19 November, 2018

रोज़नामचा - नवम्बर की किसी शाम


हम कहाँ कहाँ छूटे रह जाते हैं। इंटर्नेट पर लिखे अपने पुराने शब्द पहचानना मुश्किल होता है मेरे लिए। ऐसे ही कोई जब कहता है कि उनको मेरी किताब का कोई एक हिस्सा बहुत पसंद है। का किसी कहानी की कोई एक पंक्ति, तो मुझे कई बार याद नहीं रहता कि ये मैंने लिखा था। 

8tracks एक ऑनलाइन रेडिओ है जिसका इस्तेमाल मैं लिखने के दर्मयान करती थी। ख़ास तौर से अपने पुराने ऑफ़िस में स्क्रिप्ट लिखते हुए या ऐसा ही कुछ करने के समय जब शोर चाहिए होता था और ख़ामोशी भी। कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जिनसे हमें किसने मिलवाया हमें याद नहीं रहता। किसी शाम के रंग याद रहते हैं बस। बोस के noise कैन्सेलेशन हेड्फ़ोंज़ वाले चुप्पे लम्हे। 8tracks के मेरे पसंदीदा मिक्स पर कमेंट लिखा था मैंने। अब मैं वैसी बातें करती ही नहीं। पता नहीं कब, क्या महसूस किया था जो वहाँ लिखा भी था। “My soul was searching for these sounds...somewhere in vacuum. Thank you. Your name added to the playlist's name makes a complete phrase for my emotional state now...'How it feels to be broken my mausoleums'. Redemptions come in many sounds. Solace sometimes finds its way to you. And darkness is comforting. Thank you. So much.”

आज बहुत दिन क्या साल बाद लगभग ऑफ़िस का कुछ काम करने आयी। मैं काम के मामले में अजीब क़िस्म की सिस्टेमैटिक हूँ। मुझे सारी चीज़ें अपने हिसाब से चाहिए, कोई एक चीज़ इधर से उधर हुयी तो मैं काम नहीं कर सकती। चाय मेरे पसंद की होनी चाहिए, ग्रीन टी पियूँगी तो ऐसा नहीं है कि कोई भी पी लूँ… ‘ginger mint and lemon’ फ़्लेवर चाहिए होता है। कॉफ़ी के मामले में तो केस एकदम ही गड़बड़ है अब। starbucks के सिवा कोई कॉफ़ी अच्छी नहीं लगती है। लेकिन उस कॉफ़ी के साथ लिखना मतलब कोई क़िस्सा कहानी लिखना, टेक्नॉलजी नहीं। 

फिर मैं जाने क्या लिखना चाहती हूँ। जो चीज़ें मुझे सबसे ज़्यादा अफ़ेक्ट करती हैं इन दिनों, मैं उसके बारे में लिखने की हिम्मत करने की कोशिश कर रही हूँ। सब उतना आसान नहीं है जितना कि दिखता है। जैसे कि पहले भी मुझे डिप्रेशन होता था ऐंज़ाइयटी होती थी लेकिन हालत इतनी बुरी नहीं थी। इन दिनों ज़रा सी बात पर रीऐक्शन कुछ भी हो सकता है। ख़ास तौर से कलाइयाँ काटने की तो इतनी भीषण इच्छा होती है कि डर लगता है। मैं जान कर घर में तेज धार के चाक़ू, पेपर कटर या कि ब्लेड नहीं रखती हूँ। इसके अलावा सड़क पर गाड़ी ठोक देने के ख़याल आते हैं, किसी बिल्डिंग से कूद जाने के या कि कई बार डूब जाने के ख़याल भी आते हैं। मुझे डाक्टर्ज़ और दवाइयों पर भरोसा नहीं होता। आश्चर्यजनक रूप से, मुझ पर कई दवाइयाँ काम नहीं करती हैं। ये कैसे होता है मुझे नहीं मालूम। पहले ऐसा बहुत ही ज़्यादा दुःख या अवसाद के दिन होता था। आजकल बहुत ज़्यादा फ़्रीक्वंट्ली हो रहा है। 

इन चीज़ों का एक ही उपाय होता है। किसी चीज़ में डूब जाना। तो काम में डूबने के लिए सब तैय्यारी हो गयी है। टेक्नॉलजी मुझे पहले से भी बहुत ज़्यादा पसंद है, सो उसके बारे में पढ़ रही हूँ। एक बार सारी इन्फ़र्मेशन समझ में आने लगेगी तो फिर लिखने भी लगूँगी। आर्टिफ़िशल इंटेलिजेन्स, मशीन लर्निंग, एंटर्प्रायज़ ऑटमेशन…सब ऐसी चीज़ें हैं जिनके बारे में में मुझे एकदम से शुरुआत से पढ़ाई करनी है। फिर, आजकल अच्छी बात ये है कि हिंदी अख़बार शुरू किया है। सुबह सुबह हिंदी में पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ऐसे भी शब्द अब रोज़ाना मिलने लगे हैं जिनसे मिले अरसा हो जाता था। जैसे कि प्रक्षेपण। इंदिरानगर में रहते हुए दस साल से हिंदी अख़बार पढ़ा नहीं, कि उधर आता ही नहीं था। इस घर में राजस्थान पत्रिका मिल जाती है। यूँ मुझे हिंदुस्तान पढ़ना पसंद था, लेकिन ठीक है। पत्रिका का स्टैंडर्ड ठीक-ठाक है। कुछ आर्टिकल्ज़ अच्छे लगते हैं। हिंदुस्तान पढ़े कितना वक़्त बीत गया। देवघर में ससुराल में भी प्रभात ख़बर आता है, वो तो इतना बुरा है कि पढ़ना नामुमकिन है। 

आज पूरा दिन बहुत थका देने वाला रहा। ऑफ़िस में दूसरे हाफ में तो नींद भी आ रही थी बहुत तेज़। कल से सोच रही हूँ अपना फ़्रेंच प्रेस कॉफ़ी मेकर और कॉफ़ी पाउडर ले कर ही आऊँ ऑफ़िस। काम करने में अच्छा रहेगा। फिर कभी कभी सोचती हूँ कॉफ़ी मेरी हेल्थ के लिए सही नहीं है, तो पीना बंद कर दूँ। 

इंग्लिश विंग्लिश बहुत सुंदर फ़िल्म है। और सबसे सुंदर उसका आख़िर वाला स्पीच है। श्रीदेवी ने कितनी ख़ूबसूरती से स्पीच दी है। मैं अक्सर उस स्पीच के बारे में सोचती हूँ। ख़ुद की मदद करना ज़रूरी होता है ज़िंदगी के कुछ पड़ावों पर। कि आख़िर में, सारी लड़ाइयाँ हमारी पर्सनल होती हैं। चाहे वो हमारे सपनों को हासिल करने की लड़ाई हो या कि अपने भीतर रहते दैत्यों से रोज़ लड़ते हुए ख़ुद को पागल हो जाने से बचा लिए जाने की। जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है, ज़िंदगी के कई स्याह पहचान में आ रहे हैं। ऐसा क्यूँ है कि अवसाद का रंग और गाढ़ा ही होता जाता है? 

मैं अपने शहर बनाना चाहती हूँ लेकिन विदा के शहर नहीं। बसे-बसाए शहर कि जिनमें भाग के जाने को नहीं, घूमने जाने को जी चाहे। ख़ूबसूरत शहर। बाग़ बगीचों वाले। कई रंग के गुलाब, गुलदाउदी, पीले अमलतास, सुर्ख़ गुलमोहर और पलाश वाले। कहते हैं कि हमें जीने के लिए कुछ चीज़ों से जुड़े रहने की ज़रूरत होती है। चाहे वो कोई छोटी सी चीज़ ही हो। बार बार याद आने वाली बातों में मुझे ये भी हमेशा याद आता है कि रामकृष्ण परमहंस को लूचि (अलग अलग कहानियों में अलग अलग खाद्य पदार्थों का ज़िक्र आता है। कहीं गुलाबजामुन और जलेबी का भी) से बहुत लगाव था और उन्होंने एक शिष्य को कहा था कि दुनिया में अगर हर चीज़ से लगाव टूट जाएगा तो वे शरीर धारण नहीं कर पाएँगे। मोह जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा है। बस, कुछ भी अधिक नहीं होना चाहिए। अति सर्वत्र वर्जयेत और त्यक्तेन भुंजीथा भी पढ़ा है हमने। पढ़ने से इन बोधकथाओं का कोई हिस्सा अवचेतन में अंकित हो जाता है और हमें बहुत ज़्यादा अवसाद के क्षण में बचा लेता है। बीरबल की उस कहानी की तरह जहाँ बर्फ़ीले ठंडे पानी में खड़े व्यक्ति ने दूर दिए की लौ को देख कर उसकी गर्माहट की कल्पना की और रात भर पानी में खड़ा रहा। 

कभी कभी किसी और को अपनी जिंदगी के बारे में बताती हूँ तो अक्सर लगता है कि life has been extremely kind to me. शायद इसलिए भी, छोटी छोटी चीज़ों में थोड़ी सी ख़ुशी तलाश के रख सकती हूँ। ख़ुद को बिखरे हुए इधर उधर पा के अच्छा लगता है। मैं रहूँ, ना रहूँ…मेरे शब्द रहेंगे। 

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