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07 November, 2024

मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट, कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं


हमारे देश में अधिकतर लोगों का वक़्त उनका ख़ुद का नहीं होता। गरीब हो कि अमीर, एक आधापापी अब तामीर में शामिल हो गई है। हम जहाँ हैं, वहाँ की जगह कहीं और होना चाहते हैं। समय की इस घनघोर क़िल्लत वाले समय में कुछ लोगों ने अपने लिए थोड़ा सा वक़्त निकाल रखा है। यह अपने लिए वाला वक़्त किसी उस चीज़ के नाम होता है जिससे दिल को थोड़ा करार आये…वो ज़रा सा ज़्यादा तेज़ भले धड़के, लेकिन आख़िर को सुकून रहे। यह किसी क़िस्म का जिम-रूटीन हो सकता है, कोई खेल हो सकता है, या कला हो सकती है।

इस कैटेगरी की सब-कैटेगरी में वो लोग जिन्होंने इस ख़ास समय में अपने लिए कला के किसी फॉर्म को रखा है। नृत्य, गायन, लेखन, पेंटिंग…इनके जीवन में कला का स्थान अलग-अलग है। कभी यह हमारी ज़रूरत होती है, कभी जीने की सुंदर वजह, कभी मन के लिये कोई चाराग़र। मेरे लिये अच्छी कला का एक पैमाना यह भी है कि जिसे देख कर, सुन कर, या पढ़ कर हमारे भीतर कुछ अच्छा क्रिएट करने की प्यास जागे। उस कथन से हम ख़ुद को जोड़ सकें। हमारे समकालीन आर्टिस्ट्स क्या बना रहे हैं, उनकी प्रोसेस कैसी है…उनके डर क्या हैं, उनकी पसंद की जगहें कौन सी हैं, वे कैसा संगीत सुनते हैं…किसी हमउम्र लेखक या पेंटर से मिलना इसलिए भी अच्छा लगता है कि वे हमारे समय में जी रहे हैं…हमारे परिवेश में भी। हमारे कुछ साझे सरोकार होते हैं। अगर लेखन में आते कुछ ख़ास पैटर्न की बात करें तो विस्थापन, आइडेंटिटी क्राइसिस, उलझते रिश्ते…बदलता हुआ भूगोल, भाषा का अजनबीपन…बहुत कुछ बाँटने को होता है।

कहते हैं कि how your spend your days is how you spend your life. मतलब कि हमारे जीवन की इकाई एक दिन होता है…और रोज़मर्रा की घटनायें ही हमारे जीवन का अधिकतर हिस्सा होती हैं। मैं बैंगलोर में पिछले 16 साल से हूँ…और कोशिश करने के बावजूद यहाँ की भाषा - कन्नड़ा नहीं सीख पायी हूँ। हाँ, ये होता था कि इंदिरानगर के जिस घर में दस साल रही, वहाँ काम करने वाली बाई और मेरी कुक की बातें पूरी तरह समझ जाती थी। मुझे कुछ क्रियायें और कुछ संज्ञाएँ पता थी बस। जैसे ऊटा माने खाना, केलसा माने काम से जुड़ी कोई बात, बरतिरा माने आने-जाने संबंधित कुछ, कष्ट तो ख़ैर हिन्दी का ही शब्द था, निदान से…मतलब आराम से…थिर होकर करना। उनकी बातचीत अक्सर घर के माहौल को लेकर होती थी…उसके बाद अलग अलग घरों में कामवालियों की भाषा नहीं समझ पायी कभी भी। मैं शायद भाषा से ज़्यादा उन दोनों औरतों को समझती थी। उन्होंने एक बीस साल की लड़की को घर बसाने में पूरी मदद की…उसकी ख़ुशी-ग़म में शामिल रही। उनको मेरा ख़्याल था…मुझे उनका। वे मेरा घर थीं, उतना ही जितना ही घर के बाक़ी और लोग। ख़ैर… घर के अलावा बाहर जब भी निकली तो आसपास क्या बात हो रही है, कभी समझ नहीं आया…सब्ज़ी वाले की दुकान पर, किसी कैफ़े में, किसी ट्रेन या बस पर भी नहीं…कुछ साल बाद स्टारबक्स आया और मेरे आसपास सब लोग अंग्रेज़ी में सिर्फ़ स्टार्ट-अप की बातें करने लगे। ये वो दिन भी थे जब आसपास की बातों को सुनना भूल गई थी मैं और मैंने अच्छे नॉइज़ कैंसलेशन हेडफ़ोन ले लिये थे। मैं लूप में कुछ इंस्ट्रुमेंटल ही सुनती थी अक्सर। 2015 में जब तीन रोज़ इश्क़ आयी तो मैं पहली बार दिल्ली गई, एक तरह से 2008 के बाद पहली बार। वहाँ मेट्रो में चलते हुए, कहीं चाय-सिगरेट पीते, खाना खाते हुए मैं अपने आसपास होती हुई बातों का हिस्सा थी। ये दिल्ली का मेरा बेहद पसंदीदा हिस्सा था। मुझे हमेशा से दिल्ली में पैदल चलना, शूट करना और कुछ से कुछ रिकॉर्ड करना भला लगता रहा है।

हिन्द-युग्म उत्सव में भोपाल गई थी। सुबह छह बजे की फ्लाइट थी, मैं एक दिन पहले पहुँच गई थी। सफ़र की रात मुझे यूँ भी कभी नींद नहीं आती। तो मेरा प्रोसेस ऐसा होता है कि रात के तीन बजे अपनी गाड़ी ड्राइव करके एयरपोर्ट गई। वहाँ पार्किंग में गाड़ी छोड़ी और प्लेन लिया। दिन भर भोपाल में दोस्तों से बात करते बीता। मैं वहाँ पर जहांनुमा पैलेस में रुकी थी, जो कि शानदार था। इवेंट की जगह पर शाम में गई, वहाँ इंतज़ाम देखा और उन लोगों के डीटेल लिए जिनसे अगले दिन इवेंट पर AI के बारे में बात करनी थी। भर रात की जगी हुई थी, तो थकान लग रही थी। रात लगभग 7-8 बजे जब रेस्टोरेंट गई डिनर करने के लिए तो हेडफ़ोन नहीं लिये। किंडल ले लिया, कि कुछ पढ़ लेंगे। कुछ सुनने का पेशेंस नहीं था। रेस्टोरेंट ओपन-एयर था। मैंने एक सूप और खाने का कुछ ऑर्डर कर दिया। मेरे आसपास तीन टेबल थे। दो मेरी टेबल के दायीं और बायीं और, और एक पीछे। इन तीनों जगह पर अलग अलग लोग थे और वे बातों में मशगूल थे। मुझे उनकी बातें सुनाई भी पड़ रही थीं और समझ भी आ रही थीं…यह एक भयंकर क्रॉसफेड था जिसकी आदत ख़त्म हो गई थी। मैं बैंगलोर में कहीं भी बैठ कर अकेले खाना खा सकती हूँ। सबसे ज़्यादा शोर-शराबे वाली जगह भी मेरे लिये सिर्फ़ व्हाइट नॉइज़ है जिसे मैं मेंटली ब्लॉक करके पढ़ना-लिखना-सोचना कुछ भी काम कर सकती थी। मैं चाह के भी किंडल पढ़ नहीं पायी…इसके बाद मुझे महसूस हुआ कि समझ में आने वाला कन्वर्सेशन अब मेरे लिये शोर में बदल गया है। एक शहर ने मुझे भीतर बाहर ख़ामोश कर दिया है।

बैंगलोर में मेरे पास एक bhk फ्लैट है - Utopia, जिसे मैं अपने स्टडी की तरह इस्तेमाल करती हूँ। लिखना-पढ़ना-सोचना अच्छा लगता है इस स्पेस में। लेकिन शायद जो सबसे अच्छा लगता है वो है इस स्पेस में अकेले होना। ख़ुद के लिए कभी कभी खाना बनाना। अपनी पसंद के कपड़े पहनना…देर तक गर्म पानी में नहाना…स्टडी टेबल से बाहर की ओर बनते-बिगड़ते बादलों को देखना। यह तन्हाई और खामोशी मेरे वजूद का एक हिस्सा बन गई है। बहुत शोर में से मैं अक्सर यहाँ तक लौटना चाहती हूँ।

मुराकामी की किताबें मेरे घर में होती हैं। किंडल पर। और Utopia में भी। ६०० पन्ने की The wind up bird chronicles इसलिए ख़त्म कर पायी कि यह किताब हर जगह मेरे आसपास मौजूद थी। कुछ दिन पहले एक दोस्त से बात कर रही थी, कि The wind up bird chronicles कितना वीभत्स है कहीं कहीं। कि उसमें एक जगह एक व्यक्ति की खाल उतारने का दृश्य है, वह इतना सजीव है कि ज़ुबान पर खून का स्वाद आता है…उबकाई आती है…चीखें सुनाई पड़ती हैं। कि मैं उस रात खाना नहीं खा पायी। वो थोड़े अचरज से कहता है, But you like dark stuff, don’t you? दोस्त हमें ख़ुद को डिफाइन करने के लिए भी चाहिए होते हैं। मैंने एक मिनट सोचा तो ध्यान आया कि मैं सच में काफ़ी कुछ स्याह पढ़ती हूँ। कला में भी मुझे अंधेरे पसंद हैं।

दुनिया में कई कलाकार हैं। इत्तिफ़ाक़न मैं जिनके प्रेम में पड़ती हूँ, उनके जीवन में असह्य दुख की इतनी घनी छाया रहती है कि कैनवस पर पेंट किया सूरज भी उनके जीवन में एक फीकी उजास ही भर पाता है। शिकागो गई थी, तब वैन गो की बहुत सारी पेंटिंग्स देखी थीं। वह एक धूप भरा कमरा था। उसमें सूरजमुखी थे। मैं वहाँ लगभग फफक के रो देना चाहती थी कि वैन गो…तुमने कैसे बनाए इतने चटख रंगों में पेंटिंग्स जब कि तुम्हारे भीतर मृत्यु हौले कदमों से वाल्ट्ज़ कर रही थी। अकेले। कि पागलपन से जूझते हुए इतने नाज़ुक Almond Blossoms कैसे पेंट किए तुमने…कि स्टारी नाइट एक पागल धुन पर नाचती हुई रात है ना? मैं ऐसी रातें जाने कहाँ कहाँ तलाशती रहती हूँ। कि जब न्यू यॉर्क में MOMA में स्टारी नाइट देखी थी तो रात को टाइम्स स्क्वायर पर बैठी रही, रात के बारह बजे अकेले…चमकती रोशनी में ख़ुद को देखती…स्याही की बोतल भरती बूँद बूँद स्याह अकेलापन से…

यह दुनिया मुझे ज़रा कम ही समझ आती है। अधिकतर व्यक्ति जब कोई अच्छा काम कर रहे होते हैं तो वे चाहते हैं कि उन्हें एक मंच मिले, उन पर स्पॉटलाइट हो…वे गर्व मिश्रित ख़ुशी से सबके सामने अपनी उपलब्धियों के लिए कोई अवार्ड लेने जायें। मंच पर उन लोगों के नाम गिनायें जिन्होंने इस रास्ते की मुश्किलें आसान कीं…जो उनके साथ उनके मुश्किल दौर में खड़े रहे। ऐसे में दुनिया का अच्छाई पर भरोसा बढ़ता है और उन्हें लगता है मेहनत करने वाले लोग देर-सवेर सफलता हासिल कर ही लेते हैं। इन दिनों जिसे hustle कहते हैं। कि ऑफिस के अलावा भी कुछ और साथ-साथ कर रहे हैं। कि उन्होंने ख़ुद को ज़िंदा रखने की क़वायद जारी रखी है।

मुझे अपने हिसाब का जीवन मिले तो उसमें रातें हों…कहीं चाँद-तारे की टिमटिम रौशनी और उसमें हम अपनी कहानी सुना सकें। अंधेरा और रौशनी ऐसा हो कि समझ न आए कि जो सच की कहानी है और जो झूठ की कहानी है। कि किताब के किरदारों के बारे में लोग खोज-खोज के पूछते हैं कि कहाँ मिला था और मेरे सच के जीवन के नीरस होने को झूठ समझें। कि सच लिखने में क्या मज़ा है…सोचो, किसी का जीवन कहानी जितना इंट्रेस्टिंग होता तो वो आत्मकथा लिखता, उपन्यास थोड़े ही न।

मैं विरोधाभासों की बनी हूँ। एक तरफ़ मुझे धूप बहुत पसंद है और दूसरी तरफ़ मैं रात में एकदम ऐक्टिव हो जाती हूँ - निशाचर एकदम। घर में खूब सी धूप चाहिए। कमरे से आसमान न दिखने पर मैं अवसाद की ओर बढ़ने लगती हूँ। और वहीं देर रात शहर घूमना। अंधेरे में टिमटिमाती किसी की आँखें देखना। देर रात गाड़ी चलाना। यहाँ वहाँ भटकते किरदारों से मिलना…यह सब मुझे ज़िंदा रखता है।

एक सुंदर कलाकृति हमें कुछ सुंदर रचने को उकसाती है। हमारे भीतर के स्याह को होने का स्पेस देती है। हमें इन्स्पायर करती है। किसी के शब्द हमारे लिए एक जादू रचते हैं। कोई छूटा हुआ प्रेम हमारे कहानी की संभावनायें रचता है। हम जो जरा-जरा दुखते से जी रहे होते हैं…किसी पेंटिंग के सामने खड़े हो कर कहते हैं, प्यारे वैन गो…टाइट हग्स। तुम जहाँ भी रंगों में घूम रहे हो। प्यारे मोने, क्या स्वर्ग में तुम ठीक-ठीक पकड़ पाये आँखों से दूर छिटकती रौशनी को कभी?

मेरी दुनिया अचरज की दुनिया है। मैं इंतज़ार के महीन धागे से बँधी उसके इर्द गिर्द दुनिया में घूमती हूँ। जाने किस जन्म का बंधन है…उसकी एक धुंधली सी तस्वीर थी। खुली हुई हथेली में जाने एक कप चाय की दरकार थी या माँगी हुई सिगरेट की…बदन पर खिलता सफ़ेद रंग था या कोरा काग़ज़…

जाने उसके दिल पर लिखा था किस-किस का नाम…जाने कितनी मुहब्बत उसके हिस्से आनी थी…
मेरे हिस्से सिर्फ़ एक सवाल आया था…उसके काँधे से कैसी ख़ुशबू आती थी? 

जलता हुआ दिल सिगरेट के धुएँ जैसा महकता है। भगवान ही जानता है कि कितनी पागल रातें आइस्ड वाटर पिया है। बर्फ़ीला पानी दिल को बुझाता नहीं। नशा होता है। नीट मुहब्बत का नशा। कि हम नालायक लोग हैं। बोतल से व्हिस्की पीने वाले। इश्क़ हुआ तो चाँद रात में संगमरमर के फ़र्श पर तड़पने वाले। आत्मा को कात लेते किसी धागे की तरह और रचते चारागार जुलाहों का गाँव कि जहाँ लोग टूटे हुए दिल की तुरपाई करने का हुनर जानते। कि हमारे लिये जो लोग ईश्वर ने बनाये हैं, वे रहते हैं कई कई किलोमीटर दूर…कि उनके शहर से हमारे शहर तक कुछ भी डायरेक्ट नहीं आता…न ट्रेन, न प्लेन, न सड़क…हर कुछ के रास्ते में दुनियादारी है…

हम थक के मुहब्बत के उसी ईश्वर से दरखास्त करते, कि दिल से घटा दे थोड़ी सी मुहब्बत…कि इतने इंतज़ार से मर सकते हैं हम। कि कच्ची कविताओं की उम्र चली गई। अब ठहरी हुई चुप्पियों में जी लें बची हुई उम्र।

लेकिन दिल ज़िद्दी है। आख़िर, किसी लेखक का दिल है, इस बेवक़ूफ़ को लगता है, हम सब कुछ लिख कर ख़त्म कर देंगे। लेकिन असल में, लिखने से ही सब कुछ शुरू होता है।


***
कलाई पर प्यास का इत्र रगड़ता है
बिलौरी आँखों वाला ब्रेसलेट
इसके मनके उसकी हथेलियों की तरह ठंढे हैं।

***
इक जादुई तकनीक से कॉपी हो गये
महबूब के हाथ
वे हुबहू रिप्लीकेट कर सकते थे उसका स्पर्श
उसकी हथेली की गर्माहट, कसावट और थरथराहट भी

प्रेमियों ने लेकिन फेंक दिया उन हाथों को ख़ुद से बहुत दूर
कि उस छुअन से आती थी बेवफ़ाई की गंध।

***

मुहब्बत के ईश्वर को पसंद है सिगरेट
कि पूजा के हाथ धुआँ-धुआँ महकते हैं


27 April, 2020

लड़कियाँ जिनसे मुहब्बत हो तो उनका बदन उतार कर किसी खूँटी पर टांगना ना पड़े

#rant

कुछ दिन पहले 'रहना है तेरे दिल में' देख रही थी। बहुत साल बाद हम चीज़ें देखते हैं तो हम बदल चुके होते हैं और दुनिया को एक नए नज़रिए से देखते हैं। जो चीज़ें पहले बहुत सामान्य सी लगती थीं, अब बुरी लगती हैं या बेहद शर्मनाक भी लगती हैं। ख़ास तौर से औरतों को जिस तरह दिखाया जाता है। वो देख कर अब तो सर पीट लेने का मन करता है।

काश हिंदी फ़िल्मों का रोमैन्स इतना ज़्यादा फ़िल्मी न होकर थोड़ा बहुत सच्चाई से जुड़ा हुआ होता। मुहब्बत की पूरी टाइमलाइन उलझा दी है कमबख़्तों ने।

लड़के लड़की का एक दूसरे को अप्रोच करना इतना मुश्किल बना दिया है कि समझ नहीं आता कि आपको कोई अच्छा लगता है तो आप सीधे सीधे उससे जा कर ये बात कह क्यूँ नहीं सकते। इतनी तिकड़म भिड़ाने की क्या ज़रूरत है। फिर कहने के बाद हाँ, ना जो भी हो, उसकी रेस्पेक्ट करते हुए उसके फ़ैसले को ऐक्सेप्ट कर के बात ख़त्म क्यूँ नहीं करते। ना सुनने में इन्सल्ट कैसे हो जाती है।

ख़ैर। आज मैं सिर्फ़ दूसरी दिक्कत पर अटकी हूँ।

RHTDM में मैडी कहता है कि मैं तुमसे प्यार करता था तो तुम्हारे साथ कोई ऐसी वैसी हरकत की मैंने। नहीं।

अब दिक्कत ये है कि अगर मैडी उससे सच में प्यार करता था तो उसे चूमना या उसे छूने की इच्छा अगर ग़लत है तो फिर सही क्या है। और इतना ही अलग है तो 'ज़रा ज़रा महकता है' वाला गाना क्या था, क्यूँ था?

मतलब लड़कियाँ हमेशा दो तरह की होती हैं... प्यार करने वाली जिनके साथ सोया नहीं जा सकता और सिर्फ़ सोए जा सकने वालीं, जिनसे प्यार नहीं किया जा सकता। ये प्रॉपगैंडा इतने सालों से चलता अभी तक चल रहा है। देखिए ऊबर कूल फ़िल्म, 'ये जवानी है दीवानी' में कबीर कहता है, तुम्हारे जैसी लड़की इश्क़ के लिए बनी है। कोई किसी लड़की को कभी भी कहेगा कि तुम सिर्फ़ इस्तेमाल के लिए बनी हो। और अगर दोनों ने अपनी मर्ज़ी से एक दूसरे को चुना है तो किसने किसे इस्तेमाल किया?

ये कैसे लोग हैं जो ये सब लिखते हैं। इन्होंने कभी किसी से सच का प्यार व्यार कभी नहीं किया क्या?! कोई अच्छा लगता है तो चूमना उसे चाहेंगे ना, या कोई दूसरा ढूँढेंगे जिसके साथ सोया तो जा सकता है लेकिन पूरी रात जाग के बातें नहीं की जा सकतीं। ये mutually exclusive नहीं होता है।

बॉलीवुड कहता है कि ये दो लोग कभी एक नहीं हो सकते। अब आप बेचारे आम लोगों का सोचिए। किसी को एक कोई पसंद आए और बात दोतरफा हो ये क्या कम चमत्कार है कि वो अब किसी और को तलाशे जो सिर्फ़ शरीर तक बात रखे। मतलब प्यार के लिए एक लड़की/लड़का और प्यार करने के लिए दूसरी/दूसरा! इतने लोग मिलेंगे कहाँ?

मतलब क्या *तियाप है रे बाबा!

इश्क़ वाली लड़की स्टिरीयोटाइप, इंटेलिजेंट, भली, भोली लड़की। माँ-बाप की इच्छा माने वाली, अरेंज मैरज करने वाली। ट्रेडिशनल कपड़े पहनने वाली। चश्मिश। ट्रेडिशनल लेकिन बोरिंग नहीं, सेक्सी। बहुत ज़्यादा बग़ावत करनी है तो लव मैरिज करेगी या सिगरेट शराब पी लेगी। कोई ढंग का कैरियर चुन कर कुछ बनेगी नहीं, अपने फ़ैसले करके के उसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेगी।

नॉन-इश्क़ वाली बुरी लड़की। छोटे कपड़े पहनने वाली(ये ज़रूरी है)। सिगरेट शराब, तो ख़ैर ज़रूरी है ही। अक्सर बेवक़ूफ़ भी। बेहद ख़ूबसूरत। लड़की नहीं, गुड़िया। कि जिसकी कोई फ़ीलिंज़ होती ही नहीं हैं। इस्तेमाल करो, फेंको, आगे बढ़ो।

और लड़का लड़की के बीच में 'कुछ' ऊँच नीच हो गयी तो तौबा तौबा। फ़िल्म का टर्निंग पोईंट हो जाता है। बवाल मच जाता है। pre-sex और post-sex के बीच बँट जाते हैं हमारे मुख्य किरदार।

रियल ज़िंदगी में इसलिए लोग अपराधबोध से घिरे होते हैं, कि हम उससे प्यार करते हैं तो उसको वैसी नज़र से कैसे देख सकते हैं। मेरी किताब, तीन रोज़ इश्क़ में एक कहानी है, मेरी उँगलियों में तुम्हारा लम्स न सही, तुम्हारे बदन की खुशबू तो है। इसमें ख़स की ख़ुशबू वाला ग्लिसरिन साबुन है जो लड़की स्कार्फ़ में लपेट कर लड़के को कुरियर कर देती है। तब जा के लड़का उसे 'उस' नज़र से देखने के अपराधबोध से मुक्त होता है। मुझे ऐसी कहानियाँ अच्छी लगती हैं। मुझे ऐसी लड़कियाँ अच्छी लगती हैं जो एक क़दम आगे बढ़ कर माँग लेती हैं जो उन्हें चाहिए। 

इन चीज़ों पर जो सोचते हैं कई बार उसे भी सवालों के कटघरे में खड़ा करते हैं कि हम ये सब सोच क्यूँ रहे हैं। कुछ ऐसा लिखना भी बेहद ख़तरनाक है कि कौन अपना इम्प्रेशन ख़राब करे। लेकिन इतने साल से यही सब देख-सुन के पक गए हैं। कुछ नया चाहिए। ताज़गी भरा। वे लड़कियाँ चाहिए जो ख़ुद से फ़ैसला करें, लड़के - नौकरी - सिगरेट का ब्राण्ड - शाम को घर लौटने का सही वक़्त। वे लड़कियाँ जिनसे मुहब्बत हो तो उनका बदन उतार कर किसी खूँटी पर टांगना ना पड़े। जिनकी आत्मा से ही नहीं, उनके शरीर से भी प्यार किया जा सके।


बस। आज के लिए इतना काफ़ी है। मूड हुआ तो इसपर और लिखेंगे।

10 December, 2018

Paper planes and a city of salt


जिस दिन मुझे ख़ुद से ज़्यादा अजीब कोई इंसान मिल जाए, उसको पकड़ के दन्न से किसी कहानी में धर देते हैं।

इधर बहुत दिन हो गए तरतीब से ठीक समय लिखा नहीं। नोट्बुक पर भी किसी सफ़र के दर्मयान ही लिखा। दुःख दर्द सारे घूम घूम कर वहीं स्थिर हो गए हैं कि कोई सिरा नहीं मिलता, कोई आज़ादी नहीं मिलती।
चुनांचे, ज़िंदगी ठहर गयी है। और साहब, अगर आप ज़रा भी जानते हैं मुझे तो ये तो जानते ही होंगे कि ठहर जाने में मुझ कमबख़्त की जान जाती है। तो आज शाम कुछ भी लिखने को जी नहीं कर रहा था तो हमने सिर्फ़ आदत की ख़ातिर रेख़्ता खोला और मजाज़ के शेर पढ़ कर अपनी डायरी में कापी करने लगी। हैंडराइटिंग अब लगभग ऐसी सध गयी है कि बहुत दिनों बाद भी टेढ़ी मेढ़ी बस दो तीन लाइन तक ही होती है, फिर ठीक ठीक लिखाने लगती है।
इस बीच मजाज के लतीफ़े पढ़ने को जी कर गया। और फिर आख़िर में मंटो के छोटे छोटे क़िस्से पढ़ने लगी। फिर एक आध अफ़साने। और फिर आख़िर में मंटो का इस्मत पर लिखा लेख।
उसके पहले भर शाम बैठ कर goethe के बारे में पढ़ा और कुछ मोट्सार्ट को सुना। कैसी गहरी, दुखती चीज़ें हैं इस दुनिया में। कमबख़्त। पढ़ वैसे तो रोलाँ बार्थ को रही थी, कई दिनों बाद, फिर से। "प्रेमी की जानलेवा पहचान/परिभाषा यही है कि "मैं इंतज़ार में हूँ"'। इसे पढ़ते हुए इतने सालों में पहली बार इस बात पर ध्यान गया कि मुझे प्रेम कितने अब्सेसिव तरीक़े से होता है। शायद इस तरह डूब कर, पागलों की तरह प्रेम करना मेरे मेंटल हेल्थ के लिए सही नहीं रहा हो। यूँ कहने को तो मजाज भी कह गए हैं कि 'सब इसी इश्क़ के करिश्मे हैं, वरना क्या ऐ मजाज हैं हम लोग'। फिर ये भी तो कि 'उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ाँ मेरे दिल से, देखूँगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और जियादा'। 

कि मैंने उम्र का जितना वक़्त किसी और के बारे में एकदम ही अब्सेसिव होकर सोचने में बिताया है, उतने में अपने जीवन के बारे में सोचा होता तो शायद मैं अपने वक़्त का कुछ बेहतर इस्तेमाल कर पाती। सोचने की डिटेल्ज़ मुझे अब भी चकित करती है। मैंने किसी और को इस तरह नहीं देखा। यूँ इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि मैं चीज़ों को लेकर इन्फ़िनिट अचरज से भरी होती हूँ। बात महबूब की हो तो और भी ज़्यादा। गूगल मैप पर मैंने कई बार उन लोगों के शहर का नक़्शा देखा है, जिनसे मैं प्यार करती हूँ। उनके घर से लेकर उनके दफ़्तर का रास्ता देखा है, रास्ते में पड़ने वाली दुकानें... कुछ यूँ कि जैसे मंटो से प्यार है तो कुछ ऐसे कि उसके हाथ का लिखा धोबी का हिसाब भी मिल जाए तो मत्थे लगा लें। ज़िंदा लोगों के प्रति ऐसे पागल होती हूँ तो अच्छा नहीं होता, शायद। हमारी दुनिया में ऐसे शब्द भी तो हैं, ख़तरनाक और ज़हरीले। जैसे कि स्टॉकिंग।

मैं एक बेहतरीन stalker बन सकती थी। पुराने ज़माने में भी। इसका पहला अनुभव तब रहा है जब मुझे पहली बार किसी से बात करने की भीषण इच्छा हुयी थी और मेरे पास उसका फ़ोन नम्बर नहीं था। मैंने अपने शहर फ़ोन करके अपनी दोस्त से टेलिफ़ोन डिरेक्टरी निकलवायी और लड़के के पिताजी का नाम खोजने को कहा। उन दिनों लैंडलाइन फ़ोन बहुत कम लोगों के पास हुआ करते थे और हम नम्बरों के प्रति घोर ब्लाइंड उन दिनों नहीं थे। तो नाम और नम्बर सुनकर ठीक अंदाज़ा लगा लिया कि हमारे मुहल्ले का नम्बर कौन सा होगा। ये उन दिनों की बात है जब किसी के यहाँ फ़ोन करो तो पहला सवाल अक्सर ये होता था, 'मेरा नम्बर कहाँ से मिला?'। तो लड़के ने भी फ़ोन उठा कर भारी अचरज में यही सवाल पूछा, कि मेरा नम्बर कहाँ से मिला तुमको। फिर हमने जो रामकहानी सुनायी कि क्या कहें। इस तरह के कुछेक और कांड हमारी लिस्ट में दर्ज हैं।

ये साल जाते जाते उम्मीद और नाउम्मीद पर ऐसे झुलाता है कि लगता है पागल ही हो जाएँगे। न्यू यॉर्क का टिकट कटा के कैंसिल करना। pondicherry की ट्रिप सारी बुक करने के बाद ग़ाज़ा तूफ़ान के कारण हवाई जहाज़ लैंड नहीं कर पाया और वापस बैंगलोर आ गए। पेरिस की ट्रिप लास्ट मोमेंट में कुछ ऐसे बुक हुयी कि एक दिन में वीसा भी आ गया। कि पाँच बजे शाम को पास्पोर्ट कलेक्ट कर के घर आए और फिर सामान पैक करके उसी रात की फ़्लाइट के लिए निकल भी गए। 

कि साल को कहा, कि पेरिस ट्रिप अगर हुयी तो तुमसे कोई शिकायत नहीं करूँगी। जिस साल में इंसान पेरिस घूमने जाए, उस साल को बुरा कहना नाइंसाफ़ी है... और हम चाहे और जो कुछ भी हों, ईमानदार बहुत हैं। फिर बचपन में इसलिए तो प्रेमचंद की कहानी पढ़ाई गयी थी, 'पंच परमेश्वर', फिर किसी कहानी में उसका ज़िक्र भी आया। कुछ ऐसे ही वाक़ई बात मन में गूँजती रहती है, लौट लौट कर। 'बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?'। तो इस साल की शिकायतें वापस। साल को ख़ुद का नाम क्लीयर करने का मौक़ा मिला और २०१८ ने लपक के लोक लिया।

मगर ये मन कैसा है कि आसमान माँगता है? ख़ुशियों के शहर माँगता है। इत्तिफ़ाकों वाले एयरपोर्ट खड़े करता है और उम्मीदों वाले पेपर प्लेन बनाता है। ऐसे ही किसी काग़ज़ के हवाई जहाज़ पर उड़ रहा है मन और लैंड कर रहा है तुम्हारे शहर में। कहते हैं सिक्का उछालने से सिर्फ़ ये पता चलता है कि हम सच में, सच में क्या चाहते हैं। इसलिए पहले बेस्ट औफ़ थ्री, फिर बेस्ट औफ़ फ़ाइव, फिर बेस्ट औफ़ सेवन... और फिर भी अपनी मर्ज़ी का रिज़ल्ट नहीं आया तो पूरी प्रक्रिया को ही ख़ारिज कर देते हैं। 

इक शहर है समंदर किनारे का। अजीब क़िस्सों वाला। इंतज़ार जैसा नमकीन। विदा जैसा कलेजे में दुखता हुआ। ऊनींदे दिखते हो उस शहर में तुम। वहाँ मिलोगे?

20 November, 2018

November Mornings

मेरा मैक चूँकि नया है और इतना साफ़ है कि मन करता है लिखने के पहले साबुन से हाथ धो कर आएँ :) हाथ में ज़रा सी भी चिकनाई हो तो कीबोर्ड पर फ़ील होने लगता है। क़लम से लिखने के साथ तो ये बात हमेशा से रही है कि हाथ एकदम साफ़ हों, लेकिन नॉर्मली कीबोर्ड के बारे में ऐसा नहीं सोचते थे। उसपर मेरे हाथों में पसीना बहुत आता है, ज़रा भी गरमी हुयी नहीं कि मुश्किल। स्कूल कॉलेज के टाइम अगर किसी इग्ज़ैम में रूमाल ले जाना भूल गए तो आफ़त ही आ जाती थी। लिखते हुए इतना हाथ फिसलता था कि बस! वरना तो बस स्कर्ट में हाथ पोछने के सिवा कोई चारा नहीं होता था। स्कूल के टाइम में मेरे पास एक ही स्कर्ट हुआ करती थी। तो अगर स्कर्ट गंदा कर दिए घर जाते साथ पहले स्कर्ट धो कर सुखाने के लिए डाल देते थे। बैंगलोर का मौसम लगभग पूरे साल ठंडा ही रहता है तो दिक्कत नहीं होती है। मैं भूल भी जाती हूँ कि लिखने में हाथ फिसलता था। फिर जब से Lamy डिस्कवर किए हैं, लिखने का सुख कमाल का है। क़लम की ग्रिप मेरे हाथ के लिए एकदम ही पर्फ़ेक्ट है, हाथ कभी नहीं फिसलता। लम्बे समय पर लिखने पर भी उँगलियाँ नहीं दुखतीं। अच्छा डिज़ाइन इसी को तो कहते हैं। जहाँ भी अच्छा डिज़ाइन होता है, वो साफ़ पता चलता है। जैसे कि मैकबुक के नए वाले ऑपरेटिंग सिस्टम में एक डार्क मोड है जो मुझे बेहद पसंद है। इसमें काग़ज़ एकदम साफ़ दिखता है बीच में। आसपास सब कुछ काला। ऐसे लेआउट में लिखने का ख़ूब मन करता है।

ऑफ़िस में अपने इस्तेमाल के लिए एक डेस्क ख़रीदनी है। कल पेपरफ़्राई पर देख कर आए लेकिन अपने पसंद की डेस्क नहीं मिली। इधर पापा आए हुए थे तो बता रहे थे कि वो जब कश्मीर गए थे तो लिखने के लिए इतना ख़ूबसूरत डेस्क देखे कि उनका मन किया कि आगे की ट्रिप कैन्सल करके वही एक डेस्क ख़रीद के लौट आएँ। अखरोट की लकड़ी का डेस्क। अब वैसी ही किसी डेस्क पर दिल अटका हुआ है मेरा। कैसी कैसी चीज़ों के लिए सफ़र करने का मन करता है। अब लगता है ऐसे किसी शहर जाएँ जहाँ लकड़ी पर inlay वर्क होता हो। एक अच्छी लकड़ी की डेस्क और किनारे पर सफ़ेद बारीक काम किया हुआ हो। इस बार घर जाएँगे तो सोच रहे हैं कि डेस्क तो बनवा ही लें लकड़ी की… हाँ उसपर काम होता रहेगा। घर पर अक्सर बढ़ई काम करने आते हैं। ससुराल में कुछ ख़ूब बड़े बड़े पलंग वग़ैरह बने हैं। फिर बड़ा घर है तो कुछ ना कुछ काम चलता ही रहता है हमेशा। उन्होंने कह भी रखा है, कुछ भी डिज़ाइन आप दिखा दीजिए, हम बना देंगे।

टेबल या डेस्क कुछ चौड़ी हो जिसपर लिखने के अलावा की चीज़ें रखी जा सकें। कुछ पेपरवेट, कुछ इधर उधर से लाए गए छोटे छोटे स्नो ग्लोब, एक नटराज की छोटी सी मूर्ति। फिर मुझे अपने लिखने के डेस्क पर नॉर्मली दो चार किताबें और कई सारी नोट्बुक रखनी होती है। कलमें होती हैं कई सारी। एक छोटा सा फूलदान होता है। अक्सर ताज़े फूल रहते हैं। चाय या कॉफ़ी का मग रहता ही है।

कल पेपरफ़्राई में एक बहुत सुंदर छोटी सी लकड़ी की टेबल देखी। उसपर मोर बना हुआ था। एक मन तो किया कि ख़रीद ही लें। मेरी वाली टेबल अब बहुत पुरानी हो गयी है। लेकिन दिक्कत ये थी कि उस टेबल में इंक्लाइन नहीं था। मुझे हाथ से लिखने के समय थोड़ा सा ऐंगल अच्छा लगता है। जैसे स्कूल के समय डेस्क में हुआ करता था। कोई पंद्रह डिग्री टाइप झुकाव। उसपर हाथ ठीक से बैठता है। चूँकि मैं अभी भी बहुत सारा कुछ हाथ से लिखती हूँ वैसा ज़रूरी होता है।

कितने शहर जाने का मन करता है। यायावर। बंजारा मन। 

19 November, 2018

रोज़नामचा - नवम्बर की किसी शाम


हम कहाँ कहाँ छूटे रह जाते हैं। इंटर्नेट पर लिखे अपने पुराने शब्द पहचानना मुश्किल होता है मेरे लिए। ऐसे ही कोई जब कहता है कि उनको मेरी किताब का कोई एक हिस्सा बहुत पसंद है। का किसी कहानी की कोई एक पंक्ति, तो मुझे कई बार याद नहीं रहता कि ये मैंने लिखा था। 

8tracks एक ऑनलाइन रेडिओ है जिसका इस्तेमाल मैं लिखने के दर्मयान करती थी। ख़ास तौर से अपने पुराने ऑफ़िस में स्क्रिप्ट लिखते हुए या ऐसा ही कुछ करने के समय जब शोर चाहिए होता था और ख़ामोशी भी। कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जिनसे हमें किसने मिलवाया हमें याद नहीं रहता। किसी शाम के रंग याद रहते हैं बस। बोस के noise कैन्सेलेशन हेड्फ़ोंज़ वाले चुप्पे लम्हे। 8tracks के मेरे पसंदीदा मिक्स पर कमेंट लिखा था मैंने। अब मैं वैसी बातें करती ही नहीं। पता नहीं कब, क्या महसूस किया था जो वहाँ लिखा भी था। “My soul was searching for these sounds...somewhere in vacuum. Thank you. Your name added to the playlist's name makes a complete phrase for my emotional state now...'How it feels to be broken my mausoleums'. Redemptions come in many sounds. Solace sometimes finds its way to you. And darkness is comforting. Thank you. So much.”

आज बहुत दिन क्या साल बाद लगभग ऑफ़िस का कुछ काम करने आयी। मैं काम के मामले में अजीब क़िस्म की सिस्टेमैटिक हूँ। मुझे सारी चीज़ें अपने हिसाब से चाहिए, कोई एक चीज़ इधर से उधर हुयी तो मैं काम नहीं कर सकती। चाय मेरे पसंद की होनी चाहिए, ग्रीन टी पियूँगी तो ऐसा नहीं है कि कोई भी पी लूँ… ‘ginger mint and lemon’ फ़्लेवर चाहिए होता है। कॉफ़ी के मामले में तो केस एकदम ही गड़बड़ है अब। starbucks के सिवा कोई कॉफ़ी अच्छी नहीं लगती है। लेकिन उस कॉफ़ी के साथ लिखना मतलब कोई क़िस्सा कहानी लिखना, टेक्नॉलजी नहीं। 

फिर मैं जाने क्या लिखना चाहती हूँ। जो चीज़ें मुझे सबसे ज़्यादा अफ़ेक्ट करती हैं इन दिनों, मैं उसके बारे में लिखने की हिम्मत करने की कोशिश कर रही हूँ। सब उतना आसान नहीं है जितना कि दिखता है। जैसे कि पहले भी मुझे डिप्रेशन होता था ऐंज़ाइयटी होती थी लेकिन हालत इतनी बुरी नहीं थी। इन दिनों ज़रा सी बात पर रीऐक्शन कुछ भी हो सकता है। ख़ास तौर से कलाइयाँ काटने की तो इतनी भीषण इच्छा होती है कि डर लगता है। मैं जान कर घर में तेज धार के चाक़ू, पेपर कटर या कि ब्लेड नहीं रखती हूँ। इसके अलावा सड़क पर गाड़ी ठोक देने के ख़याल आते हैं, किसी बिल्डिंग से कूद जाने के या कि कई बार डूब जाने के ख़याल भी आते हैं। मुझे डाक्टर्ज़ और दवाइयों पर भरोसा नहीं होता। आश्चर्यजनक रूप से, मुझ पर कई दवाइयाँ काम नहीं करती हैं। ये कैसे होता है मुझे नहीं मालूम। पहले ऐसा बहुत ही ज़्यादा दुःख या अवसाद के दिन होता था। आजकल बहुत ज़्यादा फ़्रीक्वंट्ली हो रहा है। 

इन चीज़ों का एक ही उपाय होता है। किसी चीज़ में डूब जाना। तो काम में डूबने के लिए सब तैय्यारी हो गयी है। टेक्नॉलजी मुझे पहले से भी बहुत ज़्यादा पसंद है, सो उसके बारे में पढ़ रही हूँ। एक बार सारी इन्फ़र्मेशन समझ में आने लगेगी तो फिर लिखने भी लगूँगी। आर्टिफ़िशल इंटेलिजेन्स, मशीन लर्निंग, एंटर्प्रायज़ ऑटमेशन…सब ऐसी चीज़ें हैं जिनके बारे में में मुझे एकदम से शुरुआत से पढ़ाई करनी है। फिर, आजकल अच्छी बात ये है कि हिंदी अख़बार शुरू किया है। सुबह सुबह हिंदी में पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ऐसे भी शब्द अब रोज़ाना मिलने लगे हैं जिनसे मिले अरसा हो जाता था। जैसे कि प्रक्षेपण। इंदिरानगर में रहते हुए दस साल से हिंदी अख़बार पढ़ा नहीं, कि उधर आता ही नहीं था। इस घर में राजस्थान पत्रिका मिल जाती है। यूँ मुझे हिंदुस्तान पढ़ना पसंद था, लेकिन ठीक है। पत्रिका का स्टैंडर्ड ठीक-ठाक है। कुछ आर्टिकल्ज़ अच्छे लगते हैं। हिंदुस्तान पढ़े कितना वक़्त बीत गया। देवघर में ससुराल में भी प्रभात ख़बर आता है, वो तो इतना बुरा है कि पढ़ना नामुमकिन है। 

आज पूरा दिन बहुत थका देने वाला रहा। ऑफ़िस में दूसरे हाफ में तो नींद भी आ रही थी बहुत तेज़। कल से सोच रही हूँ अपना फ़्रेंच प्रेस कॉफ़ी मेकर और कॉफ़ी पाउडर ले कर ही आऊँ ऑफ़िस। काम करने में अच्छा रहेगा। फिर कभी कभी सोचती हूँ कॉफ़ी मेरी हेल्थ के लिए सही नहीं है, तो पीना बंद कर दूँ। 

इंग्लिश विंग्लिश बहुत सुंदर फ़िल्म है। और सबसे सुंदर उसका आख़िर वाला स्पीच है। श्रीदेवी ने कितनी ख़ूबसूरती से स्पीच दी है। मैं अक्सर उस स्पीच के बारे में सोचती हूँ। ख़ुद की मदद करना ज़रूरी होता है ज़िंदगी के कुछ पड़ावों पर। कि आख़िर में, सारी लड़ाइयाँ हमारी पर्सनल होती हैं। चाहे वो हमारे सपनों को हासिल करने की लड़ाई हो या कि अपने भीतर रहते दैत्यों से रोज़ लड़ते हुए ख़ुद को पागल हो जाने से बचा लिए जाने की। जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है, ज़िंदगी के कई स्याह पहचान में आ रहे हैं। ऐसा क्यूँ है कि अवसाद का रंग और गाढ़ा ही होता जाता है? 

मैं अपने शहर बनाना चाहती हूँ लेकिन विदा के शहर नहीं। बसे-बसाए शहर कि जिनमें भाग के जाने को नहीं, घूमने जाने को जी चाहे। ख़ूबसूरत शहर। बाग़ बगीचों वाले। कई रंग के गुलाब, गुलदाउदी, पीले अमलतास, सुर्ख़ गुलमोहर और पलाश वाले। कहते हैं कि हमें जीने के लिए कुछ चीज़ों से जुड़े रहने की ज़रूरत होती है। चाहे वो कोई छोटी सी चीज़ ही हो। बार बार याद आने वाली बातों में मुझे ये भी हमेशा याद आता है कि रामकृष्ण परमहंस को लूचि (अलग अलग कहानियों में अलग अलग खाद्य पदार्थों का ज़िक्र आता है। कहीं गुलाबजामुन और जलेबी का भी) से बहुत लगाव था और उन्होंने एक शिष्य को कहा था कि दुनिया में अगर हर चीज़ से लगाव टूट जाएगा तो वे शरीर धारण नहीं कर पाएँगे। मोह जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा है। बस, कुछ भी अधिक नहीं होना चाहिए। अति सर्वत्र वर्जयेत और त्यक्तेन भुंजीथा भी पढ़ा है हमने। पढ़ने से इन बोधकथाओं का कोई हिस्सा अवचेतन में अंकित हो जाता है और हमें बहुत ज़्यादा अवसाद के क्षण में बचा लेता है। बीरबल की उस कहानी की तरह जहाँ बर्फ़ीले ठंडे पानी में खड़े व्यक्ति ने दूर दिए की लौ को देख कर उसकी गर्माहट की कल्पना की और रात भर पानी में खड़ा रहा। 

कभी कभी किसी और को अपनी जिंदगी के बारे में बताती हूँ तो अक्सर लगता है कि life has been extremely kind to me. शायद इसलिए भी, छोटी छोटी चीज़ों में थोड़ी सी ख़ुशी तलाश के रख सकती हूँ। ख़ुद को बिखरे हुए इधर उधर पा के अच्छा लगता है। मैं रहूँ, ना रहूँ…मेरे शब्द रहेंगे। 

15 May, 2013

जंकयार्ड डायरीज

तुम कोई उदास कविता नहीं हो कि तुम्हारे खो जाने पर आंसू बहाए जाएँ...तुम तो जिंदगी का रस हो, राग हो, नृत्य हो...तुम्हारे होने से धूप निकलती है...तुम पास होते हो तो जैसे सब कुछ थिरक उठता है...अब किसी दिन ऐसी ही कोई धुन गुनगुनाते आओगे कि पाँव रुक नहीं पायेंगे तो मैं क्या करूंगी बताओ...फिर कभी कभी सोचती हूँ बड़ी खूबसूरत चीज़...सोलह साल की लड़की होती है तो सोचती है...क्या वो मुझसे प्यार करता है...नहीं करता है...कुछ भी महसूस करता है मेरे लिए...मगर ३० की उम्र पहुँचने पर ऐसी छोटी चीज़ों में वक़्त जाया नहीं करते, इसलिए मैं तुम्हें कह सकती हूँ...डांस विद मी...मुझे जो चाहिए उसके बारे में अब दुआएं नहीं करती...तुमसे पूछ सकती हूँ और अगर तुम ना कह दो तो मैं उस लम्हे को वहीँ बिसार कर आगे बढ़ जाउंगी. मेरी फितरत नदी के विपरीत सी होती जा रही है. पहले तो समंदर के पास की नदी जैसा कुछ ठहराव था मगर अब पहाड़ी नदी जैसा बाँध तोड़ता बहाव है. मैं रुक नहीं सकती...ठहर नहीं सकती...मुझसे प्यार है तो मेरे साथ बह जाओ वरना नदी किनारे अनेक सभ्यताओं के बसने के निशान हैं...तुम भी किसी विस्मृत सभ्यता जैसे हो जाओगे जिसका बचा हुआ टुकड़ा टुकड़ा मिलेगा, पूरा कुछ कभी नहीं हो पायेगा...वो शब्द जो तुमने मुझसे कहे ही नहीं कोई ऐसी लिपि हो जायेगी जिसे सुलझाते पुरातत्त्वेत्ता उम्र गुज़ार देंगे.

जब हमें बहुत सी बात छुपानी होती है तो या तो हम बहुत चुप हो जाते हैं या बहुत बोलते हैं...इतनी सारी बातों में वो बात भी खो जाती है जो हम कहना चाहते तो हैं मगर सिर्फ एक उस बात को कहने में डरते हैं. आई लव यू ऐसी ही कोई शय है...दुनिया जहान की बातें करते हुए...फिल्मों पर बहस करते हुए...तुम्हारे पसंदीदा लेखक की कोई कविता पढ़ते हुए कहोगे मुझसे...मैं जानती हूँ...वैसे ये शब्द हैं भी काफी खतरनाक, इन्हें बाकी शब्दों के ककून में ही लपेट कर रखना चाहिए. बिना दस्ताने की उँगलियों से छू लो तो फ्रॉस्टबाईट हो सकता है. अगली बार मेरे गले लगो तो गौर से महसूस करना...मेरे गुडबाय में आई लव यू की खुशबू आती है. तुमने यूँ तो बहुत विदा के गीत सुने होंगे...आजकल किस गीत से गुज़र रहे हो? वो लैम्पशेड याद है जो हमने मिल कर बनाया था? हर रंग के रिबन में लपेट कर कांच की चूड़ियों संग...ड्रीम कैचर जैसा दिखता वो लैम्पशेड तुम्हारे ख्वाबों को रोशनी से भरता है क्या?

तुम्हारा प्यार किसी सोलर लैम्प जैसा है...जब तुम होते हो तो तुम्हारी मुस्कुराहटें सहेज कर रख देता है...बारिशों वाले दिन के लिए और जैसा कि बैंगलोर का मौसम है, इस लैम्प की अक्सर जरूरत पड़ती है. फिर इस मुस्कुराते उजाले में मैं शैडो डांस करती रहती हूँ...मेरी परछाई मुझसे कहीं ज्यादा डार्क और मिस्टीरियस है...कई बार तो मुझे अपनी परछाई खुद से ज्यादा अच्छी लगती है. 

सोच रही थी कि लोगों को कभी चीज़ों से नहीं जोड़ना चाहिए...लोग चले जाते हैं पर वो इनऐनीमेट चीज़ें कतरा कतरा जान लेती रहती हैं. मैं उन सारी चीज़ों से दूर नहीं भाग सकती जो तुम्हारे साथ रहते हुए मुझे अच्छी लगती थीं. वाईट लिली...वाईट चोकोलेट...वाईट फॉक्स मिंट...वाईट अल्ट्रा माइल्ड सिगरेटें...मेरी वाईट शर्ट...कमरे में आता सफ़ेद धूप का संगमरमर के सफ़ेद फर्श पर गिरता पहला टुकड़ा. तुम सफ़ेद रंग हो...तुमसे सारे रंग की रोशनियाँ निकलती हैं. 

खैर जाने दो...ऐवें ही कुछ कुछ लिखने का मन कर रहा था...बहुत सारा वर्कलोड होता है तो दिमाग में कुछ शब्द फँस जाते हैं...इन्हें लिखना जरूरी होता है वरना कुछ नया लिखने में दिक्कत होती है. जंकयार्ड डायरीज... ऐसा ही कुछ लिखने के लिए होती हैं. कल कोई तो कहानी लिखने का मन कर रहा था...फिर कभी...आज फिर ऑफिस को देर हो जायेगी...लिखेंगे बाकी वाकया ऐसे ही. आजकल लिखना प्यार की तरह हो गया है...भागते दौड़ते, दो मिनट निकाल कर लिखते हैं...बहरहाल...ओके...टाटा...लव यू...बाय. 

27 April, 2013

न लिखना, न पढ़ना, न फिल्में देखना

लिखना या तो मुश्किल होता है या तो एकदम आसान. मुझे मुश्किल से लिखना नहीं आता. कितनी बार होता है कि अन्दर बहुत कुछ उमड़ घुमड़ रहा है पर शब्दों का आकार नहीं लेता...तब एक चुभन सी होती रहती है. जैसे कोई कील चुभी हो पाँव में...सिर्फ चलते वक़्त टीसती है. 

किसी को पढ़ना उसकी आत्मा से बात करने जैसा है. लेखक जितनी ही बड़ी कल्पना की दुनिया रचता है, उतनी ही सच्चाई से अपने आप को उसमें लिखते जाता है. मुझे कम लोगों का लिखना पसंद आता है. जाने क्यूँ कि किसी का लिखा छू नहीं पाता है दिल को. कुछ मिसिंग सा लगता है, जैसे उसने कुछ लिखना चाहा है जिसमें मैं डूबना चाहती हूँ पर पानी इतना उथला है कि चाह कर भी खुद को पूरा खोना नहीं हो पाया. मुझे फंतासी अच्छी लगती है. किसी ऐसी दुनिया में खो जाना जहाँ कुछ भी सच्चा न हो आसान होता है. किसी को पढ़ना कहीं भाग जाने का रास्ता खोलता है, ये लिखते हुए ऐलिस इन वंडरलैंड याद आती है. 

इधर काफी दिनों से कुछ अच्छा नहीं पढ़ा...कुछ भी अच्छा नहीं. मुराकामी की नार्वेजियन वुड रखी हुयी है, एक पन्ना भी पढ़ने का मन नहीं किया है. अकिरा कुरासावा की जीवनी जो कि बड़े शौक़ से खरीदी थी, जब कि उतने ही पैसे थे जेब में. कर्ट कोबेन के जर्नल्स पढ़ती हूँ कभी कभार. हैरी पोटर नहीं पढ़ा बहुत साल से शायद. दुष्यंत कुमार...अब अच्छे नहीं लगते. अज्ञेय...कभी कभी थोड़ा सा पढ़ती हूँ. और कोई नाम याद नहीं आ रहा. फिलहाल कोई पूछे कि तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है तो तुम्हारे पसंदीदा लेखक कौन हैं तो मेरे पास कोई नाम नहीं होगा. मैंने आखिरी कोई किताब कब पढ़ी थी...1Q84, शायद साल होने को आया. मैं टुकड़े में पढ़ नहीं सकती और एक पूरा समय मेरे पास है नहीं. 

कभी कभी सोचती हूँ कि आज के दस साल बाद शायद इस ऑफिस में बिताये लगभग एक साल के समय को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगी. इस दौरान कितना कुछ खो गया मुझसे. मैंने लिखना बहुत कम कर दिया...मुझे सोचने का वक़्त ही नहीं मिलता. घर और ऑफिस के बीच भागती हुयी फुर्सत के लम्हों को ढूंढती रहती हूँ जब मैं कुछ सोच सकूं. इधर काम का प्रेशर भी इतना है कि अपने लिए वक़्त ही नहीं मिलता. इस पूरे हफ्ते मेरे पास कोई मेजर प्रोजेक्ट नहीं था. मेरे पास बहुत वक़्त था कुछ पढ़ने के लिए...कुछ लिखने के लिए मगर मैंने कुछ नहीं किया. लिखना भी एक आदत होती है जब आप चीज़ों को देखते हो और कुछ शब्दों में वे खुद ढलते चलते जाते हैं, लिखना हमेशा एफर्टलेस होता है, कोशिश करके लिखा नहीं जा सकता. 

कुछ फिल्में देखने की कोशिश की. कल दो फिल्में देखीं. इटरनल सनशाइन ऑफ़ दा स्पॉटलेस माइंड और आयरन मैं ३. दोनों फिल्मों ने मुझे निराश किया. आयरन मैन से तो मुझे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी मगर इटरनल सनशाइन मैंने बहुत दिनों से टाल रखी थी...फुर्सत में देखने के लिए. उसका कांसेप्ट कितना अच्छा था...कहानी के साथ कितना कुछ अच्छा किया जा सकता था. फिल्म हड़बड़ी में बनायी गयी लगती है जैसे कोई डेडलाइन छूट रही हो. कांसेप्ट के साथ जो रोमांस शुरू होता है, जब धीमी आंच पर पकता है...बहुत वक़्त लगता है तब जा कर एसेंस कैप्चर हो पाता है. आजकल मुझे कहानियां भी उतना नहीं बांधतीं जितना कांसेप्ट बांधता है. शायद वोंग कार वाई की ज्यादा फिल्में देखने का असर है. इधर हाल में सोर्स कोड देखी थी...अच्छी लगी थी. 

कुछ पसंद करना मुश्किल क्यूँ होता जा रहा है. मैं क्या ओवेर्टली क्रिटिकल हो गयी हूँ चीज़ों के प्रति? नार्मल तरह से सोचूं तो मुझे आजकल कुछ अच्छा नहीं लगता, किसी चीज़ पर खुश नहीं होती. पहले चीज़ें अनकोम्प्लिकेटेड हुआ करती थीं. बारिशों में खुश, बहार में खुश, पतझड़ में खुश और जाड़ों में तो ख़ुशी से पागल. छोटी छोटी चीज़ों में खुश हो जाने वाली वो लड़की जाने कहाँ छुप गयी है. जिंदगी में एक लिखने के अलावा न कभी कुछ समझ में आया न कभी कुछ करने की कोशिश की. हर कुछ दिन में लेकिन जब ऐसा फेज आता है तो कुछ खुराफात मचती है. जैसे घर पेंट करने का मन करता है. खुद से ड्रिल करके घर में कुछ तसवीरें टांगने का मन करता है. बेसिकली कुछ ऐसा करने का मन जिसमें हाथ व्यस्त रहे...कलम से कुछ न लिखूं तो कुछ तो करूँ. इन फैक्ट खाना बनाना भी अच्छा लगता है. पर मम्मी वाला हाल है, नार्मल दाल चावल बनाने में अच्छा नहीं लगता. पास्ता, थाई ग्रीन करी, चाऊमिन जैसा कुछ बनाने का मन करता है. 

ये खुद को समझना कितना मुश्किल होता है. कोई किताब नहीं आती अपने ऊपर. क्या क्या करने का मन करता है...फिर से कहीं भाग जाने का मन करता है. समंदर किनारे खूब सारी रेत हो...लहरों पर रेस लगाऊं, साइकिल चलाऊं...कुछ करूँ...कुछ ऐसा जो करके सुकून मिले. बेसिकली खुद के होने को हमेशा वैलिडेट करने की जरूरत होती है. आखिर हम कर क्या रहे हैं...जिस दिन इसका जवाब नहीं मिलता जवाब ढूँढने की कवायद शुरू हो जाती है. 

कहानियों के किरदार कहीं चले गए हैं. कविताओं का राग भी. बस कुछ इने गिने शब्द हैं, इनका कोलाज है. मुझे एक लम्बी छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. तुम्हारे ही साथ कि अब तुम साथ नहीं होते तो सब अधूरा लगता है. भले ही तुम दूसरे वाले झूले पर अपने पसंद की किताब पढ़ते रहो और मैं अपनी. मगर एक लम्बी छुट्टी, सबसे दूर...फार फ्रॉम दा मैडिंग क्राउड. जिंदगी इतनी छोटी है वाकई कि मुझे लगती है!




How happy is the blameless vestal's lot!
The world forgetting, by the world forgot.
Eternal sunshine of the spotless mind!
Each pray'r accepted, and each wish resign'd.

12 December, 2012

एक तारीख से गुज़रते हुए...

१२/१२/१२                                      
इसी सुबह को...सपना...किसी ने काँधे से भींच कर पकड़ा है और झकझोर रहा है...आँखों में देख रहा है...उसकी नज़र ऐसे भेदती है जैसे आत्मा तक के सारे राज़ पता हैं उसे...कोई सवाल है जो वो मुझसे पूछता नहीं. किसी टूर्नामेंट में हिस्सा लिया है मैंने...कुछ ऐसा है जो मुझे बिलकुल नहीं आता...वो कहता है...तुम कर सकती हो...मुझे मालूम है तुम जीत जाओगी...तुम्हें खुद पर यकीन क्यूँ नहीं होता. मैं कहता हूँ न तुम जीत जाओगी. मैं उसके यकीन पर भरोसा करती हूँ तो पाती हूँ कि मुझे वाकई मालूम थी पूरी प्रक्रिया...पूरा खेल...और मैं जीत जाती हूँ. खेल ख़त्म हो जाता है लेकिन कंधों पर रह जाती हैं उसकी हथेलियाँ और मैं दिन भर ऐसे चलती हूँ जैसे नशे में हूँ. कौन है वो जो मुझपर मुझसे ज्यादा यकीन करता है?

कोई आवाज़ है...पूछती है...तुम मुझे किस नाम से बुलाती थी? जाने किस शाम मैंने कौन सी कहानियां सुनायीं थीं उसे...मैं चली आई दूर मगर मेरी कहानियों के किरदार उसकी जिंदगी में रह गए. वे अक्सर उससे मेरा हाल-चाल पूछते रहते हैं. वो मुझसे पूछ रहा है कि ये किरदार कितने सच हैं, उनका किसी अल्टरनेट दुनिया में कोई ठिकाना है तो वो उन्हें उनके घर छोड़ आएगा. वो परेशां है थोड़ा, उसे इस दुनिया के लोग समझ नहीं आते...वो कहता है तुम ये लोग किस दुनिया से लाती हो, कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम शुरू करोगी क्या जो इस दुनिया के लोगों को थोड़ा तुम्हारी दुनिया के लोगों जैसा बना सके. उसे मेरी कहानी के किरदारों से जितना प्यार है अपनी जिंदगी के लोगों से नहीं. 
कोई क्यूँकर होता है इतना तन्हा?
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ऑफिस के बगल में एक दूकान है...जेनरल स्टोर्स टाईप...भूख लग रही थी, कुछ खाने का मन कर रहा था...सोचा कुछ ले आऊँ जा कर. देखती हूँ उसके ठीक सामने वाइन शॉप खुली है नयी...हाय कमबख्त, गालियाँ निकालती हूँ दूकान खोलने वाले को. बेहद खूबसूरत शॉप है...पूरा ग्लास का एक्सटीरियर है...सामने हर तरह की खूबसूरत बोतलों की अंतहीन कतारें...शोकेस में लगे बेहतरीन कांच के दिलफरेब टुकड़े...क्लास्सिक पोस्टर्स. एक तिलिस्म है अपनी ओर खींचता हुआ...एक हम हैं काम की उलझनों में उलझे हुए. दोस्त को फोन किया...ऐसे ही वीतराग मूड में...उधर से बोलता है...क्या है बे? अचानक हँसी आ गयी. शायद इसी लिए फोन किया भी था. चार गालियाँ पटकीं, फिर उसे घर निकलना था...कल बात करते हैं. देखें कल कितने दिन में आता है. 

किसी को समझा रही थी कि मैं लिखती कैसे हूँ. तीन चीज़ें होती हैं...किरदार, प्लाट और असल घटना...इसमें से कोई न कोई हमेशा सच रहता है. कभी किरदार सच होता है...मेरी जिंदगी से गुज़रा कोई या किसी और की जिंदगी का कोई नमूना...कभी प्लाट सही होता है कि ऑफिस, शहर, धूप, कोहरा, मौसम, बैंगलोर...ये  सबसे ज्यादा कॉमन एलिमेंट है जो अक्सर सच रहता है...और फिर वो है जो शायद ही सच होती है...इन सबके साथ घटा हुआ कुछ...ये अक्सर कोरी कल्पना होती है. 

एक प्रोजेक्ट पर काम करना था अभी...पर कुछ लिखने का मन था...उसके बिना काम में मन नहीं लगेगा...सो पहले लिखना निपटा देते हैं. इधर बहुत दिनों से कोई अच्छा म्यूजिक नहीं सुना है...खुद से खोजने का ट्रैक रिकोर्ड बेहद ख़राब है...शायद ही अपना तलाशा हुआ कुछ पसंद आता है. 

मुझे आजकल सबसे ज्यादा एट होम कार में फील होता है. उसमें अपनापन है...कहीं घूमने जाने का वादा है...कार चलाते हुए शीशे चढ़ा लो तो एक पैरलल दुनिया बन जाती है जिसमें मेरे दिमाग में घूमते किरदार होते हैं...सीडी प्लेयर पर मेरी पसंद का म्यूजिक होता है और हर सू बदलते नज़ारे होते हैं...बहुत सी शान्ति होती है. दुनिया के कुछ सबसे पसंदीदा कामों में से एक है कुणाल को ऑफिस से रिसीव करने जाना. आज जनाब बिना स्वेटर लिए चले गए हैं, सर्दी-खांसी-बुखार हो रखा है. तो आज हम ड्राइवरी करके जनाब को ऑफिस से उठाने जायेंगे. रोड अपना...चाँद अपना...गाने अपने...ओ हो हो. 

आज रजनीगंधा के फूल खरीदने का मन कर रहा है...सुबह सारे गर्म कपड़े धूप में सुखाये हैं...घर ईजी की नर्म खुशबू से भर गया है...दिसंबर...सर्दियाँ...खुशामदीद. 

फोटो वाली बिल्ली हमारे ऑफिस की है...हमारे प्रोजेक्ट्स की बहुत चिंता करती है...हमने इसे स्पेशल रास्ता काटने के लिए पाला है :)

18 October, 2012

जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.

कैल्सब्लैंका...ओ कैसब्लैंका...कहाँ तलाशूँ तुम्हें. ओ ठहरे हुए शहर...ठहरे हुए समय...तुम्हें तलाशने को दुनिया के कितने रास्ते छान मारे...कितने देशों में घूम आई. कहीं नहीं मिलता वो ठहरा हुआ शहर. मैं ही कहाँ मिलती हूँ खुद को आजकल. कितने दिनों से बिना सोचे नहीं लिखा है...पहले खून में शब्द बहते थे...अब जैसे धमनियों में रक्त का बहाव बाधित हो रहा है और थक्का बन गया है शब्दों का. कहीं उनका अर्थ समझ नहीं आता. कभी कभी हालत इतनी खराब हो जाती है कि चीखने का मन करने लगता है...मैं कोई टाइम बम हो गयी हूँ आजकल. कोई बता दे कि कितनी देर का टाइमर सेट किया गया है.

क्या आसान होता है धमनियां काट कर मर जाना? खून का रंग क्या होता है? कभी कभी लगता है नस काटूँगी तो नीला सा कोई द्रव बाहर आएगा. ऐसा लगता है कि खून की जगह विस्की है धमनियों में...नसों में...आँखों में...कितनी जलन है...ये मृत कोशिकाएं हैं. आरबीसी कमबख्त कर क्या रहा है मुझे इन बाहरी संक्रमणों से बचाता क्यूँ नहीं...कैसे कैसे विषाणु हैं...मैं कोई वायरस इन्क्युबेटर बन गयी हूँ. 

मैं पागल होती जा रही हूँ. पागल दो तरह के होते हैं...एक चीखने चिल्लाने और सामान तोड़ने वाले...एक चुप रह कर दुनिया को नकार देने वाले...मुझे लगता है मैं दूसरी तरह की होती जा रही हूँ. ये कैसी दुनिया मेरे अन्दर पनाह पा रही है कि सब कुछ धीमा होता जा रहा है...सिजोफ्रेनिक...बाईपोलर...सनसाइन जेमिनी. खुद के लिए अबूझ होती जा रही हूँ, सवाल पूछते पूछते जुबान थकती जा रही है. वो ठीक कहता था...मैं मासोकिस्ट ही हूँ शायद. सारी आफत ये है कि खुद को खुद से ही सुलझाना पड़ता है. इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. उसपर मैं तो और भी जिद्दी की बला हूँ. नोर्मल सा डेंटिस्ट के पास भी जाना होता है तो बहादुर बन कर अकेली जाती हूँ. एकला चलो रे...

क्या करूं...क्या करूँ...दिन भर राग बजते रहता है दिमाग में...उसपर गाने सुनती हूँ सारे साइकडेलिक... तसवीरें देखती हूँ जिनमें रंगों का विस्फोट होता है...सपनों में भी रंग आते हैं चमकदार.. .सुनहले...गहरे गुलाबी, नीले, हरे...बैगनी...नारंगी. कैसी दुनिया है. दुनिया में हर चीज़ नयी क्यूँ लगती है...जैसे जिंदगी बैक्वार्ड्स जी रही हूँ. बारिश होती है तो भीगे गुलमोहर के पत्तों से छिटकती लैम्पपोस्ट की रौशनी होती है तो साइकिल से उतर कर फोटो खींचने लगती हूँ...जैसे कि आज के पहले कभी बारिश में भीगे गुलमोहर के पत्ते देखे नहीं हों. अभी तीन चार दिन पहले बैंगलोर में हल्का कोहरा सा पड़ने लगा था. या कि मैंने लेंस बहुत देर तक पहन रखे होंगे. ठीक ठीक याद नहीं. 

आग में धिपे हुए प्रकार की नोक से स्किन का एक टुकड़ा जलाने के ख्वाब आते हैं...बाढ़ में डूब जाने के ख्याल आते हैं. कलम में इंक ज्यादा भर देती हूँ तो लगता है लाइफ फ़ोर्स बहने लगी है कलम से बाहर. ये कैसी जिजीविषा है...कैसी एनेर्जी है...डार्क फ़ोर्स है कोई मेरे अन्दर. खुद को समेटती हूँ. शब्दों से एक सुरक्षा कवच बनाती हूँ. कोई  मन्त्र बुदबुदाती हूँ...सांस लेती हूँ...गहरे...अन्दर...बाहर...होटों पर कविता कर रहा है अल्ट्रा माइल्ड्स का धुआं...जुबान पर आइस में घुलती है सिंगल माल्ट...जिंदगी...ड्रग...मैं कमबख्त...अडिक्ट.


16 June, 2012

बुरे लड़के से प्यार करते हुए सोचती है अच्छी लड़की...

कहाँ थे तुम अब तक?
कि गाली सी लगती है
जब मुझे कहते हो 'अच्छी लड़की'
कि सारा दोष तुम्हारा है

तुमने मुझे उस उम्र में
क्यूँ दिए गुलाब के फूल
जबकि तुम्हें पढ़ानी थीं मुझे
अवतार संधु पाश की कविताएं

तुमने क्यूँ नहीं बताया
कि बना जा सकता है
धधकता हुआ ज्वालामुखी
मैं बना रही होती थी जली हुयी रोटियां

जब तुम जाते थे क्लास से भाग कर
दोस्त के यहाँ वन डे मैच देखने
मैं सीखती थी फ्रेम लगा कर काढ़ना
तुम्हारे नाम के पहले अक्षर का बूटा

जब तुम हो रहे थे बागी
मैं सीख रही थी सर झुका कर चलना
जोर से नहीं हँसना और
बड़ों को जवाब नहीं देना

तुम्हें सिखाना चाहिए था मुझे
कोलेज की ऊँची दीवार फांदना
दिखानी थीं मुझे वायलेंट फिल्में
पिलानी थी दरबान से मांगी हुयी बीड़ी

तुम्हें चूमना था मुझे अँधेरे गलियारों में
और मुझे मारना था तुम्हें थप्पड़
हमें करना था प्यार
खुले आसमान के नीचे

तुम्हें लेकर चलना था मुझे
इन्किलाबी जलसों में
हमें एक दूसरे के हाथों पर बांधनी थी
विरोध की काली पट्टी

मुझे भी होना था मुंहजोर
मुझे भी बनना था आवारा
मुझे भी कहना था समाज से कि
ठोकरों पर रखती हूँ तुम्हें

तुम्हारी गलती है लड़के
तुम अकेले हो गए...बुरे
जबकि हम उस उम्र में मिले थे
कि हमें साथ साथ बिगड़ना चाहिए था

08 June, 2012

मेरी कन्फ्यूजिंग डायरी

लिखने के अपने अपने कारण होते हैं. मैं देखती हूँ कि मुझे लिखने के लिए दो चीज़ों की जरूरत होती है...थोड़ी सी उदासी और थोड़ा सा अकेलापन. जब मैं बहुत खुश होती हूँ तब लिख नहीं पाती, लिखना नहीं चाहती...तब उस भागती, दौड़ती खुशी के साथ खेलना चाहती हूँ...धूप भरे दिन होते हैं तो छत पर बैठ कर धूप सेकना चाहती हूँ. खुशी एक आल कंज्यूमिंग भाव होता है जो किसी और के लिए जगह नहीं छोड़ता. खुशी हर टूटी हुयी जगह तलाश लेती है और सीलेंट की तरह उसे भर देती है. चाहे दिल की दरारें हों या टूटे हुए रिश्ते. खुश हूँ तो वाकई इतनी कि अपना खून माफ कर दूं...उस समय मुझे कोई चोट पहुंचा ही नहीं सकता. खुश होना एक सुरक्षाकवच की तरह है जिससे गुज़र कर कुछ नहीं जा सकता.

कभी कभी ये देख कर बहुत सुकून होता था कि डायरी के पन्ने कोरे हैं...डायरी के पन्ने एकदम कोरे सिर्फ खुश होने के वक्त होते हैं...खुशियों को दर्ज नहीं किया जा सकता. उन्हें सिर्फ जिया जा सकता है. हाँ इसका साइड इफेक्ट ये है कि कोई भी मेरी डायरी पढ़ेगा तो उसे लगेगा कि मैं जिंदगी में कभी खुश थी ही नहीं जबकि ये सच नहीं होता. पर ये सच उसे बताये कौन? उदासी का भी एक थ्रेशोल्ड होता है...जब हल्का हल्का दर्द होता रहे तो लिखा जा सकता है. दर्द का लेवल जैसे जैसे बढ़ता जाता है लिखने की छटपटाहट वैसे वैसे बढ़ती जाती है. लिखना दर्द को एक लेवल नीचे ले आता है...जैसे मान लो मर जाने की हद तक होने वाला दर्द एक से दस के पॉइंटर स्केल पर १० स्टैंड करता है तो लिखने से दर्द का लेवल खिसक कर ९ हो जाता है और मैं किसी पहाड़ से कूद कर जान देने के बारे में लिख लेती हूँ और चैन आ जाता है.

खुशी के कोई सेट पैरामीटर नहीं हैं मगर उदासी के सारे बंधे हुए ट्रिगर हैं...मालूम है कि उदासी किस कारण आती है. इसमें एक इम्पोर्टेंट फैक्टर तो बैंगलोर का मौसम होता है. देश में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं बैंगलोर में होती हैं. ऑफ कोर्स हम इस शहर के अचानक से फ़ैल जाने के कारण जो एलियनेशन हो रहा है उसको नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते...लोग बिखरते जा रहे हैं. हमारे छोटे शहरों जैसा कोई भी आपका हमेशा हाल चाल पूछने नहीं आएगा तो जिंदगी खाली होती जा रही है...इसमें रिश्तों की जगह नहीं बची है. बैंगलोर में सोफ्टवेयर जनता की एक जैसी ही लाइफ है(सॉरी फॉर generalization). अपने क्यूबिकल में दिन भर और देर रात तक काम और वीकेंड में दोस्तों के साथ पबिंग या मॉल में शोपिंग या फिल्में. साल में एक या दो बार छुट्टी में घर जाना. बैंगलोर इतना दूर है कि यहाँ कोई मिलने भी नहीं आता. उसपर यहाँ का मौसम...बैंगलोर में हर कुछ दिन में बारिश होती रहती है...आसमान में अक्सर बादल रहते हैं. शोर्ट टर्म में तो ये ठीक है पर लंबे अंतराल तक अगर धूप न निकले तो डिप्रेशन हो सकता है. सूरज की रौशनी और गर्मी therapeutic होती है न सिर्फ तन के लिए बल्कि मन को भी खुशी से भर देती है.

इस साल की शुरुआत में दिल्ली गयी थी...बहुत दिन बाद अपने दोस्तों से मिली थी. वो अहसास इतना रिचार्ज कर देने वाला था कि कई दिन सिर्फ उन लम्हों को याद करके खुश रही. मगर यादें स्थायी नहीं होती हैं...धीरे धीरे स्पर्श भी बिसरने लगता है और फिर एक वक्त तो यकीन नहीं आता कि जिंदगी में वाकई ऐसे लम्हे आये भी थे. मैं जब दोस्तों के साथ होती हूँ तब भी मैं नहीं लिखती...दोस्त यानि ऐसे लोग जो मुझे पसंद हैं...मेरे दोस्त. जिनके साथ मैं घंटों बात कर सकती हूँ. पहले एक्स्त्रोवेर्ट थी तो मेरा अक्सर बड़ा सा सर्किल रहता था मगर अब बहुत कम लोग पसंद आते हैं जिनके साथ मैं वक्त बिताना चाहूँ. मुझे लगता है वक्त मुझे बहुत खडूस बना दे रहा है. अब मुझे बड़े से गैंग में घूमना फिरना उतना अच्छा नहीं लगता जितना किसी के साथ अकेले सड़क पर टहलना या कॉफी पीते हुए बातें करना. बातें बातें उफ़ बातें...जाने कितनी बातें भरी हुयी हैं मेरे अंदर जो खत्म ही नहीं होतीं. बैंगलोर में एक ये चीज़ सारे शहरों से अच्छी है...किसी यूरोप के शहर जैसी...यहाँ के कैफे...शांत, खुली जगह पर बने हुए...जहाँ अच्छे मौसम में आप घंटों बैठ सकते हैं.

लिखने के लिए थोड़ा सा अकेलापन चाहिए. जब मैं दोस्तों से मिलती रहती हूँ तो मेरा लिखने का मन नहीं करता...फिर मैं वापस आ कर सारी बातों के बारे में सोचते हुए इत्मीनान से सो जाना पसंद करती हूँ. अक्सर या तो सुबह के किसी पहर लिखती हूँ...२ बजे की भोर से लेकर १२ तक के समय में या फिर चार बजे के आसपास दोपहर में. इस समय कोई नहीं होता...सब शांत होता है. ये हफ्ता मेरा ऐसा गुज़रा है कि पिछले कई सालों से न गुज़रा हो...एक भी शाम मेरी तनहा नहीं रही है. और कितनी तो बातें...और कितने तो अच्छे लोग...कितने कितने अच्छे लोग. मुझे इधर अपने खुद के लिए वक्त नहीं मिल पाया इतनी व्यस्त रही. एकदम फास्ट फॉरवर्ड में जिंदगी.

इधर कुक की जगह मैं खुद खाना बना रही हूँ...तो वो भी एक अच्छा अनुभव लग रहा है. बहुत दिन बाद खाना बनाना शौक़ से है...मुझे नोर्मली घर का कोई भी काम करना अच्छा नहीं लगता...न खाना बनाना, न कपड़े धोना, न घर की साफ़ सफाई करना...पर कभी कभार करना पड़ता है तो ठीक है. मुझे सिर्फ तीन चार चीज़ें करने में मन लगता है...पढ़ना...लिखना...गप्पें मारना, फिल्में देखना और घूमना. बस. इसके अलावा हम किसी काम के नहीं हैं :)

फिलहाल न उदासी है न अकेलापन...तो लिखने का मूड नहीं है...उफ़...नहीं लिखना सोच सोच के इतना लिख गयी! :) :)

03 June, 2012

चूल्हे के धुएँ सी सोंधी औरतें और धुएँ के पार का बहुत कुछ


छः गोल डब्बों वाला मसालदान होती हैं 
आधी रात को नहाने वाली औरतें

उँगलियों की पोर में बसी होती है
कत्थई दालचीनी की खुशबू 

पीठ पर फिसलती रहती है
पसीने की छुआछुई खेलती बूँदें 

कलाइयों में दाग पड़ते हैं
आंच में लहकी कांच की चूड़ियों से 

वे रचती हैं हर रोज़ थोड़ी थोड़ी
डब्बों और शीशियों की भूलभुलैया 

उनके फिंगरप्रिंट रोटियों में पकते हैं
लकीरों में बची रह जाती है थोड़ी परथन 

खिड़की में नियत वक्त पर फ्रेम रहती हैं
रोज के सोप ओपेरा की तरह

किचन हर रोज़ चढ़ता है उनपर परत दर परत
रंग, गंध, चाकू के निशान, जले के दाग जैसा 

नहाने के पहले रगड़ती हैं उँगलियों पर नीम्बू
चेहरे पर लगाती हैं मलाई और शहद 

जब बदन को घिस रहा होता है लैवेंडर लूफॉ 
याद करती हैं किसी भूले आफ्टरशेव की खुशबू 

आधी रात को नहाने वाली औरतें में बची रहती है 
१६ की उम्र में बारिश में भीगने वाली लड़की

22 May, 2012

उसमें इतनी गिरहें थीं कि खोलने वाला खुद उलझ जाता था

अजीब लड़की थी कि उसे चिट्ठियां लिखने की बीमारी थी...हर कुछ दिन में ऐसे छटपटाने लगती थी जैसे हवा में ओक्सिजेन खत्म हो गयी हो. कितना भी बातें कर ले...लिखे बिना उसका दिन नहीं मानता था. ऐसे में लगता था कि कोई उसका हाथ पकड़ के मरोड़ दे...कुछ ऐसे कि उँगलियाँ चिटक जायें...नील पड़ जाएँ और वह कलम न उठा सके. उसे सादा कागज़ यूँ खींचता था जैसे मरने वाले को मौत अपनी ओर...जैसे पहाड़ों का निर्वात अपनी ओर...घाटियों की गहराई छलांग लगा देने को पुकारती हो जैसे.

फिरोजी सियाही...गुलाबी...नारंगी...हरा...उसे नीले और काले रंग से लिखना नापसंद था. उसने एक दिन आखिर परेशान होकर घर की सारी कापियों में आग लगा दी...लिखा हुआ उसे और लिखने के लिए उकसाता था और सादा कागज़ उसे भीगी चादर की तरह दोनों किनारे पकड़ मरोड़ डालता था कि लड़की का पूरा सार तत्व किसी के नाम चिट्ठी में उतर आये...पर मन का सारा गीलापन निकल जाने पर भी थोड़ी सी नमी बाकी रह जाती थी और वो बालकनी में अधभीगी चादर की तरह पसरी रहती. कभी कॉफी में खुद को डुबाती तो थोड़ा नशा चढ़ता फिर सिगरेट और बची हुयी व्हिस्की से खुद में पानी की कमी को पूरा करती.

फिलहाल पूरे घर में जले हुए कागज़ के कतरे उड़ रहे हैं और दीवारों पर लटके जाले थोड़े सियाह हो गए हैं...पंखों पर उन चिट्ठियों के बेताल चमगादड़ों की तरह लटक गए हैं. कितनी बातें...ओह कितनी बातें लिखी थी उसने...थोड़ी तकलीफ होती है उसे जब भी वो ऐसे कागजों की होली जलाती है पर ये इतना नहीं होता कि फूट फूट कर रो पड़े...उसे लिखा हुआ जलने का अफ़सोस नहीं होता...रोज रोज इतना लिखती रहती है कि जो खो गया उसके लिए रोने का वक्त नहीं मिलता उसे. हाँ सादे कागजों के लिए उसकी आँखें भर भर आती हैं. ऐसा तो नहीं होगा कि सादा कागज़ नहीं होगा तो वो चिट्ठियां ही नहीं लिखेगी फिर भी हर कुछ दिन में उसे कागजों में आग लगा देने में अच्छा लगता है.

वो सोचती है कि उसे भूलना क्यूँ नहीं आता...लिखना ही भूल जाए...या कि उसे भूल जाए जिसे चिट्ठियां लिखना चाहती है...या यही भूल जाए कमसे कम कि घर में कलम कहाँ छुपा के रखी है. पर वो तो ऐसी है कि पार्क में बैठी होगी तो धूल में उसके नाम चिट्ठी लिख आएगी, नए शहर जायेगी तो आँखों में उस शहर की सारी इमारतों की यादों में उसका नाम चस्पां कर देगी. और ये शहर...जितना पुराना हुआ है कि लगता है पूरा शहर एक विशाल लाल डब्बे में कन्वर्ट हो गया है जिसमें कि उसके नाम की अनगिनत चिट्ठियां गिरी हुयी हैं. वनीला एन्वेलोप में...सादी सी हैंडराइटिंग में खुद को कतरा कतरा समेटती गयी है लड़की.

बिना जवाब के चिट्ठियां लिखना एक अनंत काल की यातना है...ये कुछ वैसा ही है जैसे किसी से प्यार करने के एवज में ये माँगना/चाहना कि वो भी आपसे प्यार करे. लड़की चिट्ठियां लिख कर निश्चिन्त हो जाती थी...बार बार कहती थी कि जवाब ना भी दो तो कोई बात नहीं...पर न चाहते हुए भी एक जवाब की उम्मीद के नन्हे टेंड्रिल्स उसके दिल के इर्द गिर्द लिपटने लगते थे...बेहद कमज़ोर...खुद के दम पर खड़े भी नहीं हो सकते पर धीरे धीरे मजबूत होने लगते थे...फिर लड़की का दिल तो इतनी संभावनाओं और प्यार से भरा था कि उम्मीदें मरती ही नहीं थी...अमरबेल की तरह दिल से पोषित होती रहती थीं.

उसने कई बार कलम से अपनी कलाई पर निशान बनाये जहाँ कि उसे ब्लेड चलानी थी...पर उसे टैटू पसंद नहीं थे और उसे मालूम था कि धमनी काटने के बावजूद वो मरेगी नहीं...उसे कहीं न कहीं मालूम था कि उसकी चिट्ठियां दुआएँ बन जाती हैं और ऊपर खुदा के दरबार तक पहुँच जाती हैं. वो सारी चिट्ठियां जो उसने लिखी थीं उसकी जिजीविषा से पोषित थीं...उनमें उसकी आत्मा का एक अंश होता था...उसे मालूम था कि उसकी सांसें बुझने लगेंगी तो उसकी सारी चिट्ठियों से स्याही निकल कर उसकी धमनियों में बहने लगेगी...जितना उसके बदन में खून नहीं है उससे कहीं ज्यादा सियाही उसकी चिट्ठियों में भरी है...जीती-जागती सियाही...ऐसी सियाही जो संजीवनी बन सकती है...खून बन के रगों में दौड़ सकती है.

घर के सारे सादे कागजों में आग लगा देने के बावजूद भी उसका मन करता है कि वो चिट्ठियां लिखे...उसे जीने के लिए खाना-पानी-नींद नहीं चाहिए...इनके बिना उसका काम चल जाता है. उसे चिट्ठियां लिखने के लिए कागज़ चाहिए होता है...कलम चाहिए होती है...कोई भी एक शख्स चाहिए होता है जिसे वो चिट्ठियां लिख सके. उसने अनजान लोगों को चिट्ठियां लिखी हैं...उसने अनजान पतों पर चिट्ठियां लिखी हैं...उसने अनजान भाषाओँ में चिट्ठियां लिखी हैं...उसने समंदर में बोतल में बंद कर चिट्ठियां फेंकी है. उसे चिट्ठियां लिखने की बीमारी है. वो हाथ बाँध कर बैठी है...कि डाकिये का इंतज़ार उससे सांसें छीन लेता है.


ये झूठ है कि वो कविता लिखती है, कहानी लिखती है, गद्य लिखती है...वो सिर्फ, सिर्फ और सिर्फ चिट्ठियां लिखती है.


तुम्हें समझ में आती है वो लड़की? तुम्हें समझ में आती है वो चिट्ठी?

मुझे दोनों समझ में नहीं आती. 

20 May, 2012

ताला लगाने के पहले खड़े होकर सोचना...कुछ देर. फिर जाना.

यूँ तो ख्वाहिशें अक्सर अमूर्त होती हैं...उनका ठीक ठीक आकार नहीं नहीं होता...अक्सर धुंध में ही कुछ तलाशती रहती हूँ कि मुझे चाहिए क्या...मगर एक ख्वाहिश है जिसकी सीमाएं निर्धारित हैं...जिसका होना अपनेआप में सम्पूर्ण है...तुम्हें किसी दिन वाकई 'तुम' कह कर बुलाना. ये ख्वाहिश कुछ वैसी ही है जैसे डूबते सूरज की रौशनी को कुछ देर मुट्ठी में भर लेने की ख्वाहिश.

शाम के इस गहराते अन्धकार में चाहती हूँ कभी इतना सा हक हो बस कि आपको 'तुम' कह सकूं...कि ये जो मीलों की दूरी है, शायद इस छोटे से शब्द में कम हो जाए. आज आपकी एक नयी तस्वीर देखी...आपकी आँखें इतनी करीब लगीं जैसे कई सारे सवाल पूछ गयी हों...शायद आपको इतना सोचती रहती हूँ कि लगता है आपका कोई थ्री डी प्रोजेक्शन मेरे साथ ही रहता है हमेशा. इसी घर में चलता, फिरता, कॉफी की चुस्कियां लेता...कई बार तो लगता भी है कि मेरे कप में से किसी ने थोड़ी सी कॉफी पी ली हो...अचानक देखती हूँ कि कप में लेवल थोड़ा नीचे उतर गया है...सच बताओ, आप यहीं कहीं रहने लगे हो क्या?

ये 'आप' की दीवार बहुत बड़ी होती है...इसे पार करना मेरे लिए नामुमकिन है...हमेशा मेरे आपके बीच एक फासला सा लगता है. जाने कैसे बर्लिन की दीवार याद आती है...जबकि मैंने देखी नहीं है...हाँ एक डॉक्यूमेंट्री याद आती है जिसमें लोग उस दीवार के पार जाने के लिए तिकड़म कर रहे हैं...गिरते पड़ते उस पार चले भी जाते हैं...कुछ को दीवार के रखवाले संतरी गोलियों से मार गिराते हैं फिर भी लोगों का दीवार को पार करना नहीं रुकता है. अजीब अहसास हुआ था, जैसे सरहदें वाकई दिलों में बनें तभी कोई  बात है वरना कोई भी दीवार लोगों को रोक नहीं सकती है. मैंने एकलौती सरहद भारत-पाकिस्तान की वाघा बोर्डर पर देखी है...उस वक्त सरसों के फूलों का मौसम था...और बोर्डर के बीच के नो मैंस लैंड पर भी कुछ सरसों के खेत दिख रहे थे. बोर्डर को देखना अजीब लगा था...यकीन ही नहीं हुआ था कि वाकई सिर्फ कांटे लगी बाड़ के उस पार पकिस्तान है...ऐसा देश जहाँ जाना नामुमकिन सा है. बोर्डर की सेरिमनी के वक्त गला भर आया था और आँखें एकदम रो पड़ी थीं...सिर्फ मेरी ही नहीं...बोर्डर के उस पार के लोगों की भी...हालाँकि मुझे उनकी आँखें दिख नहीं रहीं थी जबकि उस वक्त मुझे चश्मा नहीं लगा था. पर मुझे मालूम था...हवा ही ऐसी भीगी सी हो गयी थी.

आपको याद करते हुए कुछ गानों का कोलाज सा बन रहा है जिसमें पहला गाना है जॉन लेनन का 'इमैजिन'. इसमें एक ऐसी दुनिया की कल्पना है जिसमें कोई सरहदें नहीं हैं और दुनिया भर के लोग प्यार मुहब्बत से एक दूसरे के साथ रहते हैं...'You may say I'm a dreamer, but I am not the only one'...कैसी हसीन चीज़ होती है न मुहब्बत कि यादों में भी सब अच्छा और खूबसूरत ही उगता है...दर्द की अनगिन शामें नहीं होतीं...तड़पती दुपहरें नहीं होतीं. आपने 'strawberry fields forever' सुना है? एक रंग बिरंगी दुनिया...सपनीली...जहाँ कुछ भी सच नहीं है...नथिंग इज रियल. मेरी पसंदीदा इन द मूड फॉर लव का बैकग्राउंड स्कोर भी साथ ही बज रहा है पीछे. बाकियों का कुछ अब याद नहीं आ रहा...सब आपस में मिल सा गया है जैसे अचानक से पेंट का डब्बा गिरा हो और सारे रंग की शीशियाँ टूट गयीं.

कल सपने में देखा कि जंग छिड़ी हुयी है और चारों तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...पर हमारे पास बचने के अलावा कोई उपाय नहीं है...सामने से दुश्मन आता है पर मेरे हाथ में एक रिवोल्वर तक नहीं है...मैं बस बचने की कोशिश करती हूँ. एक इक्केनुमा गाड़ी है जिसमें मेरे साथ कुछ और लोग बैठे हैं...ऊपर से प्लेन जाते हैं पर वो भी गोलियाँ चलाते हैं...कुछ लोग मुस्कुराते हुए आते हैं पर उनके हाथ में हथगोला होता है...हम चीखते हुए भागते हैं वहां से. छर्रों से थोड़ा सा ही बचा है पैर ज़ख़्मी होने से...कुछ गोलियाँ कंधे को छू कर निकली हैं और वहाँ से खून बहने लगा है. सब तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...कोई सुरक्षित जगह ही नहीं है...मुझे समझ नहीं आता कि कहाँ जाऊं. फिर एक मार्केट में एक दूकान है जहाँ एक औरत से बात कर रही हूँ...उनके पास कोई तो बहुत मोटा सा कपड़ा है जिससे जिरहबख्तर जैसा कुछ बनाया जा सकता है लेकिन औरत बहुत घबरायी हुई है, उसके साथ उसकी छोटी बेटी भी है...बेटी बेहद खुश है. सपने में किसी ने सर पर गोली मारी है...मुझे याद नहीं कि मैं मरी हूँ कि नहीं लेकिन सब काला, सियाह होते गया है.

मुझे मालूम नहीं ऐसा सपना क्यूँ आया...कल ये ड्राफ्ट आधा छोड़ कर सोयी थी...

कुछ बेहद व्यस्त दिन सामने दिख रहे हैं...तब मुझे ऐसे फुर्सत से याद करके गीतों का कोलाज बनाने की फुर्सत नहीं मिलेगी...याद से भूल जायेंगे सारी फिल्मों के बैकग्राउंड स्कोर्स...कविताएं नहीं रहेंगी...लिखने का वक्त नहीं रहेगा...फिर मेरे सारे दोस्त खो जायेंगे बहुत समय के लिए. कल नील ने फोन कर के झगड़ा किया कि तू मुझे क्या नहीं बता रही है...तू है कहाँ और तुझे क्या हुआ है. बहुत दिन बाद किसी ने इतना झगड़ा किया था...मुझे बहुत अच्छा लगा. मैंने उसे झूठे मूठे कुछ समझा कर शांत किया...फिर कहा मिलते हैं किसी दिन...बहुत दिन हुए. मैं बस ऐसे ही वादे करती हूँ मिलने के. मिलती किसी से नहीं हूँ. आजकल किसी किसी दिन बेसुध हो जाने का मन करता है...मगर मेरे ऊपर पेनकिलर असर नहीं करते और मुझे किसी तरह का नशा नहीं चढ़ता. मैं हमेशा होश में रहती हूँ.

एक सरहद खींच दी है अपने इर्द गिर्द...इससे सुरक्षित होने का अहसास होता है...इससे अकेले होने का अहसास भी होता है.

16 May, 2012

मुस्कुरा कर मिलो जिंदगी...

परसों एक एचआर का फोन आया एक जॉब ओपनिंग के बारे में...मैं आजकल फुल टाइम जॉब करने के मूड में थी नहीं तो अधिकतर सॉरी बोल कर फोन रख दिया करती थी. इस बार पता नहीं...शायद हिंदी का कोई शब्द था या दिल्ली के नंबर से फोन आया था या कि जिस ऑफिस में पोजीशन खाली थी वो घर के एकदम पास था...मैंने इंटरव्यू के लिए हाँ कर दी.

मेरे इंटरव्यू नोर्मली काफी लंबे चलते हैं...कमसे कम दो घंटे और कई बार तो चार घंटे तक चला है...अनगिनत बातें हो जाती हैं. मुझे खुद भी महसूस होता है इंटरव्यू देते वक्त कि मैं काफी इंटरेस्टिंग सी कैरेक्टर हूँ और मेरे जैसे लोग वाकई इंटरव्यू के लिए कम ही आते होंगे. कभी कभी होता भी है कि इंटरव्यू के लिए गयी हूँ तो लाउंज में बैठे बाकी कैंडिडेट्स को देखती हूँ और सोचती हूँ कि कैसे लोग होंगे. उनमें से अधिकतर मुझे काफी सजग और एक आवरण में ढके हुए लगते हैं...मैं इंटरव्यू में भी फ्री स्पिरिट जैसी रहती हूँ. कितना भी  कोई बोल ले...कभी फोर्मल कपड़े पहन कर नहीं गयी...वही पहन कर जाती हूँ जो मूड करता है. जैसे आज का इंटरव्यू ले लो...प्लेन वाईट कुरता पहना था फिर दिल नहीं माना तो बस...चेक शर्ट, जींस, थोड़ी हील के सैंडिल, प्लेन सा बैग और पोर्टफोलियो. हाँ दो चीज़ें मैं कभी नहीं भूलती...हाथ में घड़ी और पसंद का परफ्यूम. 

आज भी बारह बजे दोपहर का इंटरव्यू था...मैं बाइक से पहुंची...हेलमेट उतारा...बालों को उँगलियों से हल्का काम्ब किया और पोनीटेल बना ली...रिसेप्शन डेस्क पर जो लड़की थी उसने एक मिनट वेट करने को कहा...तब तक जार्ज...जिसके साथ इंटरव्यू था सामने था. जो कि नोर्मल आदत है...एक स्कैन में पसंद आया कि बंदे ने पूरे फोर्मल्स नहीं पहने थे...डार्क ब्लू जींस, ब्लैक शर्ट और स्पोर्ट्स शूज. लगा कि ठीक है...क्रिएटिव का बन्दा है, क्रिएटिव जैसा है. उसने पूछा...चाय या कॉफी...मैंने कहा...नहीं, कुछ नहीं...बहुत दिन बाद किसी ने हिंदी में पूछा था...दिल एकदम हैप्पी हो गया...फिर जब वो मेरा पोर्टफोलियो देख रहा था तो मैंने देखा कि वो वही इंक पेन यूज कर रहा है जिसपर आजकल मेरा दिल आया हुआ है...LAMI का ब्लैक कलर में. एक पहचान सी बनती लगी...और इंस्टिंक्ट ने कहा कि इसके साथ काम करने में अच्छा लगेगा...अगेन...मुझे नोर्मली लोग पसंद नहीं आते. आजकल तो बिलकुल ही महाचूजी हो गयी हूँ.

इंटरव्यू कितना अच्छा होता है अगर इस बात का प्रेशर नहीं है कि जॉब चाहिए ही चाहिए...कितना अच्छा लगता है कोई आपसे कहे...टेल मे अबाउट योरसेल्फ...और आप फुर्सत और इत्मीनान से उसे अपने बारे में बताते जाइए. कई बार तो इगो बूस्ट सा होता है जब सोचती हूँ कि हाँ...कितना सारा तो तीर मार के बैठे हुए हैं...खामखा लोड लेते हैं, हमको भी न...उदास रहना अच्छा लगता है शायद मोस्टली. (प्लीज नोट द विरोधाभास हियर). मैं एकदम मस्त मूड में चहक चहक कर बात कर रही थी. 

इंटरव्यू लेने वाले लोग दो तरह के होते हैं...पहले थकेले टाइप...जो आपसे इतने गिल्ट के साथ बात करेंगे जैसे वो उस जगह काम नहीं करते किसी पिछले जन्म के पाप का फल भुगत रहे हैं और आप भी उस कंपनी में आयेंगे तो उनपर अहसान करेंगे टाइप...वे बेचारे दुखी आत्मा होते हैं, अपने काम से परेशान. मुझे ऐसे लोग एक नज़र में पसंद नहीं आते...अगर आप खुद खुश नहीं हो जॉब में तो नज़र आ जाता है...मेरे जैसे किसी को तो एकदम एक बार में. दूसरी तरह के वो लोग होते हैं जिन्हें अपने काम से प्यार होता है...जब वो आपको कंपनी के बारे में बता रहे होते हैं तो गर्व मिश्रित खुशी से बताते हैं...ये खुशी उनसे फूट फूट पड़ती है...ऐसे लोगों से बात करना भी बेहद अच्छा लगता है...उनके चेहरे पर चमक होती है और सबसे बढ़कर आँखों में चमक होती है. ऐसे लोगों के साथ किसी का भी काम करने का मन करता है और इंटरव्यू का रिजल्ट जो भी आये...मैं वहां ज्वाइन करूँ या न करूं पर इंटरव्यू में मज़ा आ जाता है. आज के इंटरव्यू में ये दूसरे टाइप का बन्दा बहुत दिन बाद देखने को मिला था...एकदम दिल खुश हो गया टाइप. 

मुझे एक और चीज़ भा गयी...मेरा नाम अधिकतर लोग Pooja लिख देते हैं...नाम के स्पेलिंग को लेकर बहुत टची हूँ...सेंटी हो जाती हूँ. मेरे ख्याल से ये दूसरी या तीसरी बार होगा लाइफ में कि किसी ने खुद से मेरे नाम की स्पेलिंग सही लिखी हो. मुझे नहीं मालूम कि फाइनली मैं वहां जॉब करूंगी कि नहीं...पर आज का इंटरव्यू लाइफ के कुछ बेस्ट इंटरव्यू में से एक रहेगा. 

कुछ दो ढाई बजे वापस आई तो कुणाल का फोन आया उसके इनकम टैक्स के पेपर की जरूरत थी ऑफिस में. मौसम एकदम कातिलाना हो रखा था...ड्राइव करते हुए मस्त गाने सुने और उसके ऑफिस पहुंची. वहां बगल में फोरम मॉल है जहाँ उसे कुछ काम था. हम वहां गए ही थे कि भयानक तेज बारिश शुरू हो गयी...आसमान जैसे टूट कर बरस रहा था. काफी देर सब वेट किये उधर फिर ऑफिस में डिले हो रहा था तो बारिश में भी भीगते भागते सब लोग गए. मैं उस झमाझम बरसती बारिश में एक प्यारे दोस्त से बात कर रही थी...हवा बारिश से भीगी हुयी थी...मॉल में मेरी पसंद के गाने बज रहे थे...इंटरव्यू अच्छा गया था. ओफ्फ क्या मस्त माहौल था. 

आज कुणाल ने ऑफिस थोड़ा बंक किया कि आठ साढ़े आठ टाइप छुट्टी...फिर घर पहुंचे. इधर एक App बनाने के मूड में हैं हम लोग तो उसी का रिसर्च चल रहा है. अभी तीन बजे तक साकिब के साथ डिस्कस किये हैं...अब सोने का टाइम आया...पर जैसा कि होता है, जाग गए हैं तो नींद नदारद. सोचा कुछ लिख लूं...अच्छे मूड में लिखने का कम ही मन करता है. बस ऐसे ही...यहाँ सकेरने का मन किया. इतनी अनप्रेडिक्टेबल लाइफ में कभी पुराने पन्ने पलटा कर देखूं तो यकीन हो तो सही कि खिलखिला के हँसने वाले दिन भी होते हैं. भोर होने को आई...अब हम सोने को जाते हैं. आप मेरी पसंद का गाना सुनिए जो मॉल में बज रहा था...बीटल्स का है. मेरा फेवरिट बैंड है. 

ग्लास फ्लूट के इन्स्ट्रुमेन्टल में ये गीत...ओह...जानलेवा था...कुछ गीतों पर ऐसे ही यादें स्टैम्प हो जाती हैं...मैं इस गीत को अब कभी भी सुनूंगी..उधर फोरम मॉल की रेलिंग से नज़र आती बारिश, एक दिलफरेब आवाज़ और अनंत खुशियों को महसूस करूंगी.

Sometimes...really...all you need is a tight hug... the wonderful thing about life and friendship and love is...sometimes...a friend sitting in some forlorn corner of the world says those simple words...and you really feel like you have been hugged...tightly. Imagine...underestimating the power of words! It simply is about the intensity behind those words...when you say those words as you feel them...even if you are kilometers apart...a friend's embrace melts all your sadness away. Words heal. Words hug. Words hold your hand.

Thank you...so much...I am glad I have you in my life. I love you.

PS: It just started raining again...my friends in Delhi...I am thinking of you...and for those in the parched corner of the country...for you too. Hugs.

14 May, 2012

निब तोड़ देनी है आज...

क्यूँ लिखा जाए कि एक एक शब्द बायस होता है एक बनते हुए ज़ख्म का...शब्दबीज होते हैं...खून में घुल जाने के लिए...आंसुओं में चुभ जाने के लिए...हर शब्द एक बड़े से ज़ख्म के पेड़ का नन्हा सा बीज होता है. हर शब्द जो मैं लिखती हूँ हर शब्द जो तुम पढ़ते हो.

मैं वाकई बैरागी सी हो गई हूँ...एकदम विरक्त...मन किसी शब्द पर नहीं ठहरता...मन किसी चेहरे पर नहीं ठहरता...मन कहीं नहीं ठहरता. मुझे विदा कहना नहीं आता वरना कब की चली जाती...किसी ऐसी जगह पर जहाँ से वाकई कहीं और जाने की जरूरत न पड़े.

लिखना कम कर दिया है...बेहद कम और मन में जो हाहाकार मचा रहता था वो भी कम हो गया है...अब एक निर्वात बन रहा है...जहाँ कुछ नहीं होता...जहाँ मैं नहीं होती जहाँ तुम नहीं होते...जहाँ कोई भी नहीं होता. मैंने सुबह से दो किताबें पढ़ने की कोशिश कीं...नहीं पढ़ पायी, दोनों किताबें बकवास लगीं, हो ये सकता है कि किताबें सच में वाहियात हों.

फिलहाल हर तरफ बहुत सा सन्नाटा है...आसपास के मकानों में काम करते मजदूर शायद दोपहर के खाने की छुट्टी पर गए हैं...बच्चे स्कूल से वापस नहीं लौटे...शिकारी पक्षी घात लगाए खामोश होंगे...और बादल अभी ऊंघ रहे हैं...पंखा भी बेआवाज़ चल रहा है...आज अचानक उससे आती नित्य की खटर खटर बंद है. मैं कपड़े बदल कर बाहर जाने के मूड में हूँ कि कभी कभी घर ऐसा हो जाता है जैसे दीवारें टूट गिरेंगी मुझ पर. लंबा घूमने का मन है तो जूते के तस्मे भी बाँध लिए हैं.

किसी को एक आखिरी चिट्ठी लिखने का मन है...सामने पसंद के तीनों पेन रखे हैं...समझ नहीं आ रहा किस रंग की सियाही से लिखूं. मेरे कवि, मुझे हमेशा से मालूम था मुझे तुम्हारा जाना तोड़ देगा मगर लगता था कि टूटे टुकड़ों से भी कविता रची जाती है...आज महसूस करती हूँ कि ऐसा नहीं होता. तुम्हारे साथ आसमान की सियाही भी फीकी पड़ गयी है. तुमसे अनगिन बातें की विगत कुछ सालों में पर आज विदा कहने को सारे लफ्ज़ बेमानी हैं.

मूड है...जानती हूँ जल्दी ठीक हो जाएगा...पर ये वक्त वक्त पर जो उदासी की तहें लग रही हैं मन पर, इन्हें काटने को गर्म धीपा हुआ चाकू ही चाहिए कि ये परतें सख्त होती जाती हैं...जैसे सख्तजान मैं हूँ वैसी ही कुछ. जिंदगी में ऐसा फेज कभी नहीं आया था कि इतने दिन तक इतना कुछ लिखने को छटपटाहट हो...और अब जैसे एकदम शून्य...और ये शून्य खुद नहीं आया...मैंने ही मन के दरवाजे बंद कर लिए हैं कि रचने के लिए जितना दर्द सहना होता है उतने में लगता है सांसों का तारतम्य टूट जाएगा.

उसमें भी जो लिखती हूँ एक जरा पसंद नहीं आता तो फिर मन पूछेगा ही न...कि इतना दर्द, इतना दर्द किसलिए? कौन सी मजबूरी है जो तुमसे कलम चलवाए जाती है? आज मन कर रहा है सारी कोपियाँ उठा कर जला दूं और ब्लॉग को आग लगा दूं...या कि कुछ दिन इन्टरनेट का मोडेम बंद कर दूं और लालबाग में लंबी वाक पर निकल जाया करूं.

कैसी हूँ मैं...जिसे छूती हूँ...वो कहता है 'सोना हो जाता है' मुझे कहना था मिट्टी हो जाता है...मगर सोना हो जाना...ओह...मैं उसे मिडास की कहानी सुनाती हूँ...उसे पूरी कहानी नहीं पता है...कि कैसे मिडास को वरदान मिला था कि वो जिसे छू देगा सोना हो जाएगा...मिडास तब तक बहुत खुश था जब तक कि भूख लगने पर उसका खाना भी सोने में परिवर्तित हो गया...पानी भी...और वो घबरा ही रहा था कि फूल सी नाज़ुक उसकी बेटी दौड़ती हुयी आई उसकी गोद में और एक पल में सोने की गुडिया में तब्दील हो गयी...कीमती मगर निर्जीव.

एक था पारस पत्थर...लोग उसकी पूजा करते थे कि उससे जो भी छू जाये सोना हो जाता था...पारस पत्थर का मन होता है क्या? उससे कोई पूछे कि वो जो रंग बिरंगी चिड़िया तुम पर आकार बैठी थी और सोने की मूरत हो गयी थी...तुम्हें रोना आया था क्या?

क्या तोड़ देना चाहती हूँ? क्या खुद को? विध्वंस का गीत बज रहा है...अट्टालिकाएं गिरती जा रही हैं...मेरे घर में अनपढ़ी पुस्तकों की मीनारें नेस्तनाबूद हो रही हैं...मैं कहीं जा रही हूँ...कहाँ...मन पूछता है...मुझे मालूम नहीं कहाँ.

सामने असीमित जलराशि है, उन्मुक्त, अगाध, सियाही जैसी नीली...मन पूछता है, लौट आने को सागर भी न हो तो लहरें कहाँ जायेंगी?

11 May, 2012

फुटकर चिप्पियाँ

लोगों के रिकवर करने के अलग अलग तरीके होते हैं...मैं इस मामले में बहुत कमज़ोर हूँ...आई डोंट नो हाउ टू मूव ऑन...मैं अक्सर वहीं अटक जाती हूँ जहाँ से मुझे आगे बढ़ जाना चाहिए. किसी मोड़ पर बहुत दिन ठहर जाओ तो वहां घर बनाने का मन करने लगता है...रोज़ देखते देखते एक दिन वहां से नज़र आते नज़ारे दुनिया में सबसे खूबसूरत दिखने लगते हैं और हम ये भूल जाते हैं कि हम यहाँ रुके नहीं थे...ठहर गए थे कि हमें लगता था कि कोई लौट कर इसी मोड़ पर हमें ढूंढते हुए आएगा.

मुझे विदा कहना नहीं आता...मेरी जिंदगी में जितने लोग आये...सब अपनी अपनी खास जगह छेक के बैठे हैं, न कोई घर खाली करता है न मुझे निकालना आता है. छोटे बड़े हिस्से...भूले किस्से...बहुत कुछ सकेरा हुआ है. कभी कभी मुझे अपने से बड़ा कबाड़ी नहीं दिखता कि मैं टूटे हुए रिश्तों को भी सहेज के रखती हूँ कि कौन जाने कब कोई अच्छा सा 'ग़म'(pun intended) मिल जाए तो फिर सब जुड़ जाए. या फिर इन्हें गला कर फिर से किसी नए आकार में ढाला जा सके. जिंदगी में वाकई बेकार तो कुछ नहीं होता...सबकी अपनी अपनी जगह होती है.

मुझे जिन्हें भूलना होता है मैं उन्हें एक खास जगह अता करती हूँ...पासवर्ड में. एक आईडी शायद सिर्फ इसलिए है...कभी कभी बहुत जरूरी हो जाता है कि मैं किसी को भूल सकूं...कुछ दिन के लिए ही सही कि उसे याद करना बड़े ज़ख्म देने लगता है. फिर हर बार जब मैं पासवर्ड में वो नाम टाइप करती हूँ धीरे धीरे करके उसे चिट्ठियां लिखने का ख्याल उँगलियाँ बिसराने लगती हैं कि मैं जितनी बार आईडी से लोगिन करती हूँ, मुझे लगता है मैंने उसे चिट्ठी लिखी है...कि पहला शब्द तो वही होता है न...उसका नाम. लिखने के पहले पहला नाम या तो खुदा का हो या महबूब का...फिर लिखने में जिंदगी होती है.

ये सब मैं पुनरावलोकन में लिख रही हूँ क्यूंकि उस समय तो समझ नहीं आता...उस समय तो वो नाम दिन भर लिखना मजबूरी होता है इसलिए पासवर्ड बनाया जाता है. अब जब इतने सालों बाद उस पासवर्ड को बदला है तो आश्चर्यजनक रूप से देखती हूँ कि आई हैव हील्ड...मैं ठीक हूँ गयी हूँ...ज़ख्म भर गए हैं. अब मैं तुम्हारा नाम लिखते हुए मुस्कुरा सकती हूँ...अब मैं तुम्हें याद करते हुए हर्ट नहीं होती...अब तुम्हारे नाम से सीने में हूक नहीं उठती...अब मेरी सांस नहीं रूकती जब तुम मेरा नाम लेते हो.

मैं इतने ज्यादा विरोधाभास से भरी हूँ कि मुझे कभी कभी खुद समझ नहीं आता कि मैं क्या कह रही हूँ...एक शाम मैंने सुर्ख टहकते लाल रंग का सलवार कुरता पहना था जब कि कोई बात निकली और मैंने कहा...आई हेट रेड...मुझे लाल रंग एकदम पसंद नहीं है...तो एक दोस्त ने ऊपर से नीचे तक निहार कर कहा था...दिख रहा है. मैं अक्सर दो वाक्य एकदम एक दूसरे से उलट मीनिंग का एक ही सांस में कह दूँगी. ये कुछ वैसा ही है जैसे दिन भर ये सोचना कि आजकल मैं उसे याद नहीं करती हूँ.

आजकल मुझे स्कूल के बहुत सपने आ रहे हैं...अभी कल सपना देखा था कि फिजिक्स का कोस्चन पेपर है और मुझे एक भी सवाल नहीं आता...मैं एकदम घबरायी हुयी हूँ कि फेल कर जाउंगी...आज तक कभी फेल नहीं हुयी...मम्मी को क्या कहूँगी...फिर एक सवाल है जो थोड़ा बहुत धुंधला सा याद आता है मुझे...चांस है कि उसे पूरा अच्छे से लिख दूं तो पास कर जाऊं...ध्यान ये भी आता है कि मैं किसी से बहुत प्यार करती थी और पढ़ने के सारे टाइम मैं कहानियां और कविताएं लिखती रही...किताबें नहीं पढ़ीं. आज सुबह सुबह देखा है कि मैंने नया स्कूल ज्वाइन किया है और एक क्लास से निकल कर मैथ के क्लास करने दूसरी जगह जाना होता है...मैं रास्ता खो गयी हूँ...साथ में एक दोस्त और भी है...फिर एक सीनियर ने रास्ता बताया है और हम जाते हैं...बहुत सी गोल गोल घूमने वाली सीढ़ियाँ हैं...मेरे ठीक पीछे मैथ के सर भी चढ रहे हैं...मैं बहुत तेज सीढ़ियाँ चढती हूँ...मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने में कभी थकान महसूस नहीं होती. लेकिन जब ऊपर पहुँचती हूँ तो एक टेबल होता है और वहां से सीधे नीचे दिखता है और टेबल की एक टांग हिल रही है तो टेबल स्टेबल नहीं है...मुझे अब नीचे उतरना है पर अब मुझे डर लग रहा है...मुझे वैसे भी ऊँचाई से बहुत डर लगता है.

बहुत ज्यादा अनप्रेडिक्टेबल और मूड़ी हूँ...जब जो मन करे वो करने वाली...कब क्या कर जाऊं का कोई ठिकाना नहीं. कल शोपिंग पर गयी थी, खूब सारी चेक शर्ट्स खरीद कर लायी हूँ...चेक शर्ट्स मेरी हमेशा से फेवरिट रही हैं...कुछ सैंडिल्स, बैग्स, और कुछ छोटी मोटी चीज़ें. बहुत सालों बाद ऐसी सड़क किनारे वाली शोपिंग की...मोलभाव किया.

आजकल प्यार के मामले में कन्फ्यूजन वाला फेज चल रहा है...पता ही नहीं चल रहा कि कमबख्त होता क्या है...थोड़ा थोड़ा समझ भी आ रहा है कि आजकल किसी के प्यार में नहीं हूँ इसलिए ऐसे सवाल हैं...फिर भी ऐसा क्यूँ होता है कि कुछ लोगों का फोन आता है तो मुस्कुराते मुस्कुराते गाल दर्द कर जाते हैं...मुझे लगता है कि मुझे उनसे हमेशा प्यार रहेगा और प्यार सिर्फ मुस्कराहट का नाम है. बाकी जो रोना धोना हम करते हैं वो हमारा इगो होता है जो इस बात को मानता नहीं है कि हम किसी से जितना प्यार करते हैं वो हमसे उतना नहीं करता...या शायद एकदम ही नहीं करता.

बहुत दिनों से किसी के प्यार में गिरी नहीं हूँ...घुटने पर लगा पिछली बार का नीला निशान लगभग धुंधला पड़ गया है...परसों अल पचीनो पर एक किताब लायी हूँ...मन मानना नहीं चाह रहा है पर प्यार तो टोनी मोंटाना को स्कारफेस में देख कर हो गया ही था...आज बस...डूबना है उन आँखों में. मेरी जिंदगी से प्यार, फिल्में, किताबें और आवारागर्दी निकाल दो तो फिर बचता क्या है?

कल फ़राज़ को पढ़ रही थी...यूँ तो फैज़ को पढ़ने का मूड था पर किताब मिली नहीं...जाने किधर रख छोड़ी है. आजकल मन थोड़ा शांत रहता है...शांत, उदास नहीं...और सुनो...तुम उदास न रहा करो मेरी जान...जिंदगी में हज़ार काम हैं...जानती हूँ...तुम्हारी उदासी से मेरे मौसम को सर्दी हो जाती है...देखो न...फ़राज़ साहब कह गए हैं कि...शेर सुन के बताना...जो तुम्हें किसी और से प्यार हुआ क्या?

एक फुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफरेब थे गम रोज़गार के

09 May, 2012

बह जाने को कितना पानी...जल जाने को कितनी आग?


एक लेखक की सबसे बड़ी त्रासदी है कि उसके लिखे हर शब्द को उसके जीवन का आइना मान लिया जाता है...उसके ऊपर सच को चित्रित करने की इतनी बड़ी जिम्मेदारी डाल दी जाती है कि बिना भोगा हुआ सच वो लिखने में कतराता है...इसी बात पर एक लेखक की ही डायरी से कुछ फटे चिटे पन्ने कि कभी तमीज से इन्हें कहीं लिखने की दरकार नहीं रही.
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कल मेरे शहर में बहुत तेज बारिश हुयी...आसमान जैसे फट पड़ा था...बात मगर इसके पहले की है कि एक लेखिका कुछ सब्जियां खरीदने थोड़ी दूर के बाजार गयी थी...गौरतलब है कि मेरे अंदर एक औरत और एक लड़की भी रहती है मगर उसे शायद दुनिया कभी बाहर ही नहीं आने देती...तो ये लेखिका हर चीज़ में कहानियां ढूंढती है...तो कल भी मैं जो थी...बाज़ार गयी थी और सब्जियों के अलावा मुझे एक ड्रिल मशीन खरीदनी थी...पता चला कि ड्रिल मशीन ८०० रुपये की आती है और अगर जरूरत पड़े तो एक दिन के लिए ५० रुपये में रेंट की जा सकती है. मुझे उधारी चीज़ें अधिकतर पसंद नहीं आतीं...और एक ड्रिल का थोड़ा सम्मोहन भी है तो सोचा खरीद लेती हूँ. दूकान के पीछे जा कर एक संकरी सी गली थी जिससे ऊपर के तल्ले में जाने को सीढ़ियाँ बनी थीं. मैं कभी कोठे पर नहीं गयी पर जितना फिल्मों और किताबों में पढ़ा है वैसा ही डरावना सा माहौल था...नीम अँधेरा और एक आधा नाईट बल्ब जल रहा था...एक लंबा सा गलियारा था जिसके एक तरफ सीढ़ियाँ थीं और एक तरफ कुछ कमरे जिसमें एक धुंधला सा पर्दा पड़ा हुआ था और परदों के पार कुछ औरतें दिख रही थीं. वो कोई शेडी सा पार्लरनुमा एरिया था...वहां खड़े होकर मैं ये सोच रही थी कि ये ऐसी जगह है कि किसी भी दोस्त को इसका डिस्क्रिप्शन दूं कि मैं ऐसी जगह गयी थी तो पहला सवाल होगा कि तुम वहाँ कर क्या रही थी...उस गली के दोनों तरफ कुछ बंद दुकानें थीं और कुछ साइबर कैफे जिसके बाहर स्टूल पर इंतज़ार करके लड़कों के चेहरे ऐसे थे जैसे मेरे तीस के ऊपर भाइयों के हैं जिनको नौकरी अभी तक नहीं मिली है...मुझे अंदाज़ा था कि ऐसे गर्द-गुबार भरे कैफे में वो क्या कर रहे होंगे...मुझे ये भी पता चल रहा था कि वहां कैसी सीडियां रेंट पर मिलती होंगी. मेरा कौतुहल इतना बढ़ रहा था कि मन कर रहा था धड़धड़ा के सीढ़ियाँ चढ जाऊं...मगर दिन के चार बजे उन सीढ़ियों पर इतना अँधेरा था कि टटोल कर ऊपर चढ़ना पड़ता.

छोटे शहरों में लड़कियों के अंदर एक डर कूट कूट कर बचपन से ही भरा जाता है...अँधेरे कोनों का डर...अँधेरे कोनों से निकलते उन  हाथों का डर जो जिस्म को भंभोड़ते हैं और निशान और सवाल आत्मा पर बनाते हैं कि ऐसा मेरे साथ क्यूँ हुआ...मैं ऐसा डिजर्व करती थी...मैंने कैसे कपड़े पहने थे...मैं वहाँ क्या कर रही थी और ये सवाल उन गंदे हाथों के निशान उतर जाने के बाद भी नहीं धुलते. हालाँकि हर लड़की इन गलीज़ हाथों से रूबरू होती है मगर हर लड़की इन हाथों से बचती हुयी चलती है. उसे मालूम होता है कि ये हाथ सिर्फ अँधेरे कोनों में नहीं दबोचते बल्कि रौशनी वाले मेट्रो में...पटना की बेहद भीड़ वाले सब्जीबाजार में...रेलवे प्लेटफोर्म पर...दिन की रौशनी और भीड़ वाली जगह पर ये हाथ ज्यादा नज़र आते हैं. लड़की ये भी सीखती है कि हमेशा आलपिन लेकर चला करो और ऐसे किसी व्यक्ति को चुभा दो...लड़की ये भी चाहती है कि ऐसे हर हाथ वाले शख्स की वैसी जगह चोट करे जहाँ वो बर्दाश्त न कर पाए...जी...हर लड़की जानती है कि मर्द के शरीर में ऐसी  ही कमज़ोर जगह होती है जैसे कि औरत का मन.

मैं जानने लगी हूँ थोड़ी थोड़ी कि मेरी ये छटपटाहट क्यूँ है...शायद ऐसी ही कोई नाकाबिले बर्दाश्त छटपटाहट रही होगी कि दुनिया भर की औरतों ने लिखने के लिए मर्दों के नाम इख़्तियार किये...मेरा भी कभी कभार मन होता है कि मैं कोई और नाम रख लूं कि वो सारे फ़साने जो मुझे लिखने हैं मैं अपने नाम से नहीं लिख सकती कि उन कहानियों में मेरे न चाहते हुए भी मेरी आँखें उभर आएँगी कि मेरे नाम का एक चेहरा है जबकि कहानियों के किरदारों का कोई रंग नहीं होता...उनकी कोई मर्यादाएं नहीं होती, जिम्मेदारी नहीं होती...दुनिया नहीं होती...उनका यथार्थ वक्त के इतने छोटे से हिस्से पर नुमाया होता है कि वो पूरी शिद्दत के साथ वो हो सकते हैं जो होना चाहते हैं. एक किरदार से जिंदगी अपना हिस्सा नहीं मांगती. हालाँकि मैं दुनिया को औरत और मर्द के खाँचों में बांटना सही नहीं समझती और फेमिनिस्म के बारे में अनगिनत बातें पढ़ते हुए भी मुझे चीज़ें नहीं समझ आतीं...मेरे लिए इतना काफी होता है कि मुझे वो सारी आज़ादियाँ मिलें जो मेरे भाई को या मेरे पति को या मेरे दोस्तों को मिली हुयी हैं. हर वक्त कपड़े पहनने के पहले ये न सोचना पड़े कि इसमें अगर मेरे साथ कोई हादसा हो गया तो कोई मुझे जिम्मेवार ठहराएगा...ऐसा ही कुछ लेखन के बारे में भी है.

मैं अधिकतर गालियाँ नहीं देती पर मैं चाहती हूँ कि मैं अगर किसी को गाली दे रही हूँ तो बिना बताये ये समझा जाए कि उस गाली के बिना मेरी मनःस्थिति बयान नहीं हो सकती. मैं गलियों को भी उनके लिंग़ के हिसाब से देती हूँ...जब कि मुझे दुनिया के मर्दों से कोफ़्त होती है तो मैं ऐसी गाली नहीं देना चाहती जो कि उनकी बहन या माँ की ओर लक्षित हो...मैं वाकई उन गालियों को पसंद करती हूँ जिनमें ये बोध आता है कि वो स्त्रियोचित हैं...कि उनमें वही सारी कमियां हैं जिनके दम पर वो अपने मर्दाने अहं का दंभ भरते हैं...मुझे लगता है बाकी सारी गालियों से परे किसी मर्द को सबसे अधिक तिलमिलाहट तब होती है जब कोई औरत उन्हें 'नपुंसक' या 'नामर्द' जैसी कोई गाली दे दे. ये उनके पूरे वजूद को ही कटघरे में खड़ा कर देता है...कि औरत के लिए दुनिया बहुत सी चीज़ों से बनी होती है...लेकिन मर्द सिर्फ और सिर्फ एक चीज़ से बनता है...फिजिकल/सेक्सुअल ग्रैटिफिकेशन.

मुझे उन औरतों की कहानियां लिखने का मन करता है जिनसे मुझे साहिब बीबी गुलाम की छोटी बहू याद आती है. कितने भी बड़े लेखक को पढ़ लेती हूँ ऐसा लगता है कि ये औरत की सिर्फ बाहरी किनारों को छू पाए हैं...मान लो उसका मन थोड़ा बहुत टटोल कर समझ लें मगर उसके अंदर जो एक बेबाक सी आग भरी है उसकी आंच में हाथ जलाने से सभी डरते हैं. औरत जब अपने मन पर आती है तो दावानल हो जाती है...फिर हरे पेड़ और सूखी लकड़ी में अंतर नहीं करती. मैं हर सुबह उठती हूँ तो प्यार को कोई च से शुरू होने वाली गाली देती हूँ और इस बात पर पूरा यकीन रहता है कि दुनिया में प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं है.

इंसान की सभ्यता का सारा इतिहास मात्र एक छलावा है...झूठ और आडम्बर का एक रेशमी ककून है...जबकि सच ये है कि इस ककून के अंदर के कीड़े की नियति मर जाना ही है. आज भी आदिम भाव वही हैं...हाँ उसके ऊपर झूठ का मुलम्मा इतने दिनों से जिया जा रहा है कि  उसी को सच मान लिया जाता है. प्रेम तो बहुत दूर की बात है...राह चलते...आते जाते...आखिर हर लड़की को ऐसा आज भी क्यूँ लगता है कि सामने का मर्द नज़रों से उसके कपड़े उतार रहा है...और मौका मिलते किसी अँधेरी गली में वो सारा कांड कर डालेगा जिसमें इस बात का कोई रोल न होगा कि लड़की ने कैसे कपड़े पहने थे, उसकी उम्र क्या थी, चेहरे के कटाव कैसे थे...अंत में वह सिर्फ और सिर्फ एक देह है...एक नारी देह.
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फिल्म में छोटी बहू कहती है...मेरी बाकी औरतों से तुलना मत करो...मैंने वो किया है जो किसी और ने नहीं किया...कल तेज बरसती बरसात में भीगते हुए मैं आइसक्रीम खा रही थी...बारिश इतनी तेज थी कि चेहरे पर थपेड़े से महसूस हो रहे थे...सर से पैर तक भीगी हुयी...एक हाथ में फ्लोटर्स...एक हाथ में आइसक्रीम...और मन में अनगिनत ख्यालों का शोर...नगाडों की तरह धम-धम कूटता हुआ. सड़क पर किसी ने कहा 'नाईस'...आवाज़ में तिक्त ताने मारने का भाव नहीं सराहने का भाव था...मैंने चश्मा नहीं पहना था तो मुझे उसका चेहरा नहीं दिखा...मैं थोड़ा आगे बढ़ भी चुकी थी...मैंने आइसक्रीम लिए हाथ को ऊपर उठाया जैसे शैम्पेन के ग्लास को उठाते हैं और कहा 'चीयर्स'. उसी रास्ते वापस लौट रही थी तो देखा उसकी गोद  में एक बच्चा था...मुझे जाने कैसे लगा कि बेटी है...वह उसे हाथ हिला कर मुझे बाय कहने को कह रहा था...मैंने बाय किया भी...इस सबके बीच बहुत तेज बारिशें थी और बिना चश्मे के मुझे कुछ दिख नहीं रहा था. मैं सोच रही थी...कि वो सोच रहा होगा कि मेरी बेटी भी ऐसी ही होती...उसके एक आध और बातों में मैंने वो चाहना पकड़ ली थी...मैं उसे कहना चाहती थी...ऐसी लड़की को दूर से ही ऐडमायर करना आसान है...ऐसी लड़की का पिता बनना...बहुत बहुत मुश्किल.

आज़ाद होना वो नहीं होता कि जो मन किये कर रही है लड़की...वैसे में हर मर्द में एक तुष्टि का भाव होता है कि मैंने इसे आज़ादी दी हुयी है...मैंने उसे खुला छोड़ा है...ऐसे में लड़की में भी एक अहसान का भाव होता है समाज के प्रति, पिता के प्रति, प्रेमी के प्रति, पति के प्रति, दोस्त के प्रति...हर उस मर्द के प्रति जिसने उसे आज़ादी दी है...बात तब खतरनाक हो जाती है जब लड़की मन से आज़ाद हो जाती है, स्वछन्द...जब उसे अपने किसी किये पर पश्चाताप नहीं होता कि उसने वही किया जो उसकी इच्छा थी. ऐसी खुली लड़की से फिर सब डरते हैं...उसमें इतनी कूवत होती है कि सिर्फ अपने सवालों भर से समाज की चूलें हिला दे. कल मैं वो लड़की थी.


ऐसी लड़की बारूद के ढेर पर बैठी नहीं होती...ऐसी लड़की खुद बारूद होती है. उससे बच कर चलना चाहिए. 
समझ रहे हो आप?

07 May, 2012

चिल्लर ख्याल...सुबह सुबह ढनमनाते हुए


आजकल मेरा दिमाग जाने कहाँ रहता है...कल ऊँगली काट ली सब्जी कट करते हुए...सोच कुछ रही थी...नया चाकू था एकदम नीट कट लगा...गहरा...खून बहुत तेज़ी से बह रहा था...मुझे खून सम्मोहित करता है...टहकता...दर्द में डुबोता...तो देख रही थी तब तक कुणाल भागते आया...नल के नीचे पानी से धोना शुरू किये पर खून रुकने से रहा...फ्रिज से बर्फ निकाली और ऊँगली पर रखी...कुणाल की आँखें तब तक घूमनी शुरू हो गयीं थीं...उसे खून देख कर चक्कर आता है...दो मिनट और खड़ा रहता तो वहीं बेहोश हुआ रहता तो उसको भेजे हॉल में कि तुम जाओ हम खुद से देख लेंगे. खून का बहाव इतना तेज था कि रुक ही नहीं रहा था...कितनी भी जोर से बर्फ से दबाए रखे थे ऊँगली को एकदम तीखी धार बहे जा रही थी...उसपर एक फ्रैक्शन ऑफ सेकण्ड भी दबाव कम होता तो बस फिर से धार तेज हो जाती...सिंक एकदम लाल सा हुआ जा रहा था वो तो अच्छा था कि सिंक में कोई बर्तन नहीं थे. 

काफी देर हुआ और खून रुकने को नहीं आया तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं...बचपन में मम्मी हमेशा बर्फ लगवाती थी और खून रुक जाता था...थोड़ी देर रुकता था तो बर्फ जैसे हटाती थी दर्द भी वापस लौटता था और फिर से धार शुरू. जब कुछ नहीं हो रहा था तो सोचा पट्टी बाँधने के सिवा कोई उपाय न था...कुणाल को तो बुलाने का सवाल नहीं था...वो एक बार झांकते हुए आया कि हम बाँध देते हैं...हम उसको डान्ट धोप के भेजे कि यहाँ एक छे फुट का बेहोश लड़का हमको नहीं चाहिए...फूटो यहाँ से...हम बहादुर हैं खुद से कर लेंगे सब. फिर रुई में सैवलोन लगाये और एक बार क्लीन किये फिर खूब सारी रुई में सैवलोन लगा के ऊँगली पर कस के दबाये और लिकोप्लास्ट चिपकाये...एकदम टाईट ड्रेसिंग किये कि खून टपके न. 

सारे टाइम ऊँगली को ऊपर उठाये रखे...कुणाल कह रहा था कि हार्ट के लेवल से ऊपर रखना चाहिए कट को...हर दर्द के साथ ऐसा ही होना चाहिए न? हार्ट के लेवल से ऊपर रखा जाए उसे...फिगरेटिवली स्पीकिंग. खैर...जमीन पर बैठे और हाथ बेड पर ऊपर रखे कि खून न बहे...बीच बीच में झाँक के देख भी लेते थे कि ठीक है कि नहीं...लाल तो नहीं हो रही है पट्टी...तो देखा कि ठीक है. खून बहना रुक गया था पर उतना खून बहता देख कर मेरा मन भी कैसा कैसा होने लगा था और मेंटली लग रहा था कि थक गए हैं...हालाँकि बहुत ज्यादा खून नहीं बहा होगा...या शायद  बहा होगा, मालूम नहीं. थक के सो गए. कुणाल कुछ दूध कोर्नफ्लेक्स खाया...हम आउट थे...देखे नहीं. 

नींद खुली तो शाम हो रही थी...खून बहना रुक गया था...पर हम भी हम हैं, ढेर होशियार बनते हैं. कल तेल लगाए हुए थे बाल में तो शाम होते होते एकदम सर भारी लगना और सर दर्द शुरू हो चुका था. हमको लगा खून रुक ही गया है...आराम से शैम्पू कर लेते हैं, बचा के करेंगे. अब बचा के ठेंगा होना था...नहा के निकलते निकलते फिर से ऊँगली ने खून की जमना बहानी शुरू कर दी...खुद को खूब सारा कोसा कि बुद्धि पे बलिहारी...वगैरह...फिर से टाईट ड्रेसिंग की. 

शाम डूबते हुए छत पर गयी थी...अक्सर बाल सुखाने के लिए छत पर जाना अच्छा लगता है...कल शाम एकदम एकरंग थी...बादल भी एकदम सलेटी...कोई नारंगी, लाल, गुलाबी नहीं...आसमां भी नीला नहीं...ग्रे...छत पर बैठ कर कुछ दोस्तों के बारे में सोचा कि संडे की इस शाम वो कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे...और ये कि किसी को बहुत शिद्दत से याद करो तो क्या वाकई उसे पता चलता है...हिचकी आती है क्या? कल चाँद बहुत खूबसूरत था और बादल से छन कर चाँद की किरणें दिख रही थीं...मैंने चाँद की किरनें कभी नहीं देखी थीं इस तरह...बीम होती हुयीं. सुन्दर था सब...एकरंग होते हुए भी. 
कुणाल और साकिब के साथ रात को वाक पे निकले...मोहल्ले में इधर उधर घूमे...आइसक्रीम कैंडी खाए...रात को बहुत सेंटी हो गए थे...होपलेस केस हैं...हमको कुछ भी नहीं आता है...गुड फॉर नथिंग...लिखने का भी टैलेंट दिया ही था तो या तो खूब सारा देता या आम इंसानों टाइप आम ही रहने देता...ये न इधर के हैं न उधर के हैं. ना कुछ बड़ा तोडू टाइप लिखेंगे कि शान से किसी को दिखा सकें कि देखो बेट्टा किताब है मेरा...न चैन से बैठ के कोई खूब सारा पैसा मिलने वाला नौकरी करेंगे कि अपने पैसे पर ऐश कर सकें. 

दिमाग खराब करेंगे अपना और कुणाल का कि रे हम क्या करें हमको इतनी बेचैनी काहे है...सबको तो नहीं होती सब अपनी जिंदगी में खुश रहते हैं...हमको तो साला कोश्चन ही पता नहीं है तो आंसर कहां से ढूँढेंगे. मालूम ही नहीं है कि क्या चाहिए...बस इतना पता है कि कुछ तो है जिसके पीछे भागते जा रहे हैं...कोई तलाश है...और ये कि बेचैनी है बहुत. दर्द है बहुत. कहीं ठहरना नहीं होता है. 

सुबह उठी हूँ...देखती हूँ घुटने पर एक काला निशान है...कल किसी चीज़ से फिर टकराई होउंगी घर में...ऊँगली अलग दर्द दे रही है...बिना फर्स्ट फिंगर के इस्तेमाल के टाइपिंग भी आफत है...पर ऐसे ही जेनरली जाने क्या क्या लिखने का मन करते रहता है...इतना सारा अलाय बलाय लिखे बिना वो बाहर भी तो नहीं आता जो अंदर कहीं हिलोरें मार रहा है. पता नहीं क्या लोचा है यार...लाइफ में बहुत कन्फ्यूजन है...बहुत परेशानी है और कमबख्त जिंदगी है भी तो इतनी छोटी सी...कितनी और होगी...बहुत हुआ तो दस साल...चालीस वगैरह से ऊपर जीने का कोई खास अरमान नहीं है. जिंदगी इतनी तेज़ी से भाग रही है कि क्या कहें...परेशान हो जाती हूँ हर वीकेंड कि कमबख्त एक और हफ्ता गुज़र गया. 

आज ऐसे ही कैमरा लेकर कुछ कुछ फोटो खींचने के लिए जाने का मन है...परती जमीन सा लगता है सब कुछ...मीलों मीलों खाली...एक बबूल का पेड़ तक नहीं. जाने इस तलाश को कब सुकून मिलेगा. कुणाल कहता है कि मैं लोगों के प्रति बहुत क्रिटिकल होती हूँ इसलिए मेरे दोस्त नहीं बनते...मुझे वाकई बहुत कम लोग पसंद आते हैं...बहुत ही कम...पर जो पसंद आते हैं उनपर जान छिडकती हूँ...बहुत कम लोग मुझे पसंद करते हैं...vice-versa टाइप की चीज़ है. जिंदगी में कम लोग हों...पर अच्छे हों...मैं किसी ऐसे के साथ टाइम वेस्ट नहीं कर सकती जो मुझे पसंद न हो...मुझे समझ आता है कि मेरी जिंदगी बहुत छोटी है...बहुत छोटी तो मैं अकेली ही रह लूंगी लेकिन किसी ऐसे शख्स को बर्दाश्त नहीं करूंगी जिसे मुझे झेलना पड़े...हद होपलेस केस हूँ. 

कल अनुपम से बात कर रही थी कि यार बहुत ज्यादा डिप्रेसिंग फेज चल रहा है कमबख्त इतनी जल्दी जल्दी उदास होती हूँ कि कुछ काम ही नहीं आ रहा...लगता है पागल हो जाउंगी...कितनी शाम लगता है जान दे दूं...कहीं छत से जाके कूद जाऊं...पर उम्मीद करती हूँ कि फेज है...गुजरेगा...बस इस बार बहुत लंबा चल रहा है...मुझे इतने दिन तक उदास रहने की आदत नहीं है. दिन के सारे पहर रटती हूँ कि गुजरेगा...गहरी सांसें लो लड़की...इट विल बी आलराईट...जस्ट...सांस लेती रहो...जिंदगी ऐसी ही है...क्या करोगी...जस्ट...कीप ब्रीदिंग...ओके?

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