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24 May, 2020

खो गयी चीज़ें और उनके नाम

दिल के भीतर चाहे जैसे भी रंग भरे हों, दिल की आउट्लायन दुःख के सीले स्याह से ही बनायी गयी है। जाने कैसी उदासी है जो रिस रिस के आँख भर आती है। कुछ दिन पहले पापा से बात कर रही थी, उन चीज़ों के बारे में जिनका नाम सिर्फ़ उन्हें पता है जिनके बचपन में वो शामिल रही हों। कई सारे खिलौने। 

अभी जब सब कुछ ही प्लास्टिक का होता है और छूने में एक ही जैसा लगता है। तब के इस खिलौने में कितनी चीज़ों का इस्तेमाल था। सन की रस्सी। पतली चमकदार जूट जिसे हिंदी में सन कहते हैं… गाँव के रास्ते कई जगह देखती थी सन को धूप में सुखाया जा रहा होता था और फिर उसकी बट के रस्सी बनायी जाती थी। इसके लिए एक लोहे का खूँटा गाड़ा गया होता था जिसमें से लपेट कर सन को ख़ूब उमेठ उमेठ कर रस्सी बनायी जाती थी। कुएँ का पानी खींचने के लिए सन की ही रस्सी होती थी। कभी मजबूरी में नारियल वाली रस्सी का भी इस्तेमाल देखा है, पर उस रस्सी से हाथ छिल जाते थे। सन की रस्सी चिकनी होती थी, हाथ से सर्र करके फिसलती थी तो भी हाथ छिलते नहीं थे। 

एक खिलौने में मिट्टी का सिकोरा और पहिए होते थे। काग़ज़ होता था। बाँस होता था। सबका अलग अलग हिस्सा, अलग अलग तासीर…सब कुछ जल्दी टूट जाने वाला। रस्सी से खींची जाने वाली आवाज़ करने वाली एक गाड़ी होती थी। मिट्टी का एक छोटा सिकोरा, उसके ऊपर पतला काग़ज़ जूट की पतली रस्सी से बँधा होता था। इसके ऊपर दो छोटी छोटी तीलियाँ होती थीं। एक छोटा सा ढोल जैसा बन जाता था। इसके मिट्टी के दो छोटे छोटे गोल पहिए होते थे और बाँस की दो खपचियाँ लगी होती थीं, जैसे कि कोई छोटी सी छकड़ागाड़ी हो। इसके आगे धागा बँधा होता था। मेले में अक्सर मिलता था। कभी कभी टोकरी में लेकर खिलौने वाले इसे बेचने घर घर भी आते थे। इसकी रस्सी पकड़ कर चलने से दोनों तीलियाँ ढोल पर बजने लगती थीं। एक टक-टक-टक जैसी आवाज़। छोटे बच्चों को ये ख़ूब पसंद होता था। मिट्टी का होता था, बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलता, कभी काग़ज़ फट जाता तो भी खिलौना बेकार हो जाता था। मेरे बचपन की याद में इस खिलौने की टिक-टिक-टिक-टिक भी है।

इसी तरह हाथ में पकड़ कर गोल गोल घुमाने वाला एक खिलौना होता था। उसमें गहरे गुलाबी रंग की प्लास्टिक की पन्नी लगी होती थी। जिसे हम रानीकलर कहते थे। इसे हाथ में लेकर बजाते थे। वही दो तीलियाँ होती थीं, एक लोहे का महीन तार होता था और कड़-कड़-कड़ जैसी आवाज़ होती थी।

गाँव में एक बड़ी सी अलमारी थी। गोदरेज की। उसमें जाने क्या क्या रखा रहता था। कभी कभी तो दही और दूध की हांडियाँ भी। बिल्ली से बचने की इकलौती महफ़ूज़ जगह होती होगी, शायद। मेरा कच्चा मकान था वहाँ, दो तल्लों का। पहले फ़्लोर पर जाने को मिट्टी की सीढ़ियाँ थीं। हम उन सीढ़ियों पर कितनी बार फिसल कर गिरे, लेकिन कभी भी चोट नहीं आयी। मिट्टी का आँगन गोबर से लीपा जाता, उसपर भी फिसल कर कई बार, कई लोग गिरे थे। हमारे चारों तरफ़ मिट्टी ही मिट्टी होती। पेड़ों पर, घरों की बाउंड्री वाल एक आसपास, खेत, गोहाल, घर…हम जहाँ भी गिरते, वहाँ मिट्टी ही होती अक्सर। मिट्टी में कभी ज़्यादा चोट नहीं आती। छिले घुटने और एड़ियों पर मिट्टी रगड़ ली जाती या हद से हद गेंदे के पत्तों को मसल कर उनका रस लगा लिया जाता। गिरने पड़ने की शिकायत घर पर नहीं की जाती, दर्द से ज़्यादा डाँट का डर होता। 

धान रखने के लिए मिट्टी की बनी ऊँची सी कोठी होती थी जिसके तीन पाए होते थे, जिसमें कई बार एक टूटा होता था। वहाँ धान निकालने के लिए जो छेद होता था उसमें कपड़े ठूँसे रहते थे। ताखे पर रखा छोटा सा आइना होता था जिसमें देख कर अक्सर बच्चे माँग निकालना सीखते थे या नयी बहुएँ बिंदी ठीक माथे के बीच लगाना। मैंने कभी चाची या दादी को आइना देखते नहीं देखा। वे बिना आइना देखे ठीक सीधी बीच माँग निकाल लेतीं, सिंदूर टीक लेतीं, बिंदी लगा लेतीं। उन्हें अपना चेहरा देखने की कोई ऐसी हुलस नहीं होतीं। आँगन के एक कोने में तुलसी चौरा था, भंसा के पास। मैं छोटी थी तो मुझे लगता था इसके ताखे के अंदर किसी भगवान की मूर्ति होगी। मेरी हाइट से दिखता नहीं था कि अंदर क्या है। 

शाम होते चूल्हा लगा दिया जाता। पूरे गाँव में कहीं से गुज़रने पर धुएँ की गंध आने लगती। कहीं लकड़ी तो कहीं कोयले पर खाना बनता। बोरे में कोयला रखा रहता और उसे तोड़ने के लिए एक हथौड़ा भी। खाने की दो तरह की अनाउन्स्मेंट होती। पहला हरकारा जाता कि पीढ़ा लग गया है। इसमें लकड़ी का पीढ़ा और पानी का गिलास भर के रख दिया जाता था। इस हरकारे को सुन कर खाने वाले लोग कुआँ पर हाथ मुँह धोने चले जाते थे। फिर दूसरा हरकारा जाता था कि खाना लग गया है, मतलब कि थाली लग गयी है और उसमें एक रोटी रख दी गयी है। तब लोग पीढ़ा पर आ के बैठते थे और खाना खाते थे। चाची वहीं चुक्कु मुक्कु बैठी मिट्टी वाले चूल्हे में गर्म गर्म रोटी बनाती जाती और देती जाती। एक आध लेफ़्टिनेंट बच्चा रहता नमक या मिर्ची का डिमांड पूरा करने के लिए। चाची के माथे तक खिंचा साड़ी का घूँघट रहता, कोयले की लाल दहक में तपा हुआ चेहरा। रोटी की गंध हवा में तैरती रहती।

गाँव में अब पक्का मकान बन गया है। खाना भी गैस पर बनता है। चाची अब नीचे बैठ कर नहीं बना सकती तो एक चौकी पर गैस रखा है और वो कुर्सी या स्टूल पर बैठ कर खाना बनाती हैं। तुलसी चौरा पर हनुमान जी की ध्वजा तो अब भी लगती है लेकिन परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने के कारण अब रामनवमी का त्योहार हमारे यहाँ नहीं मनाया जाता। मैं गाँव का मेला देखना चाहती हूँ। इन अकेले दिनों में। किसी बचपन में लौट कर।

09 October, 2017

ख़्वाब के हथकरघे पर बुनी हैंडलूम सूती साड़ी


मेरे पास बहुत सी सूती साड़ियाँ हैं जो मुझे बहुत पसंद हैं। पर सिर्फ़ मुझे ही। बाक़ी किसी को वे पसंद नहीं आतीं। मुझे कुछ ठीक नहीं मालूम कि मुझे वे इतनी क्यूँ पसंद हैं, एक तो उनका कॉटन बहुत अच्छा है। इन दिनों मुझे कपड़े उनकी छुअन से पसंद आते हैं। नेचुरल फैब्रिक उसपर हैंडलूम की साड़ियाँ। दो हज़ार के आसपास की फ़ैबइंडिया की हल्की, प्योर कॉटन साड़ियाँ। मुझे उनका नाम तो नहीं पता, बस ये है कि उन साड़ियों को देख कर विद्या सिन्हा की याद आती है। रजनीगंधा में कैसे अपना आँचल काँधे तक खींच रखा होता है उसने। उन साड़ियों से मुझे अपने गाँव की औरतें याद आती हैं। सिम्पल कॉटन की साड़ियाँ जो सिर्फ़ एक सेफ़्टी पिन पर पहन लेती हैं। जिनकी चूड़ियों में अक्सर कोई ना कोई आलपिन हमेशा रहता है।

वक़्त के साथ मेरा मन गाँव भागता है बहुत। इतना कि मैं समझा नहीं सकती किसी को भी।

तुमने वो घरोंदा का गाना सुना है, ‘मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है’? उसमें ज़रीना वहाब है और अमोल पालेकर। लेकिन यहाँ अमोल पालेकर बदमाशी भी करता है और शर्ट के बटन खोल कर लफुआ टाइप घूमता भी है। उसकी झालमुरी में मिर्ची डाल देता है, पानी पीते समय गिलास उढ़काता है अलग। सुनना वो गाना तुम। नहीं। माने सुनना नहीं, विडीओ देखना। बुद्धू। या उस दौर के बहुत से और गाने हैं। भले लोगों वाले। वो सुन लेना। मेरे लिए रूमान वहीं है, वैसा ही है। साड़ी में घूमती लड़की और साथ में कोई भला सा लड़का। लड़का कि जो हाथ पकड़ कर रोड क्रॉस करा दे। खो जाने पर तलाश ले भरे शहर की भीड़ में भी तुम्हें।

मैं तुमसे मिलने अपनी कोई कॉटन की साड़ी पहन कर आना चाहती हूँ। फिर हम चलेंगे साथ में छोटे छोटे सुख तलाशने कहीं। मुझे लगता है वो साड़ी पहनूँगी तो तुमको अच्छी लगेगी। तुम्हारा ध्यान भी जाएगा, शायद कोई कहानी भी हो तुम्हारे पास किसी साड़ी के मेहंदी रंग को लेकर। या की काँच की चूड़ियों की आवाज़ में घुलीमिली। हम लोग कितनी सुंदर चीज़ें भूलते जा रहे हैं, कि जैसे मैं बैठी हूँ रेलवे स्टेशन की किसी बेंच पर तुम्हारा इंतज़ार करते हुए। तुम पीछे से आकर चुपचाप से अपनी हथेलियाँ रख दो मेरी आँखों पर, मैं तुम्हारे हाथों की छुअन से तुम्हारी एक नयी पहचान चीन्हूँ कि जो मैं बंद आँखों से भी याद रख सकूँ। कि तुम कहो कि चाँदी के झुमके बहुत सुंदर लगते हैं मुझपर। या कि मैंने जो अँगूठी पहन रखी है दाएँ हाथ की सबसे छोटी ऊँगली में। लव लिखा हुआ है जिसमें। वो सुंदर है। कि तुम्हारे सामने मैं रहूँ तो तुम मुझे देखो। नज़र भर के। नज़रा देने की हद तक। आँख के काजल से लेकर माथे की बिंदी तक ध्यान जाए तुम्हारा। आँख के पनियाने से लेकर ठहाके के शोर तक भी तो।

मैंने तुम्हें अपने गाँव के बारे में बताया है कभी? नहीं ना। लेकिन अभी का गाँव नहीं। ख़्वाब ही बुन रहे हैं तो मेरे बचपन के गाँव में बुनेंगे। उन दिनों मासूमगंज से गाँव जाने के लिए रिक्शा लेना पड़ता था या फिर खेत की मेड़ मेड़ पैदल चलना होता था। धान की रोपनी का समय होता हो या कि आम के मंज़र का। यही दो चीज़ हमको बहुत ज़्यादा याद है गाँव का। मेड़ पर चलने में जूता चप्पल पहन कर चलना मुश्किल होता तो दोनों प्राणी चप्पल खोल कर झोले में डाल देते हैं और ख़ाली पैर चलते हैं। मुझे मिट्टी में चलना बहुत ना तो अच्छा लगता है। और मुझे कैसे तो लगता है कि तुमको मिट्टी में ख़ाली पैर चलने में कोई दिक़्क़त नहीं होगा। चलते हुए मैं तुमको अपना खेत दिखाऊँगी जहाँ ख़ुशबूदार धान उगाया जाता है जिसको हमारे ओर कतरनी कहते हैं। वहाँ से आगे आओगे तो एक बड़ा सा आम का पेड़ है नहर किनारे। उसपर हम बचपन में ख़ूब दिन टंगे रहे हैं। उसके नीचे बैठने का जगह बना हुआ है। हम वहाँ बैठ कर कुछ देर बतिया सकते हैं। आसपास किसी का शादी बियाह हो रहा होता हो तो देखना दस पंद्रह लोग जा रहा होगा साथ में और शादी के गीत का आवाज़ बहुत दूर से हल्का हल्का आएगा और फिर पास आते आते सब बुझा जाएगा।

हम उनके जाने के बाद जाएँगे, उसी दिशा में जहाँ वे लोग गए थे। तुमको हम अपने ग्रामदेवता दिखाएँगे। एक बड़े से बरगद पेड़ के नीचे उनको स्थापित किया गया है। उनका बहुत सा ग़ज़ब ग़ज़ब कहानी है, वो सुनाएँगे तुमको। वहाँ जो कुआँ है उसका पानी ग़ज़ब मीठा है। इतने देर में प्यास तो लग ही गया होगा तुमको। सो वहाँ जो बालटी धरा रहता है उसी से पानी भर के निकालना होगा। तुम लड़ना हमसे कि तुम बालटी से पानी निकालने में गिर गयी कुइय्यां में तो तुमको निकालेगा कौन। हम कहेंगे कि हमारे बचपन का गाँव है। बाप दादा परदादा। सवाल ही नहीं उठता कि तुमको ये कुआँ छूने भी दें। तुम बाहर के आदमी हो।

किसी से साइकिल माँगें। आगे बिठा कर तुम चलाओ। लड़ो बीच में कि बाबू ऐसा घूमना है तो वेट कम करो तुम अपना। हम समझाएँ तुमको कि पैदल भी जा सकते हैं। तुम नहीं ही मानो। साइकिल दुनिया की सबसे रोमांटिक सवारी है। हैंडिल पकड़ कर बैठें हम और तुम्हारी बाँहों का घेरा हो इर्द गिर्द। थोड़ा सकचाएँ, थोड़ा लजाएँ। ग़ौरतलब है कि साड़ी पहन कर अदाएँ ख़ुद आ जाती हैं। जीन्स में हम कुछ और होते हैं, साड़ी में कुछ और।

हम जल्दी ही शिवालय पहुँच जाएँ। शिवालय में इस वक़्त और कोई नहीं होता, शंकर भगवान के सिवा। हम वहीं मत्था टेकें और शिवलाय के सामने बैठें, गप्पें मारते हुए। हल्का गरमी का मौसम हो तो हवाएँ गरम चलें। हवा के साथ फूलों की महक आए कनेर, जंगली गुलाब। तुम मेरे माथे पर की थोड़ी खिसक आयी बिंदी ठीक कर दो। मैं आँचल से थोड़ा तुम्हारा पसीना पोंछ दूँ।

हम बातें करें कि आज से दस साल पहले हम कहाँ थे और क्या कर रहे थे। कितने कितने शहर हम साथ में थे, आसपास क़रीब।

एक से दोस्तों के बीच भुतलाए हुए।
तलाशते हुए एक दूसरे को ही।

कर लो शिकायत वहीं डिरेक्ट बैठे हुए भगवान से
हम तुमसे पहले क्यूँ नहीं मिले।

और फिर सोचें। ये भी क्या कम है कि अब मिल गए हैं। 

26 July, 2017

घड़ी में आठ बजे थे

मुझे उसका लिखा कुछ भी नहीं याद। ना उसके होने का कोई भी टुकड़ा। उसके कपड़ों की छुअन। उसका पर्फ़्यूम। कमरे बदलने के बाद छूटे हुए फ़र्श पर छोड़ दिए गए बासी गुलदान। पुराने हो चुके तकिया खोल का बनाया हुआ पोंछा। उसके कुर्ते का रंग। 
कुछ नहीं याद। कुछ भी नहीं। 
अफ़सोस के खाते में जमा ये हुआ कि मैंने उससे एक पैकेट सिगरेट ख़रीदवा ली। जाने क्यूँ। सच ये है कि मैं उससे सिर्फ़ एक बार मिली थी। उसके बाद बदल गयी थी मैं भी, वो भी। हम दोनों आधे आधे अफ़सोस की जगह पूरे पूरे अफ़सोस हो गए थे। मुझे अफ़सोस कि पूरे पूरे दोस्त होने चाहिये। उसे अफ़सोस कि पूरे पूरे आशिक़। 

मैं उसका कमरा देखना चाहती थी। धूप में उसकी आँखें भी। मैं उसकी कविताओं की किताब पर उसका औटोग्राफ लेना चाहती थी। लेकिन वो ना कविता लिखेगा, ना कभी किताब छपवायेगा। ना मैं कभी उसके बुक लौंच पे जाऊँगी। कितने दिनों से उससे झगड़ा नहीं किया। गालियाँ नहीं दीं। उदास नहीं हुयी क्या बहुत दिनों से? बेतरह क्यूँ याद आ रहा है वो। ठीक तो होगा ना?

कभी कभी कैसे एक पूरा पूरा आदमी सिमट कर सिर्फ़ एक शब्द हो जाता है। कभी कभी सिर्फ़ एक नाम। कभी कभी सिर्फ़ एक टाइटल ही, एक बेमतलब के घिसटते हुए मिस्टर के साथ। 

मगर एक शब्द था। उसने बड़ी शिद्दत से कहा था मुझसे। इसलिए याद रह गया है।

इश्तियाक़!

एक लड़का हुआ करता था पटना में। मुस्लिम था लेकिन अपना नाम अभिषेक बताता था लोगों को। मैं इस डिटेल में नहीं जाऊँगी कि क्यूँ। मैंने पहली बार उसका नाम पूछा तो उसने कहा, अभिषेक। मैंने कहा नहीं, वो नाम नहीं जो तुम लोगों को बताते हो। वो नाम जो तुम्हारा ख़ुद का है। उसने कहा, 'सरवर'। उन दिनों उसने एक शेर सुनाया था। शेर में शब्द था, 'तिलावत'...उसने समझाया पूजा जैसे करते हैं ना, वैसे ही। उसने ही पहली बार मुझे 'वजू करना' किसे कहते हैं वो भी समझाया था। 

उसकी कोई भी ख़बर आए हुए कमसे कम दस साल हो गए। मगर मुझे अभी भी वो याद है। हर कुछ दिनों में याद आ जाता है। शायद उसने किसी लम्हे बहुत गहरा इश्क़ कर लिया था। वरना कितने लोगों को भूल गयी हूँ मैं। स्कूल कॉलेज में साथ पढ़ने वाली लड़कियाँ। ऑफ़िस के बाक़ी कलीग्स। बॉसेज़। हॉस्टल में साथ के कमरे में रहने वाली लड़की का नाम। मगर उस लड़के को कभी भूल नहीं पाती। उसे कभी लगता होगा ना कि मैं उसे याद कर रही हूँ, मगर फिर वो ख़ुद को समझाता होगा कि इतने सालों बाद थोड़े ना कोई किसी को याद रखता है। मैं कभी उससे मिल गयी इस जिदंगी में तो कहूँगी उससे। तुम्हें याद रखा है। जिन दिनों तुम्हें लगता था कि मेरी बहुत याद आ रही है वो इसलिए कि दुनिया के इस शहर में रहती मैं तुम्हें अपने ख़यालों में रच रच के देख रही थी। तुम्हारी आँखों का हल्का भूरा रंग भी याद है मुझे।

शायद ईमानदारी से ज़्यादा ज़रूरी लोगों के लिए ये होता हो कि क्या सही है, क्या होना चाहिए। समाज के नियमों के हिसाब से। हर बात का एक मक़सद होता है। रिश्तों की भी कोई दिशा होती है। मैं बहुत झूठ बोलती हूँ। एकदम आसानी से। मगर जाने कैसे तो लगता है कि मेरे दिल में खोट नहीं है। रिश्तों को ईमानदारी से निभा ले जाती हूँ। आज ही छोटी ननद से बात करते हुए कह रही थी, कोई किसी को ज़बरदस्ती किसी को 'मानने' पर मजबूर नहीं कर सकता है। हमारे बिहार में 'मानना' स्नेह और प्रेम और अधिकार जैसा कुछ मिलाजुला शब्द होता है जिसका मायना लिख के नहीं बता सकते। तो हम लोगों को बहुत मानते हैं। कभी कभी जब बहुत उदास होते हैं कि मेरी ख़ाली हथेली में क्या आया तो ज़िंदगी कुछ ऐसी शाम। कुछ ऐसे लोग भेज देती है। कि शिकायत करना बंद करो। नालायक।

मैं अब भी लोगों पर बहुत भरोसा करती हूँ। दोस्तों पर। परिवार पर। अजनबियों पर। मुझे हर चीज़ को कटघरे में रख के जीना नहीं आता।

एक बार पता नहीं कहीं पढ़ा था या पापा ने बताया था। कि जो बहुत भोला हो उसे आप ठग नहीं सकते। उसे पता ही नहीं चलेगा। वो उम्र भर आप पर भरोसा करेगा।

ईश्वर पर ऐसा ही कोई भरोसा है।
और इश्क़ पर भी।

22 November, 2015

द राइटर्स डायरी: जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?

इस साल मैंने लगभग ८६००० किलोमीटर का सफ़र तय किया है. कई सारे शहर घूमे हैं. कितनी सड़कें. कितने लोग. कितने समंदर. नदियाँ. झीलें. मुझे लोगों से बात करना पसंद है. मैं उन्हें खूब कहानियां सुनाती हूँ. उनके खूब किस्से सुनती हूँ. ---
बचपन का शहर एक पेड़ होता है जिसकी जड़ें हमारे दिल के इर्द गिर्द फैलती रहती हैं. जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है हम इन जड़ों की गहराई महसूस करते हैं. इन जड़ों में जीवन होता है. हम इनसे पोषित होते हैं. 
घर. होता है. घर की जड़ें होती हैं. तुम कहाँ के रहनेवाले हो...के जवाब वालीं. हमारा गाँव दीनदयालपुर है. हम देवघर में पले-बढ़े. पटना से कॉलेज किये. दिल्ली से इश्क़ और मर जाने के लिए एक मुकम्मल शहर की तलाश में हैं. कई सारे शहर मुझ से होकर गुज़रे इन कई सालों में. मुझे सफ़र में होना पसंद है. सफ़र के दरमयान मैं अपने पूरे एलेमेंट्स में होती हूँ. बंजारामिजाजी विरासत में मिली है. पूरी दुनिया देख कर समझ आया कि एक दुनिया हमारे अन्दर भी होती है. जहाँ हर शहर अपने गाँव की कोई याद खींचे आता है. रेणु का लिखा इसलिए रुला रुला मारता है कि उसमें भागलपुरी का अंश मिलता है. इसलिए मेरे पापा मेरी पूरी किताब पढ़ते हैं तो उन्हें याद रहता है गाँव...अदरास...इसलिए जब विकिपीडिया पर पढ़ती हूँ कि अंगिका लुप्तप्राय भाषा की कैटेगरी में है तो मेरे अन्दर कोई गुलाब का पौधा मरने लगता है. अगर मेरे बच्चे हुए तो उन्हें कैसे सिखाउंगी अंगिका. उनकी पितृभाषा होगी अंगिका. मैं क्या दे सकूंगी उन्हें. हिंदी और अंग्रेजी बस. इनमें खुशबू नहीं आती. मैं कैसे बताऊँ उस छटपटाहट को कि जब कोई डायलॉग मन में तो भागलपुरी में उभरता है मगर उसको आवाज़ नहीं दे सकती कि मेरे पास शब्द नहीं हैं. कि मैं न अपनी दादी के बारे में लिख पाउंगी कभी न नानीमाय के बारे में. मैं अपना गाँव देखती हूँ जहाँ अधिकतर कच्चे घर अब पक्के होते गए हैं और उनमें बड़े बड़े ताले लटके हुए हैं. हाँ, गाँव का कुआँ अब सूखा नहीं है. बड़ा इनारा अब कोई जाता नहीं पानी लेने के लिए. सबके घर में बिजलरी की बोतल आ गयी है. दूर शहर में रह कर गाँव के लिए रोना बेईमानी है. मगर याद आता है तो क्या करूँ. जितना सहेजना चाहती हूँ न सहेजूँ? पापा को बोलते हुए सुनती हूँ तो कितने मुहावरे, रामायण की चौपाइयां, मैथ के इक्वेशन सब एक साथ कह जाते हैं...रौ में...उनकी भाषा में कितने शब्द हैं. मैंने ये शब्द कैसे नहीं उठाये...कहाँ से तलाशूँ. कहाँ पाऊँ इन्हें.
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किसी को एक कहानी सुना रही थी, 'हूक' पर अटक गयी. हूक किसे कहते हैं. मैं मुट्ठी भर अंग्रेजी के शब्दों में उसे कैसे बताऊँ कि हूक किसे कहते हैं. ये शब्द नहीं है. अहसास है. उसने किया होगा कभी इतनी शिद्दत से प्रेम कि समझ पाए हूक को?
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तुम्हारी किसी कविता को पढ़ कर जो 'मौसिम' विलगता है मन में...'विपथगा' का मतलब भूलती हूँ मैं...और माँ के हाथ के खाने के स्वाद को कहते हैं हूक. कहाँ से समझाऊं मैं उसे. मुझसे फोन पर बात कर रहा होता है और पीछे कहीं से उसकी माँ पुकार रही होती है उसको, 'आबैछियो', चीखता है वो...मैं हँसती हूँ इस पार. जाओ. जाओ. किसी बेरात दुःख या ख़ुशी पर माँ की याद चुभती है. सीने में. शब्द है 'माय गे...कुच्छु छै ऐखनी घरौ मैं...बड्डी भूख लग्लौ छौ'. हूक. चूड़ा दही का स्वाद है. भात खाते हुए आधे पेट उठना है कि माँ के सिवा किसी को मालूम नहीं कि हमको कितने भात का भूख है.
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हम जिस शहर लौट कर जाना चाहते हैं, वहाँ जा नहीं सकते...क्यूंकि वो शहर नहीं, साल होता है. सन १९९९. फरवरी.
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हूक तुमसे कभी न मिलने का फैसला है. इश्क़ से की गयी वादाखिलाफी है. तुम्हारी हथेली में उगता एक पौधा है...कि जिसकी जड़ों की निशानी हैं रेखाएं...जिनमें न मेरा नाम लिखा है न चेहरा.
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तुमसे मिले बिना मर जाने की मन्नत है. बदनसीबी है. दिल के पैमाने से छलकता मोह है.
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तुम्हें दफ्न करने के बाद कितने शहर दफन किये उस मिट्टी में. कितने समन्दरों से सींचा दिल का बंजर कोना मगर उसे भी रेगिस्तान बनने की जिद है. कितना कुछ समेटती रहती हूँ शहरों से. क्राकोव में एक कब्रिस्तान देखा था. वहाँ लोग छोटे छोटे पत्थर ला के रख जाते थे कब्रों पर. उनकी याद की यही निशानी होती थी. गरीबी के अपने उपाय होते हैं. तुम्हारी कब्र पर याद का ऐसा ही कोई भारी पत्थर है. शहरों से पूछती हूँ तुम्हारा पता. बेहद ठंढी होती हैं दुनिया की सारी नदियाँ. उनपर बने कैनाल्स पर के लोहे के पुल दो टुकड़ों में बंटते हैं...बीचो बीच ताकि स्टीमर आ जा सके. मैं बर्फीले पानी में अपनी उँगलियाँ डुबोये बैठी हूँ. सारा का सारा फिरोजी रंग बह जाए. सुन्न हो जाएँ उँगलियाँ. फिर शायद तुम्हें पोस्टकार्ड लिखने की जिद नहीं बांधेंगी. 
काश तुम्हें भूल जाना भी लिखना भूल जाने जितना आसान होता.
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तुम मेरी जड़ों तक पहुँचते हो. मुझे मालूम नहीं कैसे. तुम्हारे शब्दों को चख कर गाँव के किसी भोज का स्वाद याद आता है. पेट्रोमैक्स और किरासन तेल की गंध महसूस होती है उँगलियों में. अगर नाम कोई बीज होता तो कितने शहरों में तुम्हारी याद के दरख़्त खड़े हो चुके होते.
तुम्हें पढ़ती हूँ तो हूक सी उठती है. और मैं साँस नहीं ले पाती. 
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तुम्हारी सिगरेट के पैकेट में दो ही बची रह गयी हैं. जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?
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इधर बहुत दिनों से किसी चीज़ की फुर्सत नहीं मिली है. सोचने भर की नहीं. आज जरा इत्मीनान है. जाने क्यूँ मौत के बारे में सोच रही हूँ.
कि मैं किताबें पढ़ते हुए मर जाना चाहूंगी.

15 August, 2015

इश्क़ की दस्तक में बारूद की गंध घुली थी. बारूद का ख़तरा भी.

लड़का चाँद की रौशनी वाली टॉर्च बनाना चाहता. लड़की उसकी आँखों की रंग वाली कैंडिल. 
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वे बंद पड़े पोस्ट ऑफिसों में सेंधमारी कर कर पढ़ते खुशबूदार लिफाफों वाली चिट्ठियां. वे इत्रदानों में घोलते सियाही और लड़का दवातों में टपका देने को ही होता बारिश की गंध का इत्र कि जो लड़की ख़ास कन्नौज से लायी होती...तभी लड़की उसकी कलाइयाँ पकड़ लेती हंसती हुयी...के उसके साथ होती तो लड़की को हँसने में डर नहीं लगता...वो मूसलाधार बारिशों सी भिगोने वाली हँसी हँसती थी. कलमें ठीक से नहीं चलेंगी...तुम्हें मालूम है न इत्र की कैफियत पानी से अलग होती है...अक्षर ठीक नहीं लिखे जायेंगे...मान लो उसे ख़त लिखने चली और नाम के बाकी अक्षर गायब हो गए तो. खुशबू ज्यादा जरूरी या के ख़त. लड़के कहता एकदम घिसा पिटा डायलौग, मुहब्बत और जंग में सब जायज़ है.
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इश्क़ की दस्तक में बारूद की गंध घुली थी. बारूद का ख़तरा भी.
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फिरोजी रंग की आँखें तलाशते लड़के को लेकिन सिर्फ सुबह का इंतज़ार है. लड़की की आँखें रात रंग की थी. लड़के की हँसी कोहरे की पदचाप जैसी. लड़की उसकी उँगलियों को याद किताबों के पेज नंबर मिटा कर अपना फोन नंबर लिखना चाहती. रबड़ से जरा सा भी रगड़ने की कोशिश करने पर लड़के की रेशमी उँगलियाँ उसके हाथों से फिसल जातीं. लड़के की त्वचा को बारीक मलमल तैयार करने वाले किसी बुनकर ने बुना था. उसके हाथों में यूँ तो कोई भी चीज़ खूबसूरत लगती मगर जो सबसे खूबसूरत होता वो उस लड़की का हाथ होता. लड़की कभी उसका हाथ नहीं पकड़ सकती क्यूंकि उसके हाथ हमेशा फिसल जाते. लड़का ही इसलिए लड़की का हाथ अपने हाथ में लिए चलता. लड़के की उँगलियों को दुनिया की सारी लाइब्रेजीज में रखी सारी किताबों के पेज नंबर याद थे. लड़के के लिए अलग अलग शहरों से बुलावा आता. कभी कभी कोई पुरानी पाण्डुलिपि खो गयी होती तो लड़के की उँगलियों से उसका पता तलाश लिया जाता. लड़की को इस सब से बहुत कोफ़्त होने लगी थी. उसे लगता था कि वे हाथ सिर्फ उसके लिए बने हैं. वह उसकी उँगलियों पर अपने नाम का गोदना गुदवा देना चाहती.
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वे सुकून बेचने आये गाँव के भोले भाले किसान से मोलभाव करते और आखिर आधे रूमाल भर सुकून खरीद पाते. उस आधे रूमाल का आधा आधा टुकड़ा दोनों बाँटना चाहते लेकिन रुमाल के बराबर हिस्से नहीं हो पाते. लड़का सुकून का बड़ा हिस्सा लड़की को देना चाहता लेकिन लड़की सुकून का छोटा हिस्सा लेना चाहती. दोनों बहुत देर तक भी एकमत नहीं हो पाते तो फिर झख मार कर सुकून बेचने वाले के पास फिर जाते. वो इनकी झिकझिक से इतना घबराया हुआ होता कि इन्हें देखते ही अपना माल असबाब लेकर कहीं भाग जाना चाहता. जब तक दोनों उसके पास पहुँचते, दोनों की साँस फूली हुयी होती. लड़की अपना पसंदीदा कंगन उसे देती और लड़का अपनी पसंदीदा घड़ी. इतने में एक चादर सुकून की आ जाती. दोस्त बाद में उनपर हँसते कि गाँव वाले ने अपना बदला ले लिया है. ये सुकून की चादर नहीं. कफ़न है. इसे ओढ़ कर सुकून सिर्फ मरने के बाद ही आएगा. लड़की मगर उस चादर पर काढ़ देती अपने पुराने प्रेमियों के नाम और लड़का उसपर परमानेंट मार्कर से लिख आता उन सारे शहरों का नाम जिनमें उसे इश्क़ हुआ था. दोनों एक दूसरे से वायदा करते कि वे एक साथ ही मरेंगे ताकि बिना किसी बेईमानी के...इसी सुकून के कफ़न में दोनों को एक साथ जलाया जा सके.
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लड़की उसके लिए कोई नया मौसम तलाशना चाहती और मौसम को पुकारती 'गुदगुदी'. वो जब भी उसके साथ होती तो इसी मौसम की सिफारिश करती. वे अपने साथ नन्ही शीशियाँ लिए घूमते थे. इन शीशियों में मौसमों का इत्र होता था.
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उसे इबारतों में यकीन नहीं था. इशारों में था. चुप्पियों में था.

यूँ भी वो सिर्फ चुप्पियों वाले जवाब मांगती थी. जब आँखों से पूछती थी लड़के से कि शाम का रंग कैसा है तो लड़का कुछ नहीं कहता. धूप से भीगे भीगे कमरे में फिरोजी आँखों वाली लड़की की पेंटिंग बनाता रहता.
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लड़की अपनी स्किन को रफ कॉपी की तरह इस्तेमाल करती. किसी का नाम. कोई भूली ग़ज़ल का मिसरा. पसंदीदा फिल्मों के कोट्स...सब लिखती रहती. इक दिन ऐसी ही बेख्याली में लिख दिया...Love is all a matter of time...इश्क़ को सिर्फ मोहलत चाहिए होती है...बहुत बाद में उसका ध्यान गया कि ये गलत लिख दिया है उसने...मगर फिर शायद जिंदगी के इस मोड़ पर उसे इसी फलसफे को सुनने की जरूरत थी. यूँ भी जिंदगी में अकस्मात् तो कुछ नहीं होता. इक वक़्त के बाद सब कुछ इश्क़ ही हो जाता है. महबूब भी. रकीब भी.
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अपनी कल्पनाओं के अँधेरे में लड़की उसकी गंध में भीगती. रूह तक. घर के सबसे ऊंचे ताखे पर रखती शिकायतों की गुल्लक, उससे मांगी गयी पेंसिलें और फिरोजी रंग के कॉन्टैक्ट लेन्सेस.
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मगर सच सिर्फ ये होता कि ये दुनिया अगर इश्वर की जगह उस लड़की ने बनायी होती तो भी सब कुछ ऐसा ही होता जैसा कि अभी है.
अबोला. अनछुआ. अनजिया.

18 January, 2015

जिंदगी एक टर्मिनल इलनेस है मेरी जान

वो एक कलपा हुआ बच्चा है जिसकी माँ उसे छोड़ कर कुछ देर के लिए पड़ोसी के यहाँ गयी है शायद...दौड़ते हुए आया है...चूड़ी की आहट हुयी है या कि गंध उड़ी है कोई कि बच्चे को लगता है कि मम्मी लौट आई वापस...जहाँ है वहां से दौड़ा है जोर से...डगमग क़दमों से मगर रफ़्तार बहुत तेज़ है...सोफा के पाए में पैर फंसा है और भटाक से गिरा है...मोजैक के फर्श पर इस ठंढ में माथा में चोट लगा है जोर से...वो चीखा है...इतनी जोर से चीखा है जितनी जोर से चीखने में उसको यकीन है कि मम्मी जहाँ भी है सब छोड़ कर दौड़ी आएगी और गोदी में उठा लेगी...माथा रगड़ेगी अपनी हथेली से...उस गर्मी और माँ के आँचल की गंध में घुलमिल कर दर्द कम लगने लगेगा. लेकिन मम्मी अभी तक आई नहीं है. उसको लगता है कि अभी देर है आने में. वो रोने के लिए सारा आँसू रोक के रखता है कि जब मम्मी आएगी तो रोयेगा. 

मैं उसकी अबडब आँखें देखती हूँ. ये भी जानती हूँ कि दिदिया का जिद्दी बेटा है. मेरे पास नहीं रोयेगा. उसी के पास रोयेगा. मैं फिर भी पास जा के देखना चाहती हूँ कि माथे पे ज्यादा चोट तो नहीं आई...अगर आई होगी तो बर्फ लगाना होगा. एक मिनट के लिए ध्यान हटा था. इसको इतना जोर से भागने का क्या जरूरत था...थोड़ा धीरे नहीं चल सकता. इतनी गो का है लेकिन एकदम्मे बदमाश है. दिदिया आएगी तो दिखा दिखा के रोयेगा...सब रोक के बैठा है. एक ठो आँसू नहीं बर्बाद किया हम पर. जानता है कि मौसी जरा सा पुचकार के चुप करा देगी...देर तक छाती से सटा कर पूरे घर में झुला झुला देने का काम नहीं करेगी...मौसी सोफा को डांटेगी नहीं कि बाबू को काहे मारा रे. मौसी का डांट से सोफा को कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा. मौसी तो अभी खुद बच्ची है. उसका डांट तो दूध-भात हो जाता है. मौसी का डांट तो हम भी नहीं सुनते. मम्मी का डांट में असर होता है. मम्मी डांटते हुए कितनी सुन्दर लगती है. दीदी से जब गुलमोहर का छड़ी तुड़वाती है तब भी. 

तुमको पढ़े.
मन किया कि दुपट्टा का फुक्का बना के उसमें खूब सारा मुंह से गर्म हवा मारें और तुम्हारे सर पर जो चोट लगी है उसमें फुक्का दें...देर तक रगड़ें कि दर्द चला जाए. लेकिन ये मेरा हक नहीं है. तुमको पढ़े और देर देर तक अन्दर ही अन्दर कलप कलप के रोना चाहे. लेकिन हमको भी चुप कराने के लिए मम्मी का दरकार है. वो आएगी नहीं. 

हमको क्या बांधता है जानते हो? दुःख. ये जो बहुत सारा दुःख जो हम अपने अन्दर किसी बक्से में तरी लगा लगा के जमाते जाते है वो दुःख. मालूम है न हीरा कैसे बनता है? बहुत ज्यादा प्रेशर में. पूरी धरती के प्रेशर में. और फिर कभी कभी लगता है तुमको धुनाई की जरूरत है बस. तुम पुरानी रजाई की तरह होते जा रहे हो. तुम्हारे सारे टाँके खोल के...ऊपर की सारी परतें हटा कर सारी रुई धुन दी जाए...तुम्हारी रूह बाकी लोगों से अलग है...उसको कुटाई चाहिए होता है. मगर तुम्हारी रूह को मेरे सिवा और कोई छू भी तो नहीं सकता है. इतनी तबियत से बदन का पैराहन उतारना सबको कहाँ आता है. सब तुम्हारे जिस्म के कटावों में उलझ जायेंगे...ये डॉक्टर की तरह सर्जरी का मामला है...बदन की खूबसूरती से ऊपर उठ कर अन्दर लगे हुए कैंसर को देखना होता है.

हम तुमसे कभी नहीं मिलेंगे. तुम्हारे बदन पर पड़े नील के निशान अब लोगों को मॉडर्न आर्ट जैसे लगने लगे हैं. जल्दी ही तुम्हारा तमाशा बना कर तुम पर टिकट लगा देंगे लोग. हम तब भी तुमसे नहीं मिलेंगे. दिल्ली में बहार लौटेगी. गुलाबों के बाग़ देखने लोग दूर दराज से आयेंगे और उनकी खुशबू अपने साथ बाँध ले जायेंगे. मैं कभी तुम्हारे किचन में तुम्हारे लिए हल्दी-चूना का लेप बनाने का सोचूंगी. मैं तुम्हारे ज़ख्मों को साफ़ करने के लिए स्कल्पेल और डिटोल लिए आउंगी. तुम्हें जाने कौन सी शर्म आएगी मुझसे. मेरे सामने तुम कपड़े उतारने से इनकार कर दोगे...बंद कमरे में चीखोगे...नर्स. नर्स. सिस्टर प्लीज इनको बाहर ले जाइए. मैं फफक फफक के रोउंगी. तुम हंसोगे. 'तुमको हमसे प्यार हो रहा है'. 

इस दर्द में. इस टर्मिनल इलनेस में तुम्हारा माथा ख़राब हो गया है या कि इश्क हो गया है तुमको. जिंदगी एक टर्मिनल इलनेस है मेरी जान. हम सब एक न एक दिन मर जायेंगे. मैं तुम्हारे कमरे के दरवाजे के आगे बैठी हूँ...तुम्हें जिलाने को एक ही महामृत्युंजय मन्त्र बुदबुदा रही हूँ 'आई लव यू...आई लव यू...आई लव यू'. तुम कोमा से थोड़ी देर को बाहर आते हो. डॉक्टर्स ने मोर्फिन पम्प कर रखी है. कहते हैं शायद तुम दर्द में नहीं हो. मैं तुम्हारी रूह में थर्मामीटर लगाना क्यूँ जानती हूँ? तुम मरणासन्न अपने बेड पर रोते हो. मैं तुम्हारे कमरे के बंद दरवाज़े के आगे. तुम पूछते हो मुझसे. 'बताओ अगर जो मैं मर गया तो?'. 

मेरी दुनिया बर्बाद होती है...अक्षर अक्षर अक्षर...मुझे कहने में जरा भी हिचक नहीं होती. 'तुम अगर मर गए, तो हम लिखना छोड़ देंगे'. 

पुनःश्च
'हम' लिखना छोड़ देंगे...अलग रहे हैं क्या मैं और तुम? मेरे लिखे में कब नहीं रहे हो तुम...या कि मेरे जीने में ही.
सुनो. हमको इन तीन शब्दों के मायने नहीं पता...लेकिन तुमसे कहना चाहते हैं.
आई लव यू.

03 January, 2015

दिल भूल के उर्दू दिल में कहता, वो चोट्टा भी बिहारी है

रात रात जगने की हमको पुरानी जरा बिमारी है
इक उम्र की मुहब्बत होनी थी, एक सदी से तारी है

मेरी शामत ही आनी थी देख के तेरी आँखों को
आँखों आँखों ही में जानम सारी रात गुजारी है

सोच के तुमको आम के बौरों जैसा बौरा जाते हैं
दिल भूल के उर्दू दिल में कहता, वो चोट्टा भी बिहारी है

तरतीबों वाले चक्खेंगे तरतीबी से होठ तेरे
मेरे हत्थे चढ़ोगे जिस दिन, काटेंगे ज्यों केतारी है

दिलवालों की दुनिया में कुछ अपनी तानाशाही है
तेरी बुलेट पर तुझे भगा लें ऐसी अदा हमारी है

आंधी से लिपट कर कहते हो डर लगता है रफ्तारों से
लो पकड़ो आँचल मेरा, मेरी तूफानों से यारी है

कहाँ कलेजा है तुमको कि ले भी पाओ नाम मेरा
कोई पूछे तो कहते हो वो बस 'दोस्त' हमारी है 

***
रात कुएं में भांग पड़ी थी,
भोर को भी थोड़ी सी चढ़ी थी
हम दोनों ने कित्ती पी थी?
ग़ज़ल कभी मीटर में भी थी?
***
नए साल का पहला जाम...मुहब्बत तेरे नाम.

सोचा तो था कि तमीज से न्यू इयर रिजोल्यूशन की पोस्ट डालेंगे...मगर लग रहा है कि कोई रिजोल्यूशन नहीं बनने वाला तो पोस्ट का क्या ख़ाक अचार डालेंगे. ग़ज़ल वज़ल हमको लिखनी आती नहीं और न लिखने का शौक़ है. वो रात भर आज नींद नहीं आ रही थी तो जो खिटिर पिटिर कर रहे थे पोस्ट कर दिए. सुधी जन जानते हैं कि मेरा और मैथ का छत्तीस का आंकड़ा है...तो साल किसी अच्छे आंकड़े से शुरू करते हैं.

थ्री चियर्स फॉर २०१५. तमीज से रहना बे नए साल, नहीं तो इतना पटक पटक के धोयेंगे कि जनवरी में ही पुराने पड़ जाओगे.

This new year...may adventures find their way to you...and just when it tends to get a tad bit overwhelming...I wish you peace.

Happy New Year. 

03 May, 2014

ये मौसम का खुमार है या तुम हो?

याद रंग का आसमान था
ओस रंग की नाव
नीला रंग खिला था सूरज
नदी किनारे गाँव

तुम चलते पानी में छप छप
दिल मेरा धकधक करता
मन में रटती पूरा ककहरा
फिर भी ध्यान नहीं बँटता

जानम ये सब तेरी गलती
तुमने ही बादल बुलवाये
बारिश में मुझको अटकाया
खुद सरगत होके घर आये

दरवाजे से मेरे दिल तक
पूरे घर में कादो किच किच
चूमंू या चूल्हे में डालूं
तुम्हें देख के हर मन हिचकिच

उसपे तुम्हारी साँसें पागल
मेरा नाम लिये जायें
इनको जरा समझाओ ना तुम
कितना शोर किये जायें

जाहिल ही हो एकदम से तुम
ऐसे कसो न बाँहें उफ़
आग दौड़ने लगी नसों में
ऐसे भरो ना आँहें उफ़

कच्चे आँगन की मिट्टी में
फुसला कर के बातों में
प्यार टूट कर करना तुमसे
बेमौसम बरसातों में

कुछ बोसों सा भीगा भीगा
कुछ बेमौसम की बारिश सा
मुझ सा भोला, तुम सा शातिर
है ईश्क खुदा की साजिश सा 

30 September, 2013

तीन रिंग माने फॉरगेट मी नॉट

फोन की घंटी बजती रहती है लगातार...ऑफिस की बेजान दीवारों के सिवा कोई नहीं सुनता. लेट नाईट शिफ्ट्स इल्लीगल हो गयी हैं मगर लेट नाईट नींद न आने पर किसी ऑफिस के लैंडलाइन पर फोन करना अभी भी इलीगल नहीं हुआ है. याद की बेतरह सतरें होती हैं. ब्लैंक काल्स के आखिरी कुछ दिन बचे हैं. मोबाईल फोन की दुनिया में लैंडलाइन ओब्सोलीट होकर ख़त्म होने की कगार पर ही है. जिस दुनिया में उसने इश्क करना सीखा था, उस दुनिया की आखिरी कुछ निशानियों में से था लैंडलाइन. ये मिस काल्स के पहले की दुनिया थी. जहाँ सिर्फ संख्याओं का मोर्स कोड चलता था. वो लड़की जिसे चार में से दो घटाने के लिए भी उँगलियों का इस्तेमाल करना होता था, उसे साढ़े तीन रिंग पर फोन काटना भी आता था और जवाबी ढाई रिंग सुनकर समझना भी आता था कि छत पर ठीक ढाई बजे दोपहर में कपड़े पसारने हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लू चल रही है कि सूरज मनमानी पर उतरा है. उसकी बाईक उसी समय गुज़रेगी उधर से. बस एक लम्हा ही तो मिलेगा उसे. झीने दुपट्टे के पार से उसे देखेगी तो कोई गर्मी उसे छू भी सकेगी भला. नीम की ठंढी छाँव जैसी थी उसकी नज़र. जिस रोज़ आता, सारे दुपट्टों का रंग सतरंगी हो जाता था.

उस वक़्त कितने लोग शामिल थे उनके मिलने की साजिश में. मोहल्ले के परचून की दूकान वाली दीदी. उसे खुल्ले पैसे के बदले जिस दिन डेरी मिल्क देती, उसकी शामों में मिठास घुल आती. फिर अक्सर कुएं का पम्प ख़राब हो जाए वो ऐसा मनाती रहती. भगवान भी उन दिनों उसके साथ था उसपर कुछ तो गर्मी का मौसम मेहरबान था. अक्सर पम्प एयर ले लेता. फिर उसके घर कोई बुतरू दौड़ाया जाता, गर्मी में वो भागते हुए आता. अक्सर खाली बदन होता था. सांवले रंग पर पसीना कैसा चमकता था. वो पम्प की नली में कुएं से पानी भर रहा होता और लड़की किनारे से पुदीना के पत्ते तोड़ रही होती उसके लिए शरबत बनाने के लिए. दुपट्टा कमर में बांधे सिलबट्टे पर पुदीना पीसती. जल्दी जल्दी शरबत बनती. स्टील के बड़े से गिलास में शरबत लिए लौटती. बाल्टी से पानी बराती उसके लिए. वो हाथ मुंह धोता, कोई गमछा नहीं होता तो अक्सर उसके दुपट्टे में ही हाथ मुंह पोंछता. शरबत पी कर उसके चेहरे पर तरावट आ जाती और लड़की के चेहरे पर लाली. फिर पूरी रात दुपट्टा गले में डाले यूँ सोती जैसी उसकी बाँहें हों. कैसी नींद आती, कैसे सपने आते, कैसा लजाया सा दिन गुज़रता फिर.

गर्मी के दिन कितने तो लम्बे होते थे और लम्बे दिनों के कितने काम उसके हिस्से आता था. बाग़ जा कर आम के टिकोले तुड़वाना. लड़की अपना दुपट्टा फैलाये टिकोला लोकने के लिए तैयार रहती थी. अचार के लायक आम जुट जाते थे तो झोले में भर कर एक किनारे रख देते थे दोनों. वो चापाकल चलाता जाता, लड़की पानी के छींटे मारती चेहरे पर. क्रम बदलता और लड़का हाथ मुंह धोता. दरबान चाचा की चारपाई पर बैठ जाते. लड़की अपने दुपट्टे की छोर पर लगी गाँठ खोलती और नमक निकालती. उसकी हथेली में नमक होता और दोनों एक एक टिकोला दांत से काट कर खाते. दरबान चाचा से उनके बच्चे का हाल पूछते. लड़का थोड़ा ज्यादा बात करता उनसे, काकी उसे बहुत मानती थी तो अक्सर थोड़ा सा आम पन्ना भी बना देती. लड़की वहां बैठी ऐसा महसूस करती जैसे जिंदगी ऐसी ही रहेगी हमेशा. हर साल आम का मौसम ऐसे ही आएगा. अचार डाला जाएगा और दोनों काकी से ऐसे ही बात करते रहेंगे. कुछ साल में वो अपने बच्चों को भी यहाँ लेकर आएगी. तब तक वो नानी से अचार बनाना भी सीख लेगी. ऐसा सोचते सोचते वो अक्सर खो जाती थी तो लड़का उसकी चोटी खींच कर या चुट्टी काट कर दुनिया में वापस लौटा लाता था. वापसी में झोले का एक एक डंडा पकड़े हुए दोनों चलते रहते. अक्सर कोई डुएट गाना गाते रहते. कोई भी तो चिंता नहीं होती उन दिनों सिवाए इसके कि अचार बनाने के लिए अच्छी धूप निकले.

उस वक़्त उन लोगों ने लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशन जैसा कुछ सुना नहीं था. कोलेज के आखिरी दिनों उन्होंने सोचा भी कहाँ था कि अपने अपने कोलेज में टॉप करना उनके लिए कितनी बड़ी सजा लेकर आएगी. प्रिंसिपल के कहने पर लड़की ने स्कोलरशिप के लिए अप्लाई कर दिया था और लड़का भी पीएचडी करने के लिए बड़े शहर के कोलेज का फॉर्म ले आया था. उन्हें लगता था कि गर्मी की छुट्टियाँ जिंदगी भर ऐसी ही रहेंगी. मगर बड़े शहर बड़े बेरहम होते हैं, लोगों को इतनी दूर कर देते हैं कि महीने भर लम्बी छुट्टियाँ भी दूरी को पाट नहीं पातीं. दोनों अलग अलग शहर में रेडीमेड अचार खाते हुए बचपन के टिकोलों के लिए तरसते रहते. लड़की को करीने से साड़ी पहननी आ गयी थी और लड़का कुरते में बहुत ही ज्यादा हैंडसम लगता था. कभी कभार साइबर कैफे में वो वेब चैट करते. लड़की किसी से कह नहीं सकती लेकिन उसका दिल छटपटाता कि साड़ी के खूबसूरत पल्लू से उसके माथे का पसीना पोंछ सके. उसके किसी दुपट्टे से लड़के की खुशबू नहीं आती थी आजकल. सुबह बस में सफ़र करते हुए दुनिया भर के अनजान लोगों की भेदती नज़रें छलनी करतीं मगर वो बचे हुए पच्चीस रुपयों से एसटीडी कॉल करती रोज़. लड़का भी लोकल ट्रेन में आधी नींद में झूलता हुआ उसके माथे पर झूल आई लट को उठा कर उसके कान के पीछे खोंस देने के ख्वाब देखता रहता.

दिन, महीने, साल ऐसे भागते थे जैसे किसी और के हिस्से की उम्र उन्हें जीनी है. छुट्टियों में घर आते तो पूरा मोहल्ला उन्हें घेर कर बैठा रहता. लड़कियां उसके जैसी बनना चाहतीं, लड़कों का वो रोल मॉडल हो चुका था. फुर्सत से बैठ कर एक दूसरे के दुःख सुख सुनने के लम्हे मिलते ही नहीं थे. माँ-चाची-रिश्तेदारों की अलग बातें रहती थीं. छोटी सी सैलरी के छोटे छोटे सुख थे. माँ के लिए साड़ी लाना. नानी के लिए इम्पोर्टेड चाकू कि जिससे आम काटने में आसानी हो. कभी कभी देर रात माँ बाल में नारियल तेल लगा रही होती तो उसका दिल करता कि फूट फूट कर रो पड़े. उसे नहीं चाहिए था इतना बड़ा जहान. उसे नहीं बनना था सबका रोल मॉडल. वो तो बस गर्मी की छुट्टियाँ चाहती थी. सबके पास रहना चाहती थी. ऐसा ससुराल चाहती थी जो मायके के पास हो कि जब दिल करे भाग कर मम्मी के पास आ जाए. ये कैसी विदाई हो गयी थी उसकी. न डोली चढ़ी. न पापा के गले लग कर रोई और पूरे शहर ने पराया कर दिया. साल की एक छुट्टियाँ मिलती थीं. पिछली बार तो ट्रेन पर चढ़ते हुए ही उससे मिलना हो पाया. उसका बक्सा उठा कर ऊपर वाली बर्थ पर रख रहा था. लड़की ने कैसे रोका खुद को...दिल उससे लिपट कर रो देना चाहता था. बेइन्तहा. कहना चाहता था कि सब छोड़ कर भाग जाने का दिल करता है. मगर अब वो लड़की थोड़े रही थी...बच्ची नहीं थी. एक औरत से गंभीरता की उम्मीद की जाती है. रॉ सिल्क की साड़ी पहने हुए उसका व्यक्तित्व भी तो गरिमामयी लगता था. टूट नहीं सकती थी वो. नहीं कह सकती थी कि अकेलापन सालता है उसे. लड़का माथे पर आई नन्हीं बूंदों को सफ़ेद रुमाल से पोंछता है. एक लम्हा देखता है उसे. रोकता क्यूँ नहीं है. अपनेआप से पूछता है.

वो भागती हुयी आई है अगली बार. स्टेशन पर वही आया है उसे लेने. नानी की तबियत ख़राब सुनी थी तब उसे मालूम नहीं था कि नानी उसके आने का इंतज़ार नहीं कर पाएगी. भीगे हुए घर से अभी अभी सबके शमशान जाने की गंध आ रही थी. उसे सम्हालना नामुमकिन था. वो किसी को बता नहीं सकती कि क्या क्या खो जाने के लिए रो रही थी. नानी के जैसा अचार बनाना नहीं सीख पाने के लिए. हर गर्मी टिकोले नहीं तोड़ पाने के लिए. आम के उस पेड़ से लिपट पर अपनी शादी में नहीं रोने के लिए. क्या क्या छूट गया था. हमेशा के लिए. क्या हासिल हो गया था ऐसा. नानी के हाथ की बुनी गर्म मफलर लपेटे हुए घर के कोने में चुप सिसक रही थी. उसके बचपन की सारी चाबी नानी ही तो थी. उसके पसंद की सारी सब्जियां...उसके मन का सारा प्यार...उसकी सारी बदमाशियां. गिनती के दिन की छुट्टियाँ भूल गयी वो. नानी के अलावा कोई कैसे नहीं देख पाता था उसकी आँखों में उसे टूटते हुए. अब किसके सीने से लग कर रोएगी लड़की. लड़के के साथ सालों साल का रिश्ता टूट रहा था. एक आम के अचार की बात थी. बस. रिश्ता ही क्या था और उससे.

लौट आई थी. देर रात फोन करती लड़के को. घंटी देर तक बजती रहती. कोई उठाता नहीं. उसे कहाँ मालूम था लड़के की शिफ्ट्स बदल गयी हैं. टेक्नोलोजी भी उसे वैसी ही अबूझ लगती थी जैसे बचपन में संख्याएँ. नेट पर गूगल करने बैठी. लड़के का नाम सर्च में डाला तो एक ब्लॉग का लिंक आया. बड़ा खूबसूरत ब्लॉग था. बचपन में आम के पेड़ पर लगे झूले की तस्वीर ने उसका ध्यान खींचा. उसने दो चोटियाँ कर रखी थीं और झूले को धक्का देता लड़का खड़ा था पीछे. ये तस्वीर तो कब की एल्बम से खो गयी थी उसकी. यहाँ चुरा कर रखी है जनाब ने. उसने पढ़ना शुरू किया तो सोचा भी नहीं था उसके नाम इतने ख़त पूरी दुनिया को दिखा कर लिखे गए हैं. हर पोस्ट पर उसका जिक्र, कहीं उसके नीले दुपट्टे पर लगे कांच से चेहरा छिल जाने वाली शाम...डिटॉल से टीसता याद का हर पन्ना. कतरे कतरे में पूरा बचपन और जवानी संजोयी हुयी. रात रात भर पढ़ती रही और सोचती रही प्यार का इतना गहरा दरिया और कहने को सिर्फ आँखें.

सुबह उनींदी थी. रात भर जागी हुयी आँखों में नींद से ज्यादा इश्क था. घर पर छुटकी को फोन किया और उसके शहर का पता जुगाड़ने को कहा. जितनी देर में छोटे से मोहल्ले में उसका पता जुगाड़ा छुटकी ने उतनी देर में वो पैक कर चुकी थी. छोटा सा बैग लेकर एयरपोर्ट जाने के लिए टैक्सी की. टिकट कटाया और सपनों के शहर में अपने राजकुमार पर हक जताने निकल पड़ी. उसके घर का कॉलबेल बजाते हुए उसे जरा भी फ़िक्र नहीं हुयी.
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लिखना ये चाहती हूँ कि लड़के ने खोला था दरवाज़ा और उसका एक कमरे का घर ऐसा था जैसे सदियों से लड़की के इंतज़ार में रुका हो. घर की दीवारों पर आम के पेड़ की अनगिन तसवीरें थीं. कुछ बचपन के बनाए हुए कार्ड्स से बनी हुए मॉडर्न आर्ट जैसी पेंटिंग्स थीं. एक बड़े से फ्रेम में उसकी बचपन की वो फोटो थी जिसमें वो दुल्हन बनी हुयी है घाघरा चोली में. वो लड़के से कहती है...मुझसे शादी कब कर रहे हो? इसके अगले दिन दोनों घर वापस लौटते हैं. जो पहला मुहूर्त मिलता है उसमें शादी की डेट पक्की होती है. उनकी शादी में पूरा मोहल्ला लाइटों से सज जाता है. सारे लोग आपस में बात करते हैं कि कैसे उनकी लव स्टोरी में उन्होंने सबसे जरूरी किरदार निभाया. दोनों अपने छोटे शहर वापस आ जाते हैं और मिल कर एक आर्गेनिक अचार बनाने की फैक्ट्री खोलते हैं जिससे शहर के अनेक लोगों को रोजगार मिलता है. उनका प्रयास उन्हें कई सारे अवार्ड दिलाता है. उनके दो बच्चे होते हैं, एक लड़की और एक लड़का. हैप्पी एंडिंग.
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कहानी ऐसी नहीं होती है न. सच्चाई कहती है कि दरवाज़ा किसी शॉर्ट्स और स्पैगेटी टॉप पहने हुए लड़की ने खोला होगा जो सिर्फ लड़के की रूम पार्टनर रही होगी. मगर उसे देखते हुए लड़की का दिल ऐसे टूटेगा कि मेरी कलम की कोई सियाही उसे भर न सकेगी. समझ का कोई लोजिक उसे नहीं समझा पायेगा कि बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं. वो लौट जायेगी फिर किसी घर में कभी वापस न जाने के लिए. सब जानते हुए कॉल्स की गिनती ठीक करते हुए. तीन रिंग माने आई लव यू. तीन रिंग माने आई मिस यू. तीन रिंग माने फॉरगेट मी नॉट. 

03 April, 2013

वो जो सांवला सा रास्ता था

रास्ते तुम्हें ढूँढने को बहुत दूर तलक, बहुत देर तक भटके थे. आज उन्हें थकान से नींद आने लगी है. उन्होंने टेलीग्राम भेजा है कि वे अब कुछ रोज़ सुस्ताना चाहते हैं. एक शाम सिगरेट सुलगाने को ऑफिस से बाहर निकली तो देखा कि रास्ता कहीं चला गया है और सामने दूर तलक सिर्फ और सिर्फ अमलतास के पेड़ उग आये हैं. खिले हुए पीले फूलों को देखा तो भूल गयी कि रास्ता कहीं चला गया है और मुझे उसकी तलाश में जाना चाहिए. ऑफिस से घर तक का रास्ता नन्हा, नटखट बच्चे जैसा था...उसे दुनियादारी की कोम्प्लिकेशन नहीं समझ आती थी. मैंने बस जिक्र किया था कि तुम जाने किस शहर में रहते होगे. रस्ते को मेरी उदासी नहीं देखी गयी. यूँ सोचा तो उसने होगा कि जल्दी लौट आएगा, मगर सफ़र कुछ लम्बा हो गया.

एक छोटे से पोखर में बहुत सारी नीली कुमुदिनी खिली हुयी है, मैं सोचती हूँ कि रास्ते को मेरी कितनी फ़िक्र थी. मैं उसे मिस न करूँ इसलिए कितना खूबसूरत जंगल यहाँ भेज दिया है उसने. अमलतास के पेड़ों के ख़त्म होते ही पलाश की कतारें थीं. वसंत में पलाश के टहकते हुए लाल फूल थे और मिटटी के ऊपर अनगिन सूखे पत्ते बिखरे पड़े थे. चूँकि यहाँ आने का रास्ता नहीं था तो बीबीएमपी के लोग कचरा साफ़ करने नहीं आ सकते थे, वरना वे हर सुबह पत्तों का ढेर इकट्टा करके आग लगा देते और उनमें छुपा हुआ रास्ता दिखने लगता.

ये मौसम आम के मंजर का है और उनकी गंध से अच्छा ख़ासा नार्मल इंसान बौराने लगता है. मैं पोखर के किनारे के सारे पत्थर फ़ेंक चुकी थी और अब अगली बारी शायद मेरे मोबाइल की होती...खतरा बड़ा था तो मैंने सोचा आगे चल कर देखूं किस शहर तक के रस्ते गायब हो गए हैं. ऐसा तो हो नहीं सकता न कि बैंगलोर के सारे रास्तों को बाँध कर ले गया हो मेरे ऑफिस के सामने का नन्हा रास्ता. पर कभी कभी छोटे बच्चे ऐसा बड़ा काम कर जाते हैं कि हम करने की सोच भी नहीं सकते.

मुझे मालूम था कि थोड़ी देर में बारिश होने वाली है...मौसम ऐसा दिलफरेब और ख्वाबों सा ऐसा नज़ारा हमेशा नहीं होता. किसी ने ख़ास मेरे लिए मेरे पसंद के फूलों का जंगल उगाया था. इसके पहले कि सारी सिगरेटें गीली हों जाएँ एक सिगरेट पी लेनी जरूरी थी. मुझे याद आ रहा था कि तुम अक्सरहां सिगरेट को कलम की तरह पकड़ लेते थे. जिंदगी अजीब हादसों से घिरी रही है और मेरी पसंद के लोग अक्सर बिछड़ते रहते हैं. जिस आखिरी शहर में तुम्हें चिट्ठी लिखी थी वहां के रास्तों ने ही पैगाम भेजा था कि तुम किसी और शहर को निकल गए हो.

जिंदगी को तुमसे इर्ष्या होने लगी थी...मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से ज्यादा प्यार जो करने लगी थी. ऑफिस के इस रास्ते पर टहलते हुए कितनी ही बार तुमसे बात की, सिगरेट के टूटे छल्ले बनाते हुए अक्सर सोचा कि तुम जिस भी शहर में होगे वहां आँधियों ने तुम्हारा जीना मुहाल कर रखा होगा. तुम्हें याद है तुमने आखिरी धुएं का छल्ला कब बनाया था? ये जो छोटा सा रास्ता था, उसे अक्सर लगता था कि हम एक दूसरे के लिए बने हैं और एक दिन तुम उससे होते हुए मुझे तक पहुँच जाओगे. ये तब की बात है जब तुम्हारे घर का रास्ता मुझे मालूम था...मुझे तुम्हारी आँखों का रंग भी याद था और तुम्हारे पसंदीदा ब्रांड की सिगरेट भी पसंद थी.

तुम्हें जानते हुए कितने साल हो गए? मैंने तो कभी नहीं सोचा कि ऐसा कोई रास्ता भी होगा जिसपर बारिशों के मौसम में हम हाथों में हाथ लिए घूमेंगे. रास्ते से उठ रही होगी भाप और धुंआ धुंआ हो जाएगा सब आँखों के सामने. तो ये जो मेरी आँखों के ख्वाब नहीं थे, उस रास्ते के लिए इतने जरूरी क्यूँ थे कि वो तुम्हें ढूँढने चला गया. मुझसे ज्यादा तुम्हारी याद आती थी रास्ते को. उसे तुम्हारी आवाज़ की आदत पड़ गयी थी. पर एक रास्ता ही तो था जो जानता था कि तुमसे बात करते हुए मैं सबसे ज्यादा हंसती हूँ...एक तुम्हारा अलावा सिर्फ वही एक रास्ता था जो जानता था कि मैं हँसते हुए हमेशा आसमान की ओर देखती हूँ.

तुम कहाँ चले गए हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे घर के आगे का रास्ता भी मुझे ढूँढ़ने निकला है इसलिए तुम मुझ तक नहीं पहुँच सकते. कि कोई एक खोया हुआ होता तो मुमकिन था कि हम कहीं मिल जाते...मगर चूँकि मेरे रस्ते को तुमसे प्यार था और तुम्हारे रास्ते को मुझसे...वे दोनों हमें मिलाने को निकल गए और हम दोनों खो गए. पर सोचो...आसमान तो एक ही रहेगा...चाँद...तारे...रात हो रही है, ऐसा करो न कि तारों में तुम्हारे शहर का नक्शा बना दो. मैं रात नदी का किनारा पकड़ कर तुम्हारे शहर पहुँच जाउंगी.

तब तक...हम दोनों के कुछ दोस्त मेरे और तुम्हारे शहर के बीच कहीं रहते हैं...उनसे कहो जरा रास्तों का ध्यान रखें...कभी कभी सफ़र में सुनाया करें रास्तों को मेरी तुम्हारी कहानियां. चलो एक 'मिसिंग' का पोस्टर बनवाते हैं. कभी वापस आ जायेंगे रस्ते तो एक दूसरे के पास ही रहने देंगे उन्हें. तुम भी मेरे शहर चले आना उनकी ऊँगली पकड़े. मेरे रास्ते को कहीं देखोगे तो पहचान तो लोगे? सांवला सा है, उसके बांयें गाल पर डिम्पल है और उसके दोनों तरफ गुलमोहर के फूल लगे हैं. चुप्पा है बहुत, बारिश की भाषा में बात करता है...जो तुमसे भीगने को कहे तो मान जाना.

सी यु सून!

10 October, 2012

चाबी वाली लड़की

खुदा ने इन्द्रधनुष में डुबायी अपनी उँगलियाँ और उसके गालों पर एक छोटा सा गड्ढा बना दिया... और वो मुस्कुराने के पहले रोने के लिए अभिशप्त हो गयी. 
किसी गाँव में चूल्हे से उठती होगी लकड़ियों की गंध. कहीं कोई लड़की पहली बार बैठी होगी बैलगाड़ी पर. किसी दादी ने बच्चे की करधनी में लगाए होंगे चांदी के चार घुँघरू...किसी लड़की ने पहली बार कलाई में पहनी होंगी हरे कांच की चूड़ियाँ. कवि ने पेन्सिल को दबाया होगा दांतों में. टीचर ने चाक फ़ेंक कर मारा होगा क्लास की सबसे बातूनी लड़की को. 

कहीं कोई विवाहिता कड़ाही में छोड़ती है बैगन के बचके. कहीं एक बहन बचाती है अपने भाई को माँ की डांट से. कोई उड़ाता है धूप में सूखते गेहूं के ऊपर से गौरैय्या. कहीं माँ रोटी में गुड़ लपेट कर देती है तुतरू खाने को. कुएं में तैरना सीखता है एक चाँद. पीपल के पेड़ पर घर बनाता है एक कोमल दिल वाला भूत. शिवाले में प्रसाद में मिलते हैं पांच बताशे. हनुमान जी की ध्वजा बताती है बारिश का पता. चन्दन घिसने का पत्थर कुटाई वाली की छैनी से कुटाता है. रात को कोई बजाता है मंदिर की सबसे ऊंची वाली घंटी. 

दुनिया का बहुत सा कारोबार बेखटके चलता रहता है. एक लड़की बैठी होती है गंगा किनारे...नदी उफान पर है और इंच इंच करके खतरे के निशान को छूने की जिद में लड़की से कहीं और चले जाने की मिन्नत करती है. 

विजयादशमी के लिए रावण का पुतला तैयार करने वाले कारगर की बेटी बैठी है पटाखों के पिरामिड पर. माचिस के डब्बों से बनाती है मीनारें. 

कहीं एक परफेक्ट दुनिया मौजूद है...शायद आईने के उस पार.

पोसम्पा भाई पोसम्पा...लाल किले में कितने सिपाही? कतार लगा कर सारे बच्चे जल्दी जल्दी भागते हैं. आखिर गीत ख़त्म होने तक एक बच्चा दो जोड़ी हाथों में कैद हो जाता है और किले का एक पहरेदार बदल दिया जाता है. 

कोई बताता नहीं कि खट्टी इमली क्यों नहीं खानी चाहिए या फिर जो चटख गुलाबी रंग का लस्सा लपेटे आदमी आता है उसकी मिठाई खराब क्यूँ है. सवालों के चैप्टर के अंत में जवाब लिखने के लिए जगह नहीं है. एक लड़की टीचर से पूछती है कि दुनिया में सारे लोग क्या सिर्फ नीली और लाल इंक से लिखते हैं. लड़की को हरा रंग पसंद है. टिकोले की कच्ची फांक सा हरा।
धान की रोपनी में लगे किसान और जौन मजदूर एक लय में काम करते हैं. घर आया मजदूर मुझसे मुट्ठी भर गमकौउआ चूड़ा मांगता है. मैं फ्राक के खजाने से उसे एक मुट्ठी चूड़ा देती हूँ. उसकी फैली हथेली में मेरी छोटी सी मुट्ठी से गिरा चूड़ा बुहत कम लगता है लेकिन वो सौंफ की तरह उसे फांक कर एक लोटा पानी गटक जाता है. 
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एक दुनिया है जिसमें लड़की खो जाती है जंगल में तो उस जंगल में खिल आते हैं असंख्य अमलतास...जंगल से बाहर आती है तो शुरू होते हैं सूरजमुखी के खेत...सूरजमुखी के खेतों से जाती है एक अनंत सड़क जिसके दोनों ओर हैं सफ़ेद यूकेलिप्टस...उस रास्ते में आता है सतरंगी तितलियों का घोसला...वहां के झींगुरों ने बनाए हैं नए गीत...वहां बारिश से आती है दालचीनी की हलकी खुशबू...दुआओं के ख़त पर लगती है रिसीव्ड की मुहर...एक तीखे मोड़ पर है एक कलमकार की दूकान जो बेचता है गुलाबी रंग की स्याही...उसी दुनिया में होती है छह महीने की रात...मगर वहीं दीखता है औरोरा बोरेआलिस...उसी दुनिया में रुक गयी है मेरे हाथ की घड़ी. उस दुनिया में कोई नहीं लिखता है कहानियां कि कहानियों से चले आते हैं खतरनाक किस्म के लोग और पैन्डोरा के बक्से की तरह वापस जाने को तैयार नहीं होते.

दुनिया में ताली के लिए ताला होता है...लड़की की उँगलियों में उग आते हैं खांचे और उसकी आँखों में उग आता है ताला..लड़की अपनी हथेलियाँ रखती है आँखों पर और अपनी पलकों को लौक कर देती है. 

03 June, 2012

चूल्हे के धुएँ सी सोंधी औरतें और धुएँ के पार का बहुत कुछ


छः गोल डब्बों वाला मसालदान होती हैं 
आधी रात को नहाने वाली औरतें

उँगलियों की पोर में बसी होती है
कत्थई दालचीनी की खुशबू 

पीठ पर फिसलती रहती है
पसीने की छुआछुई खेलती बूँदें 

कलाइयों में दाग पड़ते हैं
आंच में लहकी कांच की चूड़ियों से 

वे रचती हैं हर रोज़ थोड़ी थोड़ी
डब्बों और शीशियों की भूलभुलैया 

उनके फिंगरप्रिंट रोटियों में पकते हैं
लकीरों में बची रह जाती है थोड़ी परथन 

खिड़की में नियत वक्त पर फ्रेम रहती हैं
रोज के सोप ओपेरा की तरह

किचन हर रोज़ चढ़ता है उनपर परत दर परत
रंग, गंध, चाकू के निशान, जले के दाग जैसा 

नहाने के पहले रगड़ती हैं उँगलियों पर नीम्बू
चेहरे पर लगाती हैं मलाई और शहद 

जब बदन को घिस रहा होता है लैवेंडर लूफॉ 
याद करती हैं किसी भूले आफ्टरशेव की खुशबू 

आधी रात को नहाने वाली औरतें में बची रहती है 
१६ की उम्र में बारिश में भीगने वाली लड़की

30 May, 2012

कोडनेम सी.के.डी.

कोई नहीं जानता कि उसका असली नाम क्या था. सब उसे सीकेडी बुलाते थे. बेहद खूबसूरत लड़का. शफ्फाक गोरा. इतना खूबसूरत कि लड़कियों को जलन होने लगे. लंबा ऊँचा कद...चौड़ा माथा...खूबसूरत हलके घुंघराले कंधे तक आते बाल...मासूम आँखें और जानलेवा गालों के गड्ढे. लेडीकिलर...कैसानोवा जैसे अंग्रेजी शब्दों का चलन नहीं था उस छोटे से शहर में वरना उसे इन विशेषणों से जरूर नवाज़ा जाता.

उसके अंदर अगाध प्रेम का सोता बहता था...वह मुक्त हाथ से प्यार बांटता था...कि प्यार भी तो बांटने से बढ़ता है. जितना प्यार करो उससे कई गुना ज्यादा लौट कर वापस आता है. उसकी अनेक प्रेमिकाएं थीं...उनमें से किसी को ये शिकायत नहीं कि वो किसी और को ज्यादा चाहता है...उसका प्यार बराबर सबमें बंटता...प्रेमिकाओं में, दोस्तों में और अजनबियों में भी. यार लोग कई बार हैरत करते कि इतनी लड़कियां हैं, कैसे मेंटेन करता है कि लोग एक प्रेम निभाने में हलकान हो जाते हैं और वो जाने कितनों से एक साथ प्यार करता है. यूँ तो सारा कोलेज ही उसपर मरता था...उसमें कुछ तो बात ऐसी थी कि कोई उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था. प्रोफेसर्स की आँखों का तारा...स्टूडेंट नेता का जिगरी यार...यहाँ तक कि कोलेज का चपरासी तक उसके साथ ऐसे हिला मिला था जैसे दाँत-काटी दोस्ती हो.

किसी को कोई जरूरत हो...पहला नाम उसका ही आता. चाहे सरस्वती पूजा के लिए चंदा इकठ्ठा करना हो कि प्रिंसिपल से मिल कर कापियों की जांच दुबारा करवाने का मुद्दा हो. घाघ से घाघ सेठ जो अधिकतर चंदा वालों को देख कर ऐसे मुंह सिकोड़ते थे जैसे बेटी का हाथ मांग लिए हों सीकेडी को देखते नरम मक्खन हो जाते थे...चाय ठंढा तो पिलाते ही थे कोलेज का हाल ऐसे प्रेम से पूछते थे जैसे कॉलेज की ईंट ईंट में उनके दान-पुन्य का प्रभाव है और सारे विद्यार्थियों पर माँ सरस्वती की अनुकम्पा उनके दिए सालाना हज़ार रुपयों के कारण ही है. सीकेडी में क्या बात थी कि मर्म पहचानता था आदमी का...और उसमें बनावट लेशमात्र की भी नहीं थी. फ़कीर की तरह जो दे उसका भी भला जो ना दे उसका भी भला गाते चलता था...मगर दुनिया उसके लिए इतनी रहमदिल थी कि उसकी झोली किसी घर से खाली नहीं लौटती थी.

दो मीठे बोल कितने ज्यादा असरकारी हो सकते हैं जानने के लिए सीकेडी के साथ कुछ देर रह लेना काफी था. खबर आई कि आज़ाद चौक पर कोलेज के दो खूंखार ग्रुप शाम को जुटने वाले हैं...किसी ने किसी की गर्लफ्रेंड को छेड़ दिया है...बस आज तो चक्कू चल जाएगा. एक आध तो मरने ही वाले हैं किसी भी हाल में...खुदा भी नहीं बचा सकता. आधा शहर लड़ाई देखने के लिए चौक पर उमड़ता है लेकिन देखता है कि लड़की ने बड़े प्रेम से राखी बाँध दी है और हक से विरोधी गुट के मुखिया से मिठाई खरीदवा के खा भी रही है और बाकियों को बंटवा भी रही है. सीकेडी कृष्ण की तरह मंद मंद मुस्कान बिखेर रहा है जैसे कि माया के सारे खेल उसी के रचे हुए हैं.

नए क्लास शुरू हुए हैं...एक लड़की है क्लास में मीना...उसका कोई पहचान का आया है, शहर में नया है. उसे स्टेशन लाने जाना है. रहने को कोई ठिकाना भी नहीं है. किससे कहे. सीकेडी. उसके होते क्या तकलीफ. छोटे से शहर के छोटे से कमरे में पहले से चार लोग रहते थे. मगर सीकेडी ने कह दिया तो सब मुस्कुराते हुए अडजस्ट कर जायेंगे...आखिर इंसान इंसान के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा. स्टेशन पर उस अजनबी को रिसीव करने गया है. सारा सामान उतरवाया है...अरे कुली रहने दो, हम किस दिन काम आयेंगे. बिना तकल्लुफ के उसने दो बैग उठा लिए हैं...दो बैग उस लड़के ने उठाये और एकलौता गिटार मीना ने टांग लिया. बड़े शहर मुंबई से आया अजनबी चकित है. ऐसे भी लोग होते हैं. बिना कुछ मांगे दिल खोल कर गले लगाने वाले. कमरे में जाते वक्त थोड़ा हिचकिचाया है...दोस्त छोटा सा ही कमरा है मेरे पास, कुछ दिन रह लो फिर तुम्हारे लायक देख देंगे. छोटा कमरा. छोटा शहर. लेकिन दिल...दिल कितना बड़ा है सीकेडी का.

वो सबमें इतना बंटा हुआ था कि उसका अपना कुछ नहीं था. घर से लाये बेहतरीन कपड़े उसके सारे दोस्तों के बदन पर पाए जाते थे सिवाए उसके. वो किसी गर्मियों की दोपहर किसी और की टीशर्ट धो रहा होता है बाथरूम में कि शाम को किसी से मिलने जाना है पर कपड़े बाकी सारे दोस्त पहन कर निकले हुए हैं. सीकेडी...यार आज प्रीती से मिलने जाना है, तेरी वो नीली छींट की शर्ट पहन लूं...और सीकेडी उसे लगभग लतियाते हुए कहता है कि साले पूछना पड़ा तो काहे की दोस्ती...और खूँटी से उतार के आखिरी धुला कपड़ा भी हाजिर कर दिया. यार मुझपर तो कुछ भी अच्छा लग जाएगा मगर तुम साले कुछ और पहन कर जाओगे तो चुकंदर लगोगे फिर प्रीती किसी और के साथ फुर्र हो जायेगी तो तेरे दर्द भरे मुकेश के गाने हमें सुनने पड़ेंगे. सुन, किताब की रैक पर पेपर के नीचे कुछ रुपये पड़े हैं...लेता जा, आइसक्रीम खिला देना उसे...खुश हो जायेगी. उसे दूसरों की खुशी में कौन सी खुशी मिलती थी...शायद जी के देखना पड़ेगा. समझना और समझाना बहुत मुश्किल है.

कोलेज लाइफ के बाद के स्ट्रगल के दिन थे. दिल्ली में मुनिरका में छोटा सा कमरा था फिर और आईएएस के सपने वाले अनगिन साथी. बगल के दड़बेनुमा कमरे में कुछ विदेशी छात्र रहते थे जिनके पैसे खत्म हो गए थे...और अगले पैसे लगभग तीन महीने बाद आने वाले थे. उसने तीन महीने उनको खुद से बना के चावल और आलू की सब्जी खिलाई...जितना है उतना में मिल-बाँट के रहना उसका अंदर का स्वाभाव था. पागलों की तरह तैय्यारी करता था...दिन रात पढ़ाई की धुन सवार रहती थी. तीन साल लगे उसे आइएएस निकालने में...और इत्तिफाक था कि खुदा की नेमत...कमरे में रहने वाले तीनो लड़कों का एक ही साल हो गया था. वे पागलों की तरह खुश थे. रिजल्ट निकलने के थोड़ी देर में जमवाड़ा लग गया...कुछ को खुशी में पीनी थी...कुछ को गम में. पर पीने वाले सब तरह के थे. आज बहुत दिन बाद नए छोकरों पर उसके नाम का रहस्य खुलने वाला था.

सीकेडी एकदम ही नहीं पीता था. मगर चकना देखते ही उसकी आँखें ऐसे चमकती थीं जैसे उजरकी बिल्ली की मलाई देख कर. सब दारू पीने और दुखड़ा रोने में डूबते थे और इधर वो सारा चकना साफ़ कर जाता था. मूंगफली और प्याज तो जैसे उसकी कमजोरी थे...यही एक उसकी कमजोर नस थी कि चकना न बनाएगा, न खरीदने जाएगा...दारू पार्टी के सारे आयोजनों में विरक्त भाव से पड़ा रहेगा मगर चकना पर मजाल है किसी और का चम्मच भी पहुँच जाए. लोग चकना बनाते बनाते परेशान हो जाते थे मगर सीकेडी साहब किसी को एक फक्का खाने न देते थे. ऐसे ही किसी खुशमिजाज लोगों की पार्टी थी जब लोग पहली पहली बार मिले थे कोई १८ की उमर में...बहुत दिन तो पता ही न चले कि चकना जाता कहाँ है कि सब दारूबाज यही कहते हैं कि मैंने तो एक फक्का भी नहीं खाया...कसम से. फिर एक दिन किसी की नज़र पड़ी कि सारा चकना इस कमबख्त नामुराद ने साफ किया है...उसी दिन से उसका नामकरण हुआ...सी.के.डी. उर्फ चकना के दुश्मन. सीकेडी के रहते चकना खाना आइएएस निकालने से ज्यादा मुश्किल था...फिर वो आखिरी शाम भी थी दोस्तों की एक साथ.

फिर बहुत साल हुए सीकेडी कहीं खो गया. अफसरों की एलीट पार्टियों में वो कभी नज़र नहीं आता था. दोस्तों ने उसे कई साल ढूँढने की कोशिश की, मगर सब नाकाम. कोई कहता था आसाम पोस्टिंग हो गयी है तो कोई कश्मीर बताता था. गैरतलब है कि ऐसा कोई शख्स न था जिसने अपने अपने तरीके से सीकेडी को खोजा नहीं और उसकी सलामती के लिए दुआएँ नहीं मांगी हों. 'जियें मेरे दुश्मन' जैसा तकियाकलाम रखने वाला शख्स इस बड़े से देश में कहाँ गुम हुआ बैठा था.

इत्तिफाकों के लिए दुनिया बहुत छोटी है. बेटी के रिश्ते के सिलसिले में मुंगेर के एक गाँव जाना था, वहाँ एक खानदानी परिवार था, बड़ा बेटा आइआईटी करके अच्छी पोजीशन पर कार्यरत था. रिश्ता उधर से ही आया था...जिस व्यक्ति ने बताया कि वो लोग मेरी बेटी से रिश्ता जोड़ने के इच्छुक हैं उसने उनका नाम इतने इज्ज़त से लिया था कि आँख की कोर तक उजाले से भर गया था...चन्द्रभान सिंह. नाम इतना भारी भरकम था...मैंने सोचा एक बार देख के आना तो जरूरी था. गाँव ढूँढने में कोई दिक्कत नहीं हुयी...नाम बताते ही रिक्शेवाला बोला एक ही शर्त पर जाऊँगा कि उनके घर जाने के लिए आप मुझे पैसे नहीं देंगे. अपने बिटुआ के लिए आये है...हम बेटेवाले सही...हमारे यहाँ लड़की देने वाले का बहुत मान है.

चारों तरफ हरियाले खेत देखे कितना वक्त बीत गया था...रिक्शावाला चन्द्रभान सिंह की कहानियां सुनाता चल रहा था...कैसे उसकी बेटी की शादी नहीं हो रही थी तो सिन्घ बाबू के कहने पर लड़के वाले मान गए और कितनी धूम धाम से शादी हुयी थी गाँव से. अनगिन कहानियां. मेरे मन में इस व्यक्ति के लिए कौतुहल बढ़ता जा रहा था. फिर बीच सड़क पर एक आदमी एकदम सफ़ेद धोती कुर्ते में एक काँधे पर घड़ा रखे जाते दिखा...साथ में एक बूढ़ी औरत थी, कमर एकदम झुकी हुयी. पास जाते ही हँसी की आवाज़ सुनाई पड़ी...माई ई उमर छेके तोरा, अभियो जवाने बूझईछे...कमर मचकतै तो जईते काम से. बूढ़ी औरत अपने रौ में बतियाते चल रही थी. ई रहे हमरे सिन्घ बाबू...रिक्शे वाले ने रिक्शा रोका.

वो ऐसे सामने आएगा कब सोचा था...मगर वाकई सीकेडी कब क्या करेगा...कहाँ मिलेगा कौन जानता था. बस जिधर से हँसी गूँज रही है समझा जा सकता था कि वो आसपास ही होगा. मैं हड़बड़ाये हुए बढ़ा. हमारा सीकेडी...बालों में चांदी और चेहरे पर एक उम्र का तेज लिए सामने खड़ा था. आज भी एकदम पहले जैसा...दूसरों को मुस्कुराते देख खुश होने वाला. लेशमात्र भी बदलाव नहीं. मन से निश्छल. अपनी छोटी सी परिधि में कितना विशाल...एक पल को मैं अभिभूत हो गया.

शादी की सारी रस्मों के दौरान चन्द्रभान सिंह उर्फ सीकेडी के कितने पहलू खुले...उसने उस इलाके के लिए समाजसेवा नहीं की थी...लोगों का उचित मार्गदर्शन किया था बस. बच्चों को स्कूल भेजने के लिए देर देर रात तक उनके माँ बाप से बहस की थी...किसी का लोन अप्रूव नहीं होने पर बैंक मैनेजर को समझाया था कि क्यूँ इस लोन को देने से बैंक और लेनदार दोनों का फायदा है. अपनी अनगिनत किताबों का भण्डार लोगों के लिए खोल दिया था...यही नहीं जिस गाँव में बिजली आने में अनगिनत साल लगे थे वहाँ उसने इन्टरनेट स्थापित कर रखा था. किसी को कोई भी जानकारी चाहिए थी तो गूगल उनके लिए हाज़िर था. गाँव के लगभग हर व्यक्ति जिसके बच्चे बाहर पढ़ रहे थे के पास अपनी ईमेल आईडी थी.

शादी के लगभग हफ्ते पहले से उनके साझा मित्र गाँव में जुटने लगे थे. सीकेडी की बड़ी हवेली में पैर धरने की जगह नहीं थी. तरह तरह की विलायती शराब की नदी बह रही थी...इसमें रोज रात को बाजी लगती कि आज कोई एक चम्मच चकना खा के दिखा दे. सात दिनों में बाजी कोई नहीं जीत पाया था. सीकेडी की फुर्ती, उसकी आँखों की चमक, उसका चकना को देखकर बेताब हो जाना...कुछ नहीं बदला था.

हम दुनियावी लोग थे...हर कुछ दिन में परेशान होने लगते कि दुनिया बड़ी बुरी है...यहाँ कुछ अच्छा ज्यादा दिन नहीं चल सकता...देर सवेर सब कुछ करप्ट हो जाता है. सिस्टम में गड़बड़ी है, मानव स्वाभाव हमेशा बुरे की ओर झुकता है और जाने कितने फलसफे. यहाँ एक सीकेडी हमारी हर धारणा पर भारी पड़ता था...और सबसे आश्चर्यजनक ये बात थी कि उसके बड़े होने से हमें छोटे होने का बिलकुल अहसास नहीं होता था. अच्छा होना इतना सहज और सरल हो सकता है सीकेडी को देख कर पता चलता था. ईश्वर की बनायी इस दुनिया में प्राकृतिक रूप से कुछ खूबसूरत हो सकता है तो वो है इंसान का मन...हम इसे अनगिन सवालों में बांध कर परेशान कर देते हैं.

सीकेडी की कहानी में कोई उतार-चढाव नहीं हैं...एक असाधारण से शख्स की एकदम साधारण सी कहानी. ये  कितना अद्भुत है न कि वो इतना साधारण है कि विलक्षण है.
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लेखक की चिप्पी: मुझे लगता है हम सबमें एक ऐसा शख्स रहता है जिसे हम बहुत मेहनत से तहखाने में बंद करके रखते हैं कि हमें अच्छा होने से डर लगता है. वाकई...अच्छा होना ग्लैमरस नहीं...इसमें थ्रिल नहीं...मगर सुख...वो इसी तहखाने से होकर अपना रास्ता तलाशता है. 

29 May, 2012

किस्मत हाथों से गढ़ते हैं...हाथ की लकीरों से नहीं


कल शाम साढ़े छः बजे की ट्रेन है. क्या करे संध्या...मिल आये एक बार जाके उससे, शाम को वहीं पनवाड़ी के दूकान के पास रहेगा. घर में नमक खतमे पर है, दू संझा और चलेगा. लेकिन उ तो कल शाम जा रहा है. रेलवे में एसएम का निकला है उसका, वैसे लड़का तो तेज है. पहले तो लगता था कमसे कम बैंक पीओ तो जरूर करेगा. लेकिन सब जगह धांधली मचा हुआ है, उसपर जेनेरल का तो कहीं निकलना मुश्किल...उसपर किस्मत भी खराब. दू दू बार एसबीआई में निकला लेकिन इंटरव्यू में छंट गया. अब शहर का पिट पिट अंग्रेजी बोलने वाला लड़का सबसे कैसे कम्पीटीशन करेगा गाँव में सरकारी स्कूल से पढ़ने वाला लड़का. ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी नहीं आता है...लिखित तो बहुत बढ़िया है लेकिन बोलने में गला सूखता है.

संध्या का मन है कि एक बार जा के उसको देख आये. ट्रेनिंग में जा रहा है तो साल छः महीने उधरे रहेगा...उसपर पोस्टिंग भी उधर साउथ में आएगा तो घर आये पता नहीं कितना दिन हो जाएगा. सुनते हैं साउथ जाने में तीन दिन का ट्रेन का सफ़र है और स्लीपर में ई गर्मी में ऐसा चिलचिलाता धूप लगता है कि ऊपर का सीट तो एकदम तवा जैसा गरम हो जाता है. गर्मी के दिन में स्लीपर में चलना बहुत मुश्किल का काम हो जाता है. भट्टी के जैसा तपता है ट्रेन का पूरा कम्पार्टमेंट. संध्या रोटी फुलाते हुए सोच रही है...मन भी तो वैसे ही भट्टी जैसा तप रहा है. पिंटू भी उसके बारे में सोच रहा होगा क्या अभी? फिर पसीना पोछते हुए ख्याल को झटक देती है. अभी उसके सर पर बहुत चिंता है...बहन का उम्र निकलते जा रहा है, उसका शादी करना है फिर घर भी तो एकदम ढह जाने वाला है. अभी पिछली बरसात में छत इतना चू रही थी कि छापर टापना पहले जरूरी है.

वो कहना चाहती है कि वो जब तक लौट के आये किसी भी तरह बाबूजी को रोके रखेगी कि कहीं शादी का डेट फाइनल ना करें. फिर खुद पर हँसती है...उसकी भी तो उमर अब २८ हो गयी लेकिन बाबूजी सबको दो साल कम करके २६ बताते हैं. स्कूल के टीचर बाबूजी के पास जोड़ जाड़ कर भी दहेज के पैसे नहीं पुरते इसलिए इतने साल से कोई लड़का नहीं मिला है हाथ पीले करने के लिए. अचानक बाबूजी का सोच कर उसका मन भर आता है. कितनी कितनी रातों तक वो लालटेन की रौशनी में परीक्षा की कॉपी जांचना याद आता है. हर कॉपी का पचास रूपया मिलता था. बाबूजी केतना बार तो खाना भी जल्दी में निपटा देते थे कि जेहे एक ठो और कॉपी जंचा जाए. पूजा भी तो उन दिनों माँ सम्हाल लेती थी या फिर जो माँ न सम्हाल सके तो संध्या के पाले में पड़ती थी. कभी कभार संध्या कितना कुढती थी. पूजा का सारा काम करने के चक्कर में उसे स्कूल को देर हो जाती थी. घर में अलार्म घड़ी तो थी नहीं, पूरी पूरी रात उठ कर देखती रहती थी कि उजास फूटी कि नहीं. फिर क्लास में नींद आती रहती थी तो वो पिंटू उससे पहले सवाल बना जाता था.

उसके तरफ कहते हैं कि कोई लड़की कुंवारी नहीं रहती ऐसा माँ पार्वती का वरदान है. संध्या को अखबार में पढ़ी खबर याद आती है बिहार में स्त्री-पुरुष अनुपात ९०१:१००० है. इसलिए हर लड़की की शादी हो जाती है. उसने कभी अपने बारे में सोचा नहीं था लेकिन आजकल पिंटू की दीदी को देखती है तो परेशान होने लगती है. उनका उमर ई साल फरवरी में ३१ हो गया. पहले कितना हँसते खेलती रहतीं थीं, बरी पापड़ बनाने में, बियाह का गीत गाने में, कुएं से पानी खींचने में उनका कोई सानी नहीं था. आजकल हर चीज़ पर झुंझला पड़ती हैं. ई सातवाँ बार है कि लड़का वाला देख कर उनको छांटा है...और लड़का भी कैसा, काला, मोटा, पकोडे जैसा नाक, पूरा मुंह चेचक के धब्बा से भरा हुआ, झुक के कंधा सिकोड़ कर चलता है लेकिन अपने लिए लड़की खोजता है हूरपरी...जैसे उसके लिए कटरीना बैठी है बियाह रोक के. उस रात पिंटू की दीदी खूब रोई थी उसके गले लग के...और संध्या बहुत देर तक उनको समझाते रही थी और उस लड़के को गालियाँ बकते रही थी.

संध्या को कोलेज फाइनल इयर की वो घटना याद आती है. राजेश लाइब्रेरी की आखिरी रो में खड़ा था और अचानक उसे पास आकर बोला उसे कुछ जरूरी बात करनी है. वो इतना घबरा गयी थी कि सीढ़ी से गिरते गिरते बची. दिन भर सोचते रही थी कि उसे क्या बात करनी होगी...अगले दिन सुबह के क्लास के बाद उसके साथ चली थी लाइब्रेरी की तरफ जब उसने बताया था कि उसकी पक्की सहेली उसे अच्छी लगी है और वो चाहता है कि शादी के लिए उसके घर रिश्ता लेकर जाए. संध्या को बस दिशा से पूछना था कि वो राजेश को पसंद करती है या नहीं. संध्या ने अच्छी दोस्त का कर्त्तव्य निभाया था. वे दोनों आज भी मिलते हैं तो राजेश उसका शुक्रिया करते नहीं थकता. उनकी शादी पूरे समाज में पहली बिना दहेज की शादी थी. राजेश के पापा कम्युनिस्ट थे...दहेज लेने और देने के सख्त खिलाफ. राजेश उनका एक ही बेटा था.

कोलेज में उसकी सारी दोस्तों की एक एक करके शादी हो गयी थी. वो बड़े उत्साह से उनकी शादी में गीत गाती थी. आजकल गाँव में रहती है...एमए के बाद कितना पढेगी आगे ये सोच कर गाँव आ गयी है. दिन भर खाली टाइम में या तो टीवी देखती रहती है या मैग्जीन पढ़ती रहती है. स्कूल के लाइब्रेरी में बहुत सी किताबें हैं. आज उसका मन किसी मैग्जीन में नहीं लग रहा था. बहुत मन था कि एक बार जा के बस उसे देख आये. नमक भी तो खतम होने ही वाला था न.

जो संध्या की आदत थी, सोचना ज्यादा करना कुछ नहीं. सो दिन भर सोचती रही लेकिन उससे मिलने नहीं गई. मालूम तो था ही कि आज के बाद उसका चेहरा देखे बहुत बहुत साल हो जाएगा. दिल पे पत्थर रखना लड़कियों को बचपन से ही सिखा दिया जाता है. सो वो भी सिसकारी दबाए बैठे रही दिन भर. अगली शाम जब उसकी रेल का टाइम निकल गया तो गोहाल की पीछे भूसा वाला कमरा में खूब फूट फूट कर रोई...जैसे कलेजा चाक हो गया हो उसका...जैसे वो पूरी पूरी पत्थर ही हो गयी है.

वापस आई तो हर तरफ एक मुर्दा सन्नाटा था...जैसे करने को कहीं कुछ नहीं. बाबूजी रामायण पढ़ रहे थे. माँ चूल्हा धुआं रही थी रात के खाने के लिए. भैय्या का पंजाब से पहला मनीऑर्डर आया था इसलिए घर में सब थोड़े खुश थे. रात को माँ डाल में थोड़ा घी डालते हुए बोली...कैसा कुम्हला गयी है रे लड़की...इतना क्या सोचते रहती है दिन भर. राम जी सब अच्छा करेंगे. रात खटिया पर पड़े हुए संध्या देर तक आसमान के तारे देखती रही सोचती रही कि नसीब वाकई सितारों में लिखा है तो फिर जीवन का उद्देश्य क्या है. हम क्या वाकई दूर तारों के हिसाब से जियेंगे और मर जायेंगे...फिर हाथ की लकीरें क्या हैं. फिर ये क्यूँ कहते हैं कि बांया हाथ भगवान का दिया हाथ है और दांया हाथ वो है जो हम खुद बनाते हैं. स्कूल कोलेज में वो हमेशा सबसे तेज विद्यार्थी रही थी कोलेज में तो डिस्ट्रिक्ट टॉपर थी. फिर उसने कभी नौकरी करने के बारे में सोचा क्यूँ नहीं. नींद आने के पहले वो मन बना चुकी थी कि उसे भी कम्पीटीशन में बैठना है.

अगली सुबह पिंटू के यहाँ से जाकर सब बैंक पीओ की तैयारी का मटेरियल ले आई वैसे भी रद्दी में ही बिकने वाला था सब कुछ. बाबूजी को बता दिया कि जिस दिन अखबार में भैकेंसी निकलेगा उसको भी पेपर फॉर्म ला देंगे. संध्या जी जान से तैय्यारी में जुट गयी. बाबूजी भी उसे दिन रात मेहनत करता देख बहुत खुश हुआ करते थे. उसके पास खोने को कुछ नहीं था...लेकिन अगर उसका कम्पीटिशन में हो जाता तो उसके जैसी बहुत सी लड़कियों के लिए रास्ता खुल जाता. इतने सालों की लगातार पढ़ने की मेहनत काम आ रही थी. एक्जाम में बैठते और पेपर देते एक साल निकल गया. जब एसबीआई में उसका नहीं हुआ तो उसे दुःख हुआ था लेकिन उसने उम्मीद नहीं हारी थी. उसे खुद पर भी यकीन था और भगवान पर भी.

जिस दिन आंध्रा बैंक में पीओ होने का लेटर पोस्टमैन लेकर आया बाबूजी जैसे बौरा गए थे, पूरे गाँव को चिट्ठी दिखा रहे थे...मेरी बेटी अफसर बन गयी है. हमेशा काम के बोझ के कारण झुके कंधे तन गए थे और लालटेन में काम करते धुंधला गयी आँखें चमकने लगी थीं. माँ भी सब काम छोड़ कर उसका बक्सा तैयार करने में लग गयी थी. बक्से के साथ ही नसीहतों की भी भारी पोटली थी. जोइनिंग डेट के आसपास बहुत सी अफरातफरी थी...सारे पेपर ठीक से रखने थे...मन को समझाना था कि गाँव छूट रहा है. इस सब में सांझ तारे सी एक बात चमक जा रही थी...पिंटू की भी पोस्टिंग उसी शहर में है.

आखिर वो दिन आ गया जब माँ और बचपन की सारी सहेलियों से गले लग कर वो ट्रेन पर जा बैठी...उसे ऐसा लग रहा था जैसे शादी के बाद विदा होती है ऐसे सब उसे विदा कर रहे हैं. बाबूजी ट्रेन पर चढाते हुए उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले...आप परिवार का नाम ऊँचा किये हैं बेटी...हमेशा घर की मर्यादा का ध्यान रखियेगा. बाबूजी बहुत कम उससे सीधे बात किये हैं...वो उनके कंधे से लग के फफक के रो पड़ी. पूरे रास्ते अपने नए ऑफिस, बाकी साथियों के बारे में सोचती रही. जिंदगी का नया अध्याय शुरू हो रहा था.

ट्रेन हैदराबाद पहुंची तो वो अपनी छोटी सी अटैची लेकर स्टेशन पर उतरी. भीड़ छंटी तो उसने देखा फूलों का गुलदस्ता और एक झेंपी सी मुस्कान लिए पिंटू खड़ा था. शाम के साढ़े छः बज रहे थे. आज पहली बार संध्या को अपने फैसले पर बेहद गर्व हुआ. उस शाम अगर पिंटू से मिलने चली जाती तो उस लंबे इंतज़ार का हासिल कुछ नहीं होता. गलती ये होती कि प्यार में खुद को भूल जाती...मगर उसने प्यार में खुद को और निखार लिया...अपना 'मैं' बचाए रखा. इन्तेज़ार उसने अब भी किया मगर इंतज़ार के समय में कितना कुछ उसने अपने नाम भी लिखा. आत्मविश्वास से लबरेज संध्या ने आगे बढ़ कर पिंटू से हाथ मिलाया. दोनों हँस पड़े.

संध्या ने अपने हाथ की लकीरें देखीं...उसके दायें हाथ में एक लकीर पिंटू के नाम की भी उगने लगी थी. 

25 May, 2012

बोली बनाम भाषा ऐंड माथापच्ची इन बिहारी

इन्सोम्निया...कितना रसिक सा शब्द है न? सुन कर ही लगता है कि इससे आशिकों का रिश्ता होगा...जन्मों पुराना. ट्रांसलेशन की अपनी हज़ार खूबियां हैं मगर मुझे हमेशा ट्रांसलेशन एक बेईमानी सा लगता है...अच्छा ट्रांसलेशन ऐसे होना चाहिए जैसे आत्मा एक शरीर के मर जाने के बाद दूसरे शरीर में चली जाती है. मैं अधिकतर अनुवादित चीज़ें नहीं पढ़ती हूँ...जानती हूँ कि ऐसे पागलपन का हासिल कुछ नहीं है...और कैसी विडंबना है कि मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म कैन्तोनीज (Cantonese)में बनी है...इन द मूड फॉर लव. ऐसा एक भी बार नहीं होता है कि इस फिल्म को देखते हुए मेरे मन में ये ख्याल न आये कि ट्रांसलेशन में कितना कुछ छूट गया होगा...बचते बचते भी इतनी खूबसूरती बरकरार रही है तो ओरिजिनल कितना ज्यादा खूबसूरत होगा.

मेरे अनुवाद को लेकर इस पूर्वाग्रह का एक कारण मेरी अपनी विचार प्रक्रिया है. मैं दो भाषाओं में सोचती हूँ...अंग्रेजी और हिंदी...ऐसा लगभग कभी नहीं होता कि एक भाषा में सोचे हुए को मेंटली दूसरे भाषा में कन्वर्ट कर रही हूँ. अभी तक का अनुभव है कि कहानियां, कविताएं और मन की उथल पुथल होती है तो शब्द हमेशा हिंदी के होते हैं और टेक्नीकल चीज़ें, विज्ञापन और सिनेमा से जुड़ी चीज़ों के बारे में सोचना अक्सर अंग्रेजी में होता है. इसके पीछे कारण ये है कि पूरी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम में हुयी है और फिर ऑफिस भी वैसे ही रहे जिनमें अधिकतर काम और कलीग्स के बीच बातें अंग्रेजी में होती रहीं. वैसे तो सभ्य भाषा का इस्तेमाल करती हूँ लेकिन अगर गुस्सा आया तो गालियाँ हमेशा हिंदी में देना पसंद करती हूँ.

मुसीबत तब खड़ी होती है जब कुछ उलट करना पड़े...जैसे किसी कारणवश कुछ मन की बात अंग्रेजी में लिखना हो...कई बार तब अनुवाद करना होता है और हालाँकि ये प्रक्रिया बहुत तेज़ी से घटती है फिर भी मन में कुछ न कुछ टूटा हुआ चूरा रह ही जाता है जो कहीं फिट नहीं होता. ये बचे खुचे शब्द फिर मेरा जीना हराम कर देते हैं. फिल्मों या विज्ञापन पर हिंदी में लिखने पर ऐसी ही समस्या का सामना करना होता है...पूरे पूरे वाक्यांश अंग्रेजी में बनते हैं...फिर उनके बराबर का कुछ हिंदी में सोचना पड़ता है...और कितना भी खूबसूरत सोच लूं ऐसा बहुत कम होता है कि किसी फ्रेज(Phrase) के हिंदी अनुवाद से तसल्ली मिल सके. अच्छा होता न दिमाग में एक स्विच होता जिसे अंग्रेजी और हिंदी की ओर मोड़ा जा सकता जरूरत के हिसाब से.

मुझे ये भी लगता है कि लेखन में, खास तौर से मौलिक लेखन में परिवेश एक बेहद जरूरी किरदार होता है...कांटेक्स्ट के बाहर आप चीज़ों को समझ नहीं सकते और कुछ चीज़ों का वाकई अनुवाद हो ही नहीं सकता है. अनुवाद की सीमा से परे जो शब्द लगते हैं वो अक्सर 'बोलियों/dialects' का हिस्सा होते हैं, इसका कारण होता है कि कई शब्दों के पीछे कहानी होती है कि जिसके बिना उनका वजूद ही नहीं होता...कुछ शब्दचित्र होते हैं जिन्हें समझने के लिए आपको अपनी आँखों से उन दृश्यों को देखना जरूरी होता है वरना शब्द तो होंगे मगर निर्वात में...परिवेश से अलग उनका कोई वजूद नहीं होता. आप भाषा का अनुवाद कर सकते हैं पर बोली का नहीं...ये कुछ वैसे ही है जैसे भाव कई बार कविता में व्यक्त हो सकता है लेकिन गद्य में नहीं.

बिहार के बारे में एक फेवरिट डायलोग है...यू कैन ओनली बी बोर्न अ बिहारी...यू कैननोट इन एनी वे बिकम अ बिहारी...यानि कि आप जन्म से ही बिहारी हो सकते हैं...और कौनो तरीका नै है बाबू...बिहार में पैदा होने के कारण बचपन से अनगिनत बोलियां सुनती आई हूँ...हमारे यहाँ कहावत है...कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी...अर्थात...हर कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और चार कोस की दूरी पर बोली बदल जाती है. गाँव में ऐसे लोग होते थे जो अनजान आदमी से पाँच मिनट बात करके उसका घर बता देते थे. बोली पहचान का उतना ही अभिन्न हिस्सा थी जितना कि किसी का नाम. ऐसे लोग रिश्ता तय करने, बर्तुहार आने के समय में खास तौर से बहुत काम के माने जाते थे. यही नहीं गाँव में कोई नया आदमी आया नहीं कि उसे टोहने के लिए इन्हें बुला लिया जाता था.

बातचीत का एक बहुत जरूरी हिस्सा होती हैं कहावतें...पापा जितने मुहावरे इस्तेमाल करते हैं मैं उनमें से शायद ४० प्रतिशत ही इस्तेमाल करती हूँ, वो भी बहुत कम. हर मुहावरे के पीछे कहानी होती है...अब उदहारण लीजिए...अदरी बहुरिया कटहर न खाय, मोचा ले पिछवाड़े जाए. ये तब इस्तेमाल किया जाता है जब कोई बहुत भाव खा रहा होता है...कहावत के पीछे की कहानी  ये है कि घर में नयी बहू आई है और सास उसको बहुत मानती है तो कहती है कि बहू कटहल खा लो, लेकिन बहू को तो कटहल से ज्यादा भाव खाने का मन है तो वो नहीं खाती है...कुछ भी बहाना बना के...लेकिन मन तो कटहल के लिए ललचा रहा है...तो जब सब लोग कटहल का कोआ खा चुके होते हैं तो जो बचे खुचे हिस्से होते हैं जिन्हें मोचा कहा जाता है और जिनमें बहुत ही फीका सा स्वाद होता है और जिसे अक्सर फ़ेंक दिया जाता है, बहू कटहल का वही बचा खुचा टुकड़ा घर के पिछवाड़े में जा के खाती है.

जिंदगी जो अफ़सोस का पिटारा बना के रखी हूँ उसमें अपने घर की भाषा(भागलपुरी/अंगिका) नहीं बोल पाना सबसे ज्यादा सालता है. पटना में रहते हुए पड़ोसी भोजपुरी बोलते थे...दिल्ली में एक करीबी दोस्त भी भोजपुरी बोलता था...तो काफी दिन तक ठीक-ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे पर अब फिर से एकदम हिंदी पर आ गए हैं. अधिकतर दोस्तों से बात हिंदी में होती है. लेकिन बिहारी को बिहारी में गरियाने का जो मज़ा है ना कि आह! फिर से कुछ उदाहरणों पर आते हैं...एक शब्द है 'चोट्टा'...बेहद प्रेमभरी गाली है...सन्दर्भ सहित व्याख्या ऐसे होती है...

'शाम ऐसे लगती है जैसे किसी छोटी लड़की के गालों पर किसी बदमाश लड़के ने चुट्टी काटी हो...और उसके सफ़ेद रुई के फाहे जैसे गाल गुलाबी हो गए हों...गुस्से से भींचे होठ लाल...और वो शुद्ध बिहारी गाली देते हुए उसके पीछे दौडी हो.
चोट्टा!'

एक दोस्त है मेरा...उसे बात करते हुए हर कुछ देर में ऐसा कुछ कहना ही पड़ता है...लात खाओगे...मार के ठीक कर देंगे...डीलिंग दोगे बेसी हमको...अपनी तरह बोक्का समझे हो...देंगे दू थाप...ढेर होसियार बूझते हो...तुमरा कुच्छो नहीं हो सकता...कुछ बुझाईबो करता है तुमको...और एक ठो सबसे ज्यादा मिस्युज्ड शब्द है...थेत्थर(verb-थेथरई, study of थेथर एंड इट्स कांटेक्स्ट: थेथरोलोजी). अब इसका अनुवाद करने में जान चले जाए आदमी का. वैसे ही एक शब्द है...चांय...अब  चांय  आदमी जब तक आपको दिखा नहीं दिया जाए आप समझ ही नहीं सकते है कि किस  अर्थ में प्रयुक्त होता है. इसमें इनटोनेशन/उच्चारण बेहद जरूरी हिस्सा है...भाषा में चूँकि शब्दों के अर्थ तय होते हैं पर बोली में शब्द के कहने के माध्यम से आधा अर्थ उजागर होता है.

बचपन से हिंदी में बात करने के कारण कितना कुछ खो चुकी हूँ अब महसूस होता है लेकिन उसे वापस पाने का कोई उपाय नहीं है...अब जब नन्हें बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देखती हूँ तो अक्सर सोचती हूँ...पराये देश की भाषा सीखते ये बच्चे कितने बिम्बों से अनभिज्ञ  रह जायेंगे...इन्हें petrichor तो मालूम होगा पर सोंधा नहीं मालूम होगा...सोंधे के साथ गाँव की गंध की याद नहीं आएगी. कितना कुछ खो रहा है...कितना कुछ कहाँ, कैसे समेटूं समझ नहीं आता. स्कूल में सिर्फ युनिफोर्म से नहीं दिमागी तरीके से भी क्लोन बनके निकल रहे हैं बच्चे...मेरी जेनेरेशन में ही कितनों ने सालों से हिंदी का कुछ नहीं पढ़ा...बहुतों को देवनागरी लिपि में पढ़ने में दिक्कत होती है. 

चौकी पर रखा हँसुआ.
इन सब ख्यालों के बीच एक दिन का धूप में बैठ कर अचानक रो देना याद आता है कि जब अचानक से ख्याल आया था कि मेरे बेटी अगर होगी तो उसको कभी कटहल बनाना नहीं सिखा पाउंगी क्योंकि कटहल काटने के लिए जिस हंसुए का इस्तेमाल जरूरी होता है वो उसके बड़े होने तक गायब हो जाएगा. ऐसे ही गायब हो जायेंगे कितने शब्द...कितनी दोस्ती...कितना अपनापन. कि जो इस मिट्टी में पैदा हुए हैं वही जानते हैं कि माथा दुखा रहा है में जो रस है वो सर दर्द कर रहा है में कहाँ.

सागर को सगरवा कहने का सुख...बचपन की याद से लहरों की तरह लौटता...गूंजता...नितुआ गे... बड़ी दिदिया...छोटकी फुआ...कुंदनमा... रे जिमिया...और आखिर में मंच पे पर्दा गिरने के पहले लौटता वो नाम जो बहुत सालों से गुम हो गया है...रे पमियाsssss 

पुनःश्च - कहाँ से कहाँ पहुँच गए...शायद इतना सारा कुछ धीरे धीरे मन में उमड़ घुमड़ रहा था...एक दिन राहुल सिंह जी के ब्लॉग पर छत्तीसगढ़ी पर ये आलेख पढ़ा था तब से.

बिहारी में एक लाजवाब सीरीज अभिषेक के ब्लॉग पर भी चल रही है...पटना की अद्भुत झलकी और कमाल के रंगीन लोग...जरा हुलक के आइये. 

04 May, 2012

जे थूरे सो थॉर...बूझे?

ऊ नम्बरी बदमास है...लेकिन का कहें कि लईका हमको तो चाँद ही लागे है...उसका बदमासी भी चाँदवे जैसा घटता बढ़ता रहता है न...सो. कईहो तो ऐसा जरलाहा बात कहेगा कि आग लग जाएगा और हम हियां से धमकी देंगे कि बेट्टा कोई दिन न तुमको हम किरासन तेल डाल के झरका देंगे...चांय नैतन...ढेर होसियार बनते हो...उ चोट्टा खींस निपोरे हीं हीं करके हँसता रहेगा...उसको भी बहुत्ते मज़ा आता है हमको चिढ़ा के.

एक ठो दिन मन नै लगता है उसे बतकुच्चन किये बिना...उ भी जानता है कि हम कितना भी उ थेत्थर को गरिया लें उससे बतियाए बिना हमरा भी खानवे नै पचेगा. रोज का फेरा है...घड़ी बेरा कुबेरा तो देखे नहीं...ऑफिस से छुट्टी हुआ कि बस...गप्प देना सुरु...जाने कौन गप्प है जी खतमे नै होता है. कल हमरा मूड एकदम्मे खराब था...उसको बोले कि हम अब तुमसे बतियायेंगे नहीं कुछ दिन तक...मूड ठीक होने दो तब्बे फोनियायेंगे...लेकिन ऊ राड़ बूझे तब न...सेंटी मारेगा धर धर के और ऊपर उसका किस्सा सुनो बारिस और झील में लुढ़कल चाँद का...कोई दिमागे नै है कि कौन मूड में कौन बात किया जाता है...अपने राग सुनाएगा आप जितना बकझक कर लीजिए हियाँ से. कपार पे हाथ मारते हैं कि जाने कौन बेरा ई लड़का मिला था जो एतना माथा चढ़ाये रखे हैं...इतने दुलरुआ तो कोइय्यो नहीं है हमरा.

कल बतियावे से जादा गरियावे का मन करे...और उसपर छौड़ा का लच्छन एकदम लतखोर वाला कि मन करे कि कोई दिन न खुब्बे लतियायें तुमको...एकदम थूर दें...थूरना बूझते हो न बाबू? इधर ऊ पिक्चर देख के आये 'अवेंजर्स' तुमको तो अंग्रेजी बुझायेगा नहीं तो तुम जा के उसका हिंदी वाला देखना...देखना जरूर...काहे कि उसमें एक ठो नोर्स देवता है...'थॉर' उसके पास एक हथोड़ा होता है जिससे ऊ सबको थुचकते रहता है. हमको लगता है हो न हो ई जो भाईकिंग सब था कभी न कभियो बिहार आया होगा...यहाँ कोई न कोई थूरा होगा ऊ सबको धर के...तो ई जो थॉर नाम का देवता है न...असल में कोई बिहारी रहा होगा...जे थूरे सो थॉर...बूझे? देखो केतना बढ़िया थ्योरी है. त बूझे ना बाबू जो दिन हत्थे चढोगे न बहुत पिटोगे.

राते में ई सब प्रेम पतिया तोरे लिखने के मन रहे बाबू लेकिन का है कि सूत गए ढेर जल्दी...कल मने बौराये हमहूँ निकल गए थे न घर से बाहर...भर दुपरिया टउआते रहे थे, गोड़ दुखाने लगा, खाना उना खा के चित सूत गए सो अभी भोर में आँख खुला है. कल का डीलिंग दे रहे थे जी...अंग्रेजी में बात करो, काहे कि हमको अपने जैसन बूझते हो का...भागलपुरी नै आता है तो अंग्रेजीयो में पैदल रहेंगे का...बहुत बरस पहले सीरी अमिताभ बच्चन जी कहे गए हैं से हम भी कोट करे देते हैं...आई कैन वाक इंग्लिस, आई कैन लाफ इंग्लिस, आई कैन रन इंग्लिस...बिकोज इंग्लिस इज अ भेरी फन्नी लैंगुएज.'

बाबु दुनिया का सब सुख एक तरफ और एक बिहारी को बिहारी में गरियाने का सुख एक तरफ...का कहें जी कल तुमसे बतिया के मन एकदम्मे हराभरा हो गया...वैसा कि जैसा पवन का कार्टून देख के हो जाता है...एकदम मिजाज झनझना गया...सब ठो पुराना चीज़ याद आने लगा कि 'लटकले तो गेल्ले बेट्टा' से लेकर 'ले बिलैय्या लेल्ले पर' तक. गज़बे मूड होई गया तुमसे बतिया के...कि दू चार ठो और दोस्त सब को फोन करिये लें...खाली गरियाये खातिर...कि मन भर गाली उली दे के फोन धर दें कि बहुत्ते दिन से याद आ रहा था चोट्टा सब...ढेर बाबूसाहब बने बैठे हो...खुदे नीचे उतरोगे चने के झाड़ से कि हम उतारें? सब भूत भगैय्ये देते कि फिर दया आ गया...बोले चलो जाने देते हैं...चैन से जी रहा है बिचारा सब.


लेकिन ई बात तो मानना पड़ेगा बाबू...मर्द का कलेजा है तोहार...हमको एतना दिन से झेलने का कूव्वत बाबु...मान गए रे...छौड़ा चाहे जैसन चिरकुट दिखे...लड़का...एकदम...का कहें...हीरा है हीरा.

चलो...अब हमरा फेवरिट वाला कार्टून देखो...जिससे एकदम्मे फैन बन गए थे बोले तो पंखा बड़ा वाला कि एसी एकदम से पवन टून का...और बेसी दाँत मत चियारो...काम धंधा नहीं है तुमको...चलो फूटो!

11 April, 2012

मन बंजारा फिर पगलाए, भागे रह रह तोरे देस...


ऊपर वाले ने हमें बनाया ही ऐसा है...कमबख्त...डिफेक्टिव पीस. सारा ध्यान बाहरी साज सज्जा पर लगा दिया, दिन रात बैठ कर चेहरे की कटिंग सुधारता रहा...आँखों की चमक का पैरामीटर सेट करता रहा और इस चक्कर में जो सबसे जरूरी कॉम्पोनेन्ट था उसपर ही ध्यान नहीं दिया...मन को ऐसे ही आधा अधूरा छोड़ दिया. अब ये मन का मिसिंग हिस्सा मैं कहाँ जा के ढूंढूं. कहीं भी कुछ नहीं मिलता जिससे मन का ये खालीपन थोड़ा भर आये. अब ये है भी तो डिवाइन डिफेक्ट तो धरती की कोई चीज़ कहाँ से मेरे अधूरे मन को पूरा कर पाएगी...मेरे लिए तो आसमान से ही कोई उतर कर आएगा कि ये लो बच्चा...ऊपर वाले की रिटन अपोलोजी और तुम्हारे मन का छूटा हुआ हिस्सा. 

तब तक कमबख्त मारी पूजा उपाध्याय करे तो क्या करे...कहाँ भटके...शहर शहर की ख़ाक छान मारे मन का अधूरा हिस्सा तलाशने के लिए...कि भटकने में थोड़ा चैन मिलता है कि झूठी ही सही उम्मीद बंधती है कि बेटा कहीं तो कुछ तो मिलेगा...चलो पूरा पूरा न सही एक टुकड़ा ही सही...ताउम्र भटक कर शायद मन को लगभग पूरा कर पाऊं...कि हाँ कुछ क्रैक्स तो फिर भी रहेंगे धरती की फॉल्ट लाइंस की तरह कि जब न तब भूचाल आएगा और मन के समझाए सारे समीकरण बिगाड़ कर चला जाएगा. 

करे कोई भरे कोई...अरे इत्ती मेहनत से बनाया था थोड़ा सा टेस्टिंग करके देखनी थी न बाबा नीचे भेजने के पहले...ऐसे कैसे बिना पूरी टेस्टिंग के मार्केट में प्रोडक्ट उतार देते हो, उपरवाले तेरा डिपार्टमेंट का क्वालिटी कंट्रोल  कसम से एकदम होपलेस है. मैं कहती हूँ कुणाल से एक अच्छा सा सॉफ्टवेर इंटीग्रेशन कर दे आपके लिए कि सब डिपार्टमेंट में सिनर्जी रहे. वैसे ये सब कर लेने पर भी मेरा कुछ हुआ नहीं होता कि ख़ास सूत्रों से खबर यही मिली है मैं पूरी की पूरी आपकी मिस्टेक हूँ...आपने स्पेशल कोटा में मुझे माँगा था...स्पेशली बिगाड़ने के लिए, बाकियों को जलन होती है कि मैं फैक्टरी मेड नहीं हैण्ड मेड हूँ...वो भी खुदा के हाथों...अब मैं सबको क्या समझाऊं कि खुदा कमबख्त होपलेस है इंसान बनाने में...उसे मन बनाना नहीं आता...या बनाना आता है तो पूरा करना नहीं आता...या पूरा करना भी आता है तो मेरी तरह कहानियों के ड्राफ्ट जैसा बना देता है कमबख्त मारा...अरे लड़की बना रहा था कोई कविता थोड़े लिख रहा था कि ओपन एंडेड छोड़ दिया कि बेटा अब बाकी हिस्सा खुद से समझो.

हालाँकि कोई बड़ी बात नहीं है कि इसमें खुदा की गलती ना हो...उनको डेडलाइन के पहले प्रोडक्ट डिलीवर करने बोल दिया गया हो...तो उन्होंने कच्चा पक्का जो मिला टार्गेट पूरा करने के लिए भेज दिया हो...हो ये भी सकता है कि उन्होंने भी रीजनिंग करने की कोशिश की हो कि इतने टाइम में प्रोडक्ट रेडी न हो पायेगा...पर डेडलाइन के लिए रिस्पोंसिबल कोई महा पेनफुल छोटा खुदा होगा जो जान खा गया होगा कि अब भेज ही दो...आउटर बॉडी पर काम कम्प्लीट हो गया है न...क्या फर्क पड़ता है. खुदा ने समझाने की कोशिश की होगी...कि छोटे इसका मन अभी आधा बना है...जितना बना है बहुत सुन्दर है पर अभी कुछ टुकड़े मिसिंग हैं...बस यहीं छोटा खुदा एकदम खुश हो गया होगा...मन ही अधूरा है न, क्या फर्क पड़ता है...दे दो ऐसे ही...ऐसे में क्या लड़की मर जायेगी...खुदा ने कहा होगा...नहीं, पर तकलीफ में रहेगी...बेचैन रहेगी...भटकती रहेगी. छोटे खुदा ने कहा होगा जाने दो...ऐसे तो धरती पर आधे लोग तकलीफ में रहते ही हैं...एक ये भी रह लेगी...खुदा ने फिर समझाने की कोशिश की...बाकी लोगों की तकलीफ का उपाय है...इसकी तकलीफ का कोई उपाय नहीं होगा...छोटा खुदा फिर भी छोटा खुदा था...माना नहीं...बस हम जनाब आ रहे रोते चिल्लाते धरती पर...लोग समझ नहीं पाए पर हम उस समय से खुदा के खिलाफ प्रोटेस्ट कर रहे थे. 

मम्मी बताती थी कि मेरी डिलीवरी वक़्त से पंद्रह दिन पहले हो गयी थी...वो बस रेगुलर चेक-अप के लिए गयी थी कि डॉक्टर ने कहा इसको जल्दी एडमिट कीजिये...वक़्त आ गया है...बताओ...हमें कभी कहीं चैन नहीं पड़ा...पंद्रह दिन कम थोड़े होते हैं...खुदा भी बिचारा क्या करता, कौन जाने हम ही जान दे रहे हों धरती पर आने के लिए. 

यूँ अगर आप दुनिया को देखें तो सब कुछ एकदम एटोमिक क्लोकवर्क प्रिसिजन से चलता है...मेरे आने के पहले पूरी दुनिया में मेरी जगह कहाँ होगी...खाका तैयार ही होगा...पंद्रह दिन लेट से आते तो कितने लोगों से मिलना न होता...लाइफ...लाईक लव...इस आल अ मैटर ऑफ़ टाइमिंग टू. तो जो लोग मेरी जिंदगी में हैं...अच्छे बुरे जैसे भी हैं...परफेक्ट हैं. हाँ मेरे आने से उनकी जिंदगी में एक बिना मतलब की उथल पुथल जरूर हो जाती है. मेरे जो भी क्लोज फ्रेंड हैं कभी न कभी मैं उन्हें बेहद परेशान जरूर कर देती हूँ इसलिए बहुत सोच समझ कर किसी नए इंसान से बातें करती हूँ...मगर जेमिनी साइन के लोगों का जो स्वाभाव होता है...विरोधाभास से भरा हुआ...किसी से दोस्ती अक्सर इंस्टिक्ट पर करती हूँ...कोई अच्छा लगता है तो बस ऐसे ही अच्छा लगता है. बिना कारण...फिर सोचती हूँ...बुरी बात है न...खुद को थोड़ा रोकना था...मान लो वो जान जाए कि वो मेरी इस बेतरतीब सी जिंदगी में कितना इम्पोर्टेंट है...मुझे कितना प्यारा है तो उसे तकलीफ होगी न...आज न कल होगी ही...तो फिर हाथ  रोकती क्यूँ नहीं लड़की? 

पता है क्यूँ? क्यूंकि मन का वो थोड़ा सा छूटा हुआ हिस्सा जो है न...वो शहरों में नहीं है...लोगों में है...जिसे जिसे मिली हूँ न...अधूरा सा मन थोड़ा थोड़ा पूरा होने लगा है...और उनका पूरा पूरा मन थोड़ा थोड़ा अधूरा होने लगा है...है न बहुत खतरनाक बात? चलो आज सीक्रेट बता ही दिया...अब बताओ...मिलोगे मुझसे?

01 April, 2012

एक अप्रैल...मूर्ख दिवस बनाम प्रपोज डे और कुछ प्यार-मुहब्बत के फंडे

बहुत दिन हुआ चिरकुटपंथी किये हुए...उसपर आज तो दिन भी ऐसा है कि भले से भले इंसान के अन्दर चिरकुटई का कीड़ा कुलबुलाने लगे...हम तो बचपन से ये दिन ताड़ के बैठे रहते थे कि बेट्टा...ढेर होसियार बनते हो...अभी रंग सियार में बदलते हैं तुमको. तो आज के दिन को पूरी इज्ज़त देते हुए एक घनघोर झुट्ठी पोस्ट लिखी जाए कि पढ़ के कोई बोले कि कितना फ़ेंक रहे हो जी...लपेटते लपेटते हाथ दुखा गया...ओझरा जाओगे लटाइय्ये  में...और हम कहते हैं कि फेंका हुआ लपेटिये लिए तो फेंकना बेकार हुआ.

खैर आज के बात पर उतरते हैं...ई सब बात है उ दिन का जब हम बड़का लवगुरु माने जाते थे और ऊ सब लईका सब जो हमरा जेनुइन दोस्त था...मतबल जो हमसे प्यार उयार के लफड़ा में न पड़ने का हनुमान जी का कसम खाए रहता था ऊ सबको हम फिरि ऐडवाइस दिया करते थे कौनो मुहब्बत के केस में. ढेरी लड़का पार्टी हमसे हड़का रहता था...हम बेसी हीरो बनते भी तो थे हमेशा...टी-शर्ट का कॉलर पीछे फ़ेंक के चलते तो ऐसे थे जैसे 'तुम चलो तो ज़मीन चले आसमान चले' टाइप...हमसे बात उत करने में कोईयो दस बार सोचता था कि हमरा कोई ठिकाना नहीं था...किसी को भी झाड़ देंगे...और उसपर जबसे एक ठो को थप्पड़ मारे थे तब से तो बस हौव्वा ही बना हुआ था. लेकिन जो एक बार हमारे ग्रुप में शामिल हो गया उसका ऐश हुआ करता था. 

एक तो पढ़ने में अच्छे...तो मेरे साथ रहने वाले को ऐसे ही डांट धोप के पढ़वा देते थे कि प्यार मुहब्बत दोस्ती गयी भाड़ में पहले कोर्स कम्प्लीट कर लो...उसपर हम पढ़ाते भी अच्छा थे तो जल्दी समझ आ जाता था सबको...फिर एक बार पढाई कम्प्लीट तो जितना फिरंटई करना है कर सकते हैं. हमारे पास साइकिल भी सबसे अच्छा था...स्ट्रीटकैट...काले रंग का जब्बर साइकिल हुआ करता था...एकदम सीधा हैंडिल और गज़ब का ग्राफिक...बचपन में भी हमारा चोइस अच्छा हुआ करता था. घर पर मम्मी पापा कितना समझाए कि लड़की वाला साइकिल लो...आगे बास्केट लगा हुआ गुलाबी रंग का...हम छी बोलके ऐसा नाक भौं सिकोड़े कि क्या बतलाएं. तो हमारे साथ चलने में सबका इज्जत बढ़ता था.

उस समय पटना में लड़की से बात करना ही सबसे पहला और सबसे खतरनाक स्टेप था...अब सब लड़की मेरे तरह खत्तम तो थी नहीं कि माथा उठा के सामने देखती चले...सब बेचारी भली लड़की सब नीचे ताकते चलती थी...हालाँकि ई नहीं है कि इसका फायदा नहीं था...ऊ समय पटना में बड़ी सारा मेनहोल खुला रहता था...तो ऐसन लईकी सब मेनहोल में गिरने से बची रहती थी...हालाँकि हमारा एक्सपीरियंस में हम इतने साल में नहीं गिरे और हमारी एक ठो दोस्त हमारे नज़र के सामने गिर गयी थी मेनहोल में...उ एक्जाम के बाद कोस्चन पेपर पढ़ते चल रही थी...उस दिन लगे हाथ दू ठो थ्योरी प्रूव हो गया कि मूड़ी झुका के चलने से कुछ फायदा नहीं होता...और एक्जाम के बाद कोस्चन पेपर तो एकदम्मे नहीं देखना चाहिए. 

देखिये बतिये से भटक गए...तो लईकी सब मूड़ी झुका के चलती थी तो लईका देखती कैसे तो फिर लाख आप रितिक रोशन के जैसन दिखें जब तक कि नीचे रोड पे सूते हुए नहीं हैं कोई आपको देखेगा ही नहीं...भारी समस्या...और उसपर भली लईकी सब खाली घर से कोलेज और कोलेज से घर जाए...तो भईया उसको देखा कहाँ जाए...बहुत सोच के हमको फाइनली एक ठो आइडिया बुझाया...एक्के जगह है जहाँ लईकी धरा सकती है...गुपचुप के ठेला पर. देखो...बात ऐसा है कि सब लईकी गुपचुप को लेकर सेंटी होती है अरे वही पानीपूरी...गोलगप्पा...उसको गुपचुप कहते हैं न...चुपचाप खा लो टाइप...प्यार भी तो ऐसे ही होता है...गुपचुप...सोचो कहानी का कैप्शन कितना अच्छा लगेगा...मियां बीबी और गुपचुप...अच्छा जाने दो...ठेला पर आते हैं वापस...कोई भी लड़की के सामने कोई लईका उससे बेसी गुपचुप खा जाए तो उसको लगता है कि उसका इन्सल्ट हो गया. भारी कम्पीटीशन होता है गुपचुप के ठेला पर...तो बस अगर वहां लड़की इम्प्रेस हो गयी तो बस...मामला सेट. अगर तनी मनी बेईमानी से पचा पाने का हिम्मत है तो ठेला वाला को मिला लो...लड़की पटाने के मामले में दुनिया हेल्पफुल होती है...तो बस तुमरे गुपचुप में पानी कम...मसाला कम...मिर्ची कम...और यही सब लड़की के गुपचुप में बेसी...तो बस जीत भी गए और अगले तीन दिन तक दौड़ना भी नहीं पड़ा...

ई तो केस था एकदम अनजान लईकी को पटाने का...अगर लईकी थोड़ी जानपहचान वाली है तो मामला थोड़ा गड़बड़ा जाता है...खतरा बेसी है कि पप्पा तक बात जा के पिटाई बेसी हो सकता है...यहाँ एकदम फूँक फूँक के कदम रखना होता है...ट्रायल एंड एरर नहीं है जी हाईवे पर गाड़ी चलानी है...एक्के बार में बेड़ापार नहीं तो एकदम्मे बेड़ापार...तो खैर...यहाँ एक्के उपाय है...फर्स्ट अप्रील...लईका सब पूछा कि काहे...तो हम एकदम अपना स्पेशल बुद्धिमान वाला एक्सप्रेशन ला के उनको समझाए...हे पार्थ तुम भी सुनो...इस विधि से बिना किसी खतरे से लड़की को प्रपोज किया जा सकता है...एक अप्रैल बोले तो मूर्ख दिवस...अब देखो प्यार जैसा लफड़ा में पड़ के ई तो प्रूव करिए दिए हो कि मूर्ख तो तुम हईये हो...तो काहे नहीं इसका फायदा उठाया जाए...सो कैसे...तो सो ऐसे. एकदम झकास बढ़िया कपड़ा पहनो पहले...और फूल खरीदो...गेंदा नहीं...ओफ्फो ढकलेल...गुलाब का...लाल रंग का...अब लईकी के हियाँ जाओ कोई बहाना बना के...टेस्ट पेपर वगैरह टाइप...आंटी को नमस्ते करो...छोटे भाई को कोई बहाना बना के कल्टी करो. 

ध्यान रहे कि ई फ़ॉर्मूला सिर्फ साल के एक दिन ही कारगर होता है...बाकी दिन के लतखोरी के जिम्मेदार हम नहीं हैं. लईकी के सामने पहले किताब खोलो...उसमें से फूल निकालो और एकदम एक घुटने पर (बचपन से निल डाउन होने का आदत तो हईये होगा) बैठ जाओ...एक गहरी सांस लो...माई बाबु को याद करो...बोलो गणेश भगवन की जय(ई सब मन में करना...बकना मत वहां कुछ)...और कलेजा कड़ा कर के बोल दो...आई लव यू...उसके बाद एकदम गौर से उसका एक्सप्रेशन पढो...अगर शर्मा रही है तब तो ठीक है...ध्यान रहे चेहरा लाल खाली शर्माने में नहीं...गुस्से में भी होता है...ई दोनों तरह के लाल का डिफ़रेंस जानना जरूरी है...लड़की मुस्कुराई तब तो ठीक है...एकदम मामला सेट हो गया...शाम एकदम गोपी के दुकान पर रसगुल्ला और सिंघाड़ा...और जे कहीं मम्मी को चिल्लाने के मूड में आये लड़की तो बस एकदम जमीन पे गिर के हाथ गोड़ फ़ेंक के हँसना शुरू करो और जोर जोर से चिल्लाओ 'अप्रैल फूल...अप्रैल फूल' बेसी मूड आये तो ई वाला गाना गा दो...देखो नीचे लिंक चिपकाये हैं...अप्रैल फूल बनाया...तो उनको गुस्सा आया...और इसके साथ उ लड़के का नाम लगा दो जो तुमको क्लास में फूटे आँख नहीं सोहाता है...कि उससे पांच रूपया का शर्त लगाये थे. बस...उसका भी पत्ता कट गया. 

चित भी तुमरा पट भी तुमरा...सीधा आया तो हमरा हुआ...ई बिधि से फर्स्ट अप्रैल को ढेरी लईका का नैय्या पार हुआ है...और एक साल इंतज़ार करना पड़ता है बाबु ई साल का...लेकिन का कर सकते हो...कोई महान हलवाई कह गया है...सबर का फल मीठा होता है. ई पुराना फ़ॉर्मूला आज हम सबके भलाई के लिए फिर से सर्कुलेशन में ला दिए हैं. ई फ़ॉर्मूला आजमा के एकदम हंड्रेड परसेंट नॉन-भायलेंट प्रपोज करो...थप्पड़ लगे न पिटाई और लड़की भी पट जाए. 

आज के लिए बहुत हुआ...ऊपर जितना कुछ लिखा है भारी झूठ है ई तो पढ़ने वाला बूझिये जाएगा लेकिन डिस्क्लेमर लगाये देते हैं ऊ का है ना ई महंगाई के दौर में कौनो चीज़ का भरोसा नहीं है. तो अपने रिक्स पर ई सब मेथड आजमाइए...और इसपर हमरा कोनो कोपीराईट नहीं है तो दुसरे को भी ई सलाह अपने नाम से दे दीजिये...भगवान् आपका भला करे...अब हम चलते हैं...क्या है कि रामनवमी भी है तो...जय राम जी की!


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