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17 November, 2023

Emotional anaesthesia

एक हफ़्ते पहले डेंटिस्ट के पास गयी थी। डेंटल सिरदर्द पूरी उमर चलता रहा है। बहुत कम वक्त हुआ है कि दांतों में कोई दिक्कत न रही हो और दोनों ओर से ठीक-ठीक चबा कर खाना खा सकें। कैविटी थी बहुत सारी, इधर उधर, ऊपर नीचे…ग़ालिब की तरह, एक जगह हो तो बताएँ कि इधर होता है।

डेंटिस्ट ने पूछा, अनेस्थेसिया का इंजेक्शन देना है कि नहीं। तो हम बोले, कि ऑब्वीयस्ली देना है। कोई बिना अनेस्थेसिया के इंजेक्शन के क्यूँ ये काम कराएगा, क्या कुछ लोगों को दर्द अच्छा लगता है? इसपर डेंटिस्ट ने कहा, कभी कभी दर्द बहुत ज़्यादा नहीं होता है, बर्दाश्त करने लायक़ होता है।
अब ये बर्दाश्त तो हर व्यक्ति का अलग अलग होता है, सो होता ही है। मुझे ये भी महसूस हुआ कि उमर के अलग अलग पड़ाव पर हमारे दर्द सहने की क्षमता काफ़ी घटती-बढ़ती रहती है। 2018 में महीनों तक मुझे घुटनों में बहुत तेज़ दर्द रहा था। रात भर चीखते चीखते आख़िर को चुप हो गयी थी, तब लगा था, इससे ज़्यादा दर्द हो ही नहीं सकता। फिर 2019 में बच्चे हुए। सिज़ेरियन एक बड़ा ऑपरेशन होता है, उसमें भी मेरे जुड़वाँ बच्चे थे। जब तक ख़ुद के शरीर में ना हो, कुछ चीज़ें सेकंड हैंड एक्स्पिरीयन्स से नहीं समझ सकते। जब पेनकिलर का असर उतरा था, तो लगा था जान निकल जाएगी, ये भी लगा था, इतना दर्द होता है, फिर भी कोई औरत दूसरा बच्चा पैदा करने को सोचती भी कैसे है। यह सोचने के दो दिन बाद मेरी दूसरी बेटी NICU, यानी कि Neonatal ICU से निकल कर आयी थी और पहली बार दोनों बेटियों को एक साथ देखा, तो लगा, यह ख़ुशी एक अनेस्थेसिया है। इस ख़ुशी की याद से शायद हिम्मत आती होगी। डिलिवरी के ठीक एक हफ़्ता बाद हम पूरी तरह भूल गए थे कि कितना दर्द था। मेरी दर्द को याद रखने की क्षमता बहुत कम है। जल्दी भूल जाती हूँ।
बचपन में डेंटिस्ट के यहाँ जाते थे तब ये पेनकिलर इंजेक्शन नहीं बना था। अब तो पेनकिलर इंजेक्शन के अलावा नमबिंग जेल होता है, जिसके लगाने पर इंजेक्शन देने की जगह भी दर्द नहीं होता। दांत साफ़ करने की मशीन की झिर्र झिर्र मुझे दुनिया की सबसे ख़तरनाक आवाज़ लगती है, जिसे सुन के ही उस दर्द की याद आती है और सिहरन होती है।
यहाँ मैं डेंटिस्ट की कुर्सी पर बैठी हूँ, और मैं ही हूँ जो डेंटिस्ट से कह रही हूँ कि बिना अनेस्थेसिया कर के देखते हैं, कहाँ तक दर्द बर्दाश्त हो सकता है।
आँख के ऊपर तेज़ रोशनी होती है। तो आँखें ज़ोर से भींच के बंद करती हूँ। कुर्सी के हत्थों पर हाथ जितनी ज़ोर से हो सके, पकड़ती हूँ। साँस गहरी-गहरी लेती हूँ। डॉक्टर कहता है, रिलैक्स।
बिना ऐनेस्थेटिक। जिसको हम मन का happy place कहते हैं। ज़ोर से आँख भींचने पर दिखता है। साँस को एक लय में थिर रखती हूँ। Emotional anaesthesia.
मन सीधे एक नए शहर तक पहुँचता है, धूप जैसा। Can a hug feel like sunshine? Filling me with warmth, light and hope? अलविदा का लम्हा याद आता है। क्यूँ आता है? किसी को मिलने का पहला लम्हा क्यूँ नहीं आता? या कि आता है। धुँधला। किसी को दूर से देखना। घास के मैदान और मेले के शोरगुल और लोगों के बीच कहीं। सब कुछ ठहर जाना। जैसे कोई आपका हाथ पकड़ता है और वक़्त को कहता है, रुको। और वक़्त, रुक जाता है।
I float in that hug. Weightless. आख़िरी बार जब दो घंटे के MRI में मशीन के भीतर थी, तब भी यहीं थी। कि अपरिभाषित प्रेम से भी बढ़ कर होता है?
मुझे टेक्स्चर याद रह जाता है। रंग भी। कपास। लिनेन। नीला, काला, हल्का हरा। छूटी हुयी स्मृति है, कहती है किसी से, तुम्हारी ये शर्ट बहुत पसंद है मुझे। ये मुझे दे दो। उसे भूल जाने के कितने साल बाद यह लिख रही हूँ और उसके पहने सारे सॉलिड कलर्ज़ वाले शर्ट्स याद आ रहे, एक के बाद एक।
दो फ़िल्में याद आती हैं, वौंग कार वाई की। Days of being wild और As tears go by. इन दोनों में मृत्यु के ठीक पहले, एक लड़का है जो एक लड़की को याद कर रहा है। डेज़ ओफ़ बीइंग वाइल्ड वाला लड़का गलती से गोली लगने से मर रहा है और उस लड़की को याद कर रहा है, जिसके साथ उसने थिर होकर एक मिनट को जिया था और वादा किया था कि मैं इस एक मिनट को और तुम्हें, ताउम्र याद रखूँगा। As tears go by के लड़के को एक फ़ोन बूथ में हड़बड़ी में चूमना याद रहता है। स्लो मोशन में यह फ़ुटेज उसे लगती हुयी गोलियों के साथ आँख में उभरता है। हम पाते हैं कि we are unconsolable. मृत्यु इतनी अचानक, अनायास आती है, हमें खुद को सम्हालने का वक़्त नहीं मिलता। ये दोनों लड़के बहुत कम उमर के हैं। जिस उमर में मुहब्बत होती है, इस तरह का बिछोह नहीं।
मन में शांत में उगते ये लम्हे कैसे होते हैं। धूप और रौशनी से भरे हुए। मैं याद में और पीछे लौटती हूँ, सोचती हुयी कि ये लोग, ये शहर, ये सड़कें, ये इतना सा आसमान नहीं होता तो कहाँ जाती मैं, फ़िज़िकल दुःख से भागने के लिए। इन लम्हों में इतनी ख़ुशी है कि आँख से बहती है। आँसू। डेंटिस्ट की कुर्सी है। अभी अभी मशीन झिर्र झिर्र कर रही है, लेकिन मैं बहुत दूर हूँ, इस दर्द से। इतनी ख़ुशी की जगह जहाँ मैं बहुत कम जाती हूँ। मेरे पास ख़ुशी चिल्लर सिक्कों की तरह है जो मैंने पॉकेट में रखी है। इसे खर्च नहीं करती, इन सिक्कों को छूना, इनका आकार, तापमान जाँच लेना, यक़ीन कर लेना कि ये हैं मेरे पास। मुझे खुश कर देता है।
कि भले ही बहुत साल पहले, लेकिन इतना सा सुख था जीवन में…इतना सांद्र, इतना कम, इतना गहरा…अजर…अनंत…असीम।
इमोशनल अनेस्थेसिया के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये होती है, कि इसका असर हटता है तो मन में इतना दुःख जमता है कि लगता है इससे अच्छा कोई फ़िज़िकल पेन बर्दाश्त कर लेते तो बेहतर होता। मन इधर से उधर डोलता है। जैसे ज़मीन हिल रही हो। थोड़ी थोड़ी।
डेंटिस्ट के यहाँ से लौटते हुए देखती हूँ कि वहाँ पारदर्शी शीशा है। और वहाँ की कुर्सी, वहाँ के डॉक्टर, किसी ऑल्टर्नट दुनिया की तरह लगते हैं। कि मैं अभी जहाँ से लौटी हूँ कि जबड़ा पूरा दर्द कर रहा है। लेकिन दिल पर ख़ुशी का जिरहबख़्तर है और वो बेतरह खुश है। कि बदन को कुछ भी हो जाए, मुहब्बत में डूबे इस दिल को कोई छू भी नहीं सकता।

31 December, 2017

साल 2017 - कच्चा हिसाब किताब

ज़िंदगी की भागदौड़ में साल गुम होते जाते हैं और एक को दूसरे से अलग करना मुश्किल होता है। मेरे लिए लेकिन साल दो हज़ार एक मुकम्मल साल रहा। कुछ लोगों के कारण। एक शहर के कारण। निर्मल वर्मा के कारण। एक छोटे से ईश्वर के कारण। और सब में इस समझदारी के कारण कि छोटे छोटे सुखों को थाम कर ज़िंदगी के बड़े बड़े दुःख बर्दाश्त किए जा सकते हैं।

मेरी शादी का दशक पूरा हो गया। ज़िंदगी का एक तिहाई लगभग। छोटे बड़े झगड़ों के साथ, और छोटे बड़े झगड़ों के कारण हम दोनों के बीच का प्यार बढ़ता गया है, पागलपन भी। मैं अभी भी रोज़ सुबह उठती हूँ तो कई बार उसके सोते हुए चेहरे को ग़ौर से देखती हूँ...प्यार से...अरमान से...सुकून से...कि मैं इस लड़के से आज भी कितना कितना प्यार करती हूँ। कुणाल मेरी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है। सबसे ख़ूबसूरत। उसे प्यार जताना छोटी छोटी चीज़ों में नहीं आता, लेकिन उसे कोई एक बड़ी सी गिफ़्ट देना आता है, कि जो साल भर चले। २०१६ में उसने मेरे लिए रॉयल एनफ़ील्ड ख़रीद दी। मेरी स्क्वाड्रन ब्लू की RC कॉपी मेरी वालेट में रहती है। मैं उसे दुनिया का सबसे छोटा लव लेटर कहती हूँ। इस साल मन उदासियों से भरता गया था। किसी चीज़ को लेकर कोई उत्साह नहीं रहा और कोई चाहत, कोई अरमान, कोई ख़्वाहिश नहीं। लेकिन न्यू यॉर्क जाने का मन था। वहाँ जा कर जैक्सन पौलक की पेंटिंग देखने का मन था। कुणाल ने मेरी दो दिन की न्यू यॉर्क की ट्रिप बुक कर दी। अकेले। कि उसे फ़ुर्सत नहीं थी, ऑफ़िस का काम था बहुत। ह्यूस्टन से न्यू यॉर्क तीन घंटे की फ़्लाइट थी लगभग। वक़्त इतना ही था कि म्यूज़ीयम औफ़ माडर्न आर्ट देख सकूँ और MET म्यूज़ीयम देख सकूँ। लेकिन ये एक छोटी ट्रिप उसकी ओर से तोहफ़ा थी...कि जिसकी रौशनी में सब खिला खिला सा लगे।

इस साल मैंने निर्मल वर्मा को पहली बार डिस्कवर किया। 'अंतिम अरण्य' से शुरू किया और सफ़र 'वे दिन', 'धुंध से उठती धुन', 'एक चिथड़ा सुख', 'लाल टीन की छत(आधी पढ़ी है अभी)' और गाहे बगाहे रोमियो जूलियट और अँधेरा पर रहा। निर्मल को पढ़ना एक सफ़र है। उनके लिखे में बहुत सी जगह रहती है कि जिसमें कोई पाठक जा के रह सकता है। हमारे जीवन में रिश्तों के नाम बहुत संकुचित शब्दों में रख दिए गए हैं, निर्मल हमारे लिए रिश्तों की नयी डिक्शनरी बनाते हैं। प्रेम और मित्रता से परे भी कुछ रिश्ते होते हैं, निर्मल के किरदारों को समझना, ख़ुद को समझना और ख़ुद को माफ़ करना है। अपराधबोध से मुक्त होना है। निर्मल को पढ़ना, रिश्तों की शिनाख्त करते हुए उन्हें बेनाम रहने देना है। 'वे दिन' को पढ़ते हुए फ़ीरोज़ी स्याही में अंडरलाइन करना है, 'छोटे छोटे सुख'। एक चिथड़ा सुख पढ़ते हुए किसी छूटे हुए बचपन के प्रेम को याद कर लेना है। आप निर्मल को पढ़ नहीं सकते, उनके प्रेम में पड़ सकते हैं बस। उनकी डायरी, 'धुंध से उठती धुन' को पढ़ते हुए ख़ुद को एक लेखक के तौर पर थोड़ा बेहतर समझ पायी। अपने लिखे में रखे हुए सच के छोटे छोटे टुकड़ों के लिए ख़ुद को माफ़ कर पायी। अपने किरदारों से, सच और कल्पना के बीच प्यार करने और उन्हें बिसरा देने और सहेज देने के बीच के बारीक जाल को बुनती रही। निर्मल आपको तलाश लेते हैं। मैंने पहले कई बार उन्हें पढ़ने की कोशिश की, पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। अब उन्हें पढ़ना एक ऐसे प्रेम में होना है जिसमें ग़लतियाँ करने से बिछोह नहीं मिलता है। 'धुंध से उठती' धुन का मेरे पास होना इस बात की राहत देता है कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छे लोग मेरे दोस्त हैं।

Good Morning New York. न्यू यॉर्क। ज़िंदगी में दो ही बार शहरों से प्यार हुआ है। पहली बार दिल्ली। और अब न्यू यॉर्क। बहुत साल पहले एक लड़के ने प्रॉमिस किया था, तुम न्यू यॉर्क आओ तो सही, तुम्हें इस शहर से प्यार हो जाए, ये मेरी ज़िम्मेदारी। ऐसे वादे लोग बेवजह करते नहीं। शहर में होता है कुछ ख़ास। कुछ शहरों में आत्मा होती है। जीती जागती। दिल होता है, धड़कता हुआ। सड़क के नीचे चलने वाली मेट्रो में थरथराता हुआ। मेरी ज़िंदगी में न्यू यॉर्क का आना किसी कहानी जैसा था। हज़ार प्लॉट ट्विस्ट्स के बीच मुकम्मल होता। मैं एयरपोर्ट से न्यू यॉर्क जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। Penn स्टेशन पर उतरना था। ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखता शहर था...कुछ कुछ पटना जैसा, पुल थे, हावड़ा जैसे...और प्यार हुआ था पहली नज़र का। दिल्ली जैसा ही एकदम। कि धक से लगा था जब पहली बार ही देखा था शहर को। कि मैं भूल गयी थी कि शहरों से भी प्यार हो सकता है। पेन स्टेशन के ठीक बाहर ही मेरा होटल था। पैदल चलते हुए देख रही थी शहर को आँख भर भर के। उसकी प्राचीनता, उसका नयापन...थोड़ी ठंढ और हल्की गरमी। कि शहर से बेवजह ही प्यार हो चुका था। कि मेरे लिए प्यार और पसंद में यही अंतर होता है। पसंद करने की वजहें होती हैं, प्यार की नहीं। मुझसे पूछो कि क्यूँ प्यार करती हो तुम न्यू यॉर्क से तो मेरे पास कोई वजह नहीं होगी। कोई भी वजह नहीं। दिल पर हाथ रखूँगी और कहूँगी, सुनो मेरे दिल की धड़कन...डीकोड कर लो। बस। मेरे पास शब्द नहीं हैं। वहाँ की इमारतें। उसका सब-वे सिस्टम। वहाँ खो जाना। म्यूज़ीयम में जैक्सन pollock को देखना। Monet को देखना, बिना जाने हुए कि वो है। टाइम्ज़ स्क्वेयर। सेंट्रल पार्क। फ़्लैटआयरन बिल्डिंग। ब्रॉडवे। राह चलते ख़रीद लेना एक स्कार्फ़, सिर्फ़ उस लम्हे की याद के लिए। लौटते हुए लिए आना एक चाँदी की अँगूठी, 'love' लिखा हो जिसमें। रख लेना उस पूरे पूरे शहर को दिल में पजेसिव होकर। नहीं भेजना एक भी पोस्टकार्ड किसी को भी। अकेले भटकना म्यूज़ीयम में। भर भर आँख नदी हो आना। बहना हज़ार रंगों में। हुए जाना। न्यू यॉर्क।

अभिषेक। किसी कहानी जैसा लड़का। कितना करता अपने शहर से प्यार। शहर की छोटी छोटी चीज़ों से। सेंट्रल स्टेशन की छत से। सड़कों से। पैदल चलने से। मैं चकित हुए जाती। उसे पता है कॉफ़ी पीने की सबसे अच्छी जगह। देखो, ये है 'Carnegie Hall', यहाँ पर सब बड़े बड़े लोग परफ़ॉर्म  करने आते हैं। मैं खड़ी देखती। कहती। ये हॉल नहीं है, सपना है। जब मैं यहाँ कहानी सुनाने आऊँगी, तो तुम आओगे सुनने? उसे कितने सालों से पढ़ रही हूँ। उसका लिखा हास्य पढ़ कर आँख नम हो जाती है। बैरीकूल और उसका वो मैथमैटिकल लव लेटर। याद आते हैं वे शुरुआती ब्लॉगिंग के दिन कि जब लगता नहीं था कि वर्चूअल दुनिया सच में कहीं एग्ज़िस्ट भी करती है। उन दिनों कहाँ कभी सोचा था कि अभिषेक से मिलेंगे भी तो न्यू यॉर्क में पहली बार। उसने कहा था बहुत साल पहले, एक नोवेल का प्लॉट देने वाला शहर है न्यू यॉर्क। ठीक डेढ़ दिन के समय में कहाँ जाएँ और कैसे, उसके होने से यक़ीन था कि भुतलाएँगे नहीं इस शहर में। उसने कहा था, 'भुलाना मुश्किल है इस शहर में', दरसल, 'भुलाना मुश्किल है उस शहर को' भी तो। बिना प्लान के अचानक आ जाना शहर और मिल जाना अचानक ही। ब्लॉगिंग के टाइम से जिन लोगों को पढ़ रहे हैं, कमोबेश सबसे मिलकर यही लगता है, उन दिनों हमने कहानियों में भी अपने होने का बहुत बहुत सच लिखा था। कि किसी से भी मिलना वैसा ही है जैसा हमने सोचा था उन्हें पढ़ कर। कि अभिषेक से मिलना आसान होना था। अच्छा होना था। अभिषेक से मिल कर लगता है एकदम अच्छा और भला होना भी कितना सुकूनदेह है। कि उसका बहुत उदार होना...kind होना...ज़िंदगी के प्रति एक भलेपन में विश्वास करना सिखाता है। उससे मिलना एक छोटा सा सुख है। अपने आप में मुकम्मल। शुक्रिया लड़के एक एकदम से भटक जाने वाली लड़की के लिए एक शहर आसान कर देने के लिए। तुम जब 'वे दिन' पढ़ोगे, जब जानोगे, एक छोटा सुख क्या होता है। कभी तो पढ़ोगे ही। अगली बार कभी मिलेंगे तो फ़ुर्सत से मिलेंगे। बातों की फ़ुर्सत रखेंगे। इस बार तो भागते शहर को बस थोड़ा सा ही देख सके। अगली बार...फिर कभी...

इस साल मैंने एक और चीज़ सीखी। जो मन में आए वो किए जाना। अफ़सोस के कमरे ढहा देना। एक एकदम ही अजनबी लड़के से मिली, शिव टंडन। एक रैंडम सी शाम, बहुत सी बातें। कॉफ़ी। कुछ ग़ज़लें और कितनी अचरज भरी कहानियाँ कि जितनी ज़िंदगी में ही हो सकती हैं। हम किसी अजनबी से मिल कर कितना मुकम्मल सा महसूस कर सकते हैं। कि शहर कैसे थोड़ा कम पराया लगने लगता है, अपना शहर बैंगलोर ही। इसलिए कि अपरिचित होते हुए भी किसी से को कनेक्ट महसूस होने पर अपने मन को डांट धोप के शांत नहीं कराया, उसके नाम एक शाम लिखी। ये बहुत सुंदर था। बहुत।

इसी तरह लीवायज़ में जींस ख़रीदने गयी थी और जींस फ़िट ना होने का रोना रो रही थी, वहीं पर खड़ी एक और लड़की से ही। फिर बात होते होते पहुँची UX डिज़ाइन पर। पता चला वो IIT गुवाहाटी में डिज़ाइन पढ़ाती है। whatsapp पर वहाँ के प्लेस्मेंट सेल के बंदे का नम्बर दिया उसने तो मैंने देखा कि वो रॉयल एनफ़ील्ड चलाती है...अचरज कि ऐसे रैंडम भी कोई मिलता है क्या जिससे इतनी चीज़ें कॉमन लगें। फिर हमने whatsapp पर कई बार कितनी कितनी तो बातें कीं और पाया कि हम ग़ज़ब अच्छी तरह से समझते हैं एक दूसरे को। उसके लिखे हुए में मुझे कोई चीज़ बाँधती है। शीतल नाम है उसका और ये लगता है कि हम गाहे बगाहे जुड़े रहेंगे एक दूसरे से।

कि इस साल से मैंने मानना शुरू किया है कि दुनिया एक काइंड जगह है और लोग अच्छे हैं और जादू होता है। साल की शुरुआत में मैंने पूजा शुरू की। मैंने पिछले लगभग नौ सालों से कभी पूजा नहीं की थी। अब एक छोटे से ईश्वर के सामने सर झुकाने से लगता है जैसे कोई ठहार मिल गया हो। जैसे शिकायत करने को कोई जगह हो जहाँ देर सेवर सुनवायी होगी। कि मन अब भी उदास होता है, दुखी होता है, लेकिन अशांत नहीं होता। कि मैं बहुत हद तक सुलझती गयी हूँ। शांत होती गयी हूँ। जिसने कई कई साल ज़िंदगी के उलझन में काटे हैं, उसके लिए ये छोटा सा सुख भी बहुत बड़ा है।

इस साल मैंने अपनी सोलो स्टोरीटेलिंग की शुरुआत की। नाम रखा, छूमंतर। मेरी पहली स्टोरीटेलिंग में क़रीबन पचास लोग आए थे। एक एकदम नए नाम के लिए ये एक तरह का रेकर्ड था। इससे बहुत उम्मीद पुख़्ता हुयी। ख़ुद पर यक़ीन आया कि मैं कहानी सुना सकती हूँ। बाद के सेशन में लोग बहुत कम आए लेकिन ऑडीयन्स के साथ कमाल का जुड़ाव रहा। पिछली स्टोरीटेलिंग में ऑडीयन्स भर भर आँख थी...जैसे मेरा दिल भर आया था, वैसे ही। मैंने जाना कि तालियों का शोर ही नहीं, गहरी चुप्पी भी देर तक याद रहती है।

इसी साल दैनिक जागरण ने नीलसन से हिंदी किताबों के बेस्ट-सेलर के लिए सर्वे कराया। इसके पहले लिस्ट में मेरी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' सातवें नम्बर पर रही। ये मेरे लिए अचरज भरी बात थी। मैंने किताब का बहुत कम प्रमोशन किया था और मेरे प्रकाशक पेंग्विन ने तो एकदम न के बराबर। सिर्फ़ वर्ड औफ़ माउथ पर किताब इतने लोगों ने ख़रीद कर पढ़ी ये मेरे लिए जादू जैसा था कि हमने कम्यूनिकेशन में पढ़ा था इस फ़ेनॉमना के बारे में। मेरी किताब के बारे में हमेशा दोस्तों ने कहा है कि तुम कुछ आसान लिखो, तुम्हारी किताब क्लिष्ट है। लोगों को समझ नहीं आएगी। पर मुझे पढ़ने वालों का एक अपना वर्ग रहा जिन्हें किताब इतनी पसंद आयी कि वे किताब को आगे बढ़ाते गए। पाठकों का इतना प्यार मेरे लिए बहुत बड़ी राहत है। कि मुझे जो कहानियाँ सुनानी हैं, वे सुनाऊँ, पढ़ने वाले लोग ख़ुद मिल जाएँगे किताब को। तो साल के अंत में, तीन रोज़ इश्क़ के सभी पाठकों को बहुत बहुत प्यार और शुक्रिया।

साल का आख़िरी और सबसे ज़रूरी शुक्रिया मेरी बेस्ट फ़्रेंड स्मृति के नाम। कि मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ वो मुझे बहुत प्यार करती है। मेरे गुनाहों के साथ। मेरी बेवक़ूफ़ियों और पागलपन के साथ। मेरे सही ग़लत की उलझनों के साथ और बावजूद भी। बिना शर्तों के प्यार। बिना किसी अंतिम मियाद के। बहुत कम लोग इतने ख़ुशक़िस्मत होते हैं कि जिनकी ज़िंदगी में ऐसा कोई एक शख़्स भी हो जो उन्हें पूरी तरह प्यार कर सके। उसका होना मेरे पागल ना होने की वजह है। वो मुझे सम्हाल लेती है। वो मुझे बचा लेती है। हर बार।

ज़िंदगी और ईश्वर का शुक्रिया। इतना उदार होने के लिए। और उन छोटे छोटे सुखों के लिए कि जिनकी याद को थामे काट ली जा सकती है दुःख की लम्बी, काली रात भी।

सितम्बर। तुम्हारे होने का शुक्रिया। कि जाने कितने अगले सालों तक कोई पूछेगा कि तुम ख़ुश कब थी, पूरी पूरी...तो मैं सुख से भर भर आँख भरे...नदी की तरह छलछलाती...प्रेम में होती हुयी कहूँगी...सितम्बर २०१७ में।

आख़िर में, बस इतना...


***



ज़िंदगी
बस इतना करम रखना
कि कोई पूछे कभी
‘तुम किस चीज़ की बनी हो, लड़की?’
तो चूम सकूँ उसका माथा, और कह सकूँ
‘प्यार की’

09 December, 2017

धूप में छप-छप नहाता दिल के आकार के पत्तों वाला पौधा - प्यार

"दो दिन में तुम क्या सब-कुछ जान सकते हो?" फिर कुछ देर बाद हँसकर उसने मेरी ओर देखा, "यही अजीब है।" उसने कहा, "हम एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं!"
"मैंने कभी सोचा नहीं..."
"मैंने भी नहीं..." उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, "इससे पहले मुझे या ख़याल भी नहीं आया था।"
"तुम्हें यह बुरा लगता है...इतना कम जानना...!"
"नहीं..." उसने कहा, "मुझे यह कम भी ज़्यादा लगता है..." वह मीता के बालों से खेलने लगी थी। 
"हम उतना ही जानते हैं, जितना ठीक है।" कुछ देर बाद उसने कहा।
"मैं यह नहीं मानता।"
"यह सच है..." उसने कहा, "तुम अभी नहीं मानोगे...पहले हम नहीं सोचते...बाद में, इट इज़ जस्ट मिज़री..."
उसका स्वर भर्रा सा-सा आया। मैंने उसकी ओर नहीं देखा। मिज़री...मुझे लगा जैसे यह शब्द मैंने पहली बार सुना है। 
"तुम विश्वास करते हो?"
"विश्वास...किस पर?" मैंने तनिक विस्मय से उसकी ओर देखा।
"वे सब चीज़ें...जो नहीं हैं।"
"मैं समझा नहीं।"
वह हँसने लगी।
"वे सब चीज़ें जो हैं...लेकिन जिनसे हमें आशा नहीं रखनी चाहिए...।"
उसका सवार इतना धीमा था कि मुझे लगा जैसे वह अपने-आप से कुछ कह रही है...मैं वहाँ नहीं हूँ।
धुंध उड़ रही थी। हवा से नंगी टहनियाँ बार-बार सिहर उठती थीं। कहीं दूर नदी पर बर्फ़ टूट जाती थी और बहते पानी का ऊनींदा-सा स्वर जाग उठता था।

- वे दिन ॰ निर्मल वर्मा 

***
इस साल के अंत में कुछ ऐसा हुआ कि पोलैंड जाने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया।क्रैको से प्राग सिर्फ़ तीन सौ किलोमीटर के आसपास है। मैं सर्दियों में प्राग देखना चाहती हूँ। कैसल। नदी। ठंढ। मैं अपनी कहानियों में उस शहर में तुम्हारे लिए कुछ शब्द छोड़ आती हूँ। तुम फिर कई साल बाद जाते हो वहाँ। उन शब्दों को छू कर देखते हो। और मेरी कहानी को पूरा करने को उसका आख़िरी चैप्टर लिखते हो। 

साल की पहली बर्फ़ गिरने को उतने ही कौतुहल से देखते होंगे लोग? जिन शहरों में हर साल बर्फ़ पड़ती है वहाँ भी? क्या ठंढे मौसम की आदत हो जाती है? मैं क्यूँ करती हूँ उस शहर से इतना प्यार?

मैंने बर्फ़ सिर्फ़ पहाड़ों पर देखी है। समतल ज़मीन पर कभी नहीं। शहरों में गिरती बर्फ़ तो कभी भी नहीं। पहाड़ों पर यूँ भी हमें बर्फ़ देखने की आदत होती है। घुटनों भर बर्फ़ में चलना वो भी कम ऑक्सिजन वाली पहाड़ी हवा में, बेहद थका देने वाला होता है। मुझे याद है उस बेतरह थकान और अटकी हुयी साँस के बाद पीना हॉट चोक्लेट विथ व्हिस्की। वो गर्माहट का बदन में लौटना। साँस तरतीब से आना। वहाँ रेस्ट्रॉंट में कई सारे वृद्ध थे। जो बाहर जाने की स्थिति में नहीं थे। उनके परिवार के युवा बाहर बर्फ़ में खेल रहे थे। मैंने वहाँ पहली बार इतनी बर्फ़ देखी थी। स्विट्सर्लंड में। zermatt और zungfrau।

शायद मुझे जितना ख़ुद के बारे में लगता है, उससे ज़्यादा पसंद है ठंढ। दिल्ली की भी सर्दियाँ ही अच्छी लगती हैं मुझे। फिर पिछले कई सालों में दिल्ली गयी कहाँ हूँ किसी और मौसम में। 

कल पापा से बात करते हुए उनसे या ख़ुद से ही पूछ रही थी। हमें कोई शहर क्यूँ अच्छा लगता है। आख़िर क्या है कि प्यार हो जाता है उस शहर से। मुझे ये बात याद ही नहीं थी कि न्यू यॉर्क समंदर किनारे है। या नदी है उधर। पता नहीं कैसे। मैं वहाँ सिर्फ़ म्यूज़ीयम देखने गयी थी। मेट्रो से अपने होटेल इसलिए गयी कि मेट्रो और टैक्सी में बराबर वक़्त लगेगा। ये तो भूल ही गयी कि टैक्सी से जाने में शहर दिखेगा भी तो। जब कि अक्सर तुमसे बात होती रही तुम्हारे शहर के बारे में।फिर वो सारा कुछ किसी काल्पनिक कहानी का हिस्सा क्यूँ लगता रहा?

किताबों और शहरों से मुझे प्यार हो जाता है। धुंध से उठती धुन की एक कॉपी लानी है मुझे तुम्हारे लिए। पता नहीं कैसे। फिर उस कॉपी को तुम्हें देने के लिए मिलेंगे किसी शहर में। जैसे 'वे दिन' के साथ हुआ था। कुछ थ्योरीज कहती हैं कि हर चीज़ में जान होती है। पत्थर भी सोचते हैं। किताबें भी। तो फिर तुम्हारे पास रखी हुयी इस किताब के दिल में क्या क्या ना ख़याल आता होगा?

कुछ किताबें होती हैं ना, पढ़ने के बाद हम उन्हें अपने पसंदीदा लोगों को पढ़ा देने के लिए छटपटा जाते हैं। कि हमसे अकेले इतना सुख नहीं सम्हलता। हमें लगता है इसमें उन सबका हिस्सा है, जिनका हममें हिस्सा है। जो हमारे दुःख में हमें उबार लेते हैं, वे हमारे सुख में थोड़ा बौरा तो लें। 

वे दिन ऑनलाइन मंगाने के पहले सोचा था तुमसे पूछ लूँ, तुमने नहीं पढ़ी है तो एक तुम्हारे लिए भी मँगवा लेंगे। फिर तुमने सवाल देखा नहीं तो मैंने दो कॉपी ऑर्डर कर दी थी। कि अगर अच्छी लगी तो तुम्हें भी भिजवा दूँगी। इस साल कैसी कैसी चीज़ें सच होती गयीं कि पूरा साल ही सपना लगता है। कितनी सुंदर थी ज़िंदगी। कितनी सुंदर है। अपने दुःख के बावजूद। अपने छोटे छोटे सुख में बड़े बड़े दुखों को बस थोड़ी सी शिकन के साथ जी जाती हुयी। शिकायत नहीं करती हुयी। 

मुझे ट्रैंज़िट वाली चीज़ें बहुत अच्छी लगती हैं। ये सोचना कि कोई पोस्टकार्ड नहीं होगा। किसी ने उसे उठाया होगा और मेल में अलग रखा होगा, सॉर्ट किया होगा शहरों के हिसाब से। कितने लोगों के हाथों से गुज़रा होगा काग़ज़ का एक टुकड़ा, तुम्हारे हाथों तक पहुँचने के पहले। एक दोस्त को कुछ किताबें भेजी हैं। वे उसके शहर के पोस्ट ऑफ़िस के लिए बैग कर दी गयी हैं। मैं अभी से उसके चेहरे के हाव-भाव सोच कर मुस्कुरा रही हूँ। क्या उसे अच्छा लगेगा? क्या वो नाराज़ होगा? क्या मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्मी हूँ?

इतना पता है कि मुझे ज़िंदगी को थोड़ा और ख़ूबसूरत बनाना अच्छा लगता है। दो तरह के लोग होते हैं, एक वे, जो दुनिया को वही लौटाते हैं जो दुनिया ने उन्हें दिया...एक वो जो दुनिया को वो लौटाते हैं जो वे ख़ुद चाहते रहे हैं हमेशा। मैं दूसरी क़िस्म की हूँ। मुझे अच्छा लगता है ये सोच कर कि कोई मेरे लिए फूल ख़रीदेगा। मुझे वो सजीले गुलदस्ते उतने पसंद नहीं, लेकिन ज़रबेरा, लिली, और कभी कभी कार्नेशन अच्छे लगते हैं। मैं अपने दोस्तों के लिए अक्सर फूल ख़रीद कर ले जाती हूँ। कि उन्हें अच्छा लगता है। मैं कोई कुरियर भेजती हूँ तो सुंदर पैकिजिंग करती हूँ। चिट्ठियाँ लिखने के लिए सुंदर काग़ज़ दुनिया भर से खोज कर लाती हूँ। मुझे ये सोच कर अच्छा लगता है कि मैंने किसी को कुछ भेजा तो रैंडम नहीं भेजा...कुछ ख़ास भेजा। कुछ प्यार से भेजा। कुछ ऐसा भेजा जो देख कर कोई मुस्कुराए। कि किसी को चिट्ठी लिखना इतना ख़ास क्यूँ है मालूम? कि इस भागदौड़ की मल्टी-टास्किंग दुनिया में कोई घंटों आपके बारे में सोचता रहा और काग़ज़ पर उतरता रहा क़रीने से शब्द... सलीक़े वाली अपनी बेस्ट हैंडराइटिंग में। 

और तुम्हें पता है। बहुत सालों में एक तुम्हीं हो, जिसे कहा है, एक चिट्ठी लिखना मुझे। चिट्ठी। 'वे दिन' में रायना कहती है, वे चीज़ें जो हैं तो, लेकिन उनसे आशा नहीं रखनी चाहिए। सबके पास फ़ुर्सत का अभाव है। समय बहुत क़ीमती है। उसमें भी व्यस्त लोगों का समय। लेकिन फिर भी। मैं तुमसे इतनी सी चाह रखती हूँ कि तुम मुझे एक चिट्ठी लिखोगे कभी। 

तुमने किसी को आख़िरी बार हैप्पी बर्थ्डे वाला कार्ड कब दिया था? या नए साल पर? मेरा मन कर रहा है कि बचपन की तरह काग़ज़, स्केच पेन, ग्लिटर, स्टिकर और रंग बिरंगी चिमकियाँ ख़रीद कर लाऊँ और एक कार्ड बनाऊँ तुम्हारे लिए। शायद मेरे पास कुछ अच्छे शब्द हों तुम्हारे नाम लिखने को। पता है, मैं और मेरा भाई अपने स्कूल टाइम तक अपने स्कूल फ़्रेंड्ज़ को नए साल पर कार्ड देते थे। फिर हर नए साल की सुबह दोनों अपने अपने कार्ड जोड़ते थे कि किसको ज़्यादा कार्ड मिले। फिर उन कार्ड्ज़ को डाइऐगनली स्टेपल कर के हैंगिंग सा बनते थे और कमरे की दीवार पर चिपका देते थे। मुझे वे दिन याद आते हैं। तुम मुझे मेरा बचपन बहुत याद दिलाते हो। जैसे कि पता नहीं कोई दूर दराज़ के रिश्ते में लगते हो कुछ, ऐसा। कि हमारे बचपन का कोई हिस्सा जुड़ना चाहिए कहीं। या कि हम किसी शादी में मिलें अचानक और कोई नानी बात करते करते बतला दे, अरे ऊ घोड़ीकित्ता वाली तुमरे पापा की फुआ है ना...उसी के दामाद के साढ़ू का बेटा है...ऐसे कोई तो उलझे रिश्ते जो इमैजिन करने में कपार दुखा जाए। 

हमको भागलपुरी बोलना आज तक नहीं आया ढंग से लेकिन ठीक ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे एक समय में। संगत का असर। फिर कुछ लोग डाँटे कम, प्यार से बात ज़्यादा किए। फिर कितने नए शब्द होते हैं हमारे बीच। Kenopsia. Moment of tangency. Caramel। हर शब्द में एक कहानी। 

मैंने ज़िंदगी जितनी सच में जी है, उससे कहीं ज़्यादा याद में और कल्पना में जी है। सपने में और पागलपन में भी। मगर कितनी सारी चीज़ें जो कहीं नहीं हैं, ऐसे मेरे शब्दों में रहती हैं। कितने चैन से। कितने इत्मीनान से। 
तुम भी तो। 

ढेर सारा प्यार। 
लो आज मेरे शहर का पूरा आसमान तुम्हारे नाम। इसके सारे रंग तुम्हारे। बादलों में बनते सारे हसीन नज़ारे और नीले रंग में मुस्कुराता आसमान, सूरज, चाँद सब। 
***






एक मुस्कुराता पौधा 
जिसके दिल की आकृति वाले पत्ते 
धूप में छप-छप करते 
खिड़की पर नहा रहे हैं

ऐसे ही सुख से
मेरे दिल को सजाता है
तुम्हारा प्यार

01 November, 2017

She rides a Royal Enfield ॰ चाँदनी रात में एनफ़ील्ड रेसिंग

दुनिया में बहुत तरह के सुख होते होंगे। कुछ सुख तो हमने चक्खे भी नहीं हैं अभी। कुछ साल पहले हम क्या ही जानते थे कि क़िस्मत हमारे कॉपी के पन्ने पर क्या नाम लिखने वाली है।

बैंगलोर बहुत उदार शहर है। मैं इससे बहुत कम मुहब्बत करती हूँ लेकिन वो अपनी इकतरफ़ा मुहब्बत में कोई कोताही नहीं करता। मौसम हो कि मिज़ाज। सब ख़ुशनुमा रखता है। इन दिनों यहाँ हल्की सी ठंढ है। दिल्ली जैसी। देर रात कुछ करने का मन नहीं कर रहा था। ना पढ़ने का, ना लिखने का कुछ, ना कोई फ़िल्म में दिल लग रहा था, ना किसी गीत में। रात के एक बजे करें भी तो क्या। घर में रात को अकेले ना भरतनाट्यम् करने में मन लगे ना भांगड़ा...और साल्सा तो हमको सिर्फ़ खाने आता है।

बाइकिंग बूट्स निकाले। न्यू यॉर्क वाले सफ़ेद मोज़े। उन्हें पहनते हुए मुस्कुरायी। जैकेट। हेल्मट। घड़ी। ब्रेसलेट। कमर में बैग कि जिसमें वॉलेट और घर की चाबी। गले में वही काला बिल्लियों वाला स्टोल कि जिसके साथ न्यू यॉर्क की सड़कें चली आती हैं हर बार। मुझे बाक़ी चीज़ों के अलावा, एनफ़ील्ड चलाने के पहले वाली तैयारी बहुत अच्छी लगती है। शृंगार। स्ट्रेच करना कि कहीं मोच वोच ना आ जाए।

गयी तो एनफ़ील्ड इतने दिन से स्टार्ट नहीं की थी। एक बार में स्टार्ट नहीं हुयी। लगा कि आज तो किक मारनी पड़े शायद। लेकिन फिर हो गयी स्टार्ट। तो ठीक था। कुछ देर गाड़ी को आइड्लिंग करने दिए। पुचकारे। कि खामखा नाराज़ मत हुआ कर। इतना तो प्यार करती हूँ तुझसे। नौटंकी हो एकदम तुम भी।

इतनी रात शहर की सड़कें लगभग ख़ाली हैं। कई सारी टैक्सीज़ दौड़ रही थीं हालाँकि। एकदम हल्की फुहार पड़ रही थी। मुझे अपनी एनफ़ील्ड चलने में जो सबसे प्यारी चीज़ लगती है वो तीखे मोड़ों पर बिना ब्रेक मारे हुए गाड़ी के साथ बदन को झुकाना...ऐसा लगता है हम कोई बॉल डान्स का वो स्टेप कर रहे हैं जिसमें लड़का लड़की की कमर में हाथ डाल कर आधा झुका देता है और फिर झटके से वापस बाँहों में खींच कर गोल चक्कर में घुमा देता है।

कोई रूह है मेरी और मेरी एनफ़ील्ड की। रूद्र और मैं soulmates हैं। मैं छेड़ रही थी उसको। देखो, बदमाशी करोगे ना तो अपने दोस्त को दे देंगे चलाने के लिए। वो बोला है बहुत सम्हाल के चलाता है। फिर डीसेंट बने घूमते रहना, सारी आवारगी निकल जाएगी। आज शाम में नील का फ़ोन आया था। वो भी चिढ़ा रहा था, कि अपनी एनफ़ील्ड बेच दे मुझे। मैं उसकी खिंचाई कर रही थी कि एनफ़ील्ड चलाने के लिए पर्सनालिटी चाहिए होती है, शक्ल देखी है अपनी, एनफ़ील्ड चलाएगा। और वो कह रहा था कि मैं तो बड़ी ना एनफ़ील्ड चलाने वाली दिखती हूँ, पाँच फ़ुट की। भर भर गरियाए उसको। हम लोगों के बात का पर्सेंटिज निकाला जाए तो कमसे कम बीस पर्सेंट तो गरियाना ही होगा।

इनर रिंग रोड एकदम ख़ाली। बहुत तेज़ चलाने के लिए लेकिन चश्मे दूसरे वाले पहनने ज़रूरी हैं। इन चश्मों में आँख में पानी आने लगता है। हेल्मट का वाइज़र भी इतना अच्छा नहीं है तो बहुत तेज़ नहीं चलायी। कोई अस्सी पर ही उड़ाती रही बस। इनर रंग रोड से घूम कर कोरमंगला तक गयी और लौट कर इंदिरानगर आयी। एक मन किया कि कहीं ठहर कर चाय पी लूँ लेकिन फिर लगा इतने दिन बाद रात को बाहर निकली हूँ, चाय पियूँगी तो सिगरेट पीने का एकदम मन कर जाएगा। सो, रहने ही दिए। वापसी में धीरे धीरे ही चलाए। लौट कर घर आने का मन किया नहीं। तो फिर मुहल्ले में घूमती रही देर तक। स्लो चलती हुयी। चाँद आज कितना ही ख़ूबसूरत लग रहा था। रूद्र की धड़कन सुनती हुयी। कैसे तो वो लेता है मेरा नाम। धकधक करता है सीने में। जब मैं रेज देती हूँ तो रूद्र ऐसे हुमक के भागता है जैसे हर उदासी से दूर लिए भागेगा मुझे। दुनिया की सबसे अच्छी फ़ीलिंग है, रॉयल एनफ़ील्ड ५०० सीसी को रेज देना। फिर उसकी आवाज़। उफ़! जिनकी भी अपनी एनफ़ील्ड है वो जानते हैं, इस बाइक को पसंद नहीं किया जा सकता, इश्क़ ही किया जा सकता है इससे बस।

मुहल्ले में गाड़ियाँ रात के डेढ़ बजे एकदम नहीं थीं। बस पुलिस की गाड़ी पट्रोल कर रही थी। मैंने सोचा कि अगर मान लो, वो लोग पूछेंगे कि इतनी रात को मैं क्यूँ पेट्रोल जला रही हूँ तो क्या ही जवाब होगा मेरे पास। मुझे लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी हमेशा से बहुत अच्छी लगती है। मैं हल्के हल्के गुनगुना रही थी। ख़ुद के लिए ही। 'ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त, कौन हो तुम बतलाओ'। एनफ़ील्ड की डुगडुग के साथ ग़ज़ब ताल बैठ रहा था गीत का। कि लड़कपन से भी से मुझे कभी साधना या फिर सायरा बानो बनने का चस्का कम लगा। हमको तो देवानंद बनना था। शम्मी कपूर बनना था। अदा चाहिए थी वो लटें झटकाने वालीं। सिगरेट जलाने के लिए वो लाइटर चाहिए था जिसमें से कोई धुन बजे। मद्धम।

सड़क पर एनफ़ील्ड पार्क की और फ़ोन निकाल के फ़ोटोज़ खींचने लगी। ज़िंदगी के कुछ ख़ूबसूरत सुखों में एक है अपनी रॉयल एनफ़ील्ड को नज़र भर प्यार से देखना। पीली रौशनी में भीगते हुए। उसकी परछाईं, उसके पीछे की दीवार। जैसे मुहब्बत में कोई महबूब को देखता है। उस प्यार भरी नज़र से देखना।

सड़क पर एक लड़का लड़की टहल रहे थे। उनके सामने बाइक रोकी। बड़ी प्यारी सी लड़की थी। मासूम सी। टीनएज की दहलीज़ पर। मैंने गुज़ारिश की, एक फ़ोटो खींच देने की। कि मेरी बाइक चलाते हुए फ़ोटो हैं ही नहीं। उसने कहा कि उसे ये देख कर बहुत अच्छा लगा कि मैं एनफ़ील्ड चला रही हूँ। मैंने कहा कि बहुत आसान है, तुम भी चला सकती हो। उसने कहा कि बहुत भारी है। अब एनफ़ील्ड कोई खींचनी थोड़े होती है। मैंने कहा उससे। हर लड़की को गियर वाली बाइक ज़रूर चलानी चाहिए। उसमें भी एनफ़ील्ड तो एकदम ही क्लास अपार्ट है। कहीं भी इसकी आवाज़ सुन लेती हूँ तो दिल में धुकधुकी होने लगती है। मैं हर बार लड़कियों को कहती हूँ, मोटर्सायकल चलाना सीखो। ये एक एकदम ही अलग अनुभव है। इसे चलाने में लड़के लड़की का कोई भेद भाव नहीं है। अगर मैं चला सकती हूँ, तो कोई भी चला सकता है।

पिछले साल एनफ़ील्ड ख़रीदने के पहले मैंने कितने फ़ोरम पढ़े कि कोई पाँच फुट दो इंच की लड़की चला सकती है या नहीं। वहाँ सारे जवाब बन्दों के बारे में था, छह फुट के लोग ज्ञान दे रहे थे कि सब कुछ कॉन्फ़िडेन्स के बारे में है। अगर आपको लगता है कि आप चला सकते हैं तो आप चला लेंगे। मुझे यही सलाह चाहिए थी मगर ऐसी किसी अपने जैसी लड़की से। ये सेकंड हैंड वाला ज्ञान मुझे नहीं चाहिए था।

तो सच्चाई ये है कि एनफ़ील्ड चलाना और इसके वज़न को मैनेज करना प्रैक्टिस से आता है। ज़िंदगी की बाक़ी चीज़ों की तरह। हम जिसमें अच्छे हैं, उसकी चीज़ को बेहतर ढंग से करने का बस एक ही उपाय है। प्रैक्टिस। एक बार वो समझ में आ गया फिर तो क्या है एनफ़ील्ड। फूल से हल्की है। और हवा में उड़ती है। मैंने दो दिन में एनफ़ील्ड चलाना सीख लिया था। ये और बात है कि पापा ने सबसे पहले राजदूत सिखाया था पर पटना में थोड़े ना चला सकते थे। कई सालों से कोई गियर वाली बाइक चलायी नहीं थी।

अभी कुछ साल पहले सपने की सी ही बात लगती थी कि अपनी एनफ़ील्ड होगी। कि चला सकेंगे अपनी मर्ज़ी से ५०० सीसी बाइक। कि कैसा होता होगा इसका ऐक्सेलरेशन। क्या वाक़ई उड़ती है गाड़ी। वो लड़की नाम पूछी मेरा। हाथ मिलायी। मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गए जब देवघर में एक दीदी हीरो होंडा उड़ाया करती थी सनसन। हमारे लिए तो वही रॉकस्टार थी। तस्वीर खींचने को जो लड़की थी, उसे बताया मैंने कि एनफ़ील्ड पति ने गिफ़्ट की है पिछले साल, तो वो लड़की बहुत आश्चर्यचकित हो गयी थी।

दुनिया में छोटे छोटे सुख हैं। जिन्हें मुट्ठी में बांधे हुए हम सुख की लम्बी, उदास रात काटते हैं। तुम मेरी मुट्ठी में खुलता, खिलखिलाता ऐसा ही एक लम्हा हो। आना कभी बैंगलोर। घुमाएँगे तुमको अपने एनफ़ील्ड पर। ज़ोर से पकड़ के बैठना, उड़ जाओगे वरना। तुम तो जानते ही हो, तेज़ चलाने की आदत है हमको।

ज़िंदगी अच्छी है। उदार है। मुहब्बत है। अपने नाम पर रॉयल एनफ़ील्ड है।
इतना सारा कुछ होना काफ़ी है सुखी होने के लिए।
सुखी हूँ इन दिनों। ईश्वर ऐसे सुख सबकी क़िस्मत में लिक्खे।

21 October, 2017

इक अभागन का क़िस्सा

छह हफ़्ते के बच्चे को फीटस कहते हैं। एक नन्हें से दाने के बराबर होता है और उसका दिल बनना शुरू हो जाता है। ऐसा डॉक्टर बताती है। इसके साथ ये ज़रूरी जानकारी भी कि औरत इस बच्चे को जन्म नहीं दे सकती, बहुत ज़्यादा प्रॉबबिलिटी है कि बच्चा ऐब्नॉर्मल पैदा हो। लड़की का मैथ कमज़ोर होता है। उसे प्रॉबबिलिटी जैसी बड़ी बड़ी चीज़ें समझ नहीं आतीं। टकटकी बांधे देखती है चुपचाप। उसे लगता है वो ठीक से समझ नहीं पायी है।

तब से उसे मैथ बहुत ख़राब लगता है। उसने कई साल प्रॉबबिलिटी पढ़ने और समझने की कोशिश की लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि जहाँ कर्मों की बात आ जाती है वहाँ फिर मैथ कुछ कर नहीं सकता। ९९ पर्सेंटिज होना कोई ज़्यादा सुकून का बायस कैसे हो सकता है किसी के लिए। वो जानना चाहती है कि कोई ऐसा ऐल्गोरिदम होता है जो बता सके कि उसने डॉक्टर की बात मान के सही किया था या नहीं। उसने ज़िंदगी में किसी का दिल नहीं दुखाया कभी। जैसा बचपन के संस्कारों में बताया गया, सिखाया गया था वैसी ज़िंदगी जीती आयी थी। कुछ दिन पहले तो ऐसा था कि दुनिया उसे साथ बुरा करती थी तो तकलीफ़ होती थी, फिर उसने अपने पिता से इस बारे में बात की…पिता ने उसे समझाया कि हमें अच्छा इसलिए नहीं करना चाहिए कि हम बदले में दुनिया से हमारे प्रति वैसा ही अच्छा होने की उम्मीद कर सकें। हम अच्छा इसलिए करते हैं कि हम अच्छे हैं, हमें अच्छा करने से ख़ुशी मिलती है और हमारी अंतरात्मा हमें कचोटती नहीं। इसके ठीक बाद वो दुनिया से ऐसी कोई उम्मीद बाँधना छोड़ देती है।

अजन्मे बच्चे के चेहरे की रेखाएँ नहीं उभरी होंगी लेकिन उसने लड़की से औरत बनते हुए हर जगह उसे तलाशा है। दस साल तक की उम्र के बच्चों को हँसते खेलते देख कर उसे एक अजीब सी तकलीफ़ होती है। वो अक्सर सोचती है इतने सालों में अगर उसका अपना एक बच्चा हुआ होता तो क्या वो उसे कम याद करती? या अपने मैथ नहीं जानने पर कम अफ़सोस करती?

दुनिया के सारे सुखों में से सबसे सुंदर सुख होता है किसी मासूम बच्चे के साथ वक़्त बिताना। उससे बातें करना। उसकी कहानियाँ सुनना और उसे कहानियाँ सुनाना। पाँच साल पहले ऐसा नहीं था। उसे बच्चे अच्छे लगते थे। वो सबसे पसंदीदा भाभी, दीदी, मौसी हुआ करती थी। छोटे बच्चे उससे सट कर बैठ जाया करते गरमियों में। वो उनसे बहुत दुलार से बात करती। उसके पास अपनी सबसे छोटी ननद की राक्षस की कहानी के लिए भी वैसी ही उत्सुकता थी जैसे ससुर के बनाए हुए साइंस के थीअरम्ज़ के लिए थी। बच्चे उसके इर्द गिर्द हँसते खिलखिलाते रहते। उसका आँचल छू छू के देखते। उसकी दो चोटियाँ खींचना चाहते लेकिन वो उन्हें आँख दिखा देते और वे बदमाश वाली मुस्कान मुस्कियाते।

अपनी मर्ज़ी और दूसरी जाति में शादी करने के कारण उसके मायक़े के ब्राह्मण समाज ने उसे बाहर कर दिया था। वो जब बहुत साल बाद लौट कर गयी तो लोग उसे खोद खोद कर उसके पति के बारे में पूछते। बड़ी बूढ़ी औरतें उसके ससुर का नाम पूछती और अफ़सोस जतातीं। जिस घर ने उस बिन माँ की बेटी को दिल में बसा लिया था, उसके पाप क्षमा करते हुए, उस घर को एक ही नज़र से देखतीं। औरतें। बच्चे। पुरुष। सब कोई ही। हर नया व्यक्ति उससे दो चीज़ें जानना चाहता। माँ के बारे में, कि जिसे जाए हुए साल दर साल बीतते जा रहे थे लेकिन जो इस लड़की की यादों में और दुखती हुयी बसी जा रही थी और ससुराल के बारे में।

औरत के ज़िंदगी के दो छोर होते हैं। माँ और बच्चा। औरत की ज़िंदगी में ये दोनों नहीं थे। वो सोचती अक्सर कि अगर उसकी माँ ज़िंदा होती या उसे एक बच्चा होता तो क्या वो कोई दूसरे तरह की औरत होती? एक तरह से उसने इन दोनों को बहुत पहले खो दिया था। खो देने के इस दुःख को वो अजीब चीज़ों से भरती रहती। बिना ईश्वर के होना मुश्किल होता तो एक दिन वह पिता के कहने पर एक छोटे से कृष्ण को अपने घर ले आयी। ईश्वर के सामने दिया जलाती औरत सोचती उन्हें मन की बात तो पता ही है, याचक की तरह माँगने की क्या ज़रूरत है। वो पूजा करती हुयी कृष्ण को देख कर मुस्कुराती। सच्चाई यही है जीवन की। हर महीने उम्मीद बाँधना और फिर उम्मीद का टूट जाना। कई सालों से वो एक टूटी हुयी उम्मीद हुयी जा रही थी बस।

एक औरत कि जिसकी माँ नहीं थी और जिसके बच्चे नहीं थे।

बहुत साल पीछे बचपन में जाती, अपने घर की औरतों को याद करती। दादी को। नानी को। जिन दिनों दादी घर पर रहा करती, दादी के आँचल के गेंठ में हमेशा खुदरा पैसे रहते। चवन्नी, अठन्नी, दस पैसा। पाँच पैसा भी। घर पर जो भी बच्चे आते, दादी कई बार उनको घर से लौटते वक़्त अपने आँचल की गेंठ खोल कर वो पैसा देना चाहती उनकी मुट्ठी में। गाँव के बच्चों को ऐसी दादियों की आदत होती होगी। शहर के बच्चे सकपका जाते। उन्हें समझ नहीं आता कि एक रुपए का वे क्या करेंगे। क्या कर सकते हैं। वो अपने बचपन में होती। वो उन दिनों चाहती कि कभी ख़ूब बड़ी होकर जब बहुत से पैसे कमाएगी तो दादी को अपने गेंठरी में रखने के लिए पाँच सौ के नोट देगी। ख़ूब सारे नोट। लेकिन नोट अगर दादी ने साड़ी धोते समय नहीं निकाले तो ख़राब हो जाएँगे ना? ये बड़ी मुश्किल थी। दादी थी भी ऐसी भुलक्कड़। अब इस उम्र में आदत बदलने को तो बोल नहीं सकती थी। दादी के ज़िंदा रहते तक गाँव में उसका एक घर था। बिहार में जब लोग पूछा करते थे कि तुम्हारा घर कहाँ है तो उन दिनों वो गाँव का नाम बताया करती थी। अपभ्रंश कर के। जैसे कि दादी कहा करती थी। दनयालपुर।

उसे कहानियाँ लिखना अच्छा लगता था। किसी किरदार को पाल पोस कर बड़ा करना। उसके साथ जीना ज़िंदगी। कहानियाँ लिखते हुए वो दो चोटी वाली लड़की हुआ करती थी। कॉलेज को भागती हुयी लड़की कि जिसकी माँ उसे हमेशा कौर कौर करके खाना खिला रही होती थी कि वो भुख्ले ना चली जाए कॉलेज। माँ जो हमेशा ध्यान देती थी कि आँख में काजल लगायी है कि नहीं घर से बाहर निकलने के पहले। कि दुनिया भर में सब उसकी सुंदर बेटी को नजराने के लिए ही बैठा है। माँ उसके कहे वाक्य पूरे करती। लड़की अपने बनाए किरदारों के लिए अपनी मम्मी हुआ करती। आँख की कोर में काजल लगा के पन्नों पर उतारा करती। ये उसके जीवन का इकमात्र सुख था।

सुख, दुःख का हरकारा होता है। औरत जानती। औरत हमेशा अपनी पहचान याद रखती। शादीशुदा औरत के प्यार पर सबका अधिकार बँटा हुआ होता। भरे पूरे घर में देवर, ननद, सास…देवरानी…कई सारे बच्चे और कई बार तो गाँव की बड़ी बूढ़ी औरतें भी होतीं जो उसके सिगरेट ला देने पर आशीर्वाद देते हुए सवाल पूछ लेतीं कि ई लाने से क्या होगा, ऊ लाओ ना जिसका हमलोग को ज़रूरत है।

ईश्वर के खेल निराले होते। औरत को बड़े दुःख को सहने के लिए एक छोटा सा सुख लिख देता। एक बड़ा सा शहर। बड़े दिल वाला शहर। शहर कि जिसके सीने में दुनिया भर की औरतों के दुःख समा जाएँ लेकिन वो हँस सके फिर भी कोई ऐसी हँसी कि जिसका होना उस एक लम्हे भर ही होता हो।

शहर में कोई नहीं पहचानता लड़की को। हल्की ठंढ, हल्की गरमी के बीच होता शहर। लड़की जूड़ा खोलती और शहर का होना मीठा हुआ जाता। शहर उसकी पहचान बिसार देता। वो हुयी जाती कोई खुल कर हँसने वाली लड़की कि जिसकी माँ ज़िंदा होती। कि जिसे बच्चे पैदा करने की फ़िक्र नहीं होती। कि जिसकी ज़िंदगी में कहानियाँ, कविताएँ, गीत और बातें होतीं। कि जिसके पास कोई फ़्यूचर प्लान नहीं होता। ना कोई डर होता। उसे जीने से डर नहीं लगता। वो देखती एक शहर नयी आँखों से। सपने जैसा शहर। कोई अजनबी सा लड़का होता साथ। जिसका होना सिर्फ़ दो दिन का सच होता। लड़की रंग भरे म्यूज़ीयम में जाती। लड़की मौने के प्रेम में होती। लड़की पौलक को देखती रहती अपलक। उसकी आँखों में मुखर हो जाते चुप पेंटिंग के कितने सारे तो रंग। सारे सारे रंग। लड़की देखती आसमान। लड़की पहचानती नीले और गुलाबी के शेड्स। शहर की सड़कों के नाम। ट्रेन स्टेशन पर खो जाती लेकिन घबराहट में पागल हो जाने के पहले उसे तलाश लेता वो लड़का कि जिसे शहर याद होता पूरा पूरा। लड़की ट्रेन में सुनाती क़िस्सा। मौने के प्रेम में होने को, कि जैसे भरे शहर में कोई नज़र खींचती है अपनी ओर, वैसे ही मौने की पेंटिंग बुलाती है उसे। बिना जाने भी खिंचती है उधर।

कुछ भी नहीं दुखता उन दिनों। सब अच्छा होता। शहर। शहर के लोग। मौसम। कपड़े। सड़क पर मिलते काले दुपट्टे। पैरों की थकान। गर्म पानी। प्रसाद में सिर्फ़ कॉफ़ी में डालने वाली चीनी फाँकते उसके कृष्ण भगवान।

शहर बसता जाता लड़की में और लड़की छूटती जाती शहर में। लौट आने के दिन लड़की एक थरथराहट होती। बहुत ठंढी रातों वाली। दादी के गुज़र जाने के बाद ट्रेन से उसका परिवार गाँव जा रहा था। बहुत ठंढ के दिन थे और बारिश हो रही थी। खिड़की से घुसती ठंढ हड्डियों के बीच तक घुस जा रही थी। वही ठंढ याद थी लड़की को। उसकी उँगलियों के पोर ठंढे पड़ते जाते। लड़की धीरे धीरे सपने से सच में लौट रही होती। कहती उससे, मेरे हाथ हमेशा गरम रहते थे। हमेशा। कितनी भी ठंढ में मेरे हाथ ठंढे नहीं पड़ते। लेकिन जब से माँ नहीं रही, पता नहीं कैसे तो मेरी हथेलियाँ एकदम ठंढी हो जाती हैं।

शहर को अलविदा कहना मुश्किल नहीं था। शहर वो सब कुछ हुआ था उसके लिए जो कि होना चाहिए था। लड़की लौटते हुए सुख में थी। जैसे हर कुछ जो चाहा था वो मिल गया हो। कोई दुःख नहीं छू पा रहा था उसकी हँसती हुयी आँखें। उसके खुले बालों से सुख की ख़ुशबू आती थी।

लौट आने के बाद शहर गुम होने लगा। लड़की कितना भी शहर के रंग सहेज कर रखना चाहती, कुछ ना कुछ छूट जाता। मगर सबसे ज़्यादा जो छूट रहा था वो कोई एक सपने सा लड़का था कि जिसे छू कर शिनाख्त करने की ख़्वाहिश थी, कि वो सच में था। हम अपने अतीत को लेकिन छू नहीं सकते। आँखों में रीप्ले कर सकते हैं दुबारा।

सुख ने कहा था कि दुःख आएगा। मगर इस तरह आसमान भर दुःख आएगा, ये नहीं बताया था उसने। लड़की समझ नहीं पाती कि हर सुख आख़िरकार दुःख में कैसे मोर्फ़ कर जाता है। दुःख निर्दयी होता। आँसुओं में उसे डुबो देता कि लड़की साँस साँस के लिए तड़पती। लड़की नहीं जानती कि उसे क्या चाहिए। लड़की उन डेढ़ दिनों को भी नहीं समझ पाती। कि कैसे कोई भूल सकता है जीवन भर के दुःख। अभाव। मृत्यु। कि वो कौन सी टूटन थी जिसकी दरारों में शहर सुनहले बारीक कणों की तरह भर गया है। जापानी फ़िलोस्फी - वाबी साबी - किंतसुगी। कि जिससे टूटन अपने होने के साथ भी ख़ूबसूरत दिखे।

महीने भर बाद जब हॉस्पिटल की पहली ट्रिप लगी तो औरत के पागलपन, तन्हाई और चुप्पी ने पूरा हथियारबंद होकर सुख के उस लम्हे पर हमला किया। नाज़ुक सा सुख का लम्हा था। अकेला। टूट गया। लड़की की उँगलियों में चुभे सुख के टुकड़े आँखों को छिलने लगे कि जब उसने आँसू पोंछने चाहे।

उसने देखा कि शहर ने उसे बिसार दिया है। कि शहर की स्मृति बहुत शॉर्ट लिव्ड होती है। औरत अपने अकेलेपन और तन्हाई से लड़ती हुयी भी याद करना चाहती सुख के किसी लम्हे को। लौट लौट कर जाना और लम्हे को रिपीट में प्ले करना उसे पागल किए दे रहा था। कई किलोमीटर गाड़ी बहुत धीरे चलाती हुयी औरत घर आयी और बिस्तर पर यूँ टूट के पड़ी कि बहुत पुराना प्यार याद आ गया। मौत से पहली नज़र का हुआ प्यार।

उसे उलझना नहीं चाहिए था लेकिन औरत बेतरह उलझ गयी थी। अतीत की गांठ खोल पाना नामुमकिन था। लम्हा लम्हा अलगा के शिनाख्त करना भी। सब कुछ इतने तीखेपन से याद था उसे। लेकिन उसे समझ कुछ नहीं आ रहा था। वो फिर से भूल गयी थी कि ज़िंदगी उदार हो सकती है। ख़्वाहिशें पूरी होती हैं। बेमक़सद भटकना सुख है। एक मुकम्मल सफ़र के बाद अलविदा कहना भी सुख है।

हॉस्पिटल में बहुत से नवजात बच्चे थे। ख़बर सुन कर ख़ुशी के आँसू रोते परिवार थे। औरत ख़ुद को नीले कफ़न में महसूस कर रही थी। उसे इंतज़ार तोड़ रहा था। दस साल से उसके अंदर किसी अजन्मे बच्चे का प्रेम पलता रहा था। दुःख की तरह। अफ़सोस की तरह। छुपा हुआ। कुछ ऐसा कि जिसकी उसे पहचान तक नहीं थी।

आख़िरकार वो खोल पायी गुत्थी कि सब इतना उलझा हुआ क्यूँ था। कि एक शादीशुदा औरत के प्यार पर बहुत से लोगों का हिस्सा होता है। उसका ख़ुद का पर्सनल कुछ भी नहीं होता। प्यार करने का, प्यार पाने का अधिकार होता है। कितने सारे रिश्तों में बँटी औरत। सबको बिना ख़ुद को बचाए हुए, बिना कुछ माँगे हुए प्यार करती औरत के हिस्से सिर्फ़ सवाल ही तो आते हैं। ‘ख़ुशख़बरी कब सुना रही हो?’ । सिवा इस सवाल के उसके कोई जवाब मायने नहीं रखते। उसका होना मायने नहीं रखता। वो सिर्फ़ एक औरत हो जाती है। एक बिना किनारे की नदी।

बिना माँ की बच्ची। बिना बच्चे की माँ।

दादी जैसा जीवन उसने नहीं जिया था कि सुख से छलकी हुयी किसी बच्चे की मुट्ठी पर अठन्नी धर सके लेकिन अपना पूरा जीवन खंगाल के उसने पाया कि एक प्यार है जो उसने अपने आँचर की गाँठ में बाँध रखा है। इस प्यार पर किसी का हिस्सा नहीं लिखाया है। किसी का हक़ नहीं।

वो सकुचाते हुए अपनी सूती साड़ी के आँचल से गांठ खोलती है और तुम्हारी हथेली में वो प्यार रखती है जो इतने सालों से उसकी इकलौती थाती है।

वो तुम्हारे नाम अपने अजन्मे बच्चे के हिस्से का प्यार लिखती है।  

17 October, 2017

सुख और सपने में कितना अंतर होता है?


मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो बेवजह ही क़िस्मत को कोसते और गरियाते रहते हैं। या कि ईश्वर को ही। इन दिनों अच्छा है सब। कोई ख़ास दुःख, तकलीफ़ नहीं है। बड़े बड़े दुःख हैं, जिनके साथ जीना सीख रहे हैं। दोपहर मेरे पढ़ने का समय होता है। आज धनतेरस है। मन भी जाने कहाँ, किस देस, किस शहर, किस टाइम ज़ोन में उलझा हुआ है। टेबल पर ठीक ऊपर के रैक में वो किताबें रखी हैं जो मैं इस बार की अमरीका की ट्रिप से लायी हूँ। इसके सिवा कुछ और किताबें हैं जो मैं दिन दिनों पढ़ती हूँ. अभी ब्रश करना, नहाना, पूजा, नाश्ता...सब कुछ ही बाक़ी है। आज बाज़ार जा के ख़रीददारी भी करनी है। रैक की ओर देखा और सोचा, धुंध से उठती धुन निकालती हूँ और जो पहला पन्ना खुलेगा, उसे यहाँ सहेज दूँगी। अस्तु।

***

28 सितम्बर, 1987
आज शाम पार्टी है। रामू अमेरिका जा रहे हैं - एक साल के लिए। वह दिल्ली में उन कम, बहुत कम मित्रों में से हैं, जिनसे खुल कर वार्तालाप होता था। उनके ना होने से ख़ाली शामों का सिलसिला शुरू होगा।
यह ठीक है। मैं यही चाहता हूँ। सर्दियाँ शुरू हो रही हैं। रिकार्ड है, अनपढ़ी, अधपढ़ी किताबें हैं और सबसे अधिक, अधलिखा अधूरा उपन्यास...
कहानी चल रही है। मैं इतनी अधूरी चीज़ों के बीच हूँ, कि यह सोच कर घबराहट होती है, कि उनका अंत कहाँ और कैसा होगा, मुझे कहाँ ले जाकर छोड़ेगा।
श्रीकांत की अंतिम किताब पढ़ते हुए बहुत बेचैनी होती है। वह कितने ऊँचे-नीचे स्तरों पर चढ़ते-उतरते रहते थे। कोई हिसाब है? न्यूयार्क के अस्पताल में लेटे हुए, नालियों से जुड़े हुए, सूइयों से बींधे हुए, पट्टियों से बँधे हुए...मैंने उनका नाम लिया, तो कहीं दूर-सुदूर से आए और आँखें खोल दीं। मैंने उनका हाथ दबाया, वह देखते रहे...उन्होंने मृत्यु को थका डाला, मृत्यु ने उन्हें...आख़िर दोनों ने हथियार डाल दिए - उनकी मृत्यु एक तरह का शांति समझौता था...सीज फ़ायर के अदृश्य काग़ज़ पर दोनों के हस्ताक्षर थे!
बोर्खेस की कविताएँ, एक ऋषि अंधेरे में ताकते हुए, उन सब छायाओं के समकालीन, जो इस धरती पर रेंग रही थीं, एक दृष्टिहीन द्रष्टा! एक असाधारण कवि...

3 अक्टूबर, 1987
दुःख: अंतहीन डूबने का ऐंद्रिक बोध, साँस ना ले पाने की असमर्थता, जबकि हवा चारों तरफ़ है, जीने की कोशिश में तुम्हारी मदद करती हुयी...तुम ख़तरे की निशानी के परे जा चुके हो, और अब वापसी नहीं है...
पेज संख्या - 91

***
23 अक्टूबर, 1987
ऐसे दिनों में लगता है, जीना, सिर्फ़ जीना, सिर्फ़ साँस लेना, धरती पर होना, चलना, सिर्फ़ देखना - यह कितनी बड़ी ब्लैसिंग  है : अपनी तकलीफ़ों, दुखों, अधूरे गड़बड़ कामों के बावजूद...और तब हमें उन लोगों की याद आती है, जो इतने बड़े थे और जिन्हें इतनी छोटी-सी नियामत भी प्राप्त नहीं है, जो धरती पर रेंगती हुयी च्यूँटी को उपलब्ध है! हम जीने के इतने आदी हो गए हैं, कि 'जीवन' का चमत्कार नहीं जानते। शायद इसी शोक में प्रूस्त ने कहा था, "अगर आदत जैसी कोई चीज़ नहीं होती, तब ज़िंदगी उन सबको अनिवार्यत: सुंदर जान पड़ती, जिन्हें मृत्यु कभी भी घेर सकती है - यानी उन सबको, जिन्हें हम 'मानवजाति' कहते हैं"।
पेज संख्या - 93 
~  यह मौसम नहीं आएगा फिर ॰ धुंध से उठती धुन ॰ निर्मल वर्मा 
***

धुंध से उठती धुन को पढ़ने के पहले निर्मल के लिखे कितने सारे उपन्यासों से गुज़रना होगा। कितनी कहानियों को कहानी मान कर चलना होगा सिर्फ़ इसलिए कि हम जब इस डायरी में देखें उनके लिखे हुए नोट्स तो पहचान लें कि ज़िंदगी और कहानी अलग नहीं होती।

ख़ुद को माफ़ कर सकें उन किरदारों के लिए जिनका ज़रा सा जीवन हमने चुरा कर कहानी कर दिया। कि कौन होता है इतना काइंड, इतना उदार कि दे सके पूरा हक़, कि हाँ, लिख लो मुझे। जितने रंगों में लिखना चाहो तुम। कौन हो इतना निर्भीक कि कह सके, तुम्हारे शब्दों से मुझे डर नहीं लगता। कि तुम्हारी कहानी में मेरे साथ कभी बुरा नहीं होगा, इतना यक़ीन है मुझे। या कि अगर तुम क़त्ल भी कर दो किरदार का, तो इसलिए कि असल ज़िंदगी का कोई दुःख किरदार के नाम लिख कर मिटा सको मेरी ज़िंदगी की टाइम्लायन से ही। कि निर्मल जब कहते हैं 'वे दिन' में भी तो, सिर्फ़ साँस लेना कितनी बड़ी ब्लेसिंग है। कि तुम भी तो। कितनी बड़ी ब्लेसिंग हो।

कला हमें अपने मन के भावों की सही सही शिनाख्त करना सिखाती है। हम जब अंधेरे में छू पाते हैं किसी रात का कोई दुखता लम्हा तो जानते हैं कि इससे रंगा जा सकता है antagonist का सियाह दिल। कला हमें रहमदिल होना सिखाती है। संगीत का कोई टुकड़ा मिलता है तो हम साझा करते हैं किसी के साथ और देखते हैं कि सुख का एक लम्हा हमारे बीच किसी मौसम की तरह खिला है।

दुःख गाढ़ा होता है, रह जाता है दिल पर, बैठ जाता है किसी भार की तरह काँधे पर। जैसे कई योजन चलना पड़े दिल भारी लिए हुए। आँख भरे भरे समंदर लिए हुए।

सुख हल्का होता है। फूल की तरह। तितली की तरह। क्षण भर बैठता है हथेली पर और अपने रंग का कोई भी अंश छोड़े बिना अगले ही लम्हे आँखों से ओझल हो जाता है। तितली उड़ती है तो हम भी उसकी तरह ही भारहीन महसूस करते हैं ख़ुद को। पंखों के रंगों से सजे हुए भी। सुख हमें हमेशा हल्का करता है। मन, आँख, आत्मा। सब पुराने गुनाह बहा आते हैं किसी प्राचीन नदी में और हो जाते हैं नए। अबोध। किलकते हुए।

कभी अचानक से होता है। कोई एक दिन। कोई एक शहर। कोई एक शख़्स। सुख, किसी अपरिचित की तरह मिलता है। किसी पुराने प्रेमी की तरह जिसे पहचानने में एक लम्हा लगता है और फिर बस, मन में धूप ही धूप उगती है। हम एकदम से ही शिनाख्त नहीं कर सकते सुख की...ख़ास तौर से तब, जब वो किसी दूर के शहर से लम्बा सफ़र कर के आ रहा हो। हमें वक़्त लगता है। उसे धो पोंछ कर देखते हैं हम ठीक से। छू कर। पानी का एक घूँट बाँट कर चखते हैं उसकी मिठास। सुख के होने का ऐतबार नहीं होता हमें इसलिए सड़क पार करते हुए हम चाहते हैं कि पकड़ लें एक कोना उसकी सफ़ेद शर्ट की स्लीव का। सुख को लेकिन याद होते हैं हम। वो साथ चलते हुए हाथ सहेज कर पॉकेट में नहीं रखता। सुख हमारा ख़याल रखता है। सुख हमें जीने का स्पेस देता है। सुख हमारे लिए आसमान रचता है और ज़मीन भी। सुख हमारे लिए एक शहर होता है।

सुख हमें नयी परिभाषाएँ रचने का स्पेस देता है। कि कभी कभी किसी दूसरे शहर के समय में ठहरी हुयी घड़ी होती है सुख। कभी लिली की सफ़ेद गंध। कभी मन की बर्फ़ीली झील पर स्केटिंग करने और गिर कर हँसने की कोई भविष्य की याद होता है सुख। इक छोटे से काँच के गोले में नाचते हैं नन्हें सफ़ेद कण कि जिन्हें देखकर मन सीखता है यायावरी फिर से। कौन जाने कैसी गिरती है किसी और शहर में बर्फ़। कोई किताब होती है उसके हाथों की छुअन बचाए ज़रा सी अपनी मार्जिन पर।

बहुत दूर के दो शहरों में लोग एक साथ थरथराते हैं ठंढ और अपनी बेवक़ूफ़ी के कारण। कि कोई सेंकता है महोगनी वाले कैंडिल की लौ पर अपने हाथ और भेजता है एक गर्माहट भरा सुख का लम्हा फ़ोन से कई समंदर पार। बताती है लड़की उसे कि सफ़ेद लिली सूंघ कर देखना किसी फ़्लोरिस्ट की दुकान पर। बहुत दिन बाद एक मफ़लर बुनने भर को चाह लेना है सुख। एक पीला, लेमन येलो कलर का मफ़लर। ऊन के गोले लिए रॉकिंग चेयर पर बैठी रहे और जलती रहे फ़ायरप्लेस में महोगनी की गंध लिए लकड़ियाँ।

सुख और सपने में कितना अंतर होता है?

सिल्क की गहरी नीली साड़ी में मुस्कुराना उसे देख कर और उसकी हँसी को नज़र ना लगे इसलिए ज़रा सा कंगुरिया ऊँगली से पोंछ लेना आँख की कोर का काजल और लगा देना उसके कान के पीछे। इतना सा टोटका कर के हँसना उसके साथ। कि दुनिया कितनी सुंदर। कितनी उजली और रौशन है। कि प्रेम कितना भोला, कितना सुंदर और कितना उदार है। 

16 October, 2017

कि जिनकी हँसी का अत्तर मोलाया जा सके सिर्फ़ आँसू के बदले

1. 
खुदा, हमारे इश्क़ पर 
बस इतनी इनायत करना
हमारा रक़ीब सिर्फ़ 'वक़्त' हो
कोई शख़्स नहीं 
कि जो छीन ले जाए
तुमको मेरी बाँहों से कहीं दूर
तुम्हारे ख़्वाबों से बिसार दे मेरी आँखें
तुम्हारी कविताओं से मेरी देहगंध
और तुम्हारी उँगलियों से सिगरेट 
वो बेरहम, बेसबब, बेदिल
वक़्त के बीतते पहर हों
ना कि कोई मुस्कुराती आँखों वाली लड़की
कि जिसे साड़ी पहनने का सलीक़ा हो
कि जिसके गालों में पड़े हल्के गड्ढे की रियल एस्टेट वैल्यू
न्यू यॉर्क के पॉश इलाक़े से भी ज़्यादा हो,
'प्रायस्लेस'/ बेशक़ीमत
कि जिसके दिल के आगे जंग लगा, पुराना 'नो एंट्री' बोर्ड ठुका हो 
रक़ीबों के हिस्से न आएँ कभी
सफ़ेद शर्ट्स और
बेक़रीने से इस्त्रि किए हुए ब्लैक पैंट्स
कि जिनके माथे पर झूलती लट को डिसप्लिन सिखाने को
किसी का जी ना चाहे
कि जिनकी हँसी का अत्तर
मोलाया जा सके सिर्फ़ आँसू के बदले 
दिल में ख़ाली जगह रखो तो
हर कोई चाहता है करना उसपर अवैध क़ब्ज़ा
इसलिए बना दो ऊँची चहारदिवारी
दरवाज़े पर बिठा दो स्टेनगन वाले ख़तरनाक गार्ड
कोई अंदर आने ना पाए
कोई भी नहीं 
सीने के बीचों बीच एक सुरंग खुदवा दो
जिसके दरवाज़े की चाभी सिर्फ़
बूढ़े वक़्त के पास हो
कि जो अंदर आए
देखे तुम्हें
मगर चाह कर भी
ना कर पाए तुमसे प्रेम

2. 
चौराहों का दोष नहीं
कि वे प्रेम की सड़क पर पड़े हुए
भाग जाने को नए शहरों के नाम सुझाते
नयी दिल्ली। न्यू यॉर्क। 
पुराना प्रेम रह जाता पुराने शहर में
इंतज़ार की पुरानी शराब में तब्दील होता हुआ 
आख़िर को लौट कर आता पुराना प्रेमी
नए प्रेम के गहरे ज़ख़्म लिए हुए
काँच प्याली की पुरानी शराब में
डुबो कर रखता कच्चा, टूटा दिल 
जब कि उसे चाहिए
कि कच्चे दिल को कर दे
हवस की आग के हवाले
बदन की रख से भर जाते हैं सारे ज़ख़्म 
सारे ख़ानाबदोश चारागर मर गए
पुराने शहर में कोई भी तो नहीं बचा
जो दरवाज़े की कुंडी पर टांग सके रूह को
बदन जलाने से पहले 
जानां, वो अभिशप्त चौराहा था
जिसने तुम्हें उस लड़की का रेगिस्तान दिल दिखलाया
रूहों को जिस्म के खेल समझ नहीं आते
उस लड़की को चूम लेना
उसे मुक्त करना था
तुम्हें क़ैद।

13 October, 2017

तुम मेरा न्यू यॉर्क हो

तो हम कितने अलग हैं बाक़ियों से?

असल सवाल सिर्फ़ एक यही होता है। तुम्हारे जीवन में कोई था, ऐसा कि जिसके साथ कोई एक लम्हा तुमने उतनी शिद्दत से जी लिया जैसे कि मेरे साथ। कि क्या तुम ऐसे सबके ही साथ होते हो या मैं कुछ ख़ास थी। कुछ ख़ास। मैथमैटिकल टर्म में, 'डेल्टा' स्पेशल, डिफ़्रेंट। कि सब कुछ बाक़ियों जैसा ही था, लेकिन ज़रा सा अलग। कि इसी ज़रा से अलग में हमारी ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत कहानियाँ हैं।

कि जैसे मेरी ज़िंदगी में तुम्हारे जैसा कोई नहीं था। कोई हो भी नहीं सकता है ना। कोई दो लोग एक जैसे नहीं होते। लेकिन फिर भी कोई एक कैटेगरी होती है जिसमें बाक़ी सारे लोग एक तरफ़ और तुम एक तरफ़ होते हो। तो वो कौन सी बात है जो तुम्हें ख़ास बनाती है?

कि जब आँख बंद करते हैं तो वो कौन सा लम्हा है जो रिपीट पर चल रहा होता है और जिसकी ख़ुशबू वजूद को गमका रही होती है। कि बहुत सालों बाद भी वो कौन सी चीज़ होगी जो तुम्हारा नाम लेते ही मुस्कान में बदल जाएगी?

कि जिसे बारिशें धुल नहीं सकती बदन से...ना आँसू आँख से...वो कौन सा स्पर्श है वो कौन सा लम्हा है जो वक़्त के इरेजर से मिट नहीं सकता।
कि वाक़ई वो कौन सी चीज़ है जो मेरे शब्दों में नहीं बंध सकती...कि जो मुझसे भी नहीं लिखी जा सकती। मेरे गुमान को तोड़ने वाला वो कौन सा लम्हा है...कौन सा अनुभव...कौन सा शख़्स...
शब्दों से परे वो क्या था जो जी लिया मैंने...हमने...

कभी फिर मिलोगे अगर तो शिनाख्त करूँगी चूम कर तुम्हारी आँखें कि याद के खारे पानी का स्वाद वही है या बदल गया है।
कि बात जब रिश्तों की आती है तो हमारे पास कितने कम शब्द होते हैं। कोई ऐसा कि जिसके लिए दोस्ती बहुत फीका और बेरंग सा शब्द लगे और प्रेम बहुत फ़्लैम्बॉयंट। कि जिसके लिए हम रचना चाहें कोई एक नया शब्द। कि जो अपूर्व और अद्भुत हो। समयातीत।

कि कभी ज़िंदगी में इस अहसास की पुनःआवृत्ति हो...तो हम उस शख़्स को...या तुम्हें ही...दुबारा भर सकें बाँहों में...गले लगाएँ कि जैसे ये पहली और आख़िरी बार हो...और शब्दों में रख दें एक नया शब्द...एक नया शहर...एक नया अहसास...हमेशा के लिए...

'तुम मेरा न्यू यॉर्क हो'।

[Photograph from the book I wrote this for you]

11 October, 2017

'वे दिन' शूट. Pack up. Fade to सुख


उसे देख कर सहसा लगा, मैं बहुत सुखी हूँ। मझे लगा, एक ख़ास हद के बाद सब लोग एक-जैसे सुखी हो जाते हैं। जब तुम टिक जाते हो। किसी चीज़ पर टिक जाना...वह अपने में सुख ना भी हो, तुम उससे सुख ले सकते हो; अगर तुम ज़्यादा लालची न हो - यह उस शाम मैंने पहली बार जाना था। यह बहुत अचानक है और तुमसे बाहर है - उस फ़ोटो की तरह, जो तुम्हारी जानकारी के बिना किसी बाज़ारू फ़ोटोग्राफ़र ने सड़क पर खींच ली थी। बाद में तुम देखते हो तो हल्का-सा विस्माय होता था कि यह तुम हो...तुम चाहो तो उसे वापस कर सकते हो। लेकिन वह कहाँ है - तुम उसे वापस भी कर दो, तो भी वह वहाँ रहेगा...एक स्थिर चौंका-सा क्षण, जब तुम सड़क पार कर रहे थे...

- वे दिन, निर्मल वर्मा

***
उस चौराहे पर दो ओर ज़ेब्रा क्रॉसिंग थी और दोनों ओर के सिग्नल थे। जहाँ से उन्हें ठीक नब्बे डिग्री के अलग अलग रास्तों में जाना था। ये अच्छा था कि १८० डिग्री विपरीत वाले रास्ते लड़की को पसंद नहीं थे। उनमें इस बात का हमेशा भय होता था कि किसी का आख़िरी बार मुड़ कर देखना मिस कर जाएँगे। It's a shooting nightmare, वो अक्सर अपने दोस्तों को कहा करती थी। स्क्रीनराइटिंग के बाद डिरेक्शन करने से फ़ायदा ये होता था कि हर सीन अपनी पूरी पेचीदगी में लिखा होता था। ठीक वैसा जैसे उसके मन के कैमरे में दिखता था। सिनमटॉग्रफ़र उसके साथ कई कई दिन भटकता रहता था कि ठीक वही ऐंगिल पकड़ सके जो उसकी आँखों को दिखता है।

उस बिंदु से दूर तक जाती सड़क दिखती थी। लोगों के रेलमपेल के बावजूद। बहुत ज़्यादा भीड़ में भी कैसे एकदम टेलिफ़ोटो लेंस की तरह आप ठीक उस एक शख़्स पर फ़ोकस किए रखते हैं। दुनिया का सबसे अच्छा कैमरा भी उस तरह से चीज़ों को नहीं पकड़ सकता जैसे कि आपकी आँख देखती है। कि आँख के देखने में बहुत कुछ और महसूसियत भी होती है। लोगों का आना जाना। ट्रैफ़िक का धुआँ। एक थिर चाल में आगे बढ़ती भीड़। या कि तेज़ी से स्प्रिंट दौड़ता वो एक शख़्स। कि जिसे देख कर अचानक से लगे कि बस, सारी दुनिया ही हो रही है आउट औफ़ फ़ोकस। या कि ख़त्म ही। जैसे कुछ फ़िल्मों में होता है ना, विध्वंस। कोई सूनामी लहर आ रही हो दिल को नेस्तनाबूद करने या कि भूचाल और आसपास की सारी इमारतें गिर रही हों एक दूसरे पर ही। मरते हुए आदमी को ऐसा ही लगता होगा। ज़िंदगी छूट रही हो हाथ से। जिसे हेनरी कार्टीए ब्रेस्सों कहते हैं, 'द डिफ़ाइनिंग मोमेंट'।

इसे शूट करते हुए पहले हम क्रेन से एक लौंग शॉट लेंगे, इस्टैब्लिशिंग शॉट कि जिसमें आसपास की इमारतें, लोग, सड़क, ट्रैफ़िक सिग्नल, सब कुछ ही कैप्चर हो जाए। फिर क्रेन से ही हाई ऐंगल शॉट से दिखाएँगे लड़के को दौड़ते हुए... उसे कैमरा फ़ॉलो करने के लिए ऊपर से नीचे की ओर टिल्ट होता और टिल्ट होने के साथ ही ज़ूम इन भी करेगा किरदार पर...फिर हमें चूँकि उसकी नॉट-पर्फ़ेक्ट रन दिखानी है, हमें थोड़ा शेकी इफ़ेक्ट भी डालना पड़ेगा। इस सारे दर्मयान आसपास के लोग सॉफ़्ट्ली आउट और फ़ोकस रहेंगे। कि वो भीड़ में गुम ना जो जाए, इसलिए हम चाहेंगे कि किरदार बाक़ी शहर के हिसाब से सफ़ेद नहीं, कोई रंग में डूबा शर्ट पहने, कि जो लड़की का पसंदीदा रंग भी हो - नीला। सॉलिड डार्क कलर की शर्ट। फ़ीरोज़ी और नेवी ब्लू के ठीक बीच कहीं की। लिनेन की कि जिसमें आँसू जज़्ब करने की क्षमता हो। ख़याल रहे कि क्षमता ज़रूरी है, इस्तेमाल नहीं।

लड़की देखेगी कैमरापर्सन की ओर और परेशान होगी, कि कोई भी कहाँ कैप्चर कर पता है उतनी डिटेल में जैसे कि इंसान की आँख देखती है चीज़ों को। कितना कुछ छूट रहा है कैमरा से।

कैमरा मिड शॉट पर आ के रुका है जिसमें बना है जिसमें कि किरदार को फ़ॉलो करना मुश्किल है...फिर अचानक ही हमारा लीड कैरेक्टर मुड़ कर देखता है। एकदम अचानक। उसकी नज़र खींचती है चीज़ों को अपनी ओर जादू से। जैसे कैमरे को भी। लेंस के उस पार का कैमरापर्सन ठिठक जाता है। जैसे ठहर जाता है सब कुछ। पॉज़। किसी फ़िल्म में एकदम मृत्यु के पहले का आख़िरी लम्हा। एक आख़िरी मुस्कान। ज़िंदगी अपने पूरे रंग और खुलूस के साथ बादल जाती है एक ठहरे हुए लम्हे में। महसूस होता है। दिल की ठहरी हुयी धड़कन को भी। इसे ही जीना कहते हैं। बस इसे ही।

कि ज़िंदगी ऐसे किसी लम्हे को मुट्ठी में बांधे मुस्कुराती है कई सालों बाद तक भी। 'डेज़ औफ़ बीइंग वाइल्ड' का आख़िरी दृश्य होता है। लड़का अपनी आख़िरी साँसों के साथ याद कर रहा है। जो उसने कहा था। 'ये एक मिनट मैं अपनी पूरी ज़िंदगी याद रखूँगा'।

ट्रेन की आवाज़ आ रही होती है। पुरानी पटरियों को आदत है सुख और दुःख दोनों को अपने अपने अंजाम तक पहुँचा आती हैं। शिकायत नहीं करतीं। ज़्यादा माँगती नहीं। कैमरा लड़की के चेहरे पर टिका हुआ है। वो खिड़की से बाहर अंधेरे में अपनी आँखें देख रही है। नेचुरल लाइट में शूट करने के चलते हम उसकी आँखों में भरा पानी शूट नहीं कर पाते हैं। और फिर, सेल्युलॉड वंचित रह जाता है ख़ुशी से भरी आँखें रेकर्ड करने से।

मनुष्य के बदन में 'मन' कहाँ होता है, हम नहीं जानते। शायद हृदय के आसपास कहीं। लेकिन उस तक भी लिख कर ही पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। डिरेक्टर उम्मीद करता है कि इतना सा देख कर ऑडीयन्स अपनी ज़िंदगी के हिस्से जोड़ देगी। वो टूटे हुए हज़ारों हिस्से जिनसे मिल कर एक लम्हे का सुख बनता है। एक लम्हे का मुकम्मल। सुख।

05 October, 2017

'वे दिन', न्यू यॉर्क


मुझे कम महसूसना नहीं आता। रात के ढाई बजे मैं काग़ज़ क़लम उठा कर तुम्हें एक ख़त लिखना चाहती हूँ। फ़ीरोज़ी। लैवेंडर और पीले रंग से। मैं लिखना चाहती हूँ कि तुम कोई ऐसी दुआ हो जो मैंने कभी माँगी ही नहीं। माँग के पूरी होने वाली ख़्वाहिशें होती हैं। दुआएँ होती हैं। मन्नतें होती हैं। जो ईश्वर की तरफ़ से भेजी जाएँ…बोनस…वो फ़रिश्ते होते हैं। हमें ज़िंदगी के किसी कमज़ोर लम्हे में उबार लेने वाले। 

जितना लॉजिक मुझे समझ आता है, उस हिसाब से तुम्हें मैंने नहीं माँगा, तुम्हें ईश्वर ने भेजा है। जैसे मेरे हिस्से के कर्मों का फल रखने वाला कोई चित्रगुप्त का असिस्टेंट अचानक जागा और उसने देखा कि बहुत से अच्छे करम इकट्ठा हो गए हैं। या कि उसके पास जो दुनिया की भलाई का कोटा था उसमें एक नाम मेरा भी किसी ने सिफ़ारिश से डाल दिया। या कि उसे प्रमोशन चाहिए था और इसके लिए सिर्फ़ यही उपाय था कि धरती पर जो जीव उसे ऐलकेटेड है, वो उसके काम से बहुत ख़ुश हो। 

मैं कभी कभी बहुत तकलीफ़ में होती हूँ कि मुझे कम प्यार करना नहीं आता। ऐसे में कोई उम्मीद नहीं करती मैं किसी से, लेकिन कभी कभी होता है कि किसी की छोटी सी ही बात से मेरा दिल बहुत दुःख जाता है। बहुत ज़्यादा। ये तकलीफ़ इतनी जानलेवा हो जाती है कि रोते रोते शामें बीतती हैं और क़रार नहीं आता। कि कोई मेरे साथ बुरा क्यूँ करता है। मैं तो किसी का बुरा नहीं करने जाती कभी। इसमें ही पापा कहते हैं कि इंसान अच्छा इसलिए थोड़े करता है कि दुनिया उसके साथ अच्छा करे…इंसान अच्छा इसलिए करता है कि उसकी अंतरात्मा उसे कचोटे नहीं…उसकी अंतरात्मा चैन से रहे। सुकून से। हमको ये बात बहुत अच्छी लगी। उस दिन से हम और भी जो दुनिया से थोड़ा बहुत माँगना चाहते थे, सो भी अपनी हथेली बंद कर ली। 

इस बीच जैसे अचानक से कोई चित्रगुप्त होश में आया और उसे लगा कि मेरी ज़िंदगी में कुछ अच्छा होना चाहिए। मेरी लिखी किताब, ‘तीन रोज़ इश्क़’ दैनिक जागरण के कराए हिंदी किताबों की नील्सन बेस्टसेलर सर्वे में आठवें नम्बर पर आयी। मैंने ऐसा ना सोचा था, ना ऐसा चाहा था, ना ऐसा माँगा था। ये बोनस था। मुझे तो ये भी नहीं मालूम था कि इस देश में कितने लोग चुपके चुपके मेरी किताब पढ़ रहे हैं, बिना मुझे बताए, बिना पेंग्विन को बताए भी, शायद। बहुत दिन ख़ुमार में बीते। बौराए बौराए। 

पिछले साल ऑक्टोबर में स्वीडन गयी थी, उसके बाद फिर अपने ही शहर में थी। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में व्यस्त। मुझे घर बहुत अच्छे से रखना नहीं आता। लोगों का ख़याल भी नहीं। बस इतना है कि मेरे घर में रहते हुए किसी को परायापन नहीं लगता। मेरे दिल में बहुत जगह रहती है, सबके लिए। शायद मैं एक समय डिनर बनाना भूल जाऊँ या शाम के नाश्ते की जगह कहानी लिखती रह जाऊँ मगर इसके सिवा घर में किसी को कभी कुछ बुरा नहीं लगता। मेरे घर और मेरे दिल के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं(figuratively, यू नो, दिल कोई मकान थोड़े है)। इतनी व्यस्त रही की नोवेल पर काम एकदम ही छूट गया। ह्यूस्टन जाने की बात हुयी। वहाँ पर हरिकेन हारवे चला आया। जाने का प्लान दस दिन आगे खिसकाना पड़ा। 

ह्यूस्टन में एक सबर्ब है, वुडलैंड्स। वहाँ रुकी। ऐसे रिज़ॉर्ट में जहाँ पर वाइफ़ाई के थ्रू कहीं कॉल ही नहीं जा रहे थे। बिना बात किए अकबका जाती हूँ, सो अलग। पब्लिक ट्रांस्पोर्ट कुछ भी नहीं तो कहीं आना जाना नामुमकिन। इंडिया और अमेरिका के टाइम में ऐसा अंतर होता है कि किसी से बात करना इम्पॉसिबल होता है। जब तक मैं फ़्री होती, इंडिया में सब लोग सो चुके होते। रिज़ॉर्ट की शटल सिर्फ़ एक मॉल तक जाती थी। वहाँ लेकिन मुझे किताबों की दुकान मिल गयी, barnes एंड नोबल। चूँकि वहाँ से कहीं और नहीं जाना था तो मैं अक्सर किताबें पढ़ने चली जाती थी। वहीं ऐलिस मुनरो की कहानी डिस्कवर की। ऐसे में अधूरी कहानी सुनने के लिए भी तुम थे। इस भागती दौड़ती दुनिया में ज़रा सा कौन निकालता है किसी के लिए वक़्त। 

आज रात मन विह्वल हो गया। जब ईश्वर प्रार्थना मानना शुरू कर दे तो डर लगता है। मगर इस बार सुकून था। न्यू यॉर्क जाने का प्रोग्राम जिस तरह कैंसिल हो कर फिर से बना, वो किसी अलग कहानी के हिस्से है पूरी पूरी कहानी। दो हफ़्ते हो गए। आज टेबल पर कुछ तो देख रही थी कि घड़ी पर ध्यान चला गया। आँख के लेवल पर घड़ी थी। यही वाली पहन कर न्यू यॉर्क गयी थी और तब से इसका टाइम ज़ोन वापस से बदला ही नहीं है। उसमें पाँच बज रहे थे। कुछ दुखा। गहरे। मन में। अभी से दो हफ़्ते पहले इस वक़्त मैं ह्यूस्टन एयरपोर्ट पर थी और एक घंटे में मेरी फ़्लाइट का टाइम था। 

जो बहुत सारे दिन हम सबका अच्छा करते चलते हैं, उसका कोई कारण नहीं होता। लेकिन यूँ होता है कभी फिर,  कि एक दिन ज़िंदगी अचानक से हमारे नाम एक शहर लिख दे। भटकना और रंग लिख दे। सड़कें लिख दे और कॉफ़ी का ज़ायक़ा लिख दे। स्टेशनों के नाम और खो कर फिर मिल जाना लिख दे।

अतीत के बारे में सबसे ख़ूबसूरत चीज़ यही है कि उसे हमसे कोई नहीं छीन सकता। कोई भी हमारे पास्ट में जा के उन दिनों की एक चीज़ भी बदल नहीं सकता। ना मेरी चिट्ठियों का रंग। ना वो मेरी आँखों की चमक। ना वो संतोष वाली, सुख वाली मुस्कुराहट। 

ऐसी कोई एक भी घटना होती है ज़िंदगी में तो कई कई दिनों तक अच्छाई पर यक़ीन बना रहता है। मैं रात तक जगे यही सोचती हूँ कि मेरे साथ इतना अच्छा कैसे हो रहा है। कि मुझे अच्छाई की आदत ही नहीं है। लेकिन होना ऐसा ही चाहिए। छोटे छोटे सुख हों। एक कोई किताब हो कि जिसे ले जाना पड़े सात समंदर पार किसी के लिए। कहानियाँ हों। शब्द हों। 

तुम जितने से थे, बहुत थे। जैसे पानी को जहाँ रख दो, कोने दरारों में भर आता है। कोई मरहम जैसे। पता है, तुम्हारी सबसे अच्छी बात क्या थी? तुम्हारा होना बहुत आसान था। 

कभी कभी छोटे छोटे सुख, बड़े बड़े सुखों से ज़्यादा ज़रूरी होते हैं।
मेरी इस छोटी सी ज़िंदगी में, ये इतना छोटा सा सुख होने का शुक्रिया न्यू यॉर्क।
मैं तुमसे हमेशा प्यार करूँगी। 
हमेशा। 

01 October, 2017

पर्फ़ेक्ट अलविदा


बिछोह के दो हिस्से होते हैं। एक जो ठहर जाता है और एक जो दूर चलता जाता है। हम कई बार डिस्कस करते हैं कि अलग कैसे होना है। अक्सर मिलने के लम्हे ही।

इक बार किसी से मिली थी दिल्ली में तो उसने कहा था कि जाते हुए लौट कर नहीं आना, मैं फिर जा नहीं सकूँगा। वो मेट्रो की सीढ़ियों पर ऊपर खड़ा रहा। मैं नीचे उतरते हुए मुड़ कर देखती रही। एक आख़िरी बार मुड़ कर देखा। बहुत दिल किया कि दौड़ कर वो पचास सीढ़ियाँ चढ़ आऊँ, एक बार और मिल लूँ उससे गले। लेकिन उसने मना किया था। यूँ तो मैं किसी की बात नहीं मानती, मगर उस बार उसकी मान ली। इसके बाद जब हमारी बात हुयी तो उसने कहा, तू लौट कर आयी क्यूँ नहीं...जब मेरी कोई बात नहीं मानती है तो मेरी ये वाली बात क्यूँ मानी...मुझे आज भी मालूम नहीं कि क्यूँ मानी। शायद मुझे अपने दिल की सुननी चाहिए थी।

मैं किसी को छोड़ कर जा नहीं सकती। अक्सर मुलाक़ातों के आख़िरी दिन मेरी ख़्वाहिश रहती है कि कोई दूर होते हुए गुम हो जाए और मैं उसके गुम हो जाने को आँखों में सहेज के रखूँ। ट्रेन के दूर जाते हुए। सड़क पर दूर जाते हुए। कहीं से भी दूर जाते हुए। मैं ठहरी रहती हूँ जब तक कि कोई दिखना बंद ना हो जाए। यूँ ही तो सूरज डुबाना अच्छा लगता है मुझे। मैं एकदम से उसकी आख़िरी किरण तक ठहरी रहती हूँ। तसल्ली से।

अलग होते हुए कुछ लोग मुड़ कर नहीं देखते। दो लोग अलग अलग दिशाओं में जा रहे हों तो ऐसा भी होता है कि जब आप मुड़ के देख रहे हों तो दूसरे ने मुड़ कर नहीं देखा हो मगर वो किसी और वक़्त मुड़ कर देखेगा और यही सोचेगा कि आपने जाते हुए एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा।

दूर जाते हुए इक आख़िरी बार मुड़ कर क्या देखते हैं हम?

हम मुड़ कर ये देखते हैं कि जो हमारा था, वो वहीं है या लम्हे में गुम हो गया। कोई दूर जा रहा हो तो उस स्पॉट पर खड़े रहने की आदत मेरी है। मुझे लगता है दूर होते हुए हर कोई एक बार और लौट कर आना चाहता है। एक आख़िरी हग के बाद के आख़िरी हग के लिए शायद। पर हम लौट कर नहीं आते। दूर से देखते हैं और सोचते हैं...आदत दिलाते हैं ख़ुद को, उसके बग़ैर जीने की, उस लम्हे से ही।

ये मुड़ के देखना कुछ ऐसा है कि हर बार अलग होता है। कोई दो बार अलग होना एक जैसा नहीं होता। कोई दो शख़्स एक जैसे नहीं होते। हम भी तो बदल जाते हैं अपनी ही ज़िंदगी के दो बिंदुओं पर।

इस फ़िल्म में दूर जाती हुयी सेजल है। यहाँ सोचता हुआ ठिठका हैरी है कि वो क्या ढूँढ रहा है...और ठीक जैसे उसे लगता है कि जिसे वो ढूँढ रहा है, वो सेजल तो नहीं...वो उसका नाम लेता है, 'सेजल', ठीक उसी लम्हे वो मुड़ती है। एकदम हड़बड़ायी, आँख डबडबायी...कितनी ही ज़्यादा वल्नरेबल...उसकी आँखें रोयी हुयी आँखें हैं। उदास। नाउम्मीद। वो मुड़ती है कि उसे अचानक से लगा कि किसी ने उसे पुकारा है। उसका यूँ मुड़ के देखना, उसका जवाब है, कि मैंने सुन लिया अपना नाम जो तुमने पुकारा नहीं...लिया है बस...ठहर कर। कि आत्मा की पुकार पहुँच जाती है आत्मा तक। कि दो इंसानों को जो जोड़े रखता है, उस फ़ोर्स का कोई इक्वेज़न हमें ठीक ठीक समझ नहीं आता।

मैं उस बेहद भीड़भरे चौराहे पर खड़ी थी कि जब वो मेरे आसमान से टूटते तारे जैसा टूटा था और भीड़ में बुझ गया था एक बार तेज़ी से चमक कर। मैं खड़ी थी कि उसे आसमान में गुम होता देख लूँ आख़िर तक।

मुझे मालूम नहीं था, पर उम्मीद थी कि जाते हुए वो एक आख़िर बार मुड़ के देखेगा ज़रूर। अलग हो जाने के पहले के वो आख़िरी लम्हे को देखना उसे। ये जानते हुए कि इस इत्ति बड़ी दुनिया में, जाने कब ही आ पाऊँगी उसके शहर फिर कभी।
कि जिसके पास रहते कभी नज़र भर देखा नहीं उसे बहुत दूर से एक आख़िर बार यूँ भरी भरी आँख से देखना कि जैसे उम्र भर को काफ़ी हो, बस वो एक नज़र देखना। बस वो आख़िर नज़र देखना।

सुख में होना उस लम्हे। ये जानते हुए कि सुख, दुःख का हरकारा है। कि बाद बहुत साल तक दुखेगा उसका यूँ आख़िरी बार मुड़ कर देखना। उस लम्हे, ख़ुश हो लेना एक आख़िरी बार देख कर उसकी आँखें।

यूँ, हुए जाना, एक पर्फ़ेक्ट अलविदा।
यूँ, हुए जानां, एक पर्फ़ेक्ट अलविदा।

30 September, 2017

पुराने, उदार शहरों के नाम

शहरों के हिस्से
सिर्फ़ लावारिस प्रेम आता है
नियति की नाजायज़ औलाद
जिसका कोई पिता नहीं होता 
याद के अनाथ क़िस्सों को
कोई कवि अपनी कविता में पनाह नहीं देता
कोई लेखक छद्म नाम से नहीं छपवाता
कोई अखबारी रिपोर्टर भी उन्हें दुलराता नहीं 
इसलिए मेरी जान,
आत्महत्या हमेशा अपने पैतृक शहर में करना
वहाँ तुम्हारी लाश को ठिकाना लगाने वाले भी
तुम्हें अपना समझेंगे 
***
बाँझ औरत
दुःख अडॉप्ट करती है
और करती है उन्हें अपने बच्चों से ज़्यादा प्यार 
लिखती है प्रेम भरे पत्र
पुराने, उदार शहरों के नाम
कि कुछ शहर बच्चों से उनके पिता का नाम नहीं पूछते 
***
असफल प्रेमी
मरने के लिए जगह नहीं तलाशते
जगहें उन्हें ख़ुद तलाश लेती हैं
दुनिया की सबसे ऊँची बिल्डिंग के टॉप फ़्लोर पर
उसके दिल में एक यही ख़याल आया 
***
उस शहर को भूल जाने का श्राप
तुम्हारे दिल ने दिया था
इसलिए, सिर्फ़ इसलिए,
मैंने इतना टूट कर चाहा
हफ़्ते भर में हो चुकी है कितनी बारिश
तुम्हें याद है जानां, सड़कों के नाम?
स्टेशनों के नाम? कॉफ़ी शाप, व्हिस्की, सिगरेट की ब्राण्ड?
तो फिर उस लड़की का क्या ही तो याद होगा तुमको
भूल जाना कभी कभी श्राप नहीं, वरदान होता है 
***
बंद मुट्ठी से भी छीजती रही
तुम्हारी हथेली की गरमी
दिल के बंद दरवाज़े से
रिस रिस बह गया कितना प्रेम
कैलेंडेर के निशान को कहाँ याद
बाइस सितम्बर किस शहर में थी मैं
रूह को याद है मगर एक वादा
अब इस महीने को, 'सितम' बर कभी ना कहूँगी

27 September, 2017

New York Diaries - 1


दो दिन पहले न्यूयॉर्क गयी थी। कुछ यूँ कि एक अधूरी नॉवल अटकी पड़ी है और कुछ ऐसे ही क़िस्से कि जिन्हें कोई ठहार नहीं मिलता। गयी थी तो ठीक थी मालूम नहीं था कि क्यूँ गयी हूँ, लेकिन लौटी हूँ तो मालूम है कि क्यूँ गयी थी। 
मुराकामी के लिखना शुरू करने के बारे में एक घटना का ज़िक्र आता है। अंग्रेज़ी के शब्द, 'epiphany' के साथ। मुराकामी एक बार कोई बेस्बॉल मैच देखने गए थे। नोर्मल सा दिन था। उनकी उम्र उनतीस साल थी। ठीक प्लेयर ने एक बॉल को हिट किया, वो क्रैक पूरे म्यूज़ीयम में गूँज गया और ठीक उसी लम्हे मुराकामी के हृदय में इच्छा जागी, 'मैं एक नॉवल लिख सकता हूँ'। वे उस रात घर जाने के पहले काग़ज़ और कलम ख़रीद के ले गए, और इसके बाद उन्होंने कई नॉवल लिखे। 
मैं न्यू यॉर्क से ह्यूस्टन लौटने के लिए ट्रेन में बैठी थी कि अचानक से कई सारे दृश्य मौंटाज़ बनाने लगे। कितना सारा कुछ ख़ुद में जुड़ने और खुलने लगा और मुझे महसूस हुआ। मैं न्यू यॉर्क अपने अटके हुए नॉवल के लिए एक नया शहर तलाशने गयी थी। कि लिखने के लिए बेस मटीरीयल बहुत सारा कल्पना से आता है लेकिन कल्पना के शहरों में सड़कों के नाम असली होते हैं। 
न्यू यॉर्क की सबसे कमाल की याद एक थरथराहट है। जैसे किसी के सीने पर हाथ रख कर उसकी तेज़ धड़कन को सुनना। न्यू यॉर्क का सबवे सिस्टम बहुत बहुत साल पुराना है। मेन शहर के ठीक कुछ फ़ीट नीचे अंडर्ग्राउंड पटरियों का जाल बिछा है जहाँ ट्रेनें आती जाती रहती हैं। मुझे ये मालूम नहीं था और मैं टाइम्ज़ स्क्वेयर पर चल रही थी कि सड़क के नीचे थरथराहट महसूस हुयी। ज़मीन के नीचे चलती ट्रेन की रफ़्तार को सड़क पर महसूस करना एक कमाल का अहसास था। नब्ज़ पकड़ कर ख़ून की रफ़्तार देखने जैसा। एकदम अलहदा। मैंने ऐसा कुछ कभी महसूस नहीं किया था। टाइम्ज़ स्क्वेयर पर ही ट्रेन की थरथराहट को सड़क पर महसूसने से लगा, कि ये न्यू यॉर्क का दिल है और ये कुछ यूँ धड़कता है। रात के बारह बजे वहाँ अकेली गयी थी। हज़ारों नीआन लाइट्स में दुनिया के कैपिटलिस्ट शहर का मोलतोल देखने। अपना हिसाब लगा कर। कि म्यूज़ीयम देखने हैं। पेंटिंग्स के रंग देखने हैं। देखना है कि शहर में क्या कुछ बिकता है और क्या कुछ ख़रीदा जा सकता है...इश्क़ इतना लॉजिकल थोड़े होता है। वो तो बस हो जाता है। 
मुहब्बत का यक़ीन दिल के तेज़ धड़कने से दिलाया जा सकता है ख़ुद को। या कि दिल के रुक जाने से ही। वो जो बहुत सारे " I ❤️ NY " के टीशर्ट या भतेरी चीज़ें बिकती हैं, वो वाक़ई इसलिए कि इस शहर को आप पसंद नहीं कर सकते, इश्क़ कर सकते हैं इससे बस। बेवजह। छोटी छोटी चीज़ों में सुख तलाशते हुए। 
दिल्ली मेरी जान, नाराज़ मत होना। बहुत साल बाद कोई शहर यूँ पसंद आया है। साँस लेने की रफ़्तार में तेज़ भागता। और ठहर जाता। याद में। 
किसी इन्फ़िनिट लूप में। हमेशा। 

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