26 April, 2016

मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.

प्रेम हर बार सम् से शुरू होता है. मैं विलंबित ख्याल में आलाप लेती हूँ. मेरी आवाज़ तुम्हें तलाशती है. ठीक सम् पर मिलती हैं आँखें तुमसे...ठहर कर फिर से शुरू होता है गीत का बोल कोई...सांवरे...

प्रेम को हर बार चाहिए होती है नयी भाषा. नए प्रतीक. नए शहर. नए बिम्ब. प्रेम आपको पूरी तरह से नया कर देता है. हम सीखते हैं फिर से ककहरा कि जो उसके नाम से शुरू होता है. वक़्त की गिनती इंतज़ार के लम्हों में होती है.

प्रेम आपको आप तक ले कर आता है. मैंने बचपन में हिन्दुस्तानी शाश्त्रीय संगीत छः साल तक सीखा है. संगीत विशारद की डिग्री भी है. गुरु भी अद्भुत मिले थे. मैंने अपनी जिंदगी में किसी को उस तरह गाते हुए नहीं सुना है. फिर जिंदगी की कवायद में कहीं खो गया संगीत.

मैंने हारमोनियम ग्यारह साल बाद छुआ है. मगर ठीक ठीक संगीत छूट गया था देवघर छूटने के साथ ही १९९९ में. बात को सत्रह साल हो गए. देवघर में हमारा अपना घर था. पटना में किराए का अपार्टमेंट था. गाने में शर्म भी आती थी कि लोग परेशान होंगे. शाश्त्रीय संगीत को शोर ही समझा जाता रहा है. फिर घर छूटा. दिल्ली. बैंगलोर. 

संगीत तक लौटी हूँ. पहली शाम हमोनियम पर आलाप शुरू किया तो पाया कि सारे स्वर इस कदर भटके हुए हैं कि एकबारगी लगा कि हारमोनियम ठीक से ट्यून नहीं है. मगर फिर समझ आया कि मुझे वाकई रियाज किये बहुत बहुत साल हो गए हैं. आखिरी बार जब रियाज किया था तो एक्जाम था. उन दिनों सारे राग अच्छे से गाया करती थी. छोटा ख्याल, विलंबित ख्याल. तान. आलाप. पकड़. छः साल लगातार संगीत सीखते हुए ये भी महसूसा था कि आवाज़ वाकई नाभि से आती महसूस होती है. पूरा बदन एक साउंडबॉक्स हो जाता है. संगीत अन्दर से फूटता है. उन दिनों लेकिन मन से तार नहीं जुड़ता था. टेक्निक थी लेकिन आत्मा नहीं. वरना शायद संगीत को कभी नहीं छोड़ती.

इन दिनों बहुत मन अशांत था. मैं ध्यान के लिये योग नहीं कर सकती. मन को शांत करने के लिए सिर्फ संगीत का रास्ता था. सरगम का आलाप लेते हुए वैसी ही गहरी साँस आती है. मन के समंदर का ज्वारभाटा शांत होने लगता है. हारमोनियम ला कर पहला सुर लगाया, 'सा' तो आवाज़ कंठ में ही अटक रही थी. गला सूख रहा था. ठहर भी नहीं पा रही थी. सुरों को साधने में बहुत वक़्त लगेगा. हफ्ते भर के रियाज में इतना हुआ है कि सुर वापस ह्रदय से निकलते हैं. मन से. सारे स्वर सही लगने लगे हैं. अभी सिर्फ शुद्ध स्वरों पर हूँ. कोमल स्वरों की बारी इनके बाद आएगी.

प्रेम. संगीत के सात शुद्ध स्वर. 

मेरे अंतस से निकलते. मैं होती जा रही हूँ संगीत. इसी सिलसिले में सुबह से पुरानी ठुमरियों को सुन रही थी. ये सब बहुत पहले सुना था. उन दिनों समझ नहीं थी. उन दिनों क्लासिकल सुनना अच्छा नहीं लगता था. न हिन्दुस्तानी न वेस्टर्न. शायद वाकई क्लासिक समझने के लिए सही उम्र तक आना पड़ता है. जैज़ भी पिछले एक साल से पसंद आ रहा है. संगीत के साथ अच्छी बात ये है कि आप उससे प्रेम करते हैं. उसे समझने की कोशिश नहीं करते. मुझे सुनते हुए राग फिलहाल पकड़ नहीं आयेंगे. शायद किसी दिन. मगर मेरा वो करने का मन नहीं है. मैं अपने सुख भर का गा लूं. अपने को सहेजने जितना सुन लूं...बस उतना काफी है.

इस वीडियो में तस्वीर देखी. आँख भर प्रेम देखा. उजास भरी आँखें. श्वेत बाल. बड़ी सी काली बिंदी. वीडियो प्ले हुआ और मुझे मेरा सम् मिल गया. मैं सुबह से एक इसी को सुन रही हूँ. मेरे ह्रदय में प्रेम है. मेरी आत्मा में संगीत.
'जमुना किनारे मोरा गाँव
साँवरे अइ जइयो साँवरे'

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