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17 April, 2019

मैं precious, और तुम, बेशक़ीमत

उसे क़रीब से जानना थोड़ा unsettling है। अस्थिर। जैसे अपनी धुरी पर घूमते घूमते अचानक से थोड़ा डिस्को करने का मन करने लगे। जैसे बाइक उठा के घर से बाहर निकलें तो सब्ज़ी ख़रीदने के लिए और उड़ते उड़ते चले जाएँ एयरपोर्ट और दो चार घंटे वहाँ कॉफ़ी पीते और सोचते रहें कि उसके शहर चले जाएँ टिकट कटा के या कि किसी शहर जाएँ और उसको वहाँ बुला लें।  इस सारे सोचने और क़िस्सों का शहर रचते हुए काग़ज़ पर लिखते जाएँ ख़त, उसको ही। कि जैसे मेरे लिखने से हम ज़रा से याद रहेंगे उसको, हमेशा के लिए। कि जैसे कई टकीला शॉट्स के बाद भी होश में रहें और वो हँस के कहे कि पानी नीट मत पीना, थोड़ी सी विस्की मिला लेना तो उस आवाज़ के ख़ुमार में बौरा जाएँ। कि उसकी हँसी सम्हाल के रखें। कि इसी हँसी की छनक होगी न जब उसके इश्क़ में दिल टूटेगा।

हम बहुत हद तक एक जैसे हैं। जैसे आज शाम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि मौसम इतना अच्छा था कि दोपहर में छत पर  कुर्सी निकाल कर बैठा और रेलिंग पर पैर टिका दिए और किताब ख़त्म की। इस तरह जगह की डिटेलिंग सिर्फ़ मैं करती हूँ। कि यहाँ घूम रही हूँ, ये कर रही हूँ, सामने फ़लाना पेड़ है, हवा चल रही है, विंड चाइम पगला रही है। इट्सेटरा इट्सेटरा। फिर ये भी लगता है कि सुनने वाले को ये डिटेल्ज़ बोरिंग तो नहीं लगते। कि मैं क्या ही कह रही हूँ फ़ालतू बातें। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर खिड़की के सामने नारियल का पेड़ है या आम का या डेकोरेटिव पाम का… लेकिन मुझे फ़र्क़ पड़ता है तो मैं कहती हूँ ऐसे। लेकिन पहली बार कोई ऐसा था, जिसने इतनी छोटी सी डिटेलिंग की ताकि मैं देख सकूँ ठीक उस रंग में जैसी उसकी दोपहर थी। बात सिर्फ़ इतनी भी होती तो ठीक था…बात ख़ास इसलिए है कि मैंने पूछा नहीं था। उसने ख़ुद से बताया। वो शहर में होता तो उड़ते उड़ते जाती बाइक पर, सिर्फ़ उसे ज़ोर से hug करने के लिए।

वो पूछता है, तुम्हें मैं समझ में आता हूँ। मैं सोचती हूँ, क्या कहूँ। थीसीस की है तुमपर। तुम्हारे हर शब्द को लिख के रखा है। तुम्हारी आँखों का रंग हर क़िस्से में झलकता है। तुम्हारे कहे बिना बात समझती हूँ। तुम्हारे आधे सेंटेन्सेज़ सही सही पूरे करती हूँ और तुम नाराज़ नहीं होते हो। तुम्हारी याद में अटकी फ़िल्मों के नाम मुझे सूझते हैं। लेकिन, यूँ तो कोई किसी को ताउम्र साथ रह के भी नहीं जान सकता और किसी को जानने के लिए एक मुलाक़ात ही काफ़ी होती है। एक बात बताऊँ वैसे, मुझे कभी नहीं मालूम था कि तुमने कॉलेज में कितनी लड़ाई वग़ैरह की थी...लेकिन तुम्हारे साथ चलते हुए एक एकदम ही स्ट्रेंज सी निश्चिन्तता होती थी। जैसे कि कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। ये सिर्फ़ एक दिन की छोटी सी बात से आयी थी। वो दिल्ली का अजीब सा मुहल्ला था...लड़के जैसे लड़कियाँ घूरने के लिए ही पैदा हुए थे। बहुत अजीब जगह, जहाँ डर लगे। तुमने बिना कुछ कहे, मेरा हाथ पकड़ा और साथ में चलने लगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में आश्वस्ति थी। कुछ चीज़ें जो हम शब्दों के बग़ैर कहते हैं। स्पर्श की भाषा में। उस दिन पता चला मुझे। तुम्हारे साथ डर नहीं लगेगा, कभी भी।

मुझे उसकी हँसी अच्छी लगती है। और उसकी आँखें। और उसकी बातें। और उसका शब्दों का एकदम ठीक ठीक इस्तेमाल करना। कि ग़लती से भी, कभी भी एक शब्द ग़लत नहीं बोल सकता। इम्पॉसिबल। कि इसपर शर्त लगायी जा सकती है। हार जाने वाली शर्त। पर उससे हारना अच्छा लगता है। उसके कम शब्दों में कुछ शब्द जो मेरे नाम के इर्द गिर्द गमकते हैं। precious. कितना साधारण सा शब्द है। लेकिन वो कहता है तो ख़ास लगता है। कि भले ही वो मेरे लिए बेशक़ीमत हो। मैं उसके लिए सिर्फ़ क़ीमती हूँ, तो भी चलेगा। कि वो आप कहता है, मुझे नहीं मालूम, ग़ुस्से में कि दुलार में। पर कहता है तो अच्छा लगता है। कि मुझे आप सिर्फ़ पापा कहते हैं।

अजीब सी किताब है। Norwegian Wood। लेकिन जब वो कहता है कि वो मुझे कभी नहीं भूलेगा। उसका उसकी पसंद की भाषा में कहना। I will always remember you. बहुत प्यारा महसूस होता है। जैसे किसी एक साल मैथ के इग्ज़ैम में सच में 99 मार्क्स आ गए हों। कि ग़लती से सारे सवाल सही बन गए थे।

द लेकहाउस याद आ रही है। जिसमें वो लड़की के लिए शहर के नक़्शे में एक रूट चार्ट करता है कि यहाँ जाओ, ये देखो… और लड़की उस रास्ते पर चलती है, सोचती हुयी… कि काश हम सच में साथ होते… फिर सामने वो बड़ी सी दीवार आती है, जिसपर कमोबेश दो साल पुरानी ग्रफ़ीटी बनी हुयी है। कि केट, मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस ख़ूबसूरत शनिवार की शाम का शुक्रिया। कैमरा ‘together’ शब्द पर जा के ठहरता है। प्यार में कैसी कैसी चीज़ें लोगों को क़रीब ले आती हैं। कि दूरी सिर्फ़ मन में होती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा हो सकता है कि उसके शहर में बारिश हो और यहाँ की हवा में खुनक आए।

फिर द ब्लूबेरी नाइट्स का वो सीन, जब कि लड़की पूरी दुनिया में भटकती हुयी भी उस कोने की छोटी वाली दुकान के लड़के को पोस्टकार्ड भेजती है। कहती है उससे, पता नहीं तुम मुझे कैसे याद करोगे। उस लड़की की तरह जिसे ब्लूबेरी पाई पसंद थी, या उस लड़की की तरह, जिसका दिल टूटा हुआ था।

मैं सोचती हूँ कि मुझे क्या याद रहेगा। इमारत से पीठ टिकाए बैठना। आसमान को देखते हुए हँसना। दिल्ली मेट्रो के स्टेशन पर विदा कहते हुए फ़्लाइइंग किस देना। क्या क्या। कि कहानी और सच के बीच अंतर करना सीखना ज़रूरी है वरना मैं भी किसी पागलपन की कगार पर तो हूँ ही। कब से एक कहानी के बाहर भीतर कर रही हूँ। किरदार मेरे साथ साथ शहर घूमते हैं और मैं जाने क्या कुछ महसूसती हूँ। कि कोई एक शहर हो जिसमें मेरी पसंद की सारी जगहें हों। वो कॉफ़ीशॉप्स जहाँ मेरे पसंद की कॉफ़ी मिलती है। वो पोस्ट बॉक्स जहाँ से तुम्हें पोस्टकार्ड गिराया था। पतझर का सुनहले पत्तों वाला मौसम। डाकटिकटों में रचे-बसे शहर जहाँ में जाना चाहती हूँ एक शाम कभी।

मुझे लिखने से डर लगने लगा है। लिखे हुए लोग ज़िंदगी में मिल जाते हैं। जब तीन रोज़ इश्क़ लिखा था तो उसमें लड़की एक घंटे में एक पैग विस्की पीती है...विस्की के पैग से समय नापा जा सकता है। मैंने तब तक ऐसे किसी इंसान को नहीं जाना था जो ड्रिंक्स के हिसाब से घंटे माप सके। और फिर मैं तुमसे मिली। उस दिन पता है, मन किया तुम्हें वो पूरी कहानी पढ़ के सुनाऊँ... कि देखो, अनजाने में ऐसा लिखा है।

तुम हो मेरे इंतज़ार में? या कि सिर्फ़ मैंने लिखे हैं इतने सारे शहर कि जिनका कोई सही डाक पता नहीं। तुम मुझे चिट्ठियाँ लिखने से मना करो। मेरी चिट्ठियों से सबको ही प्यार हो जाता है। without exception। मेरी चिट्ठियाँ उतनी ही पर्फ़ेक्ट हैं, जितनी मैं flawed। फिर चिट्ठियों से प्यार करोगे और लड़की से नफ़रत। क्या करेंगे फिर हम।

मैं पूछती हूँ उससे। तुम जानते हो न, मैं क्यूँ चाहती हूँ कि किसी को याद रहूँ। कि मुझे मालूम है किसी दिन आसान होगा मेरे लिए कलाइयाँ काट कर मर जाना। उसकी आवाज़ में फ़िक्र है। कि ऐसी बातें मत करो। मुझे नहीं चाहिए प्यार मुहब्बत। मुझे बस, थोड़ी सी फ़िक्र चाहिए उसकी…बस। मैं उसकी आँखें याद करूँगी और दुनिया के सबसे फ़ेवरिट सूयसायड पोईंट से कूदना मुल्तवी कर दूँगी। हाँ इसे प्यार नहीं कहते। लेकिन इतना काफ़ी है, कि इसे ज़िंदगी कहते हैं। और तुम्हारे होने से ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और मेरी हँसी में जादू। इससे ज़्यादा मुझे नहीं चाहिए। 

27 January, 2019

इश्तियाक़

दिल्ली एक किरदार है मेरे क़िस्से का। इक लड़की है जो दिल्ली जाते ही मुझसे बाहर निकल आती है। दीवानों की तरह घूमती है। चाय सिगरेट पीती है। व्हिस्की ऑन द रॉक्स। कानों  में झुमके। माथे पर छोटी सी बिंदी। आँखों में इतनी मुहब्बत कि पूरे पूरे उपन्यास सिर्फ़ उस रौशनी में लिखा जाएँ। वो लड़की जो दिल्ली देखती है और जीती है वो सच के शहर से बहुत अलग होती है। उस शहर के लोग ऐसी दिलफ़रेब होते हैं कि उनपर जान देने का नहीं, जान निसार देने को जी चाहता है। ख़ूबसूरत उफ़ ऐसे कि बस। क़िस्सों में ही होता है कोई इतना ख़ूबसूरत।

***

तो उसने मेरा उसे देखना देखा है। देर तक देखना। उसने वाक़ई मेरे चेहरे को ग़ौर से देखा होगा। कभी कभी सोचती हूँ मैं भी, कितने लोग होते होंगे उसे प्रेम में यूँ आकंठ डूबे हुए। मैं तुलना नहीं करना चाहती। उसके प्रेम में कम ज़्यादा नहीं होता। उसके प्रेम में सब एक जैसे ही दिखते हैं। मुझे वे सब स्त्रियाँ याद आती हैं जो उससे प्रेम करती हैं, जिन्हें मैंने देखा है। शायद जो एक ही अंतर मुझे दिखा, वो ये, कि वे प्रेम पर एक झीना पर्दा डालने की कोशिश करती हैं। एक घूँघट कि जिसके पीछे से उनका प्रेम और उनकी सुंदरता और ज़्यादा ही निखर जाती है। मुझे प्रेम यूँ भी हर ओर दिखता है। मैं प्रेम को उसके हर रूप में पहचान सकती हूँ। 

मुझे प्रेम में कृष्ण और राधा और मीरा और रूक्मिनी और गोपियाँ ही क्यूँ याद आती हैं? उनके एक मित्र ने पूछा, ‘आपको जलन नहीं होती? बुरा नहीं लगता’। मैंने हँस कर यही कहा था, वे कृष्ण हैं, सबका अधिकार है उन पर। मेरा प्रेम कोई अधिकार ना माँगता है न देता है। प्रेम सहज हो सकता है, अगर हम घड़ी घड़ी उसे सवालों के दायरे में ना बाँधें तो। 

उस रोज़ मैंने हल्दी पीले रंग की शॉल ओढ़ी थी। काले रंग का कुर्ता और काली चूड़ीदार। सर्दी ज़्यादा नहीं थी। दोस्तों ने हमेशा की तरह घुमा रखा था मुझे चकरघिरनी की तरह। कभी कहीं कभी कहीं। मैं दिल्ली में थी। मैं ख़ुश थी। जैसा कि मैं दिल्ली में हमेशा होती हूँ। किसी कहानी के किरदार जैसी। थोड़ी सच्ची, थोड़ी सपने में जीती हुयी। मेरी आँखों में जाने कितनी कितनी रौशनी थी। 

मैंने एक दिन पहले गुज़ारिश की थी, ‘कल शाम कहीं बाहर चलेंगे। मेरे हिस्से एक शाम लिखा सकती है क्या? डिनर या ड्रिंक्स कुछ।’ लेकिन इस दुनिया में ऐसा कुछ कहना फ़रमाईश की श्रेणी में आता है… अनाधिकार ज़िद की भी… और ज़िद तो हम कभी कर नहीं सकते। सो पूछा था और बात भूलने की कोशिश की थी। लेकिन दिल धड़क रहा था सुबह से। कभी कभी कोई ख़्वाहिश दुआ जैसी भी तो होती है। ईश्वर के पास जाती है…ईश्वर अच्छे मूड में होते हैं, बोलते हैं, तथास्तु। 

उस रेस्तराँ में पीली रोशनियाँ थीं… वोदका और व्हिस्की … थोड़ी थोड़ी आइस। मुझे याद है कितनी क्यूब्ज़, पर लिखूँगी नहीं। मेरा रेकर्ड नौ टकीला पी के भी होश में रहने का है। लोग कहते हैं मुझे पिलाना पैसों की बर्बादी है। मुझे कभी चढ़ती नहीं। कभी भी नहीं। एक थर्टी एमएल से हम टिप्सी हो जाएँ तो इसमें विस्की का कोई दोष नहीं हो सकता। हल्का हल्का सा लग रहा था सब। काँच के ग्लास के हल्की क्लिंक, ‘लव यू’। ब्रेख़्त याद आए। ‘When it is fun with you. Sometimes I think then. If I could die now. I’d have been happy. Right to the end.’ 

हम बाहर आए तो ठंडी हवा चल रही थी। मैं थोड़ी नशे में थी। सिर्फ़ इतना कि चलते हुए ज़रा सी उनकी बाँह पकड़ के चलने की दरकार हो। ऐसा नहीं कि गिर जाती, लेकिन ज़रा सा हाथ पकड़ के चलती, तो अच्छा लगता। ईमानदारी में लेकिन हमने जाने कहाँ की कौन सी घुट्टी घोल के पी रखी थी। जितने की ज़रूरत है उससे एक ज़रा कुछ नहीं माँगती। ये भी तो था कि ज़िंदगी ऑल्रेडी मेहरबान थी, उसपर ज़्यादा ज़ोर नहीं देना चाहिए। मैं ज़मीन से ज़रा ऊपर ही थी। थोड़ा सा ऊपर। हवा में। जिसे होवर करना कहते हैं। वैसी। 

मुझे ज़िंदगी में कई बार प्यार हुआ है। कई कई बार। लेकिन पहले प्यार होता था तो इस तरह उसमें डूबी होती थी कि कुछ होश ही नहीं रहता था, मैं क्या कर रही हूँ, किसके साथ हूँ… ख़ुमार में दिन बीतते थे। अब लेकिन प्यार इतने छोटे लम्हे के लिए होता है कि जब होता है तो अपनी पूरी धमक के साथ महसूस होता है। चेहरे पर चमक होती है, चाल में एक उछाल, बातों में थोड़ी सी लय… चुप्पी में थोड़ा सा सुख। अब मैं ख़ुद को देख भी पाती हूँ, बदलाव को महसूस कर पाती हूँ, उन्हें लिख पाती हूँ। 

हमने सिगरेट जलाई। मैं टिप्सी थी। थोड़ी। कनाट प्लेस में ऊँचे सफ़ेद खम्बे हैं। पीली रोशनी होती है। मेरे बाल खुले थे। मैं एक खम्बे से पीठ टिका कर खड़ी थी। थोड़ी थोड़ी उसी ऐक्सिस पर दाएँ बाएँ झूल रही थी। पाँच डिग्री। सिगरेट का कश छोड़ते हुए धुआँ मेरे और उनके बीच ठहरना चाहता लेकिन हवा थी… इसलिए उड़ जाता। उतने छोटे लम्हे में भी धुएँ के पार उनका होना एकदम किसी जादू जैसा था। मैं उन्हें छूना चाहती थी, देखने के लिए कि ये सपना तो नहीं है। लेकिन मैंने ऐसा किया नहीं। सिगरेट के गहरे कश खींचती और धुएँ के पार उन्हें देखती। सोचती। कोई कितना प्यार कर सकता है किसी से। मैं जितना प्यार कर सकती हूँ किसी से… उतना प्यार करती हूँ मैं उनसे।  
सिगरेट उन्हें देते हुए उँगलियाँ छू जातीं। सीने में कोई तड़प उठती। मैं उसे ठीक ठीक लिख नहीं सकती कि क्यूँ। किसी बेहद बेहद ख़ूबसूरत लम्हे को जीते हुए जब लगता है कि ये लम्हा गुज़र जाएगा। ये सिगरेट ख़त्म हो जाएगी। ये शहर हमें भूल जाएगा इक रोज़। उन्हें देखने को चेहरा पूरी तरह ऊपर उठा हुआ था। जैसे मैं आसमान में चाँद देखती हूँ। 

हम दोनों चुप थे। कि जाने दिल किस चीज़ का नाम है। कभी सिर्फ़ इतने पर जान दे रहा था कि जीवन में कभी एक बार उन्हें देख सकूँ। यहाँ एक पूरी शाम नशे में बीती थी। जाती शाम की आख़िरी और पहली सिगरेट जला चुके थे। लेकिन यहाँ से कहीं जाने को जी नहीं कर रहा था। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार कब किसी एक लम्हे को रोक लेना चाहा था। लेकिन ये एक वैसा लम्हा था। एक सिगरेट भर का लम्हा। कभी ना भूलने वाला लम्हा। शहर। और एक वही, जिसे जानां कहना चाहती थी। 

सुख की परिभाषा इतनी सी है कि हम जहाँ हैं और जिसके पास हैं, वहीं और उसी के पास होना चाहें उस लम्हे। सुख उतना ही था। मैं दिल्ली की किसी शाम थोड़े नशे में टिप्सी, ज़रा सी झूमती हुयी उस एक शख़्स के साथ सिगरेट पी रही थी जो कहानियों जैसा था। शहज़ादा। सरकार। कि जिसकी हुकूमत मेरे दिल पर चलती है, मेरे किरदारों पर, मेरे सपनों और पागलपन पर भी। दुनिया की किसी भी कहानी का प्लॉट इतना सुंदर नहीं हो सकता था जितना ज़िंदगी का था। 

उससे मेरा कहानियों का रिश्ता है। मैं लिखती हूँ और वो सच होता जाता है। मैं लिखती हूँ सफ़ेद शर्ट और उसके बदन पर कपास के धागे बुनते जाते हैं ताना बाना। मैं लिखती हूँ नीला कोट और देखती हूँ कि उसके कफलिंक्स पेन की निब वाले हैं। मैं लिखती हूँ वोदका और नशे में चलती हूँ थोड़ा बहकती हुयी। सिगरेट लिखती हूँ तो मेरी उँगलियों में उसकी छुअन महसूस होती है। मैं लिखना चाहती हूँ उसकी आँखें लेकिन स्याही नहीं होती मेरे पास। 

मैं उसे विदा नहीं कह सकी। वो मेरी रूह में घुल गया है। मेरे आसमान में, चमकते चाँद में। स्याही में। ख़ुशी में। इंतज़ार में। 

लिखे हुए क़िस्से की सबसे ख़ूबसूरत बात यही है कि अतीत में जा कर क़िस्से को बदल नहीं सकते। तो वो एक सिगरेट मुझसे कोई नहीं छीन सकता। वो शहर। चुप्पी। पीले रंग की शॉल। उसकी सफ़ेद शर्ट। उसके गले लगने की ख़्वाहिश। उसे न चूमने का दुःख। ये ख़ज़ाना है। मरूँ तो मेरे साथ चला जाए। नायाब ये इश्क़ तिलिस्म। 

मोह में रचते हैं। इश्क़ में जीते हैं। क़िस्से-कहानियों-कविताओं से लोग। 
जां निसार तुझ पे, जानां! 

14 December, 2018

typing...

सोच रही हूँ, कह दूँ तुम्हें।

शाम किसी से बात कर रही थी। देर तक उसकी हँसी किसी की याद दिलाती रही, ये याद नहीं आ रहा था कि किसकी। फिर धुँधलाते हुए याद आयी तुम्हारी। बहुत साल पहले, जब हम बहुत बातें करते थे और तुम बहुत हँसते थे… ऐसे ही हँसते थे तुम। मैं तुम्हें सुन कर सोचती थी, तुम्हारी हँसी का रंग उजला होगा, धुँधला उजला। जाड़ों के कोहरे वाली रात जैसा। मैं तुम्हें दिल्ली में मिलना चाहती थी, कि दिल्ली दुनिया में मेरा सबसे फ़ेवरिट शहर है। 

पता है, दिल्ली दुनिया में मेरा फ़ेवरिट शहर क्यूँ है? क्यूँकि दिल्ली वो शहर है जहाँ मैं आख़िरी बार पूरी तरह ख़ुश थी। घर पर माँ, पापा, भाई थे, एक अच्छी नौकरी थी जिसमें मुझे मज़ा आता था, एक बॉयफ़्रेंड जिससे मैं शादी करना चाहती थी, बहुत से दोस्त जिनके साथ मैं वक़्त बिताना पसंद करती थी। सीपी, जहाँ हिंदी की बहुत सी किताबें थीं और मेरे इतने पैसे कि मैं जो भी किताब पसंद आए, वो ख़रीद सकती थी। मेरे पास वाक़ई सब कुछ था। 

दिल्ली में आज भी कभी कभी मैं भूल जाती हूँ कि मैं कौन हूँ और बारह साल पुरानी वही लड़की हो जाती हूँ। PSR पर खड़ी, दुपट्टा हवा में लहराते हुए, लम्बे बाल, खुले हुए। मैं उस लड़की से बहुत प्यार करती हूँ। वो मेरे अतीत में रहती है, हमेशा पर्फ़ेक्ट्ली ख़ुश, ख़ुशी की ब्राण्ड ऐम्बैसडर। लोग अक्सर उससे पूछा करते थे, तुम हमेशा इतना ख़ुश कैसे/क्यों रहती हो। 

लोग अब नहीं पूछते, तुम हमेशा इतनी उदास कैसे रहती हो। उदासी सबको नौर्मल लगती है। ख़ुशी कोई गुनाह है, कोई ड्रग जैसे। चुपचाप ख़ुश होना चाहिए। बिना दिखाए हुए। ख़ुद में समेट के रखनी चाहिए ख़ुशी। 

धुँध से उठती धुन का कवर सफ़ेद है। जैसे तुम्हारे बारे में सोचना। जिसमें कोई मिलावट नहीं होती। कुछ नहीं सोचते उस समय। दुःख, दुनियादारी, टूटे हुए सपने, छूटे हुए शहर, अधूरी लिखी किताब… कुछ नहीं दुखता। बस, तुम ही दुखते हो। 

प्रेम में शुद्धता जैसी कोई चीज़ होती है क्या? ख़ालिस प्रेम? बिना मिलावट के। कोई मशीन नाप दे। कि इस प्रेम में कोई ख़तरा नहीं है। ना दिल को, ना दिमाग़ को, ना भविष्य को, ना वर्तमान को, न ज़िंदगी में मौजूद और किसी रिश्ते को… 

मैंने समझा लिया है ख़ुद को… कम करती हूँ प्यार तुमसे। नहीं चाहती हूँ तुम्हारा वक़्त। तुम्हारी आवाज़। या तुम्हारे लिखे ख़त ही। तुम्हारे विदा का इंतज़ार भी नहीं है। ज़रा से बचे हो तुम। कलाई पर लगाए इत्र का सेकंड नोट। हार्ट औफ़ पर्फ़्यूम कहते हैं जिसे। भीना भीना… सबसे देर तक ठहरने वाला। देर तक। हमेशा नहीं। 

तुम हवा में घुल कर खो जाओगे एक दिन। मेरी कलाई पर सिर्फ़ स्याही होगी तब। मैं ख़ुद ही एक रोज़ चूमूँगी अपनी कलाई। जहाँ दिल धड़कता है। वहाँ। धीरे से पेपर कटर से एकदम बारीक लकीर खींचूँगी। कोई दो तीन दिन रहेगा उसका निशान। और फिर भूल जाऊँगी, सब कुछ ही। 

पता है। आख़िरी बार जब तुम मुझसे बात कर रहे थे। मुझे लग रहा था कि जाने ये शायद आख़िरी बार हो। Whatsapp पर तुम्हारे नाम के आगे typing… आ रहा था। मैंने एक स्क्रीन्शाट लेकर रख लिया है उसका। याद बस इतना रहेगा। बहुत बहुत साल बाद भी।

हम बहुत बातें करते थे। हम बहुत हँसते थे साथ में। बस।

21 November, 2017

तुम मुझसे किसी कहानी में मिलोगे कभी?



वैसे तो पेज पर कभी भी सच का कुछ एकदम नहीं लिखती हूँ। लेकिन कभी कभी लगता है कि सकेर देने के लिए और कोई भी जगह नहीं है मेरे पास। तो वैसे में। एक मुट्ठी सच यहीं रख देती हूँ।

कुछ महीनों पहले, ऐसे ही एक रैंडम सी शाम में एक लड़के से मिली थी। कुछ बातें की, थोड़ी कॉफ़ी पी और थोड़ा वक़्त साथ में बिताया। कल Coke Studio पर कोई गाना सुन रही थी। ऑटोप्ले में 'रंजिश ही सही' बजने लगा अगला...ये हमने उस दिन ऐसे ही गुनगुनाया था और एक लाइन पर अटक गए थे। याद ही नहीं आ रहा था कि कौन सी लाइन है। कल इसे सुनते हुए उसकी याद आयी।

रात आधी गुज़र गयी थी। Whatsapp पर मेसेज भेजा उसे। एक सुंदर कविता की कुछ पंक्तियाँ।
बात में यूँ ही बात हुयी तो उसने कहा, बात किया करो, ख़ुश रहोगी...मैंने कहा, वक़्त है तुम्हारे पास...
उसने जवाब दिया, 'वक़्त ही वक़्त है...हक़ से माँग कर देखो...माँगने वाले नहीं हैं।'
***

मुझे ये बात बहुत उदास कर गयी। इसकी दो सच्चाइयों के कारण। पहली ये कि मैं कभी किसी से हक़ से कुछ माँगती नहीं। किसी से भी नहीं। परिवार से नहीं। दोस्तों से नहीं। पति से भी नहीं। बेस्ट फ़्रेंड से भी नहीं। जब से माँ नहीं रही, मैंने हक़ से किसी से तो क्या ईश्वर से भी कभी कुछ नहीं माँगा। 'हक़' क्या होता है। कैसे जताते हैं हक़ किसी पर?

'माँगने वाले लोग नहीं हैं'। ये भी उतना ही सच है। मैंने देखा है, कभी कभी कोई कुछ इतने प्यार और अधिकार से माँग लेता है कि मना करने को एकदम दिल नहीं करता। छोटी छोटी चीज़ें जो नॉर्मली एकदम से मेरा दिमाग़ ख़राब कर देती हैं...जैसे कि कोई मुझे दीदी कहता है तो अधिकतर मुझे ग़ुस्सा आता है...लेकिन एक बार किसी एकदम ही रैंडम से लड़के ने सीधे जिज्जी ही कहा था...उसके उस अनाधिकार पर भी ग़ुस्सा नहीं आया। पता नहीं क्यूँ। शायद ईमानदारी से कहा होगा। शायद शब्द सही रहे होंगे। ठीक नहीं मालूम। पर उसे टोका नहीं। डाँटा नहीं।

ऐसे ही एक लड़की थी...मालूम नहीं कितने साल पहले...मगर उसने अधिकार जताया था...मेरी धूप पर, मेरी छांव पर, मेरे दुःख पर, मेरी यादों पर...और मैंने कहीं भी उसके लिए दरवाज़े बंद नहीं किए थे। ऐसी एक लड़की। थी।

मुझे माँगने में बहुत हिचक होती है। बहुत ज़्यादा। मरती रहूँगी लेकिन एक अंजुली जल नहीं माँगूँगी किसी से। एक शब्द से बुझेगी प्यास लेकिन कहूँगी नहीं किसी से। किसी किसी शाम बस इतना लगेगा कि दुनिया बहुत बेरहम है। कि जो लोग हमेशा ख़ुद को उलीचते रहते है वे कभी कभी एकदम ही ख़ाली हो जाते हैं। तो, ओ री दुनिया, मेरे हिस्से में भी तो थोड़ा प्यार रख।

फिर कभी कभी ऐसा रैंडम सा कोई होता है। कहता है, कैसे तो, हक़ से क्यूँ नहीं माँगती तुम। मुझे याद आते हैं बहुत से शब्द। दिल का गहरा ज़ख़्म भरता है। शब्द के कुएँ में प्यार भी।
***

मैं ऊनींदे होती हूँ जब उसका फ़ोन आता है। रात के ढाई बज रहे हैं।फ़ोन की स्क्रीन पर उसकी तस्वीर है। फ़ुल लेंथ। वो मुस्कुरा रहा है। मुझे लगता है फ़ोन की स्क्रीन छूने से मैं छू लूँगी उसको। मैं तकलीफ़ के अतल कुएँ में हूँ। सोचती हूँ उसका फ़ोन उठाऊँ या नहीं। लेकिन फिर रहा नहीं जाता।

मैं नींद में उलझी, नाम लेती हूँ उसका, 'सुनो, मैं सो चुकी हूँ।'। उसकी आवाज़ कोई थपकी है। माथे पर चूमा जाना है। उसकी आवाज़ उसका मेरे क़रीब होना है।
***

उसको मालूम नहीं है। पर उसने मुझे उस रात की मृत्यु से बचा लिया है। मैं अपनी बेस्ट फ़्रेंड को कहती हूँ। मेरा उसे 'फ़रिश्ते' बुलाने का मन करता है।
***

ज़िंदगी के किरदार सारे झूठे हैं।
सच सिर्फ़ कहानियों में मिलता है।

तुम मुझसे किसी कहानी में मिलोगे कभी?

09 November, 2017

तुम तोड़ोगे, पूजा के लिए फूल?

उसके बाल बहुत ख़ूबसूरत थे। हमेशा से। माँ से आए थे वैसे ख़ूबसूरत बाल। भर बचपन और दसवीं तक हमेशा माँ उसके बाल एकदम से छोटे छोटे काट के रखती। कानों तक। फिर जब वो बारहवीं तक आयी तो उसने ख़ुद से छोटी गूँथना सीखा और माँ से कहा कि अब वो अपने बालों का ख़याल ख़ुद से रख लेगी इसलिए अब बाल कटवाए ना जाएँ।  उन दिनों बालों में लगाने को ज़्यादा चीज़ें नहीं मिलती थीं। उसपर उतने घने बालों में कोई रबर बैंड, कोई क्लचर लगता ही नहीं था। वो कॉलेज के फ़ाइनल ईयर तक दो चोटी गूँथ के भली लड़कियों की तरह कॉलेज जाती रही। पटना का मौसम वैसे भी खुले बाल चलने वाला कभी नहीं था, ना पटना का माहौल कि जिसमें कोई ख़ूबसूरत लड़की सड़क पर बाल खोल के घूम सके। सिर्फ़ बृहस्पतवार का दिन होता था कि उसके बाल खुले रहते थे कि वो हफ़्ते में दो दिन बाल धोती थी तो एक तो इतवार ही रहता था। दिल्ली में एक ऐड्वर्टायज़िंग एजेन्सी में ट्रेनिंग के लिए join किया तो जूड़ा बनाना सीखा कि दो चोटियाँ लड़कियों जैसा लुक देती थीं, प्रोफ़ेशनल नहीं लगती उसमें। जूड़ा थोड़ा फ़ोर्मल लगता है। उन दिनों उसके बाल कमर तक लम्बे थे।

दिल्ली में ही IIMC में जब सिलेक्शन हुआ तो अगस्त के महीने में क्लास शुरू हुयी। ये दिल्ली का सबसे सुहाना सा मौसम हुआ करता था। लड़की उन दिनों कभी कभी बाल खोल के घूमा करती थी, ऐसा उसे याद है। ख़ास तौर से PSR पर। वहाँ जाने का मतलब ही होता था बाल खोलना। बहती हवा बालों में कितनी अच्छी लगती है, ये हर बार वो वहाँ जा के महसूसती थी। दिल्ली में नौकरी करते हुए, बसों में आते जाते हुए फिर तो बाल हमेशा जूड़े में ही बंधे रहते। असुरक्षित दिल्ली में उसके बालों की म्यान में तलवार जैसी छुपी हुआ करती थी कड़े प्लास्टिक या मेटल की तीखी नोक वाली पिन। फिर दिल्ली का मौसम। कभी बहुत ठंध कि जिसमें बिना टोपी मफ़लर के जान चली जाए तो कभी इतनी गरमी कि बाल कटवा देने को ही दिल चाहे। मगर फिर भी। कभी कभी जाड़े के दिनों में वो बाल खुले रखती थी। ऐसा उसे याद है।
बैंगलोर का मौसम भी सालों भर अच्छा रहता है और यहाँ के लोग भी बहुत बेहतर हैं नोर्थ इंडिया से। तो यहाँ वो कई बार बाल खोल के घूमा करती। अपनी flyte चलते हुए तो हमेशा ही बाल खोल के चलाती। उसे बालों से गुज़रती हवा बहुत बहुत अच्छी लगती। वो धीरे धीरे अपने खुले बालों के साथ कम्फ़्टर्बल होने लगी थी। यूँ यहाँ के पानी ने बहुत ख़ूबसूरती बहा दी लेकिन फिर भी उसके बाल ख़ूबसूरत हुआ करते थे। 

इस बीच एक चीज़ और हुयी कि लोगों ने उसके बालों से आती ख़ुशबू पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था। उसके बाल धोने का रूटीन अब ऐसा था कि बुधवार को बाल धोती थी कि शादीशुदा औरतों का गुरुवार को बाल धोना मना है। होता कुछ यूँ था कि ऑफ़िस में उसकी सीट पर जाने के रास्ते में कूलर पड़ता था...सुबह सुबह जैसा कि होता है, बाल धो कर ऑफ़िस भागती थी तो बाल हल्के गीले ही रहते थे...उसे कानों के पीछे और गर्दन पर पर्फ़्यूम लगाना पसंद था। तेज़ी से भागती थी ऑफ़िस तो सीढ़ियों के पास बैठी लड़की बोलती थी, ज़रा इधर आओ तो...गले लगती थी और कहती थी...तुम्हारे बालों से ग़ज़ब की ख़ुशबू आती है...अपने फ़्लोर पर पहुँचती थी तो एंट्री पोईंट से उसकी सीट के रास्ते में कूलर था...कूलर से हवा का झोंका जो उठता था, उसके बालों की ख़ुशबू में भीग कर बौराता था और कमरे में घूम घूम जाता था। सब पूछते थे उससे। कौन सा शैंपू, कौन सा कंडीशनर, कि लड़की, ग़ज़ब अच्छी ख़ुशबू आती है तुम्हारे बालों से। लड़की कहती थी, मेरी ख़ुशबू है...इसका पर्फ़्यूम या शैम्पू से कोई सम्बंध नहीं है। 

लड़की को अपने बाल बहुत पसंद थे। उनका खुला होना भी उतना ही जितना कि चोटी में गुंथा होना या कि जूड़े में बंधा होना। बिना बालों में उँगलियाँ फिराए वो लिख नहीं सकती थी। इन दिनों अपने अटके हुए उपन्यास पर काम कर रही थी तो रोज़ रात को स्टारबक्स जाना और एक बजे, उसके बंद हो जाने तक वहीं लिखना जारी था। इन दिनों साड़ी पहनने का भी शौक़ था। कि बहुत सी साड़ियाँ थीं उसके पास, जो कि कब से बस फ़ोल्ड कर के रखी हुयी थीं। ऐसे ही किसी दिन उसने हल्के जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी तो बालों में फूल लगाने का मन किया। घर के बाहर गमले में बोगनविला खिली हुयी थी। उसने बोगनविला के कुछ फूल तोड़े और अपने जूड़े में लगा लिए। ये भी लगा कि ये किसी गँवार जैसे लगेंगे...सन्थाल जैसे। कोई जंगल की बेटी हो जैसे। ज़िद्दी। बुद्धू। लेकिन फूल तो फूल होते हैं, उनकी ख़ूबसूरती पर शहराती होने का दबाव थोड़े होता है। वो वैसे भी अपने मन का ही करती आयी थी हमेशा। 

बस इतना सा हुआ और ख़यालों ने पूरा लाव लश्कर लेकर धावा बोल दिया...

***

तुम्हें कोई वैसे प्यार नहीं कर सकेगा जैसे तुम ख़ुद से करती हो। Muse तुम्हारे अंदर ही है, बस उसके नाम बदलते रहते हैं। उसकी आँखों का रंग। उसकी हँसी की ख़ुशबू। उसकी बाँहों का कसाव। तुम भी तो बदलती रहती हो वक़्त के साथ। 

कितनी बार, कितने फूलों के बाग़ से गुज़री हो...जंगलों से भी। कितनी बार प्रेम में हुयी हो। चली हो उसके साथ कितने रास्ते। कितने प्रेमी बदले तुमने इस जीवन में? बहुत बहुत बहुत।

लेकिन ऐसा कभी क्यूँ नहीं हुआ कि किसी ने कभी राह चलते तोड़ लिया हो फूल कोई और यूँ ही तुम्हारे जूड़े में खोंस दिया हो? बोगनविला के कितने रंग थे कॉलेज की उन सड़कों पर जहाँ चाँद और वो लड़का, दोनों तुम्हारे साथ चला करते थे। पीले, सफ़ेद, सुर्ख़ गुलाबी, लाल...या कि वे फूल जिनके नाम नहीं होते थे। या कि गमले में खिला गुलाब कोई। कभी क्यूँ नहीं दिल किया उसका कि बोगनविला के चार फूल तोड़ ले और हँसते हुए लगा दे तुम्हारे बालों में। 

कितनी बार कितनों ने कहा, तुम्हारे बाल कितने सुंदर हैं। उनसे कैसी तो ख़ुशबू आती है। कि टहलते हुए कभी खुल जाता था जूड़ा, कभी टूट जाता था क्लचर, कभी भूल जाती थी कमरे पर जूड़ा पिन। खुले बाल लहराते थे कमर के इर्द गिर्द। 

कि क्या हो गया है लड़कों को? वे क्यूँ नहीं ला कर देते फूल, कि लो अपने जूड़े में लगा लो इसे...कितना तो सुंदर लगता है चेहरे की साइड से झाँकता गुलाब, गहरा लाल। कि कभी किसी ने क्यूँ नहीं समझा इतना अधिकार कि बालों में लगा सके कोई फूल? कि ज़िंदगी की ये ख़ूबसूरती कहाँ गुम हो गयी? ये ख़ुशबू। हाथों की ये छुअन। यूँ महकी महकी फिरना?

बहुत अलंकार समझ आता है उसको। मगर फूल समझ में आते हैं? या कि लड़की ही। हँसते हुए पूछो ना उससे, यमक अलंकार है इस सवाल में, 'तुम तोड़ोगे पूजा के लिए फूल?'

शाम में पहनना वाइन रंग की सिल्क साड़ी और गमले में खिलखिलाते बोगनविला के फूल तोड़ लेना। लगा लेना जूड़े में। कि तुम ही जानती हो, कैसे करना है प्यार तुमसे। ख़ुश हो जाओगी किस बात से तुम। और कितना भी बेवक़ूफ़ी भरा लगे किसी को शायद जूड़े में बोगनविला लगाना। तुम्हारा मन किया तो लगाओगी ही तुम। 

फिर रख देना इन फूलों को उसकी पसंद की किताब के पन्नों के बीच और बहुत साल बाद कभी मिलो अगर उससे तो दे देना उसको, सूखे हुए बेरंग फूल। कि ये रहे वे फूल जो कई साल पहले तुम्हें मेरे बालों में लगाने थे। लेकिन उन दिनों तुम थे नहीं पास में, इसलिए मैंने ख़ुद ही लगा लिए थे। अब शुक्रिया कहो मेरा और चलो, मुझे फूल दिला दो...मैं ले चलती हूँ ड्राइव पर तुम्हें। ट्रेक करते हुए चलते हैं जंगल में कहीं। खिले होंगे पलाश...अमलतास...गुलमोहर...बोगनविला...जंगली गुलाब...कुछ भी तो।

ख़्वाहिश बस इतनी सी है कि तुम अपने हाथों से कोई फूल लगा दो मेरे बालों में...कभी। अब कहो तुम ही, इसको क्या प्यार कहते हैं?

***

तुम उसे समझना चाहते हो? समझने के पहले देखो उसे। मतलब वैसे नहीं जैसे बाक़ी देखते हैं। उसकी हँसती आँखों और उसकी कहानियों के किरदारों के थ्रू। उसे देखो जब कोई ना देखता हो।

उसके घर के आगे दो गमले हैं। जिनमें बोगनविला के तीन पौधे हैं। वो उनमें से एक पौधे को ज़्यादा प्यार करती है। सबसे ज़्यादा हँसते हुए फूल इसी पौधे पर आते हैं। ख़ुशनुमा। इस पौधे के फूलों के नाम बोसे होते हैं। गीत होते हैं। दुलार भरी छुअन होती है। इस पेड़ के काँटे उसे कभी खरोंचते भी नहीं।

दोनों बेतरतीब बढ़े हुए पौधे हैं। जंगली। घर घुसने के पहले लगता है किसी जंगल में जा रहे हों। लड़की सुबह उठी। सीने में दुःख था। प्यास थी कोई। कई दिनों से कोई ख़त नहीं आया। दुनिया के सारे लोग व्यस्त हैं बहुत।

सुख के झूले की पींग बहुत ऊँची गयी थी, आसमान तक। लेकिन लौट कर फिर ज़मीन के पास आना तो था ही। कब तक उस ऊँचे बिंदु से देख कर पूरी दुनिया की भर भर आँख ख़ूबसूरती ख़ुश होती रहती लड़की।

मुझे कोई चिट्ठियाँ नहीं लिखता।

दोनों गमलों में एक एक मग पानी डाला उसने। फिर उसे लगा पौधों को बारिश की याद आती हो शायद। लेकिन जो पौधे कभी बारिश में भीगे नहीं हों, उन्हें बारिश की याद कैसे आएगी? जिससे कभी मिले ना हों उसे मिस करते हैं जैसे, वैसे ही?

पौधों के पत्ते धुलने के लिए पानी स्प्रे करने की बॉटल है उसके पास। हल्की नीली और गुलाबी। उसने बोतल में पानी भरा और अपने प्यारे पौधे के ऊपर स्प्रे करने लगी। उसकी आँखें भरी हुयी थीं। अबडब आँसुओं से। इन आँसुओं को सिर्फ़ धूप देखती है या फिर आसमान। बहुत साल पहले लड़की आसमान की ओर चेहरा करके हँसा करती थी। लड़की याद करने की कोशिश करती है तो उसे ये भी याद नहीं आता कि हँसना कैसा होता है। वो देर तक आँसुओं में अबडब पौधे के ऊपर पानी स्प्रे करती रही। बोगनविला के हल्के नारंगी फूल भीग कर हँसने लगे। हल्की हवा में थिरकने लगे। कितने शेड होते हैं फूलों में। गुलाबी से सफ़ेद और नारंगी। पहले फूल भीगे। फिर पत्ते। फिर पौधों का तना एकदम भीग गया।




लड़की देखती रही बारिश में भीग कर गहरे रंग का हो जाना कैसा होता है। प्रेम में भीग कर ऐसे ही गहरे हो जाते हैं लोग। अपने लिखे में। अपनी चिट्ठियों में। अपनी उदासी में भी तो।

उसके सीने में बोगनविला का काँटा थोड़े चुभा था। शब्द चुभा था। अनकहा।
प्यार। ढेर सारा प्यार।

21 October, 2017

इक अभागन का क़िस्सा

छह हफ़्ते के बच्चे को फीटस कहते हैं। एक नन्हें से दाने के बराबर होता है और उसका दिल बनना शुरू हो जाता है। ऐसा डॉक्टर बताती है। इसके साथ ये ज़रूरी जानकारी भी कि औरत इस बच्चे को जन्म नहीं दे सकती, बहुत ज़्यादा प्रॉबबिलिटी है कि बच्चा ऐब्नॉर्मल पैदा हो। लड़की का मैथ कमज़ोर होता है। उसे प्रॉबबिलिटी जैसी बड़ी बड़ी चीज़ें समझ नहीं आतीं। टकटकी बांधे देखती है चुपचाप। उसे लगता है वो ठीक से समझ नहीं पायी है।

तब से उसे मैथ बहुत ख़राब लगता है। उसने कई साल प्रॉबबिलिटी पढ़ने और समझने की कोशिश की लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि जहाँ कर्मों की बात आ जाती है वहाँ फिर मैथ कुछ कर नहीं सकता। ९९ पर्सेंटिज होना कोई ज़्यादा सुकून का बायस कैसे हो सकता है किसी के लिए। वो जानना चाहती है कि कोई ऐसा ऐल्गोरिदम होता है जो बता सके कि उसने डॉक्टर की बात मान के सही किया था या नहीं। उसने ज़िंदगी में किसी का दिल नहीं दुखाया कभी। जैसा बचपन के संस्कारों में बताया गया, सिखाया गया था वैसी ज़िंदगी जीती आयी थी। कुछ दिन पहले तो ऐसा था कि दुनिया उसे साथ बुरा करती थी तो तकलीफ़ होती थी, फिर उसने अपने पिता से इस बारे में बात की…पिता ने उसे समझाया कि हमें अच्छा इसलिए नहीं करना चाहिए कि हम बदले में दुनिया से हमारे प्रति वैसा ही अच्छा होने की उम्मीद कर सकें। हम अच्छा इसलिए करते हैं कि हम अच्छे हैं, हमें अच्छा करने से ख़ुशी मिलती है और हमारी अंतरात्मा हमें कचोटती नहीं। इसके ठीक बाद वो दुनिया से ऐसी कोई उम्मीद बाँधना छोड़ देती है।

अजन्मे बच्चे के चेहरे की रेखाएँ नहीं उभरी होंगी लेकिन उसने लड़की से औरत बनते हुए हर जगह उसे तलाशा है। दस साल तक की उम्र के बच्चों को हँसते खेलते देख कर उसे एक अजीब सी तकलीफ़ होती है। वो अक्सर सोचती है इतने सालों में अगर उसका अपना एक बच्चा हुआ होता तो क्या वो उसे कम याद करती? या अपने मैथ नहीं जानने पर कम अफ़सोस करती?

दुनिया के सारे सुखों में से सबसे सुंदर सुख होता है किसी मासूम बच्चे के साथ वक़्त बिताना। उससे बातें करना। उसकी कहानियाँ सुनना और उसे कहानियाँ सुनाना। पाँच साल पहले ऐसा नहीं था। उसे बच्चे अच्छे लगते थे। वो सबसे पसंदीदा भाभी, दीदी, मौसी हुआ करती थी। छोटे बच्चे उससे सट कर बैठ जाया करते गरमियों में। वो उनसे बहुत दुलार से बात करती। उसके पास अपनी सबसे छोटी ननद की राक्षस की कहानी के लिए भी वैसी ही उत्सुकता थी जैसे ससुर के बनाए हुए साइंस के थीअरम्ज़ के लिए थी। बच्चे उसके इर्द गिर्द हँसते खिलखिलाते रहते। उसका आँचल छू छू के देखते। उसकी दो चोटियाँ खींचना चाहते लेकिन वो उन्हें आँख दिखा देते और वे बदमाश वाली मुस्कान मुस्कियाते।

अपनी मर्ज़ी और दूसरी जाति में शादी करने के कारण उसके मायक़े के ब्राह्मण समाज ने उसे बाहर कर दिया था। वो जब बहुत साल बाद लौट कर गयी तो लोग उसे खोद खोद कर उसके पति के बारे में पूछते। बड़ी बूढ़ी औरतें उसके ससुर का नाम पूछती और अफ़सोस जतातीं। जिस घर ने उस बिन माँ की बेटी को दिल में बसा लिया था, उसके पाप क्षमा करते हुए, उस घर को एक ही नज़र से देखतीं। औरतें। बच्चे। पुरुष। सब कोई ही। हर नया व्यक्ति उससे दो चीज़ें जानना चाहता। माँ के बारे में, कि जिसे जाए हुए साल दर साल बीतते जा रहे थे लेकिन जो इस लड़की की यादों में और दुखती हुयी बसी जा रही थी और ससुराल के बारे में।

औरत के ज़िंदगी के दो छोर होते हैं। माँ और बच्चा। औरत की ज़िंदगी में ये दोनों नहीं थे। वो सोचती अक्सर कि अगर उसकी माँ ज़िंदा होती या उसे एक बच्चा होता तो क्या वो कोई दूसरे तरह की औरत होती? एक तरह से उसने इन दोनों को बहुत पहले खो दिया था। खो देने के इस दुःख को वो अजीब चीज़ों से भरती रहती। बिना ईश्वर के होना मुश्किल होता तो एक दिन वह पिता के कहने पर एक छोटे से कृष्ण को अपने घर ले आयी। ईश्वर के सामने दिया जलाती औरत सोचती उन्हें मन की बात तो पता ही है, याचक की तरह माँगने की क्या ज़रूरत है। वो पूजा करती हुयी कृष्ण को देख कर मुस्कुराती। सच्चाई यही है जीवन की। हर महीने उम्मीद बाँधना और फिर उम्मीद का टूट जाना। कई सालों से वो एक टूटी हुयी उम्मीद हुयी जा रही थी बस।

एक औरत कि जिसकी माँ नहीं थी और जिसके बच्चे नहीं थे।

बहुत साल पीछे बचपन में जाती, अपने घर की औरतों को याद करती। दादी को। नानी को। जिन दिनों दादी घर पर रहा करती, दादी के आँचल के गेंठ में हमेशा खुदरा पैसे रहते। चवन्नी, अठन्नी, दस पैसा। पाँच पैसा भी। घर पर जो भी बच्चे आते, दादी कई बार उनको घर से लौटते वक़्त अपने आँचल की गेंठ खोल कर वो पैसा देना चाहती उनकी मुट्ठी में। गाँव के बच्चों को ऐसी दादियों की आदत होती होगी। शहर के बच्चे सकपका जाते। उन्हें समझ नहीं आता कि एक रुपए का वे क्या करेंगे। क्या कर सकते हैं। वो अपने बचपन में होती। वो उन दिनों चाहती कि कभी ख़ूब बड़ी होकर जब बहुत से पैसे कमाएगी तो दादी को अपने गेंठरी में रखने के लिए पाँच सौ के नोट देगी। ख़ूब सारे नोट। लेकिन नोट अगर दादी ने साड़ी धोते समय नहीं निकाले तो ख़राब हो जाएँगे ना? ये बड़ी मुश्किल थी। दादी थी भी ऐसी भुलक्कड़। अब इस उम्र में आदत बदलने को तो बोल नहीं सकती थी। दादी के ज़िंदा रहते तक गाँव में उसका एक घर था। बिहार में जब लोग पूछा करते थे कि तुम्हारा घर कहाँ है तो उन दिनों वो गाँव का नाम बताया करती थी। अपभ्रंश कर के। जैसे कि दादी कहा करती थी। दनयालपुर।

उसे कहानियाँ लिखना अच्छा लगता था। किसी किरदार को पाल पोस कर बड़ा करना। उसके साथ जीना ज़िंदगी। कहानियाँ लिखते हुए वो दो चोटी वाली लड़की हुआ करती थी। कॉलेज को भागती हुयी लड़की कि जिसकी माँ उसे हमेशा कौर कौर करके खाना खिला रही होती थी कि वो भुख्ले ना चली जाए कॉलेज। माँ जो हमेशा ध्यान देती थी कि आँख में काजल लगायी है कि नहीं घर से बाहर निकलने के पहले। कि दुनिया भर में सब उसकी सुंदर बेटी को नजराने के लिए ही बैठा है। माँ उसके कहे वाक्य पूरे करती। लड़की अपने बनाए किरदारों के लिए अपनी मम्मी हुआ करती। आँख की कोर में काजल लगा के पन्नों पर उतारा करती। ये उसके जीवन का इकमात्र सुख था।

सुख, दुःख का हरकारा होता है। औरत जानती। औरत हमेशा अपनी पहचान याद रखती। शादीशुदा औरत के प्यार पर सबका अधिकार बँटा हुआ होता। भरे पूरे घर में देवर, ननद, सास…देवरानी…कई सारे बच्चे और कई बार तो गाँव की बड़ी बूढ़ी औरतें भी होतीं जो उसके सिगरेट ला देने पर आशीर्वाद देते हुए सवाल पूछ लेतीं कि ई लाने से क्या होगा, ऊ लाओ ना जिसका हमलोग को ज़रूरत है।

ईश्वर के खेल निराले होते। औरत को बड़े दुःख को सहने के लिए एक छोटा सा सुख लिख देता। एक बड़ा सा शहर। बड़े दिल वाला शहर। शहर कि जिसके सीने में दुनिया भर की औरतों के दुःख समा जाएँ लेकिन वो हँस सके फिर भी कोई ऐसी हँसी कि जिसका होना उस एक लम्हे भर ही होता हो।

शहर में कोई नहीं पहचानता लड़की को। हल्की ठंढ, हल्की गरमी के बीच होता शहर। लड़की जूड़ा खोलती और शहर का होना मीठा हुआ जाता। शहर उसकी पहचान बिसार देता। वो हुयी जाती कोई खुल कर हँसने वाली लड़की कि जिसकी माँ ज़िंदा होती। कि जिसे बच्चे पैदा करने की फ़िक्र नहीं होती। कि जिसकी ज़िंदगी में कहानियाँ, कविताएँ, गीत और बातें होतीं। कि जिसके पास कोई फ़्यूचर प्लान नहीं होता। ना कोई डर होता। उसे जीने से डर नहीं लगता। वो देखती एक शहर नयी आँखों से। सपने जैसा शहर। कोई अजनबी सा लड़का होता साथ। जिसका होना सिर्फ़ दो दिन का सच होता। लड़की रंग भरे म्यूज़ीयम में जाती। लड़की मौने के प्रेम में होती। लड़की पौलक को देखती रहती अपलक। उसकी आँखों में मुखर हो जाते चुप पेंटिंग के कितने सारे तो रंग। सारे सारे रंग। लड़की देखती आसमान। लड़की पहचानती नीले और गुलाबी के शेड्स। शहर की सड़कों के नाम। ट्रेन स्टेशन पर खो जाती लेकिन घबराहट में पागल हो जाने के पहले उसे तलाश लेता वो लड़का कि जिसे शहर याद होता पूरा पूरा। लड़की ट्रेन में सुनाती क़िस्सा। मौने के प्रेम में होने को, कि जैसे भरे शहर में कोई नज़र खींचती है अपनी ओर, वैसे ही मौने की पेंटिंग बुलाती है उसे। बिना जाने भी खिंचती है उधर।

कुछ भी नहीं दुखता उन दिनों। सब अच्छा होता। शहर। शहर के लोग। मौसम। कपड़े। सड़क पर मिलते काले दुपट्टे। पैरों की थकान। गर्म पानी। प्रसाद में सिर्फ़ कॉफ़ी में डालने वाली चीनी फाँकते उसके कृष्ण भगवान।

शहर बसता जाता लड़की में और लड़की छूटती जाती शहर में। लौट आने के दिन लड़की एक थरथराहट होती। बहुत ठंढी रातों वाली। दादी के गुज़र जाने के बाद ट्रेन से उसका परिवार गाँव जा रहा था। बहुत ठंढ के दिन थे और बारिश हो रही थी। खिड़की से घुसती ठंढ हड्डियों के बीच तक घुस जा रही थी। वही ठंढ याद थी लड़की को। उसकी उँगलियों के पोर ठंढे पड़ते जाते। लड़की धीरे धीरे सपने से सच में लौट रही होती। कहती उससे, मेरे हाथ हमेशा गरम रहते थे। हमेशा। कितनी भी ठंढ में मेरे हाथ ठंढे नहीं पड़ते। लेकिन जब से माँ नहीं रही, पता नहीं कैसे तो मेरी हथेलियाँ एकदम ठंढी हो जाती हैं।

शहर को अलविदा कहना मुश्किल नहीं था। शहर वो सब कुछ हुआ था उसके लिए जो कि होना चाहिए था। लड़की लौटते हुए सुख में थी। जैसे हर कुछ जो चाहा था वो मिल गया हो। कोई दुःख नहीं छू पा रहा था उसकी हँसती हुयी आँखें। उसके खुले बालों से सुख की ख़ुशबू आती थी।

लौट आने के बाद शहर गुम होने लगा। लड़की कितना भी शहर के रंग सहेज कर रखना चाहती, कुछ ना कुछ छूट जाता। मगर सबसे ज़्यादा जो छूट रहा था वो कोई एक सपने सा लड़का था कि जिसे छू कर शिनाख्त करने की ख़्वाहिश थी, कि वो सच में था। हम अपने अतीत को लेकिन छू नहीं सकते। आँखों में रीप्ले कर सकते हैं दुबारा।

सुख ने कहा था कि दुःख आएगा। मगर इस तरह आसमान भर दुःख आएगा, ये नहीं बताया था उसने। लड़की समझ नहीं पाती कि हर सुख आख़िरकार दुःख में कैसे मोर्फ़ कर जाता है। दुःख निर्दयी होता। आँसुओं में उसे डुबो देता कि लड़की साँस साँस के लिए तड़पती। लड़की नहीं जानती कि उसे क्या चाहिए। लड़की उन डेढ़ दिनों को भी नहीं समझ पाती। कि कैसे कोई भूल सकता है जीवन भर के दुःख। अभाव। मृत्यु। कि वो कौन सी टूटन थी जिसकी दरारों में शहर सुनहले बारीक कणों की तरह भर गया है। जापानी फ़िलोस्फी - वाबी साबी - किंतसुगी। कि जिससे टूटन अपने होने के साथ भी ख़ूबसूरत दिखे।

महीने भर बाद जब हॉस्पिटल की पहली ट्रिप लगी तो औरत के पागलपन, तन्हाई और चुप्पी ने पूरा हथियारबंद होकर सुख के उस लम्हे पर हमला किया। नाज़ुक सा सुख का लम्हा था। अकेला। टूट गया। लड़की की उँगलियों में चुभे सुख के टुकड़े आँखों को छिलने लगे कि जब उसने आँसू पोंछने चाहे।

उसने देखा कि शहर ने उसे बिसार दिया है। कि शहर की स्मृति बहुत शॉर्ट लिव्ड होती है। औरत अपने अकेलेपन और तन्हाई से लड़ती हुयी भी याद करना चाहती सुख के किसी लम्हे को। लौट लौट कर जाना और लम्हे को रिपीट में प्ले करना उसे पागल किए दे रहा था। कई किलोमीटर गाड़ी बहुत धीरे चलाती हुयी औरत घर आयी और बिस्तर पर यूँ टूट के पड़ी कि बहुत पुराना प्यार याद आ गया। मौत से पहली नज़र का हुआ प्यार।

उसे उलझना नहीं चाहिए था लेकिन औरत बेतरह उलझ गयी थी। अतीत की गांठ खोल पाना नामुमकिन था। लम्हा लम्हा अलगा के शिनाख्त करना भी। सब कुछ इतने तीखेपन से याद था उसे। लेकिन उसे समझ कुछ नहीं आ रहा था। वो फिर से भूल गयी थी कि ज़िंदगी उदार हो सकती है। ख़्वाहिशें पूरी होती हैं। बेमक़सद भटकना सुख है। एक मुकम्मल सफ़र के बाद अलविदा कहना भी सुख है।

हॉस्पिटल में बहुत से नवजात बच्चे थे। ख़बर सुन कर ख़ुशी के आँसू रोते परिवार थे। औरत ख़ुद को नीले कफ़न में महसूस कर रही थी। उसे इंतज़ार तोड़ रहा था। दस साल से उसके अंदर किसी अजन्मे बच्चे का प्रेम पलता रहा था। दुःख की तरह। अफ़सोस की तरह। छुपा हुआ। कुछ ऐसा कि जिसकी उसे पहचान तक नहीं थी।

आख़िरकार वो खोल पायी गुत्थी कि सब इतना उलझा हुआ क्यूँ था। कि एक शादीशुदा औरत के प्यार पर बहुत से लोगों का हिस्सा होता है। उसका ख़ुद का पर्सनल कुछ भी नहीं होता। प्यार करने का, प्यार पाने का अधिकार होता है। कितने सारे रिश्तों में बँटी औरत। सबको बिना ख़ुद को बचाए हुए, बिना कुछ माँगे हुए प्यार करती औरत के हिस्से सिर्फ़ सवाल ही तो आते हैं। ‘ख़ुशख़बरी कब सुना रही हो?’ । सिवा इस सवाल के उसके कोई जवाब मायने नहीं रखते। उसका होना मायने नहीं रखता। वो सिर्फ़ एक औरत हो जाती है। एक बिना किनारे की नदी।

बिना माँ की बच्ची। बिना बच्चे की माँ।

दादी जैसा जीवन उसने नहीं जिया था कि सुख से छलकी हुयी किसी बच्चे की मुट्ठी पर अठन्नी धर सके लेकिन अपना पूरा जीवन खंगाल के उसने पाया कि एक प्यार है जो उसने अपने आँचर की गाँठ में बाँध रखा है। इस प्यार पर किसी का हिस्सा नहीं लिखाया है। किसी का हक़ नहीं।

वो सकुचाते हुए अपनी सूती साड़ी के आँचल से गांठ खोलती है और तुम्हारी हथेली में वो प्यार रखती है जो इतने सालों से उसकी इकलौती थाती है।

वो तुम्हारे नाम अपने अजन्मे बच्चे के हिस्से का प्यार लिखती है।  

19 December, 2016

जो लिखनी थीं चिट्ठियाँ

मैं तुम्हारे टुकड़ों से प्यार करती हूँ। पूरा पूरा प्यार।

तुम्हारी कुछ ख़ास तस्वीरों से। तुम में कमाल की अदा है। तुम्हारे चलने, बोलने, हँसने में...तुम्हारे ज़िंदगी को बरतने में। तुम जिस तरह से सिर्फ़ कहीं से गुज़र नहीं जाते बल्कि ठहरते हो...तुम्हारे उस ठहराव से। इक तस्वीर में तुमने काला कुर्ता पहन रखा है। सर्दियों के दिन हैं, तुम्हारे गले में एक गहरा लाल पश्मीने का मफ़लर पड़ा हुआ है। ऐसी बेफ़िक्री से कि उसमें लय है। तुम थोड़ा झुक कर खड़े हो, तुम्हारे हाथ में कविता की एक किताब है। पढ़ते हुए अचानक जैसे तुमने खिड़की से बाहर देखा हो। मेट्रो अपनी रफ़्तार से भाग रही है लेकिन मैंने कैमरे में तुम्हारे चेहरे का वो ठहरा लम्हा पकड़ लिया है। तुम प्रेम में हो। मेट्रो की खिड़की के काँच पर तुम्हारा अक्स रिफ़्लेक्ट हो रहा है...तुम अपने चेहरे को आश्चर्य से देख रहे हो कि जैसे तुम्हें अभी अभी पता चला है कि तुम प्रेम में हो। तुम थोड़ा सा लजाते हो कि जैसे कोई तुम्हारे चेहरे पर उसका नाम पढ़ लेगा। ये तुम्हारे साथ कई बार हो चुका है। मगर तुम्हें यक़ीन नहीं होता कि फिर होगा। उतनी ही ताज़गी के साथ। दिल वैसे ही धड़केगा जैसे पहली बार धड़का था। तुम ख़ुद को फिर समझा नहीं पाओगे। ये सब कुछ एक तस्वीर में होगा। उस तस्वीर से मुझे बेतरह प्यार होगा। बेतरह। 

तुम्हारी लिखी एक कहानी है। किताब में मैंने गहरे लाल स्याही से underline कर रखा है। उस पंक्ति पर कई बार आते हुए सोचती हूँ उस औरत के बारे में जिसके लिए तुमने वो पंक्ति लिखी होगी। मैं लिखना चाहती हूँ वैसा कुछ तुम्हारे लिए। जिसे पढ़ कर कोई तुम्हें जानने को छटपटा जाए। कोई पूछे कि मैंने वाक़ई कभी तुम्हारे साथ ऐबसिन्थ पी भी है या यूँ ही लिख दिया है। काँच के ग्लास में ऐबसिन्थ का हरा रंग है। सामने कैंडिल जल रही है। मैंने तुम्हारी किताब से प्यार करती हूँ। बहुत सा। कुछ लाल पंक्तियों के सिवा भी। कि उन पंक्तियों का स्वतंत्र वजूद नहीं है। वे तुम्हारी किताब में ही हो सकती थीं। तुम्हारे हाथ से ही लिखा सकती थीं। वे पंक्तियाँ शायद कालजयी पंक्तियाँ हैं। 'I love you' की तरह। सालों साल प्रेमी जोड़े एक दूसरे से कुछ शब्दों के हेरफेर में ऐसा ही कुछ कहते आ रहे हैं। किसी और ने कही होती ऐसी पंक्तियाँ तो मुझ पर कोई असर ना होता। लेकिन तुम्हारे शब्द हैं इसलिए इतना असर करते हैं। 

तुम्हारे पर्फ़्यूम से। मैंने एक बार यूँ ही पूछा था तुमसे। तुम कौन सा पर्फ़्यूम लगाते हो। मैं उस रोज़ मॉल में गयी थी और एक टेस्टिंग पेपर पर मैंने पर्फ़्यूम छिड़क कर देखा था। कलाई पर रगड़ कर भी। उसके कई दिनों बाद तक वो काग़ज़ का टुकड़ा मेरे रूमाल के बीच रखा हुआ करता था। तुमसे गले लगने के बाद मुझे ऐसा लगता है तुम्हारी भीनी सी ख़ुशबू मेरे इर्द गिर्द रह गयी है। मुझे उन दिनों ख़ुद से भी थोड़ा ज़्यादा सा प्यार होता है। तुम्हें मालूम है, मैं तुमसे कस के गले नहीं लगती। लगता है, थोड़ी सी रह जाऊँगी तुम्हारे पास ही। लौट नहीं पाऊँगी वहाँ से। 

मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारे अधूरेपन से प्यार है। 

ये मुझे विश्वास दिलाता है कि कहीं मेरी थोड़ी सी जगह है तुम्हारी ज़िंदगी में। उस आख़िरी पज़ल के टुकड़े की तरह नहीं बल्कि यूँ ही बेतरतीब खोए हुए किसी टुकड़े की तरह। किसी भी नोर्मल टुकड़े की तरह। जो कहीं भी फ़िक्स हो सकता है। किसी कोरे एकरंग जगह पर। चुपचाप। 

01 August, 2014

पगला गए होंगे जो ऐसा हरपट्टी किरदार सब लिखे हैं

मेरी बनायी दुनिया में आजकल हड़ताल चल रही है. मेरे सारे किरदार कहीं और चले गए हैं. कभी किसी फिल्म को देखते हुए मिलते हैं...कभी किसी किताब को पढ़ते हुए कविता की दो पंक्तियों के पीछे लुका छिपी खेलते हुए. कसम से, मैंने ऐसे गैर जिम्मेदार किरदार कहीं और नहीं देखे. जब मुझे उनकी जरूरत है तभी उनके नखरे चालू हुए बैठे हैं. बाकी किरदारों का तो चलो फिर भी समझ आता है...कौन नहीं चाहता कि उनका रोल थोड़ा लम्बा लिखा जाए मगर ऐसी टुच्ची हरकत जब कहानी के मुख्य किरदार करते हैं तो थप्पड़ मारने का मन करता है उनको...मैं आजकल बहुत वायलेंट हो गयी हूँ. किसी दिन एक ऐसी कहानी लिखनी है जिसमें सारे बस एक दूसरे की पिटाई ही करते रहें सारे वक़्त...इसका कोई ख़ास कारण न हो, बस उनका मूड खराब हो तो चालू हो जाएँ...मूड अच्छा हो तो कुटम्मस कर दें. इसी काबिल हैं ये कमबख्त. मैं खामखा इनके किरदार पर इतनी मेहनत कर रही हूँ...किसी काबिल ही नहीं हैं.

सोचो, अभी जब मुझे तुम्हारी जरूरत है तुम कहाँ फिरंट हो जी? ये कोई छुट्टी मनाने का टाइम है? मैंने कहा था न कि अगस्त तक सारी छुट्टियाँ कैंसिल...फिर ये क्या नया ड्रामा शुरू हुआ है. अरे गंगा में बाढ़ आएगी तो क्या उसमें डूब मरोगे? मैं अपनी हिरोइन के लिए फिर इतनी मेहनत करके तुम्हारा क्लोन बनाऊं...और कोई काम धंधा नहीं है मुझे...हैं...बताओ. चल देते हो टप्पर पारने. अपनाप को बड़का होशियार समझते हो. चुप चाप से सामने बैठो और हम जो डायलाग दे रहे हैं, भले आदमी की तरह बको...अगले चैप्टर में टांग तोड़ देंगे नहीं तो तुम्हारा फिर आधी किताब में पलस्तर लिए घूमते रहना, बहुत शौक़ पाले हो मैराथन दौड़ने का. मत भूलो, तुम्हारी जिंदगी में मेरे सिवा कोई और ईश्वर नहीं है...नहीं...जिस लड़की से तुम प्यार करते हो वो भी नहीं. वो भी मेरा रचा हुआ किरदार है...मेरा दिल करेगा मैं उसके प्रेम से बड़ी उसकी महत्वाकांक्षाएं रख दूँगी और वो तुम्हारी अंगूठी उतार कर पेरिस के किसी चिल्लर डिस्ट्रिक्ट में आर्ट की जरूरत समझने के लिए बैग पैक करके निकल जायेगी. तुम अपनी रेगुलर नौकरी से रिजाइन करने का सपना ही देखते रह जाना. वैसे भी तुम्हारी प्रेमिका एक जेब में रेजिग्नेशन लेटर लिए घूमती है. प्रेमपत्र बाद में लिखना सीखा उसने, रेजिग्नेशन लेटर लिखना पहले.

कौन सी किताब में पढ़ के आये हो कि मैंने तुम्हें लिखा है तो मुझे तुमसे प्यार नहीं हो सकता? पहले उस किताब में आग लगाते हैं. तुमको क्या लगता है, हीरो तुम ऐसे ही बन गए हो. अरे जिंदगी में आये बेहतरीन लोगों की विलक्षणता जरा जरा सी डाली है तुममें...तुम बस एक जिगसा पजल हो जब तक मैं तुममें प्राण नहीं फूँक देती...एक चिल्लर कोलाज. तुम्हें क्या लगता है ये जो परफ्यूम तुम लगाते हो, इस मेकर को मैंने खुद पैदा किया है? नहीं...ये उस लड़के की देहगंध से उभरा है जिसकी सूक्ष्म प्लानिंग की मैं कायल हूँ. शहर की लोड शेडिंग का सारा रूटीन उसके दिमाग में छपा रहता था...एक रोज पार्टी में कितने सारे लोग थे...सब अपनी अपनी गॉसिप में व्यस्त...इन सबके बीच ठीक दो मिनट के लिए जब लाईट गयी और जेनरेटर चालू नहीं हुआ था...उस आपाधापी और अँधेरे में उसने मुझे उतने लोगों के बावजूद बांहों में भर कर चूम लिया था...मुझे सिर्फ उसकी गंध याद रही थी...इर्द गिर्द के शोर में भोज के हर पकवान की गंध मिलीजुली थी मगर उस एक लम्हे उसके आफ्टरशेव की गंध...और उसके जाने के बाद उँगलियों में नीम्बू की गीली सी महक रह गयी थी, जैसे चाय बनाते हुए पत्तियां मसल दी हों चुटकियों में लेकर...कई बार मुझे लगता रहा था कि मुझे धोखा हुआ है...कि सरे महफ़िल मुझे चक्कर आया होगा...कि कोई इतना धीठ और इतना बहादुर नहीं हो सकता...मगर फिर मैंने उसकी ओर देखा था तो उसकी आँखों में जरा सी मेरी खुशबू बाकी दिखी थी. मुझे महसूस हुआ था कि सब कुछ सच था. मेरी कहानियों में लिखे किरदार से भी ज्यादा सच.

गुंडागर्दी कम करो, समझे...हम मूड में आ गए तो तीया पांचा कर देंगे तुम्हारा. अच्छे खासे हीरो से साइडकिक बना देंगे तुमको उठा के. सब काम तुम ही करोगे तो विलेन क्या अचार डालेगा?अपने औकात में रहो. ख़तम कैरेक्टर है जी तुमरा...लेकिन दोष किसको दें, सब तो अपने किया धरा है. सब बोल रहा था कि तुमको बेसी माथा पर नहीं चढ़ाएं लेकिन हमको तो भूत सवार था...सब कुछ तुम्हारी मर्जी का...अरे जिंदगी ऐसी नहीं होती तो कहानी ऐसे कैसे होगी. कल से अगस्त शुरू हो रहा है, समझे...चुपचाप से इमानदार हीरो की तरह साढ़े नौ बजे कागज़ पर रिपोर्ट करना. मूड अच्छा रहा तो हैप्पी एंडिंग वाली कहानी लिख देंगे. ठीक है. चलो चलो बेसी मस्का मत मारो. टेक केयर. बाय. यस आई नो यू लव मी...गुडनाईट फिर. कल मिलते हैं. लेट मत करना.

30 July, 2014

Je t'aime जानेमन


लड़की ने आजकल चश्मे के बिना दुनिया देखनी शुरू कर दी है जरा जरा सी. यूँ पहले पॉवर बहुत कम होने के कारण उसे चश्मा लगाने की आदत नहीं थी मगर जब से दिल्ली में गलत पॉवर लगी और माइनस टू पर पॉवर टिकी है उसका बिना चश्मे के काम नहीं चलता. यूँ भी चश्मा पहनना एक आदत ही है. जानते हुए भी कि हमें सब कुछ नहीं दिख सकता. मायोपिक लोगों को तो और भी ज्यादा मुश्किल है...आधे वक़्त पूछते रहेंगे किसी से...वो जो सामने लाइटहाउस जैसा कुछ है, तुम्हें साफ़ दिख रहा है क्या...अच्छा, क्या नहीं दिख रहा...ओह...मुझे लगा मेरी पॉवर फिर बढ़ गयी है या ऐसा ही कुछ. 

लड़की आजकल अपने को थर्ड परसन में ही लिखती और सोचती भी है. उसका दोष नहीं है, कुछ नयी भाषाएँ कभी कभार सोचने समझने के ढंग पर असर डाल सकती हैं. जैसे उसने हाल में फ्रेंच सीखना शुरू किया है...उसमें ये नहीं कहते कि मेरा नाम तृषा है, फ्रेंच में ऐसे कहते हैं je m'appele trisha...यानि कि मैं अपने आप को तृषा बुलाती हूँ...वैसे ही सोचना हुआ न...कि मेरे कई नाम है, वो मुझे हनी बुलाता है, घर वाले टिन्नी, दोस्त अक्सर रेडियो कहते हैं मगर अगर मुझसे पूछोगे तो मैं खुद को तृषा कहलाना पसंद करुँगी. हमें कभी कभी हर चीज़ के आप्शन मिलते हैं...जैसे आजकल उसने चश्मा पहनना लगभग छोड़ दिया है. इसलिए नहीं कि उसे स्पाइडरमैन की तरह सब साफ़ दिखने लगा है...बल्कि इसलिए कि अब उसे लगता है कि जब दुनिया एकदम साफ़ साफ़ नहीं दिखती, बेहतर होती है. जॉगिंग
 करने के लिए वैसे भी चश्मा उतारना जरूरी था. एक तो पसीने के कारण नाक पर रैशेज पड़ जाते थे उसपर दौड़ते हुए बार बार चश्मा ठीक करना बेहद मुश्किल का काम था...उससे रिदम में बाधा आ जाती थी. मगर इन बहानों के पीछे वो सही कारण खुद से भी कह नहीं पा रही है... जॉगिंग करते हुए आसपास के सारे लोग घूरते हैं...चाहे वो सब्जी बेचने वाले लोग हों...पार्क के सामने ऑटो वालों का हुजूम. सब्जी खरीदने आये अंकल टाइप के लोग या बगल के घर में काम करते हुए मजदूर. सड़क पर जॉगिंग करती लड़की जैसे खुला आमंत्रण है कि मुझे देखो. चश्मा नहीं पहनने के कारण उसे उनके चेहरे नहीं दिखते, उनकी आँखें नहीं दिखतीं...चाहने पर भी नहीं. बिना चश्मे के उसके सामने बस आगे की डेढ़ फुट जमीन होती है. उससे ज्यादा कुछ नहीं दिखता. ऐसे में वो बेफिक्री से दौड़ सकती है. उसके हैडफ़ोन भी दुनिया को यही छलावा देने के लिए हैं कि वो कुछ सुन नहीं रही...जबकि असलियत में वो कोई गीत नहीं बजा रही होती है.

जॉगिंग के वक़्त दिमाग में कुछ ही वाक्य आ सकते हैं...तुम कर सकती हो...बस ये राउंड भर...अगला कदम रखना है बस...अपनी रिदम को सुनो...एक निरंतर धम धम सी आवाज होती है लय में गिरते क़दमों की...तुम फ्लूइड हो...बिलकुल पानी...तुम हवा को काट सकती हो. सोचो मत. सोचो मत. लोग कहते हैं कि जॉगिंग करने से उनके दिमाग में लगे जाले साफ़ हो जाते हैं. उस एक वक़्त उनके दिमाग में बस एक ही ख्याल आता है कि अगला स्टेप कैसे रखा जाए. लड़की ने हालाँकि खुद की सारी इन्द्रियों को बंद कर दिया है मगर उसका दिमाग सोचना बंद ही नहीं करता. उसने अपने कोच से बात की तो कोच ने कहा तुम कम दौड़ रही हो...तुम्हें खुद को ज्यादा थकाने की जरूरत है. तब से लड़की इतनी तेज़ भागती है जितनी कि भाग सकती है...लोगों के बीच से वाकई हवा की तरह से गुजरती है मगर दिमाग है कि खाली नहीं होता. उसे अभी भी किसी की आँखें याद रह गयी हैं...अलविदा कहते हुए किसी का भींच कर गले लगाना...बारिशों के मौसम में किसी को देख कर चेहरे पर सूरज उग आना...कितनी सारी तस्वीरें दिमाग में घूमती रहती हैं. उसे अपनी सोच को बांधना शायद कभी नहीं आएगा.

फ्रेंच की कुछ चीज़ें बेहद खूबसूरत लगी उसे...कहते हैं...tu me manque...you are missing from my life...मैं तुम्हें मिस कर रही हूँ जैसी कोई चीज़ नहीं है वहां...इस का अर्थ है कि मेरी जिंदगी में तुम्हारी कमी है...जैसे कि मेरी जिंदगी में आजकल यकीन की कमी है...उम्मीद की कमी है...सुकून की कमी है...और हाँ...तुम्हारी कमी है. इतना सारा फ्रेंच में कहना सीख नहीं पायी लड़की. उसके लिए कुछ और फैसले ज्यादा जरूरी थे. देर रात पैरों में बहुत दर्द होता है. नए इश्क में जैसा मीठा दर्द होता है कुछ वैसा ही. मगर जिद्दी लड़की है...कल फिर सुबह उठ कर जॉगिंग जायेगी ही...याद और भी बहुत कुछ आता है न...चुंगकिंग एक्सप्रेस का वो लड़का...जो कहता है कि दिल टूटने पर वो दौड़ने चला जाता है...जब बहुत पसीना निकलता है तो शरीर में आंसुओं के उत्पादन के लिए पानी नहीं रहता. लड़की की हमेशा भाग जाने की इच्छा थोड़ी राहत पाती है इस रोज रोज के नियमपूर्वक भागने से. बिना चश्मे के दौड़ते हुए टनल विजन होता है. आगे जैसे रौशनी की एक कतार सी दिखती है...और वहां अंत में हमेशा कोई होता है. पागल सा कोई...शाहरुख़ खान की तरह बाँहें खोले बुलाता है, सरसों के खेत में...वो भागती रहती है मगर रौशनी के उस छोर तक कभी पहुँच नहीं पाती. कभी कभी लगता है कि किसी दिन थक कर गिरने वाली होगी तो शायद वो दौड़ कर बांहों में थाम लेगा.

भाषाएँ खो गयी हैं और शब्द भी. अब उसे सिर्फ आँखों की मुस्कराहट समझ आती है...सीने पर हाथ रख दिल का धड़कना समझ आता है या फिर बीपी मशीन की पिकपिक जो उससे बार बार कहती है कि दिल को आहिस्ता धड़कने के लिए कहना जरूरी है...इतना सारा खून पम्प करेगा तो जल्दी थक जाएगा...फिर किसी से प्यार होगा तो हाथ खड़े कर देगा कि मुझसे नहीं हो पायेगा...फिर उसे देख कर भी दिल हौले हौले ही धड़केगा...लड़की दौड़ती हुयी उसकी बांहों में नहीं जा सकेगी दुनिया का सारा दस्तूर पीछे छोड़ते हुए....लेकिन रुको...एक मिनट...उसने चश्मा नहीं पहना है...लड़की को मालूम भी नहीं चलेगा कि वो इधर से गुजर गया है...ऐसे में अगर लड़के को वाकई उससे इश्क है तो उसका हाथ पकड़ेगा और सीने से लगा कर कहेगा...आई मिस यू जान...Tu me manques. मेरी जिंदगी में तुम मिसिंग हो. हालाँकि लड़की की डेस्टिनी लिखने वाला खुदा थोड़ा सनकी है मगर कभी कभी उसके हिस्से ऐसी कोई शाम लिख देगा. मैं इसलिए तो लड़की को समझा रही हूँ...इट्स आलराईट...उसे जोर से हग करना और कहना उससे...आई मिस्ड यू टू. बाकी की कहानी के बारे में मैं खुदा से लड़ झगड़ लूंगी...फिलहाल...लिव इन द मोमेंट. कि ऐसे लम्हे सदियों में एक बार आते हैं.
*photo credit: George

15 November, 2012

स्मोकिंग अंडरवाटर

एक डूबे हुए जहाज के तल में बैठी हूँ...एक कमरे भर ओक्सिजन है. शीशे के बाहर काली गहराई है. लम्हे भर पहले एक मिसाइल टकराई थी और पूरा जहाज डूबता चला गया है. पानी में कूदने का भी कोई फायदा नहीं होने वाला था...मुझे तैरना नहीं आता. मेरे पास एक पैकेट सिगरेट हैं...मैं लंग कैंसर होने के डर से मुक्त हूँ. देखा जाए तो डर बीमारी का नहीं मौत का था...लेकिन जब मौत सामने खड़ी है तो उससे डर नहीं लग रहा.

एक के बाद दूसरी सिगरेट जलती हूँ...कमरे की ऑक्सीजन को बिना शिकायत हम दोनों आधा आधा बाँट लेते हैं...मेरी पसंदीदा मार्लबोरो माइल्ड्स...सफ़ेद रंग के पैकेट पर लिखी चेतावनी को देखती हूँ...जिंदगी के आखिरी लम्हों में कविता सी लगती है...स्मोकिंग किल्स.

धुएं के छल्ले बनाना बहुत पहले सीख लिया था...छल्ला ऊपर की ओर जाता हुआ फैलता जाता है...मौत बाँहें पसार रही है. शीशे के बाहर कुछ नहीं दिखता...पूरे जहाज़ पर चीज़ें टूट-फूट रही होंगी...खारा पानी शक्ति-प्रदर्शन में लगा होगा. मैं कोई गीत गाने लगती हूँ...विरक्त सा कोई गीत है जो मुझसे कहता है कि दुनिया फानी है...न सही.

दोपहर एक दोस्त को फोन किया था डाइविंग जाने के पहले...कुछ जरूरत थी उसे...समझाया था ढंग से...फिर बिना मौसम की बात की थी...चिंता मत कर...पुल से कूदने के पहले तुझे फोन कर लूंगी. बचपन की दोस्त की याद ऐसे आती है  कि दरवाजा खोल कर समंदर में घुल जाने का दिल करने लगता है. मोबाईल में एक एसएमएस पड़ा है...तुम्हें समझ नहीं आता...नहीं कर सकता बात मैं तुमसे...व्यस्त हूँ. सोचती हूँ...मैं वाकई कितनी बेवक़ूफ़ हूँ कि मुझे समझ नहीं आता. देवघर का घर...झूला...मम्मी का बनाया हुआ केक याद आता है.

मुझे विदा कहना नहीं आता...जिंदगी एक्सीडेंट ही है...मौत का इतना तमाशा क्यूँ हो?

मैं उससे पहली बार मिली तो जाना था हम किसी के लिए बने होते हैं...जिन परीकथाओं के बारे में सोचा नहीं था उन पर यकीन करने का दिल किया था. मैं उसके बारे में नहीं लिखती...कभी नहीं...उसका नाम इतना पर्सनल लगता है कि धड़कनों को भी उसका नाम तमीज से लेने की हिदायत दे रखी है. उससे मिलने के बाद जाना था किसी के लिए जीना किसे कहते हैं...मेरे लिए हमेशा वो ही है...एक बस वो.

पूरी पूरी जिंदगी मौत के तैय्यारी हो या जीने का जश्न...फैसला हमेशा हमारे हाथ में नहीं होता...कमरे में ऑक्सीजन कम हो गयी है...सांस लेने में तकलीफ होने लगी है अब...ये आखिरी कुछ लम्हे हैं...मुझे सब याद आता है...उसकी जूठी सिगरेट...उससे कोई एक फुट छोटा होना...उसका कहना कि हंसती हो तो दिखता कैसे है...तुम्हारी आँखें इतनी छोटी हैं. आज बड़ी शिद्दत से वो दिन याद आ रहा है जब उससे पहली बार मिली थी. हर छोटी छोटी चीज़...खुशबुएँ...दिल्ली का कोहरा...मैगी...कॉफ़ी...फर का वो भूरा कोट...मेरा शॉल जो उसने भुला दिया.

सब कुछ रिवाईंड में चलता है...जिंदगी...इश्क...बचपना...और फिर सब कुछ भूल जाना...

03 May, 2012

सोचो...हम और तुम परपेंडिकुलर रेखाएं ही थे न?


कोम्पोजिशन...सबसे पहली चीज़ पढ़ाई जाती है फोटोग्राफी में. मुझे जिंदगी के बारे में भी पढ़ाना होता तो फोटोग्राफी के कम्पोजीशन से ही पॉइंटर्स उठाती. रूल ऑफ थर्ड्स कहता है कि कुछ भी एकदम बीच में मत रखो...इससे उसकी खूबसूरती घट जाती है...आँखों के भटकने देने को थोड़ी सी ब्रीदिंग स्पेस देनी चाहिए...मूल सब्जेक्ट के दायें, बाएं, ऊपर या नीचे...जहाँ भी तुम्हें सबसे अच्छा लगे...थोड़ी सी खाली जगह छोड़ दिया करो. कॉपी पर लिखते हुए भी हम हाशिया छोड़ते हैं...फिर रिश्तों में ये क्यूँकर चाह होने लगती है कि उसकी सारी जिंदगी मेरे इर्द गिर्द कटे? ईमानदारी से...ऐसा होना अप्राकृतिक है...किसी की जिंदगी का सेंटर होना चाहना ही नहीं चाहिए...बल्कि अगर जियोमेट्री में ही जाना है तो किसी की परिधि बनना बेहतर है...कि वो बाहर न जाने पाए...लौट लौट आये...हालाँकि ये भी बुरा लगता है सोच कर...शायद जियोमेट्री में कोई सही तुलना नहीं है रिश्तों की.

रूल ऑफ थर्ड्स...आँख को जितना दिखता है उससे चार रेखाएं गुज़रती हैं...दोनों पैरलल रेखाएं एक दूसरे के परपेंडिकुलर...सोचो...हम और तुम  परपेंडिकुलर रेखाएं ही थे न? कहीं सुदूर अंतरिक्ष में चलते हुए किसी एक बिंदु पर क्षण भर के लिए ही मिले और फिर अपने अलग अलग रस्ते...पर अलग रस्ते होने पर उस बिंदु की याद तो नहीं चली जाती...उस पॉइंट का होना तो नहीं चला जाता...यूँ तो ऐसे ही बिंदु पर एक्स एक्सिस, वाय एक्सिस और जेड एक्सिस मिलते हैं और हमारे संसार की रचना करते हैं...त्रिआयामी...तीनो प्लेन्स अपनी अपनी जगह होते हैं...पर एक बिंदु तो होता है जहाँ स्पेस-टाइम लाइन पर भी मिलना होता है- होना होता है.

मेरा शब्दों पर से विश्वास चला गया है...कुछ यूँ कि इधर बहुत दिनों से कुछ भी नहीं लिखा...न कॉपी पर, न कहीं ड्राफ्ट में, ना कहीं और...न दोस्तों से बातें की...ना कुछ पढ़ा...सब झूठ लगता है...सारी दुनिया फानी...पहले जब तकलीफ होती थी तो लिखने से थोड़ा आराम मिलता था...आजकल लिखने की इच्छा ही चली गयी है...एकदम बेज़ार...शब्द सारे दुश्मन नज़र आते हैं. परसों बुक लॉन्च था...अपनी लिखी किताब पहली बार हाथ में आई...अपना नाम देखा कवर पर...नाम में भी कोई अर्थ नहीं जान पड़ा. नोर्मल केस में सबको फोन करके बताती...खुश होती...दोस्तों को पार्टी देती. इस केस में...वीतराग...मन की ख़ामोशी सारी खुशियाँ लील जाती है.

जब पहली बार एसलआर कैमरे के व्यूफाईंडर से दुनिया देखी थी तो मन में आइडिया लगाना होता था कि इस रंगभरी दुनिया में कौन सा फ्रेम है जो ब्लैक एंड वाईट में अपनी खूबसूरती बरक़रार रखेगा. उस समय हमारे पास जो फिल्म थी वो ब्लैक एंड वाईट थी...तो इससे आदत हो गयी कि जब चाहूँ दुनिया को ग्रे के शेड्स में देख सकती हूँ...बहुत ज्यादा कंट्रास्टिंग चीज़ें पसंद आती हैं. गहरे शेड वाले लोग अच्छे लगते हैं कि धुलने के बाद उनकी फिल्म एकदम साफ़ आती है...पोजिटिव पर उभरते अक्स से आज भी प्यार होता है...पर निगेटिव को वालेट में जगह देती हूँ...दुनिया वाकई नेगेटिव जैसी ही है...जो जैसा दिखता है उसके उलट होता है...गुलमोहर सफ़ेद दिखते हैं और बारिशें काली.

सोच रही हूँ कुछ दिन फोटोग्राफी पर ध्यान दिया जाए...तसवीरें खामोश होती हैं...सबके पीछे एक कहानी होती है पर कहानी आपको खुद गढ़नी होती है...अब ऊपर की तस्वीर में ये कहाँ लिखा है कि ये कौन से तल्ले पर की आखिरी सीढ़ियाँ हैं और मन कहाँ से कूद कर जान दे देना चाहता था...मगर मन का मरना आसान है...उसे जिलाए रखना...मुश्किल. आज जैसा सर दर्द हो रहा है उसके लिए हिंदी में 'भीषण' और इंग्लिश में 'माइग्रेन' जैसा कोई शब्द होगा...मैंने अपने आप से परेशान हूँ कि मेरी चुप्पी भी शब्द मांगती है.

मैंने उसे अपने पाँव दिखाए...कि देखो मेरे पांवों में भँवरें हैं...मैं बहुत दूर देश तक घूमूंगी...उसने मेरे पांवों में बरगद के बीज रोप दिए...अब मैं जहाँ ठहरती हूँ मेरी जड़ें गहराने लगती हैं...जिस्म के हर हिस्से से जड़ें उगने लगती हैं...हर बार कहीं जाने में खुद को विलगाना होता है...तकलीफ होती है...मुझे सफ़र करना अच्छा लगता था मगर अब मेरा मन घर मांगने लगा है...एक ऐसी चीज़ जो मेरी नियति में नहीं लिखी है...हाथ की लकीरों में शरणार्थी लिखा है...विस्थापित होना लिखा है...भटकाव है...बंजारामिजाजी है...मन घर में बसता नहीं...और जिस्म की दीवारें उठ जाती हैं सरायखाना बनाने को. एक तार पर मन गाने लगा है, कैसा कच्चा गीत...मैं उलझन में हूँ...जानती भी हूँ कि मैं क्या चाहती हूँ!

15 April, 2012

अनलिखे की डायरी

डिस्क्लेमर: मुझे लिख के एडिट करना न आया है न आएगा...कुछ वाक्य थे जो सोने नहीं दे रहे थे...इनमें कोई काम की बात नहीं है...आप इस पोस्ट को पढ़ना स्किप कर सकते हैं.
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रतजगे का सोचना...इसे आधी रात का जागना भी नहीं कह सकते...आधी रात को तो मैं हमेशा नींद में होती हूँ...जाग जाती हूँ कुछ २ बजे से चार बजे के बीच. नींद मेरी हमेशा से कम रही है...बचपन से बहुत सारा पढ़ने की आदत और बहुत कुछ सकेर लेने का मोह. इधर इंटरव्यू में शायद किसी ने सवाल पूछा था...इतना सारा कुछ करने के लिए वक़्त कैसे निकाल लेती हो...और मेरा जवाब था...आई स्लीप लेस. यानि मैं कम सोती हूँ...चार से पांच घंटे हमेशा मेरे लिए काफी रहे हैं. स्कूल के दिनों में रात ग्यारह बारह तक सिलेबस पढ़ना होता था और उसके बाद एक दो घंटे अपने पसंद का कुछ...मुझे आज भी रात को बिना कुछ पढ़े नींद नहीं आती.

कोलेज में आकर तो और आदत ही हो गयी रात दो बजे सोने की...आदत दिल्ली तक बरकरार रही...उसपर सुबह छह से सात बजे तक हर हाल और हर मौसम में उठ जाने की भी आदत बनी रही. इधर तीन चार सालों से थोड़ा रूटीन भी गड़बड़ था और नींद भी ज्यादा आती थी. अभी फिर पिछले तीन चार महीनों से वही पहले वाला हाल...चार घंटे, पांच घंटे की नींद. कल रात भी कोई १२ बजे सोयी होउंगी...तीन बजे नींद खुल गयी...और कितना भी चाहूं नींद आएगी नहीं. 

सब अच्छा रहता और इतना दर्द न रहता तो हमेशा की तरह इस वक़्त तुम्हें एक चिट्ठी जरूर लिखती...ब्लॉग पर यूँ अलाय बलाय लिखने के बजाये या फिर लिखने के पहले...पर आजकल मुझे जाने क्या हो गया है...एक एक शब्द को पकड़ कर रखती हूँ. मुझे तुम्हारी बहुत याद भी आ रही है अभी...अकेले तुम्हारी नहीं, कुछ और अजीज दोस्तों की भी...तो कह सकती हूँ कि तुम्हारे लिए मेरे मन में कोई खास कोर्नर या कोना नहीं है जिसके लिए मैं या तुम परेशान होना चाहो. 

मुझे लिखे बिना रहना नहीं आता...मेरी आदत है...मुझे लोग बहुत समझाते हैं कि हर बात लिखनी नहीं चाहिए...कुछ मन में भी रखना चाहिए...उसे गुनना चाहिए...फिर जाके अच्छा लिखना होता है. इसी तरह लोग बोलने के बारे में भी समझाते हैं कि कभी चुप भी रहना चाहिए...मुझसे नहीं होता. मैं क्या करूँ...कितना चाहती हूँ हाथ रोकूँ...मुझसे होता नहीं...पर हर बार जब ये कोशिश करती हूँ मैं बेहद उदास हो जाती हूँ...कलम की सारी सियाही आँखों में बहने लगती है और फिर रात रात नींद नहीं आती. 

एक बार ऐसे ही उदासी में अनुपम से कह दिया था...राइटिंग इज अ कर्स टु मी...उसने बहुत डांटा था कि ऐसे कभी नहीं कहते...कि काश वो मेरी तरह होता...कि उसे एक लाइन लिखने में कितनी दिक्कत होती है, कितना सोचना होता है तब जा के लिखता है. मैं जब ऑफिस में थी तब भी ऐसी ही थी. उसने कहा कि उसके साथ जितने ट्रेनी लोगों ने काम किया है सिर्फ मैं ऐसी थी कि वो निश्चिंत रहता था कि बॉडी कॉपी अगले दिन तैयार रहेगी. परसों से अनुपम की बहुत याद आ रही है...और ऐसा हो जा रहा है कि उससे बात करने का टाइम नहीं मिल पा रहा. जब मैं फ्री रहती हूँ वो नहीं रहता...जब वो फ्री रहता है मैं नींद में बेहोश. अभी सोच रही थी कि मंडे को उसे चिट्ठी लिखूंगी...बहुत दिन हो गए. 
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बहुत चाह रही हूँ कि सोचूँ उसके शब्दों के बारे में...मगर आज ही पहली बार तस्वीर देखी है और बाकी शब्द धुंधलाते दिख रहे हैं...मन एक ही बात पर अटका है...कवि कितना खूबसूरत है...बेहद से भी ज्यादा. दुनिया की फिलोसफी मुझे कभी जमी नहीं...मेरे जिंदगी के अपने फंडे रहे हैं...तो मन की खूबसूरती जैसी बकवास बातों पर कभी मेरा यकीन नहीं रहा...ये और बात है कि दोस्त हमेशा कहते थे कि तेरी खूबसूरती का पैमाना बायस्ड है. मुझे जो लोग अच्छे लगते हैं वो मुझे खूबसूरत लगने लगते हैं, आम से लोग पर मुझसे सुनोगे कि वो कैसे दिखते हैं तो लगेगा दुनिया में उनसे अच्छा कोई है ही नहीं. 
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मैं बेहद थक गयी हूँ अब...बहुत साल हो गए मेरे नाम एक भी चिट्ठी नहीं आई...मैं यूँ तनहा दीवारों से बातें करते थक गयी हूँ...मैं तुम्हारे नाम लगातार चिट्ठियां लिखते लिखते थक गयी हूँ...पूरी पूरी जिंदगी मौत का इंतज़ार करते करते थक गयी हूँ. मैं दो ही चीज़ों से ओब्सेस्ड हूँ...जिंदगी और मौत. बार बार सोचती हूँ कि कोई तुम्हारे जैसा कैसे होता है...समझ नहीं आता...शायद मैं बहुत आत्मकेंद्रित हूँ कि मुझे अपने से अलग लोग समझ नहीं आते...मुझे लगता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि आपको किसी की याद आये और आप उसे बताएं नहीं...किसी से प्यार हो और उसी से छुपा ले जाएँ...किसी से प्यार ख़त्म हो चुका हो और झूठ उसे यकीन दिलाते जायें...कैसे जी लेते हैं लोग झूठ के मुखोटे में. 

मुझे किसी की याद आती है तो बता देती हूँ...किसी से प्यार होता है तो जता देती हूँ...कभी प्यार टूटता है तो समझा देती हूँ...किसी को भूल जाती हूँ तो माफ़ी मांग लेती हूँ...मुझे कॉम्प्लीकेटेड होना नहीं आता. पर आज तकलीफ है बहुत...बेहद...जिंदगी हम जैसे लोगों के लिए नहीं है...और मैं क्या करूँ कि मुझे तो झूठ का हँसना भी नहीं आता...तुमने बहुत हर्ट किया है मुझे...जितना मैं तुम्हें बताउंगी नहीं...और जितना मेरे शब्दों में खुल कर दिखता है उससे कहीं ज्यादा. 

पर मैं क्या करूँ...मैं ही कहती थी न...कोई आपको दुःख सिर्फ और सिर्फ तब पहुंचा सकता है जब वो आपसे प्यार करता हो...उलझी हूँ...कोई सुझा दे...गिरहें. 

07 April, 2012

तुम ठीक कहते थे...डायरियां जला देनीं चाहिए


मेरे साथ ऐसा बहुत कम बार होता है कि मेरा कुछ लिखने को दिल हो आये और मैं कुछ लिख नहीं पाऊं...कि ठीक ठीक शब्द नहीं मिल रहे लिखने को...कुछ लिखना है जो लिखा नहीं पा रहा है. जाने क्या कुछ लिख रही हूँ...कॉपी पर अनगिन पन्ने रंग चुकी हूँ...दिन भर ख्यालों में भी क्या क्या अटका रहता है...पर वो कोई एक ख्याल है कि पकड़ नहीं आ रहा है...फिसल जा रहा है हाथ से. 

जैसे कोई कहानी याद आके गुम गयी हो...जैसे किरदार मिलते मिलते बिछड़ जायें या कि जैसे प्यार हुआ हो पहली बार और कुछ समझ ना आये कि अब क्या होने वाला है मेरे साथ...मुझे याद आता है जब पहली बार एक लड़के ने प्रपोज किया था...एकदम औचक...बिना किसी वार्निंग के...बिना किसी भूमिका के...सिर्फ तीन ही शब्द कहे थे उसने...आई लव यू...न एक शब्द आगे...न एक शब्द पीछे...चक्कर आ गए थे. किचन में गयी थी और एक ग्लास पानी भरा था...पानी गले से नीचे ही नहीं उतर पा रहा था...जैसे भांग खा के वक़्त स्लो मोशन में गुज़र रहा हो. 

कुछ अटका है हलक में...और एकदम बेवजह सिगरेट की तलब लगती है...जिस्म पूरा ऐंठ जाता है...लगता है अब टूट जाएगा पुर्जा पुर्जा...लगता है कोई खोल दे...सारी गिरहें...सारी तहें. एक किताब हो जिसमें मेरे हर सवाल का जवाब मिल जाए...कोई कह दे कि अब मुझे ताजिंदगी किसी और से प्यार नहीं होगा...या फिर ऐसी तकलीफ नहीं होगी.

मैं बहुत कम लोगों को आप कहती हूँ...मुझे पचता ही नहीं...आप...जी...तहजीब...सलीका...नहीं कह पाती...फिर उनके नाम के आगे जी नहीं लगाती...जितना नाम है उसे भी छोटा कर देती हूँ...इनिशियल्स बस...हाँ...अब ठीक है. अब लगता है कि कोई ऐसा है जिससे बात करने के पहले मुझे कोई और नहीं बनना पड़ेगा...बहुत सी तसवीरें देखती हूँ...ह्म्म्म...मुस्कराहट तो बड़ी प्यारी है...बस जेठ के बादलों की तरह दिखती बड़ी कम है. वो मुझे बड़े अच्छे लगते हैं...कहती हूँ उनसे...आप बड़े अच्छे हो...सोचती हूँ कितना हँसता होगा कोई मेरी बेवकूफी पर...इतना खुलना कोई अच्छी बात है क्या...पर कुछ और होने में बहुत मेहनत है...अगर सच कहो और अपनी फीलिंग्स को न छुपाओ तो चीज़ें काफी आसान होती हैं...छुपाने में जितनी एनेर्जी बर्बाद होती है उसका कहीं और इस्तेमाल किया जा सकता है. 

दोस्त...तेरी बड़ी याद आ रही थी...कहाँ था तू...वो मेरी आवाज़ में किसी और को मिस करना पकड़ लेता है...पूछता है...फिर से याद आ रही है...मैं चुप रह जाती हूँ. उसे बहकाती हूँ...वो मुझे कुछ जोक्स सुनाता है...शायरी...ग़ालिब...फैज़...बहुत देर मेरी खिंचाई करता है...अपनी बातें करता है...पूछता है...तुझे मुझसे प्यार क्यूँ नहीं होता...तुझे मुझसे कभी प्यार होगा भी कि नहीं. मैं बस हंसती हूँ और मन में दुआ मांगती हूँ कि भगवान् न करे कि कभी मुझे तुझसे प्यार हो...उनकी बहुत बुरी हालत होती है जिनसे मुझे प्यार होता है...तू जानता है न...अपने जैसी सिंगल पीस हूँ...मुझे भुलाने के लिए किसी से भी प्यार करेगा तो भी भूल नहीं पायेगा...प्यार में कभी निर्वात नहीं हो सकता...किसी की जगह किसी और को आना होता है. 

वो कहती है...तू ऐसी ही रहा कर...प्यार में रहती है तो खुश रहती है...वो कोशिश करती है कि ऐसी कोई बात न कहे कि मुझे तकलीफ हो...मुझसे बहुत प्यार करती है वो, मेरी बहुत फ़िक्र करती है. मुझे यकीन नहीं होता कि वो मेरी जिंदगी में सच मुच में है. मुझे वैसे कोई प्यार नहीं करता...लड़कियां तो बिलकुल नहीं...मैं उससे कहती हूँ...मैं ऐसी क्यूँ हूँ...इसमें मेरी क्या गलती है...मैं तेरे जैसी अच्छी क्यों नहीं.

मेरा मन बंधता क्यूँ नहीं...क्या आध्यात्म ऐसी किसी खोज के अंत में आता है? पर मन नहीं मानता कि हिमालय की किसी कन्दरा में जा के सवालों के जवाब खोजूं...मन कहता है उसे देख लूं जिसे देखने को नींद उड़ी है...उससे छू लूं जिसकी याद में तेल की कड़ाही में ऊँगली डुबो दिया करती हूँ...उसे फोन कर लूं जिसकी आवाज़ में अपना नाम सुने बिना शाम गुज़रती नहीं...उसे कह दूं कि प्यार करती हूँ तुमसे...जिससे प्यार हो गया है. सिगरेट सुलगा लूं और पार्क की उस कोने वाली सीमेंट की सीढ़ियों पर बैठूं...एक डाल का टुकड़ा उठाऊँ और तुम्हारा नाम लिखूं...जो बस तब तक आँखों में दिखे जब तक लकड़ी में मूवमेंट है...
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मेरे सच और झूठ की दुनिया की सरहदें मिटने लगी हैं...मैं वो होने लगी हूँ जिसकी मैं कहानियां लिखती हूँ...मैं धीरे धीरे वो किरदार होने लगी हूँ जो मेरी फिल्म स्क्रिप्ट्स में कोमा में पड़ी है...न जीती है न मरती है. अनुपम ने मेरी हथेली देख कर कहा था कि मैं ८० साल तक जियूंगी...मैं जानती हूँ कि उसने झूठ कहा होगा...पक्का मैं जल्दी मरने वाली हूँ और उसने ऐसा इसलिए कहा था कि वो जानता है मैं उसकी बातों पर आँख मूँद के विश्वास करती हूँ...कि यमराज भी सामने आ जायें तो कहूँगी अनुपम ने कहा है कि मैं ८० के पहले नहीं मरने वाली. 

मुझमें मेरा 'मैं' कहाँ है...कौन है वो जो मुझसे प्यार में जान दे देने को उकसाता है...मेरे अन्दर जो लड़की रहती है उसे दुनिया दिखती क्यूँ नहीं...मैं बस इन शब्दों में हूँ...आवाज़ के चंद कतरों में हूँ...तुम कैसे जानते हो मैं कौन हूँ...वो क्या है जो सिर्फ मेरा है...तुमने मुझे छू के देखा है? तुम मुझे मेरी खुशबू से पहचान सकते हो? तुम्हें लगता है तुम मुझे जानते हो क्यूंकि तुम मुझे पढ़ते हो...मैं कहती हूँ कि तुमसे बड़ा बेवक़ूफ़ और कोई नहीं...लिखे हुए का ऐतबार किया? जो ये लिखती है मैं वो नहीं...मैं जो जीती हूँ वो मैं लिखती नहीं...आखिर कौन हूँ मैं...और कहाँ हो तुम...आ के मुझे अपनी बाँहों में भरते क्यूँ नहीं?

27 March, 2012

शाम से कहो दुबारा आये...और तुम भी.


एक मेरे न होने से कुछ नहीं बदलता...शाम मेरे घर के खाली कमरों में तब भी तुम्हारी आहटें ढूंढेगी...जब कि दूर मैं जा चुकी हूँ पर शाम तुम्हें मिस करेगी. मैं कोई उलाहना भी नहीं दे पाउंगी शाम को कि किसी दूसरे शहर में मुझे एक अजनबी शाम से करनी होगी दोस्ती...चाहना होगा जबरन कि उम्र भर के रास्ते साथ चलने वाले से प्यार कर लेने में ही सुकून और सलीका है.

नए शहर में होंगी नयी दीवारें जिन्होंने नहीं चखा होगा मेरे आंसुओं का स्वाद...जिनमें नहीं छिपी होगी सीलन...जो नहीं जानती होंगी सीने से भींच कर लगाना कि उनमें नहीं उगी होगी सोलह की उम्र से काई की परतें. दीवारें जो इश्क के रंग से होंगी अनजान और अपने धुल जाने वाले प्लास्टिक पेंट पर इतरायेंगी...वाटर प्रूफ दीवारें...दाग-धब्बों रहित...उनमें नहीं होगा चूने से कट जाने का अहसास...उन्हें नहीं छुआ होगा बारीक भुरभुरे चूने ने...उन्हें किसी ने बताया नहीं होगा कि सफ़ेद चूना पान के साथ जुबान को देता है इश्क जैसा गहरा लाल रंग...और कट जाती है जुबान इससे अगर थोड़ा ज्यादा पड़ गया तो...कि जैसे इश्क में...तरतीब से करना चाहिए इश्क भी. गुलाबी दीवारें इंतज़ार करेंगी कीलों का...उनपर मुस्कुराते लोगों की तस्वीरों का...कैलेण्डर का...इधर उधर से लायी शोपीसेस का...कुछ मुखोटे...कुछ नयी पेंटिंग्स का...दीवारों को मालूम नहीं होगा कि मैं घर में यादों के सिवाए किसी को रहने नहीं देतीं.

नयी शाम, नए दीवारों वाले घर में सहमे हुए उतरेगी...मेरी ओर कनखियों से ताकेगी कि जैसे अरेंज मैरेज करने गया लड़का देखता है अपनी होने वाली पत्नी को...कि उसने कभी उसे पहले देखा नहीं है...शाम की आँखों में मनुहार होगा...भय होगा...कि मुझे उससे प्यार हो भी या नहीं...बहुत सी अनिश्चितता होगी. मैं छुपी होउंगी किसी कोने में...वहां मिलती दोनों दीवारें आपस में खुस-पुस बातें करेंगी कि इस बार अजीब किरायेदार रखा है मकान मालिक ने...लड़की अकेली चली आई है इस शहर. मैं गीली आँखों के पार देखूंगी...इस घर को अभी सलीके से तुम्हारा इंतज़ार करना नहीं आता.


नयी सड़क पर निकलती हूँ...शाम भी दबे पाँव पीछे हो ली है...सोच रही है कि ऐसा क्या कहे जो इस मौन की दीवार को तोड़ सके...मैं शाम को अच्छी लगी हूँ...पर मैं सबको ही तो अच्छी लगती हूँ एक तुम्हारे सिवा...या ठहरो...तुम्हें भी तो अच्छी लगती थी पहले. वसंत के पहले का मौसम है...सूखे पत्ते गिर कर हमारे बीच कुछ शब्द बिखेरने की कोशिश करते हैं...पूरी सड़क पर बिखरे हुए हैं टूटे हुए, घायल शब्द...मरहमपट्टी से परे...अपनी मौत के इंतज़ार में...सुबह सरकारी मुलाजिम आएगा तो उधर कोने में एक चिता सुलगायेगा...तब जाकर इन शब्दों की रूह को चैन आएगा.

इस शहर के दरख़्त मुझे नहीं जानते...उनके तने पर कच्ची हैण्डराइटिंग में नहीं लिखा हुआ है मेरा नाम...वो नहीं रोये और झगड़े है तुमसे...वो नहीं जानते हमारे किसी किस्से को...ये दरख़्त बहुत ऊँचे हैं...पहाड़ों से उगते आसमान तक पहुँचते...इनमें बहुत अहंकार है...या ये भी कह सकते हो कि इन बूढ़े पेड़ों ने बहुत दुनिया देखी है इसलिए इनमें और मुझमें सिर्फ जेनेरेशन गैप है...इतनी लम्बी जिंदगी में इश्क एक नामालूम चैप्टर का भुलाया हुआ पैराग्राफ है...फिर देखो न...इनके तने पर तो किसी ने भी कोई नाम नहीं लिखा है. शायद इस शहर में लोग प्यार नहीं करते...या फिर सलीके से करते हैं और अपने मरे हुए आशिकों के लिए संगेमरमर के मकबरे बनवाते हैं...या फिर उनके लिए गज़लें लिखते हैं और किताब छपवाते हैं...या कि जिंदगी भर अपने आशिक के कफ़न पर बेल-बूटे काढ़ते हैं...इश्क ऐसे तमीजदार जगहों पर अपनी जगह पाता है.


मैं अपनी उँगलियाँ देखती हूँ...उनके पोर आंसुओं को पोछने के कारण गीले रहते रहते सिकुड़ से गए हैं...थोड़े सफ़ेद भी हो गए हैं...अब कलम पकड़ती हूँ तो लिखने में दर्द होता है. अच्छा है कि आजकल तुम्हें चिट्ठियां नहीं लिखती हूँ...मेरी डायरी तो कैसी भी हैण्डराइटिंग समझ जाती है. मंदिर जाती हूँ तो चरणामृत देते हुए पुजारी हाथ को गौर से देखता है...कहता है 'बेटा, इस मंदिर की अखंड ज्योति के ऊपर कुछ देर उँगलियाँ रखो...यहाँ के इश्वर सब ठीक कर देते हैं...बहुत अच्छे हैं वो'. मैं सर पर आँचल लेकर तुम्हारी उँगलियों के लिए कुछ मांग लेती हूँ...ताखे के ऊपर से थोड़ी कालिख उठाती हूँ और कहती हूँ कि इश्वर उसकी कलम में हमेशा सियाही रहे...उसकी आँखों में हमेशा रौशनी और उसके मन में हमेशा विश्वास कि साँस की आखिरी आहट तक मैं उससे प्यार करती रहूंगी.
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एक मेरे न होने से कुछ नहीं बदलता...इस घर ने अपनी आदतें कहाँ बदलीं...शाम घर की अनगिनत दीवारों को टटोलती हुयी मुझे ढूंढती रही और आखिर उसकी भी आँखें बुझ गयीं...बेरहम रात चाँद से ठिठोली करती है...चाँद का चौरस बटुआ खिड़की से अन्दर औंधे गिरा है...कुछ चिल्लर मुस्कुराहटें कमरे में बिखर गयी हैं...बटुए में मेरी तस्वीर लगी है...ओह...अब मैं समझी...तुम्हें चाँद से इर्ष्या थी...कि वो भी मुझसे प्यार करता है...बस इसलिए तुमने शाम से रिश्ता तोड़ लिया...मुझसे खफा हो बैठे...शहर से रूठ गए...मेरी जान...एक बार पूछा तो होता...उस चाँद की कसम...मैंने सिर्फ और सिर्फ तुमसे प्यार किया है...हर शाम इंतज़ार सिर्फ तुम्हारा था...चाँद का नहीं. मेरा प्यार बेतरतीब सही...बेवफा नहीं है...और तुम लाख समझदार समझ लो खुद को...इश्क के मामले में कच्चे हो...तुम्हारी कॉपी देखती हूँ तो उसमें लाल घेरा बना रखा है...और एक पूर्णिमा के चाँद सा जीरो आया है तुम्हें...मालूम क्यूँ...क्यूंकि तुम मुझसे दूर चले आये...मेरी कॉपी देखो...पूरी अंगडाई लेकर हाथ ऊपर की ओर बांधे तुम हो...एक चाँद, एक सूरज से दो गोल...पूरे १०० में १०० नंबर आये हैं मेरे.


चलो...कल से ट्यूशन पढने आ जाना मेरे शहर...ओके? मानती हूँ ये वाला तुम्हारे शहर से दूर बहुत है...पर गलती तुम्हारी है...मैं वापस नहीं जाने वाली...तुम्हें इश्क में पास होना है तो मुझसे सीखो इश्क करना...निभाना...सहना...और थोड़ा पागलपन सीखो मुझसे...कि प्यार में हमेशा जो सही होता है वो सही नहीं होता...कभी कभी गलतियाँ भी करनी पड़ती हैं...बेसलीका होना होता है...हारना होता है...टूटना होता है. मुश्किल सब्जेक्ट है...पर रोज शाम के साथ आओगे और दोनों गालों पर बोसे दोगे तो जल्दी ही तुम्हें अपने जैसा होशियार बना दूँगी...जब मेरी बराबरी के हो जाओगे तब जा के फिर से प्रपोज करना हमको...फिर सोचूंगी...तुम्हें हाँ कहूँ या न. 

26 March, 2012

सफर में खिलते याद के जंगली फूल

मैं कहाँ गयी थी और क्यों गयी थी नहीं मालूम...शायद घने जंगलों में जहाँ कि याद का कोई कोना नहीं खुलता तुम्हें बिसराने गयी थी...कि जिन रास्तों पर तुम्हारा साथ नहीं था...इन्टरनेट नहीं था...मोबाईल में तुम्हारी आवाज़ नहीं थी...हाथ में किसी खत की खुशबू नहीं थी...काँधे पर तुम्हारा लम्स नहीं था...जहाँ दूर दूर तक तुम नहीं थे...तुम्हें छोड़ आना आसान लगा.

मगर मैं क्या जानती थी...ठीक रात के साढ़े ग्यारह बजे जिस जंगल कॉटेज में ठहरी थी...वहां गुल हो जानी थी बत्तियां सारी की सारी और फिर बांस के झुरमुट के ऊपर उग आयेंगे अनगिनत तारे...कि जिनकी चमक ऐसी होगी जैसे चकित आँखों में तुम्हारी याद का एक लम्हा...मैंने इतने बड़े और इतने चमकीले तारे आखिरी बार मौसी की शादी में गाँव में देखे थे...आँगन में पुआल के  ऊपर सोये हुए. सब कुछ अँधेरा...एकदम खामोश और जंगल की अनगिनत आवाजें बुनने लगेंगी तुम्हारी आवाज़ का सम्मोहन...रिसोर्ट में एक पॉइंट था...सफ़ेद बोर्ड लगा हुआ...कि जहाँ एयरटेल का सिग्नल आता था...वहां भी नहीं खड़े हुए नेटवर्क के डंडे तो मैंने उम्मीद स्विच ऑफ़ कर दी...तुम्हारी आवाज़ ऐसे ही अनजानी धुन थी जंगल की जो अचानक किसी गहरी अँधेरी बिना चाँद रातों वाले समय सुनाई पड़ी थी...और जानती थी मैं कि ऐसी और कोई आवाज़ नहीं होगी कहीं.


पर मेरे दोस्त...तुम चिंता न करो...इस बार घने जंगलों में सूखा पड़ा था और बहुतेरे जानवर मर रहे थे प्यास से...इसलिए जंगल में निकलना डरावना नहीं था...दिन को सूखे पेड़ों में जलते हुए अंगारों के ऊपर से गुजरी और वहीं दीखते आसमानों के बीच एक पेड़ पर मन्नतों की तरह बाँध आई हूँ तुम्हारी आवाज़ का आखिरी कतरा. उसी पेड़ के नीचे की मिटटी में दबा आई हूँ तुम्हारी याद की पहली शाम. देखो क्या असर होता है दुआओं का...शायद खुदा सुन ले तो इस मॉनसून में इतनी बारिश हो कि पूरा जंगल एक हरी भूल भुलैय्या में बदल जाए...और तुम वाकई मुझसे खो जाओ...हमेशा के लिए.


बुझती रात का अलाव था जिसे हर कुछ देर में देनी पड़ती थी गत्ते के पंखे से हवा कि भड़क उठे लपटें और उसकी रौशनी में पढ़ सकूँ अपनी कॉपी में लिखा कुछ...अपने शब्दों में बारहा ढूंढती रही तुम्हारा नाम और कई बार ऐसा हुआ कि ठीक जिस लम्हे तुम नज़र आये मुस्कुराते हुए आग की लपटें दुबारा सो गयीं...एक हाथ से कॉपी को सीने से भींचे सोचती थी अगर बन्दर उठा ले गए ये कॉपी तो तुम्हें दुबारा कभी देख न पाउंगी. लिखती थी तुम्हारा नाम जंगल की न दिखने वाली जमीन पर...बांस की छोटी सी थी कलम...हाथों में. कि जितने ही गहरे उतरी सफारी लोगों की आँखें भय से चौड़ी होती गयीं...शेर की गंध सूंघते थे सड़क पार करते बारासिंघे...सोच रही थी अगर शेर दिख जाए तो ये उम्मीद जिलाई जा सकती है कि एक दिन ऐसा होगा कि मैं दूर सफ़र से घर पहुंचूं और इंतज़ार में तुम्हारी चिट्ठी हो...नेहभीगी. शेर नहीं दिखा.


सुनो दोस्त, मैंने तुम्हारी मासूम और नन्ही सी याद को किसी पेड़ के नीचे अकेले सोता छोड़ दिया है...कहानियों की उस दुष्ट जादूगरनी की तरह जो राजकुमारी को जंगल में छोड़ आती थी.
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ये सब तो झूठी मूठी कहानियां हैं...जाने दो...सच में क्या हुआ था वो भी लिखूंगी कभी...पर वो भूलती नहीं न...ये सब तो भूल जाती...मैं सफ़र को गयी थी...बिना मंजिल, बिना मकसद...आँख तक बिछती सड़कें थीं और रात तक खुलता आसमान...पहाड़ी के ऊपर वाले मंदिर में एक चापाकल लगा था...दोनों हाथों की ओक में जितना पानी भर सकती थी उतने में प्यास बुझती थी...जाने उतने ऊँचे पहाड़ पर पानी कहाँ से आता था...फिर सोचती हूँ बरबस तेज़ चलाती कार में मुस्कुराती हुयी...कि जहाँ तो मुझे खुद भी नहीं मालूम कि जा कहाँ रही हूँ...तुम्हारी याद किस जीपीएस से मुझे ढूंढ कर पहुँच जाती है?

20 March, 2012

दरख़्त के सीने में खुदे 'आई लव यू'

इससे अच्छा तो तुम मेरे कोई नहीं होते 
गंध...बिसरती नहीं...मुझे याद आता है कि जब उसके सीने से लगी थी पहली बार...उदास थी...क्यूँ, याद नहीं. शायद उसी दिन पहली बार महसूस हुआ था कि हम पूरी जिंदगी साथ नहीं रहेंगे. एक दिन बिछड़ना होगा...उसकी कॉटन की शर्ट...नयेपन की गंध और हल्का कच्चापन...जैसे आँखों में कपास के फूल खिल गए हों और वो उन फाहों को इश्क के रंग में डुबो रहा हो...गहरा लाल...कि जैसे सीने में दिल धड़कता है. आँखें भर आई थीं इसलिए याद नहीं कि उस शर्ट का रंग क्या था...शायद एकदम हल्का हरा था...नए पत्तों का रंग उतरते जो आखिरी शेड बचता है, वैसा. मैंने कहा कि ये शर्ट मुझे दे दो...उसने कहा...एकदम नयी है...सबको बेहद पसंद भी है...दोस्त और घर वाले जब पूछेंगे कि वो तो तुम्हारी फेवरिट शर्ट थी...कहाँ गयी तो क्या कहूँगा...मैंने कहा कि कह देना अपनी फेवरिट दोस्त को दे दिया...पर यु नो...दोस्त का इतना हक नहीं होता.
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तुम मुझे अपने घर में किरायेदार रख लो 
और फिर लौट आने को...मन की दीवार पर पेन्सिल से लिखा है...शायद अगली दीवाली में घर पेंट होगा तो इसपर भी एक परत गुलाबी रंग की चढ़ जायेगी...पर तब तक की इस काली लिखावट और उसके नीचे के तुम्हारे इनिशियल्स से प्यार किये बैठी हूँ. तुम्हें लगता है कि पेन्सिल से लिखा कुछ भी मिटाया जा सकता है...पागल...मन की दीवार पर कोई इरेजर नहीं चलता है...तुम्हें किसी ने बताया नहीं?
सुनती हूँ कि तुम्हारे घर में एक नन्हा सा तुम्हारा बेटा है...एक खूबसूरत बीवी है...बहुत सी खुशियाँ हैं...और सुना ये भी है कि वहां एक छोटा सा स्टडी जैसा कमरा खाली है...अच्छे भरे पूरे घर में खाली कमरा क्या करोगे...वहां उदासी आ के रहने लगेगी...या कि यादें ही अवैध कब्ज़ा कर के बैठ जायेंगी. इससे तो अच्छा मुझे अपने घर में किरायेदार रख लो...पेईंग गेस्ट यु सी. मेरा तुम्हारा रिश्ता...कुछ नहीं...अच्छा मकान मालिक वो होता है जो किरायेदार से कम से कम मेलजोल रखे.
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कितने में ख़रीदा है सुकून?
खबर मिली है कि पार्क की एक बेंच तुमने रिजर्व कर ली है...रोज वहां शाम को बैठ कर किसी लड़की से घंटों बातें करते हो. अब तो रेहड़ी वाले भी पहचानने लगे हैं तुम्हें...एकदम वक़्त से मुन्गोड़ी पहुंचा देते हैं और मूंगफली भी...और चिक्की भी...ऐसे मत कुतरो...किसी और का दिल आ गया तो इतनी लड़कियों को कैसे सम्हालोगे?
दिल्ली जैसे शहर में कुछ भी मुफ्त तो मिलता नहीं है. सुकून कितने में ख़रीदा वो तो बताओ...अच्छा जाने दो...उस पार्क के पुलिसवाले को कितना हफ्ता देते हो रोज़ वहां निश्चिंत बैठ कर लफ्फाजी करने के लिए. ठीक ठीक बता दो...मैं पैसे भिजवा दूँगी...किसी और से बात करने के लिए क्यूँ? खुश रहते हो उससे बात करके...ये भी शहर ने बता दिया है...अरे दिल्ली में मेरी जान बसती है...तुम में भी...तुम्हारा सुकून इतने सस्ते मिल रहा है...किसी और के खरीदने के पहले मैं खरीद लेती हूँ...आखिर तुम्हारा पहला प्यार हूँ.
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सारे तारे तुम्हारी तरफदारी करते हैं 

तुम तो बड़े वाले पोलिटिशियन निकले, सारे सितारों को अपनी साइड मिला लिया है...ऐसे थोड़े होता है. एक सूरज और एक चाँद...ऐसे तो मेरा केस बहुत कमजोर पड़ जाएगा...तुमसे हार जाने को तो मैं यूँ ही बैठी थी तुम खामखा के इतने खेल क्यूँ खेल रहे हो...जिंदगी भले शतरंज की बिसात हो...इतना प्यार करती हूँ कि हर हाल में तुमसे 'मात' ही मिलनी थी. चेकमेट क्यूँ...प्लेमेट क्यूँ नहीं...मुझे ऐसे गेम में हराने का गुमान पाले हुए हो कि जिसमें मेरे सारे मोहरे कच्चे थे. इश्क के मैदान में उतरो...शाह-मात जाने दो...गेम तो ऐसा खेलते हैं कि जिंदगी भर भूल न पाओ मुझे.
लोग एक चाय की प्याली में अपना जीवनसाथी पसंद कर लेते हैं...तुम्हारी तो शर्तें ही अजीब हैं...सारी चालें देख कर प्यार करोगे मुझसे?
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कैन आई काल यू 'हिकी'?
तुम्हारे दांतों से जो निशान बनते हैं उन्हें गिन कर मेरी सहेलियां अंदाज़ लगाती हैं कि तुम मुझसे कितना प्यार करते हो. अंदाज़ तो ये भी लगता है कि इसके पहले तुम्हारी कितनी गल्फ्रेंड्स रही होंगी...ये कोई नहीं कहता. हिकी टैटू की तरह नहीं होता अच्छा है...कुछ दिन में फेड हो जाता है. तुम्हारा प्यार भी ऐसा होगा क्या...शुरआत में गहरा मैरून...फिर हल्का गुलाबी...और एक दिन सिर्फ गोरा...दूधधुला...संगेमरमर सा कन्धा...अछूता...जैसे तुमने वाकई सिर्फ मेरी आत्मा को ज़ख्म दिए हों.
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उनींदी आँखों पर तुम्हारे अख़बार का पर्दा 
यु नो...आई यूज्ड तो हेट टाइम्स आफ इंडिया...पर ये तब तक था जब तक कि हर सुबह आँख खोलते ही उसके मास्टहेड की छाँव को अपनी आँखों पर नहीं पाती थी...तुम्हें आती धूप से उठना पसंद था...और मुझे आती धूप में आँखें बंद कर सोना...धूप में पीठ किये खून को गर्म होते हुए महसूसना...पर तुम्हारी शिकायत थी कि तुम्हें सुबह मेरा चेहरा देखना होता था...तो तुमने अख़बार की ओट करनी शुरू की.
आज अर्ली मोर्निंग शिफ्ट थी...सुबह एक लड़का टाइम्स ऑफ़ इण्डिया पढ़ रहा था...तुम्हें देखने की टीस रुला गयी...मालूम है...आज पहली बार अख़बार के पहले पन्ने पर तुम्हारी खबर आई थी...बाईलाइन के साथ...अच्छा तुम्हें बताया नहीं क्या...तुमसे ब्रेकऑफ़ के बाद मैंने टाइम्स ऑफ़ इण्डिया...सबस्क्राइब कर लिया था.
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सिक्स्थ सेन्स हैज नो कॉमन सेन्स 
मेरी छठी इन्द्रिय को अब तक खबर नहीं पहुंची है कि मैं और तुम अलग हो गए हैं...कि अब तुम्हारे लिए दुआएं मांगने का भी हक किसी और का हो गया है. किसी शाम तुम्हारा कोई दर्द मुझे वैसे ही रेत देता है जैसे तुम्हारे जिस्म पर बने चोट के निशान. मैं उस दोस्त क्या कहूँ जो मुझे बता रहा था कि पिछले महीने तुम्हरा एक्सीडेंट हुआ था...कह दूं कि मुझे मालूम है? वो जो तुम्हारी है न...उससे कहो कि तुम्हारा ध्यान थोड़ा ज्यादा रखे...या कि मैं फिर से तुम्हारा नाम अपनी दुआओं में लिखना शुरू कर दूं?
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आखिरी सवाल...डू यू स्टिल रिमेम्बर टू हेट मी?

28 January, 2012

दिल्ली- याद का अनुपम चैप्टर

picture courtesy: Ashish Shah
एक एकदम भिटकिन्नी सी शैतान थी वो...बहुत ही चंचल...पूरा घर उसे आँखों पर बिठाये रखता था मगर उस भिटकिनिया की जान बसती थी दादा में...देवघर के तरफ थोड़ा बंगाली कल्चर होने के कारण कुछ बच्चे अक्सर अपने बड़े भाई को दादा बोलते थे...खास तौर से जो सबसे बड़े भैय्या हुए उनपर ये स्टेटस खूब सूट करता था. तो उस भिटकिनिया का भी एक बड़ा भाई था...जिसपर वो जान छिड़कती थी. भाई भी कैसा...हमेशा उसे अपने साथ रखने वाला...और एक बार तो माँ से जिद्दी भी लड़ा बैठा था कि अपने साथ उसे स्कूल ले जाएगा...पर भिटकिनिया तो अभी बस दो साल की थी...अभी कैसे स्कूल जाती...और जाती भी तो करती क्या. दादा बहुत बोलता था कि मेरे पास बैठी रहेगी...थोड़ा सा पढ़ ही लेगी आगे का तो क्या हो जाएगा...पर घर वाले बड़े बेवक़ूफ़ थे...उन्हें समझ नहीं आता था कि भिटकिनिया को अभी से आगे के क्लास की पढाई पढ़ा देने में क्या फायदा है. इस बात से बेखबर वो उसे अपनी सारी किताबें दिए रहता था...अब भिटकिनिया उसमें लिखे कुछ या पेंटिंग करे इससे बेखबर. 

हाँ, एक जगह वो हमेशा भिटकिनिया को साथ लिए चलता था...उसे साथ वाले दोस्त के साथ गुल्ली खेलने की जगह...गुल्ली खेली है कभी? उसे अच्छी भाषा में कंचे कहते हैं...कांच की गोलियां...अलग अलग रंगों में...उन्हें धूप में उठाओ तो उनसे रौशनी आती दिखती है और बेहद खूबसूरत और जीवंत लगती है...भिटकिनिया को कांच के गुल्ली भरे मर्तबान से अपने पसंद की गुल्ली मिल जाती थी...उस समय गुल्ली पांच पैसे की पंद्रह आती थी...और गुल्ला पांच पैसे का पांच. गुल्ला होता भी तो था तीन कंचों के बराबर...उसी से गुल्ली पिलाई जाती थी. गुल्ला को अच्छी भाषा में डेढ़कंचा बोलते थे...पर ऐसी अच्छी भाषा बोलने वाले गुल्ली खेलते भी थे ये किसी को मालूम नहीं था. 

गुल्लियाँ हमेशा खो जाती थीं...और गुल्ला तो खैर...कितने भी बार खरीद लो उतने ही बार खो जाएगा...फिर हमारी भिटकिनिया और उसका फेवरिट दादा नुक्कड़ की दूकान पर...वैसे भिटकिनिया के पास बहुत सारी गुल्लियाँ थी...दादा ने जितनी गुल्लियाँ जीती थीं जब उसी की तो हो जातीं थी...मगर भिटकिनिया अपने खजाने से थोड़े न किसी को एक गुल्ली देती..उसके पास सब रंग की गुल्लियाँ थीं...हरी, लाल, काली, पीली, भूरी...पर उसका पसंदीदा था एक शहद के रंग का गुल्ला...हल्का भूरा...उसमें से सूरज की रौशनी सबसे सुन्दर दिखती थी उस छुटंकी को.
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रेडियो पूजा जारी था...दिल्ली की ट्रैफिक में...
पता है अनुपम...तुम्हारे बाद किसी के साथ काम करने में मन नहीं लगा...एकदम भी...और वो राजीव...ओफ्फो...फूटी आँख नहीं सुहाता था हमको...एक तो वो था होपलेस...वैसे भी किसी को बहुत मुश्किल होती तुम्हारे बाद मेरा बॉस बनने में...पर कोई अच्छा होता तो चल भी जाता...वो...सड़ियल... एकदम अच्छा नहीं लगता था उसके साथ काम करने में. इन फैक्ट तुम्हारे बाद कोई अच्छा मिला ही नहीं जिसके साथ ऑफिस में मज़ा आये...यू नो...अच्छा लगे...इतने साल हो गए...आठ साल...
यहाँ अनुपम मुझे टोकता है...कि आठ साल नवम्बर में होंगे...और मैं अपना रेडियो चालू रखती हूँ...२०१२ हो गए न...आठ साल अच्छा लगता है बोलने में...सात साल कहने में मज़ा नहीं आता...खैर जाने दो...तुम बात सुनो न मेरी...किसी के साथ ऑफिस में अच्छा ही नहीं लगता...तुम कितने कितने अवसम थे...कितने क्रिएटिव...और कितने अच्छे से बात करते थे हमसे...पता नहीं दुनिया के अच्छे लोग कहाँ चले गए...वैसे पता है इधर बहुत दिन बाद किसी के साथ काम करने में बहुत मज़ा आया...पता है अनुपम...उसकी आँखें भी भूरी हैं...ही हैज गॉट वैरी ब्यूटीफुल आईज...ब्राउन...तुम्हारी तरह...अनुपम बस हँसता है और मुझसे पूछता है...तुम्हें बचपन में कंचे बड़े पसंद रहे होंगे...मैं कहती हूँ हाँ...तुम्हें कैसे पता...वो कहता है...बस पता है...जैसे कि उसको बहुत कुछ पता है मेरे बारे में. 
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इसके बहुत दिन बाद...लगभग एक हफ्ते बाद...मैं उसे अपनी डायरी पढ़ के सुना रही हूँ...दिल्ली से प्लेन उड़ा तो बहुत रोई मैं...फिर कुछ कुछ लिखा...उसमें ऐसी ही एक कहानी भी थी...मैं फोन पर उससे पूछती हूँ 

'अनुपम, तुमने बचपन में कंचे खेले हैं कभी?'
'नहीं'
(मैं एकदम होपलेस तरीके में सर हिलाती हूँ...अनुपम तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता टाइप)'
'तब जाने दो तुम नहीं समझोगे'

फिर मैं उसे पहले समझाने की कोशिश करती हूँ कि गुल्ली क्या होती है...कैसे गुल्ले से गोटियाँ पिलाई जाती हैं...पूरा गेम समझाती हूँ उसको...फिर बोलती हूँ...पता है अनुपम...ये जो कहानी है न...इसमें मैं मैं होती और तुम वो लड़का होते और मैं अपनी छोटी सी हथेली फैला कर तुमसे कुछ मांगती न...तो तुम अपनी पॉकेट में से ढूंढ कर वो गुल्ला निकलते और मेरी हाथेली में रख कर मेरी मुट्ठी बंद कर देते. 

मैं वो ब्राउन कलर का गुल्ला अपनी पूरी जिंदगी उस छोटे से बक्से में महफूज़ रखती जिसमें बचपन के खजाने होते हैं...और शादी के बाद अपने साथ अपने घर ले आती...जिस दिन मायके की बहुत याद सताती उस गुल्ले को निकाल कर धूप में देख लेती और खूब खूब सारा खुश हो जाती. 
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दिल्ली से आये कुछ दिन गुज़रे हैं...मैं सोच रही हूँ कि एकदम ही बेवक़ूफ़ हूँ...पता है फिर से मेरे पास ऐसी कोई फोटो नहीं है जिसमें मैं तुम्हारे साथ में हूँ. अकेली अकेली वाली फोटो देखती हूँ और हंसती हूँ कि मैं कितनी खुश थी जो ढंग की एक फोटो नहीं खींच पायी....अगली बार तुमसे मिलूंगी तो तुम्हारी खूब अच्छी वाली फोटो लूंगी...मेरी दिल्ली के सबसे अच्छे चैप्टर...अनुपम...तुम्हारा खूब खूब सारा...शुक्रिया नहीं कहूँगी :) :)

13 January, 2012

उसे चाँद ने सबसे छुपा के गढ़ा था...

वो चाँद की एक ऐसी कला थी जिसे चाँद ने सबसे छुपा के गढ़ा था...अपनी बाकी कलाओं से भी...चांदनी से भी...लड़की नहीं थी वो...सवा सोलह की उम्र थी उसकी...सवा सोलह चाँद रातों जितनी.

उसे छुए बिना भी मालूम था  कि वो चन्दन के अबटन से नहाती होगी...चाँद पार की झीलों में...जबकि उसकी माँ उसकी आँखों में बिना काजल पारे उसे कहीं जाने नहीं देती होगी...माथे पर चाँद का ही नजरबट्टू लगाती थी...श्यामपक्ष के चाँद का. एक ही बार उसे करीब से देखा है...भोर के पहले पहर जंगल की किनारी पर चंपा के बाग़ में...मटमैले चंपा के फूल जमीन से उठा कर अपने आँचल में भरते हुए...चम्पई रंग की ही साड़ी में...चेहरे पर चाँद के परावर्तित प्रकाश से चमकती आँखें...सात पर्दों में छुपी...सिर्फ पलकों की पहरेदारी नहीं थी...उसकी आत्मा में झाँकने के लिए हर परदे के रक्षक से मिन्नतें करनी होंगी. 

कवि क्या किसी ने भी उसकी आवाज़ कभी नहीं सुनी थी...बातों का जवाब वो पलकें झपका के ही देती थी...हाँ भ्रम जरूर होता था...पूर्णिमा की उजास भरी रातों में जब चांदनी उतरती थी तो उसके एक पैर की पायल का घुँघरू मौन रहने की आज्ञा की अवहेलना कर देता था...कवि को लगता था की बेटी के लिए आत्मजा कितना सही शब्द है, वो चाँद की आत्मा से ही जन्मी थी. कई और भी बार कवि को उसकी आवाज़ के भ्रम ने मृग मरीचिका सा ही नींद की तलाश में रातों को घर से बाहर भेजा है. जेठ की दुपहर की ठहरी बेला में उस छोटे शहर के छोटे से कालीबाड़ी में मंदिर की सबसे छोटी घंटी...टुन...से बोलती है तो कवि के शब्द खो जाते हैं, उसे लगता है कि चाँद की बेटी ने कवि का नाम लिया है. 

मंदिर के गर्भगृह में जलते अखंड दिए की लौ के जैसा ठहराव था उसमें और वैसी ही शांत, निर्मल ज्योति...उस लौ को छू के पूजा के पूर्ण होने का भाव...शुद्ध हो जाने जैसा...ऐसी अग्नि जिसमें सब विषाद जल जाते हों. कवि ने एक बार उसे सूर्य को अर्घ्य देते हुए देखा था...उसकी पूर्णतयः अनावृत्त पीठ ने भी कवि में कोई कामुक उद्वेलन उत्पन्न नहीं किया...वो उसे निर्निमेष देखता रहा सिर्फ अपने होने को क्षण क्षण पीते हुए. 

पारिजात के फूलों सी मद्धम भीनी गंध थी उसकी...मगर उसमें से खुशबू ऐसी उगती थी कि जिस पगडण्डी से वो गुजरी होती थी उसके पांवों की धूल में पारिजात के नन्हे पौधे उग आते थे...श्वेत फूल फिर दस दिशाओं को चम्पई मलमल में पलाश के फूलों से रंग कर संदेशा भेज देते थे कि कुछ दिन चाँद की बेटी उनके प्रदेश में रहेगी.








कवि ने एक बार कुछ पारिजात के फूल तोड़ लिए थे...एक फूल को सियाही में डुबा कर चाँद की बेटी का नाम लिखा था काष्ठ के उस टुकड़े पर जिसपर वो रचनात्मक कार्य करता था...उसका नाम अंतस पर तब से चिरकाल के लिए अंकित हो गया है 'आहना'. 

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