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18 December, 2014

सिगरेट सा सुलगता पहाड़ों पर इश्क़

पहाड़ों को पहली बार कोई दो साल की उम्र में देखा था. केदारनाथ जाते हुए मम्मी के पोंचु में से जरा सा झाँक के...बर्फ़बारी हो रही थी. हम पालकी में थे. मुझे याद है वो सारा नज़ारा. बहुत सी बर्फ थी. पापा साथ चल रहे थे. मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि मुझे बहुत छोटे छोटे बचपन की बहुत सारी चीज़ें कैसे याद हैं एकदम साफ़ से. केदारनाथ मंदिर हम लोग...पापा, मम्मी, बाबा और दादी गए थे. मुझे हरिद्वार का गंगा का घाट भी याद है. ठंढ याद है. बाबा और दादी को चारों धाम ले जाने के लिए पापा एलटीसी का प्रोग्राम बनाए थे. इसी सिलसिले में ऋषिकेश का लक्ष्मण झूला, हरिद्वार में हर की पौड़ी और केदारनाथ का मंदिर था.

जब से मम्मी नहीं है बचपन की सारी बातें भूलती जा रही हूँ. लगता था कि बचपन कभी था ही नहीं. इधर नानी भी नहीं रही तो बचपन की सारी कहानियां गुम ही गयीं थीं. बस एक आध तसवीरें थीं और स्कूल की कुछ यादें. पिछले महीने घर गयी तो पापा के साथ थोड़ा सा ज्यादा वक्त बिताने को मिला. इस उम्र में पापा से जितनी बात करती हूँ बहुत हद तक खुद को समझने में मदद मिलती है. लगता है कि मेरा सिर्फ चेहरे का कट, भवें और आँखें पापा जैसी नहीं हैं...बहुत हद तक मेरा स्वाभाव पापा से आया है. भटकने और फक्कड़पने का अंदाज एकदम पापा जैसा है. बिना पैसों के वालेट लिए घूमना. किसी यूरोपियन शहर में किसी म्यूजिक आर्टिस्ट की सीडी खरीदने के लिए लंच के लिए रखे पैसे फूंक डालना. सब पापा से आया है. इस बार पापा ने एक घटना सुनाई...जो मुझे कुछ यूँ याद थी जैसे धुंधला सपना कोई. समझ ये भी आया कि आर्मी के प्रति ये दीवानगी कहाँ से आई है कि आज भी एस्केलेटर पर कोई फौजी दो सीढ़ी पहले आगे जा रहा होता है तो दिल की धड़कनें आउट ऑफ़ डिसिप्लिन हुयी जाती हैं. कार चलाते हुए आगे अगर कोई आर्मी का ट्रक होता है तो हरगिज़ ओवेर्टेक नहीं करती हूँ. पागलों जैसी मुस्कुराते चलती हूँ धीरे धीरे उनके पीछे ही. दार्जलिंग से गैंगटोक और फिर छंगु लेक जाते हुए आर्मी एरिया से गुजरते हुए जवानों के साथ फोटो खिंचाना भी याद आता है. 

उफ़ कहाँ गयी वो क्यूटनेस!
बहरहाल...एक बार पापा और मम्मी मेरे साथ कहीं से आ रहे थे...रेलवे में फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में उन दिनों कूपे हुआ करते थे. कुछ स्टेशन तक कोई भी नहीं आया तो पापा लोग काफी खुश थे कि लगता है कि और कोई नहीं आएगा तो पूरा कूपा अपना हुआ. फिर थोड़ी देर में कुछ जवान आके सामान रख आये...होल्डाल वगैरह था...फिर दो लोग आ के बैठे. पापा बताये कि थोड़ा डर लगा कि काफी हाई रैंकिंग ओफिसियल था...और पूरी बोगी में सिर्फ आर्मी के जवान ही थे. उस वक़्त पापा जस्ट कुछ दिन पहले नौकरी ज्वाइन ही किये थे. तो नार्मल बात चीत हुयी...पापा ने बताया कि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में काम करते हैं. फिर हमको देखा और पूछा...आपकी बेटी है...पापा बोले कि हाँ...फिर मेरी ओर हाथ बढ़ाया...और हम फट से उसकी गोदी में चढ़ गए. फिर पूरे रास्ता हम हाथों हाथ घूमे...कहीं अखरोट खा रहे हैं...कहीं कुछ सामान फ़ेंक रहे हैं...कहीं किलक रहे हैं...कहीं भाग रहे हैं...और पटना आते आते सारे जवानों की आँखों का तारा बनी हुयी हूँ. उसमें से जो ओफ्फिसियल था, वो हाथ देखा मेरा और पापा को बोला...सर ये लड़की जहाँ भी जायेगी इसी तरह छा जायेगी कि लोग इसे अपनी तलहत्थी पर रखेंगे...बस एक बात का ध्यान रखियेगा कि इस पर कभी शासन करने की कोशिश नहीं कीजियेगा. हम छोटे से थे. बात आई गयी हो गयी. पापा बता रहे थे कि आपको आज देखते हैं कि जहाँ हैं वहां इसी तरह सबका दिल जीते हुए हैं तो लगता है उसकी बात में कोई बात थी. ये रेलवे वाली बात धुंध धुंध सपनों में आती रही है कई बार. मैं देखती हूँ कि कोई छोटी सी लड़की है. एकदम सेब जैसे गालों वाली. अखरोट का पहला स्वाद भी वहीं से याद में है.

इधर कुछ दिन से फिर से कहीं भाग जाने का दिल करने लगा है. समझ नहीं आता है कि क्यूँ होता है ऐसा. मेरे बकेट लिस्ट में एक लम्बी यात्रा सबसे ऊपर है. अकेले. बुलेट पर. लड़कियां नॉर्मली ऐसी ख्वाहिशें नहीं पालतीं...उनमें हुनर होता है ऐसी किसी ख्वाहिश का बचपन में ही गला घोंट कर मार देने का. एक मैं हूँ...चिंगारी चिंगारी सी हवा दे रही हूँ. इस बार कहीं नौकरी पकड़ी तो पक्का अपने लिए एक बुलेट खरीदूंगी. मुझे डर क्यूँ नहीं लगता. मैं इस कदर बेपरवाह होकर क्यूँ हँस सकती हूँ. कल सब्जी की दूकान में खड़े आलू प्याज उठा रहे थे और याद करके बाकी चीज़ भी...बड़बड़ा रहे थे कि डॉक्टर बाइक चलाने से मना किया है तो घर में सारा सामान ख़त्म है. दुकानदार बोला कि मैडम आप बाइक थोड़े चलाती हैं...आप तो प्लेन चलाती हैं...टेक ऑफ कर जायेगी बाइक आपकी इतनी तेज़ चलती है. 

बंगलौर में रहते हुए पहाड़ों से प्यार ख़त्म हो गया था. यहाँ ठंढ इतनी पड़ती है कमबख्त कि हर छुट्टियों में हम समंदर और धूप की ओर भागते हैं. इधर याद में फिर से दार्जलिंग, कुल्लू मनाली और गुलमर्ग खिल रहे हैं. घाटियों से उठते बादल. बेहद ठंढ में दस्ताने पहनना और मुंह से भाप निकालना. मॉल रोड पर खड़े होकर रंग बिरंगे लोगों को गुज़रते देखना. घुमावदार सड़कों का थ्रिल. धुंध धुंध चेहरों का सामने आना मुस्कुराते हुए. पहाड़ों से किसी को नया प्यार नहीं होता...पहाड़ों से हमेशा पुराना प्यार ही होता है. बाइक लिए रेस लगाने का दिल करता है. खुली जीप में दुपट्टा उड़ाने का दिल भी. ऊंची जगहों से अचानक छलांग लगा देने का दिल करता है हमेशा मेरा...L'appel du vide एक फ्रेंच टर्म है, अंग्रेजी में The call of the void... खालीपन... निर्वात जो खींचता है... अपने अन्दर गहरे छलांग लगा देने को. इस बार मगर दिल करता है कि एक कैमरा और नोटबुक लिए जाएँ. बहुत सी तसवीरें खींचें और बहुत सी कहानियां सुनूं...लिखती चलूँ जाने कितनी सारी कवितायें. इस बार किसी छोटे से फारेस्ट गेस्टहाउस में बैठ कर देखूं बादल का ऊपर चढ़ना. सिगड़ी में सेंकूं हाथ. विस्की का सिप मारूँ. सिगरेट पियूँ किसी व्यूपॉइंट पर सबसे सुबह की कड़ाके की ठंढ में जा के. बहुत कुछ कैमरा में कैप्चर करूँ कि जैसे सूरज का उगना. बहुत कुछ आँखों में कैप्चर करूँ जैसे कि अचानक बने दोस्त. पीछे छूटते शहर.

जिंदगी पूरी नहीं पड़ती...कितना कुछ और चलते रहता है पैरलली...कितने शहर खुलते रहते हैं मेरे अन्दर...कल देर रात कुछ शहरों को गूगल मैप पर देख रही थी. पहाड़ों पर टिम टिम दिवाली याद आ रही थी, वैष्णोदेवी से देखना कटरा में फूटते पटाखे. गूगल मैप बताता रहता है कितना कम दूर है सब कुछ...हाथ बढ़ा के छूने इतना. जिंदगी फिसलती जा रही है. अरमानों को ब्लैकलिस्ट करते जा रही हूँ. कितने अफ़सोस बाकी रह जायेंगे. खुदा...यूँ ही फक्कड़पने और आवारगी में उड़ा देने के लिए एक जिंदगी और. 

27 October, 2013

रात का इन्सट्रुमेंटल वेपन दैट किल्स इन साइलेंस

पिछली पोस्ट से आज तक में दस ड्राफ्ट पड़े हुए हैं. ऐसा तो नहीं होता था. अधूरेपन के कितने सारे फेजेस में रखे हुए हैं. सलामत. स्नोवाइट की तरह. गहरी नींद में. सेब का एक टुकड़ा खा लेने के कारण शापित.
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कितनी सारी कहानियां हैं अधूरी. बचपन के किस्से कुछ. टूटे हुए कविता की पंक्तियाँ कहीं. किसी अनजान शहर से आती आवाज़ तो कहीं समंदर किनारे की आवाज़. पॉकेट में मुट्ठी भर भर के रेत है. ये कुछ भी बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े हैं. जेबों में यूँ तो समंदर से उठा कर दो मुट्ठी खारा पानी भरा था मगर जाने क्या हुआ कि पानी तो सारा समंदर में वापस चला गया बस ये किचकिच करती रेत रह गयी है. समंदर कितना निष्ठुर हो गया है. एक मुट्ठी पानी से उसमें कौन सा अकाल पड़ जाता. क्या मिला मेरे हिस्से का थोड़ा सा पानी वापस मांग के.

मुझे दुनिया में जो सबसे वाहियात काम लगता है वो है अपने लिखे को वापस पढ़ना. हालत ऐसी थी कि एक्जाम में कभी पेपर रिविजन तक नहीं कर पाती थी. जितने मार्क्स काटने हैं कट जायें. पर्फेकशनिष्ट की एक ये भी किस्म होती है मेरे जैसी. जिसको अपना किया कुछ कभी अच्छा ही नहीं लगता...कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी बेमानी लगती है. इसी अफरातफरी में इतना कुछ लिखा भी जाता है. जैसे एक कदम आगे चलके दो कदम पीछे चलना.

मुझे एक महीने की छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. समंदर जरूरी है. दिमाग का ये ज्वारभाटा कहीं उतरता नहीं है. हालाँकि इतने सालों में मुझे आदत पड़ जानी चाहिए. नवम्बर. दिसंबर. जाड़ों के ये सर्द दिन बुखार के होते हैं. हरारत के. बिना नींद आँखों वाली बेचैन रातों के. मगर आदत है कि गलत चीज़ों की पड़ती है. अच्छी चीज़ों की पड़ती नहीं. दो किताबें पढ़ीं. इतनी बुरी लगीं...वाकई इतनी बुरीं कि आग लगा देने का मन किया. पापा से बात कर रही थी तो पापा कह रहे थे दुनिया में हर तरह की चीज़ होती है...तुम इतना एक्सट्रीम क्यूँ सोचती हो. पिछले सन्डे ऐसी ही एक किताब में बर्बाद कर दी थी. उम्मीद बड़ी कमबख्त चीज़ होती है. पूरी किताब ये सोच कर पढ़ गयी कि कमबख्त कुछ तो अच्छा होगा आखिर इतने सारे लोग क्या गधे हैं. इसके बाद तौबा कर ली...अपनी पसंद की किताब पढूंगी...और जो किताब शुरू में अच्छी नहीं लग रही उसे छोड़ देने में ही भलाई है. देवघर में होती तो शायद वाकई एक धामा उठा कर लाती और किताबों में आग लगा देती. यहाँ दीवारें काली हो जायें शायद. खतरनाक किस्म की अजीब इंसान हूँ शायद. वक़्त बर्बाद होने पर सबसे ज्यादा कोफ़्त होती है.

मगर फिर कहीं कोई खुदा है कि जो बैलेंस बरक़रार रखता है. कुछ लोग होंगे जिनकी दुआओं का टोकन अप्रूव्ड हो जाता होगा. एक बेहतरीन फिल्म देखी 'सिनेमा पैराडिसो', तब से लगातार उसका ही थीम स्कोर सुन रही हूँ. इस अद्भुत दुनिया में जितना जानो उतना ही मालूम चलता है कि कुछ नहीं आता...अभी तो कुछ नहीं देखा. कई सारी ख्वाहिशों में एक ये भी थी कि कलर लेंस लगाऊं. टु डू लिस्ट से एक आर्टिकल कटा. नीले लेंस ख़रीदे थे. अपनी ही आँखों पर फ़िदा हुयी जा रही थी. चूँकि मेरी आँखें गहरी काली हैं इसलिए लेंस भी ऐसा था कि जिसमें रेखाएं थीं कि काले से मिलजुल कर ही रंग आया था आँखों का. गहरा नीला. कन्याकुमारी से दूर दीखते समंदर के रंग जैसा. फ़िल्मी. ड्रामेटिक.

एकदम खाली. निर्वात. बारिश के बाद के बाढ़ जैसा बाँध तोड़ने वाला उफान. अबडब. कुछ बीच में नहीं कि गंभीर नदी की तरह तयशुदा रास्ते पर चलते रहे नियमित. तमीजदार. उम्र के इस सिरे पर भी बचपना बहुत सा और जिंदगी से अजीब दीवाने किस्म की मुहब्बत. कभी कभी तो ऐसा भी लगा है कि लिखना छूट गया है अब शायद कभी नहीं लिख पाउंगी. मौसम की तरह होता है न सब. फेज. गुजरने वाला. कलमें हैं. जाने कितने रंगों की सियाही खरीद कर लाइन लगा रखी है. कभी कभी उपरवाले से बहुत झगड़ा करने का मन करता है. खुश हो न तुम...तुम्हें मुझसे क्या मतलब. अच्छी खासी चल रही थी जिंदगी. चले आये मुंह उठा कर. मेरी बला से. हुंह. मैं नहीं बात कर रही तुमसे. कभी. मगर याद रखना एक दिन मेरी याद इतनी आएगी न कि इंसान बन कर धरती पर मिलने आओगे मुझसे.

नींद आ रही है. कमरे में सारी किताबें करीने से लगी हुयी हैं आजकल. उनकी कतार देख कर बड़ा सुकून होता है. लगता है कि दुनिया में कहीं कुछ बहुत अच्छा है. लगता है कहीं और रह रही हूँ आजकल. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसी हूँ मैं. कोई नब्ज़ पहचान कर मर्ज़ बताये. दवा बताये न सही चलेगा. जीने के लिए कुछ चीज़ें बेइन्तहा जरूरी होती हैं. ऊपर वाली तस्वीर मेरी डेस्कटॉप की है आजकल. टोनी की तस्वीर लगी है. थोड़ी धुंधली सी. मुझे हमेशा ऐसा महसूस होता है कि इसी दीवार के उस तरफ कोई परफेक्ट दुनिया है. इससे टिक कर एक सिगरेट पी लेने भर से कुछ दिन और जी लेने का हौसला आ जाता है. ऑफिस में एक पैकेट सिगरेट है. ब्लू डनहिल्स. साल भर में कोई दो सिगरेट पी होगी बमुश्किल मगर उस डब्बी का वहीं, वैसे ही, बिना बदले पड़ा होना अजीब सुकून देता है. इजाजत के इस सीन की तरह. 'सब कुछ वही तो नहीं, पर है वहीं'.

लिखने को इतना कुछ हो जाता है. जीने को इतना कुछ कि चौबीस घंटे बहुत कम पड़ते हैं. बहुत कम. इतने में तो तमीज से एक तरकारी, भुनी हुयी रहर की दाल और भात तक नहीं बना के खा सकती रोज. कहाँ से चुराऊं थोड़ा सा और समय. थोड़ा दोस्तों से मिलने को. थोड़ी चढ़ी हुयी विस्की उतारने को. थोड़ी लिखी हुयी को फिर पढ़ने को. नीली आँखों में जो झांकती है वो कोई और है, मैं नहीं. मगर कसम से...कितना प्यार करती हूँ मैं उससे. कितना सारा.
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परसों तुम्हें गए हुए छः साल बीत जायेंगे. मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ. काश कि तुम्हारे जैसी हो पाती जरा जरा भी. तुम्हारी खुशबू मुट्ठी से बिसरती जा रही है मगर तुम कहीं नहीं बिसरती. इस जिंदगी में तो तुम्हारे बिना जीना नहीं आएगा रे.
I love you. Still. More than yesterday and less than tomorrow. 

30 August, 2013

एनेस्थीसिया

डेंटिस्ट की खतरनाक सी कुर्सी पर बैठी लड़की सोच रही थी एनेस्थीसिया के बारे में. ऐसा कुछ है क्या जिसके बाद कोई दर्द महसूस न हो. सोचती रही इश्क से बेहतर एनेस्थीसिया उसे मालूम नहीं है. उसने सोचा डॉक्टर से पूछे कि उसके पास कोई इश्कनुमा एनेस्थीसिया है क्या. लड़की को मालूम है कि वो थोड़ी वीयर्ड है उसके हिसाब से जो चीज़ें नार्मल होती हैं वो आम लोगों को पागलपन जैसी लगती हैं. अपने अनुभवों से सीखती वो लड़की अक्सर ऐसे फुजूल सवाल अब खुद के लिए रिजर्व कर लेती है.

दो दिन हो गए. सूजन बढ़ती ही गयी है. पेनकिलर से राहत नहीं आती. हालाँकि उसका कोई हक नहीं बनता पर वो पूछना चाहती है कि तुम्हारे नाम, ख्याल या तस्वीरों को पेनकिलर की तरह इस्तेमाल करना एथिकली सही है या गलत है. सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचने भर से उसका दांत का दर्द कम हो जाये तो क्या उसे इजाजत है तुम्हारे बारे में सोचने भर की...या तुम्हें एक फ़ोन करने की? तुम क्या सोचोगे अगर कोई तुम्हें फ़ोन करके कहे कि बहुत तेज़ दर्द हो रहा है, कुछ देर मेरा ध्यान भटका दो...किसी भी और चीज़ की तरफ. तुम करोगे किसी के लिए इतना?

दर्द यूँ बुरा नहीं लगता. दर्द की महीन उँगलियाँ होती हैं...जैसे नसों में खून दौड़ता है वैसे ही दर्द भी दौड़ता है. बारीक पतली पतली उँगलियों वाला दर्द बायें गाल से होता हुआ कनपटी तक पहुँच गया है, गले का बायाँ हिस्सा सूजा हुआ है. बोलने में भी तकलीफ होती है. दर्द का स्वाद होता है. खास तौर से जब टाँके पड़े हों. खून का रिसता हुआ स्वाद. ऐसा लगता है जैसे कोई नदी बह रही हो...नमकीन धार वाली. हर कुछ देर में नमक पानी के गरारे भी करने पड़ते हैं.

चेहरे का आधा हिस्सा सुन्न पड़ गया है. दांत के दर्द को टक्कर सिर्फ और सिर्फ इश्क दे सकता है. वो भी ऐरा गैरा लफुआबाज़ टाईप इश्क नहीं. सड़कछाप आवारा वाला नहीं. गहरा दर्द. रात के पहर के साथ चढ़ता हुआ. नींद के किसी झांसे में नहीं आने वाला दर्द. अँधेरे में याद के कितने तहखानों की टहल करवा देने वाला दर्द. पेनकिलर और एंटीबायोटिक के मिक्स में उभरने वाली नीम बेहोशी में रह रह करंट के झटके लगाता दर्द. हर कुछ घंटों में अपने होने को कई गुना शिद्दत से ज्यादा महसूस करने वाला दर्द.

जिंदगी में हर चीज़ में इश्क की घुसपैठ नहीं होनी चाहिए. कम से कम दांत दर्द तो तमीज से दांत दर्द की तरह पेश आये. दर्द हो तो सब भूल जाए लड़की. भूरी आँखें. डेरी मिल्क. धूप. दिल्ली. ठंढ. बीमार की तरह कम्बल ओढ़ ले और कराहे. मगर ये कराह में किसका नाम लिए जा रही है लड़की. "खुदाया मेरे आंसू रो गया कौन". वो कहती है उसका दर्द का थ्रेशहोल्ड बाकी लोगों से ज्यादा है. बहरहाल. कुछ दिनों से कुछ भी करने की कोशिशें नाकाम हैं. पढ़ने लिखने में उसका दिल नहीं लगता. ऐसा कुछ लग रहा है जैसे एक्जाम के दिन हों और सिलेबस ख़त्म हो चुका हो. बस रिवाइज करना जरूरी हो.

जब कुछ काम न आये तो लिखना काम आता है. फिलहाल दर्द की एक तीखी लपट है. दांत के ऊपर से उठती है और वर्टिकली ऊपर दिमाग की ओर चली जाती है. मेमोरी इरेजिंग टूल टाईप कुछ है. कोई याद नहीं. कोई शख्स नहीं. सफ़ेद काली बेहोशी है. संगीत की कुछ धुनें हैं. व्हाइट नोइज जैसी कुछ. इच्छा है कि थोड़ी धूप रहती तो खून का बहाव थोड़ा तेज़ होता. उसे हमेशा धूप अच्छी लगती है. रात के इस पहर धूप कहाँ से बुला लाये लड़की.

एनेस्थीसिया मेरी बला से! मुझे तो लगता है कि लड़की का दिमाग ख़राब हो गया है. पर जाने दो. वो क्या कहते हैं हमारी हिंदी फिल्म में डॉक्टर.

'अब इन्हें दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है'

PS: अब इन्हें ब्लॉग्गिंग की नहीं, पागलखाने की जरूरत है. वगैरह वगैरह.

इस पोस्ट के माध्यम से आप आपने पाठकों को क्या सन्देश देना चाहेंगी?
हम तो क्या कहें, कह भी देते लेकिन कोई हमसे पहले कह गया है कि...और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.

बहरहाल. 

15 May, 2013

जंकयार्ड डायरीज

तुम कोई उदास कविता नहीं हो कि तुम्हारे खो जाने पर आंसू बहाए जाएँ...तुम तो जिंदगी का रस हो, राग हो, नृत्य हो...तुम्हारे होने से धूप निकलती है...तुम पास होते हो तो जैसे सब कुछ थिरक उठता है...अब किसी दिन ऐसी ही कोई धुन गुनगुनाते आओगे कि पाँव रुक नहीं पायेंगे तो मैं क्या करूंगी बताओ...फिर कभी कभी सोचती हूँ बड़ी खूबसूरत चीज़...सोलह साल की लड़की होती है तो सोचती है...क्या वो मुझसे प्यार करता है...नहीं करता है...कुछ भी महसूस करता है मेरे लिए...मगर ३० की उम्र पहुँचने पर ऐसी छोटी चीज़ों में वक़्त जाया नहीं करते, इसलिए मैं तुम्हें कह सकती हूँ...डांस विद मी...मुझे जो चाहिए उसके बारे में अब दुआएं नहीं करती...तुमसे पूछ सकती हूँ और अगर तुम ना कह दो तो मैं उस लम्हे को वहीँ बिसार कर आगे बढ़ जाउंगी. मेरी फितरत नदी के विपरीत सी होती जा रही है. पहले तो समंदर के पास की नदी जैसा कुछ ठहराव था मगर अब पहाड़ी नदी जैसा बाँध तोड़ता बहाव है. मैं रुक नहीं सकती...ठहर नहीं सकती...मुझसे प्यार है तो मेरे साथ बह जाओ वरना नदी किनारे अनेक सभ्यताओं के बसने के निशान हैं...तुम भी किसी विस्मृत सभ्यता जैसे हो जाओगे जिसका बचा हुआ टुकड़ा टुकड़ा मिलेगा, पूरा कुछ कभी नहीं हो पायेगा...वो शब्द जो तुमने मुझसे कहे ही नहीं कोई ऐसी लिपि हो जायेगी जिसे सुलझाते पुरातत्त्वेत्ता उम्र गुज़ार देंगे.

जब हमें बहुत सी बात छुपानी होती है तो या तो हम बहुत चुप हो जाते हैं या बहुत बोलते हैं...इतनी सारी बातों में वो बात भी खो जाती है जो हम कहना चाहते तो हैं मगर सिर्फ एक उस बात को कहने में डरते हैं. आई लव यू ऐसी ही कोई शय है...दुनिया जहान की बातें करते हुए...फिल्मों पर बहस करते हुए...तुम्हारे पसंदीदा लेखक की कोई कविता पढ़ते हुए कहोगे मुझसे...मैं जानती हूँ...वैसे ये शब्द हैं भी काफी खतरनाक, इन्हें बाकी शब्दों के ककून में ही लपेट कर रखना चाहिए. बिना दस्ताने की उँगलियों से छू लो तो फ्रॉस्टबाईट हो सकता है. अगली बार मेरे गले लगो तो गौर से महसूस करना...मेरे गुडबाय में आई लव यू की खुशबू आती है. तुमने यूँ तो बहुत विदा के गीत सुने होंगे...आजकल किस गीत से गुज़र रहे हो? वो लैम्पशेड याद है जो हमने मिल कर बनाया था? हर रंग के रिबन में लपेट कर कांच की चूड़ियों संग...ड्रीम कैचर जैसा दिखता वो लैम्पशेड तुम्हारे ख्वाबों को रोशनी से भरता है क्या?

तुम्हारा प्यार किसी सोलर लैम्प जैसा है...जब तुम होते हो तो तुम्हारी मुस्कुराहटें सहेज कर रख देता है...बारिशों वाले दिन के लिए और जैसा कि बैंगलोर का मौसम है, इस लैम्प की अक्सर जरूरत पड़ती है. फिर इस मुस्कुराते उजाले में मैं शैडो डांस करती रहती हूँ...मेरी परछाई मुझसे कहीं ज्यादा डार्क और मिस्टीरियस है...कई बार तो मुझे अपनी परछाई खुद से ज्यादा अच्छी लगती है. 

सोच रही थी कि लोगों को कभी चीज़ों से नहीं जोड़ना चाहिए...लोग चले जाते हैं पर वो इनऐनीमेट चीज़ें कतरा कतरा जान लेती रहती हैं. मैं उन सारी चीज़ों से दूर नहीं भाग सकती जो तुम्हारे साथ रहते हुए मुझे अच्छी लगती थीं. वाईट लिली...वाईट चोकोलेट...वाईट फॉक्स मिंट...वाईट अल्ट्रा माइल्ड सिगरेटें...मेरी वाईट शर्ट...कमरे में आता सफ़ेद धूप का संगमरमर के सफ़ेद फर्श पर गिरता पहला टुकड़ा. तुम सफ़ेद रंग हो...तुमसे सारे रंग की रोशनियाँ निकलती हैं. 

खैर जाने दो...ऐवें ही कुछ कुछ लिखने का मन कर रहा था...बहुत सारा वर्कलोड होता है तो दिमाग में कुछ शब्द फँस जाते हैं...इन्हें लिखना जरूरी होता है वरना कुछ नया लिखने में दिक्कत होती है. जंकयार्ड डायरीज... ऐसा ही कुछ लिखने के लिए होती हैं. कल कोई तो कहानी लिखने का मन कर रहा था...फिर कभी...आज फिर ऑफिस को देर हो जायेगी...लिखेंगे बाकी वाकया ऐसे ही. आजकल लिखना प्यार की तरह हो गया है...भागते दौड़ते, दो मिनट निकाल कर लिखते हैं...बहरहाल...ओके...टाटा...लव यू...बाय. 

25 March, 2013

यादों का जंकयार्ड

वो जो याद के गुलमोहर थे...
पटना...
सब उधार की यादें हैं...
कुछ नया लिखने को जगह ही नहीं है. महसूस हुआ कि यादें भी एक उम्र के बाद कहीं सहेज के रख देनी होती हैं कि वर्तमान के पल के लिए जगह बन सके.

मैं बहुत साल बाद गयी थी. पाटलिपुत्रा कोलनी. जहाँ घर हुआ करता था. मोड़ पर, सड़क पर, गुलमोहर के पेड़ों पर. याद की अनगिन कतरनें थीं. धूल का अंधड़ था कि सांस लेने को जगह बाकी नहीं थी.

इतने साल बाद भी सारे रस्ते वैसे ही याद थे...किस मोड़ पर रुकी थी...कहाँ पहली बारिश का स्वाद चखा था...कोलेज के आगे का चाट का ठेला...गोसाईं टोला की वो दूकान जहाँ एक रुपये में कैसेट पर गाना रिकोर्ड करवाते थे. नेलपॉलिश खरीदने वाली दुकान. बोरिंग रोड का वो हनुमान जी का मंदिर. आर्चीज की दुकान की जगह लीवाईज का शोरूम खुल गया है.

कितने सालों में ये शहर परत दर परत मेरे अन्दर बसता रहा है. बचपन की यादें नानीघर से. जब भी जाते थे दिदिमा अक्सर बाहर ही दिखती थी. उसमें कोई फ़िल्मी चीज़ नहीं दिखती थी. कोने खोपचे के किराने की दुकान, आइसक्रीम फैक्ट्री, दूर तक जाती रेल की पटरियां. हर चीज़ के साथ जुड़े कितने लोग दिखते रहे...मम्मी, नानाजी...बचपन और कोलेज के कुछ दोस्त जिनका अब नाम भी याद नहीं.

कैसी कैसी यादें सेलोफेन पेपर खरीदने से लेकर बोरिंग रोड के सैंडविच में पेस्ट्री खाने की यादें. कितने चेहरे...टुनटुन भैय्या, लब्बो, काजल दीदी, नन्ही दीदी, बॉबी दीदी, राजू भैय्या...अपना ३०२ वाला घर, घर के आगे जामुन के पेड़...बाउंड्री पर लगे पीले कनेल की कतार. वो बगल वाले घर में रहने वाला कोई जो ऐनडीए में पढ़ता था और छुट्टियों पर आता था तो मिलिट्री कट बाल होते थे उसके. घर की छत से सूरज डूबते देखना.

रवि भारती जाना...फ्रैंक सर की भोजपुरी...होप अपार्टमेंट...हिमा से की गयी अनगिन बातें. पूरे शहर भटकते हुए लगता रहा कि लौट कर घर जायेंगे...मम्मी इंतज़ार कर रही होगी. यकीन नहीं होता, दुनिया के किसी भी शहर में कि घर जाने पर मम्मी नहीं होगी...पटना में तो जैसे हर जगह बस एक वही है. कहीं उसके साथ कपड़े खरीदने की यादें हैं, कही उसके साथ झगड़ा कर रहे हैं...पिस्ता वाला आइसक्रीम खिला रहे हैं उसको. कहाँ नहीं है वो. मन कैसी रेतघड़ी है एक तरफ से भरती एक तरफ से रीतती. मैं अतीत से उबरूं तब तो कहीं वर्तमान में रह सकूं. कहीं भी घूमते हुए लगता रहा कि लौट कर अपने पाटलिपुत्रा वाले घर जायेंगे, कोई जादू होता होगा दुनिया में कहीं कि सब सही हो जाएगा.

यादों ने जीने नहीं दिया...अतीत के साथ सुलह करनी जरूरी है. इतना कुछ पीछे सोचूंगी तो कैसे जीना होगा? राजीव नगर से गुजरी...कहीं  मंदिर, कहीं साइबर कैफे, कहीं दूर तक जाती रेल की पटरी...साथ थोड़ी दूर पर चलती गंगा. इस बार बड़ी इच्छा थी कि एक बार गंगा को देख आऊँ मगर लोग कहते हैं कि गंगा रूठ गयी है. दिखती नहीं है. वक़्त याद आता है कि कुर्जी में कैसे ठाठें मारती दिखती थी गंगा. याद आया उसका बरसातों में ललमटिया सा हो जाना. हहराती गंगा में विसर्जित करना टूटी हुयी मूर्तियाँ, दीवाली के दिए, यादों से निकाल कर नाम कोई.

I am jigsaw puzzle of collective memories, the key piece of which has been lost with mummy, forever. For all they try, no one can assemble me with all the pieces in their right place. And so I remain, a confused jumble of faces, tears, smiles, people, lost and found, roads, rain, school, college, teachers, friends...

इस बार होली में गैरजरूरी सामान के याद कुछ यादों को भी बुहार कर बाहर कर दूँगी...बहुत सा डेड स्पेस खाती हैं यादें और वहां कुछ नया, कुछ अच्छा उगाने की उम्मीद नहीं बचती. अतीत एक कालकोठरी क्यूँ बने...उसमें गाँव की खुली पगडण्डी पर दौड़ती हूँ मैं...वहां मम्मी के हाथों के खाने की खुशबू है. वहां माथे पर रखा मम्मी का आशीर्वाद है. इन सबसे नयी रोपनी करनी होगी...मिट्टी को जोतना होगा. रोपने होंगे खुशियों के बिरवे...उम्मीदों  के फसल उगानी होगी.

एक दिन...किसी एक दिन...मैं चीज़ों को वैसा का वैसा एक्सेप्ट कर लूंगी...नए दिन में नया जी सकूंगी. चंद रोज और मेरी जान, बस चंद रोज...

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