अवचेतन मन बहुत आश्चर्यजनक होता है...नोस्टाल्जिया की परतों में गहरा गोता लगा कर कौन सी तस्वीर सामने खींच ले आएगा हम नहीं जानते...आश्चर्य होता है कि गुरुदत्त की पहली याद प्यासा के क्लाइमैक्स की है...किसी दिन दूरदर्शन पर आ रहा होगा...ब्लैक एंड वाईट छोटे से टीवी पर.
फिर गुरुदत्त से गाहे बगाहे टकराती रही...उनके फिल्माए गीत टीवी पर खूब प्ले हुए हैं...प्यासा और कागज़ के फूल जितनी बार टीवी पर आये घर में देखे गए...तो कहीं न कहीं गुरुदत्त बचपन से मन में पैठ बनाते गए थे. कोलेज में फिल्म स्टडी के पेपर में गुरुदत्त हममें से अधिकतर के बेहद पसंदीदा थे...प्यासा और कागज़ के फूल जुबानी याद थीं...कैमरा एंगिल के डीटेल्स के साथ कि श्वेत-श्याम में प्रकाश और छाया का प्रयोग अद्भुत था. मुझे अच्छी सिनेमैटोग्राफी वाली फिल्में वैसी भी बहुत पसंद रही हैं.
मेरा मानना है कि कला व्यक्तिपरक(subjective) होती है...क्लासिक फिल्मों में भी कुछ बेहद पसंद आती हैं...कुछ एकदम साधारण लगती हैं और समझ नहीं आता है कि दुनिया क्यूँ पागल है इस फिल्म के पीछे. फिल्म या किताब हमें वो पसंद आती है जिसमें कहीं न कहीं कुछ ऐसा मिल जाता है जो हमारे जीवन से जुड़ा होता है...कहीं न कहीं एक कांच का टूटा हुआ टुकड़ा जिसमें हम अपना एक टूटा सा ही सही अक्स देख लेते हैं. ऐसा मुझे लगता है...लोगों की अलग राय हो सकती है.
फिल्मों पर हमेशा से इंग्लिश में लिखने की आदत कोलेज के कारण रही है... एक्जाम... पेपर... डिस्कसन... सब इंग्लिश में होता था इसलिए बहुत सी शब्दावली वहीं की है...मगर ध्यान रखने की कोशिश करूंगी कि टेक्नीकल जार्गन ज्यादा न हो. इधर इत्तिफाक से गुरुदत्त पर कुछ बेहतरीन किताबें मिल गयीं और फिर एक डॉक्युमेंट्री भी मिली, सब कुछ पढ़ते और देखते हुए एक सवाल बार बार कौंधता रहा कि हिंदी फिल्मों पर इतना कुछ इंग्लिश में क्यूँ लिखा गया है. किताब पढ़ कर मेंटली अनुवाद करती रही कि ये कहा गया होगा. आधी चीज़ों का जायका नहीं आता अगर अलग भाषा में लिखा गया है. डॉक्युमेंट्री भी आधी हिंदी आधी इंग्लिश में है...मैं कभी कुछ ऐसा करूंगी तो हिंदी में ही करूंगी.
पहले रिसर्च डेटा की डिटेल्स:
1. Yours Guru Dutt- Intimate letters of a great Indian filmmaker(गुरुदत्त के लिखे हुए ३७ ख़त, गीता दत्त और उनके बेटों तरुण और अरुण के नाम.)
2. Guru Dutt - A life in cinema (डॉक्युमेंट्री के सिलसिले में की गयी रिसर्च, कुछ अच्छी तसवीरें और लगभग डॉक्युमेंट्री के डायलोग)
3. In search of Guru Dutt/गुरुदत्त के नाम (Documentary)
डॉक्युमेंट्री और किताब दोनों नसरीन मुन्नी कबीर की हैं...गुरुदत्त की चिट्ठियों का संकलन भी उन्हीं ने प्रस्तुत किया है.
4. Ten years with Guru Dutt - Abrar Alvi's journey
- by Satya Saran (ये किताब कहीं बेहतर हो सकती थी...मुझे खास नहीं लगी पर कुछ घटनाएं अच्छी हैं जिनके माध्यम से गुरुदत्त की थोट प्रोसेस के बारे में जाने का अवसर मिलता है)
मुझे ये जानना है कि २५ से ३९ साल के अरसे में क्या कुछ सोचा होगा गुरुदत्त ने कि उसकी फिल्में अधिकतर ऑटोबायोग्राफिकल होती थीं...अगर जानना है कि एक आर्टिस्ट का मन कैसा होता है तो गुरुदत्त की फिल्में देखना और उसके बारे में जानना सबसे आसान रास्ता है. डॉक्युमेंट्री अच्छी बनी है...लोगों के इंटरव्यू बहुत कुछ कहते हैं मगर फिर भी बहुत कुछ बाकी रह जाता है...खुद के समझने और खोलने के लिए.
गुरुदत्त- १४ महीने की उम्र में |
गुरुदत्त का जन्म बैंगलोर में हुआ था...उनकी माँ वसंती पादुकोण कहती हैं...' बचपन से गुरुदत्त बहुत नटखट और जिद्दी था...प्रश्न पूछना उसका स्वाभाव था...कभी कभी उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए मैं पागल हो जाती थी, किसी की बात नहीं मानता था...अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वो मानता था...और गुस्से वाला बहुत था...इम्पल्सिव था, मन में आया तो करेगा ही...जरूर.'
डॉक्युमेंट्री में बस इतना ही हिस्सा है उनके बारे में...मैं सोचती रह जाती हूँ कि फिल्म मेकर ने कितना एडिट किया होगा जो सिर्फ इतना सा उभर कर आया है...फिर छोटे से गुरुदत्त के बारे में सोचती हूँ...अनगिन सवाल पूछते हुए, बहुत सारी इन्फोर्मेशन मन के कोष्ठकों में कहीं कहीं सकेरते हुए कि उनकी जिंदगी में शायद ऐसा कुछ भी नहीं बीतता था जो उनके नज़र में न आये. किताब में पढ़ते हुए कुछ प्रसंग ऐसे ही दिखते है जो पूरे के पूरे फिल्म में परिवर्तित हो गए.
गुरुदत्त फिल्म टुकड़े टुकड़े में बनाते थे...फिल्म समय की लीनियर गति से नहीं चलती थी...जहाँ जो पसंद आया उस सीन को फिल्मा लिया गया. गुरुदत्त अनगिनत रिटेक देते थे और सीन को तब तक शूट करते थे जब तक वो खुद और फिल्म के बाकी आर्टिस्ट संतुष्ट न हो जाएं. अबरार अल्वी किताब में कहते हैं कि वो जितनी फुटेज में एक फिल्म बनाते थे उतने में तीन फिल्में बन सकती थीं. गुरुदत्त की फिल्मों की शूटिंग जिंदगी की तरह चलती थी...जैसे जैसे आगे बढ़ती थी किरदार डेवलप होते जाते थे. गुरुदत्त की फिल्म यूनिट में लगभग स्थायी सदस्य होते थे...अबरार अल्वी और राज खोसला के साथ रोज फिल्म की शूटिंग के बाद ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन होते थे जिसमें रशेस देखे जाते थे और आगे की फिल्म का खाका तय किया जाता था.
एक मजेदार वाकया है...वहीदा रहमान सुनाती हैं...'वो एक दिन शेव कर रहे थे और मूर्ति साहब के साथ शोट का डिस्कस कर रहे थे...तो हम लोग सब हॉल में बैठे हुए थे तो अचानक आवाज़ आई...उन्होंने इत्ती जोर से अपना रेज़र फेंका और बोले अरे क्या करते हो यार मूर्ति...तुमने बर्बाद कर दिया मुझे...तो मूर्ति साहब एकदम परेशान...मैंने क्या किया...हम तो शोट डिस्कस कर रहे थे...नहीं यार तुमसे शोट डिस्कस करते करते मैं अपनी एक तरफ की मूंछ काट दी, उड़ा दी...तो हम किसी से रहा नहीं गया तो हम हँस पड़े नैचुरली...जोर जोर से...कि तुम लोग हँस रहे हो...आज रात को शूटिंग है मैं क्या करूं...तो फिर मूर्ति साहब ने कहा...गलती आपकी थी, मेरी तो थी नहीं...फिर भी आप मुझे क्यूँ डांट रहे हैं...आप इस तरह कीजिये, दूसरी तरफ की भी मूंछ शेव कर डालिये फिर नयी नकली मूंछ लगानी पड़ेगी आपको...तो जब वो शोट के बारे में खास कर सोच रहे हों तब...बातें कर रहे हों तो सब कुछ भूल जाते थे'.
आप प्यासा जैसी फिल्म देख कर बिलकुल अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि ये फिल्म बिना किसी फाइनल स्क्रिप्ट की बनी थी...उसमें सब कुछ परफेक्ट है...सारे किरदार जैसे जिंदगी से उठ कर आये हैं. मुझे लगता है फिल्मों में किरदारों की आपसी केमिस्ट्री इसी बिना स्क्रिप्ट के फिल्म बनने के कारण थी...अभिनेता फिल्म करते हुए वो किरदार हो जाते थे, वैसा सोचने लगते थे, वैसा जीने लगते थे...इसलिए फिल्म में कहीं कोई रूकावट...कोई खटका नहीं होता है. बेहतरीन निर्देशक वही होता है जो सारे अनगिनत रशेस में भी वो दूरदर्शिता रखता है...जिसे पूरी फिल्म मन में बनी दिखती है और उसी परफेक्शन की तलाश में वो अनगिनत रास्तों पर चलता है जब तक कि पूरी सही तस्वीर परदे पर न उतर जाए.
गुरुदत्त पर लिखना बहुत मुश्किल है...पोस्ट भी लम्बी होती जा रही है. अगली पोस्ट में फिर गिरहें खोलने की कोशिश करूंगी कि अद्भुत सिनेमा के रचयिता गुरुदत्त कैसे थे...क्या सोचते थे...कैसी चीज़ें पसंद थीं उन्हें. अगली पोस्ट उनके निजी खतों पर लिखूंगी जो उन्होंने गीता दत्त को और अपने बेटों तरुण और अरुण को लिखीं थीं.
पता है हर ब्लॉग के पढ़ने का मेरा एक मूड होता है, और जब होता है तभी पढता हूँ..शायद इसलिए आपके ब्लॉग के पिछले तीन पोस्ट पढ़े नहीं मैंने...सोचा था पढूंगा, लेकिन आज गुरुदत्त के बारे में आपने लिखा और पिछले कुछ दिनों से आप इनकी चर्चा करती रहीं, तो बिना पढ़े रहा ही नहीं गया...
ReplyDeleteमैंने प्यासा फिल्म पहले भी देखी थी, बचपन में..लेकिन अच्छे से तब देखी जब मैं इंजीनियरिंग के पांचवें सेमेस्टर में था..सी.डी खरीदी थी इस फिल्म की..घर लेकर गया वो सीडी तो पता चला की माँ को भी गुरुदत्त पसंद थे...एक दो युहीं कॉमन से किस्से सुने भी उनसे मैंने..शायद उसी समय से गुरुदत्त के फिल्मों के प्रति मेरा इंटरेस्ट बढ़ा...
और ये पोस्ट तो कमाल की है, सीरीज युहीं जारी रखियेगा ताकि हमें भी अच्छे अच्छे किस्से सुनने को मिले उनके!!
बहुत ही बढ़िया पोस्ट है!!
शुक्रिया अभी...सोच रही हूँ कि इसपर विस्तार से लिखूं. ऐसा कुछ लिखना बहुत समय खाता है मेरा...एक पोस्ट लिखने के लिए पूरा दिन लग जाता है और ध्यान देकर पढ़ना पड़ता है...नोट्स बनाने होते हैं...तब भी जो लिखती हूँ उसमें सुधार की हज़ार गुंजाइशें दिखती हैं कि ये पक्ष छूट रहा है, जो सोच रही हूँ ठीक ठीक शब्दों में आया कि नहीं...
Deleteपूरी कोशिश करूंगी कि कमसे कम कुछ और पोस्ट तो गुरुदत्त या फिल्मों पर लिख ही दूं.
फिल्म को पहले से बाँधना सृजनात्मकता के साथ अन्याय है, नहीं बाँधना समय के साथ।
ReplyDeletesaarthak post, aabhaar.
ReplyDeleteगुरुदत्त फिल्म मेकिंग का इनसाइक्लोपीडिया हैं, उनकी फिल्मों के शोट सेलेक्शन वाकई अदभुत होते थे | उस समय जो तकनीकी उपलब्ध थी उसको देखते हुए तो और भी लगता है कि कैसे शूट किये होंगे | "ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है " गीत के पिक्चराईजेशन में जो मूविंग कैमरा प्रयोग में लाया गया है वो वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है | कसी हुई स्क्रिप्ट, बेहतरीन संगीत और सबसे बड़ी बात गीत कहानी में गुंथे हुए, जो कहीं से बनावटी नहीं लगते | मैं खुद बहुत बड़ा फैन हूँ |
ReplyDeleteबाकी इन समीक्षाओं, डॉक्यूमेंट्री को हिंदी में पढ़ना सुनना अच्छा लगेगा |
मैं जानना चाहता हूँ कि एक अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकार में किस तरह आत्मघात की तीव्र प्रवृत्तियां घर करने लगती है.क्यों उनका जीवन पतझड़ की उदास शाम में खाली पड़ी बेंच सा हो जाता है.कुछ ऐसा ही गुरुदत्त के साथ भी था न?
ReplyDeleteबहुत पसंद आया गुरुदत्त पर इस तरह शुरू करना.श्रंखला जारी रहे.
कल इस पक्ष पर रौशनी डालते हुए लिखने की कोशिश करती हूँ...गुरुदत्त वैसे क्यूँ थे बहुत हद तक समझ आता है मुझे. यहाँ लिखना शुरू करूंगी तो पोस्ट यहीं बन जायेगी :) डीटेल में लिखती हूँ.
Deleteपसंद करने का शुक्रिया...कोशिश करूंगी कि गुरुदत्त को जितना समझती हूँ पन्नों पर उकेर सकूं.
मैंने अभी कुछ दिन पहले ही वो ३७ चिट्ठियाँ पढ़ीं.....खूब रोयी..कितने दिन मन भी खराब रहा ..सब जीनियस ऐसे क्यूँ होते हैं?
ReplyDeleteचिट्ठियां पढ़ने पर इतना उदास होने जैसी कोई बात तो मुझे नहीं दिखी...एक कलाकार के जीवन में इतनी उथल-पुथल तो लिखी होती है...इसके बिना उसमें सृजन करने की इच्छा जन्म नहीं लेगी. रचना हमेशा पीड़ा से उपजती है...मुझे उनकी चिट्ठियां एक बेहद संवेदनशील और कुछ उलझे व्यक्तित्व की झलक दिखाती महसूस हुयीं.
Deleteलेकिन...अपना अपना नजरिया है...शायद मैं objective hokar ise approach kar rahi hoon aur aap subjective hokar.
हाँ..पूजा,हर का अपना-अपना नज़रिया है .मैं दुखी उनकी उलझनों को लेकर और उनकी बार बार कही इस बात को लेकर हुई ..कि ,मैं तुम्हें क्या दे पाउँगा...तुम किसी और से शादी करतीं ..मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ..जब मैं चला जाऊँगा ,तब ...
Deleteपूजा..इस बात से सहमत हूँ कि पीड़ा,दुःख सर्जन में जितना सहायक होते हैं ..उतनी सहायता खुशी नहीं करती.
तुम खूब लिखो...बहुत अच्छा लिखती हो...सीधा दिल में उतर जाता है .
सनीमा के बारे मंs एतना जानकारी हमरा के नइखे..बाकी गुरुदत्त के बारे मंs तोहार लिखल थीसिस पढ़े के आनन्द कुछ अस्पेसल बा।
ReplyDelete@ मैं कभी कुछ ऐसा करूंगी तो हिंदी में ही करूंगी.
हिन्दी खातिर तोहार परेम से अभिभूत बानी। हम जानतानी पूजा एक दिन मील का पत्थर ज़रूर बनी। तोहार क्रिएटिविटी अद्भुते बा। परतीक्षा करब ...
:) :) हमनी भोजपुरी बूझातानी लेकिन बोली नइखे आइल बा.
Deleteलिखती हूँ आगे :)
गंरुदत्त की बातें करते लहरें, अलग सा लय पा रही हैं, सधी हैं, आगे प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteगुरुदत्त मेरे पसंदीदा निर्देशक हैं...कोशिश करूंगी आगे भी कड़ी में उनकी विचार प्रक्रिया पर कुछ रौशनी डाल सकूं.
Deleteaur post kariye Guruudutt par ...
ReplyDeleteअभी एक बार पढ के जा रहा हूं । सच कहूं तो आज ऐसे ही लेखन की बहुत जरूरत है पूजा जी । हिंदी अंतर्जाल के लिए और हिंदी के पाठकों के लिए । पिछली पोस्टों को भी पढने का मन है । आता हूं फ़ुर्सत से जल्दी ही । और हां अगली पोस्टों की प्रतीक्षा रहेगी मुझे भी
ReplyDeleteहिंदी अंतरजाल और हिंदी का पाठक तो पता नहीं क्या पढ़ना चाहता है...हम तो यहाँ वो लिखते रहते हैं जो हम लिखना चाहते हैं :) :)
ReplyDeleteआगे की पोस्ट्स आएँगी...इसे खत्म करूँ तो कुछ और सोचने की जगह बचे...अभी पूरा दिन गुरुदत्त साहब अपने नाम लिखवा देते हैं.
बिलकुल अलग थलग. गुरुदत्त जी का मैं बचपन से प्रशंशक रहा हूँ. आभार.
ReplyDeleteपूजा , गुरुदत पे लेख जारी रखना .....
ReplyDeleteअपना बचपन और जवानी के यादेँ कौन याद नही करना
चाहेगा .....एहसासों को महसूस करने का संगम! नाम गुरुदत!
खुश रहो !
मुझे भी गुरुदत्त पर लिखे अगले पोस्ट का इंतज़ार रहेगा ......., मैं आपका ब्लॉग काफी टाइम से पढ़ रहा हूँ ...काफी अच्छा लिखती हैं . गुरुदत्त मेरे भी पसंदीदा हैं .
ReplyDeleteफिल्म या किताब हमें वो पसंद आती है जिसमें कहीं न कहीं कुछ ऐसा मिल जाता है जो हमारे जीवन से जुड़ा होता है...
ReplyDeleteबिल्कुल सहमत हूँ इस बात से। अबरार अलवी की किताब के कुछ अंश पढ़े थे जब वो अहा जिंदगी में छपा था। वैसे मुझे ये पोस्ट छोटी लगी..शायद गुरुदत का पेचीदा व्यक्तित्व इसकी वज़ह हो।
बहुत अच्छे। आगे की कथा का इंतज़ार है।
ReplyDeleteअनायास, यकायक इस ब्लाग पे पहुंच गया । दो-तीन बार पढ़ा Content, subject, style, diction,structure.. सभी आयाम वश में कर लिये ।... अप्रतिम !!
ReplyDeleteशुक्रिया Rushikesh। इतनी पुरानी पोस्ट पर आप जाने क्या तलाशते हुए आए अनायास चले आए...सुखद रहा आपका आना और बताना भी।
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