पहाड़ों को पहली बार कोई दो साल की उम्र में देखा था. केदारनाथ जाते हुए मम्मी के पोंचु में से जरा सा झाँक के...बर्फ़बारी हो रही थी. हम पालकी में थे. मुझे याद है वो सारा नज़ारा. बहुत सी बर्फ थी. पापा साथ चल रहे थे. मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि मुझे बहुत छोटे छोटे बचपन की बहुत सारी चीज़ें कैसे याद हैं एकदम साफ़ से. केदारनाथ मंदिर हम लोग...पापा, मम्मी, बाबा और दादी गए थे. मुझे हरिद्वार का गंगा का घाट भी याद है. ठंढ याद है. बाबा और दादी को चारों धाम ले जाने के लिए पापा एलटीसी का प्रोग्राम बनाए थे. इसी सिलसिले में ऋषिकेश का लक्ष्मण झूला, हरिद्वार में हर की पौड़ी और केदारनाथ का मंदिर था.
जब से मम्मी नहीं है बचपन की सारी बातें भूलती जा रही हूँ. लगता था कि बचपन कभी था ही नहीं. इधर नानी भी नहीं रही तो बचपन की सारी कहानियां गुम ही गयीं थीं. बस एक आध तसवीरें थीं और स्कूल की कुछ यादें. पिछले महीने घर गयी तो पापा के साथ थोड़ा सा ज्यादा वक्त बिताने को मिला. इस उम्र में पापा से जितनी बात करती हूँ बहुत हद तक खुद को समझने में मदद मिलती है. लगता है कि मेरा सिर्फ चेहरे का कट, भवें और आँखें पापा जैसी नहीं हैं...बहुत हद तक मेरा स्वाभाव पापा से आया है. भटकने और फक्कड़पने का अंदाज एकदम पापा जैसा है. बिना पैसों के वालेट लिए घूमना. किसी यूरोपियन शहर में किसी म्यूजिक आर्टिस्ट की सीडी खरीदने के लिए लंच के लिए रखे पैसे फूंक डालना. सब पापा से आया है. इस बार पापा ने एक घटना सुनाई...जो मुझे कुछ यूँ याद थी जैसे धुंधला सपना कोई. समझ ये भी आया कि आर्मी के प्रति ये दीवानगी कहाँ से आई है कि आज भी एस्केलेटर पर कोई फौजी दो सीढ़ी पहले आगे जा रहा होता है तो दिल की धड़कनें आउट ऑफ़ डिसिप्लिन हुयी जाती हैं. कार चलाते हुए आगे अगर कोई आर्मी का ट्रक होता है तो हरगिज़ ओवेर्टेक नहीं करती हूँ. पागलों जैसी मुस्कुराते चलती हूँ धीरे धीरे उनके पीछे ही. दार्जलिंग से गैंगटोक और फिर छंगु लेक जाते हुए आर्मी एरिया से गुजरते हुए जवानों के साथ फोटो खिंचाना भी याद आता है.
उफ़ कहाँ गयी वो क्यूटनेस! |
बहरहाल...एक बार पापा और मम्मी मेरे साथ कहीं से आ रहे थे...रेलवे में फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में उन दिनों कूपे हुआ करते थे. कुछ स्टेशन तक कोई भी नहीं आया तो पापा लोग काफी खुश थे कि लगता है कि और कोई नहीं आएगा तो पूरा कूपा अपना हुआ. फिर थोड़ी देर में कुछ जवान आके सामान रख आये...होल्डाल वगैरह था...फिर दो लोग आ के बैठे. पापा बताये कि थोड़ा डर लगा कि काफी हाई रैंकिंग ओफिसियल था...और पूरी बोगी में सिर्फ आर्मी के जवान ही थे. उस वक़्त पापा जस्ट कुछ दिन पहले नौकरी ज्वाइन ही किये थे. तो नार्मल बात चीत हुयी...पापा ने बताया कि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में काम करते हैं. फिर हमको देखा और पूछा...आपकी बेटी है...पापा बोले कि हाँ...फिर मेरी ओर हाथ बढ़ाया...और हम फट से उसकी गोदी में चढ़ गए. फिर पूरे रास्ता हम हाथों हाथ घूमे...कहीं अखरोट खा रहे हैं...कहीं कुछ सामान फ़ेंक रहे हैं...कहीं किलक रहे हैं...कहीं भाग रहे हैं...और पटना आते आते सारे जवानों की आँखों का तारा बनी हुयी हूँ. उसमें से जो ओफ्फिसियल था, वो हाथ देखा मेरा और पापा को बोला...सर ये लड़की जहाँ भी जायेगी इसी तरह छा जायेगी कि लोग इसे अपनी तलहत्थी पर रखेंगे...बस एक बात का ध्यान रखियेगा कि इस पर कभी शासन करने की कोशिश नहीं कीजियेगा. हम छोटे से थे. बात आई गयी हो गयी. पापा बता रहे थे कि आपको आज देखते हैं कि जहाँ हैं वहां इसी तरह सबका दिल जीते हुए हैं तो लगता है उसकी बात में कोई बात थी. ये रेलवे वाली बात धुंध धुंध सपनों में आती रही है कई बार. मैं देखती हूँ कि कोई छोटी सी लड़की है. एकदम सेब जैसे गालों वाली. अखरोट का पहला स्वाद भी वहीं से याद में है.
इधर कुछ दिन से फिर से कहीं भाग जाने का दिल करने लगा है. समझ नहीं आता है कि क्यूँ होता है ऐसा. मेरे बकेट लिस्ट में एक लम्बी यात्रा सबसे ऊपर है. अकेले. बुलेट पर. लड़कियां नॉर्मली ऐसी ख्वाहिशें नहीं पालतीं...उनमें हुनर होता है ऐसी किसी ख्वाहिश का बचपन में ही गला घोंट कर मार देने का. एक मैं हूँ...चिंगारी चिंगारी सी हवा दे रही हूँ. इस बार कहीं नौकरी पकड़ी तो पक्का अपने लिए एक बुलेट खरीदूंगी. मुझे डर क्यूँ नहीं लगता. मैं इस कदर बेपरवाह होकर क्यूँ हँस सकती हूँ. कल सब्जी की दूकान में खड़े आलू प्याज उठा रहे थे और याद करके बाकी चीज़ भी...बड़बड़ा रहे थे कि डॉक्टर बाइक चलाने से मना किया है तो घर में सारा सामान ख़त्म है. दुकानदार बोला कि मैडम आप बाइक थोड़े चलाती हैं...आप तो प्लेन चलाती हैं...टेक ऑफ कर जायेगी बाइक आपकी इतनी तेज़ चलती है.
बंगलौर में रहते हुए पहाड़ों से प्यार ख़त्म हो गया था. यहाँ ठंढ इतनी पड़ती है कमबख्त कि हर छुट्टियों में हम समंदर और धूप की ओर भागते हैं. इधर याद में फिर से दार्जलिंग, कुल्लू मनाली और गुलमर्ग खिल रहे हैं. घाटियों से उठते बादल. बेहद ठंढ में दस्ताने पहनना और मुंह से भाप निकालना. मॉल रोड पर खड़े होकर रंग बिरंगे लोगों को गुज़रते देखना. घुमावदार सड़कों का थ्रिल. धुंध धुंध चेहरों का सामने आना मुस्कुराते हुए. पहाड़ों से किसी को नया प्यार नहीं होता...पहाड़ों से हमेशा पुराना प्यार ही होता है. बाइक लिए रेस लगाने का दिल करता है. खुली जीप में दुपट्टा उड़ाने का दिल भी. ऊंची जगहों से अचानक छलांग लगा देने का दिल करता है हमेशा मेरा...L'appel du vide एक फ्रेंच टर्म है, अंग्रेजी में The call of the void... खालीपन... निर्वात जो खींचता है... अपने अन्दर गहरे छलांग लगा देने को. इस बार मगर दिल करता है कि एक कैमरा और नोटबुक लिए जाएँ. बहुत सी तसवीरें खींचें और बहुत सी कहानियां सुनूं...लिखती चलूँ जाने कितनी सारी कवितायें. इस बार किसी छोटे से फारेस्ट गेस्टहाउस में बैठ कर देखूं बादल का ऊपर चढ़ना. सिगड़ी में सेंकूं हाथ. विस्की का सिप मारूँ. सिगरेट पियूँ किसी व्यूपॉइंट पर सबसे सुबह की कड़ाके की ठंढ में जा के. बहुत कुछ कैमरा में कैप्चर करूँ कि जैसे सूरज का उगना. बहुत कुछ आँखों में कैप्चर करूँ जैसे कि अचानक बने दोस्त. पीछे छूटते शहर.
जिंदगी पूरी नहीं पड़ती...कितना कुछ और चलते रहता है पैरलली...कितने शहर खुलते रहते हैं मेरे अन्दर...कल देर रात कुछ शहरों को गूगल मैप पर देख रही थी. पहाड़ों पर टिम टिम दिवाली याद आ रही थी, वैष्णोदेवी से देखना कटरा में फूटते पटाखे. गूगल मैप बताता रहता है कितना कम दूर है सब कुछ...हाथ बढ़ा के छूने इतना. जिंदगी फिसलती जा रही है. अरमानों को ब्लैकलिस्ट करते जा रही हूँ. कितने अफ़सोस बाकी रह जायेंगे. खुदा...यूँ ही फक्कड़पने और आवारगी में उड़ा देने के लिए एक जिंदगी और.