22 March, 2025

एक घूँट चाय


साल 2025 मेरी ज़िंदगी में थोड़ा जल्दी आ गया। Hongkong में थी और वहाँ इंडिया से डेढ़ घंटा पहले है समय। वो डेढ़ घंटा कवर करने के लिए यह साल बहुत तेज रफ़्तार भाग रहा है। कुछ दिन पहले देखा कि तीन महीने बीत गए और मैंने कोई भी पोस्ट नहीं लिखी। जब कि इतना कुछ चल रहा है जीवन में। आज बस यूँ ही लिख रहे हैं...लहरें जो मन में उठ रहीं, यहाँ बिखर जायें...  

मुराकामी का नावेलनॉर्वेजियन वुडमुझे बहुत पसंद है। खास तौर से, जहाँ वह शुरू होता है। प्लेन लैंड करते समय लड़का सोचता है कि उस लड़की के गुज़रे हुए लगभग एक साल हो गया है और अब उसे उसका चेहरा पूरा याद करने में एक मिनट लगता है। इतना भूल जाना काफ़ी है कि उसके बारे में अब लिखा जा सके। जब उसके गुज़रे हुए ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था तो वह उसके बारे में नहीं लिख सकता था क्यूंकि यह बहुत दुखता था। 

हम में से सारे लोग अपने दुख के बारे में नहीं लिख सकते। लेकिन किसी और के लिखे में अपने दुख का हिस्सा देख कर थोड़ी राहत ज़रूर पा लेते हैं। किताब पढ़ना तन्हाई और मिलने के बीच की जगह है। हमारे हाथ में फिजिकली एक किताब होती है, हम छू रहे होते हैं किसी का लिखा हुआ और मन से हम विषय पर लिखी हुई जगह और अपने जिए हुए जगह के बीच के एक क्रॉसफेड में होते हैं। गाँव और कीचड़ भरी पगडंडी हर किसी के मन में अलग खुलती है। जंगल भी। मृत्यु और उससे उपजा दुख भी। 


मुझे अपनी किताबों से बहुत प्यार है। मेरे जीवन में प्यारे ऐसे लोग हमेशा बने रहे जिन्हें किताबों से बहुत-बहुत प्यार रहा। प्रमोद सिंह की एक किताब है, अजाने मेलों मेंउसकी पहली कहानी एक व्यक्ति के बारे में है जो पूरी दुनिया में भटक कर एक ऐसी किताबों की आलमारी ढूँढ रहा है जो सबसे अच्छी होदेश-विदेश घूमने के बाद और कई अद्भुत लोगों से मिलने के बाद भी उसे उनकी अलमारियों में कोई ख़ास बात नहीं दिखी। लेकिन एक छोटे से गाँव में, एक छोटे से परिवार के पास एक अद्भुत किताबों की आलमारी थीवैसी ही जिसे देख कर उसकी आँखें फटी रह जाएँवैसी ही जैसा वह कई दिनों से तलाश रहा था। मुझे धुंधली सी यह कहानी एक बार पढ़ने के बाद हमेशा याद रही। जैसे प्रमोद जी के पॉडकास्ट रहे, ज़िंदगी की खामोशी में घुले हुए हमेशा। मैं बैंगलोर 2008 में आई थीघर परिवार दोस्तों को छोड़ कर। एक छोटे से दो कमरे के घर को घर बना रही थी। किचन में अक्सर कुछ गुनगुनाती खाना बनाती रहती थी। लूप में वे पॉडकास्ट चलते रहते थे, जिनमें बहुत सी बतकही थीकुछ बेहद सुंदर फिल्मी और ग़ैर-फिल्मी धुनों के साथ रचे बसेकोई भरे हुए घर में माचिस खोज रहा है और लड़के को सिगरेट और माचिस लाने भेज रहा हैकोई दीदी की गुलाबी चप्पल के बारे में कहता है कि कैसी बेढ़ब थी वो चप्पल, लेकिन तुम्हारे पैर में कितनी सुंदर लगती थीतो कहीं जरा सा जापान को जान लेने की बात है और पीछे में ला वियों रोज़ गा रही हबारी मिसोरा की आवाज़ हैउन दिनों Shazam तो था नहीं, तो कोई धुन पसंद आई तो महीनों बौराए उसे खोजते रहते थे। पिछले साल भोपाल में प्रमोद जी से मिले तो उन्हें बताया कि उनके पॉडकास्ट एक अकेली लड़की के लिए, जो शादी के बाद नया घर बसा रही थीपरिवार और दोस्तों को छोड़ कर एक अनजान और अजनबी भाषा के शहर में आई थीवे पॉडकास्ट मेरा मायका थे। मेरे गाँव का घर। दीदी, बड़ी माँ, दादावे सारे लोग जो मुझसे छूट गए थे मुझे वे उन रिकॉर्डिंग में मिलते थे। कि हम कभी अकेले नहीं पड़े, कभी भी नहीं। 


मैंने अक्सर देखा है कि जो लोग मुझे ब्लॉग पढ़ कर जानते हैं उनके सामने सहज होना आसान होता है। इसलिए कि वे मेरे भीतर की बेतरतीबी को जानते हैं। जिन्हें मैं ब्लॉग पढ़ कर जानती हूँ, उनसे कभी भी मिली हूँ ऐसा जगा है कि उन्हें हमेशा से जानती थी। ब्लॉग पर लिखा एकदम मन का होता था। उस समय सोशल मीडिया के फिल्टर अस्तिव में ही नहीं आए थे। हम एकदम ही सच्ची डायरी लिखते थे कई बार यह सोचते हुए कि कौन ही पढ़ेगा और क्या ही फ़र्क़ पड़ेगाइनमें से कौन ही बहस करेगा। 


एक हैं हमारीप्रत्यक्षा…2005-08…याद नहीं कब इनका ब्लॉग पहली बार पढ़े, लेकिन उन दिनों जब सब लोग खूब खूब लिखते थे, हम खूब खूब पढ़ते थे। सोचते थे कैसा टटका स्वाद लगता है पढ़ने में। ऐसे मीठे-धूप सेकते लोग। ऐसा रंग-भीगा आसमान। प्रत्यक्षा इसलिए भी अच्छी लगती थीं कि वे संगीत के बारे में लिखती थीं, शास्त्रीय संगीत के बारे मेंअपनी माँ के गाने के बारे में और कभी कभी अपने गाने के बारे में भीपहर दोपहर ठुमरी में एक कहानी है, सजनवा तुम क्या जानो प्रीतहम अब भी कभी उस कहानी को पढ़ लेते हैं, लगता है उँगली के पोर में बाँस का एक महीन तिनका घुस गया हैअभी भी निकला नहीं है, दुखता हैउनके पानी वाले रंग देखते हैं। संगीतरंगऔर शब्दसबमें उनकी कहानी उतनी ही सुंदर है। एक बार उन्होंने पेरिस में The Shakespeare and Company के सामने की एक तस्वीर डाली थीबस ऐसे हीहम पेरिस गए तो लगभग दस किलोमीटर का चलना हो गया, लेकिन किताबों की उस पुरानी दुकान के आगे कुर्सी पर बैठ कर ख़ुशी हुईअपने प्यारे किसी के जिए हुए में किसी दूसरे समय में ठहर गए


फेसबुक पर देखते हैं कभी कभी धूप में भीगा उनका कमरा। सोचते हैं। ऐसे सुंदर लोग होते हैं। इसी दुनिया में। इतने सुंदर लोग। 


मेले में मिलते हैं तो बहुत हुलस कर बात करने का मन होता है। वे कहीं और जा रही थीं, दो और दोस्तों के साथहम बेख़याली में चलते रहे साथसामने चाय वाले स्टाल्स थेउनके दोस्त ने उनके हाथ में चाय का कुल्हड़ दे दियाहम टाटा कहने को आए, कि ठीक है, हम फिर मिलते हैंवे कहती हैं, ‘अरे, चाय का एक घूँट तो ले लो!’ हम अचरज में देखते हैं। वे बड़ी हैं हमसे उम्र में, अनुभव में, stature मेंहर तरह सेहम उनकी चाय कैसे जुठा देंलेकिन हम इस प्यार को जानते हैं, हाँ ये प्यार हमारे हिस्से आया बहुत कम। उस समय वे बस हमारे घर-परिवार की बड़ी दीदी हो गईंये मेरे लिए इतनी बड़ी बात थी कि ताउम्र याद रहेगीहमेशा हमेशाकि जैसे शायद हम रहे अपने से छोटों के लिए, कोई हमारे लिए भी हो सकता हैचाय का एक छोटा सा घूँटमन प्राण में ख़ुशी का बिरवा रोपता हुआइस दुनिया के सुंदर होने और बने रहने की उम्मीद का बिरवा। 


आज सुबह उठे तो मन खाली था। सोचा कुछ पढ़ लेते हैं। 


किताबों से भरे हुए घर में होना एक कमाल की चीज़ है। आपने सामने कई दुनियाएँ खुली हुई होती हैं। वे लोग जो पूछते हैं कि इतनी किताबें क्यों ख़रीदती हो। क्या तुमने सारी किताबें पढ़ ली हैं जो तुम्हारे घर में हैं? तो बात इतनी ही है कि हम समग्र में कुछ नहीं पढ़ पाते हैं। पूरा पढ़ लेने से ही कौन सा किताब जाती है समझ में पूरी पूरी। निर्मल कीवे दिनकितने बार पढ़ चुकी हूँ, अब भी हर बार ख़ुद से पूछती हूँ कि जब वो पूछती है, ‘तुम विश्वास करते होतो किस चीज़ पर विश्वास करने की बात कह रही है। मुझे नहीं आता समझ मेंमैं बस भटकती हूँ उन किरदारों के साथदूसरे शहरों में, दूसरे लोगों से मिलते हुए। 


पिछले कुछ सालों में हमारी ज़िंदगी बहुत विजुअल हो गई है। फ़ोन हमें कई दृश्य दिखाता है, कमोबेश ठीक-ठीक रंगों में। वीडियो भी। बिना देखे भी हमने बहुत कुछ देखा है। कई सारे रंग हमारी ज़िंदगी में घुले हैं। पहले ऐसा नहीं था, हमने सिर्फ़ पढ़ा था और पढ़ कर ही सोचते थे कि समंदर का फ़िरोज़ी रंग कैसा होता होगा। फ़िरोज़ी स्याही से लिखते थे और आँख बंद कर सोचते थे कोई ब्लैक शर्ट में कैसा दिखेगा। अब आप जो भी इमैजिन करते हैं, ऐसे AI ऐप्स गए हैं कि आपके सोचने के हिसाब से तस्वीर बना कर दिखा देंगे। अब सच में इमैजिन करना ही दुर्लभ होता जाएगा। सब कुछ दिख ही रहा है सामने तो आँख बंद कर के कुछ देखने की क्या ज़रूरत है।


दुख की दुनिया भीतर है। छोटी सी किताब है। आज यही किताब उठायी। दृश्य खुलता जाता है। इसका गाँव, कीचड़ वाला रास्ता, घर तक पहुँचने की यात्रासब खुलता है आँख के आगे। कुछ पन्ने पढ़ के रख दी किताब। अभी यह पढ़ने का मन नहीं है। इसे पढ़ते हुए घर तक पहुँचने की वे यात्राएँ याद आयीं जहाँ अंतिम दर्शन के लिए परिवार के लोग सफ़र कर रहे हैं। मैं ऐसे दो बार गई हूँ। एक बार दादी के गुज़र जाने पर, और एक बार अपने बड़े मामाजी के गुज़र जाने पर। इस विषय पर पढ़ना मुश्किल हैआप एक ख़ास मनःस्थिति में इसे पढ़ सकते हैं। किताब पढ़ने का बहुत मन है, कई बार उलटाती पलटाती हूँ। बीच के कुछ वाक्य पढ़ती हूँ। बेहद सुंदर, सुगढ़ गद्य। जिससे प्यास मिट सकती हो लेकिन मन दुखता है। रख देती हूँ फिर से, कि आज नहीं। 


इसे पढ़ते हुए उस अच्छे एडिटर के बारे में सोचा, जिसका ज़िक्र किताब के आख़िरी पन्ने में आता है। अनुराग। जो कई सालों से दोस्त है। एक अच्छा संपादक रचना से कई बार गुज़रता है, एक पाठक की तरह और एक एडिटर की तरह भी। उसका काम यह देखना है कि किताब में कोई नुक्स रह जाये, कोई टाइपो की कील निकली हो, जो पढ़ते हुए माथे में ठुक जाये। किताब की सरसता अपनी जगह है, टेक्स्ट का अप्रतिम परफेक्शन अपनी जगह। मन हिलग जाता है। सोचती हूँ, दुख की इस भीतरी दुनिया को साथ में रचते/ठीक-करते/सँवारते हुए, उसे कितना कुछ दुखा होगा। किताब में font, काग़ज़, बाइंडिंग, छपाई के लिए प्रेस का चुनावसब कुछ से अक्सर, अकेले जूझते हुए। कितना मुश्किल होगा यहकई साल लगातार सुंदर किताबें रचने के ख्याल से भरे रहना। 


मैंने उसे बहुत साल पहले देखा था। स्काइप की खिड़की में। किताबों और शब्दों से उलझता हुआ लड़का। उसके अनुवाद की हुई कविताएँ पढ़ते हुए मेरी अपनी हो गईं। हिंदी में कविताओं को पढ़ने में अलग मिठास आती है। इतने साल में अब भी वैसा ही है। एक एक शब्द किसी जौहरी की तरह बारीकी से नाप-चुन कर रखता हुआ। उसके लिए शब्द सोने से ज़्यादा क़ीमती हैं। उसके हाथ से गुज़र कर कोई किताब आती है तो ये भी सोचती हूँ कि उसने इसे कैसे पढ़ा होगा। 


2008 से बैंगलोर में हूँ। यहाँ का स्टार्ट-अप कल्चर है। सबने कभी कभी अपना कुछ करने का सोचा ही होगा। स्टार्ट-अप करने वाले एक सपना जी रहे होते हैं। मैंने अपने घर में यह देखा है। कुणाल को कई साल लगातार। ख़ुद भी कब से सोच रहे हैं कि एक स्टार्ट-अप खोलेंगे, लेकिन ऐसा सोचना और सच में एक कंपनी खोलने में बहुत अंतर होता है। एक ज़िद होती है, दुनिया को बेहतर करने कीऔर ये काबिलियत कि अपना सपना सबकी आँखों में रोप सकें। इन दिनों कुणाल दो कमाल के आइडियाज़ पर काम कर रहा है। मैंने पिछली बार उसके स्टार्ट-अप का कम्यूनिकेशन पूरा हैंडल किया था। एक बहुत अच्छी कहानी को उतने ही अच्छे ढंग से सुनाना होता है। मैं उस कंपनी में इम्प्लॉयड नहीं थी, उसकी फाउंडर थी। टेक बनाने और डिप्लॉय करने वो कहानी मेरी भी कहानी थी। अब फिर से वैसी कहानियाँ बन रही हैं। 


मेरे भीतर अब कहानियाँ नहीं उगतीं, लेकिन कभी कभी पुरानी कहानियाँ सुनाने का मन करता है। मेरी ख़ुद की। धूप, समंदर, आसमान की कहानी। उन लड़कियों की जिन्हें प्यार होता था। जो चाय के एक घूँट पर मन में समंदर लिए चलती थीं। मुझे लगता है जैसे मेरे जैसे लोगों की दुनिया में कहीं जगह नहीं हैं। टू सेंसिटिव। ज़्यादा ही दुखता है, ज़्यादा ही ख़ुश हो लेते हैं। ज़्यादा मुहब्बत हो जाती है। ज़्यादा जलन होती है। कम में जीना आया ही नहीं। मेरे जैसी लड़कियों की कहीं जगह नहीं है दुनिया में, इसलिए कहानियों में अपने हिस्से की ज़मीन चाहते हैं हम। थोड़ी सी। 


लिखना भी आदत है। शायद तैरने या साइकिल चलाने की तरह। बहुत साल छोड़ दें तो थोड़ा स्लो हो जाता है। लेकिन बस डेस्क पर बैठ भी जायें तो काफ़ी कुछ लिखा जाता है। इसे पहले की तरह ही ब्लॉग पर पोस्ट कर रहे हैं। कि आज के लिए मन में इतना ही कुछ है। 


2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 23 मार्च 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  2. लहरों को यूं ही उठाने देते रहना चाहिए।
    सारगर्भित आलेख

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