लव इन द टाइम औफ़ कालरा फ़्लॉरेंटीनो को उसका चाचा कहता है, 'तुम बिलकुल अपने पिता की तरह हो, तुम्हारे पिता को एक ही अफ़सोस था, मरते हुए उसने कहा, "मुझे इसी बात का अफ़सोस है कि मैं प्रेम के लिए नहीं मर रहा"।
फ़िल्म देखते हुए कभी कभी लगता है। ये कैसा रूमान है...कैसा पागलपन। किसी के इंतज़ार में अपनी पूरी ज़िंदगी बिता देना। क्या प्रेम वाक़ई सिर्फ़ एक बार होता है लोगों को? इतना गहरा प्रेम। ऐसा पागलपन। क्या प्यार सिर्फ़ उम्र पर निर्भर करता है? इस उम्र में वो यक़ीन क्यूँ नहीं होता जो बीस की उम्र में होता था। वो दुःख नहीं होता जो सोलह की उम्र में होता था।
इन दिनों दुःख भी कॉम्प्लिकेटेड हो गए हैं। दुःख का भी सही ग़लत होता है। काला सफ़ेद सियाह सलेटी। कुछ दुःख ऐसे भी होते हैं कि महसूसने पर गुनाहों का अलग काँटा चुभता है। दुःख जिनका बोझ काँधे पर ही नहीं, आत्मा पर महसूस होता है।
जाने कैसे रिश्ते बना लिए हैं मैंने अपने इर्द गिर्द कि एक फ़ोन कॉल करने का भी हक़ नहीं समझती किसी पर। ऐसे जीती हूँ जैसे मेरी परछाईं से किसी को दुःख ना पहुँच जाए। बदन समेट कर। दिल को फ़ॉर्मलीन की किसी बोतल में रख कर।
मुझे माँगना बिलकुल नहीं आता। मर रही होऊँगी लेकिन मदद नहीं माँगूँगी। मुझे डर लगता है कि ऐसा करना मुझमें कड़वाहट ना भर दे। मैं जानती हूँ कि ऐसी क्यूँ होती चली जा रही हूँ। शायद जो चीज़ मैंने अपने दोस्तों से सबसे ज़्यादा हिचकते हुए माँगी है कभी किसी समय, वो शब्द होते हैं। एक ईमेल। एक चिट्ठी। नोट्बुक पर लिखे हुए कुछ शब्द। इससे ज़्यादा किसी का वक़्त भी मैंने माँगा हो, सो ध्यान नहीं। मगर ख़ाली दीवारों पर सिर्फ़ मेरे पागलपन के ख़त लिखे होते हैं। टंगे होते हैं।
मैं अगली बार मिलूँगी तुमसे तो धूप की बातें नहीं करूँगी। पूछूँगी तुमसे। एक बार तुम्हारे गले लग के रो सकती हूँ। मैं बहुत साल से अपने अंदर एक आँसुओं के ग्लेशियर के साथ जी रही हूँ। अब ये दुखता है बहुत ज़्यादा। तुम मेरे इतने अपने नहीं हो कि तुम्हारे लिए चिंता हो मुझे। जो मुझसे बहुत प्यार करते हैं, वे मुझे इस तरह टूट कर बिलखता देख लेंगे तो परेशान हलकान हो जाएँगे। तुम थोड़े अजनबी हो मेरे लिए। इसलिए तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करूँगी। फिर ऐसा भी लगता है कि ज़िंदगी ने थोड़ा कम तोड़ा है तुम्हारा दिल...किसी रैंडम सी दोपहर एक रोती हुयी लड़की को देख कर घबराओगे नहीं, मतलब, यू वोंट फ़्रीक आउट।
तुम्हें पता है, कभी कभी मेरा एकदम अचानक से ही तुम्हारी ज़िंदगी से चले जाने का दिल करता है। एकदम अचानक से ही। क्यूँकि पैटर्न ये कहता है कि अब तुम ऐसा ही करोगे मेरे साथ। अचानक से बात करनी बंद कर दोगे। कोई वजह नहीं दोगे। कि मेरे क़रीब आ कर सब लोग घबरा जाते हैं ऐसे ही। कि मैं चाह कर भी किसी को ख़ुद से बचा नहीं पाती हूँ। कि मुझे तुम्हारी फ़िक्र होती है।
मुझे मरने के लिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। एक दिन एक बिल्डिंग की छत पर कपड़े सुखाने के लिए गयी थी। जाड़ों की धूप थी। सोलहवीं मंज़िल से सब कुछ धूप में खिला खिला लग रहा था। दूर कहीं पहाड़ दिख रहे थे। whatsapp तुम्हारी करेंट लोकेशन दिखा रहा था, कोई सात किलोमीटर दूर...बाक़ी दोस्त भी कुछ दस से बीस किलोमीटर के रेडीयस में थे। मैं देर तक नीचे देखती रही। सोचती रही यहाँ से कूद जाऊँ तो क्या होगा। मर जाऊँ तो क्या होगा।
सोचती हूँ, मेरे शब्द मुझे कब तक बचा पाएँगे... किसी बिल्डिंग से कूद जाने से, किसी पुल में क्रैश करने से...कलाई काट लेने से...या कि कोई ज़हर की गोली ही ज़ुबान पर रख लेने से...
फ़िल्म देखते हुए कभी कभी लगता है। ये कैसा रूमान है...कैसा पागलपन। किसी के इंतज़ार में अपनी पूरी ज़िंदगी बिता देना। क्या प्रेम वाक़ई सिर्फ़ एक बार होता है लोगों को? इतना गहरा प्रेम। ऐसा पागलपन। क्या प्यार सिर्फ़ उम्र पर निर्भर करता है? इस उम्र में वो यक़ीन क्यूँ नहीं होता जो बीस की उम्र में होता था। वो दुःख नहीं होता जो सोलह की उम्र में होता था।
इन दिनों दुःख भी कॉम्प्लिकेटेड हो गए हैं। दुःख का भी सही ग़लत होता है। काला सफ़ेद सियाह सलेटी। कुछ दुःख ऐसे भी होते हैं कि महसूसने पर गुनाहों का अलग काँटा चुभता है। दुःख जिनका बोझ काँधे पर ही नहीं, आत्मा पर महसूस होता है।
जाने कैसे रिश्ते बना लिए हैं मैंने अपने इर्द गिर्द कि एक फ़ोन कॉल करने का भी हक़ नहीं समझती किसी पर। ऐसे जीती हूँ जैसे मेरी परछाईं से किसी को दुःख ना पहुँच जाए। बदन समेट कर। दिल को फ़ॉर्मलीन की किसी बोतल में रख कर।
मुझे माँगना बिलकुल नहीं आता। मर रही होऊँगी लेकिन मदद नहीं माँगूँगी। मुझे डर लगता है कि ऐसा करना मुझमें कड़वाहट ना भर दे। मैं जानती हूँ कि ऐसी क्यूँ होती चली जा रही हूँ। शायद जो चीज़ मैंने अपने दोस्तों से सबसे ज़्यादा हिचकते हुए माँगी है कभी किसी समय, वो शब्द होते हैं। एक ईमेल। एक चिट्ठी। नोट्बुक पर लिखे हुए कुछ शब्द। इससे ज़्यादा किसी का वक़्त भी मैंने माँगा हो, सो ध्यान नहीं। मगर ख़ाली दीवारों पर सिर्फ़ मेरे पागलपन के ख़त लिखे होते हैं। टंगे होते हैं।
मैं अगली बार मिलूँगी तुमसे तो धूप की बातें नहीं करूँगी। पूछूँगी तुमसे। एक बार तुम्हारे गले लग के रो सकती हूँ। मैं बहुत साल से अपने अंदर एक आँसुओं के ग्लेशियर के साथ जी रही हूँ। अब ये दुखता है बहुत ज़्यादा। तुम मेरे इतने अपने नहीं हो कि तुम्हारे लिए चिंता हो मुझे। जो मुझसे बहुत प्यार करते हैं, वे मुझे इस तरह टूट कर बिलखता देख लेंगे तो परेशान हलकान हो जाएँगे। तुम थोड़े अजनबी हो मेरे लिए। इसलिए तुम्हारी इतनी चिंता नहीं करूँगी। फिर ऐसा भी लगता है कि ज़िंदगी ने थोड़ा कम तोड़ा है तुम्हारा दिल...किसी रैंडम सी दोपहर एक रोती हुयी लड़की को देख कर घबराओगे नहीं, मतलब, यू वोंट फ़्रीक आउट।
तुम्हें पता है, कभी कभी मेरा एकदम अचानक से ही तुम्हारी ज़िंदगी से चले जाने का दिल करता है। एकदम अचानक से ही। क्यूँकि पैटर्न ये कहता है कि अब तुम ऐसा ही करोगे मेरे साथ। अचानक से बात करनी बंद कर दोगे। कोई वजह नहीं दोगे। कि मेरे क़रीब आ कर सब लोग घबरा जाते हैं ऐसे ही। कि मैं चाह कर भी किसी को ख़ुद से बचा नहीं पाती हूँ। कि मुझे तुम्हारी फ़िक्र होती है।
मुझे मरने के लिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। एक दिन एक बिल्डिंग की छत पर कपड़े सुखाने के लिए गयी थी। जाड़ों की धूप थी। सोलहवीं मंज़िल से सब कुछ धूप में खिला खिला लग रहा था। दूर कहीं पहाड़ दिख रहे थे। whatsapp तुम्हारी करेंट लोकेशन दिखा रहा था, कोई सात किलोमीटर दूर...बाक़ी दोस्त भी कुछ दस से बीस किलोमीटर के रेडीयस में थे। मैं देर तक नीचे देखती रही। सोचती रही यहाँ से कूद जाऊँ तो क्या होगा। मर जाऊँ तो क्या होगा।
सोचती हूँ, मेरे शब्द मुझे कब तक बचा पाएँगे... किसी बिल्डिंग से कूद जाने से, किसी पुल में क्रैश करने से...कलाई काट लेने से...या कि कोई ज़हर की गोली ही ज़ुबान पर रख लेने से...
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