Showing posts with label loving strangers. Show all posts
Showing posts with label loving strangers. Show all posts

14 August, 2019

सपना। बर्फ़। तुम।

सुबह उठी थी तो भोर का टटका सपना था। बहुत साल पहले पूजा के लिए फूल तोड़ने जाती थी, दशहरा के समय तो फूल ऐसे लगते थे। रात की ओस में भीगे हुए। थोड़ी नींद में कुनमनाए तो कभी एकदम ताज़गी लिए मासूम आँखों से टुकुर टुकुर ताकते। सफ़ेद पाँच पत्तों वाले फूल। कई बार चम्पा। कभी कभी गंधराज भी। मुझे सफ़ेद पत्तों वाले फूल बहुत पसंद रहे। ख़ास तौर से अगर ख़ुशबू तो तो और भी ज़्यादा। आक, धतूरा... रजनीगंधा, हरसिंगार...

सपने में तुम्हारा शहर था। मैं पापा और कुछ परिवार के लोगों के साथ अचानक ही घूमने निकल गयी थी। तुम्हारा शहर मेरे सपने में थोड़ा क़रीब था, वहाँ बिना प्लान के जा सकते थे। तुम समंदर किनारे थे। तुमने चेहरे पर कोई तो फ़ेस पेंटिंग करा रखी थी...चमकीले नीले रंग की। या फिर कोई फ़ेस मास्क जैसा कुछ था। तुम्हारी बीवी भी थी साथ में। हम वहाँ तुमसे मिले या नहीं, वो याद नहीं है।

मेट्रो के दायीं तरफ़ एक बहुत बड़ा सा म्यूज़ीयम था। आर्ट म्यूज़ीयम। घर के सारे लोग जाने कहाँ गए, मैं अकेली वहाँ अंदर चली गयी। वहाँ अद्भुत पेंटिंग्स थीं। आकार में भी काफ़ी बड़ीं और बेहद ख़ूबसूरत थीम्ज़ पर। मैं म्यूज़ीयम के सबसे ऊपर वाले फ़्लोर पर थी और फिर जाने कैसे छत पर। इसी बीच कोई बदमाश बच्चा छत पर के टाइल्ज़ उखाड़ने लगा एक एक कर के। छत पर भगदड़ सी मच गयी क्यूँकि बाक़ी टाइल्स उखड़ने लगी थीं और लोग फिसल कर गिर सकते थे। तभी पुलिस आती है और लोगों को स्थिर होने को कहती है। लोग डिसप्लिन में एक दूसरे के पीछे क़तार में लग जाते हैं। पुलिस उस बच्चे को पकड़ लेती है और नीचे उतार देती है। सब लोग भी अलग अलग तरफ़ से छत से उतर आते हैं। मैं नीचे उतरती हूँ तो ध्यान जाता है कि मैंने इस गेट से एंटर नहीं किया था और इतने बड़े म्यूज़ीयम में कितने गेट हैं मुझे मालूम नहीं, न ही ये मालूम है कि उनमें से मेरा गेट कौन सा है कि उसी गेट पर मैंने अपनी जैकेट और बूट्स जमा किए हैं। आसपास भीड़ बहुत है। तब तक तुम कहीं से आते हो, मैं बताती हूँ कि मेट्रो के पास वो गेट है जिससे मैं अंदर गयी थी। तुम मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ उस भीड़ में से लिए चलते हो। साथ में हमारे हाथ गर्म हैं, दस्ताने की ज़रूरत नहीं है। हम उस गेट से मेरे जूते और कोट लेते हैं। तुम कोट पहनने में मेरी मदद करते हो।

हम वहाँ से किसी इमारत की छत पर जाते हैं। हल्की ढलान वाली छत है। बर्फ़ पड़ी हुयी है लेकिन ठंड नहीं लग रही है। हम उस बहुत ऊँची इमारत की छत पर बैठे बैठे बहुत देर तक बातें करते हैं। मेरे पास एक दो मीठे टाको हैं जो मैंने एक कुकिंग शो में देखे थे। उनके अंदर फेरेरो रोचेर भरे हुए हैं। हम बहुत ख़ुश होकर वो खाते हैं। थक जाने पर हम दोनों ही उस छत पर पीठ के बल लेट जाते हैं, एक दूसरे के एकदम पास और आसमान देखते हैं। हमारे मुँह से भाप निकल रही होती है। हम फिर किसी चिमनी के पास थोड़ा टिक कर बैठते हैं। इस बार हम कुछ कह नहीं रहे हैं। हमने एक दूसरे को बाँहों में भरा हुआ है। हम अलविदा के लिए ख़ुद को तैय्यार कर रहे हैं। हम सपने में भी जानते हैं कि अब जाना है। तुम मुझे वहाँ से अपना घर दिखाते हो। बहुत ऊँचे फ़्लोर पर है, जहाँ लाइट जल रही है...कहते हो कि वहाँ से पूरा शहर दिखता है। मैं पूछती हूँ, ये छत और हम तुम भी... तुम कहते हो हाँ।

हम दोनों रुकना चाहते हैं एक दूसरे के पास, एक दूसरे के साथ... लेकिन सपने के किनारे धुँधलाने लगे हैं। हम थोड़ी और ज़ोर से पकड़ लेते हैं एक दूसरे का हाथ... आसपास सब कुछ फ़ेड हो रहा है। तुम भी धुँधला जाते हो और फिर सफ़ेद धुँध में घुल जाते हो। मेरी हथेली पर तुम्हारी गर्माहट मेरे धुँध में घुलते घुलते भी बाक़ी रहती है।

***
मैं जागती हूँ तो मेरी हथेली पर तुम्हारी गर्माहट और ज़ुबान पर चोक्लेट का हल्का मीठा स्वाद है। मैं पिछले काफ़ी दिनों से ख़ुद को कह और समझा रही हूँ कि मुझे तुम्हारी याद नहीं आती। कि न भी मिले तुमसे, तो कोई बात नहीं। लेकिन मेरे सपनों को इतनी समझ नहीं। तुमसे मिलना बेतरह ख़ुशी और बर्दाश्त से बाहर की उदासी लिए आता है। मैं जागती हूँ तो तुम्हें इतना मिस करने लगती हूँ कि दुखने लगता है सब कुछ। हूक उठती है और तुम्हें याद करने के सिवा और कोई ख़याल बाक़ी नहीं रहता।

जिनसे मन आत्मा का जुड़ाव रहता है, ऐसे लोग जीवन में बहुत कम मिलते हैं। ऐसा बार बार क्यूँ लगता है कि तुम किसी पार जन्म से आए हो? ऐसा मुझे सिर्फ़ बर्न जा के लगा था कि कोई ऐसी याद है जो इस जन्म के शरीर की नहीं, हर जन्म में एक, आत्मा की है।

मैं अब भी नहीं जानती कि तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो... क्या किसी सुबह तुम भी यूँ ही परेशान होते हो कि जिससे एक बार ही मिले हों, सिर्फ़, उसकी याद थोड़ी कम आनी चाहिए, नहीं?

***
Let's see each other again. Then, if you think we shouldn't be together, tell me so frankly... That day, six years ago, a rainbow appeared in my heart. It's still there, like a flame burning inside me. But what are your real feelings for me? Are they like a rainbow after the rain? Or did that rainbow fade away long ago?
-2046

17 April, 2019

मैं precious, और तुम, बेशक़ीमत

उसे क़रीब से जानना थोड़ा unsettling है। अस्थिर। जैसे अपनी धुरी पर घूमते घूमते अचानक से थोड़ा डिस्को करने का मन करने लगे। जैसे बाइक उठा के घर से बाहर निकलें तो सब्ज़ी ख़रीदने के लिए और उड़ते उड़ते चले जाएँ एयरपोर्ट और दो चार घंटे वहाँ कॉफ़ी पीते और सोचते रहें कि उसके शहर चले जाएँ टिकट कटा के या कि किसी शहर जाएँ और उसको वहाँ बुला लें।  इस सारे सोचने और क़िस्सों का शहर रचते हुए काग़ज़ पर लिखते जाएँ ख़त, उसको ही। कि जैसे मेरे लिखने से हम ज़रा से याद रहेंगे उसको, हमेशा के लिए। कि जैसे कई टकीला शॉट्स के बाद भी होश में रहें और वो हँस के कहे कि पानी नीट मत पीना, थोड़ी सी विस्की मिला लेना तो उस आवाज़ के ख़ुमार में बौरा जाएँ। कि उसकी हँसी सम्हाल के रखें। कि इसी हँसी की छनक होगी न जब उसके इश्क़ में दिल टूटेगा।

हम बहुत हद तक एक जैसे हैं। जैसे आज शाम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि मौसम इतना अच्छा था कि दोपहर में छत पर  कुर्सी निकाल कर बैठा और रेलिंग पर पैर टिका दिए और किताब ख़त्म की। इस तरह जगह की डिटेलिंग सिर्फ़ मैं करती हूँ। कि यहाँ घूम रही हूँ, ये कर रही हूँ, सामने फ़लाना पेड़ है, हवा चल रही है, विंड चाइम पगला रही है। इट्सेटरा इट्सेटरा। फिर ये भी लगता है कि सुनने वाले को ये डिटेल्ज़ बोरिंग तो नहीं लगते। कि मैं क्या ही कह रही हूँ फ़ालतू बातें। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर खिड़की के सामने नारियल का पेड़ है या आम का या डेकोरेटिव पाम का… लेकिन मुझे फ़र्क़ पड़ता है तो मैं कहती हूँ ऐसे। लेकिन पहली बार कोई ऐसा था, जिसने इतनी छोटी सी डिटेलिंग की ताकि मैं देख सकूँ ठीक उस रंग में जैसी उसकी दोपहर थी। बात सिर्फ़ इतनी भी होती तो ठीक था…बात ख़ास इसलिए है कि मैंने पूछा नहीं था। उसने ख़ुद से बताया। वो शहर में होता तो उड़ते उड़ते जाती बाइक पर, सिर्फ़ उसे ज़ोर से hug करने के लिए।

वो पूछता है, तुम्हें मैं समझ में आता हूँ। मैं सोचती हूँ, क्या कहूँ। थीसीस की है तुमपर। तुम्हारे हर शब्द को लिख के रखा है। तुम्हारी आँखों का रंग हर क़िस्से में झलकता है। तुम्हारे कहे बिना बात समझती हूँ। तुम्हारे आधे सेंटेन्सेज़ सही सही पूरे करती हूँ और तुम नाराज़ नहीं होते हो। तुम्हारी याद में अटकी फ़िल्मों के नाम मुझे सूझते हैं। लेकिन, यूँ तो कोई किसी को ताउम्र साथ रह के भी नहीं जान सकता और किसी को जानने के लिए एक मुलाक़ात ही काफ़ी होती है। एक बात बताऊँ वैसे, मुझे कभी नहीं मालूम था कि तुमने कॉलेज में कितनी लड़ाई वग़ैरह की थी...लेकिन तुम्हारे साथ चलते हुए एक एकदम ही स्ट्रेंज सी निश्चिन्तता होती थी। जैसे कि कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। ये सिर्फ़ एक दिन की छोटी सी बात से आयी थी। वो दिल्ली का अजीब सा मुहल्ला था...लड़के जैसे लड़कियाँ घूरने के लिए ही पैदा हुए थे। बहुत अजीब जगह, जहाँ डर लगे। तुमने बिना कुछ कहे, मेरा हाथ पकड़ा और साथ में चलने लगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में आश्वस्ति थी। कुछ चीज़ें जो हम शब्दों के बग़ैर कहते हैं। स्पर्श की भाषा में। उस दिन पता चला मुझे। तुम्हारे साथ डर नहीं लगेगा, कभी भी।

मुझे उसकी हँसी अच्छी लगती है। और उसकी आँखें। और उसकी बातें। और उसका शब्दों का एकदम ठीक ठीक इस्तेमाल करना। कि ग़लती से भी, कभी भी एक शब्द ग़लत नहीं बोल सकता। इम्पॉसिबल। कि इसपर शर्त लगायी जा सकती है। हार जाने वाली शर्त। पर उससे हारना अच्छा लगता है। उसके कम शब्दों में कुछ शब्द जो मेरे नाम के इर्द गिर्द गमकते हैं। precious. कितना साधारण सा शब्द है। लेकिन वो कहता है तो ख़ास लगता है। कि भले ही वो मेरे लिए बेशक़ीमत हो। मैं उसके लिए सिर्फ़ क़ीमती हूँ, तो भी चलेगा। कि वो आप कहता है, मुझे नहीं मालूम, ग़ुस्से में कि दुलार में। पर कहता है तो अच्छा लगता है। कि मुझे आप सिर्फ़ पापा कहते हैं।

अजीब सी किताब है। Norwegian Wood। लेकिन जब वो कहता है कि वो मुझे कभी नहीं भूलेगा। उसका उसकी पसंद की भाषा में कहना। I will always remember you. बहुत प्यारा महसूस होता है। जैसे किसी एक साल मैथ के इग्ज़ैम में सच में 99 मार्क्स आ गए हों। कि ग़लती से सारे सवाल सही बन गए थे।

द लेकहाउस याद आ रही है। जिसमें वो लड़की के लिए शहर के नक़्शे में एक रूट चार्ट करता है कि यहाँ जाओ, ये देखो… और लड़की उस रास्ते पर चलती है, सोचती हुयी… कि काश हम सच में साथ होते… फिर सामने वो बड़ी सी दीवार आती है, जिसपर कमोबेश दो साल पुरानी ग्रफ़ीटी बनी हुयी है। कि केट, मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस ख़ूबसूरत शनिवार की शाम का शुक्रिया। कैमरा ‘together’ शब्द पर जा के ठहरता है। प्यार में कैसी कैसी चीज़ें लोगों को क़रीब ले आती हैं। कि दूरी सिर्फ़ मन में होती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा हो सकता है कि उसके शहर में बारिश हो और यहाँ की हवा में खुनक आए।

फिर द ब्लूबेरी नाइट्स का वो सीन, जब कि लड़की पूरी दुनिया में भटकती हुयी भी उस कोने की छोटी वाली दुकान के लड़के को पोस्टकार्ड भेजती है। कहती है उससे, पता नहीं तुम मुझे कैसे याद करोगे। उस लड़की की तरह जिसे ब्लूबेरी पाई पसंद थी, या उस लड़की की तरह, जिसका दिल टूटा हुआ था।

मैं सोचती हूँ कि मुझे क्या याद रहेगा। इमारत से पीठ टिकाए बैठना। आसमान को देखते हुए हँसना। दिल्ली मेट्रो के स्टेशन पर विदा कहते हुए फ़्लाइइंग किस देना। क्या क्या। कि कहानी और सच के बीच अंतर करना सीखना ज़रूरी है वरना मैं भी किसी पागलपन की कगार पर तो हूँ ही। कब से एक कहानी के बाहर भीतर कर रही हूँ। किरदार मेरे साथ साथ शहर घूमते हैं और मैं जाने क्या कुछ महसूसती हूँ। कि कोई एक शहर हो जिसमें मेरी पसंद की सारी जगहें हों। वो कॉफ़ीशॉप्स जहाँ मेरे पसंद की कॉफ़ी मिलती है। वो पोस्ट बॉक्स जहाँ से तुम्हें पोस्टकार्ड गिराया था। पतझर का सुनहले पत्तों वाला मौसम। डाकटिकटों में रचे-बसे शहर जहाँ में जाना चाहती हूँ एक शाम कभी।

मुझे लिखने से डर लगने लगा है। लिखे हुए लोग ज़िंदगी में मिल जाते हैं। जब तीन रोज़ इश्क़ लिखा था तो उसमें लड़की एक घंटे में एक पैग विस्की पीती है...विस्की के पैग से समय नापा जा सकता है। मैंने तब तक ऐसे किसी इंसान को नहीं जाना था जो ड्रिंक्स के हिसाब से घंटे माप सके। और फिर मैं तुमसे मिली। उस दिन पता है, मन किया तुम्हें वो पूरी कहानी पढ़ के सुनाऊँ... कि देखो, अनजाने में ऐसा लिखा है।

तुम हो मेरे इंतज़ार में? या कि सिर्फ़ मैंने लिखे हैं इतने सारे शहर कि जिनका कोई सही डाक पता नहीं। तुम मुझे चिट्ठियाँ लिखने से मना करो। मेरी चिट्ठियों से सबको ही प्यार हो जाता है। without exception। मेरी चिट्ठियाँ उतनी ही पर्फ़ेक्ट हैं, जितनी मैं flawed। फिर चिट्ठियों से प्यार करोगे और लड़की से नफ़रत। क्या करेंगे फिर हम।

मैं पूछती हूँ उससे। तुम जानते हो न, मैं क्यूँ चाहती हूँ कि किसी को याद रहूँ। कि मुझे मालूम है किसी दिन आसान होगा मेरे लिए कलाइयाँ काट कर मर जाना। उसकी आवाज़ में फ़िक्र है। कि ऐसी बातें मत करो। मुझे नहीं चाहिए प्यार मुहब्बत। मुझे बस, थोड़ी सी फ़िक्र चाहिए उसकी…बस। मैं उसकी आँखें याद करूँगी और दुनिया के सबसे फ़ेवरिट सूयसायड पोईंट से कूदना मुल्तवी कर दूँगी। हाँ इसे प्यार नहीं कहते। लेकिन इतना काफ़ी है, कि इसे ज़िंदगी कहते हैं। और तुम्हारे होने से ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और मेरी हँसी में जादू। इससे ज़्यादा मुझे नहीं चाहिए। 

08 April, 2019

तिलिस्म सिर्फ़ तोड़े जाते हैं, उनसे मुहब्बत नहीं की जाती...

लड़की कोहरे की बनी होती तो फिर भी ठीक होता। वो सिगरेट के धुएँ की बनी थी। उँगलियों में रह जाती। बालों में उलझ जाती। बिस्तर, तकिए, कम्बल…जब जगह बसी रहती। तलब वैसी ही लगती थी उसकी। रोज़। रोज़। रोज़। सुबह, शाम, रात…नींद के पहले, जागने के बाद।
कैसे चूमता कोई उसे? क्यूँ चूमता कोई उसे?

लड़की - शब्दों की बनी, उदास, ख़ुशनुमा, गहरे शब्दों की। वो चाहती कि वो फूलों की बनी हो। आँसुओं की या किसी और टैंजिबल चीज़ की - हवा, पानी, मिट्टी, आग जैसी चीज़ों की… लड़की चाहती कि उसे छुआ जा सके। 
ताकि उसे तोड़ा जा सके। 

कितना लड़ सकती थी वो…ज़िंदगी के इस मोड़ पर थकान इतनी ज़्यादा थी कि उसने हथियार रख दिए। वो रोयी भी नहीं। बस उसकी आवाज़ ज़रा सी काँपी। ‘मैं नहीं करती तुमसे प्यार’। वो एक छोटा सा सवाल पूछना चाहती थी इस आत्मसमर्पण के बाद। 
‘ख़ुश?’


उसके पास सच की दुनिया नहीं थी। कहानियाँ थी सिर्फ़। और दोस्त। इस दुनिया में कहानी के मोल कुछ भी नहीं ख़रीदा जा सकता। 


माँगने को भी कुछ नहीं था उसके पास। किसी के हिस्से ज़रा सा सुख माँगना भी अधिकार में आता है। प्राचीन मंदिर और मक़बरे उसके भीतर उगते। वसंत की बेमौसम बारिश का कोई राग भी। टीन की छत पर बेतहाशा बरसती बारिश…चुप्पी महबूब का नाम चीख़ती। दूर किसी छत पर बारिश में भीगता लड़का गुनगुनाता, इस बात से बेख़बर कि लड़की तिलिस्म होती जा रही है। और मेरी जान, तिलिस्म सिर्फ़ तोड़े जाते हैं, उनसे मुहब्बत नहीं की जाती...

लड़की कभी कभी सीखना चाहती बाक़ी चीज़ें। झूठ बोलना, जिरहबख़्तर बाँधना। ख़ुदकुशी के तरीक़े। लौट सकना। करना थोड़ा कम प्यार किसी से। सीमारेखा बनाना। और अपनी उदासी में ज़रा कम ख़ूबसूरत दिखना।
कि हर कोई उसे उदास देखना न चाहे। 

मुहब्बत मैथ भी नहीं, फ़िज़िक्स का कोई unsolvable equation हुए जाती। एकदम अबूझ। इक रोज़ उसे क़ुबूल करना ही पड़ता कि इतनी उलझी हुयी चीज़ उसे ज़रा भी समझ नहीं आती। कि step-by-step marking के बावजूद उसके नम्बर बहुत कम आएँगे।
जाने कितने साल वो ज़िंदगी के इसी क्लास में गुज़ारेगी कि जिसे कहते हैं, moving on. 


Suicide letter उसका मास्टरपीस था। दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत प्रेम पत्र।


वो नहीं जानती थी प्यार के बारे में कुछ ज़्यादा। उसने ऐसा कोई दावा भी कभी नहीं किया। उसके इर्द गिर्द लेकिन बहुत समझदार लोग थे। सबने उससे कहा, किसी के लिए फूल ख़रीद लेने की ख़्वाहिश को प्यार नहीं कहते। 


20 January, 2019

लव यू बे

आज याद आया कि तुम्हारे गले लगे साल से ऊपर होने को आया। अजीब सा दुखा कुछ। हूक जैसा। सोचती हूँ इसमें मेरी क्या ग़लती कि मैं प्यार नहीं करती तुमसे। प्यार कभी कभी ख़त्म हो जाता है। हमेशा वग़ैरह टाइप की चीज़ें सिर्फ़ पहले प्यार के लिए रिज़र्व होती हैं। तब लगता है कि ज़िंदगी भर इसी एक लड़के से प्यार रहेगा। दूसरे, तीसरे और बाद के कितने भी नम्बर वाले प्रेम के हिस्से बहुत कुछ होता है, ‘हमेशा’ नहीं होता। यूँ भी अब मैं हमेशा का इस्तेमाल बहुत बहुत कम चीज़ों के लिए करती हूँ। ज़िंदगी में इतनी तेज़ी से चीज़ें बदलती हैं, लोग छूट जाते हैं। शहर छूट जाते हैं। क़िस्सा, कहानी, किरदार, कविता… कुछ भी नहीं रहता है हमेशा के लिए।

हाँ, मैं नहीं करती तुमसे प्यार। हमेशा वाला। लेकिन मैं पूरी तरह भूल भी नहीं पाती न किसी को। ज़रा सा प्यार छूटा रह जाता है। उस ज़रा से प्यार का करते क्या हैं?

कोई नया गाना आता है ना, इतना पसंद कि दिन रात, सुबह शाम लूप में वही एक गाना सुनते हैं बस। नींद में, जाग में, नहाते हुए, खाते हुए… बस वही एक गाना, वही बोल, वही धुन। ऐसे ही होता है प्यार। जब चढ़ता है तो कुछ और नहीं सूझता महबूब के सिवा। उसके दिन, रात, शामें… उसका शहर, किताब, कविता, हँसी उसकी या कि उसका ग़ुस्सा ही। ज़िंदगी में उसके सिवा कुछ नहीं होता। फिर जैसे एक दिन गाना उतर जाता है सुन सुन के, वैसे ही एक दिन मुहब्बत चली जाती है दिल से। हम विरक्त हो जाते हैं उस प्रेम के प्रति। लेकिन इन चीज़ों के बारे में कोई नहीं लिखता। कि अभी लोग ज्ञान देने पहुँच जाएँगे, ऐसा थोड़े होता है। होता है जी, हमारे साथ हुआ है।

लेकिन इसके बाद का क़िस्सा भी तो है। दिल जाने किस याद पर कचकता रहेगा। मैं सोचती रहूँगी। आसान था तुम्हारे लिए यूँ चले जाना। लेकिन तुम्हें गले नहीं लगा कर मुझे इतना दुःख रहा है तो तुम्हें जाने कितना दुखा होगा। मैं तुम्हारे दुःख का सोच कर तड़प जाती हूँ। क्या है ना जानम, तुम्हें ये वाला प्यार समझ नहीं आएगा। शब्द कम हैं हमारे पास इसलिए प्यार और दोस्ती वाले दो ही ऑप्शन दिए जाते हैं। जो हम कह दें, कि नहीं, कुछ और भी होता है तो? समझ पाएँगे लोग? लोगों का पता नहीं, मुझे लगता है तुम ही नहीं समझ पाओगे।

मैं सपने में तुम्हें देखती हूँ। बरगद का पेड़ है। पेड़ के नीचे हनुमान जी की प्रतिमा लगी है। किसी दोपहर वहाँ तुम्हें एक पूरी नज़र देखना माँगा था। तुम सिगरेट का आख़री कश मार रहे थे, तुम्हें क्या ज़िद कहते हम। फिर इतने बेग़ैरत तो हैं नहीं कि ज़बरन गले में बाँहें डाल दें। ‘हमने कर लिया था अहदे तर्क-ए-इश्क़, तुमने फिर बाँहें गले में डाल दीं’।

सुनो। कुछ बचा नहीं है हमारे बीच। तो वो चिट्ठियाँ जला ही देना। कि तुम्हारे शहर में तो कहते हैं सबको मोक्ष मिल जाता है। कौन जाने मुझे ही चैन से जीना आ ही जाए तुम्हारे बग़ैर भी। अच्छा ये है कि तुम्हारी आवाज़ इंटर्नेट पर है, तुम्हें याद करके मरूँगी नहीं। हाँ, वो मिस करती हूँ अक्सर, कि ज़िद करके कोई कविता रेकर्ड करवा लूँ तुमसे। कि बस माँग लूँ हथेली खोल के और तुम धर दो… कोई नन्हा सपना, कोई ज़िद्दी शेर, कहकहा कोई… पता है, मैं तुम्हारी हँसी को बहुत मिस करती हूँ। तुम्हारी सिगरेट को भी। तुम्हें पता है, चाय मैंने पहली बार सिर्फ़ तुम्हारे लिए पी थी। तुम्हारी तरह कड़क। क्या क्या सोचती रही तुम्हारे शहर के बारे में। आते आते रुकी। सोचती रही कि आने से कोई दिक्कत तो ना होगी तुम्हें। जाने कैसे होते तो तुम अपने शहर में। शायद वो शहर जो तुम्हें पहचानता है, मुझे पहचानने से इनकार कर दे। कौन जाने।

याद है एक दिन कैसी पगला गयी थी, कि छत से कूद ही जाऊँगी। कि अमरीका होता तो बंदूक़ ख़रीद लाती और ख़ुद को गोली मार लेती। कि लगता था कि तुमसे कहूँगी तो तुम फिर से डाँटोगे इतना कि मरने का ख़याल मुल्तवी कर देंगे। तुम्हें कई बातें नहीं बातायीं। कि जैसे तुम्हारे सिवा कोई नहीं डाँटता मुझे। कि सच्ची तुमसे डाँट खा के अच्छा लगता था। जैसे बचपन का कोई हिस्सा बाक़ी हो। कि ग़लतियाँ करना अच्छा लगता था। तुम्हारे डाँटने से ये भी तो लगता था कि अब माफ़ कर दोगे। हो गयी बात ख़त्म। कोई बात ज़िंदगी भर भी चल जाएगी, ये कौन सोच सकता था। तुम्हारी नाराज़गी थोड़ी कम चले, सो लगता है ज़िंदगी ही छोटी रहे थोड़ी। कि तुम उम्र भर ही तो नाराज़ रहोगे मुझसे... मरने के बाद थोड़े न।

काश कि जब आख़िरी बार मिले थे तुमसे, मालूम होता कि आख़िरी बार गले लग रहे हैं तुमसे। तो बस थोड़ा ज़्यादा देर भींचे रहते तुमको। कहते तुमसे। तुम उम्र में बड़े हो, मेरा माथा चूम कर अलविदा कहो। कि रोकने का न अधिकार है न दुस्साहस। बस, ज़िंदगी से थोड़ी सी गुज़ारिश है कि कभी मिलो फिर… इस बार प्यार से अलविदा कहना। कि मैं जाने प्यार तुमसे करती हूँ या नहीं, पर विदा प्यार से कहना चाहती हूँ तुमको।

आइ मिस यू। बहुत।
लव यू बे।

21 December, 2018

नींद की धूप में सोने के दिन हैं

A door, Paris
सुबह का गुनगुना सपना था। मैं नींद की धूप में सोती रही देर तक।

तुम्हारा गाँव था नदी किनारे। वहीं तुम्हारा बड़ा सा घर। धान के टीले लगे हुए थे। धूप में निकाली हुयी खटिया थी। फिर पता नहीं कैसे तो मेरे पापा तुम्हारे घर वालों को जानते थे। कितने खेत थे घर के आसपास। कोई त्योहार था। शायद सकरात या फिर रामनवमी। गाँव के एंट्री पर चिमकी वाला झंडी लगा हुआ फहरा रहा था हवा में फरफ़र।

घर पर सब लोग जब ऐडजस्ट हो गए। गपशप मारा जा रहा था। कहीं आग लहकाया हुआ था। गुड़ की गंध भी आ रही थी आँगन में। लड़ुआ बन रहा होगा। तिल, चूड़ा, मूर्ही। मिट्टी वाली दीवार थी,  हम बाहर आए तो तुमको देखे। तुम बैगी वाला स्वेटर पहने मोटरसाइकिल लेकर कहीं जा रहे थे। शायद मिठाई मिक्चर कुछ लाने को। ऐसा स्वेटर 90s में ख़ूब चला था। स्वेटर का रंग हल्का नारंगी लाल जैसा था। एक तरह का मिक्स ऊन आता था। उसी का। गोल गला, हाथ का बुना हुआ स्वेटर। लाल बॉर्डर का कलाई और गला। हम पीछे से जा के पूछे, हम भी चलें। तुम हँस के बोले हो, डरोगी नहीं तुम? फिर एकदम एक जगह से फ़ुल ट्विस्ट करके बाइक घुमाए हो। हम पीछे बैठे हैं तुम्हारे। पुरानी यामाहा बाइक है। ठंढा है बहुत। हवा

एकदम सनसना के लग रहा है। दायाँ गाल और आधा चेहरा तुम्हारी पीठ पर टिका हुआ है, माथा भी। आँख बंद है। ऊन का खुरदरापन और गरमी दोनों महसूस होता है गाल पे। तुम्हारा होना भी।

नहर किनारे पुआल का टाल बन रहा है। आधा हुआ है, आधा का काम शायद शाम को शुरू होगा। कोहरा है दूर दूर तक लेकिन अब थोड़ा धूप निकलना शुरू हुआ है। हम एकदम ठंडी हथेली सटाते हैं तुम्हारे गाल से। तुम एक मिनट ठहर कर मुझे देखते हो, मैं तुम्हें। हाथ पकड़ कर तुम मुझे थोड़ा पास लाते हो और गले लगाते हो। जाड़ों वाली फ़ीलिंग आती है तुम्हारे गले लग के। अलाव वाली। तुम कोई मौसम लगते हो। जाड़ों का। धीरे धीरे जैसे आँखें मुंदती हैं…जैसे रुकते हैं मौसम। कुछ महीनों तक।

***
मैं सोचती हूँ मेरे सपनों में तुम और गाँव दोनों अक्सर आते हैं। एक साथ ही। अक्सर नहर के पास वाली कोई जगह होती है। हम कहाँ रह गए हैं कि ऐसी छूटी हुयी जगह जाते हैं सपने में साथ। पता नहीं क्यूँ एक और बात भी याद आती है। कहीं पढ़ा था कि हम सपने में अगर किसी को देखते हैं तो इसका मतलब वो व्यक्ति हमारे बारे में सोच रहा होगा, या कि उसने भी सपने में हमें देखा होगा। इस थ्योरी के ख़िलाफ़ ये तर्क दिया जाता है कि उनका क्या जिन्होंने सपने में माधुरी दीक्षित को देखा है, माधुरी थोड़े ना उन्हें सपने में देख रही होगी। फिर मुझे याद आते हैं वे सपने जिनमें आए हुए लोगों की शक्ल मैंने पहले नहीं देखी थी। ये तो वे लोग हो सकते हैं ना? तो हो सकता है, माधुरी ने वाक़ई सपने में ऐसे लोग देखे हों जिन्हें उसने ज़िंदगी में कभी नहीं देखा, बस सपने में देखा है।

***
कभी कभी कुछ दुःख इतने गहरे होते हैं कि हम उनके इर्द गिर्द एक चहारदीवारी खींच देते हैं कि हम इन्हें किसी और दिन महसूस करेंगे। कि हमारा आज का नाज़ुक दिल इस तरह का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। कल तुमसे बात करना ऐसा ही था। हमारे बीच भी बात करने को चीज़ें ना हों। किसी अजनबी की तरह तुमसे बात करना तरतीब से मेरे टुकड़े कर रहा था। मैंने उस दोपहर को ही अपने ख्याल से परे रख दिया है। मैं सोच ही नहीं सकती इस तरह से तुम्हारे बारे में।

किसी रोज़ इत्मीनान से सोचूँगी कि हमारे बीच ऐसे पूरे पूरे महाद्वीप कब उठ खड़े हुए। मेरे तुम्हारे शहर इतने दूर कैसे हो गए। कि तुम्हारी हँसी के रंग का आसमान देखने के लिए कितनी स्याह रातें दुखती आँखें काटेंगी। कि तुमसे प्यार करना दुःख कब से देने लगा। कि हम प्रेम में बैराग लाना चाह रहे हैं। ख़ुद को बचाए रखना, इतना ज़रूरी कब से हो गया।

एक दिन तुम बिसर जाओगे। पर तब तक जो ये ठंढ का मौसम तुम्हारी आवाज़ में उतर आता है। मैं इस मौसम में ठिठुर के मर जाऊँगी।

03 October, 2018

ऑल्टर्नेट दुनिया का अलविदा

नामा-बर तू ही बता तू ने तो देखे होंगे
कैसे होते हैं वो ख़त जिन के जवाब आते हैं
~ क़मर बदायुनी

हमने कितनी फ़ालतू चीज़ें सीखीं अपने स्कूल में। किताबों की वो कौन सी बात है जो काम आती है बाद की ज़िंदगी में। वे पीले हरे रिपोर्ट कार्ड जो सीने से लगाए घर आते और उसमें लिखे रैंक - 2nd, 5th, 7th दिखा कर ख़ुश होते। हर बार वही बात सुनते, कि ध्यान से पढ़ो। ये सोशल स्टडीज़ में सिर्फ़ ७० काहे आए हैं। हाइयस्ट कितना गया, वग़ैरह।

हमें चिट्ठियाँ लिखनी सिखायी गयीं, प्रिन्सिपल को छुट्टी के लिए आवेदन देने को, सांसद को शहर की किसी मुसीबत के बारे में बताने को, पिता को पैसे माँगते हुए चिट्ठी। हमें किसी ने सिखाया होता कि प्रेम पत्र कैसे लिखते हैं, माफ़ी कैसे माँगते हैं, अलविदा कैसे कहते हैं। चिट्ठी लिखते हुए हिंदी उर्दू के कितने सारे सम्बोधन हो सकते हैं… ‘प्रिय’ के सिवा… कि मैं किसी चिट्ठी की शुरुआत में, ‘मेरे ___’ और आख़िर में सिर्फ़ ‘तुम्हारी___’ लिखना चाहती हूँ तो ये शिष्टाचार के कितने नियम तोड़ेगा। आख़िर में क्या लिखते हैं? सादर चरणस्पर्श या आपका आज्ञाकारी छात्र के सिवा और कुछ होता है जो हम किसी को लिख सकें… प्रेम के सिवा जो पत्र होते हैं, वे कैसे लिखते हैं।

हमने उदाहरण में अमृता प्रीतम के पत्र क्यूँ नहीं पढ़े? निर्मल वर्मा, रिल्के, प्रेमचंद, दुष्यंत कुमार या कि बच्चन के पत्र ही पढ़े होते तो मालूम होता कि चिट्ठियों के कितने रंग होते हैं। तब हम शायद तुम्हें चिट्ठी लिखने की ख़्वाहिश के अपराधबोध में डूब डूब कर मर नहीं रहे होते। मंटो ने जो ख़त खोले नहीं, पढ़े नहीं, उनमें क्या लिखा था?

मैंने पिछले कुछ सालों में जाने कितने ख़त लिखे। मैंने जवाब नहीं माँगे। ख़त दुआओं की तरह होते रहे। हमने दुआ माँगी, क़ुबूल करने का हिस्सा खुदा का था। हमने कभी दूसरी शर्त नहीं रखी कि जवाब आएँ तो ही ख़त लिखेंगे। लेकिन जाने क्यूँ लगा, कि तुम मेरे ख़तों का जवाब लिख सकोगे। लेकिन शायद तुमने भी स्कूल में नहीं पढ़ा कि वे लोग जो सिर्फ़ दोस्त होते हैं, दोस्त ही रहना चाहते हैं, उन्हें कैसी चिट्ठी लिखते हैं। तुम नहीं जान पाए कि मुझे क्या लिखा जा सकता है चिट्ठी में। ‘हाले दिल यार को लिखूँ क्यूँकर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।

तुम्हें पता है, अगर आँख भर आ रही हो तो पूरा चेहरा आसमान की ओर उठा लो और गहरी गहरी सांसें लो तो आँसू आँखों में वापस जज़्ब हो जाते हैं। बदन में घुल जाते हैं। टीसते हैं आत्मा में लेकिन गीली मिट्टी पर गिर कर आँसुओं का पौधा नहीं उगाते। आँसुओं के पौधे पर उदासियों का फूल खिलता है। उस फूल से अलविदा की गंध आती है। उस फूल को किताब में रख दो और भूल जाओ तो अगली बार किताब खोलने के पहले धोखा होता है कि पन्नों के बीच कोई चिट्ठी रखी हुयी है। लेकिन हर चीज़ की तरह इसका भी एक थ्रेशोल्ड होता है। उससे ज़्यादा आँसू हुए तो कोई ट्रिक भी उन्हें मिट्टी में गिरने से रोक नहीं सकती, सिवाए उस लड़के के जिसकी याद में आँखें बौरा रही हैं...वो रहे तो हथेलियों पर ही थाम लेता आँसू को और फिर आँसू से उसके हथेली में सड़क वाली रेखा बन जाती...उस सड़क की जो दोनों के शहरों को जोड़ती हो।

क्या तुम सच में एकदम ही भूल गए हो हमको? मौसम जैसा भी याद नहीं करते? साल में एक बार? क्या आसान रहा हमको भूलना? तुम्हें वे दिन याद है जब हम बहुत बात किया करते थे और मैं तुमसे कहती थी, जाना होगा तो कह के जाना। मैं कोई वजह भी नहीं पूछूँगी। मैं रोकूँगी तो हरगिज़ नहीं। लेकिन तुम भी सबकी ही तरह गुम हो गए। क्या ये मेरी ग़लती थी कि मैंने सोचा कि तुम बाक़ियों से कुछ अलग होगे। हम कैसे क्रूर समय में जी रहे हैं यहाँ DM पर ब्रेक ऑफ़ कर लेते हैं लोग। घोस्टिंग जैसा शब्द लोगों की डिक्शनरी ही नहीं, ज़िंदगी का हिस्सा भी बन गया है। ऐसे में अलविदा की उम्मीद भी एक यूटोपीयन उम्मीद थी? क्या किसी पर्फ़ेक्ट दुनिया में एक शाम तुम्हारा फ़ोन आता और तुम कहते, देखो, मेरा ट्रैफ़िक सिग्नल तुमसे पहले हरा हो गया है, मैं पहले जाऊँगा… मुड़ के देखूँगा भी, पर लौटूँगा नहीं… तुम मेरा इंतज़ार मत करना। सिग्नल ग्रीन होने पर तुम भी चले जाना शहर से, फिर कभी न लौटने के लिए।

या कि टेलीग्राम आता। एक शब्द का। विदा…
मैं समझ नहीं पाती कि विदा के आख़िर में तीन बिंदियाँ क्यूँ हैं। लेकिन उस काग़ज़ के टुकड़े से रूह में उस दिन को बुक्मार्क कर देती और तुम्हें भूल जाती। अच्छा होता ना?

देखो ना। मेरी बनायी ऑल्टर्नट दुनिया में भी तुम रह नहीं गए हो मेरे पास। तुम जा रहे हो, बस 'विदा' कह कर। बताओ, जिस लड़की की ख़्वाहिशें इतनी कम हैं, उन्हें पूरा नहीं होना चाहिए?

01 October, 2018

वयमेव याता:

जिन चीज़ों को गुम हो जाना चाहिए…

१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।

वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।

२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।

फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।

मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।

३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।

४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।

५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।

कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।

६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।

मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir! 

14 March, 2018

सपने में एक नदी बहती थी

मेरे सपनों में कुछ जगहें हमेशा वही रहती हैं। बहुत सालों तक मुझे एक खंडहर की टूटी हुयी दीवाल का एक हिस्सा सपने में आता रहा। उन दिनों मैं बिलकुल पहचान नहीं पाती थी कि ये कहाँ से उठ के आया है। आज पहली बार उस बारे में सोचते हुए याद आया है कि पटना में नानीघर जाने के रास्ते रेलवे ट्रैक पड़ता था। रेलवे ट्रैक के किनारे किनारे दीवाल बनी हुयी थी। वो ठीक वैसे ही टूटी थी जैसे कि मैं सपने में देखती आयी रही थी, कई साल। हाँ सपने में वो हिस्सा किसी क़िले की सबसे बाहरी चहारदिवारी का हिस्सा होता था।

इन दिनों जो सपने में कई दिनों से देख रही हूँ, लौट लौट कर जाते हुए। वो एक मेट्रो स्टेशन है। मैं हमेशा वही एक मेट्रो स्टेशन देखती हूँ। काफ़ी ऊँचा। कोई तीन मंज़िल टाइप ऊँचा है। और मैं हमेशा की तरह सीढ़ियों से चढ़ती या उतरती हूँ। इसे देख कर कुछ कुछ कश्मीरी गेट के मेट्रो की याद आती है। वहाँ की ऊँची सीढ़ियों की। मैं कब गयी थी किसी से मिलने, कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन पर उतर कर? याद में सब भी कुछ साफ़ कहाँ दिखता है हमेशा। या कि अगर दिखता ही हो, तो हमेशा जस का तस लिख देना भी तो बेइमानी हुआ। वो कितने कम लोग होते हैं, जिनका नाम हम ले सकते हैं। किसी पब्लिक फ़ोरम पर। ईमानदारी से। फिर ऐसे नाम लेने के बाद लोग एक छोटे से इन्सिडेंट से कितना ही समझ पाएगा कोई। हर नाम, हर रिश्ता अपनेआप में एक लम्बी कहानी होता है। छोटे क़िस्से वाले लोग कहाँ हैं मेरी ज़िंदगी में।

इस मेट्रो स्टेशन के पास नानी की बहन का घर होता है। स्टेशन से कुछ डेढ़ दो किलोमीटर दूर। हमेशा। मैं जब भी इस मेट्रो स्टेशन पर होती हूँ, मेरे प्लैंज़ में एक बार वहाँ जाना ज़रूर होता है।

आज रात सपने में में इस मेट्रो स्टेशन से उतर कर तुम्हारे बचपन के घर चली गयी। शहर जाने कौन सा था और मुझे तुम्हारा घर जाने कैसे पता था। और मैं ऐसे गयी जैसे हम बचपन के दोस्त हों और तुम्हारे घर वाले भी जानते हों मुझे अच्छे से। तुम घर के बरांडे में बैठ कर कॉमिक्स पढ़ रहे थे। हम भी कोई कॉमिक्स ले कर तुमसे पीठ टिकाए बैठ गए और पढ़ने लगे। आधा कॉमिक्स पहुँचते हम दोनों का मन नहीं लग रहा था तो सोचे कि घूमने चलते हैं।

हम घूमने के लिए जहाँ आते हैं वहाँ एक नदी है और मौसम ठंढा है। नदी में स्टीमर चल रहे हैं। जैसे स्विट्ज़रलैंड में चलते थे, उतने फ़ैन्सी। हम हैं भी विदेश में कहीं। मैं स्टीमर जहाँ किनारे लगता है वहाँ एक प्लाट्फ़ोर्म बना है। तुम कहते हो तैरते हैं पानी में। मैं कहती हूँ, पानी ठंढा है और मेरे पास एक्स्ट्रा कपड़े नहीं हैं। तभी प्लैट्फ़ॉर्म शिफ़्ट होता है और मैं सीधे पानी में गिरती हूँ। पानी ज़्यादा गहरा नहीं है। तुम भी मेरे पीछे जाने बिना कुछ सोचे समझे कूद पड़ते हो। फिर तुम तैरते हुए नदी के दूसरे किनारे की ओर बढ़ने लगते हो। मुझे तैरना ठीक से नहीं आता है पर मैं ठीक तुम्हारे पीछे वैसे ही तैरती चली जाती हूँ और हम दूसरे किनारे पहुँच जाते हैं। ये पहली बार है कि मैंने तैरते हुए इतनी लम्बी दूरी तय की है। हम पानी से निकलते हैं और सीढ़ियों पर खड़े होते हैं। इतना अच्छा लग रहा है जैसे लम्बी दौड़ के बाद लगता है। पानी साफ़ है। थोड़ा आगे सीढ़ियाँ बनी हुयी हैं और दूसरी ओर पहाड़ हैं। मैं कहती हूँ, आज मुझे तुम्हारे कपड़े पहनने पड़ेंगे। थोड़ी देर घूम भटक कर वापस जाने का सोचते हैं। उधर रेस्ट्रांट्स की क़तार लगी हुयी है नदी किनारे। हम उनके पीछे नदी की ओर पहुँचते हैं तो देखते हैं कि उनकी नालियों से नदी का पानी एकदम ही गंदा हो गया है। कोलतार और तेल जैसा काला। वहाँ से पानी में घुसने का सोच भी नहीं सकते। हम फिर तलाशते हुए नदी के ऊपर की ओर बढ़ते हैं जहाँ पानी एकदम ही साफ़ है। तुम होते हो तो मुझे पानी में डर एकदम नहीं लगता। हम हँसते हैं। रेस करते हैं। और नदी के दूसरे किनारे पहुँच जाते हैं। तुम्हारी सफ़ेद शर्ट है उसका एक बटन खुला हुआ है। मैं अपनी हथेली तुम्हारे सीने पर रखती हूँ। पानी का भीगापन महसूस होता है।

हम किसी डबल बेड पर पड़े हुए एक स्टीरियो से गाने सुन रहे हैं। एक किनारे मैं हूँ, लम्बे बाल खुले हुए हैं और बेड से नीचे झूल रहे हैं।एक तरफ़ तुम दीवार पर टाँग चढ़ाए सोए हुए हो। घर में गेस्ट आए हैं। तुम्हारी दीदी या कोई किचन से चिल्ला के पूछ रही है मेरे घर के नाम से मुझे बुलाते हुए...ये मेरा पटना का घर है...और स्टीरियो प्लेयर वही है जो मैंने कॉलेज के दिनों में ख़ूब सुना था। कूलर पर रख के, कमरे में अँधेरा कर के, खुले बाल कूलर की ओर किए, उन्हें सुखाते हुए। तुम मेरे इस याद में कैसे हो सकते हो। इतनी बेपरवाही से।

***
सपने में चेहरे बदलते रहे हैं, सो याद नहीं कितने लोगों को देखा। पर जगहें याद हैं और पानी की ठंढी छुअन। फिर मेरे पीछे तुम्हारा पानी में कूदना भी। सुकून का सपना था। जैसे आश्वासन हो, कि ज़िंदगी में ना सही, सपने में लोग हैं कितने ख़ूबसूरत।

तेज़ बुखार में तीन दिन से नहाए नहीं हैं, और सपना में नदी में तैर रहे हैं! 

07 March, 2018

अलविदा के गीत

कुछ फ़िल्में हमें बहुत बुरी तरह अफ़ेक्ट करती हैं। हम नहीं जानते कौन सा raw nerve ending touch हो जाता है। कुछ एकदम कच्चा, ताज़ा, दुखता हुआ ज़ख़्म होता है। रूह में गहरे कहीं। हम उन दुखों के लिए रो देते हैं जो हमारे अपने नहीं हैं। रूपहले परदे पर की मासूमियत कैसा कच्चा ख़्वाब तोड़ती है। कौन से दुःख की शिनाख्त कराती है? क्या कुछ दुःख यूनिवर्सल होते हैं? जैसे बचपने की मृत्यु।

हम कितनी चीज़ें फ़ॉर ग्रंटेड लेते हैं। आज़ादी। प्रेम। दोस्ती।
किसी को प्रेम करने का अधिकार।

फ़िल्म सिम्फ़नी फ़ॉर ऐना का एक सीन भुलाए नहीं भूलता है मुझे...स्कूल के बच्चे हैं, कुछ चौदह साल के आसपास की उम्र के...उनके साथ ही पढ़ने वाले एक लीडर की गोली मार के हत्या कर दी गयी है। बच्चे उसके कॉफ़िन को हाथों में ले कर चल रहे हैं। यह दृश्य श्वेत श्याम में फ़िल्माया गया है। सब बच्चों की आँखों में आँसू हैं। उन्होंने आँखें झुका रखी हैं। वे रो रहे हैं। लेकिन जैसे जैसे क़ाफ़िला उनके पास आता है, वे हाथ उठा कर V का सिम्बल बना रहे हैं। विक्टरी का। जीत का। अपने साथी को विदा कहते हुए भी वे कहते हैं कि हम जीतेंगे। Ever onward, to victory! ऐना इस सीन को नैरेट कर रही होती है। वो कहती है कि उस दिन के बाद हम सब बदल गए। हम बड़े हो गए।

मैं इस फ़िल्म को देखने के बाद देर तक रोती रही थी। चौदह पंद्रह साल के बच्चे...उनके हिसाब के क्रांति के उनके आदर्श। चे ग्वारा के नारे लगाते। लड़ते एक बेहतर दुनिया के लिए। जिस उम्र में उन्हें ठीक से दुनिया समझ भी नहीं आती, उस उम्र में उन्हें अरेस्ट कर लिया जाता है और फिर वे 'गुम' हो जाते हैं। फ़िल्म में कहती है इसा, तुम 'अरेस्ट' कर ली गयी, क्यूँकि उन दिनों हमारे पास 'disappear' शब्द नहीं था। बच्चे जो ग़ायब कर दिए गए। मार दिए गए। लम्बे समय तक टॉर्चर किए गए। इनसे सत्ता को कितना ख़तरा हो सकता था।

फ़िल्म के ट्रेलर में एक गीत होता है जो मैं पहचान नहीं पाती हूँ। youtube पर एक कमेंट में सवाल पूछा है जिसका कल जवाब आया है। मैं देर तक उसी गाने को सुनती रही हूँ। वो एक इतालवी युद्ध गीत है, एल पासो देल एबरो एक लोकगीत...जो कई सालों से गाया जाता रहा है। युद्ध चिरंतर हैं।

कल रात मैं देर तक अर्जेंटीना के इस स्टेट टेररिज़म के बारे में पढ़ती रही। इसे डर्टी वार कहा गया है। गंदा युद्ध। इसमें विरोधी राजनीतिक ख़याल रखने वालों लोगों को, जिनमें बच्चे, छात्र, औरतें थीं, मारा गया, अपहृत किया गया और ग़ायब कर दिया गया। इस जीनोसाइड में लगभग तीस हज़ार लोग मारे गए। औस्वितज से गुज़रना आपको ज़िंदगी भर के लिए बदल देता है। कुछ ऐसे कि उस समय भी मालूम नहीं होता है। किसी भी क़िस्म की जीनोसाइड के साथ एक मृत्युगंध चली आती है। उँगलियों में, हथेलियों में, बर्फ़ पड़ते सीने में और मैं एक मानवता के बेहद स्याह पन्ने तक पहुँच जाती हूँ। पढ़ते हुए जानती हूँ कि जो बच्चे ग़ायब कर दिए गए, उन्हें याद रखे रखने के लिए की गयी कोशिशें हैं। उनकी माएँ टाउन स्क्वेयर जाती हैं, अब भी, हर बृहस्पतिवार और अपने ग़ायब किए गए बच्चों के बारे में जानकारी माँगती हैं। अर्जेंटीना के इस ग्रूप का नाम Mothers of the Plaza de Mayo है। 

अलविदा। कैसा दुखता शब्द है। फ़िल्म के आख़िरी फ़्रेम में कुछ विडीओ रेकॉर्डिंज़ हैं जो उस समय की गयी थीं जब Ana, Lito और Isa एक समंदर किनारे गए हैं और ख़ुश हैं। प्रेम में हैं। मुझे अलविदा के कुछ लम्हे याद आते हैं।

आख़िरी बात कहता है वो मुझे, 'Au revoir' कहते हैं फ़्रेंच में। इसका मतलब होता है, फिर मिलेंगे। मैं नहीं जानती मैं उसे कब मिलूँगी फिर। दुनिया बहुत बड़ी है और तन्हाई इतनी कि दुनिया भर में बिखर जाए और पूरी ना पड़े। हम फिर कब मिलेंगे?

दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर उसे आख़िरी बार देखा था। ट्रेन के मुड़ जाने तक। उस दिन को बारह साल हुए। मैंने उसकी एक तस्वीर भी नहीं देखी है। वो कहता है मुझसे उम्र भर नहीं मिलेगा। मैं नहीं जानती ज़िंदगी कितनी लम्बी है। मैं नहीं चाहती मेरे मर जाने के बाद उसे इस बात का अफ़सोस हो कि मुझे एक बार मिल लेना चाहिए था।

सुनते हुए मैं Bella Ciao तक पहुँचती हूँ। जंग के समय एक व्यक्ति अपनी ख़ूबसूरत महबूबा को अलविदा कह रहा है, यह कहते हुए कि अगर मैं मर गया तो मुझे उस पहाड़ी पर दफ़नाना और वहाँ पर एक ख़ूबसूरत फूल उगेगा मेरी क़ब्र पर तो सब कहेंगे कि कितना ख़ूबसूरत फूल है।

सुनते हुए मैं hasta siempre तक पहुँचती हूँ। चे ग्वेरा के फ़िदेल को लिखे आख़िरी ख़त जिसमें वो कहते हैं 'Until victory, always' के जवाब में गाया गाया ये गीत अपने कमांडर को अलविदा कहता है 'until forever'. चे की मृत्यु के बाद क्यूबा की क्रांति में ये गीत बहुत महत्वपूर्ण रहा। इसे सुनते हुए अपना इंक़लाब ज़िंदाबाद याद आता है।

चीज़ों के समझने का हमारा अलगोरिदम लॉजिकल नहीं होता। यादों के साथ कहाँ कौन सा रेशा जुड़ेगा हम नहीं जानते। मेरी परवरिश एक नोर्मल मिडल क्लास परिवार में हुयी। हमारे परिवार में राजनीति के लिए जगह नहीं रही। पापा ने अपने समय में जेपी आंदोलन में हिस्सा लिया, चाचा शाखा में जाते हैं मगर ये बात अब समझ में आयी। बचपन में बस ये याद है कि चाची उनके हाफ़ पैंट पहनने पर ग़ुस्सा करती थी। मैंने कभी कार्ल मार्क्स की किताबें नहीं पढ़ीं। हाँ, मोटरसाइकल डाइअरीज़ ज़रूर पढ़ी है...लेकिन उसमें चे सिर्फ़ ख़ुद को तलाशते और समझते एक घुमक्कड़, सहृदय, युवा डॉक्टर की तरह दिखे हैं मुझे।

युद्ध से मेरी पहली मुलाक़ात महाभारत में हुयी। दूसरी, पानीपत के युद्ध में और फिर गॉन विथ द विंड पढ़ते हुए। इतिहास हमें इतने बोरिंग तरीक़े से पढ़ाया जाता है कि किसी को अच्छा नहीं लगता। अगर पढ़ाई का तरीक़ा बदल दिया जाए तो इतिहास झूठी कहानियों से बहुत ज़्यादा रोचक लगेगा। इतनी बड़ी दुनिया में इतनी सारी चीज़ें मुझे नहीं समझ आती हैं। मैं थोड़ा थोड़ा सब कुछ समझने की कोशिश करती हूँ। मेरे दिल में प्रेम के बाद की बची हुयी जगह में एक बहुत बड़ा ख़ाली मैदान है।  वहाँ अलग अलग बंजारा ख़याल डेरा डालते हैं। इन दिनों कला की प्रदर्शनी उठ गयी है और टेक्नॉलजी और युद्ध अपने खेमे डाल रहे हैं।
Screenshot from Symphony for Ana

मैं तुम्हारी अधूरी चिट्ठियाँ जला देना चाहती हूँ।
मैं तुम्हारी आवाज़ मिस करती हूँ।
और तुम्हें।

अलविदा के शब्दों को लिख रखा है। आख़िरी बार कहूँगी तुमसे। कितनी भाषाओं में गुनगुनाते हुए...अलविदा।

Hasta Siempre
Bella Ciao
Au revoir

*ये लेख तथ्यात्मक रूप से ग़लत हो सकता है। यहाँ इतिहास की घटनाएँ मेरी याद्दाश्त में घुलमिल गयी हैं, और फिर विकिपीडिया पर बहुत ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। 

03 February, 2018

सुनो, तुम अपना दिल सम्हाल के रखना।

नहीं। मेरे पास कोई ज़रूरी बात नहीं है, जो तुमसे की जाए। 
ये वैसे दिन नहीं हैं जब 'दिल्ली का मौसम कैसा है?' सबसे ज़रूरी सवाल हुआ करता था। जब दिल्ली में बारिश होती थी और तुमने फ़ोन नहीं किया होता तो ये बेवफ़ाई के नम्बर वाली लिस्ट में तुम्हारा किसी ग़ैर लड़की से बात करने के ऊपर आता था। 
हमारे बीच दिल्ली हमेशा किसी ज़रूरी बात की तरह रही। बेहद ज़रूरी टॉपिक की तरह। कि तुम्हारे मन का मौसम होता था दिल्ली। नीले आसमान और धूप या दुखती तकलीफ़देह गर्मियाँ या कि कोहरा कि जिसमें नहीं दिखता था कि किससे है तुम्हें सबसे ज़्यादा प्यार। 
अब कहते हैं लोग मुझे, दिल्ली अब वो दिल्ली नहीं रही। तुम्हें दस साल हुए उस शहर को छोड़े हुए। अब भी तुम्हें उसके मौसम से क्या ही फ़र्क़ पड़ता है। 
उस लड़के को छोड़े हुए भी तो बारह साल हुए। तुम उसके बालों की सफ़ेदी देखना चाहती हो? उसकी आँखों के इर्द गिर्द पड़े रिंकल? या होठों के आसपास पड़ी मुस्कान से पड़ी हुयी रेखाएँ? तुम क्यूँ देखना चाहती हो कि जो रेखा तुम्हारे और उसके हाथों में ठीक एक सी थी, वो इतने सालों में बदली या नहीं। तुम उसे देखना क्यूँ चाहती हो? जिस लड़के को तुमने ही छोड़ा था, उसके गले लग कर उसी से बिछड़ने के दुःख में क्यूँ रोना चाहती हो। उसके ना होने के दुःख का ग्लेशियर अपने दिल में जमाए हुए तुम जियो, यही सज़ा तय की थी ना तुम दोनों ने? उसकी आँखों में मुहब्बत होगी अब भी जिसे वो नफ़रत का नाम देता है। उसकी आवाज़ से तुम्हारे दिल की धड़कन क्यूँ रूकती है? इतना प्यार करना ही था उससे तो उसे छोड़ा ही क्यूँ था? उसके पास रह कर उससे दूर हो जाने का डर था तुम्हें?
दुखता हुआ शहर दिल्ली। सीने में पिघलता। जमता। दूर होता जाता। बहुत बहुत दूर। पूछता। 'ताउम्र करोगी प्यार मुझसे?'
***
हम जिनसे प्यार करते हैं, वो इसलिए नहीं करते हैं कि उनसे बेहतर कोई और नहीं था। प्यार में कोई आरोहण नहीं होता कि उस सबसे ऊँची सीढ़ी पर जो मिलेगा हम उससे सबसे ज़्यादा प्यार करेंगे। या उससे ही प्यार करेंगे। 
हमें जो लेखक पसंद होते हैं, वे इसलिए नहीं होते कि वे दुनिया के सबसे अच्छे लेखक होते हैं। उनका लिखा पुरस्कृत होता है या बहुत लोगों को पसंद होता है। हमें कोई लेखक इसलिए पसंद आता है कि कहीं न कहीं वो हमारी कहानी कहता है। हमारे प्रेम की, हमारे बिछोह की। अक्सर वो कहानी जो हम जीना चाहते थे लेकिन जी ना सके। हो सकता है हम उनके बाद कई और लेखकों को पढ़ें और कई और शहरों के प्रेम में पड़ें। लेकिन अगर हमने एक बार किसी के लिखे से बहुत गहरा प्रेम किया है तो हम उस लेखक के प्रेम से कभी नहीं उबर सकते। हम उस तक लौट लौट कर जाते हैं। कई कई साल बाद तक भी। 
आज मैंने कुछ वे ब्लॉग पोस्ट पढ़े जो २०१० में लिखे गए थे। ये ऐसे क़िस्से हैं जिनकी पंक्तियाँ मुझे हमेशा याद रही हैं। ख़ास तौर से दुःख में या सफ़र में। उन लेखों में दुःख है, अवसाद है, मृत्यु है और इन सब के साथ एक लेखक है जिसका उन दिनों मुझे नाम, चेहरा, उम्र कुछ मालूम नहीं था। ये शब्दों के साथ का विशुद्ध प्रेम था। मैं उन पोस्ट्स तक लौटती हूँ और पाती हूँ कि अच्छी विस्की की तरह, इसका नशा सालों बाद और परिष्कृत ही हुआ है। 
मैंने इस बीच दुनिया भर के कई बड़े लेखकों को पढ़ा है। कविताएँ। कहानियाँ। लेख। आत्मकथा। कई सारे शहर घूम आयी। लेकिन उन शब्दों की काट अब भी वैसी ही तीखी है। वे शब्द वैसे ही हौंट करते हैं। वैसे ही ख़याल में तिरते रहते हैं जैसे उतने साल पहले होते थे। 
प्यारे लेखक। तुम्हारा बहुत शुक्रिया। मेरी ज़िंदगी को तुम्हारे ख़ूबसूरत और उदास शब्द सँवारते रहते हैं। तुम बने रहो। दुआ में। अगली बार मैं किसी शहर जाऊँगी विदेश के, तो फिर से पूछूँगी तुमसे, 'क्या मैं आपको चिट्ठियाँ लिख सकती हूँ?'। इस बार मना मत करना। तुम्हारे बहुत से फ़ैन्स होंगे। हो सकता है कोई मुझसे ज़्यादा भी तुमसे प्यार करे। लेकिन मेरे जैसा प्यार तो कोई नहीं करेगा। और ना मेरे जैसी चिट्ठियाँ लिखेगा। तुमसे जाने कब मिल पाएँगे। मेरा इतना सा अधिकार रहने दो तुमपर, किसी दूर देश से चिट्ठियाँ लिखने का। मुझे इसके सिवा कुछ नहीं चाहिए तुमसे। लेकिन मेरे जीने के लिए इतना सा रहने दो। 
तुम्हारी,
(जिसे तुमने एक बार यूँ ही बात बात में पागल कह दिया था)
ज़िंदगी रही तो फिर मिलेंगे।
***
कुछ शौक़ आपको जिलाए रखते हैं। 
मुझे सिगरेट की आदत कभी नहीं रही। लेकिन शौक़ रहा। दोस्तों के साथ कभी एक आध कश मार लिया। लिखते हुए मूड किया तो सिगरेट के खोपचे से दो सिगरेट ख़रीद ली और फूँक डाली। किसी दिन मूड बौराया तो बीड़ी का बंडल उठा लाए और देर रात ओल्ड मौंक पीते रहे और बीड़ी फूँकते रहे। किसी कसैलेपन को मिठास में बदलने की क़वायद करते रहे। 
जब तक किताब नहीं छपी थी अपनी, ज़िंदगी में सिर्फ़ ढाई कप चाय पी थी। पहली बार कॉलेज से एजूकेशनल ट्रिप पर कोलकाता गयी थी...वहाँ टाटा के ऑफ़िस में उन्होंने कुछ समझाते हुए सारी लड़कियों के लिए चाय भिजवायी थी। आधी कप वो, कि ना कहने में ख़राब लगा और पीने में और भी ख़राब। दूसरा कप इक बार दिल्ली में एक दोस्त ने ज़िद करके बनायी, जाड़े के दिन हैं, खाँसी बुखार हो रखा है, मेरे हाथ की चाय पी, जानती हूँ तू चाय नहीं पीती है, मर नहीं जाएगी एक कप पी लेने से। तीसरा कप बार एक एक्स बॉयफ़्रेंड ने प्यार से पूछा, मैं चाय बहुत अच्छी बनाता हूँ, तू पिएगी? तो उसको मना नहीं किया गया। दिल्ली गयी किताब आने के बाद और वहाँ दोस्तों को चाय सिगरेट की आदत। मैं ना चाय पीती थी, ना सिगरेट। फिर प्रगति मैदान में लगे नेसकैफ़े के स्टॉल्ज़ से इलायची वाली चाय पी...इक तो किताबों और हिंदी का नशा और उसपर दोस्त। अच्छी लगी। 
अपने सबसे फ़ेवरिट लेखक के साथ एक सिगरेट पीने की इच्छा थी। उनसे गुज़ारिश की, आपके साथ एक सिगरेट पीने का मन है। उस एक गुज़ारिश के लिए आज भी ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाती हूँ। कि मुझे मालूम नहीं था उन्होंने कई साल से सिगरेट नहीं पी है। मैं कभी ऐसी चीज़ नहीं माँगती। वाक़ई कभी नहीं। इसके अगले दो साल मेरे लिए दिल्ली बुक फ़ेयर यानी ख़ुशी, चाय और सिगरेट हुआ करती थी। लोग मेरी तस्वीरें देख कर कहते, आप बैंगलोर में इतनी ख़ुश कभी नहीं होतीं। 
बैंगलोर आके फिर चाय पीना बंद। सिगरेट बहुत रेयर। पिछले साल कभी कभी चाय पीनी शुरू की। घर पर। अपने हाथ की चाय। फिर पता चला, पहली बार कि मैं वाक़ई बहुत अच्छी चाय बनाती हूँ और लोग जो कहते हैं तारीफ़ में, सच कहते हैं। मगर सिगरेट की तलब एकदम ख़त्म। 
हुआ कुछ यूँ भी कि पिछले साल जिन दोस्तों से मिली, वे सिगरेट नहीं पीते थे। उनके साथ रहते हुए, बहुत सालों बाद ऐसा लगा कि सिगरेट ज़रूरी नहीं है दो लोगों के बीच। कि इसके बिना भी होती हैं बातें। हँसते हैं हम। गुनगुनाते हैं। कि मेरे जैसे और भी लोग हैं दुनिया में जो कॉफ़ी के लिए कभी मना नहीं करेंगे लेकिन चाय देख कर रोनी शक्ल बनाएँगे। कि ज़हर नहीं, लेकिन नामुराद तो है ही चाय।
सिगरेट का कश लिए कितने दिन हुए, अब याद नहीं। शौक़ से विस्की पिए कितने दिन हुए, वो भी याद नहीं। ओल्ड मौंक तो पिछले साल की ही बात लगती है। दिल्ली के कोहरे में मिला के पी थी। 
तो मेरा मोह टूट रहा है...अब इसके बाद जाने क्या ही तोड़ने को जी चाहेगा। सुनो, तुम अपना दिल सम्हाल के रखना।
प्यार। बहुत।
***
छाया गांगुली गा रही हैं...'फ़र्ज़ करो, हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो, दीवाने हों'

'हम' दोनों, क्या हो सकते हैं...फ़र्ज़ करो...दीवाने ही होंगे। 

29 January, 2018

मिट्टी अत्तर का शहर होना

Have you ever had a longing for a city you never visited?
मुझे समझ नहीं आता कि प्यार कैसे होता है। किसी भी चीज़ से। आख़िर कैसे हो सकता है कोई शहर हूक जैसा?

कन्नौज के बारे में पहली बार कोई पाँच-छह साल पहले अख़बार में पढ़ा था। एक ऐसा शहर जहाँ मिट्टी अत्तर बनता है। इस शहर के बारे में, ख़ुशबुओं के बारे में कहानियाँ मुझ तक पहुँचती रहीं। तीन रोज़ इश्क़ में जो 'ख़ुशबुओं के सौदागर' की कहानी है, वो एक ऐसी तलाश है...कल्पना की ऐसी उड़ान है जो मैं भर नहीं सकती। ये वैसे सपने हैं जो मेरी कहानियों की दुनिया में देखती हूँ मैं। 

ख़ुशबुएँ मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। बचपन में ख़ुशबू वाले रबर बहुत दुर्लभ होते थे और सहेज के रखे जाते थे। मैं जब टू या थ्री में पढ़ती थी तो मेरे स्कूल के बग़ल के एक मैदान में स्पोर्ट्स डे होता था। वहाँ एक लगभग कटा हुआ पेड़ था। कुछ ऐसे गिरा हुआ कि उसपर बैठा जा सकता था। मैंने उसकी लकड़ी क्यूँ सूंघी मुझे मालूम नहीं। लेकिन उसमें एक ख़ुशबू थी। कुछ कुछ तारपीन के तेल की और कुछ ऐसी जो मुझे समझ नहीं आयी। उस पेड़ की लकड़ी का एक टुकड़ा मेरे पेंसिल बॉक्स में दसवीं तक हुआ करता था। मैं उसे निकाल के सूँघती थी और मुझे ऐसा लगता था कि मेरी पेंसिल और क़लम सब उसके जैसी महकती है। 

छह साल पहले टाइटन ने अपने पर्फ़्यूम लौंच किए थे। Titan Skinn। वो प्रोजेक्ट मैंने अपनी पिछली कम्पनी में किया था। लौंच के लिए पहले ख़ूब सी चीज़ें पढ़ी थीं।इत्र के बारे में। शायद, मुझे ठीक से याद नहीं...पर उन्हीं दिनों लैवेंडर के खेतों के बारे में पहली बार पढ़ा था। उस ख़ुशबू के ख़याल से नशा हो आया था।

मैं नहीं जानती मेरा उपन्यास कब पूरा होगा। लेकिन उसके पूरे होने के पहले कुछ शहर मेरी क़िस्मत में लिखे हैं। न्यू यॉर्क एक ऐसा शहर था। वहाँ की कुछ झलकियाँ कहानी में बस गयी हैं। अब जो दूसरा शहर चुभ रहा है आज सुबह से, वो कन्नौज है। मैंने उसका नाम इतरां क्यूँ रखा? इत्र से इतरां...जाने क्यूँ लगता है कि उसे समझने के लिए अपने देश में रहते हुए इत्र के इस शहर तक जाना ही होगा। 

आज थोड़ा सा पढ़ने की कोशिश की है शहर के बारे में। सुबह से कन्नौज के बारे में क्यूँ सोच रही थी पता नहीं। सुबह एक दोस्त से बात करते हुए कहा उसे कि जोधपुर गयी थी, वहाँ मिट्टी अत्तर देखा। क़िले में। मुझे एक बार जाना है वहाँ दुबारा। फिर वो कह रहा था कि कन्नौज में भी बनता है। कि कन्नौज उसके घर के पास है। आप मेरे साथ चलिए। और मैं सोच रही थी। कभी कभी। कि लड़का होती तो कितना आसान होता ना, ऐसे मूड होने पर किसी शहर चले जाना। जिस वीकेंड टिकट सस्ती होती, दिल्ली चल लेते या लखनऊ और फिर कन्नौज। पहली बार मैप्स में देखा कि कन्नौज कहाँ पर है। और सोचा। कि कितने दूर लगते है ये सारे शहर ही बैंगलोर से।

मेरे ख़यालों में उस शहर से उठती मिट्टी अत्तर की गंध उड़ रही है। बारिश में भीगती गंध। मैं पटना वीमेंस कॉलेज में जब पढ़ती थी तो माँ सालों भर मुझे छतरी रख के भेजती थी बैग में। कि ग़लती से भी कहीं बारिश में ना फँस जाऊँ। उस रोज़ मैं उस लड़के से मिली थी, कॉलेज का सेकंड हाफ़ बंक कर के। बचपन का दोस्त और फिर लौंग डिस्टन्स बॉयफ़्रेंड। जिसे मैंने समोसे के पैसे बचा बचा कर PCO से कॉल किए थे ख़ूब। पर मिली थी तीन साल में पहली बार।हम सड़क पर टहल रहे थे। बहुत बहुत देर तक। पहली बार उस दिन छाता लाना भूल गयी थी। मौसम अचानक से बदल गया था। एकदम ही बेमौसम बरसात। मैं बेहद घबरा गयी थी। भीग के जाऊँगी तो माँ डाँटेगी। भीगने से नहीं, डांट के डर से...मैं घबराहट में थरथरा रही थी। बचपन के बेफ़िकर दिनों के बाद मैं कभी बारिश में नहीं भीगी थी। कई कई कई सालों से नहीं। और बारिश ने मौक़ा देख कर धावा बोला था। मैं बड़बड़ कर रही थी। आज तो मम्मी बहुत डाँटेगी। अब क्या करेंगे। मैं सुन ही नहीं रही थी, लड़का कह क्या रहा है। उसने आख़िर मेरे काँधे पकड़े अपने दोनों हाथों से...मुझे हल्के झकझोरा और कहा...'पम्मी, ऊपर देखो'। मैंने चेहरा ऊपर उठाया। वो लगभग छह फ़ुट लम्बा था। उसका चेहरा दिखा। पानी में भीगा हुआ। बेहद ख़ूबसूरत और रूमानी। और फिर मैंने चेहरे पर बारिश महसूस की। पानी की बूँदों का गिरना महसूस किया। मैं भूल गयी थी कि चेहरे पर बारिश कैसी महसूस होती है। 

मैं कन्नौज नहीं। उस पहली बारिश को खोज रही हूँ। कि आज भी जब बारिश में भीगने चलती हूँ तो चेहरा बारिश की ओर करते हुए लगता है आँखों को उसकी आँखें थाम लेंगी। भीगी हुयी मुस्कुराती आँखें। काँधे पर उसके हाथों की पकड़। कि वो होगा साथ। मुझे झकज़ोर के महसूस कराता हुआ। 
कि बारिश और मुहब्बत में। भीगना चाहिए।
कि किसी गंध के पीछे बावली होकर कोई शहर चल देने का ख़्वाब बुनना भी ठीक है। कि ज़िंदगी कहानियों से ज़्यादा हसीन है। 


कन्नौज। सोचते हुए दिल धड़कता है। कि लगता है इतरां की कहानी का कोई हिस्सा उस शहर में मेरा इंतज़ार कर रहा है। कि जैसे बहुत साल पहले बर्न गयी थी और लगा था कि इस शहर से कोई रिश्ता है, बहुत जन्म पुराना। आज वैसे ही जब अपने दोस्त से बात कर रही थी तो लगा कि शहर जैसे अचानक से materialize कर गया है। कि अब तक यक़ीन नहीं था कि शहर है भी। मगर अब लगता है कि ऐसा शहर है जिसे महसूसा जा सकता है। कलाई पर रगड़ी जा सकती है जिसकी गंध। 

कि शहर लिख दिया है दुआओं में। कभी तो रिसीव्ड की मुहर लगेगी ही।
अस्तु।

24 January, 2018

क़िस्सों का एक कमरा

मैंने अपने जीवन में बहुत कम घर बदले हैं। देवघर के अपने घर में ग्यारह साल रही। पटना के घर में छह। और बैंगलोर के इस घर में दस साल हुए हैं। मुझे घर बदलने की आदत नहीं है। मुझे घर बदलना अच्छा नहीं लगता। मैं कुछ उन लोगों में से हूँ जिन्हें कुछ चीज़ें स्थायी चाहिए होती हैं। घर उनमें से एक है। देवघर में मेरा घर हमारा अपना था। पहले एक मंज़िल का, फिर दूसरी मंज़िल बनी। मेरे लिए बचपन अपने ख़ुद के घर में बीता। वहाँ की ख़ाली ज़मीन के पेड़ों से रिश्ता बनाते हुए। नीम का पेड़, शीशम के पेड़। मालती का पौधा, कामिनी का पौधा। रजनीगंधा की क्यारियाँ। कुएँ के पास की जगह में लगा हुआ पुदीना। वहीं साल में उग आता तरबूज़।

बैंगलोर में इस घर में जब आयी तो हमारे पास दो सूटकेस थे, एक में कपड़े और एक में किताबें। ये एक नोर्मल सा २bhk अपर्टमेंट है। पिछले कुछ सालों में इसके एक कमरे को मैंने स्टडी बना दिया है। यहाँ पर एक बड़ी सी टेबल है जिसपर वो किताबें हैं जो मैं इन दिनों पढ़ रही हूँ। इसके अलावा इस टेबल पर दुनिया भर से इकट्ठा की हुयी चीज़ें हैं। शिकागो से लाया हुआ जेली फ़िश वाला गुलाबी पेपरवेट। डैलस से ख़रीदी हुयी रेतघड़ी और एक दिल के आकार का चिकना, गुलाबी पत्थर। न्यू यॉर्क से लाया हुआ स्नोग्लोब। एक दोस्त का दिया हुआ छोटा सा विंडमिल। दिल्ली से लाए दो पोस्टर जिनमें लड़कियाँ पियानो और वाइयलिन बजा रही हैं। पुदुच्चेरी से लायी नटराज की एक छोटी सी धातु की मूर्ति। एक टेबल लैम्प, दो म्यूज़िक बॉक्स। कुछ इंक की बोतलें। स्टैम्प्स। पोस्ट्कार्ड्ज़। बोस का ब्लूटूथ स्पीकर। अक्सर सफ़ेद और पीले फूल...और बहुत सा...वग़ैरह वग़ैरह।

इस टेबल के बायें ओर खिड़की है जो पूरब में खुलती है। आसपास कोई ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए सुबह की धूप हमारी अपनी होती है। सूरज की दिशा के अनुसार धूप कभी टेबल तो कभी नीचे बिछे गद्दे पर गिरती रहती है। खिड़की से बाहर गली और गली के अंत में मुख्य सड़क दिखती है। बग़ल में एक मंदिर है। मंदिर से लगा हुआ कुंड। खिड़की पर मनीप्लांट है और ऊपर एक पौंडीचेरी से लायी हुयी विंडचाइम।

मैं सुबह से दोपहर तक यही रहती हूँ अधिकतर। लिखने और पढ़ने के लिए। दीवारों पर नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव के पोस्टर्ज़ हैं। एक बिल्ली का पोस्टर जो चुम्बक से लायी हूँ। एक बुलेटिन बोर्ड में दुनिया भर की चीज़ें हैं। न्यूयॉर्क का मैप। 'तीन रोज़ इश्क़' के विमोचन में पहना हुआ झुमका, जिसका दूसरा कहीं गिर गया। एक ब्रेसलेट जो ऑफ़िस से रिज़ाइन करने के बाद मेरे टीममेट्स ने मुझे दिया था, कुछ पोस्ट्कार्ड्ज़। कॉलेज की कुछ ख़ूबसूरत तस्वीरें। ज़मीन पर बिछा सिंगल गद्दा है जिसपर रंगबिरंगे कुशन हैं। एक फूलों वाली चादर है। ओढ़ने के लिए एक सफ़ेद में हल्के लाल फूलों वाली हल्की गरम चादर है। बैंगलोर में मौसम अक्सर हल्की ठंढ का होता है, तो चादर पैरों पर हमेशा ही रहती है। हारमोनियम और कमरे के  कोने में एक लम्बा सा पीली रोशनी वाला लैम्प है।

ये घर अब छोटा पड़ रहा है तो अब दूसरी जगह जाना होगा। मैं इस कमरे में दुनिया में सबसे ज़्यादा comfortable होती हूँ। ये कमरा पनाह है मेरी। मेरी अपनी जगह। मैं आज दोपहर इस कमरे में बैठी हूँ कि जिसे मैं प्यार से 'क़िस्साघर' कहती हूँ। किसी घर में दोनों समय धूप आए। साल के बारहों महीने हवा आए। बैंगलोर जैसे मेट्रो में मिलना मुश्किल है। फिर ऐसा कमरा कि धूप बायीं ओर से आए कि लिखने में आसान हो। एकदम ही मुश्किल। और फिर सब मिल भी जाएगा तो ऐसा तो नहीं होगा ना।

मुझे इस शहर में सिर्फ़ अपना ये कमरा अच्छा लगता है। जो दोस्त कहते हैं कि बैंगलोर आएँगे, उनको भी कहती हूँ। मेरे शहर में मेरी स्टडी के सिवा देखने को कुछ नहीं है। मगर वे दोस्त बैंगलोर आए नहीं कभी। अब आएँगे भी तो मेरे पढ़ने के कमरे में नहीं आएँगे। मैं आख़िरी कुछ दिन में उदास हूँ थोड़ी। सोच रही हूँ, एक अच्छा सा विडीओ बना लूँ कमसे कम। कि याद रहे।

हज़ारों ख़्वाहिशों में एक ये भी है। कभी किसी के साथ यहीं बैठ कर कुछ किताबों पर बतियाते। चाय पीते। दिखाते उसे कि ये अजायबघर बना रखा है। तुम्हें कैसा लगा।

एक दोस्त को एक बार विडीओ पर दिखा रही थी। कि देखो ये मेरी स्टडी ये खिड़की...जो भी... उसने कहा, आपका कमरा मेरे कमरे से ज़्यादा सुंदर है, तो पहली बार ध्यान गया कि इस कमरे को बनते बनते दस साल लगे हैं। कि इस कमरे ने एक उलझी हुयी लड़की को एक उलझी हुयी लेखिका बनाया है।

साल की पहली पोस्ट, इसी कमरे के नाम। और इस कमरे के नाम, बहुत सा प्यार।

और अभी यहाँ सोच रही हूँ...तुम आते तो...

31 December, 2017

साल 2017 - कच्चा हिसाब किताब

ज़िंदगी की भागदौड़ में साल गुम होते जाते हैं और एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल होता है। मेरे लिए लेकिन साल दो हज़ार एक मुकम्मल साल रहा। कुछ लोगों के कारण। एक शहर के कारण। निर्मल वर्मा के कारण। एक छोटे से ईश्वर के कारण। और सब में इस समझदारी के कारण कि छोटे छोटे सुखों को थाम कर ज़िंदगी के बड़े बड़े दुःख बर्दाश्त किए जा सकते हैं।

मेरी शादी का दशक पूरा हो गया। ज़िंदगी का एक तिहाई लगभग। छोटे बड़े झगड़ों के साथ, और छोटे बड़े झगड़ों के कारण हम दोनों के बीच का प्यार बढ़ता गया है, पागलपन भी। मैं अभी भी रोज़ सुबह उठती हूँ तो कई बार उसके सोते हुए चेहरे को ग़ौर से देखती हूँ...प्यार से...अरमान से...सुकून से...कि मैं इस लड़के से आज भी कितना कितना प्यार करती हूँ। कुणाल मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है। सबसे ख़ूबसूरत। उसे प्यार जताना छोटी छोटी चीज़ों में नहीं आता, लेकिन उसे कोई एक बड़ी सी गिफ़्ट देना आता है, कि जो साल भर चले। २०१६ में उसने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड ख़रीद दी। मेरी स्क्वाड्रन ब्लू की RC कॉपी मेरी वालेट में रहती है। मैं उसे दुनिया का सबसे छोटा लव लेटर कहती हूँ। इस साल मन उदासियों से भरता गया था। किसी चीज़ को लेकर कोई उत्साह नहीं रहा और कोई चाहत, कोई अरमान, कोई ख़्वाहिश नहीं। लेकिन न्यू यॉर्क जाने का मन था। वहाँ जा कर जैक्सन पौलक की पेंटिंग देखने का मन था। कुणाल ने मेरी दो दिन की न्यू यॉर्क की ट्रिप बुक कर दी। अकेले। कि उसे फ़ुर्सत नहीं थी, ऑफ़िस का काम था बहुत। ह्यूस्टन से न्यू यॉर्क तीन घंटे की फ़्लाइट थी लगभग। वक़्त इतना ही था कि म्यूज़ीयम औफ़ माडर्न आर्ट देख सकूँ और MET म्यूज़ीयम देख सकूँ। लेकिन ये एक छोटी ट्रिप उसकी ओर से तोहफ़ा थी...कि जिसकी रौशनी में सब खिला खिला सा लगे।

इस साल मैंने निर्मल वर्मा को पहली बार डिस्कवर किया। 'अंतिम अरण्य' से शुरू किया और सफ़र 'वे दिन', 'धुंध से उठती धुन', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत(आधी पढ़ी है अभी)' और गाहे बगाहे रोमियो जूलियट और अँधेरा पर रहा। निर्मल को पढ़ना एक सफ़र है। उनके लिखे में बहुत सी जगह रहती है कि जिसमें कोई पाठक जा के रह सकता है। हमारे जीवन में रिश्तों के नाम बहुत संकुचित शब्दों में रख दिए गए हैं, निर्मल हमारे लिए रिश्तों की नयी डिक्शनरी बनाते हैं। प्रेम और मित्रता से परे भी कुछ रिश्ते होते हैं, निर्मल के किरदारों को समझना, ख़ुद को समझना और ख़ुद को माफ़ करना है। अपराधबोध से मुक्त होना है। निर्मल को पढ़ना, रिश्तों की शिनाख्त करते हुए उन्हें बेनाम रहने देना है। 'वे दिन' को पढ़ते हुए फ़ीरोज़ी स्याही में अंडरलाइन करना है, 'छोटे छोटे सुख'। एक चिथड़ा सुख पढ़ते हुए किसी छूटे हुए बचपन के प्रेम को याद कर लेना है। आप निर्मल को पढ़ नहीं सकते, उनके प्रेम में पड़ सकते हैं बस। उनकी डायरी, 'धुंध से उठती धुन' को पढ़ते हुए ख़ुद को एक लेखक के तौर पर थोड़ा बेहतर समझ पायी। अपने लिखे में रखे हुए सच के छोटे छोटे टुकड़ों के लिए ख़ुद को माफ़ कर पायी। अपने किरदारों से, सच और कल्पना के बीच प्यार करने और उन्हें बिसरा देने और सहेज देने के बीच के बारीक जाल को बुनती रही। निर्मल आपको तलाश लेते हैं। मैंने पहले कई बार उन्हें पढ़ने की कोशिश की, पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। अब उन्हें पढ़ना एक ऐसे प्रेम में होना है जिसमें ग़लतियाँ करने से बिछोह नहीं मिलता है। 'धुंध से उठती' धुन का मेरे पास होना इस बात की राहत देता है कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छे लोग मेरे दोस्त हैं।

Good Morning New York. न्यू यॉर्क। ज़िंदगी में दो ही बार शहरों से प्यार हुआ है। पहली बार दिल्ली। और अब न्यू यॉर्क। बहुत साल पहले एक लड़के ने प्रॉमिस किया था, तुम न्यू यॉर्क आओ तो सही, तुम्हें इस शहर से प्यार हो जाए, ये मेरी ज़िम्मेदारी। ऐसे वादे लोग बेवजह करते नहीं। शहर में होता है कुछ ख़ास। कुछ शहरों में आत्मा होती है। जीती जागती। दिल होता है, धड़कता हुआ। सड़क के नीचे चलने वाली मेट्रो में थरथराता हुआ। मेरी ज़िंदगी में न्यू यॉर्क का आना किसी कहानी जैसा था। हज़ार प्लॉट ट्विस्ट्स के बीच मुकम्मल होता। मैं एयरपोर्ट से न्यू यॉर्क जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। Penn स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखता शहर था...कुछ कुछ पटना जैसा, पुल थे, हावड़ा जैसे...और प्यार हुआ था पहली नज़र का। दिल्ली जैसा ही एकदम। कि धक से लगा था जब पहली बार ही देखा था शहर को। कि मैं भूल गयी थी कि शहरों से भी प्यार हो सकता है। पेन स्टेशन के ठीक बाहर ही मेरा होटल था। पैदल चलते हुए देख रही थी शहर को आँख भर भर के। उसकी प्राचीनता, उसका नयापन...थोड़ी ठंढ और हल्की गरमी। कि शहर से बेवजह ही प्यार हो चुका था। कि मेरे लिए प्यार और पसंद में यही अंतर होता है। पसंद करने की वजहें होती हैं, प्यार की नहीं। मुझसे पूछो कि क्यूँ प्यार करती हो तुम न्यू यॉर्क से तो मेरे पास कोई वजह नहीं होगी। कोई भी वजह नहीं। दिल पर हाथ रखूँगी और कहूँगी, सुनो मेरे दिल की धड़कन...डीकोड कर लो। बस। मेरे पास शब्द नहीं हैं। वहाँ की इमारतें। उसका सब-वे सिस्टम। वहाँ खो जाना। म्यूज़ीयम में जैक्सन pollock को देखना। Monet को देखना, बिना जाने हुए कि वो है। टाइम्ज़ स्क्वेयर। सेंट्रल पार्क। फ़्लैटआयरन बिल्डिंग। ब्रॉडवे। राह चलते ख़रीद लेना एक स्कार्फ़, सिर्फ़ उस लम्हे की याद के लिए। लौटते हुए लिए आना एक चाँदी की अँगूठी, 'love' लिखा हो जिसमें। रख लेना उस पूरे पूरे शहर को दिल में पजेसिव होकर। नहीं भेजना एक भी पोस्टकार्ड किसी को भी। अकेले भटकना म्यूज़ीयम में। भर भर आँख नदी हो आना। बहना हज़ार रंगों में। हुए जाना। न्यू यॉर्क।

अभिषेक। किसी कहानी जैसा लड़का। कितना करता अपने शहर से प्यार। शहर की छोटी छोटी चीज़ों से। सेंट्रल स्टेशन की छत से। सड़कों से। पैदल चलने से। मैं चकित हुए जाती। उसे पता है कॉफ़ी पीने की सबसे अच्छी जगह। देखो, ये है 'Carnegie Hall', यहाँ पर सब बड़े बड़े लोग परफ़ॉर्म  करने आते हैं। मैं खड़ी देखती। कहती। ये हॉल नहीं है, सपना है। जब मैं यहाँ कहानी सुनाने आऊँगी, तो तुम आओगे सुनने? उसे कितने सालों से पढ़ रही हूँ। उसका लिखा हास्य पढ़ कर आँख नम हो जाती है। बैरीकूल और उसका वो मैथमैटिकल लव लेटर। याद आते हैं वे शुरुआती ब्लॉगिंग के दिन कि जब लगता नहीं था कि वर्चूअल दुनिया सच में कहीं एग्ज़िस्ट भी करती है। उन दिनों कहाँ कभी सोचा था कि अभिषेक से मिलेंगे भी तो न्यू यॉर्क में पहली बार। उसने कहा था बहुत साल पहले, एक नोवेल का प्लॉट देने वाला शहर है न्यू यॉर्क। ठीक डेढ़ दिन के समय में कहाँ जाएँ और कैसे, उसके होने से यक़ीन था कि भुतलाएँगे नहीं इस शहर में। उसने कहा था, 'भुलाना मुश्किल है इस शहर में', दरसल, 'भुलाना मुश्किल है उस शहर को' भी तो। बिना प्लान के अचानक आ जाना शहर और मिल जाना अचानक ही। ब्लॉगिंग के टाइम से जिन लोगों को पढ़ रहे हैं, कमोबेश सबसे मिलकर यही लगता है, उन दिनों हमने कहानियों में भी अपने होने का बहुत बहुत सच लिखा था। कि किसी से भी मिलना वैसा ही है जैसा हमने सोचा था उन्हें पढ़ कर। कि अभिषेक से मिलना आसान होना था। अच्छा होना था। अभिषेक से मिल कर लगता है एकदम अच्छा और भला होना भी कितना सुकूनदेह है। कि उसका बहुत उदार होना...kind होना...ज़िंदगी के प्रति एक भलेपन में विश्वास करना सिखाता है। उससे मिलना एक छोटा सा सुख है। अपने आप में मुकम्मल। शुक्रिया लड़के एक एकदम से भटक जाने वाली लड़की के लिए एक शहर आसान कर देने के लिए। तुम जब 'वे दिन' पढ़ोगे, जब जानोगे, एक छोटा सुख क्या होता है। कभी तो पढ़ोगे ही। अगली बार कभी मिलेंगे तो फ़ुर्सत से मिलेंगे। बातों की फ़ुर्सत रखेंगे। इस बार तो भागते शहर को बस थोड़ा सा ही देख सके। अगली बार...फिर कभी...

इस साल मैंने एक और चीज़ सीखी। जो मन में आए वो किए जाना। अफ़सोस के कमरे ढहा देना। एक एकदम ही अजनबी लड़के से मिली, शिव टंडन। एक रैंडम सी शाम, बहुत सी बातें। कॉफ़ी। कुछ ग़ज़लें और कितनी अचरज भरी कहानियाँ कि जितनी ज़िंदगी में ही हो सकती हैं। हम किसी अजनबी से मिल कर कितना मुकम्मल सा महसूस कर सकते हैं। कि शहर कैसे थोड़ा कम पराया लगने लगता है, अपना शहर बैंगलोर ही। इसलिए कि अपरिचित होते हुए भी किसी से को कनेक्ट महसूस होने पर अपने मन को डांट धोप के शांत नहीं कराया, उसके नाम एक शाम लिखी। ये बहुत सुंदर था। बहुत।

इसी तरह लीवायज़ में जींस ख़रीदने गयी थी और जींस फ़िट ना होने का रोना रो रही थी, वहीं पर खड़ी एक और लड़की से ही। फिर बात होते होते पहुँची UX डिज़ाइन पर। पता चला वो IIT गुवाहाटी में डिज़ाइन पढ़ाती है। whatsapp पर वहाँ के प्लेस्मेंट सेल के बंदे का नम्बर दिया उसने तो मैंने देखा कि वो रॉयल एनफ़ील्ड चलाती है...अचरज कि ऐसे रैंडम भी कोई मिलता है क्या जिससे इतनी चीज़ें कॉमन लगें। फिर हमने whatsapp पर कई बार कितनी कितनी तो बातें कीं और पाया कि हम ग़ज़ब अच्छी तरह से समझते हैं एक दूसरे को। उसके लिखे हुए में मुझे कोई चीज़ बाँधती है। शीतल नाम है उसका और ये लगता है कि हम गाहे बगाहे जुड़े रहेंगे एक दूसरे से।

कि इस साल से मैंने मानना शुरू किया है कि दुनिया एक काइंड जगह है और लोग अच्छे हैं और जादू होता है। साल की शुरुआत में मैंने पूजा शुरू की। मैंने पिछले लगभग नौ सालों से कभी पूजा नहीं की थी। अब एक छोटे से ईश्वर के सामने सर झुकाने से लगता है जैसे कोई ठहार मिल गया हो। जैसे शिकायत करने को कोई जगह हो जहाँ देर सेवर सुनवायी होगी। कि मन अब भी उदास होता है, दुखी होता है, लेकिन अशांत नहीं होता। कि मैं बहुत हद तक सुलझती गयी हूँ। शांत होती गयी हूँ। जिसने कई कई साल ज़िंदगी के उलझन में काटे हैं, उसके लिए ये छोटा सा सुख भी बहुत बड़ा है।

इस साल मैंने अपनी सोलो स्टोरीटेलिंग की शुरुआत की। नाम रखा, छूमंतर। मेरी पहली स्टोरीटेलिंग में क़रीबन पचास लोग आए थे। एक एकदम नए नाम के लिए ये एक तरह का रेकर्ड था। इससे बहुत उम्मीद पुख़्ता हुयी। ख़ुद पर यक़ीन आया कि मैं कहानी सुना सकती हूँ। बाद के सेशन में लोग बहुत कम आए लेकिन ऑडीयन्स के साथ कमाल का जुड़ाव रहा। पिछली स्टोरीटेलिंग में ऑडीयन्स भर भर आँख थी...जैसे मेरा दिल भर आया था, वैसे ही। मैंने जाना कि तालियों का शोर ही नहीं, गहरी चुप्पी भी देर तक याद रहती है।

इसी साल दैनिक जागरण ने नीलसन से हिंदी किताबों के बेस्ट-सेलर के लिए सर्वे कराया। इसके पहले लिस्ट में मेरी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' सातवें नम्बर पर रही। ये मेरे लिए अचरज भरी बात थी। मैंने किताब का बहुत कम प्रमोशन किया था और मेरे प्रकाशक पेंग्विन ने तो एकदम न के बराबर। सिर्फ़ वर्ड औफ़ माउथ पर किताब इतने लोगों ने ख़रीद कर पढ़ी ये मेरे लिए जादू जैसा था कि हमने कम्यूनिकेशन में पढ़ा था इस फ़ेनॉमना के बारे में। मेरी किताब के बारे में हमेशा दोस्तों ने कहा है कि तुम कुछ आसान लिखो, तुम्हारी किताब क्लिष्ट है। लोगों को समझ नहीं आएगी। पर मुझे पढ़ने वालों का एक अपना वर्ग रहा जिन्हें किताब इतनी पसंद आयी कि वे किताब को आगे बढ़ाते गए। पाठकों का इतना प्यार मेरे लिए बहुत बड़ी राहत है। कि मुझे जो कहानियाँ सुनानी हैं, वे सुनाऊँ, पढ़ने वाले लोग ख़ुद मिल जाएँगे किताब को। तो साल के अंत में, तीन रोज़ इश्क़ के सभी पाठकों को बहुत बहुत प्यार और शुक्रिया।

साल का आख़िरी और सबसे ज़रूरी शुक्रिया मेरी बेस्ट फ़्रेंड स्मृति के नाम। कि मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ वो मुझे बहुत प्यार करती है। मेरे गुनाहों के साथ। मेरी बेवक़ूफ़ियों और पागलपन के साथ। मेरे सही ग़लत की उलझनों के साथ और बावजूद भी। बिना शर्तों के प्यार। बिना किसी अंतिम मियाद के। बहुत कम लोग इतने ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि जिनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई एक शख़्स भी हो जो उन्हें पूरी तरह प्यार कर सके। उसका होना मेरे पागल ना होने की वजह है। वो मुझे सम्हाल लेती है। वो मुझे बचा लेती है। हर बार।

ज़िंदगी और ईश्वर का शुक्रिया। इतना उदार होने के लिए। और उन छोटे छोटे सुखों के लिए कि जिनकी याद को थामे काट ली जा सकती है दुःख की लम्बी, काली रात भी।

सितम्बर। तुम्हारे होने का शुक्रिया। कि जाने कितने अगले सालों तक कोई पूछेगा कि तुम ख़ुश कब थी, पूरी पूरी...तो मैं सुख से भर भर आँख भरे...नदी की तरह छलछलाती...प्रेम में होती हुयी कहूँगी...सितम्बर २०१७ में।

आख़िर में, बस इतना...


***



ज़िंदगी
बस इतना करम रखना
कि कोई पूछे कभी
‘तुम किस चीज़ की बनी हो, लड़की?’
तो चूम सकूँ उसका माथा, और कह सकूँ
‘प्यार की’

09 December, 2017

धूप में छप-छप नहाता दिल के आकार के पत्तों वाला पौधा - प्यार

"दो दिन में तुम क्या सब-कुछ जान सकते हो?" फिर कुछ देर बाद हँसकर उसने मेरी ओर देखा, "यही अजीब है।" उसने कहा, "हम एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं!"
"मैंने कभी सोचा नहीं..."
"मैंने भी नहीं..." उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, "इससे पहले मुझे या ख़याल भी नहीं आया था।"
"तुम्हें यह बुरा लगता है...इतना कम जानना...!"
"नहीं..." उसने कहा, "मुझे यह कम भी ज़्यादा लगता है..." वह मीता के बालों से खेलने लगी थी। 
"हम उतना ही जानते हैं, जितना ठीक है।" कुछ देर बाद उसने कहा।
"मैं यह नहीं मानता।"
"यह सच है..." उसने कहा, "तुम अभी नहीं मानोगे...पहले हम नहीं सोचते...बाद में, इट इज़ जस्ट मिज़री..."
उसका स्वर भर्रा सा-सा आया। मैंने उसकी ओर नहीं देखा। मिज़री...मुझे लगा जैसे यह शब्द मैंने पहली बार सुना है। 
"तुम विश्वास करते हो?"
"विश्वास...किस पर?" मैंने तनिक विस्मय से उसकी ओर देखा।
"वे सब चीज़ें...जो नहीं हैं।"
"मैं समझा नहीं।"
वह हँसने लगी।
"वे सब चीज़ें जो हैं...लेकिन जिनसे हमें आशा नहीं रखनी चाहिए...।"
उसका सवार इतना धीमा था कि मुझे लगा जैसे वह अपने-आप से कुछ कह रही है...मैं वहाँ नहीं हूँ।
धुंध उड़ रही थी। हवा से नंगी टहनियाँ बार-बार सिहर उठती थीं। कहीं दूर नदी पर बर्फ़ टूट जाती थी और बहते पानी का ऊनींदा-सा स्वर जाग उठता था।

- वे दिन ॰ निर्मल वर्मा 

***
इस साल के अंत में कुछ ऐसा हुआ कि पोलैंड जाने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया।क्रैको से प्राग सिर्फ़ तीन सौ किलोमीटर के आसपास है। मैं सर्दियों में प्राग देखना चाहती हूँ। कैसल। नदी। ठंढ। मैं अपनी कहानियों में उस शहर में तुम्हारे लिए कुछ शब्द छोड़ आती हूँ। तुम फिर कई साल बाद जाते हो वहाँ। उन शब्दों को छू कर देखते हो। और मेरी कहानी को पूरा करने को उसका आख़िरी चैप्टर लिखते हो। 

साल की पहली बर्फ़ गिरने को उतने ही कौतुहल से देखते होंगे लोग? जिन शहरों में हर साल बर्फ़ पड़ती है वहाँ भी? क्या ठंढे मौसम की आदत हो जाती है? मैं क्यूँ करती हूँ उस शहर से इतना प्यार?

मैंने बर्फ़ सिर्फ़ पहाड़ों पर देखी है। समतल ज़मीन पर कभी नहीं। शहरों में गिरती बर्फ़ तो कभी भी नहीं। पहाड़ों पर यूँ भी हमें बर्फ़ देखने की आदत होती है। घुटनों भर बर्फ़ में चलना वो भी कम ऑक्सिजन वाली पहाड़ी हवा में, बेहद थका देने वाला होता है। मुझे याद है उस बेतरह थकान और अटकी हुयी साँस के बाद पीना हॉट चोक्लेट विथ व्हिस्की। वो गर्माहट का बदन में लौटना। साँस तरतीब से आना। वहाँ रेस्ट्रॉंट में कई सारे वृद्ध थे। जो बाहर जाने की स्थिति में नहीं थे। उनके परिवार के युवा बाहर बर्फ़ में खेल रहे थे। मैंने वहाँ पहली बार इतनी बर्फ़ देखी थी। स्विट्सर्लंड में। zermatt और zungfrau।

शायद मुझे जितना ख़ुद के बारे में लगता है, उससे ज़्यादा पसंद है ठंढ। दिल्ली की भी सर्दियाँ ही अच्छी लगती हैं मुझे। फिर पिछले कई सालों में दिल्ली गयी कहाँ हूँ किसी और मौसम में। 

कल पापा से बात करते हुए उनसे या ख़ुद से ही पूछ रही थी। हमें कोई शहर क्यूँ अच्छा लगता है। आख़िर क्या है कि प्यार हो जाता है उस शहर से। मुझे ये बात याद ही नहीं थी कि न्यू यॉर्क समंदर किनारे है। या नदी है उधर। पता नहीं कैसे। मैं वहाँ सिर्फ़ म्यूज़ीयम देखने गयी थी। मेट्रो से अपने होटेल इसलिए गयी कि मेट्रो और टैक्सी में बराबर वक़्त लगेगा। ये तो भूल ही गयी कि टैक्सी से जाने में शहर दिखेगा भी तो। जब कि अक्सर तुमसे बात होती रही तुम्हारे शहर के बारे में।फिर वो सारा कुछ किसी काल्पनिक कहानी का हिस्सा क्यूँ लगता रहा?

किताबों और शहरों से मुझे प्यार हो जाता है। धुंध से उठती धुन की एक कॉपी लानी है मुझे तुम्हारे लिए। पता नहीं कैसे। फिर उस कॉपी को तुम्हें देने के लिए मिलेंगे किसी शहर में। जैसे 'वे दिन' के साथ हुआ था। कुछ थ्योरीज कहती हैं कि हर चीज़ में जान होती है। पत्थर भी सोचते हैं। किताबें भी। तो फिर तुम्हारे पास रखी हुयी इस किताब के दिल में क्या क्या ना ख़याल आता होगा?

कुछ किताबें होती हैं ना, पढ़ने के बाद हम उन्हें अपने पसंदीदा लोगों को पढ़ा देने के लिए छटपटा जाते हैं। कि हमसे अकेले इतना सुख नहीं सम्हलता। हमें लगता है इसमें उन सबका हिस्सा है, जिनका हममें हिस्सा है। जो हमारे दुःख में हमें उबार लेते हैं, वे हमारे सुख में थोड़ा बौरा तो लें। 

वे दिन ऑनलाइन मंगाने के पहले सोचा था तुमसे पूछ लूँ, तुमने नहीं पढ़ी है तो एक तुम्हारे लिए भी मँगवा लेंगे। फिर तुमने सवाल देखा नहीं तो मैंने दो कॉपी ऑर्डर कर दी थी। कि अगर अच्छी लगी तो तुम्हें भी भिजवा दूँगी। इस साल कैसी कैसी चीज़ें सच होती गयीं कि पूरा साल ही सपना लगता है। कितनी सुंदर थी ज़िंदगी। कितनी सुंदर है। अपने दुःख के बावजूद। अपने छोटे छोटे सुख में बड़े बड़े दुखों को बस थोड़ी सी शिकन के साथ जी जाती हुयी। शिकायत नहीं करती हुयी। 

मुझे ट्रैंज़िट वाली चीज़ें बहुत अच्छी लगती हैं। ये सोचना कि कोई पोस्टकार्ड नहीं होगा। किसी ने उसे उठाया होगा और मेल में अलग रखा होगा, सॉर्ट किया होगा शहरों के हिसाब से। कितने लोगों के हाथों से गुज़रा होगा काग़ज़ का एक टुकड़ा, तुम्हारे हाथों तक पहुँचने के पहले। एक दोस्त को कुछ किताबें भेजी हैं। वे उसके शहर के पोस्ट ऑफ़िस के लिए बैग कर दी गयी हैं। मैं अभी से उसके चेहरे के हाव-भाव सोच कर मुस्कुरा रही हूँ। क्या उसे अच्छा लगेगा? क्या वो नाराज़ होगा? क्या मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्मी हूँ?

इतना पता है कि मुझे ज़िंदगी को थोड़ा और ख़ूबसूरत बनाना अच्छा लगता है। दो तरह के लोग होते हैं, एक वे, जो दुनिया को वही लौटाते हैं जो दुनिया ने उन्हें दिया...एक वो जो दुनिया को वो लौटाते हैं जो वे ख़ुद चाहते रहे हैं हमेशा। मैं दूसरी क़िस्म की हूँ। मुझे अच्छा लगता है ये सोच कर कि कोई मेरे लिए फूल ख़रीदेगा। मुझे वो सजीले गुलदस्ते उतने पसंद नहीं, लेकिन ज़रबेरा, लिली, और कभी कभी कार्नेशन अच्छे लगते हैं। मैं अपने दोस्तों के लिए अक्सर फूल ख़रीद कर ले जाती हूँ। कि उन्हें अच्छा लगता है। मैं कोई कुरियर भेजती हूँ तो सुंदर पैकिजिंग करती हूँ। चिट्ठियाँ लिखने के लिए सुंदर काग़ज़ दुनिया भर से खोज कर लाती हूँ। मुझे ये सोच कर अच्छा लगता है कि मैंने किसी को कुछ भेजा तो रैंडम नहीं भेजा...कुछ ख़ास भेजा। कुछ प्यार से भेजा। कुछ ऐसा भेजा जो देख कर कोई मुस्कुराए। कि किसी को चिट्ठी लिखना इतना ख़ास क्यूँ है मालूम? कि इस भागदौड़ की मल्टी-टास्किंग दुनिया में कोई घंटों आपके बारे में सोचता रहा और काग़ज़ पर उतरता रहा क़रीने से शब्द... सलीक़े वाली अपनी बेस्ट हैंडराइटिंग में। 

और तुम्हें पता है। बहुत सालों में एक तुम्हीं हो, जिसे कहा है, एक चिट्ठी लिखना मुझे। चिट्ठी। 'वे दिन' में रायना कहती है, वे चीज़ें जो हैं तो, लेकिन उनसे आशा नहीं रखनी चाहिए। सबके पास फ़ुर्सत का अभाव है। समय बहुत क़ीमती है। उसमें भी व्यस्त लोगों का समय। लेकिन फिर भी। मैं तुमसे इतनी सी चाह रखती हूँ कि तुम मुझे एक चिट्ठी लिखोगे कभी। 

तुमने किसी को आख़िरी बार हैप्पी बर्थ्डे वाला कार्ड कब दिया था? या नए साल पर? मेरा मन कर रहा है कि बचपन की तरह काग़ज़, स्केच पेन, ग्लिटर, स्टिकर और रंग बिरंगी चिमकियाँ ख़रीद कर लाऊँ और एक कार्ड बनाऊँ तुम्हारे लिए। शायद मेरे पास कुछ अच्छे शब्द हों तुम्हारे नाम लिखने को। पता है, मैं और मेरा भाई अपने स्कूल टाइम तक अपने स्कूल फ़्रेंड्ज़ को नए साल पर कार्ड देते थे। फिर हर नए साल की सुबह दोनों अपने अपने कार्ड जोड़ते थे कि किसको ज़्यादा कार्ड मिले। फिर उन कार्ड्ज़ को डाइऐगनली स्टेपल कर के हैंगिंग सा बनते थे और कमरे की दीवार पर चिपका देते थे। मुझे वे दिन याद आते हैं। तुम मुझे मेरा बचपन बहुत याद दिलाते हो। जैसे कि पता नहीं कोई दूर दराज़ के रिश्ते में लगते हो कुछ, ऐसा। कि हमारे बचपन का कोई हिस्सा जुड़ना चाहिए कहीं। या कि हम किसी शादी में मिलें अचानक और कोई नानी बात करते करते बतला दे, अरे ऊ घोड़ीकित्ता वाली तुमरे पापा की फुआ है ना...उसी के दामाद के साढ़ू का बेटा है...ऐसे कोई तो उलझे रिश्ते जो इमैजिन करने में कपार दुखा जाए। 

हमको भागलपुरी बोलना आज तक नहीं आया ढंग से लेकिन ठीक ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे एक समय में। संगत का असर। फिर कुछ लोग डाँटे कम, प्यार से बात ज़्यादा किए। फिर कितने नए शब्द होते हैं हमारे बीच। Kenopsia. Moment of tangency. Caramel। हर शब्द में एक कहानी। 

मैंने ज़िंदगी जितनी सच में जी है, उससे कहीं ज़्यादा याद में और कल्पना में जी है। सपने में और पागलपन में भी। मगर कितनी सारी चीज़ें जो कहीं नहीं हैं, ऐसे मेरे शब्दों में रहती हैं। कितने चैन से। कितने इत्मीनान से। 
तुम भी तो। 

ढेर सारा प्यार। 
लो आज मेरे शहर का पूरा आसमान तुम्हारे नाम। इसके सारे रंग तुम्हारे। बादलों में बनते सारे हसीन नज़ारे और नीले रंग में मुस्कुराता आसमान, सूरज, चाँद सब। 
***






एक मुस्कुराता पौधा 
जिसके दिल की आकृति वाले पत्ते 
धूप में छप-छप करते 
खिड़की पर नहा रहे हैं

ऐसे ही सुख से
मेरे दिल को सजाता है
तुम्हारा प्यार

07 December, 2017

तुम मेरे प्राण में बसे हो

कुछ चीज़ें मुझे हिंदी में ही समझ आती हैं। मैं इनका ठीक ठीक मतलब समझा नहीं सकती हूँ किसी को। मन। प्राण। आत्मा। ये सब अलग अलग हैं। ये कहाँ हैं मालूम नहीं। लेकिन प्यार होता है तो कुछ है जो सबको एक ही रंग में रंग देता है।
फ़िल्म The Grandmaster में आख़िर अलविदा में वो उसे बता रही है कि कैसे सालों साल उसने उसे याद रखा है। वे मिल नहीं पाए और अब ज़िंदगी ख़त्म हो रही है। फ़िल्म मैंडरिन में है। उसके डाइयलॉग्ज़ के सब्टायटल्ज़ के दो वर्ज़न हैं। उसमें एक में वो कहती है "i really cared about you" दूसरे वर्ज़न में कहती है, "you are in my heart of hearts". भाषा नहीं समझ आती है, लेकिन वो सर झुकाए बताती जा रही है कई बातें और आख़िर में मिस्टर इप की आँखों में देख कर इतना सा ही कहती है तो कैसे तो कुछ अंदर तक टूट जाता है और हिंदी में एक ही पंक्ति आती है उसके लिए। 'तुम मेरे प्राण में बसे हो'। 
तुम्हें कैसे बताऊँ कैसा होता है ये सोच सोच कर बिखरना कि जिस किसी से एक बार मिले हैं, उससे शायद ज़िंदगी में दुबारा कभी ना मिलें। मतलब कभी भी नहीं। अनुपम ने मुझे Bisociation सिखाया था और उसकी ख़ूब प्रैक्टिस भी करायी थी। शायद इसलिए आज भी मैं सबसे ज़्यादा इसी का इस्तेमाल करती हूँ। इसका अर्थ है कोई दो एकदम अलग चीज़ों के बीच में कोई सम्बंध निकालना। मेटाफ़र बनाना। और लिखना। जैसे कि रंग नीला और बिल्ली। मैं पिछले कुछ दिनों में कहानियों से गुज़री हूँ। अपनी स्टोरीटेलिंग में मैंने 'ख़ुशबुओं का सौदागर' कहानी सुनायी। इसमें वो सौदागर एक लड़की की गंध तलाश रहा होता है, गंध जो उसके बालों से उड़ती है...इतरां की कहानी ऐसी जगह ठहरी है जब वो उस लड़के से सिर्फ़ एक ही बार मिली होती है कुलधरा में और फिर उसे तलाशती रहती है पूरी दुनिया में। इस डर को जीते हुए कि शायद वे फिर कभी ना मिलें। 
लिखते हुए वो डर एक शब्द था जो मुझे मालूम नहीं था। जीते हुए वो शब्द एक नाम हो गया है। तुम्हारा। मेरे बालों में तुम्हारे हाथों की उलझन रह गयी है। फिर पिछले कुछ दिनों में बनारस का गाना सुना...बनारसिया...फिर पापा बनारस गए और बताए कि बनारस में दीवाली देरी से मनायी जाती है, कि वे नाव से घाटों पर जले हुए असंख्य दिये देख रहे हैं और ये बहुत सुंदर है। 
बनारस में मरने वालों को मोक्ष मिल जाता है। लोग वहाँ अपनी आख़िरी साँस लेने के लिए जाते हैं। मेरे मन में बहुत धुँधली सी याद है बनारस की। गंगा के पानी की। गलियों की। और पान की। बहुत साल पहले एक लड़के से प्यार था बहुत। उन दिनों बस इतना शौक़ था कि मैं जब मरती रहूँ तो वो पास रहे। मुझे उसके साथ ज़िंदगी का कोई भी हिस्सा जीने का कोई शौक़ नहीं था। वो लड़का कहता है हमारे बीच जो था उसको प्यार नहीं कहते हैं। कि उसको मुझसे प्यार नहीं था कभी। मैं उसको समझाती हूँ। कि इतना ही होता है प्यार। इसी को कहते हैं। 
मुझे जाने क्यूँ इस दुनिया का कोई शहर ऐसा नहीं लगा जहाँ तुम मुझसे मिल सको। या तो मैं कोई एक नया शहर देख आऊँ या रच दूँ एक नया शहर तुमसे मिलने को। कल जाने क्यूँ लगा कि हमें बनारस में मिलना चाहिए। 
इस दुनिया से अलग मेरा वो कौन सा हिस्सा है जो तुम्हारा हो गया है। मेरी आत्मा के कौन से धागे तुमसे जा उलझे हैं? मन। प्राण। आत्मा। में कैसे बस जाता है कोई। 
तुम कौन हो जो मेरी आत्मा में रहते हो? मैंने अपने जीवन में कभी ऐसा प्यार किया हो मुझे याद नहीं आता। ये कौन सा रंग है जो मेरी उँगलियों से झरता है। कौन सी नदी मेरी अंजलि से निकलती है। मेरे अंचल में बंधी तुम्हारे नाम की कौन सा मन्नत है। ये कौन सा दुःख मोल लिया है मैंने। 
तुम्हें मालूम है, मेरा उपन्यास अधूरा क्यूँ पड़ा है? क्यूँकि इतरां के जिस प्रेमी से उसे प्रेम होना था, उससे मुझे भी प्यार है...बहुत गहरा। और मैं उसका दिल तोड़ने से डरती हूँ। मृत्यु से भी। और जाने क्या सोच कर मैंने तुम्हारा नाम रखा, मोक्ष। 
कि मेरी जान, आह मेरी जान, जीते जी मोक्ष नहीं मिलता। 
प्यार। बहुत।

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...