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11 December, 2013

सवालों का बरछत्ता

मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी अाँखों का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता...
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मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की अादत तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?

कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है अाखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये अाखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...अाखिर जिये जाने का सबब कुछ तो हो!
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क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं अाता...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके में फिट कर सकती तो कितना अच्छा होता...दोस्त, महबूब, दुश्मन सही...कोई नाम तो होता रिश्ते का।
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ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती कि एक दूसरे के बिना हम जी लेंगे, बस इतना भर लगता था कि एक झगड़े में पूरी उम्र बात न करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। खुश होगे तुम, कि तुम्हें खुश रहने का हुनर अाता है, बस इतना जानना था कि कभी तन्हा बैठे हुये मेरी याद तुम्हें भी अाती है क्या?

मैं अब भी खुद को नहीं जानती...कितना कुछ समझना अब भी बाकी है। अफसोस ये है कि मै कोई अौर होना चाहती हूँ, बेहतर कोई...जिसे रिश्तों की, जिन्दगी की ज्यादा समझ हो। खुद को माफ कर पाना अासान नहीं लगता। अब कोरी स्लेट नहीं मिल सकती जिसपर फिर से लिखा जाये सब कुछ।
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कुछ खत रखे हैं, ताखे पर। उन्हें भेज दूँ। बहीखाता जिन्दगी का बंद करने के पहले कुछ उधार चुका दूँ लोगों का बकाया। निगेटिव होती जा रही हूं, अपनी मुस्कान भूल अायी हूँ कहीं। सब उल्टा पुल्टा है। खुशी अंदर से अाती है। बस इस अंधेरे का कुछ करना होगा। 

29 October, 2012

अधीरमना...

Temples are temporary suspensions from the insanity of the world. Our refuge from the mad mad rush of life.
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मन कहता है कि शांति अगर यहाँ भी नहीं तो कहाँ...ज्वारभाटा के भी आने का नियत वक़्त होता है...चाँद के मूड के हिसाब से समंदर में लहरें नहीं उठतीं...वहां भी डिसिप्लिन है. समंदर किनारे टाइड के आने का वक़्त बड़ा खतरनाक और सम्मोहक होता है. समंदर बहुत तेजी से उठता है, जैसे कि कहीं रुकना ही नहीं हो...लहरें जैसे चन्द्रमा को लील जाने के लिए ऊंची होती जाती हैं. अभी तो किनारे पर बैठे थे...खेल रहे थे और पल में डुबा देने को तैयार हो जाती हैं लहरें. समंदर की तुलना इसलिए मन से की जाती है. मैंने भी ऐसा ही कुछ सोच के अपने ब्लॉग का नाम लहरें रखा था कि मन में हमेशा कोई न कोई ख्याल उठता ही रहता है.

मेरी नैचुरल स्टेट...केओटिक है...मैं स्थिरमना नहीं रहती. सफ़र में रहती हूँ तो कमसे कम कुछ देर चैन रहता है. नवम्बर आने को है...साल का ये समय मैं अक्सर सबसे ज्यादा लिखती हूँ...परेशान रहती हूँ...और साल के इसी वक़्त अक्सर कुछ नया मिलता है...कुछ अद्भुत जो पहले कभी नहीं देखा.

विजयादशमी सफ़र की शुरुआत के लिए अच्छा दिन होता है...उस दिन निकलने से सफ़र अच्छा रहता है. सदियों पहले बने गए नियमों के पीछे कुछ तो कारण होगा ही. इस विजयादशमी को हम रामेश्वरम और मदुरै के लिए सफ़र में चले थे. इनोवा में पीछे की सीट काफी स्पेशियस रहती है और रास्ते में गाना सुनते, हल्ला करते और फोटो खींचते जाया जा सकता है. आसमान मेरी पसंद के शेड का नीला था और बादल मेरी पसंद के शेड के वाईट. साउथ की सड़कें काफी अच्छी हैं, बंगलोर से मदुरै लगभग आठ लेन की सडकें थीं और ट्रैफिक भी कम था.

हर कुछ दिन की नौटंकी हो जाती है कि अब नहीं लिखूंगी...अब कुछ भी नहीं लिखूंगी...मगर फिर कुछ ऐसा हो जाता है कि लिखे बिना रहा नहीं जाता...अंग्रेजी में कहें तो I am cursed to write....लिखने के लिए अभिशप्त हूँ. हर कुछ बदलते रहता है...मौसम बदलते हैं, खिड़की पर के नज़ारे बदलते हैं, दिन से शाम...शाम से रात...फिर ये मन की स्थिति हमेशा केओटिक क्यूँ रहती है ये भी तो कभी मूड बदल कर शांत हो जाए. कि चलो...लेट्स टेक अ ब्रेक...आज कुछ नहीं सोचेंगे...सिंगल ट्रैक पर चलेंगे...ऑफिस में हैं तो ऑफिस का काम करेंगे...घर में हैं तो खाना क्या बनाना है इस बारे में सोचेंगे. सारे लोग तो ऐसे परेशान नहीं होते. चैन से रहते हैं...ये बेचैनी मुझे ही क्यों. पिछले साल से कुछ ज्यादा ही आती हैं मन में सुनामी लहरें...उनके जाने के बाद उजाड़ जमीन पर जाने क्या क्या बाकी रह जाता है.

कितने कितने सारे सवाल हैं...जवाब एक का भी नहीं. लोग कैसे गुज़ार लेते हैं जिंदगी बिना ये सोचे हुए कि इस जिंदगी का करना क्या है. ऑफिस है...बहुत अच्छा है...काम भी इंट्रेस्टिंग है मगर कुछ ऐसा नहीं कि सुबह उठ के इस बात पर खुश हुआ जाए कि आज ऑफिस जाना है. वो क्या है जो मुझे खींचता है? आखिर क्या चीज़ रोकती है मुझे...मेरे सारे डर मेरे अन्दर के ही तो हैं. मैं जो दुनिया रचती हूँ उसके किरदार स्याह होते हैं...डर लगता है कि मेरे लिखने भर से वो जिन्दा न हो जाएँ. उस एंटी-हीरो को लिखते हुए वो मेरे अन्दर पनाह पाने लगता है...जैसे ग्रहण लगता है वैसे ही उसके मन का कालापन मेरी आँखों के आगे अँधेरा करने लगता है. मेरे लिखने से चीज़ें होने लगती हैं.

मंदिर एनेर्जी के श्रोत होते हैं. वहां जाने पर कुछ देर के लिए लगता है जैसे दुनिया ठहर गयी है. बहुत सालों से लगातार होते हुए मंत्रोच्चार से वहां के पत्थर भी द्वारपाल जैसे हो गए हैं और विचारों पर बाँध बना देते हैं...लगता है कि मन थमा है. कि शिवलिंग को देखने की इच्छा इतनी सान्द्र है कि कुछ और सोच नहीं सकती. वहां सब शांत होता है. मगर वहां भी ये मालूम होता है कि ये थामना थोड़ी देर का है...बाहर जाते ही पहले से ज्यादा कोलाहल होगा. मुझे लगता है कि अगर यहाँ भी नहीं तो फिर कहाँ. मैं क्या लिख दूं कि ये उफान थम जाए...कि ये ज्वारभाटा उतर जाये.

थोड़ा और फोकस...थोड़ा और...वो जो कागज़ है न...उसपर...वो जो सियाही है न...उसपर. लिखना और जीना अलग नहीं हैं...जैसे मैं और केओस अलग नहीं हैं. मैं केओटिक नहीं हूँ...मैं केओस हूँ. मूर्त रूप...अधीरमना...

बहुत कम आवाजें मुझे बाँध पाती हैं...अनजान रास्तों कहीं दूर से आवाज़ आती है...बचपन की निश्चिन्तता वाले दिनों जैसी...इस गीत में एक अनुरोध का स्वर है...एक याचना का...एक प्रार्थना का...लंगर डालने पर भी जहाज लहरों के साथ थोड़ा थोड़ा डोलता रहता है...बस वैसे...ठहरती हूँ...जरा सी...बस जरा सी...

केशव...नित कल्कि शरीरं...जय जगदीश हरे...

03 October, 2012

चुप का शोर...


When I look at my shadow
I often wonder
Amongst us,
which one is darker?


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ग्रे...उजले रंग में थोड़ा सा भी काला रंग मिलाने से ग्रे बन जाता है मगर काले रंग को थोड़ा सा भी हल्का करने के लिए उसमें बहुत सारा सफ़ेद रंग मिलाना पड़ता है. किरदार भी ऐसे ही होते हैं. थोड़ा सी सियाही और हीरो एंटी-हीरो में तब्दील हो जाता है मगर विलेन को थोड़ा सा भी अच्छा बनने के लिए अपनी पूरी जीवन शैली ही बदलनी पड़ती है.

कहानी का श्याम पक्ष लिखना मुश्किल है...इसलिए नहीं कि ऐसे किरदार रचने मुश्किल हैं बल्कि अपने अंदर के अँधेरे का डर इतना ज्यादा है कि सूरज पर ग्रहण लग सकता है. लंबे समय तक कोई किरदार साथ रह जाए तो सच और कहानी के बीच का फासला मिटने लगता है. कहानी सिर्फ अच्छे लोगों की नहीं होती। वो तो कहानी का सिर्फ एक हिस्सा होता है...प्रतिनायक, कहानी को उसके नज़रिए से भी देखना होता है. लंबी कहानी लिखना खुदके साथ शतरंज खेलने जैसा है. जब आप पाले बदल कर दुश्मन के खेमे से खेलते हो तब आप खुद के दुश्मन हो जाते हो...तब कई बार ये भी लगता है कि काले सफ़ेद प्यादे कुछ नहीं...जीतने की रणनीति एक जैसी ही होती है. खून उतने ही करने होते हैं...चालें वैसी ही खतरनाक चलनी होती हैं।
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आजकल लाल फूलों के खिलने का मौसम है। मुझे उनका नाम नहीं पता। सड़क के दोनों ओर सूखे हुए पत्तों और धूल के साथ लाल-नारंगी-धूसर फूल भी दिखते हैं। मैं मुराकामी की एक किताब पढ़ रही थी. IQ84. सच और सपने की बारीक रेखा के इस पार उस पार डांस करती हुयी कहानी है. रात को जब साइकिल चलाने निकलती हूँ दुनिया स्लो मोशन में चलने लगती है. पैदल चलते हुए भी ऐसा कभी नहीं लगा था. फेंस-सिटर्स. ऐसे लोग जो निर्णय नहीं ले सकते. आर या पार की बात आती है तो उस फेंस/बाउंडरी/चारदीवारी पर ही घर बना लेते हैं. मैं जब साइकिल पर होती हूँ तो ऐसा लगता है कि मेरी दुनिया और मेरी कहानियों के बीच एक दीवार बनती जा रही है...बहुत लंबी और ऊंची...चीन की दीवार की तरह और मैं कहीं जाना नहीं चाहती...उसी दीवार पर घंटों रहना चाहती हूँ.
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'काला रे सैय्याँ काला रे...काली जबां की काली गारी...काले दिन की काली शामें...'
-गैंग्स ऑफ वासीपुर के गीत से

प्रतिनायक के बारे में लिखते हुए उसके नज़रिए से दुनिया देखती हूँ...लगता है सब सही तो है. वहाँ फिर खून भी माफ होता है, गालियाँ माफ होती हैं, प्यार न कर पाने की क्षमता, विध्वंस करने की उसकी प्रवित्ति...सब सही है क्यूंकि उसकी दुनिया में वो नायक है...प्रतिनायक नहीं...उसके नियमों से वो सही है. नीत्ज़े की कही एक पंक्ति है 'He who fights with monsters might take care lest he thereby become a monster.' अक्षरशः अनुवाद ये होगा कि 'जो दानव से लड़ता है उसे इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वो खुद ही दानव न बन जाए'. प्रतिनायक को लिखते हुए एक दूरी बना के रखनी पड़ती है. कहानी में सबसे महत्वपूर्ण रोल उसका ही होता है. सबसे जरूरी होता है कंट्रास्ट बनाना...जितनी तेज रौशनी होती है, परछाई उतनी ही काली होती है...फीकी रौशनी की परछाई फीकी ही होती है.
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Our deepest fear is not that we are inadequate. Our deepest fear is that we are powerful beyond measure. It is our light, not our darkness that most frightens us.
(Not sure about the sources)
हमें डर अपने अंधेरों से नहीं...अपने उजालों से लगता है...हम अपनी कमजोरियों से नहीं...अपनी अकूत क्षमताओं से डरते हैं. 
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मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं खामोश जहाँ हूँ मुझे वहाँ से पढ़ो 
-निदा फाजली 

इधर कुछ बहुत अलग अलग चीज़ें पढ़ी...विन्सेंट वैन गोग की जीवनी...लस्ट फॉर लाइफ...एक कलाकार के जीवन की छटपटाहट का सबसे बेहतरीन उदहारण मिला है मुझे. किसी से डिस्कस कर रही थी तो उसने कहा कि लस्ट फॉर लाइफ बहुत डार्क है...उदास कर देने वाला. मैंने मुस्कुरा कर कहा...मुझे पता है...मैं भी कुछ कुछ वैसी ही हूँ. मुझे भी सियाह और उदास कर देने वाली चीज़ें पसंद हैं. 

कितना ज्यादा विरोधाभास है जीवन में...मैं जितना बोलती हूँ उतना ही चुप रहती जाती हूँ. बहुत गहरा कुआँ होता है मन...सीली सीढ़ियाँ...अँधेरा...कितनी ही बार उतरती हूँ...कितना भी नीचे उतरती हूँ काई लगी दीवारें उतनी ही डरावनी लगती हैं. जैसे काला गाढ़ा पानी रिस रिस कर भर रहा है. मन की तलछट पर से ऊपर देखती हूँ...किसी बहुत गहरे पथार के कुएं की तरह ऊपर एक गोल खिड़की दिखती है जिससे दिन में भी तारे नज़र आते हैं. आसमान काला होता है...बीच सावन बरसते परदेस में भिगाने वाला काला. 

कोई सवालों का झग्गड़ झुलाता है नीचे...अनगिन प्रश्चिन्हों के हुक...पानी में जवाबी बाल्टियाँ गिरी हुयी हैं. कुएं में लोहे के टकराने की आवाजें होती हैं और गोल दीवारों से टकराती हुयी अजीब धुन पैदा होती है...दिल की धड़कन के जैसी...अनियमित. 
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Interrobang=?! or ?!

शब्दों/संकेतों की दुनिया लाजवाब है. कुछ कुछ चीज़ें पढ़ते हुए पहली बार इन्टेरोबैंग से सामना हुआ था. इंटेरोगेशन मार्क और क्वेस्चन मार्क को मिला कर बना ये चिन्ह बहुत से फोंट्स में पाया जाता है. ये ऐसी मानसिक अवस्था को दर्शाता है जब आप चकित हैं और मन में अनेकों सवाल भी हैं. बहुत दिन बाद मैंने अपना फैवआइकन बदला है. मज़े की बात ये है कि ये चिन्ह अंग्रेजी के P अक्षर जैसा लगता है...तो ब्लॉग के लिए परफेक्ट है. 
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पहेली जिंदगी नहीं होती...हम हो जाते हैं. खुद से मिलते रहना जरूरी है. थोड़ा भाषण देना जरूरी है. बहुत दिन बाद लिखो तो बेहद फालतू चीज़ें लिखती हूँ...मगर बहुत दिन पहले एक दोस्त को कहा था...लिखने से मोह करना...लिखे हुए से नहीं. तो लिखने की आदत को बरकरार रखने के लिए इतना सारा कुछ.
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आँख से सुबुक गिर पड़ता है पांचवां आँसू...पगली नमक से मर जायेंगे चिरामिरा के पौधे. घबराती हूँ, आँचल बारिश में तानती हूँ आसमान पर. रोकती हूँ गाँव पर आने वाले फ्लैश फ्लड को...डूब जाती हूँ...कोई जाल में छांक लेता है लाश को.

कांच का गुलदान उठा कर सामने फेंका है दीवार पर...किरिच किरिच चेहरा गिरा है फर्श पर.

26 September, 2012

अनलहक!

बहुत दूर ऊपर निर्जन हिमालय में एक गुफा है...साल भर बर्फ के ग्लेशियर का पानी पिघल कर बूँद बूँद गिरता  है. नीचे पहुँच कर पानी फिर बर्फ हो जाता है...एक वृत्त पूरा हो जाता है...बर्फ...पानी...बर्फ. मगर इस वृत्त के पूरा होने में कुछ रच जाता है...शिवलिंग...अमरनाथ की गुफा में...हर साल सावन पूर्णिमा को एक दिन के लिए गुफा का दरवाजा खुलता है.
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लिखना...जैसे प्याला रखा हो और शब्द वैसे ही बूँद बूँद गिरते हों...निर्वात से उगते हैं शब्द...कुछ रच जाता है और फिर निर्वात में ही खो जाते हैं शब्द...मैं काफी दिनों से इस प्याले को देख रही हूँ...जाने शब्द आने बंद हो गए हैं कि प्याला टूट गया है. पहर पहर प्याले को देखते गुज़रता है...शब्द की परछाई भी नहीं दिखती...प्याले की तलछट में पिछला बकाया भी कुछ नहीं.

मुझे हमेशा लगता था कि लिखना कभी खुद से नहीं होता है...सब कुछ हमारे इर्द गिर्द ही रहता है...मैं बस माध्यम हूँ जिसके द्वारा कुछ लिखा जाता है. लिखना बहुत हद तक इन्वोलंटरी रहा है हमेशा से मेरे लिए.
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मैं कुछ कुछ सिजोफ्रेनिक भी होती जा रही हूँ...मन के अंदर हमेशा से बहुत सारी स्याही थी...लिखने से थोड़ा अँधेरा कम होता था...आजकल नहीं लिखती हूँ तो वही अँधेरा जैसे कौर बना कर मुझे खा लेना चाहता है...ग्रस लेता है...रात दर रात दर रात. कलमें शिकायत में डूबी हैं...घर में बेजा चीज़ें बढ़ती जा रही हैं. केओस बहुत सारा है. हालत कुछ कुछ वैसी लगती है जैसे शिव का तांडव चल रहा हो और चारों तरफ सिर्फ विनाश...सारी चीज़ें अपनी जगह से अलग-विलग. शब्द अजनबी...कोई तारतम्य नहीं. जैसे इस क्षण कोई शिव के पैरों पर गिर कर कहे...कि बस. अब बस.

मुझे नहीं मालूम ये कौन से लोग हैं जो मुझे दिखते हैं...और क्यूँ दिखते हैं...ये मेरे पीछे पीछे चलते हैं. साइकिल चलाती हूँ, हवा तेज़ी से गुज़रती है...और लगता है कि मोड़ पर कोई था...उसका होना इतना सच है कि मुझे कपड़ों के रंग दिखते हैं...मैं साइकिल वापस मोड़ती हूँ मन में मनाते हुए कि कोई हो वहाँ पर...न कुछ सही कोई जानवर ही...कुत्ता, बिल्ली...कोई जीवित चीज़ कि मुझे लगे कि मुझे धोखा हो गया था. पर वहाँ कोई भी नहीं होता. आगे पीछे दायें बाएं...सब ओर लोगों की परछाइयाँ...मैं जितना ही खुद को कमरे में बंद करना चाहती हूँ उतना ही परछाइयाँ नज़र आती हैं...इकलौता उपाय है लाईट बुझा कर अँधेरा कर देना...अँधेरे में परछाइयाँ नहीं दिखतीं...मगर अँधेरे के अपने डर हैं.

अँधेरा जब तक कलम में बंद है उससे दिन के आसमान पर लिखा जा सकता है...पर जब अँधेरा चारों ओर फ़ैल जाए तो उसपर रौशनी से नहीं लिख सकती मैं. मेरा कुछ तोड़ने का मन भी नहीं करता...कुछ जलाने का...कुछ फ़ेंक देने का...कुछ नहीं.

अँधेरा एक ब्लैक होल है...धीरे धीरे मेरी ओर बढ़ता है...मैं चुप होती जाती हूँ...मैं कुछ नहीं सुनती...कुछ नहीं कहती...सारे लोग किसी दुनिया में थे ही नहीं...डॉक्टर डायग्नोज करता है...और बताता है कि कोई नहीं है...मैं डॉक्टर को देखती हूँ...जानती हूँ...वो भी एक्जिस्ट नहीं करता है.

ये सब मेरी कल्पना है...मेरी रची दुनिया...कहीं कुछ सच नहीं...तो फिर मैं कौन...खुदा?

07 May, 2012

चिल्लर ख्याल...सुबह सुबह ढनमनाते हुए


आजकल मेरा दिमाग जाने कहाँ रहता है...कल ऊँगली काट ली सब्जी कट करते हुए...सोच कुछ रही थी...नया चाकू था एकदम नीट कट लगा...गहरा...खून बहुत तेज़ी से बह रहा था...मुझे खून सम्मोहित करता है...टहकता...दर्द में डुबोता...तो देख रही थी तब तक कुणाल भागते आया...नल के नीचे पानी से धोना शुरू किये पर खून रुकने से रहा...फ्रिज से बर्फ निकाली और ऊँगली पर रखी...कुणाल की आँखें तब तक घूमनी शुरू हो गयीं थीं...उसे खून देख कर चक्कर आता है...दो मिनट और खड़ा रहता तो वहीं बेहोश हुआ रहता तो उसको भेजे हॉल में कि तुम जाओ हम खुद से देख लेंगे. खून का बहाव इतना तेज था कि रुक ही नहीं रहा था...कितनी भी जोर से बर्फ से दबाए रखे थे ऊँगली को एकदम तीखी धार बहे जा रही थी...उसपर एक फ्रैक्शन ऑफ सेकण्ड भी दबाव कम होता तो बस फिर से धार तेज हो जाती...सिंक एकदम लाल सा हुआ जा रहा था वो तो अच्छा था कि सिंक में कोई बर्तन नहीं थे. 

काफी देर हुआ और खून रुकने को नहीं आया तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं...बचपन में मम्मी हमेशा बर्फ लगवाती थी और खून रुक जाता था...थोड़ी देर रुकता था तो बर्फ जैसे हटाती थी दर्द भी वापस लौटता था और फिर से धार शुरू. जब कुछ नहीं हो रहा था तो सोचा पट्टी बाँधने के सिवा कोई उपाय न था...कुणाल को तो बुलाने का सवाल नहीं था...वो एक बार झांकते हुए आया कि हम बाँध देते हैं...हम उसको डान्ट धोप के भेजे कि यहाँ एक छे फुट का बेहोश लड़का हमको नहीं चाहिए...फूटो यहाँ से...हम बहादुर हैं खुद से कर लेंगे सब. फिर रुई में सैवलोन लगाये और एक बार क्लीन किये फिर खूब सारी रुई में सैवलोन लगा के ऊँगली पर कस के दबाये और लिकोप्लास्ट चिपकाये...एकदम टाईट ड्रेसिंग किये कि खून टपके न. 

सारे टाइम ऊँगली को ऊपर उठाये रखे...कुणाल कह रहा था कि हार्ट के लेवल से ऊपर रखना चाहिए कट को...हर दर्द के साथ ऐसा ही होना चाहिए न? हार्ट के लेवल से ऊपर रखा जाए उसे...फिगरेटिवली स्पीकिंग. खैर...जमीन पर बैठे और हाथ बेड पर ऊपर रखे कि खून न बहे...बीच बीच में झाँक के देख भी लेते थे कि ठीक है कि नहीं...लाल तो नहीं हो रही है पट्टी...तो देखा कि ठीक है. खून बहना रुक गया था पर उतना खून बहता देख कर मेरा मन भी कैसा कैसा होने लगा था और मेंटली लग रहा था कि थक गए हैं...हालाँकि बहुत ज्यादा खून नहीं बहा होगा...या शायद  बहा होगा, मालूम नहीं. थक के सो गए. कुणाल कुछ दूध कोर्नफ्लेक्स खाया...हम आउट थे...देखे नहीं. 

नींद खुली तो शाम हो रही थी...खून बहना रुक गया था...पर हम भी हम हैं, ढेर होशियार बनते हैं. कल तेल लगाए हुए थे बाल में तो शाम होते होते एकदम सर भारी लगना और सर दर्द शुरू हो चुका था. हमको लगा खून रुक ही गया है...आराम से शैम्पू कर लेते हैं, बचा के करेंगे. अब बचा के ठेंगा होना था...नहा के निकलते निकलते फिर से ऊँगली ने खून की जमना बहानी शुरू कर दी...खुद को खूब सारा कोसा कि बुद्धि पे बलिहारी...वगैरह...फिर से टाईट ड्रेसिंग की. 

शाम डूबते हुए छत पर गयी थी...अक्सर बाल सुखाने के लिए छत पर जाना अच्छा लगता है...कल शाम एकदम एकरंग थी...बादल भी एकदम सलेटी...कोई नारंगी, लाल, गुलाबी नहीं...आसमां भी नीला नहीं...ग्रे...छत पर बैठ कर कुछ दोस्तों के बारे में सोचा कि संडे की इस शाम वो कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे...और ये कि किसी को बहुत शिद्दत से याद करो तो क्या वाकई उसे पता चलता है...हिचकी आती है क्या? कल चाँद बहुत खूबसूरत था और बादल से छन कर चाँद की किरणें दिख रही थीं...मैंने चाँद की किरनें कभी नहीं देखी थीं इस तरह...बीम होती हुयीं. सुन्दर था सब...एकरंग होते हुए भी. 
कुणाल और साकिब के साथ रात को वाक पे निकले...मोहल्ले में इधर उधर घूमे...आइसक्रीम कैंडी खाए...रात को बहुत सेंटी हो गए थे...होपलेस केस हैं...हमको कुछ भी नहीं आता है...गुड फॉर नथिंग...लिखने का भी टैलेंट दिया ही था तो या तो खूब सारा देता या आम इंसानों टाइप आम ही रहने देता...ये न इधर के हैं न उधर के हैं. ना कुछ बड़ा तोडू टाइप लिखेंगे कि शान से किसी को दिखा सकें कि देखो बेट्टा किताब है मेरा...न चैन से बैठ के कोई खूब सारा पैसा मिलने वाला नौकरी करेंगे कि अपने पैसे पर ऐश कर सकें. 

दिमाग खराब करेंगे अपना और कुणाल का कि रे हम क्या करें हमको इतनी बेचैनी काहे है...सबको तो नहीं होती सब अपनी जिंदगी में खुश रहते हैं...हमको तो साला कोश्चन ही पता नहीं है तो आंसर कहां से ढूँढेंगे. मालूम ही नहीं है कि क्या चाहिए...बस इतना पता है कि कुछ तो है जिसके पीछे भागते जा रहे हैं...कोई तलाश है...और ये कि बेचैनी है बहुत. दर्द है बहुत. कहीं ठहरना नहीं होता है. 

सुबह उठी हूँ...देखती हूँ घुटने पर एक काला निशान है...कल किसी चीज़ से फिर टकराई होउंगी घर में...ऊँगली अलग दर्द दे रही है...बिना फर्स्ट फिंगर के इस्तेमाल के टाइपिंग भी आफत है...पर ऐसे ही जेनरली जाने क्या क्या लिखने का मन करते रहता है...इतना सारा अलाय बलाय लिखे बिना वो बाहर भी तो नहीं आता जो अंदर कहीं हिलोरें मार रहा है. पता नहीं क्या लोचा है यार...लाइफ में बहुत कन्फ्यूजन है...बहुत परेशानी है और कमबख्त जिंदगी है भी तो इतनी छोटी सी...कितनी और होगी...बहुत हुआ तो दस साल...चालीस वगैरह से ऊपर जीने का कोई खास अरमान नहीं है. जिंदगी इतनी तेज़ी से भाग रही है कि क्या कहें...परेशान हो जाती हूँ हर वीकेंड कि कमबख्त एक और हफ्ता गुज़र गया. 

आज ऐसे ही कैमरा लेकर कुछ कुछ फोटो खींचने के लिए जाने का मन है...परती जमीन सा लगता है सब कुछ...मीलों मीलों खाली...एक बबूल का पेड़ तक नहीं. जाने इस तलाश को कब सुकून मिलेगा. कुणाल कहता है कि मैं लोगों के प्रति बहुत क्रिटिकल होती हूँ इसलिए मेरे दोस्त नहीं बनते...मुझे वाकई बहुत कम लोग पसंद आते हैं...बहुत ही कम...पर जो पसंद आते हैं उनपर जान छिडकती हूँ...बहुत कम लोग मुझे पसंद करते हैं...vice-versa टाइप की चीज़ है. जिंदगी में कम लोग हों...पर अच्छे हों...मैं किसी ऐसे के साथ टाइम वेस्ट नहीं कर सकती जो मुझे पसंद न हो...मुझे समझ आता है कि मेरी जिंदगी बहुत छोटी है...बहुत छोटी तो मैं अकेली ही रह लूंगी लेकिन किसी ऐसे शख्स को बर्दाश्त नहीं करूंगी जिसे मुझे झेलना पड़े...हद होपलेस केस हूँ. 

कल अनुपम से बात कर रही थी कि यार बहुत ज्यादा डिप्रेसिंग फेज चल रहा है कमबख्त इतनी जल्दी जल्दी उदास होती हूँ कि कुछ काम ही नहीं आ रहा...लगता है पागल हो जाउंगी...कितनी शाम लगता है जान दे दूं...कहीं छत से जाके कूद जाऊं...पर उम्मीद करती हूँ कि फेज है...गुजरेगा...बस इस बार बहुत लंबा चल रहा है...मुझे इतने दिन तक उदास रहने की आदत नहीं है. दिन के सारे पहर रटती हूँ कि गुजरेगा...गहरी सांसें लो लड़की...इट विल बी आलराईट...जस्ट...सांस लेती रहो...जिंदगी ऐसी ही है...क्या करोगी...जस्ट...कीप ब्रीदिंग...ओके?

07 April, 2012

तुम ठीक कहते थे...डायरियां जला देनीं चाहिए


मेरे साथ ऐसा बहुत कम बार होता है कि मेरा कुछ लिखने को दिल हो आये और मैं कुछ लिख नहीं पाऊं...कि ठीक ठीक शब्द नहीं मिल रहे लिखने को...कुछ लिखना है जो लिखा नहीं पा रहा है. जाने क्या कुछ लिख रही हूँ...कॉपी पर अनगिन पन्ने रंग चुकी हूँ...दिन भर ख्यालों में भी क्या क्या अटका रहता है...पर वो कोई एक ख्याल है कि पकड़ नहीं आ रहा है...फिसल जा रहा है हाथ से. 

जैसे कोई कहानी याद आके गुम गयी हो...जैसे किरदार मिलते मिलते बिछड़ जायें या कि जैसे प्यार हुआ हो पहली बार और कुछ समझ ना आये कि अब क्या होने वाला है मेरे साथ...मुझे याद आता है जब पहली बार एक लड़के ने प्रपोज किया था...एकदम औचक...बिना किसी वार्निंग के...बिना किसी भूमिका के...सिर्फ तीन ही शब्द कहे थे उसने...आई लव यू...न एक शब्द आगे...न एक शब्द पीछे...चक्कर आ गए थे. किचन में गयी थी और एक ग्लास पानी भरा था...पानी गले से नीचे ही नहीं उतर पा रहा था...जैसे भांग खा के वक़्त स्लो मोशन में गुज़र रहा हो. 

कुछ अटका है हलक में...और एकदम बेवजह सिगरेट की तलब लगती है...जिस्म पूरा ऐंठ जाता है...लगता है अब टूट जाएगा पुर्जा पुर्जा...लगता है कोई खोल दे...सारी गिरहें...सारी तहें. एक किताब हो जिसमें मेरे हर सवाल का जवाब मिल जाए...कोई कह दे कि अब मुझे ताजिंदगी किसी और से प्यार नहीं होगा...या फिर ऐसी तकलीफ नहीं होगी.

मैं बहुत कम लोगों को आप कहती हूँ...मुझे पचता ही नहीं...आप...जी...तहजीब...सलीका...नहीं कह पाती...फिर उनके नाम के आगे जी नहीं लगाती...जितना नाम है उसे भी छोटा कर देती हूँ...इनिशियल्स बस...हाँ...अब ठीक है. अब लगता है कि कोई ऐसा है जिससे बात करने के पहले मुझे कोई और नहीं बनना पड़ेगा...बहुत सी तसवीरें देखती हूँ...ह्म्म्म...मुस्कराहट तो बड़ी प्यारी है...बस जेठ के बादलों की तरह दिखती बड़ी कम है. वो मुझे बड़े अच्छे लगते हैं...कहती हूँ उनसे...आप बड़े अच्छे हो...सोचती हूँ कितना हँसता होगा कोई मेरी बेवकूफी पर...इतना खुलना कोई अच्छी बात है क्या...पर कुछ और होने में बहुत मेहनत है...अगर सच कहो और अपनी फीलिंग्स को न छुपाओ तो चीज़ें काफी आसान होती हैं...छुपाने में जितनी एनेर्जी बर्बाद होती है उसका कहीं और इस्तेमाल किया जा सकता है. 

दोस्त...तेरी बड़ी याद आ रही थी...कहाँ था तू...वो मेरी आवाज़ में किसी और को मिस करना पकड़ लेता है...पूछता है...फिर से याद आ रही है...मैं चुप रह जाती हूँ. उसे बहकाती हूँ...वो मुझे कुछ जोक्स सुनाता है...शायरी...ग़ालिब...फैज़...बहुत देर मेरी खिंचाई करता है...अपनी बातें करता है...पूछता है...तुझे मुझसे प्यार क्यूँ नहीं होता...तुझे मुझसे कभी प्यार होगा भी कि नहीं. मैं बस हंसती हूँ और मन में दुआ मांगती हूँ कि भगवान् न करे कि कभी मुझे तुझसे प्यार हो...उनकी बहुत बुरी हालत होती है जिनसे मुझे प्यार होता है...तू जानता है न...अपने जैसी सिंगल पीस हूँ...मुझे भुलाने के लिए किसी से भी प्यार करेगा तो भी भूल नहीं पायेगा...प्यार में कभी निर्वात नहीं हो सकता...किसी की जगह किसी और को आना होता है. 

वो कहती है...तू ऐसी ही रहा कर...प्यार में रहती है तो खुश रहती है...वो कोशिश करती है कि ऐसी कोई बात न कहे कि मुझे तकलीफ हो...मुझसे बहुत प्यार करती है वो, मेरी बहुत फ़िक्र करती है. मुझे यकीन नहीं होता कि वो मेरी जिंदगी में सच मुच में है. मुझे वैसे कोई प्यार नहीं करता...लड़कियां तो बिलकुल नहीं...मैं उससे कहती हूँ...मैं ऐसी क्यूँ हूँ...इसमें मेरी क्या गलती है...मैं तेरे जैसी अच्छी क्यों नहीं.

मेरा मन बंधता क्यूँ नहीं...क्या आध्यात्म ऐसी किसी खोज के अंत में आता है? पर मन नहीं मानता कि हिमालय की किसी कन्दरा में जा के सवालों के जवाब खोजूं...मन कहता है उसे देख लूं जिसे देखने को नींद उड़ी है...उससे छू लूं जिसकी याद में तेल की कड़ाही में ऊँगली डुबो दिया करती हूँ...उसे फोन कर लूं जिसकी आवाज़ में अपना नाम सुने बिना शाम गुज़रती नहीं...उसे कह दूं कि प्यार करती हूँ तुमसे...जिससे प्यार हो गया है. सिगरेट सुलगा लूं और पार्क की उस कोने वाली सीमेंट की सीढ़ियों पर बैठूं...एक डाल का टुकड़ा उठाऊँ और तुम्हारा नाम लिखूं...जो बस तब तक आँखों में दिखे जब तक लकड़ी में मूवमेंट है...
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मेरे सच और झूठ की दुनिया की सरहदें मिटने लगी हैं...मैं वो होने लगी हूँ जिसकी मैं कहानियां लिखती हूँ...मैं धीरे धीरे वो किरदार होने लगी हूँ जो मेरी फिल्म स्क्रिप्ट्स में कोमा में पड़ी है...न जीती है न मरती है. अनुपम ने मेरी हथेली देख कर कहा था कि मैं ८० साल तक जियूंगी...मैं जानती हूँ कि उसने झूठ कहा होगा...पक्का मैं जल्दी मरने वाली हूँ और उसने ऐसा इसलिए कहा था कि वो जानता है मैं उसकी बातों पर आँख मूँद के विश्वास करती हूँ...कि यमराज भी सामने आ जायें तो कहूँगी अनुपम ने कहा है कि मैं ८० के पहले नहीं मरने वाली. 

मुझमें मेरा 'मैं' कहाँ है...कौन है वो जो मुझसे प्यार में जान दे देने को उकसाता है...मेरे अन्दर जो लड़की रहती है उसे दुनिया दिखती क्यूँ नहीं...मैं बस इन शब्दों में हूँ...आवाज़ के चंद कतरों में हूँ...तुम कैसे जानते हो मैं कौन हूँ...वो क्या है जो सिर्फ मेरा है...तुमने मुझे छू के देखा है? तुम मुझे मेरी खुशबू से पहचान सकते हो? तुम्हें लगता है तुम मुझे जानते हो क्यूंकि तुम मुझे पढ़ते हो...मैं कहती हूँ कि तुमसे बड़ा बेवक़ूफ़ और कोई नहीं...लिखे हुए का ऐतबार किया? जो ये लिखती है मैं वो नहीं...मैं जो जीती हूँ वो मैं लिखती नहीं...आखिर कौन हूँ मैं...और कहाँ हो तुम...आ के मुझे अपनी बाँहों में भरते क्यूँ नहीं?

29 November, 2011

खाली दिमाग का घंटाघर!

यूँ ही राह चलते क्या तलाशते रहते हो जब किसी से यूँ ही नज़रें मिल जाती हैं...किसी को तो ढूंढते हो. वो क्या है जो आँखों के सामने रह रह के चमक उठता है. आखिर क्यूँ भीड़ में अनगिन लोगों के होते हुए, किसी एक पर नज़र ठहरती है. वो एक सेकंड के हजारवें हिस्से में किसी की आँखों में क्या नज़र आता है...पहचान, है न? एक बहुत पुरानी पहचान. किसी को देख कर न लगे कि पहली बार देखा हो. जैसे कि इस खाली सड़क पर, खूबसूरत मौसम में अकेले चलते हुए तुम्हें उसे एक पल को देखना था...इतना भर ही रिश्ता था और इतने भर में ही पूरा हो गया.

रिश्तों की मियाद कितनी होती है? कितना वक़्त होता है किसी की जिंदगी में पहली प्राथमिकता होने का...आप कभी भी ताउम्र किसी की प्राथमिकता नहीं बन सकते, और चीज़ें आएँगी, और लोग आयेंगे, और शहर मिलेंगे, बिसरेंगे, छूटेंगे...कितना बाँधोगे मुट्ठी में ये अहसास कि तुम्हारे इर्द गिर्द किसी की जिंदगी घूमती है.

कुछ लोग आपके होते हैं...क्या होते हैं मालूम नहीं. वो भी आपसे पूछेंगे कि उनका आपसे रिश्ता क्या है तो आप कभी बता नहीं पायेंगे, किसी एक रिश्ते में बाँध नहीं पाएंगे. प्यार कभी कभी ऐसा अमूर्त होता है कि पानी की तरह जिस बर्तन में डाल दो उसका आकार ले लेता है. उनकी जरूरत के हिसाब से आपका उनसे रिश्ता बदलते रहता है. प्योर लव या विशुद्ध प्यार जैसा कुछ होता है ये. इसमें दुनियादारी की मिलावट नहीं होती. ऐसा कोई न कोई तो होता है...जो एक्जैक्टली आपका क्या लगता है आप खुद भी नहीं जान पाते. जानते हैं तो बस इतना कि आप उसे खुश देखना चाहते हैं. बस. इंग्लिश में एक ऐसा वाक्य आता है दिमाग में ऐसे लोगों के बारे में...हिंदी में मैं परिभाषित या अनुवाद नहीं कर पाती...यु बिलोंग टु मी(You Belong To Me) खास खास इस वाक्य को समझा भी नहीं पाउंगी, पर ऐसा ही कुछ होता है.

वैसे लोग होते हैं न...जैसे आपसे कोई दस साल छोटी बहन या भाई, आप उसे अपनी जिंदगी की सबसे मुश्किल चीज़ें भी बताते रहते हो...ये जानते हुए कि उसे नहीं समझ आ रहा. पर वो बहुत समझदारी से आपकी हर समस्या को सुनेगी...सुनती रहेगी. पर कभी किसी एक दिन उसकी छोटी सी दुनिया की छोटी सी समझ से एक ऐसा वाक्य निकलेगा कि आपकी समस्या एकदम कपूर की तरह उड़ जायेगी. आप चकित रह जायेंगे कि ये इसने खुद बोला है या इसके माध्यम से किस्मत आपको कोई रास्ता दिखा रही है.

मुझे लगता है प्यार की सबसे पहली डेफिनेशन होती है कि आपके लिए किसी की ख़ुशी जरूरी हो जाए. इसके आगे आप कुछ सोचते ही नहीं, न अच्छा न बुरा, दुनिया एकदम लीनियर हो जाती है. सब कुछ सीधी लाइन में चलता है. Cause and Effect नहीं रहता, बस एक चीज़ होती है, उसके चेहरे पर हंसी...मुस्कराहट. इसके लिए आप कुछ भी करने को तैयार रहते हो...जिस भगवान से गुस्सा हुए बैठे हो, उससे भी हाथ जोड़ कर उसकी ख़ुशी मांग लेते हो. सड़े हुए जोक्स मरते हो, जहरीले पीजे सुनते हो...सब करते हो, बस उसे एक बार हँसते हुए सुनने के लिए.

मैंने बहुत कम पढ़ा और लिखा है...पर जितनी जिंदगी जी है उससे एक चीज़ ही दिखती है मुझे, प्यार. आज भी इसके लिए सब वाजिब है...सब सही है...सब जस्टिफाइड है...मुझे जाने क्यूँ कभी प्यार पर लिखने से मन नहीं भरता. कुछ लोग...नहीं मालूम मेरे क्या हैं, बस मेरे हैं...इस बात पर यकीन है.

डेस्टिनी/किस्मत कुछ तो होती है वरना कुछ लोगों से आप जिंदगी भर नहीं मिल पाते और आप जानते तक नहीं कि क्या खाली है...तो सवाल घूम कर वहीं आ जाता है...भरी भीड़ वाले कमरे/रेलवे स्टेशन/तेज चलती गाड़ी/ट्रेन/एयरपोर्ट...आपको किसी की आँखों में एक लम्हे कौन सी पहचान नज़र आ जाती है कि आपको कहीं और देखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है.

ये कौन से रिश्ते हैं जो समझ नहीं आते...ये कैसे रिश्ते हैं जो एक लम्हे में पूरी जिंदगी जी लेते हैं...या फिर ये वो लोग हैं जो आपके अगले जन्म में आपसे मिलेंगे...अभी तो बस मार्क किया है आपको.

जब दिमाग में कोई ख्याल नहीं चल रहा होता...क्या चलता है? जब आप किसी को नहीं ढूंढ रहे होते, क्या ढूंढते हो? जब आपको कोई काम नहीं है तो मेरा ब्लॉग क्यूँ पढ़ते हो ( ;) बस देख रही थी कि कोई पढ़ भी रहा है कि नहीं, बहुत ज्ञान दे रही हूँ ऊपर :) )
बर्न की पार्लियामेंट बिल्डिंग से
अगर कोई आगे चलता हुआ जा रहा है तो ऐसे सवाल क्यूँ आते हैं कि वो पलटे तो हम देख सके कि उसकी आँखों का रंग कैसा है. मैं सदियों सदियों जाने किसकी आँखें स्केच कर रही हूँ जो पूरी ही नहीं होती. ऐसा कोई भी तो नज़र नहीं आता जिसकी आँखें वैसी हैं जो मुझे पेंट करनी हैं...मैं किसे तलाश कर रही हूँ. आइना देखती हूँ तो कई बार लगता है...खुद की तलाश शायद इसी को कहते हैं. किताबें कहती हैं, सब कुछ तुम्हारे अन्दर है...सोचती हूँ, सोचती हूँ...अपने अन्दर उतर नहीं पाती...जाने कहाँ सीढ़ी है. ध्यान करने बैठती हूँ तो चाहने लगती हूँ कि तुम खुश रहो...सबके मुस्कुराते चेहरे सामने आने लगते हैं.

दिन भर सोच सोच के परेशान हो जाती हूँ...दिकिया के लिखने बैठ जाती हूँ...आजकल जाने क्या हो गया है...दिन भर लिखती ही रहती हूँ, लिखती ही रहती हूँ. क्या है जो ख़त्म नहीं होता? क्या लिखना है ऐसा...ऐसा क्या कहना है जो कहा नहीं गया है. चुप जो जाओ री लड़की!!

Q: What's cooking?
A:  Disaster
Q: Where did you get the recipe?
A: It's a girl called Puja...She is THE recipe for disaster!!!

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