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25 April, 2019

मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे

इन दिनों किंडल ऐप डाउनलोड कर लिया है और उसपर एक किताब गाहे बगाहे पढ़ती रहती हूँ। उसमें एक दूसरी किताब की बात है जो कि एक उपन्यास के बारे में। इस उपन्यास का नाम है lost city radio, एक रेडीओ प्रेज़ेंटर है जो युद्ध के बाद रेडीओ स्टेशन में काम करती है और सरकार के हिसाब से ख़बरें पढ़ती है… लेकिन उसका एक कार्यक्रम है जिसमें वो खोए हुए लोगों के नाम और उसके बारे में और जानकारियाँ देती है। युद्ध के बाद खोए हुए अनेक लोग हैं। पूरे देश में उसका प्रोग्राम सबसे ज़्यादा लोग सुनते हैं…उसका चेहरा कभी मीडिया के सामने उजागर नहीं किया जाता।

मैं इस उपन्यास को कभी पढ़ूँगी। लेकिन उसके पहले इसकी दो थीम्स जो कि मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। आवाज़ें और खो जाना या तलाश लिया जाना। मैं आवाज़ों के पीछे बौरायी रहती हूँ। जितने लोगों को मैंने डेट किया, कई कई साल उनसे बात नहीं करने के बावजूद उनकी आवाज़ मैं एक हेलो में पहचान सकती हूँ… जबकि बाक़ी किसी की आवाज़ मैं फ़ोन पर कभी नहीं पहचान पाती, किसी की भी नहीं। लड़कों की आवाज़ तो मुझे ख़ास तौर से सब की एक जैसी ही लगती है। गायकों में भी सिर्फ़ सोनू निगम की आवाज़ पहचानती हूँ…वो भी आवाज़ नहीं, वो गाते हुए जो साँस लेता है वो मुझे पहचान में आ जाती है… पता नहीं कैसे। मुझे आवाज़ों का नशा होता है। मैं महीने महीने, सालों साल एक ही गाना रिपीट पर सुन सकती हूँ… सालों साल किसी एक आवाज़ के तिलिस्म में डूबी रह सकती हूँ।

बारिश की दोपहर मिट्टी की ख़ुशबू को अपने इर्द गिर्द महसूसते हुए सोचती रही, उसकी आवाज़ का एक धागा मिलता तो कलाई पर बाँध लेती…मौली… कच्चे सूत की। उसकी आवाज़ में ख़ुशबू है। गाँव की। रेत की। बारिश की। ऐतबार की। ऐसा लगता है वो मेरा कभी का छूटा कोई है। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं…जन्मपार के रिश्ते। मैं उसके साथ का कोई शहर तलाशती हूँ। एक दिन न, मैं आपको समंदर दिखाने ले चलूँगी। मुझे सब मालूम है, उसके घर के सबसे पास कौन सा समंदर है, वहाँ तक जाते कैसे हैं। एक दिन मैं अपने उड़नखटोला पर आऊँगी और कहूँगी, ऐसे ही चल लो, रास्ते में कपड़े ख़रीद देंगे आपको। बस, अभी चल लो। फिर सोचती हूँ कि ऐसे शहर क्यूँ मालूम हैं मुझे। कि रात जब गहराती है तो बातें कितने पीछे तक जाती हैं। बचपन तक, दुखों तक, ख़ुशी के सबसे चमकीले लम्हे तक। दिन में हम वैसी बातें नहीं करते जैसी रात में करते हैं। मैं समंदर की आवाज़ में उलझे हुए सुनना चाहती हूँ उन्हें…कई कई पूरी रात। चाँद भर की रोशनी रहे और क़िस्से हों। सच्चे, झूठे, सब। मुझे उन लड़कों से जलन होती है जो उनके साथ रोड ट्रिप पर जाते हैं और पुराने मंदिर, क़िले, महल, दुकानें देखते चलते हैं। जो उन्हें गुनगुनाते हुए अपना पसंद का कोई गीत सुना पाते हैं। उनसे बात करते हुए लगता है कि ज़िंदगी कितनी छोटी है और उसमें भी कितना कम वक़्त बिताया हमने साथ। मगर कितना सुंदर। कि बाक़ी लोग पूरी उम्र में भी कोई ऐसी शाम जी पाते होंगे… मैं सोचती हूँ, पूछती हूँ और ख़ुद में ही कहती हूँ, कि नहीं। कि कोई दो लोग दूसरे दो लोगों की तरह नहीं होते। न कोई शाम, शहर या धुन्ध ख़ुद को कभी दोहराती है।

कभी कभी लगता है मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे। आज एक बहुत साल पहले पढ़ा हुआ शब्द याद आ रहा है। अरबी शब्द है, ठीक पता नहीं कैसे लिखते हैं, एक लिस्ट में पढ़ा था, उन शब्दों के बारे में जो अनुवाद करने में बहुत मुश्किल हैं…यकबरनी… यानी तुम मुझे दफ़नाना…

मुझे नहीं मालूम कि मुझे ऐसी छुट्टियाँ सिर्फ़ किसी कहानी में चाहिए या ऐसे लोग सिर्फ़ किसी क़िस्से में लेकिन उनसे बात करते हुए लगता है ज़िंदगी कहानियों जैसी होती है। कि कोई शहज़ादा होता है, किसी तिलिस्म के पार से झाँकता और हम अपनी रॉयल एनफ़ील्ड उड़ाते हुए उस तिलिस्म में गुम हो जाना चाहते हैं। 

17 April, 2019

मैं precious, और तुम, बेशक़ीमत

उसे क़रीब से जानना थोड़ा unsettling है। अस्थिर। जैसे अपनी धुरी पर घूमते घूमते अचानक से थोड़ा डिस्को करने का मन करने लगे। जैसे बाइक उठा के घर से बाहर निकलें तो सब्ज़ी ख़रीदने के लिए और उड़ते उड़ते चले जाएँ एयरपोर्ट और दो चार घंटे वहाँ कॉफ़ी पीते और सोचते रहें कि उसके शहर चले जाएँ टिकट कटा के या कि किसी शहर जाएँ और उसको वहाँ बुला लें।  इस सारे सोचने और क़िस्सों का शहर रचते हुए काग़ज़ पर लिखते जाएँ ख़त, उसको ही। कि जैसे मेरे लिखने से हम ज़रा से याद रहेंगे उसको, हमेशा के लिए। कि जैसे कई टकीला शॉट्स के बाद भी होश में रहें और वो हँस के कहे कि पानी नीट मत पीना, थोड़ी सी विस्की मिला लेना तो उस आवाज़ के ख़ुमार में बौरा जाएँ। कि उसकी हँसी सम्हाल के रखें। कि इसी हँसी की छनक होगी न जब उसके इश्क़ में दिल टूटेगा।

हम बहुत हद तक एक जैसे हैं। जैसे आज शाम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि मौसम इतना अच्छा था कि दोपहर में छत पर  कुर्सी निकाल कर बैठा और रेलिंग पर पैर टिका दिए और किताब ख़त्म की। इस तरह जगह की डिटेलिंग सिर्फ़ मैं करती हूँ। कि यहाँ घूम रही हूँ, ये कर रही हूँ, सामने फ़लाना पेड़ है, हवा चल रही है, विंड चाइम पगला रही है। इट्सेटरा इट्सेटरा। फिर ये भी लगता है कि सुनने वाले को ये डिटेल्ज़ बोरिंग तो नहीं लगते। कि मैं क्या ही कह रही हूँ फ़ालतू बातें। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर खिड़की के सामने नारियल का पेड़ है या आम का या डेकोरेटिव पाम का… लेकिन मुझे फ़र्क़ पड़ता है तो मैं कहती हूँ ऐसे। लेकिन पहली बार कोई ऐसा था, जिसने इतनी छोटी सी डिटेलिंग की ताकि मैं देख सकूँ ठीक उस रंग में जैसी उसकी दोपहर थी। बात सिर्फ़ इतनी भी होती तो ठीक था…बात ख़ास इसलिए है कि मैंने पूछा नहीं था। उसने ख़ुद से बताया। वो शहर में होता तो उड़ते उड़ते जाती बाइक पर, सिर्फ़ उसे ज़ोर से hug करने के लिए।

वो पूछता है, तुम्हें मैं समझ में आता हूँ। मैं सोचती हूँ, क्या कहूँ। थीसीस की है तुमपर। तुम्हारे हर शब्द को लिख के रखा है। तुम्हारी आँखों का रंग हर क़िस्से में झलकता है। तुम्हारे कहे बिना बात समझती हूँ। तुम्हारे आधे सेंटेन्सेज़ सही सही पूरे करती हूँ और तुम नाराज़ नहीं होते हो। तुम्हारी याद में अटकी फ़िल्मों के नाम मुझे सूझते हैं। लेकिन, यूँ तो कोई किसी को ताउम्र साथ रह के भी नहीं जान सकता और किसी को जानने के लिए एक मुलाक़ात ही काफ़ी होती है। एक बात बताऊँ वैसे, मुझे कभी नहीं मालूम था कि तुमने कॉलेज में कितनी लड़ाई वग़ैरह की थी...लेकिन तुम्हारे साथ चलते हुए एक एकदम ही स्ट्रेंज सी निश्चिन्तता होती थी। जैसे कि कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। ये सिर्फ़ एक दिन की छोटी सी बात से आयी थी। वो दिल्ली का अजीब सा मुहल्ला था...लड़के जैसे लड़कियाँ घूरने के लिए ही पैदा हुए थे। बहुत अजीब जगह, जहाँ डर लगे। तुमने बिना कुछ कहे, मेरा हाथ पकड़ा और साथ में चलने लगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में आश्वस्ति थी। कुछ चीज़ें जो हम शब्दों के बग़ैर कहते हैं। स्पर्श की भाषा में। उस दिन पता चला मुझे। तुम्हारे साथ डर नहीं लगेगा, कभी भी।

मुझे उसकी हँसी अच्छी लगती है। और उसकी आँखें। और उसकी बातें। और उसका शब्दों का एकदम ठीक ठीक इस्तेमाल करना। कि ग़लती से भी, कभी भी एक शब्द ग़लत नहीं बोल सकता। इम्पॉसिबल। कि इसपर शर्त लगायी जा सकती है। हार जाने वाली शर्त। पर उससे हारना अच्छा लगता है। उसके कम शब्दों में कुछ शब्द जो मेरे नाम के इर्द गिर्द गमकते हैं। precious. कितना साधारण सा शब्द है। लेकिन वो कहता है तो ख़ास लगता है। कि भले ही वो मेरे लिए बेशक़ीमत हो। मैं उसके लिए सिर्फ़ क़ीमती हूँ, तो भी चलेगा। कि वो आप कहता है, मुझे नहीं मालूम, ग़ुस्से में कि दुलार में। पर कहता है तो अच्छा लगता है। कि मुझे आप सिर्फ़ पापा कहते हैं।

अजीब सी किताब है। Norwegian Wood। लेकिन जब वो कहता है कि वो मुझे कभी नहीं भूलेगा। उसका उसकी पसंद की भाषा में कहना। I will always remember you. बहुत प्यारा महसूस होता है। जैसे किसी एक साल मैथ के इग्ज़ैम में सच में 99 मार्क्स आ गए हों। कि ग़लती से सारे सवाल सही बन गए थे।

द लेकहाउस याद आ रही है। जिसमें वो लड़की के लिए शहर के नक़्शे में एक रूट चार्ट करता है कि यहाँ जाओ, ये देखो… और लड़की उस रास्ते पर चलती है, सोचती हुयी… कि काश हम सच में साथ होते… फिर सामने वो बड़ी सी दीवार आती है, जिसपर कमोबेश दो साल पुरानी ग्रफ़ीटी बनी हुयी है। कि केट, मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस ख़ूबसूरत शनिवार की शाम का शुक्रिया। कैमरा ‘together’ शब्द पर जा के ठहरता है। प्यार में कैसी कैसी चीज़ें लोगों को क़रीब ले आती हैं। कि दूरी सिर्फ़ मन में होती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा हो सकता है कि उसके शहर में बारिश हो और यहाँ की हवा में खुनक आए।

फिर द ब्लूबेरी नाइट्स का वो सीन, जब कि लड़की पूरी दुनिया में भटकती हुयी भी उस कोने की छोटी वाली दुकान के लड़के को पोस्टकार्ड भेजती है। कहती है उससे, पता नहीं तुम मुझे कैसे याद करोगे। उस लड़की की तरह जिसे ब्लूबेरी पाई पसंद थी, या उस लड़की की तरह, जिसका दिल टूटा हुआ था।

मैं सोचती हूँ कि मुझे क्या याद रहेगा। इमारत से पीठ टिकाए बैठना। आसमान को देखते हुए हँसना। दिल्ली मेट्रो के स्टेशन पर विदा कहते हुए फ़्लाइइंग किस देना। क्या क्या। कि कहानी और सच के बीच अंतर करना सीखना ज़रूरी है वरना मैं भी किसी पागलपन की कगार पर तो हूँ ही। कब से एक कहानी के बाहर भीतर कर रही हूँ। किरदार मेरे साथ साथ शहर घूमते हैं और मैं जाने क्या कुछ महसूसती हूँ। कि कोई एक शहर हो जिसमें मेरी पसंद की सारी जगहें हों। वो कॉफ़ीशॉप्स जहाँ मेरे पसंद की कॉफ़ी मिलती है। वो पोस्ट बॉक्स जहाँ से तुम्हें पोस्टकार्ड गिराया था। पतझर का सुनहले पत्तों वाला मौसम। डाकटिकटों में रचे-बसे शहर जहाँ में जाना चाहती हूँ एक शाम कभी।

मुझे लिखने से डर लगने लगा है। लिखे हुए लोग ज़िंदगी में मिल जाते हैं। जब तीन रोज़ इश्क़ लिखा था तो उसमें लड़की एक घंटे में एक पैग विस्की पीती है...विस्की के पैग से समय नापा जा सकता है। मैंने तब तक ऐसे किसी इंसान को नहीं जाना था जो ड्रिंक्स के हिसाब से घंटे माप सके। और फिर मैं तुमसे मिली। उस दिन पता है, मन किया तुम्हें वो पूरी कहानी पढ़ के सुनाऊँ... कि देखो, अनजाने में ऐसा लिखा है।

तुम हो मेरे इंतज़ार में? या कि सिर्फ़ मैंने लिखे हैं इतने सारे शहर कि जिनका कोई सही डाक पता नहीं। तुम मुझे चिट्ठियाँ लिखने से मना करो। मेरी चिट्ठियों से सबको ही प्यार हो जाता है। without exception। मेरी चिट्ठियाँ उतनी ही पर्फ़ेक्ट हैं, जितनी मैं flawed। फिर चिट्ठियों से प्यार करोगे और लड़की से नफ़रत। क्या करेंगे फिर हम।

मैं पूछती हूँ उससे। तुम जानते हो न, मैं क्यूँ चाहती हूँ कि किसी को याद रहूँ। कि मुझे मालूम है किसी दिन आसान होगा मेरे लिए कलाइयाँ काट कर मर जाना। उसकी आवाज़ में फ़िक्र है। कि ऐसी बातें मत करो। मुझे नहीं चाहिए प्यार मुहब्बत। मुझे बस, थोड़ी सी फ़िक्र चाहिए उसकी…बस। मैं उसकी आँखें याद करूँगी और दुनिया के सबसे फ़ेवरिट सूयसायड पोईंट से कूदना मुल्तवी कर दूँगी। हाँ इसे प्यार नहीं कहते। लेकिन इतना काफ़ी है, कि इसे ज़िंदगी कहते हैं। और तुम्हारे होने से ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और मेरी हँसी में जादू। इससे ज़्यादा मुझे नहीं चाहिए। 

08 April, 2019

तिलिस्म सिर्फ़ तोड़े जाते हैं, उनसे मुहब्बत नहीं की जाती...

लड़की कोहरे की बनी होती तो फिर भी ठीक होता। वो सिगरेट के धुएँ की बनी थी। उँगलियों में रह जाती। बालों में उलझ जाती। बिस्तर, तकिए, कम्बल…जब जगह बसी रहती। तलब वैसी ही लगती थी उसकी। रोज़। रोज़। रोज़। सुबह, शाम, रात…नींद के पहले, जागने के बाद।
कैसे चूमता कोई उसे? क्यूँ चूमता कोई उसे?

लड़की - शब्दों की बनी, उदास, ख़ुशनुमा, गहरे शब्दों की। वो चाहती कि वो फूलों की बनी हो। आँसुओं की या किसी और टैंजिबल चीज़ की - हवा, पानी, मिट्टी, आग जैसी चीज़ों की… लड़की चाहती कि उसे छुआ जा सके। 
ताकि उसे तोड़ा जा सके। 

कितना लड़ सकती थी वो…ज़िंदगी के इस मोड़ पर थकान इतनी ज़्यादा थी कि उसने हथियार रख दिए। वो रोयी भी नहीं। बस उसकी आवाज़ ज़रा सी काँपी। ‘मैं नहीं करती तुमसे प्यार’। वो एक छोटा सा सवाल पूछना चाहती थी इस आत्मसमर्पण के बाद। 
‘ख़ुश?’


उसके पास सच की दुनिया नहीं थी। कहानियाँ थी सिर्फ़। और दोस्त। इस दुनिया में कहानी के मोल कुछ भी नहीं ख़रीदा जा सकता। 


माँगने को भी कुछ नहीं था उसके पास। किसी के हिस्से ज़रा सा सुख माँगना भी अधिकार में आता है। प्राचीन मंदिर और मक़बरे उसके भीतर उगते। वसंत की बेमौसम बारिश का कोई राग भी। टीन की छत पर बेतहाशा बरसती बारिश…चुप्पी महबूब का नाम चीख़ती। दूर किसी छत पर बारिश में भीगता लड़का गुनगुनाता, इस बात से बेख़बर कि लड़की तिलिस्म होती जा रही है। और मेरी जान, तिलिस्म सिर्फ़ तोड़े जाते हैं, उनसे मुहब्बत नहीं की जाती...

लड़की कभी कभी सीखना चाहती बाक़ी चीज़ें। झूठ बोलना, जिरहबख़्तर बाँधना। ख़ुदकुशी के तरीक़े। लौट सकना। करना थोड़ा कम प्यार किसी से। सीमारेखा बनाना। और अपनी उदासी में ज़रा कम ख़ूबसूरत दिखना।
कि हर कोई उसे उदास देखना न चाहे। 

मुहब्बत मैथ भी नहीं, फ़िज़िक्स का कोई unsolvable equation हुए जाती। एकदम अबूझ। इक रोज़ उसे क़ुबूल करना ही पड़ता कि इतनी उलझी हुयी चीज़ उसे ज़रा भी समझ नहीं आती। कि step-by-step marking के बावजूद उसके नम्बर बहुत कम आएँगे।
जाने कितने साल वो ज़िंदगी के इसी क्लास में गुज़ारेगी कि जिसे कहते हैं, moving on. 


Suicide letter उसका मास्टरपीस था। दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत प्रेम पत्र।


वो नहीं जानती थी प्यार के बारे में कुछ ज़्यादा। उसने ऐसा कोई दावा भी कभी नहीं किया। उसके इर्द गिर्द लेकिन बहुत समझदार लोग थे। सबने उससे कहा, किसी के लिए फूल ख़रीद लेने की ख़्वाहिश को प्यार नहीं कहते। 


17 December, 2018

लौट आते चूम कर, दरगाह की चौखट, और शहज़ादे की स्याह उँगलियाँ।

ये बहुत साल पहले की बात है। ज़िंदा शब्दों के जादू और तिलिस्म में पहली बार गिरफ़्तार होने के समय की। इसके पहले हमने बेजान काग़ज़ पर छपे क़िस्से पढ़े थे। फिर भी ऐसा कभी ना हुआ था कि किसी लेखक से प्रेम हो जाए। कोई बहुत अच्छा लगा भी कभी तो ज़िंदगी से बहुत दूर जा चुका होता था।

उन दिनों हमारी दुनिया ही नयी नयी थी। बहुत सारा कुछ पढ़ना लिखना जारी था। लाइब्रेरी में कई तल्ले थे और इश्क़, दोस्ती और आवारगी के बाद भी हमारे पास पढ़ने के लिए बहुत वक़्त बच जाता था। मुझे जब पहली बार उन शब्दों से इश्क़ हुआ तो उनका कोई चेहरा नहीं था। यूँ भी वे शब्द ऐसे मायावी थे कि पढ़ते हुए लगता कि मैंने ही लिखे हैं। दोस्तों में बड़ी सरगर्मी थी। सब जानना चाहते थे इन शब्दों को लिखने वाले के हाथ कैसे हैं। उसका चेहरा कैसा, हँसी कैसी और उसकी उदासियाँ किस रंग की हैं। मैंने कभी नहीं जानने की कोशिश की। मेरे लिए वो काला जादू था। रात के स्याह अंधेरे से मेरे ही रूह के काले क़िस्से लिखता हुआ। वो मेरा अपना था कि उसका कोई चेहरा नहीं था। 

एक दूर से खींची हुयी तस्वीर थी जिसमें उसका चेहरा नहीं दिखता था। फिर एक रोज़ बड़ा हंगामा हुआ कि बात होते होते मुझ तक पहुँची कि किसी ने शब्दों के पीछे का चेहरा देखा है। उसने कहा मुझसे कि ये तिलिस्म रचने वाला कोई अय्यार नहीं, हमारे जैसा कोई शख़्स है। मैंने उस रोज़ नहीं माना कि वो हमारे जैसा कोई है। उसकी तस्वीर देखी। अच्छा लगा। वो भी अच्छा लगा, उसकी तस्वीर भी। फिर दिन, महीने, साल बीतते रहे, उसकी कई तस्वीरें आयीं। मैंने कई बार देखा मगर ख़्वाहिश बाक़ी रही कि उसकी एक तस्वीर मैं उतार सकूँ कभी। 

उससे पहली बार मिली तो उसके हाथों की तस्वीर उतारी। वो कुछ लिख रहा था। उसके हाथ में हरे रंग की क़लम थी। उसकी उँगलियाँ लम्बी, पतली, साँवली थीं। वो ख़ुद, क़यामत था। उसे देख कर वाक़ई मर जाने को जी चाहता था। मैंने जो पहली तस्वीरें उतारीं उनमें वो इतना ख़ूबसूरत था जितने उसके रचे गए किरदार। इतनी ख़ूबसूरत तस्वीरें कि डिलीट कर दीं। उन्हें देख कर ऐसा लगता था, तस्वीर खींचने वाली उस शब्दों के शहज़ादे से इश्क़ करती है। 

यूँ तो मेरे लिए ज़िंदा चीज़ों की तस्वीर खींचना मुश्किल है। इंसानों की तो और भी ज़्यादा। उसके ऊपर कोई ऐसा जिसके शब्दों के तिलिस्म में आपने सालों बिताए हों… नामुमकिन सा ही कुछ। कैमरा से देखती तो भूल जाने का मन करता कि क्लिक करना है। उसे देखते रहने का मन करता। देर तक धूप में। कोहरे में। उसपर सफ़ेद कुछ ज़्यादा खिलता। कोरे पन्ने जैसा। वो सफ़ेद पहनता तो गुनाह करने को जी चाहता। दरगाह में स्त्रियों को अंदर जाने की इजाज़त नहीं। हम दरगाह की चौखट चूम कर लौट आते और शहज़ादे की स्याह उँगलियाँ। हमारी ज़ुबान पर उनका नाम होता। 

वो रूह है। उसे तस्वीर में क़ैद करना मुश्किल है। बहुत साल पहले मैं सिर्फ़ फ़ोटो खींचना चाहती थी। मुझे लगता था रोशनी सही हुयी तो फ़्रेम में कैप्चर हो जाएँगी उसकी स्याह उँगलियाँ... उसकी पसंद की क़लम... उसके शहर का मौसम। लेकिन कैमरा में इतनी जान नहीं कि ज़िंदा रख सके तस्वीरों को। फिर जब ऐसी ख़्वाहिशें होती थीं तो Monet और पिकासो की पेंटिंग्स कहाँ देखी थीं। ना जैक्सन पौलक को जानती थी कि समझ पाऊँ, रूह को पेंटिंग में कैप्चर किया जाता है। पौलक को पहली बार देखा था तो वो अपनी एक पेंटिंग के सामने खड़ा था। उसने जींस पहन रखी थी जिसकी पीछे वाली जेब में एक हथौड़ी थी। उसकी पेंटिंग्स में कहीं कहीं सिगरेट के टुकड़े भी हैं। खोजने से मिलते हैं। बहुत ज़िंदा होती है उसकी पेंटिंग। एकदम तुम्हारे शब्दों जैसी। छुओ तो आज भी आत्मा को दुःख होता है। 

मैं उसकी पेंटिंग बनाना चाहती हूँ अब। एक लकड़ी की नक्काशीदार मेज़ हो। किनारे पर सफ़ेद इन्ले वर्क। खिड़की के पास रखी हो और खिड़की के बाहर धूप हो। वो मेज़ पर बैठ कर काग़ज़ पर कुछ लिख रहा हो। दाएँ हाथ में क़लम और ऊँगली में फ़िरोज़ी स्याही लगी हो कि क़लम मेरी है। उसे किसी भी क़लम से फ़र्क़ नहीं पड़ता। बाएँ हाथ में सिगरेट, धुँधलाता हुआ काग़ज़ का पन्ना। मैं चाहती हूँ कि एक ही पेंटिंग में आ जाए उसका सफ़ेद कुर्ता, उसका स्याह दिल, उसके रेत के शहर, उसके सपनों का समंदर, उसकी कहानियों वाली प्रेमिकाएँ भी। 

इस चाह में और कुछ नहीं, बात इतनी सी है। किसी ख़ूबसूरत शहर का स्टूडीओ हो जिसमें अच्छी धूप आए। जितनी देर भर में उसकी पेंटिंग बने, वो मेरी नज़रों के सामने रहे। मेरा रहे। बस। शब्दों से तिलिस्म रचने वाले को रंगों में रख सकूँ, ये ख़याल कितना विम्ज़िकल है...सोचना भी जैसे मुश्किल हो। 'वे दिन' में उसका एक शब्द है पसंदीदा, 'विविड'। वैसी ही कोई विविड पेंटिंग हो। उसके हाथ देखो तो कविता लिखने को जी चाहे। या कि प्रेम पत्र लिखने को। 

और काग़ज़ कोरा छोड़, देर रात अपनी कलाइयाँ सूँघते हुए, उसके नाम के अत्तर को याद करने को भी तो। वो जो छूने में ख़्वाब जैसा हो, उसके जैसा, कोई, वहम। 

03 February, 2018

सुनो, तुम अपना दिल सम्हाल के रखना।

नहीं। मेरे पास कोई ज़रूरी बात नहीं है, जो तुमसे की जाए। 
ये वैसे दिन नहीं हैं जब 'दिल्ली का मौसम कैसा है?' सबसे ज़रूरी सवाल हुआ करता था। जब दिल्ली में बारिश होती थी और तुमने फ़ोन नहीं किया होता तो ये बेवफ़ाई के नम्बर वाली लिस्ट में तुम्हारा किसी ग़ैर लड़की से बात करने के ऊपर आता था। 
हमारे बीच दिल्ली हमेशा किसी ज़रूरी बात की तरह रही। बेहद ज़रूरी टॉपिक की तरह। कि तुम्हारे मन का मौसम होता था दिल्ली। नीले आसमान और धूप या दुखती तकलीफ़देह गर्मियाँ या कि कोहरा कि जिसमें नहीं दिखता था कि किससे है तुम्हें सबसे ज़्यादा प्यार। 
अब कहते हैं लोग मुझे, दिल्ली अब वो दिल्ली नहीं रही। तुम्हें दस साल हुए उस शहर को छोड़े हुए। अब भी तुम्हें उसके मौसम से क्या ही फ़र्क़ पड़ता है। 
उस लड़के को छोड़े हुए भी तो बारह साल हुए। तुम उसके बालों की सफ़ेदी देखना चाहती हो? उसकी आँखों के इर्द गिर्द पड़े रिंकल? या होठों के आसपास पड़ी मुस्कान से पड़ी हुयी रेखाएँ? तुम क्यूँ देखना चाहती हो कि जो रेखा तुम्हारे और उसके हाथों में ठीक एक सी थी, वो इतने सालों में बदली या नहीं। तुम उसे देखना क्यूँ चाहती हो? जिस लड़के को तुमने ही छोड़ा था, उसके गले लग कर उसी से बिछड़ने के दुःख में क्यूँ रोना चाहती हो। उसके ना होने के दुःख का ग्लेशियर अपने दिल में जमाए हुए तुम जियो, यही सज़ा तय की थी ना तुम दोनों ने? उसकी आँखों में मुहब्बत होगी अब भी जिसे वो नफ़रत का नाम देता है। उसकी आवाज़ से तुम्हारे दिल की धड़कन क्यूँ रूकती है? इतना प्यार करना ही था उससे तो उसे छोड़ा ही क्यूँ था? उसके पास रह कर उससे दूर हो जाने का डर था तुम्हें?
दुखता हुआ शहर दिल्ली। सीने में पिघलता। जमता। दूर होता जाता। बहुत बहुत दूर। पूछता। 'ताउम्र करोगी प्यार मुझसे?'
***
हम जिनसे प्यार करते हैं, वो इसलिए नहीं करते हैं कि उनसे बेहतर कोई और नहीं था। प्यार में कोई आरोहण नहीं होता कि उस सबसे ऊँची सीढ़ी पर जो मिलेगा हम उससे सबसे ज़्यादा प्यार करेंगे। या उससे ही प्यार करेंगे। 
हमें जो लेखक पसंद होते हैं, वे इसलिए नहीं होते कि वे दुनिया के सबसे अच्छे लेखक होते हैं। उनका लिखा पुरस्कृत होता है या बहुत लोगों को पसंद होता है। हमें कोई लेखक इसलिए पसंद आता है कि कहीं न कहीं वो हमारी कहानी कहता है। हमारे प्रेम की, हमारे बिछोह की। अक्सर वो कहानी जो हम जीना चाहते थे लेकिन जी ना सके। हो सकता है हम उनके बाद कई और लेखकों को पढ़ें और कई और शहरों के प्रेम में पड़ें। लेकिन अगर हमने एक बार किसी के लिखे से बहुत गहरा प्रेम किया है तो हम उस लेखक के प्रेम से कभी नहीं उबर सकते। हम उस तक लौट लौट कर जाते हैं। कई कई साल बाद तक भी। 
आज मैंने कुछ वे ब्लॉग पोस्ट पढ़े जो २०१० में लिखे गए थे। ये ऐसे क़िस्से हैं जिनकी पंक्तियाँ मुझे हमेशा याद रही हैं। ख़ास तौर से दुःख में या सफ़र में। उन लेखों में दुःख है, अवसाद है, मृत्यु है और इन सब के साथ एक लेखक है जिसका उन दिनों मुझे नाम, चेहरा, उम्र कुछ मालूम नहीं था। ये शब्दों के साथ का विशुद्ध प्रेम था। मैं उन पोस्ट्स तक लौटती हूँ और पाती हूँ कि अच्छी विस्की की तरह, इसका नशा सालों बाद और परिष्कृत ही हुआ है। 
मैंने इस बीच दुनिया भर के कई बड़े लेखकों को पढ़ा है। कविताएँ। कहानियाँ। लेख। आत्मकथा। कई सारे शहर घूम आयी। लेकिन उन शब्दों की काट अब भी वैसी ही तीखी है। वे शब्द वैसे ही हौंट करते हैं। वैसे ही ख़याल में तिरते रहते हैं जैसे उतने साल पहले होते थे। 
प्यारे लेखक। तुम्हारा बहुत शुक्रिया। मेरी ज़िंदगी को तुम्हारे ख़ूबसूरत और उदास शब्द सँवारते रहते हैं। तुम बने रहो। दुआ में। अगली बार मैं किसी शहर जाऊँगी विदेश के, तो फिर से पूछूँगी तुमसे, 'क्या मैं आपको चिट्ठियाँ लिख सकती हूँ?'। इस बार मना मत करना। तुम्हारे बहुत से फ़ैन्स होंगे। हो सकता है कोई मुझसे ज़्यादा भी तुमसे प्यार करे। लेकिन मेरे जैसा प्यार तो कोई नहीं करेगा। और ना मेरे जैसी चिट्ठियाँ लिखेगा। तुमसे जाने कब मिल पाएँगे। मेरा इतना सा अधिकार रहने दो तुमपर, किसी दूर देश से चिट्ठियाँ लिखने का। मुझे इसके सिवा कुछ नहीं चाहिए तुमसे। लेकिन मेरे जीने के लिए इतना सा रहने दो। 
तुम्हारी,
(जिसे तुमने एक बार यूँ ही बात बात में पागल कह दिया था)
ज़िंदगी रही तो फिर मिलेंगे।
***
कुछ शौक़ आपको जिलाए रखते हैं। 
मुझे सिगरेट की आदत कभी नहीं रही। लेकिन शौक़ रहा। दोस्तों के साथ कभी एक आध कश मार लिया। लिखते हुए मूड किया तो सिगरेट के खोपचे से दो सिगरेट ख़रीद ली और फूँक डाली। किसी दिन मूड बौराया तो बीड़ी का बंडल उठा लाए और देर रात ओल्ड मौंक पीते रहे और बीड़ी फूँकते रहे। किसी कसैलेपन को मिठास में बदलने की क़वायद करते रहे। 
जब तक किताब नहीं छपी थी अपनी, ज़िंदगी में सिर्फ़ ढाई कप चाय पी थी। पहली बार कॉलेज से एजूकेशनल ट्रिप पर कोलकाता गयी थी...वहाँ टाटा के ऑफ़िस में उन्होंने कुछ समझाते हुए सारी लड़कियों के लिए चाय भिजवायी थी। आधी कप वो, कि ना कहने में ख़राब लगा और पीने में और भी ख़राब। दूसरा कप इक बार दिल्ली में एक दोस्त ने ज़िद करके बनायी, जाड़े के दिन हैं, खाँसी बुखार हो रखा है, मेरे हाथ की चाय पी, जानती हूँ तू चाय नहीं पीती है, मर नहीं जाएगी एक कप पी लेने से। तीसरा कप बार एक एक्स बॉयफ़्रेंड ने प्यार से पूछा, मैं चाय बहुत अच्छी बनाता हूँ, तू पिएगी? तो उसको मना नहीं किया गया। दिल्ली गयी किताब आने के बाद और वहाँ दोस्तों को चाय सिगरेट की आदत। मैं ना चाय पीती थी, ना सिगरेट। फिर प्रगति मैदान में लगे नेसकैफ़े के स्टॉल्ज़ से इलायची वाली चाय पी...इक तो किताबों और हिंदी का नशा और उसपर दोस्त। अच्छी लगी। 
अपने सबसे फ़ेवरिट लेखक के साथ एक सिगरेट पीने की इच्छा थी। उनसे गुज़ारिश की, आपके साथ एक सिगरेट पीने का मन है। उस एक गुज़ारिश के लिए आज भी ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाती हूँ। कि मुझे मालूम नहीं था उन्होंने कई साल से सिगरेट नहीं पी है। मैं कभी ऐसी चीज़ नहीं माँगती। वाक़ई कभी नहीं। इसके अगले दो साल मेरे लिए दिल्ली बुक फ़ेयर यानी ख़ुशी, चाय और सिगरेट हुआ करती थी। लोग मेरी तस्वीरें देख कर कहते, आप बैंगलोर में इतनी ख़ुश कभी नहीं होतीं। 
बैंगलोर आके फिर चाय पीना बंद। सिगरेट बहुत रेयर। पिछले साल कभी कभी चाय पीनी शुरू की। घर पर। अपने हाथ की चाय। फिर पता चला, पहली बार कि मैं वाक़ई बहुत अच्छी चाय बनाती हूँ और लोग जो कहते हैं तारीफ़ में, सच कहते हैं। मगर सिगरेट की तलब एकदम ख़त्म। 
हुआ कुछ यूँ भी कि पिछले साल जिन दोस्तों से मिली, वे सिगरेट नहीं पीते थे। उनके साथ रहते हुए, बहुत सालों बाद ऐसा लगा कि सिगरेट ज़रूरी नहीं है दो लोगों के बीच। कि इसके बिना भी होती हैं बातें। हँसते हैं हम। गुनगुनाते हैं। कि मेरे जैसे और भी लोग हैं दुनिया में जो कॉफ़ी के लिए कभी मना नहीं करेंगे लेकिन चाय देख कर रोनी शक्ल बनाएँगे। कि ज़हर नहीं, लेकिन नामुराद तो है ही चाय।
सिगरेट का कश लिए कितने दिन हुए, अब याद नहीं। शौक़ से विस्की पिए कितने दिन हुए, वो भी याद नहीं। ओल्ड मौंक तो पिछले साल की ही बात लगती है। दिल्ली के कोहरे में मिला के पी थी। 
तो मेरा मोह टूट रहा है...अब इसके बाद जाने क्या ही तोड़ने को जी चाहेगा। सुनो, तुम अपना दिल सम्हाल के रखना।
प्यार। बहुत।
***
छाया गांगुली गा रही हैं...'फ़र्ज़ करो, हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो, दीवाने हों'

'हम' दोनों, क्या हो सकते हैं...फ़र्ज़ करो...दीवाने ही होंगे। 

07 December, 2017

तुम मेरे प्राण में बसे हो

कुछ चीज़ें मुझे हिंदी में ही समझ आती हैं। मैं इनका ठीक ठीक मतलब समझा नहीं सकती हूँ किसी को। मन। प्राण। आत्मा। ये सब अलग अलग हैं। ये कहाँ हैं मालूम नहीं। लेकिन प्यार होता है तो कुछ है जो सबको एक ही रंग में रंग देता है।
फ़िल्म The Grandmaster में आख़िर अलविदा में वो उसे बता रही है कि कैसे सालों साल उसने उसे याद रखा है। वे मिल नहीं पाए और अब ज़िंदगी ख़त्म हो रही है। फ़िल्म मैंडरिन में है। उसके डाइयलॉग्ज़ के सब्टायटल्ज़ के दो वर्ज़न हैं। उसमें एक में वो कहती है "i really cared about you" दूसरे वर्ज़न में कहती है, "you are in my heart of hearts". भाषा नहीं समझ आती है, लेकिन वो सर झुकाए बताती जा रही है कई बातें और आख़िर में मिस्टर इप की आँखों में देख कर इतना सा ही कहती है तो कैसे तो कुछ अंदर तक टूट जाता है और हिंदी में एक ही पंक्ति आती है उसके लिए। 'तुम मेरे प्राण में बसे हो'। 
तुम्हें कैसे बताऊँ कैसा होता है ये सोच सोच कर बिखरना कि जिस किसी से एक बार मिले हैं, उससे शायद ज़िंदगी में दुबारा कभी ना मिलें। मतलब कभी भी नहीं। अनुपम ने मुझे Bisociation सिखाया था और उसकी ख़ूब प्रैक्टिस भी करायी थी। शायद इसलिए आज भी मैं सबसे ज़्यादा इसी का इस्तेमाल करती हूँ। इसका अर्थ है कोई दो एकदम अलग चीज़ों के बीच में कोई सम्बंध निकालना। मेटाफ़र बनाना। और लिखना। जैसे कि रंग नीला और बिल्ली। मैं पिछले कुछ दिनों में कहानियों से गुज़री हूँ। अपनी स्टोरीटेलिंग में मैंने 'ख़ुशबुओं का सौदागर' कहानी सुनायी। इसमें वो सौदागर एक लड़की की गंध तलाश रहा होता है, गंध जो उसके बालों से उड़ती है...इतरां की कहानी ऐसी जगह ठहरी है जब वो उस लड़के से सिर्फ़ एक ही बार मिली होती है कुलधरा में और फिर उसे तलाशती रहती है पूरी दुनिया में। इस डर को जीते हुए कि शायद वे फिर कभी ना मिलें। 
लिखते हुए वो डर एक शब्द था जो मुझे मालूम नहीं था। जीते हुए वो शब्द एक नाम हो गया है। तुम्हारा। मेरे बालों में तुम्हारे हाथों की उलझन रह गयी है। फिर पिछले कुछ दिनों में बनारस का गाना सुना...बनारसिया...फिर पापा बनारस गए और बताए कि बनारस में दीवाली देरी से मनायी जाती है, कि वे नाव से घाटों पर जले हुए असंख्य दिये देख रहे हैं और ये बहुत सुंदर है। 
बनारस में मरने वालों को मोक्ष मिल जाता है। लोग वहाँ अपनी आख़िरी साँस लेने के लिए जाते हैं। मेरे मन में बहुत धुँधली सी याद है बनारस की। गंगा के पानी की। गलियों की। और पान की। बहुत साल पहले एक लड़के से प्यार था बहुत। उन दिनों बस इतना शौक़ था कि मैं जब मरती रहूँ तो वो पास रहे। मुझे उसके साथ ज़िंदगी का कोई भी हिस्सा जीने का कोई शौक़ नहीं था। वो लड़का कहता है हमारे बीच जो था उसको प्यार नहीं कहते हैं। कि उसको मुझसे प्यार नहीं था कभी। मैं उसको समझाती हूँ। कि इतना ही होता है प्यार। इसी को कहते हैं। 
मुझे जाने क्यूँ इस दुनिया का कोई शहर ऐसा नहीं लगा जहाँ तुम मुझसे मिल सको। या तो मैं कोई एक नया शहर देख आऊँ या रच दूँ एक नया शहर तुमसे मिलने को। कल जाने क्यूँ लगा कि हमें बनारस में मिलना चाहिए। 
इस दुनिया से अलग मेरा वो कौन सा हिस्सा है जो तुम्हारा हो गया है। मेरी आत्मा के कौन से धागे तुमसे जा उलझे हैं? मन। प्राण। आत्मा। में कैसे बस जाता है कोई। 
तुम कौन हो जो मेरी आत्मा में रहते हो? मैंने अपने जीवन में कभी ऐसा प्यार किया हो मुझे याद नहीं आता। ये कौन सा रंग है जो मेरी उँगलियों से झरता है। कौन सी नदी मेरी अंजलि से निकलती है। मेरे अंचल में बंधी तुम्हारे नाम की कौन सा मन्नत है। ये कौन सा दुःख मोल लिया है मैंने। 
तुम्हें मालूम है, मेरा उपन्यास अधूरा क्यूँ पड़ा है? क्यूँकि इतरां के जिस प्रेमी से उसे प्रेम होना था, उससे मुझे भी प्यार है...बहुत गहरा। और मैं उसका दिल तोड़ने से डरती हूँ। मृत्यु से भी। और जाने क्या सोच कर मैंने तुम्हारा नाम रखा, मोक्ष। 
कि मेरी जान, आह मेरी जान, जीते जी मोक्ष नहीं मिलता। 
प्यार। बहुत।

29 October, 2017

जानां, तुम्हारे बाद, किसी से क्या इश्क़ होगा


लिखते हुए समझ नहीं आ रहा उसे लिखूँ या उन्हें। प्रेम के बारे में लिखती हूँ तो उसे कहती हूँ, व्यक्ति की बात आती है तो उन्हें कहना चाहती हूँ।

आज बहुत दिन बाद उन्हें सपने में देखा। सपने की शुरुआत में कोई टीनेजर लड़की थी मेरे साथ। यही कोई अठारह साल के लगभग। पेज के कुछ उन रीडर्ज़ जैसी जिनसे मेरी कभी कभी बात हो जाती है। कोई ऐसी जो बहुत अपनी तो नहीं थी लेकिन प्यारी थी मुझे। मैं उसके साथ एनफ़ील्ड पर घूमने गयी थी कहीं। वहाँ पहाड़ थे और पहाड़ों से घाटी दिखती थी। एक ऊँचे पहाड़ पर कोई भी नहीं था। सुंदर मौसम था। बारिश हो रही थी। हम देर तक बारिश में भीगते रहे और बात करते रहे। प्रेम के बारे में, इसके साथ आते हुए दुःख सुख के बारे में। मेरे पास अनुभव था, उसके पास भोलापन। बहुत अच्छा लग रहा था एक दूसरे से बात कर के। हम दोनों एक दूसरे से सीख रहे थे।

वहाँ से मैं एनफ़ील्ड से ही आयी लेकिन आते आते वो लड़की कहाँ गयी, सो मुझे याद नहीं। मैं अकेले ही राइड कर रही थी मौसम बहुत गर्म था इसलिए कपड़े लगभग सूख गए थे लेकिन हेल्मट के नीचे बाल हल्के गीले थे। और कपड़ों का हल्का गीलापन कम्फ़्टर्बल नहीं था। अगले फ़्रेम में मैं उनके घर गयी हुयी हूँ। घर कुछ ऐसा है जैसे छोटे क़स्बों में घर हुआ करते हैं। छत पर कपड़े सूख रहे हैं। बालकनी है। पीछे छोटा सा आँगन है। काई लगी दीवारें हैं। मैं बहुत चाह कर भी शहर को प्लेस नहीं कर पायी कि शहर कौन सा है। ये उनका पैतृक गाँव नहीं था, ये उनके शहर का मकान नहीं था, ये मेरा पैतृक गाँव नहीं था, ये दिल्ली नहीं था, ये बैंगलोर नहीं था, ये ऐसा कोई शहर नहीं था जिसमें मैं कभी गयी हूँ लेकिन वहाँ उस मकान में अजीब अपनापन था। जैसे कि हम लोग पड़ोसी रहे हों और मेरा ऐसे उनके घर चले जाना कोई बहुत बड़ी बात ना हो। जबकि ये समझ थी कहीं कि मैं उनके घर पहली बार गयी हूँ।

भीतर का गीलापन। कपड़ों का सिमा हुआ होना जैसे बारिशों के दिन में कपड़े सूखे ना हों, हल्के गीले ही रहते हैं। कोरों किनारों पर। मैंने किसी से इजाज़त नहीं ली है, अपने कपड़े लेकर नहाने चली गयी हूँ। यहाँ का हिस्सा मेरे पटना के मकान का है। नहा के मैंने ढीली सी एक पैंट और टी शर्ट पहनी है। बाल हल्के गीले हैं। घर के बाहर औरतें बैठी हैं और बातें कर रही हैं। मैं उन्हें जानती नहीं हूँ। उनकी बेटी भी आयी हुयी है अपने कॉलेज की छुट्टियों से। जब उससे बात कर रही हूँ तो शहर दिल्ली हुआ जाता है। अपने JNU में किसी के हॉस्टल जैसा, वहाँ के गलियारे, लाल पत्थरों वाली बिल्डिंग कुछ पुराने दोस्तों के कमरे याद आ रहे हैं।शायद एक उम्र को मैं हमेशा JNU के हास्टल्ज़ से ही जोड़ती हूँ। उसकी हँसी बहुत प्यारी है। वो कह रही है कि कैसे उसे मेरा पढ़ना बहुत रास आ रहा है। मैं मुस्कुरा रही हूँ, थोड़ा लजा भी रही हूँ। हम किचन में चले आए हैं। उसे किसी ने बुलाया है तो वो चली गयी है।

ये किचन एकदम मेरे पटना वाले घर जैसा है। इसकी खिड़की पर निम्बू का पेड़ भी है। मैं उन्हें देखती हूँ। जिस प्यार की मुझे कोई समझ नहीं है। वैसे किसी प्यार में होते हुए। पूछती हूँ उनसे, ‘आप निम्बू की चाय पिएँगे?’, वे कहते हैं ‘तुम जो बनाओगी पी लेंगे, इसमें क्या है’। मैं कई उम्रों से गुज़रती हूँ वहाँ एक चाय बनाती हुयी। कई सारे सफ़र हुआ करते हैं हमारे बीच। खौलता हुआ पानी है। मैं चीनी डालती हूँ। दो कप नींबू की चाय में छह चम्मच चीनी पड़ती है। सब कुछ इतना धीमा है जैसे सपने में ही हो सकता है। खौलते पानी के बुलबुले एकदम सफ़ेद। मैं उन्हें देखती हूँ। वे कुछ कह नहीं रहे। बस देख रहे हैं। जाने कैसी नज़र से कि दिल बहुत तेज़ धड़कने लगा है। हाथ थरथरा रहे हैं। मुझे अभी चाय में पत्ती डालनी है। मैं इक थरथराहट में ही दो छोटी चम्मच पत्ती डालती हूँ। चाय का रंग दिख रहा है। गहरा आता हुआ। एकदम सफ़ेद दो प्यालियों में छानती हूँ चाय। वे खड़े हैं एकदम पास ही। कोई छह फ़ुट का क़द। साँवला रंग। एक लट माथे पर झूली हुयी जिसे हटा देने का अधिकार मुझे नहीं। उनकी आँखों का रंग देखने के लिए मुझे एकदम ही अपना सर पूरा ऊपर उठाना होता है। चाय में नींबू गारती हूँ तो सपने में भी अपनी उँगलियों से वो गंध महसूसती हूँ। चाय का रंग सुनहला होता है। मेरा हाथ कांपता है उन्हें चाय देते हुए।

दिल जानता है कि वो लम्हा है, ‘थी वस्ल में भी फ़िक्रे जुदाई तमाम शब’। कि वो सामने हैं। कि ये चाय बहुत अच्छी बनी है। कि मैं उनसे बहुत प्रेम करती हूँ। मुहब्बत। इश्क़। मगर ये, कि ये दोपहर का टुकड़ा कभी भी दुबारा नहीं आएगा। कि मैं कभी यूँ प्रेम में नहीं होऊँगी फिर। ताउम्र। कि सपना जितना सच है उतनी ज़िंदगी कभी नहीं होगी।

मैं नींद से उठती हूँ तो उनकी नर्म निगाहें अपने इर्द गिर्द पाती हूँ, जैसे कोई धूप की महीन शॉल ओढ़ा दे इस हल्की भीनी ठंढ के मौसम में। कि ये गंध। नींबू की भीनी गंध। अंतिम विदा कुछ ऐसे ही गमक में अपना होना रचता है। कि वो होते तो पूछती उनसे, आपके काँधे से अब भी अलविदा की ख़ुशबू आती है।

‘इश्क़’ इक ऐसी उम्र का शब्द है जब ‘हमेशा’ जैसी चीज़ें समझ आती थीं। इन दिनों मैं शब्दों की तलाश में यूँ भटकती हूँ जैसे ज़ख़्म चारागर की तलाश में। कौन सा शब्द हो कि इस दुखते दिल को क़रार आ जाए। इश्क़ में एक बचपन हमेशा सलामत रहता है। एक भोलापन, एक उम्मीद। कि इश्क़ करने में एक नासमझ सी हिम्मत और बिना किसी सवाल के भरोसा - दोनों चाहिए होते हैं। आसान कहाँ होता है तर्क की कसौटी पर हर सवाल का जवाब माँगना। कि वे दिन कितने आसान थे जब ज़िंदगी में शब्द बहुत कम थे। कि जब ऐसी हर महसूसियत को प्यार ही कहते थे, उसकी तलाश में दुनिया भर के शब्दकोश नहीं छानते थे। कि अच्छा था ना, उन दिनों इश्क़ हुआ उनसे और उन दिनों ये लगा कि ये इश्क़ ताउम्र चलेगा। सुबह की धूप की कसम, मैंने वादा सच्चा किया था। आपके बाद किसी से इश्क़ नहीं होगा।

हम इश्क़ को होने कहाँ देंगे। खड़ा कर देंगे उसको सवालों के कटघरे में। जिरह करेंगे। कहेंगे कि प्रूफ़ लाओ। कुछ ऐसा जो छू कर देखा जा सके, चखा जा सके, कुछ ऐसा जो रेप्लिकेट किया जा सके। फ़ोटोस्टैट निकाल के लाओ फ़ीलिंज़ का।

ऐसे थोड़े होता है सरकार। हमारे जैसे आवारा लोगों के दिल पर कुछ आपकी हुकूमत, आपकी तानाशाही थी तो अच्छा था। वहाँ से छूटा ये दिल आज़ाद हो गया है। अब कहाँ किसी के नज़र के बंधन में बांधे। अब कहाँ किसी के शब्दों में उलझे। अब तो दूर दूर से देखता है सब। भीगता है मगर डूबता नहीं। या कि किसी में ताब कहाँ कि खींच सके हमें हमारी ज़िद से बाहर। कितने तो भले लोग हैं सब। हमारी फ़िक्र में हमें छोड़ देते हैं…साँस लेते देते हैं…उड़ने देते हैं आज़ाद आसमान में।

गाने की लाइन आती है, सीने में उलझती हुयी, किसी बहुत पुराने इश्क़ की आख़िरी याद जैसी। ‘कितना सुख है बंधन में’। कि बहुत तड़प थी। आवाज़ के एक क़तरे के लिए जान दे देने की नौबत थी। कि चाँद दुखता था। कि जिसे देखा भी नहीं था कभी, जिसे सिर्फ़ शब्दों को छू कर महसूसा था, उसका इश्क़ इतना सच्चा, इतना पक्का था कि रूह से वादा माँग लिया, ‘अब तुम्हारे बाद किसी से इश्क़ ना होगा’।

कैसा था आपको देखना? छूना। चूमना आपकी उँगलियाँ? मज़ार पर जा कर मन्नत का कोई लाल धागा खोलना और बाँध लेना उससे अपनी रूह के एक कोने में गाँठ। कि इतना ही हासिल हो ज़िंदगी भर का। इंतज़ार के रंग में रंगना साल भर और इश्क़ को देना इजाज़त कि भले ख़ून से होली खेली जाए मगर मक़तल की रौनक़ सलामत रहे। साथ पी गयी सिगरेट के बुझे हुए हिस्से की गंध में डूबी उँगलियाँ लिख जाएँ कहानियाँ मगर बचा के रखें दुनिया की नज़र से। कि जिसे हर बार मिलें यूँ कि जैसे आख़िरी बार हो। कि मर जाएँगे अगली बार मिलने के पहले ही कहीं। कि सिर्फ़ एक गीत हो, पुराना, शबे तन्हाई का...चाय हो इलायची वाली और ठंढ हो बस। कह सकते हैं इश्क़ उसे?

कि वो इश्क़ परिभाषाओं का मोहताज कहाँ था जानां...वो तो बस यक़ीन था...सीने में धड़कता...तुम्हारे नाम के साथ। हम हर चीज़ की वजह कहाँ माँगते तह उन दिनों। वे दिन। कि जब इश्क़ था, बेहतर थे। सुंदर थे। ज़िंदा थे।

दुनियादारी में हमसे इश्क़ भी छूटा और हमेशा जैसी किसी चीज़ पर भरोसा भी। कैसा लगता है सूना सूना दिल। उजाड़। कि जिसमें मीलों बस्ती नहीं कोई। घर नहीं कोई। सराय नहीं। मयखाना भी नहीं। याद के रंग झर गए हैं सब उँगलियों से। वरना, जानां, लिखते तुम्हें एक आख़िरी ख़त…बग़ैर तुम्हारी इजाज़त के…कहते… ‘जानां, तुम्हारे बाद, वाक़ई किसी से इश्क़ ना होगा’।

18 September, 2017

छोटी है ज़िंदगी, मिल लिया करो


वो बहुत ख़ूबसूरत लड़की नहीं थी। ख़ूबसूरत थी। इतनी कि बहुत देर तक उसके साथ बैठो और कोई बात ना भी करें तो सिर्फ़ उसको देखते रहना भी बुरा नहीं लगता। भला सा लगता। जैसे किसी अनजान देश में बैठे हुए वहाँ के स्थानीय संगीत को सुन रहे हों और आँख बंद कर लें कि सिर्फ़ संगीत पर ध्यान दिया जा सके। चुप रहते हुए उसे देखना बिना उसकी बातों से डिस्ट्रैक्ट हुए उसको डिटेल में संजोना था। अगली बार की याद के लिए। बारिश में खिड़की पर खड़े होकर फुहार में भीगना था। ज़रा ज़रा। 

उससे पहली बार मिल के लगता था, ये मुलाक़ात कभी भूली नहीं जा सकेगी। उसे देखते हुए कई सारी चीज़ों पर ध्यान जाता था। उसकी क़रीने से बंधी हुयी सिल्क की साड़ी जिसके रंग को शहर में सोबर/पेस्टल और गाँव में फीका/उदास कहा जाता था। जूड़े में लगा हुआ बड़ा सा लकड़ी का जूड़ा पिन कि जिसे देख कर चायनीज़ चॉप स्टिक की याद आती थी। एक आध बदमाश लट हमेशा उसके माथे पर झूलती ही रहती थी। छोटी सी बिंदी, अक्सर साड़ी के रंग से मैचिंग या फिर काली। कानों में चाँदी के झुमके कि जिन्हें देख कर हमेशा आपको अपनी ज़िंदगी में मौजूद उस लड़की की याद आ जाती थी जिसने कभी 'दिल्ली में मेरे लिए झुमके ख़रीदवा देना' का उलाहना दिया था। झुमके कि जिनमें छोटे छोटे घुँघरू होते थे। जब वो हँसती थी तो झुमके और बदमाश लटें सब झूल झूल जातीं और उन घुँघरुओं से बहुत महीन आवाज़ आती थी। आप उसके होने को अगर थोड़े थोड़े सिप में पी रहे हों तो ये आवाज़ आपको सुनायी भी पड़ती और सहेज भी दी जाती। ऐसे में उस किसी ख़ास लड़की की याद आने लगती कि जिसका जन्मदिन पास हो, आप उसके साथ जा कर किसी और के लिए एक जोड़ी झुमके ख़रीदना चाहते। एकदम वैसे ही, जैसे तुमने पहने हैं। आप कह नहीं सकते, लेकिन आप ठीक उसके जैसा कुछ रखना चाहते थे अपनी ज़िंदगी के क़िस्से में। चूँकि वो आपकी हो नहीं सकती तो आप कुछ ऐसा चुनते कि जो लोकाचार के ख़िलाफ़ नहीं होता। 

मौसम बदलने लगता उसके साथ चलते हुए। आप जिस भी शहर में होते, वो दिल्ली हुआ जाता। उसकी पसंद का शहर। महबूब शहर दिल्ली। वो इसलिए कि दिल्ली में वो खुल कर साँस लेती थी। मौसम इतना ख़ूबसूरत होता कि आप उसे अपने साथ किसी छोटी सी इत्र की डिब्बी में बंद कर के रखना चाहते। मौसम को, लड़की तो क्या ही बंद होगी शीशी में। फ़ैबइंडिया जैसी दुकान में जाने का फ़ायदा ये होता है कि कुछ चीज़ें बिना कहे भी हो जाती हैं। कि वो अचानक से पूछ ले, 'कुर्ता पहनते हो तुम?' और आप उसका दिल रखने के लिए झूठ नहीं बोल पाएँ, सच निकल जाए मुँह से, कि नहीं। कुर्ता नहीं पहनते। वो ऊपर से नीचे देखे एक ऐसी पूरी नज़र आपको कि भरसक लजा जाएँ आप। 'हाइट इतनी अच्छी है, कुर्ता बहुत अच्छा लगेगा तुम पर। मैं एक ले दूँ, प्लीज़, मेरी ख़ुशी के लिए ले लो। कभी पहन लेना। ना भी पहनो तो चलेगा'। ट्रायल रूम में काला कुर्ता पहनते हुए आप सोचते हो। 'तुम ज़हर ख़रीद के दे दो तो खा लें तुम्हारी ख़ुशी के लिए। तुम क्या तो कुर्ते की बात करती हो'। आप बाहर निकलते हो तो आइना नहीं देखते हो, उसका चेहरा देखते हो कि जो वसंत हो रखा है। 'ओह, कितने सुंदर लग रहे हो तुम। प्लीज़, मुझसे मिलने कुर्ता ही पहन कर आना अब से'। आप उसकी नज़र से देखते हैं ख़ुद को। 'मिरर मिरर ऑन द वाल, हू इज दी फ़ेयरेस्ट औफ़ देम ऑल?'। किन लंगूरों के साथ रह रहे थे आप इतने दिन? किसी ने कहा क्यूँ नहीं कभी कुर्ता पहनने को। आप कि जो हर जगह सिर्फ़ वेस्टर्न फ़ॉर्मल पहन कर जाते हो। कोट पैंट सूट वाले आप एकदम से कुर्ता पहन कर उसके साथ चलना चाहते हो। क्या साड़ी पहनने वाली हर औरत ऐसे ही कह सकती है कॉन्फ़िडेन्स के साथ, 'हिंदुस्तानियों पर हिंदुस्तानी कपड़े जितने अच्छे लगते हैं, और कुछ नहीं लगता'। 

बिलिंग के पहले वो लौट कर एक बार फिर झुमकों की जगह आती है। पूछती है आपसे, कोई छोटी बहन नहीं है तुम्हारी? ये छोटे वाले झुमके बहुत ट्रेंडी हैं, टीनएजर्स पर बहुत फबते हैं। मैंने अपनी उम्र में ख़ूब पहने थे ऐसे झुमके। आप कहते हैं उससे कि आपने अपनी छोटी बहन के लिए ही झुमके ख़रीदे हैं तो वो हँस देती है, कि उसने समझा था आपने अपनी गर्लफ़्रेंड या बीवी के लिए ख़रीदे हैं। लेकिन झुमके तो झुमके होते हैं। क्या फ़र्क़ पड़ता है उसे पहनने वाली का आपसे रिश्ता क्या है। या कि झुमके ख़रीदवाने वाली का आपसे कोई रिश्ता नहीं है।

झुमकों के रैक के पास ही रोल ऑन पर्फ़्यूम्ज़ हैं। वो उनमें से एक उठाती है। 'मस्क'। कहती है आपसे, सिगरेट पीने के बाद कलाइयों पर अक्सर यही रोल ऑन लगती है वो। धुएँ और मस्क की मिली जुली गंध उसे बहुत ज़्यादा पसंद है। वो अपनी कलाइयाँ बढ़ा देती है आपकी ओर, सूंघ के देखो ना। आपने अपने लिए एक रोल ऑन ख़रीदा है, जानते हुए कि आपकी कलाइयों से वैसी तिलिस्मी गंध कभी नहीं आ सकती। 

यहाँ से निकल कर आप दोनों यूँ ही टहल रहे हैं। एक रिहायशी इलाक़ा है कि जहाँ कुछ दूर में आपका घर है। ज़रा सी दूर चलना है। एक कॉफ़ी शॉप में कड़वी कॉफ़ी पीनी है। बस। उम्र ख़त्म। 

शाम अपने उतार पर है। वो अचानक आपका घर देखने की इच्छा ज़ाहिर करती है। आप कहते हैं उससे, 'मेरा घर बहुत बोरिंग है। कुछ नहीं है वहाँ देखने को'। पर वो कहती है कि दुनिया में बोरिंग कुछ नहीं होता। नयी चीज़ तो ख़ास तौर से कभी नहीं। हमें जो लोग पसंद आते हैं, उनका सब कुछ ही अच्छा लगता है। उनसे जुड़ी हर चीज़ में हमें इंट्रेस्ट होता है। कुछ भी चीज़ें ऐब्स्ट्रैक्ट इंट्रेस्टिंग नहीं होती हैं। जैसे मुझे पेंटिंग्स पसंद हैं, किसी को वो बहुत बोरिंग लगेंगी। किसी को इमारतें, शहर का इंफ़्रास्ट्रक्चर बहुत इंट्रेस्टिंग लग सकता है। 

उसके हिसाब से चलिए तो आपका घर बहुत कमाल की जगह है। वाइन की बॉटल में लगे हुए मनी प्लांट। अधूरा रखा हुआ सर्किट बोर्ड। बैगनी परदे, कि जो बदसूरत हैं, इसलिए इंट्रेस्टिंग हैं। वो कहती है कि आपके लिए परदे भेज देगी नए। आपका बुकरैक। क़रीने से रखी किताबें। बुक्मार्क्स। दीवाल का रंग। जिन खिड़कियों से आप बाहर देखते हैं वो। छत पर अटक गया आधा टुकड़ा चाँद। किचन में बनी दो कप कॉफ़ी। सब कुछ इंट्रेस्टिंग है उसके लिए। 

साड़ी पहने हुए कोई लड़की आपके साथ एनफ़ील्ड पर कभी बैठी नहीं है। तो आप पूछते भी नहीं हैं उससे। वो भूलती नहीं लेकिन, पार्किंग लौट में आप दिखा देते हैं। नीले रंग की अपनी नीलपरी को। घर से निकल कर आप टैक्सी करते हैं और शहर के फ़ेवरिट पाँच सितारा होटल की कॉफ़ी शॉप में जाते हैं। ये चौबीसों घंटे खुला रहता है और आप दोनों को यहाँ से कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं है। ब्लैक कॉफ़ी सिप करते हुए आप दोनों एक ही दिशा में देख रहे हैं। उधर एक पानी का फ़व्वारा चल रहा है। उसकी आवाज़ भली सी लग रही है। यहाँ कोई और आवाज़ें नहीं हैं। वो किसी कविता की किताब से दो लाइनें पढ़ती है और बेतरह उदास हो जाती है। कविता के पीछे की, कवि के जीवन की कोई घटना सुना रही होती है आपको। 

आप बहुत ग़ौर से देखते हैं उसको। उसकी साड़ी, बिंदी, झुमके...उसकी आँखें...काजल और उँगलियों पर लगी हुयी नेलपोलिश भी। फिर अचानक से आप जानते हैं कि वो क्या बात है जो उसको ख़ास बनाती है। उससे मिल कर भले ही आपका ध्यान बहुत देर तक इस चीज़ पर जाए कि वो दिखती कैसी है...लेकिन उसके साथ वक़्त बिताने के बाद आप भूल जाते हैं कि वो दिखती कैसी है...आपको बस ये याद रहता है कि उसके साथ होते हुए आप कैसा महसूस करते हैं। दिखना मैटर नहीं करता, होना मैटर करता है। उसके साथ रहते हुए आप ज़िंदगी से मुहब्बत में होते हैं। उसी जगह। उसी लम्हे। आप कहीं और नहीं होते। किसी और के साथ नहीं होते, ख़यालों में भी। 

दुनिया में ख़ूबसूरत लड़कियाँ बहुत हैं। उन्हें देख कर ख़ुशी होती है। मगर इस लड़की के साथ होने से ख़ुशी होती है। यही होना सुख है। ठीक तभी आपको डर लगता है कि अगले लम्हे लड़की चली जाएगी, तो फिर? आप तभी पहली बार जानते हैं कि किसी के साथ होते हुए उसी लम्हे इस बात का दुःख क्या होता है कि वो लम्हा जल्दी ही बीत जाएगा। कि अगली रोज़ भी शहर होगा। साँस होगी। ज़िंदगी होगी। उसके बग़ैर। 

और इसी डर से, आप उस लड़की से कभी भी नहीं मिलते। कभी नहीं जानते कि ऐसा भी कोई होता है जिसका साथ होना सुख है। कि जो ख़ूबसूरत दिखती नहीं, महसूस होती है। कि अफ़सोस ऐसी किसी हसीन लड़की के नाम लिखे जाने चाहिए। आपको अफ़सोस पसंद हैं। आप ख़ुश हैं अपनी मर्ज़ी का एक अफ़सोस पा कर। 

जब वो चली जाती है ज़िंदगी से बहुत दूर। उसने किसी को कह रखा है, आप तक ख़बर पहुँचा दे कि वो अब दुनिया में नहीं रही।  आप तब पहली बार चाहते हैं कि उससे एक बार मिल लेना चाहिए था। 

31 July, 2017

तुम्हारी आँखों का रंग उसकी फ़ेवरिट शर्ट जैसा है। ब्लैक।



'लिखने में हमेशा ख़ुद का एक हिस्सा रखना होता है। आत्मा का एक टुकड़ा। ये सिर्फ़ मेरा नहीं होता, जिस किसी को भी कभी मैंने गहरे, रूह से चाह लिया होता है, उसकी रूह के उतने से हिस्से पर मेरा अधिकार हो जाता है। मैं लिखते हुए इस हिस्से को किसी कहानी में सहेज देती हूँ। लेकिन ऐसा सिर्फ़ तभी हो सकता है जब इस इश्क़ में भी थोड़ी दूरी बाक़ी रहे, कि जिससे बहुत ज़्यादा इश्क़ हो जाता है उनको लेकर पजेसिव हो जाती हूँ। लिखना यानी नुमाइश करना। मैं फिर महबूब को ऐसे सबकी आँखों के सामने नहीं रख सकती। उसे छुपा के रखती हूँ बहुत गहरे, अंदर।"
'मेरे बारे में भी लिखोगी?'
'पता नहीं। तुम क्या चाहोगे?'
'लिखो मेरे बारे में।'
'पक्का? देखो, सोच लो। तुम्हारे बारे में लिखूँगी तो तुमसे एक दूरी हमेशा बना के रखूँगी ताकि तुम्हें अपनी आँखों से देख सकूँ। तुम्हारी आँखों में दिख सके...चाँद, तारे, शहर। महसूस हो तुम्हारी बाँहों में मौसम कोई। गंध तुम्हारी कलाई से उड़े और मेरी पलकों पर जा बैठे। मेरे ख़्वाब तुम्हारी आँखों जैसे महकते रहें।' 
'हाँ। इश्क़ तो शायद कई और बार हो जाएगा, लेकिन इस तरह मुझे रच के रख दे, ऐसी कोई कहाँ मिलेगी मुझे!'
'तुम एक इमैजिनेरी किरदार के लिए इश्क़ से मुँह मोड़ रहे हो? उन लोगों के लिए जो मेरा लिखा पढ़ते हुए तुमसे प्यार कर बैठेंगे और शायद बरसों तक तुम तक बात ना पहुँचे।' 
'तो यूँ कर लो, फ़िलहाल इश्क़ कर लेते हैं। तुम्हारी तरह का गहरा वाला'
'फ़िलहाल?'
'हाँ, इश्क़ कोई हमेशा की बात थोड़े होती है। ख़ास तौर से मुझसे। मेरा इश्क़ तो बस मौसमी बुखार है।'
'और फिर?'
'फिर क्या, इश्क़ ख़त्म हो जाएगा तो रख देना कहानी, कविता...जहाँ तुम्हारा मन करे तो। 
'और फिर?'
'फिर तुम अपने रास्ते, मैं अपने रास्ते। दुनिया में इतने शहर हैं, कहीं और भी जा के बस जाएँ। रोज़ रोज़ मिलने से मुहब्बत में ख़लल पड़ेगा।'
'मेरा दोस्त कहता है तुम मुझसे इश्क़ में हो...कि तुम्हारी आँखों में दिखता है'
'तुम्हारे दोस्त को मुझसे प्यार है?'
'पता नहीं'
'तो पूछो ना, तुम पास में बैठी थी तो वो मेरी आँखों में क्यूँ देख रहा था। क्या उसे मर्द पसंद आते हैं?'
'नहीं। उसे मैं पसंद हूँ। उसे मेरी चिंता है। मेरे इर्द गिर्द कोई भी होता है तो उसे ऑब्ज़र्व करता रहता है वो'
'मुझे लगता है तुम्हारे दोस्त को तुमसे प्यार है। वो प्यार जो वो मेरी आँखों में देख रहा है। उसके मन का चोर बोल रहा है ये'
'चोरी वोरि की कोई बात नहीं। उसे मुझसे प्यार हो जाएगा तो कह देगा। डरता थोड़े है वो मुझसे'
'तुमसे कौन नहीं डरता'
'तुम ना, पागल हो एकदम। हमसे कोई क्यूंकर डरेगा यार!'
'क्यूँकि तुमसे सबको इश्क़ हो जाता है और तुम्हें बस किसी किसी से'
'ये कौन सी बड़ी बात है। ये डर तो मुझे भी लगता है। मालूम, प्रेम और कॉन्फ़िडेन्स inversely proportional हैं। जब बहुत गहरा प्रेम होता है तो लगता है कि हम कुछ हैं ही नहीं। माने, कुछ भी नहीं। ना शक्ल, ना सीरत। होने की इकलौती वजह होती है कि महबूब इस दुनिया में है। हमारी रूह को एक बदन इसलिए मिला होता है कि वो हमें देख सके, छू सके। लेकिन हमारा कॉन्फ़िडेन्स इतना नीचे होता है कि हम सोचते हैं कि वो हमें एक नज़र देखेगा भी क्यूँ। कौन बताए उसे कि उसके देखने से हम जिला जाते हैं'
'तुम भी ये सब सोचती हो?'
'तुम 'भी' माने क्या होता है जी?'
'माने, तुम्हें ये सब सोचने की ज़रूरत क्यूँ आन पड़ी? कि इस दुनिया में कौन है जिसे तुमसे इश्क़ नहीं है?'
'एक ही है। बस एक ही है जिसे हमसे इश्क़ नहीं है। वो जिससे हमको इश्क़ हो रखा है'।
***
सुनो, उस किताब को अहतियात से पढ़ना। कि तुम्हारी उँगलियों के निशान रह जाएँगे उसके हाशिए में। तुम्हारे हाथों की गर्माहट भी। ये किसी को भी याद करने का सही वक़्त नहीं है, लेकिन मैं तुम्हारे सपने लिख रही हूँ। पहाड़ों पर चलोगे मेरे साथ? घाटी से उठते बादलों को देखते हुए चाय पिएँगे। सुनाएँगे एक दूसरे को याद से कविता कोई। बैठे रहेंगे पीठ से पीठ टिकाए और गिरती रहेगी पीली धूप। सूखे पत्तों का बना देंगे बुक्मार्क। बाँट के पढ़ेंगे मुहब्बत की किताब आधी आधी।

मैं अपनी ही मुहब्बत से डरती हूँ। अचानक से हो जाए हादसा कोई तो क्या ही करें लेकिन जानते बूझते हुए कौन भागे जाता है तूफ़ान की ओर। इक मेरे सिवा। और मुहब्बत। लम्हे में हो जाती है।
***
तुम्हारा तो नहीं पता। पर मैं चाहती हूँ तुम्हारी काली शर्ट को मैं याद रहूँ। मेरी उँगलियों की छुअन याद रहे। तब भी जब तुम्हारी बीवी उसे आधे घंटे सर्फ़ और गरम पानी वाली बाल्टी में भिगो रखने के बाद लकड़ी के पीटने से पटक पटक कर धोए। मैं चाहती हूँ कि वे बटन कभी ना टूटें जिन्हें तोड़ कर मैं अपनी जेब में रख लेना चाहती थी। वो कपास की गंध मेरी उँगलियों में घुली है। वो लम्हा भी। बहुत से अफ़सोस नहीं हैं जीवन में मगर तुम्हारी तस्वीरों को देखते हुए दुखता है सिर्फ़ इतना कि हमारी साथ में एक भी तस्वीर नहीं है। एक भी नहीं। कोई एक काग़ज़ का टुकड़ा नहीं जिसपर हमारे साझे दस्तखत हों। कोई पेंटिंग नहीं जिसपर हमने खेल खेल में रंग बिगाड़ दिए हों सारे। साथ में पी गयी कोई विस्की की याद भी कहाँ है। एक क़लम है मेरे पास जिससे तुमने किसी और का नाम लिखा था कभी। मुझे अमृता का साहिर लिखना याद आया था उस रोज़ भी। आज भी। 

आज फ़ेस्बुक पर एक पोस्ट शेयर की थी, किसी से पहली बार मिलने के बारे में। सो कुछ ऐसा है। जिन लोगों से कभी बाद में भी इश्क़ होना होता है, ज़िंदगी उनको एक ख़ास कैटेगरी में रखती है। ये वे लोग होते हैं जिनसे पहली बार मिलना मुझे हमेशा याद रहता है। अपने पूरे डिटेल्ज़ के साथ। उन्होंने कैसे कपड़े पहने थे। हमने कौन सी बात की थी। उनसे बात करते हुए मैं क्या सोच रही थी। सब कुछ। तुम्हें पहली बार देखा था तो तुम दूसरी ओर मुड़े हुए थे। पीछे से भी तुम्हें देख कर पहचान गयी थी। सिर्फ़ तुम्हारा चेहरा देखने की ख़ातिर कितना लम्बा चक्कर लगाना पड़ा था। चाँद ने पूरी कर ली थी अपनी सारी कलाएँ। तुम्हें पहली बार देखना, किसी सपने को छूना था। कॉपी में पंद्रह साल पुरानी चिट्ठी का पहली बार मिलना था। तुम्हें देखना, वाक़ई। पहली नज़र का इश्क़ था। इश्क़। 

चूँकि तुमने मुझे बहुत कम चूमा है इसलिए मेरा इतनी सी ज़िद मान लो। वे जो दो शर्ट्स थीं तुम्हारीं, सो भेज दो मेरे पास। मैं तुम्हें उन कपड़ों में किसी और के साथ नहीं देख सकती। दुखता है बहुत। 

तुम्हें मालूम है, जितने वक़्त मैं तुमसे दूर रहती हूँ, सिगरेट मुझे छोड़ देती है। तुमसे दूर रहना मेरे स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है। लेकिन मैं सोचती हूँ कि तुम्हारे इश्क़ में जो दिमाग़ी संतुलन खोता जाता है जैसे जैसे तुमसे दूर होने के दिनों का हिसाब मैं उँगलियों पर नहीं गिन पाती। सो पागलखाने में मैं क्या ही करूँगी अपने ख़ूबसूरत जिस्म का, दीवार पर सर फोड़ने और स्मगल की हुयी ब्लेड से कट लगाने के सिवा। 

***
ज़िंदगी कहती है मुझसे। देखो, तुम्हें ख़ुद तो कभी समझ नहीं आएँगी चीज़ें और तुम यूँ ही इश्क़ में गिरती पड़ती अपना दिल तोड़ती रहोगी। सो मैं हिंट देती हूँ तुम्हें। उन लड़कों से दूर रहना जिन्हें ब्लैक शर्ट्स पसंद हैं। काला शैतान का रंग है। अंधेरे का। स्याह चाहनाओं का। गुनाहों का। दोज़ख़ का। तुम्हारे इश्क़ का। 

और बेवक़ूफ़ लड़की, तुम्हारी आँखों का भी। 

29 July, 2017

Damn it, ये प्राग क्यूँ नहीं है!

हवा और धुंध के पीछे उसका सिर दीवार पर टिका था। कभी-कभर मीता के क़दमों की आहट सुनायी दे जाती थी। उसने पैकेट से सिगरेट निकाल कर मुँह में रख ली। माचिस की तीली जलाकर मैं सिगरेट के पास ले गया। उसने सिगरेट जलाकर उसे फूँक मार कर बुझा दिया। मैं हँसने लगा।
"क्या बात है?" उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा।
"कुछ नहीं।"
"तुम हँसे क्यूँ?"
मैंने विवशता में अपने काँधे सिकोड़ लिए।
"मुझे अब तुम्हें चूमना होगा।" मैंने कहा।
"क्यूँ?" उसने कौतुहल से मेरी ओर देखा।
"यहाँ यही प्रथा है। अगर कोई लड़की अपनी इच्छा से जलती हुयी तीली बुझा दे, तब उसका मतलब यही होता है।"
"मेरा मतलब वह नहीं था।" उसने हँसकर कहा।
"उससे कोई अंतर नहीं पड़ता।"
"तुम बहुत अभ्यस्त जान पड़ते हो।"
"फिर?" मैंने उसकी ओर देखा। 
- निर्मल वर्मा, वे दिन 
***



ये किताब है या पुराने अफ़सोसों का पुलिंदा! जाने किस किस कोने से निकल कर खड़े हो गए हैं अफ़सोस सामने। किताबों जैसे। कहानियों जैसे।

गीले। सीले अफ़सोस। धुआँते। ठंढ में ठिठुरते। एक चाय की गुज़ारिश करते।
चूमे जाने की भी।

कितना सारा अधूरा इश्क़ ज़िंदा रहता है। जब पूरा पूरा शहर सो जाता है। जब बंद हो जाती हैं सारी लाइटें। नींद के आने के ठीक पहले। पढ़ी हुयी आख़िरी किताब के पहले प्रेम के नाम। लिखना चाहते हो कौन सा ख़त? करना चाहते हो कितना प्रेम।

ये किताब पढ़ते हुए बदल जाओगे थोड़ा सा तुम भी। तुम्हें ये किताब भेज दूँगी अपने पहले। मिलूँगी जब तुमसे तो तुम्हारे सामने सिगरेट पीने के लिए माँगूँगी माचिस तुमसे। बुझा दूँगी यूँ ही। और फिर कहूँगी।

"Damn it, ये प्राग क्यूँ नहीं है!"

तुम। कि तुम्हें इतनी फ़ुर्सत कहाँ होगी कि पढ़ सको ये किताब। या कि इसके सीलेपन में धुआँती आँखों को याद दिला सको सिर्फ़ इतना सा हिस्सा ही। या कि जा सको प्राग कभी।
कहना तो ये था...
"तुम्हें, चूम लेने को जी चाहता है"। 

***
सुनो, ये किताब पढ़ लो ना मुझे मिलने से पहले। प्लीज़। मैं कह नहीं सकूँगी तुमसे। फिर लिखना पड़ेगा एक पूरा पूरा उपन्यास और जाने कितना सारा तो झूठ। जबकि सच सिर्फ़ इतना ही रहेगा।
इक धुंध में घिरी हुयी किताब पढ़ते हुए, तुम्हें चूम लेने को जी किया था।
***

दुनिया की सारी दीवारें एक जैसी होती हैं। उनका मक़सद एक ही होता है। उनकी ख़्वाहिशें भी एक ही। 
उनसे टिक कर चूमा जा सकता है किसी को। 
उनकी आड़ में भी। 

वे वादा करती हैं कि वे आपके लिए रहेंगी। वे सम्हाल लेंगी आपको।  किसी को चूमते हुए। किसी के जाने के बाद टिक के रोने के लिए भी। 

मेरी याद में बहुत सी दीवारें ज़िंदा हैं। कि मैंने उनमें जितना प्रेम चिन दिया है, उस प्रेम को साँसों की दरकार नहीं है। उस प्रेम को शब्दों की ज़रूरत होती है और मैं हर कुछ दिनों में उन नामों को ना लिखते हुए भी उनके नाम के किरदार रचती हूँ, उनके कपड़ों के रंग से आसमान रंगती हूँ, उनकी आँखों के रंग की विस्की पीती हूँ। 
***

मैं अपने हिस्से का सारा प्रेम अजनबियों के नाम लिख जाऊँगी। अफ़सोसों के नाम। दुनिया भर के आर्टिस्ट्स के नाम। जो ज़िंदा हैं और जो मर गए हैं, उनके नाम। दुनिया की हर किताब के हर किरदार से इश्क़ कर लूँगी। 

और फिर भी, मेरी जान, तुम्हारे हिस्से का इश्क़ बचा रहेगा। सलामत। 
तुम्हें ना चूमे जा सकने वाली किसी शाम के नाम। 

17 February, 2017

तुमने नमक सिर्फ़ कविताओं में चखा है


‘सिगरेट’… ‘एक सिगरेट मिलेगी?’ इस अजनबी शहर में जितनी बार सोचा है कि माँग लूँ किसी से अपने क़त्ल का सामान। लेकिन ये अजीब शहर है कि यहाँ कोई अजनबियों का क़त्ल नहीं करता। सिगरेट देने के पहले वे चूमना चाहते हैं मेरे होंठ। वे अँधेरा बुलाना चाहते है कि सिगरेट जलाते हुए देख सकें मेरी आँखें। मैंने तुम्हारे नाम के रेशम दस्ताने पहने हुए हैं कि कोई छू ना सके तुम्हारा नाम। कि कोई लिख ना दे तुम्हारे नाम से कविता कोई। मगर वे एक सिगरेट के बदले माँगते हैं मुझसे मेरे बाएँ हाथ का नीला दस्ताना। तुम्हें याद है पिछली सर्दियों में तुमने दिलवाए थे नीले दस्ताने? धुएँ ने वादा किया है कि वो मेरे इर्द गिर्द बहते समय को रोक कर रखेगा कि एक सिगरेट की ही तो बात है।

मैंने उसकी शक्ल नहीं देखी। सिर्फ़ लाइटर देखा है उसका। मगर उसने धोखे से पकड़ कर मेरा हाथ चूम ली है मेरी हथेली। सहम गयी है बेफ़िक्र मुस्कुराती हार्ट लाइन। हार्ट लाइन। तुमसे पहली बार मिली थी तो वो पहली चाँद की रात थी। मैंने लजा कर दोनों हथेलियों में ढक लिया था चेहरा…हौले से खोल कर हथेलियाँ, ठीक बीच से तोड़ा था चाँद और इसी हार्ट लाइन के पार तुम्हें पहली बार देखा था। उस अजनबी को कुछ भी नहीं मालूम। उसने इश्क़ नहीं जाना है, वो सिर्फ़ ज़िद जानता है। नियम जानता है। और इस शहर के नियम कहते हैं किसी अजनबी को सिगरेट नहीं दे सकते हैं। उसने मुझे अपने प्रेमिका कह कर पुकारने के लिए ही ऐसा किया है। हार्ट लाइन ग़ुस्से में फुफकार उठी है और कोड़े की तरह बरस गयी है उसके होठों पर। मुझे बेआवाज़ सिर्फ़ दिल तोड़ना ही नहीं, थप्पड़ मारना भी आता है। आज मालूम चला है।

तुम्हारा नाम जिरहबख़्तर है। मैं आशिक़ों के शहर जाते हुए आँखों में तुम्हारे नाम का पानी लिए चलती हूँ। नमक से चीज़ों में जल्दी जंग लग जाती है, इस डर से कोई मेरी खारी आँखें नहीं चूमता। 

तुम्हारा स्पर्श एक मौसम है। बदन में खिलता हुआ। टहकता हुआ। गहरा लाल। सुर्ख़ नीला। काई हरा। जिन्होंने नहीं छुआ है तुम्हें वे बर्बाद हो जाने वाले इस मौसम से अनजान हैं। 

उनके लिए ये शहर वसंत है। कि जिसने बौराने की इजाज़त पुराने आम के पेड़ से ली है जिसमें इस साल मंज़र नहीं आएँगे। सड़कें मेरे नंगे पैरों के नीचे काले कोलतार के अंगारे बिछाते जाती हैं। इस पूरी दुनिया के सड़कों की लम्बाई बढ़ती जाती है जब भी कभी इश्क़ होता है मुझे। इक तुम्हारे पुकारने से बनने लगते हैं क़िस्से वाले शहर। कविताओं की बावलियाँ कि जिनमें प्यास छलछलाया करती है। उफ़। तुमने मेरा नाम लिया था क्या?

इस यूनिवर्स के expand करने की conspiracy थ्योरी सुनोगे? ऐसा इसलिए है कि तुम्हारा शहर मेरे दिल से दूर होता जाए। गुरुत्वाकर्षण फ़ोर्स जानते हो क्या होता है? इश्क़। जो सारी चीज़ों को आपस में बाँध के रखता है। किसी ऐटम का वजूद ही नहीं होता…इलेक्ट्रॉन प्रोटॉन और neutron तक अलग अलग होते रहते। 

कि जानां, दुनिया की सबसे छोटी इकाई जानते हो क्या है? हिज्र। हम जब मिले थे और अगली बार जब मिलेंगे ये तुमसे मिलने के पलक झपकाते महसूस होने लगता है। इक साँस और दूसरी साँस के बीच खिंचती खाई है हिज्र। 

मगर मुझे थोड़ा बौराने की इजाज़त दो। इस शहर, इस मौसम और बिना सिगरेट की इस शाम की ख़ातिर। हम और तुम आख़िर अलग अलग शहरों में हैं। इश्क़ और पागलपन में इक शहर भर का अंतर है। तुम मेरे शहर में होते तो इश्क़ ने तबाही के शेड में रंग दिए होते मेरे कमरे के सारे काग़ज़। फिर मैं तुम्हें कैसे लिखती ख़त। कैसे। बिना ख़त के कैसे आते तुम मुझसे मिलने? कभी होता कि चाँद रात अपनी छत पर खड़े होकर तुमने देखा हो ध्रुवतारे को, ये जानते हुए कि मैंने तुम्हें बेतरह याद किया है? याद ऐसी नहीं कि लिख लूँ खत और एक शाम जीने की, साँस लेने की मोहलत मिल जाए। याद ऐसी कि जैसे माँगी जाती है दुआ, मैं घुटनों के बल बैठूँ। धुली हुयी गहरी गुलाबी साड़ी में। कानों में झूलते हो गुलाबी ही झुमके कि जिनमें लगे हों तुम्हारे शहर की नदी से निकाले गए क़ीमती पत्थर। सर पर आँचल खींचूँ। दोनों हथेलियों को जोड़ूँ साथ में और चाँद को बंद कर दूँ एक दुआ में। 

जानां। मैं मर जाऊँगी। मुझसे मिलने मेरे शहर आ जाओ।

तुम्हें समंदर का स्वाद नहीं मालूम। तुमने नमक सिर्फ़ कविताओं में चखा है। या कि तीखी सब्ज़ियों में। हज़ार मसालों के साथ जानते हो तुम नमक। कभी ऐसे शहर में गए हो जहाँ आँसुओं की बारिश होती है? अपनी हथेली चूमते हुए महसूसा है नमक को?कई साल तक उँगलियों के पोर में आँसू जज़्ब होते हैं तो उँगलियाँ नमक की बन जाती हैं। तुम क्यूँ चूमना चाहते हो मेरी उँगलियाँ? तुम्हें किसी ने कहा कि तुम्हारे लब खारे हैं? किसी ने चूमा है तुम्हें यूँ कि ख़ून का स्वाद और तुम्हारे होठों का स्वाद एक जैसा लगे?

मैं सिर्फ़ पागल हो रही होती तो कभी नहीं कहती तुमसे। मगर मेरी जान। मैं मर रही हूँ। 

सुनो जानां, आते हुए सिगरेट लेते आना।

08 February, 2017

एक नदी सपने में बहती थी

मुझे पानी के सपने बहुत आते हैं। और इक पुरानी खंडहर क़िले जैसी इमारत के भी। ये दोनों मेरे सपने के recurring motifs हैं।

***
कल सपने में एक शहर था जहाँ अचानक से बालू की नदी बहने लगी। ज़मीन एकदम से ही दलदल हो गयी और उसमें बहुत तेज़ रफ़्तार आ गयी कि जैसे पहाड़ी नदियों की होती है। फिर जैसे कि कॉमिक्स में होते हैं मेटल के बहुत बड़े बड़े सिलिंड्रिकल ट्यूब थे जिनमें बहुत बड़ी बड़ी स्पाइक लगी हुयी थीं। ये भी उस रेत की नदी में रोल हो रहे थे कि नदी के रास्ते में जो आएगा उसका मरना निश्चित है। बिलकुल लग रहा था सुपर कमांडो ध्रुव के किसी कॉमिक्स में हैं। शहर के सब लोग एक ख़ास दिशा में चीख़ते चिल्लाते हुए भाग रहे थे। मैं पता नहीं क्यूँ बहुत ज़्यादा विचलित नहीं थी। शायद मुझे सपने में मरने से डर नहीं लगता। वहीं शहर के एक ओर कुछ छोटी पहाड़ियों जैसी जगह थी। कुछ बड़े बड़े पत्थर थे, जिनको अंग्रेज़ी में बोल्डर कहते हैं। मैं एक पत्थर पर चढ़ी जहाँ से पूरा शहर दिख रहा था। बालू में धँसता...घुलता...गुम होता...जादू जैसा कुछ था...तिलिस्म जैसा कुछ...उस पत्थर से कोई दो फ़ीट नीचे कूदते ही सामने के पत्थर पर एक दरवाज़ा था। मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा कि इटली का कोई शहर था। मैं दरवाज़े से उस शहर आराम से जा सकती थी। फिर मैंने देखा कि पत्थर पर साथ में मेरी सास भी हैं। मैंने उनसे हिम्मत करके कूदने को कहा। कि सिर्फ़ दो फ़ीट ही है। और कि मैं हूँ।

फिर सीन बदल जाता है। उसी शहर में एक नदी भी थी। नदी किनारे बड़ा सा महल नुमा कोई पुरानी हवेली थी जिसमें कुछ पुराने ज़माने के लोग थे। वहाँ वक़्त ठहरा हुआ था। ठीक ठीक मालूम नहीं ६० के दशक में या ऐसा ही कुछ। लोगों के कपड़े, कटलरी और उनका आचरण सब इक पुराने ज़माने का था। नदी शांत थी कि जैसे पटना कॉलेज के सामने बहती गंगा होती है। नदी में कुछ लोग खेल खेल रहे थे। मैं किनारे पर थी और नदी में कूदने वाली थी। तभी देखती हूँ कि नदी में बहुत बड़े बड़े हिमखंड आ गए हैं। ग्लेशियर के टुकड़े। बहुत विशाल। और नदी में भी अचानक से बहुत सी रफ़्तार आ गयी है। वे जाने कहाँ से बहुत तेज़ी से बहते चले आ रहे हैं। नदी का पानी बर्फ़ीला ठंढा हो गया है। कि ठंढ और रफ़्तार दोनों से कट जाने का अंदेशा है।

वहीं कहीं एक दोस्त है। बहुत प्यारा। वो सामने की टेबल पर बैठा है मेरे साथ। हमारे बीच कॉफ़ी रखी हुयी है। उसने मेरा गाल थपथपाया है। दुनिया हमारे चारों ओर बर्बाद हो रही है लेकिन उसे शायद किसी चीज़ की परवाह नहीं है कि उसके सामने मैं बैठी हूँ। कि हम साथ हैं।

उन्हीं पत्थरों के बीच पहुँची हूँ फिर। वहाँ बहुत नीचे एक छोटा कुआँ, कुंड जैसा है या कि कह लीजिए तालाब जैसा है। मोरपंख के आकार में और रंग में भी। चारों ओर धूप है। पानी का रंग गहरा नीला, फ़ीरोज़ी और मोरपंखी हरा है। मैं ऊँची चट्टान से उस पानी में डाइव मारती हूँ। डाइव करते हुए पानी की गर्माहट को महसूस किया है। पूरे बदन के भीगने को भी। मैं पानी में गहरे अंदर जाती जा रही हूँ, बहुत अंदर, इतना कि अंदर अँधेरा है। बहुत देर तक पानी में अंदर जाने के बाद वो गहराई आयी है जहाँ पर ऊपर से नीचे कूदने का फ़ोर्स और पानी की बॉयन्सी बराबर हुयी है। फिर पानी का दबाव मुझे ऊपर की ओर फेंकता है। मैं पानी से बाहर आती हूँ। और जाने किससे तो कहती हूँ कि अच्छा हुआ मुझे मालूम था कि पानी में डूबते नहीं हैं। वरना इतना गहरा पानी है, मैं तो बहुत डर जाती।

फिर सपने में एक शहर है जो ना मेरा है ना उसका। मेरे पास कोई चिट्ठी आयी है। मैं उससे बहुत गहरा प्रेम करती हूँ। वो मेरे सामने बैठा है। मैं सपने में भी जानती हूँ कि ये सपना है। हम काफ़ी देर तक कुछ नहीं कहते। फिर मैं उनसे कहती हूँ, 'इस टेबल पर रखे आपके हाथ को मैं थाम सकती हूँ। क्या इजाज़त है?', सपने में उन साँवली उँगलियों की गर्माहट घुली हुयी है। मैं जानती हूँ कि ये सपना है। मैं जानती हूँ कि ये प्रेम भी है।

***
मालूम नहीं कहाँ पढ़ा था कि सपने ब्लैक एंड वाइट होते हैं। मेरे सपनों में हमेशा कई रंग रहते हैं। कई बार तो ख़ुशबुएँ भी। पिछले कई दिनों से मैंने ख़ुद को इस बात कर ऐतबार दिलाया है कि इश्क़ विश्क़ बुरी चीज़ है और हम इससे दूर ही भले। लेकिन मेरे सपनों में जिस तरह प्रेम उमड़ता है कि लगता है मैं डूब जाऊँगी। जैसे मैं कोई नदी हूँ और बाढ़ आयी है। मैंने अपनी जाग में इश्क़ के लिए दरवाज़े बंद कर दिए हैं तो वो सपनों में चला आता है। 

मैं इन सपनों में भरी भरी सी महसूसती हूँ। कोई बाँध पर जैसे नदी महसूसती होगी, ख़तरे के निशान को चूमती हुयी। डैम पर बना तुम वो ख़तरे का निशान हो...और तुम्हें चूमना तो छोड़ो...तुम्हें छूने का ख़याल भी  मेरे सपनों को ख़ुशबू से भर देता है। फिर कितने शहर नेस्तनाबूद होते हैं। फिर पूरी दुनिया में ज़मीन नहीं होती है पैर टिकाने को। मैं पानी में डूबती हुयी भी तुम्हारी आँखों का रंग याद रखती हूँ। 

तुमसे इक उम्र दूर रहना...इक शहर...इक देश दूर रहना भी कहाँ मिटा पाता है इस अहसास को। प्रेम कोई कृत्रिम या अप्राकृतिक चीज़ होती तो सपने में इस तरह रह रह कर डूबती नहीं मैं। नदियों का क्या किया जा सकता है? मुझे नदियों को नष्ट करने का कोई तरीक़ा नहीं आता। इस नदी में तुम्हारे ख़याल से उत्ताल लहरें उठती हैं। कहाँ है वो गहरा कुआँ कि जिसमें समा जाती हैं नदियाँ?

जानां, अपनी बाँहें खोलो, समेट लो मुझे, मैं तुम में गुम हो जाऊँ। 

19 December, 2016

जो लिखनी थीं चिट्ठियाँ

मैं तुम्हारे टुकड़ों से प्यार करती हूँ। पूरा पूरा प्यार।

तुम्हारी कुछ ख़ास तस्वीरों से। तुम में कमाल की अदा है। तुम्हारे चलने, बोलने, हँसने में...तुम्हारे ज़िंदगी को बरतने में। तुम जिस तरह से सिर्फ़ कहीं से गुज़र नहीं जाते बल्कि ठहरते हो...तुम्हारे उस ठहराव से। इक तस्वीर में तुमने काला कुर्ता पहन रखा है। सर्दियों के दिन हैं, तुम्हारे गले में एक गहरा लाल पश्मीने का मफ़लर पड़ा हुआ है। ऐसी बेफ़िक्री से कि उसमें लय है। तुम थोड़ा झुक कर खड़े हो, तुम्हारे हाथ में कविता की एक किताब है। पढ़ते हुए अचानक जैसे तुमने खिड़की से बाहर देखा हो। मेट्रो अपनी रफ़्तार से भाग रही है लेकिन मैंने कैमरे में तुम्हारे चेहरे का वो ठहरा लम्हा पकड़ लिया है। तुम प्रेम में हो। मेट्रो की खिड़की के काँच पर तुम्हारा अक्स रिफ़्लेक्ट हो रहा है...तुम अपने चेहरे को आश्चर्य से देख रहे हो कि जैसे तुम्हें अभी अभी पता चला है कि तुम प्रेम में हो। तुम थोड़ा सा लजाते हो कि जैसे कोई तुम्हारे चेहरे पर उसका नाम पढ़ लेगा। ये तुम्हारे साथ कई बार हो चुका है। मगर तुम्हें यक़ीन नहीं होता कि फिर होगा। उतनी ही ताज़गी के साथ। दिल वैसे ही धड़केगा जैसे पहली बार धड़का था। तुम ख़ुद को फिर समझा नहीं पाओगे। ये सब कुछ एक तस्वीर में होगा। उस तस्वीर से मुझे बेतरह प्यार होगा। बेतरह। 

तुम्हारी लिखी एक कहानी है। किताब में मैंने गहरे लाल स्याही से underline कर रखा है। उस पंक्ति पर कई बार आते हुए सोचती हूँ उस औरत के बारे में जिसके लिए तुमने वो पंक्ति लिखी होगी। मैं लिखना चाहती हूँ वैसा कुछ तुम्हारे लिए। जिसे पढ़ कर कोई तुम्हें जानने को छटपटा जाए। कोई पूछे कि मैंने वाक़ई कभी तुम्हारे साथ ऐबसिन्थ पी भी है या यूँ ही लिख दिया है। काँच के ग्लास में ऐबसिन्थ का हरा रंग है। सामने कैंडिल जल रही है। मैंने तुम्हारी किताब से प्यार करती हूँ। बहुत सा। कुछ लाल पंक्तियों के सिवा भी। कि उन पंक्तियों का स्वतंत्र वजूद नहीं है। वे तुम्हारी किताब में ही हो सकती थीं। तुम्हारे हाथ से ही लिखा सकती थीं। वे पंक्तियाँ शायद कालजयी पंक्तियाँ हैं। 'I love you' की तरह। सालों साल प्रेमी जोड़े एक दूसरे से कुछ शब्दों के हेरफेर में ऐसा ही कुछ कहते आ रहे हैं। किसी और ने कही होती ऐसी पंक्तियाँ तो मुझ पर कोई असर ना होता। लेकिन तुम्हारे शब्द हैं इसलिए इतना असर करते हैं। 

तुम्हारे पर्फ़्यूम से। मैंने एक बार यूँ ही पूछा था तुमसे। तुम कौन सा पर्फ़्यूम लगाते हो। मैं उस रोज़ मॉल में गयी थी और एक टेस्टिंग पेपर पर मैंने पर्फ़्यूम छिड़क कर देखा था। कलाई पर रगड़ कर भी। उसके कई दिनों बाद तक वो काग़ज़ का टुकड़ा मेरे रूमाल के बीच रखा हुआ करता था। तुमसे गले लगने के बाद मुझे ऐसा लगता है तुम्हारी भीनी सी ख़ुशबू मेरे इर्द गिर्द रह गयी है। मुझे उन दिनों ख़ुद से भी थोड़ा ज़्यादा सा प्यार होता है। तुम्हें मालूम है, मैं तुमसे कस के गले नहीं लगती। लगता है, थोड़ी सी रह जाऊँगी तुम्हारे पास ही। लौट नहीं पाऊँगी वहाँ से। 

मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारे अधूरेपन से प्यार है। 

ये मुझे विश्वास दिलाता है कि कहीं मेरी थोड़ी सी जगह है तुम्हारी ज़िंदगी में। उस आख़िरी पज़ल के टुकड़े की तरह नहीं बल्कि यूँ ही बेतरतीब खोए हुए किसी टुकड़े की तरह। किसी भी नोर्मल टुकड़े की तरह। जो कहीं भी फ़िक्स हो सकता है। किसी कोरे एकरंग जगह पर। चुपचाप। 

31 October, 2016

बसना अफ़सोस की तरह। सीने में। ताउम्र।

अलग अलग शौक़ होते हैं लोगों के। मेरा एक दिल अज़ीज़ शौक़ है इन दिनों। अफ़सोस जमा करने का। बेइंतहा ख़ूबसूरत मौसम भी होते हैं। ऐसे कि जो शहर का रंग बदल दें। इस शहर में एक मौसम आया कि जिसे यहाँ के लोग कहते हैं, ऑटम। फ़ॉल। देख कर लगा कि फ़ॉल इन लव इसको कहते होंगे। वजूद का सुनहरा हो जाना। कि जैसे गोल्ड-प्लेटिंग हो गयी हो हर चीज़ की। गॉथेन्बर्ग। मेरी यादों में हमेशा सुनहरा।

यहाँ की सड़कें यूँ तो नोर्मल सी ही सड़कें होती होंगी। बैंगलोर जैसी। दिल्ली जैसी नहीं की दिल्ली की सड़कों से हमेशा महबूब जुड़े हैं। यारियाँ जुड़ी हैं। मगर इन दिनों इन सड़कों पर रंग बिखरता था। सड़कों पर दोनों ओर क़तार में सुनहले पेड़ लगे हुए थे। मैंने ऐसे पेड़ पहली और आख़िरी बार कश्मीर में देखे थे। तरकन्ना के पेड़। ज़मीन पर गिरे हुए पत्तों का पीला क़ालीन बिछा था। हवा इतनी तेज़ चलती थी कि सारे पत्ते कहीं भागते हुए से लगते थे। उस जादुई पाइप प्लेयर की याद आती थी जिसने चूहों को सम्मोहित कर लिया था और वे उसके पीछे पीछे चलते हुए नदी में जा के डूब गए थे। ये पत्ते वैसे ही सम्मोहित सड़कों पर दीवाने हुए भागते फिरते थे। इस बात से बेख़बर कि ट्रैफ़िक सिग्नल हरा है या लाल। उन्हें कौन महबूब पुकारता था। वे कहाँ खिंचे चले जाते थे? मुझे वो वक़्त याद आया जब याद यूँ बेतरह आती थी जब कोई ऐसा शहर पुकारता था जिसकी गलियों की गंध मुझे मालूम नहीं।

कई दिनों से मेरा ये आलम भी है कि सच्चाई और कहानियों में अंतर महसूस करने में मुश्किल हो रही है। दिन गुज़रता है तो यक़ीन नहीं होता कि कहीं से गुज़र कर आए हैं। लगता है काग़ज़ से उतर कर ज़िंदा हुआ कोई शहर होगा। कोई महबूब होगा सुनहली आँखों वाला।

हम जिनसे भी कभी मुहब्बत में होते हैं, हमें उनकी आँखों का रंग तब तक याद रहता है जब तक कि उस मुहब्बत की ख़ुशबू बाक़ी रहे। याने के उम्र भर।

शहर की सफ़ाई करने वाले कर्मचारियों ने पीले पत्ते बुहार कर सड़क के किनारे कर दिए थे। तेज़ हवा चलती और पत्ते कमबख़्त, बेमक़सद दौड़ पड़ते शहर को अपनी बाँहों में लिए बहती नदी में डूब जाने को। मैं किसी कहानी का किरदार थी। तनहा। लड़की कोई। उदास आँखों वाली। लड़की ने एक भागते पत्ते को उठाया और कहा तुम सूने अच्छे नहीं लगते और उसपर महबूब का नाम लिखा अपनी नीली स्याही से। पत्ते को बड़ी बेसब्री थी। हल्के से हवा के झोंके से दौड़ पड़ा और पुल से कूद गया नीचे बहते पानी में। जब तक पत्ता हवा में था लड़की देखती रही महबूब का नाम। नदी के पानी में स्याही घुल गयी और अब से सारे समंदरों को मालूम होगा उसके महबूब का नाम। मैंने देखा लड़की को। सोचा। मैं लिखूँ तुम्हारा नाम। मगर फिर लगा तुम्हारे शहर का पता बारिशों को नहीं मालूम।

लड़की भटक रही थी बेमक़सद मगर उसे मिलती हुयी चीज़ों की वजह हुआ करती थी। धूप निकली तो सब कुछ सुनहला हो गया। आसमान से धूप गिरती और सड़क के पत्तों से रेफ़्लेक्ट होती। इतना सुनहला था सब ओर कि लड़की को लगा उसकी आँखें सुनहली हो जाएँगी। उसे वो दोस्त याद आए जिनकी आँखों का रंग सुनहला था। वो महबूब भी। और वे लड़के भी जो इन दोनों से बचते हुए चलते थे। शहर के पुराने हिस्से में एक छोटे से टीले पर एक लाल रंग की बेंच थी जिसके पास से एक पगडंडी जाती थी। उसे लगा कि ये बेंच उन लड़कों के लिए हैं जिन्हें यहाँ बैठ कर कविताएँ पढ़नी हैं और प्रेम पत्र लिखने हैं। ये बेंच उन लोगों के लिए हैं जिनके पास प्रेम के लिए जगह नहीं है।

ये पूरा शहर एक अफ़सोस की तरह बसा है सीने में। ठीक मालूम नहीं कि क्यों। ठीक मालूम नहीं कि क्या होना था। ठीक मालूम नहीं कि इतना ख़ूबसूरत नहीं होना था तो क्या होना था। उदास ही होना था। हमेशा?

हाथों में इतना दर्द है कि चिट्ठियाँ नहीं लिखीं। पोस्टकार्ड नहीं डाले। ठंढे पानी से आराम होता था। सुबह उठती तो उँगलियाँ सूजी हयीं और हथेली भी। कुछ इस तरह कि रेखाओं में दिखते सारे नाम गड़बड़। डर भी लगता। कहीं तुम्हारा नाम मेरे हाथों से गुम ना जाए। जब हर दर्द बहुत ज़्यादा लगता तो दोनों हथेलियों से बनाती चूल्लु और घूँट घूँट पानी पीती। दर्द भी कमता और प्यास भी बुझती।

वो दिखता। किसी कहानी का महबूब। हँसता। कि इतना दुःख है। काश इतनी मुहब्बत भी होती। मैं मुस्कुराती तो आँख भर आती। हाथ उठाती दुआ में। कहती। सरकार। आमीन। 

11 May, 2016

तुम्हें ख़तों में आग लगाना आना चाहिए



उन दिनों मैं एक जंगल थी। दालचीनी के पेड़ों की। जिसमें आग लगी थी। 

और ये भी कि मैं किसी जंगल से गुज़र रही थी। कि जिसमें दालचीनी के पेड़ धू धू करके जल रहे थे। मेरे पीछे दमकल का क़ाफ़िला था। आँखों को आँच लग रही थी। आँखों से आँच आ रही थी। चेहरा दहक रहा था। कोई दुःख का दावनल था। आँसू आँखों से गिरा और होठों तक आने के पहले ही भाप हो गया। उसने सिगरेट अपने होठों में फँसायी और इतना क़रीब आया कि सांसें उलझने लगीं। उसकी साँसों में मेरी मुहब्बत वाले शहर के कोहरे की ठंढ और सुकून था। हमारे होठों के बीच सिगरेट भर की दूरी थी। सिगरेट का दूसरा सिरा उसने मेरे होठों से रगड़ा और चिंगरियाँ थरथरा उठी हम दोनों की आँखों में। मैंने उसकी आँखों में देखा। वहाँ दालचीनी की गंध थी। उसने पहला कश गहरा लिया। मुझे तीखी प्यास लगी। 

वो हँसा। इतना डर लगता है तो पत्थर होना था। काग़ज़ नहीं। 

कार के अंदर सिगरेट का धुआँ था। कार के बाहर जंगल के जलने की गंध। लम्हे में छुअन नहीं थी। गंध से संतृप्त लम्हा था। मैंने फिर से उसकी आँखें देखीं। अंधेरी। अतल। दालचीनी की गंध खो गयी थी। ये कोई और गंध थी। शाश्वत। मृत्यु की तरह। या शायद प्रेम की तरह। आधी रात की ख़ुशबू और तिलिस्म में गमकती आँखें। गहरी। बहुत गहरी। दिल्ली की बावलियाँ याद आयीं जिनमें सीढ़ियाँ होती थीं। अपने अंधेरे में डूब कर मरने को न्योततीं।

वो आग का सिर्फ़ एक रंग जानता था। सिगरेट के दूसरे छोर पर जलता लाल। उसने कभी ख़त तक नहीं जलाए थे। उसे आग की तासीर पता नहीं थी। सिगरेट का फ़िल्टर हमेशा आग को उसके होठों से एक इंच दूर रोक देता था। इश्क़ की फ़ितरत पता होगी उसे? या कि इश्क़ एक सिगरेट थी बस। वो भी फ़िल्टर वाली। दिल से एक इंच दूर ही रुक जाती थी सारी आग। मुझे याद आए उसकी टेबल पर की ऐश ट्रे में बचे हुए फिल्टर्स की। कमरे में क़रीने से रखे प्रेमपत्रों की भी। लिफ़ाफ़े शायद आग बचा जाते हों। किसी सुलगते ख़त को चूमा होगा उसने कभी? कभी होंठ जले उसके? कभी तो जलने चाहिए ना। मेरा दिल किया शर्ट के बटन खोल उसके सीने पर अपनी जलती उँगलियों से अपना नाम लिख दूँ। तरतीब जाए जहन्नुम में।

कारवाँ रुका। दमकल से लोग उतरे। बड़ी होज़ पाइप्स से पानी का छिड़काव करने लगे। पानी के हेलिकॉप्टर भी आ गए तब तक। मुझे हल्की सी नींद आ गयी थी। एक छोटी झपकी बस। जितनी जल्दी नहीं बुझनी चाहिए थी आग, उतनी जल्दी बुझ गयी। मुझे यक़ीन था ऐसा सिर्फ़ इसलिए था कि वो साथ आया था। समंदर। मैंने सपने में देखा कि इक तूफ़ानी रात समंदर पर जाते जहाज़ों के ज़ख़ीरे पर बिजली गिरी है। मूसलाधार बारिश के बावजूद आग की लपटें आसमान तक ऊँची उठ रही थीं। होठों पर नमक का स्वाद था। कोई आँसू था या सपने के समंदर का नमक था ये?

क्या समंदर किनारे दालचीनी का जंगल उग सकता है? अधजले जंगल की कालिख से आसमान ज़मीन सब सियाह हो गयी थी। सब कुछ भीगा हुआ था। इतनी बारिश हुयी थी कि सड़क किनारे गरम पानी की धारा बहने लगी। कुछ नहीं बुझा तो उसकी सिगरेट का छोर। मैंने उसे चेन स्मोकिंग करते आज के पहले नहीं देखा था कभी। लेकिन इस सिगरेट की आग को उसने बुझने नहीं दिया था। सिगरेट के आख़िरी कश से दूसरी सिगरेट सुलगा लेता। 

मैंने सिगरेट का एक कश माँगने को हाथ बढ़ाया तो हँस दिया। तुम तो दोनों तरफ़ से जला के सिगरेट पीती होगी। छोटे छोटे कश मार के। बिना फ़िल्टर वाली, है ना? मैं नहीं दे रहा तुम्हें अपनी सिगरेट। 

बारिश में भीगने को मैं कार के बाहर उतरी थी। सिल्क की हल्की गुलाबी साड़ी पर पानी में घुला धुआँ छन रहा था। मैं देर तक भीगती रही। इन दिनों के लिए प्रकृति को माँ कहा जाता है। सिहरन महसूस हुयी तो आँखें खोली। दमकल जा चुका था। हमें भी वापस लौटना था अब। उसके गुनगुनाने की गंध आ रही थी मेरी थरथराती उँगलियों में लिपटती साड़ी के आँचल में उलझी उलझी। जूड़ा खोला और कंधे पर बाल छितराए तो महसूस हुआ कि दालचीनी की आख़िरी गंध बची रह गयी थी जूड़े में बंध कर  लेकिन अब हवा ने उसपर अपना हक़ जता दिया था। उसने मुट्ठी बांधी जैसे रख ही लेगा थोड़ी सी गंध उँगलियों में जज़्ब कर के। 
सब कुछ जल जाने के बाद नया रचना पड़ता है। शब्दबीज रोपने होते हैं काग़ज़ में।

मैंने उसे देखा। 
‘प्रेम’

उसने सिर्फ़ मेरा नाम लिया।
‘पूजा’ 

26 April, 2016

मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.

प्रेम हर बार सम् से शुरू होता है. मैं विलंबित ख्याल में आलाप लेती हूँ. मेरी आवाज़ तुम्हें तलाशती है. ठीक सम् पर मिलती हैं आँखें तुमसे...ठहर कर फिर से शुरू होता है गीत का बोल कोई...सांवरे...

प्रेम को हर बार चाहिए होती है नयी भाषा. नए प्रतीक. नए शहर. नए बिम्ब. प्रेम आपको पूरी तरह से नया कर देता है. हम सीखते हैं फिर से ककहरा कि जो उसके नाम से शुरू होता है. वक़्त की गिनती इंतज़ार के लम्हों में होती है.

प्रेम आपको आप तक ले कर आता है. मैंने बचपन में हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत छः साल तक सीखा है. संगीत विशारद की डिग्री भी है. गुरु भी अद्भुत मिले थे. मैंने अपनी जिंदगी में किसी को उस तरह गाते हुए नहीं सुना है. फिर जिंदगी की कवायद में कहीं खो गया संगीत.

मैंने हारमोनियम ग्यारह साल बाद छुआ है. मगर ठीक ठीक संगीत छूट गया था देवघर छूटने के साथ ही १९९९ में. बात को सत्रह साल हो गए. देवघर में हमारा अपना घर था. पटना में किराए का अपार्टमेंट था. गाने में शर्म भी आती थी कि लोग परेशान होंगे. शाश्त्रीय संगीत को शोर ही समझा जाता रहा है. फिर घर छूटा. दिल्ली. बैंगलोर. 

संगीत तक लौटी हूँ. पहली शाम हमोनियम पर आलाप शुरू किया तो पाया कि सारे स्वर इस कदर भटके हुए हैं कि एकबारगी लगा कि हारमोनियम ठीक से ट्यून नहीं है. मगर फिर समझ आया कि मुझे वाकई रियाज किये बहुत बहुत साल हो गए हैं. आखिरी बार जब रियाज किया था तो एक्जाम था. उन दिनों सारे राग अच्छे से गाया करती थी. छोटा ख्याल, विलंबित ख्याल. तान. आलाप. पकड़. छः साल लगातार संगीत सीखते हुए ये भी महसूसा था कि आवाज़ वाकई नाभि से आती महसूस होती है. पूरा बदन एक साउंडबॉक्स हो जाता है. संगीत अन्दर से फूटता है. उन दिनों लेकिन मन से तार नहीं जुड़ता था. टेक्निक थी लेकिन आत्मा नहीं. वरना शायद संगीत को कभी नहीं छोड़ती.

इन दिनों बहुत मन अशांत था. मैं ध्यान के लिये योग नहीं कर सकती. मन को शांत करने के लिए सिर्फ संगीत का रास्ता था. सरगम का आलाप लेते हुए वैसी ही गहरी साँस आती है. मन के समंदर का ज्वारभाटा शांत होने लगता है. हारमोनियम ला कर पहला सुर लगाया, 'सा' तो आवाज़ कंठ में ही अटक रही थी. गला सूख रहा था. ठहर भी नहीं पा रही थी. सुरों को साधने में बहुत वक़्त लगेगा. हफ्ते भर के रियाज में इतना हुआ है कि सुर वापस ह्रदय से निकलते हैं. मन से. सारे स्वर सही लगने लगे हैं. अभी सिर्फ शुद्ध स्वरों पर हूँ. कोमल स्वरों की बारी इनके बाद आएगी.

प्रेम. संगीत के सात शुद्ध स्वर. 

मेरे अंतस से निकलते. मैं होती जा रही हूँ संगीत. इसी सिलसिले में सुबह से पुरानी ठुमरियों को सुन रही थी. ये सब बहुत पहले सुना था. उन दिनों समझ नहीं थी. उन दिनों क्लासिकल सुनना अच्छा नहीं लगता था. न हिन्दुस्तानी न वेस्टर्न. शायद वाकई क्लासिक समझने के लिए सही उम्र तक आना पड़ता है. जैज़ भी पिछले एक साल से पसंद आ रहा है. संगीत के साथ अच्छी बात ये है कि आप उससे प्रेम करते हैं. उसे समझने की कोशिश नहीं करते. मुझे सुनते हुए राग फिलहाल पकड़ नहीं आयेंगे. शायद किसी दिन. मगर मेरा वो करने का मन नहीं है. मैं अपने सुख भर का गा लूं. अपने को सहेजने जितना सुन लूं...बस उतना काफी है.

इस वीडियो में तस्वीर देखी. आँख भर प्रेम देखा. उजास भरी आँखें. श्वेत बाल. बड़ी सी काली बिंदी. वीडियो प्ले हुआ और मुझे मेरा सम् मिल गया. मैं सुबह से एक इसी को सुन रही हूँ. मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.
'जमुना किनारे मोरा गाँव
साँवरे अइ जइयो साँवरे'

18 February, 2016

डैलस डायरी: God is a postman.

परसों डैलस आई हूँ. ये डैलस में मेरा तीसरा ट्रिप है. डैलस न्यूयॉर्क की तरह नहीं है कि जिसमें रोज़ रोज़ कुछ नया होता रहे ऐसा कहते हैं लोग. कुछ को आश्चर्य भी होता है कि मैं बोर कैसे नहीं होती. मैं करती क्या हूँ दिन दिन भर. ये रोजनामचा उनके लिए लिख रही हूँ, और खुद के लिए भी. इसमें बहुत कुछ सच होगा और उससे ज्यादा झूठ. ये दिनों का सिलसिलेवार ब्यौरा नहीं है ये मेरे मन में खुलती एक खिड़की है...कि मैं अपने जिस घर में तकरीबन पिछले आठ सालों से रह रही हूँ उसको जाता हुआ एक स्ट्रीट लैम्प है...मैं कई बार उसके नीचे खड़ी होकर उस स्ट्रीट लैम्प को ऐसे देखती हूँ जैसे पहली बार देख रही हूँ. एक ही रास्ते पर कई बार गुज़रते हुए भी रास्ता वही नहीं होता. हम वो देखते हैं जैसी हमारी मनः स्थिति रहती है. कि मुझे चीज़ों को देख नहीं सकती...मैं अक्सर उनसे गुज़रती रहती हूँ. 

बैंगलोर से डैलास लगभग चौबीस घंटे का सफ़र हो जाता है. जेट लैग के कारण पहला दिन तो पूरा ही सोते हुए बीतता है. हम डैलस के टाइम के हिसाब से कोई २ बजे दोपहर को होटल में आये. खाना मंगवाया. वेज फ्राइड राइस में अंडा डाल दिए थे लोग. हर जगह वेज का अलग अलग डेफिनेशन होता है. थक गए थे. खाना नहीं खाए. सो गए. दोपहर के 3 बजे के सोये हुए पूरी शाम सोते रहे और अगली भोर 4 बजे भूख से नींद खुली. दो वक़्त का खाना मिस हो गया था. कुछ बिस्किट वगैरह खा के घर वालों के पास रोना रो रहे थे कि इस होटल के पास खाने वाने को कुछ नहीं है. भूख से मर रहे हैं वगैरह. उसपर पानी भी खरीद के नहीं लाये थे और कल यहाँ इन लोगों ने हॉट वाटर सिस्टम की सफाई वगैरह की थी...तो नल से काला पानी आ रहा था. तो प्यासे भी मर रहे थे.  
फिर कमरे की खिड़की से पर्दा हटा के झांके तो देखते है कि भगवान् ने पूरा पूरा पेंट का डिब्बा ही उलट दिया है आसमान पर. बाहर मौसम में ठंढक होगी लेकिन हम दीवानों की तरह बाहर भागे. मोबाइल फोन और कमरे की चाभी के साथ. उफ़. क्या ही सुबह ही. गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग की. ठंढ थोड़ी से ज्यादा. मैं बाँहें फैलाए नाच रही थी गोल गोल गोल. कितना सुन्दर...ओह कितना सुन्दर...पूरा पूरा आसमान... ठंढी हवा अच्छी लग रही थी. ताजगी भरी. ओसभीगी. 

साढ़े छः बजे नाश्ता और पानी दोनों मिला. खाने का असल स्वाद भूख से आता है. थोड़े से फल. पैनकेक. एक स्लाइस ब्रेड और दो कप अच्छी कॉफ़ी. बगल वाली टेबल पर हिन्दुस्तानी लड़के हिंदी में बतिया रहे थे. 'गर्म कपड़े पहन लेना आज, मेरी कल लंका लग गयी थी'. मैं बैंगलोर में हिंदी के लिए तरसती रहती हूँ और हिंदी मुझे मिलती है यहाँ डैलस में आ के. मन किया उनसे बात करने का. मगर फिर लगा पता नहीं क्या सोचेंगे. तो रहने दिया. 

कुछ दोस्तों को फोन किया. पर मन किसी में लग नहीं रहा था. गुलाबी सुबह का जादू मन पर चढ़ रहा था. नोटबुक में कुछ कहानियां लिखी हुयी थीं. खुले आसमान के नीचे रेत पर बाल खोये सोयी हुयी एक लड़की. किसी के साथ सिर्फ तारे देखना चाहती थी. पूरी रात. बिना एक शब्द कुछ भी कहे हुए. उससे पूछा. ऐसी भी होती है क्या मुहब्बत? रूह का होना महसूस कैसे होता है. कभी हुआ है कि तुम्हारी आँखों का देखा हुआ कुछ किसी के शब्दों को छू जाए. क्लॉउडे मोने और कर्ट कोबेन और कभी कभी संगीत का कोई टुकड़ा ऐसा ही होता है. रूह की भाषा में बोलता हुआ. कुछ तो है बाबू. कौन कहता है? सिगरेट. धुआं भरता जाता है मेरे कमरे में कहीं. धूप जैसा. मैं सुनना चाहती हूँ. कहना चाहती हूँ. मैं होना चाहती हूँ एक मुकम्मल लम्हा. 

दोपहर को वालमार्ट जा के बहुत सा खाने और पीने का सामान लायी हूँ. कटे हुए आम की फांकें. खरबूजा. चेरी. स्ट्रॉबेरी. ब्लूबेरी. पीच(आडू). कुछ रेडी टू ईट जैसा भी कुछ. सलाद. चिप्स. बहुत सा कुछ. इस होटल में शटल सर्विस सिर्फ ग्यारह बजे तक है लेकिन जो मुझे ड्राप करने गया था, उसने कहा वो मुझे पिक भी कर लेगा. मैंने जब कॉल किया तो होटल में जिसने फोन उठाया वो बोली कि अभी पिक नहीं कर सकते, लेकिन पीछे से उसकी आवाज़ थी...उसे हाँ बोल दो...मुझे पिक करने जो लड़की आई उसका नाम शायला था. मैं उससे बातें करती आई पूरे रास्ते. मुझे अच्छा लगता है ऐसे गप्पें मारना. कमरे में आई तो धूप इतरा रही थी. कमरे पर कब्जा जमा के. मैंने अपने लिए माइक्रोवेव में पास्ता गर्म किया. मैं धूप के साथ कुछ भी खा सकती हूँ. फीका, बेस्वाद ब्रोकली वाला पास्ता भी.

डैलस में जहाँ रहती हूँ उसे रिचर्डसन कहते हैं. अमेरिका में डाउनटाउन का कांसेप्ट है. जैसे कि शहर है डैलस. उसके इर्द गिर्द बहुत सारे छोटे छोटे रिहाइशी इलाके बने हुए हैं जहाँ पर लोग रहते हैं जैसे रिचार्डसन, प्लानो. ऑफिस या बिजनेस के लिए लोग डाउनटाउन जाते हैं और फिर लौट के घर कि जो शहर के बाहर बसा होता है. मैं पिछले दो बार से जब भी आई थी हयात रीजेंसी में ठहरी थी जो कि एक होटल है. इस बार मैं एक स्टूडियो सेट-अप में ठहरी हूँ. यहाँ पर एक कमरा. एक छोटा सा लिविंग एरिया जिसमें टीवी, स्टडी टेबल और एक सोफा है. इसके अलावा एक छोटा सा किचेन है. 

होटल से पोस्ट ऑफिस सर्च किया तो देखा कि सबसे पास का पोस्ट ऑफिस लगभग ढाई किलोमीटर दूर था. यहाँ पर दूरी माइल में नापी जाती है. तो लगभग १.५ माइल. आना जाना मिला कर लगभग ५ किलोमीटर. रिसेप्शन पर बंदी थोड़ा चकित हुयी कि मैं इतनी दूर पैदल आना जाना चाहती हूँ. ये एरिया मेरे होटल से पीछे की तरफ से रास्ते में था. रिचार्डसन में भी इस इलाके में मैं कभी नहीं गयी थी. इस बार ख़ास मुश्किल ये थी कि आईफोन नहीं है तो विंडोज फोन का इस्तेमाल कर रही हूँ और मुझे गूगल मैप्स की आदत है. इस फोन में मैप्स हर बार स्क्रीन लॉक होते ही बंद हो जाता था और मुझे फिर से सर्च करना पड़ता था. 

यहाँ से रास्ता ढलवां था. मेरा अब तक डैलस का अनुमान था कि ये एकदम फ़्लैट सतह पर बना हुआ है और यहाँ बिलकुल ही चढ़ाई या उतार नहीं हैं. मगर यहाँ सामने पहाड़ी इलाका जैसा महसूस हो रहा था. दूर दूर तक पसरी हुयी ढलवां वादी...छोटे छोटे पहाड़ीनुमा टीले. सड़क पर तरतीब से कतार में बने हुए छोटे छोटे घर. घरों के सामने पुराने पेड़. कमोबेश हर पेड़ पर झूले. झूलों की संख्या से अंदाज़ा लग जाता था कि घर में कितने बच्चे हैं और किस ऊंचाई के हैं. हर घर के सामने बैठने का छोटा सा हिस्सा कि जिसमें कुर्सियां लगी हुयीं. अधिकतर घरों के आगे ज़मीन में खूबसूरत पौधे लगे थे. 

घरों के ख़त्म होने के बाद दोनों ओर पेड़ों का जंगल शुरू हो गया. पतझर के दिन हैं. कहीं एक भी हरा पत्ता भी नहीं दिख रहा था. सूखे पेड़ों के पीछे गहरा नीला आसमान दिखता था. एक पुल आया. पुल के नीचे एक छोटी सी पहाड़ी नदी बह रही थी. बिलकुल पतली सी धारा थी शांत पानी की मगर उसमें परिवर्तित होते पेड़ और गहरा नीला आसमान. सब इतना खूबसूरत था क्योंकि अप्रत्याशित था. मैंने सोचा भी नहीं था कि रास्ता ऐसा खूबसूरत पहाड़ी रास्ता होगा कि जिसमें शांत पेड़, चुप पानी और सांस की तरह साथ चलती हवा के झोंके होंगे. रेडियो पर जॉर्ज माइकल का केयरलेस व्हिस्पर बज रहा था. कुछ जैज़ भी बजता रहा था जो मैंने कभी सुना नहीं था. रेडियो जॉकी की खुशनुमा आवाज़ थी. धूप जैसी. मैं उस पुल पर खड़ी सोच रही थी कि जिंदगी कितनी खूबसूरत है. कि अनजाने रास्तों पर चलने में कितना सुकून है. 
पोस्ट ऑफिस पहुंची तो देखा कि वो सरकारी अमेरिकन पोस्ट ऑफिस नहीं है. उस इलाके की चिट्ठियां पहुँचाने के लिए एक प्राइवेट पोस्ट वाली सर्विस है. मगर वहां पर कुछ बेहतरीन कार्ड्स थे. चीनी मिट्टी की खूबसूरत कलाकृतियाँ थीं. कोई लोकल आर्टिस्ट थी जिसने बनाया था सब. फूलों वाले प्लेट. गोथिक स्टाइल की ऐशट्रे और ऐसी ही कुछ चीज़ें. वहाँ बहुत देर तक चीज़ों को देखती रही और सोचती रही कि मेरे दोस्तों में किसे कौन सी चीज़ पसंद आएगी. अगर मैं वाकई खरीद के ले जा सकती तो इनमें से कौन सी चीज़ें खरीदती. दोस्तों को हम वाकई अपने दिल में बसाए चलते हैं. चीज़ें इतनी दूर से लाने में टूट जातीं वरना कुछ तो इतनी खूबसूरत थीं कि छोड़ने का मन न करे. वहां हैण्डमेड साबुन थे. कमाल की खुशबू वाले. मैंने ऐसे साबुन कभी देखे ही नहीं थे. एक कार्ड ख़रीदा और एक साबुन कि जिससे लेमनग्रास जैसी कोई गंध आती थी. 

दुनिया जितनी बाहर है उतनी ही अन्दर भी है. एक अल्टरनेट दुनिया. वापसी में मैं उन चीज़ों के बारे में सोचती रही. गहरे हरे-नीले-भूरे रंग की ऐश ट्रे. सिगरेट की तलब उट्ठी बहुत जोर की और याद का एक खुशबूदार हवा का झोंका साथ साथ चलने लगा. बालों को उलझाते हुए. मैं उसकी उँगलियाँ तलाशने लगीं कि बालों को सुलझा दे, हौले से. इक नन्ही सी पीली गोली जुबान पर रक्खी. उससे जादू का इक स्वाद घुलने लगा और मैं इस दुनिया में होती हुयी भी ख्वाबों में जीने लगी. यहाँ सेटिंग तो सारी डैलस की थी मगर लोग मेरी पसंद के थे. उसने सिगरेट के तीन कश लेकर मेरी ओर बढ़ाई तो आँख भर आई. फिर देखा कि कोई धुंआ नहीं है. शायद आँखों में धूल पड़ गयी थी. सोचा कि उसे बताऊँ कि ये शहर चिट्ठियां लिखने के लिए बहुत मुफीद है. इन खूबसूरत पेड़ों के नीचे बैठ कर पानी की गंध छूते हुए ख़त लिखेंगे तो उनसे तिलिस्म का दरवाजा खुल जाएगा. 

सूखे हुए पेड़ों की टहनियां कुछ यूं फैली हुयी थीं कि जैसे किसी ने बाँहें फैलाई हों. टहनियों पर धूप पड़ रही थी और उनके सिरे एकदम सुनहले लग रहे थे. आसमान में चाँद का आधा टुकड़ा भी था. साथ साथ चलता. एक जगह बैगनी फूल खिले हुए दिखे. उन्हें देख कर याद का कोई रंग टहका सीने में कहीं. मैं पूरे रास्ते तसवीरें खींचती आई थी. कमरे पर आई तो भूख लग गयी. चेरी धो कर बाउल में रखी. खिड़की से धूप अन्दर आ रही थी. मैं धूप में अपने लिए एक छोटा सा कुशन रख कर दीवार से टिक कर बैठी थी. किताब, कागज़ और अपनी कलमों के साथ. डूबते सूरज और चेरी का मीठा कत्थई स्वाद जुबां पर. 

आसमान में फिर से गहरे गुलाबी और फिरोजी रंग के बादल थे. मैंने इतनी खूबसूरत शाम बहुत दिनों बाद देखी थी. यहाँ सब खुला खुला भी था. मैं गोल गोल घूम कर शाम के रंग देखती जाती. ऐसा महसूस होता कि खुदा एक कासिद है. मेरे सारे ख़त पहुँच जाते हैं तुम तक. और कि ये दुनिया जिसने इतनी सुन्दर बनायी. उसने तुम्हारा मन बनाया होगा. मन. खुद को देखती हूँ इन रंगों में डूबी हुयी. इतनी खूबसूरती में भीगती. सुकून से भरा भरा महसूसती हूँ को. मुहब्बत से भरा भरा भी. 

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