मुझे याद है कि जब मैं स्टैण्डर्ड एट या सेवेन में थी तो मुझे लगता था हम हिस्ट्री क्यूँ पढ़ते हैं. सारे सब्जेक्ट्स में मुझे ये सबसे बोरिंग लगता था. एक कारण शायद ये भी रहा हो कि हमारी टीचर सिर्फ रीडिंग लगा देती थीं, अपनी तरफ से कुछ जोड़े बगैर...कोई कहानी सुनाये बगैर. उसपर ये एक ऐसा सब्जेक्ट था जिसमें बहुत रट्टा मारना पड़ता था. पानीपत का युद्ध कब हुआ था से हमको क्या मतलब. कोल्ड वॉर चैप्टर क्यूँ था मुझे आज भी समझ नहीं आता. या तो हमारी किताबें ऐसी थीं कि सारे इंट्रेस्टिंग डिटेल्स गायब थे. अब जैसे प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध को अगर कोई टीचर रोचक नहीं बना पा रहा है तो वो उसकी गलती है. उन कई सारे किताबों पर भारी पड़ती थी एक कहानी, 'उसने कहा था'. मुझे लगा था कि टेंथ के बाद हिस्ट्री से हमेशा के लिए निजात मिल गयी.
बीता हुआ लौट कर आया बहुत साल बाद 2006 में...नया ऑफिस था और विकिपीडिया पहली बार डिस्कवर किया था. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि मैं द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में क्यों पढ़ रही थी...शायद हिटलर की जीवनी से वहाँ पहुंची थी या ऐसा ही कुछ. उन दिनों जितना ही कुछ पढ़ती जाती, उतना ही लगता कि दुनिया के बारे में कितना सारा कुछ जानने को बाकी है. उस साल से लेकर अब तक...मैंने इन्टरनेट का उपयोग करके जाने क्या क्या पढ़ डाला है. विकिपीडिया और गूगल के सहारे बहुत सारा कुछ जाना है. उन दिनों पहली बार जाना था कि खुद को और इस दुनिया को बेहतर जानने और समझने के लिए इतिहास को समझना बहुत जरूरी है.
ग्रेजुएशन में मैंने एडवरटाइजिंग में मेजर किया है. दिल्ली में जब पहली बार ट्रेनिंग करने गयी तो वो एक ऐड एजेंसी थी. उन दिनों कॉपीराइटर बनने के लिए भाषा परफेक्ट होनी जरूरी थी. प्रूफ की गलतियाँ न हों इसलिए नज़र, दिमाग सब पैना रखना होता था. कॉमा, फुल स्टॉप, डैश, हायफ़न...सब गौर से हज़ार बार चेक करने की आदत थी. बात हिंदी की हो या इंग्लिश की...मेरे लिखे में कभी एक भी गलती नहीं हो सकती थी. न ग्रामर की न स्पेलिंग की...और इस बात पर मैं स्कूल के दिनों से काफी इतराया करती थी.
अंग्रेजी का एक टर्म है 'occupational hazard' यानि पेशे के कारण होने वाली परेशानियाँ. जैसे कि फौजी को छुट्टियाँ नहीं मिलतीं. सिंगर को किसी भी ग्रुप में लोग हमेशा गाने के लिए परेशान कर देते हैं. कवि से लोग कटे कटे से रहते हैं. डॉक्टर से सब लोग बीमारियों की बहुत सी बातें करते हैं वगैरह वगैरह. तो ये कॉपीराइटर के शुरू के तीन महीनों के कारण मेरी पूरी जिंदगी कुछ यूँ है कि हम शब्दों पर बहुत अटकते हैं. लिखा हुआ सब कुछ पढ़ जाते हैं. फिल्मों के लास्ट के क्रेडिट्स तक. रेस्टोरेंट के मेनू में टाइपो एरर्स देखते हैं...यहाँ तक कि हमें कोई लव लेटर लिख मारे(अभी तक लिखा नहीं है किसी ने) तो हम उसमें भी टाइपो एरर देखने लगेंगे. जब पेंग्विन से मेरी किताब छप रही थी, 'तीन रोज़ इश्क़' तो उसकी बाई लाइन थी 'गुम होती कहानियाँ'. जब किताब का कवर बन के आया तो मैंने कहा, 'कहानियां' में टाइपो एरर है, बिंदु नहीं चन्द्रबिन्दु का प्रयोग होगा. मेरे एडिटर ने बताया कि पेंग्विन चन्द्रबिन्दु का प्रयोग अपने किसी प्रकाशन में नहीं करता. मुझे यकीन नहीं हुआ कि पेंग्विन जैसा बड़ा प्रकाशक ऐसा करता है. कमसे कम आप्शन तो दे ही सकता है, अगर किसी लेखक को अपने लेखन में चन्द्रबिन्दु चाहिए तो वो खुद से कॉपी चेक करके दे. मगर पहली किताब थी. हम चुप लगा गए. अगर कभी अगली किताब लिखी तो इस मुद्दे पर हम हरगिज़ पीछे नहीं हटेंगे.
भाषा और उससे जुड़ी अपनी पहचान को लेकर मैं थोड़ा सेंटी भी रहती हूँ. मुझे अपने तरफ की बोली नहीं आती...अंगिका...मेरी चिंताओं में अक्सर ये बात भी रहती है कि भाषा या बोली के गुम हो जाने के साथ बहुत सी और चीज़ें हमेशा के लिए खो जायेंगी. बोली हमारे पहचान का काफी जरूरी हिस्सा है. मुझे अच्छा लगता है जब कोई बोलता है कि तुम्हारे हिंदी या इंग्लिश में बिहारी ऐक्सेंट आता है. इसका मतलब है कि दिल्ली और अब बैंगलोर में रहने के बावजूद मेरे बचपन की कोई चीज़ बाकी रह गयी है जिससे कि पता चल सके कि मेरी जड़ें कहाँ की हैं.
मैसूर युनिवर्सिटी का ये शताब्दी साल है. इस अवसर पर एक कॉफ़ी टेबल बुक का लेखन और संपादन कर रही हूँ जो कि यूनिवर्सिटी द्वारा जनवरी में प्रिंट होगा. प्रोजेक्ट की शुरुआत में हम वाइसचांसलर और रजिस्ट्रार से मिलने गए. यूनिवर्सिटी में ओरिएण्टल लाइब्रेरी है. हमने रिसर्च की शुरुआत वहीं से की...इस लाइब्रेरी में कुल जमा 70,000 पाण्डुलिपियाँ हैं, जिनमें कुछ तो आठ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी हैं. मैंने पांडुलिपियों की बात सुनी तो सोचा कि एक आध होंगी. अभी तक जितनी भी देखी थीं वो सिर्फ संग्रहालयों में, वो भी शीशे के बक्से में. यहाँ पहली बार खुद से छू कर ताड़ के पत्तों पर लिखा देखा. इनपर लिखने के लिए धातु की नुकीली कलम इस्तेमाल होती थी...तालपत्र पर लिखने वालों को लिपिकार कहते थे. कवि, लेखक, इत्यादि अपनी रचनायें कहते थे और लिपिकार उन्हें सुन कर तालपत्रों पर उकेरते जाते थे.
मेरी मौसी ने संस्कृत में Ph.D की है. इसी सिलसिले में आज उनसे भी बात हुयी. अपनी थीसिस के लिए उन्होंने ग्रन्थ लिपि सीखी थी और इसमें लिखे कई संस्कृत के तालपत्रों को बी ही पढ़ा था. उन्होंने एक रोचक बात भी बतायी...लिपिकार हमेशा कायस्थ ही हुआ करते थे. इसलिए कायस्थों की हैण्डराइटिंग बहुत अच्छी हुआ करती है.
जाति-व्यवस्था के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था. अपने ब्राह्मण होने या अपने कायस्थ दोस्तों की राइटिंग अच्छी होने के बारे में भी इस नज़रिए से कभी नहीं देखा था. अब सोचती हूँ कि गाहे बगाहे हमारा इतिहास हमारे सामने खड़ा हो ही जाता है...हमारी जो जड़ें रही हैं, उनको झुठलाना इतना आसान नहीं है. इतने सालों बाद सोचती हूँ कि वाकई इतिहास को सही तरह से जानना इसलिए भी जरूरी है कि हम अपनी पुरानी गलतियों को दोहराने से बचें.
भाषा और इसके कई और पहलुओं पर बहुत दिन से सोच रही हूँ. कोशिश करूंगी और कुछ नयी चीज़ों को साझा करूँ. इस पोस्ट में लिखी गयी चीज़ें मेरे अपने जीवन अनुभवों और थोड़ी बहुत रिसर्च पर बेस्ड हैं. ये प्रमाणिक नहीं भी हो सकती हैं क्योंकि मैं भाषाविद नहीं हूँ. कहीं भूल हुयी होगी तो माफ़ की जाए.
बीता हुआ लौट कर आया बहुत साल बाद 2006 में...नया ऑफिस था और विकिपीडिया पहली बार डिस्कवर किया था. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि मैं द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में क्यों पढ़ रही थी...शायद हिटलर की जीवनी से वहाँ पहुंची थी या ऐसा ही कुछ. उन दिनों जितना ही कुछ पढ़ती जाती, उतना ही लगता कि दुनिया के बारे में कितना सारा कुछ जानने को बाकी है. उस साल से लेकर अब तक...मैंने इन्टरनेट का उपयोग करके जाने क्या क्या पढ़ डाला है. विकिपीडिया और गूगल के सहारे बहुत सारा कुछ जाना है. उन दिनों पहली बार जाना था कि खुद को और इस दुनिया को बेहतर जानने और समझने के लिए इतिहास को समझना बहुत जरूरी है.
ग्रेजुएशन में मैंने एडवरटाइजिंग में मेजर किया है. दिल्ली में जब पहली बार ट्रेनिंग करने गयी तो वो एक ऐड एजेंसी थी. उन दिनों कॉपीराइटर बनने के लिए भाषा परफेक्ट होनी जरूरी थी. प्रूफ की गलतियाँ न हों इसलिए नज़र, दिमाग सब पैना रखना होता था. कॉमा, फुल स्टॉप, डैश, हायफ़न...सब गौर से हज़ार बार चेक करने की आदत थी. बात हिंदी की हो या इंग्लिश की...मेरे लिखे में कभी एक भी गलती नहीं हो सकती थी. न ग्रामर की न स्पेलिंग की...और इस बात पर मैं स्कूल के दिनों से काफी इतराया करती थी.
अंग्रेजी का एक टर्म है 'occupational hazard' यानि पेशे के कारण होने वाली परेशानियाँ. जैसे कि फौजी को छुट्टियाँ नहीं मिलतीं. सिंगर को किसी भी ग्रुप में लोग हमेशा गाने के लिए परेशान कर देते हैं. कवि से लोग कटे कटे से रहते हैं. डॉक्टर से सब लोग बीमारियों की बहुत सी बातें करते हैं वगैरह वगैरह. तो ये कॉपीराइटर के शुरू के तीन महीनों के कारण मेरी पूरी जिंदगी कुछ यूँ है कि हम शब्दों पर बहुत अटकते हैं. लिखा हुआ सब कुछ पढ़ जाते हैं. फिल्मों के लास्ट के क्रेडिट्स तक. रेस्टोरेंट के मेनू में टाइपो एरर्स देखते हैं...यहाँ तक कि हमें कोई लव लेटर लिख मारे(अभी तक लिखा नहीं है किसी ने) तो हम उसमें भी टाइपो एरर देखने लगेंगे. जब पेंग्विन से मेरी किताब छप रही थी, 'तीन रोज़ इश्क़' तो उसकी बाई लाइन थी 'गुम होती कहानियाँ'. जब किताब का कवर बन के आया तो मैंने कहा, 'कहानियां' में टाइपो एरर है, बिंदु नहीं चन्द्रबिन्दु का प्रयोग होगा. मेरे एडिटर ने बताया कि पेंग्विन चन्द्रबिन्दु का प्रयोग अपने किसी प्रकाशन में नहीं करता. मुझे यकीन नहीं हुआ कि पेंग्विन जैसा बड़ा प्रकाशक ऐसा करता है. कमसे कम आप्शन तो दे ही सकता है, अगर किसी लेखक को अपने लेखन में चन्द्रबिन्दु चाहिए तो वो खुद से कॉपी चेक करके दे. मगर पहली किताब थी. हम चुप लगा गए. अगर कभी अगली किताब लिखी तो इस मुद्दे पर हम हरगिज़ पीछे नहीं हटेंगे.
भाषा और उससे जुड़ी अपनी पहचान को लेकर मैं थोड़ा सेंटी भी रहती हूँ. मुझे अपने तरफ की बोली नहीं आती...अंगिका...मेरी चिंताओं में अक्सर ये बात भी रहती है कि भाषा या बोली के गुम हो जाने के साथ बहुत सी और चीज़ें हमेशा के लिए खो जायेंगी. बोली हमारे पहचान का काफी जरूरी हिस्सा है. मुझे अच्छा लगता है जब कोई बोलता है कि तुम्हारे हिंदी या इंग्लिश में बिहारी ऐक्सेंट आता है. इसका मतलब है कि दिल्ली और अब बैंगलोर में रहने के बावजूद मेरे बचपन की कोई चीज़ बाकी रह गयी है जिससे कि पता चल सके कि मेरी जड़ें कहाँ की हैं.
ओरियेंटल लाइब्रेरी में रखे रैक्स में तालपत्र Clicked with my iPhone |
उसे लाइब्रेरी कहने का जी नहीं चाहता...ग्रंथालय कहने का मन करता है. लोहे के पुराने ज़माने के रैक और लोहे की जालीदार सीढियाँ. ज़मीन से तीन तल्लों तक जाते रैक्स और उनपर ढेरों पांडुलिपियाँ. एक अजीब सी गंध. पुरानी लकड़ी की...लेमनग्रास तेल की...और पुरानेपन की. जैसे ये जगह किसी और सदी की है और हम किसी टाइम मशीन से यहाँ पहुँच गए हैं. सन के धागे से बंधे तालपत्र. उनपर की गयी नम्बरिंग. मैंने सब फटी फटी आँखों से देखा. मुझे पहली बार मालूम चला कि संस्कृत को देवनागरी की अलावा कई और लिपियों में लिखा गया है. कन्नड़. ग्रंथ. तमिल. ये मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. उन्होंने दिखाया कि कन्नड़ में लिखी गयी संस्कृत के श्लोकों के बीच खाली जगह नहीं दी गयी थी. संस्कृत में वैसे भी लम्बे लम्बे संयुक्ताक्षर होते हैं लेकिन बिना किसी स्पेस के लिखे हुए श्लोकों को पढ़ना बेहद मुश्किल होता है. फिर हर लिपिकार की हैण्डराइटिंग अलग अलग होती है...हमें वहां मैडम ने बताया कि कुछ दिन तो एक लिपिकार की लिपि समझने में ही लग जाते हैं. उन्होंने ये भी बताया कि देवनागरी में तालपत्रों पर लिखने में मुश्किल होती थी क्योंकि देवनागरी में अक्षरों के ऊपर जो लाइन खींची जाती है, उससे तालपत्र कट जाते थे और जल्दी ख़राब हो जाते थे.
मैसूर गए हुए दो महीने से ऊपर होने को आये लेकिन ये तथ्य कि संस्कृत किसी और लिपि में भी लिखी जाती है, मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था. मगर फिर पिछले कुछ दिनों से एक्सीडेंट के कारण कुछ अलग ही प्राथमिकताएं हो गयीं थीं तो इसपर ध्यान नहीं गया. कल फिर प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया तो बात यहीं अटक गयी. एक दोस्त से डिस्कस कर रही थी तो पहली बार ध्यान गया कि संस्कृत या फिर वेद...मेरे लिए ये दोनों inter-changeable हैं. मैं जब संस्कृत की बात सोचती हूँ तो वेद ही सोचती हूँ. फिर लगा कि वेद तो 'श्रुति' रहे हैं. तो पूरे भारत में अगर सब लोग वेद पढ़ रहे होंगे या कि सीख रहे होंगे तो लिपि की जरूरत तो बहुत सालों तक आई भी नहीं होगी...और जब आई होगी तो जिस प्रदेश में जैसी लिपि का प्रचलन रहा होगा, उसी लिपि में लिखी गयी होगी.
तालपत्र- ओरियेंटल लाइब्रेरी, मैसूर, clicked by my iPhone |
मैसूर गए हुए दो महीने से ऊपर होने को आये लेकिन ये तथ्य कि संस्कृत किसी और लिपि में भी लिखी जाती है, मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था. मगर फिर पिछले कुछ दिनों से एक्सीडेंट के कारण कुछ अलग ही प्राथमिकताएं हो गयीं थीं तो इसपर ध्यान नहीं गया. कल फिर प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया तो बात यहीं अटक गयी. एक दोस्त से डिस्कस कर रही थी तो पहली बार ध्यान गया कि संस्कृत या फिर वेद...मेरे लिए ये दोनों inter-changeable हैं. मैं जब संस्कृत की बात सोचती हूँ तो वेद ही सोचती हूँ. फिर लगा कि वेद तो 'श्रुति' रहे हैं. तो पूरे भारत में अगर सब लोग वेद पढ़ रहे होंगे या कि सीख रहे होंगे तो लिपि की जरूरत तो बहुत सालों तक आई भी नहीं होगी...और जब आई होगी तो जिस प्रदेश में जैसी लिपि का प्रचलन रहा होगा, उसी लिपि में लिखी गयी होगी.
बात फिर से आइडेंटिटी या कहें कि पहचान की आ जाती है. मैंने शायद इस बात पर अब तक कभी ध्यान नहीं दिया था कि मैं एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी हूँ और उसके बाद देवघर में पली बढ़ी. वेद और श्लोक हमारे जीवन में यूँ गुंथे हुए थे कि हमारी समझ से इतर भी एक इतिहास हो सकता है इसपर कभी सोच भी नहीं पायी. अगर आप देवघर मंदिर जायेंगे तो वहां पण्डे बहुत छोटी उम्र से वेद-पाठ करते हुए मिल जायेंगे. उत्तर भारत की इस पृष्ठभूमि के कारण भी मैंने कभी संस्कृत के उद्गम के बारे में कुछ जानने की कोशिश भी नहीं की. आज मैंने दिन भर भाषा और उसके उद्गम के बारे में पढ़ा है. भाषा मेरी समझ से कहीं ज्यादा चीज़ों के हिसाब से बदलती है...इसमें बोलने वाले का धर्म...उस समय की सामाजिक संरचना...सियासत...कारोबार... बहुत सारी चीज़ों का गहरा असर पड़ता है.
भारत की सबसे पुरानी लिपि ब्राह्मी है. 250–232 BCE में बने अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि के उद्धरण हैं. ब्राह्मी लिपि से मुख्यतः दो अलग तरह के लिपि वर्ग आगे जाके बनते गए...दक्षिण भारत की लिपियाँ जैसे कि तमिल, कन्नड़, तेलगु इत्यादि वृत्ताकार या कि गोलाई लिए हुए बनीं जबकि उत्तर भारत की लिपियाँ जैसे कि देवनागरी, बंगला, और गुजराती में सीधी लकीरों से बनते कोण अधिक थे. संस्कृत को कई सारी लिपियों में लिखा गया है.
![]() |
Brahmi script on Ashoka Pillar, Sarnath" by ampersandyslexia |
मेरी मौसी ने संस्कृत में Ph.D की है. इसी सिलसिले में आज उनसे भी बात हुयी. अपनी थीसिस के लिए उन्होंने ग्रन्थ लिपि सीखी थी और इसमें लिखे कई संस्कृत के तालपत्रों को बी ही पढ़ा था. उन्होंने एक रोचक बात भी बतायी...लिपिकार हमेशा कायस्थ ही हुआ करते थे. इसलिए कायस्थों की हैण्डराइटिंग बहुत अच्छी हुआ करती है.
जाति-व्यवस्था के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था. अपने ब्राह्मण होने या अपने कायस्थ दोस्तों की राइटिंग अच्छी होने के बारे में भी इस नज़रिए से कभी नहीं देखा था. अब सोचती हूँ कि गाहे बगाहे हमारा इतिहास हमारे सामने खड़ा हो ही जाता है...हमारी जो जड़ें रही हैं, उनको झुठलाना इतना आसान नहीं है. इतने सालों बाद सोचती हूँ कि वाकई इतिहास को सही तरह से जानना इसलिए भी जरूरी है कि हम अपनी पुरानी गलतियों को दोहराने से बचें.
भाषा और इसके कई और पहलुओं पर बहुत दिन से सोच रही हूँ. कोशिश करूंगी और कुछ नयी चीज़ों को साझा करूँ. इस पोस्ट में लिखी गयी चीज़ें मेरे अपने जीवन अनुभवों और थोड़ी बहुत रिसर्च पर बेस्ड हैं. ये प्रमाणिक नहीं भी हो सकती हैं क्योंकि मैं भाषाविद नहीं हूँ. कहीं भूल हुयी होगी तो माफ़ की जाए.