25 September, 2015

राइटर्स डायरी - डैलस में रंगों का नृत्य

गंध है कोई. रेंगते कीड़ों जैसी चढ़ती जा रही है पैरों पर. काली लताओं जैसी. किसी गौथ टैटू की तरह. शायद आज दोपहर Millenium series की किताब 'Girl in the spider's web' पढ़ी है इसलिए. ये पूरी सीरीज मुझे बहुत पसंद आई है. लिसबेथ वैसी हिरोइन है जैसा मैं रचना चाहती हूँ बहुत दिनों से...मगर शायद थोड़ा सा बचा जाती हूँ लिखते हुए 'प्लेयिंग सेफ' जैसा कुछ. मगर किसी दिन मैं अपनी कलम को पूरी तरह से निर्भीक बना सकूंगी और रच सकूंगी किसी ऐसी लड़की को जिस पर मुझे गर्व हो.
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मुझे शब्दों की प्यास लगती है. जिन्दा शब्दों की. जिन्हें किसी जीते जागते इंसान ने लिखा है. मैं शब्दों को पढ़ते हुए इमैजिन करना चाहती हूँ उसको. उसके चेहरे पर के भाव. उसके शहर का मौसम. मगर ऐसा सारे लेखकों के साथ नहीं है. कुछ हैं जो अपने लिखे में घुले-मिले हैं. कुछ आर्टिस्ट इसी तरह होते हैं. अपनी कला में घुलेमिले. उनकी कला उनके मर जाने के हज़ारों साल बाद भी ज़िंदा रहती है. क्यूंकि उन्होंने अपनी हर कलाकृति में अपनी रूह का एक हिस्सा रख दिया होता है. मैं जब किसी म्यूजियम में पेंटिंग्स देखती हूँ तो अकस्मात् किसी पेंटिंग के सामने बहुत देर तक ठहर जाती हूँ. ब्रश स्ट्रोक्स की ऊर्जा को महसूसती हूँ. पहली बार पिकासो की पेंटिंग देखी थी वियेना में तो महसूस किया था कि महान होना शायद इसी को कहते हैं. इतने साल बाद भी उसके ब्रश स्ट्रोक्स लगता था जैसे अभी अभी उकेरे गए हों. जैसे आर्टिस्ट एक गीला कैनवास यहीं रख कर हाथ साफ़ करने गया हो. मैं उसके लौट आने का इंतज़ार करती हूँ. उलझे हुए बिम्ब और प्रतीकों वाली उस पेंटिंग के पीछे उसकी मनोदशा को जानना चाहती हूँ. इस जान पहचान के पीछे इस बात का भी हाथ रहता है कि मैंने उस आर्टिस्ट के बारे में कितना जाना है. शायद कर्ट कोबेन की आवाज़ की मर्मान्तक पीड़ा मुझे इसलिए महसूस होती है कि मैं उसके डायरी के पन्नों से गुज़र चुकी हूँ. मगर फिर भी...कर्ट की आँखों में जो स्याह अँधेरा है...उसे लाइव सुनते हुए मैं जैसे जानती हूँ कि वो इस लम्हे नज़र उठा कर देखेगा...वो देखता है और फिर जैसे स्क्रीन नहीं रहती, यूट्यूब नहीं रहता, वक्त एक बिंदु हो जाता है...मैं ठीक सामने होती हूँ उसके...उस लम्हे. मैंने उसे वाकई तब सुना है जब वो गा रहा था...'माय गर्ल माय गर्ल'. 
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मैं उसके शब्दों को अपनी ऊँगली में लेकर मसलना चाहती हूँ. बचपन में चोट लगती थी तो गेंदा के पत्तों को यूं ही मसल कर उनका रस टपकाते थे हमारे स्पोर्ट्स टीचर. ताज़ा घाव से खून बह रहा होता था. रस उसमें घुलमिल जाता. वे फिर पत्तों से ही घाव को दबा देते और अपनी जेब से एकदम साफ़ रुमाल निकालते...सफ़ेद रंग का, और पट्टी बाँध देते. फिर पीठ ठोकते हुए कहते कि खिलाड़ी को गिरने से डर नहीं लगना चाहिए. उन दिनों हम लड़के और लड़कियों में बंटे हुए नहीं थे. हम बस अपने हिस्से का खेल ठीक से खेलना चाहते थे. मैं ४०० मीटर की धावक हुआ करती थी. मुझे उन दिनों लम्बी पारी का खेल समझ आता था. अपनी सारी एनर्जी शुरू में नहीं झोंकनी चाहिए. आखिर के लिए बचा कर रखनी चाहिए. उन दिनों ज़ख्मों पर मिटटी भी रगड़ दिया करते थे हम. मिट्टी से भी घाव भर जाया करते थे. या कि उम्र ऐसी थी. बिना किसी चीज़ के भी घाव भर जाते.
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मैं पढ़ती हूँ उसका लिखा एक वाक्य. कविता का एक टुकड़ा होता है. संजीवनी बूटी के दो बूँद टपकाए गए हों जीभ पर जैसे. मैं जी उठती हूँ. 
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लास्ट टाइम डैलस आई थी तो आर्ट म्यूजियम लगभग रोज़ ही चली जाती थी. पहले दिन एक स्पेशल एक्जीबिशन लगा हुआ था, ''Between action and the unknown'. 'काजुओ शिरागा' एक जापानी आर्टिस्ट जो कि एक ख़ास ग्रुप 'गुटाई' के सदस्य थे. इसकी कहानी काफी रोचक थी. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जापान अपनी आइडेंटिटी क्राइसिस के दौर से गुज़र रहा था. कला और समाज में इसकी क्या जरूरत है...जब जीने के लिए बाकी चीज़ें ज्यादा जरूरी हों और समाज बहुत दिनों तक सिर्फ जीवन की बेसिक जरूरतों को किसी तरह पूरा करने में सक्षम रहा हो...जहाँ मौत और भूख चप्पे चप्पे पर दिखती हो ऐसे में कला सिर्फ साक्षी भाव से चीज़ों को देखना नहीं हो सकता...कला को भी कहीं न कहीं चीज़ों से जुड़ना होगा. चीज़ों से सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव काफी नहीं है, इसके अलावा भी कई स्तरों पर एक कलाकार को कोशिश करनी होगी कि कला को बेहतर आत्मसात कर सके. अपनी सीमाओं से ऊपर उठ सके. अपने कैनवास से इतर सोच सके. 
The artist काजुओ को जब उसके गुरु ने कहा कि पेंटिंग को उसके माध्यम से इतर होकर कुछ नया देखना और सोचना होगा...सिर्फ ब्रश उठा कर कैनवास पर किसी दृश्य को उतार देने से बढ़ कर भी कुछ होना चाहिए कला में. तो काजुओ ने 'गति' को पेंटिंग का केंद्र बनाया. उसने कैनवास को ज़मीन पर रखा और छत से एक रस्सी लटकाई...कैनवास पर जगह जगह पेंट उड़ेला और नंगे पांवों से पेंट करना शुरू किया. ये पेंट एक नृत्य सरीखा था. काजुओ का कहना था कि उन्हें पेटिंग एक मूवमेंट की तरह महसूस होती है और वे उसकी लय में कैनवास पर झूमते जाते हैं...उनका पेंट करना बहुत हद तक गति को माध्यम देने जैसा था. पेंटिंग की इस शैली को 'एक्शन पेंटिंग' या 'काइनेटिक पेंटिंग' भी कहते हैं. काजुओ को इन पेंटिंग्स को बनाते हुए आध्यात्मिक अनुभव हुए थे. कला दीर्घा में इन पेंटिंग्स को देखते हुए मैं इनके सम्मोहन में खो जाती हूँ. अधिकतर पेंटिंग्स अपने आप में एक पूरी दुनिया हैं...एक गहन भाव जो पेंटिंग्स से रिसता हुआ महसूस होता है...आत्मा को संतृप्त करता हुआ. उन्हें छूने का मन करता है. हर पेंटिंग एक सान्द्र विलयन है. किसी दूसरी दुनिया का दरवाज़ा. कैनवास गीला लगता है. जैसे छूने से रंग उतर आयेंगे जिंदगी में. मैं देर तक सोचती हूँ. अगर कोई मुझे कहे कि ऐसी कहानी लिखो जिसमें शब्द न हों...ऐसी कविता जिसमें लय न हो...ऐसा अनुभव जिसमें कुछ भी पहले जैसा नहीं हो तो मैं क्या करूंगी. क्या कोई नया माध्यम बना पाऊँगी. नया. घबराहट होती है. शब्दों की प्यास लगती है. फिर.
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कल मैं कब्रिस्तान गयी थी. पूरी दोपहर कब्रों पर लिखी इबारतें पढ़ती रही. लोगों के जन्म मरण की तारीखें. उनका काम. उनके नाम लिखे संदेसे. सोचती रही कि कैसा होता होगा मरने के बहुत सालों बाद भी जरा सी जमीन पर अपना अधिकार जमाये रखना. 

कोई कब्रिस्तान होता है दिल. यूं ही दफन रहते हैं कितने लोग. नाम. तारीखें. इक आधी इबारत कोई. मगर कब्रिस्तान के बारे में डिटेल में फिर कभी. फिलहाल. कोई कहानी है. कुछेक पोस्टकार्ड्स हैं और खोये हुए स्टैम्प्स. इस बार स्याही की बोतल लेकर आई थी कि कम न पड़ जाए. मगर इस बार लिखा नहीं है कुछ. फिर किसी दिन. फिर किसी शाम के रंग में. घुलते. बहते. मिलेंगे खुद से. मुस्कुराएंगे उड़ते हुए हवाईजहाज़ को देख कर. कहेंगे अलविदा. और वाकई जा सकेंगे तुम्हारे दिल के इस कब्रिस्तान से बाहर. अपना कोई वजूद तलाशते हुए. 

<इक गहरी साँस. जैसे अटका हुआ है कोई नाम. कोई किरदार. किसी कहानी का अंत>

18 September, 2015

जीने से इतर

अन्दर एक विशाल खालीपन है. वैक्यूम. जैसे अन्तरिक्ष में होता है.
हम लिखते हैं कि इस खालीपन को भर सकें किसी तरह. शब्दों से. चुप्पी से. कहानियों से. उलटे-पुल्टे किरदारों से. हम लिखते हैं कि मुट्ठी मुट्ठी शब्दों से भर सकें एक कोना ही सही. कहीं एक घर बना सकें शब्दों का और रह सकें उसमें. हम शब्दों से खड़ी करते हैं दीवार. अपनी सुरक्षा के लिए. कि जिससे टिक कर महसूस किया जा सके अपने होने को भी. 

हम लिखते हैं कि भूल न जायें कि हमारा होना क्यों है. हम कई बार इसलिए भी लिखते हैं कि इसके सिवा हमें और कुछ नहीं आता. हमने अपनी जिंदगी में किसी को शब्दों के सिवा कुछ नहीं दिया है. हम दर्ज करते जाते हैं अपने दिन. रात. सुबह. शहर. व्हिस्की की ब्रांड. सिगरेट का धुआं. गाड़ियों का शोर. अनजान शहरों में मिले अजनबी के बच्चों के नाम. ट्रेन पर दिखा कोई गहरे लाल शर्ट पहने खूबसूरत लड़का. किसी म्यूजियम में किसी तस्वीर के सामने बैठी लड़की...जो फ्रेम में दिखती है इतनी खूबसूरत कि लगती है फ्रेम का हिस्सा. 

हम लिखते हैं कि हमें लगता है दुनिया लुप्त होती जा रही है. देखते देखते गायब हो जाते हैं लाल पोस्टबॉक्स. अगर हम न लिखें तो कोई जानेगा भी नहीं कि हुआ करता था यहाँ एक लाल डब्बा कोई. हम लिखते हैं पोस्टकार्ड कि दूर देश बैठे हमारे दोस्त गायब न हो जाएँ दुनिया से. कागज़ के इक टुकड़े पर हम लिखते हैं एड्रेस तो पुख्ता हो जाती है उनकी मौजूदगी. उन्हें कोई यूं ही मिटा नहीं सकता फिर दुनिया के मानचित्र से. हम लिखते हैं घुल जाने वाली शाम के बारे में. कि हम जानते हैं इस होटल में हमारे सिवा शायद ही कोई और देख रहा होगा इस 'heartbreakingly beautiful' शाम को. हम करते हैं जिद कि हमें पश्चिम दिशा का कमरा मिले कि सिर्फ हमारे लिए जरूरी होता है सूर्यास्त. 

हम लिखते हैं कि हमें कोई समझ नहीं सकता. हम लिखते हैं इकतरफे ख़त. हमारी दोस्तियों में भी बची रह जाती है थोड़ी सी जगह. हम लिख लिख कर उस जगह को पाट देना चाहते हैं. हम दिल की दरकी हुयी दरारों को भर देना चाहते हैं कविताओं से...कहानियों से...हैप्पी एंडिंग से. हम जाना चाहते हैं ग्रेवयार्ड. पढ़ते हैं किसी कब्र के पत्थर पर लिखी कहानी कोई. किसी के जीने का गुलाबी पन्ना. किसी के होने का सबसे खूबसूरत अहसास. हम लिखते हैं कि हमें नहीं आता है तसवीरें खींचना. हम लिखते हैं कि हमें चुप रहना नहीं आता. 

हम लिखते हैं कि भूल न जाएँ हम कौन हुआ करते थे. हमारा कोई दुश्मन नहीं. अपने दुश्मन हम खुद हुआ करते हैं. हम देर रात सुबकते हुए कहते हैं अपने बेस्ट फ्रेंड्स को...हमें इन लोगों से क्यूँ हुआ करता है इश्क़...हम क्यूँ नहीं जी सकते बाकी लोगों की तरह. हुआ होगा तुम सबके साथ ये हादसा भी कभी. कोई चाहता है लिखना वैसा जैसे कि लिखते हो तुम...मगर कोई नहीं चाहता वैसा जीना कि जैसे जीते हो तुम. इन तकलीफों को बुला कर अपने दिल में रिफ्यूजी कैम्प नहीं खोलना चाहता है कोई. 

हम अभिशप्त लोग हैं. जीने को अभिशप्त. हमें सीमाएं समझ नहीं आतीं. हम ताउम्र परेशान रहते हैं कि हमसे कहाँ गलतियाँ हुयीं और के ये दुनिया इतनी सिंपल क्यूँ नहीं है जैसी हमें लगती है. किसी से बात करने का मन हुआ तो बात क्यों नहीं की जा सकती...कितना मुश्किल होता है बात करना. आखिर हम क्यूँ कर सकते हैं किसी से भी बात. एअरपोर्ट पर कस्टम ऑफिसर से अचार के बारे में मज़ाक कर सकते हैं. होटल के रिसेप्शन पर लोगों को पोस्टकार्ड के पीछे लिखी हिंदी के छोटे से ख़त का अंग्रेजी अनुवाद कर सकते हैं. हम अगर पूरी दुनिया से बात कर सकते हैं तो उससे क्यों नहीं कर सकते जिससे करने को जी चाह रहा है. ऐसा कौन सा आसमान टूट पड़ता है बात करने से. क्या हो जाता है. क्या. बटरफ्लाई इफ़ेक्ट. उनसे एक रोज़ बात करने से कहीं समंदर में तूफ़ान आ जाता है. है न? 
डैलस आये हुए तीन दिन हुए. कहीं गयी नहीं हूँ. खिड़की से गहरे नीले आसमान से गुज़रते सफ़ेद बादल दिखते हैं. गाड़ियों का शोर आता है. उदासी और आलस का गहरा और खतरनाक कॉम्बिनेशन है. हम चाहते हैं कि लिख लिख कर सारी उदासी को ख़त्म कर दें. आज शहर घूमने जायेंगे. थोड़ी दारू पियेंगे. थोड़ी तसवीरें खींचेंगे. भेजेंगे कुछ पोस्टकार्ड. अपने बदतमीज दोस्तों को. जहाँ गाड़ियां इतनी तेज़ी से गुज़रती हैं कि जिंदगी भी नहीं गुज़रती...उस शहर में लेना चाहती हूँ एक गहरी सांस और चीखना चाहती हूँ अपने सारे दोस्तों का नाम. आई मिस यू. ब्लडी इडियट्स.

11 September, 2015

किस्सा-ए-बदतमीज़ शाहज़ादा, पागल लड़की और नीली स्याही

कभी कभी लगता है हमसे ड्रामेबाज़ कोई और हो तो हम जानते नहीं. शाम में मूड बना...आंधी तूफ़ान की तरह घर से निकले हैं....भागते मूड को पकड़ना जरूरी था...दिल तो ये भी कर रहा था कि कोई विस्की टाइप चीज़ होता तो नीट पी जाते बोतल से ही...मगर घर पर था नहीं और दूर जा के लाने का इन्तेजाम नहीं था...मने कि बाइक चलाना अभी डॉक्टर अलाव नहीं किया है...हम उसको बोले कि हम दो बार चला लिए पिछले हफ्ते तो हमको घूरा...कि हमसे पूछने का मतलब ही क्या है जब अपने ही मन का करती हो...पर खैर दस दिन का बात है और फिर हम अपने हाथ का जो चाहे इस्तेमाल कर सकते हैं...मार पिटाई...ढिशूम ढिशूम वगैरह वगैरह.

तो शाम को उधर से ही डोलते डालते आये थे कि बस...आज तो जो करवा लो हमसे...बीड़ी पहले कभी खरीदी नहीं थी...पान की दूकान पर पूछे तो बोला यहाँ नहीं आगे मिलेगा...आगे मिलेगा...तीन और पान का दूकान पर पूछे तब जा के चौथे पर बोला कि हाँ है...दो पैकेट बीड़ी खरीदे...वहीं से धूंकते हुए घर आये...कान में इयरफोन लगा हुआ था फुल साउंड में...रंगरेज़ मेरे सुनते हुए आये...
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बहुत सी बीड़ी धूंकने के बाद बावले होने का मौसम आया था. लड़की ने जाने कब से शैम्पू नहीं किया था...बालों में शहर का मौसम इस कदर उलझ गया था कि बस...हर कश में मुहब्बत सा जलता था...पहली बार इश्क हुआ था तो भी ऐसा ही लगा था.
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'ये १७वीं बीड़ी है मेरी जान. कलेजा जल जाएगा', मेरे होठ चूमते हुए उसने पूछा, 'अब किससे इश्क़ हो गया है तुझे?'
'मौत से'
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घर पर खूब सारा डांस किया...खूब सारा...सर दर्द के मारे फटा जा रहा था...खुमार की तरह शब्द चढ़ रहे थे...बहुत बहुत बहुत दिनों बाद...लग रहा था मैं पूरी पूरी लिक्विड बन गयी हूँ और बस कागज़ पर उतर जाऊं किसी तरह...बीड़ी रखने को ऐशट्रे मिल नहीं रही थी...कानों में हेडफोन लगे हुए थे...बोस वाले...कि बस आगे दुनिया फिर मुझे दिखती कहाँ है. इधर बहुत सोचने लगती हूँ मैं...अच्छा बुरा...जाने क्या क्या. सही गलत. मेरे अन्दर वो जो पागल लड़की रहती थी, उसे जेल में डाल दिया था. वो मुझे पागल कर रही थी. सलीके से जीना पहले कहाँ आता था मुझे. न चीज़ों को परफेक्ट करना.

इधर लिखने की आदत छूट गयी है तो शब्द आते हैं तो उनको लिखने का डिसिप्लिन गायब था...उँगलियाँ बौरा रही थीं...और फिर ये भी लग रहा था कि शब्दों में नहीं हो पायेगा...कुछ और मीडियम चाहिए इनको. तो बस. हेडफोन ऑन था ही. लैपटॉप पर रिकॉर्ड कर दिया. ये इसलिए नहीं है कि कोई इसे पसंद करे....ये इसलिए है कि मेरे अन्दर इक लड़की रहती है...दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की. उससे मुझे बेपनाह इश्क़ है...अब ये गुनाह है तो गुनाह सही.
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तुम्हें देखना चाहिए उसे. अभी. इस लम्हे. इस शहर की किसी बालकनी से...इस बेमुरव्वत शहर की किसी खिड़की से...इस नामुराद शहर की किसी सड़क पर चलते हुए...यूँ झूमते हुए...खुद के इश्क़ में यूं डूबी हुयी कि मौत के गले पड़ जाए तो मौत पीछा छुड़ा कर भाग ले पतली गली से.
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इक दुष्ट शहजादा था...हाँ, वही...जिसने लड़की का दिल चुरा लिया था...इस बार वो उसकी नीली स्याही की दवात लिए भागा है...बताओ, शोभा देता है उसको...शहजादा होकर भी ऐसी हरकतें...उफ़...आपको कहीं मिले तो समझाना उसे...ठीक?

09 September, 2015

तालपत्र, संस्कृत की लिपियाँ और इतिहास की चिप्पियाँ

मुझे याद है कि जब मैं स्टैण्डर्ड एट या सेवेन में थी तो मुझे लगता था हम हिस्ट्री क्यूँ पढ़ते हैं. सारे सब्जेक्ट्स में मुझे ये सबसे बोरिंग लगता था. एक कारण शायद ये भी रहा हो कि हमारी टीचर सिर्फ रीडिंग लगा देती थीं, अपनी तरफ से कुछ जोड़े बगैर...कोई कहानी सुनाये बगैर. उसपर ये एक ऐसा सब्जेक्ट था जिसमें बहुत रट्टा मारना पड़ता था. पानीपत का युद्ध कब हुआ था से हमको क्या मतलब. कोल्ड वॉर चैप्टर क्यूँ था मुझे आज भी समझ नहीं आता. या तो हमारी किताबें ऐसी थीं कि सारे इंट्रेस्टिंग डिटेल्स गायब थे. अब जैसे प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध को अगर कोई टीचर रोचक नहीं बना पा रहा है तो वो उसकी गलती है. उन कई सारे किताबों पर भारी पड़ती थी एक कहानी, 'उसने कहा था'. मुझे लगा था कि टेंथ के बाद हिस्ट्री से हमेशा के लिए निजात मिल गयी.

बीता हुआ लौट कर आया बहुत साल बाद 2006 में...नया ऑफिस था और विकिपीडिया पहली बार डिस्कवर किया था. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि मैं द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में क्यों पढ़ रही थी...शायद हिटलर की जीवनी से वहाँ पहुंची थी या ऐसा ही कुछ. उन दिनों जितना ही कुछ पढ़ती जाती, उतना ही लगता कि दुनिया के बारे में कितना सारा कुछ जानने को बाकी है. उस साल से लेकर अब तक...मैंने इन्टरनेट का उपयोग करके जाने क्या क्या पढ़ डाला है. विकिपीडिया और गूगल के सहारे बहुत सारा कुछ जाना है. उन दिनों पहली बार जाना था कि खुद को और इस दुनिया को बेहतर जानने और समझने के लिए इतिहास को समझना बहुत जरूरी है.

ग्रेजुएशन में मैंने एडवरटाइजिंग में मेजर किया है. दिल्ली में जब पहली बार ट्रेनिंग करने गयी तो वो एक ऐड एजेंसी थी. उन दिनों कॉपीराइटर बनने के लिए भाषा परफेक्ट होनी जरूरी थी. प्रूफ की गलतियाँ न हों इसलिए नज़र, दिमाग सब पैना रखना होता था. कॉमा, फुल स्टॉप, डैश, हायफ़न...सब गौर से हज़ार बार चेक करने की आदत थी. बात हिंदी की हो या इंग्लिश की...मेरे लिखे में कभी एक भी गलती नहीं हो सकती थी. न ग्रामर की न स्पेलिंग की...और इस बात पर मैं स्कूल के दिनों से काफी इतराया करती थी.

अंग्रेजी का एक टर्म है 'occupational hazard' यानि पेशे के कारण होने वाली परेशानियाँ. जैसे कि फौजी को छुट्टियाँ नहीं मिलतीं. सिंगर को किसी भी ग्रुप में लोग हमेशा गाने के लिए परेशान कर देते हैं. कवि से लोग कटे कटे से रहते हैं. डॉक्टर से सब लोग बीमारियों की बहुत सी बातें करते हैं वगैरह वगैरह. तो ये कॉपीराइटर के शुरू के तीन महीनों के कारण मेरी पूरी जिंदगी कुछ यूँ है कि हम शब्दों पर बहुत अटकते हैं. लिखा हुआ सब कुछ पढ़ जाते हैं. फिल्मों के लास्ट के क्रेडिट्स तक. रेस्टोरेंट के मेनू में टाइपो एरर्स देखते हैं...यहाँ तक कि हमें कोई लव लेटर लिख मारे(अभी तक लिखा नहीं है किसी ने) तो हम उसमें भी टाइपो एरर देखने लगेंगे. जब पेंग्विन से मेरी किताब छप रही थी, 'तीन रोज़ इश्क़' तो उसकी बाई लाइन थी 'गुम होती कहानियाँ'. जब किताब का कवर बन के आया तो मैंने कहा, 'कहानियां' में टाइपो एरर है, बिंदु नहीं चन्द्रबिन्दु का प्रयोग होगा. मेरे एडिटर ने बताया कि पेंग्विन चन्द्रबिन्दु का प्रयोग अपने किसी प्रकाशन में नहीं करता. मुझे यकीन नहीं हुआ कि पेंग्विन जैसा बड़ा प्रकाशक ऐसा करता है. कमसे कम आप्शन तो दे ही सकता है, अगर किसी लेखक को अपने लेखन में चन्द्रबिन्दु चाहिए तो वो खुद से कॉपी चेक करके दे. मगर पहली किताब थी. हम चुप लगा गए. अगर कभी अगली किताब लिखी तो इस मुद्दे पर हम हरगिज़ पीछे नहीं हटेंगे.

भाषा और उससे जुड़ी अपनी पहचान को लेकर मैं थोड़ा सेंटी भी रहती हूँ. मुझे अपने तरफ की बोली नहीं आती...अंगिका...मेरी चिंताओं में अक्सर ये बात भी रहती है कि भाषा या बोली के गुम हो जाने के साथ बहुत सी और चीज़ें हमेशा के लिए खो जायेंगी. बोली हमारे पहचान का काफी जरूरी हिस्सा है. मुझे अच्छा लगता है जब कोई बोलता है कि तुम्हारे हिंदी या इंग्लिश में बिहारी ऐक्सेंट आता है. इसका मतलब है कि दिल्ली और अब बैंगलोर में रहने के बावजूद मेरे बचपन की कोई चीज़ बाकी रह गयी है जिससे कि पता चल सके कि मेरी जड़ें कहाँ की हैं.

ओरियेंटल लाइब्रेरी में रखे रैक्स में तालपत्र
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मैसूर युनिवर्सिटी का ये शताब्दी साल है. इस अवसर पर एक कॉफ़ी टेबल बुक का लेखन और संपादन कर रही हूँ जो कि यूनिवर्सिटी द्वारा जनवरी में प्रिंट होगा. प्रोजेक्ट की शुरुआत में हम वाइसचांसलर और रजिस्ट्रार से मिलने गए. यूनिवर्सिटी में ओरिएण्टल लाइब्रेरी है. हमने रिसर्च की शुरुआत वहीं से की...इस लाइब्रेरी में कुल जमा 70,000 पाण्डुलिपियाँ हैं, जिनमें कुछ तो आठ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी हैं. मैंने पांडुलिपियों की बात सुनी तो सोचा कि एक आध होंगी. अभी तक जितनी भी देखी थीं वो सिर्फ संग्रहालयों में, वो भी शीशे के बक्से में. यहाँ पहली बार खुद से छू कर ताड़ के पत्तों पर लिखा देखा. इनपर लिखने के लिए धातु की नुकीली कलम इस्तेमाल होती थी...तालपत्र पर लिखने वालों को लिपिकार कहते थे. कवि, लेखक, इत्यादि अपनी रचनायें कहते थे और लिपिकार उन्हें सुन कर तालपत्रों पर उकेरते जाते थे. 
उसे लाइब्रेरी कहने का जी नहीं चाहता...ग्रंथालय कहने का मन करता है. लोहे के पुराने ज़माने के रैक और लोहे की जालीदार सीढियाँ. ज़मीन से तीन तल्लों तक जाते रैक्स और उनपर ढेरों पांडुलिपियाँ. एक अजीब सी गंध. पुरानी लकड़ी की...लेमनग्रास तेल की...और पुरानेपन की. जैसे ये जगह किसी और सदी की है और हम किसी टाइम मशीन से यहाँ पहुँच गए हैं. सन के धागे से बंधे तालपत्र. उनपर की गयी नम्बरिंग. मैंने सब फटी फटी आँखों से देखा. मुझे पहली बार मालूम चला कि संस्कृत को देवनागरी की अलावा कई और लिपियों में लिखा गया है. कन्नड़. ग्रंथ. तमिल. ये मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. उन्होंने दिखाया कि कन्नड़ में लिखी गयी संस्कृत के श्लोकों के बीच खाली जगह नहीं दी गयी थी. संस्कृत में वैसे भी लम्बे लम्बे संयुक्ताक्षर होते हैं लेकिन बिना किसी स्पेस के लिखे हुए श्लोकों को पढ़ना बेहद मुश्किल होता है. फिर हर लिपिकार की हैण्डराइटिंग अलग अलग होती है...हमें वहां मैडम ने बताया कि कुछ दिन तो एक लिपिकार की लिपि समझने में ही लग जाते हैं. उन्होंने ये भी बताया कि देवनागरी में तालपत्रों पर लिखने में मुश्किल होती थी क्योंकि देवनागरी में अक्षरों के ऊपर जो लाइन खींची जाती है, उससे तालपत्र कट जाते थे और जल्दी ख़राब हो जाते थे.
तालपत्र- ओरियेंटल लाइब्रेरी, मैसूर, clicked by my iPhone

मैसूर गए हुए दो महीने से ऊपर होने को आये लेकिन ये तथ्य कि संस्कृत किसी और लिपि में भी लिखी जाती है, मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था. मगर फिर पिछले कुछ दिनों से एक्सीडेंट के कारण कुछ अलग ही प्राथमिकताएं हो गयीं थीं तो इसपर ध्यान नहीं गया. कल फिर प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया तो बात यहीं अटक गयी. एक दोस्त से डिस्कस कर रही थी तो पहली बार ध्यान गया कि संस्कृत या फिर वेद...मेरे लिए ये दोनों inter-changeable हैं. मैं जब संस्कृत की बात सोचती हूँ तो वेद ही सोचती हूँ. फिर लगा कि वेद तो 'श्रुति' रहे हैं. तो पूरे भारत में अगर सब लोग वेद पढ़ रहे होंगे या कि सीख रहे होंगे तो लिपि की जरूरत तो बहुत सालों तक आई भी नहीं होगी...और जब आई होगी तो जिस प्रदेश में जैसी लिपि का प्रचलन रहा होगा, उसी लिपि में लिखी गयी होगी.

बात फिर से आइडेंटिटी या कहें कि पहचान की आ जाती है. मैंने शायद इस बात पर अब तक कभी ध्यान नहीं दिया था कि मैं एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी हूँ और उसके बाद देवघर में पली बढ़ी. वेद और श्लोक हमारे जीवन में यूँ गुंथे हुए थे कि हमारी समझ से इतर भी एक इतिहास हो सकता है इसपर कभी सोच भी नहीं पायी. अगर आप देवघर मंदिर जायेंगे तो वहां पण्डे बहुत छोटी उम्र से वेद-पाठ करते हुए मिल जायेंगे. उत्तर भारत की इस पृष्ठभूमि के कारण भी मैंने कभी संस्कृत के उद्गम के बारे में कुछ जानने की कोशिश भी नहीं की. आज मैंने दिन भर भाषा और उसके उद्गम के बारे में पढ़ा है. भाषा मेरी समझ से कहीं ज्यादा चीज़ों के हिसाब से बदलती है...इसमें बोलने वाले का धर्म...उस समय की सामाजिक संरचना...सियासत...कारोबार... बहुत सारी चीज़ों का गहरा असर पड़ता है.

Brahmi script on Ashoka Pillar,
Sarnath" by ampersandyslexia 
भारत की सबसे पुरानी लिपि ब्राह्मी है. 250–232 BCE में बने अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि के उद्धरण हैं. ब्राह्मी लिपि से मुख्यतः दो अलग तरह के लिपि वर्ग आगे जाके बनते गए...दक्षिण भारत की लिपियाँ जैसे कि तमिल, कन्नड़, तेलगु इत्यादि वृत्ताकार या कि गोलाई लिए हुए बनीं जबकि उत्तर भारत की लिपियाँ जैसे कि देवनागरी, बंगला, और गुजराती में सीधी लकीरों से बनते कोण अधिक थे. संस्कृत को कई सारी लिपियों में लिखा गया है. 

मेरी मौसी ने संस्कृत में Ph.D की है. इसी सिलसिले में आज उनसे भी बात हुयी. अपनी थीसिस के लिए उन्होंने ग्रन्थ लिपि सीखी थी और इसमें लिखे कई संस्कृत के तालपत्रों को बी ही पढ़ा था. उन्होंने एक रोचक बात भी बतायी...लिपिकार हमेशा कायस्थ ही हुआ करते थे. इसलिए कायस्थों की हैण्डराइटिंग बहुत अच्छी हुआ करती है. 

जाति-व्यवस्था के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था. अपने ब्राह्मण होने या अपने कायस्थ दोस्तों की राइटिंग अच्छी होने के बारे में भी इस नज़रिए से कभी नहीं देखा था. अब सोचती हूँ कि गाहे बगाहे हमारा इतिहास हमारे सामने खड़ा हो ही जाता है...हमारी जो जड़ें रही हैं, उनको झुठलाना इतना आसान नहीं है. इतने सालों बाद सोचती हूँ कि वाकई इतिहास को सही तरह से जानना इसलिए भी जरूरी है कि हम अपनी पुरानी गलतियों को दोहराने से बचें.

भाषा और इसके कई और पहलुओं पर बहुत दिन से सोच रही हूँ. कोशिश करूंगी और कुछ नयी चीज़ों को साझा करूँ. इस पोस्ट में लिखी गयी चीज़ें मेरे अपने जीवन अनुभवों और थोड़ी बहुत रिसर्च पर बेस्ड हैं. ये प्रमाणिक नहीं भी हो सकती हैं क्योंकि मैं भाषाविद नहीं हूँ. कहीं भूल हुयी होगी तो माफ़ की जाए.

07 September, 2015

जहाँ भी रहो...अपने जाम में हमारे नाम की बर्फ डालना मत भूलना.

'कहाँ जा रही हो जानेमन?',
'जहन्नुम'
'इतना बड़ा बक्सा लेकर? इसमें क्या मंटो उस्ताद के लिए किताबें ले जा रही हो?'
'गोश्त ले जा रही हूँ. कलेजी. तुझ जैसे जले बुझे लोगों की हाय. तू मेरे मंटो का पीछा छोड़ के मर क्यूँ नहीं जाती?'
'मरें तेरे आशिक़...इस बेतरह खूबसूरत दुनिया से रुखसत होने को जब तक मंटो का पर्सनल लेटर नहीं आएगा...हम तो न जाने वाले हैं...हाँ तू जा ही रही है तो ये ले...मेरा रूमाल लेते जा सरकार के लिए...उन्हें कहना, बंदी उनके इश्क़ में अपनी जिंदगी बर्बाद कर रही है...वे मुझे जल्द बुलावा भेजें कि हालत बहुत नाज़ुक है'.
'तेरी नाज़ुक हालत से मंटो का क्या कनेक्शन? ये सब इस कमबख्त सिगरेट का किया धरा है...इतनी सिगरेट न पिया कर...यूँ भी तेरा जिगर जला हुआ है...जुबान जल जायेगी तो और जली कटी बातें किया करेगी'
'इत्ती चिंता है तो एक आध अपने आशिकों का कोटा मेरे नाम करती जा'
'मैं घूमने जा रही हूँ...मर नहीं रही जो अपने आशिकों का कोटा तेरे नाम कर दूं...और दुनिया में लड़कों की कमी पड़ गयी है...तुझसे सेकंड हैण्ड माल में कब से इंटरेस्ट होने लगा?'
'तेरी छुअन से नार्मल लड़के भी नशीले हो जाते हैं मेरी जान...हम तो उन्हें वहां वहां चूमेंगे जहाँ तुम्हारे निशान बाकी होंगी...तू न सही...तेरे यार सही'
'मैं न सही? दिन भर, रात भर मेरे कमरे में घर बनाया हुआ है...आखिरी बार अपने घर कब गयी थी? कपड़े मेरे पहनेगी...माँ को मुझसे ज्यादा तेरी पसंद के बारे में पता है...पापा तेरे कैरियर को लेकर परेशान हैं...भाई तेरा दिया फ्रेंडशिप बैंड पहनता है, मेरी लायी राखी नहीं...मेरे आशिकों की गिनती मेरे से ज्यादा तुझे याद है...और मैं कितनी चाहिए तुझे बे?'
'पर तुझे मुझसे प्यार नहीं होता'
'क्यूंकि तूने मंटो पर बुरी नज़र डाल रखी है. तू मंटो को छोड़ दे, मैं पूरी की पूरी तुम्हारी'
'घाटे का सौदा मैं नहीं करती मेरी जान'
'मर फिर. मैं कुछ नहीं बता रही कि कहाँ जा रही हूँ. फुट यहाँ से...कर ले जो करना है'
'देख, कर तो मैं बहुत कुछ सकती हूँ...तू हाथ तो लगाने दे'
'उफ़. लड़के क्या कम आफत थे जो तुमने ये नया शगल पाला है. आई एम स्ट्रेट'
'स्ट्रेट बोले तो सीधी...माने कि जलेबी की तरह'
'भुक्खड़...हमेशा खाने का सोचेगी'
'सोचो, तुम दुनिया की आधी आबादी से इश्क़ करने का चांस मिस कर रही हो'
'तुम्हें ऐसा लगता है कि मुझे इश्क़ की कमी है? जितना है उतनी आफत है...इससे ज्यादा हैंडल नहीं होगा मुझसे'
'यू आर अंडरएस्तिमेटिंग योरसेल्फ...अगर किसी से हैंडल होगा तो तुमसे होगा...कोई ख़ास अंतर नहीं है...तुम एक बार सोच के तो देखो...अपने दिमाग की खिड़कियाँ खोलो मेरी जान...ये लिहाफ हटाओ'
'अच्छा...तो अभी तक इस्मत का जादू चढ़ा हुआ है तेरे सर माथे...मंटो की जगह उससे प्यार कर लो...तुम्हें तो औरतें पसंद आती हैं'
'इस्मत में तेरी वाली बात नहीं है'
'अच्छा...कौन सी बात?'
'हॉटनेस मेरी जान...इस्मत में हॉटनेस की कमी है'
'तुम बायस्ड हो.'
'हाँ, हूँ. मेरा हक बनता है'
'तुम्हें इस्मत से इसलिए प्यार नहीं है क्यूंकि मुझे इस्मत से प्यार नहीं है.'
'अब तुम खुद को ओवरएस्टीमेट कर रही हो. तुम्हें क्या लगता है मेरी जिंदगी तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमती है? तुम्हारे बगैर मैं किसी को नापसंद भी नहीं कर सकती?
'मुझे तुझसे उस तरह का प्यार नहीं होगा कभी. कित्ती बार बोलूंगी तो बात समझ आएगी तुझे?'
'कभी नहीं आएगी. पर वो झगड़ा तो अपन जिंदगी भर कर सकते हैं...फिलहाल ये सामान कहाँ के लिए बाँध रही है वो बता'
'अपने देश में एक नदी है. चम्बल. वहाँ. एक फकीर रहता है'
'चम्बल किनारे डाकू होते हैं. फकीर नहीं.'
'डाकू हॉट हुए तो मुझे दिक्कत नहीं है.'
'मरने का इतना शौक़ है तो हिमालय जा के मर. पहले एक आध किताब लिख मार. न हो तो सुसाइड लेटर्स की एक किताब लिख दे...इतने तो ड्राफ्ट्स लिखे पड़े हैं. तेरे जाने के बाद ये सब मेरा हो जाएगा?'
'तू मेरे सामान से दूर रह. और यूं भी डाकू और फ़कीर में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. दोनों दुनिया को ठुकराए हुए लोग होते हैं...ज्ञान जहाँ से मिले लपेट लेना चाहिए. चम्बल किनारे का डाकू भी जीना सिखा सकता है'
'तू मर जाने की वजह टाइप करने वाली चलती फिरती टाइपरायटर है...तुझे जीना कोई नहीं सिखा सकता'
'चम्बल की खासियत मालूम है तुझे...चम्बल उलटी बहती है...दक्खिन से उत्तर की तरफ...जबकि भारत की सारी नदियाँ उत्तर से दक्खिन बहती हैं'
'तो?'
'मने, चम्बल की धार उलटी है...चम्बल के किनारे का फ़कीर दुनिया से उलट होगा...उसे मैं समझ आउंगी'
'ये किसने कहा? बात की है तूने फ़कीर से...उसका फेसबुक पेज है? व्हाट्सऐप्प पर उसकी प्रोफाइल पिक दिखा'
'मुझे ये सब नहीं मालूम है'
'तो फिर?'
'बस...कुछ है तो जो मुझे खींच रहा है उस ओर...मैं जानती हूँ चम्बल किनारे कोई फ़कीर है जिसके पास मेरे हिस्से के सारे सवाल होंगे'
'और मेरे सवालों का जवाब कौन देगा? ये किसने गोली दी है तुझे नदियों की दिशा के बारे में? नील नदी भी उत्तर से दक्खिन बहती है...तो? नील नदी के किनारे चली जाएगी?'
'चली जाती अगर कोई मेरा टिकट कटा देता'
'मैं भी चलूंगी तेरे साथ?'
'क्यूँ?'
'इन उलटे पुल्टे प्लान्स का कुछ नहीं होगा...कोई जरूरत नहीं है जाने की...तुझे क्या लगता है कि वाकई चम्बल किनारे कोई फ़कीर बैठा होगा?'
'जानेमन...कुछ न होगा तो तजरबा होगा'
'घंटा होगा...तेरा दिमाग खराब है'
---
आपको किसी ने बताया कि चम्बल उल्टी दिशा में बहती है? या कि किसी फ़कीर के बारे में ही?
अब भी उसके लिखे खतों से चम्बल की उजाड़ उदासी बहती है...बीहड़ों में कुछ जिद्दी यादें डाका डालने को तैयार रहती हैं हर वक़्त. दुनिया से किसी एक लड़की के गुम हो जाने से किसी को फर्क नहीं पड़ता. मैं देखती हूँ कि सब पहले जैसा चल रहा है. लोग उसके इंतज़ार के बिना जीने की आदत डाल चुके हैं. मुझे ठीक ठीक याद नहीं मैं उसकी कौन सी बात मिस करती हूँ सबसे ज्यादा. अक्सर मुझे लगता है कि मुझे सबसे ज्यादा दुःख इस बात का होता है कि उसके बिना मंटो से मुहब्बत करने में कोई जायका नहीं.
दोस्त. दुश्मन. परिवार. सब अपनी अपनी जगह है...बहुत खोजने से शायद मिल जाते हैं...या इनके बिना जी जा सकती है ज़िन्दगी. मगर एक अच्छा रकीब...उफ्फ्फफ्फ्फ़. बहुत किस्मत से मिलता है. बहुत. 

तो मेरे रकीब...चियर्स. जहाँ भी रहो...अपने जाम में हमारे नाम की बर्फ डालना मत भूलना.

05 September, 2015

फेयरवेल डियर फाबिया, यू वेयर द बेस्ट कार एवर



"दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं." पहली बार लोगों को दो खांचों में बाँटना शायद इसी डायलॉग से शुरू किया था. लोग जिन्हें बाइक चलानी पसंद है...और लोग जिन्हें कार चलानी पसंद है. ऐसा भी कोई हो सकता है जिसे ये दोनों पसंद हों...या जिसे ये दोनों नापसंद हों ये नहीं सोचते थे. अब लगता है कि ऐसे भी लोग हैं जो पैदल चलना चाहते हैं...या पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते हैं...या साइकिल चलाते हैं. उन दिनों नहीं लगता था. राजदूत चलाने के बाद हम अपने आप को बहुत बड़े तुर्रम खां समझते थे.(बहुत हद तक अब भी समझते हैं). पटना में जब स्कूल आने जाने के लिए कुछ दोस्तों को स्कूटी मिली तो मम्मी बोली कि तुमको भी दिला देते हैं. हम जिद्दी...स्प्लेंडर दिला दो. स्कूटी नहीं चलाएंगे, लड़कियों की सवारी है. उन दिनों खुद को बेहतर जान भी तो रहे थे...लड़की होने का मतलब कमजोर होना...बाइक नहीं चलाना...सभ्य बनना...जबकि बाइक चलाना यानी आवारागर्दी करना...बिंदास होना...और जाने क्या क्या. तो इस चक्कर में स्कूल बस से ही स्कूल आते जाते रहे. बाइक के प्रति जितना प्यार था, कार के प्रति उतनी ही नाराज़गी भी थी. कार बोले तो डब्बा. छी. कौन चलाएगा. तुर्रा ये कि मैंने कार चलानी सीखी तक नहीं. के हम जिंदगी भर में कभी कार नहीं चलाएंगे. 

दिल्ली में अपनी दूसरी नौकरी में थी...२००७ में इन हैण्ड सत्ताईस हज़ार रुपये आते थे. होस्टल का किराया ढाई हज़ार था. मैं मारुती के शोरूम में जा कर अपने लिए वैगन आर देख आई थी. डाउनपेमेंट चालीस हज़ार रुपये और हर महीने कोई सात हज़ार की ईएमआई. शौक़ था कि अपनी खुद की नयी कार खरीद कर मम्मी को उसमें घुमाएंगे. शौक़ भी ऐसा कि कार सीखेंगे तो अपनी गाड़ी में ही...उधार की गाड़ी में नहीं. मगर कहीं बैठे किसी की नज़र लगनी थी. माँ के नहीं रहने के बाद न बाइक न कार का कोई शौक़ रहा. बैंगलोर आई तो जाने पहले के तेवर कहाँ गुम थे. अपने लिए काइनेटिक फ्लाईट खरीदी. के जिसमें जान बसने लगी. किसी को चलाने नहीं देती हूँ. सॉलिड पजेसिव. 

कुणाल बाइक के प्रति वैसे ही बेजार है जैसे मैं कार के प्रति. बैंगलोर के बारिश वाले मौसम में कार खरीदना जरूरी हो गया था. हमने सोचा कि वैगन आर लेंगे. के मैं चलाना सीखूंगी तो जाहिर है बहुत जगह ठोकुंगी ही गाड़ी को. अपनी पसंद की गाड़ी खोजते खोजते हम स्कोडा शोरूम में पहुंचे. वहां रेड कलर की फाबिया लगी हुयी थी. मालूम नहीं धूप का असर था कि क्या...हम दोनों को उससे पहली नज़र का प्यार हो गया. कुछ दिन तो बहुत चैन से कटे. मगर जब सासु माँ बैंगलोर आई तो हम दोनों कहीं भी जाने के लिए कुणाल पर डिपेंडेंट थे...कुणाल को ऑफिस में काम हुआ करता था बहुत बहुत सा. समझ आया कि बिना कार सीखे तो जिंदगी नहीं चलने वाली. मारुती ड्राइविंग स्कूल में कार सीखी. धीरे धीरे एक्सपर्ट हो गए. गाड़ी बहुत जगह ठुकी भी. हमने उन डेन्ट्स को वैसे ही रहने दिया. यहाँ कार अधिकतर मैंने ही चलायी. कुणाल हमेशा से उसे कहता भी पूजा की कार था. कार मेरे घर और मेरी तरह बेतरतीब रहती थी. रोड ट्रिप पर गए तो चिप्स के पैकेट, जूस के कार्टन, टोल की रसीदें...सब कार में. हम कितनी सारी लॉन्ग ड्राइव्स पर गए. 

ऑफिस की मीटिंग्स में मैं अपनी कार लेकर जाती थी. टाइटन की कितनी सारी मीटिंग्स में हम अपनी गाड़ी में गए थे...कि क्लाइंट सर्विसिंग वालों के साथ नहीं जायेंगे, वो कभी भी आपको डिच करके दूसरी मीटिंग के लिए चले जाते हैं. ऑफिस की आउटिंग में सब मेरी कार में क्यूंकि उस समय तक टीम में किसी के पास कार नहीं थी. देर रात की पार्टी के बाद लोगों को उनके घर छोड़ने जाना भी मेरा काम था. मैं हर पार्टी में designated ड्राईवर हुआ करती थी. सबने हमेशा कहा भी है कि लड़की होने के बावजूद मैं बहुत अच्छी गाड़ी चलाती हूँ. मुझे बैंगलोर की अधिकतर जगहों की कार पार्किंग पता थी. कुणाल से कहीं ज्यादा. मैं परफेक्ट पैरलल पार्क करती हूँ. इन फैक्ट कुणाल वैसी पार्किंग नहीं कर पाता जैसे कि मैं करती हूँ. एकदम स्मूथ. उसे आश्चर्य भी होता है.

हाँ लॉन्ग डिस्टेंस ड्राइविंग मैंने कभी नहीं की थी. हाइवे पर मुझे डर लगता था. हमारे रोड ट्रिप्स में सबसे ज्यादा साकिब और कभी कभी मोहित भी रहा है. बाकी की ड्राइविंग कुणाल की. मैं आगे की पैसेंजर सीट में गूगल मैप्स लिए सारथी का काम करती थी. जिन दिनों पेपर मैप्स हुआ करते थे, मेरे पास साउथ इंडिया का एक असल मैप था, जो कि हमेशा गाड़ी में पड़ा रहता था. इसी तरह बैंगलोर का एक मैप हमेशा गाड़ी में रहता था. मेरा स्पेस का सेन्स बहुत सही है...दिशायें...सड़कें...मुझे नींद में भी ध्यान रहता है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं. पोंडिचेरी हम कितने बार गए. कूर्ग. महाबलीपुरम. चेन्नई. जाने कितने शहर. जाने कितनी रोड ट्रिप्स.

बैंगलोर एयरपोर्ट मेरे घर से पचास किलोमीटर दूर है. आउटर रिंग रोड के बाद हाईवे शुरू हो जाता है. उस रास्ते पर मैंने खूब कार चलाई है. लोगों को एअरपोर्ट रिसीव करना और ड्राप करना मेरा फेवरिट काम था. कुणाल कभी शहर से बाहर गया था तो रात के डेढ़ दो बजे सुनसान सड़कों पर अकेले गाड़ी चलाने में भी बहुत मज़ा आता था. फुल वोल्यूम में म्यूजिक लगा कर. उड़ाते जाते थे बस. मैं एसी ऑन नहीं कर सकती थी. एक तो पिक-अप ख़राब होता था, बाहर का साउंड फीडबैक नहीं मिलता था और मुझे सांस लेने में तकलीफ भी होती थी. लास्ट ट्रिप में हम कूर्ग जा रहे थे. मैंने पहली बार हाईवे पर कार चलाई. पूरे तीन सौ किलोमीटर खुद चला के ले गयी. बहुत अच्छा लगा. कुणाल भी बोला कि हम बहुत अच्छा चलाते हैं हाईवे पर भी. हम आगे की रोड ट्रिप्स प्लान कर रहे थे. कि कुणाल आराम से पीछे सोयेगा...हम गाड़ी चलाएंगे...कहाँ कहाँ जायेंगे वगैरह वगैरह. मैसूर भी जाना है इस बीच बहुत दिन हमको. तो हम पूरी तरह कॉंफिडेंट थे कि खुद से आयेंगे जायेंगे.

वापसी में हम ही चलाने वाले थे, लेकिन कुणाल का मन कर गया...वैसे भी ८ लेन हाइवे था...उसमें कार चलाने में बहुत मज़ा आता है. चार के आसपास का वक़्त था...भूख लगी थी. कुछ दूर पर कॉफ़ी डे था. हम जाने का सोच रहे थे. एक स्पीडब्रेकर था...कुणाल ने कार धीमी की और एकदम अचानक से पीछे किसी गाड़ी ने फुल स्पीड में गाड़ी ठोक दी हमारी. कमसे कम 140 पर चली रही होगी. वो शॉक इतना तेज़ था कि कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है. चूँकि सीट बेल्ट लगाए हुए थे तो कोई मेजर चोट नहीं आई. एक्सीडेंट इतनी जोर का था कि गाड़ी आगे चलाने लायक नहीं थी. हमने एक टो करने वाले को बुलाया और टैक्सी कर के बैंगलोर वापस आ गए. 

वापसी में हम ही चलाने वाले थे, लेकिन कुणाल का मन कर गया...वैसे भी ८ लेन हाइवे था...उसमें कार चलाने में बहुत मज़ा आता है. चार के आसपास का वक़्त था...भूख लगी थी. कुछ दूर पर कॉफ़ी डे था. हम जाने का सोच रहे थे. एक स्पीडब्रेकर था...कुणाल ने कार धीमी की और एकदम अचानक से पीछे किसी गाड़ी ने फुल स्पीड में गाड़ी ठोक दी हमारी. कमसे कम 140 पर चली रही होगी. वो शॉक इतना तेज़ था कि कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है. चूँकि सीट बेल्ट लगाए हुए थे तो कोई मेजर चोट नहीं आई. एक्सीडेंट इतनी जोर का था कि गाड़ी आगे चलाने लायक नहीं थी. हमने एक टो करने वाले को बुलाया और टैक्सी कर के बैंगलोर वापस आ गए. 

उस वक़्त ये कहाँ सोचे थे कि कार अब कभी वापस आएगी ही नहीं. वरना शायद एक नज़र प्यार से देख कर अलविदा तो कहती उससे. अचानक ही छिन गया हो कोई. मगर एक्सीडेंट इसे ही कहते हैं. इन्स्युरेंस वालों ने जब हमारी फाबिया को टोटल लॉस डिक्लेयर कर दिया तो रो दी मैं. कितना सारा कुछ था...हमने तो कितने लम्बे सफ़र के सपने देखे थे. पापा कहते हैं चीज़ों से इस तरह जुड़ाव नहीं होना चाहिए. दोस्त भी कहते हैं, 'इट वाज जस्ट अ कार'...और मैं...जो कि दिल टूटने पर सम्हाल ले जाती हूँ खुद को...अजीब से खालीपन से भरी हुयी हूँ पिछले कई दिनों से. बात मैं उन्हें कभी समझा नहीं सकती. मैंने फिर से किसी को टेकेन फॉर ग्रांटेड लिया था. कुणाल ने पूछा...तुम चलोगी...मगर मुझसे नहीं होता. मैं नहीं गयी. यहाँ हूँ. अनगिन तस्वीरों में घिरी हुयी. आज कार के पेपर्स साइन हो गए. किसी और के नाम हो गयी गाड़ी...अब शायद वे उसके स्पेयर पार्ट्स करके बेच देंगे...बॉडी कोई कबाड़ी उठा लिए जाएगा. 

बच जाती हूँ मैं. गहरी उदास. डियर फाबिया. आई एम सॉरी कि मैंने तुमसे कभी कहा नहीं.
आई लव यू. तुम मेरी पहली कार थी...और मेरा पहला पहला प्यार रहोगी.
हमेशा. हमेशा. हमेशा.

04 September, 2015

राइटर्स डायरी: मिडनाइट मैडनेस

जिन्हें आता है लिखना. और जो जानते हैं मेरा पता. जिन्होंने कभी मेरे शब्दों को पढ़ कर सोचा कि मैंने उनके मन की बात लिखी है. जिनके पास है कलमें. सस्तीं. महँगी. टूटी हुयी या कि साबुत. जिन्हें बचपन में माँ ने ऊँगली पकड़ के लिखना सिखाया हिंदी का ककहरा और जिन्होंने स्कूल में सीखी होगी अंग्रेजी. जो कि बात कर सकते हैं दो भाषाओं में या कि किसी एक में भी.

जिनका इतना बनता है हक कि मुझसे पूछ सकें...अपना पता दो, तुम्हें ख़त लिखना है. जिन्होंने कभी नहीं किया मुझसे प्यार. वे कि जो मेरे साथ घूम कर आये हैं दुनिया के बहुत से उदास शहर. जो कि मेरी सिसकी सुनते हैं जब मैं पोलैंड के यातना शिविर से लिखती हूँ शब्दों को अनवरत. 

जो कि रहते हैं मेरे शहर में. सांस लेते हैं इसी मौसम में कि जो सर्द हो कर भरता जाता है मेरे लंग्स में उदासियाँ. वो भी जिन्होंने चखी है ब्लैक कॉफ़ी शौक़ में मेरे साथ...और इस वाहियात आदत को भूल आये हैं किसी बिसरी हुयी गली.

जिनके पास जिद की है कभी कि लिखो कि तुम्हारे लिखने से ज़िंदा हो उठती हूँ मैं...तुम्हारे शब्दों से आती है संजीवनी की गंध. जिन्होंने भेजी है मेरे नाम किताबें बगैर चिट्ठियों के.

जो कि मुस्कुराते हैं जब मेरी उंगलियों से झरते हैं ठहाके और मेरी किताब में मिलते हैं उन्हें छुपाये हुए मोरपंख...चौक का चूरा और आधी खायी हुयी पेंसिलें. वे जिन्हें मालूम है मेरी पसंद की फिल्में...मेरे पसंद का संगीत...और मेरे पसंद के लोग. कि जो जानते हैं कि डाइनिंग टेबल पर रखे पौधे का इक नाम है. और कि बोगनविला में पानी देते हुए मैं कौन सा गीत गुनगुनाती हूँ. 

मेरी आँखों का रंग. मेरी आवाज़ का डेसीबेल. मेरी चुप्पी की चाबी. मेरी पसंदीदा कलर की शर्ट और मेरे फेवरिट झुमके. 

अगर कभी मैंने वाकई जान दे दी तो तुम क्या कह कर खुद को समझाओगे?
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सोचती है लड़की और फिर मुल्तवी करती है डायरी लिखना. पूछती है खुद से कि इतनी तकलीफ क्यों होती है उसे छोटी छोटी बातों पर. दोस्तों से बात करना पसंद क्यों नहीं है उसे. और ये भी पूछना चाहती है खुद से कि उसने हरी स्याही से लिखना क्यूँ शुरू किया है. उसे मालूम है इस रंग का जहर जिंदगी को सियाह करता जाता है.

उसकी पसंद के सारे आर्टिस्ट्स जल्द रुखसत हो गए हैं दुनिया से. उसे उनसे मिलने का मन करता है. दोस्तियाँ. विस्कियाँ. सिगरेटें. सारी बुरी आदतें छोड़ देना चाहती है वो. पढ़ती है नीत्ज़े को. "Be careful, lest in casting out your demon you exorcise the best thing in you." इक अँधेरी कालकोठरी में धकेल देती है पिंजरा. उसकी परछाई कैद थी उसमें. मोहल्ले की आंटियों का दिया हुआ 'बुरी लड़की' का तमगा. कॉलेज में साथियों के लिखे नोट्स...'यू आर वेरी डोमिनेटिंग', सर के साथ की गयी जिद...मुझे नहीं करना किसी के साथ कोई ग्रुप प्रोजेक्ट. मैं अकेले कर लूंगी. पिछले कई सालों के मेंटल सुसाइड लेटर्स. सोचना कि किसी का नाम भी लिखना है आखिरी ख़त में या नहीं.

फेसबुक आप्शन देता है कि आप किसी को नोमिनेट कर दें कि आपकी मृत्यु के बाद वो आपके अकाउंट को हैंडल कर सके. फेसबुक की पहुँच को देखते हुए लगता है कि वो मीडियम्स से जल्दी ही कोई कॉन्ट्रैक्ट कर लेंगे. मरने के बाद भी आप इन सर्टिफाइड मीडियम्स के थ्रू अपने फेसबुक फ्रेंड्स से कांटेक्ट में रहेंगे. जहन्नुम या स्वर्ग, जहाँ भी आप गए वहाँ से पोस्ट्स भेज सकेंगे. मैं बस यही सोच कर परेशान होती हूँ कि स्वर्ग में हमेशा अप्सराएं नाच रही होती हैं...मेरे देखने को वहाँ क्या है? जिंदगी तो जिंदगी, मरने के बाद भी भेदभाव होगा...आपने कभी किसी पुरुष अप्सरा के बारे में सुना है? हाँ एक आध गन्धर्व होंगे, मगर कोई रम्भा, मेनका, उर्वशी टाइप फेमस हो, ऐसा भी नहीं है. क्या मुसीबत है. इससे अच्छा तो जी ही लें. या फिर जो सबसे खूबसूरत और सही ऑप्शन है...जहन्नुम के दरवाजे खुले ही हैं हमारे लिए. यूँ भी इतने काण्ड मचा डाले हैं...बहुत हुआ तो एक आध पैरवी लगेगी और क्या. 

मेरे पागलपन का लिखने के अलावा कोई इलाज़ भी नहीं है. ब्लॉग पर पिछले दस साल से लिखते हुए ऐसी आदत लग गयी है कि कहीं और लिखने का मन भी नहीं करता. कुछ दिन ऐसे ही मौसम चलेंगे इधर. मूड के हिसाब से. आपको अच्छी चीज़ें पढ़ने का शौक़ है तो किताबें पढ़ा कीजिए. मैंने इधर हाल में हरुकी मुराकामी की नॉर्वेजियन वुड और काशी का अस्सी पढ़ी हैं. मुराकामी मेरे पसंदीदा लेखक हैं...ये किताब शायद बहुत दिनों तक मेरी फेवरिट रहेगी. काशी का अस्सी उतनी अच्छी नहीं लगी...बीच में बोरियत भी हुयी...पर कुछ टुकड़ों में अच्छी किताब है. मैंने फिल्म मोहल्ला अस्सी का ट्रेलर देखा था और सोच रही थी कि किताब ऐसी ही है या डायरेक्टर ने सिनेमेटिक लिबर्टीज ली हैं. फिल्म देखे बिना ठीक ठीक कहना मुश्किल है.

मेरा हाथ इक्कीस जुलाई को टूटा था. पिछले कुछ दिनों में बहुत सी फिल्में देखीं. किताबें पढ़ीं. सोचा बहुत कुछ. दिन दिन भर इंस्ट्रुमेंटल म्यूजिक सुना. कल से एक्सरसाइज करना है. धीरे धीरे हाथ में भी मूवमेंट आ जायेगी. बाइक चलाने में जाने कितने दिन लगेंगे. कार एक्सीडेंट के बाद टोटल लॉस डिक्लेयर कर दी गयी है. लौट कर घर नहीं आएगी. अब कोई नयी कार खरीदनी होगी. उदास हूँ. बहुत ज्यादा. पापा कहते हैं चीज़ों से इतना जुड़ाव नहीं होना चाहिए. मैं सोचती हूँ. लोगों से जुड़ाव कोई कम तकलीफ देता हो ऐसा भी तो नहीं है.

अब कुछ दिन एकतरफा बातें होंगी. बातों का मीडियम तलाश रही हूँ. ब्लॉग. पोडकास्ट. डायरी. कुछ ऐसा ही. पिछले दस सालों में जिन लोगों के साथ ब्लॉग्गिंग शुरू की थी, उनमें से बहुत कम लोग आज भी लिखते हैं. रेगुलर तो कोई भी नहीं लिखता. पहले ब्लॉग और उसपर कमेंट्स की कड़ी हुआ करती थी. वो दिन लौट कर तो क्या ही आयेंगे अब. स्पैम के कमेंट्स के कारण मैंने मोडरेशन लगा दिया है ब्लॉग पर. फिर भी कभी कभी दिल करता है कि कुछ न सुनूं...जैसे कि आज. अभी.

बहरहाल...
थे बहुत बेदर्द लम्हें ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के
थीं बहुत बेमहर सुबहें मेहरबाँ रातों के बाद

उन से जो कहने गये थे "फ़ैज़" जाँ सदक़ा किये
अनकही ही रह गई वो बत सब बातों के बाद

03 September, 2015

इकतरफे ख़त और इकतरफे इश्क़ में कितना अंतर होता है?

भरी दोपहर का दुःख, दुःख नहीं अवसाद की गीली परछाई है. सूरज को रोके गए बादल से लड़ झगड़ कर आती कुचली हुयी धूप है...पड़ोसी की घर की छत पर भटकता कोई बौराया बच्चा है...भरी दोपहर का दुःख बचपन में काटी पतंग है...बिजली के तारों में उलझी हुयी.

भरी दोपहर का दुःख दिल में उगता शीशम का पेड़ नहीं, दीवारों पर लगी गहरी हरी काई है. पसंदीदा कलम से लिखते हुए देखना है कि स्याही का रंग फिरोजी से बदल कर गहरा हरा हुआ जा रहा है. किसी की सफ़ेद उँगलियों में पहनी हुयी फिरोज़े की अंगूठी है. परायेपन को बसने देना है अपने दिल के भीतर...गहरी काई लगी दीवारों के सींखचों में फिसलते हुए तोड़ लेना है हाथ की हड्डी और देखना है खरोंचों को अपनी बाइक की बॉडी पर. 

टचस्क्रीन फोन बन जाता है इक ग्लास की पेट्रिडिश जिसमें सतह तक कंसन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड भरा हुआ है. मैं कैसे डायल करूँ कोई सा भी नंबर. तुम्हारी आवाज़ से रिश्ता बुनने के पहले बनाना होगा अपनी उँगलियों को कांच का...खुली खिड़की से दिखता है आसमान...रिफ्लेक्ट होता है तो हार्मलेस दिखता है, तुम्हारी तरह...तुम्हें मालूम है कंसन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड कितना गाढ़ा होता है? मैंने छुआ है स्क्रीन को...धीमे धीमे मैं पूरी घुल गयी हूँ...सिर्फ प्लेटिनम की अंगूठी रह गयी है...प्लैटिनम इज रेसिस्टेंट टू एसिड. इतना तो तुमने पढ़ा होगा. हाँ याद तुम्हें है या नहीं मालूम नहीं. प्लैटिनम. या कि मैं ही.

खानाबदोशी चुनने वाले भी उदास हो सकते हैं. उनके पास कोई पता नहीं होता जहाँ लिखे जा सकें ख़त और उन्हें बुला लिया जा सके वापस...किसी ऐसी ज़मीन पर जिस पर घर बनाया जा सकता हो. जिन्हें लौट कर कहीं जाना नहीं होता है वे ही किसी गुफा में गहरे उतरते जा सकते हैं...किसी दूसरे मुहाने की खोज में...उन्हें डर नहीं होता कि अगर दूसरा मुहाना न हुआ तो? मगर क्या वाकई? Aren't we all waiting to be rescued? कोई हमें यहाँ से लौटा ले जाए...जबरन...फिर हम ज़िन्दगी भर खुद को बचा लिए जाने का मातम मनाते रहें. 

नहीं लिखना जिद है. खुद को मार डालने की साजिश है. धीमा जहर है. नहीं लिखना डिनायल का आखिरी छोर है. दुनिया को नकार देने का पहला पॉइंट है. क्यूंकि लिखना हमें बचा ले जाता है...मौत से एक सांस की दूरी से भी.

मैं कब्रिस्तान गयी थी. अकेले. बस बताना चाहती थी तुम्हें. 

मुझे खतों के जवाब लिखने नहीं आते. क्यूंकि कभी किसी ने मुझे ख़त लिखे ही नहीं. कभी भी नहीं. मुझे याद नहीं कि मैंने कभी भी भूरे लिफ़ाफ़े में ख़त भेजें हों. तुम्हें याद हो तो बताना. इकतरफे ख़त और इकतरफे इश्क़ में कितना अंतर होता है? 

हम दोनों के बीच इक इंस्ट्रुमेंटल पीस था. रात के क़त्ल की तैय्यारी में वायलिन की स्ट्रिंग्स कसता हुआ. मैं इक मासूम सी शाम इस टुकड़े को सुन रही थी...बेख्याली में. ड्रम बीट्स का प्रील्यूड 'इन द मूड फॉर लव' का था...दो बीट्स सुन कर ही आँखों में वो अँधेरी सुरंग जैसी सीढ़ियाँ कौंध गयी थीं...लैम्प की रोशनी पर सिगरेट के धुएं के घने बादल और तुम्हारी उँगलियों की याद एक साथ आई थी...बीट्स के ठीक बाद वायलिन शुरू होता था...इस टुकड़े में भी हुआ...मगर ये वो धुन नहीं थी जिसने कई रातों में मेरा क़त्ल किया था...ये कोई दूसरी धुन थी...वायलिन था...मगर धुन दूसरी थी. इसे सुनना इक लॉन्ग शॉट में महबूब को देखना था...और क्लोज अप आते ही वो मेरे पास आने की जगह दायीं ओर मुड़ गया. ये टुकड़ा बेवफाई के स्वाद जैसा था. ड्रम बीट्स सेम मगर वायलिन ठीक वहीं से कोई और राह चली जाती थी. ये चोट बहुत गहरी थी. तीखी. और बेरहम. पहली धुन के क़त्ल का अंदाज़ बहुत नरमाहट लिए हुए था. नींद की गोलियां खा के मरने जैसा. यह दुनाली की गोली की तरह थी...सीने में धांय. बहुत बहुत तेज़ आवाज़. क्या तुम महसूस पा रहे हो कि मुझे कैसा लगा था?

मेरी कहानियों के शहर में सितम के मौसम आये हैं...सितम-बर...तुम्हारी ही तरह हैं कुछ कुछ. लिली की पहली पंखुड़ी चिटक रही है. जल्द ही खुशबुओं से सारा शहर भर जाएगा. मैं चाहे जिस भी स्याही से लिखूँ मुझे धूप बुनना नहीं आता. भरी दोपहर का दुःख इक सिगरेट की तलब है जिसके तीन कश मार कर मैं तुम्हारी ओर बढ़ा सकूं. तुम्हारी उँगलियों में उलझ जाए मेरी कलम. कोई बादल हटे और मैं देखूँ फिरोजी धूप में तुम्हारी आँखों का रंग. हिज्र. कुफ्र. मौत. 

Abel Korzeniowski- Satin Birds- 01:48

01 September, 2015

द ड्रीम व्हिस्परर


वो सपनों में भी चैन से नहीं रहने देता मुझे. ये पूरी दुनिया इक बड़ा सा डाकखाना हो जाती और मुझे हर ओर से उसके ख़त मिलते. शाम के रंग में. सुबह की धूप में. किसी अजनबी की आँखों के रंग में. सब फुसफुसाते मेरे कानों में...हौले से...उसे तुम्हारी याद आ रही है. 

याद का तिलिस्म उसकी स्पेशियलिटी था. उसे वर्तमान में होना नहीं आता था. मगर चंद लम्हों से वो कमाल का याद का तिलिस्म बुनता था. उस तिलिस्म में सब कुछ मायावी होता था. मैंने उसे कभी छुआ नहीं था मगर याद के तिलिस्म में उसकी उँगलियों की महक वाले फूल खिला करते थे...उसकी छुअन वाली तितलियाँ होती थीं...मैं जब कहानियां लिखती तो वे तितलियाँ मेरी कलम पर हौले से बैठ जातीं...उनके पैरों से पराग गिरता और मेरी कहानी में गहरे नीले रंग की रेत भर जाती. कोई बंजारन गाती उसकी लिखी कवितायें और मेरी कहानी के किरदार किसी रेत के धोरे पर बैठ कर चाँद के स्वाद वाली विस्की पिया करते...बर्फ की जगह हर्फ़ होते...उसकी अनदेखी नज़र से ठंढे...उसके बिछोह से उदास.

उससे मिलने वाली शामों में सूरज नारंगी रंग का हुआ करता था. शहर के बीचो बीच इक गोल्ड स्पॉट का ठेला था. हिचकियों में नारंगी रंग घुलता था. याद में नारंगी का खटमिट्ठा स्वाद. लड़की कभी नागपुर नहीं गयी थी लेकिन उसे नागपुर की सड़कों के नाम पता थे. उसे ये भी पता था कि गोल्डस्पॉट की फैक्ट्री के सामने वाली चाय की दूकान पर शर्ट के हत्थे मोड़े जो शख्स चाय में बिस्कुट डुबा कर खा रहा है उसका खानाबदोश काफिले से कोई रिश्ता नहीं है. वो तो ये भी नहीं जानती थी कि जब गोल्डस्पॉट में सब कुछ आर्टिफिसियल होता है तो उसकी फैक्ट्री नागपुर में क्यों है. किसी ड्रिंक में ओरेंज का स्वाद उसे अलविदा की याद दिलाता था. जबकि वो उससे कभी मिली नहीं थी. याद का तिलिस्म ऐसा ही था. उसमें कुछ सच नहीं होता. मगर सब यूँ उलझता जाता कि लड़की को समझ नहीं आता कि उसके कस्बे की सीमारेखा कहाँ है. लड़की सिर्फ इतना चाहती कि कभी उस ठेले पर लड़के के साथ जाए. दोनों पैसे जोड़ कर इक बोतल गोल्ड स्पॉट की खरीदें...लड़का पहले आधी बोतल पिए और लड़की जिद करके सिर्फ एक घूँट पर अपना हक मांगे. आखिरी सिप मेरे लिए रहने देना. बस. मगर फिर लड़की को ओरेंज कलर की लिपस्टिक पसंद आने लगती हमेशा. उसके गोरे चेहरे पर नारंगी होठ चमकते. शोहदों का उसे चूम लेने को जी चाहता. मगर उसके होठ जहरीले थे. जिसने भी उसके होठों को ऊँगली से भी छुआ, उन उँगलियों में फिर कभी शब्द नहीं उगे. जिन्होंने उसके होठ चूमे वे ताउम्र गूंगे हो गए. कोई नहीं जानता उस लड़की के होठों का स्वाद कैसा था.

याद के तिलिस्म में इक भूलने की नदी थी...जिसने भी इस नदी का पानी पिया था उसे ताउम्र इश्क़ से इम्युनिटी मिल जाती थी. उसका दिल फिर कभी किसी के बिछोह में दुखता नहीं था. ये मौसमी बरसाती नदी थी. अक्सर सूखी रहती. लड़की की आँखों की तरह. चारों तरफ रेत ही रेत होती. नीली रेत. इस नदी की तलाश में कोई तब ही जाता जब कि इश्क़ में दिल यूँ टूट चुका होता कि जिंदगी के पाँव में कदम कदम पर चुभता. बारिश इस तिलिस्म में साल में इक बार ही होती. कि जब लड़की दिल्ली जाती. उन दिनों में नदी में ठाठें मारता पानी हुआ करता. मगर जब लड़की दिल्ली में होती तो कोई भी इस नदी का पानी पीना नहीं चाहता. सब लड़की के इर्द गिर्द रहना चाहते. वो गुनगुनाती जाती और नदी में पानी भरता जाता...उस वक़्त याद के तिलिस्म की जरूरत नहीं होती. लड़की खुद तिलिस्म होती.

मगर न दिल्ली हमेशा के लिए होता न नदी का पानी...और न लड़की ही. दिल्ली से लौटने के बाद लड़की की उँगलियाँ दुखतीं और वो हज़ारों शहर भटकती मगर याद का तिलिस्म उसका पीछा नहीं छोड़ता. उसे दूर देशों में भी चिट्ठियां मिल जातीं. अजनबी लोग कि जिन्हें हिंदी समझ में नहीं आती थी उसकी किताब लिए घूमते और लड़की से इसरार करते के उसे एक कविता का मतलब समझा दे कम से कम. किताब का रंग लड़की की आँखों जैसा होता. किताब से लड़की के गीले बालों की महक आती...शैम्पू...बोगनविला...बारिश...और तूफानों की मिलीजुली. लड़की किसी स्क्वायर में लोगों को सुनाती कहानियां और वे सब याद के तिलिस्म में रास्ता भूल जाते. उस शहर के आशिकों की कब्रगाह में मीठे पानी का झरना होता. लड़की उस झरने के किनारे बैठ कर दोस्तों को पोस्टकार्ड लिखती. उसे लगता अगर दोस्तों तक ख़त सही सलामत पहुँच गए तो वे उसे तलाशने पहुँच जायेंगे और इस शहर से वापस ले जायेंगे. 

लड़की नहीं जानती थी कि याद के तिलिस्म से दोस्तों को भी डर लगता है. वे उसके पोस्टकार्ड किसी जंग लगे पोस्टबॉक्स में छोड़ देते के जिसकी चाभी कहीं गुम हुयी होती. कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहता. लड़की की कलम में ख़त्म हो जाती फिरोजी स्याही तो वो बंद देती लिखना पोस्टकार्ड. एक एक करके सारे भटके हुए लोगों को उस तिलिस्म के दरवाज़े तक पहुंचा आती. फिर हौले से बंद करती तिलिस्म का दरवाज़ा. 

उसके जवाबी ख़त उसे मिलते...एक एक करके. कब्र के पत्थरों पर लिखी इबारतों में. साइक्लोन की प्रेडिक्शन में. अचानक आ जाते भूकंप में. अचानक से छोटी हो गयी हार्ट लाइन में. आखिर में लड़की अपनी जिद छोड़ कर मैथ के इक्वेशन लिखना शुरू करती. दुनिया में होती हर चीज़ इक ख़त हुआ करती. महबूब का. आख़िरकार उसकी चिट्ठियों के जवाब आये थे. याद का तिलिस्म इक वन वे टिकट था. जहन्नुम एक्सप्रेस में एक ही सीट बची थी. लड़की ने ठीक से गिनीं नींद की गोलियां. नारंगी रंग की गोल्ड स्पॉट में उन्हें घोल रही थी तो उसने देखा कमरा तितलियों से भर गया है. देर हो रही थी. तितिलियाँ उसे उठा कर उड़ चलीं. खिड़की से पीछे छूटते नज़ारे हज़ार रंग के थे. दोस्तों की आँखों का रंग धुंधला रहा था. टीटी ने टिकट मांगी...लड़की ने अपनी उलझी हुयी हार्ट लाइन दिखाई. टीटी ने उसका ख़त रखा हाथ पर. कागज़ के पुर्जे पर गहरी हरी स्याही में लिखा था...'जानां, वेलकम होम'.

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