाँ...सब चले जाने के बाद क्या रह जाता है...परछाई...याद...दर्द...नहीं रे कवि...सब जाने के बाद रह जाती है खुशबू...पूजा के लिए लाये फूल अर्पित करने के बाद हथेली में बची खुशबू. मैं तुम्हें वैसे याद करुँगी. बस वैसे ही. 

29 April, 2011

रेशम की गिरहें

जिंदगी सांस लेने की तरह होती है...दिन भर महसूस नहीं होती, दिन महीने साल बीतते जाते हैं. पर कुछ लम्हे होते हैं, गिने चुने से जब हम ठहर कर देख पाते हैं अपने आप को...उस वक़्त की एक एक सांस याद रहती है और किसी भी लम्हे हम उस याद को पूरी तरह जी सकते हैं.

इतना कुछ घटने के बावजूद ऐसा कैसे होता है की कुछ लोग हमें कभी नहीं भूलते...क्या इसलिए की उनकी यादों को ज्यादा सलीके से तह कर के रखा गया है...बेहतर सहेजा गया है...लगभग पचास पर पहुँचती उम्र में कितनी सारी जिंदगी जी है उसने और कितने लोग उसकी जिंदगी में आये गए. कुछ परिवार के लोग, कुछ करीबी दोस्त बने, कितनों को काम के सिलसिले में जाना...कुछ लोगों से ताउम्र खिटपिट बनी रही. 

आज शोनाली का ४९वां जन्मदिन है. सुबह उठ कर मेल चेक किया तो अनगिन लोगों की शुभकामनाएं पहुंची थीं, कुछ फूल भी भेजे थे उसके छात्रों ने और कुछ उसके परिचितों ने. घर पर त्यौहार का सा माहौल था, छोटी बेटी शाम की पार्टी के लिए गाने पसंद कर रही थी...खास उसकी पसंद के. वो याद के गाँव ऐसे ही तो पहुंची थी, गीत की पगडण्डी पकड़ के...

घर के थियेटर सिस्टम में गीत घुलता जा रहा था और वो पौधों को पानी देते हुए सोच रही थी की ऐसा क्या था उन डेढ़ सालों में. देखा जाए तो पचास साल की जिंदगी में डेढ़ साल कुछ ज्यादा मायने नहीं रखते. बहुत छोटा सा वक़्त लगता है पर ऐसा क्या था उन सालों में की उस दौर की यादें आज भी एकदम साफ़ याद आती हैं...उनपर न उम्र का असर है न चश्मे के बढ़ते नंबर का. 

'न तुम हमें जानो, न हम तुम्हें जानें, मगर लगता है कुछ ऐसा...मेरा हमदम मिल गया...' गीत के बोल शायद किसी अजनबी को सुनाने के एकदम परफेक्ट थे...अजनबी जिसने अचानक से सिफारिश कर दी हो कोई गीत सुनाने की...और कुछ गाने की इच्छा भी हो. देर रात किसी लैम्पोस्ट की नरम रौशनी में, सन्नाटे में घुलता हुआ गीत...'ये मौसम ये रात चुप है, ये होटों की बात चुप है, ख़ामोशी सुनाने लगी...है दास्ताँ, नज़र बन गयी है दिल की जुबां'. आवाज़ में हलकी थरथराहट, थोड़ी सी घबराहट की कैसा गा रही हूँ...अनेक उमड़ते घुमड़ते सवाल की वो क्या सोचेगा, आज पहली ही बार तो मिली हूँ...उसने गाने को कह दिया और गाने भी लगी. दिमाग की अनेक उलझनों के बावजूद वो जानती थी की इस लम्हे में कुछ तो ऐसा ही की वो इस लम्हे को ताउम्र नहीं भूल सकेगी. 

उस ताउम्र में से कुछ पच्चीस साल गुज़र चुके हैं, भूलना अभी तक मुमकिन तो नहीं हुआ है...और ये गीत उसे इतना पसंद है की उसकी बेटियां भी उसका मूड अच्छा करने के लिए यही गाना अक्सर प्ले करती हैं. लोग यूँ ही नहीं कहते की औरत के मन की थाह कोई नहीं ले सकता. घर में इतना कुछ हो रहा है, सब उसके लिए कुछ न कुछ स्पेशल कर रहे हैं और वो एक गीत में अटकी कहीं बहुत दूर पहुँच गयी है, पीली रौशनी के घेरे में. 

उन दिनों उसने अपने मन के फाटक काफी सख्ती से बंद कर रखे थे...और अक्सर देखा गया है कि प्यार अक्सर उन ही लोगों को पकड़ता है जो उससे दूर भागते हैं. कुछ बहुत खास नहीं था उनके प्यार में....उसे एक लगाव सा हो गया था उससे जो उनके ब्रेक अप के बाद भी ख़त्म नहीं हो पाया था. उसे पता नहीं क्यों लगता था की वो उसे ताउम्र माफ़ नहीं करेगा...इस नफरत के साथ का डर भी उसे लगता था, की वो किसी को प्यार नहीं कर पायेगा जैसा कि उसने कहा था...वो चाहती थी कि उसे किसी से प्यार हो...पर प्यार किसी के चाहने भर से नहीं हो पाता. उसे याद नहीं उसने कितनी दुआएं मांगी थी उसके लिए...जिससे कोई रिश्ता नहीं था अब.

अचानक से उसे महसूस हुआ कि चारो तरफ बहुत शोरगुल हो रहा है...गीत कुछ तीन मिनट का होगा पर इतने से अन्तराल में कितना कुछ फिर से जी गयी वो. उसकी बेटी दूसरा गाना लगा रही थी...'ऐ जिंदगी, गले लगा ले हमने भी, तेरे हर इक गम को गले से लगाया है..है न?'...उसे एक छोटा सा कमरा याद आया जिसमें वो उसे छोड़ के जाने के बाद एक आखिरी बार मिलने आई थी...रिकॉर्डर पर यही गाना बज रहा था. 

सीढ़ियों से नीचे देखा तो हर्ष उसकी पसंद के फूल आर्डर कर रहे थे...उसे अपनी ओर देखता पाकर मुस्कुराये और उसे उनपर ढेर ढेर सा प्यार उमड़ आया. जाने किस दुनिया में थी कि फ़ोन की घंटी से तन्द्रा टूटी....
'जन्मदिन मुबारक!' और उसे आश्चर्य नहीं हुआ कि इतने साल बाद भी उसकी आवाज़ पहचान सकती है. उसकी आँखें कोर तक गीली हो गयीं...'तुम्हें याद है आखिरी दिन तुमने कहा था कि मुझसे जिंदगी भर प्यार करोगी?, सच बताओ तुम मुझसे प्यार करती थी?'

'नहीं.......मैं तुमसे प्यार करती हूँ'

उस एक सवाल के बाद कुछ बहुत कम बातें हुयीं...पर आज उसे महसूस हुआ कि उसके दिल में जो सजल के लिए प्यार था वो हमेशा वैसा ही रहा. हर्ष के आने पर, उसकी दोनों बेटियों के आने पर...उन्होंने सजल के हिस्से का प्यार नहीं माँगा...सबकी अपनी जगह बनती गयी...कि उसने कभी सजल को खोया ही नहीं था.

सदियों का अपराधबोध था...बर्फ सा कहीं जमा हुआ...चांदनी सी निर्मल धारा बहने लगी और उसके आलोक में सब कुछ उजला था, निखरा हुआ...उज्वल...धवल...निश्छल. 

22 April, 2011

वो काफ़िर

'तुम्हें देख कर पहली बार महसूस हुआ है कि लोग काफ़िर कैसे हो जाते होंगे. मेरे दिन की शुरुआत इस नाम से, मेरी रात का गुज़ारना इसी नाम से. मेरा मज़हब बुतपरस्ती की इजाजत नहीं देता पर आजकल तुम्हारा ख्याल ही मेरा मज़हब हो गया है.
'जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है'

'शेर का मतलब बताओ...मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया' 
'हमारे यहाँ नमाज़ से पहले वज़ू करते हैं, हाथ पैर धोके, कुल्ला करके...पाक होकर नमाज़ पढ़ते हैं'
'और तिलावत का मतलब?' 
'तुम'
'मजाक मत करो, शेर कहा है तो समझाओ तो ठीक से'

पर उसने तिलावत का मतलब नहीं समझाया...कहानी सुनाने लगा. एक बार मेरे मोहल्ले की किसी शादी में आया था, वहीं उसने मुझे पहली बार देखा था और उसने उस दिन से लगभग हर रोज़ यही दुआ मांगी है कि मैं एक बार कभी उससे बात कर लूं. फिर उसने मुझे अपनी कोपी दिखाई खूबसूरत सी लिखाई में आयतें लिखी हुयी थीं और हर नए पन्ने के ऊपर दायीं कोने में, जिधर हम तारीख लिखते हैं 'अमृता' उर्दू में लिखा था...उस समय मैंने हाल में उर्दू सीखी थी तो अपना नाम तो अच्छी तरह पहचानती थी. उसने फिर बताया की ये मेरा नाम है...मैंने उसे बताया की मैं उर्दू जानती हूँ.  उसने बताया की उसकी कॉपी के हर पन्ने पर पहले मेरा नाम लिखा होता है...उसकी कापियों पर काफी पहले की तारीखों पर मेरा नाम लिखा था कुछ वैसे ही जैसे मेरी कुछ दोस्त एक्जाम कॉपी के ऊपर लिखती थी...'जय माँ सरस्वती' या ऐसा कुछ. कॉपी में आयतों के बीच ये हिन्दू नाम बड़ा अजीब सा लग रहा था और नाम भी कुछ ऐसा नहीं की समझ में नहीं आये. कुछ शबनम, चाँद या ऐसा नाम होता तो शायद ख़ास पता नहीं चलता. 


'बाकी लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? तुम्हें मालूम भी है कि अमृता का मतलब क्या होता है?'
'हाँ...मेरे खुदा का नाम है अमृता' 


मैं सर पकड़ के बैठ गयी...घर पर पता चला तो घर से निकलना बंद हो जाएगा, कैरियर शुरू होने के पहले ही ख़त्म हो जाएगा....मेडिकल करना बहुत टफ था, कोचिंग नहीं जाती तो डॉक्टर बनने के सपने, सपने ही रह जाते. उससे पूछा की मुझे ये सब क्यों बता रहा है तो बोला, बता ही तो रहा हूँ, सुन लोगी तो तुम्हारा क्या चला जाएगा. कुछ माँग थोड़े रहा हूँ तुमसे. मुझे सुकून आ गया थोडा...अब जिंदगी इतनी छटपटाहट में नहीं गुजरेगी. कमसे कम खुदा को शुक्रिया कहते हुए नमाज़ पढ़ सकूँगा. 


मोहल्ले में लोग उसे लुच्चा-लफंगा कहते थे, उसे कोई काम नहीं है, बस झगड़ा, दंगे फसाद करना जानता है. सब जानने पर भी न विश्वास हुआ उनकी ख़बरों पर न उससे नफरत हुयी कभी...और डर, वो तो खैर कभी किसी से लगा ही नहीं. उन दिनों पटना में टेम्पो शेयर करना पड़ता था. पीछे वाली सीट पर तीन लोग बैठते थे, और बहुत देख कर बैठना पड़ता था की कोई शरीफ इन्सान हो. कोचिंग जाते हुए अक्सर सरफ़राज़ पाटलिपुत्रा गोलंबर पर मिल जाता था, उसे स्टशन जाना होता था. उसे कुछ भी नहीं जानती थी...पर एक अजनबी के साथ बैठने से बेहतर उसके साथ जाना लगता था. और कई सालों में उसने कभी कोई बदतमीजी नहीं की. जिस दिन वो दिख जाता पेशानी की लकीरें मिट जाती थीं. 


कहने को कह सकती हूँ की उससे कोई भी रिश्ता नहीं था...बस एक आधी मुस्कान के सिवा मैंने उसे कभी कुछ दिया नहीं, न उसने कभी कुछ कहा मुझसे. उसने पहले दिन वाली बात फिर कभी भी नहीं छेड़ी, मैंने भी सुकून की सांस ली. वैसे भी इशरत के पापा का ट्रान्सफर हो गया था तो उसके मोहल्ले में जाने का कोई कारण नहीं बनता था. मैं सरफ़राज़ के घर फिर कभी नहीं गयी...इशरत से बात किये एक अरसा हो गया है, आज भी सोच नहीं पाती की उसके उतने बड़े मकान में उसने अपने स्टडी रूम में क्यूँ रुकने क कहा, जबकि उसका बड़ा भाई वहां पढ़ रहा था. क्या इशरत को सरफ़राज़ ने मेरे बारे में बताया था या वो महज़ एक इत्तेफाक था. 


एक दिन 'राजद' का चक्का जाम था, पर हम जिद करके कोचिंग चले गए कि दिन में बंद था...शाम को कुछ नहीं होता.  क्लास चल रही थी कि खबर आई की बोरिंग रोड में कुछ तो दंगा फसाद हो गया है, फाइरिंग भी हुयी है. क्लास उसी समय ख़त्म कर दी गयी और सबको घर जाने के लिए बोल दिया. कोचिंग से बाहर आई तो देखा कर्फ्यू जैसा लगा हुआ है. दुकानों के शटर बंद, सड़क पर कोई भी गाड़ियाँ नहीं, एक्के दुक्के लोग और टेम्पो तो एक भी नहीं. पैदल ही निकल गयी...कुछ कदम चली थी की सरफ़राज़ ने पीछे से आवाज़ दी.
'उधर से मत जाओ, आग लगी हुयी है, गोलियां चल रही हैं.'
मुझे पहली बार थोड़ा डर लगा...पटना  उतना सुरक्षित भी नहीं था...पिछले साल कुछ गुंडे दुर्गापूजा के समय डाकबंगला चौक से एक लड़की को मारुती वान में खींच ले गए थे. एक सेकंड सोचा...कि सरफ़राज़ के साथ जाना ठीक रहेगा या अकेले...तो फिर उसके साथ ही चल दी...उसे अन्दर अन्दर के रास्ते मालूम थे. जाने किन गलियों से हम बढ़ते रहे...शाम गहराने लगी थी और एक आध जगह तो मैं गिरते गिरते बची, एक तो ख़राब सड़क उसपर मेरे हील्स. सरफ़राज़ ने अपना हाथ बढ़ा दिया...की ठीक से चलो. और पूरे रास्ते हाथ पकड़ कर लगभग दौड़ाता हुआ ही लाया मुझे. मैं महसूस कर सकती थी की उसे मेरी चिंता हो रही  है. 


अचानक से मेरे मुंह से सवाल निकल पड़ा कि तुम्हें सब लोग बुरा क्यों कहते हैं मेरे मोहल्ले में...यूँ तो सवाल अचानक से था...पर दिल में काफी दिन से घूम रहा था. वो उस टेंशन में भी हंसा...
'इशरत को कुछ लड़कों ने छेड़ दिया था, बताओ तुम्हिएँ कि छेड़े तो तुम्हारे भाई का खून नहीं खौलेगा? उनसे काफी लड़ाई हो गयी मेरी...क्या गलत किया मैंने, पुलिस आ गयी थी. मुझे तीन दिन जेल में डाल दिया...अब्बा ने बड़ी मुश्किल से मुझे छुड़ाया. बस, इतना सा किस्सा है'. 
'पटना का माहौल तो तुम जानती ही हो, इसलिए तुम अगर दिख जाती हूँ तो तुम्हारे साथ ही टेम्पो पर जाता हूँ...तुम्हें ऐतराज़ हो तो मना कर दो'. 
तब तक हम घर के पास आ गए थे, पर सरफ़राज़ ने उसने मुझे घर के चार कदम पर छोड़ा. उसने सर पर हाथ रखा और कहा 'अपना ख्याल रखना' ये उसके आखिरी शब्द थे. उस दिन से बाद से उससे कभी बात नहीं हुयी मेरी.
पटना के आखिरी कुछ सालों में व मुझे बहुत कम दिखा. शादी के दिन भी नहीं आया...हालाँकि मैंने कार्ड पोस्ट किया था उसके घर पर. शायद उसने घर बदल लिया हो. जाने क्यूँ मुझे लगता है, जिंदगी के किसी मोड़ पर व जरुर फिर मिलेगा...भले एक लम्हे भर के लिए सही. 


इस शेर का मतलब तो अब समझ आ गया है...पर शायद वो मुझे पूरी ग़ज़ल भी बता दे उस रोज़. 


जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है

ज़ख्म अब तक हरे हैं

तुम्हें सच में नहीं दिखते?
दायें हाथ की उँगलियों के पोर...नीले हैं अब तक
ना ना, सियाही नहीं है...माना की लिखती हूँ 
पर अब तो बस कीपैड पर ही 

तुम भूल भी गए फिर से
तुम्ही ने तो मेरी पेन का निब तोड़ा था 
मुझसे अब कभी नहीं मिलना
कह कर, आखिरी वाले दिन 

तुम क्यूँ पकड़ा करते थे मेरा हाथ
क्लास में डेस्क के नीचे, तुम्हें पता है 
एक हाथ से नोट्स कॉपी करने में
उँगलियों के पोर नीले पड़ जाते थे 

गर्म दोपहरों में, पिघला डेरी मिल्क 
उँगलियाँ झुलसा देता था
इतना तो तवे से रोटियां उतारते
हुए भी कभी नहीं जली मैं 

मेरे हाथ से फिसलती तुम्हारी उँगलियाँ
तराशी हुयी, किसी वायलिन वादक जैसी 
छीलती चली गयीं थीं मेरी हथेलियों को 
लगता था बचपन है, चोट लगने वाले दिन हैं 

आज डायरी पढ़ रही थी, २००३/४/5 की
उँगलियाँ फिर से सरेस पर रगड़ खा गयीं 
पन्ने लाल होने लगे तो  जाना 
उँगलियों के ज़ख्म अब तक हरे हैं 

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...