28 February, 2018

आधी कविता में।

गुज़र चुके मौसम का
आख़िरी सुर्ख़ पत्ता
भूला रह गया है
कविता की किताब के बीच। 
मैं ठिठकी रह गयी हूँ
वहीं
आधी कविता में।
***
उसने आँसुओं में घोल दीं
अपनी काली आँखें
उस स्याही से अलविदा लिखते हुए
सबकी ही उँगलियाँ काँपती थीं 
***
नालायकों के हाथ बर्बाद हो जाना है
एक दिन सब कुछ ही
मुहब्बत। हिज्र। उदासी।
तुम अपना क़ीमती वक़्त
उनसे बचा कर रखो।
***
मुहब्बत की बेवक़ूफ़ी का क्या कहें
महसूसती है जो होता नहीं कहीं
'अलविदा' में 'फिर मिलेंगे' की ख़ुशबू.
***
ज़ख़्म नयी जगह देना
कि उसे देखते हुए
तुम्हारी याद आए 
दिल हज़ार बार टूटा है मेरा
तुम रूह चुनना
जानां 
***
It should hurt less.
You should love less. 
***
किसी अनजानी भाषा की फ़िल्म है। दुखती है जैसे कि रूह ने कहे हों उससे जन्मपार के दुःख। वे दुःख जो मुझे मालूम भी नहीं थे, कि आँख में रहते हैं। हमेशा से। ट्रेलर रिपीट पर सुन रही हूँ। 
आवाज़ अनजानी भाषा का एक शब्द है, मैं सुनती हूँ अपना पहचाना हुआ, 'सिनमॉन'। फिर से देखती हूँ ट्रेलर। और सही ही शब्द है। 'प्रेम के बिना'। मेरा नाम। 'सिनमॉन'।
Ana ने एक छोटे से बिल्ली के आकार वाले बटुए में सायनाइड की गोली रखी है। मेरे पास ठीक वैसा बटुआ है। ऐना खो गयी है। उसकी दोस्त कहती है, 'उन दिनों हमारे पास 'गुम जाने' के लिए कोई शब्द नहीं था। मेरे पास तुम्हारे खो जाने के लिए कोई शब्द कहाँ है। 
उन सारे दोस्तों के खो जाने के लिए कोई शब्द कहाँ है। लेकिन मैं चाहती हूँ। लिखूँ कोई एक शब्द, जो कह सके, 'गुम हो गए लोग'। लेकिन मैं तुम्हें लिखने से डरती हूँ। मेरे लिखे किरदार सच हो जाते हैं। 
मैंने जाने कितने दिन बाद पूछा किसी से आज शाम। 'मैं आपको चिट्ठियाँ लिख सकती हूँ?'। 
टूटा हुआ दिल प्रेम करने की इजाज़त नहीं देता। कहानियाँ लिखने की भी नहीं। लेकिन फिर भी मुझे लगता है। तुम्हारे होने से ज़िंदगी थोड़ी ज़्यादा काइंड लगती। थोड़ी ज़्यादा बर्दाश्त करने लायक।
मोक्ष। लौट आओ। मैं तुमसे प्यार करती हूँ। लेकिन लौट आओ सिर्फ़ इसलिए कि मुझे अलविदा कहना है तुम्हें। प्रॉमिस। मैं तुम्हें रोकूँगी नहीं। 
अपूर्व की कविता की तरह, लौट आओ कि अलविदा कह सकूँ, कि, 'तीन बार कहने में विदा, दो बार का वापस लौटना भी शामिल होता है'।
Trailer: Symphony for Ana (Sinfonía para Ana). from Ernesto Ardito y Virna Molina on Vimeo.

12 February, 2018

नालायक हीरो

'और, कैसी हो आजकल तुम?'
'बुरी हूँ। बहुत ज़्यादा। नाराज़ भी।'
'तुम बुरी हो जाओ तो बुरी का डेफ़िनिशन बदलना पड़ेगा। लेकिन तुम्हारी ऐसी ख़ूबसूरत दुनिया में कौन शख़्स मिल गया तुमको जिससे तुमको नाराज़ होने की नौबत आ गयी?'
'परी है एक'
'आब्वीयस्ली, तुम किसी नॉर्मल इंसान से तो नाराज़ हो नहीं सकती हो, परी ही होगी। तो फिर,क्या किया परी ने?'
'श्राप दे दिया है'
'अच्छा, कोई कांड ही किया होगा तुमसे। यूँही तो परी का दिमाग़ नहीं फिरेगा कि श्राप दे दे तुमको'
'नहीं, कोई कांड नहीं किया। परी ख़ुश हुयी थी मुझसे बहुत, इसलिए...'
'मतलब, परी ख़ुश होकर सराप दी तुमको? पागलखाने में मिली थी क्या उससे?'
'उफ़्फ़ो, पूरी बात सुनो। एक परी एक शाम बहुत उदास थी तो मैंने उसको अपनी बाइक पर बिठा कर बहुत तेज़ तेज़ बाइक चलायी और व्हीली भी की'
'और फिर तुमने बाइक गिरा दी और उसने तुम्हें श्राप दिया?'
'चुप रह कर पूरी कहानी सुनो, कूट देंगे हम तुमको'
'उफ़्फ़ो, इतना डिटेल में बताना ज़रूरी है?' हमको इतना पेशेंस नहीं है'
'यार, बाइक से उतरे तो हाथ एकदम ठंढे पड़ गए थे। ग्लव्ज़ पहनना भूल गयी थी। परी को मेरे ठंढे हाथों पर बहुत प्यार आया। उसने अपनी जादू की छड़ी घुमायी और ग़ायब हो गयी'
'बस? तो फिर हुआ क्या जिसका रोना रो रही हो'
'मेरे हाथ अब कभी ठंढे नहीं पड़ते हैं'
'तो ये अच्छी बात है ना, पागल लड़की!'
'हाँ। पहले कितना आसान होता था कहना, देखो, मेरे हाथ एकदम बर्फ़ हो गए हैं। अब क्या कहूँ। तुम्हें छूने को मन कर रहा है? इतनी दूर मत बैठो। पास बैठो। मेरा हाथ थाम कर'
'तो इसमें क्या है? कह दो'
'कहा तो'
'मतलब, क्या, कुछ भी! मेरा हाथ पकड़ कर क्यूँ बैठना है तुमको?'
'बस देखे ना। यही एक्स्प्लनेशन नहीं देना है हमको। हमको ख़ुद नहीं पता। पहले तुमको बस इतना कहना होता था कि मेरे हाथ ठंढे हो गए हैं। तुम कोई सवाल नहीं करते थे'
'तुम इतनी उलझी हुयी कब से हो गयी हो?'
'सुनो, बाक़ी सब कल समझाएँगे। फ़िलहाल हमको बहुत कुछ समझ नहीं आ रहा। चलो, बाइक से घूम के आते हैं'
'चलो...तुम चलाओगी कि हम चलाएँ'
'तुम रहने दो, हमारा एनफ़ील्ड चलाओगे, इश्श्श्श। बैलगाड़ी चलाने का नहीं बोल रहे। तीस का स्पीड पर चलाओगे, बेज्जती ख़राब होगा हमारा'
'तुम इतना तेज़ बाइक काहे चला रही हो?'
'कोई लड़का अगर लड़की को पीछे बिठाता है और बाइक बहुत तेज़ चलाता है तो इसका क्या मतलब निकाला जा सकता है?'
'लड़की की ट्रेन छूटनी वाली होती है या ऐसा कुछ?'
'नहीं, वो चाहता है कि लड़की डरे और उसको ज़ोर से पकड़ कर बैठे'
'अच्छा!'
'अच्छा नहीं, नालायक। पकड़ के बैठो हमको ज़ोर से। उड़ जाओगे हवा में। पागल कहीं के'
'और कोई देखेगा तो क्या कहेगा?'
'इत्ति तेज़ चला रही हूँ, कौन ना देख पाएगा रे तुमको?'
'चलो, तुम्हारा शहर है, मनमर्ज़ी करो ही। हमको यहाँ कौन पहचानता है, तुमको ही पूछेगा सब, कौन हीरो को पीछे बिठा कर एनफ़ील्ड उड़ा रही थी तुम'
'हीरो, इश्श्श, कहाँ के हीरो हो रे तुम'
'तुम्हारी कहानी के तो हैं ही। इतना काफ़ी है'
'नालायक हीरो'
'तुम्हारे हीरो हैं, नालायक तो होना ही था'
बाइक इतनी तेज़ रफ़्तार उड़ रही थी कि अब बातें अतीत में सुनायी देतीं...उसने जैसे मन में कहा, 'लव यू रे, नालायक'
मगर कुछ बातें बिना सुने भी अपना जवाब पा जाती हैं। उसे ऐसा लगा कि लड़के ने उसके कंधे पर पकड़ थोड़ी मज़बूत की और किसी बहुत जन्म पहले की बात दुहरायी, 'मी टू'।

06 February, 2018

ला वियों रोज़

एक धुन के पीछे भागते गए थे। कितनी दूर तक। कितनी दूर तक तो। कैसा मिला था धुन में थोड़ा सा जापान। उन दिनों खोजना कहाँ आसान होता था कुछ भी। किसी का दिल ही होता था अगर, तो कितना दूर होता था...कितना सिमटा, सकुचाया होता था। उस उलझन भरे दिल में कहाँ खोजते हम दुनिया भर का ना सही, अपने हिस्से का प्यार।

इस धुन में कितना कुछ समेटते चली आयी थी लड़की। बाँध लिया था उसने अपने आँचल की गाँठ में तुम्हारी हँसी का एक क़तरा। कभी कभी खोलती आँचल की गाँठ और चूम लेती वही ज़रा सी हँसी।

वो तो बिसार देता कितनी आसानी से...उसकी व्यस्तता में प्रेम के लिए जगह नहीं। उसकी फ़ुर्सत में लड़की का नाम नहीं।

और लड़की...
लड़की...

क्या ही कहें। कौन करेगा ऐसी सिरफिरी लड़की से प्यार। कहती है तुम्हारा शहर बिसार देगी पूरा का पूरा। हाँ, नहीं देखा तो क्या हुआ। शहर बिसारने के लिए शहर को याद करना थोड़े ज़रूरी होता है।

जैसे देखो ना। प्यार कहाँ किया तुमसे कभी। फिर भी लगता है ताउम्र करेंगे प्यार तुमसे इतना ही। जानते हो, मेरे फ़ोन में तुम्हारा नम्बर ब्लाक्ड है लेकिन तुम्हारा नम्बर सेव्ड है। पता है क्या नाम है तुम्हारा?

मीता।

सुनो। मैं तुमसे प्यार करती हूँ मीता।
रेलगाड़ी के चले जाने के बाद ख़ाली प्लैट्फ़ॉर्म पर टूटा कलेजा लिए मत बिलखो रे तुम, हमको आज भी तुम्हारा प्यार चुभता है। और मेरा वो गले में पड़ा हुआ हल्के हरे रंग का स्टोल, जो तुम गले से निकाल कर अपने पास रख लेना चाहते थे, आज उसमें आग लगा देने को जी चाहता है। लेकिन वो किसी दोस्त के पास रह गया है। तुम्हारे शहर में ही रहती है। कभी मिल जाए तुमको, मेरा स्टोल डाले हुए तो उसे गले से निकलवा लेना। उसपर तुम्हारा हक़ दिए हम तुमको।

रे। मीता। तुम बहुत्ते याद आते हो रे।
मेरा एक बात मानोगे? तुम दिल्ली छोड़ के कभी मत जाना। दिल्ली के हिस्से प्यार लिखते हुए लगता है तुम्हारे नाम पोस्टकार्ड गिरा दिए हैं।

विदा कहने के लिए किसी का जाना ज़रूरी होता है।
तुम हमेशा रहे हो। साथ। पास।

रहना रे। तुम रहना।


03 February, 2018

सुनो, तुम अपना दिल सम्हाल के रखना।

नहीं। मेरे पास कोई ज़रूरी बात नहीं है, जो तुमसे की जाए। 
ये वैसे दिन नहीं हैं जब 'दिल्ली का मौसम कैसा है?' सबसे ज़रूरी सवाल हुआ करता था। जब दिल्ली में बारिश होती थी और तुमने फ़ोन नहीं किया होता तो ये बेवफ़ाई के नम्बर वाली लिस्ट में तुम्हारा किसी ग़ैर लड़की से बात करने के ऊपर आता था। 
हमारे बीच दिल्ली हमेशा किसी ज़रूरी बात की तरह रही। बेहद ज़रूरी टॉपिक की तरह। कि तुम्हारे मन का मौसम होता था दिल्ली। नीले आसमान और धूप या दुखती तकलीफ़देह गर्मियाँ या कि कोहरा कि जिसमें नहीं दिखता था कि किससे है तुम्हें सबसे ज़्यादा प्यार। 
अब कहते हैं लोग मुझे, दिल्ली अब वो दिल्ली नहीं रही। तुम्हें दस साल हुए उस शहर को छोड़े हुए। अब भी तुम्हें उसके मौसम से क्या ही फ़र्क़ पड़ता है। 
उस लड़के को छोड़े हुए भी तो बारह साल हुए। तुम उसके बालों की सफ़ेदी देखना चाहती हो? उसकी आँखों के इर्द गिर्द पड़े रिंकल? या होठों के आसपास पड़ी मुस्कान से पड़ी हुयी रेखाएँ? तुम क्यूँ देखना चाहती हो कि जो रेखा तुम्हारे और उसके हाथों में ठीक एक सी थी, वो इतने सालों में बदली या नहीं। तुम उसे देखना क्यूँ चाहती हो? जिस लड़के को तुमने ही छोड़ा था, उसके गले लग कर उसी से बिछड़ने के दुःख में क्यूँ रोना चाहती हो। उसके ना होने के दुःख का ग्लेशियर अपने दिल में जमाए हुए तुम जियो, यही सज़ा तय की थी ना तुम दोनों ने? उसकी आँखों में मुहब्बत होगी अब भी जिसे वो नफ़रत का नाम देता है। उसकी आवाज़ से तुम्हारे दिल की धड़कन क्यूँ रूकती है? इतना प्यार करना ही था उससे तो उसे छोड़ा ही क्यूँ था? उसके पास रह कर उससे दूर हो जाने का डर था तुम्हें?
दुखता हुआ शहर दिल्ली। सीने में पिघलता। जमता। दूर होता जाता। बहुत बहुत दूर। पूछता। 'ताउम्र करोगी प्यार मुझसे?'
***
हम जिनसे प्यार करते हैं, वो इसलिए नहीं करते हैं कि उनसे बेहतर कोई और नहीं था। प्यार में कोई आरोहण नहीं होता कि उस सबसे ऊँची सीढ़ी पर जो मिलेगा हम उससे सबसे ज़्यादा प्यार करेंगे। या उससे ही प्यार करेंगे। 
हमें जो लेखक पसंद होते हैं, वे इसलिए नहीं होते कि वे दुनिया के सबसे अच्छे लेखक होते हैं। उनका लिखा पुरस्कृत होता है या बहुत लोगों को पसंद होता है। हमें कोई लेखक इसलिए पसंद आता है कि कहीं न कहीं वो हमारी कहानी कहता है। हमारे प्रेम की, हमारे बिछोह की। अक्सर वो कहानी जो हम जीना चाहते थे लेकिन जी ना सके। हो सकता है हम उनके बाद कई और लेखकों को पढ़ें और कई और शहरों के प्रेम में पड़ें। लेकिन अगर हमने एक बार किसी के लिखे से बहुत गहरा प्रेम किया है तो हम उस लेखक के प्रेम से कभी नहीं उबर सकते। हम उस तक लौट लौट कर जाते हैं। कई कई साल बाद तक भी। 
आज मैंने कुछ वे ब्लॉग पोस्ट पढ़े जो २०१० में लिखे गए थे। ये ऐसे क़िस्से हैं जिनकी पंक्तियाँ मुझे हमेशा याद रही हैं। ख़ास तौर से दुःख में या सफ़र में। उन लेखों में दुःख है, अवसाद है, मृत्यु है और इन सब के साथ एक लेखक है जिसका उन दिनों मुझे नाम, चेहरा, उम्र कुछ मालूम नहीं था। ये शब्दों के साथ का विशुद्ध प्रेम था। मैं उन पोस्ट्स तक लौटती हूँ और पाती हूँ कि अच्छी विस्की की तरह, इसका नशा सालों बाद और परिष्कृत ही हुआ है। 
मैंने इस बीच दुनिया भर के कई बड़े लेखकों को पढ़ा है। कविताएँ। कहानियाँ। लेख। आत्मकथा। कई सारे शहर घूम आयी। लेकिन उन शब्दों की काट अब भी वैसी ही तीखी है। वे शब्द वैसे ही हौंट करते हैं। वैसे ही ख़याल में तिरते रहते हैं जैसे उतने साल पहले होते थे। 
प्यारे लेखक। तुम्हारा बहुत शुक्रिया। मेरी ज़िंदगी को तुम्हारे ख़ूबसूरत और उदास शब्द सँवारते रहते हैं। तुम बने रहो। दुआ में। अगली बार मैं किसी शहर जाऊँगी विदेश के, तो फिर से पूछूँगी तुमसे, 'क्या मैं आपको चिट्ठियाँ लिख सकती हूँ?'। इस बार मना मत करना। तुम्हारे बहुत से फ़ैन्स होंगे। हो सकता है कोई मुझसे ज़्यादा भी तुमसे प्यार करे। लेकिन मेरे जैसा प्यार तो कोई नहीं करेगा। और ना मेरे जैसी चिट्ठियाँ लिखेगा। तुमसे जाने कब मिल पाएँगे। मेरा इतना सा अधिकार रहने दो तुमपर, किसी दूर देश से चिट्ठियाँ लिखने का। मुझे इसके सिवा कुछ नहीं चाहिए तुमसे। लेकिन मेरे जीने के लिए इतना सा रहने दो। 
तुम्हारी,
(जिसे तुमने एक बार यूँ ही बात बात में पागल कह दिया था)
ज़िंदगी रही तो फिर मिलेंगे।
***
कुछ शौक़ आपको जिलाए रखते हैं। 
मुझे सिगरेट की आदत कभी नहीं रही। लेकिन शौक़ रहा। दोस्तों के साथ कभी एक आध कश मार लिया। लिखते हुए मूड किया तो सिगरेट के खोपचे से दो सिगरेट ख़रीद ली और फूँक डाली। किसी दिन मूड बौराया तो बीड़ी का बंडल उठा लाए और देर रात ओल्ड मौंक पीते रहे और बीड़ी फूँकते रहे। किसी कसैलेपन को मिठास में बदलने की क़वायद करते रहे। 
जब तक किताब नहीं छपी थी अपनी, ज़िंदगी में सिर्फ़ ढाई कप चाय पी थी। पहली बार कॉलेज से एजूकेशनल ट्रिप पर कोलकाता गयी थी...वहाँ टाटा के ऑफ़िस में उन्होंने कुछ समझाते हुए सारी लड़कियों के लिए चाय भिजवायी थी। आधी कप वो, कि ना कहने में ख़राब लगा और पीने में और भी ख़राब। दूसरा कप इक बार दिल्ली में एक दोस्त ने ज़िद करके बनायी, जाड़े के दिन हैं, खाँसी बुखार हो रखा है, मेरे हाथ की चाय पी, जानती हूँ तू चाय नहीं पीती है, मर नहीं जाएगी एक कप पी लेने से। तीसरा कप बार एक एक्स बॉयफ़्रेंड ने प्यार से पूछा, मैं चाय बहुत अच्छी बनाता हूँ, तू पिएगी? तो उसको मना नहीं किया गया। दिल्ली गयी किताब आने के बाद और वहाँ दोस्तों को चाय सिगरेट की आदत। मैं ना चाय पीती थी, ना सिगरेट। फिर प्रगति मैदान में लगे नेसकैफ़े के स्टॉल्ज़ से इलायची वाली चाय पी...इक तो किताबों और हिंदी का नशा और उसपर दोस्त। अच्छी लगी। 
अपने सबसे फ़ेवरिट लेखक के साथ एक सिगरेट पीने की इच्छा थी। उनसे गुज़ारिश की, आपके साथ एक सिगरेट पीने का मन है। उस एक गुज़ारिश के लिए आज भी ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाती हूँ। कि मुझे मालूम नहीं था उन्होंने कई साल से सिगरेट नहीं पी है। मैं कभी ऐसी चीज़ नहीं माँगती। वाक़ई कभी नहीं। इसके अगले दो साल मेरे लिए दिल्ली बुक फ़ेयर यानी ख़ुशी, चाय और सिगरेट हुआ करती थी। लोग मेरी तस्वीरें देख कर कहते, आप बैंगलोर में इतनी ख़ुश कभी नहीं होतीं। 
बैंगलोर आके फिर चाय पीना बंद। सिगरेट बहुत रेयर। पिछले साल कभी कभी चाय पीनी शुरू की। घर पर। अपने हाथ की चाय। फिर पता चला, पहली बार कि मैं वाक़ई बहुत अच्छी चाय बनाती हूँ और लोग जो कहते हैं तारीफ़ में, सच कहते हैं। मगर सिगरेट की तलब एकदम ख़त्म। 
हुआ कुछ यूँ भी कि पिछले साल जिन दोस्तों से मिली, वे सिगरेट नहीं पीते थे। उनके साथ रहते हुए, बहुत सालों बाद ऐसा लगा कि सिगरेट ज़रूरी नहीं है दो लोगों के बीच। कि इसके बिना भी होती हैं बातें। हँसते हैं हम। गुनगुनाते हैं। कि मेरे जैसे और भी लोग हैं दुनिया में जो कॉफ़ी के लिए कभी मना नहीं करेंगे लेकिन चाय देख कर रोनी शक्ल बनाएँगे। कि ज़हर नहीं, लेकिन नामुराद तो है ही चाय।
सिगरेट का कश लिए कितने दिन हुए, अब याद नहीं। शौक़ से विस्की पिए कितने दिन हुए, वो भी याद नहीं। ओल्ड मौंक तो पिछले साल की ही बात लगती है। दिल्ली के कोहरे में मिला के पी थी। 
तो मेरा मोह टूट रहा है...अब इसके बाद जाने क्या ही तोड़ने को जी चाहेगा। सुनो, तुम अपना दिल सम्हाल के रखना।
प्यार। बहुत।
***
छाया गांगुली गा रही हैं...'फ़र्ज़ करो, हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो, दीवाने हों'

'हम' दोनों, क्या हो सकते हैं...फ़र्ज़ करो...दीवाने ही होंगे। 

02 February, 2018

नष्टोमोह

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।

अर्जुन बोले -- हे अच्युत आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।

***
लड़की कहती है, मुझे 'मोह' हो जाता है बहुत। आसक्ति। हमेशा ऐसा नहीं था। पिछले चार साल से मैं कहानी और किरदारों के बीच ही रह रही हूँ। लोगों से बमुश्किल मिली जुली हूँ। साल का एक बुक फ़ेयर और कभी कभार का अपने दोस्तों से मिलना जुलना। एक नियमित ऑफ़िस की जो दिनचर्या होती है और काम में व्यस्त रहने का जो सुख होता है वो काफ़ी दिनों से हासिल नहीं है। 

बहुत ज़्यादा सोचने से होता ये है कि सच की दुनिया और क़िस्सों की दुनिया में अंतर महसूस होना कम हो जाता है। कहानियों के किरदार आम ज़िंदगी की तरह नहीं होते। वे हर फ़ीलिंग को बहुत ज़्यादा गहराई में महसूस करते हैं और जीते हैं, कि उनके ऐसे महसूसने का कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं होता कहीं भी। उन्हें सिर्फ़ जितना सा लिखा गया है उतना जीना होता है। जबकि रियल ज़िंदगी में ऐसा नहीं होता। रियल ज़िंदगी में उतनी गहराई से जीने से मोह होता है। दुःख होता है। याद आती है। हम वर्तमान को जीने की जगह अतीत में जिए हुए को दुबारा रीक्रीएट करते हैं बस।

धीरे धीरे हम इस वलय में घूमने लगते हैं और भूल जाते हैं कि एक रास्ता किसी और शहर को जाता है। हम अपने सफ़र भूल जाते हैं। हम सफ़र में मिलने वाले अजनबियों के क़िस्सों की जगह रखना नहीं चाहते।

ठेस कब किस पत्थर से लग जाए कह नहीं सकते। दोष हमारा है कि हमें ढंग के जूते पहन कर चलना चाहिए ख़तरनाक सड़क पर। मैं अपने तलवे में चुभा इश्क़ का काँच कितने सालों से निकालने की कोशिश कर रही हूँ मगर सिर्फ़ हथेलियाँ लहूलुहान होती हैं...मैं आगे बढ़ नहीं पाती। इतने दुखते पैरों के साथ आगे बढ़ना मुश्किल है। तब भी जब मालूम हो कि आगे अस्पताल है और डॉक्टर शायद मुझे ठीक कर सकेंगे। उनके लिए छोटी सी बात है। किसी को आवाज़ दे कर बुलाया जा सकता है। वो भी नहीं कर पा रही।

इन दिनों सोचती हूँ, वो कौन लड़की थी जिसने तीन रोज़ इश्क़ जैसी कहानी लिखी। जिसे अपना दिल टूट जाने से डर नहीं लगता था। फिर ये कौन लड़की है कि इंतज़ार के किस अम्ल में गल चुकी है पूरी। कि उसे जिलाए रखने का, उसे बचाए रखने की ज़िम्मेदारी उसकी ख़ुद की ही थी ना।

कि मेरे पास बस मोह ही तो है कि जिसलिए मैं लिखती हूँ। चीज़ों को बचा लेने का मोह। इस सब में, थोड़ा सा ख़ुद को बचा ले जाने की उम्मीद भी।जिस दिन मोह टूटता है, मैं भी टूट ही जाती हूँ बेतरह।

कि सिवा इसके, है भी क्या ज़िंदगी में...अर्जुन ने गीता सुन कर कृष्ण से कहा कि उसका मोह नष्ट हो गया और वो लड़ने को तैयार हो गया।

मेरा मोह नष्ट हो जाए तो मैं कुछ भी नहीं लिखूँगी। और फिर, बिना लिखे, मेरा होना कुछ भी नहीं। कुछ भी नहीं तो।

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...