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29 January, 2022

खाली गोड़ बुताओ सुट्टा, छाला कैसे नै पड़ेगा रे

 उसको सिगरेट पीते हुए देखे हो?’

काहे?’

अबे काहे के बच्चे, देखे हो कि नहीं?’

नै, हम तो नै देखे कौनची हो गया जो पीबो करती है तो! दुनिया केन्ने से केन्ने बिला गयी आपको ओकरे सिगरेट पीने से दिक्कत है।

अबे गधे की  दुम साले, हम बोले कि दिक्कत है! सुने बिना सब अपने सोच लो। तुम्हीं माथा खा रहे थे कि कहानी कैसे लिखते हैं हम। किरदार सब केन्ने से आता है।’    

हाँतब?’

तो देखो बबुआ, किरदार ऐसे उगता हैउसे देखा होता तो जानते तुम। सिगरेट पीती है तनिक लजाते हुए। होठों पर एक सिगरेट ही नहीं, आधा मुसकी लुक-छिप रहता है। ढेर बदमाश लगती है सिगरेट पीते हुए। जैसे कोई छोटा सा पाप कर रही हो। चप्पल पहन के मंदिर में घुस जाने जैसा। कोई छोटा सा प्यार, कोई छोटा सा क़त्ल। हायऽ उसे देख कर लगता है कि साला, ऐसन ख़तरनाक लड़की, कैसे तोड़ती होगी दिल।

बाप रे! एतना सारा कुछ उसको सिगरेट पीते देखने से दिख जाता है?’

ना, इससे थोड़ा ज़्यादा…’

धुर! इससे बेसी कौनची होता है?’

अरे बाबू, तुम देखे होते उसको सिगरेट पीते हुए तब बूझते। ना, तुम नहीं बूझते। महाबकलोल हो तुम। एक्के बार तो देखे थे हम भी।

अच्छा! कुछ हुआ फिर?’

हुआ! हाँ हुआ न। हाथ में सिगरेट बाद में दिखी, पहले तो उसके होंठ दिखे, धुआँ-धुआँ एकदम। लगा कि जिसको चूम कर आयी है, उसमें तो आग लग गयी होगी।

बेचारा!’

हाँ। बेचारा। काश, हम भी हो पाते ऐसे बेचारे।

हौऽ आपसे बेचारा होना तो हो पाएगा भैय्या!’

वही तो आफ़त है। बेचारा को माचिस मार देने का जी किया।

राम-राम! सच्ची में लड़कवा को मार दिए माचिस क्या?’

यही सब काम बचा है हमको। हम अपना सब अरमान को माचिस मारे। जो लड़की किसी और के प्यार में ऐसन धू-धू जल रही हो, उसे छू कर कौन बेवक़ूफ़ हाथ जलाए।

सही किए भैय्या। भाभीजी बहुत्ते दुखी हो जाती। भगवान आपको सदबुद्धि दिया।

थोड़ा और सदबुद्धि दे देता तो अच्छा रहता।

क्या करते और बुद्धि का आप?’

तुम्हारे जैसे बुड़बक के फेर में नहीं पड़ते।

अरे, हम काहे बुड़बक हो गए?’

अभी पूछ रहे थे कि किरदार कहाँ से आया। अभी भाभीजी भाभी जी कर रहे। ढपोरशंख। कोई लड़की नहीं थी। कहानी सुना रहे थे तुमको।

ओफ़्फ़ो! कहानी सुनाने के पहले बतला तो दीजिए कहानी सुना रहे थे। हम फ़ालतू का बरतुहारी में खाए वाला थरिया सोच  रहे थे।

बऊआ, तोहरा से क़िस्सा-कहानी नै होगा। तुम जाओ जाके लालटेन बारो। सायरी लिखो। दु लाइन का तुमरा बुद्धि है।

भैय्या ठीक  बात नै है, दुनिया में बहुत बड़ा बड़ा सायर हुआ है।

हाँ बाबू, लेकिन तुमको तो सबसे बड़ा सायर बनना है न। जाओ कुआँ पे बैठो कछुआ बार के। अगली बार हमसे सवाल-जवाब नै करना

अच्छा भैय्या। बरात में डीजे करवा दीजिएगा।

तुमरे बरात में करवाते हैं डीजे। फूटो यहाँ से।


गाँव के अधिकतर घरों में ढिबरी, लालटेन जल गयी थी। बग़ल वाले घर से धुएँ की गंध उठी थी। कोयला, लकड़ी और गोयठा की गंध में सिगरेट की गंध अलगा के सूंघ लेने वाला भैरो उदास हो रहा था। भला लड़का होना कितना बुरा है। और चिरैया उससे ही काहे कहती है हमेशा सिगरेट ला देने को। शहर से आयी बरात में वो गोरा-चिट्टा लड़का आया था जिसपर यूँ तो पूरे गाँव की लड़कियाँ मर मिटी थीं लेकिन उसको बस चिरैय्या को बिगाड़ना था। बागड़-बिल्ला। अब भैरो क्या समझाए चिरैय्या को कि उसकी बरात ऐसे नहीं आएगी गाँव में। वो ऐसे सिगरेट पी पी कर अपना और उसका, दोनों का कलेजा जलाना बंद करे। लाट-साहब लौट गए हैं। वो कहाँ भटक रही है कच्चे सपने में ख़ाली पैर। ऐसे में फेंकी हुयी सिगरेट बुताएगी तो गोड़ ही जलेगा बस। उफ़। कितना आग है, कितना गर्मी। प्यार करे चिरैय्या, दिल जले उसका। दुनिया का सब हिसाब-किताब कितना गड़बड़ है।
सपने में सिगरेट बुझाने से चिरैय्या के पाँव में छाला पड़ा हुआ था। लेकिन उसकी मरहम-पट्टी करने के पहले भैरो की नींद खुल खुल जाती थी। आँखों में चाँद चुभ रहा था। 


उसने काँधे से चादर उतारी और चाँद पर डाल के सो गया। 

27 January, 2020

मझोली सी उदासी

‘उदासी ले लो! उदासी ले लो…हर रंग की उदासी मिलेगी… फीकी, पीली, गहरी नीली… दिल दुखाने वाली, दिल तोड़ने वाली, जानलेवा उदासी… आओ आओ, जो तुम्हें पसंद आए, ख़ुद देख कर छान-बीन कर ले लो, सब माल बिकाऊ है… सब बिका हुआ सामान वापस हो जाएगा, ट्राई कर के देखो… आओ आओ’

सुबह के सात बजे थे और शहर एकदम ख़ामोश था। सड़क चौड़ीकरण में सारे पेड़ काट दिए गए थे तो इस मुहल्ले में चिड़ियों का शोर नहीं होता था अब। वे कुछ महीनों के इंतज़ार के बाद शायद कहीं और चली गयीं, या मर गयीं, मुझे नहीं मालूम। सन्नाटे में कभी कभार कोई गाड़ी तेज़ी से गुज़रती थी….अक्सर काले शीशे चढ़ी हुयी कोई काली रंग की गाड़ी ही। मुझे हमेशा लगता था जैसे कि फिरौती के पैसे मिलने के बाद छोड़ा गया कोई व्यक्ति भाग कर उनसे दूर और अपने परिवार के पास जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी में है। 

ग़ज़ब मीठी आवाज़ थी। चुप्पी में उस आवाज़ का आकर्षण और निखर गया था। ज़ाहिर है दिन के शोर में सुनायी भी नहीं पड़ता कि सड़क पर कोई फेरीवाला घूम रहा है। मैंने दो तीन बार ध्यान से सुना कि वो क्या बेच रहा है क्यूँकि अनजान भाषा के इस शहर में अक्सर मैं कुछ और ही समझती हूँ और ख़रीदने को कुछ और ही उतर जाती हूँ ग़लती से। अक्सर बालकनी से झाँक के देख लेना सही रहता है। मैं बालकनी में गयी और नीचे झाँका… ठीक उसी समय उस फेरी वाले ने भी ऊपर देखा, और हालाँकि मुमकिन नहीं था, लेकिन ऐसा लगा कि उसकी आँखें सीधे मेरी आँखों में ही झाँक रही हैं। शायद उसने बड़ी उम्मीद से हर बालकनी की ओर देखा होगा और मेरे सिवा किसी में कोई व्यक्ति न दिखा हो उसे। उसने फिर अपनी टेर लगायी। इस बार मैं कन्फ़र्म थी कि वो ‘उदासी’ ही बेच रहा है और बोली भी हिंदी में ही लगा रहा है। मैंने हल्की सी शॉल डाली और कमरे का ताला बंद करते हुए सोचने लगी, ये अमीरों के इतने पॉश मुहल्ले में हिंदी में क्यूँ बेच रहा है कुछ…अंग्रेज़ी में बेचता तो शायद ज़्यादा लोग ख़रीदने भी आते।

‘क्या बेच रहे हो भैय्या?’
‘उदासी है दीदी, आपको चाहिए?’

मुझे नहीं चाहिए थी…लेकिन उसकी कातर आवाज़ ऐसी थी कि ना नहीं बोला गया। कई बार हम बेमतलब की चीज़ें ख़रीद लेते हैं कि बेचने वाले को शायद उस ख़रीद-फ़रोख़्त की दरकार थी। 

‘चलो, दिखाओ…’
‘दीदी हमारे पास हर रंग की उदासी है…आपको कितनी गहरी चाहिए, ये आप ख़ुद चुन लेना’
‘कौन ख़रीदता है उदासी, तुम्हारे घर का ख़र्च चल जाता है इससे?’
‘आपके जैसा कोई न कोई मिल ही जाता है दीदी… रोज़ रोज़ तो बिक्री नहीं है। लेकिन ये पैसे का खेल तो है नहीं, ये दुआओं का कारोबार है। आपने कोई उदासी ख़रीदी तो उस परिवार के लोग आपको और मुझे दुआ देंगे। दुआ मिलेगी तो ज़िंदगी की टेढ़ी मेढ़ी उलझन सुलझ जाएगी। उपरवाला सब कुछ देखता है दीदी, उसका हिसाब कभी गड़बड़ नहीं होता’।
‘मेरे जैसा मतलब कैसा?’
‘ऐसे बड़े शहरों में रहने वाले, उदासी को सिर्फ़ दूर से देखने वाले लोग। आपने दुःख - माने ग़रीबी, भुखमरी, अकाल, बीमारी, अस्पताल में मरते बच्चे, शमशान में बेकफ़न लाश… आपने असल दुःख सिर्फ़ दूर से देखा है। टीवी में, अख़बार में, मोबाइल पर whatsapp फ़ॉर्वर्ड में। आपके पास ज़बरन उगाया हुआ कृत्रिम दुःख है। आपकी उदासी टिकाऊ नहीं है, एक ग्लास बीयर में घुल के ग़ायब हो जाती है। लेकिन हमारा दुःख ख़ालिस है…इसमें कोई मिलावट नहीं, ये आत्मा की चीख़ से उपजा हुआ है, बदन की टीस से।
‘मैं क्यूँ ख़रीदूँ तुम्हारी उदासी?’
‘आप पर उदासी बहुत फबेगी दीदी… हर किसी पर उदासी ख़ूबसूरत नहीं लगती। इस दुःख को छू कर देखिए, उदासी कैसे बदन का लिबास बनती है और कितने रंग उभरते हैं आपकी आँखों में। मेरी उदासी पहन कर आप जिससे जो चाहें करवा सकती हैं, उदासी का आकर्षण अकाट्य है। इसे ओढ़ कर आप किसी से जो भी माँगेगी, मिलेगा, फिर आपको ना कहना नामुमकिन होगा। यही नहीं। ये पूरी तरह नॉन-स्टिक है। जब जी करे, उतार कर रख दीजिएगा। कोई भी एक उदासी ले लो दीदी… बहुत दिन से बिक्री नहीं हुयी है। सुबह सुबह बोहनी हो जाएगी, मेरे बच्चे आपको दुआ देंगे’
‘कहाँ से लाते हो उदासी?’
‘आप भी दीदी, मज़ाक़ करती हैं। इस दुनिया में उदासी की कमी है? देखने वाली नज़र चाहिए… ठहरने को जिगरा और उदासी को ठीक ठीक रखने के लिए दिल में बहुत सी जगह। यूँ ही कोई उदासी का कारोबार नहीं करने लगता’
‘ठीक है…तुम्हारी पास जो सबसे गहरी, सबसे स्याह उदासी है, वो दिखाओ’
‘अरे नहीं दीदी, वो उदासी आप मत लो… उसे बर्दाश्त करने लायक़ ख़ुशी नहीं है आपके पूरे वजूद में। वो उदासी आपने ख़रीद ली तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाउँगा। आप एक काम करो, ये मझोली वाली उदासी अपने पास रख लो। ये उन बच्चों की उदासी है जो स्कूल नहीं जा पाए और बर्तन माँजने लगे। इसे ख़रीदना सबसे आसान भी है। आप कुछ पैसे में इसे ख़रीद सकती हैं। आपको ठीक लगे तो बताओ…मैं शुरू करता हूँ’
‘ठीक है…तुम्हें बेहतर पता होगा, किसे कौन सी उदासी सही रहेगी, तुम जो कहते हो, वही सही’

फिर उसने कहानी सुनानी शुरू की…गाँव, शहर, क़स्बा… कई कई परिवारों की एक ही कहानी… बच्चे जो इतने समझदार थे कि शिकायत भी नहीं करते। बच्चे जो कि इतने होशियार थे कि आगे जा कर डॉक्टर इंजीनियर बनते। बच्चे जो कि इतने होनहार थे कि ढाबे पर बर्तन धोने का काम शुरू किया और खाना बनाना सीख कर ठेला लगाने लगे। उदासी की हर कहानी उम्मीद पर आ कर रूकती थी। उसके पास जितनी उदासी मिली, मेरे पास जितने पैसे थे, मैंने सारी ख़रीद ली। उसने हर ख़रीद की रसीद दी, पक्की रसीद। बच्चे का नाम, उसके स्कूल का ख़र्चा, उसके घर का पता… सब कुछ।

मुझे साल में हर त्योहार पर तस्वीरें और थैंक यू कार्ड आते हैं। जाने ये कौन से बच्चे हैं… लेकिन कहते हैं कि दीदी आपके कारण ही हम स्कूल जा पा रहे हैं। उनकी टेढ़ी मेढ़ी हैंडराइटिंग में उनके क़िस्से होते हैं जिन्हें पढ़ कर मेरी सारी उदासी धुल जाती है, कृत्रिम उदासी, जैसा कि वो कहता था। 

मेरे दोस्त कहते हैं, वो मुझे बेवक़ूफ़ बना कर चला गया। मैंने किसी की कहानी सुन कर फ़ालतू में बहुत पैसे दे दिए… इस तरह का स्कैम ख़ूब हो रहा शहर में। डोनेशन पाने के लिए कुछ भी करते हैं। इन पैसों का मैं बहुत कुछ कर सकती थी। बहुत दिन मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन आख़िर छोड़ दिया। 

इन दिनों सुबह गौरैय्या दिखती है। बालकनी के टूटे गमले में उसने घोंसला बनाया है। मैं उसके लिए रोज कटोरी में थोड़े दाने और पानी रखती हूँ। कभी कभी लगता है, वो फेरीवाला फिर से आएगा तो इस बार कोई और उदासी मोलाऊँगी।

20 October, 2019

नॉन रेप्लेसबल किताबें

Everything is replaceable. Well, almost.

Heisenberg uncertainty principle में एक बिल्ली होती है जो एक ही समय पर मरी हुयी या ज़िंदा दोनों हो सकती है। दो सम्भावनाएँ होती हैं। इसी दुनिया में। एक किताब दो जगह हो सकती है एक साथ? या एक लड़की?

लिखते हुए एक शहर में जा रही मेट्रो होती है। मेट्रो दिल्ली की जगह पेरिस में भी हो सकती है और इससे लगभग कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लड़का-लड़की फिर भी मिलेंगे और खिड़की से बाहर दिखते किसी बिल्डिंग पर कुछ कह सकेंगे। कि जैसे अक्षरधाम कितना बदसूरत बनाया है इन लोगों ने, डिटेल पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया है। या कि एफ़िल टावर और किसी मोबाइल टावर में क्या ही अंतर है। लोहे का जंजाल खड़ा कर दिया है और दुनिया भर के प्रेमी मरे जा रहे हैं उस नाम से। बात में हल्का सा व्यंग्य। लड़का-लड़की हो सकता है इसलिए क़रीब आएँ कि दोनों ठीक वैसा ही सोचते हैं, या इसलिए क़रीब आएँ कि दोनों एकदम अलग अलग सोचते हैं और लगभग लड़ पड़ें कि कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है। 

कुछ लोगों को जगह से जुड़ाव होता है। उनके दिमाग़ में एक जीपीऐस पिन ड्रॉप जैसी कोई सुविधा/असुविधा/दुविधा होती है। वे कॉफ़ी शॉप्स में अपनी नियत टेबल पर बैठेंगे। मेट्रो या बस में एक फ़िक्स जगह खड़े होंगे। सिनेमा हॉल में कोई एक सीट ही बुक करेंगे। उनके अकेलेपन में ऐसी कई हज़ार छोटी छोटी चीज़ें मिल जाएँगी। 

ऐसी एक लड़की थी। जिसे एक लड़का पसंद था। दिल्ली मेट्रो में लड़की का स्टेशन लड़के के स्टेशन से पहले आता था। तीन स्टेशन पहले। इस लड़के के कारण लड़की ने एक बार मेट्रो में अपनी जगह बदली थी। लड़की हमेशा लेडीज़ कोच में आख़िरी वाली दीवार पर टिक कर खड़ी होती थी और कोई किताब पढ़ते मेट्रो में सफ़र करती थी। एक बार अपने किसी दोस्त से साथ मेट्रो में चढ़ी तो जेनरल डब्बे में चढ़ना पड़ा। आगे से दूसरा डिब्बा। भीड़ में उसे जो जगह मिली वो पहले और दूसरे डब्बे के बीच वाली प्लेट्स पर मिली। यहाँ पकड़ने के लिए हैंड रेल्स थे और खड़े रहना ज़्यादा आसान था। किताब पढ़ते हुए उसने देखा कि गेट के पास एक लड़का खड़ा है और उसने न हेड्फ़ोंज़ लगा रखे हैं, न उसके हाथ में कोई किताब है। वो कौतूहल से दरवाज़े के काँच के बाहर देख रहा है। उसके चेहरे पर इतनी ख़ुशी थी कि लड़की का उसकी नज़र से दिल्ली देखने का मन किया। 

अगली रोज़ लड़की लेडीज़ कोच में नहीं चढ़ी। जेनरल में उसी डिब्बे में चढ़ी। यहाँ भीड़ थोड़ी कम होती थी तो उसे उसकी जगह आराम से मिल गयी। तीन स्टेशन बाद वो लड़का चढ़ा और ठीक दरवाज़े से टिक कर खड़ा हो गया। आज उसने काँधे पर एक छोटा सा बैग टांगा हुआ था। जिसमें एक किताब आ सकती थी और कुछ ज़रूरी सामान। उसके हाथ में एक किताब थी। लड़की को लगा कि आज ये किताब पढ़ेगा। लड़के ने लेकिन किताब को खोला और बुक्मार्क क़रीने से रख कर बंद कर दिया और बैग में रख दिया। लड़की इस किताब को पहचानती थी। ये निर्मल वर्मा की ‘धुँध से उठती धुन’ थी। नीले कवर में। कई साल से प्रकाशित नहीं हुयी थी, इसकी कॉपी कहीं नहीं मिलती। जिनके पास होती भी, वे किसी को इस बारे में बताते नहीं। लड़का बाहर देख रहा था। कल की तरह ही, बेहद ख़ुश। 

कमोबेश हफ़्ते भर लड़की उसी जगह खड़ी रहती। लड़का बाहर देखता रहता। लड़की लड़के को देखती रहती। कई सालों में पहली बार ऐसा हुआ कि मेट्रो में पढ़ने वाली किताब हफ़्ते भर तक पढ़ी नहीं गयी। वो हाथ में किताब लिए चढ़ती ज़रूर लेकिन कुछ था उस लड़के में कि उसे देखना टीवी देखने से ज़्यादा रोचक था। इक रोज़ लड़की ने उससे धुन्ध से उठती धुन के बारे में पूछा। लड़के ने कहा कि उसे निर्मल ख़ास पसंद नहीं आए। ये उनकी आख़िरी किताब पढ़ रहा है, फिर कुछ और पढ़ेगा। किताब रेयर थी। मतलब बहुत रेयर भी नहीं कि उसके हज़ारों लाखों दिए जाएँ। लेकिन उस समय किताब आउट औफ़ प्रिंट थी और किताब का देख लेना भी कोई जादू जैसा ही था। 

लड़के ने उसका नाम पूछा, और फिर बैग से क़लम निकाल कर एक कोने में लिख दिया। लड़के ने लड़की की दीवानगी को देखते हुए ये किताब उसे गिफ़्ट कर दी। कि उसे वो निर्मल उतना पसंद नहीं आए थे और लड़की उन पे मरती थी। वे किताब के बारे में बात करते हुए कनाट प्लेस के घास वाली लॉन पर देर तक बैठे रहे थे। लड़के को पढ़ना बहुत पसंद था। बहुत तरह की और बहुत सी किताबें पढ़ता था। उसे किताबों को क़रीने से रखने का शौक़ भी था, लेकिन उसे वो करीना आता नहीं था। उसने एक दिन लड़की को अपने घर की कुछ तस्वीरें दिखायीं। लड़की ने कहा वो उसकी किताबों को ज़्यादा सुंदर तरीक़े से रखना सिखा देगी। लड़की ने अपने घर की तस्वीरें दिखायीं, अपनी बुकरैक की…लड़की ने घर में कई रीडिंग कॉर्नर्ज़ बना रखे थे और मूड के हिसाब से कहीं भी बैठ कर पढ़ा करती थी। उसने लड़के को घर बुलाया कि वो देख सके, कितना अच्छा लगता है क़रीने के घर में। लड़का उसका घर देखने तो गया लेकिन किताबों, रीडिंग कॉर्नर्ज़, सुंदर लाइट्स और इंडोर प्लैंट्स के होने के बावजूद उसकी दिलचस्पी लड़की में ज़्यादा बन गयी। उसे बार बार लगा कि ये लड़की उसके कमरे ही नहीं, ज़िंदगी में भी होनी चाहिए। ख़ुद से ज़्यादा उसकी किताबों को एक ऐसी लड़की की ज़रूरत थी। 

उसे ख़ुद भी उस लड़की की ज़रूरत और आदत लगने लगी थी धीरे धीरे। पढ़ते या लिखते हुए उसके आसपास मौसम के मुताबिक़ हाथ की दूरी पर कभी गर्म चाय कभी शिकंजी जैसी चीज़ें होने लगी थीं। पास वो लड़की नहीं होती थी, मालूम नहीं कैसे। लड़की किसी दूसरे कोने में चुपचाप बैठ कर अपनी किताब पढ़ रही होती थी। उनका ऑफ़िस का टाइम एक ही था तो वे साथ ही निकलते थे और अक्सर किसी किताब के बारे में बात करते ही निकलते थे। लड़के को ऐसा लगता था वो एक साथ कई दुनियाओं में जी रहा है। उसके दोस्तों को उसकी क़िस्मत से ईर्ष्या होती थी। कई बार मेट्रो के दरवाज़े के दोनों ओर खड़े वे बस दिल्ली शहर को देख रहे होते थे। पुरानी इमारतों के बीच से गुज़रते हुए। कभी कभी वे साथ घूमने भी निकल जाते थे। पुराना क़िला, जामा मस्जिद, हौज़ ख़ास। लड़का अतीत में जीता था। किताबों के घट चुके क़िस्से की तरह। लड़की जानती थी कि वो हुमायूँ के मक़बरे को देख कर नहीं मुस्कुरा रहा, उस शाम को याद कर के मुस्कुरा रहा था जब साथ चलते हुए उन्होंने पहली बार एक दूसरे का हाथ पकड़ा था। 

वे बिल्कुल अलग अलग क़िस्म की किताबें पढ़ते। लड़की को जासूसी उपन्यास और छद्मयुद्ध की कहानियाँ पसंद थीं। उसकी रैक में विश्व युद्ध के बारे में कई किताबें होतीं। रोमैन्स या कविताएँ उसे कम पसंद आतीं, पर जब आतीं तो दीवानों की तरह पसंद आतीं। फिर सब जगह बस वही कवि या लेखक होता। उसके फ़ेस्बुक, इन्स्टग्रैम और ट्विटर पर भी और घर के बुलेटिन बोर्ड, किचन, फ्रिज पर भी। लड़के को धीरे धीरे इन युद्ध की किताबों से कोफ़्त होने लगी थी। नाज़ुक मिज़ाज लड़का इतनी भयावह कहानियाँ सुन कर परेशान हो जाता। लड़की उसे बताती रहती हिटलर ने यहूदियों पर कितने अत्याचार किए। जापानी सेना ने किस तरह चीन में गाँव के गाँव जला दिए। लड़के को दुस्वप्न आने लगे थे। उसे आतंकवादी हमलों से डर लगने लगा था, कि कहीं अचानक से ऐसा कोई हमला हो गया तो वो क्या करेगा। वो नींद में अपनी अधजली फ़ेवरिट किताबों के बारे में बड़बड़ाता रहता। 

कुछ दिन बाद दोनों ने महसूस किया कि किताबें ही उन्हें अलग भी कर रही हैं। उनके होने में किताबों का प्रतिशत इतना ज़्यादा है कि एक दूसरे के साथ रहने का आकर्षण भी उन्हें अपनी पसंद की किताबों से दूर नहीं कर सकता। लड़की उदास होती, कि लड़के के दोस्तों ने नज़र लगा दी। पर दोनों जानते थे कि ये ज़िंदगी है और यहाँ क़िस्से ऐसे ही आधे अधूरे होने पर भी छोड़ देने पड़ते हैं। लड़की ने घर तलाशना शुरू किया। अपने ऑफ़िस के एकदम पास, कि मेट्रो लेने की ज़रूरत ही न पड़े। लड़के ने घर शिफ़्टिंग में सारी मदद की। जाने के पहले लड़की ने एक बार ठीक से लड़के के कमरे में सारी किताबें जमा दीं। चादरें, परदे सब हिसाब से आधे आधे कर लिए। किचन के सामान में से अपनी पसंद की क्रॉकरी वहीं रहने दी कि लड़के को भी अब ख़ूबसूरत मग्स में चाय पीने की आदत लग गयी थी। 

अपने घर में शिफ़्ट होने के बाद कुछ दिन लड़की इतनी उदास रही कि उसने किताबें पढ़नी एकदम बंद कर दीं। ऑफ़िस में उसकी एडिटिंग की डेस्क जॉब थी। बस अपनी सीट पर बैठो और दुनिया जहान के बारे में रीसर्च करके आर्टिकल लिखो। उसने बॉस से फ़ील्ड प्लेस्मेंट माँगी। वो कश्मीर की मौजूदा स्थिति पर वहाँ जा के रिपोर्टिंग करना चाहती थी। बॉस ने उसका डिपार्टमेंट शिफ़्ट कर दिया। अगले कई महीने वो घूमती और रिपोर्टिंग करती रही। अपनी जगह से अलग होना चीज़ें भूलना आसान करता है। जब उसे लगा कि अब दिल्ली में रहना शायद उतना न दुखे, तब उसने वापसी की अर्ज़ी डाली। युद्ध के बारे में इतना ज़्यादा कुछ पढ़ना काम आया था। उसके लिखे में संवेदनशीलता थी और स्थिति की बारीकियों पर अच्छी पकड़। बहुत कम वक़्त में उसने बहुत क्रेडिबिलिटी बना ली थी। लोग उसकी रिपोर्ट्स का इंतज़ार करते थे। 

लौट कर आयी तो उसे किताब पढ़ने की तलब हुयी। कविताओं की रैक के आगे देर तक खड़ी रही। कॉन्फ़्लिक्ट एरिया में ग्राउंड रिपोर्टिंग ज़िंदगी की प्राथमिकताओं के बारे में बहुत कुछ सिखाती है। अपनी मर्ज़ी से घूमने फिरने खाने की आज़ादी। बात करने और कहने की आज़ादी। हम किसके साथ हैं और किसके साथ नहीं होना चाहते हैं, ये चुनने की आज़ादी। उसने कभी इन चीज़ों पर सोचा नहीं था। मौत को क़रीब से देखना ये भी सिखा देता था कि ज़िंदगी इतनी लम्बी नहीं है जितनी हमें लगती है। कि लोग कभी भी छिन सकते हैं।  इस बीच उसे लड़के की कई बार याद आयी। लेकिन फिर हर बार उसे लगता था कि जिसे किताबों से दिक्कत हो रही है, वो उसकी सच की कहानियाँ सुनेगा तो शायद उसे कहीं जगह न दे। लड़के के सोशल मीडिया से पता चलता था कि वो अक्सर अपने घर की रीमाडलिंग करता रहता था। ख़ुश भी था शायद। और अकेला और उदास तो बिलकुल नहीं था। यूँ भी पढ़ने लिखने वाले लोग थोड़ी सी उदासी तो फ़ितरत में लेकर चलते हैं, उदासी और तन्हाई थोड़ी ज़्यादा हो जाए तो उसके साथ जीना भी उन्हें आता है। 

लड़की इसके बाद लगभग हर महीने ही रिपोर्टिंग के लिए बाहर पोस्टेड रहती। उसका कमरा, उसकी किताबें, उसके रीडिंग कॉर्नर्ज़, सब उसका इंतज़ार करते रहते। उसे अब बाहर की कहानी ज़्यादा अच्छी लगने लगी थी। ज़िंदा - सामने घटती हुयी। लोग, कि जो किताबों से बिल्कुल अलग थे। उनकी कहानियाँ, उनके डर, उनकी उम्मीदें और सपने… सब किताबों से ज़्यादा रियल था। लड़का मेट्रो पर जाता हुआ अक्सर लड़की को तलाशता रहता। जब कि अख़बार में स्पेशल कोर्रोसपोंडेंट के नाम से जो ख़बर छपती थी, और बाद में लड़की की बायलाइन के साथ भी, तो उसे मालूम रहता था कि लड़की शहर से बाहर है। 

लड़की को लगता था कि सबकी अपनी एक नियत जगह होती है। लेकिन इन दिनों वो अपनी बदलती हुयी जगह की आदी हो गयी थी। कुछ भी एक जैसा नहीं रहता था। रोज़ अलग शहर, अलग लोग, अलग होटेल, अलग बिस्तर...और फिर भी थकान के कारण अच्छी आती थी। 

लेकिन घर लौटना होता था हर कुछ दिन में। ऐसे एक लौटने के दर्मयान लड़की को याद आया, कि  एक रेयर किताब के पहले पन्ने पर उस का नाम लिखा हुआ था, लड़के की हैंड्रायटिंग में। 'था'। पता नहीं किताब थी कहाँ। लड़की उस जगह जाना चाह रही थी दुबारा। जब वो उस लड़के से पहली बार मिली थी और उन्होंने बात शुरू की थी। वो अक्सर सोचती, अगर किताबें न होतीं तो शायद वे साथ होते। एक दूसरे को अपनी ज़िंदगी की कहानियाँ सुनाते हुए। कि अगर किसी और शहर में, कोई और मेट्रो में वो लोग मिले होते तो शायद बात कुछ और होतीं। किसी शहर के आर्किटेक्चर के बारे में। या शायद नदियों, झीलों के बारे में… फिर शायद वो साथ होते। 

लड़का लड़की कोई भी हो सकते हैं। पर होते नहीं। किताबें कई क़िस्म की होती हैं। लेकिन वो ख़ास होती हैं जो घर के किसी खोए हुए कोने में पड़ी होती हैं। जिन पर किसी का नाम लिखा होता है। जिनके साथ सफ़र शुरू होता है। ये किताबें रिप्लेस नहीं की जा सकतीं। लड़के को कभी कभी गिल्ट होता था कि उसे वो किताब लड़की को दे देनी चाहिए थी। लेकिन फिर ख़ुद को समझा लेता था कि किताब थी तो उसकी अपनी ही, उसी ने लड़की को दी थी...वो वापस ले लेने का हक़ तो उसका था ही। 

लड़की को लगता रहा किताब कहीं खो गयी है। लड़के के घर में रखी किताब को भी लगता रहा, लड़की कहीं खो गयी है। 

24 September, 2019

ज़रा भरम रखना

हर बार का एक ही तिलिस्म या कि एक ही तिलिस्म के कई दरवाज़े। सारे के सारे बंद। हम तलाशते रहे चाबियाँ या कि कोई मंतर जो कि खोल सके ज़रा सी खिड़की इस तिलिस्म के बाहर। हम चाहते थे ज़रा सा सच वाली दुनिया। कि जिसके किरदार थोड़ा सा सच कह सकें हमसे। चुभता हुआ सही। दुखता, जानलेवा सच। कि उसे भूल जाने के बाद का कोई रास्ता इस तिलिस्म से बाहर जाएगा। हमें किसी ने नहीं बताया। हम ज़रा सा अपने जीने भर को चाहते रहे खुला आसमान। लेकिन तिलिस्म का आसमान भी जादुई था। उसमें सितारे थे, कई रंग के चाँद भी, लेकिन हम जानते थे ये छलावा है तो इस जादू की ख़ूबसूरती आँखों को ही ठंड पहुँचा सकती थी, आत्मा को नहीं। रात की झूठी रोशनी चुभती थी। प्रेम का झूठा क़िस्सा भी। लेकिन जो सबसे ज़्यादा चुभती थी, वो थी महबूब की झूठी चुप्पी। चुप्पी जो कि सिर्फ़ हमारे सामने ज़ाहिर होती थी। कि वो इस दुनिया का ही नहीं, हर दुनिया का सबसे बेहतरीन किस्सागो हुआ करता था। उसके पास इतने क़िस्से होते थे कि हर दुनिया के लिए कम पड़ जाते थे। जब वो क़िस्से सुनाता तो वक़्त भी ठहर जाता, लोग रेतघड़ी को उलटना भूल जाते और उसी वक़्त में ठहरे कहानी के लूप में घूमते रहते, दिन महीने साल। 

हम नहीं जानते कि हमें उस से ही इश्क़ क्यूँ हुआ। हम याद करने की कोशिश करते हैं कि वक़्त की किसी इकाई में हमने उसे देखा नहीं था और हम सिर्फ़ इस तिलिस्म से बाहर जाने का रास्ता तलाश रहे थे। किसी शाम बहुत सारे चंद्रमा अपनी अलग अलग कलाओं के साथ आसमान में चमक रहे थे और हम किसी एक बिम्ब के लिए थोड़ी रोशनी का रंग चुन रहे थे। गुलाबी चाँदनी मीठी होती थी, नीली चाँदनी थोड़ी सी फीकी और कलाई पर ज़ख़्म देती थी… आसमान के हर हिस्से अलग रंग हुआ करता था। सफ़ेद उन दिनों सबसे दुर्लभ था। कई हज़ार सालों में एक बार आती थी सफ़ेद पूरे चाँद की रात। ऐसी किसी रात देखा था उसे, सफ़ेद कुर्ते में, चुप आसमान तकता हुआ। समझ नहीं आ रहा था कि चाँद ज़्यादा ख़ूबसूरत था या वो। उस रोज़ हमारे साथ दस बीस और लोग होते तो सब उसके इश्क़ में इकट्ठे गिरते, उसी लम्हे में, उसी चुप्पी में…इतने लोगों में बँट कर शायद उसके हुस्न की चाँदनी थोड़ी कम धारदार होती। लेकिन उस रोज़ मैं अकेली थी। हम दोनों एक नदी के किनारे बैठे, चुप चाँद को देख रहे थे। वो नदी की धार में ऊपर की ओर बैठा था…पानी में उसकी परछाईं घुल कर मेरी ओर आ रही थी। मैं पानी में पैर दिए बैठी थी…ख़्वाहिश उसके साथ किसी सफ़र पर जाने की होने लगी। उसकी चुप्पी में सम्मोहन था, चाँद से भी ज़्यादा। मैंने उस रात न उसकी आवाज़ सुनी थी, ना उसके क़िस्से। मैं उसकी चुप्पी से ही प्यार करती थी। मुझे नहीं मालूम था हम दोनों ही शब्दों के मायावी हैं, हमारी चुप्पी जानलेवा होती है। 

हम उस दिन के बाद अक्सर मिलते। जिस भी दिन किसी चाँद के पूरे होने का न्यूज़ अलर्ट आता, हम नदी किनारे अपनी जगह बुक कर लेते। कई कई रात हम सिर्फ़ चाँद देखते रहे। हर पूर्णिमा को अलग अलग क़िस्म के फूल खिलते थे, जो अपने चाँद के रंग के होते थे। पीली चम्पा, गहरे लाल गुलाब, नीला अपराजिता, फ़िरोज़ी गुलदाउदी। ये तिलिस्म की दुनिया के फूल थे, इनकी ख़ुशबू चाँद रात को अलग होती थी…जादू भरी। हम पूरी रात नदी किनारे बैठे रहते। नदी उसकी परछाईं घुला कर मेरे पाँवों तक पहुँचाती रहती। मैं पाँव में कई सफ़र का इंतज़ार लिए भोर तक बैठी रहती। 

नदी के पानी से पाँवों में ठंडक आ जाती और घर जा कर मुझे अलाव के सामने बैठना पड़ता। नदी के पानी से बदन में एक लय भी आ जाती और मैं कविता लिखा करती। बाक़ी दिनों में मेरे अंदर एक छिटकाव होता। टैप डान्स करती तो लकड़ी के फ़र्श पर की खट खट आवाज़ आती और शब्द बेतरतीब होते जाते। ऐसे में कहानियाँ लिख लेना अपनेआप में एक पराक्रम होता जिसके लिए वीरता पुरस्कार की ज़रूरत महसूस होती। मुझे लिखना ही बहुत मुश्किल लगता। लेकिन ऐसा तब तक ही था जब तक मैं ये सोचती थी कि चुप रहना और चाँद को चुप ताकना महबूब की आदत और अदा है। फिर मैंने उसे बोलते सुना। 

हज़ारों लोग मंत्रमुग्ध उसकी आवाज़ में डूबते चले जाते। मैं अपनी चुप्पी से हथियार बनाने की विधियाँ पढ़ती। सोचती उसे तैरना न आता हो तो नदी के बीच ले जाऊँ और नाव डुबो दूँ। प्रेम के अतिरेक में हत्या करना प्रेम को सबसे ऊँचे पायदान पर स्थापित कर देता था। मैं इस ऊँचे पायदान से कूद के मरना चाहती थी। 

सब कुछ ठीक ऐसा ही चल रहा होता तो बेहतर होता। गुलाबी चाँद की मीठी रात थी। हम हमेशा की तरह अपनी अपनी जगह पर थे। लेकिन बहुत तेज़ हवा चल रही थी और बारिश ने नदी की सतह को बहुत बेचैन कर दिया था। लहरें उठ रही थीं और मैं बारिश से ज़्यादा नदी के पानी से भीग रही थी। उसकी परछाईं बदन पर पड़ती तो लगता उसने मुझे बाँहों में भर रखा है। इतने पर भी तिलिस्म टूटता नहीं। बारिश और आँधी के शोर में मुझे लगा उसने मेरा नाम लिया है… 

वो नाम जो मैं ख़ुद भूल गयी थी। अचानक से तिलिस्म के दरवाज़े खुल गए और मैं तिलिस्म के बाहर की दुनिया में चली आयी। इस एक चाँद की दुनिया में रहते हुए हर रोज़ अफ़सोस होता है…कि झूठ की वो दुनिया बहुत ज़्यादा ख़ूबसूरत थी…कि चैन तो कहीं नहीं है…वहाँ महबूब के मेरे होने का भरम था।

18 September, 2019

ताखे पर रखी चिट्ठियाँ

बहुत दिन पहले किसी से बात हो रही थी। याद नहीं किससे। उन्होंने कहा, तुम्हारे जेनरेशन में कमसे कम ये अच्छा है कि कोई चिट्ठी नहीं लिखता। किसी के जाने के बाद, रिश्ता टूटने के बाद... कभी ये दिक्कत नहीं आती कि चिट्ठियों का क्या करना है। हम लोग में तो सबसे बड़ी दिक्कत यही होती थी। रख सकते नहीं थे कहीं भी...और कितना भी मनमुटाव हो गया हो, चिट्ठी फेंकने का भी मन नहीं करता था।

मुझे अपने पूरी ज़िंदगी में देखे वो कई सारे घर याद आए। गाँव के घर, जिनमें एक ताखा होता था लकड़ी का। जहाँ चीज़ें एक बार रख के भुला दी जाती थीं। ये प्लास्टिक के पहले की बात है। उन्हीं दिनों जो सबसे ज़्यादा मिलते थे वो थे चिट्ठियों के पुलिंदे। मैं छोटी थी उस समय लेकिन फिर भी मालूम होता था कि इनमें जान होती है। साड़ी या ऐसे ही किसी कपड़े से टुकड़े में कई बार लपेटे और पतले पतले धागों से बँधे हुए। दिखने में ऐसा लगता था जैसे ईंट हो। उस ज़माने में लिफ़ाफ़ों की एक ही साइज़ आती होगी। अभिमंत्रित लगते थे वे पुलिंदे। मैंने कई कई बार ऐसे कपड़ों में सहेजे पुलिंदों को खोल खोल कर पढ़ा है। आप इस ज़माने में यक़ीन नहीं कर सकते कि उन दिनों डाकखाना कितना efficient हुआ करता था। चिट्ठियों में मेले में मिलने की बात होती थी। अगले हफ़्ते किसी दोस्त के यहाँ किसी शाम के छह बजे टाइप जाने की बात होती थी। कोई पसंद के रंग के कुर्ते, दुपट्टे या कि स्वेटर की बात भी होती थी। ऐसे पुलिंदों में ही काढ़े हुए रूमाल भी होते थे अक्सर। एक आध बार किसी शर्ट की पॉकेट भी मिली है मुझे। 

मैं बहुत छोटी होती थी उन दिनों। उम्र याद नहीं, कोई पाँच आठ साल की। जब ऐसे ताखे पर चढ़ने के लिए किसी सीढ़ी की ज़रूरत नहीं होती थी। मैं किसी खिड़की, दीवार में बने छेद को पकड़ कर लकड़ी पर झूल जाती थी और ऊपर चढ़ जाती थी। गाँव में छत ज़्यादा ऊँची नहीं होती थी...ख़ास तौर से घरों के पहले तल्ले में। फिर मेरा वज़न भी बहुत कम होता था तो ताखे के टूटने का डर नहीं लगता था। 

जबसे मैंने पूरा पूरा पढ़ना सीखा, ऐसे काम जब मौक़ा मिले, कर डालती थी। उस समय थोड़ा सा भय होता था कि कुछ ग़लत कर रही हूँ। लेकिन उन दिनों सजा थोड़ी कम मिलती थी। ज़्यादा डाँट कपड़े गंदे होने पर मिलती थी। किसी को लगता नहीं था कि मुझे चिट्ठियों की कुछ समझ होगी भी।

आख़िरी चिट्ठियाँ मुझे उन दिनों समझ नहीं आती थीं। उनमें अक्सर परिवार की बात होती थी। घर वाले नहीं मानेंगे टाइप। तुम तो समझते/समझती हो टाइप। मुझे लगता, उस उम्र के लोग बहुत समझदार होते हैं। कि एक दिन मैं भी समझ जाऊँगी कि आख़िरी चिट्ठियाँ आख़िरी क्यूं होती हैं। 

इन बातों को बहुत साल बीत गए। वैसी चिट्ठियों का पुलिंदा अपने सूती कवर और बारीक धागों के साथ चूल्हे में झोंके जाते हुए देखे। बढ़ती उम्र की अपनी क्रूरता होती है। बचपन की अपनी माफ़ी। उन दिनों खाने में नमक ज़्यादा लगता। दीदियों/चाचियों/भाभियों की आँख भरी भरी लगती। भैय्या/चाचा खाने की थाली थोड़ा ज़ोर से पटकते। कुआँ ख़ाली कर देंगे इस तरह नहाते। गोहाल में रेडीयो चलाते और दीवार के पीछे चुक्कु मुक्कु बैठ बीड़ी पीते। 

ऐसा लगता, घर में कोई मर गया हो। मैं थोड़ी भी समझदार हो चुकी होती तो वैसे किसी दिन क़सम खा लेती कि कभी भी चिट्ठियाँ नहीं लिखूँगी। लेकिन मैंने दूसरी ही चीज़ सोच ली… कि कभी प्यार नहीं करूँगी। पता नहीं, चिट्ठी नहीं लिखने का वादा भी पूरा कर पाती ख़ुद से कि नहीं, क्यूँकि प्यार…

मुझे मत कहो कि मैं तुम्हें चिट्ठियाँ लिखूँ… हर चिट्ठी में मेरी आत्मा थोड़ी सी रह जाती है… तुम्हारे यहाँ तो चूल्हा भी नहीं होता। कुछ जलाने की जगहें कितनी कम हो गयी हैं। कभी काग़ज़ भी जलाए हैं तुमने? इतना आसान नहीं होता। दुखता है अजीब क़िस्म से...किसी डायरी का पन्ना तक। चिट्ठी जलाना तो और भी बहुत ज़्यादा मुश्किल होता है। तुम पक्का मेरी चिट्ठियाँ समंदर में फेंक आओगे। हमारे धर्म में जलसमाधि सिर्फ़ संतों के या अबोध बच्चों के हिस्से होती है। वादा करो कि जब ज़रूरत पड़े मेरी चिट्ठियाँ जला दोगे…सिर्फ़ तब ही लिखूँगी तुम्हें।

और तुम क्या पूछ रहे थे, मेरे पास तुम्हारा पता है कि नहीं। बुद्धू, मुझे तुम्हारा पता याद है।

ढेर सारा प्यार,
तुम्हारी…

08 June, 2019

मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।

तुमसे मुहब्बत... खुदा ख़ैर करे... जानां, मुझे तो तुम्हारे बारे में लिखने में भी डर लगता है। कुछ अजीब जादू है हमारे बीच कि जब भी कुछ लिखती हूँ तुम्हारे बारे में, हमेशा सच हो जाता है। कोई ऑल्टर्नट दुनिया जो उलझ गयी है तुम्हारे नाम पर आ कर...डर लगता है, लिखते लिखते लिख दिया कि तुम मेरे हो गए हो तो... या कि लो, आज की रात तुम्हारे नाम… या कि किसी शहर अचानक मिल गए हैं हम…क्या करोगे फिर?

यूँ ही ख़्वाहिश हुयी दिल में कि हर बार मुझे ही इश्क़ ज़्यादा क्यूँ हो... कभी तो हो कि चाँदभीगे फ़र्श पर तड़पो तुम और ख़्वाब में बहती नदी के पानी के प्यास से जाग में जान जाती रहे…

के बदन कहानियों का बना है और रूह कविताओं से … मैं तुम्हारे शब्दों की बनी हूँ जानां… तुम्हारी उँगलियों की छुअन ने मुझमें जीवन भरा है…किसी रोज़ जान तुम्हारे हाथों ही जाएगी… इतना तो ऐतबार है मुझे…

तुम इश्क़ की दरकार न करो…बाँधो अपना जिरहबख़्तर… भूल जाओ मेरे शहर का रास्ता…भूल जाओ मेरे दिल का रास्ता। लिखती हूँ और ख़ुद को कोसने भेजती हूँ। कि ऐसा क्यूँ। तुम्हारी ख़ातिर…इश्क़ में थोड़ा तुम भी तड़प लो तो क्या हर्ज है। मगर तुम्हारी तड़प मुझे ही चुभती है…कि मेरे हिस्से की नींद तुम्हारे शहर चली गयी है और उन ख़्वाबों में मुझे भी तो जाना था… तुम जाने किस मोड़ पर इंतज़ार कर रहे होगे…

मेरी हथेलियों में प्यास भर आती है। ऐसा इनके साथ कभी नहीं होता… कभी भी नहीं, सिवाए तब कि जब बात तुम्हारी हो। मेरे हाथों को वरना सिर्फ़ काग़ज़ क़लम की दरकार होती है… छुअन की नहीं… किसी भी और बदन की नहीं। तो फिर कौन सा दरिया बहता है तुम्हारे बदन में जानां कि जिसे ओक में भर पीने को रतजगे लिखाते हैं मेरे शहर में। मैं डरती हूँ इस ख़याल से कि तुम्हें छूने को जी चाहता है… तुम्हें छू लेना तुम्हें काग़ज़ के पन्नों से ज़िंदा कर कमरे में उतार लाना है…तुम ख़यालों में हो फिर भी तुम्हारे इश्क़ में साँस रुक जाती है…तुम मूर्त रूप में आ जाओगे तो जाने क्या ही हो… मैं सोच नहीं पाती… मैं सोचने से डरती हूँ। तुम समझ रहे हो मेरा डर, जानां?

तुम्हें चूमना पहाड़ी नदी हुए जाना है कि जिसका ठहराव तुम्हारी बाँहों के बाँध में है…मगर फिर लगता है, तुम्हें तोड़ न डालूँ अपने आवेग में… बहा न लूँ… मिटा न दूँ… कि जाने तुम क्या चाहते हो… कि जाने मैं क्या लिखती हूँ… 

कि देर रात अमलतास के पीछे झाँकता है चाँद… मैं सपने में में तलाश रही होती हूँ तुम्हारी ख़ुशबू…हम यूँ ही नहीं जीते इश्क़ में बौराए हुए।

के जानां, मेरे पागल हो जाने का सब सामान इसी दुनिया में है।

18 May, 2019

… तुम्हारा घर होना है।

'मुझे अभी ख़ून करने की भी फ़ुर्सत नहीं है'।

उसने हड़बड़ में फ़ोन उठाया, हेलो के बाद इतना सा ही कहा और फ़ोन काट दिया। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया... कि उसे फ़ोन काटने की फ़ुर्सत है, बाय बोलने की नहीं... उसी आधे सेकंड में बाय बोल देती तो मैं फ़ोन तो आख़िर में काट ही देता।  फिर उसकी बातें! हड़बड़ में ख़ून कौन करता है… कैसे अजीब मेटफ़ॉर होते थे उसके कि उफ़, कि मतलब ख़ून करना कोई फ़ुर्सत और इत्मीनान से करने वाली हॉबी तो है नहीं। कि अच्छा, फ़्री टाइम में हमको पेंटिंग करना, कहानियाँ लिखना, किताबें पढ़ना, ग़ज़लें सुनना और ख़ून करना पसंद है। लेकिन ये बात भी तो थी कि उसके इश्क़ में पड़ना ख़ुदकुशी ही था और अगर वो तुम्हें एक नज़र प्यार से देख ले तो मर जाने का जी तो चाहता ही था। ऐसे में ख़ून करने की फ़ुर्सत का शाब्दिक अर्थ ना लेकर ये भी सोचा जा सकता था कि उसे इन दिनों सजने सँवरने की फ़ुर्सत नहीं मिलती होगी… कैज़ूअल से जींस टी शर्ट में घूम रही होती होगी। उसके गुलाबी दुपट्टे, मैचिंग चूड़ियाँ और झुमके अलने दराज़ में पड़े रो रहे होते होंगे। आईने पर धूल जम गयी होगी। ये भी तो हो सकता है। फिर मेरे दिमाग़ में बस हिंसक ख़याल ही क्यूँ आते हैं।

प्रेम का मृत्यु से इतना क़रीबी ताना बाना क्यूँ बुना हुआ है। ये सर दर्द क्या ऑक्सिजन की कमी से हो रहा है? उसकी बात आते मैं ठीक ठीक सोचना समझना भूल जाता हूँ। कभी कभी तो लगता है कि साँस लेना भी। वैसे शहर में प्रदूषण काफ़ी बढ़ गया है… फिर दिन भर की बीस सिगरेटें भी तो कभी न कभी अपना असर छोड़ेंगी… साँस जाने किस वजह से ठीक ठीक नहीं आ रही। मुझे शायद कुछ दिन पहाड़ों पर जा कर रहना चाहिए। किसी छोटे शहर में… जहाँ की हवा ताज़ी हो और लड़कियाँ कमसिन। कि जहाँ मर जाना आसान हो और जिसकी लाइब्रेरी में बैठ कर इत्मीनान से मैं अपना सुसाइड नोट लिख सकूँ। 

वो एक ख़लल की तरह आयी थी ज़िंदगी में…छुट्टी के दिन कोई दोपहर दरवाज़ा खटखटा के नींद तोड़ दे, वैसी। बेवजह। अभी भी न उसके रहने की कोई ठोस वजह है, न उसके चले जाने पर कोई बहुत दुःख होगा। जैसे ज़िंदगी में बाक़ी चीज़ें ठहर गयी हैं… वो भी इस मरते हुए कमरे की दीवार पर लगा वालपेपर हो गयी है… किनारों से उखड़ती हुयी। पुरानी। बदरंग। सीली। उसके रहते कमरे का उजाड़ ख़ुद को पूरी तरह अभिव्यक्त भी नहीं कर पाता है। न मैं कह पाता हूँ उससे… इस बुझती शाम में तुम यहाँ क्या कर रही हो…तुम्हें कहीं और होना चाहिए… यहाँ तुम्हारी ज़रूरत नहीं है…

उसके आने का कोई तय समय नहीं होता और ये बात मुझे बेतरह परेशान करती है कि न चाहते हुए भी मुझे उसका इंतज़ार रहता है। उसके आने की कोई वजह भी नहीं होती तो मैं मौसम में उसके आने के चिन्ह तलाशने लगा हूँ… कि जैसे एक बेहद गर्म दिन वो सबके लिए क़ुल्फ़ी और मेरे लिए चिल्ड बीयर का एक क्रेट ले आयी थी… आइस बॉक्स के साथ। उसे याद भी रहता था कि मुझे किस दुकान का कैसा नमकीन पसंद है। कभी कभी वो यूँ ही मेरे घर के परदे धुलवा देती, चादरें बदलवा देती और कपड़े ड्राईक्लीन करवा देती। लेकिन इतना ज़्यादा नहीं कि उसकी आदत लगे लेकिन इतना कम भी नहीं कि उसका इंतज़ार न हो। 

कभी कभी वो महीनों व्यस्त हो जाती। उसका कोई इवेंट होता जो कि आसमान से उतरे लोगों के लिए होता। उनकी ख़ुशी के सारे इंतज़ाम करते हुए वो एकदम ही मुझसे मिलने नहीं आती। बस, कभी बर्थ्डे पर केक भिजवा दिया। कभी नए साल पर फूल। लेकिन ख़ुद नहीं आती। मुझे समझ नहीं आता मैं इन चीज़ों पर नाराज़ रहूँ उससे या कि ख़ुश रहूँ कि अपनी व्यस्तता में भी उसे मेरा ध्यान है। 

वो व्यस्त रहती थी तो ख़ुश रहती थी। सुबह से शाम तक काम और प्रोजेक्ट ख़त्म होने के बाद के पैसों से ख़ूब घूमना। चीज़ें ख़रीदना। फिर नए प्रोजेक्ट शुरू होने के पहले के दो चार दिन एकदम ही परेशान हो जाती थी… कि जैसे भूल ही जाएगी लिखना पढ़ना। देर रात तक विस्की और फिर सुबह उठने के साथ फिर से विस्की। खाना खाती नहीं थी कि उल्टी… ऐसी लाइफ़स्टाइल क्यूँ थी उसकी पता नहीं। फिर मैं क्या था उसका, वो भी पता नहीं। सिर्फ़ एक कमरा जो हमेशा उसकी दस्तक पर खुलता था… दिन रात, सुबह… किसी भी मौसम… किसी भी मूड मिज़ाज माहौल में… रहने की इक तयशुदा जगह… उम्र का कोई पड़ाव… 

एक दिन मुझे असाइलम का डेफ़िनिशन समझा रही थी… ‘पागलखाना न होता तो पागलों को जान से मार देते लोग… या कि पागल लोग पूरी दुनिया को इन्फ़ेक्ट कर देते… पागल कर देते… असाइलम यानी कि जहाँ लौट कर हमेशा जाया जा सके… जैसे विदेशों में मालूम, आपके देश की एम्बसी होती है… पनाह… जहाँ जाने की शर्त न हो… असाइलम… तुम… कि तुम मेरा असाइलम हो।’ 

काश कि वो दुनिया की किसी डेफ़िनिशन से थोड़ी कम पागल होती। कि मैं ही बता पाता उसे, कि तुम पागल हो नहीं… थोड़ी सी मिसफ़िट हो दुनिया में… लेकिन ऐसा होना इतना मुश्किल नहीं है। कि तुम मेरे लिए ठीक-ठाक हो।

कि मुझे तुम्हारा असाइलम नहीं… तुम्हारा घर होना है।

12 April, 2019

ओल्ड स्कूल

‘तुम न, अब एक घर ले लो।’
‘अच्छा, और बसा तुम दोगी?’
‘बसाना? पागल हो गए हो क्या। दिल तोड़ना, घर तोड़ना, हाथ पैर तोड़ना… ये सब काम हम अच्छा से करते हैं, ये बसाना वसाना हमसे न हो पाएगा’
‘तो फिर मेरे घर में करना क्या है तुमको? अपने अफ़ेयर करोगी मेरे यहाँ तुम?’
‘उफ़, नहीं यार। ख़ाली प्यार मुहब्बत थोड़े न है दुनिया में। तुमसे कौन सा प्यार है हमको, लेकिन इतने साल से हो न मेरी ज़िंदगी में। तुमको चिट्ठी लिखने का मन करता है। कोई पता ही नहीं है तो मैं कहाँ भेजूँ तुम्हारे नाम की चिट्ठी। फिर, मैं चाहती हूँ, कभी ऐसा भी हो कि मैं चाहूँ तुम तक जाना और जा सकूँ। ऐसे बंजारो की ज़िंदगी जीते हो, मैं तुम्हारे इंतज़ार में थक गयी हूँ। ये तो बेइमानी है ना कि तुम जब चाहो, मुझ तक चले आओ। तुम्हें सब पता है, मेरा घर, दफ़्तर, मेरे दोस्तों का घर, मेरी पसंद की कॉफ़ी शॉप्स… सब कुछ। पूरा नक़्शा है तुम्हारे पास। रात दस बज रहे हैं, वीकडे है, घर पर नहीं हूँ तो कॉफ़ी पी रही होऊँगी। फ़्राइडे नाइट है तो कहाँ होऊँगी।’
‘हाँ तो, तुम इतनी प्रिडिक्टबल और आसान हो…थोड़ा मुश्किल होती तो मैं तलाशता फिरता तुमको जगह जगह।’
‘तुम कहना चाहते हो मैं बोरिंग हूँ?’
‘अरे, लड़की, ख़ुद ही सब बोल दो…मैंने कब कहा कि बोरिंग हो… मैंने कहा कि प्रेडिक्टबल हो। क्या बुरा है इसमें? एक तरह की निश्चिंत्ता होती है। कि जैसे लीवायज़ की ५०१ जींस, ३० नम्बर वाली एकदम फ़िट आएगी, जैसे नुक्कड़ की टपरी वाली आंटी मेरी पसंद की निम्बू की चाय बनाएगी, जैसे कि ब्लैक शर्ट हमेशा खिलेगी, कि बारिश में भीगने का हमेशा मन करेगा। हमेशा वाली चीज़ें अच्छी होती हैं’।
‘तो एक घर ख़रीद लो फिर, रेंट पर भी मत लो’।
‘तुम तो आज नहा धो के पीछे पड़ गयी हो। क्या करना है तुमको मेरे घर से?’
‘कह तो रहे हैं, चिट्ठी लिखेंगे’
‘सुन रही हो अपनी बात…तुम्हारे चिट्ठी लिखने भर के लिए घर क्यूँ लें…पोस्ट ऑफ़िस में पोस्ट बॉक्स आता है, वो ले लेते हैं… या तुम ईमेल भी तो कर सकती हो। या whatsapp. कौन लिखता है आज के ज़माने में चिट्ठी’।
‘तुम जानते हो ना, हम थोड़े ओल्ड स्कूल हैं।’
‘थोड़े? बाबू, तुम प्रागैतिहासिक हो। म्यूज़ीयम में रखेंगे तुमको। वो भी नैचुरल हिस्ट्री म्यूज़ीयम में’
‘तुम टिकट का पैसा दे कर मिलने आओगे हमसे?’
‘हाँ। फिर तुम्हारे ऊपर किताब भी लिखेंगे। कि अच्छी ख़ासी लड़की थी। चिट्ठी चिट्ठी करते करते ख़ुद ही कहानी हो गयी’।
‘तो फिर, घर नहीं लोगे तुम?’
‘ग़ज़ब ज़िद्दी हो। टेपरिकॉर्डर अटक गया है वहीं का वहीं तुम्हारा…नहीं लूँगा घर। मुझे ज़रूरत नहीं लगती घर लेने की। इतना ट्रैवल होता है। आज यहाँ, कल वहाँ… किस शहर में घर लूँ, बताओ। आधे साल तो अमरीका में रहता हूँ, बचा थोड़ा बहुत यूरोप… ऐसे कहाँ रखें घर हम। थोड़ा प्रैक्टिकल कारण भी तो है’
‘तुम दिल्ली में घर ले लो’
‘अच्छा, दुनिया के इतने अच्छे अच्छे शहर छोड़ कर दिल्ली में। क्यूँ भला? भयानक प्रदूषण और उससे भी ज़्यादा प्रदूषित दिमाग़ के लोगों के सिवा है क्या इस शहर में।’
‘ऐ, मेर सामने दिल्ली को गरियाओ मत। मैं जो हूँ दिल्ली में, सो? मेरा कोई मोल नहीं!’
‘मोल तो इतना है कि बेमोल हो तुम। प्रेशियस। बेशक़ीमत।’
‘तो मेरी बात मान लो’
‘तुझे घर ले दूँ? ऐसा करता हूँ, तेरे नाम से पेपर्स बनवा देता हूँ। अब ठीक है?’
‘कुछ भी। ऐसे कैसे मेरे लिए घर ख़रीद दोगे। पता है पच्चीस साल तो ईएमआई चलती है होम लोन की’
‘तो तुझे लगता है कि तू अगले पच्चीस साल में मेरे साथ नहीं रहेगी?’
‘उफ़। ये थोड़े कह रहे हैं हम। तुम अनर्गल आर्ग्युमेंट मत करो’
‘मुझे घर नहीं ख़रीदना’
‘एक कारण बता दो’
‘कारण ये कि बुद्धू। मेरा घर तुम हो। तुम्हारे होते मेरे पास लौटने को हमेशा कुछ होता है। मैं दुनिया के हर शहर घूमता हुआ तुम्हारे लिए होता जाता हूँ। ये जो झुमके, मिनीयचर पेंटिंग और साउंड बॉक्स ला के दिए हैं तुम्हें… इसलिए कि इनके इर्द गिर्द ख़ुश रहती हो तुम। मेरे न होने पर भी भरी भरी सी। जब तुम्हारे बाथरूम में अपना टूथब्रश देखता हूँ तो लगता नहीं है कि कहीं और जाने की ज़रूरत है। मैं तुम्हारे इर्द गिर्द बंजारा नहीं रहता। बसा हुआ होता हूँ। तुम्हारे ख़ालीपन में। तुम्हारे इंतज़ार में। जब भी लौटता हूँ ऐसी कोई शाम होती है, दिल्ली की कोई पुरानी इमारत होती है और इतनी ज़्यादा ख़ुश होती हो तुम कि मैं किसी सफ़र में अकेला नहीं होता। तुम्हारी चिट्ठियों का पता मेरा दिल है। तुम लिख लिया करो। मैं पढ़ लिया करूँगा वापस आ के। मोमिन इसलिए न कहते हैं, हाल ए दिल यार को लिखूँ क्यूँ कर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।
‘ये कौन सी किताब से पढ़ कर आए हो?’
‘पढ़ कर नहीं आया हूँ। लिखूँगा अब। एक अच्छी सी किताब, जिसमें हम दोनों ऐसे ही शाम शाम शाम बकझक करते रहेंगे। जिसमें जीने के लिए हमें अपनी अपनी ज़िंदगी से कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा। जिसमें मेरा और तुम्हारा पता एक ही होगा। भले ही मैं वहाँ रहूँ, न रहूँ’
‘उफ़’
‘क्या हुआ?’
‘किराया लगेगा’
‘पागल लड़की’
‘तुमसे कम ही’

24 March, 2019

सेमल के मौसम में तोड़ना दिल...कि गिरे हुए सारे उदास फूल मेरे नाम हों

हमें बचपन में ही दुःख से बहुत डरा दिया गया है। हम कभी उसे लेकर कम्फ़्टर्बल नहीं होते। जबकि अगर ज़िंदगी की टाइम्लायन देखें तो वो समय जब हम सच में दुःख के किसी लम्हे के ठीक बीच थे, बहुत कम होते हैं। हम अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा आगत दुःख के भय और प्राचीन दुःख की स्मृति में जीते हैं।

तो इस दुःख के ठीक बीच होते हुए मैं ज़रा सा एकांत तलाशती हूँ, कि इसे ठीक से निरख सकूँ। मैं पहले हॉरर फ़िल्मों से बहुत ज़्यादा डरती थी, लेकिन कुछ दिन पहले हॉरर फ़िल्म देख रही थी तो मैंने पहली बार हिम्मत कर के उस भूत को खुली आँखों से पूरा देख लिया, बिना अफ़ेक्टेड हुए, जैसे कि कोई पेंटिंग देखती हूँ। इक तरह से मैंने ख़ुद को उस फ़िल्म के बाहर ठीक उस दर्शक की जगह पर रखा, जहाँ मुझे होना चाहिए था…फ़िल्म के भीतर के भुक्तभोगी की तरह नहीं। उसके बाद जब भी वह भूत आता तो मुझे डर नहीं लगता। जब आँखें बंद कर के घबरा रहे होते हैं तो हम नहीं जानते कि वो क्या है जिससे हम इतना डर रहे हैं। जिस चीज़ की शिनाख्त हो जाती है, वो थोड़ा कम भयावह हो जाता है। भिंची आँखों को सब कुछ ही डराता है।

आज इसी तरह आँखें खोल कर तुम्हें जाते हुए देखा। तुम्हें मुड़ के न देखते हुए देखा। तुम्हें मालूम मैं क्या लिख कर डिलीट कर रही थी? ‘Hug?’. कितनी बार डिलीट किया। कि विदा कहते हुए कहाँ पता था कि इसे विदा कहते हैं। पता होता तो जाने क्या करती। कि जब कि मैं थी ऐसी कि हर बार विदा कहते हुए सोचती थी कि ये आख़िरी बार है, फिर भी ज़रा सी कोई कसक रह गयी है बाक़ी। ये ‘ज़रा सा’ थोड़ा कम दुखना चाहिए था। तुम्हारा हाथ एक मिलीसेकंड और पकड़े रखने का मन था। मिलीसेकंड समझते हो तुम? जितनी देर तुमने मुझे देखा, ये वो इकाई है… मिलीसेकंड। तुम एकदम ही पर्फ़ेक्ट हो। कुछ भी ग़लत नहीं हो सकता तुमसे। सिवाए विदा कहने के। तुम्हें ना, ठीक से विदा कहना नहीं आता।

ज़रा सी विरक्ति सिखा देना बस। मेरे सब दोस्त मेरे जैसे ही पागल हैं…ज़रा से इश्क़ में पूरा मर जाने वाले। ये मौसम और ये शहर ठीक नहीं है उदास होने के लिए। अलविदा का मौसम किसी और रंग में खिलता है, सेमल और पलाश रंग में नहीं। फिर दुनिया में कितने शहर हैं जिनमें दोस्तों से मिल कर बिछड़ा जा सकता है। महबूबों से भी। सिवाए दिल्ली के। लेकिन ये भी तो है कि शहर दिल्ली के सिवा कोई भी और होता तो किरदार बीच कहानी में ही मर जाता।

मेरी जान,
इस दिलदुखे शहर से मेरे हिस्से की सारी मुहब्बत और उसके बाद की सारी उदासियाँ तुम्हारे नाम। Know you are loved. Not as much as you would want, but more than you assume. किसी रोज़ मेरे लिए भी इतना ही आसान होगा लौट पाना। मैं उस दिन की कल्पना से ख़ौफ़ खाती हूँ।

शहर तुम्हारे लिए उदार रहे। रक़ीब आपस में क़त्ले-आम मचाएँ। मुहब्बत अपनी शिनाख्त करवाती फिरे, कई कई सबूत जमा करवाए। फिर मेरे लिखने की शर्त यही है कि दिल टूटना ज़रूरी है तो, मेरी जान, दास्तान मुकम्मल हो। आमीन।

हाँ सुनो, मेरे वो काढ़े हुए रूमाल किसी दिन लाइटर मार के ख़ाक कर देना। मेरी वो दोस्त सही कहती थी, रूमाल देने से दोस्ती टूट जाती है। मुझे उसकी बात मान लेनी चाहिए थी।

Love,
तुम्हारी….

20 March, 2019

बिंदियाँ

प्रेम के अपने कोड होते हैं। सबके लिए। लड़की जब प्रेम में होती तो बिंदी लगाती। छोटी सी, लाल, गोल बिंदी। यूँ और भी बहुत चीज़ें करती, जब वह प्रेम में होती... जैसे कि काजल लगाना, काँच की मैचिंग चूड़ियाँ पहनना... महबूब की पसंद के रंग के कपड़े पहनना... लेकिन जो उसके सिर्फ़ अपने लिए थी, वो थी एक छोटी सी लाल बिंदी।

इक रोज़ उसे दूसरे शहर जाना था। भोर की फ़्लाइट थी। हड़बड़ में तैयार हो रही थी। माथे की बिंदी उतार कर आइने पर चिपकायी और नहाने के बाद वहाँ से उतार कर माथे पर लगाना भूल गयी। कि वो इतने गहरे प्रेम में थी कि उसने अपना चेहरा ही नहीं देखा। यूँ भी शहर का प्रेम व्यक्ति के प्रेम से कहीं ज़्यादा रससिक्त और गाढ़ा होता है।

इक बहुत सुंदर दोपहर जब पूरे शहर में पलाश और सेमल के लाल रंग दहक रहे थे वो एक दोस्त के साथ घूम रही थी...बस तस्वीर उतारते हुए ही। आसमान में खिले लाल फूलों की तस्वीर। सड़क पर गिरे पलाश के अंगारे जैसे फूलों के लो ऐंगल शॉट। कि शहर में वसंत कैसा बौरा कर आया था।

सड़क पर ट्रैफ़िक बहुत ज़्यादा था और दौड़ कर सड़क पार करते हुए दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ लिया। बीच सड़क अचानक स्त्री को याद आया कि उसने बिंदी नहीं लगायी है। कि यह प्रेम नहीं है।
***

वे उसके घर के पास शूट पर गए थे। दिन भर भटक भटक कर अपनी पसंद के शॉट्स खींचते रहे। बीच पार्क में थोड़े से हिस्से में सिर्फ़ सेमल के पेड़ थे। मिट्टी पर गहरे लाल फूलों की चादर बिछी हुयी थी। शाम की सुनहली रोशनी में वे फूल ज़िंदा भी लग रहे थे जिन्हें पेड़ से बिछड़े पूरा दिन बीत गया था...जैसे कोई आँख बंद कर सोता हुआ दिखे, मरा हुआ नहीं। ज़िंदगी की लाली बरक़रार थी। चाँद चुपचाप निकल आया था। पूर्णिमा को जाता हुआ चाँद। लगभग पूरा गोल। पुरानी पत्थरों के उस छोटे के गुंबद में लोग गिटार बजा रहे थे और गा रहे थे। 'लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो'। तय किया गया कि घर जा के थोड़ी देर आराम करेंगे फिर डिनर पर निकलेंगे, कि लड़के का घर एकदम पास ही था और वे इतने थक गए थे कि कॉफ़ी शॉप पर की कुर्सी पर भी बैठने का ख़याल उन्हें डरा रहा था।

उनकी जानपहचान कई साल पुरानी थी। इतनी कि वे सोचते भी नहीं किसी शब्द के बारे में, जिसे उनके बीच रहना चाहिए था। हिंदी में फ़ैमिली फ़्रेंड्ज़ जैसे शब्द नहीं होते। लड़की कई बार उसके घर आ चुकी थी लेकिन ये पहली बार था जब लड़के की शादी हो चुकी थी। दिन भर के शूट में वे लगभग इस बात को भूल ही गए थे। शादी नयी नयी थी लेकिन उनका ऐसे दिन दिन भर भटकना और शाम को कहीं क्रैश करना नया नहीं था। आदतन था।

लड़की हाथ मुँह धोने चली गयी और लड़के ने किचन में चाय चढ़ा दी। आदतन लड़की ने चेहरा धोने के पहले बिंदी उतारी और आइने में चिपका दी, बस गड़बड़ ये हुयी कि आदतन उसने बिंदी वापस चेहरे पर लगायी नहीं। वहीं भूल गयी। दोनों ने चाय पी, कम्प्यूटर पर दिन भर के शूट किए हुए फ़ोटोज़ और विडीओज़ देखे, अच्छे फ़ोटो शोर्टलिस्ट किए और थोड़ी देर तक दीवार से पीठ टिकाए बैठे रहे बस।

इसके कुछेक महीने बाद जब लड़के की पत्नी लौट कर आयी और आते साथ ज़ोर से चीख़ी... तो लड़के का ध्यान गया कि आइने में एक छोटी सी लाल बिंदी चिपकी हुयी है। इतने दिनों में कभी उसका ध्यान तक नहीं गया, वरना शायद उसे उतार सकता था। पत्नी ने जब पूछा कि किसकी बिंदी है तो उसने सोचते हुए कहा कि शायद उस लड़की की होगी, उसे मालूम नहीं है। उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि लड़की ने अपनी बिंदी वहाँ क्यूँ लगायी। उसे ऐसा बिलकुल नहीं लगता था कि लड़की का ऐसा करना कहीं से इस बात को स्थापित करता है कि वो इस घर को अपना घर समझती है। ऐसा समझने के लिए उसे बिंदी चिपकाने की ज़रूरत थोड़े थी। वो वाक़ई इस घर को अपना घर समझती आयी थी।

पर इस घटना के बाद, जैसा कि होता आया है। वे कई कई सालों तक नहीं मिले और लड़की ने बिंदी लगानी बंद कर दी। उसके कई दोस्तों ने कहा कि उसका चेहरा बिंदी के बिना सूना लगता है लेकिन किसी ने ये नहीं कहा कि उस लड़के के बिना शहर, शूटिंग, ठहरी हुयी तस्वीरें... सब थोड़ी थोड़ी ख़ाली और उदास लगती हैं। कि चेहरे ही नहीं, ज़िंदगी में भी एक छोटी सी बिंदी भर जगह ही ख़ाली हुयी थी लेकिन उससे सब सूना सूना लगता है।

***

आक्स्फ़र्ड बुकस्टोर में किताबें और नोट्बुक नहीं ले जाने देते। औरत के पास बैग में इतनी किताबें थीं कि उसने पूरा बैग ही नीचे छोड़ दिया सेक्योरिटी के पास। उसने नोर्वेजियन वुड ख़रीदी। मुराकामी की ये किताब उसे बेहद पसंद थी। ख़ास तौर से वो हिस्सा जहाँ लड़की पूछती है कि मुझे हमेशा याद रखोगे, ये वादा कर सकते हो। वो यहाँ अपने एक पुराने क्लासमेट से मिलने आयी थी। वे डिबेट्स और एलोक्यूशन में साथ हिस्सा लेने जाते थे। लड़की हिंदी डिबेट करती थी, लड़का अंग्रेज़ी। कई साल बाद मिल रहे थे वो। ऐसे ही इंटर्नेट के किसी फ़ोरम पर मिले और पता लगा कि एक ही शहर में हैं तो लगा कि मिल लेते हैं।

इस बीच लड़का सॉल्ट एंड पेपर बालों वाला एक ख़ूबसूरत आदमी हो गया था जिसका बहुत ही सक्सेस्फ़ुल स्टार्ट-अप था। उसकी गिनती देश के कुछ बहुत ही चार्मिंग स्पीकर्ज़ में भी होती थी। जिस इवेंट में जाता, लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते। लेकिन। इस सफ़र में उसके साथ तन्हाई ही थी बस। स्टार्ट अप के बहुत ही तनावपूर्ण दिनों में उसकी पत्नी ने उसे तलाक़ दे दिया था। उसके पास वाक़ई अपने घर को देने के लिए वक़्त नहीं था। वो हफ़्तों घर नहीं आता था। लेकिन पत्नी के जाने के बाद उसे महसूस हुआ था कि सब कुछ हासिल करने के बाद तन्हाई ज़्यादा दुखती है। बात को सात साल हो गए थे। इस बीच उसके कई अफ़ेयर हुए लेकिन ऐसी कोई नहीं मिली जिससे शादी की जा सके।

औरत इंडिगो ब्लू साड़ी में प्यारी लग रही थी, जिसे क्यूट कहा जा सके। आदमी ख़ुद को जींस टीशर्ट में थोड़ा अंडरड्रेस्ड फ़ील कर रहा था। ‘जानता कि तुम इतनी अच्छी लगोगी तो कुछ ढंग से तैय्यार होकर आता। तुम्हारे साथ बैठा बुरा तो नहीं लग रहा?’। औरत की हँसी गुनगुनी थी। उसके हाथों की तरह, ये उसने बाद में जाना था। हज़ार बातें थीं उनके बीच। किताबों की, शहरों की, अफ़ेयर्ज़ की… नीली साड़ी में बैठी औरत यह जान कर काफ़ी अचरज में थी कि इतना कुछ हासिल करने के बाद भी उसे ख़ाली ख़ाली सा लगता है। क्यूँकि औरत को कभी ख़ाली ख़ाली सा लगा ही नहीं। वो एक इवेंट मैनज्मेंट कम्पनी में काम करती थी और वीकेंड्ज़ में गर्ल्ज़ ओन्ली ट्रिप पर जाती थी। कोई सॉफ़्ट कॉर्नर अगर उसके पास बचा भी था तो सिर्फ़ किताबी किरदारों के हिस्से। वो मुराकामी के इस हीरो से बेइंतहा प्यार करती थी। उसने अपना पसंदीदा हिस्सा पढ़ाया और कहा, किताब पूरी पढ़ लेना, हम तब दोबारा मिलेंगे। ‘अगर तुम्हें किताब अच्छी लगी, मतलब मैं भी अच्छी लगूँगी’। बैग नीचे था और यहाँ बुक्मार्क के लिए कुछ मिल नहीं रहा था, ना वो हिस्सा अंडरलाइन कर सकती थी। तो उसने माथे से नीली बिंदी उतारी और वहीं पैराग्राफ़ के दायीं ओर चिपका दी। ऐसे में कहना थोड़ा मुश्किल था कि वो अच्छी अभी से लग रही है। किताब पढ़ने की ज़रूरत नहीं।

आक्स्फ़र्ड से निकल कर वे सीपी में घूमे थोड़ी देर और फिर डिनर के लिए चले गए। एक लम्बी इत्मीनान वाली शाम एक सुंदर रात में ढल गयी थी। डिनर के बाद वजह तो थी, पर कोई जगह नहीं बची थी जहाँ साथ वक़्त बिताया जा सके। वे आख़िरी कस्टमर थे। लगभग दो बजे रेस्ट्रॉंट वालों ने ऑल्मोस्ट धकिया के बाहर किया था उन्हें। चलते हुए उन्होंने हाथ मिलाया और उसका ध्यान गया, कितने गर्म थे उसके हाथ…दुनिया पर्फ़ेक्ट लगी थी उस छोटे से वक्फ़े में जब उसका हाथ पकड़ा था।

बची हुयी रात, थोड़ी सी और सुबह और ज़रा सी दोपहर मिला कर उसने नोर्वेजियन वुड पूरी ख़त्म कर दी थी। ख़त्म कर देर तक चुप बैठा रहा। कि ऐसी किताब क्यूँ पढ़ने को कहा उसने। कि किताब अच्छी लगी, लेकिन इसे पसंद करने वाली लड़की के भीतर कोई गहरी उदासी होगी ऐसा क्यूँ लगा। उसने पूछा भी नहीं कि उसे क्यूँ पसंद है ये किताब। वादे के मुताबिक़ अब वो उससे मिल सकता था। ये सोचते हुए उसे सोफ़े पर ही नींद आ गयी। सपने में गहरा कुआँ था और उसमें खो जाते लोग। चाँदनी ने थपड़िया के उसे आठ बजे के आसपास जगाया। अब इस वीकेंड तो क्या ही करेंगे। अगले वीकेंड का देखते हैं। वे रहते भी शहर के दो छोर पर थे। इक उम्र के बाद प्रेम में भी पहले जैसा उतावलापन नहीं रह जाता।

सपने अच्छे आए पूरी रात। वो किताब हाथ में लेकर सोया था। ऊँगली से बिंदी को टटोलते हुए। जैसे कि वो पास थी, कि इस बिंदु से कहानी शुरू होगी। नीले समंदर, बर्फ़ीले पहाड़। लड़का कई दिनों बाद सपने देख रहा था।

सुबह की कॉफ़ी बेहतरीन बनी थी। वो मुस्कुराते हुए सुबह का अख़बार लेकर आया। कवर पेज पर ही ख़तरनाक बस ऐक्सिडेंट की तस्वीर थी। उसका मूड ख़राब हो गया। मीडिया वाले कुछ भी छाप देते हैं, तमीज़ नहीं इनको। ख़बर के पहले ही मरनेवालों की लिस्ट थी। सबसे ऊपर उसी का नाम था। उसे घबराहट हुयी। इतना अलग नाम था उसका कि कोई और हो ही नहीं सकती थी। घबराते हुए हाथों से फ़ोन लगाया तो स्विच्ड ऑफ़। मोबाइल पर ख़बर देखी तो एक जगह मरने वालों की तस्वीर भी थी। उसने वही कपड़े पहन रखे थे, एकदम शांत चेहरा। माथे पर बिंदी नहीं। उसका ध्यान क्यूँ गया इस बात पर कि माथे पर बिंदी नहीं थी। उसका मन किया कि किताब से बिंदी निकाल के अख़बार पर चिपका दे। क्या करेगा इक नीली बिंदी का। कहाँ जगह बचती है दुनिया में कि जहाँ किसी के चले जाने के बाद उसकी बिंदी चिपका दी जाए। 

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