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25 October, 2018

सितम



फ़िल्म ब्लैक ऐंड वाइट है लेकिन मैं जानती हूँ कि उसने सफ़ेद ही साड़ी पहनी होगी। एकदम फीकी, बेरंग। अलविदा के जैसी। जिसमें किसी को आख़िरी बार देखो तो कोई भी रंग याद ना रह पाए। भूलना आसान हो सफ़ेद को। दरवाज़े पर खड़े हैं और उनके हाथ में दो तिहायी पी जा चुकी सिगरेट है। मैं सोचती हूँ, कब जलायी होगी सिगरेट। क्या वे देर तक दरवाज़े पर खड़े सिगरेट पी रहे होंगे, सोचते हुए कि भीतर जाएँ या ना जाएँ। घर को देखते हुए उनके चेहरे पर कौतुहल है, प्रेम है, प्यास है। वे सब कुछ सहेज लेना चाहते हैं एक अंतिम विदा में। 

मिस्टर सिन्हा थोड़ा अटक कर पूछते हैं। 'तुम। तुम जा रही हो?'। वे जानते हैं कि वो जा रही है, फिर भी पूछते हैं। वे इसका जवाब ना में सुनना चाहते हैं, जानते हुए भी कि ऐसा नहीं होगा। ख़ुद को यक़ीन दिलाने की ख़ातिर। भूलने का पहला स्टेप है, ऐक्सेप्टन्स... मान लेना कि कोई जा चुका है। 

मेरा दिल टूटता है। मुझे हमेशा ऐसी स्त्रियाँ क्यूँ पसंद आती हैं जिन्होंने अपने अधिकार से ज़्यादा कभी नहीं माँगा। जिन्होंने हमेशा सिर्फ़ अपने हिस्से का प्रेम किया। एक अजीब सा इकतरफ़ा प्रेम जिसमें इज़्ज़त है, समझदारी है, दुनियादारी है और कोई भी उलाहना नहीं है। उसके कमरे में एक तस्वीर है, इकलौता साक्ष्य उस चुप्पे प्रेम का... अनकहे... अनाधिकार... वो तस्वीर छुपाना चाहती है। 

बार बार वो सीन क्यूँ याद आता है हमको जब गुरुदत्त वहीदा से शिकायती लहजे में कहते हैं, 'दो लोग एक दूसरे को इतनी अच्छी तरह से क्यूँ समझने लगते हैं? क्यूँ?'। 

इंस्ट्रुमेंटल बजता है। 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम'। यही थीम संगीत है फ़िल्म में हीरोईन का। मुझे याद आता है मैंने तुमसे एक दिन पूछा था, 'कौन सा गाना सुन रहे हो?', तुमने इसी गाने का नाम लिया था... और हम पागल की तरह पूछ बैठे थे, कौन सा दुःख है, किसने दिया हसीं सितम तुम्हें। तुम उस दिन विदा कह रहे थे, कई साल पहले। लेकिन मैं कहाँ समझ पायी। 

जिस लम्हे सुख था, उस दिन भी मालूम था कि ज़िंदगी का हिसाब बहुत गड़बड़ है। लम्हे भर के सुख के बदले सालों का दुःख लिखती है। कि ऐसे ही दुःख को सितम कहते हैं। फिर हम भी तो हिसाब के इतने ही कच्चे हैं कि अब भी ज़िंदगी पूछेगी तो कह देंगे कि ठीक है, लिखो लम्हे भर का ही सही, सुख। 

तकलीफ़ है कि घटने की जगह हर बार बढ़ती ही जाती है। पिछली बार का सीखा कुछ काम नहीं आता। बस, कुछ चीज़ें हैं जो जिलाए रखती हैं। संगीत। चुप्पी। सफ़र। 

इन दिनों जल्दी सो जाती हूँ, लेकिन मालूम आज क्यूँ जागी हूँ अब तक? मुझे सोने से डर लग रहा है। कल सुबह उठूँगी और पाऊँगी कि दिल तुम्हें थोड़ा और भूल गया है। फ़ोन पड़ा रहेगा साइलेंट पर कहीं और मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। कि मैं अपने लिखे में भी तुम्हारा अक्स मिटा सकूँगी। कि मैं तुम्हें सोशल मीडिया पर स्टॉक नहीं करूँगी। तुम्हारे हर स्टेटस, फ़ोटो, लाइक से तुम्हारी ज़िंदगी की थाह पाने की कोशिश नहीं करूँगी। कि तुमसे जुड़ा मोह का बंधन थोड़ा और कमज़ोर पड़ेगा। दिन ब दिन। रात ब रात। 
अनुभव कहता है तुम्हें मेरी याद आ रही होती होगी। दिल कहता है, 'चल खुसरो घर अपने, रैन भए चहुं देस'। अपने एकांत में लौट चल। जीवन का अंतिम सत्य वही है।
आँख भर आती है। उँगलियाँ थरथराती हैं। कैसे लिखूँ तुम्हें। किस हक़ से। 
प्यार।

02 May, 2012

गुरुदत्त- चिट्ठियों के झरोखे से

गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब...Yours Guru Dutt, Intimate letters of a great Indian film maker by Nasreen Munni Kabir...से उनकी एक चिट्ठी का कच्चा-पक्का अनुवाद कर रही हूँ. मैंने कभी भी अनुवाद नहीं किया है इसलिए सुधार की गुंजाईश होगी. 

गुरुदत्त की इस किताब में कुल ३७ चिट्ठियां हैं जो उन्होंने गीता दत्त और अपने बेटों तरुण और अरुण को लिखी हैं. गीता दत्त की जवाबी चिट्ठियां बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिलीं हैं. गुरुदत्त चिट्ठियां पढ़ने के बाद उन्हें नष्ट कर देते थे. (ऐसा एक जगह जिक्र आया है). 

इन सारी चिट्ठियों में प्रमुखतः तीन बातें स्पष्ट होती हैं...पहली गीता दत्त के प्रति उनका अगाध प्रेम...उन्होंने हर खत में बार बार इस बात का जिक्र किया है कि वो गीता से कितना प्यार करते हैं. दूसरी...उनके काम को लेकर उनकी दीवानगी...और तीसरी एक विरक्त भाव...एक अमिट प्यास...एक तलाश, एक बेचैन खोज. 

 २१ अगस्त १९५१ को गीता को लिखी एक चिट्ठी में वो कहते हैं...'मुझे सिर्फ दो चीज़ें प्यारी हैं, एक मेरा काम और दूसरी तुम. लेकिन काम करने में जो तसल्ली मिलती है वो तसल्ली तुम मुझे नहीं दे रही हो. बस इसलिए शायद मैं शायद(sic) unhappy हूँ.' 

गुरुदत्त की चिट्ठियों में कई बार इस बात का भी जिक्र आता है कि जब मैं नहीं रहूँगा तब शायद तुम्हें अहसास हो कि मैं तुमसे कितना प्यार करता था. जुलाई १९५८ को कलकत्ता से लिखी एक चिट्ठी में वो कहते हैं...
'जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरी जिंदगी में सब कुछ वक्त से पहले हुआ. जिंदगी में मेरी शुरुआत पहले हुयी...नौकरी...काम करना जल्दी शुरू किया...पहली फिल्म काफी जल्दी बनायी...और कामियाबी भी जल्दी हासिल हुयी...पर मुझे लगता है...मैं बूढा हो रहा हूँ. मैंने जिंदगी में इतना कुछ देखा है...मुझे लगता है बहुत कम सालों में ही मैं बूढा हो गया हूँ! मुझे नहीं मालूम...
और क्या लिखूं...मैं जल्द से जल्द आने की कोशिश करूँगा पर बेहतर होगा कि मैं पहले अपना काम खत्म कर लूं. 
डार्लिंग, जो भी हो, हमेशा याद रखना कि तुम मेरा हिस्सा हो और हमेशा मेरा हिस्सा रहोगी. शायद तुम नहीं जानती कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ. शायद तुम जान नहीं पाओगी कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ. शायद- जब मैं नहीं रहूँगा- तब तुम जान पाओगी. '

खतों में छोटी छोटी काम की चीज़ें लिखी हैं...उनके शहरों के ब्योरे हैं...गीता और बच्चों को बार बार मिस करने की बातें हैं और अनगिन चीज़ों के बीच उनकी अपनी परेशानियां लिखी हैं. इन चिट्ठियों को पढ़ना उन्हें बिना किसी परदे के जानना है...

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मुझे लगता है तुम अभी से मुझसे ऊब गयी हो. मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ- मेरे पास कुछ भी नहीं है. तुम एक ऐसे विचित्र मूर्ख से प्यार करती हो जो ख्वाबों की दुनिया में रहता है- और कभी कभी उसे ख्वाब और वास्तविकता के बीच का अंतर ज्ञात नहीं रहता. और एक दिन तुम मुझसे इस कदर परेशान हो जाओगी कि बेहतर होगा कि तुम मुझसे फिर कभी न मिलो. 

मैं कभी कभी सोचता हूँ कि अच्छा होता अगर मैं पैदा नहीं हुआ होता या फिर मैं सोचता हूँ कि काश मैं मर गया होता या कि मैं वो नहीं होता जो मैं हूँ और मैं नहीं जानता तुम्हें. जिंदगी एक मूर्खतापूर्ण जद्दोजहद है- इसके अंत में भी शांति नहीं मिलती. मैं तुम्हें चाहता हूँ- तुम मुझे नहीं मिलती. तुम मिलती हो तब भी मुझे खुशी नहीं मिलती. मैं एक पागल की तरह उस सुकून की तलाश में दर ब दर भटकता रहता हूँ जो मुझे कहीं नहीं मिलता. मुझे लगता है मेरे जैसे इंसान का मर जाना ही बेहतर है. कुछ यूँ मर जाऊं कि फिर कभी इस मानसिक स्थिति के साथ पैदा न होना पड़े.
तुम सब लोग मुझसे बिलकुल अलग हो. मुझे तुम लोगों की तरह आसानी से खुशियाँ नहीं मिलतीं. इसके अतिरिक्त. तुम सब अच्छे हो. मेरे लिए ऐसा कुछ भी नहीं बचा है जो मुझे बाँध सके.

तुम इसे पढ़ कर शायद मेरे मानसिक संतुलन पर और भी ज्यादा शक करोगी.

अगर तुम्हें वक्त मिले तो अपने इस पागल प्रेमी को आकर देख लो. काश कि तुम्हें किसी बेहतर व्यक्ति से प्यार हुआ होता जो तुम्हारे लायक होता. काश कि मैं जैसा हूँ उससे बेहतर इंसान हो सकता. मैं किसी के काम का नहीं हूँ. न मैं तुम्हें खुश रख सकता हूँ, न अपने परिवार को, न अपने दोस्तों को...ऐसा जीवन का कोई फायदा नहीं है.

मैं वास्तव में बेहद थका और बेज़ार हूँ. तुम्हारे होने से कभी कभी मुझे शांति मिलती है मगर तुम्हारे भी बहुत सारे कर्त्तव्य और बाध्यताएं हैं और तुम मुझसे ज्यादा काबिल हो. अगर तुम्हारी इच्छा हो और तुम मुझे देखना चाहो तो प्लीज मुझे बताना.
G

(चिट्ठियों को पढ़ने के लिए कृपया तस्वीर पर क्लिक करें. गुरुदत्त पर एक और पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं)

24 April, 2012

गुरुदत्त को जानना एक अदम्य, अतृप्त प्यास से पूरा भर जाना है

अवचेतन मन बहुत आश्चर्यजनक होता है...नोस्टाल्जिया की परतों में गहरा गोता लगा कर कौन सी तस्वीर सामने खींच ले आएगा हम नहीं जानते...आश्चर्य होता है कि गुरुदत्त की पहली याद प्यासा के क्लाइमैक्स की है...किसी दिन दूरदर्शन पर आ रहा होगा...ब्लैक एंड वाईट छोटे से टीवी पर. 

फिर गुरुदत्त से गाहे बगाहे टकराती रही...उनके फिल्माए गीत टीवी पर खूब प्ले हुए हैं...प्यासा और कागज़ के फूल जितनी बार टीवी पर आये घर में देखे गए...तो कहीं न कहीं गुरुदत्त बचपन से मन में पैठ बनाते गए थे. कोलेज में फिल्म स्टडी के पेपर में गुरुदत्त हममें से अधिकतर के बेहद पसंदीदा थे...प्यासा और कागज़ के फूल जुबानी याद थीं...कैमरा एंगिल के डीटेल्स के साथ कि श्वेत-श्याम में प्रकाश और छाया का प्रयोग अद्भुत था. मुझे अच्छी सिनेमैटोग्राफी वाली फिल्में वैसी भी बहुत पसंद रही हैं. 

मेरा मानना है कि कला व्यक्तिपरक(subjective) होती है...क्लासिक फिल्मों में भी कुछ बेहद पसंद आती हैं...कुछ एकदम साधारण लगती हैं और समझ नहीं आता है कि दुनिया क्यूँ पागल है इस फिल्म के पीछे. फिल्म या किताब हमें वो पसंद आती है जिसमें कहीं न कहीं कुछ ऐसा मिल जाता है जो हमारे जीवन से जुड़ा होता है...कहीं न कहीं एक कांच का टूटा हुआ टुकड़ा जिसमें हम अपना एक टूटा सा ही सही अक्स देख लेते हैं. ऐसा मुझे लगता है...लोगों की अलग राय हो सकती है. 

फिल्मों पर हमेशा से इंग्लिश में लिखने की आदत कोलेज के कारण रही है... एक्जाम... पेपर... डिस्कसन... सब इंग्लिश में  होता था इसलिए बहुत सी शब्दावली वहीं की है...मगर ध्यान रखने की कोशिश करूंगी कि टेक्नीकल  जार्गन ज्यादा न हो. इधर इत्तिफाक से गुरुदत्त पर कुछ बेहतरीन किताबें मिल गयीं और फिर एक डॉक्युमेंट्री भी मिली, सब कुछ पढ़ते और देखते हुए एक सवाल बार बार कौंधता रहा कि हिंदी फिल्मों पर इतना कुछ इंग्लिश में क्यूँ लिखा गया है. किताब पढ़ कर मेंटली अनुवाद करती रही कि ये कहा गया होगा. आधी चीज़ों का जायका नहीं आता अगर अलग भाषा में लिखा गया है. डॉक्युमेंट्री भी आधी हिंदी आधी इंग्लिश में है...मैं कभी कुछ ऐसा करूंगी तो हिंदी में ही करूंगी. 

पहले रिसर्च डेटा की डिटेल्स: 
1. Yours Guru Dutt- Intimate letters of a great Indian filmmaker(गुरुदत्त के लिखे हुए ३७ ख़त, गीता दत्त और उनके बेटों तरुण और अरुण के नाम.)
2. Guru Dutt - A life in cinema (डॉक्युमेंट्री के सिलसिले में की गयी रिसर्च, कुछ अच्छी तसवीरें और लगभग डॉक्युमेंट्री के डायलोग)
3. In search of Guru Dutt/गुरुदत्त के नाम  (Documentary)
डॉक्युमेंट्री और किताब दोनों नसरीन मुन्नी कबीर की हैं...गुरुदत्त की चिट्ठियों का संकलन भी उन्हीं ने प्रस्तुत किया है. 
4. Ten years with Guru Dutt - Abrar Alvi's journey 
      - by Satya Saran (ये किताब कहीं बेहतर हो सकती थी...मुझे खास नहीं लगी पर कुछ घटनाएं अच्छी हैं जिनके माध्यम से गुरुदत्त की थोट प्रोसेस के बारे में जाने का अवसर मिलता है)

मुझे ये जानना है कि २५ से ३९ साल के अरसे में क्या कुछ सोचा होगा गुरुदत्त ने कि उसकी फिल्में अधिकतर ऑटोबायोग्राफिकल होती थीं...अगर जानना है कि एक आर्टिस्ट का मन कैसा होता है तो गुरुदत्त की फिल्में देखना और उसके बारे में जानना सबसे आसान रास्ता है. डॉक्युमेंट्री अच्छी बनी है...लोगों के इंटरव्यू बहुत कुछ कहते हैं मगर फिर भी बहुत कुछ बाकी रह जाता है...खुद के समझने और खोलने के लिए. 

गुरुदत्त- १४ महीने की उम्र में
गुरुदत्त का जन्म बैंगलोर में हुआ था...उनकी माँ वसंती पादुकोण  कहती हैं...' बचपन से गुरुदत्त बहुत नटखट और जिद्दी था...प्रश्न पूछना उसका स्वाभाव था...कभी कभी उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए मैं पागल हो जाती थी, किसी की बात नहीं मानता था...अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वो मानता था...और गुस्से वाला बहुत था...इम्पल्सिव था, मन में आया तो करेगा ही...जरूर.' 

डॉक्युमेंट्री में बस इतना ही हिस्सा है उनके बारे में...मैं सोचती रह जाती हूँ कि फिल्म मेकर ने कितना एडिट किया होगा जो सिर्फ इतना सा उभर कर आया है...फिर छोटे से गुरुदत्त के बारे में सोचती हूँ...अनगिन सवाल पूछते हुए, बहुत सारी इन्फोर्मेशन मन के कोष्ठकों में कहीं कहीं सकेरते हुए कि उनकी जिंदगी में शायद ऐसा कुछ भी नहीं बीतता था जो उनके नज़र में न आये. किताब में पढ़ते हुए कुछ प्रसंग ऐसे ही दिखते है जो पूरे के पूरे फिल्म में परिवर्तित हो गए. 

गुरुदत्त फिल्म टुकड़े टुकड़े में बनाते थे...फिल्म समय की लीनियर गति से नहीं चलती थी...जहाँ जो पसंद आया उस सीन को फिल्मा लिया गया. गुरुदत्त अनगिनत रिटेक देते थे और सीन को तब तक शूट करते थे जब तक वो खुद और फिल्म के बाकी आर्टिस्ट संतुष्ट न हो जाएं. अबरार अल्वी किताब में कहते हैं कि वो जितनी फुटेज में एक फिल्म बनाते थे उतने में तीन फिल्में बन सकती थीं. गुरुदत्त की फिल्मों की शूटिंग जिंदगी की तरह चलती थी...जैसे जैसे आगे बढ़ती थी किरदार डेवलप होते जाते थे. गुरुदत्त की फिल्म यूनिट में लगभग स्थायी सदस्य होते थे...अबरार अल्वी और राज खोसला के साथ रोज  फिल्म की शूटिंग के बाद ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन होते थे जिसमें रशेस देखे जाते थे और आगे की फिल्म का खाका तय किया जाता था. 

एक मजेदार वाकया है...वहीदा रहमान सुनाती हैं...'वो एक दिन शेव कर रहे थे और मूर्ति साहब के साथ शोट का डिस्कस कर रहे थे...तो हम लोग सब हॉल में बैठे हुए थे तो अचानक आवाज़ आई...उन्होंने इत्ती जोर से अपना रेज़र फेंका और बोले अरे क्या करते हो यार मूर्ति...तुमने बर्बाद कर दिया मुझे...तो मूर्ति साहब एकदम परेशान...मैंने क्या किया...हम तो शोट डिस्कस कर रहे थे...नहीं यार तुमसे शोट डिस्कस करते करते मैं अपनी एक तरफ की मूंछ काट दी, उड़ा दी...तो हम किसी से रहा नहीं गया तो हम हँस पड़े नैचुरली...जोर जोर से...कि तुम लोग हँस रहे हो...आज रात को शूटिंग है मैं क्या करूं...तो फिर मूर्ति साहब ने कहा...गलती आपकी थी, मेरी तो थी नहीं...फिर भी आप मुझे क्यूँ डांट रहे हैं...आप इस तरह कीजिये, दूसरी तरफ की भी मूंछ शेव कर डालिये फिर नयी नकली मूंछ लगानी पड़ेगी आपको...तो जब वो शोट के बारे में खास कर सोच रहे हों तब...बातें कर रहे हों तो सब कुछ भूल जाते थे'. 

आप प्यासा जैसी फिल्म देख कर बिलकुल अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि ये फिल्म बिना किसी फाइनल स्क्रिप्ट की बनी थी...उसमें सब कुछ परफेक्ट है...सारे किरदार जैसे जिंदगी से उठ कर आये हैं. मुझे लगता है फिल्मों में किरदारों की आपसी  केमिस्ट्री इसी बिना स्क्रिप्ट के फिल्म बनने के कारण थी...अभिनेता फिल्म करते हुए वो किरदार हो जाते थे, वैसा सोचने लगते थे, वैसा जीने लगते थे...इसलिए फिल्म में कहीं कोई रूकावट...कोई खटका नहीं होता है. बेहतरीन निर्देशक वही होता है जो सारे अनगिनत रशेस में भी वो दूरदर्शिता रखता है...जिसे पूरी फिल्म मन में बनी दिखती है और उसी परफेक्शन की तलाश में वो अनगिनत रास्तों पर चलता है जब तक कि पूरी सही तस्वीर परदे पर न उतर जाए.

गुरुदत्त पर लिखना बहुत मुश्किल है...पोस्ट भी लम्बी होती जा रही है. अगली पोस्ट में फिर गिरहें खोलने की कोशिश करूंगी कि अद्भुत सिनेमा के रचयिता गुरुदत्त कैसे थे...क्या सोचते थे...कैसी चीज़ें पसंद थीं उन्हें. अगली पोस्ट उनके निजी खतों पर लिखूंगी जो उन्होंने गीता दत्त को और अपने बेटों तरुण और अरुण को लिखीं थीं. 

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