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07 May, 2012

चिल्लर ख्याल...सुबह सुबह ढनमनाते हुए


आजकल मेरा दिमाग जाने कहाँ रहता है...कल ऊँगली काट ली सब्जी कट करते हुए...सोच कुछ रही थी...नया चाकू था एकदम नीट कट लगा...गहरा...खून बहुत तेज़ी से बह रहा था...मुझे खून सम्मोहित करता है...टहकता...दर्द में डुबोता...तो देख रही थी तब तक कुणाल भागते आया...नल के नीचे पानी से धोना शुरू किये पर खून रुकने से रहा...फ्रिज से बर्फ निकाली और ऊँगली पर रखी...कुणाल की आँखें तब तक घूमनी शुरू हो गयीं थीं...उसे खून देख कर चक्कर आता है...दो मिनट और खड़ा रहता तो वहीं बेहोश हुआ रहता तो उसको भेजे हॉल में कि तुम जाओ हम खुद से देख लेंगे. खून का बहाव इतना तेज था कि रुक ही नहीं रहा था...कितनी भी जोर से बर्फ से दबाए रखे थे ऊँगली को एकदम तीखी धार बहे जा रही थी...उसपर एक फ्रैक्शन ऑफ सेकण्ड भी दबाव कम होता तो बस फिर से धार तेज हो जाती...सिंक एकदम लाल सा हुआ जा रहा था वो तो अच्छा था कि सिंक में कोई बर्तन नहीं थे. 

काफी देर हुआ और खून रुकने को नहीं आया तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं...बचपन में मम्मी हमेशा बर्फ लगवाती थी और खून रुक जाता था...थोड़ी देर रुकता था तो बर्फ जैसे हटाती थी दर्द भी वापस लौटता था और फिर से धार शुरू. जब कुछ नहीं हो रहा था तो सोचा पट्टी बाँधने के सिवा कोई उपाय न था...कुणाल को तो बुलाने का सवाल नहीं था...वो एक बार झांकते हुए आया कि हम बाँध देते हैं...हम उसको डान्ट धोप के भेजे कि यहाँ एक छे फुट का बेहोश लड़का हमको नहीं चाहिए...फूटो यहाँ से...हम बहादुर हैं खुद से कर लेंगे सब. फिर रुई में सैवलोन लगाये और एक बार क्लीन किये फिर खूब सारी रुई में सैवलोन लगा के ऊँगली पर कस के दबाये और लिकोप्लास्ट चिपकाये...एकदम टाईट ड्रेसिंग किये कि खून टपके न. 

सारे टाइम ऊँगली को ऊपर उठाये रखे...कुणाल कह रहा था कि हार्ट के लेवल से ऊपर रखना चाहिए कट को...हर दर्द के साथ ऐसा ही होना चाहिए न? हार्ट के लेवल से ऊपर रखा जाए उसे...फिगरेटिवली स्पीकिंग. खैर...जमीन पर बैठे और हाथ बेड पर ऊपर रखे कि खून न बहे...बीच बीच में झाँक के देख भी लेते थे कि ठीक है कि नहीं...लाल तो नहीं हो रही है पट्टी...तो देखा कि ठीक है. खून बहना रुक गया था पर उतना खून बहता देख कर मेरा मन भी कैसा कैसा होने लगा था और मेंटली लग रहा था कि थक गए हैं...हालाँकि बहुत ज्यादा खून नहीं बहा होगा...या शायद  बहा होगा, मालूम नहीं. थक के सो गए. कुणाल कुछ दूध कोर्नफ्लेक्स खाया...हम आउट थे...देखे नहीं. 

नींद खुली तो शाम हो रही थी...खून बहना रुक गया था...पर हम भी हम हैं, ढेर होशियार बनते हैं. कल तेल लगाए हुए थे बाल में तो शाम होते होते एकदम सर भारी लगना और सर दर्द शुरू हो चुका था. हमको लगा खून रुक ही गया है...आराम से शैम्पू कर लेते हैं, बचा के करेंगे. अब बचा के ठेंगा होना था...नहा के निकलते निकलते फिर से ऊँगली ने खून की जमना बहानी शुरू कर दी...खुद को खूब सारा कोसा कि बुद्धि पे बलिहारी...वगैरह...फिर से टाईट ड्रेसिंग की. 

शाम डूबते हुए छत पर गयी थी...अक्सर बाल सुखाने के लिए छत पर जाना अच्छा लगता है...कल शाम एकदम एकरंग थी...बादल भी एकदम सलेटी...कोई नारंगी, लाल, गुलाबी नहीं...आसमां भी नीला नहीं...ग्रे...छत पर बैठ कर कुछ दोस्तों के बारे में सोचा कि संडे की इस शाम वो कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे...और ये कि किसी को बहुत शिद्दत से याद करो तो क्या वाकई उसे पता चलता है...हिचकी आती है क्या? कल चाँद बहुत खूबसूरत था और बादल से छन कर चाँद की किरणें दिख रही थीं...मैंने चाँद की किरनें कभी नहीं देखी थीं इस तरह...बीम होती हुयीं. सुन्दर था सब...एकरंग होते हुए भी. 
कुणाल और साकिब के साथ रात को वाक पे निकले...मोहल्ले में इधर उधर घूमे...आइसक्रीम कैंडी खाए...रात को बहुत सेंटी हो गए थे...होपलेस केस हैं...हमको कुछ भी नहीं आता है...गुड फॉर नथिंग...लिखने का भी टैलेंट दिया ही था तो या तो खूब सारा देता या आम इंसानों टाइप आम ही रहने देता...ये न इधर के हैं न उधर के हैं. ना कुछ बड़ा तोडू टाइप लिखेंगे कि शान से किसी को दिखा सकें कि देखो बेट्टा किताब है मेरा...न चैन से बैठ के कोई खूब सारा पैसा मिलने वाला नौकरी करेंगे कि अपने पैसे पर ऐश कर सकें. 

दिमाग खराब करेंगे अपना और कुणाल का कि रे हम क्या करें हमको इतनी बेचैनी काहे है...सबको तो नहीं होती सब अपनी जिंदगी में खुश रहते हैं...हमको तो साला कोश्चन ही पता नहीं है तो आंसर कहां से ढूँढेंगे. मालूम ही नहीं है कि क्या चाहिए...बस इतना पता है कि कुछ तो है जिसके पीछे भागते जा रहे हैं...कोई तलाश है...और ये कि बेचैनी है बहुत. दर्द है बहुत. कहीं ठहरना नहीं होता है. 

सुबह उठी हूँ...देखती हूँ घुटने पर एक काला निशान है...कल किसी चीज़ से फिर टकराई होउंगी घर में...ऊँगली अलग दर्द दे रही है...बिना फर्स्ट फिंगर के इस्तेमाल के टाइपिंग भी आफत है...पर ऐसे ही जेनरली जाने क्या क्या लिखने का मन करते रहता है...इतना सारा अलाय बलाय लिखे बिना वो बाहर भी तो नहीं आता जो अंदर कहीं हिलोरें मार रहा है. पता नहीं क्या लोचा है यार...लाइफ में बहुत कन्फ्यूजन है...बहुत परेशानी है और कमबख्त जिंदगी है भी तो इतनी छोटी सी...कितनी और होगी...बहुत हुआ तो दस साल...चालीस वगैरह से ऊपर जीने का कोई खास अरमान नहीं है. जिंदगी इतनी तेज़ी से भाग रही है कि क्या कहें...परेशान हो जाती हूँ हर वीकेंड कि कमबख्त एक और हफ्ता गुज़र गया. 

आज ऐसे ही कैमरा लेकर कुछ कुछ फोटो खींचने के लिए जाने का मन है...परती जमीन सा लगता है सब कुछ...मीलों मीलों खाली...एक बबूल का पेड़ तक नहीं. जाने इस तलाश को कब सुकून मिलेगा. कुणाल कहता है कि मैं लोगों के प्रति बहुत क्रिटिकल होती हूँ इसलिए मेरे दोस्त नहीं बनते...मुझे वाकई बहुत कम लोग पसंद आते हैं...बहुत ही कम...पर जो पसंद आते हैं उनपर जान छिडकती हूँ...बहुत कम लोग मुझे पसंद करते हैं...vice-versa टाइप की चीज़ है. जिंदगी में कम लोग हों...पर अच्छे हों...मैं किसी ऐसे के साथ टाइम वेस्ट नहीं कर सकती जो मुझे पसंद न हो...मुझे समझ आता है कि मेरी जिंदगी बहुत छोटी है...बहुत छोटी तो मैं अकेली ही रह लूंगी लेकिन किसी ऐसे शख्स को बर्दाश्त नहीं करूंगी जिसे मुझे झेलना पड़े...हद होपलेस केस हूँ. 

कल अनुपम से बात कर रही थी कि यार बहुत ज्यादा डिप्रेसिंग फेज चल रहा है कमबख्त इतनी जल्दी जल्दी उदास होती हूँ कि कुछ काम ही नहीं आ रहा...लगता है पागल हो जाउंगी...कितनी शाम लगता है जान दे दूं...कहीं छत से जाके कूद जाऊं...पर उम्मीद करती हूँ कि फेज है...गुजरेगा...बस इस बार बहुत लंबा चल रहा है...मुझे इतने दिन तक उदास रहने की आदत नहीं है. दिन के सारे पहर रटती हूँ कि गुजरेगा...गहरी सांसें लो लड़की...इट विल बी आलराईट...जस्ट...सांस लेती रहो...जिंदगी ऐसी ही है...क्या करोगी...जस्ट...कीप ब्रीदिंग...ओके?

11 February, 2012

फरिश्तों में भी तुम सबसे अच्छे हो.

You are like personal treasure box. मेरे अन्दर जो भी अच्छा है और सुन्दर है वो मैं तुम में सहेजती जाती हूँ...मेरे अन्दर जो भी टूटा हुआ है तुम उसकी दवा बनते जाते हो. जो कुछ मैं नहीं चाहती कहीं खो जाये...मेरा पागलपन, मेरी उदास बेचैनियाँ सब मैं तुममें कहीं रखती जाती हूँ. जैसे जैसे मैं रीतती जाती हूँ वैसे वैसे तुम भरते जाते हो...मेरी आँखों का रंग हल्का पड़ता है तो तुम्हारी आँखों में पूरे आसमान के सितारों जैसी चमक भर जाती है और मैं तुम्हारी आँखें देख कर खुश हो जाती हूँ.

सोचो मन से इतना खाली होना कैसा तो लगता होगा न कि आज तक जब भी तुमसे बहुत देर तक बातें की हैं रो दी हूँ...मन का कौन सा सीलापन है जो तुमसे बात करती हूँ तो शाम बीतते न बीतते आँखों से नदियाँ बहने लगती हैं. मैं रोकती हूँ कुछ हद तक मगर मुझे मालूम होता है कि तुम्हारे सामने झूठ बोल नहीं पाउंगी...तुम्हारे सामने मैं वो हो जाती हूँ जो कहीं एकदम सच में हूँ...मुझे हर बार बुरा लगता है पर इस बात का कि मैं तुम्हें कितना परेशान करती हूँ...मुझे मेरा रोना बहुत साधारण सी चीज़ लगती है क्योंकि मैंने खुद को रोते हुए बहुत बार देखा है...पर तुम अच्छे भी तो हो...तुम्हें कितना बुरा लगेगा कि फोन के उस तरफ कोई लड़की रो रही है और तुम मुझे चुप नहीं करा पा रहे हो. 

कैसा कैसा तो डर लगता है...जैसे कि तुम खो जाओगे एक दिन. बचपन में एक बार मेरा बक्सा खो गया था...उसमें बहुत कुछ था जो कबाड़ जैसा था. आज तक भी ढूंढ रही हूँ...वो खोयी हुयी चीज़ें कभी वापस नहीं मिलीं...बाकी चीज़ों से इतर उसमें एक स्टैम्प था...आज कैसे तो चीज़ों को को-रिलेट कर रही हूँ...आज लगता है कि तुम खो जाओगे तो वो वाला स्टैम्प लगा के कोई चिट्ठी लिखूंगी तो तुम तक पहुँच जायेगी. लेकिन सुनो, खोना मत...तुम्हारे बिना मैं जाने क्या करुँगी. मैं भी खो जाउंगी फिर...और तुम्हें तो मालूम ही नहीं चलेगा कि मैं खो गयी हूँ क्योंकि तुम तो खुद खोये हुए रहोगे...सोचती हूँ...खोये हुए न भी रहो तो मैं अगर कुछ दिन तक नहीं रही तो मुझे ढूंढोगे क्या?

पता है तुमने आज तक कभी मुझे कुछ भी नहीं माँगा...बस देते आये हो दोनों हाथों से...इसलिए तुम सबसे अलग हो...बाकी जितने लोग हैं मेरी जिंदगी में मैं उनके लिए ऐसी ही हूँ...कुछ न मांगने वाली, उनके लिए बहुत सी दुआओं की लिस्ट बनाने वाली...मैं तुम्हारी कुछ नहीं हूँ तो भी तुम मेरी कितनी मुस्कुराहटों का सबब बने हो...तुम्हें पता है न तुमसे बात करते हुए सारे वक़्त हंसती रहती हूँ...कभी कभी तो गाल दर्द कर जाते हैं. मैं हर दर्द में तुम तक लौट के आती हूँ...जब अँधेरा बहुत गहरा हो जाता है तो खिड़की तुम्हारे अन्दर ही खुलती है...तुम से ही धूप और रौशनी उतरती है और मेरी आँखों को चूम कर कहती है...सब अच्छा हो जाएगा. तुम तक मेरी कौन सी तलाश आ के ठहरती है मालूम नहीं. तुम बहुत सारे सवाल हो मेरे लिए...समंदर की तरह अबूझ मगर तुम्हारे ही किनारों पर सुकून मिलता है मुझे. हर लहर मुझे कुछ लौटा दे जाती है...मेरा कुछ मांग ले जाती है. कल रात बहुत चैन की नींद आई मुझे...तुम्हारे शब्द मेरे माथे पर नींद आने तक थपकियाँ दे रहे थे. 


मुझे आज तक कोई शब्द नहीं मिला जो तुम्हें परिभाषित कर सके...हाँ शायद फ़रिश्ते ऐसे ही होते होंगे...गार्डिंग एंजेल...मैं खुदा की बहुत पसंदीदा बेटी रही होउंगी जो उसने तुम्हें मेरी देखभाल के लिए भेज रखा है. तुम्हारे जैसा कहीं कोई नहीं है...फरिश्तों में भी तुम सबसे अच्छे हो.

I love you with every fragment of my existence...thank you for being. 

29 April, 2011

रेशम की गिरहें

जिंदगी सांस लेने की तरह होती है...दिन भर महसूस नहीं होती, दिन महीने साल बीतते जाते हैं. पर कुछ लम्हे होते हैं, गिने चुने से जब हम ठहर कर देख पाते हैं अपने आप को...उस वक़्त की एक एक सांस याद रहती है और किसी भी लम्हे हम उस याद को पूरी तरह जी सकते हैं.

इतना कुछ घटने के बावजूद ऐसा कैसे होता है की कुछ लोग हमें कभी नहीं भूलते...क्या इसलिए की उनकी यादों को ज्यादा सलीके से तह कर के रखा गया है...बेहतर सहेजा गया है...लगभग पचास पर पहुँचती उम्र में कितनी सारी जिंदगी जी है उसने और कितने लोग उसकी जिंदगी में आये गए. कुछ परिवार के लोग, कुछ करीबी दोस्त बने, कितनों को काम के सिलसिले में जाना...कुछ लोगों से ताउम्र खिटपिट बनी रही. 

आज शोनाली का ४९वां जन्मदिन है. सुबह उठ कर मेल चेक किया तो अनगिन लोगों की शुभकामनाएं पहुंची थीं, कुछ फूल भी भेजे थे उसके छात्रों ने और कुछ उसके परिचितों ने. घर पर त्यौहार का सा माहौल था, छोटी बेटी शाम की पार्टी के लिए गाने पसंद कर रही थी...खास उसकी पसंद के. वो याद के गाँव ऐसे ही तो पहुंची थी, गीत की पगडण्डी पकड़ के...

घर के थियेटर सिस्टम में गीत घुलता जा रहा था और वो पौधों को पानी देते हुए सोच रही थी की ऐसा क्या था उन डेढ़ सालों में. देखा जाए तो पचास साल की जिंदगी में डेढ़ साल कुछ ज्यादा मायने नहीं रखते. बहुत छोटा सा वक़्त लगता है पर ऐसा क्या था उन सालों में की उस दौर की यादें आज भी एकदम साफ़ याद आती हैं...उनपर न उम्र का असर है न चश्मे के बढ़ते नंबर का. 

'न तुम हमें जानो, न हम तुम्हें जानें, मगर लगता है कुछ ऐसा...मेरा हमदम मिल गया...' गीत के बोल शायद किसी अजनबी को सुनाने के एकदम परफेक्ट थे...अजनबी जिसने अचानक से सिफारिश कर दी हो कोई गीत सुनाने की...और कुछ गाने की इच्छा भी हो. देर रात किसी लैम्पोस्ट की नरम रौशनी में, सन्नाटे में घुलता हुआ गीत...'ये मौसम ये रात चुप है, ये होटों की बात चुप है, ख़ामोशी सुनाने लगी...है दास्ताँ, नज़र बन गयी है दिल की जुबां'. आवाज़ में हलकी थरथराहट, थोड़ी सी घबराहट की कैसा गा रही हूँ...अनेक उमड़ते घुमड़ते सवाल की वो क्या सोचेगा, आज पहली ही बार तो मिली हूँ...उसने गाने को कह दिया और गाने भी लगी. दिमाग की अनेक उलझनों के बावजूद वो जानती थी की इस लम्हे में कुछ तो ऐसा ही की वो इस लम्हे को ताउम्र नहीं भूल सकेगी. 

उस ताउम्र में से कुछ पच्चीस साल गुज़र चुके हैं, भूलना अभी तक मुमकिन तो नहीं हुआ है...और ये गीत उसे इतना पसंद है की उसकी बेटियां भी उसका मूड अच्छा करने के लिए यही गाना अक्सर प्ले करती हैं. लोग यूँ ही नहीं कहते की औरत के मन की थाह कोई नहीं ले सकता. घर में इतना कुछ हो रहा है, सब उसके लिए कुछ न कुछ स्पेशल कर रहे हैं और वो एक गीत में अटकी कहीं बहुत दूर पहुँच गयी है, पीली रौशनी के घेरे में. 

उन दिनों उसने अपने मन के फाटक काफी सख्ती से बंद कर रखे थे...और अक्सर देखा गया है कि प्यार अक्सर उन ही लोगों को पकड़ता है जो उससे दूर भागते हैं. कुछ बहुत खास नहीं था उनके प्यार में....उसे एक लगाव सा हो गया था उससे जो उनके ब्रेक अप के बाद भी ख़त्म नहीं हो पाया था. उसे पता नहीं क्यों लगता था की वो उसे ताउम्र माफ़ नहीं करेगा...इस नफरत के साथ का डर भी उसे लगता था, की वो किसी को प्यार नहीं कर पायेगा जैसा कि उसने कहा था...वो चाहती थी कि उसे किसी से प्यार हो...पर प्यार किसी के चाहने भर से नहीं हो पाता. उसे याद नहीं उसने कितनी दुआएं मांगी थी उसके लिए...जिससे कोई रिश्ता नहीं था अब.

अचानक से उसे महसूस हुआ कि चारो तरफ बहुत शोरगुल हो रहा है...गीत कुछ तीन मिनट का होगा पर इतने से अन्तराल में कितना कुछ फिर से जी गयी वो. उसकी बेटी दूसरा गाना लगा रही थी...'ऐ जिंदगी, गले लगा ले हमने भी, तेरे हर इक गम को गले से लगाया है..है न?'...उसे एक छोटा सा कमरा याद आया जिसमें वो उसे छोड़ के जाने के बाद एक आखिरी बार मिलने आई थी...रिकॉर्डर पर यही गाना बज रहा था. 

सीढ़ियों से नीचे देखा तो हर्ष उसकी पसंद के फूल आर्डर कर रहे थे...उसे अपनी ओर देखता पाकर मुस्कुराये और उसे उनपर ढेर ढेर सा प्यार उमड़ आया. जाने किस दुनिया में थी कि फ़ोन की घंटी से तन्द्रा टूटी....
'जन्मदिन मुबारक!' और उसे आश्चर्य नहीं हुआ कि इतने साल बाद भी उसकी आवाज़ पहचान सकती है. उसकी आँखें कोर तक गीली हो गयीं...'तुम्हें याद है आखिरी दिन तुमने कहा था कि मुझसे जिंदगी भर प्यार करोगी?, सच बताओ तुम मुझसे प्यार करती थी?'

'नहीं.......मैं तुमसे प्यार करती हूँ'

उस एक सवाल के बाद कुछ बहुत कम बातें हुयीं...पर आज उसे महसूस हुआ कि उसके दिल में जो सजल के लिए प्यार था वो हमेशा वैसा ही रहा. हर्ष के आने पर, उसकी दोनों बेटियों के आने पर...उन्होंने सजल के हिस्से का प्यार नहीं माँगा...सबकी अपनी जगह बनती गयी...कि उसने कभी सजल को खोया ही नहीं था.

सदियों का अपराधबोध था...बर्फ सा कहीं जमा हुआ...चांदनी सी निर्मल धारा बहने लगी और उसके आलोक में सब कुछ उजला था, निखरा हुआ...उज्वल...धवल...निश्छल. 

14 February, 2011

तुम कब जाओगे उदास मौसम?

जाने वो कौन सा प्यार होता है कि जिसके होने से रूह के कण कण में से उजास फूटने लगती है...जाने तुम्हारी याद के बादल किस समंदर से उठते हैं, सदियों बरसने पर भी बंद नहीं होते हैं...

जब तक उपरी बात होती है, सब बहुत सुन्दर है...आँखों को लुभावना दिखता है, पर जहाँ थोड़ा भी गहरे उतर कर देखती हूँ तो पाती हूँ कि अँधेरे का कोई छोर ही नहीं है...कोई सीमा नहीं है...जैसे सामने बेहद ऊँची लहरें हैं जिनमें डूबने के अलावा कोई चारा ही नहीं है. और लगता ये भी है कि दिए में रोज बाती करना, तेल करना और शाम होते देहरी पर रखना जिसका काम था वो तो बिना त्यागपत्र दिए रुखसत हो रखी है. मुझे अपने लिए एक रेकोमेंडेशन लेटर चाहिए...कह सकते हैं कि एक तरह का चरित्र प्रमाण पत्र जो कि एकदम मेरे मन को सही सही ग्रेड दे सके. मनुष्य के कई प्रकार होते हैं काले और सफ़ेद के बीच...इन्हें आजकल खास तरह के ग्रे शेड वाले कैरेक्टर कहते हैं. ऐसी कोई value जो तय कर सके कि इस सियाह अँधेरे में कहीं उजाले की कोई किरण है भी कहीं...या कभी हुयी थी...या कभी होने की कोई सम्भावना है?

तुम...मन के हर अवसाद से खींच कर लाने को तत्पर और सक्षम भी...तुम तो हो नहीं आज...सामने मार्कशीट रखी है...पढ़ने में  नहीं आ रही है...पर लोग कहते हैं कि लाल स्याही है...दूर से चमकता है लाल रंग, खून के जैसे, रुक जाने के जैसे...  फुल स्टॉप...जिंदगी यूँ ही ख़त्म क्यों नहीं हुए जाती है. मार्कशीट पर किसी ऐसे इन्सान के हस्ताक्षर चाहिए जो कह सके कि मुझे जानता है...पूरी तरह, उतनी पूरी तरह जितना कि एक इन्सान दूसरे इन्सान को जान सकता है...अफ़सोस...कार्ड पर आत्मा के दस्तखत नहीं हो सकते. समाज बस मान्यता देता है आत्मा के रिश्तों को...पर उन गवाहियों को नहीं मानता. शर्त है कि खुद को गिरवी रखना होता है अगर बात साबित हो गयी...कि मेरे अन्दर कहीं से भी कोई भी रोशनी ना थी, ना है...और ना कभी होगी.

दर्द का ये कौन सा मौसम है कि गुज़रता ही नहीं...सावन नहीं गिरता, बहार नहीं आती. आज जबकि इश्क का दिन है...मैं कैसी बेमौसम बातें कर रही हूँ.
लव यू माँ. मिस यू मोर.

04 February, 2011

कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

तुम्हें मालूम कहाँ रात के टूटे वो पहर
कि आधी नींद लेके बदगुमान थे बहुत हम
जब कि ख्वाब में भी तुमने हाथ छोड़ा था
कि आधे जागने में भी मुझसे दूर थे बहुत तुम

हाँ वो बातें ही थी, कोरी ख्याली बातें थी
बस तुम कहते थे तो लगता था सच से रिश्ता है
तुम कहा करते थे मैं खूबसूरत हूँ बहुत
ये भी तो कहते थे इश्क हमेशा सा होता है

तुम्हें याद है तुम मुझको 'जान' कहते थे
मुझे गुरूर था मैं तुमको 'तुम' बुलाती हूँ
आज लफ़्ज़ों में आवाज़ ढूंढती हूँ फिर
मैं फिर उदास होके तुमको 'ग़म' बुलाती हूँ


ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

29 December, 2010

जिगसा पजल

वो हमेशा की तरह उस झील के किनारे पर खड़ी थी...बंगलोर शहर से बाहर नए एयरपोर्ट से थोड़ी दूर, नैशनल हाइवे नंबर सात  पर पहाड़ियों के पांवों तले लेटी वो झील जिया की जिंदगी में बहुत ख़ास हो गयी थी. उस झील के पार एयरपोर्ट था और हवाईजहाज जब गुजरते थे तो जैसे झील के पानी में हलचल मच जाती थी. झील से थोड़ा ही हट कर रेलवे लाइन भी गुज़रती थी और पास में हाइवे था. जिया को लगता था कि शहर में बस एक यही जगह है जिधर से शहर पहुँचने के तीनो रास्ते दिखते हैं...एक तरह का संगम...प्रयाग...मीटिंग पॉइंट.

नॅशनल हाइवे नंबर सात कन्याकुमारी तक जाता था...झील के किनारे बैठी वो अक्सर सोचती थी कि कार लेकर चलती जाऊं, चलती जाऊं जब तक कि सड़क ख़त्म ना हो जाए...और अगर वो NH 7 पर ड्राइव करती जाए तो सच में ऐसी जगह पहुँच जायेगी जहाँ से आगे जाने का कोई रास्ता नहीं होगा. सामने उछाल मारता समंदर...वैसा ही होगा जैसी ये झील है. समंदर पार करना बहुत मुश्किल है. कन्याकुमारी पहुँच कर आगे जाने का कोई रास्ता नहीं होता. सब ख़त्म हो जाता है पानी की कुछ लहरों तक आ कर. उनके रिश्ते की तरह.

अभी कल ही की बात लगती है जब तुषार और वो शाम को काफी सालों बाद मिले थे. उसे बहुत दिनों बाद बर्फ का गोला नज़र आया था एक ठेले पर तो वो काफी खुश थी...उसपर तुषार को सर्दी थी तो वो गोला नहीं खा सकता था...उसे चिढ़ा कर खाने में और भी मज़ा आ रहा था. शाम बेहद खूबसूरत थी, मीठी, खट्टी प्यारी...एक हमेशा याद रहने वाली शाम के सारे रंग मिले हुए थे. सड़क किनारे ऊँचे पेवमेंट पर वो खामोश ही बैठे थे. दिसंबर महीने की हलकी ठंढ थी जो शाम ढलते बढ़ती जा रही थी.

तुषार ने बिना किसी भूमिका के ही कह दिया था...जिया, अगर मैं कहूँ कि हम आखिरी बार आज मिल रहे हैं तो?. उसे लगा वो मज़ाक कर रहा है पर उसकी आवाज़ थोड़ी ठहरी हुयी थी इसलिए डर भी लगा कि कहीं सीरियस बात तो नहीं कर रहा...तुषार बोलता गया...अब तुम्हारी शादी हुयी यार...डेढ़ साल होने को आये. तुम्हें चाहिए कि अपनी शादी पर ध्यान दो. मैं रहूँगा तो खामखा कभी अपने पति से लड़ पड़ोगी मेरे लिए. मैं जानता हूँ, हर लड़का इन्सेक्युर होता है. वो तुम्हारी पूरी दुनिया होना चाहिए, तुम्हारा बेस्ट फ्रेंड, तुम्हारा सब कुछ. मेरी कोई जगह नहीं है तुम्हारी जिंदगी में. यूँ तो जिया ने कोशिश की, बात को परे हटाने के...हम आखिरी बार मिल रहे हैं...पागल हो गया है, मर नहीं जाएगा मेरे बिना! पर असल में ये बात उसने अपने खुद के लिए कही थी.

तुषार ने लम्हे में सब कह दिया...कहने को बचता क्या था फिर. प्यार, शादी सब कुछ जैसे पानी में रंगों की तरह घुलने लगा. कला खट्टा गोला में हर स्वाद अलग महसूस होने लगा, कभी खट्टा, कभी तीखा, कभी मीठा. बहुत से मंज़र आँखों के सामने तैर गए, कितने झगड़े...कितना मनाना और कितने सारे साथ के पिकनिक वाले दिन. शादी के दिन कितना तो रोई थी तुषार से लिपट कर. याद बस वो लम्हा आता था...जब उसने कहा था, पागल मैं थोड़े कहीं जा रहा हूँ, आता रहूँगा तुझसे मिलने बंगलोर...तू शादी कर रही है, मर थोड़े रही है. मैं हमेशा तेरे साथ हूँ रे...पापा ने भी विदाई के समय यही कहा था. कि हम आते रहेंगे मिलने. पर पापा तो छुट्टी कहाँ मिली...तुषार ही आया था, साल भर बाद लगभग...छोटे भाई के साथ घर से भाईदूज का सामान लेकर.

जिया ने कुछ नहीं कहा...कहना चाहती थी, कि मैं कोई गर्लफ्रेंड थोड़े हूँ जो ब्रेक अप हो जाएगा हमारा...दोस्ती कोई ख़त्म हो जाने वाली चीज़ थोड़े है. कि एक दिन उठ कर तुम बोल दो कि तुम्हारी पूरी जिंदगी कोई और है...मेरी कोई जगह नहीं है. सिर्फ इसलिए कि किसी से मैंने शादी की है, उससे बेहद प्यार करती हूँ वो मेरी पूरी दुनिया नहीं ना हो जाएगा. मम्मी है, पापा हैं, भाई है...घर के इतने सारे लोग, नाना नानी, भाई बहन और कुछ खास दोस्त. सब मिलकर मेरी पूरी दुनिया बनाते हैं. इस जिगसा पज़ल का तुम एक जरूरी हिस्सा हो...तुम्हारे जाने से मेरी दुनिया में एक खाली प्लाट रह जाएगा.

पर ऐसे एकतरफ़ा निर्णय ले लेने पर कहने को क्या बचता है. अगर सच में उसे लगता है कि उसे मेरी जिंदगी में नहीं होना चाहिए तो मैं उसे नहीं रोकूंगी. लग कुछ वैसा रहा था जैसे जब पहली बार उसने बताया था कि वो होस्टल जा रहा है. उसका जाना जरूरी था, पढ़ना था...आगे कुछ अच्छा बनना था. जाना तो पड़ेगा ही. ठीक है जाओ...फोन करोगे कि नहीं? जिया को लग रहा था कि जैसे सब कुछ धीमा हो गया है...पलकें भी स्लो मोशन में ही झपक रही थीं. बर्फ का गोला पिघलते वो भी जैसे  जम सी ही गयी थी...सोच रही थी तुषार का मतलब  बर्फ होता है...

जाते वक़्त तुषार को हग करते वक़्त उसने मसहूस किया कि उसने बस एक लम्हे भर ज्यादा उसे पकड़े रखा है, हर बार से बस थोड़ा सा टाईटली हग किया है...उस वक़्त उसे महसूस हो गया कि तुषार अब वापस सच में नहीं आएगा मिलने. उसे पता नहीं क्यों उस वक़्त उस झील की याद आई.

NH7 के साथ चलती उस झील पर लगभग हर महीने किसी ना किसी दिन जाने का दिल कर आता है उसका. झील किनारे खड़े होकर वो बहुत सोचती है...जिसमें ये बातें भी आती हैं कि तुषार अब जाने कैसा दिखता होगा...बहुत साल हो गए बंगलोर आके बसे हुए. कभी कभी बच्चों के साथ भी आती है वहां, उन्हें खेलते हुए देख कर यादों को दुलराती है. जिंदगी के मुश्किल इक्वेशन अब भी मुश्किल लगते हैं उसे. ये रिश्तों की पेचीदगियां...परत दर परत सामाजिकता का खोल उसने ना अपने ऊपर चढ़ने दिया ना किसी और रिश्ते पर.

जब भी उसका झील पर जाने का मन करता है, वो जानती है कि तुषार बंगलोर आया हुआ है...हर बार वो वहां खड़ी होकर सोचती है कि इस बार कैसे आया होगा...फ्लाईट से, कर ड्राइव करके या ट्रेन से? उसकी आँखें अपने जिगसा पजल के हिस्से को बेतरह मिस करती हैं.

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