29 January, 2018

तुम्हीं कहो, तुम्हें अमलतास पसंद हैं?

आधी लिखी हुयी चिट्ठियाँ हैं। कुछ अजीब से ख़याल हैं कि किसी के लिए सफ़ेद कुर्ते पर काढ़ दूँ आसमानी बेल बूटे। उसे मालूम हो कि फूलों की अपनी लिपि होती है, भाषा होती है। मैं क्या ही कहूँ उससे। तुम्हारी हँसी अच्छी लगती है मुझे। कि मैं घर देखने गयी थी कल दोपहर और वहाँ एक घर की छत पर मिट्टी में कुछ बड़े पौधे लगे हुए थे, मेरा वहाँ निम्बू का पेड़ उगाने का मन किया। 

मेरे क़िस्सों में भटके हुए लोग हैं। वो कौन था जिसके साथ मैं कहाँ जा रही थी... उसने रास्ते में मुझे रोका और एक पौधे से तोड़ी हुयी पत्तियाँ मसलीं अपनी हथेलियों के बीच और फिर दोनों हथेलियाँ खोल कर कहा, सूँघो..वो गंध कहाँ मिलेगी? उसकी पसीजी हुयी उँगलियों के बीच मसले गए पत्तों की? 

किसी पर अनाधिकार उमड़ता प्यार है।

किसी के घर के परदों पर लिखी कविता के अक्षर हैं। याद में भी बिखरे बिखरे। रोशनी की कंदीलें हैं। 

मैं किन चीज़ों की बनी हूँ? धूप और फूलों की? अंधेरे और अम्ल की?

मैं तुम्हारे लिए अपने क़िस्सों के शहर में एक अमलतास का पेड़ लगा दूँ? तुम कहो, 'तुम्हें अमलतास पसंद हैं?'। मौसमों में वसंत या फिर बारिश?

मेरे ख़यालों में ऐसे पौधे उगते हैं...किसी की वर्क डेस्क पर रखा हुआ एक छोटा सा अमलतास का पेड़ जिसपर भर भर अमलतास खिले हैं। नहीं। बोनसाई नहीं। किसी दूसरी दुनिया से लाया हुआ पौधा। कि इस दुनिया में कहीं ऐसी कोई जगह है जहाँ अमलतास के पेड़ हों और उनके नीचे आराम से सोया जा सके महबूब की गोद में सर रख कर? गिरते रहें अमलतास के पीले फूल, चुपचाप हमारे इर्दगिर्द।

कितनी अधूरी ख़्वाहिशें जी रही हैं कहानी के किरदारों में?

इस दुनिया में इतना प्यार बचा है कि किसी की आँखें रंग सकूँ कत्थे के रंग से? ख़ुर्री। गहरा लाल और काला मिला कर रचूँ किसकी आँखें। अंधरे में रचा हुआ प्रेम गुनाहों की गंध लिए आता है। मैंने कितने साल से किसी को महबूब नहीं कहा है। और जान? कब कहा था किसी को?

इतरां। पूछती है मुझसे। आँख डबडबाए हुए। क्यूँ लिख रही हो ऐसी पनियाली आँखें। ईश्वर तुम्हें दुःख देता है तो तुम्हें अच्छा लगता है? नहीं ना। काजल अच्छा लगता है मेरी आँख में भी। इतना पानी रखने को कोई छोटा सा समंदर लिख दो। मेरी आँखें ही क्यूँ?

मिट्टी अत्तर का शहर होना

Have you ever had a longing for a city you never visited?
मुझे समझ नहीं आता कि प्यार कैसे होता है। किसी भी चीज़ से। आख़िर कैसे हो सकता है कोई शहर हूक जैसा?

कन्नौज के बारे में पहली बार कोई पाँच-छह साल पहले अख़बार में पढ़ा था। एक ऐसा शहर जहाँ मिट्टी अत्तर बनता है। इस शहर के बारे में, ख़ुशबुओं के बारे में कहानियाँ मुझ तक पहुँचती रहीं। तीन रोज़ इश्क़ में जो 'ख़ुशबुओं के सौदागर' की कहानी है, वो एक ऐसी तलाश है...कल्पना की ऐसी उड़ान है जो मैं भर नहीं सकती। ये वैसे सपने हैं जो मेरी कहानियों की दुनिया में देखती हूँ मैं। 

ख़ुशबुएँ मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। बचपन में ख़ुशबू वाले रबर बहुत दुर्लभ होते थे और सहेज के रखे जाते थे। मैं जब टू या थ्री में पढ़ती थी तो मेरे स्कूल के बग़ल के एक मैदान में स्पोर्ट्स डे होता था। वहाँ एक लगभग कटा हुआ पेड़ था। कुछ ऐसे गिरा हुआ कि उसपर बैठा जा सकता था। मैंने उसकी लकड़ी क्यूँ सूंघी मुझे मालूम नहीं। लेकिन उसमें एक ख़ुशबू थी। कुछ कुछ तारपीन के तेल की और कुछ ऐसी जो मुझे समझ नहीं आयी। उस पेड़ की लकड़ी का एक टुकड़ा मेरे पेंसिल बॉक्स में दसवीं तक हुआ करता था। मैं उसे निकाल के सूँघती थी और मुझे ऐसा लगता था कि मेरी पेंसिल और क़लम सब उसके जैसी महकती है। 

छह साल पहले टाइटन ने अपने पर्फ़्यूम लौंच किए थे। Titan Skinn। वो प्रोजेक्ट मैंने अपनी पिछली कम्पनी में किया था। लौंच के लिए पहले ख़ूब सी चीज़ें पढ़ी थीं।इत्र के बारे में। शायद, मुझे ठीक से याद नहीं...पर उन्हीं दिनों लैवेंडर के खेतों के बारे में पहली बार पढ़ा था। उस ख़ुशबू के ख़याल से नशा हो आया था।

मैं नहीं जानती मेरा उपन्यास कब पूरा होगा। लेकिन उसके पूरे होने के पहले कुछ शहर मेरी क़िस्मत में लिखे हैं। न्यू यॉर्क एक ऐसा शहर था। वहाँ की कुछ झलकियाँ कहानी में बस गयी हैं। अब जो दूसरा शहर चुभ रहा है आज सुबह से, वो कन्नौज है। मैंने उसका नाम इतरां क्यूँ रखा? इत्र से इतरां...जाने क्यूँ लगता है कि उसे समझने के लिए अपने देश में रहते हुए इत्र के इस शहर तक जाना ही होगा। 

आज थोड़ा सा पढ़ने की कोशिश की है शहर के बारे में। सुबह से कन्नौज के बारे में क्यूँ सोच रही थी पता नहीं। सुबह एक दोस्त से बात करते हुए कहा उसे कि जोधपुर गयी थी, वहाँ मिट्टी अत्तर देखा। क़िले में। मुझे एक बार जाना है वहाँ दुबारा। फिर वो कह रहा था कि कन्नौज में भी बनता है। कि कन्नौज उसके घर के पास है। आप मेरे साथ चलिए। और मैं सोच रही थी। कभी कभी। कि लड़का होती तो कितना आसान होता ना, ऐसे मूड होने पर किसी शहर चले जाना। जिस वीकेंड टिकट सस्ती होती, दिल्ली चल लेते या लखनऊ और फिर कन्नौज। पहली बार मैप्स में देखा कि कन्नौज कहाँ पर है। और सोचा। कि कितने दूर लगते है ये सारे शहर ही बैंगलोर से।

मेरे ख़यालों में उस शहर से उठती मिट्टी अत्तर की गंध उड़ रही है। बारिश में भीगती गंध। मैं पटना वीमेंस कॉलेज में जब पढ़ती थी तो माँ सालों भर मुझे छतरी रख के भेजती थी बैग में। कि ग़लती से भी कहीं बारिश में ना फँस जाऊँ। उस रोज़ मैं उस लड़के से मिली थी, कॉलेज का सेकंड हाफ़ बंक कर के। बचपन का दोस्त और फिर लौंग डिस्टन्स बॉयफ़्रेंड। जिसे मैंने समोसे के पैसे बचा बचा कर PCO से कॉल किए थे ख़ूब। पर मिली थी तीन साल में पहली बार।हम सड़क पर टहल रहे थे। बहुत बहुत देर तक। पहली बार उस दिन छाता लाना भूल गयी थी। मौसम अचानक से बदल गया था। एकदम ही बेमौसम बरसात। मैं बेहद घबरा गयी थी। भीग के जाऊँगी तो माँ डाँटेगी। भीगने से नहीं, डांट के डर से...मैं घबराहट में थरथरा रही थी। बचपन के बेफ़िकर दिनों के बाद मैं कभी बारिश में नहीं भीगी थी। कई कई कई सालों से नहीं। और बारिश ने मौक़ा देख कर धावा बोला था। मैं बड़बड़ कर रही थी। आज तो मम्मी बहुत डाँटेगी। अब क्या करेंगे। मैं सुन ही नहीं रही थी, लड़का कह क्या रहा है। उसने आख़िर मेरे काँधे पकड़े अपने दोनों हाथों से...मुझे हल्के झकझोरा और कहा...'पम्मी, ऊपर देखो'। मैंने चेहरा ऊपर उठाया। वो लगभग छह फ़ुट लम्बा था। उसका चेहरा दिखा। पानी में भीगा हुआ। बेहद ख़ूबसूरत और रूमानी। और फिर मैंने चेहरे पर बारिश महसूस की। पानी की बूँदों का गिरना महसूस किया। मैं भूल गयी थी कि चेहरे पर बारिश कैसी महसूस होती है। 

मैं कन्नौज नहीं। उस पहली बारिश को खोज रही हूँ। कि आज भी जब बारिश में भीगने चलती हूँ तो चेहरा बारिश की ओर करते हुए लगता है आँखों को उसकी आँखें थाम लेंगी। भीगी हुयी मुस्कुराती आँखें। काँधे पर उसके हाथों की पकड़। कि वो होगा साथ। मुझे झकज़ोर के महसूस कराता हुआ। 
कि बारिश और मुहब्बत में। भीगना चाहिए।
कि किसी गंध के पीछे बावली होकर कोई शहर चल देने का ख़्वाब बुनना भी ठीक है। कि ज़िंदगी कहानियों से ज़्यादा हसीन है। 


कन्नौज। सोचते हुए दिल धड़कता है। कि लगता है इतरां की कहानी का कोई हिस्सा उस शहर में मेरा इंतज़ार कर रहा है। कि जैसे बहुत साल पहले बर्न गयी थी और लगा था कि इस शहर से कोई रिश्ता है, बहुत जन्म पुराना। आज वैसे ही जब अपने दोस्त से बात कर रही थी तो लगा कि शहर जैसे अचानक से materialize कर गया है। कि अब तक यक़ीन नहीं था कि शहर है भी। मगर अब लगता है कि ऐसा शहर है जिसे महसूसा जा सकता है। कलाई पर रगड़ी जा सकती है जिसकी गंध। 

कि शहर लिख दिया है दुआओं में। कभी तो रिसीव्ड की मुहर लगेगी ही।
अस्तु।

24 January, 2018

इक्कीस सितम्बर, दो हज़ार पाँच।

तुम्हें वो दुपहरें कभी याद नहीं रहेंगी। सुनहली धूप की वो दुपहरें। नीले परदे खींच कर थोड़ी ठंढ बुलाया करते थे। आँखों पर रखते थे ठंढी हथेलियाँ। गुलदान में उन दिनों रजनीगंधा की कलियाँ और गुलाब हुआ करते थे। उन दिनों तीखी नहीं लगती थी रजनीगंधा की गंध। उन दिनों शायद हम कुछ ज़्यादा ही तीखे हुआ करते थे। मुझे तुम्हारे कुर्ते की गंध आज भी याद है। कपास की धुली गंध।पानी और घरेलूपन की गंध। फीकी।और वो टेक्स्चर मेरी उँगलियों को कभी नहीं भूलता। तुम्हारे कुर्ते का टेक्स्चर। हल्का रफ़। हैंडलूम के कपड़े में पड़ी गाँठें कहीं कहीं।

वो एक दोपहर थी। शायद ऐसी कोई पहली ठहरी हुयी दोपहर जो मैंने किसी के साथ पूरी बितायी थी। फ़र्श पर चटाई और उसके ऊपर पतला सा गद्दा। चादर धुली हुयी बिछाई थी। पुरानी, आरामदेह चादर। उन दिनों मुझे बिना तकिए के सोने की आदत थी। हमने काफ़ी देर से कुछ नहीं कहा था। हम बस, सोए हुए थे। एक दूसरे से क़रीब एक फ़ुट की दूरी पर कि एक दूसरे का चेहरा अच्छे से देख सकें। दिन के साथ कमरे में रोशनी बदलती जाती है, पहली बार महसूसा था। बदलती रौशनी में तुम्हारा चेहरा। तुम्हारी आँखें। वो भी याद हैं। यूँ ही वसंत के दिन थे। हमें प्यार हुए ज़्यादा दिन नहीं हुआ था। दीवाल पर अभी भी हमारे मिलने की तारीख़ लिखी हुयी थी। इक्कीस सितम्बर, दो हज़ार पाँच।

इसके पहले मेरे लिए प्रेम हमेशा लम्बी दूरी का रहा था। प्रेम का मतलब चिट्ठियाँ, ईमेल, काढ़े हुए रूमाल, डेरी मिल्क के रैपर और सूखे गुलाब हुआ करते थे। इस बार प्रेम एक हाथ बढ़ाने की दूरी पर था और मैं हाथ बढ़ाने के पहले ठहरी हुयी थी। तुम मेरी दायीं ओर थे। मैंने अपनी दायीं हथेली तुम्हारे बाएँ गाल पर रखी थी। तुम्हें छुआ था। यक़ीन दिलाया था ख़ुद को। कि तुम हो। इस पूरे वक़्त। छू सकने वाली दूरी पर। 

मैं तुम्हारी आँखों में देख रही थी। गहरी भूरी आँखें। वॉर्म। उस लम्हे ज़िंदगी में पहली बार महसूस हुआ। मैं तुम्हें बूढ़े होते देखना चाहती हूँ। ज़िंदगी के अलग अलग फ़ेज़ेज़ में तुम्हारे चेहरे के बदलावों को देखना चाहती हूँ। मैं देखना चाहती हूँ जब तुम्हारे बालों में चाँदी उतरे। सॉल्ट एंड पेपर हों। जब तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ हों लेकिन तुम्हारा चेहरा एक ख़ुश और उदार चेहरा हो कि तुमने एक अच्छी ज़िंदगी जी हो। मैं वाक़ई, सिर्फ़ तुम्हारे साथ एक पूरी उम्र बिताना चाहती थी। उस वक़्त सोच रही थी। अब से पाँच साल बाद हम जाने कहाँ होंगे। दस साल बाद जाने कहाँ। और उम्र ख़त्म होने को आए, तब जाने कहाँ। 

तुम जानते हो, ये मेरी ज़िंदगी में पहली और आख़िरी बार था जब मैंने प्रेम किया था और उसमें एक हमेशा की चाह की थी, मृत्यु की नहीं।

मुझे तुम्हें देखे एक दशक से ऊपर हो जाएगा ये सोचा कहाँ था उस वक़्त। पता नहीं तुम कितनी नफ़रत करते हो मुझसे। तुमने कहा, तुम ज़िंदगी भर नहीं मिलना चाहते मुझसे। ज़िंदगी भर। तुम जिस लड़की को जानते थे, मैं वो नहीं रही रे। अब मेरी ज़िंदगी...तुम्हारी ज़िंदगी भर नहीं रहेगी शायद।

बिना मिले चली जाऊँगी, तो तुम्हारी याद में वैसी ही रह जाऊँगी ना जैसी दस साल पहले थी? इक छोटे से पहाड़ी टीले के सबसे ऊँचे पत्थर पर तेज़ हवा में दुपट्टा उड़ाती पागल लड़की...जो तुमसे बहुत बहुत प्यार करती थी।

जो तुमसे बहुत बहुत प्यार करती है।
लव इन द टाइम औफ़ कालरा फ़्लॉरेंटीनो को उसका चाचा कहता है, 'तुम बिलकुल अपने पिता की तरह हो, तुम्हारे पिता को एक ही अफ़सोस था, मरते हुए उसने कहा, "मुझे इसी बात का अफ़सोस है कि मैं प्रेम के लिए नहीं मर रहा"। 

फ़िल्म देखते हुए कभी कभी लगता है। ये कैसा रूमान है...कैसा पागलपन। किसी के इंतज़ार में अपनी पूरी ज़िंदगी बिता देना। क्या प्रेम वाक़ई सिर्फ़ एक बार होता है लोगों को? इतना गहरा प्रेम। ऐसा पागलपन। क्या प्यार सिर्फ़ उम्र पर निर्भर करता है? इस उम्र में वो यक़ीन क्यूँ नहीं होता जो बीस की उम्र में होता था। वो दुःख नहीं होता जो सोलह की उम्र में होता था।

इन दिनों दुःख भी कॉम्प्लिकेटेड हो गए हैं। दुःख का भी सही ग़लत होता है। काला सफ़ेद सियाह सलेटी। कुछ दुःख ऐसे भी होते हैं कि महसूसने पर गुनाहों का अलग काँटा चुभता है। दुःख जिनका बोझ काँधे पर ही नहीं, आत्मा पर महसूस होता है।

जाने कैसे रिश्ते बना लिए हैं मैंने अपने इर्द गिर्द कि एक फ़ोन कॉल करने का भी हक़ नहीं समझती किसी पर। ऐसे जीती हूँ जैसे मेरी परछाईं से किसी को दुःख ना पहुँच जाए। बदन समेट कर। दिल को फ़ॉर्मलीन की किसी बोतल में रख कर।

मुझे माँगना बिलकुल नहीं आता। मर रही होऊँगी लेकिन मदद नहीं माँगूँगी। मुझे डर लगता है कि ऐसा करना मुझमें कड़वाहट ना भर दे। मैं जानती हूँ कि ऐसी क्यूँ होती चली जा रही हूँ। शायद जो चीज़ मैंने अपने दोस्तों से सबसे ज़्यादा हिचकते हुए माँगी है कभी किसी समय, वो शब्द होते हैं। एक ईमेल। एक चिट्ठी। नोट्बुक पर लिखे हुए कुछ शब्द। इससे ज़्यादा किसी का वक़्त भी मैंने माँगा हो, सो ध्यान नहीं। मगर ख़ाली दीवारों पर सिर्फ़ मेरे पागलपन के ख़त लिखे होते हैं। टंगे होते हैं।

मैं अगली बार मिलूँगी तुमसे तो धूप की बातें नहीं करूँगी। पूछूँगी तुमसे। एक बार तुम्हारे गले लग के रो सकती हूँ। मैं बहुत साल से अपने अंदर एक आँसुओं के ग्लेशियर के साथ जी रही हूँ। अब ये दुखता है बहुत ज़्यादा। तुम मेरे इतने अपने नहीं हो कि तुम्हारे लिए चिंता हो मुझे। जो मुझसे बहुत प्यार करते हैं, वे मुझे इस तरह टूट कर बिलखता देख लेंगे तो परेशान हलकान हो जाएँगे। तुम थोड़े अजनबी हो मेरे लिए। इसलिए तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करूँगी। फिर ऐसा भी लगता है कि ज़िंदगी ने थोड़ा कम तोड़ा है तुम्हारा दिल...किसी रैंडम सी दोपहर एक रोती हुयी लड़की को देख कर घबराओगे नहीं, मतलब, यू वोंट फ़्रीक आउट।

तुम्हें पता है, कभी कभी मेरा एकदम अचानक से ही तुम्हारी ज़िंदगी से चले जाने का दिल करता है। एकदम अचानक से ही। क्यूँकि पैटर्न ये कहता है कि अब तुम ऐसा ही करोगे मेरे साथ। अचानक से बात करनी बंद कर दोगे। कोई वजह नहीं दोगे। कि मेरे क़रीब आ कर सब लोग घबरा जाते हैं ऐसे ही। कि मैं चाह कर भी किसी को ख़ुद से बचा नहीं पाती हूँ। कि मुझे तुम्हारी फ़िक्र होती है।

मुझे मरने के लिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। एक दिन एक बिल्डिंग की छत पर कपड़े सुखाने के लिए गयी थी। जाड़ों की धूप थी। सोलहवीं मंज़िल से सब कुछ धूप में खिला खिला लग रहा था। दूर कहीं पहाड़ दिख रहे थे। whatsapp तुम्हारी करेंट लोकेशन दिखा रहा था, कोई सात किलोमीटर दूर...बाक़ी दोस्त भी कुछ दस से बीस किलोमीटर के रेडीयस में थे। मैं देर तक नीचे देखती रही। सोचती रही यहाँ से कूद जाऊँ तो क्या होगा। मर जाऊँ तो क्या होगा।

सोचती हूँ, मेरे शब्द मुझे कब तक बचा पाएँगे... किसी बिल्डिंग से कूद जाने से, किसी पुल में क्रैश करने से...कलाई काट लेने से...या कि कोई ज़हर की गोली ही ज़ुबान पर रख लेने से...

क़िस्सों का एक कमरा

मैंने अपने जीवन में बहुत कम घर बदले हैं। देवघर के अपने घर में ग्यारह साल रही। पटना के घर में छह। और बैंगलोर के इस घर में दस साल हुए हैं। मुझे घर बदलने की आदत नहीं है। मुझे घर बदलना अच्छा नहीं लगता। मैं कुछ उन लोगों में से हूँ जिन्हें कुछ चीज़ें स्थायी चाहिए होती हैं। घर उनमें से एक है। देवघर में मेरा घर हमारा अपना था। पहले एक मंज़िल का, फिर दूसरी मंज़िल बनी। मेरे लिए बचपन अपने ख़ुद के घर में बीता। वहाँ की ख़ाली ज़मीन के पेड़ों से रिश्ता बनाते हुए। नीम का पेड़, शीशम के पेड़। मालती का पौधा, कामिनी का पौधा। रजनीगंधा की क्यारियाँ। कुएँ के पास की जगह में लगा हुआ पुदीना। वहीं साल में उग आता तरबूज़।

बैंगलोर में इस घर में जब आयी तो हमारे पास दो सूटकेस थे, एक में कपड़े और एक में किताबें। ये एक नोर्मल सा २bhk अपर्टमेंट है। पिछले कुछ सालों में इसके एक कमरे को मैंने स्टडी बना दिया है। यहाँ पर एक बड़ी सी टेबल है जिसपर वो किताबें हैं जो मैं इन दिनों पढ़ रही हूँ। इसके अलावा इस टेबल पर दुनिया भर से इकट्ठा की हुयी चीज़ें हैं। शिकागो से लाया हुआ जेली फ़िश वाला गुलाबी पेपरवेट। डैलस से ख़रीदी हुयी रेतघड़ी और एक दिल के आकार का चिकना, गुलाबी पत्थर। न्यू यॉर्क से लाया हुआ स्नोग्लोब। एक दोस्त का दिया हुआ छोटा सा विंडमिल। दिल्ली से लाए दो पोस्टर जिनमें लड़कियाँ पियानो और वाइयलिन बजा रही हैं। पुदुच्चेरी से लायी नटराज की एक छोटी सी धातु की मूर्ति। एक टेबल लैम्प, दो म्यूज़िक बॉक्स। कुछ इंक की बोतलें। स्टैम्प्स। पोस्ट्कार्ड्ज़। बोस का ब्लूटूथ स्पीकर। अक्सर सफ़ेद और पीले फूल...और बहुत सा...वग़ैरह वग़ैरह।

इस टेबल के बायें ओर खिड़की है जो पूरब में खुलती है। आसपास कोई ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए सुबह की धूप हमारी अपनी होती है। सूरज की दिशा के अनुसार धूप कभी टेबल तो कभी नीचे बिछे गद्दे पर गिरती रहती है। खिड़की से बाहर गली और गली के अंत में मुख्य सड़क दिखती है। बग़ल में एक मंदिर है। मंदिर से लगा हुआ कुंड। खिड़की पर मनीप्लांट है और ऊपर एक पौंडीचेरी से लायी हुयी विंडचाइम।

मैं सुबह से दोपहर तक यही रहती हूँ अधिकतर। लिखने और पढ़ने के लिए। दीवारों पर नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव के पोस्टर्ज़ हैं। एक बिल्ली का पोस्टर जो चुम्बक से लायी हूँ। एक बुलेटिन बोर्ड में दुनिया भर की चीज़ें हैं। न्यूयॉर्क का मैप। 'तीन रोज़ इश्क़' के विमोचन में पहना हुआ झुमका, जिसका दूसरा कहीं गिर गया। एक ब्रेसलेट जो ऑफ़िस से रिज़ाइन करने के बाद मेरे टीममेट्स ने मुझे दिया था, कुछ पोस्ट्कार्ड्ज़। कॉलेज की कुछ ख़ूबसूरत तस्वीरें। ज़मीन पर बिछा सिंगल गद्दा है जिसपर रंगबिरंगे कुशन हैं। एक फूलों वाली चादर है। ओढ़ने के लिए एक सफ़ेद में हल्के लाल फूलों वाली हल्की गरम चादर है। बैंगलोर में मौसम अक्सर हल्की ठंढ का होता है, तो चादर पैरों पर हमेशा ही रहती है। हारमोनियम और कमरे के  कोने में एक लम्बा सा पीली रोशनी वाला लैम्प है।

ये घर अब छोटा पड़ रहा है तो अब दूसरी जगह जाना होगा। मैं इस कमरे में दुनिया में सबसे ज़्यादा comfortable होती हूँ। ये कमरा पनाह है मेरी। मेरी अपनी जगह। मैं आज दोपहर इस कमरे में बैठी हूँ कि जिसे मैं प्यार से 'क़िस्साघर' कहती हूँ। किसी घर में दोनों समय धूप आए। साल के बारहों महीने हवा आए। बैंगलोर जैसे मेट्रो में मिलना मुश्किल है। फिर ऐसा कमरा कि धूप बायीं ओर से आए कि लिखने में आसान हो। एकदम ही मुश्किल। और फिर सब मिल भी जाएगा तो ऐसा तो नहीं होगा ना।

मुझे इस शहर में सिर्फ़ अपना ये कमरा अच्छा लगता है। जो दोस्त कहते हैं कि बैंगलोर आएँगे, उनको भी कहती हूँ। मेरे शहर में मेरी स्टडी के सिवा देखने को कुछ नहीं है। मगर वे दोस्त बैंगलोर आए नहीं कभी। अब आएँगे भी तो मेरे पढ़ने के कमरे में नहीं आएँगे। मैं आख़िरी कुछ दिन में उदास हूँ थोड़ी। सोच रही हूँ, एक अच्छा सा विडीओ बना लूँ कमसे कम। कि याद रहे।

हज़ारों ख़्वाहिशों में एक ये भी है। कभी किसी के साथ यहीं बैठ कर कुछ किताबों पर बतियाते। चाय पीते। दिखाते उसे कि ये अजायबघर बना रखा है। तुम्हें कैसा लगा।

एक दोस्त को एक बार विडीओ पर दिखा रही थी। कि देखो ये मेरी स्टडी ये खिड़की...जो भी... उसने कहा, आपका कमरा मेरे कमरे से ज़्यादा सुंदर है, तो पहली बार ध्यान गया कि इस कमरे को बनते बनते दस साल लगे हैं। कि इस कमरे ने एक उलझी हुयी लड़की को एक उलझी हुयी लेखिका बनाया है।

साल की पहली पोस्ट, इसी कमरे के नाम। और इस कमरे के नाम, बहुत सा प्यार।

और अभी यहाँ सोच रही हूँ...तुम आते तो...

19 January, 2018

हमारे अलविदा को ना लगे, किसी दिलदुखे आशिक़ की काली नज़र


विस्मृति की धूप से फीके हो जाएँगे सारे रंग
एक उजाड़ पौधे पर सूख गए आख़िरी फूल दिखेंगे
धूल धुँधला कर देगी खिड़की से बाहर के दृश्य
हमारे नहीं होने के कई साल बाद भी

मैं तलाशती रहूँगी हमारे ना होने की वजहें
अपने मन के अंधारघर में
मैं रहूँगी, इकलौती खिड़की पर
अंतहीन इंतज़ार में।

***

मैं नहीं रोऊँगी इस बार
कि आँख में बचा रहे काजल
और हमारे अलविदा को ना लगे
किसी दिलदुखे आशिक़ की काली नज़र

याद के बेरंग कमरे को
रंग दूँगी तुम्हारे साँवले रंग में।
स्टडी टेबल के ठीक ऊपर
टाँग दूँगी तुम्हारी हँसी की कंदीलें।

अलविदा के पहर कम दुखें, इसलिए ही
जलाऊँगी दालचीनी की गंध वाली मोमबत्ती।

हिज्र उदास कविताओं का श्रिंगार है
कहो अलविदा,
कि स्याही के अनेक रंग और कुछ सफ़ेद पन्ने
इंतज़ार में हैं।

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