29 March, 2019

इस वसंत के गुलाबी लोग, हवा मिठाई की तरह मीठे, प्यारे और क़िस्सों में घुल जाने वाले

इतनी कोमलता कैसे है इस दुनिया में? कितनी ख़तरनाक हो सकती है कोमलता?
इस कोमलता से जान जा सकती है क्या? इतनी कठोर दुनिया में कैसे जी सकता है कोई इतना कोमल हो कर।

स्पर्श को कैसे लिखते हैं कि वो पढ़ते हुए महसूस हो? इतने साल हो गए, अब भी कुछ बहुत गहरे महसूस होता है तो लिखना बंद हो जाता है। कि कैसे, इतनी कोमलता कैसे है इस दुनिया में? कैसे बचे रह गए हो तुम, इतना कोमल होते हुए भी। 

ये सारे आर्टिस्ट्स ऐसे क्यूँ होते हैं? पिकासो की तस्वीर देखते हुए उसकी आँखों का वो हल्का का पनियल होना क्यूँ दिखता है किसी भागते शहर की भागती मेट्रो में ठहरे हुए दो लोगों को एक दूसरे की आँखों में। इतने क़रीब से देखने पर आँखें ज़रा ज़रा लहकती हैं। मैं भूल जाती हूँ उसे देख कर पलकें झपकाना। ऊँगली से खींच कर काजल लगाती हूँ ज़रा सा ही, कि बचा रहे थोड़ा सा प्यार हमारे बीच। 

दिल्ली में इस बार हिमांशु वाजपेयी की दास्तानगोई थी। उससे मिल कर अंकित की फिर याद आयी। आम की दास्तान सुनना असल में तकलीफ़देह था। अंकित की इतनी याद आयी। इतनी। परसों एक दोस्त से मिली तो उस वाकये का ज़िक्र करते हुए कह उठी, मैं अंकित को ज़िंदगी भर नहीं भूल सकती। उसका होना जादू था। एक क़िस्से का जादू, किसी फ़रिश्ते सा। कि उसमें कुछ था जो इस दुनिया का नहीं था। कि वो जाने किस दुनिया का लड़का था। फिर इतनी कम उम्र में कौन लौटता है इस तरह अपने ईश्वर के पास। 

मुझे बहुत प्यारे लोगों से डर लगता है। ये डर बहुत दिनों तक अबूझ था, इन दिनों थोड़ा सा मुझे समझ में आ रहा है। ये जो फूल सा हाथ रखना होता है। सिर्फ़ अंकित ने रखा था…जब हम आख़िरी बार मिले थे। मुझे उस दिन भी उसका हाथ बिलकुल रोशनी और दुआओं का बना हुआ लगा था। मगर फिर अंकित नहीं रहा बस उसके तितलियों से हाथ रह गए हैं मेरे काँधे पर। उसके जीते जी कितना कुछ था वो। मैंने वो मैं क्यूँ नहीं लिखी कभी उसको। उसकी ईमेल id उसकी हैंडराइटिंग में मेरी नोटबुक पर है। कि कहा नहीं कभी उसके जीते जी।
***

तस्वीर खींचते हुए वो मुस्कुराया और फिर तस्वीर देखी मोबाइल पर…हमारे बीच ज़रा सी दूरी थी। उसने काँधे पर हाथ रखा और मुझे ज़रा सा अपने क़रीब खींच लिया। उसके हाथ इतने हल्के कैसे थे?

उसे विदा कहने के लिए मैं कार से उतरी। ऐसे कैसे गले लगाते हैं किसी को जैसे वो फ़्रैजल हो। एकदम ही नाज़ुक, कि छूने से टूट जाएगा। जैसे कोई तितली आ बैठी हो हथेली पर अचानक। precious। कितना क़ीमती है वो मेरे लिए। कितना प्यार उमड़ता है कभी कभी। जल्दी आना, उसने कहा। ज़्यादा मिस मत करना, मैंने कहना चाहा, पर कहा नहीं।

वे लड़के होते हैं ना, जिनसे मिलने ख़ाली हाथ जाने का मन नहीं करता। हम थोड़े अपॉलॉजेटिक से हो जाते हैं। सॉरी, आज मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं लायी। कहानी सुनोगे? नयी सुनाएँगे, जो किसी को नहीं सुनायी है अभी। वो लड़के जिन से मिल कर जाने मन में कौन सी मौसी, दीदी, फुआ की याद आ जाती है जो हमारे लिए हमेशा कुछ न कुछ लेकर ही आती थी बाहर से। जिनके आने का इंतज़ार हमारे भीतर बसता था। जो मेरी ज़िंदगी में कभी नहीं रहीं, लेकिन जिनकी कमी मुझे हमेशा खली। 

हम जब शायद कुछ और उम्र दराज़ हो जाएँगे तो तुमसे पूछ सकेंगे और तुम्हारा हाथ पकड़ कर बैठ सकेंगे किसी कॉफ़ी शॉप में, बिना कोई एक्स्प्लनेशन दिए बग़ैर। तुम्हारे सामने बैठ कर नर्वस हो कर लगातार कुछ न कुछ कहे जाने की बेबसी नहीं होगी। हम चुपचाप बैठ कर देख सकेंगे तुमको, आँख झुकाए बग़ैर। बिना कुछ कहे। किसी अकोर्डिंयन की धुन को रहने देंगे हमारे बीच, जैसे वक़्त का एक वक्फ़ा हमेशा के लिए याद रह जाएगा। हमेशा। जिसपर कि तुम यक़ीन नहीं करते हो। 

कुछ और समय बाद बुला सकूँगी तुम्हें अपने घर खाने पर। सिर्फ़ दाल भात चोखा। दिखा सकूँ तुम्हें दुनिया भर से लायी हुयी छोटी छोटी चीज़ें…कि ज़िद करके दे सकूँ तुम्हें चिट्ठियाँ लिखने का सुंदर काग़ज़, कि लिखो मत। रखना लेकिन पास में। कभी किसी को चिट्ठी लिखने का मन किया और काग़ज़ नहीं मिला सुंदर तो क्या ख़राब काग़ज़ पर लिख के दोगे। 

एक तुम्हारी आउट औफ़ फ़ोकस फ़ोटो खींच लूँ, अपनी ख़ुशी के लिए। अपने धुँधले किसी किरदार को तुम्हारी शक्ल दूँगी। कि तुम ज़रा से और ख़ूबसूरत होते तो मुश्किल होती। अच्छा है तुम्हारा ऐसा होना, कि अच्छा है मेरा भी इन दिनों कुछ कम ख़ूबसूरत होना। हम अपने से बाहर की दुनिया देख पाते हैं। तुम्हें देखते ही रहने का मन करता रहता तो तुम्हें शूट कैसे करती।

***

वो कितना मीठा और हल्का सा है। हवा मिठाई जैसा। उसके साथ होना कितना आसान है। जैसे पचास पैसे में ख़रीद कर खा लेने वाली हवा मिठाई। जिसके लिए ज़्यादा सोचना नहीं पड़ता। किसी की इजाज़त नहीं लेनी पड़ती। बचपन की एक छोटी सी ख़ुशी…उसके साथ ज़रा सा होना। सड़क पार करते हुए अचानक से हाथ पकड़ लेना। उससे मिलने के पहले आते हुए रास्ते में छोटी सी मुस्कान मुसकियाना। 
कोमल होना। प्यारा होना। अच्छा होना। 

इस बेरहम दुनिया में ज़रा सा होना किसी की पनाह। किसी का शहर, न्यू यॉर्क। किसी की पसंद की कविता की किताब के पहले पन्ने पर लेखक का औटोग्राफ। 

इस दुनिया में मेरे जैसा होना। इस दुनिया का इस दुनिया जैसा होना।

बदन दुखता रहे, हज़ार हस्पताल की दौड़ भाग के बाद, कितने इंजेक्शंज़ और जाने कितने टेस्ट्स की थकान के बाद। 

हर कुछ के बाद भी। किसी शाम कह सकना ज़िंदगी से। शुक्रिया। फिर भी। काइंड होने के लिए। कि मुहब्बत मुझे जीने का हौसला देती है और लिखना मुझे जीने के लायक़ मुहब्बत। 

लव यू।

24 March, 2019

सेमल के मौसम में तोड़ना दिल...कि गिरे हुए सारे उदास फूल मेरे नाम हों

हमें बचपन में ही दुःख से बहुत डरा दिया गया है। हम कभी उसे लेकर कम्फ़्टर्बल नहीं होते। जबकि अगर ज़िंदगी की टाइम्लायन देखें तो वो समय जब हम सच में दुःख के किसी लम्हे के ठीक बीच थे, बहुत कम होते हैं। हम अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा आगत दुःख के भय और प्राचीन दुःख की स्मृति में जीते हैं।

तो इस दुःख के ठीक बीच होते हुए मैं ज़रा सा एकांत तलाशती हूँ, कि इसे ठीक से निरख सकूँ। मैं पहले हॉरर फ़िल्मों से बहुत ज़्यादा डरती थी, लेकिन कुछ दिन पहले हॉरर फ़िल्म देख रही थी तो मैंने पहली बार हिम्मत कर के उस भूत को खुली आँखों से पूरा देख लिया, बिना अफ़ेक्टेड हुए, जैसे कि कोई पेंटिंग देखती हूँ। इक तरह से मैंने ख़ुद को उस फ़िल्म के बाहर ठीक उस दर्शक की जगह पर रखा, जहाँ मुझे होना चाहिए था…फ़िल्म के भीतर के भुक्तभोगी की तरह नहीं। उसके बाद जब भी वह भूत आता तो मुझे डर नहीं लगता। जब आँखें बंद कर के घबरा रहे होते हैं तो हम नहीं जानते कि वो क्या है जिससे हम इतना डर रहे हैं। जिस चीज़ की शिनाख्त हो जाती है, वो थोड़ा कम भयावह हो जाता है। भिंची आँखों को सब कुछ ही डराता है।

आज इसी तरह आँखें खोल कर तुम्हें जाते हुए देखा। तुम्हें मुड़ के न देखते हुए देखा। तुम्हें मालूम मैं क्या लिख कर डिलीट कर रही थी? ‘Hug?’. कितनी बार डिलीट किया। कि विदा कहते हुए कहाँ पता था कि इसे विदा कहते हैं। पता होता तो जाने क्या करती। कि जब कि मैं थी ऐसी कि हर बार विदा कहते हुए सोचती थी कि ये आख़िरी बार है, फिर भी ज़रा सी कोई कसक रह गयी है बाक़ी। ये ‘ज़रा सा’ थोड़ा कम दुखना चाहिए था। तुम्हारा हाथ एक मिलीसेकंड और पकड़े रखने का मन था। मिलीसेकंड समझते हो तुम? जितनी देर तुमने मुझे देखा, ये वो इकाई है… मिलीसेकंड। तुम एकदम ही पर्फ़ेक्ट हो। कुछ भी ग़लत नहीं हो सकता तुमसे। सिवाए विदा कहने के। तुम्हें ना, ठीक से विदा कहना नहीं आता।

ज़रा सी विरक्ति सिखा देना बस। मेरे सब दोस्त मेरे जैसे ही पागल हैं…ज़रा से इश्क़ में पूरा मर जाने वाले। ये मौसम और ये शहर ठीक नहीं है उदास होने के लिए। अलविदा का मौसम किसी और रंग में खिलता है, सेमल और पलाश रंग में नहीं। फिर दुनिया में कितने शहर हैं जिनमें दोस्तों से मिल कर बिछड़ा जा सकता है। महबूबों से भी। सिवाए दिल्ली के। लेकिन ये भी तो है कि शहर दिल्ली के सिवा कोई भी और होता तो किरदार बीच कहानी में ही मर जाता।

मेरी जान,
इस दिलदुखे शहर से मेरे हिस्से की सारी मुहब्बत और उसके बाद की सारी उदासियाँ तुम्हारे नाम। Know you are loved. Not as much as you would want, but more than you assume. किसी रोज़ मेरे लिए भी इतना ही आसान होगा लौट पाना। मैं उस दिन की कल्पना से ख़ौफ़ खाती हूँ।

शहर तुम्हारे लिए उदार रहे। रक़ीब आपस में क़त्ले-आम मचाएँ। मुहब्बत अपनी शिनाख्त करवाती फिरे, कई कई सबूत जमा करवाए। फिर मेरे लिखने की शर्त यही है कि दिल टूटना ज़रूरी है तो, मेरी जान, दास्तान मुकम्मल हो। आमीन।

हाँ सुनो, मेरे वो काढ़े हुए रूमाल किसी दिन लाइटर मार के ख़ाक कर देना। मेरी वो दोस्त सही कहती थी, रूमाल देने से दोस्ती टूट जाती है। मुझे उसकी बात मान लेनी चाहिए थी।

Love,
तुम्हारी….

20 March, 2019

बिंदियाँ

प्रेम के अपने कोड होते हैं। सबके लिए। लड़की जब प्रेम में होती तो बिंदी लगाती। छोटी सी, लाल, गोल बिंदी। यूँ और भी बहुत चीज़ें करती, जब वह प्रेम में होती... जैसे कि काजल लगाना, काँच की मैचिंग चूड़ियाँ पहनना... महबूब की पसंद के रंग के कपड़े पहनना... लेकिन जो उसके सिर्फ़ अपने लिए थी, वो थी एक छोटी सी लाल बिंदी।

इक रोज़ उसे दूसरे शहर जाना था। भोर की फ़्लाइट थी। हड़बड़ में तैयार हो रही थी। माथे की बिंदी उतार कर आइने पर चिपकायी और नहाने के बाद वहाँ से उतार कर माथे पर लगाना भूल गयी। कि वो इतने गहरे प्रेम में थी कि उसने अपना चेहरा ही नहीं देखा। यूँ भी शहर का प्रेम व्यक्ति के प्रेम से कहीं ज़्यादा रससिक्त और गाढ़ा होता है।

इक बहुत सुंदर दोपहर जब पूरे शहर में पलाश और सेमल के लाल रंग दहक रहे थे वो एक दोस्त के साथ घूम रही थी...बस तस्वीर उतारते हुए ही। आसमान में खिले लाल फूलों की तस्वीर। सड़क पर गिरे पलाश के अंगारे जैसे फूलों के लो ऐंगल शॉट। कि शहर में वसंत कैसा बौरा कर आया था।

सड़क पर ट्रैफ़िक बहुत ज़्यादा था और दौड़ कर सड़क पार करते हुए दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ लिया। बीच सड़क अचानक स्त्री को याद आया कि उसने बिंदी नहीं लगायी है। कि यह प्रेम नहीं है।
***

वे उसके घर के पास शूट पर गए थे। दिन भर भटक भटक कर अपनी पसंद के शॉट्स खींचते रहे। बीच पार्क में थोड़े से हिस्से में सिर्फ़ सेमल के पेड़ थे। मिट्टी पर गहरे लाल फूलों की चादर बिछी हुयी थी। शाम की सुनहली रोशनी में वे फूल ज़िंदा भी लग रहे थे जिन्हें पेड़ से बिछड़े पूरा दिन बीत गया था...जैसे कोई आँख बंद कर सोता हुआ दिखे, मरा हुआ नहीं। ज़िंदगी की लाली बरक़रार थी। चाँद चुपचाप निकल आया था। पूर्णिमा को जाता हुआ चाँद। लगभग पूरा गोल। पुरानी पत्थरों के उस छोटे के गुंबद में लोग गिटार बजा रहे थे और गा रहे थे। 'लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो'। तय किया गया कि घर जा के थोड़ी देर आराम करेंगे फिर डिनर पर निकलेंगे, कि लड़के का घर एकदम पास ही था और वे इतने थक गए थे कि कॉफ़ी शॉप पर की कुर्सी पर भी बैठने का ख़याल उन्हें डरा रहा था।

उनकी जानपहचान कई साल पुरानी थी। इतनी कि वे सोचते भी नहीं किसी शब्द के बारे में, जिसे उनके बीच रहना चाहिए था। हिंदी में फ़ैमिली फ़्रेंड्ज़ जैसे शब्द नहीं होते। लड़की कई बार उसके घर आ चुकी थी लेकिन ये पहली बार था जब लड़के की शादी हो चुकी थी। दिन भर के शूट में वे लगभग इस बात को भूल ही गए थे। शादी नयी नयी थी लेकिन उनका ऐसे दिन दिन भर भटकना और शाम को कहीं क्रैश करना नया नहीं था। आदतन था।

लड़की हाथ मुँह धोने चली गयी और लड़के ने किचन में चाय चढ़ा दी। आदतन लड़की ने चेहरा धोने के पहले बिंदी उतारी और आइने में चिपका दी, बस गड़बड़ ये हुयी कि आदतन उसने बिंदी वापस चेहरे पर लगायी नहीं। वहीं भूल गयी। दोनों ने चाय पी, कम्प्यूटर पर दिन भर के शूट किए हुए फ़ोटोज़ और विडीओज़ देखे, अच्छे फ़ोटो शोर्टलिस्ट किए और थोड़ी देर तक दीवार से पीठ टिकाए बैठे रहे बस।

इसके कुछेक महीने बाद जब लड़के की पत्नी लौट कर आयी और आते साथ ज़ोर से चीख़ी... तो लड़के का ध्यान गया कि आइने में एक छोटी सी लाल बिंदी चिपकी हुयी है। इतने दिनों में कभी उसका ध्यान तक नहीं गया, वरना शायद उसे उतार सकता था। पत्नी ने जब पूछा कि किसकी बिंदी है तो उसने सोचते हुए कहा कि शायद उस लड़की की होगी, उसे मालूम नहीं है। उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि लड़की ने अपनी बिंदी वहाँ क्यूँ लगायी। उसे ऐसा बिलकुल नहीं लगता था कि लड़की का ऐसा करना कहीं से इस बात को स्थापित करता है कि वो इस घर को अपना घर समझती है। ऐसा समझने के लिए उसे बिंदी चिपकाने की ज़रूरत थोड़े थी। वो वाक़ई इस घर को अपना घर समझती आयी थी।

पर इस घटना के बाद, जैसा कि होता आया है। वे कई कई सालों तक नहीं मिले और लड़की ने बिंदी लगानी बंद कर दी। उसके कई दोस्तों ने कहा कि उसका चेहरा बिंदी के बिना सूना लगता है लेकिन किसी ने ये नहीं कहा कि उस लड़के के बिना शहर, शूटिंग, ठहरी हुयी तस्वीरें... सब थोड़ी थोड़ी ख़ाली और उदास लगती हैं। कि चेहरे ही नहीं, ज़िंदगी में भी एक छोटी सी बिंदी भर जगह ही ख़ाली हुयी थी लेकिन उससे सब सूना सूना लगता है।

***

आक्स्फ़र्ड बुकस्टोर में किताबें और नोट्बुक नहीं ले जाने देते। औरत के पास बैग में इतनी किताबें थीं कि उसने पूरा बैग ही नीचे छोड़ दिया सेक्योरिटी के पास। उसने नोर्वेजियन वुड ख़रीदी। मुराकामी की ये किताब उसे बेहद पसंद थी। ख़ास तौर से वो हिस्सा जहाँ लड़की पूछती है कि मुझे हमेशा याद रखोगे, ये वादा कर सकते हो। वो यहाँ अपने एक पुराने क्लासमेट से मिलने आयी थी। वे डिबेट्स और एलोक्यूशन में साथ हिस्सा लेने जाते थे। लड़की हिंदी डिबेट करती थी, लड़का अंग्रेज़ी। कई साल बाद मिल रहे थे वो। ऐसे ही इंटर्नेट के किसी फ़ोरम पर मिले और पता लगा कि एक ही शहर में हैं तो लगा कि मिल लेते हैं।

इस बीच लड़का सॉल्ट एंड पेपर बालों वाला एक ख़ूबसूरत आदमी हो गया था जिसका बहुत ही सक्सेस्फ़ुल स्टार्ट-अप था। उसकी गिनती देश के कुछ बहुत ही चार्मिंग स्पीकर्ज़ में भी होती थी। जिस इवेंट में जाता, लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते। लेकिन। इस सफ़र में उसके साथ तन्हाई ही थी बस। स्टार्ट अप के बहुत ही तनावपूर्ण दिनों में उसकी पत्नी ने उसे तलाक़ दे दिया था। उसके पास वाक़ई अपने घर को देने के लिए वक़्त नहीं था। वो हफ़्तों घर नहीं आता था। लेकिन पत्नी के जाने के बाद उसे महसूस हुआ था कि सब कुछ हासिल करने के बाद तन्हाई ज़्यादा दुखती है। बात को सात साल हो गए थे। इस बीच उसके कई अफ़ेयर हुए लेकिन ऐसी कोई नहीं मिली जिससे शादी की जा सके।

औरत इंडिगो ब्लू साड़ी में प्यारी लग रही थी, जिसे क्यूट कहा जा सके। आदमी ख़ुद को जींस टीशर्ट में थोड़ा अंडरड्रेस्ड फ़ील कर रहा था। ‘जानता कि तुम इतनी अच्छी लगोगी तो कुछ ढंग से तैय्यार होकर आता। तुम्हारे साथ बैठा बुरा तो नहीं लग रहा?’। औरत की हँसी गुनगुनी थी। उसके हाथों की तरह, ये उसने बाद में जाना था। हज़ार बातें थीं उनके बीच। किताबों की, शहरों की, अफ़ेयर्ज़ की… नीली साड़ी में बैठी औरत यह जान कर काफ़ी अचरज में थी कि इतना कुछ हासिल करने के बाद भी उसे ख़ाली ख़ाली सा लगता है। क्यूँकि औरत को कभी ख़ाली ख़ाली सा लगा ही नहीं। वो एक इवेंट मैनज्मेंट कम्पनी में काम करती थी और वीकेंड्ज़ में गर्ल्ज़ ओन्ली ट्रिप पर जाती थी। कोई सॉफ़्ट कॉर्नर अगर उसके पास बचा भी था तो सिर्फ़ किताबी किरदारों के हिस्से। वो मुराकामी के इस हीरो से बेइंतहा प्यार करती थी। उसने अपना पसंदीदा हिस्सा पढ़ाया और कहा, किताब पूरी पढ़ लेना, हम तब दोबारा मिलेंगे। ‘अगर तुम्हें किताब अच्छी लगी, मतलब मैं भी अच्छी लगूँगी’। बैग नीचे था और यहाँ बुक्मार्क के लिए कुछ मिल नहीं रहा था, ना वो हिस्सा अंडरलाइन कर सकती थी। तो उसने माथे से नीली बिंदी उतारी और वहीं पैराग्राफ़ के दायीं ओर चिपका दी। ऐसे में कहना थोड़ा मुश्किल था कि वो अच्छी अभी से लग रही है। किताब पढ़ने की ज़रूरत नहीं।

आक्स्फ़र्ड से निकल कर वे सीपी में घूमे थोड़ी देर और फिर डिनर के लिए चले गए। एक लम्बी इत्मीनान वाली शाम एक सुंदर रात में ढल गयी थी। डिनर के बाद वजह तो थी, पर कोई जगह नहीं बची थी जहाँ साथ वक़्त बिताया जा सके। वे आख़िरी कस्टमर थे। लगभग दो बजे रेस्ट्रॉंट वालों ने ऑल्मोस्ट धकिया के बाहर किया था उन्हें। चलते हुए उन्होंने हाथ मिलाया और उसका ध्यान गया, कितने गर्म थे उसके हाथ…दुनिया पर्फ़ेक्ट लगी थी उस छोटे से वक्फ़े में जब उसका हाथ पकड़ा था।

बची हुयी रात, थोड़ी सी और सुबह और ज़रा सी दोपहर मिला कर उसने नोर्वेजियन वुड पूरी ख़त्म कर दी थी। ख़त्म कर देर तक चुप बैठा रहा। कि ऐसी किताब क्यूँ पढ़ने को कहा उसने। कि किताब अच्छी लगी, लेकिन इसे पसंद करने वाली लड़की के भीतर कोई गहरी उदासी होगी ऐसा क्यूँ लगा। उसने पूछा भी नहीं कि उसे क्यूँ पसंद है ये किताब। वादे के मुताबिक़ अब वो उससे मिल सकता था। ये सोचते हुए उसे सोफ़े पर ही नींद आ गयी। सपने में गहरा कुआँ था और उसमें खो जाते लोग। चाँदनी ने थपड़िया के उसे आठ बजे के आसपास जगाया। अब इस वीकेंड तो क्या ही करेंगे। अगले वीकेंड का देखते हैं। वे रहते भी शहर के दो छोर पर थे। इक उम्र के बाद प्रेम में भी पहले जैसा उतावलापन नहीं रह जाता।

सपने अच्छे आए पूरी रात। वो किताब हाथ में लेकर सोया था। ऊँगली से बिंदी को टटोलते हुए। जैसे कि वो पास थी, कि इस बिंदु से कहानी शुरू होगी। नीले समंदर, बर्फ़ीले पहाड़। लड़का कई दिनों बाद सपने देख रहा था।

सुबह की कॉफ़ी बेहतरीन बनी थी। वो मुस्कुराते हुए सुबह का अख़बार लेकर आया। कवर पेज पर ही ख़तरनाक बस ऐक्सिडेंट की तस्वीर थी। उसका मूड ख़राब हो गया। मीडिया वाले कुछ भी छाप देते हैं, तमीज़ नहीं इनको। ख़बर के पहले ही मरनेवालों की लिस्ट थी। सबसे ऊपर उसी का नाम था। उसे घबराहट हुयी। इतना अलग नाम था उसका कि कोई और हो ही नहीं सकती थी। घबराते हुए हाथों से फ़ोन लगाया तो स्विच्ड ऑफ़। मोबाइल पर ख़बर देखी तो एक जगह मरने वालों की तस्वीर भी थी। उसने वही कपड़े पहन रखे थे, एकदम शांत चेहरा। माथे पर बिंदी नहीं। उसका ध्यान क्यूँ गया इस बात पर कि माथे पर बिंदी नहीं थी। उसका मन किया कि किताब से बिंदी निकाल के अख़बार पर चिपका दे। क्या करेगा इक नीली बिंदी का। कहाँ जगह बचती है दुनिया में कि जहाँ किसी के चले जाने के बाद उसकी बिंदी चिपका दी जाए। 

11 March, 2019

बौराने वाले मौसम के लिए

पता है, किसी लड़के से दोस्ती करने के लिए ज़रूरी है कि लड़का थोड़ा कम ख़ूबसूरत हो और लड़की भी थोड़ी कम प्यारी हो। कि दो ख़ूबसूरत लोग कभी आपस में दोस्त तो हो ही नहीं सकते। कि मन ही अंदर से गरियाना शुरू हो जाता है, 'धिक्कार है...डूब मरो, ऐसे लड़के से कोई दोस्ती करता है!'। ये क्या क़िस्से कहानियाँ बक रही हो... कविता सुनाओ। लेकिन समय पर कविता याद थोड़े आती है। कि ख़ूबसूरत लड़कियों के साथ भी तो प्रॉब्लम होती है... ज़िंदगी में कभी फ़्लर्ट किया हो तो जानें... मतलब, बस एक नज़र देखना भर होता था और दुनिया भर के लड़के क़दमों में बिछे मिलते थे... क़सम से, कोई बढ़ा चढ़ा के नहीं बोल रहे हैं। अब ऐसे में क्या ही जाने लड़की कि कोई लड़का अच्छा लग रहा है तो क्या कहें उससे। तारीफ़ करें? उसकी आवाज़ की, उसकी हँसी की, उसके ड्रेसिंग सेंस की? ज़्यादा डेस्प्रेट तो नहीं लगेगा? कि क्या ज़माना आ गया है, तारीफ़ करने में डर लगने लगा है। उफ़! वाक़ई उमर हो गयी है अब... ये सब सूट नहीं करता इस उमर को। ग़ालिब ने कोई शेर लिखा होगा, कि कोई लड़का अच्छा लगने लगे तो क्या कहते हैं उसे… उन्हूँ… परवीन शाकिर ने पक्का लिखा होगा। वो क्या था, “बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की, चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी”… हाँ लेकिन भरी दुपहरिया बोलने में कैसा तो लगेगा, एकदम फ़ीलिंग नहीं आएगी। उसपे लड़के ने पूछ दिया कि जमाल कौन है तो हे भगवान, क्या ही समझाऊँगी उसको! ये लड़कियाँ इतना कम क्यूँ लिखती हैं रोमांटिक.. अंग्रेज़ी में तारीफ़ करने से जी ही नहीं भरता, वरना लाना डेल रे का गाना चला देती, कुछ बातें तो समझ आ जातीं शायद। लेकिन, उफ़, वहाँ भी तो लेकिन है। अंग्रेज़ी गाना कभी भी एक बार में एकदम शब्द दर शब्द समझ भी तो नहीं आता। थोड़ा समय तो ऐक्सेंट खा ही जाता है। दिमाग़ किताबों के पन्ने पलट रहा है, कुछ तो चमकेगा ही कहीं, परवीन का शेर है, धुँधला रहा है, छूट रहा है पकड़ से। आपसे किसी लड़की ने कहा है कभी, कोई ख़ूबसूरत लड़का पास में बैठा हो तो याद में जो किताब के पन्ने पलटते हैं हम, वो कोरे होते जाते हैं? हाँ, याद आया, एकदम से माहौल पर फ़िट, ‘अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ…इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ’, उफ़, आपा ने बचा लिया। फिर वो भी तो याद आ रहा है साहिर और अमृता का प्ले, एक मुलाक़ात, मतलब शेखर सुमन कितने अदा से कहता था, ‘ये हुस्न तेरा, ये इश्क़ मेरा, रंगीन तो है बदनाम सही, मुझपर तो कई इल्ज़ाम लगे, तुझ पर भी कोई इल्ज़ाम सही’। साथ वाली फ़ोटो में ये शेर लिख के टैग कर दूँ तो क्या ही स्कैंडल होगा। वो रहने दो, अब तो वो भी याद आने लगा, ‘जब भी आता है तेरा नाम मेरे नाम के साथ, जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं’। मगर इस शेर के साथ एक पुराने दोस्त की महबूब सी याद जुड़ी हुयी है। इसे छू नहीं सकते। इश्क़ में इतनी ईमानदारी तो रखनी ही चाहिए कि पुराने प्रेमियों वाले शेर नए वाले प्रेमियों के लिए न इस्तेमाल करें। लेकिन ये इश्क़ थोड़े है, ये तो ज़रा सी हार्म्लेस फ़्लर्टिंग है। ज़रा सा नशा जैसे। हल्का वाला, मारियुआना। इसमें तो थोड़ी ब्लेंडिंग चलनी चाहिए। नए पुराने का कॉक्टेल।

इस फीके से शहर में दुनिया की सबसे अच्छी कॉफ़ी मिलती है। फ़िल्टर कॉफ़ी। एकदम कड़क, ख़ूब ही मीठी। कुछ कुछ उन नए लोगों की तरह जो पहली बार में अच्छे लगते हैं। हाँ, बहुत अच्छे नहीं। पहली बार में बहुत अच्छे लगने वाले लोगों से ऐसा ख़तरनाक क़िस्म का इश्क़ होता है कि कुछ भी भूलना पॉसिबल नहीं होता है उनके बारे में। मुझसे पूछो तो मेरे मेमरी कार्ड में यही अलाय बलाय इन्फ़र्मेशन भरा हुआ है। किसी की आँखों का रंग, किसी के कपड़ों का रंग। कहीं बजता हुआ किसी दूसरी भाषा का गीत जिसका एक शब्द भी समझ नहीं आता। कोई रैंडम सी कोरियन फ़िल्म जिसमें लड़की मुड़ कर अंतिम अलविदा कहती है, ‘सायोनारा’ और सब्टायटल्ज़ पढ़ती हुयी लड़की के दिल में एकदम से बर्छी धंसी है… उसे ये शब्द पता है। वो सुन कर जानती है कि अब वो लौट कर नहीं आएगी। पियानो की धुन है, बहुत तेज़, बहुत तीखी। जानलेवा।

वो लड़के को एक कहानी सुनाना चाहती है। इस उलझन के लिए लेकिन कहानियों में कविताएँ उतरती हैं। उसे लगता है चुप रहना बेहतर होगा। वो मुस्कुराती है किसी पुराने दोस्त को याद करके। उसे शहर घुमाने का वादा जाने कब पूरा होगा।

सुबह सुबह सोच रही है कि लो मेंट्नेन्स होना कोई इतनी अच्छी बात नहीं है, ऐसे वही लोग होते हैं जिनका कॉन्फ़िडेन्स थोड़ा कम होता है। पहले उसे ऐसा बिलकुल नहीं लगता था लेकिन अब वो सोचती है कि डिमैंडिंग होना चाहिए। कि हक़ की लड़ाई सबसे पहले पर्सनल लेवल पर होती है। आप अगर अपने अपनों से अपने हिस्से का अटेन्शन नहीं माँगेंगे तो बाहर किसी से अपना हक़ कैसे माँगेंगे। कि कोई आपको इतना टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड क्यूँ ले हमेशा। कि आपके पास लौट आने को एक रास्ता क्यूँ हो। कि पुल जलाने ज़रूरी होते हैं, इसलिए कि उन पुलों पर से चल कर जो महबूब आते हैं उनके हाथ में ख़ंजर होता है। वे आपका गला रेत कर आपको मरने के इंतज़ार में छोड़ सकते हैं… ये तो तब, जब आपके महबूब रहमदिल हुए तो, वरना तो इंतज़ार एक धीमी मौत है सो है ही।

कभी कभी लगता है, कितना नेगेटिव हो सकते है हम। अच्छे खासे प्यारे लड़के से बात शुरू होकर जलते हुए पुल और मौत तक आ गयी है। कितना मुश्किल होता है कॉफ़ी के लिए पूछना। कि बेवजह वक़्त बिताना। किसी से थोड़ा सा वक़्त माँगना। कि सब कुछ ग़दर कॉम्प्लिकेटेड है। कि हम हर छोटी सी बात के आगे पीछे हज़ार दुनियाएँ बनाते हुए चलते हैं। इन हज़ारों ख़्वाहिशों वाली हज़ारों दुनिया में कोई एक दुनिया होती है जिसमें हम किसी एक शहर में रहते हैं। अक्सर मिला करते हैं चाय कॉफ़ी पे और साथ में लिखते हैं कहानियाँ। कि हम कई बार एक दूसरे से की जाने वाली बातें किरदारों के थ्रू करते हैं। कि धीरे धीरे हम दोनों किसी कहानी के किरदार हो जाते हैं।

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