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10 December, 2018

Paper planes and a city of salt


जिस दिन मुझे ख़ुद से ज़्यादा अजीब कोई इंसान मिल जाए, उसको पकड़ के दन्न से किसी कहानी में धर देते हैं।

इधर बहुत दिन हो गए तरतीब से ठीक समय लिखा नहीं। नोट्बुक पर भी किसी सफ़र के दर्मयान ही लिखा। दुःख दर्द सारे घूम घूम कर वहीं स्थिर हो गए हैं कि कोई सिरा नहीं मिलता, कोई आज़ादी नहीं मिलती।
चुनांचे, ज़िंदगी ठहर गयी है। और साहब, अगर आप ज़रा भी जानते हैं मुझे तो ये तो जानते ही होंगे कि ठहर जाने में मुझ कमबख़्त की जान जाती है। तो आज शाम कुछ भी लिखने को जी नहीं कर रहा था तो हमने सिर्फ़ आदत की ख़ातिर रेख़्ता खोला और मजाज़ के शेर पढ़ कर अपनी डायरी में कापी करने लगी। हैंडराइटिंग अब लगभग ऐसी सध गयी है कि बहुत दिनों बाद भी टेढ़ी मेढ़ी बस दो तीन लाइन तक ही होती है, फिर ठीक ठीक लिखाने लगती है।
इस बीच मजाज के लतीफ़े पढ़ने को जी कर गया। और फिर आख़िर में मंटो के छोटे छोटे क़िस्से पढ़ने लगी। फिर एक आध अफ़साने। और फिर आख़िर में मंटो का इस्मत पर लिखा लेख।
उसके पहले भर शाम बैठ कर goethe के बारे में पढ़ा और कुछ मोट्सार्ट को सुना। कैसी गहरी, दुखती चीज़ें हैं इस दुनिया में। कमबख़्त। पढ़ वैसे तो रोलाँ बार्थ को रही थी, कई दिनों बाद, फिर से। "प्रेमी की जानलेवा पहचान/परिभाषा यही है कि "मैं इंतज़ार में हूँ"'। इसे पढ़ते हुए इतने सालों में पहली बार इस बात पर ध्यान गया कि मुझे प्रेम कितने अब्सेसिव तरीक़े से होता है। शायद इस तरह डूब कर, पागलों की तरह प्रेम करना मेरे मेंटल हेल्थ के लिए सही नहीं रहा हो। यूँ कहने को तो मजाज भी कह गए हैं कि 'सब इसी इश्क़ के करिश्मे हैं, वरना क्या ऐ मजाज हैं हम लोग'। फिर ये भी तो कि 'उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ाँ मेरे दिल से, देखूँगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और जियादा'। 

कि मैंने उम्र का जितना वक़्त किसी और के बारे में एकदम ही अब्सेसिव होकर सोचने में बिताया है, उतने में अपने जीवन के बारे में सोचा होता तो शायद मैं अपने वक़्त का कुछ बेहतर इस्तेमाल कर पाती। सोचने की डिटेल्ज़ मुझे अब भी चकित करती है। मैंने किसी और को इस तरह नहीं देखा। यूँ इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि मैं चीज़ों को लेकर इन्फ़िनिट अचरज से भरी होती हूँ। बात महबूब की हो तो और भी ज़्यादा। गूगल मैप पर मैंने कई बार उन लोगों के शहर का नक़्शा देखा है, जिनसे मैं प्यार करती हूँ। उनके घर से लेकर उनके दफ़्तर का रास्ता देखा है, रास्ते में पड़ने वाली दुकानें... कुछ यूँ कि जैसे मंटो से प्यार है तो कुछ ऐसे कि उसके हाथ का लिखा धोबी का हिसाब भी मिल जाए तो मत्थे लगा लें। ज़िंदा लोगों के प्रति ऐसे पागल होती हूँ तो अच्छा नहीं होता, शायद। हमारी दुनिया में ऐसे शब्द भी तो हैं, ख़तरनाक और ज़हरीले। जैसे कि स्टॉकिंग।

मैं एक बेहतरीन stalker बन सकती थी। पुराने ज़माने में भी। इसका पहला अनुभव तब रहा है जब मुझे पहली बार किसी से बात करने की भीषण इच्छा हुयी थी और मेरे पास उसका फ़ोन नम्बर नहीं था। मैंने अपने शहर फ़ोन करके अपनी दोस्त से टेलिफ़ोन डिरेक्टरी निकलवायी और लड़के के पिताजी का नाम खोजने को कहा। उन दिनों लैंडलाइन फ़ोन बहुत कम लोगों के पास हुआ करते थे और हम नम्बरों के प्रति घोर ब्लाइंड उन दिनों नहीं थे। तो नाम और नम्बर सुनकर ठीक अंदाज़ा लगा लिया कि हमारे मुहल्ले का नम्बर कौन सा होगा। ये उन दिनों की बात है जब किसी के यहाँ फ़ोन करो तो पहला सवाल अक्सर ये होता था, 'मेरा नम्बर कहाँ से मिला?'। तो लड़के ने भी फ़ोन उठा कर भारी अचरज में यही सवाल पूछा, कि मेरा नम्बर कहाँ से मिला तुमको। फिर हमने जो रामकहानी सुनायी कि क्या कहें। इस तरह के कुछेक और कांड हमारी लिस्ट में दर्ज हैं।

ये साल जाते जाते उम्मीद और नाउम्मीद पर ऐसे झुलाता है कि लगता है पागल ही हो जाएँगे। न्यू यॉर्क का टिकट कटा के कैंसिल करना। pondicherry की ट्रिप सारी बुक करने के बाद ग़ाज़ा तूफ़ान के कारण हवाई जहाज़ लैंड नहीं कर पाया और वापस बैंगलोर आ गए। पेरिस की ट्रिप लास्ट मोमेंट में कुछ ऐसे बुक हुयी कि एक दिन में वीसा भी आ गया। कि पाँच बजे शाम को पास्पोर्ट कलेक्ट कर के घर आए और फिर सामान पैक करके उसी रात की फ़्लाइट के लिए निकल भी गए। 

कि साल को कहा, कि पेरिस ट्रिप अगर हुयी तो तुमसे कोई शिकायत नहीं करूँगी। जिस साल में इंसान पेरिस घूमने जाए, उस साल को बुरा कहना नाइंसाफ़ी है... और हम चाहे और जो कुछ भी हों, ईमानदार बहुत हैं। फिर बचपन में इसलिए तो प्रेमचंद की कहानी पढ़ाई गयी थी, 'पंच परमेश्वर', फिर किसी कहानी में उसका ज़िक्र भी आया। कुछ ऐसे ही वाक़ई बात मन में गूँजती रहती है, लौट लौट कर। 'बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?'। तो इस साल की शिकायतें वापस। साल को ख़ुद का नाम क्लीयर करने का मौक़ा मिला और २०१८ ने लपक के लोक लिया।

मगर ये मन कैसा है कि आसमान माँगता है? ख़ुशियों के शहर माँगता है। इत्तिफ़ाकों वाले एयरपोर्ट खड़े करता है और उम्मीदों वाले पेपर प्लेन बनाता है। ऐसे ही किसी काग़ज़ के हवाई जहाज़ पर उड़ रहा है मन और लैंड कर रहा है तुम्हारे शहर में। कहते हैं सिक्का उछालने से सिर्फ़ ये पता चलता है कि हम सच में, सच में क्या चाहते हैं। इसलिए पहले बेस्ट औफ़ थ्री, फिर बेस्ट औफ़ फ़ाइव, फिर बेस्ट औफ़ सेवन... और फिर भी अपनी मर्ज़ी का रिज़ल्ट नहीं आया तो पूरी प्रक्रिया को ही ख़ारिज कर देते हैं। 

इक शहर है समंदर किनारे का। अजीब क़िस्सों वाला। इंतज़ार जैसा नमकीन। विदा जैसा कलेजे में दुखता हुआ। ऊनींदे दिखते हो उस शहर में तुम। वहाँ मिलोगे?

01 October, 2018

वयमेव याता:

जिन चीज़ों को गुम हो जाना चाहिए…

१. उस रोज़ शाम में बहुत रंग थे। मैं हाल में इस घर में आयी थी। कई हफ़्तों से लगातार कमरे में ही रही थी, इस घर में शिफ़्ट होने पर भी पहले तल्ले पर रह रही थी तो सीढ़ियाँ नहीं उतरती थी और ऊपर ही रहती थी। एक खिड़की भर ही आसमान मिल रहा था मुझे। दो दिन फ़िज़ियोथेरेपी करायी थी तो थोड़ी राहत थी आज। कमरे की खिड़की से थोड़ा गुलाबी दिखा तो आसमान देखने का बहुत मन कर गया। सीढ़ियाँ उतर कर घर के बाहर गयी। इस सोसाइटी में बहुत से विला एक क़तार से बने हुए हैं, इन्हें row-houses कहते हैं। शहर से थोड़ा हट के है ये इलाक़ा और यहाँ आसपास ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए बहुत सारा आसमान दिखता है। पश्चिम की ओर इस कॉम्प्लेक्स का मुख्य दरवाज़ा है जहाँ से पूरी पश्चिम का खुला आसमान दिख रहा था। इंद्रधनुष के सारे रंग थे उधर। और बीच के कई सारे भी। गहरा गुलाबी। सेब का कच्चा हर। सुनहला पीला। मोरपंखी हरा की एक छब तो कहीं स्याही के रंग का नीला एकदम ही। मैं देखती ही रह गयी, इतना सारा आसमान कितने दिन बाद देखा था। इतने सारे रंग भी कितने दिन बाद ही। फ़ोन से तस्वीरें खींची तो देखा कि आइफ़ोन X से रंग लगभग जैसे हैं वैसे ही उतर आते हैं तस्वीर में। बहुत सुंदर तस्वीर थी। उसपर क्लिक किया कि whatsapp खुले। वहाँ सबसे ऊपर सजेशन में तुम्हारा नाम नहीं था। मैं एक मिनट को ठिठकी। टेक्नॉलजी के लिए कितना आसान है, किसी को लिस्ट में पीछे डाल देना। मन के लिए कितना उलझ जाता है सब कुछ। जैसे गुनगुनाती हुयी बहती नदी के रास्ते में कोई बड़ा सा पत्थर आ जाता है जिससे नदी को अपनी दिशा बदलनी पड़ती हो…सोच के सारे धागे उलझ जाते हैं।

वो तस्वीर रखी हुयी है। फ़ोन में। पर उसे ग़ायब हो जाना चाहिए। कहीं।

२. निर्मल को पढ़ना पिछले साल शुरू किया था। तब पहली बार जाना था कि उनके दीवाने धुंध से उठती धुन को इस पागलपन के साथ कैसे खोजते हैं जैसे मन आत्मा के छूटे किसी टुकड़े को। कोई ख़ालीपन बसता जाता है रूह के बीच और हम चाहते हैं कि वहाँ निर्मल के जिए हुए शब्द रहें। उनका लिखा हुआ शहर। उनके सुने हुए गीत। उनके ख़त। उनके हिस्से के दोस्त। गूगल ने बताया था कि धुंध से उठती धुन की एक कॉपी तुम्हारे शहर की लाइब्रेरी में है। उन दिनों सब कुछ क़िस्सा कहानी जैसा ही तो लगता था। मैंने कहा था कि लाइब्रेरी से वो किताब उड़ा लेंगे। तुमने कहा था कि तुम भी पार्ट्नर इन क्राइम बनने को तैय्यार हो।

फिर देखो ना। इतने सालों से जो किताब आउट औफ़ प्रिंट थी, छप के आ गयी इस साल। मुझे जिस लम्हे पता चला, मैंने Amazon पर दो कॉपी ऑर्डर कर दी। तुमसे पूछा भी कहाँ। कि वो किताब तो तुम्हारे हिस्से आनी ही थी। फिर कुछ यूँ हुआ कि जैसे जैसे मन के ख़ालीपन में निर्मल के शब्द बसते गए, तुम्हारे मन के शहरों से मैं बिसरती गयी वैसे ही। फिर वो एक दिन आया कि जब पूरा एक साल बीत गया हमारे बीच और मैंने महसूस किया…कि साल नहीं बीता, मैं बीत गयी हूँ, रीत गयी हूँ उस शहर से पूरी। इतनी तेज़ भागते शहर की याद्दाश्त कम होती है। तुम तक कुछ नहीं पहुँचता। काग़ज़ की नाव, whatsapp के मेसजेज़, वॉइस रिकॉर्डिंग, ईमेल, तस्वीरें, चिट्ठियाँ…मन की आवाज़…कुछ भी नहीं।

मेरे पास धुंध से उठती धुन की एक कॉपी है। जिसके पहले पन्ने पर मैं लिखना चाहती हूँ तुम्हारे शहर का नाम और तुम्हारे शहर के हिस्से ढेर सारा प्यार।

३. तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ, अधलिखी। नोट्बुक में रखे बहुत से सादे काग़ज़ जिनपर लैवेंडर फूल बने हैं, नर्म जामुनी रंग के। कुछ जामुनी और कुछ हल्के हरे रंग के लिफ़ाफ़े। पोस्टकार्ड। कहाँ कहाँ की टिकट। मैंने इतनी बेख़याली में तुम्हें ख़त लिखे हैं कि कुछ में 2019 की तारीख़ पड़ी हुयी है, कुछ में २००८ की… तुम्हारी बात आती है तो समय का कुछ पता कहाँ चलता है।

४. सुख के कई कोरे कच्चे लम्हे जो कि तुम्हारे साथ बाँटने से पूरे पूरे हो जाते। हँसते हुए फ़्रेम हो जाते।

५. सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू, जिनका नाम मुझे नहीं पता। इस बिल्डिंग में एक सफ़ेद फूलों वाला पेड़ रहता है। रात दिन फूल झरते हैं उसके नीचे। अनवरत। याद जैसे रूकती नहीं है, वैसे। अनगिनत फूलों वाला उदास पेड़। अलविदा जैसा। बहुत दिन के बाद इक सुबह लिखने बैठी तो मिट्टी से बीन कर कुछ फूल ले आयी। घर के बाहर कुछ नन्हें पीले फूल खिलते हैं, उनमें से एक तोड़ लिया और एक काँच के पारदर्शी टकीला ग्लास में रख दिया। लिखते हुए उनकी ख़ुशबू आती रही।

कहती तुमसे, ये फूल हों तुम्हारे शहर में तो सूंघ के देखना, मेरी सुबह की ख़ुशबू ऐसी है इन दिनों।

६. दिल के एक हिस्से पर लिखा तुम्हारा नाम, जिसे बड़ी बेरहमी से खुरच कर मिटाने की कोशिश की थी एक शाम। टीसता रहता है वो हिस्सा। समय के दोनों सिरे पर थिर सिर्फ़ ज़ख़्म होते हैं। शायद। क़िस्से किरदारों वाला कोई एक रंगरेज़ हो कि दीवार पर थोड़ा सा चूना डाल के पुताई कर दे एकदम नए रंग में।

मेरे वजूद में कई ब्लैक होल होते चले गए हैं यहाँ इन चीज़ों को एकदम ही ग़ायब हो जाना चाहिए…लेकिन मन भी ever expanding universe की तरह ही है शायद। कितनी दुनियाएँ समा जाएँ और एक पैरलेल दुनिया को पता भी ना चले दूसरे के दुःख का। मैं तुम्हारी तस्वीर देखते हुए अक्सर सोचती हूँ, ब्लैक होल की तस्वीर नहीं उतारी जा सकती है…पर तुम्हारी मुस्कान को किया जा सकता है लम्हे में क़ैद। तो तुम रहो शायद। इस अनश्वर दुनिया में… इसी multiverse में कहीं और… पास के किसी शहर में। किसी ऑल्टर्नट रीऐलिटी में तुम्हें मेरी याद रहे थोड़ी सी। और मैं कह सकूँ तुमसे, ज़्यादा कुछ नहीं, बस उतना जितने पर हक़ हो किसी पुराने दोस्त का, कि याद आती है तुम्हारी, ‘I miss you.’, मिलना फिर कभी। Au revoir! 

26 April, 2018

तुमसे बात करना
बारिश में भीगना था
पोर पोर से उड़ती थी
ललमटिया देहगंध
छम छम हँसता था
आम का बौर 

तुमसे बात करके
धुल जाती थी कविताएँ
दिखते थे नए, चमकीले बिम्ब
तुम हँसते थे, और
पिकासो का नीला अवसाद
धुल जाता था आत्मा से

तुमसे बात किए बिना
मैं उजड़ता हुआ किला हूँ
टूटती मुँडेरों वाला
जिस पर दुश्मन या दोस्त
कोई भी आक्रमण कर सकता है

बरसों बीते तुमसे बात किए हुए
मैं इन दिनों,
तलवार की सान तेज़ करती हूँ
दुर्गा कवच पढ़ती हूँ
जिरहबख़्तर पहन के सोती हूँ
डरती हूँ

अपने टूटे हुए दिल से खेलती
सोचती हूँ अक्सर
जाने तुम मेरे हृदय का कवच थे
या तुमने ही मेरा कवच तोड़ा है।

19 January, 2018

हमारे अलविदा को ना लगे, किसी दिलदुखे आशिक़ की काली नज़र


विस्मृति की धूप से फीके हो जाएँगे सारे रंग
एक उजाड़ पौधे पर सूख गए आख़िरी फूल दिखेंगे
धूल धुँधला कर देगी खिड़की से बाहर के दृश्य
हमारे नहीं होने के कई साल बाद भी

मैं तलाशती रहूँगी हमारे ना होने की वजहें
अपने मन के अंधारघर में
मैं रहूँगी, इकलौती खिड़की पर
अंतहीन इंतज़ार में।

***

मैं नहीं रोऊँगी इस बार
कि आँख में बचा रहे काजल
और हमारे अलविदा को ना लगे
किसी दिलदुखे आशिक़ की काली नज़र

याद के बेरंग कमरे को
रंग दूँगी तुम्हारे साँवले रंग में।
स्टडी टेबल के ठीक ऊपर
टाँग दूँगी तुम्हारी हँसी की कंदीलें।

अलविदा के पहर कम दुखें, इसलिए ही
जलाऊँगी दालचीनी की गंध वाली मोमबत्ती।

हिज्र उदास कविताओं का श्रिंगार है
कहो अलविदा,
कि स्याही के अनेक रंग और कुछ सफ़ेद पन्ने
इंतज़ार में हैं।

05 December, 2017

फुटकर चिप्पियाँ : #simpleharmonicmotion

'तुम ये बाल धो कर मुझसे मिलने आना बंद करो'
'क्यूँ? मेरे बाल धोने से टेक्टानिक प्लेट्स में हलचल होती है? भूकम्प आते हैं?'
'नहीं। ईमान डोलता है। वो भूकम्प से ज़्यादा ख़तरनाक है'
'है तो सही'
'क्या लगाती हो तुम बालों में आख़िर? कौन सा शैंपू है ये?'
अब उसे कौन बताए कि लड़की कोई साधारण लड़की तो है नहीं, मेरी कहानी का किरदार है। उसकी रगों में इत्र दौड़ता है। चाँद से मीठी। प्यास सी तीखी। रूद्र की इतरमिश्री। मेरी इतरां।
इतरां मुस्कुरायी और बालों से जूड़ा पिन निकाला। उसके कमर तक लम्बे बाल हवा में झूम गए। इतरां अपना चेहरा लड़के के एकदम क़रीब लायी, एक बदमाश लट उसके गालों में गुदगुदी करने लगी। हौले से इतरां ने उसके कानों में कहा...
'शैंपू नहीं मेरी जान, अफ़ीम...मेरे बालों से अफ़ीम की गंध उड़ती है'।
***
ये दिन ख़तरनाक हैं। 
'प्यार', 'प्रेम', 'इश्क़' जैसे शब्दों का मनमाना इस्तेमाल कर रही हूँ कि जैसे ना ये शब्द ख़त्म होंगे, ना मेरे दिल में प्रेम। 
एक स्त्री का हृदय अक्षयपात्र था। उसमें प्रेम कभी ख़त्म नहीं होता। कभी कभी वह भूखी सो जाती क्यूँकि उसकी इच्छा नहीं होती एक चुम्बन चखने की भी। लेकिन कभी कभी वह दोनों हाथों से प्रेम उलीचती। उसकी छोटी छोटी हथेलियों में कितना ही प्रेम आ सकता...उसके छोटे से हृदय में कितना अपार प्रेम था। समंदर जितना। 
इन दिनों मैं वह औरत हुयी जाती हूँ। इन दिनों प्रेम और मैं अलग नहीं...इन दिनों भय को निष्कासित कर दिया गया है उदास और तनहा रेगिस्तान में। इन दिनों कोई नहीं है और बहुत लोग हैं। 
इन दिनों, मैं वो उजड़ा हुआ गाँव हूँ जहाँ आवाज़ें रह गयी हैं। ख़ाली मकान रह गए हैं। इन दिनों, मौसम बहुत ख़ूबसूरत है और मेरी आत्मा उदार। 
जानां, चले आओ कि शायद ये मेरे जीवन का आख़िरी वसंत है।
***
उदास रातों में धूप के उस दिन की चमकीली याद...कि क्यूँ ना याद आए तुम्हारी...हाँ चाह रही हूँ मैं, कि लौट आओ तुम, देहरी पर देखूँ तुम्हें, खींचूँ आँचल माथे पर, घूँघट के अंदर मुसकाऊँ...दौड़ के जाऊँ जब लाने तुम्हारे लिए सुराही का ठंढा, सोन्हा पानी तो साथ नन्हीं आवाज़ों की एक खिलखिलाहट चले साथ में...चूड़ी, पायल, झुमके...सब हँसें हौले हौले...
तुम्हारे लिए खींचूँ कुएँ से बाल्टी भर पानी कि तुम जल्दी से हाथ मुँह धो लो। पीढ़ा लगा दूँ तुम्हारे बैठने को और दोपहर का खाना परोस दूँ तुम्हें। भात, भुजा हुआ राहर का दाल, चोखा, बैगन का बचका और पापड़। तुम हाथ पकड़ लो तो चूड़ियाँ खिलखिलाने लगें फिर से। साथ में कौर खिलाना चाहो तुम। मैं बस, 'धत्तेरी के, बौरा गए हो का...देख लेगा कोई' कह सकूँ।
तुम साइकिल पर बिठा कर ले जाओ मुझे आम का बग़ीचा दिखाने। टिकोला खिलाने। मैं सूती साड़ी के आँचल से खोलूँ नमक की ढेली। तुम पॉकेट से निकालो ब्लेड। नहर किनारे बैठ कर टिकोला कुतरते हुए हम झगड़ें हमारे होने वाले बच्चों के नाम पर। तुम्हें मालूम भी है अजन्मे बच्चे किस तरह कचोटते हैं सीने में। तुम तो बस इसे हँसी और लाड़ ही समझोगे। या कि तुम भी जितना महसूसते हो उसका छटाँक भर भी कह नहीं पाते। 
ये चाहती हूँ मैं। मुझसे मत पूछो कि मैं अकेली हूँ या कि उदास हूँ और तुम्हारे लौट आने की कल्पनाएँ बुनती हूँ। तुम्हें मालूम भी नहीं कि मैं क्या क्या कल्पनाएँ बुनती हूँ। सुनो। इतने दूर देश से लौटते हुए क्या ला रहे हो मेरे लिए तुम?
***
मौसम बहुत अच्छा था। पीलापन लिए शाम थी और हवा में खुनक। आज मैं बहुत देर घर पर रही और ये सोचा कि शाम गहराने दूँगी और घर की बत्तियाँ ऑन नहीं करूँगी। मैंने बहुत दिनों से रात को आते नहीं देखा है। शाम होते ही लाइट्स जला देती हूँ। सिगरेट की तलब हो रही थी लेकिन उसका कसैला स्वाद मेरी शाम के रंग चुरा लेता, इसलिए सिगरेट नहीं पी। 
वर्क टेबल पर बैठ कर आसमान देखा लेकिन लगा कि आज छत पर जाना चाहिए। शाम का पीलापन सुनहला और चमकदार था। बाद थोड़ी ही देर में ये धूसर और उदास हो जाता। मैंने अपना कैमरा निकाला और घर में ताला लगा कर छत पर चली गयी। आसमान बहुत ख़ूबसूरत था। गहरा नारंगी और लाल। पीला और धूसर। बहुत से शेड्स थे लाल के। बादलों का आना जाना भी जारी था। मैंने मूड के मुताबिक़ कुछ ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें खींचीं। 
छत के पेंट्हाउस के ऊपर वाली छत पर जाने के लिए एक छोटी सी लोहे की सलाखों वाली सीढ़ी है। मैं उससे ऊपर चली गयी। ये इस इलाक़े की सबसे ऊँची छत है। यहाँ से बहुत दूर का दिख जाता है। फिर इस छत पर कोई आता भी नहीं। बहुत देर तक और भी तस्वीरें खींची। 
शाम गहराने लगी तो फिर तस्वीर खींचने का मतलब नहीं था। सब ग्रेनी आता और क्लीन अप भी नहीं होता हमसे। आज ठंढी हवा इतनी ख़ूबसूरत चल रही थी कि बस। कल बुधवार है। बाल धो लेने का दिन। तो बस। परसों मूसलाधार बारिश हुयी है तो आज छत एकदम साफ़ थी। जैसे किसी ने बुहार दिया हो। मैं छत पर लेट गयी। एक सेकंड को सोचा कि योगा मैट ले आना चाहिए था। या कोई चादर या चटाई होती तो अच्छा लगता। मगर फिर इन चीज़ों पर ध्यान नहीं गया। किसी भी फ़र्श पर बैठने या लेटने का अपना सुख होता है। छत के इर्द गिर्द तीन फ़ीट की बाउंड्री है तो निश्चिन्त थी कि मुझे कोई देख नहीं सकता। 
मौसम गर्म है इन दिनों तो छत तपी हुयी थी और हल्की गर्माहट थी फ़र्श में। मैंने बाहें खोल रखी थीं। बाल लम्बे और घने होने का फ़ायदा ये है कि कड़ा हो फ़र्श तो भी चुभता नहीं है। हल्की हल्की हवा चल रही थी कि जो ठंढी थी। तपी हुयी ज़मीन की गर्माहट और हवा की ठंढ। हल्के हल्के बाल उड़ रहे थे हवा में। मैं देर तक बादलों को देखती रही। उनका आसमान में इधर उधर भागना। रात के गहराते हुए उनका रंग घुल कर सियाह होना। सब। 
हवा। जैसे पूरी दुनिया का अँधेरा इकट्ठा कर मेरी आँखों में सहेज देना चाहती थी। हर बार जब आँखों से गुज़रती, सब कुछ एक शेड और डार्क हुआ जाता। अँधेरा मेरे इर्द गिर्द जमा होता रहा। मैं अंधेरे में फ़्लोट कर रही थी। 
मेरा दिल किया कि मैं झूठ झूठ किसी को फ़ोन कर के कह दूँ। मेरा शहर बहुत याद करता है तुम्हें। और कि मुझे इश्क़ है तुमसे। बेतरह। कि तुम अपने शहर के आसमान का एक टुकड़ा मेरे नाम लिख दो प्लीज़...कि जानां, मेरे शहर में तो पूरा आसमान तुम्हारा ही है। खुले आसमान के नीचे, छत पर बाल बिखेरे सोयी हुयी इस पागल लड़की के दिल की तरह, सब तुम्हारा ही है। 
घर लौटी तो सारे कमरे अंधेरे थे। वर्क टेबल पर रखे ज़रबेरा के फूल काले अंधेरे के आगे कांट्रैस्ट में बहुत ख़ूबसूरत लग रहे थे। तुम्हारे वीतराग के सियाह बैक्ग्राउंड में मेरा गहरा लाल इश्क़। 
सुनो। इस तस्वीर में रंग मत तलाशना। ना मेरे शब्दों में इज़हार। कि तुम तो जानते ही हो, कि सब फ़रेब है जानां। फिर भी। इश्क़ तुमसे। तुम से ही।
***
मैंने तुम्हें सुना है। इंतज़ार की तरह।
अपने फ़ेवरिट गाने में बोल शुरू होने के पहले बजते इन्स्ट्रमेंटल संगीत के ख़त्म होने के इंतज़ार की तरह। बहुत देर की चुप्पी के बाद की कविता की तरह। मैं तुम्हें सुनना चाहती हूँ। देर तक। अविराम। साँस की तरह। लय में। नियमित। और यक़ीन के साथ। कि तुम्हारी आवाज़ इस बात का सबूत हो कि मैं ज़िंदा हूँ। 
बारिश हवा को थका देती है। कितना पानी अपने साथ लिए कितने शहर भिगोना पड़ता है उसे। हवा हौले हौले मेरे घर के किवाड़ खटखटा रही है। उसे सुस्ताने के लिए बहुत सी घंटियों वाली विंडचाइम चाहिए ऐसा उसने कहा है। मैं हवा को सुनती हूँ। तुम्हारी आवाज़ की अनुगूँज लिए हुए।
वर्क टेबल पर एक सफ़ेद लिली है जो अभी खिलेगी एक आध दिन में। तीन ज़रबेरा हैं। दो पीले, एक सफ़ेद। उनके पीछे का आसमान थोड़ा पीलापन लिए है...मगर ये पीलापन ऐसा नहीं है कि आसमान का रंग है...ऐसा कि रोशनी पीली है। सब कुछ एक पीलेपन में सरगत है...सराबोर है...डूबा हुआ है। 
मैं बहुत दिन बाद किसी की याद में कोल्ड्प्ले का गीत गाना चाहती हूँ। येलो। 
अँधेरा गिर नहीं रहा। इर्द गिर्द बह रहा है। लपेट रहा है मुझे। जैसे कोई काली शॉल हो। जाड़े के दिनों में। कम्फ़र्टिंग। मैं अपने इर्द गिर्द थोड़ा अँधेरा समेटती हूँ। अपने दिल में थोड़ी जगह बनाती हूँ, अंधेरे के लिए। घर की लाइट्स नहीं जलायी हैं। मैं सब कुछ अँधेरा होना महसूसना चाहती हूँ। 
फिर मैं तुम्हारा नाम लूँगी। और आइने में देखूँगी कि आँखों में कितनी चमक आती है।
या कि बजता है रात की चुप्पी में कौन सा राग ही।

12 November, 2017

रंग मेरी हँसी पहचानते हैं



सपने के ऊपर सच होने की ज़िम्मेदारी नहीं होती। वो कुछ भी हो सकता है।

क़ायदे से पहला महबूब वही था। पहला प्यार कि जो ख़यालों में नहीं। हक़ीक़त में था। रोज़ का मिलना था जिससे। और कि जिसके रूम को पहली बार घर कहा था। जहाँ किचन में मेरे हिसाब से चीज़ें हुआ करती थीं। एक छोटा सा कमरा था। लेकिन बहुत ही सुंदर सी गृहस्थी थी। बहुत ही सुंदर। अपनी पसंद की चादरें। गुलदान। और दो रजनीगंधा और एक गुलाब का फूल। इतने में ही मेरा घर बस गया था। उससे दुबारा मिले ग्यारह साल होने को आए।
सपने में मैं दिल्ली में हूँ, इवेंट ऑर्गनाइज करने। अपने ऑफ़िस के लोगों के साथ। मेरा बॉस है। मुझसे रिपोर्ट ले रहा है कि सब ठीक से हुआ है या नहीं। यूनिवर्सिटी में शायद कोई बुक लौंच है, या ऐसा ही कुछ। उसने मुझे emceee स्क्रिप्ट का प्रिंट दिया है। कि एक बार इसे देख लो। हम जहाँ हैं वहाँ सीढ़ियाँ हैं। कुछ कुछ किसी छोटे से ओपन एयर थीयटर जैसीं।
मेरे हाथ में पन्ने हैं लेकिन मेरा ध्यान ज़रा भी शब्दों पर जा नहीं रहा है। हल्की बारिश हो रही है। अगस्त का महीना है। वहाँ सारे हास्टल्ज़ एक ही जैसे लग रहे हैं अब इतने साल बाद। मैं तलाशने की कोशिश कर रही हूँ कि मेरा वाला कमरा कौन सा था। मुझे बिल्डिंग्स दिख रही हैं और ये याद आ रहा है कि किसी बिल्डिंग के आख़िरी कोने वाला कमरा था। इमारतों का रंग गहरा सलेटी है और कई सालों की बारिश और बिना पुताई के वे सीली हुयी और काई लगी दिख रही हैं थोड़ी दूर से। उनपर काले चकत्ते हैं। सारी इमारतें ही सलेटी हैं। मैं पगडंडियों के बीच टहलती हुयी तलाश रही हूँ कि इनमें मेरा वो कमरा है कहाँ। 

तभी उसी पगडंडी पर वो दिखा है। इतने सालों बाद भी उसमें कोई अन्तर नहीं आया है। कोई सा भी नहीं। उसने कुर्ता और जींस पहना है। उसकी आँखों में वही उदासी है जो बिछड़ते हुए मैंने देखी थी। मैं पूछती हूँ उससे, 'वो हमारा वाला रूम कहाँ था, हमको दिखा दो ना, तब से खोज रहे हैं, नहीं मिल रहा है'। वो देखता है हमको। हाथ आगे बढ़ाता है और मेरी हथेली को अपनी दो हथेलियों के बीच रखता है। सहलाता है कि जैसे किसी ज़ख़्म पर फूँक मारती थी माँ। 

काँधे पर हाथ रखता है और हम ऐसे साथ चलते हैं जैसे बीच के साल कभी आए ही नहीं थे। दूर से दिखाता है कमरा। मैं कमरे की दीवारों का रंग याद करने की कोशिश करती हूँ। उनपर पेंसिल से लिखी वो आख़िरी तारीख़ भी। जब मुझे लगा था कि हम हमेशा इश्क़ में रहेंगे। वैसे लिखा हुआ झूठ नहीं था। कि मैं प्यार उससे अब भी करती हूँ। बहुत बहुत बहुत।
वो कहता है। ये कुछ नहीं है। चलो तुमको कुछ और दिखाता हूँ। हम साथ में वहाँ के फ़ोटो स्टूडीओ जाते हैं। यूनिवर्सिटी कैंपस के छोटे से मार्केट में कुछ छोटी सी दुकानें हैं। एकदम पुराने ज़माने की हीं। एक बड़ा सा फ़ोटोस्टैट है जिसमें से घिर्र घिर्र की आवाज़ आ रही है। कोई तो पैंफलेट की कॉपीज़ बना रहा है। स्टूडीओ में एक छोटी सी डेस्क है जो अंदर और बाहर को अलग करती है। वहीं पर डिवेलपिंग रूम भी है। कोई भी नहीं है वहाँ। हमारे बायीं ओर दीवार पर किसी स्लाइड शो प्रोजेक्टर से तस्वीरें प्रोजेक्ट की जा रही हैं। पुरानी सी दीवार है। हल्का सा अँधेरा है स्टूडीओ। उसने मुझे दीवार की ओर देखने को कहा। दीवार पर उस वक़्त एक मॉडल की तस्वीर थी। तस्वीर पर पड़ने वाली रौशनी दिख रही थी प्रोजेक्टर से आती हुयी। हम दोनों दीवार की ओर देख रहे थे, जहाँ तस्वीर बनती। स्लाइड बदली और वहाँ दीवार पर एक हँसती हुयी दुल्हन की तस्वीर थी, मेरी। मैंने गहरे लाल रंग की चूनर ले रखी थी माथे पर जिसके गोटे में सुनहले छोटे छोटे लटकन लगे हुए थे। मेरी आँखों में बहुत सी ख़ुशी थी। मेरा पूरा शृंगार दुल्हन का था। हाथों में भर भर चूड़ियाँ। आँखों में काजल, बड़ी सी लाल बिंदी, लाल ही लिप्स्टिक। दुल्हन के शृंगार में इतनी ख़ुश तो मैं कभी नहीं थी। बहुत ही भौंचक होकर मैंने पूछा उससे, 'ये कब की फ़ोटो है? ये मैंने कब खिंचवायी?'। मुझे कुछ भी याद नहीं था। कि तभी तस्वीर फिर बदली। इस बार मैं गहरे लाल सलवार सूट में थी और वही लाल दुपट्टा लिया हुआ था...मैं एक झूले पर झूलती हुयी थी...आधी पींग बीच...सारे बाल खुले नीचे की ओर झूलते हुए थे और मैं हँस रही थी इसमें। कैमरा के लिए वाली हँसी नहीं...ख़ुशी वाली हँसी। बहुत प्रेम में डूब कर लड़की जो हँसती है, अपने महबूब को देख कर...वो हँसी। वो निश्चिंतता कि हम कभी बिछड़ने वाले नहीं हैं। उसकी आँखें भर आयी थीं। उसने कुछ नहीं कहा लेकिन मुझे याद आ गया था। ये करवाचौथ की तस्वीर थी। मैंने यूँ ही में उसके लिए व्रत रख लिया था और शाम को उसके आने का इंतज़ार किया था अपना लाल रंग का सलवार कुर्ता पहन कर। चाँद को देख कर उसे देखा था तो उसने अठन्नी दी थी। फिर हम घूमने गए थे। वहीं पेड़ पर झूला लगा हुआ था कैंपस में ही कि जहाँ उसने कैमरा से वो फ़ोटो खींची थी झूले वाली। पहली वाली फ़ोटो में चिढ़ाया भी था, दुल्हन कहीं इतने ज़ोर से हँसती है, मुस्कुरा के फ़ोटो खिंचानी चाहिए थी ना। क़िस्मत का फेर भी ऐसा लगा कि शादी के दिन इतनी तकलीफ़ थी...इतना दुःख था कि हँसती हुयी तो दूर की बात है, मुस्कुराती हुयी फ़ोटो भी नहीं है। ये हँसती हुयी दुल्हन वाक़ई किसी बहुत पुरानी याद में ही हो सकती थी। उसने मेरा हाथ पकड़ा। मैं उसकी आँखें नहीं देख सकती थी उस अंधेरे में, लेकिन मुझे मालूम था वे भीगी होंगी। उसने बहुत धीमी आवाज़ में मुझसे कहा, या शायद ख़ुद से ही। 'मैं यहाँ कभी कभी मरने आता हूँ'।

हम अंधेरे के झुटपुटे में बाहर निकले। ये कैंपस था। कोई भागदौड़ वाला शहर नहीं कि यहाँ रोने को जगह ना मिले। जंगल से गुज़रती पगडंडी थी। पगडंडी के बीच पुलिया थी। हम पुलिया पे देर तक एक दूसरे को पकड़ के बैठे रहे। पसीजी हथेलियाँ लिए। दुखता रहा वो एक ख़ुशी का दिन। वो एक दुल्हन का लाल जोड़ा। वो हँसी। वो मुट्ठी में रखी अठन्नी। वो झूले की पींग। हवा में लहराते, खुले बालों की महक। इश्क़ का गहरा लाल रंग। और उसका ख़त्म हो जाना भी। हम उस समय में लौट जाना चाहते थे। उस प्यार में। उस कमरे में। 

मैं सपने से एक तीखे सर दर्द में उठी हूँ। वो हँसती आँखें मुझे नहीं भूलतीं। वो दुल्हन का जोड़ा। वो झूले की ऊँची पींग। और उसका होना। उसका होना पहले प्यार की तरह। उसका बसना अपने इर्द गिर्द। मेरे पास ऐसी कोई भी तस्वीर नहीं है जिसमें वैसी एक हँसी हो। वैसा इश्क़ हो। वैसा खेल खेल में जान दे देने की निडरता हो। 

कई सालों से उससे बात नहीं की है। मैं उसका नाम लेकर उसको बुलाना चाहती हूँ। ये नाम नहीं ले पाना। सीने में चुभता है। आँखों में। मन। प्राण में कहीं। और बहुत पुरानी कविता याद आती है।

करवाचौथ

याद है वो एक रात
जब चाँद को दुपट्टे से देखा था मैंने
और तुमने तोहफे में एक अठन्नी दी थी
मैंने दुपट्टे के छोर में बाँध लिया था उसे

कल यूँ ही कपड़े समेटते हुए मिला था दुपट्टा
गांठ खोली तो देखा
चाँद बेहोश पड़ा था मेरी अठन्नी की जगह...
जाने तुम कहाँ होगे
और कहाँ होगी मेरी अठन्नी...

02 March, 2017

मेरा अंतिम अरण्य, तुम्हारे दिल में बनी वो क़ब्र है, जिसमें मेरी चिट्ठियाँ दफ़्न हैं


१७ जनवरी २०१७
"जिंद?" मैंने उनकी ओर देखा।
'जिन्दल' उन्होंने कहा, नक़्शे में 'एल' दिखायी नहीं देता। वह दरिया में डूब गया है।"
मैंने भी जिन्दल का नाम नहीं सुना था...नक़्शे में भी पहली बार देखा...जहाँ सचमुच दरिया की नीली रेखा बह रही थी...
- निर्मल वर्मा। अंतिम अरण्य
***
इस शहर में रहते हुए कितने शहरों की याद आती है। वे शहर जो क़िस्सों से उठ कर चले आए हैं ज़िंदगी में। वे शहर जिनका नाम पहली बार पढ़ कर लगता है मैंने उस शहर में किसी को कोई ख़त लिखा था कभी। 
सुनो। तुम्हें नीलम वादी याद है क्या अब भी? नाम क्या था उस नदी का जो वहाँ बहती थी? 
तुम्हें याद है क्या वो वक़्त जब कि दोस्ती बहुत गहरी थी...हम काग़ज़ की नाव तैराया करते थे पानी में। लिखा करते थे ख़त। काढ़ा करते थे तुम्हारा नाम रूमालों में। 
तुम अजीब क़िस्म से याद आए हो। अचानक से तुम्हें देखने को आँख लरज़ उठी है।

१९ जनवरी २०१९
उम्र के तैन्तीसवे पड़ाव के ठीक बीच झूलती मैं अंतिम अरण्य पढ़ती हूँ...नितांत अकेलेपन के अंदर खुलने वाले इस उपन्यास को पढ़ने के लिए किसी ने मुझसे क्यूँ कहा होगा! मैं क्यूँ इसे पढ़ते हुए उसके अकेलेपन के क़रीब पाती हूँ ख़ुद को। क्या कभी कभी किसी का साथ माँग लेना इतना मुश्किल होता है कि बात को बहुत घुमा कर किसी नॉवल में छिपाना होता है। 
'I thought you wanted to say something to me.' उसने कहा मुझसे मगर मुझे क्यूँ लगा वो ख़ुद की बात कर रहा है। उसे मुझसे कोई बात कहनी थी। बात। कौन सी बात। दो लोग कौन सी बात कहते हैं, कह लेते हैं। मेले के शोर और भगदड़ में एक कॉफ़ी भर की फ़ुर्सत में क्या कहा जा सकता है।
मैं उससे कहती हूँ, 'I miss writing to you'। जबकि कहीं मुझे मालूम है कि उसे लिखे ख़त किन्हीं और ख़तों का echo मात्र हैं। मैं जी नहीं रही, एक परछाई भर है मेरे बदन की जो अंधेरे में मुस्कुराती है...उदास होती है।
कोई सफ़र है...मेरे अंदर चलायमान...कोई शहर...मेरे अंदर गुमशुदा. बस इतना है कि शायद अगली कोई कहानी लिखने के पहले बहुत सी कहानियों को पढ़ना होगा...उनसे पनाह माँगनी होगी...
सुनो। क्या तुम मेरे लिए एक चिट्ठी लिख सकते हो? काग़ज़ पर। क़लम से। इस किताब को पढ़ते हुए मैं एक जंगल होती गयी हूँ। इस जंगल के एक पेड़ पर एक चिट्ठीबक्सा ठुका हुआ है। ख़ाली।
मैं इंतज़ार में हूँ। 



२१ जनवरी २०१७
हम क्या सकेरते हैं। कैसे।
अंतिम अरण्य को पढ़ते हुए मैं अपने भीतर के एकांत से मिलती हूँ। क्या हम सब के भीतर एक अंतिम अरण्य होता है? या फिर ये किताब मुझे इसलिए इतना ज़्यादा अफ़ेक्ट करती है कि मैं भी महसूस करती हूँ कि मैं इस जंगल में कुछ ज़्यादा जल्दी आ गयी हूँ। इस उम्र में मुझे किसी और मौसमों वाले भागते शहर में होना चाहिए। धूप और समंदर वाले शहर। 
मगर प्रेम रेत के बीच भूले से रखा हुआ ओएसिस है। मृगतृष्णा भी। 
मैं अपने एक बहुत प्यारे मित्र के बारे में एक रोज़ सोच रही थी, 'तुम में ज़िंदा चीज़ों को उगाने का हुनर है...you are a gardener.' और वहीं कहीं कांट्रैस्ट में ख़ुद को देखती हूँ कि मुझे मुर्दा चीज़ें सकेरने का शौक़ है...हुनर है...मृत लोग...बीते हुए रिश्ते...किरदार...शहर...टूटे हुए दिल...ज़ख़्म...मैं किसी म्यूज़ीयम की कीपर जैसी हूँ...जीवाश्मों की ख़ूबसूरती में मायने तलाशती...अपने आसपास के लोगों और घटनाओं के प्रति उदासीन. Passive. 
किसी किसी को पढ़ना एक ज़रूरी सफ़र होता है। निर्मल वर्मा मेरे बहुत से दोस्तों को पसंद हैं। मैंने पिछले साल उनके यात्रा वृत्तांत पढ़े। वे ठीक थे मगर मेरे अंदर वो तकलीफ़/सुख नहीं जगा पाए जिसके लिए मैं अपना वक़्त किताबों के नाम लिखती हूँ। मैंने लगभग सोच लिया था कि अब उन्हें नहीं पढ़ूँगी। वे मेरी पसंद के नहीं हैं। मैं बहुत याद करने की कोशिश करती हूँ कि अंतिम अरण्य की कौन सी बात को सुन कर मैंने इसे तलाशा। शायद ये बात कि ज़िंदगी के आख़िर का सघनतम आलेख है। या उदासी की आख़िरी पंक्ति। पहाड़ों पर इतनी तन्हाई रहती है उससे गुज़रने की ख़्वाहिश। या कि अपने अंतिम अरण्य को जाने वाली पगडंडी की शुरुआत देखना। आज जानती हूँ कि वे सारे मित्र जिन्होंने बार बार निर्मल को पढ़ा...उनके बारे में बातें कीं...वे इसलिए कि मैं इस किताब तक पहुँच सकूँ। पूछो साल की वो किताबें एक ज़रूरी पड़ाव थीं...मेरे सफ़र को इस 'अंतिम अरण्य' तक रुकना था। के ये मेरी किताब है। मेरी अपनी। 
सुबहें बेचैन, उदास और तन्हा होती हैं। आज पढ़ते हुए देखा कि एक पगडंडी बारिश के पानी में खो रही थी। नीली स्याही से underline कर के मैंने उसके होने को ज़रा सा सहेजा। ज़रा सा पक्का किया। 
सुनो। तुम्हारे किसी ख़त में मेरा अंतिम अरण्य है। मेरी चुप्पी।मेरी अंतिम साँस। मेरे जीते जी मुझे एक बार लिखोगे?


२ मार्च २०१७
धूप की आख़िर सुबह अगर किताब के आख़िरी पन्ने से गुज़र कर चुप हो आने का मन करे...तो इसका मतलब उस किताब ने आपको पूरा पढ़ लिया है। हर पन्ने को खोल कर। अधूरा छोड़ कर। वापस लौट कर भी। 

मैं अंतिम अरण्य से गुज़रती हुयी ख़ुद को कितना पाती हूँ उस शहर में। मेरा भी एक ऐसा शहर है जिसे मैं मकान दर मकान उजाड़ रही हूँ कि मेरे आख़िर दिनों में मुझे कोई चाह परेशान ना करे। कि मैं शांत चित्त से जा सकूँ। इस किताब को पढ़ना मृत्यु को बहुत क़रीब से देखना है। किसी को कण कण धुआँ हो जाते देखना भी है। 

अनजाने इस किताब में कई सारे पड़ाव ऐसे थे जिन पर मुझे रुकने की ज़रूरत थी। कहानी में एक कहानी है एक डाकिये की निर्मल लिखते हैं कि उस शहर में एक डाकिया ऐसा था कि जो डाकखाने से चिट्ठियाँ उठाता तो था लेकिन एक घाटी में फेंक आता था। वैली औफ़ डेड लेटर्स। इस किरदार के बारे में भी किरदार को एक दूसरा किरदार बताता है। वो किरदार जो मर चुका है। तो क्या कहीं वाक़ई में ऐसा कोई डाकिया है? 

कोई मुझे ख़त लिख सके, ये इजाज़त मैंने बहुत कम लोगों को दी है। जब कि चाहा हर सिम्त है कि ख़त आए। बहुत साल पहले एक मेल किया था किसी को तो उसने जवाब में एक पंक्ति लिखी थी, ‘अपने मन मुताबिक़ जवाब देने का अधिकार कितने लोगों के पास होता है’। यूँ तो उसका लिखा बहुत सारा कुछ ही मुझे ज़बानी याद है मगर उस सब में भी ये पंक्ति कई बार मेरा हाथ सहलाती रही है। बैंगलोर आयी थी तो बहुत शौक़ से लेटर ओपनर ख़रीदा था। मुझे लगता रहा है हमेशा कि मेरे हिस्से के ख़त आएँगे। अब लगता है कि कुछ लोगों का दिल एक लालडिब्बा हुआ गया है कि जिसमें मेरे हिस्से की मोहरबंद चिट्ठियाँ गिरी हुयी हैं। बेतरतीब। जब वे चिट्ठियाँ मुझे मिलेंगी तो मैं सिलसिलेवार नहीं पढ़ पाऊँगी उन्हें। हज़ार ख़यालों में उलझते हुए बढ़ूँगी आगे कि किसी के हिस्से का कितना प्रेम हम अपने सीने में रख सकते हैं। अपनी कहानियों में लिख सकते हैं। 

अंतिम अरण्य मैंने दो हिस्सों में पढ़ा। पहली बार पढ़ते हुए यूँ लगा था जैसे कुछ सील रहा है अंदर और इस सीलेपन में कोई सरेस पेपर से छीजते जा रहा है मुझे। कोई मेरे तीखे सिरों को घिसता जा रहा है। लोहे पर नए पेंट की कोट चढ़ाने के पहले उसकी घिसाई करनी होती है। सरेस पेपर से। पुरानी गंदगी। तेल। मिट्टी। सब हटाना होता है। ऐसे ही लग रहा है कि मैं एकदम रगड़ कर साफ़ कर दी गयी हूँ। अब मुझ पर नया रंग चढ़ सकता है। 

कितनी इत्मीनान की किताब है ये। कैसे ठहरे हुए किरदार। शहर। अंदर बाहर करते हुए ये कैसे लोक हैं कि जाने पहचाने से लगते हैं। मैं फिर कहती हूँ कि मुझे लगता है मैंने अपना अंतिम अरण्य बनाना शुरू कर दिया है। आज की सुबह में किताब का आख़िर हिस्सा पढ़ना शुरू किया। धूप सुहानी थी जब पन्नों ने आँखें ढकी थीं। अब धूप का जो टुकड़ा खुले काँधे पर गिर रहा है उसमें बहुत तीखापन है। चुभन है। 

किसी हिस्से को उद्धृत करने के लिए पन्ने पलटाती हूँ तो देखती हूँ पहले के पढ़े हुए कुछ पन्नों में मैंने अपनी चमकीली फ़ीरोज़ी स्याही से कुछ पंक्तियाँ अंडरलाइन कर रखी हैं। मुझे ये बात बहुत बुरी लगती है। मृत्यु की इस पगडंडी पर चलते हुए इतने चमकीले रंग अच्छे नहीं लगते। वे मृतक के प्रति एक ठंढी अवहेलना दिखाते हैं। ये सही नहीं है। मुझे पेंसिल का इस्तेमाल करना चाहिए था। मैं रंगों को ऐसे तो नहीं बरतती। अनजाने तो मुझ से कुछ नहीं होता। गुनाह भी नहीं। 

पढ़ते हुए अनजाने में बहुत लेखा जोखा किया। बहुत शहरों से गुज़री। कुछ लोगों से भी। इन दिनों जो दूसरी किताब पढ़ रही हूँ वो भी ऐसी ही कुछ है। नीला घर- तेज़ी ग्रोवर। त्रांस्टोमेर के एक द्वीप पर बने घर में वह जाती है और उनके सिर्फ़ दो शब्दों से और घर के इर्द गिर्द जीती हुयी चीज़ों से कविताओं में बची ख़ाली जगह भरती है। 

उनका कहा हुआ आख़िरी शब्द होता है, ‘थैंक्स’ इसके बाद वे कुछ भी कह नहीं पाते। मृत्यु के पहले वो अपनी कृतज्ञता जता पाते हैं। मुझे ये एक शब्द बहुत कचोटता है। उनके साथ रहने वाले नौकर ने उनकी दर्द में तड़पती हुयी पत्नी के लिए जल्दी मर जाने की दुआएँ माँगी थीं। वे पूछते हैं, मेरे लिए तुमने कभी मन्नत माँगी? नौकर जवाब देता है, आपके पास तो सब कुछ है। आपके लिए क्या मांगूँ। कोई हो मेरे लिए मन्नत कर धागा बाँधने वाला तो मेरे लिए तुम्हारी एक चिट्ठी माँग दे। सिर्फ़ एक। काग़ज़ पर लिखी हुयी। तुम्हारी उँगिलयों की थरथराहट को समेटे हुए। तुम्हारे जीने, तुम्हारे साँस लेने और तुम्हारे ख़याल में किसी एक लम्हा धूमकेतू की तरह चमके मेरे ख़याल को भी। 

आख़िर में बस एक छोटा सा पैराग्राफ़ यहाँ ख़ुद के लिए रख रही हूँ। किसी चीज़ की असली जगह कहाँ होती है। मैं जो बेहद बेचैन हुआ करती हूँ। एक जगह थिर बैठ नहीं सकती। आज अचानक लगा है। तुम बिछड़ गए हो इक उम्र भर के लिए। मेरे लिए आख़िर, सुकून की जगह, तुम्हारे दिल में बनी वो क़ब्र है जिसमें मेरी चिट्ठियाँ दफ़्न हैं। 

***
2.4

कोर्बेट के मेमोयर का हिस्सा ‘मेरी आहट सुनते ही सारा जंगल छिप जाता था’ — वह लिखते हैं — और मुझे लगता था जैसे…”, वह एक क्षण को रुके, जैसे किसी फाँस को अपने पुराने घाव से बाहर निकाल रहे हों, “जैसे मैं किसी ऐसी जगह आ गया हूँ जो मेरी नहीं है।”
वह कुछ देर इसकी ओर आँखें टिकाए लेटे रहे। फिर कुछ सोचते हुए कहा, “हो सकता है — हमारी असली जगह कहीं और हो और हम ग़लती से यहाँ चले आएँ हों?” उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा था कि मैं हकबका सा गया।
“कौन सी असली जगह?” मैंने कहा, “इस दुनिया के अलावा कोई और जगह है?”
“मुझे नहीं मालूम, लेकिन जहाँ पर तुम हो, मैं हूँ, निरंजन बाबू हैं, ज़रा सोचो, क्या हम सही जगह पर हैं? निरंजन बाबू ने एक बार मुझे बड़ी अजीब घटना सुनायी…तुम जानते हो, उन्होंने फ़िलोसफ़ी तो छोड़ दी, लेकिन साधु-सन्यासियों से मिलने की धुन सवार हो गयी…जो भी मिलता, उससे बात करने बैठ जाते! एक बार उन्हें पता चला की कोई बूढ़ा बौद्ध भिक्षुक उनके बग़ीचे के पास ही एक झोंपड़ी में ठहरा है…वह उनसे मिलने गए, तो भिक्षुक ने बहुत देर तक उनके प्रश्नों का कोई जवाब नहीं दिया…फिर भी जब निरंजन बाबू ने उन्हें नहीं छोड़ा, तो उन्होंने कहा — पहले इस कोठरी में जहाँ तुम्हारी जगह है, वहाँ जाकर बैठो…निरंजन बाबू को इसमें कोई कठिनाई नहीं दीखी। वह चुपचाप एक कोने में जाकर बैठ गए। लेकिन कुछ ही देर बाद उन्हें बेचैनी महसूस होने लगी। वह उस जगह से उठ कर दूसरी जगह जाकर बैठ गए, लेकिन कुछ देर बाद उन्हें लगा, वहाँ भी कुछ ग़लत है और वह उठ कर तीसरी जगह जा बैठे…उनकी बेचनी बढ़ती रही और वह बराबर एक जगह से दूसरी जगह बदलते रहे…फिर उन्हें लगा जैसे एक ही जगह उनके लिए बची थी, जिसे उन्होंने पहले नहीं देखा था, दरवाज़े की देहरी के पास, जहाँ पहले अँधेरा था और अब हल्की धूप का चकत्ता चमक रहा था…वहाँ बैठते ही उन्हें लगा, जैसे सिर्फ़ कुछ देर के लिए — कि यह जगह सिर्फ़ उनके लिए थी, जिसे वह अब तक खोज रहे थे…जानते हो — वहाँ बैठ कर उन्हें क्या लगा…एक अजीब-सी शांति का बोध — उन्हें लगा उन्हें भिक्षुक से कुछ भी नहीं पूछना, उन्हें सब उत्तर मिल गए हैं, मन की सारी शंकाएँ दूर हो गयी हैं — वह जैसे कोठरी में आए थे, वैसे ही बाहर निकल आए…”

— अंतिम अरण्य 

30 January, 2016

खोये हुये लोग सपने में मिलते हैं

कभी कभी सपने इतने सच से होते हैं कि जागने पर भी उनकी खुशबू उँगलियों से महसूस होती है. अभी भोर का सपना था. तुम और मैं कहीं से वापस लौट रहे हैं. साथ में एक दोस्त और है मगर उसकी सीट कहीं आगे पर है. ट्रेन का सफ़र है. कुछ कुछ वैसा ही लग रहा है जैसे राजस्थान ट्रिप पर लगा था. ट्रेन की खिड़की से बाहर छोटे छोटे पेड़ और बालू दिख रही है. ट्रेन जोधपुर से गुजरती है. मालूम नहीं क्यूँ. मैंने यूं जोधपुर का स्टेशन देखा भी नहीं है और जोधपुर से होकर जाने वाली किसी जगह हमें नहीं जाना है. सपने में ऐसा लग रहा है कि ये सपना है. तुम्हारे साथ इतना वक़्त कभी मिल जाए ऐसा हो तो नहीं सकता किसी सच में. इतना जरूर है कि तुम्हारे साथ किसी ट्रेन के सफ़र पर जाने का मन बहुत है मेरा. मुझे याद नहीं है कि हम बातें क्या कर रहे हैं. मैंने सीट पर एक किताब रखी तो है लेकिन मेरा पढ़ने का मन जरा भी नहीं है. कम्पार्टमेंट लगभग खाली है. पूरी बोगी में मुश्किल से पांच लोग होंगे. और जनरल डिब्बा है तो खिड़की से हवा आ रही है. मुझे सिगरेट की तलब होती है. मैं पूछती हूँ तुमसे, सिगरेट होगी तुम्हारे पास? तुम्हारे पास क्लासिक अल्ट्रा माइल्ड्स है.  

तुम्हारे पास एक बहुत सुन्दर गुड़िया है. तुम कह रहे हो कि घर पर कोई छोटी बच्ची है उसके लिए तुमने ख़रीदा है. गुड़िया के बहुत लम्बे सुनहले बाल हैं और उसने राजकुमारियों वाली ड्रेस पहनी हुयी है. मगर हम अचानक देखते हैं कि उसकी ड्रेस में एक कट है. तुम बहुत दुखी होते हो. तुमने बड़े शौक़ से गुड़िया खरीदी थी. 

फिर कोई एक स्टेशन है. तुम जाने क्या करने उतरे हो कि ट्रेन खुल गयी है. मैं देखती हूँ तुम्हें और ट्रेन तेजी से आगे बढ़ती जाती है. मैं देखती हूँ कि गुड़िया ऊपर वाली बर्थ पर रह गयी है. मैं बहुत उदास हो कर अपनी दोस्त से कहती हूँ कि तुम्हारी गुड़िया छूट गयी है. गुड़िया का केप हटा हुआ है और वो वाकई अजीब लग रही है, लम्बी गर्दन और बेडौल हाथ पैरों वाली. हम ढूंढ कर उसका फटा हुआ केप उसे पहनाते हैं. वो ठीक ठाक दिखती है. 

दिल में तकलीफ होती है. मैंने अपना सफ़र कुछ देर और साथ समझा था. आगे एक रेलवे का फाटक है. कुछ लोग वहां से ट्रेन में चढ़े हैं. मेरी दोस्त मुझसे कहती है कि उसने तुम्हें ट्रेन पर देखा है. मैं तेजी पीछे की ओर के डिब्बों में जाती हूँ. तुम पीछे की एक सीट पर करवट सोये हो. तुम्हारा चेहरा पसीने में डूबा है. मैं तुमसे थोड़ा सा अलग हट कर बैठती हूँ और बहुत डरते हुए एक बार तुम्हारे बालों में उंगलियाँ फेरती हूँ और हल्के थपकी देती हूँ. ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हें बहुत सालों से जानती हूँ और हमने साथ में कई शहर देखे हैं.

तुम थोड़ी देर में उठते हो और कहते हो कि तुम किसी एक से ज्यादा देर बात नहीं कर सकते. बोर हो जाते हो. तुम क्लियर ये नहीं कहते कि मुझसे बोर हो गए हो मगर तुम आगे चले जाते हो. किसी और से बात करने. मैं देखती हूँ तुम्हें. दूर से. तुम किसी लड़के को कोई किस्सा सुना रहे हो. किसी गाँव के मास्टर साहब भी हैं बस में. वो बड़े खुश होकर तुमसे बात कर रहे हैं. अभी तक जो ट्रेन था, वो बस हो गयी है और अचानक से मेरे घर के सामने रुकी है. मैं बहुत दुखी होती हूँ. मेरा तुमसे पहले उतरने का हरगिज मन नहीं था. तुमसे गले लग कर विदा कहती हूँ. मम्मी भी बस में अन्दर आ जाती है. तुमसे मिलाती हूँ. दोस्त है मेरा. वो खुश होती है तुम्हें देख कर. तुम नीचे उतरते हो. मैं तुम्हें उत्साह से अपना घर दिखाती हूँ. देखो, वहां मैं बैठ कर पढ़ती हूँ. वो छत है. गुलमोहर का पेड़. तुम बहुत उत्साह से मेरा घर देखते हो. जैसे वाकई घर सच न होके कोई जादू हो. मैं अपने बचपन में हूँ. मेरी उम्र कोई बीस साल की है. तुम भी किसी कच्ची उम्र में हो. 
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कहते हैं कि सपने ब्लैक एंड वाइट में आते हैं. उनमें रंग नहीं होते. मगर मेरे सपने में बहुत से रंग थे. गुलमोहर का लाल. गुड़िया के बालों का सुनहरा. तुम्हारी शर्ट का कच्चा हरा, सेब के रंग का. बस तुम्हारा चेहरा याद नहीं आ रहा. लग रहा है किसी बहुत अपने के साथ थी मगर ठीक ठीक कौन ये याद नहीं. सपने में भी एक अजनबियत थी. इतना जरूर याद है कि वो बहुत खूबसूरत था. इतना कि भागते दृश्य में उसका चेहरा चस्पां हो रहा था. लम्बा सा था. मगर गोरा या सांवला ये याद नहीं है. आँखों के रंग में भी कन्फ्यूजन है. या तो एकदम सुनहली थीं या गहरी कालीं. जब जगी थी तब याद था. अब भूल रही हूँ. हाँ चमक याद है आँखों की. उनका गहरा सम्मोहन भी. 

सब खोये हुए लोग थे सपने में. माँ. वो दोस्त. और तुम. मुझे याद नहीं कि कौन. मगर ये मालूम है उस वक़्त भी कि जो भी था साथ में उसका होना किसी सपने में ही मुमकिन था. मैं अपने दोस्तों की फेरहिस्त में लोगों को अलग करना चाहती हूँ जो खूबसूरत और लम्बे हैं तो हँसी आ जाती है...कि मेरे दोस्तों में अधिकतर इसी कैटेगरी में आते हैं. रास्ता से भी कुछ मालूम करना मुश्किल है. जबसे राजस्थान गयी हूँ रेगिस्तान बहुत आता है सपने में. पहले समंदर ऐसे ही आता था. अक्सर. अब रेत आती है. रेत के धोरे पर की रेत. शांत. चमकीली. स्थिर. 

उँगलियों में जैसे खुशबू सी है...अब कहाँ शिनाख्त करायें कि सपने से एक खुशबू उँगलियों में चली आई है...सुनहली रेत की...

04 October, 2015

Let's begin from the end. अंत से शुरू करते हैं.

धूप की सुनहली गर्म उँगलियाँ गीले, उलझे बालों को सुलझाने में लगी हैं. आज गहरे लाल सूरज के डूब जाने के बहुत बाद तक भी ऐसा लगेगा जैसे धूप बालों में ठहरी रह गयी है. मुझे अब गिन लेना चाहिए कि तुम्हें गए कितने साल हुए हैं. मेरे शहर में ठंढ की दस्तक सुनाई नहीं देती है...मैं दिल्ली में रहती तो मुझे जरूरी याद रहता कि तुम्हारे जाने के मौसम बीते कितने दिन हुए हैं. धुंध इतनी गहरी नहीं होती कि कमरे में टंगा कैलेण्डर दिखाई न पड़े. अगर तुम्हारे जाने के मौसम को चेहरे की बारीक रेखाओं से गिना जा सके तो मैं कह सकती हूँ कि तुम्हारे जाने के सालों में मैं बूढ़ी हो गयी हूँ. आजकल मेरे जोड़ों में दर्द रहता है और मैं अपनी कलम में खुद से इंक नहीं भर सकती. यूं घर नाती पोतों से भरा पड़ा है लेकिन मेरी कलमों के बजाये वे मुझे कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. अब सोच रही हूँ कि कार्टरिज का इस्तेमाल शुरू कर दूं. आखिर ख़त तो तुम्हें टाइप करके नहीं भेज सकती ना. पेन्सिल से लिखने में मिट जाने का डर लगता है. पेन्सिल यूं भी सालों के साथ फेड करती जाती है. अब ये न कहो कि हमारे साल ही कितने बचे हैं या फिर ये कि मैं अब तुम्हें ख़त नहीं लिखती. मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि अब भी सुबह का पहला ख्याल तुम्हारे नाम की गुलाबी स्याही में डूबा ही उगता है. हाँ अब उम्र के इस दौर में चटख रंगों के प्रति मेरा रूझान कम हो गया है और मैं सोचने लगी हूँ कि काली स्याही दरअसल काफी डीसेंट दिखती है. हमारे उम्र के हिसाब से. नहीं? ग्लिटर वाली कलम से छोटे छोटे दिल बनाने का मौसम अब कभी नहीं आएगा.

पिछले साल मेरे पड़ोस में एक नया परिवार आया है. उनका बड़ा बेटा ऐनडीए में पढ़ता है. फिलेटली का शौक़ है उसे. जाने कहाँ कहाँ के डाक टिकट इकट्ठे कर रखे हैं उसने. मैं उसकी बात हरगिज़ नहीं मानती लेकिन हुआ यूं कि एक दोपहर मैं इसी तरह बाल सुखा रही थी धूप में...शॉल में छुपे हाथों मे लिफ़ाफ़े थे. वो बालकनी में आया और उसने पेस्ट्री का बौक्स बढ़ाया मेरी तरफ...लिफाफा हाथ से फिसल गया और ज़मीन पर गिर पड़ा. उसने लिफाफे पर लगे डाक टिकट को देख कर बता दिया कि ये हांगकांग का स्टैम्प है...तिरासी में लागू हुआ था. फिर हम बातें करने लगे. मैंने उसे किताबों का रैक दिखाया जहाँ तुम्हारे सारे ख़त रखे हुए हैं. यूं तो बहुत ही तमीजदार बच्चा है, अपनी सीमाएं जानता है मगर शायद उस जेनरेशन ने इतने ख़त देखे नहीं हैं तो उत्साह में पूछ लिया कि मैं आपके ख़त पढ़ सकता हूँ. मैंने भी क्या जाना था कि उसे ऐसा चस्का लग जाएगा...हाँ बोल दिया. मुझे जानना चाहिए था तुम्हारे खतों का जादू ही ऐसा है, एक जेनरेशन बाद भी असर बाकी रहेगा.

मुझे डर ये लगता है कि बार बार खोलने बंद करने से कहीं बर्बाद न हो जाएँ तुम्हारे ख़त. इस बार दीवाली में बड़ी बहू जब घर की सफाई कर रही थी तो उसे आईडिया आया था कि खतों को लैमिनेट करा देते हैं. कोई गलत बात नहीं कही थी उसने मगर ऐसा सोच कर भी मुझे ऐसी घबराहट हुयी कि क्या बताऊँ. जैसे जीते जी अनारकली को जिंदा दीवार में चिन दिया हो. तुम्हारे ख़त तो जिंदा हैं...सांस लेते हैं...उन्हें छूती हूँ तो तुम्हारी उँगलियों की खुशबू रह जाती है पोरों में...वो शामें याद आती हैं जब दिल्ली के सर्द कोहरे में तुम्हारा एक हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच लिए रहती थी देर तक...सूरज डूब जाने तक. पता है, जाड़े के दिनों में शॉल में हाथ छुपे रहते हैं तो कई दोपहरों में मैं कोई न कोई लिफाफा लिए धूप में बैठी रहती हूँ. यूँ लगता है तुम पास हो और मैंने थाम रखा है तुम्हारा हाथ. सिगड़ी की गर्माहट होती है तुम्हारे लिफाफों में. इसलिए मुझे गर्मियां पसंद नहीं आती हैं. मैं हर साल जाड़ों का इंतज़ार करती हूँ.

उसका नाम अंकुर है. बड़ा ही प्यारा बच्चा है. छुट्टियों में घर आता है तो पूरा मोहल्ला गुलज़ार हो जाता है. आये दिन पार्टियाँ होती हैं. ठहाके मेरे कमरे तक सुनाई देते हैं. वो सबका हीरो है. लड़के उसके साथ क्रिकेट खेलने के लिए जान दिए रहते हैं और लड़कियों का तो पूछो मत. मेरी बड़ी पोती भी उन दिनों बड़े चाव से सजने लगती है. हर ओर रंग गुलाबी यूं होता है कि मुझे इस उम्र में भी अपने दिन याद आने लगते हैं कि जब तुम छुट्टियों में शहर आते थे. मैं कुछ कांच की चूड़ियाँ पहन लेती थी, कि गोरी कलाइयों में सारे रंग फबते थे. चूड़ियों से ये भी तो होता था कि मेरे आने जाने से तुम्हें आहट सुनाई पड़ जाए और तुम बालकनी से झाँक लो. इक रोज़ अचानक तुम्हें सामने पा कर कितना घबरा गयी थी...दरवाज़ा हाथ पर ही बंद कर दिया था. वो तो चूड़ियाँ थीं, वरना कलाई टूट जाती. उफ़. किस अदा से तुमने गिरे हुए कांच के टुकड़े उठाये थे कि बुकमार्क बनाओगे. तुम्हारी किताबों में मेरी चूड़ियों की खनखनाहट भर गयी थी. मेरी खिलखिलाहटें भी तो. तुम शहर में होते थे तो मैं काजल लगाती थी...के आँखें सुन्दर दिखें और इसलिए भी कि मेरी इन चमकती आँखों को नज़र ना लगे किसी की. मैं जो अधिकतर गले में मफलरनुमा दुपट्टा डाले मोहल्ले में मवालियों की तरह डोला करती थी, तुम्हारे आने से झीने दुपट्टे ओढ़ने लगती थी. काँधे से कलाइयों तक कि दुपट्टे की खूबसूरती नुमाया हो. तुम शहर में होते थे तो लगता था कि दिन को सूरज इसलिए उगता है कि तुम किसी बहाने घर से बाहर निकलो और मैं तुम्हें देख सकूं. उन दिनों में तुम्हारे घर की हर चीज़ के ख़त्म हो जाने की मन्नतें माँगा करती थी. कभी चायपत्ती, कभी चीनी, कभी सब्जियां...तुम और तुम्हारी वो साइकिल. उफ़. तुम्हारी मम्मी अक्सर तुम्हें पूछ लेने बोलती थी मेरे घर में कि कोई सामान ख़त्म तो नहीं है. मेरा बस चलता तो उन दिनों घर की सारी रसद चूल्हे में झोंक आती. महज़ तुमसे एक लाइन ज्यादा बात करने के लिए.

गर्मी की बेदर्द दुपहरों में कभी कभी अंकुर घर चला आता है. मेरी बड़ी पोती को लगता है कि वह बहाने से उसे देखने आता है और वो मेरी स्टडी में आती जाती रहती है. आजकल सजने का अर्थ भी तो बदल गया है. मेरे दुपट्टे निकल आते थे और यहाँ मिन्नी की मिनी स्कर्ट्स निकल आती हैं. पगली है थोड़ी, उसे समझाउंगी एक दिन कि अंकुर को तुम्हारी लॉन्ग लेग्स में नहीं तुम्हारी नीली आँखों में इंटरेस्ट है...तुम्हारी टेबल पर फेंके हुए तुम्हारे जर्नल में लिखी उल्टी पुल्टी कविताओं में और तुम्हारे कमरे में लगे बेहिसाब पोस्टर्स में. पिछली बार पूछ रहा था मुझसे कि तुम क्या वाकई कवितायें लिखती हो. उसका एक दोस्त भी राइटर है और बड़ा होकर दूसरा शेक्सपीयर बनना चाहता है. वो सोचता है कि मिन्नी उसके दोस्त को समझा सकेगी कि शेक्सपियर एक डायनासोर था और उसकी प्रजाति के लोग लुप्त हो गए हैं. इस तरह से अंकुर अपने दोस्त की अझेल कवितानुमा कहानियों से बच जाएगा. वो मुझसे तुम्हारा पता मांग रहा था एक रोज़...पूछ रहा था कि मेरी जेनरेशन में सारे लोग इतने खूबसूरत ख़त लिखा करते थे क्या एक दूसरे को...और अगर ख़त इतने खूबसूरत थे तो फिर किताबों की जरूरत भी क्या पड़नी थी किसी को. मगर ये तब की बात है जब मैंने उसे ये नहीं बताया था कि तुमने किताबें भी लिखी हैं. कहानियां भी और कवितायें भी.

खतों में तुम्हारा नाम नहीं इनिशियल्स होते थे. एक दिन अंकुर ने जिद पकड़ ली कि वो तुम्हारा पूरा नाम जानना चाहता है और तुम्हारी लिखी किताबें पढ़ना चाहता है. मैंने बात को टालने की बहुत कोशिश की मगर वो तुम्हारा दीवाना हो चुका था. मैं नहीं बताती तो शायद किसी और से पूछता. और फिर जाने कितना सच उसे सुनने को मिलता. तो मुझे लगा कि बेहतर होगा कि मैं ही उसे बता दूं.

तुम्हें सत्ताईस की उम्र में मरने का बहुत शौक़ था न. बचपन का ये मज़ाक जिंदगी की क्रूर सच्चाई बन जाएगा ये किसने सोचा था. हम अपनी अपनी नयी नौकरी में सुहाने सपने बुन रहे थे. छोटेमोटे मीडियाहॉउस में नौकरी लगी थी लेकिन हम खुश थे कि अपनी बात को बेहतर तरीके से लोगों तक पहुंचा पायेंगे. हमने पहली बार साथ मिल कर एक कौमिक्स शुरू करने का सोचा था. ज़ी डायलॉग लिखता और मैं स्केच करती. हम उस उम्र में थे कि जब दुनिया बदल देने के ख्वाबों पर यकीन होता है.

हमारा समाज एक टाइम बम पर बैठा था और पलीते में लगी चिंगारी किसी को नहीं दिखी थी. विश्व में किसी भी बड़ी घटना की व्यापकता को नापने का पैमाना मौतें हुआ करती थीं, बात सिर्फ चंद इक्की दुक्की मौतों की थी. ये दार्शनिक, साहित्यकार और इतिहासकार थे जो कि अपने विषय में प्रतिष्ठित विशेषज्ञ थे और जिनका पूरे विश्व में मान था. मीडिया ने लोगों का ध्यान हल्के विषयों के प्रति भटका दिया कि उन्हें भी डर था कि आग जल्दी न भड़क जाए. गहरा मुद्दा सबकी नज़र से छिपा हुआ था. समाज की परेशानी का कारण भूख, गरीबी, बेरोजगारी थी मगर लोगों के उन्माद को दिशा धर्म की मशाल दे रही थी. हम एक मुश्किल समय में जी रहे थे जहाँ धर्म हमारा इकलौता आश्रय भी था और इकलौता हथियार भी.

सब अचानक ही शुरू हुआ था. जैसे एक ही समय में. एक महीने के अन्दर. उस महीने विश्व के हर कोने और हर धार्मिक बस्ती को एक ही इन्टरनेट कनेक्शन से जोड़ा गया था. आदर्श सरकारों को लगा था कि इससे लोग एक दूसरे से बेहतर जुड़ेंगे, मगर जैसा कि डायनामाईट और ऐटम बम के साथ हुआ था. तकनीक का गलत इस्तेमाल होने लगा. चूँकि इस वर्चुअल दुनिया में किसी को ट्रैक करना मुश्किल था, आतंकवादी और दहशतगर्द लोगों को डराने और धमकाने लगे. वर्चुअल दुनिया की दीवारें नहीं होतीं मगर असल दुनिया में लोग धार्मिक बस्तियों के बाहर दीवारों का निर्माण करने लगे थे. यही नहीं पहचान के लिए धार्मिक चिन्हों का प्रचलन भी बढ़ गया था. लोगों को ये डर लगा रहता था कि कहीं वे गलत धर्म के लिए न मारे जाएँ.

उन्ही दिनों में मैंने और जीरो ने कोमिक्स शुरू की और उनका नाम दिया 'ज़ीरो' ये आईडिया उसका ही था. शून्य से शुरुआत करना. हमने एक ऐसा कोमिक्स लिखा जो धर्म आधारित था, लेकिन हमने हीरो और हीरोइन अलग अलग धर्मों के लिए थे और एक ऐसे काल्पनिक समाज की रचना की थी जिसमें हर व्यक्ति दो या तीन धर्म को मानता है. हमने एकदम आधुनिक किरदार रचे जिनके नाम तकनीक की सबसे नयी खोजों पर आधारित थे. हमारे किरदारों के टाइटल हमेशा मॉडर्न फिजिक्स के पार्टिकल के नाम पर होते थे 'ऐटम, टैकीऑन, बोसॉन, फोटोन, क्वार्क' इत्यादि. 

हमारे देखते देखते विश्वयुद्ध देश की सीमाओं में नहीं बल्कि धार्मिक बस्तियों के दरवाज़ों के बाहर होने शुरू हो गए थे.  भीषण धार्मिक दंगों की व्यापकता बढ़ती ही जा रही थी. लोग दिनों दिन कट्टरपंथी होते जा रहे थे. एक उन्माद था जिसकी लपेट में पूरा विश्व आता जा रहा था. मैं और ज़ीरो चूंकि मीडिया से जुड़े थे इसलिए अपनी इस काल्पनिक दुनिया में जाने अनजाने किसी न किसी खबर के इर्द गिर्द चीज़ें बुनने लगे थे. हमारी दुनिया के इश्वर मोबाइल टावर में रहा करते थे. उनका आशीर्वाद तेज़ इन्टरनेट स्पीड और डेटा के रूप में मिलता था और तपस्या के लिए लोग इन्टरनेट से दूर रहने की कसमें खाते थे. 

हमने अपनी कॉमिक स्ट्रिप कभी ऑनलाइन नहीं डाली थी, हम इसे छापते थे और ये लोगों तक बंट जाते थे. एक दिन किसी फैन ने उत्साह में आ कर बहुत सारी स्ट्रिप्स को स्कैन कर के अपलोड कर दिया. दुनिया को शायद ऐसे ही किसी बहाने की जरूरत थी. ज़ीरो नयी जेनरेशन का पोस्टर बॉय था. दुनिया भर में इस धार्मिक हिंसा से थके हुए लोगों ने ज़ीरो को अपना इश्वर मानना शुरू कर दिया. कुछ दिन तक तो लोगों को लगा कि ये क्षणिक रूझान है, वर्ल्ड कप फीवर की तरह. उतर जाएगा. मगर जब मामला तूल पकड़ने लगा तो कट्टरपंथियों ने ज़ीरो के निर्माताओं की खोज शुरू कर दी. हम दोनों अंडरग्राउंड हो गए. ये ख़त उन्ही दिनों लिखे गए थे. 

हर देश की सरकार ने 'ज़ीरो' की कॉपीज ज़ब्त करने की कोशिश की, लेकिन ज़ीरो वायरल हो गया था और नयी जेनरेशन हथियारों से तौबा कर चुकी थी. 'अहम् ब्रह्मास्मि' की तरह 'आई एम ज़ीरो' एक नारा, एक फलसफा बनता चला गया. मैं और ज़ीरो इसके लिए तैयार नहीं थे. हर नयी कॉमिक स्ट्रिप दुनिया को दो हिस्सों में बांट देती. पुराना और नया. ज़ीरो हेटर्स और ज़ीरो लवर्स. कट्टरपंथी और ज़ीरोपंथी.

फिर एक दिन एक ख़त आया. ज़ीरो का आखिरी ख़त. उसने आत्महत्या कर ली थी.
'व्हाट?' अंकुर जैसे नींद से जागा था. किसी मीठे सपने से. 'बट व्हाई?' 

हम इस दुनिया का हिस्सा होते चले गए थे. एक नया पंथ बनने लगा था. हमने एक काल्पनिक दुनिया बनायी थी. इसके सारे सिरे थामने में बहुत एनर्जी लग जाती थी. हम इतने वोलेटाइल समय में रह रहे थे कि ज़ीरो को कुछ दिन और भी अगर लिखा जाता तो शायद बात हमारे सम्हालने से बाहर हो जाती. हमने ज़ीरो की रचना जब की थी तो एक ऐसी दुनिया की कल्पना की थी जिसमें सेना की जरूरत नहीं रहे क्यूंकि इंसान की ह्त्या का हक किसी को भी नहीं था. उस रोज़ अख़बार में एक ग्रुप की तस्वीर आई थी जिसमें ज़ीरोपंथी वालों ने कट्टरपंथियों को अपने धार्मिक निशान मिटाने को मजबूर कर दिया था. बात यहाँ से शुरू हुयी थी...यहाँ से बात किसी और जंग तक जाती ही जाती.

'फिर?' अंकुर किसी ख्याल में खोया तुम्हारे खतों को उलट पुलट रहा था. 

अचानक से तुमसे वो चीज़ छिन जाए जिसमें तुम्हारी आस्था है...और तुम १५ से २० साल के बच्चे हो तो तुम कैसे रियेक्ट करोगे? दुनिया में चारों ओर खलबली मच गयी. अराजकता. अनुशाशनहीनता. बच्चे पागल हो गए थे. रोने धोने और सुबकने से जब ज़ीरो के वापस आने की कोई राह नहीं मिली तो वे विध्वंसक हो गए. उन्होंने तोड़फोड़ शुरू कर दी. 

बड़ों की दुनिया में हड़कंप मच गया. इस तरह की दिशाहीनता घातक थी. ये एक वैश्विक समस्या थी, हमारा भविष्य खतरे में था और हमारे वर्तमान का कोई हल दिख नहीं रहा था. एक 3 डी कर्फ्यू लागू किया गया जो रियल और वर्चुअल दोनों दुनिया के बाशिंदों पर बाध्य था. हर देश में अनिश्चितकाल के लिए मिलिट्री रूल लागू किया गया. समस्या का हल जल्दी तलाशना जरूरी था. एक सेक्योर हॉटलाइन पर दुनिया के हर देश के लीडर को मेसेज भजे गए और सब दिल्ली में इकट्ठे हुए. उनमें से कई लोग मुझसे बात करना चाहते थे. उन्हें लगता था मेरे पास इसका कोई उपाय होगा...या शायद कोई सही दिशा. मुझे आज भी वो मीटिंग रूम याद है. लगभग २०० लोग थे उसमें. सबके पास लाइव इन्टर्प्रेटर डिवाइस थी ताकि वो मुझे सुन सकें. मेरे पास भविष्य की कोई प्लानिंग नहीं थी...मगर हमारे वर्तमान के लिए जरूरी था कि कहानी कि शुरुआत के सारे एलीमेंट्स उनसे डिस्कस किये जाएँ. वे सब ज़ीरो के बारे में और जानना चाहते थे. मैं उन्हें बता रही थी कि जैसे हमें बचपन से सिखाया जाता है कि हम किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रार्थना कर सकते हैं...हम मज़ार पर भी जाते थे और चर्च में भी, मंदिर में भी हाथ जोड़ते थे और स्तूप में भी. हमारा इश्वर एक भी था और उसके हज़ार रूप भी थे. इन्हीं कुछ बेसिक चीज़ों के हिसाब से हमने किरदार रचे जिनपर किसी एक धर्म का हक नहीं था. मैंने उन्हें अपने इनिशियल स्केचेस दिखाए, अपना आईडिया जितना डिटेल में हो सके डिस्कस किया और बाहर आ गयी.

कई सारे लोगों को लगा था कि ज़ीरो को रचने वाले किसी बड़े संगठन का हिस्सा होंगे जिसकी अपनी फिलोसफी होगी और तरीके होंगे. उनके समाधान में कई विरोधाभास थे...हम कई बार चीज़ों को जबरन पेचीदा करना चाहते हैं जबकि वे होती एकदम सिंपल हैं. लेकिन साथ ही चीज़ों का अत्यंत सरलीकरण भी बुरा होता है. जैसे कि हम ऐसे समाज में रहते हैं जिसके लोगों को किसी वाटरटाइट खांचे में बांटना नामुमकिन था. पर हुआ वही 'डेस्पेरेट टाइम्स कॉल फॉर डेस्पेरेट मेजर्स'. वर्ल्ड आर्डर का नया नियम लागू हुआ...बेहद सख्ती से...दुनिया एक धर्म को मान कर विध्वंस की तरफ जा रही थी. इसका एकदम सिंपल उपाय निकाला गया.

'एक ही धर्म के लोग शादी नहीं कर सकते'. दुनिया के बाकी सारे नियम ख़त्म कर दिए गए थे. बॉर्डर्स ख़त्म कर दिए गए. लोग विश्व नागरिक हो गए थे. इस नियम को दुनिया के सारे दस्तावेजों से मिटाया गया और पूरा पूरा इतिहास फिर से लिखा गया. जैसे कि जीने का तरीका हमेशा से ऐसा ही रहा था. अनगिन भाषाओं में लोग पिछले कई सालों का इतिहास बदलने में लगा दिए गए. इसमें सारे धर्म और धार्मिक चिन्ह, पूजा करने की जगहें, एक दूसरे से मिला दी गयीं, कुछ वैसा ही कि जैसे मैंने और ज़ीरो ने शुरू में लिखी थीं. कई सारी किंवदंतियाँ लिखी गयीं. तुम इसे एक तरह का प्रोपगंडा भी कह सकते हो.
'तो आपका कहना है कि धर्म की सारी हिस्ट्री मैनुफैक्चर्ड है?'
'हाँ' वी आल वांट द कन्वीनियेंट ट्रुथ. हमें आसान सच चाहिए होता है. लोगों को अपनी ज़िन्दगी में कोई खलल नहीं चाहिए था. वे मिलिट्री रूल के तले दबे नहीं रह सकते थे. नियम की बहुत खामियां थीं...लोगों को आइडेंटिटी क्राइसिस होते थे. मनोवैज्ञानिकों का एक बड़ा तबका सामने आया और उन्होंने लोगों को हर तरह से मदद की. धीरे धीरे सबने इसे एक्सेप्ट कर लिया. सब कुछ ऐसे चलने लगा जैसे कहीं कोई युद्ध कभी हुआ ही नहीं था. तानाशाही में बहुत बल होता है. सरकारें चाहे तो कुछ भी कर सकती हैं. जर्मनी के बारे में तो तुमने पढ़ा ही होगा. कैसे एक पूरा देश जीनोसाइड में इन्वोल्व था और कई बार लोगों को मालूम भी नहीं था कि वे किसी बड़ी मशीनरी का हिस्सा है. अनेक धर्मों में अपनी आइडेंटिटी ढूँढने को ग्लैम्राइज किया गया. और देखो, तुम सोच भी नहीं सकते कि एक ऐसा वक़्त था जब धर्म के लिए लड़ाइयाँ होती थीं. तुम्हारी पीढ़ी के अधिकतर बच्चे कमसे कम तीन धर्म में विश्वास करते हैं'
'तो केओस नाम का कोई इश्वर नहीं था जिसने वृन्दावन में रासलीला की, जिसमें सारे धर्म के अलग अलग इश्वर आये थे? 
'उनका नाम कृष्ण था'
'तो केओस था कौन?'
'केओस इस न्यू वर्ल्ड आर्डर का इश्वर था जिसे हमने रचा था'
'कोई कभी सवाल नहीं करता इन चीज़ों पर?'
'हमें आसान जिंदगी चाहिए अंकुर, ये बहुत मुश्किल सवाल हैं और सच जानकार भी तुम इतिहास को बदल नहीं सकते हो. लोग अभी भी रिसर्च करते हैं कि इसका क्या फायदा हुआ...इन फैक्ट तुम अपनी अकादमी में अभी इन चीज़ों के बारे में जानोगे. तुम्हें मालूम कि आर्मी का क्रेज इतना ज्यादा क्यों है लोगों में?'
'नहीं. क्यों?'
'क्योंकि सिर्फ उनके पास सच है. पूरा का पूरा सच. तुम्हें जब इतिहास पढ़ाया जाएगा तो कोई पन्ने ढके नहीं जायेंगे. पूरा का पूरा कड़वा सच बताया जाएगा तुम्हें. अभी के तुम्हारे क्लासेस के पहले तुम्हें ध्यान करने को कहा जाता होगा. तुम्हारे मेंटल टेस्ट्स भी हुए होंगे...सिर्फ वही लोग जो इस लायक है कि सच का भार वहन कर सकें उन्हें सब कुछ बताया जाता है'
'ये सब इतना मुश्किल क्यों है'
'क्यूंकि तुम्हें चुना गया है. अभी तुम्हारी जगह कोई नार्मल बच्चा होता तो इस सब को सिरे से ख़ारिज कर देता और अपनी उम्र के लोगों से मिलने चला जाता. बैठ कर मेरी चिट्ठियां नहीं पढ़ता. मेरी कहानियों में यकीन नहीं करता'
'मेरे यकीन करने से सच बनता है?'
'हाँ'
'कितने लोगों को बतायी है आपने ये पूरी बात?'
'सिर्फ अपने साइकैट्रिस्ट को'
'साइकैट्रिस्ट?'
'हाँ. पर वो कहता है मैं सिजोफ्रेनिक हूँ. मुझे लोग दिखते हैं जो सच में होते नहीं'
'मेरी तरह?'

08 May, 2015

आमंत्रण: 9 मई को मेरी किताब तीन रोज़ इश्क़ का लोकार्पण IWPC, दिल्ली में.

किताब एक सपना है. एक भोला. मीठा सपना. बचपन के दिनों में खुली आँखों से देखा गया. ठीक उसी दिन दिन जिस पहली बार किसी किताब के जादू से रूबरू होते हैं उसी दिन सपने का बीज कहीं रोपा जाता है. किताब के पहले पन्ने पर अपना नाम लिखते हुए सोचना कि कभी, किसी दिन किसी किताब पर मेरा नाम यहाँ ऊपर टॉप राईट कार्नर पर नहीं, किताब के नाम के ठीक नीचे लिखा जाएगा.
बचपन के विकराल दिखने वाले दुखों में, एक सुख का लम्हा होता है जब किसी किताब में अपने किसी लम्हे का अक्स मिल जाता है. कि जैसे लेखक ने हमारे मन की बात कह दी है. हम वैसे लम्हों को टटोलते चलते हैं....वैसे लेखक, वैसी किताब और वैसे लोग बहुत पसंद आते है. फिर एक किसी दिन कक्षा सात में पढ़ते हुए हमारे हिंदी के सर बड़ी गंभीरता में हमें समझाते हैं कि डायरी लिखनी चाहिए. रोज डायरी लिखने से एक तो भाषा का अभ्यास बढ़ेगा और हम इससे जीवन को एक बेहतर और सुलझे हुए ढंग से जीने का तरीका भी सीखेंगे. बाकी क्लास का तो मालूम नहीं पर उसी दिन हम बहुत ख़ुशी ख़ुशी घर आये और डायरी लेखन का पहला पन्ना खोल के बैठ गए. अब पहली मुसीबत ये कि अगर सीधा सीधा कष्टों को लिख दिया जाए और घर में किसी ने, यानि मम्मी या भाई ने पढ़ ली तो या तो परेशान हो जायेंगे, या कुटाई हो जायेगी या के फिर भाई बहुत चिढ़ायेगा. तो उपाय ये कि अपने मन की बात लिखी जाए लेकिन कूट भाषा में. जैसे कि आज आसमान बहुत उदास था. आज सूरज को गुस्सा आया था. वगैरह वगैरह. लिखते हुए 'मैं' नहीं होता था, बस सारा कुछ और होता था. लिखने का पहला शुक्रिया इसलिए स्वर्गीय अमरनाथ सर को.

लिखने का सिलसिला स्कूल और कॉलेज के दिनों में जारी रहा. बहुत से अवार्ड्स वगैरह भी जीते. स्लोगन राइटिंग, डिबेट, एक्स्टेम्पोर...और इस सब के अलावा बतकही तो खैर चलती ही थी. उन दिनों कविता लिखते थे. जिंदगी का सबसे बड़ा शौक़ था कादम्बिनी के नए लेखक में छप जाना. इस हेतु लेकिन न तो कोई कविता भेजी कभी, न कभी तबियत से सोचा कि कैसी कविता हो जो यहाँ छप जाए. पढ़ने-सुनने वाले लोग बहुत ही दुर्लभ थे. दोस्तों को कुर्सी से बाँध कर कविता सुनाने लायक दिन भी आये. उन दिनों हम बहुत ही रद्दी लिखा करते थे. माँ अलग गुस्सा होती थी कि ये सब कॉपी के पीछे क्या सब कचरा लिखे रहता है तुम्हारा. उन दिनों भले घरों की लड़कियों की कॉपी के आखिरी पन्ने पर इश्क मुहब्बत शायरी जैसी ठंढी आहें भरना अच्छी बात तो थी नहीं. देवघर ने हमारी मासूमियत को बरकरार रखा तो पटना ने हमें आज़ाद ख्याल होना सिखाया. मेरी जिंदगी में जिन लोगों का सबसे ज्यादा असर पड़ता है, उसमें सबसे ऊपर हैं पटना वीमेंस कोलेज के कम्यूनिकेटिव इंग्लिश विद मीडिया स्टडीज(CEMS) के हमारे प्रोफेसर फ्रैंक कृष्णर. सर ने हमारी पूरी क्लास को सिखाया कि सोचते हुए बंधन नहीं बांधे जाने चाहिए...कि दुनिया में कुछ भी गलत सही नहीं होता...हमें चीज़ों के प्रति अपनी राय सारे पक्षों को सुन कर बनानी चाहिए. दूसरी चीज़ जो मैंने सर से सीखी...वो था गलतियां करने का साहस. टूटे फूटे होने का साहस. कि जिंदगी बचा कर, सहेज कर, सम्हाल कर रख ली जाने वाली चीज़ नहीं है...खुद को पूरी तरह जीने का मौका देना चाहिए. 

IIMC दिल्ली में चयन होना मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा मील का पत्थर था. इंस्टिट्यूट में पढ़ा लिखा उतना नहीं जितना आत्मविश्वास में बढ़ावा मिला कि देश के सबसे अच्छे मास कम्युनिकेशन के इंस्टिट्यूट में पढ़ रहे हैं. हममें कुछ बात तो होगी. ब्लॉग के बारे में पटना में पढ़ा था, लेकिन यहाँ और डिटेल में जाना. कि ब्लॉग वेब-लॉग का abbreviation है. दुनिया भर में लोग अपनी डायरी खुले इन्टरनेट पर लिख रहे थे. बस. वहीं कम्प्यूटर लैब में हमने अपना पहला ब्लॉग खोला. 'अहसास' नाम से. ये २००५ की बात है. ब्लॉग पर पहला कमेन्ट मनीष का आया था. मुझे हमेशा याद रहता. फिर ब्लॉग्गिंग के सफ़र में अनगिनत चेहरे साथ जुड़ते गए. उन दिनों मैं अधिकतर डायरीनुमा कुछ पोस्ट्स और कवितायें लिखती थी. हिंदी ब्लॉग्गिंग तब एक छोटी सी दुनिया थी जहाँ सब एक दूसरे को जानते थे. उन दिनों स्टार होना यानी अनूप शुक्ल की चिट्ठा चर्चा में छप जाना. अनूप जी के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से इंस्पायर होकर हमने कुछ पोस्ट्स लिखी थीं, जैसे किस्सा अमीबा का, वगैरह. ब्लॉग एग्रेगेटर चिट्ठाजगत में नए लिखे सारे पोस्ट्स की जानकारी मिल जाती थी. इस आभासी दुनिया में कुछ सच के दोस्त मिले. उनके मिलने से न सिर्फ लिखने का दायरा बढ़ा बल्कि बाकी चीज़ों की समझ भी बेहतर हुयी. फिल्में और संगीत इनमें से प्रमुख है. अपूर्व शुक्ल की टिप्पणियां हमेशा ब्लॉगपोस्ट से बेहतर हो जाती थीं. नयी खिड़कियाँ खुलती थीं. नयी बातें शुरू होती थीं. अपूर्व के कारण मैंने दुबारा वोंग कार वाई को देखा. और बस डूब गयी. बात फिल्मों की हो या संगीत की. यूँ ही प्रमोद सिंह का ब्लॉग रहा है. वहां के पॉडकास्ट न सिर्फ दूर बैंगलोर में घर की याद की टीस को कम करते थे बल्कि उसमें इस्तेमाल किये संगीत को तलाशना एक कहानी हुआ करती थी. इसके अलावा इक दौर गूगल बज़ का था. इक क्लोज सर्किल में वहां सिर्फ पढ़ने, लिखने, फिल्मों और संगीत की बात होती थी. मैंने इन्टरनेट पर बहुत कुछ सीखा.

तुम्हें एक किताब छपवानी चाहिए ये बात लोगों ने स्नेहवश कही होगी कभी. मगर ये किताब छपवाने का कीड़ा तो शायद हर किताब प्रेमी को होता है. मेरी बकेट लिस्ट में एक आइटम ये भी था कि ३० की उम्र के पहले किताब छपवानी है. तो जैसे ही हम २९ के हुए, हमने सोचा अब छपवा लेते हैं. बैंगलोर में कोई भी हिंदी पब्लिशर नहीं मिला और ऑनलाइन खोजने पर किसी का ढंग का ईमेल पता नहीं मिला. उन दिनों सेल्फ-पब्लिशिंग नयी नयी शुरू हुयी थी और बहुत दूर तक इसकी आवाज़ भी सुनाई पड़ रही थी. मेरा लेकिन इरादा क्लियर था. मुझे इसलिए छपना था कि पटना में मेरी किताब बिक सके...वहां तक पहुंचे जहाँ इन्टरनेट नहीं है. मुझे ऑनलाइन नहीं स्टोर में बिकने वाली किताब लिखनी थी. अभी भी लगता है कि जिस दिन किसी हिंदी किताब की पाइरेटेड कोपी देखती हूँ मार्किट में, उस दिन लगता है कि किताब वाकई बिक रही है. अब सवाल था कि किसी पब्लिशर तक जायें कैसे. IIMC जैसे किसी संस्थान से जुड़े होने का फायदा ये होता है कि हमें कुछ भी नामुमकिन नहीं लगता. उसी साल 'कैम्पस वाले राइटर्स' पर केन्द्रित हमारी alumni meet हुयी थी. गूगल पर अपने क्लोज्ड ग्रुप में मेसेज डाला कि एक किताब छपवानी है. मार्गदर्शन चाहिए. अगली मेल में पेंग्विन, यात्रा बुक्स और राजकमल के संपादकों के नाम और ईमेल पता थे. ये २१ अक्टूबर २०१३ की बात थी.  

मैंने पेंग्विन की रेणु आगाल को अपनी पांच छोटी कहानियां भेजीं. उन्होंने पढ़ीं और कहा कि कोई लम्बी कहानी है तो वो भी भेजो. हमने ब्लू डनहिल्स नाम से श्रृंखला लिखी थी. आधी कहानी इधर थी. बाकी को पूरी करके भेज दी. इस लम्बी कहानी का भार इतना था कि रेणु का हाथ टूट गया और पलस्तर लग गया. एक महीने के लिए. जनवरी २०१४ में कन्फर्मेशन आया कि मेरी किताब छपेगी और १० मार्च, जो कि कुणाल का बर्थडे है. उस दिन कॉन्ट्रैक्ट आया किताब का. तो हमारी लिस्ट पूरी हो गयी थी. ३० की उम्र में किताब छपवाने का. ऑफिस से रिजाइन मारे कि किताब लिखना है. अगस्त में मैनुस्क्रिप्ट देनी थी ५०,००० शब्दों की. तो बस. स्टारबक्स की ब्लैक कॉफ़ी और अपना मैक. काम चालू. 

तीन रोज़ इश्क - गुम होती कहानियां. मेरा पहला कहानी संग्रह है. इसमें कुल ४६ छोटी कहानियां हैं. आखिरी लम्बी कहानी, तीन रोज़ इश्क के सिवा सारी ब्लोग्स पर थीं. मगर अब आपको वही कहानियां पढ़ने के लिए किताब खरीदनी पड़ेगी. मुझे पहले इस बात का बहुत अपराधबोध था और इसलिए किताब के बारे में ब्लॉग पर कुछ खास लिखा नहीं था. लेकिन जिस दिन पहली बार पेंग्विन के ऑफिस में किताब हाथ में ली और अपना पहला ऑटोग्राफ दिया...समझ में आया कि ब्लॉग दूसरी चीज़ है...किताब में छपने की बात और होती है. वही कहानियां जिन्दा महसूस होती हैं. सांस लेती हुयी. इस डर से परे कि अब इनको कुछ हो जाएगा. कुछ कुछ वैसे ही जैसे कि अब मुझे मरने से डर नहीं लगता. कि अब मैं गुम नहीं होउंगी. अब मेरा वजूद है. कागज़ के पन्नों में सकेरा हुआ. 

इस शनिवार, 9 मई को मेरी किताब का लोकार्पण है. 4-7 बजे शाम को, दिल्ली के इन्डियन वुमेन्स प्रेस कोर(IWPC), 5 विंडसर प्लेस, अशोका रोड में. मेरे साथ होंगे निधीश त्यागी, अनु सिंह चौधरी और मनीषा पांडे. इन तीनों लोगों को ब्लॉग के मार्फ़त जाना है. फिर मुलाकातें अपना रंग लेती गयी हैं. अनु दी अपने बिहार से हैं और IIMC की सीनियर भी. जब बहुत उलझ जाती हूँ तो उनको फोनियाती हूँ...किसी परशानी के हल के लिए नहीं, उस परेशानी से लड़ने के ज़ज्बे और धैर्य के लिए. 'नीला स्कार्फ' और 'मम्मा की डायरी', दोनों किताबों को खूब खूब प्यार मिला है लोगों का.

निधीश जब आस्तीन के अजगर के उपनाम से लिखते थे तब ही उनसे पहली बार चैट हुयी थी. पिछले साल ३१ दिसंबर की इक भागती शाम पहली बार मिली...उनकी 'तमन्ना तुम अब कहाँ हो' हाल फिलहाल में पढ़ी सारी किताबों में सबसे पसंदीदा किताब है. निड से बात करना लम्हों में जिंदगी की खूबसूरती को कैप्चर करना है. 

मनीषा से मिली नहीं हूँ. गाहे बगाहे पढ़ती रही हूँ उसे. किताब के सिलसिले में ही पहली बार फोन पर बात हुयी. उसकी आवाज़ में कमाल का अपनापन और मिठास है. दो अनुवाद, 'डॉल्स हाउस' और 'स्त्री के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है' खाते में दर्ज है. इन्हें पढूंगी जरूर. तीन रोज़ इश्क के जरिये इक और खूबसूरत शख्स को करीब से देखने और जानने का मौका मिलेगा. 

ब्लॉग से किताब के इस सफ़र में आप लगातार मेरे साथ रहे हैं. उम्मीद है ये प्यार किताब को भी मिलेगा. अगर इस शनिवार 9th May आप फ्री हैं तो इवेंट पर आइये. मुझे बहुत अच्छा लगेगा. एंट्री फ्री है. आप अपने साथ अपने दोस्तों को भी ला सकते हैं. इवेंट के प्रचार के लिए, फेसबुक इवेंट पेज है. इसे अपना ही कार्यक्रम समझिये. फ्रेंड लिस्ट में लोगों को इनवाईट भेजिए...कुछ को साथ लिए आइये. तीन रोज़ इश्क़ आप इवेंट पर खरीद सकते हैं. साथ में मेरा ऑटोग्राफ भी मिल जायेगा :) फिरोजी सियाही से चमकते कुछ ऑटोग्राफ देने का मेरा भी मन है.

फेसबुक इवेंट पेज पर जाने के लिए क्लिक करें.

किताब अब तक बुकस्टोर्स में आ गयी है. इसके अलावा, तीन रोज़ इश्क़ खरीदने के लिए इन लिंक्स को क्लिक कर सकते हैं.

बाकी सब तो जो है...पहली किताब का डर...इवेंट की घबराहट...लास्ट मोमेंट में मैचिंग साड़ी खरीद कर उसके झुमके वगैरह का आफत...फिरोजी स्याही की इंक बोतल लिए फिरना वगैरह...लेकिन बहुत सा उत्साह भी है. जिन्होंने सिर्फ ब्लॉग पढ़ा है या किताब पढ़ी है उनको पहली बार देखने का उत्साह. तो बस ख़त को तार समझना और फ़ौरन चले आना...न ना...फ़ौरन नहीं. 9 तारीख को. हम इंतज़ार करेंगे.

09 January, 2015

इक बेमुरव्वत महबूब के इंतज़ार में

जब अगले दिन हैंगोवर से माथा फट रहा होता है तब जा के समझ आता है कि साला ओल्ड मौंक बहुत ही वाहियात दारू होती है. एकदम पहले प्यार कि तरह जब हमारा कोई टेस्ट नहीं था या कि कहिये कोई क्लास नहीं था...या कि एकदम ख़तम क्लास था कि कोई भी पसंद आ जाए. ओल्ड मौंक से प्यार सच्चा प्यार है. इसमें कोई मिलावट नहीं सिवाए कोक के...या फिर ज्यादा मूड या दिमाग खराब हुआ और मौसम हमारे आशिक की तरह हॉट तो कुछ आइस क्यूब्स भी डाल दिए जाएँ. ओल्ड मौंक पीना अपने अन्दर की सच्चाई से रूबरू होना है. खुद को समझाना है कि पैग के नियत डेफिनेशंस बकवास हैं. बिना पिए भी मुझे कभी मालूम नहीं चल पायेगा कि ३० मिली कितना है और पटियाला पेग कहाँ तक आएगा. तो आपको कितनी चढ़ेगी ये सिर्फ और सिर्फ उस पर डिपेंड करता है कि आपने ग्लास कैसा चुना है. अगर आप मेरी तरह थोड़े से सनकी हैं और शीशे के स्क्वायर वाले ग्लासेस में दारू पीते हैं तो आपका हिसाब फिर भी थोड़ा ठीक हो सकता है. मुझे फिफ्टी फिफ्टी लगभग पसंद आता है. मैं दारू भी कोल्ड ड्रिंक की तरह पीती हूँ. ये वाइन पीने वाले लोगों के ड्रामे कि साला ग्लास में मुश्किल से एक चौथाई वाइन है मुझे हरगिज़ पसंद नहीं आती. मेरा गिलास पूरा भरा होना चाहिए. जिंदगी की तरह.

नशा. हाँ नशा कितना चढ़ता है ये इसपर निर्भर करता है कि आप इश्क में है या नहीं. इश्क नहीं है तो ओल्ड मौंक आपकी ऐसी उतारेगा कि जिंदगी भर बोतल देखते खार खायेंगे. बचपन के सारे डर...सारी लड़कियों के ब्रेक-ऑफ जो आपने दोस्तों को बड़े शान से बताये थे कि आपने उस लड़की को छोड़ दिया...सारे खुल्ले में उभर आयेंगे. बचपन में नाइंथ स्टैण्डर्ड में जिस लड़के ने आपको भाव नहीं दिया और जिसके कारण लगता था कि जिंदगी जीने लायक नहीं है. ये सारे किस्से कुछ यूं निकलेंगे कि जिंदगी भर आपके दोस्त रुपी दुश्मन आपको चिढ़ा चिढ़ा मारेंगे. रूल हमेशा एक है. अगर आपको चढ़ी है तो दुनिया को डेफिनेटली आपसे कम चढ़ी है. और लड़कियों के साथ तो कभी दारू पीना ही मत. उनके सेंटियापे से बड़ा ज़हर कुछ नहीं होता. अब कौन ध्यान देना चाहता है कि किसने दो किलो वजन बढ़ा लिया है पिज़्ज़ा खा खा के. उस कमबख्त को आप कितना भी कह लें कि तुम बहुत हॉट हो, उसको कभी यकीन नहीं होगा. उसकी नज़रों में वो सिर्फ एक ओवरवेट लड़की है. उसको कौन बताये कि सेक्स अपील लाइज इन द ब्रेन बेबी. उस पर माया ऐन्ज्लेउ की कविताओं का असर भी नहीं पड़ेगा...फिर भी आप उसे सुनाना...कुछ लाइंस जो पार्टी में सबको अनकम्फर्टेबल कर दें...आप राइटर हो, आपका काम है अच्छी खासी हंसती खिलखिलाती पार्टी को ज़हर बना देना. सबके ऊपर आप अपने एक्सपर्ट कमेन्ट दीजिये. लेकिन इसके पहले कि हम भूल जायें कि ओल्ड मौंक और हमारे मन में कविताओं के उपजने का क्या किस्सा है..,कविता की कुछ लाइंस जो कि हर लड़की को जुबानी याद होनी चाहिए...
You may shoot me with your words,
You may cut me with your eyes,
You may kill me with your hatefulness,
But still, like air, I’ll rise.

ध्यान रखे कि ओल्ड मौंक से प्यार आपको एम्बैरस भी कर सकता है. वैसे ही जैसे पहला प्यार करता है. कि पहला प्यार आप दुनिया को दिखाने के लिए नहीं करते. पहला प्यार जब होता है आपका कोई पैमाना नहीं होता...डाल दे साकी उतनी शराब कि जितने में खुमार हो जाए...आज तुम्हारी कसम खा के कहते हैं जानम, ओल्ड मौंक इज अ नॉन प्रेटेंसीयस ड्रिंक. जिससे प्यार है उससे है यार...अब ये क्या बात हुयी कि कुंडली के लक्षण, जात और गोत्र देख के प्यार करेंगे. हो गया तो हो गया. धांय. तो उस पार्टी में सब अपने अपने ड्रिंक्स शो ऑफ कर रहे होंगे जैसे कि लड़कियां अपने बॉयफ्रेंड्स या कि वाइस वरसा. आपको अगर अपने पर यकीन है तो आप खुल्लम खुल्ला अपने ओल्ड मौंक वाली मुहब्बत का इज़हार कर सकते हैं. मगर अगर आपको ज़रा सा भी इन्फीरियोरिटी काम्प्लेक्स है तो आप किसी कमबख्त ब्लू लेबल की बीस हज़ार के प्राइस टैग के पीछे कुछ बहुत ओरिजिनल और ओथेंटिक खो रहे हैं. कुछ ऐसा कि जिसे देख कर उस खूबसूरत लड़की को आपसे प्यार होने ही वाला था. कि जब वो पूछे कि व्हाट इस योर चोइस ऑफ़ पोइजन...आप उसकी आँखों में आँखें डाल कर कह सकें...डार्लिंग इफ यू आर आस्किंग, हाउ डज ईट मैटर...आई वुड चूज यू...तुम्हारे हाथों से पानी में भी नशा होगा. मगर ये कहने के लिए जो जिगर जैसी चीज़ चाहिए उसे ओल्ड मौंक जैसी कोई वाहियात दारू ही मज़बूत कर सकती है. नफासत वाले ड्रिंक्स आपको जेंटलमैन बनायेंगे. कलेजा. सर. कलेजा. ओल्ड मौंक पचा जाने वाला. कहिये. है आपमें? तो अगर आपको ओल्ड मौंक पच जाती है...या फिर आपको ओल्ड मौंक अच्छी लगती है तो शायद आप मुझसे बात करने का कोई कॉमन ग्राउंड तलाश सकते हैं. मेरे खयाल से आपको भी ग़ालिब पसंद होंगे. और दुष्यंत. हाँ क्या? कमाल है. हम पहले क्यूँ नहीं मिले? अच्छा, आप भी इसी ठेके से हमेशा अपनी दारू खरीदते हैं. कमाल है. चलिए. मिल गए हैं तो जिंदगी लम्बी है. किसी रोज़ बैठते हैं इस सर्द मौसम में अलाव जला कर. कुछ आपके किस्से, कुछ ओल्ड मौंक और जरा सी हमारी मुहब्बत.

लाइए जाम...इस बेमुरव्वत....बेतरतीब...बेलौस और बेइंतेहा मुहब्बत के लिए चियर्स.

13 December, 2014

खुदा जिंदगी को सही लम्हे में पॉज करना नहीं जानता


'अब तुम किस गली जाओगे मुसाफिर?' मैं पूछती हूँ.
'पूजा, मेरा एक नाम है...तुम मेरा नाम क्यूँ नहीं लेती?'
'नाम लेने से किरदारों में जान आ जाती है...उनका चेहरा बनने लगता है...नाम नहीं लेने से हर बार जब कोई कहानी पढ़ता है उसी किरदार को नया नाम मिलता है...नयी पहचान मिलती है...किरदार से साथ पढ़ने वाला ज्यादा घुल मिल जाता है'
'मगर मेरे वजूद का क्या...तुम्हारे साथ जो मैंने लम्हे जिए उनका कोई मोल नहीं? तुम ये सब बिसर जाने दोगी? ये जो गहरे नीले रंग की टी-शर्ट है...ये इसिमियाके की खुशबू...ये किरदार में रख सकती हो तो मेरा नाम क्यूँ नहीं लिख सकती?'
'ये सब इसलिए जान कि लोग जब इस किरदार के बारे में सोचें तो अपनी जिंदगी के उस शख्स को कुछ नयी आदतें दे सकें. तुम तो जानते हो कि खुशबुओं का अपना कुछ नहीं होता...तुम्हारा परफ्यूम जब मैं लगाती हूँ तो मेरे बदन से वो खुशबू नहीं आती जो तुम्हारे बदन से आती है. इसी तरह जब पाठक मेरी कहानी में इसिमियाके के बारे में पढ़ेगी तो शायद बाजार जा कर इसिमियाके ढूंढेगी...फिर अपनी प्रेमी को गिफ्ट करेगी और उसकी गर्दन के पास चूमते हुए सोचेगी कि शायद मुझे ऐसा ही कुछ लगा हो जब मैं तुम्हारे इतने करीब आई थी. मगर उसकी खुशबू अलग होते हुए भी कहानी का अभिन्न हिस्सा होगी.'
'मुझे अगला परफ्यूम कब गिफ्ट कर रही हो?'
'मैं तुम्हें परफ्यूम क्यूँ गिफ्ट करुँगी...तुम बहुत पैसे कमाते हो, अपने लिए खुद तलाश सकते हो...मैंने इतना पढ़ा लिखा रक्खा है तुम्हें...जाओ और अपनी अलग पहचान बनाओ'
'पढ़ना लिखना और बात है...और फिर तुम ये हमेशा बीच बीच में पैसों का कहाँ से किस्सा ले आती हो...परफ्यूम खरीदना बड़ा इंटिमेट सी चीज़ होती है...अकेले खरीदने में क्या मज़ा. तुम चलो न साथ में मॉल. जब कलाई की जगह गर्दन पर परफ्यूम लगाऊंगा और तुम्हें सूंघ के बताने को बोलूँगा कि कैसी है...सोचो न...मॉल असिस्टेंट कितनी स्कैंडलाइज हो जायेगी. बहुत मज़ा आएगा'
'यू आर अ मोरोन मिस्टर लूसिफ़र टी डिमेलो'
'यु टुक माय नेम!'
'डैम...कसम से लूक, यु आर द क्रेजियेस्ट कैरेक्टर आई हैव एवर इमैजिंड...पता नहीं क्या पी के तुम्हें लिखा था...थोड़ी वोडका...थोड़ी विस्की...थोड़ी सी बची हुयी ऐब्सिंथ भी थी शायद.'
'पीने से याद आया...थोड़ी सी बेलीज आयरिश क्रीम बची हुई है...कॉफ़ी बनाऊं...दोनों पीते हैं थोड़ा थोड़ा...आज तुम्हारा मूड बड़ा अच्छा है. कहानी में मेरा नाम तक लिख दिया. इस ख़ुशी में वैसे तो पिंक शैम्पेन पीनी चाहिए लेकिन कमबख्त औरत, इतने भी पैसे नहीं कमाता हूँ मैं.'
'पेशेंस माय लव...पेशेंस...अगले फ़ाइनन्शियल इयर में तुम्हें ४० परसेंट इनक्रीज दिला दूँगी. खुश?'
'इतना लम्बा अफेयर मेरे साथ? तुम्हारे बाकी किरदारों का क्या होगा? इतनी देर से गप्प मार रही हो मेरे साथ, नावेल लिखोगी क्या मुझ पर?'
'अहाँ...एक्चुअली, नॉट अ बैड आइडिया...नॉट अ बैड आइडिया ऐट आल मिस्टर लूक. यू हैव मेड मी प्राउड. कंसिडरिंग, आई ऐम इन लव विथ यू. गोइंग बाय द पास्ट रिकॉर्ड, कोई ६ महीने तो ऐसा चलेगा. इतने में एक नावेल तो लिख ही सकती हूँ'
'कमाल...तो क्या क्या है आगे प्लाट में. लम्बा नावेल लिख रही हो...दो चार प्रेमिकाओं का इंतज़ाम करोगी न?'
'अरे कमबख्त. जरा सा फुटेज मिला नहीं कि मामला सेट कर रहे हो. मेरा क्या? हैं? इतनी मेहनत से तुम्हें किसी और के लिए लिखूंगी...सॉरी, इतना बड़ा दिल नहीं है मेरा. तुम सिर्फ मेरे लिए रहोगे'.
'पूजाssssss डोंट बी मीन न. ऐसे थोड़े होता है. देखो तुम हमेशा मेरी चीफ प्रिंसेस रहोगी...है न. जैसे राजाओं के हरम होते थे न...मगर रानी सिर्फ एक होती थी. बाकी मनोरंजन के लिए. लम्बा नावेल है. तुमसे बोर हो जाऊँगा.'
'बाबा रे ऐटिट्युड देखो अपना. दिल तो कर रहा है इसी चैप्टर में मार दूं तुम्हें. वो भी फ़ूड पोइजनिंग से'
'फ़ूड पोइजनिंग? उसके लिए तुम्हें मुझे खाना खिलाना होगा...कंसिडरिंग कि तुम्हें खाना बनाने में कोई इंटरेस्ट नहीं है...चाहे मेरे जितना हॉट किरदार तुमसे मिन्नतें करे तो हमारा अगला स्टॉप कोई रेस्टोरेंट होगा. वहां तुम खुद से कहानी का कोई चैप्टर लिखने के मूड में आ जाउंगी. बस फिर तो जरा सा मक्खन मारना है तुम्हें. वैसे भी कैलिफोर्निया पिज़्ज़ा का चोकलेट मिल्कशेक पी कर तुम्हारा मूड इतना अच्छा हो जाता है कि फरारी लिखवा लूं अपने लिए कहानी में...फिर मेरे क़त्ल का प्रोग्राम फॉरएवर के लिए पोस्टपोंड. तुम्हें वैसे भी कहानी में मर जाने वाले किरदार अच्छे नहीं लगते.'

'तुम कितनी बकबक करते हो लूसिफ़र'
'हाय, तुम कितना चुप रहती हो पूजा...उफ़ मैं तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए तरस गया हूँ. कुछ कहो न...प्लीज...मेरी खातिर. सन्नाटे में सुन्न हुए मेरे कानों की खातिर'
'उफ़. मुझे क्या पड़ी थी...अकेलापन इतना थोड़े था. मर थोड़े जाती. तुम्हें लिखा ही क्यूँ. मैं और मेरे खुराफाती कीड़े. तुम्हें इस दिन के लिए आर्किटेक्ट बनाया था. तुम्हारा काम है बड़े बड़े शहरों की तमीज से टाउन प्लानिंग करना. मैप्स देखना और कॉन्टूर्स पर अपना दिमाग खपाना...तुम खाली जमीनें देखो...पुराने शहर देखो...एक्सक्यूज मी...तुम्हारा काम सिर्फ सुनना था. ये घड़ी घड़ी रनिंग कमेंट्री देना नहीं. ख्वाब देखो शेखचिल्ली के. हुंह'
'जानेमन, गुस्से में तुम कमाल लगती हो. तुम्हें पता है तुम्हारे गाल लाल हो जाते हैं और इन्हें पकड़ कर गुगली वुगली वुश करने का मन करने लगता है'
'मुझे तुम्हें थपड़ियाने का मन करता है सो'
'बस, यही गड़बड़ है तुम्हारा...ये जो बिहारी इंस्टिंक्ट है न तुम्हारे अन्दर. हमेशा मार पीट कुटम्मस. ये क्या है. बताओ. तुम्हारे जैसी लड़की को ये सब शोभा देता है? मैं इतनी मुहब्बत से बात कर रहा हूँ तुमसे और तुम लतखोरी पे उतर आई हो!'
'ऐ, लूसिफ़र, मार खाओगे अब...अपनी वोकैब सुधारो. ये सब मेरे टर्म्स हैं. तुम्हें ऐसे बात करने की परमिशन नहीं है'
'अच्छा छोड़ो, तुम्हें किस करने की परमिशन है आज?'
'व्हाट द हेल इज रौंग विद यु लूसिफ़र. हैव यू लॉस्ट योर फकिंग माइंड?'

'सॉरी. बट आई मिस यू अ लॉट. तुम कितने दिन बाद आई हो मुझसे मिलने. ऐट लीस्ट अ हग. प्लीज. तुम ऐसे कैसे कोई किरदार बना कर चली जाती हो. अधूरा. मैं क्या करूँ बताओ.'
'अरे, ये कैसी शिकायत है. तुम अकेले थोड़े हो. इतने सारे सपोर्टिंग करैक्टर क्या फ्री में इतनी ऐश की जिंदगी जी रहे हैं. मैंने पूरा इकोसिस्टम बनाया है तुम्हारे लिए. वो तुम्हारा बेस्ट फ्रेंड जो है. उसके साथ बोलिंग चले जाओ. या फिर तुम्हारी पोएट्री रीडिंग ग्रुप है...सैटरडे को उनसे मिलने का प्लान कर लो. न हो तो पोंडिचेरी चले जाओ ट्रिप पर. कितना कुछ है करने को जिंदगी में. तुम कैसी कैसी बात करते हो. इसमें मुझे मिस करने की फुर्सत कहाँ से निकाल लेते हो. व्हाट नॉनसेंस!'
'पूजा. आई मिस यू. सब होने के बावजूद...और चूँकि जानता हूँ कि सब कुछ तुम रच रही हो. तुम्हें मालूम है मैं क्या सोच रहा हूँ, मेरे डर क्या क्या हैं और उसके हिसाब से तुम दुनिया में उलटफेर करती जाती हो. मगर जानती हो, देयर इज आलवेज समथिंग मिसिंग. मुझे हमेशा तुम्हारी कमी महसूस होती है.'
'कुछ तो मिसिंग रहेगा न लूक...मैं भगवान् तो नहीं हूँ न. तुम जानते हो'
'इसलिए तो कभी कभार तुम्हें तलाशता हूँ. अपने क्रियेटर से प्यार हो जाना कोई गुनाह तो नहीं है. तुम रहती हो तो सब पूरा पूरा सा लगता है. जैसे दुनिया में जो भी गैप है...जरा सा भर गया है. प्लीज, कम हियर एंड गिव मी अ हग. अगली बार पता नहीं कब आओगी'
***

मैं कुछ देर उसकी बांहों में हूँ. मैं उसे लूसिफ़र कहती हूँ क्यूंकि उसे लिखते हुए पहली बार काली स्याही का इस्तेमाल किया था. इस काली स्याही के पीछे भी एक कहानी है. उसके साथ जीना सियाही में डूबना है. उसके हृदय में उतना ही अंधकार है जितना कि मेरे. उतना ही निर्वात जितना कि मेरे. फिर जब उसकी बांहों में होती हूँ तो कैसे लगता है कि पूरा पूरा सा है सब. कॉपी पर सर टिकाये कहीं दूर भटक जाती हूँ. पहाड़ों के बीच एक नदी बहती है. चिकने पत्थरों पर. जंगल की खुशबू आती है. हर ओर इतनी हरियाली है कि आँखों का रंग होने लगता है हरा. नदी में एक छोटी सी नाव है जिसपर हम दोनों हैं. ठहरे हुए. जिन्दा. पूरे.

***
'आई लव यू पूजा'
'आई लव यू टू लूक'
'अब'
'रीबाउंड की तैय्यारी करते हैं.'
'मतलब तुम जा रही हो?'
'जाना जरूरी है जान. वर्ना कहानी कैसे आगे बढ़ेगी. यहाँ पर सब ठहर जाएगा.'
'उफफ्फ्फ्फ़. रियल जिंदगी इससे भी ज्यादा मुश्किल होती होगी न?'
'यु हैव नो आईडिया. खैर. चलो...कैसी लड़की क्रियेट करें तुम्हारे लिए?'
'कोई एकदम तुम्हारे जैसी'
'ना ना...उसके बहुत से साइड इफेक्ट्स होंगे.'
'जैसे कि?'
'वो बिलकुल मेरे जैसी होगी...लेकिन जरा सा कम...और ये जरा सा कम बहुत चुभेगा तुम्हें. क्यूंकि तुम्हें वो गैप्स दिखते रहेंगे. जैसे चांदनी रात में तुम उसकी आँखों में देखने की जगह चाँद को ताकते रहोगे. इसमें वो भी दुखी होगी और तुम भी.'
'फिर क्या करें? मुझे तुम्हारे जैसी ही पसंद आएगी'
'यू विल बी सरप्राइज्ड...वैसे भी हम सिर्फ एक रिबाउंड क्रियेट कर रहे हैं. ये तुम्हारे जनम जनम का प्यार थोड़े है. न पसंद आये तो कुछ दिन में डिच कर देना'
'और जो उस लड़की का दिल टूटेगा, सो?'
'वो कहानी की मेन किरदार थोड़े है. हु केयर्स कि उसके साथ क्या हुआ उन चंद फ्रेम्स के बाद'
'तुम इतनी कोल्ड हो सकती हो, मैंने सोचा नहीं था.'
'सी, तुम मुझे ठीक से जानते तक नहीं. तुम्हारे लिए इस बार एकदम प्यारी और क्यूट सी लड़की क्रियेट करती हूँ. कोई ऐसी जो इतनी भोली और मासूम हो कि उसे मालूम ही न चले कि दिल टूटना भी कुछ होता है. कोई एकदम अनछुई. जिसे प्यार ने कभी देखा तक न हो'
'ऐसी लड़की का दिल तोड़ने में मैं जो टूट जाऊँगा सो?'
'तो तुम्हारे टूटने से कौन सी प्रॉब्लम आ रही है मेरे टाइमलाइन में ये बताओ?'
'पूजा, सीरियसली...यही प्यार है तुमको मुझसे...मेरी ख़ुशी के बारे में सोचना तुम्हारा काम नहीं है?'
'दुःख किरदार को मांजता है. सुख का एक ही आयाम है. दुःख के बहुत सारे. तुम टूटोगे तो तुममें चिप्पियाँ लगाने की जगह बनेगी. हंसती खेलती जिंदगी में कोई रस नहीं होता...तुम्हें दुःख से डर कब से लगने लगा?'
'मुझे अपनी नहीं उस साइड किरदार की चिंता है जिसकी तुम्हें कोई चिंता नहीं...उसे भी तो दुःख होगा...और लड़कियां ऐसी चीज़ों को सदियों दिल से लगाये रखती हैं.'
'तुम्हें लड़कियों के बारे में इतना कैसे पता लूक?'
'लास्ट टाइम जब तुम बहुत सालों तक नहीं आई तो मैं लाइब्रेरी में घूम रहा था, वहां विमेन साइकोलोजी पर एक किताब थी'
'यू नेवर फेल टू अमेज़ मी. पोर्न लाइब्रेरी में तुम विमेन साइकोलोजी पढ़ रहे थे? प्योर मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट है...तुम्हारे दिमाग की वायरिंग रिसेट करनी पड़ेगी. तुम नार्मल लड़कों की तरह बिहेव नहीं कर सकते. विमेन साइकोलोजी माय फुट!'

'अच्छा तो जब वो लड़की मेरी जिंदगी में रहेगी, मुझे तुम्हारी याद नहीं आएगी?'
'कभी कभार आएगी...मगर धीरे धीरे कम होती जायेगी.'
'फिर मैं एक दिन भूल जाऊँगा तुमको?'
'हाँ'
'और अगर मेरा इस रिबाउंड में कोई इंटरेस्ट नहीं है फिर भी तुम इस लड़की को क्रियेट करोगी? मैं अपने वक्त का बेहतर इस्तेमाल करूंगा...क्राइम सोल्व करूंगा...सोशल वर्कर बनूँगा...जिंदगी का कोई मायना तलाश लूँगा...हम ऐसे ही नहीं रह सकते? मैं जरा जरा तुम्हारे प्यार में...तुम कभी कभी मिलने चली आओ...एक आध हग...कभी साथ में हाथ पकड़ कर किसी बसते हुए शहर के किनारे किनारे टहल लें हम. मेरे लिए इतना काफी है...मत लिखो न ये चैप्टर. प्लीज.'
'देखो लूक...आगे के चैप्टर्स में तुम्हारा एक परिवार होगा...बच्चे होंगे...बीवी होगी. तुम मुझमें अटके नहीं रह सकते न. मैं तुम्हें ऐसे अकेला भी नहीं लिखूंगी पूरी नॉवेल में. तुम्हारा ही आईडिया था न. मैं तो एक चैप्टर ही लिख रही थी मेरी तुम्हारी बातों का.'
'मैं गलती नहीं कर सकता? इतनी बड़ी सजा दोगी मुझे?'
'तुम्हें टाइमलाइन नहीं दिखती लूक. कुछ भी बहुत वक़्त के लिए नहीं होता. सब गुज़र जाता है. आखिरी चैप्टर में जब तुमसे मिलूंगी तो बड़े सुकून से मिलोगे मुझसे...उस सुकून की खातिर तुम्हें इस सब से गुज़ारना होगा.'

'सारे चैप्टर्स लिखते वक़्त तुम बेईमानी करोगी न...तुम जान कर मेरी यादों से अपना चेहरा धुंधला दोगी न?'
'अब मैं जाऊं? तुमसे रोमांस करने के अलावा भी बहुत सा काम है मुझे'
'फिर कब आओगी?'
'पता नहीं. तुम्हारे लिए घबराहट होती है कभी कभी. मैं उम्मीद करती हूँ कि तुम्हें सही सलामत लास्ट चैप्टर तक पहुंचा दूं. तुम्हें भी क्या पड़ी थी...नॉवेल लिखो...जितना जुड़ती हूँ तुमसे उतनी तकलीफ होती है. तुम्हारी तरह मैं अपने क्रियेटर से बात नहीं कर सकती न. उसका भी मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट हूँ मैं. कहाँ जा के रिफंड मांगूं. बताओ.'

'गुडबाय पूजा.'
'गुडबाय लूसिफ़र टी डिमेलो'

*** 

दुःख मांजता है...सुख तो बस ऊपर के टच अप्स हैं डार्लिंग. फिर मैं लूक के किरदार से गुजरते हुए क्यूँ नहीं इस दर्द को किसी चैप्टर में डिलीट कर पा रही हूँ. मैंने क्यूँ रचा था उसे. बस एक छोटी सी मुलाकात ही तो थी. उसकी तकलीफें इस कदर जिंदगी का हिस्सा होती जाएँगी कब सोचा था. रिबाउंड चल रहा है. वो खुश है. मैं देखती हूँ उसकी आँखों की चमक. उसकी यादों में धुंधलाता अपना चेहरा. उस मासूम लड़की के कंधे से आती खस की गहराती हुए गहरी हरी महक. मैं टर्काइज इंक से लिखती हूँ मुहब्बत. मुहब्बत. मुहब्बत. लूक की आँखों का रंग भी होने लगा है फिरोजी.

***

मेरा खुदा मगर मेरे लिए कोई रिबाउंड नहीं लिखता. मैं वही ठहरी हुयी हूँ. उसकी बांहों में. अंतिम अलविदा में. जिंदगी कई मर्तबा पॉज हो जाती है...दिक्कत यही है कि रिमोट हमारे हाथ नहीं खुदा के हाथ है.

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