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14 December, 2018

typing...

सोच रही हूँ, कह दूँ तुम्हें।

शाम किसी से बात कर रही थी। देर तक उसकी हँसी किसी की याद दिलाती रही, ये याद नहीं आ रहा था कि किसकी। फिर धुँधलाते हुए याद आयी तुम्हारी। बहुत साल पहले, जब हम बहुत बातें करते थे और तुम बहुत हँसते थे… ऐसे ही हँसते थे तुम। मैं तुम्हें सुन कर सोचती थी, तुम्हारी हँसी का रंग उजला होगा, धुँधला उजला। जाड़ों के कोहरे वाली रात जैसा। मैं तुम्हें दिल्ली में मिलना चाहती थी, कि दिल्ली दुनिया में मेरा सबसे फ़ेवरिट शहर है। 

पता है, दिल्ली दुनिया में मेरा फ़ेवरिट शहर क्यूँ है? क्यूँकि दिल्ली वो शहर है जहाँ मैं आख़िरी बार पूरी तरह ख़ुश थी। घर पर माँ, पापा, भाई थे, एक अच्छी नौकरी थी जिसमें मुझे मज़ा आता था, एक बॉयफ़्रेंड जिससे मैं शादी करना चाहती थी, बहुत से दोस्त जिनके साथ मैं वक़्त बिताना पसंद करती थी। सीपी, जहाँ हिंदी की बहुत सी किताबें थीं और मेरे इतने पैसे कि मैं जो भी किताब पसंद आए, वो ख़रीद सकती थी। मेरे पास वाक़ई सब कुछ था। 

दिल्ली में आज भी कभी कभी मैं भूल जाती हूँ कि मैं कौन हूँ और बारह साल पुरानी वही लड़की हो जाती हूँ। PSR पर खड़ी, दुपट्टा हवा में लहराते हुए, लम्बे बाल, खुले हुए। मैं उस लड़की से बहुत प्यार करती हूँ। वो मेरे अतीत में रहती है, हमेशा पर्फ़ेक्ट्ली ख़ुश, ख़ुशी की ब्राण्ड ऐम्बैसडर। लोग अक्सर उससे पूछा करते थे, तुम हमेशा इतना ख़ुश कैसे/क्यों रहती हो। 

लोग अब नहीं पूछते, तुम हमेशा इतनी उदास कैसे रहती हो। उदासी सबको नौर्मल लगती है। ख़ुशी कोई गुनाह है, कोई ड्रग जैसे। चुपचाप ख़ुश होना चाहिए। बिना दिखाए हुए। ख़ुद में समेट के रखनी चाहिए ख़ुशी। 

धुँध से उठती धुन का कवर सफ़ेद है। जैसे तुम्हारे बारे में सोचना। जिसमें कोई मिलावट नहीं होती। कुछ नहीं सोचते उस समय। दुःख, दुनियादारी, टूटे हुए सपने, छूटे हुए शहर, अधूरी लिखी किताब… कुछ नहीं दुखता। बस, तुम ही दुखते हो। 

प्रेम में शुद्धता जैसी कोई चीज़ होती है क्या? ख़ालिस प्रेम? बिना मिलावट के। कोई मशीन नाप दे। कि इस प्रेम में कोई ख़तरा नहीं है। ना दिल को, ना दिमाग़ को, ना भविष्य को, ना वर्तमान को, न ज़िंदगी में मौजूद और किसी रिश्ते को… 

मैंने समझा लिया है ख़ुद को… कम करती हूँ प्यार तुमसे। नहीं चाहती हूँ तुम्हारा वक़्त। तुम्हारी आवाज़। या तुम्हारे लिखे ख़त ही। तुम्हारे विदा का इंतज़ार भी नहीं है। ज़रा से बचे हो तुम। कलाई पर लगाए इत्र का सेकंड नोट। हार्ट औफ़ पर्फ़्यूम कहते हैं जिसे। भीना भीना… सबसे देर तक ठहरने वाला। देर तक। हमेशा नहीं। 

तुम हवा में घुल कर खो जाओगे एक दिन। मेरी कलाई पर सिर्फ़ स्याही होगी तब। मैं ख़ुद ही एक रोज़ चूमूँगी अपनी कलाई। जहाँ दिल धड़कता है। वहाँ। धीरे से पेपर कटर से एकदम बारीक लकीर खींचूँगी। कोई दो तीन दिन रहेगा उसका निशान। और फिर भूल जाऊँगी, सब कुछ ही। 

पता है। आख़िरी बार जब तुम मुझसे बात कर रहे थे। मुझे लग रहा था कि जाने ये शायद आख़िरी बार हो। Whatsapp पर तुम्हारे नाम के आगे typing… आ रहा था। मैंने एक स्क्रीन्शाट लेकर रख लिया है उसका। याद बस इतना रहेगा। बहुत बहुत साल बाद भी।

हम बहुत बातें करते थे। हम बहुत हँसते थे साथ में। बस।

21 October, 2017

इक अभागन का क़िस्सा

छह हफ़्ते के बच्चे को फीटस कहते हैं। एक नन्हें से दाने के बराबर होता है और उसका दिल बनना शुरू हो जाता है। ऐसा डॉक्टर बताती है। इसके साथ ये ज़रूरी जानकारी भी कि औरत इस बच्चे को जन्म नहीं दे सकती, बहुत ज़्यादा प्रॉबबिलिटी है कि बच्चा ऐब्नॉर्मल पैदा हो। लड़की का मैथ कमज़ोर होता है। उसे प्रॉबबिलिटी जैसी बड़ी बड़ी चीज़ें समझ नहीं आतीं। टकटकी बांधे देखती है चुपचाप। उसे लगता है वो ठीक से समझ नहीं पायी है।

तब से उसे मैथ बहुत ख़राब लगता है। उसने कई साल प्रॉबबिलिटी पढ़ने और समझने की कोशिश की लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि जहाँ कर्मों की बात आ जाती है वहाँ फिर मैथ कुछ कर नहीं सकता। ९९ पर्सेंटिज होना कोई ज़्यादा सुकून का बायस कैसे हो सकता है किसी के लिए। वो जानना चाहती है कि कोई ऐसा ऐल्गोरिदम होता है जो बता सके कि उसने डॉक्टर की बात मान के सही किया था या नहीं। उसने ज़िंदगी में किसी का दिल नहीं दुखाया कभी। जैसा बचपन के संस्कारों में बताया गया, सिखाया गया था वैसी ज़िंदगी जीती आयी थी। कुछ दिन पहले तो ऐसा था कि दुनिया उसे साथ बुरा करती थी तो तकलीफ़ होती थी, फिर उसने अपने पिता से इस बारे में बात की…पिता ने उसे समझाया कि हमें अच्छा इसलिए नहीं करना चाहिए कि हम बदले में दुनिया से हमारे प्रति वैसा ही अच्छा होने की उम्मीद कर सकें। हम अच्छा इसलिए करते हैं कि हम अच्छे हैं, हमें अच्छा करने से ख़ुशी मिलती है और हमारी अंतरात्मा हमें कचोटती नहीं। इसके ठीक बाद वो दुनिया से ऐसी कोई उम्मीद बाँधना छोड़ देती है।

अजन्मे बच्चे के चेहरे की रेखाएँ नहीं उभरी होंगी लेकिन उसने लड़की से औरत बनते हुए हर जगह उसे तलाशा है। दस साल तक की उम्र के बच्चों को हँसते खेलते देख कर उसे एक अजीब सी तकलीफ़ होती है। वो अक्सर सोचती है इतने सालों में अगर उसका अपना एक बच्चा हुआ होता तो क्या वो उसे कम याद करती? या अपने मैथ नहीं जानने पर कम अफ़सोस करती?

दुनिया के सारे सुखों में से सबसे सुंदर सुख होता है किसी मासूम बच्चे के साथ वक़्त बिताना। उससे बातें करना। उसकी कहानियाँ सुनना और उसे कहानियाँ सुनाना। पाँच साल पहले ऐसा नहीं था। उसे बच्चे अच्छे लगते थे। वो सबसे पसंदीदा भाभी, दीदी, मौसी हुआ करती थी। छोटे बच्चे उससे सट कर बैठ जाया करते गरमियों में। वो उनसे बहुत दुलार से बात करती। उसके पास अपनी सबसे छोटी ननद की राक्षस की कहानी के लिए भी वैसी ही उत्सुकता थी जैसे ससुर के बनाए हुए साइंस के थीअरम्ज़ के लिए थी। बच्चे उसके इर्द गिर्द हँसते खिलखिलाते रहते। उसका आँचल छू छू के देखते। उसकी दो चोटियाँ खींचना चाहते लेकिन वो उन्हें आँख दिखा देते और वे बदमाश वाली मुस्कान मुस्कियाते।

अपनी मर्ज़ी और दूसरी जाति में शादी करने के कारण उसके मायक़े के ब्राह्मण समाज ने उसे बाहर कर दिया था। वो जब बहुत साल बाद लौट कर गयी तो लोग उसे खोद खोद कर उसके पति के बारे में पूछते। बड़ी बूढ़ी औरतें उसके ससुर का नाम पूछती और अफ़सोस जतातीं। जिस घर ने उस बिन माँ की बेटी को दिल में बसा लिया था, उसके पाप क्षमा करते हुए, उस घर को एक ही नज़र से देखतीं। औरतें। बच्चे। पुरुष। सब कोई ही। हर नया व्यक्ति उससे दो चीज़ें जानना चाहता। माँ के बारे में, कि जिसे जाए हुए साल दर साल बीतते जा रहे थे लेकिन जो इस लड़की की यादों में और दुखती हुयी बसी जा रही थी और ससुराल के बारे में।

औरत के ज़िंदगी के दो छोर होते हैं। माँ और बच्चा। औरत की ज़िंदगी में ये दोनों नहीं थे। वो सोचती अक्सर कि अगर उसकी माँ ज़िंदा होती या उसे एक बच्चा होता तो क्या वो कोई दूसरे तरह की औरत होती? एक तरह से उसने इन दोनों को बहुत पहले खो दिया था। खो देने के इस दुःख को वो अजीब चीज़ों से भरती रहती। बिना ईश्वर के होना मुश्किल होता तो एक दिन वह पिता के कहने पर एक छोटे से कृष्ण को अपने घर ले आयी। ईश्वर के सामने दिया जलाती औरत सोचती उन्हें मन की बात तो पता ही है, याचक की तरह माँगने की क्या ज़रूरत है। वो पूजा करती हुयी कृष्ण को देख कर मुस्कुराती। सच्चाई यही है जीवन की। हर महीने उम्मीद बाँधना और फिर उम्मीद का टूट जाना। कई सालों से वो एक टूटी हुयी उम्मीद हुयी जा रही थी बस।

एक औरत कि जिसकी माँ नहीं थी और जिसके बच्चे नहीं थे।

बहुत साल पीछे बचपन में जाती, अपने घर की औरतों को याद करती। दादी को। नानी को। जिन दिनों दादी घर पर रहा करती, दादी के आँचल के गेंठ में हमेशा खुदरा पैसे रहते। चवन्नी, अठन्नी, दस पैसा। पाँच पैसा भी। घर पर जो भी बच्चे आते, दादी कई बार उनको घर से लौटते वक़्त अपने आँचल की गेंठ खोल कर वो पैसा देना चाहती उनकी मुट्ठी में। गाँव के बच्चों को ऐसी दादियों की आदत होती होगी। शहर के बच्चे सकपका जाते। उन्हें समझ नहीं आता कि एक रुपए का वे क्या करेंगे। क्या कर सकते हैं। वो अपने बचपन में होती। वो उन दिनों चाहती कि कभी ख़ूब बड़ी होकर जब बहुत से पैसे कमाएगी तो दादी को अपने गेंठरी में रखने के लिए पाँच सौ के नोट देगी। ख़ूब सारे नोट। लेकिन नोट अगर दादी ने साड़ी धोते समय नहीं निकाले तो ख़राब हो जाएँगे ना? ये बड़ी मुश्किल थी। दादी थी भी ऐसी भुलक्कड़। अब इस उम्र में आदत बदलने को तो बोल नहीं सकती थी। दादी के ज़िंदा रहते तक गाँव में उसका एक घर था। बिहार में जब लोग पूछा करते थे कि तुम्हारा घर कहाँ है तो उन दिनों वो गाँव का नाम बताया करती थी। अपभ्रंश कर के। जैसे कि दादी कहा करती थी। दनयालपुर।

उसे कहानियाँ लिखना अच्छा लगता था। किसी किरदार को पाल पोस कर बड़ा करना। उसके साथ जीना ज़िंदगी। कहानियाँ लिखते हुए वो दो चोटी वाली लड़की हुआ करती थी। कॉलेज को भागती हुयी लड़की कि जिसकी माँ उसे हमेशा कौर कौर करके खाना खिला रही होती थी कि वो भुख्ले ना चली जाए कॉलेज। माँ जो हमेशा ध्यान देती थी कि आँख में काजल लगायी है कि नहीं घर से बाहर निकलने के पहले। कि दुनिया भर में सब उसकी सुंदर बेटी को नजराने के लिए ही बैठा है। माँ उसके कहे वाक्य पूरे करती। लड़की अपने बनाए किरदारों के लिए अपनी मम्मी हुआ करती। आँख की कोर में काजल लगा के पन्नों पर उतारा करती। ये उसके जीवन का इकमात्र सुख था।

सुख, दुःख का हरकारा होता है। औरत जानती। औरत हमेशा अपनी पहचान याद रखती। शादीशुदा औरत के प्यार पर सबका अधिकार बँटा हुआ होता। भरे पूरे घर में देवर, ननद, सास…देवरानी…कई सारे बच्चे और कई बार तो गाँव की बड़ी बूढ़ी औरतें भी होतीं जो उसके सिगरेट ला देने पर आशीर्वाद देते हुए सवाल पूछ लेतीं कि ई लाने से क्या होगा, ऊ लाओ ना जिसका हमलोग को ज़रूरत है।

ईश्वर के खेल निराले होते। औरत को बड़े दुःख को सहने के लिए एक छोटा सा सुख लिख देता। एक बड़ा सा शहर। बड़े दिल वाला शहर। शहर कि जिसके सीने में दुनिया भर की औरतों के दुःख समा जाएँ लेकिन वो हँस सके फिर भी कोई ऐसी हँसी कि जिसका होना उस एक लम्हे भर ही होता हो।

शहर में कोई नहीं पहचानता लड़की को। हल्की ठंढ, हल्की गरमी के बीच होता शहर। लड़की जूड़ा खोलती और शहर का होना मीठा हुआ जाता। शहर उसकी पहचान बिसार देता। वो हुयी जाती कोई खुल कर हँसने वाली लड़की कि जिसकी माँ ज़िंदा होती। कि जिसे बच्चे पैदा करने की फ़िक्र नहीं होती। कि जिसकी ज़िंदगी में कहानियाँ, कविताएँ, गीत और बातें होतीं। कि जिसके पास कोई फ़्यूचर प्लान नहीं होता। ना कोई डर होता। उसे जीने से डर नहीं लगता। वो देखती एक शहर नयी आँखों से। सपने जैसा शहर। कोई अजनबी सा लड़का होता साथ। जिसका होना सिर्फ़ दो दिन का सच होता। लड़की रंग भरे म्यूज़ीयम में जाती। लड़की मौने के प्रेम में होती। लड़की पौलक को देखती रहती अपलक। उसकी आँखों में मुखर हो जाते चुप पेंटिंग के कितने सारे तो रंग। सारे सारे रंग। लड़की देखती आसमान। लड़की पहचानती नीले और गुलाबी के शेड्स। शहर की सड़कों के नाम। ट्रेन स्टेशन पर खो जाती लेकिन घबराहट में पागल हो जाने के पहले उसे तलाश लेता वो लड़का कि जिसे शहर याद होता पूरा पूरा। लड़की ट्रेन में सुनाती क़िस्सा। मौने के प्रेम में होने को, कि जैसे भरे शहर में कोई नज़र खींचती है अपनी ओर, वैसे ही मौने की पेंटिंग बुलाती है उसे। बिना जाने भी खिंचती है उधर।

कुछ भी नहीं दुखता उन दिनों। सब अच्छा होता। शहर। शहर के लोग। मौसम। कपड़े। सड़क पर मिलते काले दुपट्टे। पैरों की थकान। गर्म पानी। प्रसाद में सिर्फ़ कॉफ़ी में डालने वाली चीनी फाँकते उसके कृष्ण भगवान।

शहर बसता जाता लड़की में और लड़की छूटती जाती शहर में। लौट आने के दिन लड़की एक थरथराहट होती। बहुत ठंढी रातों वाली। दादी के गुज़र जाने के बाद ट्रेन से उसका परिवार गाँव जा रहा था। बहुत ठंढ के दिन थे और बारिश हो रही थी। खिड़की से घुसती ठंढ हड्डियों के बीच तक घुस जा रही थी। वही ठंढ याद थी लड़की को। उसकी उँगलियों के पोर ठंढे पड़ते जाते। लड़की धीरे धीरे सपने से सच में लौट रही होती। कहती उससे, मेरे हाथ हमेशा गरम रहते थे। हमेशा। कितनी भी ठंढ में मेरे हाथ ठंढे नहीं पड़ते। लेकिन जब से माँ नहीं रही, पता नहीं कैसे तो मेरी हथेलियाँ एकदम ठंढी हो जाती हैं।

शहर को अलविदा कहना मुश्किल नहीं था। शहर वो सब कुछ हुआ था उसके लिए जो कि होना चाहिए था। लड़की लौटते हुए सुख में थी। जैसे हर कुछ जो चाहा था वो मिल गया हो। कोई दुःख नहीं छू पा रहा था उसकी हँसती हुयी आँखें। उसके खुले बालों से सुख की ख़ुशबू आती थी।

लौट आने के बाद शहर गुम होने लगा। लड़की कितना भी शहर के रंग सहेज कर रखना चाहती, कुछ ना कुछ छूट जाता। मगर सबसे ज़्यादा जो छूट रहा था वो कोई एक सपने सा लड़का था कि जिसे छू कर शिनाख्त करने की ख़्वाहिश थी, कि वो सच में था। हम अपने अतीत को लेकिन छू नहीं सकते। आँखों में रीप्ले कर सकते हैं दुबारा।

सुख ने कहा था कि दुःख आएगा। मगर इस तरह आसमान भर दुःख आएगा, ये नहीं बताया था उसने। लड़की समझ नहीं पाती कि हर सुख आख़िरकार दुःख में कैसे मोर्फ़ कर जाता है। दुःख निर्दयी होता। आँसुओं में उसे डुबो देता कि लड़की साँस साँस के लिए तड़पती। लड़की नहीं जानती कि उसे क्या चाहिए। लड़की उन डेढ़ दिनों को भी नहीं समझ पाती। कि कैसे कोई भूल सकता है जीवन भर के दुःख। अभाव। मृत्यु। कि वो कौन सी टूटन थी जिसकी दरारों में शहर सुनहले बारीक कणों की तरह भर गया है। जापानी फ़िलोस्फी - वाबी साबी - किंतसुगी। कि जिससे टूटन अपने होने के साथ भी ख़ूबसूरत दिखे।

महीने भर बाद जब हॉस्पिटल की पहली ट्रिप लगी तो औरत के पागलपन, तन्हाई और चुप्पी ने पूरा हथियारबंद होकर सुख के उस लम्हे पर हमला किया। नाज़ुक सा सुख का लम्हा था। अकेला। टूट गया। लड़की की उँगलियों में चुभे सुख के टुकड़े आँखों को छिलने लगे कि जब उसने आँसू पोंछने चाहे।

उसने देखा कि शहर ने उसे बिसार दिया है। कि शहर की स्मृति बहुत शॉर्ट लिव्ड होती है। औरत अपने अकेलेपन और तन्हाई से लड़ती हुयी भी याद करना चाहती सुख के किसी लम्हे को। लौट लौट कर जाना और लम्हे को रिपीट में प्ले करना उसे पागल किए दे रहा था। कई किलोमीटर गाड़ी बहुत धीरे चलाती हुयी औरत घर आयी और बिस्तर पर यूँ टूट के पड़ी कि बहुत पुराना प्यार याद आ गया। मौत से पहली नज़र का हुआ प्यार।

उसे उलझना नहीं चाहिए था लेकिन औरत बेतरह उलझ गयी थी। अतीत की गांठ खोल पाना नामुमकिन था। लम्हा लम्हा अलगा के शिनाख्त करना भी। सब कुछ इतने तीखेपन से याद था उसे। लेकिन उसे समझ कुछ नहीं आ रहा था। वो फिर से भूल गयी थी कि ज़िंदगी उदार हो सकती है। ख़्वाहिशें पूरी होती हैं। बेमक़सद भटकना सुख है। एक मुकम्मल सफ़र के बाद अलविदा कहना भी सुख है।

हॉस्पिटल में बहुत से नवजात बच्चे थे। ख़बर सुन कर ख़ुशी के आँसू रोते परिवार थे। औरत ख़ुद को नीले कफ़न में महसूस कर रही थी। उसे इंतज़ार तोड़ रहा था। दस साल से उसके अंदर किसी अजन्मे बच्चे का प्रेम पलता रहा था। दुःख की तरह। अफ़सोस की तरह। छुपा हुआ। कुछ ऐसा कि जिसकी उसे पहचान तक नहीं थी।

आख़िरकार वो खोल पायी गुत्थी कि सब इतना उलझा हुआ क्यूँ था। कि एक शादीशुदा औरत के प्यार पर बहुत से लोगों का हिस्सा होता है। उसका ख़ुद का पर्सनल कुछ भी नहीं होता। प्यार करने का, प्यार पाने का अधिकार होता है। कितने सारे रिश्तों में बँटी औरत। सबको बिना ख़ुद को बचाए हुए, बिना कुछ माँगे हुए प्यार करती औरत के हिस्से सिर्फ़ सवाल ही तो आते हैं। ‘ख़ुशख़बरी कब सुना रही हो?’ । सिवा इस सवाल के उसके कोई जवाब मायने नहीं रखते। उसका होना मायने नहीं रखता। वो सिर्फ़ एक औरत हो जाती है। एक बिना किनारे की नदी।

बिना माँ की बच्ची। बिना बच्चे की माँ।

दादी जैसा जीवन उसने नहीं जिया था कि सुख से छलकी हुयी किसी बच्चे की मुट्ठी पर अठन्नी धर सके लेकिन अपना पूरा जीवन खंगाल के उसने पाया कि एक प्यार है जो उसने अपने आँचर की गाँठ में बाँध रखा है। इस प्यार पर किसी का हिस्सा नहीं लिखाया है। किसी का हक़ नहीं।

वो सकुचाते हुए अपनी सूती साड़ी के आँचल से गांठ खोलती है और तुम्हारी हथेली में वो प्यार रखती है जो इतने सालों से उसकी इकलौती थाती है।

वो तुम्हारे नाम अपने अजन्मे बच्चे के हिस्से का प्यार लिखती है।  

26 July, 2017

घड़ी में आठ बजे थे

मुझे उसका लिखा कुछ भी नहीं याद। ना उसके होने का कोई भी टुकड़ा। उसके कपड़ों की छुअन। उसका पर्फ़्यूम। कमरे बदलने के बाद छूटे हुए फ़र्श पर छोड़ दिए गए बासी गुलदान। पुराने हो चुके तकिया खोल का बनाया हुआ पोंछा। उसके कुर्ते का रंग। 
कुछ नहीं याद। कुछ भी नहीं। 
अफ़सोस के खाते में जमा ये हुआ कि मैंने उससे एक पैकेट सिगरेट ख़रीदवा ली। जाने क्यूँ। सच ये है कि मैं उससे सिर्फ़ एक बार मिली थी। उसके बाद बदल गयी थी मैं भी, वो भी। हम दोनों आधे आधे अफ़सोस की जगह पूरे पूरे अफ़सोस हो गए थे। मुझे अफ़सोस कि पूरे पूरे दोस्त होने चाहिये। उसे अफ़सोस कि पूरे पूरे आशिक़। 

मैं उसका कमरा देखना चाहती थी। धूप में उसकी आँखें भी। मैं उसकी कविताओं की किताब पर उसका औटोग्राफ लेना चाहती थी। लेकिन वो ना कविता लिखेगा, ना कभी किताब छपवायेगा। ना मैं कभी उसके बुक लौंच पे जाऊँगी। कितने दिनों से उससे झगड़ा नहीं किया। गालियाँ नहीं दीं। उदास नहीं हुयी क्या बहुत दिनों से? बेतरह क्यूँ याद आ रहा है वो। ठीक तो होगा ना?

कभी कभी कैसे एक पूरा पूरा आदमी सिमट कर सिर्फ़ एक शब्द हो जाता है। कभी कभी सिर्फ़ एक नाम। कभी कभी सिर्फ़ एक टाइटल ही, एक बेमतलब के घिसटते हुए मिस्टर के साथ। 

मगर एक शब्द था। उसने बड़ी शिद्दत से कहा था मुझसे। इसलिए याद रह गया है।

इश्तियाक़!

एक लड़का हुआ करता था पटना में। मुस्लिम था लेकिन अपना नाम अभिषेक बताता था लोगों को। मैं इस डिटेल में नहीं जाऊँगी कि क्यूँ। मैंने पहली बार उसका नाम पूछा तो उसने कहा, अभिषेक। मैंने कहा नहीं, वो नाम नहीं जो तुम लोगों को बताते हो। वो नाम जो तुम्हारा ख़ुद का है। उसने कहा, 'सरवर'। उन दिनों उसने एक शेर सुनाया था। शेर में शब्द था, 'तिलावत'...उसने समझाया पूजा जैसे करते हैं ना, वैसे ही। उसने ही पहली बार मुझे 'वजू करना' किसे कहते हैं वो भी समझाया था। 

उसकी कोई भी ख़बर आए हुए कमसे कम दस साल हो गए। मगर मुझे अभी भी वो याद है। हर कुछ दिनों में याद आ जाता है। शायद उसने किसी लम्हे बहुत गहरा इश्क़ कर लिया था। वरना कितने लोगों को भूल गयी हूँ मैं। स्कूल कॉलेज में साथ पढ़ने वाली लड़कियाँ। ऑफ़िस के बाक़ी कलीग्स। बॉसेज़। हॉस्टल में साथ के कमरे में रहने वाली लड़की का नाम। मगर उस लड़के को कभी भूल नहीं पाती। उसे कभी लगता होगा ना कि मैं उसे याद कर रही हूँ, मगर फिर वो ख़ुद को समझाता होगा कि इतने सालों बाद थोड़े ना कोई किसी को याद रखता है। मैं कभी उससे मिल गयी इस जिदंगी में तो कहूँगी उससे। तुम्हें याद रखा है। जिन दिनों तुम्हें लगता था कि मेरी बहुत याद आ रही है वो इसलिए कि दुनिया के इस शहर में रहती मैं तुम्हें अपने ख़यालों में रच रच के देख रही थी। तुम्हारी आँखों का हल्का भूरा रंग भी याद है मुझे।

शायद ईमानदारी से ज़्यादा ज़रूरी लोगों के लिए ये होता हो कि क्या सही है, क्या होना चाहिए। समाज के नियमों के हिसाब से। हर बात का एक मक़सद होता है। रिश्तों की भी कोई दिशा होती है। मैं बहुत झूठ बोलती हूँ। एकदम आसानी से। मगर जाने कैसे तो लगता है कि मेरे दिल में खोट नहीं है। रिश्तों को ईमानदारी से निभा ले जाती हूँ। आज ही छोटी ननद से बात करते हुए कह रही थी, कोई किसी को ज़बरदस्ती किसी को 'मानने' पर मजबूर नहीं कर सकता है। हमारे बिहार में 'मानना' स्नेह और प्रेम और अधिकार जैसा कुछ मिलाजुला शब्द होता है जिसका मायना लिख के नहीं बता सकते। तो हम लोगों को बहुत मानते हैं। कभी कभी जब बहुत उदास होते हैं कि मेरी ख़ाली हथेली में क्या आया तो ज़िंदगी कुछ ऐसी शाम। कुछ ऐसे लोग भेज देती है। कि शिकायत करना बंद करो। नालायक।

मैं अब भी लोगों पर बहुत भरोसा करती हूँ। दोस्तों पर। परिवार पर। अजनबियों पर। मुझे हर चीज़ को कटघरे में रख के जीना नहीं आता।

एक बार पता नहीं कहीं पढ़ा था या पापा ने बताया था। कि जो बहुत भोला हो उसे आप ठग नहीं सकते। उसे पता ही नहीं चलेगा। वो उम्र भर आप पर भरोसा करेगा।

ईश्वर पर ऐसा ही कोई भरोसा है।
और इश्क़ पर भी।

19 June, 2017

मृत्यु की न दुखने वाली तीन कहानियाँ

शीर्षकहीन 

मेरी मृत्यु को नकारो मत। उच्चारो इसे, 'मैं मर जाऊँगी जल्दी ही'। दर्द की उठती जिस रेख से मैं तुम्हारा नाम लिखा करती थी अब उससे सिर्फ़ मृत्यु के आह्वान के मंत्र लिखती हूँ। मृत्यु तुम्हारा रक़ीब है। मैं उससे कहती हूँ कि समय की इस गहरी नदी को जल्दी से पार कर ले और मुझे आलिंगन में भींच ले। मृत्यु का हठ है कि मैं उसके लिए कविताओं की पाल वाली नाव लिख दूँ। मेरे मंत्रों में इतनी टीस होती है कि उसका ध्यान भटक जाता है और वह बार बार समय की नदी के उलटे बहाव में दूसरी ओर बह जाता है। समय भी तुम्हारा रक़ीब है शायद।

तुम्हारी इच्छा है और अगर सामर्थ्य है तो इस आसन्न मृत्यु से लड़ने के लिए आयुध तैय्यार करो। मेरे हृदय को सात सुरक्षा दीवारों वाले अभेद्य क़िले में बदल दो। मेरे इर्द गिर्द प्रेम के तिलिस्म बुनो। वो भी ना हो सके तो नागफनी का जंगल तो उगा ही दो कि मृत्यु की उँगलियाँ मुझे छूने में लहूलुहान हो जाएँ और वो उनके दर्द से तिलमिला कर कुछ दिनों के लिए मेरा हाथ छोड़ दे।

मेरे पैरों के इर्द गिर्द सप्तसिंधु बहती हैं। मेरे तलवे हमेशा ठंढे रहते हैं। तुम इतना ही करो कि मेरे तलवों को थोड़ा अपनी हथेलियों से रगड़ कर गर्म कर दो। तुमने कहा तो था कि तुम आग की कविताएँ लिखते हो। तुम्हारी हथेलियों में ज्वालामुखी हैं।

मुझे समंदर भी शरण नहीं देता। मुझे रास्ते भी छल लेते हैं। मैं इतने सालों की बंजारन, बिना रास्तों के कहाँ जाऊँ? मेरे प्रायश्चित्त का किसी वेद में विधान नहीं है, सिर्फ़ दंड है, मृत्युदंड।

शायद मैंने ही तुमसे कुछ ज़्यादा माँग लिया। बर्फ़ हुए पैरों की अभिशप्त बंजारन सिर्फ़ मृत्यु का प्रणय निवेदन स्वीकार सकती है। मृत्यु। मेरा प्रेम, मेरा पंच परमेश्वर। मेरा वधिक।

बस इतना करो कि इन आँखों को एक बार आसमान भर पलाश देखने की इच्छा है…इस अंतिम समय में, मेरी खिड़की पर…टहकते टेसु के रंग में फूल जाओ…

***
स्टिल्बॉर्न 
कुछ शब्दों का दर्द परायी भाषा में भी इतना घातक होता है कि हम अपनी भाषा में उसे छूना नहीं चाहते। उसकी प्राणरक्षा के लिए उसके शरीर में मरे हुए बच्चे को DNC से निकाला गया था। छोटे छोटे टुकड़ों में काट कर।

कोई उसकी बात नहीं मानता कि समंदर हत्यारा है। हर बार गर्भपात होने की पहली रात वो समंदर का सपना देखती।

तुम्हें कभी नहीं कहना चाहिए था कि तुम्हें मेरे किरदारों से इश्क़ हो जाता है। तुम मेरे किरदारों के बारे में कुछ नहीं जानते। मुझे नफ़रत है तुम्हारे जैसे लोगों से। तुम्हें छू कर लिजलिजा हो जाता है मेरा लिखने का कमरा। मैं तुम्हारे ख़त जला दूँगी।

तुम इतने उजले शहर में कैसे रह सकते हो? कौन भरता है तुम्हारी आत्मा में उजाला हर रोज़। कहाँ दफ़्न करके आते हो तुम अपने गुनाहों की लिस्ट? किसके सीने में छिपे हैं तुम्हारे घिनौने राज?

औरत ने कपड़ों में सूखे हुए रक्त को धोया नहीं। ख़ून में रंगी हुयी चादरें किसी नदी में नहीं बहायी गयीं। उसके अजन्मे बच्चों की आत्मा उसकी नींद में उससे मिलने आती। वो गूगल कर के पढ़ती कि कितने महीने में बच्चों के अंदर आत्मा आ जाती है मगर गूगल के पास ऐसे जवाब नहीं होते। जवाब होते भी तो उसे उनपर यक़ीन नहीं होता। ये बात शायद किसी पुराण, किसी वेद, किसी स्मृति में लिखी हो। लेकिन वो एकदम साधारण स्त्री थी। उसके पास इतना कुछ समझने को अक़्ल नहीं थी। कोई ऐसा था नहीं प्रकाण्ड पंडित कि उसे बता दे ठीक ठीक कि जो बच्चे जन्म नहीं लेते उनकी आत्मा की शुद्धि हो सकती है या नहीं।

वो टुकड़ा टुकड़ा अपने बच्चों का चेहरा अपने मन में बना रही होती। आँखें। नाक। होंठ। सिर के बाल। लम्बाई। रंग। वज़न। उसकी आवाज़। उसकी हँसी। जिन दिनों वह गर्भवती होती उसकी आँखों में दो रंग दिखते। एक वर्तमान का। एक भविष्य का। दूसरी DNC के पूरे साल भर बाद उसे गर्भ ठहरा था। इस बार उसने कोई सपने नहीं देखे। इस बार बच्चों को देख कर वो ख़ुशी या अचरज नहीं, दहशत से भर जाती। हर गुज़रते महीने के साथ उसकी आँखों का अंधकार और गहराता गया। नवें महीने तो ये हाल था कि पूजाघर में फ़र्श पर बैठ कर पूजा भी नहीं कर पाती थी।
लेबर पेन के पहले ही डॉक्टर ने उसे अड्मिट करा लिया। वो कोई चांस नहीं लेना चाहती थी। सिजेरियन ओपेरेशन के बाद जब उसे होश आया तो बेड के इर्द गिर्द सब लोग जमा थे मगर चेहरे पर कोई भाव नहीं था। उसके पति ने जब उसे उसकी माँ के मर जाने की ख़बर दी थी, तब उसने उसकी आँखों में इतना अँधेरा पहली बार देखा था। उसके कान में बच्चे की आवाज़ गूँज रही थी। किलकारियाँ। आँखें। रंग। बाल। मुस्कान।

बिस्तर के बग़ल में टेबल पर एक सफ़ेद पोटली रखी थी। डॉक्टर ने कहा। ‘स्टिल बॉर्न’। औरत को इस टर्म का मतलब पता नहीं था। उसने पति की ओर देखा। पति ने टेबल से पोटली उठा कर उसके हाथ में रख दी। बच्चा गोरा एकदम। चेहरा बिलकुल औरत से मिलता। बाल काले। आँखें बंद। और साँस नहीं। नर्स ने भावहीन और कठोर आवाज़ में कहा, ‘मैडम बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ है’। औरत चुप।

इसमें किससे कहे कि मृत बच्चे की पलकें खोल दे। वो उसकी आँखों का रंग देखना चाहती है।


***

Vigilante
मालूम हिंदी में ऐसा कोई शब्द क्यूँ नहीं है? क्यूँकि हमारे देश में अच्छा काम करने के बाद छुपने की ज़रूरत नहीं पड़ती। हालाँकि हिंदी फ़िल्मों में कुछ और दिखाया जाता है। लेकिन समाज का सच ये है कि अच्छा करने वाले लोग डंके की चोट पर काम करते हैं। मर भी जाते हैं ऐसे।

उसका नाम नहीं दे सकती। मेट्रो में मिला था मुझे। उसकी आँखों में एक मासूम वहशत थी। छोटे, क़ातिल बच्चों में जैसी होती है। वैसी। क्या? आपने बच्चों के क़ातिल इरादे नहीं देखे? किसी बच्चे को कुत्ते के पिल्ले को मार देते देखा है? पानी में डुबो कर? गरम पानी में? आपको क्या लगा ये उसकी मासूमियत है? उसे सब मालूम था। वो बस मौत को चख रहा था। उसे छेड़ रहा था। अपना साइडकिक बनाने को। जैसे बैटमैन का है ना- रॉबिन। वैसे ही, कि जो काम उससे ना हो सकें, वे मौत के ज़िम्मे सौंप दे…छोटे छोटे क़त्ल। प्राकृतिक क़त्ल। जैसे पानी में किसी को फेंक देने के बाद उसे बचाने ना जाना जैसे- सीधे- साधारण- बोरिंग।

उसकी आँखें देख कर लगा कि उसे क़त्ल के ऊपर मासूमियत का पर्दा डालना आता है। चुप्पा लड़का। इंट्रोवर्ट जैसा। भीड़ में गुम हो जाने का खेल गिरगिट से सीखता। Camouflage.  उसका चेहरा ऐसा आइना था जिसमें सिर्फ़ एक क़ातिल अपना चेहरा देख सकता था। मुझे वो दिखा कि मुझे बहुत सालों से उसकी तलाश थी। मैं जानती ये भी थी कि उसे भी मेरी तलाश थी। एक कंफ़ेशन बॉक्स की नहीं…एक ऐसे साथी की जो उसके डार्क ह्यूमर के पीछे का सच जनता हो। जिसे मालूम हो कि कोई भी लतीफ़ा सच की पहली सुराख़ है और अगर मैं उसे सही तरीक़े से प्रोत्साहन दे सकूँ तो मुझे अपने क़त्ल करने के तरीक़े से अवगत कराएगा। मैंने बहुत ख़ूनी देखे थे। लेकिन उसके जैसा मासूम ख़ूनी कोई नहीं देखा था। उसके हाथों पर ख़ून का एक भी धब्बा नहीं था। उसकी आत्मा पर भी नहीं।

आपको लगता है कि आपने वहशत देखी है? कि आप ख़ूनी को भीड़ में पहचान सकते हैं। नहीं साहब। वे पारदर्शी आँखों वाले लोग होते हैं। उनकी आँखों से उनकी रूह का ब्लैकहोल दिखता है। जहाँ से कुछ भी वापस नहीं लौटता।

देश की पहली सुसाइड हेल्पलाइन में काम करता था वो। सोचिए इतना बड़ा देश। फ़ोन कॉल्ज़ इंसान की जान के बाद सबसे सस्ती चीज़। दिन भर अनगिनत फ़ोन आते थे। उस कॉल सेंटर में उसके सिवा पच्चीस लोग और थे। सब पार्ट-टाइमर। कि सिर्फ़ ये काम करने से लोगों के अंदर आत्मघाती प्रवित्ति बनने लगती थी। जितने फ़ोन आते उसके बाद वे अक्सर फ़ॉलो अप कॉल भी करते थे। अपने जीवन की सारी पॉज़िटिव ऊर्जा झोंक देने के बाद भी वे सिर्फ़ ५० प्रतिशत लोगों को बचा पाते थे। उनके लाख कोशिश करने पर भी उन्हें वे कॉल्ज़ याद नहीं रहती थीं जिसमें व्यक्ति ने मरने के बारे में सोचना बंद कर दिया। लेकिन उनसे बात करने के बावजूद जो लोग अगले कुछ दिनों में जान दे देते थे, उसका बोझ उस हेल्पलाइन में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति सम्हाल नहीं पाता था। नियमों के हिसाब से उनके रेग्युलर चेकअप हुआ करते थे। शारीरिक ही नहीं। मानसिक भी। उनके यहाँ आने वाले मनोचिकित्सक बहुत नर्म दिल और सख़्तजान हुआ करते थे।

आप तो जानते हैं कि देश का क़ानून आत्महत्या करने वाले को दोषी क़रार देता है। सारे धर्म भी।

लड़का उस हेल्पलाइन में कभी भी ऑफ़िस से कॉल नहीं लेता था। ये कॉल्ज़ प्राइवट रखने बहुत ज़रूरी थे इसलिए फोन कभी भी रेकर्ड नहीं होते थे। उसे वर्क फ्रौम होम पसंद था। उसने अपने पूरे घर को वाइफ़ाई से कनेक्ट कर रखा था। जब फ़ोन आता तो आवाज़ स्पीकर्स के रास्ते पूरे घर में सुनाई देती थी। वो पूरी तन्मयता से फ़ोन कॉल करने वाले की कहानी सुनता था। अपनी आवाज़ में मीठापन और दृढ़ता का बैलेन्स रखता था।

उसे दो चीज़ों से बहुत कोफ़्त होती थी। आत्महत्या करने की कोशिश करने के बाद अपने मंसूबे में असफल व्यक्तियों से और fencesitters। वे लोग जो अभी तक मन नहीं बना पाए थे कि वे ज़िंदगी से ज़्यादा प्यार करते हैं या मौत से। इस ऊँची दीवार पर बैठे हुए लोगों को काले गहरे अंधेरे में धक्का देना उसे बहुत दिलचस्प लगता था। इसको बात करने का नेगेटिव स्टाइल भी कहते हैं। इसका कई बार सही असर भी होता है। कोई कह रहा है कि मैं सूयसायड करना चाहता हूँ तो वो उसकी पूरी कहानी ध्यान से सुनता था और फिर उसे उकसाता था। कि ऐसी स्थिति में बिलकुल आत्महत्या कर ही लेनी चाहिए। वो अक्सर लोगों को कायर करके चिढ़ाता था। उन्हें उद्वेलित करता था। उनकी उदासी को और गहरा करता था। उन्हें ‘लूज़र’ जैसी गालियों से नवाजता था। उनकी कमज़ोरियों को उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता था। ऐसे अधिकतर लोग उससे बात करके आत्महत्या के लिए एकदम तैयार हो जाते थे। कई बार तो वे फ़ोन पर रहते हुए अपनी कलाई काट लेते थे या छत या पुल से छलाँग लगा देते थे। उसे ‘live’ मृत्यु को छूना एक अड्रेनलिन रश देता था। यही उसका नशा था। यही उसके जीवन का मक़सद।

पहली जिस चीज़ से उसे कोफ़्त होती थी वो इस बात से कि लोग इंटर्नेट और गूगल के ज़माने में इतने बेवक़ूफ़ कैसे रह जाते हैं। कलाई कैसे काटी जाती है। फंदा कैसे डाला जाता है। कितनी फ़ीट से कूदने पर जान चली जाने की गारंटी है। शहर में कौन कौन सी गगनचुंबी इमारतें हैं जिनके छत पर कोई सुरक्षा नहीं है। मेडिकल स्टोर से नींद की गोलियाँ ख़रीदने के लिए कितनी घूस देनी पड़ती है। हाइवे का कौन सा ख़तरनाक ब्लाइंड टर्न है जहाँ अचानक खड़े हो जाने पर ट्रक उन्हें कुचल देगा। कार्बन monoxide poisoning क्या होती है। वे कौन से स्टोर हैं जो ऐसे किसी व्यक्ति के संदिग्ध आचरण को पुलिस के पास रिपोर्ट नहीं करेंगे। कुछ भी काम करने के पहले तैय्यारी ज़रूरी है। ये निहायत बेवक़ूफ़ लोग जिन्हें ना जीने का सलीक़ा आता है ना मौत की फूल-प्रूफ़ प्लानिंग। इन लोगों की मदद करने में उसका इतना ख़ून खौलता था कि कभी कभी उसका जी करता था कि चाक़ू से गोद गोद कर इन्हें मार दे।

सूयसायड हेल्पलाइन के जितने कॉल्ज़ उसके पास जाते थे। उसमें से नब्बे प्रतिशत लोग ज़िंदा नहीं बचते थे। ये उसका टैलेंट था। वो अपने आप को vigilante समझता था। मृत्यु का रक्षक। उसके हिस्से के इंसान उसके पास भेजने का कांट्रैक्ट धारी। अंधेरे में काम करता था। अपनी पहचान सब से छुपाता था। लेकिन मुझसे नहीं। उसका कहना था धरती पर उन सब लोगों की जगह है जो यहाँ रहना चाहते हैं। जिन्हें नर्क जाने की हड़बड़ी है तो हम कौन होते हैं उनका रास्ता रोकने वाले। उसे वे सारे लोग ज़बानी याद थे जो उसे फ़ोन करते थे। उनके फ़ोन नम्बर। उनके घर। उनके पसंद के कपड़े। वो उनका सबसे अच्छा दुश्मन हुआ करता था।

कल ही रात को मैंने फ़ोन किया था उसे। उसने मुझे दवा का नाम भी बताया और मेडिकल स्टोर का भी। स्लीपिंग पिल्ज़। आपको मालूम है कि स्लीपिंग पिल्ज़ को पीने के पहले पानी में घोलना पड़ता है? अगर आप यूँ ही उन्हें निगल गए तो आपका शरीर उल्टियाँ कर कर के सारी दवाई बाहर फेंक देगा।

मगर आपने तो कभी आत्महत्या के बारे में सोचा ही नहीं होगा। मुझे वे लोग समझ नहीं आते जिन्होंने कभी आत्महत्या के बारे में नहीं सोचा। रेज़र ब्लेड से ऊँगली के नाख़ून काटते हुए जिन्हें नीली नसों में दौड़ते ख़ून को बहते देखने का चस्का नहीं लगा कभी। जो पहाड़ों की चोटी से नीचे कूदने का सपना मुट्ठी में बंद करके नहीं सोते।

मेरे ख़त में आख़िरी दुआ उन सब लोगों के नाम जिन्होंने कभी मृत्युगंध को पर्फ़्यूम की तरह अपनी कलाई पर नहीं रगड़ा है। ईश्वर आपकी आँखों का उजाला सलामत रखे। 

13 February, 2016

मेरा ये भरम रहने दो | कि तुम हो | मेरे जीने के लिए ये जरूरी है.


मुझे नहीं चाहिए 
तुम्हारा कांधा. तुम्हारा सीना. 
तुम्हारा रुमाल. या कि तुम्हारे शब्द ही. 

हो सके हो मेरे लिए हो जाना 
बहुत ऊंचे पहाड़ों में धीमे उगते किसी पेड़ की 
गहरी खोह

मैं शायद 
तुम तक कभी पहुँच नहीं पाऊँगी 
मगर मुझे चाहिए होगा 
तुम्हारे होने का यकीन 

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तुम मेरे मन में बहती चुप नदी हो 

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मुझे लगता नहीं था कि कभी 'हम' हो सकते हैं. 

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मन की दीवारें होती हैं 
जिनसे रिसता रहता है अवसाद 
धीरे धीरे सीख लेगी मेरी रूह
उन सीले शब्दों को सोखना 

मुझे तुम्हारी उँगलियों की फ़िक्र होती है 
तुमने मेरा मन छुआ था एक बार 

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मुझे वो हिस्सा नहीं चाहिए इस दुनिया का जो सच में घटता है. मैं बहुत थक गयी हूँ. 
मैं लौट कर किताबों तक जा रही हूँ. 

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मेरे पास कुछ भी नहीं है तुम्हें देने को 
मेरे टूटे दिल में जरा से दुःख हैं
जरा सी उदासी
तुम्हारे नाम करती हूँ 

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काश कि मुझे आता प्रेम करना
और प्रेम में बने रहना

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मेरा ये भरम रहने दो कि तुम हो
मेरे जीने के लिए ये जरूरी है. 
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23 December, 2015

अस्थिकलश में मिले पुर्जे जोड़ कर बनी चिट्ठी


नींद जानती है तुम्हारे घर का पता कि जैसे जाग जानती है कि नहीं जाना है उस ओर. उस शहर. उस गली. उस आँख के अंधियारे में. तुम्हारी आँखों में खिलते हैं सूरजमुखी और मुड़ते हैं कागज़ की धूप देख कर. मैं घेरती हूँ बादल. बनाती हूँ बरसातों का मौसम. रचती हूँ धुंध. तुम हुए जाते हो वैन गौग. चटख रंगों का पहनते हो साफा. बांधते हो कलाई पर मंतर. 

बहुत दिन तक जब नहीं आता तुम्हारे ख़त का जवाब तो तुम जाते हो चबूतरे पर और उतारते हो डाल पर बैठा सर्दियों में जम चुका कबूतर. उसके पैर में नहीं बंधा होता है एक कोरा ख़त भी. तुम फ़ेंक मारते हो उसे पत्थर की दीवार पर इक चीख के साथ...चकनाचूर होता है बर्फ की सिल्ली बना कबूतर...तुम्हारे जूते तले आती है उसकी जमी हुयी आँख.

तुम हुए जाते हो कोई पागल मंगोल लुटेरा...छीनते चलते हो अस्मत...माल...असबाब...लगा देते हो गाँव में आग...डाल देते हो पानी कुओं में मुर्दा जानवर कि जिनकी सडांध से फैलती है बीमारियाँ... मौत के करीब भिनासायी हुयी देह में नहीं बाकी रहता कोई कोमल स्पर्श...कोई चाँद का चुम्बन...कोई सूरज की पीली रेख...

तुम्हारे चेहरे पर उतरता है विद्रूप सर्दियों का ठंढा चांदी रंग. माथे के ऊपर उभरती है एक नीली नस कि जहाँ होना था एक गुलाबी बोसा. मैं एड़ियों पर उचक कर भी नहीं चूम सकती तुम्हारा चौड़ा ललाट. मेरी उँगलियों से दूर होती है तुम्हारे माथे की उजली लट. मुझे याद आती है वो कंचे जैसे शाम. कि जब बिजली के बल्ब का खूब महीन चूरा किया था हमने और उसे आटे की लेई में मिला कर पतंग के मांझे को किया था धारदार. तुम्हारे बाल मांझे के उसी तागे जैसे हो गए हैं. धारदार. उँगलियाँ फेर भी दूँगी तो कटनी है मेरी उँगलियाँ ही. तुम्हारी दासियाँ  इसी से तो पहचान में आती हैं. उनकी उँगलियों पर होते हैं तीखे निशान. गहरे लाल. कत्थई. कभी कभी काले भी. 

मगर तुमने तो प्रेम किया था. तुमने कहा था तुम्हारे ह्रदय पर मेरा एकछत्र साम्राज्य रहेगा. अनंत काल तक. फिर तुम ये अश्वमेध का अश्व लेकर विश्वविजय पर क्यूँ निकल पड़े? तुमने तो कहा था मेरा शरीर ही तुम्हारा ब्रम्हाण्ड है. एक साधारण से मनुष्य थे तुम. एक अदना सिपहसालार. एक जवाब आने की देर में तुम्हारे अन्दर का कौन सा विध्वंसक विसूवियस जाग उठा? आदमी प्राण की बाजी लगा दे तो सब कुछ जीत लेता है...इश्वर को भी. मुझे तुम्हारी सफलता में कोई संदेह नहीं. मगर तुम्हें मालूम भी है कि तुम्हारी अंतिम विजय कौन सी होनी है? ऐसा न हो कि सिकंदर की तरह तुम भी किसी अजनबी शहर में आखिरी तड़पती सांस लो. तुम्हारी जिद एक आम औरत को उसके बच्चे से दूर करने के विवश हठ में खींचे जाए और तुम उस दलदल में आगे बढ़ते जाओ. मलकुल मौत जब आती है तो सब्जी काटने का हंसुआ एक भीरु स्त्री का हथियार हो जाता है.

तुम्हारे साथ तुम्हारे सैनिकों की क्रूरता की दास्तानें तुम सबके लिए जहन्नुम तक का शोर्ट कट रास्ता बना रही हैं. तुम इसी रास्ते घसीटे जाओगे. चीखते चिल्लाते लहूलुहान. ये कलयुग है. यहाँ सब कर्मों का फल इसी जन्म में चुकाना पड़ता है. तुम्हारी आखिरी पनाह मेरे शब्दों में थी. यहाँ से निष्काषित होने पर तुम्हारे लिए कहीं कोई दरवाजे नहीं खुलेंगे. अभी भी वक़्त है. शरणागत की हत्या अभी भी अधर्म है. लौट आओ. प्रायश्चित करो. अपना इश्वर चुनो और आपनी आस्था की लौ फिर से प्रज्वलित करो. मैं तुम्हारे लिए एक नयी दुनिया रच दूँगी. एक नया प्रेम और एक नया प्रतिद्वंदी भी. लौट आओ. ये वीभत्स रस लिखते हुए मेरी उँगलियाँ जवाब दे रही हैं. गौर से देखो. ये एक योद्धा की नहीं, कवि की उँगलियाँ हैं. इनमें इतना रक्तपात लिखने की शक्ति नहीं है. मैं अब फूलों पर लिखना चाहती हूँ कुछ कोमल गीत. मैं अब तुम्हारी अभिशप्त आत्मा के लिए करना चाहती हूँ मंत्रपाठ. तुलसी माला लिए गिनती हूँ कई सौ बार तुम्हारे लिए क्षमायाचना के मन्त्र. 

तुम्हारा विध्वंस अकारण है. तुम्हारा क्रोध सिर्फ एक दरवाज़ा खोलता है कि जिससे तुम्हारे अन्दर का पशु बाहर आ सके. गौर से देखो उसे. खड़ग उठाओ और इस रक्तपिपासु बलिवेदी को शांत करो.

ॐ शान्ति शांति शांति. 

19 July, 2015

जिंदगी ख़त्म हो जाती है. पूरी नहीं होती. अधूरी ही रहती है हमेशा.

लड़की बैठी है भगवान के पास. सर झुकाए. 'यू नो, यू आर सो ब्लडी यूजलेस, आई डोंट लाइक यू एनीमोर, तुम मेरी जिंदगी से चले क्यूँ नहीं जाते?' भगवान ही शायद इक ऐसा है जो लड़की से ज्यादा जिद्दी है.

तुम उसका नाम भूल गयी हो न. बस इक रंग रह गया है वो तुम्हारी आँखों में. हरा. दुनिया के सारे हरे रंग के शेड्स हैं उसके. सारे. सब समंदर. सारे पौधे. सब. आसमान भी कभी कभी ले आता है कोई रंग का हरा.

सुनो. मेरा क़त्ल कर सकोगे? बहुत हिम्मत की बात करते हो. मेरे दोस्तों में ऐसा कोई नहीं है जिसके हाथ न कांपें. मगर मुझे तुमसे बहुत उम्मीद है. तुम क्या सोचते हो यूथेनेसिया के बारे में? किसी की तकलीफ से किसी को मुक्त कर देना तो सही है न? फिर कहाँ है पैमाना कि शारीरिक दर्द बर्दाश्त न करने पर ऐसा करना चाहिए. ये जो मेंटल पेन है. व्हाट मेक्स इट लेस रियल? मेरी तकलीफ का कोई इलाज भी नहीं है. हाँ मुझे खुद में सुधार करने चाहिए. मुझे योग करना चाहिए. मुझे खुद को काम में बहुत व्यस्त रखना चाहिए. मगर नहीं होता दोस्त. एकदम नहीं होता. तकलीफ इतनी है कि कोई ट्रांक्विलाईजर काम नहीं करता. सुनो. तुम्हें रिवोल्वर चलाना आता है? अच्छा देसी कट्टा? हाँ. मैं इंतज़ाम कर दूँगी. तुम चिंता न करो. मेरे बहुत कॉन्टेक्ट्स हैं. तुम बस वादा करो कि तुम्हारे हाथ नहीं काँपेंगे. बस. 

मालूम. तुमसे बहुत सी बातें करनी थीं. मौत की. जिंदगी की. पहाड़ों की. जिस दिन मेरा व्हीली सीखने का मन किया तुमसे उस दिन बात करने का मन था. बताने का मन था. के तुम समझते. मेरे इस पागलपन को शायद. जानते हो दोस्त. मुझे पूरा पूरा कोई समझ नहीं पाता इसलिए अपने पागलपन के छोटे छोटे हिस्से करके लोगों से बांटते चलती हूँ. जरा जरा हिस्सों में समझते हैं सब मुझे. पूरा पूरा कोई समझ नहीं सकता. समझना भी नहीं चाहिए. शायद इश्वर नाराज़ हो जायेगा. उसकी फेवरिट में हूँ तब तो इतना सारा दुःख लिखा हुआ है किस्मत में. भड़क गया तो जाने क्या करेगा. शायद सारे रकीबों को मेरे शहर में ट्रांसफर दे देगा. 

मगर जान, तुम समझते हो न. मेरी मुसीबत इश्क़ नहीं है. मेरी मुसीबत मैं हूँ. ये जो मन है. जिस पर किसी का बस नहीं चलता. वो मन है. कोई कब तक अपनेआप से लड़ाइयाँ लड़े. थकान हो जाती है. पोर पोर दुखता है. फिजिकली यु नो. तुमने कितना पेन बर्दाश्त किया होगा? थक जाने की हद तक थक जाने के बाद भी शायद चलने का हौसला है तुम में. डिसिप्लिन भी. और तुम तो अच्छे भी हो कितने न. तुम्हारी आत्मा एकदम साफ़ है. सोचती हूँ कैसा होता होगा. हैविंग अन unbroken soul. unblemished. एकदम पाकरूह होना. जिसपर किसी के खून के छींटे न हों. किसी की तकलीफ के आँसू न हों. जिसने कभी किसी का बुरा न चाहा हो. किसी गिल्ट का खंजर जिसके जिस्म में न चुभा हो.

तुमने हाथ देखे हैं मेरे. दीज आर ब्लड लाइंस. मैकबेथ में था 'Will all the water in the ocean wash this blood from my hands? No, instead my hands will stain the seas scarlet, turning the green waters red.' रंग. रंग रंग. गहरा लाल. सुनो. तुम्हारे हाथ कांपते तो नहीं न? क्यूंकि अगर आखिरी लम्हे में तुम घबरा गए तो मौत बहुत तकलीफदेह हो जायेगी. मुझे और तकलीफ नहीं चाहिए. मैं ख़त लिख जाउंगी तुम्हारे नाम. जिसमें लिखा होगा कि तुम्हारा इसमें कोई दोष नहीं था. मैंने तुम्हारा माइंडवाश कर दिया है. मैं उसमें टोना टोटका की बातें भी लिख जाउंगी. मुझे डायन ही करार देना. फिर कोई जानना नहीं चाहेगा मेरी आत्मा से रिसते इस काले. गहरे. गाढे. अपराधबोध के बारे में. क्रिस्चियन लोग कहते हैं कि वी आर आल सिनर्स. हम भी तो कहते हैं एक दूसरे को पापी. मगर ये कलयुग है. यहाँ तो ऐसा ही होगा न.

मुझे आजकल बारिशें दिखती हैं बेतहाशा. मेरी आँखों पर बादल छाए रहते हैं. सब कुछ उदास और परेशान कर देने वाला है. इसमें मेरे लिए इतना ख्याल काफी है कि एक दिन इस सबसे मुक्त हो जाना है. जिंदगी में आई डोंट हैव ऐनी अनफिनिश्ड बिजनेस. कुछ अधूरा नहीं रखा है मैंने. यूं एक तरह से तो जिंदगी ख़त्म हो जाती है पूरी नहीं होती. अधूरी ही रहती है हमेशा.

इश्वर तुम्हारे हाथों को महफूज़ रखे.
आमीन. 

Dark as my soul

कह कर जाना नहीं होता. कहने का अर्थ होता है रोक लिया जाना. बहला लिया जाना. समझा दिया जाना. सवालों में बाँध दिया जाना. कन्फर्म नहीं तो कन्फ्यूज कर दिया जाना. जब तक हो रही है बात कोई नहीं जाता है कहीं. यहाँ तक कि ये कहना कि 'मैं मर जाउंगी' इस बात का सूचक है कि कुछ है जो अभी भी उसे रोके रखता है. उसे उम्मीद है कि कोई रोक लेगा उसे. कोई फुसला देगा. कोई कह देगा कोई झूठ. कि रुक जाओ मेरे लिए.

जाना होता है चुपचाप. अपनी आहट तक समेटे हुए. किसी को चुप नींद में सोता छोड़ कर. जाना होता है समझना सिद्धार्थ के मन के कोलाहल को. जाना होता है खुद के अंधेरों में गहरे डूबते जाना और नहीं पाना रोशनी की लकीर को. मुझे आजकल क्यूँ समझ आने लगा है उसका का चुप्पे उठ कर जाना. वे कौन से अँधेरे थे गौतम. वह कौन सा दुःख था. मुझे क्यूँ समझ आने लगा है उसका यूँ चले जाना. मुझे रात का वो शांत पहर क्यूँ दिखता है जब पूरा महल शांत सोया हुआ था. रेशम की चादरें होंगी. दिये का मद्धम प्रकाश होगा. उसने जाते वक़्त यशोधरा को देखा होगा? सोती हुयी यशोधरा के चेहरे पर कैसा भाव होगा? क्या उसे जरा भी आहट नहीं महसूस हुयी होगी? वो कौन से अँधेरे थे. वो कौन से अँधेरे थे. मुझे बताओ.

क्यूँ याद आने लगे हैं थाईलैंड के सोये हुए बुद्ध. स्वर्ण प्रतिमाएं. साठ फीट लम्बी. पैरों के पास से देखो तो चेहरे की मुस्कान नहीं दिखती. इन फैक्ट लोगों को बुद्ध के चेहरे पर जो शांति दिखती है वो मुझे कभी नहीं दिखी. उन्हें उनके सवालों का जवाब मिल गया था. कोई मध्यमार्ग था. उन्होंने कभी अपने बेटे को गोद में लेकर चूमा होगा? किसी लम्हे उनमें पितृभाव जागा होगा? मध्य मार्ग. बुद्धं शरणम गच्छामि. धम्मम शरणम गच्छामि. वाकई. कोई मध्य मार्ग होता है. उसमें तकलीफ कम होती है? वहां रौशनी होती है? या कि हम सबको अपना बोधि वृक्ष स्वयं तलाशना होता है?

मैं आजकल वही ढूंढ रही हूँ. अपना बोधि वृक्ष. अपना धर्म. जिसमें मेरी आस्था हो. आस्था. मैं आजकल खुद से अजीब सवाल करने लगी हूँ. मैं अर्थ ढूँढने लगी हूँ. जीवन का क्या अर्थ है. कोई खूबसूरत चीज़ जब मन में ऐसे गहरे भाव उत्पन्न करती है कि मैं समझने और खुद को व्यक्त करने में अक्षम पाती हूँ तो सवाल वही होता है. इसका क्या अर्थ है. गहरे. और गहरे. चीज़ों को सिर्फ ऊपर ऊपर देख कर संतोष नहीं होता. मुझे जानना होता है कि इनके पीछे कोई गूढ़ मतलब होता है. कुछ ऐसा जो मेरी पकड़ में नहीं आ रहा. रोज की यही जिंदगी. लिखना. पढ़ना. बहस करना. इसके अलावा भी कुछ होना चाहिए जीवन का मकसद. सिर्फ आसमान और सूरज के बारे में लिख कर क्या हासिल होगा. हासिल. हासिल क्या है जिंदगी का. हम जो इतने लोगों से बात करते हैं. मिलते हैं. सब क्या कोई फिल्म है जिसके एंड में सब कुछ सॉर्टेड हो जाएगा. इक लोजिकल एंड होगा. सब चीज़ें अपनी अपनी जगह होंगी. वहां जहाँ उन्हें होना चाहिए. ये मेरा मन शांत क्यूँ नहीं होता.

मुझे समझ में आता है कि ऐसी किसी तलाश के लिए अकेले जाना होता है. मैं जो इतने शोर में चुप होती जा रही हूँ. ये दिखता नहीं है किसी को. मैं डिटैच होती जा रही हूँ. सबके बीच होते हुए भी कहीं और हूँ. ये कौन से पाप हैं. What sins. जिनका प्रायश्चित्त इस जन्म में नहीं हो सकता. कोई मन्त्र होता है? कोई नदी कि जिसका पानी इतना शुद्ध के मन के सारे विकार दूर कर सके. मैं शुद्ध होना चाहती हूँ. मन. प्राण. आत्मा से शुद्ध. मैं एक नया जीवन चाहती हूँ. stripped clean. absolved. forgiven. 

स्वयं से इतनी घृणा कर के जिंदगी जी नहीं जा सकती. ये इक झूठ कहते हैं हम खुद से कि हम बदल सकते हैं खुद को. कुछ नहीं बदलता. हमारा स्वाभाव. हमारे रिएक्शन्स. हमारा इंस्टिंक्ट. मगर फिर मैं ये भी तो सोचती हूँ कि गुलामी खुद की करनी कौन सी अच्छी बात है. और नामुमकिन पर तो मेरा विश्वास नहीं है. इन विरोधाभासों में कैसे जियेंगे जिंदगी. और लोग भी परेशान होते होंगे इतना सोच सोच कर? मुझे आजकल अपनी कोई बात पसंद नहीं आती. अपनी कोई आदत नहीं. इतना सारा अँधेरा है खुद के अन्दर कि मुझे समझ नहीं आता कहाँ से लाऊं चकमक पत्थर और चिंगारी तलाशूँ कोई. मुझे सब लोग खुद से अच्छे दिखते हैं. इक वक़्त आई वाज कम्फर्टेबल विथ नॉट बीईंग गुड. कि सब लोग दुनिया में अच्छे ही हो जायेंगे तो दुनिया कैसे चलेगी. मगर कभी कभी लगता है कि नहीं हो पायेगा. इक सीधी सिंपल जिंदगी क्या बुरी है. ये अँधेरे के दानव मैंने ही पाल रखे हैं अपने अन्दर. शायद इन्हें मुक्त करने का वक़्त आ गया है. 

It's difficult to live with a shattered soul. A bruised heart. A broken thought-process. Every thing is a dead end. After one point, there is no healing. I have bandaged myself so well. I'll slowly disintegrate.

मैं किसी अँधेरी गुफा के डेड एंड पर खड़ी हूँ. मुझे आगे का रास्ता समझ नहीं आता. पीछे लौटने का कोई रास्ता भी नहीं दिखता. मुझे आजकल बहुत से भयानक ख्याल आते हैं. नस काट के मर जाने वाले. कांच से उँगलियाँ काट कर खून रिसता देखने वाले. खून की गंध. मदोन्मत्त करने वाली. जैसे गांजे की गंध होती है. एक बार उस गंध को आप पहचान गए तो उसकी इक फीकी धुएं की लकीर भी आपको दिखने लगेगी. दुःख का ऐसा ही नशा होता है. मर जाने की ऐसी ही कुलबुलाहट. आकुलता. हड़बड़ी. धतूरा. आक के फूल. शिव. तांडव.

प्रेम. विश्वास. जीवन.
सब. टूट चुका है. मेरे ह्रदय की तरह.

03 July, 2015

उन खतों का मुकम्मल पता रकीब की मज़ार है


क्या मिला उसका क़त्ल कर के? औरत रोती है और माथा पटकती है उस मज़ार पर. लोग कहते हैं पागल है. इश्क़ जैसी छोटी चीज़ कभी कभी पूरी जिंदगी पर भारी पड़ जाती है. अपने रकीब की मज़ार पर वह फूल रखती...उसकी पसंद की अगरबत्तियां जलाती...नीली सियाहियों की शीशियाँ लाती हर महीने में एक और आँसुओं से धुलता जाता कब्र का नीला पत्थर.
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शाम के रंग और विस्कियों के नशे वाले ख़त तुझे नहीं लिखे गए हैं लड़की. तुम किस दुनिया में रहती हो आजकल? उसकी दुनिया में हैं तितलियाँ और इन्द्रधनुष. उसकी दुनिया में हैं ज़मीन से आसमान तक फूलों के बाग़ कि जिनमें साल भर वसंत ही रहता है. वहां खिलते हैं नीले रंग के असंख्य फूल. उस लड़की की आँखों का रंग है आसमानी. तुम भूलो उस दुनिया को. गलती से भी नहीं पहुंचेगा तुम्हारे पास उसका भेजा ख़त कोई...कोई नहीं बुलाएगा तुम्हें रूहों के उस मेले में...तुम अब भी जिन्दा हो मेरी जान...इश्क़ में मिट जाना बाकी है अभी.
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हूक समझती हो? फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियां पढ़ो. समझ आएगी हूक. उसके घर के पास वाले नीम की निम्बोलियां जुबां पर रखो. तीते के बाद मीठा लगेगा. वो इंतज़ार है. हूक. उसकी आवाज़ का एक टुकड़ा है हूक. हाराकीरी. उससे इश्क़. क्यूँ. सीखो कोई और भाषा. कि जिसमें इंतज़ार का शब्द इंतज़ार से गाढ़ा हो. ठीक ठीक बयान कर सके तुम्हारे दिल का हाल.
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क्यूँ बनाये हैं ऐसे दोस्त? मौत की हद से वापस खींच लायें तुम्हें. उन्हें समझना चाहिए तुम्हारे दिल का हाल. उन्हें ला के देना चाहिए तुम्हें ऐसा जहर जिससे मरने में आसानी हो. ऐसा कुछ बना है क्या कि जिससे जीने में आसानी हो? नहीं न? यूँ भी तो 'इश्क एक 'मीर' भारी पत्थर है, कब दिले नातवां से उठता है.'.
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तुम ऐसा करो इश्क़ का इक सिम्प्लीफाईड करिकुलम तैयार कर दो. कुछ ऐसा जो नौर्मल लोगों को समझ में आये. तुम्हारी जिंदगी का कुछ तो हासिल हो? तुम्हें नहीं बनवानी है अपनी कब्र. हाँ. तुम्हें जलाने के बाद बहा दिया जाएगा गंगा में तुम्हारी अस्थियों को. मर जाने से मुक्ति मिल जाती है क्या? तुम वाकई यकीन करती हो इस बात पर कि कोई दूसरी दुनिया नहीं होती? कोई दूसरा जन्म नहीं होता? फिर तुम अपने महबूब की इक ज़रा आवाज़ को सहेजने के लिए चली क्यूँ नहीं जाती पंद्रह समंदर, चौहत्तर पहाड़ ऊपर. तुम बाँध क्यों नहीं लेती उसकी आवाज़ का कतरा अपने गले में ताबीज़ की तरह...तुम क्यूँ नहीं गुनगुनाती उसका नाम कि जैसे इक जिंदगी की रामनामी यही है...तुम्हारी मुक्ति इसी में है मेरी जान.
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तुमने कैसे किया उसका क़त्ल? मुझे बताओ न? क्या तुमने उसे एक एक सांस के लिए तड़पा तड़पा के मारा? या कि कोई ज़हर खिला कर शांत मृत्यु? बताओ न?
प्रेम से?
तुमने उसका क़त्ल प्रेम से किया?
प्रेम से कैसे कर सकते हैं किसी का क़त्ल?
छोटी रेखा के सामने बड़ी रेखा खींच कर?
तुम्हें लगता है वो मान गयी कि तुम ज्यादा प्रेम कर सकती हो?
क्या होता है ज्यादा प्रेम?
कहाँ है पैरामीटर्स? कौन बताता है कि कितना गहरा, विशाल या कि गाढ़ा है प्रेम?
सुनो लड़की.
तुम्हें मर जाना चाहिए.
जल्द ही. 

28 March, 2015

दिल की कब्रगाह में इश्क़ का सुनहला पत्थर


मेरा दिल एक कब्रगाह है. इसके बाहर इक लाल रंग के बोर्ड पर बड़े बड़े शब्दों में चेतावनी लिखी हुयी है 'सावधान, आगे ख़तरा है!'. कुछ साल पहले की बात है इक मासूम सा लड़का इश्क़ में मर मिटा था. मैं जानती हूँ कि वो लड़का मुझे माफ़ कर देता...उसकी फितरत ही थी कुछ जान दे देने की...मुझपर न मिटता तो किसी वाहियात से इन्किलाब जिंदाबाद वाले आन्दोलन में भाग लेकर पुलिस की गोली खाता और मर जाता. वो मिला भी तो था मुझे आरक्षण के खिलाफ निकलने वाले जलसे में. बमुश्किल अट्ठारह साल की उम्र और दुनिया बदल देने के तेवर. क्रांतिकारी था. नेता था. लोग उसे सिर आँखों पर बिठाते थे. उसका बात करने का ढंग बहुत प्रभावी था. जिधर से गुज़रता लोग बात करने को लालायित रहते. फिर ऐसा क्या हुआ कि उसे बंद कमरे और बंद खिड़कियाँ रास आने लगीं? उसके दोस्तों को मैं डायन लगती थी...मैंने उसे उन सबसे छीन कर अपने आँचल के अंधेरों में पनाह दे दी थी...अब दिन की रौशनी में उसकी आँखें चुंधियाती थीं. उसके चेहरे का तेज़ अब मेरे शब्दों में उतरने लगा था...मैंने पहली बार जाना कि शब्दों में जान डालने के लिए किसी की जान लेनी पड़ती है. उनका अपना कुछ नहीं होता. जैसे जैसे मेरे शब्दों में रौशनी आने लगी, उसकी सांसें बुझने लगीं...उस वक़्त किसी को मुझे बता देना था कि इस तिलिस्म से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं आएगा मुझे. कि शब्दों की ऐसी तंत्र साधना मुझे ही नहीं मेरे इर्द गिर्द के सारे वातावरण को सियाह कर देगी. मगर ऐसे शब्दों के लिए जान देने वाला कोई न शब्दों को मिला था...न इश्क़ को...न लड़के को. वो मेरे दिल के कब्रगाह बनने का नींव का पत्थर था...वो जो कि मैंने उसकी कब्र पर लगाया था...मैंने उसपर अपनी पहली कविता खुदवाई थी. उस इकलौती कब्र के पत्थर को देखने लोग पहुँचने लगे थे. दिल की गलियां बहुत पेंचदार थीं मगर वहां कोई गहरा निर्वात था जो लोगों को अपनी ओर खींचता था...जिंदगी बहुत आकर्षक होती है...जिन्दा शब्द भी. 

उस लड़के की लाश मेरे दुस्वप्नों में कई दिनों तक आती रही. उसके बदन की गंध से मेरी उँगलियाँ छिलती थीं. कोई एंटीसेप्टिक सी गंध थी...डेटोल जैसी. बचपन के घाव जैसी दुखती थी. मुझे उसकी मासूमियत का पता नहीं था. मैं उसे चूमते हुए भूल गयी थी कि ये उसके जीवन का पहला चुम्बन है...खून का तीखा स्वाद मेरी प्यास में आग लगा रहा था...मैं उसे अपनी रूह में कहीं उतार लेना चाहती थी...उसकी दीवानी चीख में अपना नाम सुनकर पहली बार अपने इश्वर होने का अहसास हुआ था...उसने पहली बार में अपनी जिंदगी मुझे सौंप दी थी. पूर्ण समर्पण पर स्त्रियों का ही अधिकार नहीं है...पुरुष चाहे तो अपना सर्वस्व समर्पित कर सकता है. बिना चाहना के. मगर लड़के ने इक गलत आदत डाल दी थी. उस बार के बाद मैंने पाया कि मेरे शब्द आदमखोर हो गए हैं. कि मेरी कलम सियाही नहीं खून मांगती है...मेरी कल्पना कातिल हो गयी है. मैंने उस लड़के को अपनी कहानी के लिए जिया...अपने डायलॉग्स के लिए तकलीफें दीं...अपने क्लाइमेक्स के लिए तड़पाया और कहानी के अंत के लिए एक दिन मैंने उसकी सांसें माँग लीं. मुझे जानना था कि दुखांत कहानी कैसे लिखी जाती है. ट्रेजेडी को लिखने के लिए उसे जीना जरूरी था. लड़के ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. मैं उसकी चिता की रौशनी में कवितायें लिखती रही. उसका बलिदान लेकिन मेरे दिल को कहीं छू गया था. मैं उसकी आखरी निशानी को गंगा में नहीं बहा पायी. 

उस दिन मेरे दिल में कब्रगाह उगनी शुरू हो गयी. वो मेरा पहला आशिक था. मुझ पर जान देने वाला. मेरे शब्दों के लिए मर जाने वाला. उसकी कब्र ख़ास होनी थी. मैंने खुद जैसलमेर जा कर सुनहला पीला पत्थर चुना. मेरी कई शामें उस पत्थर के नाम हो गयीं. जब उसके नाम का पहला अक्षर खोदा तभी से दिल की किनारी पर लगे पौधे मुरझा गए. बोगनविला के फूल तो रातों रात काले रंग में तब्दील हो गए. काले जादू की शुरुआत हो चुकी थी. कविता में चमक के लिए मैंने ऊँट की हड्डियों का प्रयोग किया. सुनहले पत्थर पर जड़े चमकीले टुकड़ों से उसकी बुझती आँखों की याद आती थी. उसकी कब्र पर काम करते हुए तो महीनों मुझे किसी काम की सुध नहीं थी. दिन भर उपन्यास लिखती और लड़के को लम्हा लम्हा सकेरती और रात को कब्र के पत्थर पर काम करती. नींद. भूख. प्यास. दारू. सिगरेट. सब बंद हो गयी थी. जादू था सब. मैं इश्क़ में थी. मुझे दुनिया से कोई वास्ता नहीं था. 

पहला उपन्यास भेजा था एडिटर को. उसे पूरा यकीन था कि ये बहुत बिकेगा. मार्केट में अभी भी वीभत्स रस की कमी थी. इस खाली जगह को भरने के लिए उसे एक ऐसा राइटर मिल गया था जिसके लिए कोई सियाही पर्याप्त काली नहीं थी. लड़की यूँ तो धूप के उजले रंग सी दिखती थी मगर उसकी आँखों में गहरा अन्धकार था. एडिटर ने लड़की को काला चश्मा पहनने की सलाह दी ताकि उसकी आँखों की सियाही से बाकी लोगों को डर न लगे. वो अपने कॉन्ट्रैक्ट पर साइन करने लौट रही थी जब लड़के के दोस्त उसे मिले. उनकी नज़रों में लड़की गुनाहगार थी. उनकी आँखों में गोलाबारूद था. वे लड़की के दिल में बनी उस इकलौती कब्र के पत्थर को नेस्तनाबूद कर देना चाहते थे. लड़की को मगर उस लड़के से इश्क़ था. जरूरी था कि कब्रगाह की हिफाज़त की जाए. उसने मन्त्रों से दिल के बाहर रेखा खींचनी शुरू की...इस रेखा को सिर्फ वोही पार कर सकता था जिसे लड़की से इश्क़ हो. इतने पर भी लड़की को संतोष नहीं हुआ तो उसने एक बड़ा सा लाल रंग का बोर्ड बनाया और उसपर चेतावनी लिखी 'आगे ख़तरा है'.

दिल के कब्रगाह में मौत और मुहब्बत का खतरनाक कॉम्बिनेशन था जो लोगों को बेतरह अपनी ओर खींचता था. लोग वार्निंग बोर्ड को इनविटेशन की तरह ले लेते थे. चूँकि उनके दिल में मेरे लिए बेपनाह मुहब्बत होती थी तो वे अभिमंत्रित रेखा के पार आराम से आ जाते थे. इस रेखा से वापस जाने की कोई जगह नहीं होती लेकिन. वे पूरी दुनिया के लिए गुम हो जाते थे. न परिवार न दोस्त उनके लिए मायने रखते थे. वे मेरे जैसे होने लगते थे. इश्क़ में पूरी तरह डूबे हुए. मैंने कब्रगाह पर एक गेट बना दिया कि जिससे एक बार में सिर्फ एक दाखिल हो सके मगर ये थ्रिल की तलाश में आये हुए लोग थे. इन्हें दीवार फांद कर अन्दर आने में अलग ही मज़ा आता था. इश्क़ उसपर खुमार की तरह चढ़ता था. अक्सर इक हैंगोवर उतरने के पहले दूसरी शराब होठों तक आ लगती थी. ये अजीब सी दुनिया थी जिसमें कहीं के कोई नियम काम नहीं करते. मुझे कभी कभी लगता था कि मैं पागल हो रही हूँ. वो रेखा जो मैंने दुनिया की रक्षा के लिए खींची थी उसमें जान आने लगी थी. अब वो मुझे बाहर नहीं जाने देती. सारे आशिक भी इमोशनल ब्लैकमेल करके मुझे दुनिया से अलग ही रखने लगे थे.

इक दुनिया में यूँ भी कई दुनियाओं का तिलिस्म खुलता है. ऐसा ही एक तिलिस्म मेरे दिल में है...ये कब्र के पत्थर नहीं प्रेमगीत हैं...प्रेमपत्र हैं...आखिरी...के इश्क का इतना ही अहसान था कि किसी के जाने के बाद उसकी कब्र पर के अक्षर मेरी कलम से निकले होते थे. हर याद को बुन कर, गुन कर मैं लिखती थी...इश्क़ को बार बार जिलाती थी...उन लम्हों को...उन जगहों को...सिगरेट के हर कश को जीती थी दुबारा. तिबारा. कई कई कई बार तक.

तुम्हें लगता होगा कि तुम अपनी अगली किताब के लिए प्रेरणा की तलाश में आये हो...मगर मेरी जान, मैं कैसे बता दूं तुम्हें कि तुम यहाँ अपनी कब्र का पत्थर पसंद करने आये हो...अपनी आयतों के शब्द चुनने...तुम मुझे किस नाम से बुलाओगे?

डार्लिंग...हनी...स्वीटहार्ट...क्या...कौन सा नाम?

और मैं क्या बुलाऊं तुम्हें? जानां...
काला जादू...तिलिस्म...क्या?

02 February, 2015

जंग लगी हुयी कलम से तो धमनी भी नहीं काटी जा सकती...



सुनो कवि,

अकेले में तुम्हें समझाते समझाते थक गयी हूँ इसलिए ये खुला ख़त लिख रही हूँ तुम्हें. तुम ऐसे थेत्थर हो कि तुमपर न लाड़ का असर होता है न गाली का. कितना उपाय किये. हर तरह से समझाए. पूरा पूरा शाम तुम्हारे ही लिखे से गुजरते रहे...तुम्हें ही दिखाने के लिए कि देखो...तुम ही देखो. एक ज़माने में तुम ही ऐसा लिखा करते थे. ये तुम्हारे ही शब्द हैं. लिखने वाले लोग कभी किसी का लिखा पढ़ कर 'बहुत अच्छा' जैसा बेसिरपैर का जुमला नहीं फेंकते. अच्छा को डिफाइन करना हमारा फ़र्ज़ है कि हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा. 

तो सुनो. मैं तुमसे लिखने क्यूँ कहती हूँ. किसी छोटे शहर से आकर बड़े शहर में बसे हम विस्थापितों का समय है ये. हमारे समय की कहानियां या तो चकाचौंध में दबा दी जा रही हैं या मन के राग, द्वेष और कुंठा से निकली गालियों में छुपा दी जा रही हैं. हमारे समयकाल का दस्तावेज लिखने के लिए दो चीज़ें बेहद आवश्यक हैं...एक तो वो नज़र कि बारीकी से चीज़ों को देख सके...बिना उद्वेलित हुए उनकी जांच पड़ताल कर सके. गहराई में चीज़ों को समझे न कि सिर्फ ऊपर ऊपर की कहानी बयान करे. दूसरी जो चीज़ जरूरी है वो है इस मुश्किल समय को लिखने का हुनर. तलवार की धार पर चलना ऐसे कि चीज़ों की तस्वीर भी रहे मगर ऐसे ऐंगिल से चीज़ें दिखें भी और रोचक भी हों. कि समझो डौक्यूमेंटरी बनानी है. सीधे सीधे रिपोर्ट नहीं लिखना है दोस्त, फीचर लिखना है. तुम तो जानते हो रिपोर्ट अख़बार में छपती है और अगले दिन फ़ेंक दी जाती है. फीचर की उम्र लम्बी होती है. अभी तुमपर ज्यादा दबाव डालूंगी तो तुम मेरी चिट्ठी भी नहीं पढ़ोगे इसलिए धीमे धीमे कहेंगे कि फिर लिखना शुरू करो. रेगुलर लिखना शुरू करो. इस बात को समझो कि निरंतर बेहतरीन लिखना जरूरी नहीं है. ख़राब लिखने से उपजने वाले गिल्ट से खुद को मुक्त करो. तुम पाओगे कि जब तुममें अपराधबोध नहीं होता या यूं कहूं कि अपराधबोध का डर नहीं होता तो तुम खुद से बेहतरीन लिखते हो. 

राइटर्स ब्लॉक से हर लेखक का सामना होता है. तुम भी गुज़र रहे हो इसको मैं समझ सकती हूँ. मगर इस ठहरे हुए समय के दरमयान भी लिखने की जरूरत है. मान लो ओरिजिनल नहीं लिख पा रहे तो लिखने की आदत बरक़रार रखने के लिए समीक्षाएं लिखो. तुम आजकल क्या पढ़ रहे हो...कौन सी फिल्में देख रहे हो...कैसा संगीत सुन रहे हो. घर से दफ्तर आते जाते कितनी चीज़ों को सहेज देना चाहते होगे. लिखने को उस तरह से ट्रीट कर लो. ये क्या जिद है कि ख़राब लिखने में डर लगता है. ख़राब कुछ नहीं होता. जो तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा शायद उसमें कोई और अपना अक्स देख पाए. देखो तुमसे और मुझसे बेहतर कौन जानेगा कि घटिया से घटिया चीज़ कुछ न कुछ अच्छा दे जाती है. वाहियात पौर्न फिल्म का कोई एक सीन होता है जिसमें ऐक्ट्रेस अपने अभिनय से अलग हट कर महज एक स्त्री रह जाती है...मर्द की वर्नारेबिलिटी का एक क्षण कैमरा पकड़ लेता है. पल्प फिक्शन का कोई किरदार ऐसी गूढ़ बात कह जाता है कि जिंदगी के सारे फलसफे झूठे लगते हैं.

देखो न, सही और गलत, सच और झूठ, अच्छा और बुरा के खांचे में चीज़ों को फिट करने वाले हम और तुम कौन लोग होते हैं. बताओ भला, हम किस खांचे में आते हैं? मैं और तुम किस खांचे में आते हैं? मैं क्या लगती हूँ तुम्हारी? पाठक, क्रिटिक, प्रेमिका, बहन, माँ, दोस्त...कोई पुरानी रिश्तेदार? किस किस सरहद में बाँधोगे?  ये भी तो नहीं कह सकते कि गलत है...इतना बात करना गलत है. तुम जाने कितनी सदियों से मेरी इस प्यास के लिए सोख्ता बने हुए हो. दुनिया में अगर कोई एक शख्स मुझे पूरी तरह जानता है तो वो तुम हो...शायद कई बार मुझसे भी बेहतर. मुझे कभी कभी लगता है हम पैरलल मिरर्स हैं...एक दूसरे के सामने रखे हुए आईने. एक दूसरे के एक्स्टेंशन. हममें जो उभरता है कहीं बहुत दूर दूर तक एक दूसरे में प्रतिबिंबित होता है. अनंत तक. हमारी कहानियों जैसा. क्लास में एक्जाम देते वक़्त होता था न...पेन में इंक ख़त्म हो गयी तो साथी से माँग लिया. वैसे ही कितनी बार मेरे पास लिखने को कुछ नहीं होता तो तुमसे माँग लेती हूँ...बिम्ब...डायलॉग्स...किरदार...तुम्हारी हंसी...तुम्हारी गालियाँ. कितना कुछ तो. तुम मांगने में इतना हिचकते क्यूँ हो. इतनी कृपण नहीं हूँ मैं. 

तुम्हारे शब्दों में मैंने कई बार खुद को पाया है...कई बार मरते मरते जीने का सबब तलाशा है...कई बार मुस्कुराहटें. मैं एकलौती नहीं हूँ. तुम जो लिखते हो उसमें कितनी औरतें अपने मन का वो विषाद...वो सुख...वो मरहम पाती हैं जो सिर्फ इस अहसास से आता है कि दुनिया में हम अकेले नहीं हैं. कहीं एक कवि है जो हमारे मन की ठीक ठीक बात जानता है. ये औरत तुम्हारी माँ हो सकती है, तुम्हारी बहन हो सकती है...तुम्हारी बीवी हो सकती है. इस तरह उनके मन की थाह पा लेना आसान नहीं है दोस्त. ऐसा सिर्फ इसलिए है कि तुम पर सरस्वती की कृपा है. इसे वरदान कह लो या अभिशाप मगर ये तुम्हारे साथ जिंदगी भर रहेगा. मुझे समझ नहीं आता कि तुम लिख क्यूँ नहीं रहे हो...क्या तुम्हें औरतों की कमी हो गयी है? क्या माँ से बतियाना बंद कर दिए हो...क्या बहन अपने घर बार में बहुत व्यस्त हो गयी है...क्या प्रेमिका की शादी हो गयी है(फाइनली?)...या फिर तुम्हारी दोस्तों ने भी थक कर तुमसे अपने किस्से कहने बंद कर दिए हैं? अब तुम लिखने के बजाये घुन्ना जैसा ये सब लेकर अन्दर अन्दर घुलोगे तो कौन सुनाएगा तुमको अपनी कहानी! 

देखो. अकेले कमरे में बैठ कर रोना धोना बहुत हुआ. बहुत दारू पिए. बहुत सुट्टा मारे. बहुत ताड़ लिए पड़ोस का लड़की. अब जिंदगी का कोई ठिकाना लगाओ कि बहुत बड़ी जिम्मेदारी है तुम्हारे काँधे पर. अगर तुम इस जिम्मेदारी से भागे तो कल खुद से आँख मिला नहीं पाओगे. उस दिन भी हम तुमसे सवाल करेंगे कि हम जब कह रहे थे तो सुने क्यों नहीं. हालाँकि हम जानते हैं कि जिद और अक्खड़पने में तुम हम से कहीं आगे हो लेकिन फिर भी...सोच के देखो क्या हम गलत कह रहे हैं? खुद को बर्बाद करके किसी को क्या मिला है. जंग लगी हुयी कलम से तो धमनी भी नहीं काटी जा सकती. जान देने के लिए भी कलम में तेज़ धार चाहिए. कि कट एकदम नीट लगे. मरने में भी खूबसूरती होनी चाहिए.

और सुनो. हम तुमसे बहुत बहुत प्यार करते हैं. जितना किसी और से किये हैं उससे कहीं ज्यादा. मगर इस सब में तुम्हारे लिखने से बहुत ज्यादा प्यार रहा है. तुम जब लिखते हो न तो उस आईने में हम संवरने लगते हैं. ले दे के हर व्यक्ति स्वार्थी होता है. शायद तुम्हारे लिखे में अपने होने को तलाशने के लिए ही तुमसे कह रहे हैं. मगर जरा हमारे कहने का मान रखो. इतना हक बनता है मेरा तुम पर. कोई पसंद नहीं आया तुम्हारे बाद. तुम जैसा. तुमसे बेहतर. कोई नहीं. तुम हो. तुम रहोगे. घड़ी घड़ी हमको परखना बंद करो. एक दिन उकता के चले जायेंगे तो बिसूरोगे कि इतनी शिद्दत से किसी का अक्षर अक्षर इंतज़ार कोई नहीं करता. 

हम आज के बाद तुमको लिखने के लिए कभी कुछ नहीं कहेंगे. 

तुम्हारी, 
(नाम भी लिखें अब? कि शब्दों से समझ जाओगे कि और कौन हो सकती है. )

28 January, 2015

उसकी नाभि से नाभिकीय विखंडन की शुरूआत होती थी



हाई बाउंसिंग बॉल होती है न...वैसे ही छोटे छोटे गोले हैं. मेटल के. उनकी परिधि पर छोटी छोटी आरियाँ लगी हुयी हैं. बचपन में एक प्रोजेक्ट हुआ करता था जिसमें रबर की गेंद के हर इंच पर पिनें चुभायीं जाती थीं न...बस समझ लो उल्टा केस है. छोटी छोटी गेंदें हैं. बेहद खतरनाक. त्वचा से जिस्म में अन्दर उतर आई हैं और अन्दर से मिक्सी के ब्लेड्स की तरह चलती जा रही हैं...दिमाग...चेहरा...गर्दन...सीना...नाभि...बदन में अन्दर बिलकुल तेजी से रिवोल्व करती जा रही हैं. कुछ नहीं बचता है. जहाँ ह्रदय हुआ करता था...लंग्स...किडनी...जिगर...सारे पुर्जे कटते जा रहे हैं...जिस्म सिर्फ एक आवरण रह गया है...अन्दर का सब कुछ जैसे महीन पीस दिया गया है...दर्द दर्द दर्द...इतना कि मैं चीख नहीं सकती कि जुबान भी कहाँ बची है. और अब मैं खून की उल्टी करना चाहती हूँ...कि जिसमें मैं जितनी हूँ पूरी की पूरी बाहर निकल जाऊं. सिर्फ खोल बचे बाहर. त्वचा. चाँद रंग की त्वचा. संगमरमरी.

अन्दर का सब कुछ यूँ निकलने के बाद भी रूह का क्या होता है? रूह क्या कोशिकाओं में छुप कर रहती है नाभिकीय ऊर्जा की तरह? मेरे अणु आपस में टकरायेंगे तो कितनी ऊर्जा निकलेगी? 

मैं पूरी तरह खाली होने के बावजूद शब्दों से कैसी भरी हूँ. शब्द भी क्या रूह की तरह अणुओं में रहते हैं? चारों तरफ सिर्फ खून ही खून बिखरा देखती हूँ...कुछ पता नहीं चलता इसमें दिल का हिस्सा किधर है और दिमाग का किधर. मुझे खून से वितृष्णा नहीं होती है. मगर इस तरह खाली होने के बाद मैं ज्यादा देर बची रह पाऊँगी इस पर भरोसा नहीं है. ऊपरवाला इस सिस्टम रीहौल के बाद कुछ नया भरने के लिए रचेगा क्या या फिर हंसेगा मेरे ऊपर सिर्फ कि शब्द बहुत पसंद हैं न तुझे. अब शब्दों से ही बना अपनेआप को दुबारा. रच अक्षर अक्षर खुद को. मैं कर सकती हूँ ऐसा. मगर सवाल ये होगा कि क्या मैं ऐसा करना चाहती हूँ. यूँ सिर्फ जिस्म का छिलका रह गया है तो जल्द ही मर भी जाउंगी. शब्दों से खुद को रच लिया तो सदियों अभिशप्त हो जाउंगी कि शब्द कभी नहीं मरते. मुझे नश्वर जिंदगी चाहिए. मुझे खुदा नहीं बनना. 

होता है न...सारा कुछ उल्टी हो जाने के बावजूद भी लगता है कुछ बचा रह गया है...अगली बार कोशिश करने पर आँतों में मरोड़ होती है बस...चक्कर आता है...मैं भी वैसी ही बैठी हूँ. बदन से सारा कुछ निकल गया है. कोई धड़कन नहीं...सांस आने पर कोई ऊपर नीचे होते फेफड़े नहीं...सब स्थिर है. शांत. मगर इस खोखलेपन के बावजूद मौत आसपास क्यूँ नहीं दिखती. मेरी त्वचा क्या जिजीविषा से बनी है? 

इस खून में उँगलियाँ डुबो कर लोग कविता क्यूँ लिखना चाहते हैं. इस खून में उँगलियाँ डुबो कर तुम मेरा नाम लिखना चाहते हो कि मेरा नाम भर रह जाए. खून का कतरा कतरा रेडियोएक्टिव है. बेहद संक्रामक. जिधर जाएगा. जिसे छुएगा बर्बाद करेगा. या खुदा. तुझे ऐसा कोई काण्ड कहीं दूर थार के रेगिस्तान में करना था या बहुत गहरे समंदर में. मेरा कतरा कतरा जमीन में ज़ज्ब होना चाहता है. हवा में घुलना चाहता है. बिखरना चाहता है. बर्बाद करना चाहता है. नाम लिखना चाहता है. चीखना चाहता है. इश्क़ इश्क़ इश्क़.
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रात से रुलाई अटकी है सीने में. मगर अकेले रोने में डर लगता है. लगना भी चाहिये.

18 January, 2015

जिंदगी एक टर्मिनल इलनेस है मेरी जान

वो एक कलपा हुआ बच्चा है जिसकी माँ उसे छोड़ कर कुछ देर के लिए पड़ोसी के यहाँ गयी है शायद...दौड़ते हुए आया है...चूड़ी की आहट हुयी है या कि गंध उड़ी है कोई कि बच्चे को लगता है कि मम्मी लौट आई वापस...जहाँ है वहां से दौड़ा है जोर से...डगमग क़दमों से मगर रफ़्तार बहुत तेज़ है...सोफा के पाए में पैर फंसा है और भटाक से गिरा है...मोजैक के फर्श पर इस ठंढ में माथा में चोट लगा है जोर से...वो चीखा है...इतनी जोर से चीखा है जितनी जोर से चीखने में उसको यकीन है कि मम्मी जहाँ भी है सब छोड़ कर दौड़ी आएगी और गोदी में उठा लेगी...माथा रगड़ेगी अपनी हथेली से...उस गर्मी और माँ के आँचल की गंध में घुलमिल कर दर्द कम लगने लगेगा. लेकिन मम्मी अभी तक आई नहीं है. उसको लगता है कि अभी देर है आने में. वो रोने के लिए सारा आँसू रोक के रखता है कि जब मम्मी आएगी तो रोयेगा. 

मैं उसकी अबडब आँखें देखती हूँ. ये भी जानती हूँ कि दिदिया का जिद्दी बेटा है. मेरे पास नहीं रोयेगा. उसी के पास रोयेगा. मैं फिर भी पास जा के देखना चाहती हूँ कि माथे पे ज्यादा चोट तो नहीं आई...अगर आई होगी तो बर्फ लगाना होगा. एक मिनट के लिए ध्यान हटा था. इसको इतना जोर से भागने का क्या जरूरत था...थोड़ा धीरे नहीं चल सकता. इतनी गो का है लेकिन एकदम्मे बदमाश है. दिदिया आएगी तो दिखा दिखा के रोयेगा...सब रोक के बैठा है. एक ठो आँसू नहीं बर्बाद किया हम पर. जानता है कि मौसी जरा सा पुचकार के चुप करा देगी...देर तक छाती से सटा कर पूरे घर में झुला झुला देने का काम नहीं करेगी...मौसी सोफा को डांटेगी नहीं कि बाबू को काहे मारा रे. मौसी का डांट से सोफा को कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा. मौसी तो अभी खुद बच्ची है. उसका डांट तो दूध-भात हो जाता है. मौसी का डांट तो हम भी नहीं सुनते. मम्मी का डांट में असर होता है. मम्मी डांटते हुए कितनी सुन्दर लगती है. दीदी से जब गुलमोहर का छड़ी तुड़वाती है तब भी. 

तुमको पढ़े.
मन किया कि दुपट्टा का फुक्का बना के उसमें खूब सारा मुंह से गर्म हवा मारें और तुम्हारे सर पर जो चोट लगी है उसमें फुक्का दें...देर तक रगड़ें कि दर्द चला जाए. लेकिन ये मेरा हक नहीं है. तुमको पढ़े और देर देर तक अन्दर ही अन्दर कलप कलप के रोना चाहे. लेकिन हमको भी चुप कराने के लिए मम्मी का दरकार है. वो आएगी नहीं. 

हमको क्या बांधता है जानते हो? दुःख. ये जो बहुत सारा दुःख जो हम अपने अन्दर किसी बक्से में तरी लगा लगा के जमाते जाते है वो दुःख. मालूम है न हीरा कैसे बनता है? बहुत ज्यादा प्रेशर में. पूरी धरती के प्रेशर में. और फिर कभी कभी लगता है तुमको धुनाई की जरूरत है बस. तुम पुरानी रजाई की तरह होते जा रहे हो. तुम्हारे सारे टाँके खोल के...ऊपर की सारी परतें हटा कर सारी रुई धुन दी जाए...तुम्हारी रूह बाकी लोगों से अलग है...उसको कुटाई चाहिए होता है. मगर तुम्हारी रूह को मेरे सिवा और कोई छू भी तो नहीं सकता है. इतनी तबियत से बदन का पैराहन उतारना सबको कहाँ आता है. सब तुम्हारे जिस्म के कटावों में उलझ जायेंगे...ये डॉक्टर की तरह सर्जरी का मामला है...बदन की खूबसूरती से ऊपर उठ कर अन्दर लगे हुए कैंसर को देखना होता है.

हम तुमसे कभी नहीं मिलेंगे. तुम्हारे बदन पर पड़े नील के निशान अब लोगों को मॉडर्न आर्ट जैसे लगने लगे हैं. जल्दी ही तुम्हारा तमाशा बना कर तुम पर टिकट लगा देंगे लोग. हम तब भी तुमसे नहीं मिलेंगे. दिल्ली में बहार लौटेगी. गुलाबों के बाग़ देखने लोग दूर दराज से आयेंगे और उनकी खुशबू अपने साथ बाँध ले जायेंगे. मैं कभी तुम्हारे किचन में तुम्हारे लिए हल्दी-चूना का लेप बनाने का सोचूंगी. मैं तुम्हारे ज़ख्मों को साफ़ करने के लिए स्कल्पेल और डिटोल लिए आउंगी. तुम्हें जाने कौन सी शर्म आएगी मुझसे. मेरे सामने तुम कपड़े उतारने से इनकार कर दोगे...बंद कमरे में चीखोगे...नर्स. नर्स. सिस्टर प्लीज इनको बाहर ले जाइए. मैं फफक फफक के रोउंगी. तुम हंसोगे. 'तुमको हमसे प्यार हो रहा है'. 

इस दर्द में. इस टर्मिनल इलनेस में तुम्हारा माथा ख़राब हो गया है या कि इश्क हो गया है तुमको. जिंदगी एक टर्मिनल इलनेस है मेरी जान. हम सब एक न एक दिन मर जायेंगे. मैं तुम्हारे कमरे के दरवाजे के आगे बैठी हूँ...तुम्हें जिलाने को एक ही महामृत्युंजय मन्त्र बुदबुदा रही हूँ 'आई लव यू...आई लव यू...आई लव यू'. तुम कोमा से थोड़ी देर को बाहर आते हो. डॉक्टर्स ने मोर्फिन पम्प कर रखी है. कहते हैं शायद तुम दर्द में नहीं हो. मैं तुम्हारी रूह में थर्मामीटर लगाना क्यूँ जानती हूँ? तुम मरणासन्न अपने बेड पर रोते हो. मैं तुम्हारे कमरे के बंद दरवाज़े के आगे. तुम पूछते हो मुझसे. 'बताओ अगर जो मैं मर गया तो?'. 

मेरी दुनिया बर्बाद होती है...अक्षर अक्षर अक्षर...मुझे कहने में जरा भी हिचक नहीं होती. 'तुम अगर मर गए, तो हम लिखना छोड़ देंगे'. 

पुनःश्च
'हम' लिखना छोड़ देंगे...अलग रहे हैं क्या मैं और तुम? मेरे लिखे में कब नहीं रहे हो तुम...या कि मेरे जीने में ही.
सुनो. हमको इन तीन शब्दों के मायने नहीं पता...लेकिन तुमसे कहना चाहते हैं.
आई लव यू.

11 August, 2014

जिंदगी बीत जाती है मगर कितनी बाकी रह जाती है न?


कतरा कतरा दुस्वप्नों के तिलिस्म में फंसती, बड़ी ही खूंख्वार रात थी वो...बिस्तर की सलवटों में अजगर रेंगते...बुखार की हरारत सा बदन छटपटाता...मैं तुम्हारे नाम के मनके गिनती तो हमेशा कम पड़ जाते...ऐसे कैसे कटेगी रात...कि तुम्हारे आने में जाने कितने पहर बाकी हैं. प्यास हलक से उतरती तो पानी की हर बूँद जलाती...घबरा कर विस्की की बोतल उठाती तो याद आता कि फ्रीज़र में आइस ख़त्म है...नीट पी नहीं सकती, पानी की फितरत समझ नहीं आ रही...तो क्या अपना खून मिला कर विस्की पियूँ?

आजकल तो हिचकियों ने भी ख़त पहुँचाने बंद कर दिए हैं. तुम्हें मालूम भी होता कि तुमसे इतनी दूर इस शहर में याद कर रही हूँ तुमको? तुम्हारे आने का वादा तो कब का डिबरी की बत्ती में राख हुआ. लम्हे भर को आग चमकी थी...जैसे हुआ था इश्क तुमको. कभी सोचती हूँ तुमसे कह ही दूं वो सारी बातें जो मुझे जीने नहीं देती हैं. लम्हे भर को इश्क होता भी है क्या?

भोर उठी हूँ तो जाने किससे तो बातें करने का मन है. बहुत सारी बातें. या कि फिर एक लम्बी ड्राइव पर जाना और कुछ भी नहीं कहना. कुछ भी नहीं. जैसे एकदम चुप हो जाऊं. क्या फर्क पड़ता है कुछ भी कहने से. ऐसे कहने से न कहना बेहतर. तुम हो कहाँ मेरी जान? तुम्हारे शहर में भी बारिशें हुयीं क्या सारी रात? यहाँ तो ऐसा दर्दभरा मौसम है कि गर्म चाय से भी पिघलना मंजूर नहीं करता. तुलसी की पत्तियां तोड़ कर उबालने को रक्खी हैं...थोड़ी काली मिर्च, थोड़ी अदरक...काढ़ा पीने से शायद गले की खराश को थोड़ा आराम मिले...मेरे ख्याल से सपनों में देर तक आवाज़ देती रही हूँ तुम्हें...

तुम्हें मालूम है न मैं तुम्हें याद करती हूँ? जैसे दिल्ली के मौसम को याद करती हूँ...जैसे बर्न के अपनेपन को याद करती हूँ...जैसे अनजान देशों की गलियों में भटकते हुए कई रेस्टोरेंट्स के मेनू देखे और वहां लिखी हुयी ड्रिंक्स के नशे के बारे में सोचा. ख्यालों में अक्सर आती है कई दुपहरें जो तुमसे गप्पें मरते हुए काटी थीं...तुम्हारे ऑफिस के सीलिंग फैन की यादें भी हैं. तुम हँस रहे हो ये पढ़ कर जानती हूँ. सोचती ये भी हूँ कि तुम्हारे लायक कॉपी अब इस शहर में क्यूँ नहीं मिलती...सोचती ये भी हूँ कि तुम्हें ख़त लिखे बहुत बरस हो गए. अब भी कुछ अच्छा पढ़ती हूँ तो तुम्हें भेज देने का मन करता है. या कि कोई अच्छी फिल्म देखी तो लगता है तुम्हें देखने को कहती. जिंदगी के छोटे बड़े उत्सव तुम्हारे साथ बाँटने की ख्वाहिश अब भी बाकी है. तुम्हारे शहर के उस किले की खतरनाक मुंडेर पर पाँव झुलाते मंटो को गरियाने की ख्वाहिश भी मेरे दोस्त बाकी है. जिंदगी बीत जाती है मगर कितनी बाकी रह जाती है न?

कभी कभी सोचती हूँ तो लगता है हम एक जिगसा पजल हैं. मुझमें कितना कुछ बाकियों से आया है...जितनी बार प्यार हुआ, एक नए तरह का संगीत उसकी पहचान बनता गया...डूबते हुए हर बार किसी नए राग में सुकून तलाशा...किसी नए देश का संगीत सुना कि याद के ज़ख्म थोड़े कम टीसते थे कि संगीत में अनेस्थेटिक गुण होते हैं. वैसा ही कुछ लेखकों के साथ भी हुआ न. अगर मुझे जरा कम इश्क हुआ होता...या जरा कम दर्द हुआ होता तो मैं ऐसी नहीं होती.

वो कहता है मुझे अब बदलना चाहिए...जरा हम्बल होना चाहिए, जरा डिप्लोमेटिक. मगर मुझसे नहीं होगा. मैं ऐसी ही रही हूँ...अक्खड़, जिद्दी और इम्पल्सिव...बिना सोचे समझे कुछ भी करने वाली...बिना सोचे समझे कुछ भी बोल देने वाली. डिप्लोमेटिक होना न आया है न आएगा. जिद्दी भी बहुत हूँ. सुबह उठ कर जाने क्या क्या सोच रही हूँ. तुम होते तो इस परेशानी में कोई चिल्लर सा जोक मारते...या फिर अपनी घटिया आवाज में कोई सलमान खान का पुराना वाला गाना गा के सुनाते हमको...हम हँसते हँसते लोटपोट हो जाते और फिर अपनी किताब पर काम शुरू कर देते. जल्दी ही कहानियां फाइनल करनी हैं. कुछ नया नहीं लिख पाए हैं. अफ़सोस होता है...मगर फिर खुद को समझाते हैं. जिंदगी बहुत लम्बी है और ये मेरी आखिरी किताब नहीं होगी. अगर हुयी भी तो चैन से मर सकेंगे कि बकेट लिस्ट में बस एक ही किताब का नाम लिखे थे. बाकी तो बोनस है. कभी कभी अपने आप को जैसे हैं वैसा क़ुबूल लेना मुश्किल है...मुहब्बत तो दूर की बात है. फिर भी सुकून इतना ही है बस कि कोशिश में कमी नहीं की मैंने. अपना लिखा कभी परफेक्ट लगा ही नहीं है...न कभी लगेगा. आखिर डेडलाइन भी कोई चीज़ होती है. हाँ, जब फिल्में बनाउंगी तो वोंग कार वाई की तरह आखिरी लम्हे तक एडिट चालू रहेगा. शायद. बहुत कन्फ्यूजन है रे बाबा!

10 March, 2014

फिल्म के बाद की डायरी

दिल की सुनें तो दिल बहुत कुछ चाहता है। कभी बेसिरपैर का भी, कभी समझदार सा।
इत्तिफाक है कि हाल की देखी हुयी दो फिल्मों में सफर एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार रहा है...किरदार क्युंकि सफर बहुत तरह के होते हैं, खुद को खो देने वाले और खुद को तलाश लेने वाले। हाईवे और क्वीन, दोनों फिल्में सफर के बारे में हैं। अपनी जड़ों से इतर कहीं भटकना एक अलग तरह की बेफिक्री देता है, बिल्कुल अलग आजादी...सिर्फ ये बात कि यहाँ मेरे हर चीज को जज करने वाला कोई नहीं है, हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं...और ठीक यही चीज हमें सबसे बेहतर डिफाइन करती है, जब हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं तो हम क्या करते है। बहुत समय ऐसा होता है कि हमसे हमारी मर्जी ही नहीं पूछी जाती, बाकी लोगों को बेहतर पता होता है कि हमारे लिये सही क्या है...ये लोग कभी पेरेंट्स होते हैं, कभी टीचर तो कभी भाई या कई बार बौयफ्रेंड या पति। कुछ कारणों से ये तय हो गया है कि बाकी लोग बेहतर जानते है और हमारे जीवन के निर्णय वही लेंगे। कई बार हम इस बात पर सवाल तक नहीं उठाते। इन्हीं सवालों का धीरे धीरे खुलता जवाब है क्वीन, और इसी भटकन को जस का जस दिखा दिया है हाईवे में, बिना किसी जवाब के। मैं रिव्यू नहीं लिख रही यहां, बस वो लिख रही हूं जो फिल्म देखते हुये मन में उगता है। क्वीन बहुत अच्छी लगी मुझे...ऐसी कहानी जिसकी हीरो एक लड़की है, उसका सफर है।

कई सारे लोग जमीनी होते हैं, मिट्टी से जुड़े हुये...उनके ख्वाब, उनकी कल्पनाएं, सब एक घर और उसकी बेहतरी से जुड़ी हुयी होती हैं...लेकिन ऐसे लोग होते हैं जो हमेशा कहीं भाग जाना चाहते हैं, उनका बस चले तो कभी घर ना बसाएं...बंजारामिजाजी कभी विरासत में मिलती है तो कभी रूह में...ऐसे लोग सफर में खुद को पाते हैं। कल फिल्म देखते हुये देर तक सोचती रही कि मैं क्या करना चाहती हूं...जैसा कि हमेशा होता है, मुझे मेरी मंजिल तो दिखती है पर रास्ते पर चलने का हौसला नहीं दिखता। मगर फिर भी, कभी कभी अपनी लिखने से चीजें ज्यादा सच लगने लगती हैं...हमारे यहां कहावत है कि चौबीस घंटे में एक बार सरस्वती जीभ पर बैठती हैं, तो हमेशा अच्छा कहा करो।

मुझे लोगों का सियाह पक्ष बहुत अट्रैक्ट करता है। लिखने में, फिल्मों में...हमेशा एक अल्टरनेट कहानी चलती रहती है...जैसे हाइवे और क्वीन, दोनों फिल्मों में इन्हें सिर्फ अच्छे लोग मिले हैं, चाहे वो अजनबी लड़की या फिर किडनैपर...मैं सोच रही थी कि क्या ही होता ऐसे किसी सफर में सिर्फ बुरे लोग मिलते...जिसने कभी किसी तरह की परेशानियां नहीं देखी हैं, वो किस तरह से मुश्किलों से लड़ती फिर...ये शायद उनके स्ट्रौंग होने का बेहतर रास्ता होता। मेरा क्या मन करता है कि एक ऐसी फिल्म बनाऊं जिसमें चुन चुन के खराब लोग मिलें...सिर्फ धमकी देने वाले नहीं सच में कुछ बुरा कर देने वाले लोग...सफर का इतना रूमानी चित्रण पच नहीं रहा। फिर लड़की डेंटी डार्लिंग नहीं मेरे जैसी कोई हो...मुसीबतों में स्थिर दिमाग रखने वाली...जिसे डर ना लगता हो। अजब अजब कीड़े कुलबुला रहे हैं...ये लिखना, वो लिखना टाईप...ब्रोमांस पर फिल्में बनती हैं तो बहनापे पर क्युं नहीं? कोई दो लड़कियाँ हों, जिन्हें ना शेडी होटल्स से डर लगता है ना पुलिस स्टेशन से...देश में घूमने निकलें...कहानी में थोड़ा और ट्विस्ट डालते हैं कि बाईक से घूमने निकली हैं कि देश आखिर कितना बुरा है...हमेशा कहा जाता है, खुद का अनुभव भी है कि सेफ नहीं है लड़कियों का अकेले सफर करना...फिर...सबसे बुरा क्या हो सकता है? रेप ऐंड मर्डर? और सबसे अच्छा क्या हो सकता है? इन दोनों के बीच का संतुलन कहां है?

So, when you come back, you may have a broken body...but a totally...absolutely...invincible soul...now if that is not worth the journey, I don't know what is!

मुझे हमेशा लगता था मुझसे फुल टाईम औफिस नहीं होगा...हर औफिस में कुछ ना कुछ होता ही है जो स्पिल कर जाता है अगले दिन में...ऐसे में खुद के लिये वक्त कहां निकालें! लिखने का पढ़ने का...फिर भी कुछ ना कुछ पढ़ना हो रहा है...आखिरी इत्मीनान से किताब पढ़ी थी IQ84, फिर मुराकामी का ही पढ़ रही हूं...किताबें पढ़ना भाग जाने जैसा लगता है, जैसे कुछ करना है, वो न करके भाग रही हूं...परसों बहुत दिन बाद दोस्त से मिली...श्रीविद्या...एक बच्चे को संभालने, ओडिसी और कुचीपुड़ी के रिहर्सल के दौरान कितना कुछ मैनेज कर लेती है...उसके चेहरे पर कमाल का ग्लो दिखता है...अपनी पसंद का जरा सा भी कुछ मिल जाता है तो दुनिया जीने लायक लगती है...दो तरह की औरतें होती हैं, एक जिनके लिये उनके होने का मकसद एक अच्छा परिवार है बसाना और बच्चे बड़ा करना है...जो कि बहुत जरूरी है...मगर हमारे जैसे कुछ लोग होते हैं, जिन्हें इन सब के साथ ही कुछ और भी चाहिये होता है जहां हम खुद को संजो सकें...मेरे लिये लिखना है, उसके लिये डांस...इसके लिये कुर्बानियां देते हुये हम जार जार रोते हैं मगर जी भी नहीं सकते अगर इतना जरा सा कुछ ना मिल सके।

हम डिनर पर गये थे, फिर बहुत देर बातें भी कीं...थ्री कोर्स डिनर के बाद भी बातें बाकी थीं तो ड्राईव पर निकल गये...पहले कोरमंगला तक फिर दूर माराथल्ली ब्रिज से भी बहुत दूर आगे। कल से सोच रही हूं, लड़कियों के साथ का टूर होता तो कितना अच्छा होता...मेरी बकेट लिस्ट में हमेशा से है...अनु दी, नेहा, अंशु, शिंजिनी...ये कुछ वैसे लोग हैं जिनके साथ कोई वक्त बुरा नहीं हो सकता। कोई हम्पी जैसी जगह हो...देखने को बहुत से पुराने खंडहर...नदी किनारे टेंट। बहुत से किस्से...बहुत सी तस्वीरें। जाने क्या क्या।

बहरहाल, सुबह हुयी है और हम अपने सपने से बाहर ही नहीं आये हैं...चाह कितना सारा कुछ...फिल्में, किताबें...घूमना...सब होगा, धीरे धीरे...फिलहाल कहानियों को ठोकना पीटना जारी है। फिल्म भी आयेगी कभी। औफिस में आजकल सब अच्छा चल रहा है, इसलिये लगता है कि जाने का सबसे सही वक्त आ गया है। यहां डेढ़ साल से उपर हुये, इतना देर मैं आज तक कहीं नहीं टिकी, अब बढ़ना जरूरी है वरना जड़ें उगने लगेंगी। फ्रेंच क्लासेस शुरू हैं, अगले महीने...सारे प्लान्स हैं...वन ऐट अ टाईम। 

08 December, 2013

एकांत मृत्यु


कैसा होता है...बिना खिड़की के कमरे में रहना...बिना दस्तक के इंतजार में...चुप चाप मर जाना. बिना किसी से कुछ कहे...बिना किसी से कुछ माँगे...जिन्दगी से कोई शिकवा किये बगैर. कैसे होते हैं अकेले मर जाने वाले लोग? मेरे तुम्हारे जैसे ही होते हैं कि कुछ अलग होते हैं?

अभागा क्यूँ कहती थी तुम्हें मेरी माँ? तुम्हारे किस दुख की थाती वो अपने अंदर जिये जाती थी? छीज छीज पूरा गाँव डूबने को आया, एक तुम हो कि तुम्हें किसी से मतलब ही नहीं. मुझे भी क्या कौतुक सूझा होगा कि तुमसे दिल लगा बैठी. देर रात नीलकंठ की परछाई देखी है. आँखों के समंदर में भूकंप आया है. कोई नया देश उगेगा अब, जिसमें मुझ जैसे निष्कासित लोगों के लिये जगह होगी. 

रूह एक यातना शिविर है जिसमें अतीत के दिनों को जबरन कैदी बना कर रखा गया है. ये दिन कहीं और जाना चाहते हैं मगर पहरा बहुत कड़ा है, भागने का कोई रास्ता भी मालूम नहीं. जिस्म का संतरी बड़ा सख्तजान है. उसकी नजर बचा कर एक सुरंग खोदी गयी कि दुनिया से मदद माँगी जा सके, कुछ खत बहाये गये नदी किनारे नावों पर. दुनिया मगर अंधी और बहरी होने का नाटक करती रही कि उसमें बड़ा सुकून था. सब कुछ 'सत्य' के लिये नहीं किया जा सकता, कुछ पागलपन महज स्वार्थ के लिये भी करने चाहिये. 

मैं उस अाग की तलाश में हूँ जो मुझे जला कर राख कर सके. कुछ दिनों से ऐसा ही कुछ धधक रहा है मेरे अंदर. जैसे कुछ लोगों की इच्छा होती है कि मरने के बाद उनकी अस्थियाँ समंदर में बहा दी जायें ताकि जाने के बरसों बाद भी उनका कुछ कण कण में रहे. मैं जीते जी ऐसे ही खुद को रख रही हूँ...अनगिन कहानियों में अपनी जिन्दगी का कुछ...कण कण भर.

वैराग में दर्द नहीं होना चाहिये. मन कैसे जाने फर्क? वसंत का भी रंग केसर, बैराग का भी रंग भगवा. पी की रट करता मन कैसे गाये राग मल्हार? बहेलिया समझता है चिड़ियों की भाषा...कभी कभी उसके प्राण में बस जाती है एक गूंगी चिड़िया, उसके अबोले गीत का प्रतिशोध होता है अनेक चिड़ियों का खुला अासमान. एक दिन बहेलिये के सपने में आती है वही उदास चिड़िया अौर गाती है मृत्युगीत. फुदकती हुयी अाती है पिंजरे के अन्दर अौर बंद कर लेती है साँकल. बहेलिये की अात्मा मुक्त होती है अौर उड़ती है अासमान से ऊँचा. 

दुअाअों की फसल उगाने वाला वह दुनिया का अाखिरी गाँव था. बाकी गाँवों के बाशिन्दे अगवा हो गये थे अौर गाँव उजाड़...अहसानफ़रामोश दुनिया ने न सिर्फ उनकी रोजी छीनी थी, बल्कि उनके अात्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा दीं थीं. गाँव की मुद्रा 'शुकराना' थी, कुबुल हुयी दुअा अपने हिस्से के शुकराने लाती थी, फिर हफ्तों दावतें चलतीं. मगर ये सब बहुत पुरानी बात है, अाजकल अालम ये है कि बच्चों की दुअाअों पर भी टैक्स लगने लगा है. फैशन में अाजकल बल्क दुअायें हैं...लम्हा लम्हा किसी के खून पसीने से सींचे गये दुअाअों की कद्र अब कहाँ. कल बुलडोजर चलाने के बाद जमीन समतल कर दी गयी. खबर बाहर गयी तो दंगे भड़क गये. हर ईश्वर उस जगह ही अपना अॉफिस खोलना चाहता है. गाँव के लोग जिस रिफ्यूजी कैम्प में बसाये गये थे वहाँ जहरीला खाना खाने के कारण पूरे गाँव की मृत्यु हो गयी. मुअावज़े की रकम के लिये दावेदारी का मुकदमा जारी है. 

खूबसूरत होना एक श्राप है. इस सलीब पर अाप उम्र भर टाँगे जायेंगे. अापकी हर चीज़ को शक के नज़रिये से देखा जायेगा...अापके ख़्वाबों पर दुनिया भर की सेन्सरशिप लगेगी. अापको अपनी खूबसूरती से डर लगेगा. ईश्क अापको बार बार ठगेगा और सारे इल्ज़ाम अापके सर होंगे. इस सब के बावजूद कहीं, कोई एक लड़की होगी जो हर रोज़ अाइना देखेगी और कहेगी, दुनिया इसी काबिल है कि ठोकरों मे रखी जाये. 

एक जिन्दगी होगी, बेहद अजीब तरीके से उलझी हुयी, मगर चाँद होगा, लॉन्ग ड्राइव्स होंगी...थोड़ा सा मर कर बहुत सा जीना होगा. कर तो लोगी ना इतना?

21 November, 2013

खंडित ईश्वर की साधना


मेरे बिना तुम हो भी इसपर मुझे यकीन नहीं होता. खुदा होने का अहं है. मैंने तुम्हें रचा है. बूंद बूँद रक्त और सियाही से सींचा है तुम्हें. मेरे बिना तुम्हारा कोई वजूद कैसे हो सकता है. तुम्हें रचते हुए कितना कितना तो खुद को रखती गयी हूँ तुम्हारे अन्दर. अपने बागी तेवर. अपने आसमान से ऊंचे ख्वाब. अपने वो किस्से जो किसी दरख़्त की खोह में छुपा रखे थे. तुमने सारा कुछ जिया जो मैंने अपनी लिस्ट में लिख रखा था. फिर अचानक से कैसी जिद पकड़ ली तुमने कि कागज़ की नाव बन उफनती गंगा में उतर गए. इश्क ही तो हुआ था तुम्हें मुझसे...ऐसा गुनाह तो नहीं था कि जिसकी माफ़ी न हो. हुआ तो था मीरा को भी इश्क...अपने श्याम से. देखा तो था अपने इष्ट को उसने गीत के हर बोल में...जहर के प्याले में. तुम्हें डर लगता था तो मुझसे कहा होता, मैं तुम्हें एक कमरे के घर में नज़रबंद कर देती. मगर तुम्हें तो मुझसे दूर जाने की जिद थी. तुम्हें ये कौन सी दुनिया देखनी है जिसका हिस्सा मैं नहीं हूँ.

सोचती हूँ मेरे बिना तुम कैसे जीते होते. गंगा किनारे काली रेत पर बैठते हो और दूर तक खरबूजे की कतार दिखती है तो हँसते हो अब भी कि खरबूजे का रंग कैसा है. जैसे ताड़ पर चीरा लगाते हैं न, वैसे ही दिल पर चीरा लगा हुआ है तुम्हारे, जिससे ज़ख्म ज़ख्म इश्क रिसता है...उसपर गंगा मिटटी की पट्टी कर दो. शायद कुछ दिन में भर जाए. इश्क नशे की तरह चढ़ता है मेरी जान, फिर बाढ़ के आने की जरूरत नहीं होती डूबने के लिए.

तुम्हें रचने का सुख अलौकिक था. सारे किरदारों में तुम मेरे सबसे पसंदीदा हो. तुम्हारी हर चीज़ परफेक्ट करने के लिए कितनी कोशिशें की थीं, और किसी के लिए जगी मैं ब्रह्म मुहूर्त में कभी? नहीं न...वो तो सिर्फ तुम्हारी आँखों का रंग लिखना था इसलिए. लोग कहते हैं सूरज की लाली फूटने के पहले अँधेरा सबसे ज्यादा गहरा होता है. बिना खुद महसूस किये उसे उस गहरे अँधेरे को तुम्हारी आँखों में कैसे उतार सकती. अलार्म लगा कर उठी थी. सुबह ठंढ पड़ने लगी है आजकल. निंदाये हुए में एक लम्बी सी जैकेट पहनी और स्कार्फ लपेटा. अँधेरे को महसूस करने के लिए जरूरी था कि रौशनी का श्रोत पास न हो. सिर्फ उम्मीद पर जियें कि थोड़ी देर में सूरज उगेगा. अँधेरे को आत्मसात करने के लिए तन्हाई जरूरी होती है. खुले आसमान के नीचे अपनी पसंद के तारे चुनने का सोच के गयी थी मगर भूल ये गयी कि चश्मे के बिना कुछ दिखेगा नहीं. वो अँधेरा सम्पूर्ण था. उसमें कुछ दिख नहीं रहा था...सिवाए ध्रुव तारे की मद्धम और फैली रौशनी, जैसे रोने के बाद की आँखों से दिखती है दुनिया...धुली हुयी. ये बिलकुल सही रंग था तुम्हारी आँखों के लिए. बस इतनी सी ही रोशनी भी कि तुम देख सको कागज़ और कलम कि जहाँ से तुम्हारा वजूद तैयार होता था.

तुम्हारी तीखी जबान के लिए मैंने कितने उन दोस्तों से बात की जिनसे मिले ज़माने गुज़र गए थे. उन्हें आता ही नहीं था तमीज़ से बोलना. बात बात में गालियाँ, बात बात में तकलीफ पहुँचाने वाले किस्से. अपने नियमों पर किसी की जिंदगी उधेड़ के रख दें. उन्हें कितना भी समझाऊं कि मैं जिंदगी अपने हिसाब से जीती हूँ और मुझे और किसी चीज़ की जरूरत नहीं है. वे थमते नहीं, एक एक करके वाकये निकलते और मेरी गलतियों पर प्यार के बोल नहीं कटाक्ष की मिर्ची रखते. उनसे मिलना जरूरी हुआ करता लेकिन. वे अक्खड़ दोस्त ही मेरे इतने साहसी होते थे कि पाँव में लगी मरहमपट्टी खोलते. हफ्ते भर पहले धंसे कांटे को निकलने के दर्द के मारे मैं उसे घाव बन जाने देती थी. वे मेरी चीखों से बेअसर रहते और ब्लेड को धिपा कर घाव बहा देते और फिर उसमें से काँटा निकालते. उन्हें न मवाद से डर लगता, न खून से. उन्हें बस इस बात से मतलब था कि मैं कोई चुभती चीज़ दिल में लिए न घूमूं. जिन अधमरे रिश्तों को मैं सहेजे चलती थे, वे उन्हें गला घोंट कर मार डालते. इतनी हिकारत भर देते कि भूलना आसान हो जाता मेरे लिए. हाँ, उनकी दी हुयी तकलीफें ऐसी होती थीं कि उसी वक़्त मर जाने का दिल करता...मगर उनके जाने के बाद हमेशा हल्का महसूस होता. वे तीखे थे, रूखे थे मगर सच्चे थे. तुम्हारी तरह.

पूरे सफ़र में सबसे खूबसूरत पड़ाव था तुम्हारी संगीत की समझ विकसित करने वाला. तुम्हारे लिए मैंने दूर देश की यात्राएं कीं और तरह तरह का संगीत सहेजा...कुछ पन्नों में, कुछ यादों में और कुछ साउंड रिकॉर्डर में. मगर सबसे खूबसूरत संगीत सहेजा मैंने तुममें. तुम मेरी चलती फिरती डिक्शनरी बनते गए थे. योरोप के घूमे हुए गाँवों से उठाये लोकगीत हों कि इन्टरनेट पर पाए हुए अनगिन, अबूझ भाषाई गानों के कतरे. कितना नए वाद्ययंत्रों को देखा, सुना, समझा. तुम्हारे लिए सारंगी बजाने वाले को घर बुला कर एक साल रखा अपने पास. जितना तुम सीखते और डूबते जाते, उतना मैं हवा में उड़ती जाती. तुम्हारे रियाज़ से मेरी आँखें खुलतीं. मुझे लगता है यही वो वक़्त था जब तुम्हें मुझसे इश्क होता जा रहा था. तुम राधा बने श्याम के प्रेम में वृन्दावन पहुँचते और मैं होली के वक़्त टिकट बुक करा कर. अबीर और रंग के उस उल्लासोत्सव में सब भूल जाना चाहता था मन.

लौटने पर तुम्हें सुनना चाहती थी आह्लाद का वो क्षण, लिखना चाहती थी तुम्हारे हिस्से होली का एक पूरा दिन कि जब रास रचता है...कृष्ण की डायरी से चुरा कर वो होली का दिन लिखना चाहती थी तुम्हारे नाम मगर सिर्फ एक ख़त था तुम्हारा. तुम्हें मेरी आँखों से नहीं, अपनी आँखों से दुनिया देखनी थी. मेरी कलम की सियाही तुम्हारे लिए सारे रंग नहीं रच पा रही थी. उफनती गंगा में कागज़ की कश्ती लिए उतर गए. मेरा दर्प सियाही की बोतल की तरह ही चूर चूर हुआ है. इश्क के इस राग को समझने में तुम्हें वक़्त लगेगा...उम्र जब अपनी सलवटें तुम्हारे माथे पर रखेगी तब तुम्हें महसूस होगा...तुम्हें रचना तुमसे इश्क करना ही था. तुमने विरह की ये अखंड ज्योति जला दी है दिल में. तुम कच्चे हो अनुभव में. तुम्हें  मालूम नहीं, दिए की लौ में सिर्फ रौशनी नहीं होती...धाह भी होती है. तुम्हारे लौट के आने तक मेरी दुनिया का सब कुछ जल के राख हो चुका होगा.

तुम अपनी सबसे छोटी ऊँगली से मेज़ के जले हिस्से को छूना और अपनी आँखों में हल्का सा काजल छुआ लेना. मेरी आखिरी प्रार्थना है...ईश्वर तुम्हें बुरी नज़र से बचाए. 

01 October, 2013

आवाज़ में भँवरें हैं. दलदल है. मरीचिका है. खतरे का निशान है. मेरे सिग्नेचर जैसा.

लड़की हमारे एक रात के क़त्ल का इलज़ाम तुम्हारे सर.
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गिटार बजता है शुरू में...कहीं पहले सुना है. ठीक ऐसा ही कुछ. बैकग्राउंड में लेकिन चुभता हुआ कुछ ऐसे जैसे टैटू बनाने वाली सुई...खून के कतरे कतरे को सियाही से रिप्लेस करती हुयी...दर्द में डुबो डुबो कर लिखती जाती एक नाम. प्यास की तरह खींचती रूह को जिस्म से बाहर.

गीत के कई मकाम होते हैं...सुर बदलता है जैसे मौसम में हवाओं की दिशा बदलती है और तुम्हारे शहर का मौसम मेरे शहर की सांस में धूल के बवंडर जैसा घूमने लगता है. गहरे नीले रंग का तूफ़ान समंदर के सीने से उठा है हूक की तरह, मुझे बांहों में भरता है जैसे कहीं लौट के जाने की इजाजत नहीं देगा. आवाज़ में भँवरें हैं. दलदल है. मरीचिका है. खतरे का निशान है. मेरे सिग्नेचर जैसा.
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इधर कुछ दिन पहले शाम बेहद ठंढी हो गयी थी. जाने कैसे मौसम बिलकुल ऐसा लग रहा था जैसे दिसंबर आ गया है. जानते हो, दिसंबर की एक गंध होती है, ख़ास. जैसे परफ्यूम लगाते हो न तुम, गर्दन के दोनों ओर. तुमसे गले मिलते हुए महसूस होती है भीनी सी...खास तौर से वो जो तुम ट्यूसडे को लगाते हो. मेरी कहानियों में दिसंबर वैसा ही होता है...नीली जींस और सफ़ेद लिनन की क्रिस्प शर्ट पहने हुए, कालरबोन के पास परफ्यूम का हल्का सा स्प्रे. जानलेवा एकदम. दाहिने हाथ में घड़ी. लाल स्वेड लेदर के जूते. आँखें...हमेशा लाईट ब्राउन...सुनहली. उनमें हलकी चमक होती है. गहरे अँधेरे में भी तुम्हारी आँखों की रौशनी से तुम तक पहुँच जाऊं...घुप्प अँधेरे में दूर किले की खिड़की में इंतज़ार के दिए जैसी अनथक लौ.
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देर रात जाग कर लिखने के मौसम वापस आ रहे हैं. दिल पर वही घबराहट का बुखार तारी है. दिल के धड़कने की रफ़्तार लगता है जैसे ४०० पार कर चुकी हो. मेरी कहानियों का इश्क एक ख़ास एक्सेंट में बोलता है. मेरा नाम भी लेता है तो लगता है कोई पुरानी ग्रीक कविता पढ़ कर सुना रहा हो बर्न के फाउंटेन में भीगते हुए. कभी मिले तुमसे तो उससे पाब्लो नेरुदा की कविता सुनना. मूड में होगा तो पूछेगा तुमसे, तुमने ये कविता सुनी है...सुनी भी होगी तो कहना नहीं सुनी...पढ़ी भी होगी तो कहना नहीं पढ़ी है...फिर वो तुम्हें अपना लिखा कुछ सुनाएगा...उस वक़्त मेरी जान खुद को रोक के रखना वरना समंदर में कूद कर जान दे देने को दिल चाहेगा. खुदा न खास्ता उसका गाने का मूड हो गया तब तो देखना कि धरती अपने अक्षांश पर घूमना बंद कर देगी. रेतघड़ी में रुक जाएगा सुनहले कणों का गिरना. तुम्हारे इर्द गिर्द सब कुछ रुक जाएगा. सब कुछ. खुदा जैसा कुछ होता है इसपर भी यकीं हो जाएगा. सम्हलना रे लड़की उस वक़्त.
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देखना उसकी तस्वीर को गौर से रात के ठहरे पहर. ऐतबार करना इस बात पर कि हिचकियों ने उसे सोने नहीं दिया होगा रात भर. खुश हो जाना इस झूठ पर और आइस क्यूब्स में थोड़ी और विस्की डाल लेना. पागल लड़की, बताया था न, ऐसी रात कभी भी लिख दूँगी तुम्हारी किस्मत में...फिर अपनी पसंद की सिगरेट खरीद कर क्यूँ नहीं रखी थी? मत दिया करो लोगों को अपनी सिगरेट पीने के लिए. देर रात तलब लगने पर कार लेकर एयरपोर्ट चली जाना. ध्यान रहे कि स्पीड कभी भी १०० से कम नहीं होनी चाहिए. दिल करे तो १२० पर भी चला सकती हो और अगर बहुत प्यार आये तो १३० पर. न, जाने दो. बड़ी प्यारी कार है, ऐसा करना १०० से ऊपर मत चलाना. कहीं किसी एक्सीडेंट में खुदा को प्यारी हो गयी तो इश्क का क्या होगा.
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उससे जब भी मिलना ऐसे मिलना जैसे आखिरी बार मिल रही हो. उसका ठिकाना नहीं है. एक बार जिंदगी में आये फिर ऐसा भी होता है कि ताजिंदगी इंतज़ार कराये और दुबारा कभी नज़र भी न आये. तुमने उसे देखा नहीं है ना लेकिन, पहचानोगी कैसे? तो ऐसा है मेरी जान...इश्क आते हुए कभी पहचान नहीं आता. सिर्फ उसके जाते हुए महसूस होता है कि वो जा चुका है. उसके जाने पर ऐसा लगेगा जैसे समंदर ने आखिरी लहरें वापस खींच ली हों...दिल ने पम्प कर दी है खून की आखिरी बूँद...लंग्स कोलाप्स कर रहे हों ऐसा निर्वात है चारों ओर. उसके जाने से चला जाता है जिंदगी का सारा राग...रात की सारी नींद...भोर का सारा उजास.
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सामान बांधना और चले जाना नार्थ पोल के पास के किसी गाँव में रहने जहाँ तीन महीने लगातार दिन होता है और फिर पूरे साल रात ही होती है एक लम्बी रात. रात को नृत्य करते हुए लड़के दिखेंगे. गौर से देखना, उसकी खुराफाती आँखें दिखेंगी मेले में ही कहीं. सब कुछ बदल जाता है, उसकी आँखें नहीं बदलतीं. बाँध के रख लेती हैं. गुनाहगार आँखें. पनाह मांगती आँखें. क़त्ल की गुज़ारिश करती आँखें.
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वो कुछ ऐसे गले लगाएगा जैसे कई जन्म बाद मिल रहा हो तुमसे. बर्फ वाले उस देश में औरोरा बोरियालिस तुम्हें चेताने की कोशिश करेगा...पल पल रंग बदलेगा मगर तुम उसकी आँखों में नहीं देख पाओगी खतरे का कोई भी रंग. वो डॉक्टर के स्काल्पेल को रखेगा तुम्हारी गर्दन पर और जैसे आर्टिस्ट खींचता है कैनवास पर पहली रेखा...जैसे शायर लिखता है अपनी प्रेमिका के नाम का पहला अक्षर...जैसे बच्चा सीखता है लिखना आयतें...तीखी धार से तुम्हारी गर्दन पर चला देगा कि मौत महसूस न हो.
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सफ़ेद बर्फ पर लिखेगा तुम्हारे लहू के लाल रंग से...आई लव यू...तुम्हारी रूह मुस्कुराएगी और कहेगी उससे...शुक्रिया.

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