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24 May, 2020

खो गयी चीज़ें और उनके नाम

दिल के भीतर चाहे जैसे भी रंग भरे हों, दिल की आउट्लायन दुःख के सीले स्याह से ही बनायी गयी है। जाने कैसी उदासी है जो रिस रिस के आँख भर आती है। कुछ दिन पहले पापा से बात कर रही थी, उन चीज़ों के बारे में जिनका नाम सिर्फ़ उन्हें पता है जिनके बचपन में वो शामिल रही हों। कई सारे खिलौने। 

अभी जब सब कुछ ही प्लास्टिक का होता है और छूने में एक ही जैसा लगता है। तब के इस खिलौने में कितनी चीज़ों का इस्तेमाल था। सन की रस्सी। पतली चमकदार जूट जिसे हिंदी में सन कहते हैं… गाँव के रास्ते कई जगह देखती थी सन को धूप में सुखाया जा रहा होता था और फिर उसकी बट के रस्सी बनायी जाती थी। इसके लिए एक लोहे का खूँटा गाड़ा गया होता था जिसमें से लपेट कर सन को ख़ूब उमेठ उमेठ कर रस्सी बनायी जाती थी। कुएँ का पानी खींचने के लिए सन की ही रस्सी होती थी। कभी मजबूरी में नारियल वाली रस्सी का भी इस्तेमाल देखा है, पर उस रस्सी से हाथ छिल जाते थे। सन की रस्सी चिकनी होती थी, हाथ से सर्र करके फिसलती थी तो भी हाथ छिलते नहीं थे। 

एक खिलौने में मिट्टी का सिकोरा और पहिए होते थे। काग़ज़ होता था। बाँस होता था। सबका अलग अलग हिस्सा, अलग अलग तासीर…सब कुछ जल्दी टूट जाने वाला। रस्सी से खींची जाने वाली आवाज़ करने वाली एक गाड़ी होती थी। मिट्टी का एक छोटा सिकोरा, उसके ऊपर पतला काग़ज़ जूट की पतली रस्सी से बँधा होता था। इसके ऊपर दो छोटी छोटी तीलियाँ होती थीं। एक छोटा सा ढोल जैसा बन जाता था। इसके मिट्टी के दो छोटे छोटे गोल पहिए होते थे और बाँस की दो खपचियाँ लगी होती थीं, जैसे कि कोई छोटी सी छकड़ागाड़ी हो। इसके आगे धागा बँधा होता था। मेले में अक्सर मिलता था। कभी कभी टोकरी में लेकर खिलौने वाले इसे बेचने घर घर भी आते थे। इसकी रस्सी पकड़ कर चलने से दोनों तीलियाँ ढोल पर बजने लगती थीं। एक टक-टक-टक जैसी आवाज़। छोटे बच्चों को ये ख़ूब पसंद होता था। मिट्टी का होता था, बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलता, कभी काग़ज़ फट जाता तो भी खिलौना बेकार हो जाता था। मेरे बचपन की याद में इस खिलौने की टिक-टिक-टिक-टिक भी है।

इसी तरह हाथ में पकड़ कर गोल गोल घुमाने वाला एक खिलौना होता था। उसमें गहरे गुलाबी रंग की प्लास्टिक की पन्नी लगी होती थी। जिसे हम रानीकलर कहते थे। इसे हाथ में लेकर बजाते थे। वही दो तीलियाँ होती थीं, एक लोहे का महीन तार होता था और कड़-कड़-कड़ जैसी आवाज़ होती थी।

गाँव में एक बड़ी सी अलमारी थी। गोदरेज की। उसमें जाने क्या क्या रखा रहता था। कभी कभी तो दही और दूध की हांडियाँ भी। बिल्ली से बचने की इकलौती महफ़ूज़ जगह होती होगी, शायद। मेरा कच्चा मकान था वहाँ, दो तल्लों का। पहले फ़्लोर पर जाने को मिट्टी की सीढ़ियाँ थीं। हम उन सीढ़ियों पर कितनी बार फिसल कर गिरे, लेकिन कभी भी चोट नहीं आयी। मिट्टी का आँगन गोबर से लीपा जाता, उसपर भी फिसल कर कई बार, कई लोग गिरे थे। हमारे चारों तरफ़ मिट्टी ही मिट्टी होती। पेड़ों पर, घरों की बाउंड्री वाल एक आसपास, खेत, गोहाल, घर…हम जहाँ भी गिरते, वहाँ मिट्टी ही होती अक्सर। मिट्टी में कभी ज़्यादा चोट नहीं आती। छिले घुटने और एड़ियों पर मिट्टी रगड़ ली जाती या हद से हद गेंदे के पत्तों को मसल कर उनका रस लगा लिया जाता। गिरने पड़ने की शिकायत घर पर नहीं की जाती, दर्द से ज़्यादा डाँट का डर होता। 

धान रखने के लिए मिट्टी की बनी ऊँची सी कोठी होती थी जिसके तीन पाए होते थे, जिसमें कई बार एक टूटा होता था। वहाँ धान निकालने के लिए जो छेद होता था उसमें कपड़े ठूँसे रहते थे। ताखे पर रखा छोटा सा आइना होता था जिसमें देख कर अक्सर बच्चे माँग निकालना सीखते थे या नयी बहुएँ बिंदी ठीक माथे के बीच लगाना। मैंने कभी चाची या दादी को आइना देखते नहीं देखा। वे बिना आइना देखे ठीक सीधी बीच माँग निकाल लेतीं, सिंदूर टीक लेतीं, बिंदी लगा लेतीं। उन्हें अपना चेहरा देखने की कोई ऐसी हुलस नहीं होतीं। आँगन के एक कोने में तुलसी चौरा था, भंसा के पास। मैं छोटी थी तो मुझे लगता था इसके ताखे के अंदर किसी भगवान की मूर्ति होगी। मेरी हाइट से दिखता नहीं था कि अंदर क्या है। 

शाम होते चूल्हा लगा दिया जाता। पूरे गाँव में कहीं से गुज़रने पर धुएँ की गंध आने लगती। कहीं लकड़ी तो कहीं कोयले पर खाना बनता। बोरे में कोयला रखा रहता और उसे तोड़ने के लिए एक हथौड़ा भी। खाने की दो तरह की अनाउन्स्मेंट होती। पहला हरकारा जाता कि पीढ़ा लग गया है। इसमें लकड़ी का पीढ़ा और पानी का गिलास भर के रख दिया जाता था। इस हरकारे को सुन कर खाने वाले लोग कुआँ पर हाथ मुँह धोने चले जाते थे। फिर दूसरा हरकारा जाता था कि खाना लग गया है, मतलब कि थाली लग गयी है और उसमें एक रोटी रख दी गयी है। तब लोग पीढ़ा पर आ के बैठते थे और खाना खाते थे। चाची वहीं चुक्कु मुक्कु बैठी मिट्टी वाले चूल्हे में गर्म गर्म रोटी बनाती जाती और देती जाती। एक आध लेफ़्टिनेंट बच्चा रहता नमक या मिर्ची का डिमांड पूरा करने के लिए। चाची के माथे तक खिंचा साड़ी का घूँघट रहता, कोयले की लाल दहक में तपा हुआ चेहरा। रोटी की गंध हवा में तैरती रहती।

गाँव में अब पक्का मकान बन गया है। खाना भी गैस पर बनता है। चाची अब नीचे बैठ कर नहीं बना सकती तो एक चौकी पर गैस रखा है और वो कुर्सी या स्टूल पर बैठ कर खाना बनाती हैं। तुलसी चौरा पर हनुमान जी की ध्वजा तो अब भी लगती है लेकिन परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने के कारण अब रामनवमी का त्योहार हमारे यहाँ नहीं मनाया जाता। मैं गाँव का मेला देखना चाहती हूँ। इन अकेले दिनों में। किसी बचपन में लौट कर।

24 October, 2019

इतना काहे मुसकिया रही हो मोना लीसा?

मोना लीसा। दुनिया की सबसे प्रसिद्ध तस्वीर। इतिहास की किताब में यूरोप के रेनिसां के बारे में पढ़ते हुए कुछ तस्वीरों को देखा था। उस समय की उसकी मुस्कान में ऐसा कुछ ख़ास दिखा नहीं कि जिसके पीछे दुनिया पागल हो जाए। ख़ूबसूरती के पैमाने पर भी मोना लीसा कोई बहुत ज़्यादा ख़ूबसूरत नहीं थी। कमानीदार तो क्या, नॉर्मल भवें भी नहीं थी उसकी कि उस समय के फ़ैशन में भवें शेव कर लेना था। हमारी ख़ूबसूरती की परिभाषा से बिलकुल अलग मोना लीसा। हमारे लिए ख़ूबसूरती का पैमाना हमारी अपनी बणी-ठनी थी। क्या ही तीखी नाक, कमानिदार भवें, बड़ी बड़ी आँखें (साइड प्रोफ़ायल है, तो एक ही आँख दिख रही है), मेहंदी रचे हाथ, चूड़ियाँ, ऋंगार…माथे पर से घूँघट। ओह, कितनी ही सुंदर।

बाद के साल में भी कभी ना कभी न्यूज़ में मोना लीसा दिखती ही रही। किताब आयी, दा विंची कोड, इसने फिर से मोना लीसा को ख़बर में ला खड़ा किया। कितनी सारी थ्योरी भी पढ़ी, जिसमें एक ये भी थी कि मोना लीसा असल में लीयनार्डो का सेल्फ़ पोर्ट्रेट है। तब तक कुछ ऐसे लोगों से भी मिलना हो रखा था जिन्होंने मोना लीसा की पेंटिंग को प्रत्यक्ष देखा था। उन्होंने बताया कि पेंटिंग का आकार छोटा सा है और पेरिस के लूव्रे म्यूज़ीयम में सबसे ज़्यादा भीड़ उसी कमरे में होती है। उतने सारे लोगों के बीच, भीड़ में धक्का मुक्की करते हुए, कोई पाँच फ़ीट की दूरी से काँच की दीवार के पीछे लगे मोना लीसा के चित्र में कोई जादू, या कि मुस्कान में कोई रहस्य नहीं नज़र आता है। वे काफ़ी निराश हुए थे उसे देख कर।

मैं पिछले साल लूव्रे म्यूज़ीयम गयी थी। वाक़ई मोना लीसा की पेंटिंग आकार में छोटी थी और कमरे में कई कई लोग थे। अधिकतर लोग मोना लीसा को देखने से ज़्यादा अपनी सेल्फ़ी लेने में बिजी थे। मैं भी भीड़ में शामिल हुयी और लोगों के हटते हटते इंतज़ार किया कि सबसे आगे जा के देख सकूँ। वहाँ से मुझे तस्वीर लेने की नहीं, वाक़ई मोना लीसा को देखने की उत्कंठा थी। उसे सामने देखना वाक़ई जादू है। उसकी आँखें बहुत जीवंत हैं और मुस्कान वाक़ई सम्मोहित करने वाली। उसे देख कर हम वाक़ई जानना चाहते हैं कि आख़िर क्यूँ मुस्कुरा रही है वो ऐसे कि इतने सौ साल में भी उसकी मुस्कान का रंग फीका नहीं पड़ा। वो कैसी ख़ुशी है।

मोना लीसा के बारे में थ्योरी ये है कि जब ये पेंटिंग बनायी गयी, मोना लीसा गर्भवती थी। उसकी सूजी हुयी उँगलियों से ये अंदाज़ा लगाया जाता है, इससे भी कि उसने हाथ में अपने विवाह की अँगूठी नहीं पहनी हुयी है। कुछ तथ्यों के मुताबिक़ ये सही अनुमान है। उसकी मुस्कान के इतने शेड्स इसलिए हैं कि वो अपने अजन्मे बच्चे के बारे में सोच रही है। कई सारी बातें। उसके भविष्य के सपने देख रही है। अपने प्रसव को लेकर चिंतित है। शायद कुछ शारीरिक कष्ट में भी हो। मन में ही ईश्वर से प्रार्थना कर रही है कि सब कुछ अच्छा हो। कई सारी बातों को सोचती हुयी मोना लीसा मुस्कुरा रही है। उसके चेहरे पर दो लोगों - दो आत्माओं के होने की मुस्कान भी है, मोना लीसा और उसके अजन्मे बच्चे की। लीयनार्डो ने इन सारी बातों में खिलती हुयी मुस्कान को उसी रहस्य के साथ अजर - अमर कर दिया है।

मोना लीसा को देख कर मैं भूल नहीं पायी। मैं उतनी देर पेंटिंग के सामने खड़ी रही, जितनी देर के बाद बाक़ी लोगों को दिक्कत होने लगती। वहाँ से जाने का मन नहीं कर रहा था। उस पेंटिंग की अपनी आत्मा थी। अपना जादू, अपना तिलिस्म जो बाँध लेता था। लेकिन जैसे कि कोई आपसे बात करना चाह रहा हो और आप अपने में ही खोए या व्यस्त हों तो आप पर उसकी बात का क्या असर होगा…फिर वो व्यक्ति भी तो आपसे बात करने में इंट्रेस्टेड नहीं होगा। मोना लीसा के रहस्य को सुनने के लिए नोट्बुक का ख़ाली पन्ना खुला रखना होता है। वो कहती है कई कहानियाँ। खुली खिड़की के पीछे नज़र आते शहर की, अपनी ख़ूबसूरती की, अपने होने वाले बच्चे के सोचे हुए नाम भी बता देगी आपको … हो सकता है पूछ भी ले, कि कोई नाम तुम भी बताते जाओ मुसाफ़िर।

उस हॉल में अजीब उदासी फ़ील होती है। जैसे मोना लीसा तन्हा हो। इस भीड़ में सब उसे देखते हैं, अपने अपने पैमाने पर नापते हैं कि कितनी सुंदर है, कैसी मुस्कान है…कुछ लोगों को विजयी भी फ़ील होता है कि मोना लीसा की स्माइल उन्हें अफ़ेक्ट नहीं कर पायी। मुझे ऐसे लोगों पर तरस आता है। ये वही लोग हैं जो अपनी ज़िंदगी में मौजूदा प्यार को या कि ख़ूबसूरती को देख नहीं पाते। जिन्हें शाम देखे ज़माने गुज़र गए हैं। जो गुनगुनाना भूल गए हैं। मोना लीसा हमें याद दिलाती है कि ख़ूबसूरती ज़िंदगी का कितना ज़रूरी हिस्सा है। समझ नहीं आने के बावजूद। जैसे गार्डेंज़ में लगे हुए ट्युलिप… उनकी ख़ूबसूरती और रंग देख कर हम सवाल थोड़े करते हैं कि इसका क्या मतलब है। बस रंग के उस रक़्स में खड़े सोचते हैं, दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है। अपने दिल में थोड़े रंग भर लेते हैं। थोड़ी ख़ुशी। कि कई कई साल बाद भी पेंटिंग के रंग जस के तस रहेंगे। उस मुस्कान का जादू भी।

कि सबकी ज़िंदगी में कोई ऐसी मोना लीसा हो। जो किसी शाम आपको देख कर मुस्कुराए तो आप भारी कन्फ़्यूज़ हुए जाएँ कि अब मैंने क्या ग़लती कर दी। और अगर आप शादी शुदा हैं और आपकी बीवी आपको देख कर ऐसे रहस्यमयी मुस्कान मुस्कुरा रही है तो समझ जाएँ, कि इन दिनों इसका एक ही मतलब है। चुपचाप झाड़ू या कि डस्टर उठाएँ और साफ़ सफ़ाई करने चल दें। दुनिया की सारी ख़ुशी एक साफ़ सुथरे घर में बसती है। या कि अगर आप लतख़ोर क़िस्म के इंसान हैं और मम्मी दो हफ़्ते से धमका रही है तो अब दिवाली बस आ ही गयी है, अब भी रूम साफ़ नहीं करने पर कुटाई होने का घनघोर चांस है। मोना लीसा आपको हरगिज़ नहीं बचा पाएगी। और जो कहीं अगर आप दीदी के साथ रूम शेयर करते हैं तब तो सोच लीजिए, दीदी ग़ुस्सा हुयी तो साल भर की सारी सीक्रेट्स की पोल-पट्टी खोल देगी। भले आदमी बनिए। मौसम सफ़ाई का है, सफ़ाई कीजिए। पढ़ना लिखना और कम्प्यूटर के सामने बैठ कर किटिर-पिटिर तो साल भर चलता ही रहता है।

PS: वैसे एक ज़रूरी बात बता दें। एक फ़्रेंच एंजिनियर ने बहुत रिसर्च करके पता लगाया कि पहले पेंटिंग में भवें थीं। लेकिन ज़्यादा साफ़ सफ़ाई के कारण वे मिट गयीं। फ़ालतू का ट्रिविया ऐसे ही। जाइए जाइए। इसके पहले कि मम्मी या कि बीवी या कि बहन की भवें तनें, सफ़ाई में जुटिए। 

19 November, 2018

रोज़नामचा - नवम्बर की किसी शाम


हम कहाँ कहाँ छूटे रह जाते हैं। इंटर्नेट पर लिखे अपने पुराने शब्द पहचानना मुश्किल होता है मेरे लिए। ऐसे ही कोई जब कहता है कि उनको मेरी किताब का कोई एक हिस्सा बहुत पसंद है। का किसी कहानी की कोई एक पंक्ति, तो मुझे कई बार याद नहीं रहता कि ये मैंने लिखा था। 

8tracks एक ऑनलाइन रेडिओ है जिसका इस्तेमाल मैं लिखने के दर्मयान करती थी। ख़ास तौर से अपने पुराने ऑफ़िस में स्क्रिप्ट लिखते हुए या ऐसा ही कुछ करने के समय जब शोर चाहिए होता था और ख़ामोशी भी। कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जिनसे हमें किसने मिलवाया हमें याद नहीं रहता। किसी शाम के रंग याद रहते हैं बस। बोस के noise कैन्सेलेशन हेड्फ़ोंज़ वाले चुप्पे लम्हे। 8tracks के मेरे पसंदीदा मिक्स पर कमेंट लिखा था मैंने। अब मैं वैसी बातें करती ही नहीं। पता नहीं कब, क्या महसूस किया था जो वहाँ लिखा भी था। “My soul was searching for these sounds...somewhere in vacuum. Thank you. Your name added to the playlist's name makes a complete phrase for my emotional state now...'How it feels to be broken my mausoleums'. Redemptions come in many sounds. Solace sometimes finds its way to you. And darkness is comforting. Thank you. So much.”

आज बहुत दिन क्या साल बाद लगभग ऑफ़िस का कुछ काम करने आयी। मैं काम के मामले में अजीब क़िस्म की सिस्टेमैटिक हूँ। मुझे सारी चीज़ें अपने हिसाब से चाहिए, कोई एक चीज़ इधर से उधर हुयी तो मैं काम नहीं कर सकती। चाय मेरे पसंद की होनी चाहिए, ग्रीन टी पियूँगी तो ऐसा नहीं है कि कोई भी पी लूँ… ‘ginger mint and lemon’ फ़्लेवर चाहिए होता है। कॉफ़ी के मामले में तो केस एकदम ही गड़बड़ है अब। starbucks के सिवा कोई कॉफ़ी अच्छी नहीं लगती है। लेकिन उस कॉफ़ी के साथ लिखना मतलब कोई क़िस्सा कहानी लिखना, टेक्नॉलजी नहीं। 

फिर मैं जाने क्या लिखना चाहती हूँ। जो चीज़ें मुझे सबसे ज़्यादा अफ़ेक्ट करती हैं इन दिनों, मैं उसके बारे में लिखने की हिम्मत करने की कोशिश कर रही हूँ। सब उतना आसान नहीं है जितना कि दिखता है। जैसे कि पहले भी मुझे डिप्रेशन होता था ऐंज़ाइयटी होती थी लेकिन हालत इतनी बुरी नहीं थी। इन दिनों ज़रा सी बात पर रीऐक्शन कुछ भी हो सकता है। ख़ास तौर से कलाइयाँ काटने की तो इतनी भीषण इच्छा होती है कि डर लगता है। मैं जान कर घर में तेज धार के चाक़ू, पेपर कटर या कि ब्लेड नहीं रखती हूँ। इसके अलावा सड़क पर गाड़ी ठोक देने के ख़याल आते हैं, किसी बिल्डिंग से कूद जाने के या कि कई बार डूब जाने के ख़याल भी आते हैं। मुझे डाक्टर्ज़ और दवाइयों पर भरोसा नहीं होता। आश्चर्यजनक रूप से, मुझ पर कई दवाइयाँ काम नहीं करती हैं। ये कैसे होता है मुझे नहीं मालूम। पहले ऐसा बहुत ही ज़्यादा दुःख या अवसाद के दिन होता था। आजकल बहुत ज़्यादा फ़्रीक्वंट्ली हो रहा है। 

इन चीज़ों का एक ही उपाय होता है। किसी चीज़ में डूब जाना। तो काम में डूबने के लिए सब तैय्यारी हो गयी है। टेक्नॉलजी मुझे पहले से भी बहुत ज़्यादा पसंद है, सो उसके बारे में पढ़ रही हूँ। एक बार सारी इन्फ़र्मेशन समझ में आने लगेगी तो फिर लिखने भी लगूँगी। आर्टिफ़िशल इंटेलिजेन्स, मशीन लर्निंग, एंटर्प्रायज़ ऑटमेशन…सब ऐसी चीज़ें हैं जिनके बारे में में मुझे एकदम से शुरुआत से पढ़ाई करनी है। फिर, आजकल अच्छी बात ये है कि हिंदी अख़बार शुरू किया है। सुबह सुबह हिंदी में पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ऐसे भी शब्द अब रोज़ाना मिलने लगे हैं जिनसे मिले अरसा हो जाता था। जैसे कि प्रक्षेपण। इंदिरानगर में रहते हुए दस साल से हिंदी अख़बार पढ़ा नहीं, कि उधर आता ही नहीं था। इस घर में राजस्थान पत्रिका मिल जाती है। यूँ मुझे हिंदुस्तान पढ़ना पसंद था, लेकिन ठीक है। पत्रिका का स्टैंडर्ड ठीक-ठाक है। कुछ आर्टिकल्ज़ अच्छे लगते हैं। हिंदुस्तान पढ़े कितना वक़्त बीत गया। देवघर में ससुराल में भी प्रभात ख़बर आता है, वो तो इतना बुरा है कि पढ़ना नामुमकिन है। 

आज पूरा दिन बहुत थका देने वाला रहा। ऑफ़िस में दूसरे हाफ में तो नींद भी आ रही थी बहुत तेज़। कल से सोच रही हूँ अपना फ़्रेंच प्रेस कॉफ़ी मेकर और कॉफ़ी पाउडर ले कर ही आऊँ ऑफ़िस। काम करने में अच्छा रहेगा। फिर कभी कभी सोचती हूँ कॉफ़ी मेरी हेल्थ के लिए सही नहीं है, तो पीना बंद कर दूँ। 

इंग्लिश विंग्लिश बहुत सुंदर फ़िल्म है। और सबसे सुंदर उसका आख़िर वाला स्पीच है। श्रीदेवी ने कितनी ख़ूबसूरती से स्पीच दी है। मैं अक्सर उस स्पीच के बारे में सोचती हूँ। ख़ुद की मदद करना ज़रूरी होता है ज़िंदगी के कुछ पड़ावों पर। कि आख़िर में, सारी लड़ाइयाँ हमारी पर्सनल होती हैं। चाहे वो हमारे सपनों को हासिल करने की लड़ाई हो या कि अपने भीतर रहते दैत्यों से रोज़ लड़ते हुए ख़ुद को पागल हो जाने से बचा लिए जाने की। जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है, ज़िंदगी के कई स्याह पहचान में आ रहे हैं। ऐसा क्यूँ है कि अवसाद का रंग और गाढ़ा ही होता जाता है? 

मैं अपने शहर बनाना चाहती हूँ लेकिन विदा के शहर नहीं। बसे-बसाए शहर कि जिनमें भाग के जाने को नहीं, घूमने जाने को जी चाहे। ख़ूबसूरत शहर। बाग़ बगीचों वाले। कई रंग के गुलाब, गुलदाउदी, पीले अमलतास, सुर्ख़ गुलमोहर और पलाश वाले। कहते हैं कि हमें जीने के लिए कुछ चीज़ों से जुड़े रहने की ज़रूरत होती है। चाहे वो कोई छोटी सी चीज़ ही हो। बार बार याद आने वाली बातों में मुझे ये भी हमेशा याद आता है कि रामकृष्ण परमहंस को लूचि (अलग अलग कहानियों में अलग अलग खाद्य पदार्थों का ज़िक्र आता है। कहीं गुलाबजामुन और जलेबी का भी) से बहुत लगाव था और उन्होंने एक शिष्य को कहा था कि दुनिया में अगर हर चीज़ से लगाव टूट जाएगा तो वे शरीर धारण नहीं कर पाएँगे। मोह जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा है। बस, कुछ भी अधिक नहीं होना चाहिए। अति सर्वत्र वर्जयेत और त्यक्तेन भुंजीथा भी पढ़ा है हमने। पढ़ने से इन बोधकथाओं का कोई हिस्सा अवचेतन में अंकित हो जाता है और हमें बहुत ज़्यादा अवसाद के क्षण में बचा लेता है। बीरबल की उस कहानी की तरह जहाँ बर्फ़ीले ठंडे पानी में खड़े व्यक्ति ने दूर दिए की लौ को देख कर उसकी गर्माहट की कल्पना की और रात भर पानी में खड़ा रहा। 

कभी कभी किसी और को अपनी जिंदगी के बारे में बताती हूँ तो अक्सर लगता है कि life has been extremely kind to me. शायद इसलिए भी, छोटी छोटी चीज़ों में थोड़ी सी ख़ुशी तलाश के रख सकती हूँ। ख़ुद को बिखरे हुए इधर उधर पा के अच्छा लगता है। मैं रहूँ, ना रहूँ…मेरे शब्द रहेंगे। 

24 January, 2018

क़िस्सों का एक कमरा

मैंने अपने जीवन में बहुत कम घर बदले हैं। देवघर के अपने घर में ग्यारह साल रही। पटना के घर में छह। और बैंगलोर के इस घर में दस साल हुए हैं। मुझे घर बदलने की आदत नहीं है। मुझे घर बदलना अच्छा नहीं लगता। मैं कुछ उन लोगों में से हूँ जिन्हें कुछ चीज़ें स्थायी चाहिए होती हैं। घर उनमें से एक है। देवघर में मेरा घर हमारा अपना था। पहले एक मंज़िल का, फिर दूसरी मंज़िल बनी। मेरे लिए बचपन अपने ख़ुद के घर में बीता। वहाँ की ख़ाली ज़मीन के पेड़ों से रिश्ता बनाते हुए। नीम का पेड़, शीशम के पेड़। मालती का पौधा, कामिनी का पौधा। रजनीगंधा की क्यारियाँ। कुएँ के पास की जगह में लगा हुआ पुदीना। वहीं साल में उग आता तरबूज़।

बैंगलोर में इस घर में जब आयी तो हमारे पास दो सूटकेस थे, एक में कपड़े और एक में किताबें। ये एक नोर्मल सा २bhk अपर्टमेंट है। पिछले कुछ सालों में इसके एक कमरे को मैंने स्टडी बना दिया है। यहाँ पर एक बड़ी सी टेबल है जिसपर वो किताबें हैं जो मैं इन दिनों पढ़ रही हूँ। इसके अलावा इस टेबल पर दुनिया भर से इकट्ठा की हुयी चीज़ें हैं। शिकागो से लाया हुआ जेली फ़िश वाला गुलाबी पेपरवेट। डैलस से ख़रीदी हुयी रेतघड़ी और एक दिल के आकार का चिकना, गुलाबी पत्थर। न्यू यॉर्क से लाया हुआ स्नोग्लोब। एक दोस्त का दिया हुआ छोटा सा विंडमिल। दिल्ली से लाए दो पोस्टर जिनमें लड़कियाँ पियानो और वाइयलिन बजा रही हैं। पुदुच्चेरी से लायी नटराज की एक छोटी सी धातु की मूर्ति। एक टेबल लैम्प, दो म्यूज़िक बॉक्स। कुछ इंक की बोतलें। स्टैम्प्स। पोस्ट्कार्ड्ज़। बोस का ब्लूटूथ स्पीकर। अक्सर सफ़ेद और पीले फूल...और बहुत सा...वग़ैरह वग़ैरह।

इस टेबल के बायें ओर खिड़की है जो पूरब में खुलती है। आसपास कोई ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए सुबह की धूप हमारी अपनी होती है। सूरज की दिशा के अनुसार धूप कभी टेबल तो कभी नीचे बिछे गद्दे पर गिरती रहती है। खिड़की से बाहर गली और गली के अंत में मुख्य सड़क दिखती है। बग़ल में एक मंदिर है। मंदिर से लगा हुआ कुंड। खिड़की पर मनीप्लांट है और ऊपर एक पौंडीचेरी से लायी हुयी विंडचाइम।

मैं सुबह से दोपहर तक यही रहती हूँ अधिकतर। लिखने और पढ़ने के लिए। दीवारों पर नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव के पोस्टर्ज़ हैं। एक बिल्ली का पोस्टर जो चुम्बक से लायी हूँ। एक बुलेटिन बोर्ड में दुनिया भर की चीज़ें हैं। न्यूयॉर्क का मैप। 'तीन रोज़ इश्क़' के विमोचन में पहना हुआ झुमका, जिसका दूसरा कहीं गिर गया। एक ब्रेसलेट जो ऑफ़िस से रिज़ाइन करने के बाद मेरे टीममेट्स ने मुझे दिया था, कुछ पोस्ट्कार्ड्ज़। कॉलेज की कुछ ख़ूबसूरत तस्वीरें। ज़मीन पर बिछा सिंगल गद्दा है जिसपर रंगबिरंगे कुशन हैं। एक फूलों वाली चादर है। ओढ़ने के लिए एक सफ़ेद में हल्के लाल फूलों वाली हल्की गरम चादर है। बैंगलोर में मौसम अक्सर हल्की ठंढ का होता है, तो चादर पैरों पर हमेशा ही रहती है। हारमोनियम और कमरे के  कोने में एक लम्बा सा पीली रोशनी वाला लैम्प है।

ये घर अब छोटा पड़ रहा है तो अब दूसरी जगह जाना होगा। मैं इस कमरे में दुनिया में सबसे ज़्यादा comfortable होती हूँ। ये कमरा पनाह है मेरी। मेरी अपनी जगह। मैं आज दोपहर इस कमरे में बैठी हूँ कि जिसे मैं प्यार से 'क़िस्साघर' कहती हूँ। किसी घर में दोनों समय धूप आए। साल के बारहों महीने हवा आए। बैंगलोर जैसे मेट्रो में मिलना मुश्किल है। फिर ऐसा कमरा कि धूप बायीं ओर से आए कि लिखने में आसान हो। एकदम ही मुश्किल। और फिर सब मिल भी जाएगा तो ऐसा तो नहीं होगा ना।

मुझे इस शहर में सिर्फ़ अपना ये कमरा अच्छा लगता है। जो दोस्त कहते हैं कि बैंगलोर आएँगे, उनको भी कहती हूँ। मेरे शहर में मेरी स्टडी के सिवा देखने को कुछ नहीं है। मगर वे दोस्त बैंगलोर आए नहीं कभी। अब आएँगे भी तो मेरे पढ़ने के कमरे में नहीं आएँगे। मैं आख़िरी कुछ दिन में उदास हूँ थोड़ी। सोच रही हूँ, एक अच्छा सा विडीओ बना लूँ कमसे कम। कि याद रहे।

हज़ारों ख़्वाहिशों में एक ये भी है। कभी किसी के साथ यहीं बैठ कर कुछ किताबों पर बतियाते। चाय पीते। दिखाते उसे कि ये अजायबघर बना रखा है। तुम्हें कैसा लगा।

एक दोस्त को एक बार विडीओ पर दिखा रही थी। कि देखो ये मेरी स्टडी ये खिड़की...जो भी... उसने कहा, आपका कमरा मेरे कमरे से ज़्यादा सुंदर है, तो पहली बार ध्यान गया कि इस कमरे को बनते बनते दस साल लगे हैं। कि इस कमरे ने एक उलझी हुयी लड़की को एक उलझी हुयी लेखिका बनाया है।

साल की पहली पोस्ट, इसी कमरे के नाम। और इस कमरे के नाम, बहुत सा प्यार।

और अभी यहाँ सोच रही हूँ...तुम आते तो...

09 November, 2017

तुम तोड़ोगे, पूजा के लिए फूल?

उसके बाल बहुत ख़ूबसूरत थे। हमेशा से। माँ से आए थे वैसे ख़ूबसूरत बाल। भर बचपन और दसवीं तक हमेशा माँ उसके बाल एकदम से छोटे छोटे काट के रखती। कानों तक। फिर जब वो बारहवीं तक आयी तो उसने ख़ुद से छोटी गूँथना सीखा और माँ से कहा कि अब वो अपने बालों का ख़याल ख़ुद से रख लेगी इसलिए अब बाल कटवाए ना जाएँ।  उन दिनों बालों में लगाने को ज़्यादा चीज़ें नहीं मिलती थीं। उसपर उतने घने बालों में कोई रबर बैंड, कोई क्लचर लगता ही नहीं था। वो कॉलेज के फ़ाइनल ईयर तक दो चोटी गूँथ के भली लड़कियों की तरह कॉलेज जाती रही। पटना का मौसम वैसे भी खुले बाल चलने वाला कभी नहीं था, ना पटना का माहौल कि जिसमें कोई ख़ूबसूरत लड़की सड़क पर बाल खोल के घूम सके। सिर्फ़ बृहस्पतवार का दिन होता था कि उसके बाल खुले रहते थे कि वो हफ़्ते में दो दिन बाल धोती थी तो एक तो इतवार ही रहता था। दिल्ली में एक ऐड्वर्टायज़िंग एजेन्सी में ट्रेनिंग के लिए join किया तो जूड़ा बनाना सीखा कि दो चोटियाँ लड़कियों जैसा लुक देती थीं, प्रोफ़ेशनल नहीं लगती उसमें। जूड़ा थोड़ा फ़ोर्मल लगता है। उन दिनों उसके बाल कमर तक लम्बे थे।

दिल्ली में ही IIMC में जब सिलेक्शन हुआ तो अगस्त के महीने में क्लास शुरू हुयी। ये दिल्ली का सबसे सुहाना सा मौसम हुआ करता था। लड़की उन दिनों कभी कभी बाल खोल के घूमा करती थी, ऐसा उसे याद है। ख़ास तौर से PSR पर। वहाँ जाने का मतलब ही होता था बाल खोलना। बहती हवा बालों में कितनी अच्छी लगती है, ये हर बार वो वहाँ जा के महसूसती थी। दिल्ली में नौकरी करते हुए, बसों में आते जाते हुए फिर तो बाल हमेशा जूड़े में ही बंधे रहते। असुरक्षित दिल्ली में उसके बालों की म्यान में तलवार जैसी छुपी हुआ करती थी कड़े प्लास्टिक या मेटल की तीखी नोक वाली पिन। फिर दिल्ली का मौसम। कभी बहुत ठंध कि जिसमें बिना टोपी मफ़लर के जान चली जाए तो कभी इतनी गरमी कि बाल कटवा देने को ही दिल चाहे। मगर फिर भी। कभी कभी जाड़े के दिनों में वो बाल खुले रखती थी। ऐसा उसे याद है।
बैंगलोर का मौसम भी सालों भर अच्छा रहता है और यहाँ के लोग भी बहुत बेहतर हैं नोर्थ इंडिया से। तो यहाँ वो कई बार बाल खोल के घूमा करती। अपनी flyte चलते हुए तो हमेशा ही बाल खोल के चलाती। उसे बालों से गुज़रती हवा बहुत बहुत अच्छी लगती। वो धीरे धीरे अपने खुले बालों के साथ कम्फ़्टर्बल होने लगी थी। यूँ यहाँ के पानी ने बहुत ख़ूबसूरती बहा दी लेकिन फिर भी उसके बाल ख़ूबसूरत हुआ करते थे। 

इस बीच एक चीज़ और हुयी कि लोगों ने उसके बालों से आती ख़ुशबू पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था। उसके बाल धोने का रूटीन अब ऐसा था कि बुधवार को बाल धोती थी कि शादीशुदा औरतों का गुरुवार को बाल धोना मना है। होता कुछ यूँ था कि ऑफ़िस में उसकी सीट पर जाने के रास्ते में कूलर पड़ता था...सुबह सुबह जैसा कि होता है, बाल धो कर ऑफ़िस भागती थी तो बाल हल्के गीले ही रहते थे...उसे कानों के पीछे और गर्दन पर पर्फ़्यूम लगाना पसंद था। तेज़ी से भागती थी ऑफ़िस तो सीढ़ियों के पास बैठी लड़की बोलती थी, ज़रा इधर आओ तो...गले लगती थी और कहती थी...तुम्हारे बालों से ग़ज़ब की ख़ुशबू आती है...अपने फ़्लोर पर पहुँचती थी तो एंट्री पोईंट से उसकी सीट के रास्ते में कूलर था...कूलर से हवा का झोंका जो उठता था, उसके बालों की ख़ुशबू में भीग कर बौराता था और कमरे में घूम घूम जाता था। सब पूछते थे उससे। कौन सा शैंपू, कौन सा कंडीशनर, कि लड़की, ग़ज़ब अच्छी ख़ुशबू आती है तुम्हारे बालों से। लड़की कहती थी, मेरी ख़ुशबू है...इसका पर्फ़्यूम या शैम्पू से कोई सम्बंध नहीं है। 

लड़की को अपने बाल बहुत पसंद थे। उनका खुला होना भी उतना ही जितना कि चोटी में गुंथा होना या कि जूड़े में बंधा होना। बिना बालों में उँगलियाँ फिराए वो लिख नहीं सकती थी। इन दिनों अपने अटके हुए उपन्यास पर काम कर रही थी तो रोज़ रात को स्टारबक्स जाना और एक बजे, उसके बंद हो जाने तक वहीं लिखना जारी था। इन दिनों साड़ी पहनने का भी शौक़ था। कि बहुत सी साड़ियाँ थीं उसके पास, जो कि कब से बस फ़ोल्ड कर के रखी हुयी थीं। ऐसे ही किसी दिन उसने हल्के जामुनी रंग की साड़ी पहनी थी तो बालों में फूल लगाने का मन किया। घर के बाहर गमले में बोगनविला खिली हुयी थी। उसने बोगनविला के कुछ फूल तोड़े और अपने जूड़े में लगा लिए। ये भी लगा कि ये किसी गँवार जैसे लगेंगे...सन्थाल जैसे। कोई जंगल की बेटी हो जैसे। ज़िद्दी। बुद्धू। लेकिन फूल तो फूल होते हैं, उनकी ख़ूबसूरती पर शहराती होने का दबाव थोड़े होता है। वो वैसे भी अपने मन का ही करती आयी थी हमेशा। 

बस इतना सा हुआ और ख़यालों ने पूरा लाव लश्कर लेकर धावा बोल दिया...

***

तुम्हें कोई वैसे प्यार नहीं कर सकेगा जैसे तुम ख़ुद से करती हो। Muse तुम्हारे अंदर ही है, बस उसके नाम बदलते रहते हैं। उसकी आँखों का रंग। उसकी हँसी की ख़ुशबू। उसकी बाँहों का कसाव। तुम भी तो बदलती रहती हो वक़्त के साथ। 

कितनी बार, कितने फूलों के बाग़ से गुज़री हो...जंगलों से भी। कितनी बार प्रेम में हुयी हो। चली हो उसके साथ कितने रास्ते। कितने प्रेमी बदले तुमने इस जीवन में? बहुत बहुत बहुत।

लेकिन ऐसा कभी क्यूँ नहीं हुआ कि किसी ने कभी राह चलते तोड़ लिया हो फूल कोई और यूँ ही तुम्हारे जूड़े में खोंस दिया हो? बोगनविला के कितने रंग थे कॉलेज की उन सड़कों पर जहाँ चाँद और वो लड़का, दोनों तुम्हारे साथ चला करते थे। पीले, सफ़ेद, सुर्ख़ गुलाबी, लाल...या कि वे फूल जिनके नाम नहीं होते थे। या कि गमले में खिला गुलाब कोई। कभी क्यूँ नहीं दिल किया उसका कि बोगनविला के चार फूल तोड़ ले और हँसते हुए लगा दे तुम्हारे बालों में। 

कितनी बार कितनों ने कहा, तुम्हारे बाल कितने सुंदर हैं। उनसे कैसी तो ख़ुशबू आती है। कि टहलते हुए कभी खुल जाता था जूड़ा, कभी टूट जाता था क्लचर, कभी भूल जाती थी कमरे पर जूड़ा पिन। खुले बाल लहराते थे कमर के इर्द गिर्द। 

कि क्या हो गया है लड़कों को? वे क्यूँ नहीं ला कर देते फूल, कि लो अपने जूड़े में लगा लो इसे...कितना तो सुंदर लगता है चेहरे की साइड से झाँकता गुलाब, गहरा लाल। कि कभी किसी ने क्यूँ नहीं समझा इतना अधिकार कि बालों में लगा सके कोई फूल? कि ज़िंदगी की ये ख़ूबसूरती कहाँ गुम हो गयी? ये ख़ुशबू। हाथों की ये छुअन। यूँ महकी महकी फिरना?

बहुत अलंकार समझ आता है उसको। मगर फूल समझ में आते हैं? या कि लड़की ही। हँसते हुए पूछो ना उससे, यमक अलंकार है इस सवाल में, 'तुम तोड़ोगे पूजा के लिए फूल?'

शाम में पहनना वाइन रंग की सिल्क साड़ी और गमले में खिलखिलाते बोगनविला के फूल तोड़ लेना। लगा लेना जूड़े में। कि तुम ही जानती हो, कैसे करना है प्यार तुमसे। ख़ुश हो जाओगी किस बात से तुम। और कितना भी बेवक़ूफ़ी भरा लगे किसी को शायद जूड़े में बोगनविला लगाना। तुम्हारा मन किया तो लगाओगी ही तुम। 

फिर रख देना इन फूलों को उसकी पसंद की किताब के पन्नों के बीच और बहुत साल बाद कभी मिलो अगर उससे तो दे देना उसको, सूखे हुए बेरंग फूल। कि ये रहे वे फूल जो कई साल पहले तुम्हें मेरे बालों में लगाने थे। लेकिन उन दिनों तुम थे नहीं पास में, इसलिए मैंने ख़ुद ही लगा लिए थे। अब शुक्रिया कहो मेरा और चलो, मुझे फूल दिला दो...मैं ले चलती हूँ ड्राइव पर तुम्हें। ट्रेक करते हुए चलते हैं जंगल में कहीं। खिले होंगे पलाश...अमलतास...गुलमोहर...बोगनविला...जंगली गुलाब...कुछ भी तो।

ख़्वाहिश बस इतनी सी है कि तुम अपने हाथों से कोई फूल लगा दो मेरे बालों में...कभी। अब कहो तुम ही, इसको क्या प्यार कहते हैं?

***

तुम उसे समझना चाहते हो? समझने के पहले देखो उसे। मतलब वैसे नहीं जैसे बाक़ी देखते हैं। उसकी हँसती आँखों और उसकी कहानियों के किरदारों के थ्रू। उसे देखो जब कोई ना देखता हो।

उसके घर के आगे दो गमले हैं। जिनमें बोगनविला के तीन पौधे हैं। वो उनमें से एक पौधे को ज़्यादा प्यार करती है। सबसे ज़्यादा हँसते हुए फूल इसी पौधे पर आते हैं। ख़ुशनुमा। इस पौधे के फूलों के नाम बोसे होते हैं। गीत होते हैं। दुलार भरी छुअन होती है। इस पेड़ के काँटे उसे कभी खरोंचते भी नहीं।

दोनों बेतरतीब बढ़े हुए पौधे हैं। जंगली। घर घुसने के पहले लगता है किसी जंगल में जा रहे हों। लड़की सुबह उठी। सीने में दुःख था। प्यास थी कोई। कई दिनों से कोई ख़त नहीं आया। दुनिया के सारे लोग व्यस्त हैं बहुत।

सुख के झूले की पींग बहुत ऊँची गयी थी, आसमान तक। लेकिन लौट कर फिर ज़मीन के पास आना तो था ही। कब तक उस ऊँचे बिंदु से देख कर पूरी दुनिया की भर भर आँख ख़ूबसूरती ख़ुश होती रहती लड़की।

मुझे कोई चिट्ठियाँ नहीं लिखता।

दोनों गमलों में एक एक मग पानी डाला उसने। फिर उसे लगा पौधों को बारिश की याद आती हो शायद। लेकिन जो पौधे कभी बारिश में भीगे नहीं हों, उन्हें बारिश की याद कैसे आएगी? जिससे कभी मिले ना हों उसे मिस करते हैं जैसे, वैसे ही?

पौधों के पत्ते धुलने के लिए पानी स्प्रे करने की बॉटल है उसके पास। हल्की नीली और गुलाबी। उसने बोतल में पानी भरा और अपने प्यारे पौधे के ऊपर स्प्रे करने लगी। उसकी आँखें भरी हुयी थीं। अबडब आँसुओं से। इन आँसुओं को सिर्फ़ धूप देखती है या फिर आसमान। बहुत साल पहले लड़की आसमान की ओर चेहरा करके हँसा करती थी। लड़की याद करने की कोशिश करती है तो उसे ये भी याद नहीं आता कि हँसना कैसा होता है। वो देर तक आँसुओं में अबडब पौधे के ऊपर पानी स्प्रे करती रही। बोगनविला के हल्के नारंगी फूल भीग कर हँसने लगे। हल्की हवा में थिरकने लगे। कितने शेड होते हैं फूलों में। गुलाबी से सफ़ेद और नारंगी। पहले फूल भीगे। फिर पत्ते। फिर पौधों का तना एकदम भीग गया।




लड़की देखती रही बारिश में भीग कर गहरे रंग का हो जाना कैसा होता है। प्रेम में भीग कर ऐसे ही गहरे हो जाते हैं लोग। अपने लिखे में। अपनी चिट्ठियों में। अपनी उदासी में भी तो।

उसके सीने में बोगनविला का काँटा थोड़े चुभा था। शब्द चुभा था। अनकहा।
प्यार। ढेर सारा प्यार।

14 January, 2015

एक रोज़ वो खरीद लाता मेरे लिए गुलाबी चूड़ियाँ

उससे बात करते हुए उगने लगता है एक नया शहर
जिसमें हम दोनों के शहरों से उठ कर आये कुछ रस्ते हैं
कुछ गलियां, कुछ पगडंडियां और कुछ पुराने बाज़ार भी

उसके शहर का डाकिया मुझसे पूछता है उसकी गली का पता
मेरे मोहल्ले के मोड़ पर शिफ्ट हो जाता है उसकी सिगरेट का खोमचा
फेरीवाला उसके यहाँ से खरीदता है पुराना कबाड़
और मुझे बेच देता है उसकी लिखी सारी डायरियां
मैं देर देर रात भटकती रहती हूँ बैंगलोर में
यहाँ गंध आती है उसके गाँव की
उसके लड़कपन की...
उसके आवारागर्दी के किस्सों की

हम दोनों निकाल लाते हैं अपनी अपनी स्ट्रीट कैट
और उसके काले हैंडल पर फ़िदा होते हैं एक साथ ही
मुझे यकीन नहीं होता कि हमारे पास हुआ करती थी एक ही साइकिल
सुबहों पर मेरा नाम लिखा होता था, शामों पर उसका
हम किसी दोपहर उसी एक साईकिल पर बैठ कर निकल जाते किसी भुट्टे के खेत में

मैं उसे सिखाती गुलेल से निशाना लगाना
और वो मुझे तोड़ के देता मोहन अंकल के बगान से कच्चा टिकोरा
मैं हाफ पैंट की जेब में रखती नमक के ढेले
हम लौट कर आते तो पीते एक ही घैला से निकाला ठंढा पानी

उसे बार बार लगता मैं मैथ के एक्जाम में फेल हो जाउंगी
मुझे लगता वो सारे एक्जाम में फेल हो जाएगा
जब कि हम क्लास में फर्स्ट और सेकंड आते, बारी बारी से

एक रोज़ वो खरीद लाता मेरे लिए गुलाबी चूड़ियाँ
मैं अपने दुपट्टे से पोछ देती उसके माथे पर बहता पसीना
वो मुझे वसंत पंचमी के दिन एक गाल पर लगा देता लाल अबीर
मैं इतने में हो जाती पूरी की पूरी उसकी

मगर फिर ख़त्म हो जाते उसकी डायरी के पन्ने
और मुझे लिखनी होती एक पूरी किताब
सिर्फ इसलिए कि उसके नाम से रच सकूं एक किरदार
और कह सकूं दुनिया से 'कहानी के सारे पात्र काल्पनिक हैं'

11 August, 2014

जिंदगी बीत जाती है मगर कितनी बाकी रह जाती है न?


कतरा कतरा दुस्वप्नों के तिलिस्म में फंसती, बड़ी ही खूंख्वार रात थी वो...बिस्तर की सलवटों में अजगर रेंगते...बुखार की हरारत सा बदन छटपटाता...मैं तुम्हारे नाम के मनके गिनती तो हमेशा कम पड़ जाते...ऐसे कैसे कटेगी रात...कि तुम्हारे आने में जाने कितने पहर बाकी हैं. प्यास हलक से उतरती तो पानी की हर बूँद जलाती...घबरा कर विस्की की बोतल उठाती तो याद आता कि फ्रीज़र में आइस ख़त्म है...नीट पी नहीं सकती, पानी की फितरत समझ नहीं आ रही...तो क्या अपना खून मिला कर विस्की पियूँ?

आजकल तो हिचकियों ने भी ख़त पहुँचाने बंद कर दिए हैं. तुम्हें मालूम भी होता कि तुमसे इतनी दूर इस शहर में याद कर रही हूँ तुमको? तुम्हारे आने का वादा तो कब का डिबरी की बत्ती में राख हुआ. लम्हे भर को आग चमकी थी...जैसे हुआ था इश्क तुमको. कभी सोचती हूँ तुमसे कह ही दूं वो सारी बातें जो मुझे जीने नहीं देती हैं. लम्हे भर को इश्क होता भी है क्या?

भोर उठी हूँ तो जाने किससे तो बातें करने का मन है. बहुत सारी बातें. या कि फिर एक लम्बी ड्राइव पर जाना और कुछ भी नहीं कहना. कुछ भी नहीं. जैसे एकदम चुप हो जाऊं. क्या फर्क पड़ता है कुछ भी कहने से. ऐसे कहने से न कहना बेहतर. तुम हो कहाँ मेरी जान? तुम्हारे शहर में भी बारिशें हुयीं क्या सारी रात? यहाँ तो ऐसा दर्दभरा मौसम है कि गर्म चाय से भी पिघलना मंजूर नहीं करता. तुलसी की पत्तियां तोड़ कर उबालने को रक्खी हैं...थोड़ी काली मिर्च, थोड़ी अदरक...काढ़ा पीने से शायद गले की खराश को थोड़ा आराम मिले...मेरे ख्याल से सपनों में देर तक आवाज़ देती रही हूँ तुम्हें...

तुम्हें मालूम है न मैं तुम्हें याद करती हूँ? जैसे दिल्ली के मौसम को याद करती हूँ...जैसे बर्न के अपनेपन को याद करती हूँ...जैसे अनजान देशों की गलियों में भटकते हुए कई रेस्टोरेंट्स के मेनू देखे और वहां लिखी हुयी ड्रिंक्स के नशे के बारे में सोचा. ख्यालों में अक्सर आती है कई दुपहरें जो तुमसे गप्पें मरते हुए काटी थीं...तुम्हारे ऑफिस के सीलिंग फैन की यादें भी हैं. तुम हँस रहे हो ये पढ़ कर जानती हूँ. सोचती ये भी हूँ कि तुम्हारे लायक कॉपी अब इस शहर में क्यूँ नहीं मिलती...सोचती ये भी हूँ कि तुम्हें ख़त लिखे बहुत बरस हो गए. अब भी कुछ अच्छा पढ़ती हूँ तो तुम्हें भेज देने का मन करता है. या कि कोई अच्छी फिल्म देखी तो लगता है तुम्हें देखने को कहती. जिंदगी के छोटे बड़े उत्सव तुम्हारे साथ बाँटने की ख्वाहिश अब भी बाकी है. तुम्हारे शहर के उस किले की खतरनाक मुंडेर पर पाँव झुलाते मंटो को गरियाने की ख्वाहिश भी मेरे दोस्त बाकी है. जिंदगी बीत जाती है मगर कितनी बाकी रह जाती है न?

कभी कभी सोचती हूँ तो लगता है हम एक जिगसा पजल हैं. मुझमें कितना कुछ बाकियों से आया है...जितनी बार प्यार हुआ, एक नए तरह का संगीत उसकी पहचान बनता गया...डूबते हुए हर बार किसी नए राग में सुकून तलाशा...किसी नए देश का संगीत सुना कि याद के ज़ख्म थोड़े कम टीसते थे कि संगीत में अनेस्थेटिक गुण होते हैं. वैसा ही कुछ लेखकों के साथ भी हुआ न. अगर मुझे जरा कम इश्क हुआ होता...या जरा कम दर्द हुआ होता तो मैं ऐसी नहीं होती.

वो कहता है मुझे अब बदलना चाहिए...जरा हम्बल होना चाहिए, जरा डिप्लोमेटिक. मगर मुझसे नहीं होगा. मैं ऐसी ही रही हूँ...अक्खड़, जिद्दी और इम्पल्सिव...बिना सोचे समझे कुछ भी करने वाली...बिना सोचे समझे कुछ भी बोल देने वाली. डिप्लोमेटिक होना न आया है न आएगा. जिद्दी भी बहुत हूँ. सुबह उठ कर जाने क्या क्या सोच रही हूँ. तुम होते तो इस परेशानी में कोई चिल्लर सा जोक मारते...या फिर अपनी घटिया आवाज में कोई सलमान खान का पुराना वाला गाना गा के सुनाते हमको...हम हँसते हँसते लोटपोट हो जाते और फिर अपनी किताब पर काम शुरू कर देते. जल्दी ही कहानियां फाइनल करनी हैं. कुछ नया नहीं लिख पाए हैं. अफ़सोस होता है...मगर फिर खुद को समझाते हैं. जिंदगी बहुत लम्बी है और ये मेरी आखिरी किताब नहीं होगी. अगर हुयी भी तो चैन से मर सकेंगे कि बकेट लिस्ट में बस एक ही किताब का नाम लिखे थे. बाकी तो बोनस है. कभी कभी अपने आप को जैसे हैं वैसा क़ुबूल लेना मुश्किल है...मुहब्बत तो दूर की बात है. फिर भी सुकून इतना ही है बस कि कोशिश में कमी नहीं की मैंने. अपना लिखा कभी परफेक्ट लगा ही नहीं है...न कभी लगेगा. आखिर डेडलाइन भी कोई चीज़ होती है. हाँ, जब फिल्में बनाउंगी तो वोंग कार वाई की तरह आखिरी लम्हे तक एडिट चालू रहेगा. शायद. बहुत कन्फ्यूजन है रे बाबा!

16 November, 2013

कोहरे में सीलता. धूप में सूखता. कन्फुजियाता रे मन.

क्या करेगी रे लड़की ड्राफ्ट के इतना सारा पोस्ट का. खजाना गाड़ेगी घर के पीछे वाली मिटटी में कि संदूक में भरे अपने साथ ले जायेगी जहन्नुम? कहानी पूरा करने के लिए तुमको कोई लिख के इनवाईट भेजेगा...हैं...बताओ. दिन भर भन्नाए काहे घूमती रहती हो?

भोरे भोरे छः बजे कोई पागल भी ई मौसम में उठता नहीं है. कितना धुंध था बाहर. मन सरपट दिल्ली काहे भागता है जी...और जो दिल्लिये भागना है तो एतना बाकी शहर घूमने के लिए जान काहे दिए रहते हो रे? भोरे उठे नहीं कि धौंकनी उठा हुआ है...कौन लोहा है जी...दिल न हुआ कारखाना हो गया...गरम लोहा पीटने वाला लुहार हो गया...खून वैसे चलता है जैसे असेम्बली लाइन पर अलग अलग पार्ट. ऊ याद है जो मारुती के फैक्ट्री गए थे गुडगाँव में...कितना कुछ नया था वहां देखने को.

लेकिन बात ये है कि छुट्टी मिलते ही दिल दिल्ली काहे भागता है. जैसे एक ज़माने में पटना में आ के बस गए थे लेकिन दिल रमता था देवघर में. वहां का सब्बे चीज़ बढ़िया. अब कैसा तो देवघर भी पराया हो गया. घर है कहाँ? कहीं जा के नहीं लगता कि घर आ गए हैं. केतना तो चिंता फिकिर माथे पे लिए टव्वाते रहते हैं...यार ई स्पेल्लिंग सही नहीं है. जो शब्द दिमाग में आये उसका स्पेलिंग नहीं आये तो माथा ख़राब हो जाता है. भोरे भोर बड़बड़ा रहे हैं.

अबरी देवघर गए तो सीट के रसगुल्ला खाए...एकदम बिना कोई टेंशन लिए हुए कि वेट बढ़ेगा तो देखेंगे बैंगलोर जा के. सफ़ेद वाला...पीला वाला और ढेर सारा छेना मुरकी. अबरी गज़ब काम और भी किये कि एतना दिन में पहली बार सबके लिए खाना भी बनाए. वैसे तो हम बेशरम आदमी शायद नहियो बनाते लेकिन गोतनी को देख कर लजा गए...नयी बहुरिया...आई नहीं कि चौका में घुस गयी...सबको चाय बना के पिलाई और सब्जी बना रही थी. चुल्लू भर पानी डूब मरने को तो हमको मिलने से रहा. उसका आलू गोभी का सब्जी देख कर बुझा रहा था कि चटनी नियन भी खायेंगे तो घर में पूरा नहीं पड़ेगा. कुल जमा आदमी घर में उस समय था १८ चार पांच कम बेसी मिला के.

धाँय-धाँय जुटे एकदम. छठ का ठेकुआ बनाने में बाकी सब लोग था. तुरत फुरत आलू छील के काटे...फिर बैगन और टमाटर. हेल्प के लिए दू ठो लेफ्टिनेंट भी थी...छुटकी ननद सब...छौंक लगा के आलू बैगन डाले. इधर तब तक रोटी का कुतुबमीनार बनाना शुरू किये. सब्जी सिझा तो मसाला डाल के भूने और फिर टमाटर डाल दिए. इतने लोग का खाना पहले कभी बनाए नहीं थे लेकिन आज तक कभी नमक मसाला मेरे हाथ से इधर उधर नहीं हुआ था तो डर नहीं लगा. खाना बनाते हुए याद आ रहा था मम्मी बताती थी कैसे शादी के बाद ससुराल आई तो उसको कुछ बनाने नहीं आता था और ऊ सब सीखी धीरे धीरे. हमको खाली उतना लोग का आटा सानना नहीं बुझा रहा था. हम जब तक कुणाल का ब्रश खोज के उसको देने गए तब तक आटा कोई तो सान दिया था.

कभी कभी लगता है हम अजब जिद्दी और खत्तम टाइप के इंसान है. इतना लोग का रोटी नॉर्मली ऐसे बनता है कि एक कोई बेलता है, दूसरा फुलाता है. अब हमको सब काम अपने करना था...कोई और करे तो नौटंकी...रोटी जल रहा है, नै कच्चा रह रहा है...दुनिया का ड्रामा. सब ठो बन गया तो सोचे एक महान काम और कर लें, पता नै कब मौका मिले फिर. नहा के परसाद का ठेकुआ भी छाने खूब सारा. लकड़ी वाला चूल्हा में बन रहा था ठेकुआ...खूब्बे धाव था उसमें. हमको खौला हुआ तेल से बहुत डर लगता है तो ठेकुआ झज्झा पे धर के डाल रहे थे घी में...कहाँ से सीखे मालूम नहीं...अपना खुद का इन्वेंशन है कि किसी को देखे. घर पर लोग बोला 'लूर तो सब्बे है इसको...खाली कोई काम में मन नहीं लगता है'. थोड़ा देर के लिए तो मेरा भी मन डोल गया. सोचने लगे कि सब लोग कितना काम करती हैं रोज...अगला बार से छुट्टी पर घर आयेंगे तो रोज खाना बनायेंगे सब के लिए. पता नहीं सच्चे कर पायेंगे कि नहीं.

देवघर में खाना में इतना स्वाद आता है कि बैंगलोर में हम कुछो कर लें नहीं आएगा. भुना हुआ रहर का दाल में निम्बू और अपने खेत का चावल...आहा. सुबह नीती वाला सब्जी भी ख़ूब बढ़िया बना था आलू गोभी का लेकिन मेरे खाने टाइम तक बचा ही नहीं था. नानी लोग बोल रही थी कि इतना अच्छा बिना प्याज लहसुन वाला आलू बैगन ऊ कभी नहीं खायी थी. घर पर बचपन से बिना प्याज लहसुन के ही खाना बनता देखे हैं तो असल सब्जी हमको भी बिना प्याज वाला ही बनाना आता है. जब तक दादी थी तब तक तो घर में कभी नहीं आया.

नीती एक दिन खूब अच्छा चिली पनीर भी बना के खिलाई सबको. गोलू हमको बोला...भाभी अब आप भी कुछ खिलाइए ऐसा बना के...इतना दिन हो गया. हम तो हाथ खड़ा कर दिए हैं...हमसे नै होगा. कुछ और करवा लो...लिखवा लो, पढ़ाई करवा लो...तत्काल टिकट कटवा लो हमसे. खाना बनाना हमसे नै होगा. गज़ब सब काण्ड करते हैं हम भी...अबरी तीन बार देवघर स्टेशन गए टिकट कटाने. फॉर्म भर कर लाइन में लगे हुए फोन पर तत्काल टिकट कटाए. वृन्दावन में जा के भर दम मिठाई ख़रीदे और घर आ गए. और एक स्पेशल काम किये...स्कूल जा के सर से मिले. उसपर एक ठो डिटेल में पोस्ट लिखेंगे आराम से.

दस बीस ठो नागराज और ध्रुव का कोमिक्स खरीदे. छठ स्पेशल ट्रेन इत्ता लेट हुआ कि फ्लाईट छूट गया. वापस आये हैं तो तबियत ख़राब लग रहा है. अबरी पापा से मिलने भी नहीं जा सके. पाटली में इतना भीड़ था कि दम घुटने लगा...झाझा में उतर कर जनशताब्दी पकड़ के वापस देवघर आ गए. आज भोरे से कैसा कैसा तो दिमाग ख़राब हो रहा है. बुझा ही नहीं रहा है कि क्या क्या घूम रहा है माथा में. एक ठो दोस्त को बोले हैं कि आज गपियाते हैं आ के. ऊ भी पता नहीं जायेंगे कि नहीं.

भोरे सोचे कि पापा को फोन करके पूछें कि मन काहे बेचैन रहता है हमेशा...फिर सोचे पापा परेशान हो जायेगे. खूब देर तक बैठ के पुराना फोटो सब देखे. स्विट्ज़रलैंड का, पोलैंड का, अलेप्पी और जाने कहाँ कहाँ तो. कुछ देर गुलाम अली को सुने...फिर भी सब उदास लग रहा था...तो DDLJ का गाना लगा दिए. अनर्गल लिख रहे हैं पोस्ट पर. सांस लेने को दिक्कत हो रही है.

देख तो दिल कि जाँ से उठता है 
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

30 August, 2013

एनेस्थीसिया

डेंटिस्ट की खतरनाक सी कुर्सी पर बैठी लड़की सोच रही थी एनेस्थीसिया के बारे में. ऐसा कुछ है क्या जिसके बाद कोई दर्द महसूस न हो. सोचती रही इश्क से बेहतर एनेस्थीसिया उसे मालूम नहीं है. उसने सोचा डॉक्टर से पूछे कि उसके पास कोई इश्कनुमा एनेस्थीसिया है क्या. लड़की को मालूम है कि वो थोड़ी वीयर्ड है उसके हिसाब से जो चीज़ें नार्मल होती हैं वो आम लोगों को पागलपन जैसी लगती हैं. अपने अनुभवों से सीखती वो लड़की अक्सर ऐसे फुजूल सवाल अब खुद के लिए रिजर्व कर लेती है.

दो दिन हो गए. सूजन बढ़ती ही गयी है. पेनकिलर से राहत नहीं आती. हालाँकि उसका कोई हक नहीं बनता पर वो पूछना चाहती है कि तुम्हारे नाम, ख्याल या तस्वीरों को पेनकिलर की तरह इस्तेमाल करना एथिकली सही है या गलत है. सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचने भर से उसका दांत का दर्द कम हो जाये तो क्या उसे इजाजत है तुम्हारे बारे में सोचने भर की...या तुम्हें एक फ़ोन करने की? तुम क्या सोचोगे अगर कोई तुम्हें फ़ोन करके कहे कि बहुत तेज़ दर्द हो रहा है, कुछ देर मेरा ध्यान भटका दो...किसी भी और चीज़ की तरफ. तुम करोगे किसी के लिए इतना?

दर्द यूँ बुरा नहीं लगता. दर्द की महीन उँगलियाँ होती हैं...जैसे नसों में खून दौड़ता है वैसे ही दर्द भी दौड़ता है. बारीक पतली पतली उँगलियों वाला दर्द बायें गाल से होता हुआ कनपटी तक पहुँच गया है, गले का बायाँ हिस्सा सूजा हुआ है. बोलने में भी तकलीफ होती है. दर्द का स्वाद होता है. खास तौर से जब टाँके पड़े हों. खून का रिसता हुआ स्वाद. ऐसा लगता है जैसे कोई नदी बह रही हो...नमकीन धार वाली. हर कुछ देर में नमक पानी के गरारे भी करने पड़ते हैं.

चेहरे का आधा हिस्सा सुन्न पड़ गया है. दांत के दर्द को टक्कर सिर्फ और सिर्फ इश्क दे सकता है. वो भी ऐरा गैरा लफुआबाज़ टाईप इश्क नहीं. सड़कछाप आवारा वाला नहीं. गहरा दर्द. रात के पहर के साथ चढ़ता हुआ. नींद के किसी झांसे में नहीं आने वाला दर्द. अँधेरे में याद के कितने तहखानों की टहल करवा देने वाला दर्द. पेनकिलर और एंटीबायोटिक के मिक्स में उभरने वाली नीम बेहोशी में रह रह करंट के झटके लगाता दर्द. हर कुछ घंटों में अपने होने को कई गुना शिद्दत से ज्यादा महसूस करने वाला दर्द.

जिंदगी में हर चीज़ में इश्क की घुसपैठ नहीं होनी चाहिए. कम से कम दांत दर्द तो तमीज से दांत दर्द की तरह पेश आये. दर्द हो तो सब भूल जाए लड़की. भूरी आँखें. डेरी मिल्क. धूप. दिल्ली. ठंढ. बीमार की तरह कम्बल ओढ़ ले और कराहे. मगर ये कराह में किसका नाम लिए जा रही है लड़की. "खुदाया मेरे आंसू रो गया कौन". वो कहती है उसका दर्द का थ्रेशहोल्ड बाकी लोगों से ज्यादा है. बहरहाल. कुछ दिनों से कुछ भी करने की कोशिशें नाकाम हैं. पढ़ने लिखने में उसका दिल नहीं लगता. ऐसा कुछ लग रहा है जैसे एक्जाम के दिन हों और सिलेबस ख़त्म हो चुका हो. बस रिवाइज करना जरूरी हो.

जब कुछ काम न आये तो लिखना काम आता है. फिलहाल दर्द की एक तीखी लपट है. दांत के ऊपर से उठती है और वर्टिकली ऊपर दिमाग की ओर चली जाती है. मेमोरी इरेजिंग टूल टाईप कुछ है. कोई याद नहीं. कोई शख्स नहीं. सफ़ेद काली बेहोशी है. संगीत की कुछ धुनें हैं. व्हाइट नोइज जैसी कुछ. इच्छा है कि थोड़ी धूप रहती तो खून का बहाव थोड़ा तेज़ होता. उसे हमेशा धूप अच्छी लगती है. रात के इस पहर धूप कहाँ से बुला लाये लड़की.

एनेस्थीसिया मेरी बला से! मुझे तो लगता है कि लड़की का दिमाग ख़राब हो गया है. पर जाने दो. वो क्या कहते हैं हमारी हिंदी फिल्म में डॉक्टर.

'अब इन्हें दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है'

PS: अब इन्हें ब्लॉग्गिंग की नहीं, पागलखाने की जरूरत है. वगैरह वगैरह.

इस पोस्ट के माध्यम से आप आपने पाठकों को क्या सन्देश देना चाहेंगी?
हम तो क्या कहें, कह भी देते लेकिन कोई हमसे पहले कह गया है कि...और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.

बहरहाल. 

18 June, 2013

हूमुस रेसिपी विद थोड़ी गप्पें

इस वाली पोस्ट में मेरी खूब सारी तारीफें होंगी...वो भी मेरी खुद के लफ़्ज़ों में :) जो लोग ऐसी किसी बात का समर्थन नहीं करते हैं ये वाली पोस्ट नहीं पढ़ें :)
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आज मैंने हूमुस बनाया. मुझे समझ नहीं आता है कि सितारों और ग्रहों की ऐसी कौन सी दशा होती है जब मेरा कुछ बनाने का मन करता है. वो भी तब जब कुणाल घर पर नहीं हो. वो रहता है तो फिर भी उसकी पसंद का कुछ बनाना अच्छा लगता है. हूमुस से मेरा परिचय ज्यादा पुराना नहीं है. पिछले साल किसी वक़्त खाया था पहली बार. ऑफिस में कोई ले कर आई थी...उसकी मम्मी ने बनाया था. मुझे अपने इन्डियन खाने के अलावा खुराफाती चीज़ें बहुत पसंद हैं. कुणाल हमको चिढ़ायेगा कि हूमुस चना दाल का चटनी जैसा ही लगता है, ब्लैंड है, कोई टेस्ट नहीं है वगैरा वगैरा लेकिन अगर मैं लेकर आउंगी तो खूब सारा खा भी जाएगा.

अच्छा हूमुस खोजना बहुत मुश्किल का काम है...उसपर कहीं भी आर्डर करो तो चिप्स, ब्रेड सब कुछ बहुत सा देंगे लेकिन हूमुस इतना थोड़ा सा देंगे कि वाकई चटनी जैसा ही खाना पड़ता है थोड़ा थोड़ा लगा कर. तो हम एकदम परेशान हो गए कि हो न हो हम हूमुस खुद से पढ़ के बनायेंगे. दुनिया के रेस्टोरेंट का हूमुस  go to the भाड़. काबुली चना कल रात को फुला दिए थे. पिछली बार भी ऐसी ही बनाने का बुखार चढ़ा था तो तिल भी ला के रख लिए थे. सुबह का चना बॉईल करके रखा था. जरूरत थी सिर्फ निम्बू की, तो वो याद से ले लिए. जब तक ऑफिस से आये, लेट हो गया था वरना मेरा खाखरा के साथ हूमुस खाने का मन था. खैर, ब्रेड खरीद लिए.

घर आके चिंतन मनन कर ही रहे थे कि आज हूमुस बना ही डालते हैं कि लाईट चला गया वो भी ट्रांसफोर्मर उड़ने का जोर का आवाज़ जैसा. बस हम माथा पकड़ लिए कि गया मेरा हूमुस भाड़ में. बिजली लेकिन थोड़ी देर में आ गयी. पहला काम था आईफ़ोन पर गाना लगाना. हमको किचन में आज भी सोनू निगम का दीवाना और जान सुनना अच्छा लगता है. इन्टरनेट पर घंटा भर पढ़ के रेसिपी निकाले...कमसे कम पचास ठो रेसिपी खोल रखे होंगे टैब में. खूब सारा पढ़ लिख कर गैस पर कड़ाही चढ़ाये. हूमुस बनाने के पहले बनाना था तहिनी. लिखा हुआ था कि तिल को खाली हल्का सा टोस्ट करने, भूरा नहीं करने. भुनी हुयी खुशबू आने लगी तो गैस से उतारे. उसमें से छोटे कंकड़ वगैरह चुने. चुनते हुए दादी की याद आई, सूप में चूड़ा फटकने की. लगा कि चीज़ें कैसे खो जाया करती हैं. तहिनी के लिए तिल को ओलिव आयल के साथ मिक्सी में चला दिए. अंदाज़े से इतना तेल डालना था कि थोड़ा पतला सा पेस्ट जैसा बन जाए.

हमको अचानक से याद आया कि हूमुस बहुत कॉमन चीज़ नहीं है...हूमुस एक मिडिल ईस्ट की रेसिपी है, जैसे चीज़ डिप होता है, वैसे ही चिप्स या फिर पिटा ब्रेड के साथ खाने के लिए. इसे ब्रेड में या सैंडविच में स्प्रेड की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं. बेसिकली कहीं पर भी चटनी जैसा भी यूज कर सकते हैं. हमको बहुत बहुत पसंद है.

हूमुस के लिए जरूरत होता है तहिनी, उबला हुआ काबुली चना, निम्बू, लहसुन, जीरा पाउडर, नमक और ओलिव आयल. विदेशों में अधिकतर लोग कैन में आया हुआ काबुली चना इस्तेमाल करते हैं. काबुली चना को छोला से थोड़ा सा ज्यादा बॉईल करना था कि उँगलियों के बीच मैश हो जाए.

मिक्सी से लगभग आधा ताहिनी बाहर निकाले और फिर उसमें दो कप उबला काबुली चना डाले, फिर एक निम्बू का रस, पांच सात लहसुन का कली, अंदाज़े से नमक, थोड़ा जीरा पावडर और थोड़ा ओलिव आयल डाले. इस सबको चलाये...थोड़ा सा पानी डाले और थोड़ा थोड़ा करके मिक्सी चलाते रहे. नेट पर पढ़े थे कि अच्छे हूमुस के लिए फ़ूड प्रोसेसर को देर तक चलने दें. थोड़ा देर बार मिक्सी खोले और खा के देखे, लाजवाब हूमुस तैयार था. हूमुस को कटोरी में निकाल कर ऊपर से ओलिव आयल डाले, जीरा पाउडर और लाल मिर्च भी बुर्के. फिर कैमरा से फोटो खींचे.

इतने में रात के डेढ़ बज गए थे. अब बहुत खुश होकर सोचे कि ब्रेड टोस्ट कर लें तो याद आया कि ब्रेड जो लाये थे वो बाईक की डिक्की में भूल गए हैं. अपनाप को लाख गरियाये कि एक काम ढंग से नहीं होता हमारा. रात को थोड़ा सा डर भी लगता है. मगर इतना मेहनत से बनाया हुआ इतना सुन्दर हूमुस कैसे नहीं खाते तो झख मार के गए चार फ्लोर नीचे. ब्रेड लाये, टोस्ट किये. फोटो खींचे, कुणाल को भेजे और फिर चैन से खाए. यूँ पढने में रेसिपी बहुत आसान लगता है पर जिसने कभी नहीं बनायी है उसके हिसाब से अंदाज़ा करना थोड़ा मुश्किल है. हम जब मूड में आ जाते हैं तो कुछ भी कर गुज़रते हैं.

रिकैप: हूमुस
बनाने का समय: लगभग आधा घंटा(पहली बार के लिए, फिर जैसे जैसे आप एक्सपर्ट होते जायेंगे, धनिया पत्ता की चटनी पीसने में जितना समय लगता है, उतना ही लगेगा)

सामग्री: लगभग ३/४ कटोरी काबुली चना
१ कटोरी तिल या फिर १/२ कटोरी तहिनी(रेडीमेड)
१ निम्बू का रस
५-५ लहसुन की कलियाँ
एक चुटकी जीरा पाउडर
नमक अंदाज से (आधा टीस्पून)
१ कटोरी ओलिव आयल

पहले काबुली चना को भिगो लीजिये पूरी रात. फिर तीन चार पानी में धो कर उबाल लीजिये. प्रेशर कुकर में लगभग १०-१० मिनट प्रेशर आने के बाद.

तहिनी बनाने के लिए एक कप तिल को गैस पर भून लीजिये. जब हलकी खुशबू आने लगे, गैस बंद कर दीजिये, देर करने से तिल भूरे हो जायेंगे और स्वाद बदल जाएगा. इसको मिक्सी में लगभग आधी कटोरी ओलिव आयल के साथ मिक्सी में पीस लीजिये. तहिनी तैयार है. इसे फ्रिज में एयर टाईट कंटेनर में एक हफ्ते तक रख सकते हैं. तहिनी की बहुत सी रेसिपीज होती हैं. तहिनी सुपरमार्केट में रेडीमेड भी मिलता है. (वैसे रेडीमेड तो हूमुस भी मिलता है ;) )

हूमुस के लिए पहले मिक्सी में १/२ कटोरी तहिनी डालें, निम्बू का रस और लहसुन डाल कर एक राउंड चला लें. सब थोड़ा थोड़ा मिक्स हो जाएगा. अब इसमें काबुली चना जीरा पाउडर, नमक और थोड़ा सा ओलिव आयल डालें. इसे एक राउंड चला लें. ये एकदम गाढ़ा होगा, इसमें अंदाज़ से थोड़ा पानी डालें और मिक्सी चला दें. तीन चार राउंड चलाने के बाद कंसिस्टेंसी चेक करें. ये एकदम हल्का हो जाता है.

चिप्स या सलाद के साथ खाएं :) या ब्रेड पर. जब भी हूमुस बनाने या खाने का मन करे तो सोचिये...अगर पूजा बना सकती है तो वाकई दुनिया का कोई भी शख्स बना सकता है :) हैप्पी ईटिंग. 

07 March, 2013

फीवर ९९ और हम


दो दिन से ९९ डिग्री बुखार है. न चढ़ कर ख़त्म होता है, न उतर कर ख़त्म होता है. इस बुखार में अजीब किस्म से घालमेल हो रहा है चीज़ों का. आज दिन भर किसी काम में मन नहीं लगा. बस दिन भर फेसबुक पर रही...कुछ पुरानी पोस्ट्स पढ़ीं...कुछ मनपसंद फिल्मों के दृश्यों और जिंदगी में कन्फ्यूज होती रही. कई बार लगता रहा कि इन द मूड फॉर लव वाली गली से गुज़र रही हूँ और किसास किसास बज रहा है.

कुछ अजीब किस्म के रंग हैं...उनका अपना भूगोल है, वे इसी धरती के किसी मानचित्र में नहीं मिलेंगे. मैं ऐसे किसी शहर में हूँ. किसी दीवार पर उकेरे गए नाम देखती हूँ. सड़क की गर्द और गुबार से भरी गलियां हैं जिनमें कितने साल पहले लिखे गए नाम भी हैं. ये चिट्ठियां कभी पहुँचीं? किसी ने कभी ठहर कर नामों के इस गलीज स्लम में अपना कुछ ढूँढा भी होगा...तो फिर इस सारी ग्रैफिटी में एक विशाल 'आई मिस यू' क्यूँ लिखा नज़र आता है. या कि मेरी आँखों का दोष है...मेरी दूर की नज़र ख़राब है. मुझे अपने से एक फुट से ज्यादा नहीं दिखता. जिंदगी के साथ भी ऐसा ही कुछ है. इस लम्हे से आगे देखने का कोई चश्मा नहीं बना है.

बिना चश्मे के मुझे लोग तो दिखते हैं मगर उनके चेहरे का भाव नहीं पढ़ सकती...बेसिकली उनकी आँखें नहीं दिखती हैं. हालाँकि कानों में हेडफोन हैं और कोई पसंद का गीत बज रहा है मगर मैं किसी से बात करना चाहती हूँ. भले मुझे उनकी भाषा समझ नहीं आये, उन्हें मेरी भाषा समझ नहीं आये. मैं एक कैमरा लटकाए घूम रही हूँ...हवा का एक बेहद प्यारा झोंका आता है और इस तनहा शहर में जैसे मुस्कराहट का एक बीज रोप जाता है. मैं देखती हूँ सड़क पर एक टूटा हुआ क्लचर गिरा हुआ है. याद आता है किसी वसंत में तुम्हारे साथ एक चेरी के गुलाबी फूलों वाले शहर में चल रही थी. मेरे बंधे हुए बालों में उलझे हुए चेरी नन्हें गुलाबी फूलों को निकलते हुए तुमने कहा था 'बाल खुले रहने दो न, अच्छे लगते हैं'. दुनिया की सबसे घिसी हुयी लाइन होने के बावजूद उस वसंत में कितना नया लगा था तुमसे सुनना.

स्क्रीन के ग्लेयर से आँखों में जलन होने लगी है. दोपहर होने को आई...ये कैसी धूप है, जलाती भी नहीं...रहम भी नहीं करती...ठीक उस मुकाम पर रखती है जहाँ मैं दवा नहीं खाऊँ कि खुद से ठीक होना है...मगर तकलीफ इतनी होगी कि एक कदम से दूसरे कदम तक की दूरी में जान चली जायेगी. कराह को अन्दर ही कहीं दबाते हुए मुस्कुराती हूँ...लोग कहते हैं चेहरे का रंग उतर गया है...आँखों की रौशनी डिम हो गयी है. मैं आइना देखती हूँ...आज अपनी आँखों पर ध्यान नहीं जाता...देखती हूँ होठ सूख गए हैं और चेहरा भी उतर गया है. वाश बेसिन में चेहरा धोती हूँ और एक मुखौटा चढ़ाती हूँ. हँसते हुए कहती हूँ कि 'बीमार होती हूँ तो भी लगती नहीं'...थोड़ा और बीमार लगती शायद तो छुट्टी मिल जाती.

इतनी थकान नहीं होनी चाहिए लेकिन...मगर बुखार आये भी तो बहुत साल बीत गए...जाने कैसा लगता है बुखार आने पर...शायद ऐसा ही लगता होगा...जैसे किसी दस मंजिला बिल्डिंग से नीचे फेंके गए हैं और हालाँकि हड्डियों का सुरमा बन गया है मगर जान बाकी है. कभी सर में दर्द ज्यादा उठता है, कभी कन्धों के दर्द से बेहाल हो जाती हूँ...कभी आँखों की जलन से आंसू निकल आते हैं.

जैसा कि होता है...दिन भर कुछ न करने के बाद शाम को एक बेहतरीन कांसेप्ट लिखा...ऐवें ही मूड फ्रेश हो गया. इधर लगभग चार महीने बाद बाईक ठीक कराई है. मुझे अपनी बाईक चलाने से ज्यादा अच्छा कुछ और लगता हो मुझे याद नहीं आता. आज दोपहर बहुत सारी चोकलेट भी खायी है. अभी बस जरा स्विट्ज़रलैंड टाईप हॉट चोकलेट विद विस्की मिल जाती तो क्या बात होती.

थर्मामीटर ठीक से नहीं लगाया था...अब लगाया थोड़ी देर पहले तो देखती हूँ कि बुखार मियां अब तक मौजूद हैं...तशरीफ़ ले नहीं गए हैं. मेहमाननवाज़ी एक्सटेंड करना कोई अच्छी बात है भला! सारी प्लानिंग चौपट हो गयी...क्या क्या न सोच रखा था इस हफ्ते के लिए. खुदा न खस्ता, बुखार को भी आने का टाइम नहीं मालूम होता है. खैर. लिखने से मूड अच्छा होता है इसके प्रूफ के लिए मैं अक्सर अपनी पोस्ट्स पढ़ती हूँ. आज का काम क्लोज हो गया है...कल का भी सब जुगाड़ ठीक ही लग रहा है. लिख के थोड़ा सर हल्का हुआ तो दर्द भी कम होगा ही कभी न कभी.

कभी कभी दुआओं का कोटा ख़त्म हो जाता है, वैसे में एक्सप्रेस एंट्री करनी पड़ती है...खुदा इसलिए बीमार कर देता है हमें. चलिए आप हमारे ठीक होने के लिए ऊपर खुशामद करिए हम तब तक पिज़्ज़ा और चोकोलावा केक पर हाथ साफ़ करते हैं. बाई द वे....अगर आपको हमारे स्वर्ग के वर्शन पर भरोसा है तो वहां पर एक चोकोलावा का पेड़ है...जिसमें हमेशा अनगिन केक लगे होते हैं. यूँ हाथ बढ़ाया और टप्प से तोड़ लिया. खैर. लगता है बुखार चढ़ रहा है. बकिया बरगलाना फिर कभी.  

12 December, 2012

एक तारीख से गुज़रते हुए...

१२/१२/१२                                      
इसी सुबह को...सपना...किसी ने काँधे से भींच कर पकड़ा है और झकझोर रहा है...आँखों में देख रहा है...उसकी नज़र ऐसे भेदती है जैसे आत्मा तक के सारे राज़ पता हैं उसे...कोई सवाल है जो वो मुझसे पूछता नहीं. किसी टूर्नामेंट में हिस्सा लिया है मैंने...कुछ ऐसा है जो मुझे बिलकुल नहीं आता...वो कहता है...तुम कर सकती हो...मुझे मालूम है तुम जीत जाओगी...तुम्हें खुद पर यकीन क्यूँ नहीं होता. मैं कहता हूँ न तुम जीत जाओगी. मैं उसके यकीन पर भरोसा करती हूँ तो पाती हूँ कि मुझे वाकई मालूम थी पूरी प्रक्रिया...पूरा खेल...और मैं जीत जाती हूँ. खेल ख़त्म हो जाता है लेकिन कंधों पर रह जाती हैं उसकी हथेलियाँ और मैं दिन भर ऐसे चलती हूँ जैसे नशे में हूँ. कौन है वो जो मुझपर मुझसे ज्यादा यकीन करता है?

कोई आवाज़ है...पूछती है...तुम मुझे किस नाम से बुलाती थी? जाने किस शाम मैंने कौन सी कहानियां सुनायीं थीं उसे...मैं चली आई दूर मगर मेरी कहानियों के किरदार उसकी जिंदगी में रह गए. वे अक्सर उससे मेरा हाल-चाल पूछते रहते हैं. वो मुझसे पूछ रहा है कि ये किरदार कितने सच हैं, उनका किसी अल्टरनेट दुनिया में कोई ठिकाना है तो वो उन्हें उनके घर छोड़ आएगा. वो परेशां है थोड़ा, उसे इस दुनिया के लोग समझ नहीं आते...वो कहता है तुम ये लोग किस दुनिया से लाती हो, कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम शुरू करोगी क्या जो इस दुनिया के लोगों को थोड़ा तुम्हारी दुनिया के लोगों जैसा बना सके. उसे मेरी कहानी के किरदारों से जितना प्यार है अपनी जिंदगी के लोगों से नहीं. 
कोई क्यूँकर होता है इतना तन्हा?
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ऑफिस के बगल में एक दूकान है...जेनरल स्टोर्स टाईप...भूख लग रही थी, कुछ खाने का मन कर रहा था...सोचा कुछ ले आऊँ जा कर. देखती हूँ उसके ठीक सामने वाइन शॉप खुली है नयी...हाय कमबख्त, गालियाँ निकालती हूँ दूकान खोलने वाले को. बेहद खूबसूरत शॉप है...पूरा ग्लास का एक्सटीरियर है...सामने हर तरह की खूबसूरत बोतलों की अंतहीन कतारें...शोकेस में लगे बेहतरीन कांच के दिलफरेब टुकड़े...क्लास्सिक पोस्टर्स. एक तिलिस्म है अपनी ओर खींचता हुआ...एक हम हैं काम की उलझनों में उलझे हुए. दोस्त को फोन किया...ऐसे ही वीतराग मूड में...उधर से बोलता है...क्या है बे? अचानक हँसी आ गयी. शायद इसी लिए फोन किया भी था. चार गालियाँ पटकीं, फिर उसे घर निकलना था...कल बात करते हैं. देखें कल कितने दिन में आता है. 

किसी को समझा रही थी कि मैं लिखती कैसे हूँ. तीन चीज़ें होती हैं...किरदार, प्लाट और असल घटना...इसमें से कोई न कोई हमेशा सच रहता है. कभी किरदार सच होता है...मेरी जिंदगी से गुज़रा कोई या किसी और की जिंदगी का कोई नमूना...कभी प्लाट सही होता है कि ऑफिस, शहर, धूप, कोहरा, मौसम, बैंगलोर...ये  सबसे ज्यादा कॉमन एलिमेंट है जो अक्सर सच रहता है...और फिर वो है जो शायद ही सच होती है...इन सबके साथ घटा हुआ कुछ...ये अक्सर कोरी कल्पना होती है. 

एक प्रोजेक्ट पर काम करना था अभी...पर कुछ लिखने का मन था...उसके बिना काम में मन नहीं लगेगा...सो पहले लिखना निपटा देते हैं. इधर बहुत दिनों से कोई अच्छा म्यूजिक नहीं सुना है...खुद से खोजने का ट्रैक रिकोर्ड बेहद ख़राब है...शायद ही अपना तलाशा हुआ कुछ पसंद आता है. 

मुझे आजकल सबसे ज्यादा एट होम कार में फील होता है. उसमें अपनापन है...कहीं घूमने जाने का वादा है...कार चलाते हुए शीशे चढ़ा लो तो एक पैरलल दुनिया बन जाती है जिसमें मेरे दिमाग में घूमते किरदार होते हैं...सीडी प्लेयर पर मेरी पसंद का म्यूजिक होता है और हर सू बदलते नज़ारे होते हैं...बहुत सी शान्ति होती है. दुनिया के कुछ सबसे पसंदीदा कामों में से एक है कुणाल को ऑफिस से रिसीव करने जाना. आज जनाब बिना स्वेटर लिए चले गए हैं, सर्दी-खांसी-बुखार हो रखा है. तो आज हम ड्राइवरी करके जनाब को ऑफिस से उठाने जायेंगे. रोड अपना...चाँद अपना...गाने अपने...ओ हो हो. 

आज रजनीगंधा के फूल खरीदने का मन कर रहा है...सुबह सारे गर्म कपड़े धूप में सुखाये हैं...घर ईजी की नर्म खुशबू से भर गया है...दिसंबर...सर्दियाँ...खुशामदीद. 

फोटो वाली बिल्ली हमारे ऑफिस की है...हमारे प्रोजेक्ट्स की बहुत चिंता करती है...हमने इसे स्पेशल रास्ता काटने के लिए पाला है :)

30 November, 2012

लव पैरालल्स ऑन ए ट्रैम्पोलीन

कल की शूट पर एक ट्रैम्पोलीन का इन्तेजाम था...एक वृताकार स्टील का फ्रेम होता है जिसपर एक बेहद हाई-टेंशन झेल सकने वाला ख़ास तरह का कपड़ा बंधा होता है. दोपहर को ट्रैम्पोलीन सेट अप हुआ...अब लोगों को बताना था की भैय्या आपको इस चीज़ पर कूदना है...और हम चूँकि ऐसा कोई काम लोगों को करने नहीं बोलते जो हमने खुद पहले कभी नहीं किया हो तो तुर्रम खान बनके पहले खुद चढ़ लिए ट्रैम्पोलीन  पर. इंस्टिंक्ट है कि जब पैर जमीन से हटते हैं तो इंसान को डर लगता है...चाहे हवा में उड़ना हो चाहे पानी में तैरना हो. ट्रैम्पोलीन जम्प करने का तरीका ये है कि दोनों पंजों को एक साथ रखें और बीच में जम्प करें...छोटे छोटे जम्प लेने से, जैसा कि वेव में होता है या झूले की पींगों में...एम्पलीट्यूड बढ़ता जाता है.

तो कूदना तो बहुत आसान था...फिर डायरेक्टर ने कहा...हाँ अब...लुक एट द कैमरा...एंड स्माइल...तो एक तो पहली बार जम्प करते हुए दिशा पता नहीं चलती है...आसमान में ऊपर जा तो रहे हैं मगर किधर...उसपर नीचे गिरेंगे किधर वो पता नहीं है...उसके ऊपर लुक एट द कैमरा...बाबा रे! और उसपर स्माइल...हे भगवान! मुस्कुराना कभी इतना मुश्किल नहीं लगा था. पहली बार थोड़ा समझ में आया कि जब हम किसी चीज़ पर ध्यान केन्द्रित कर रहे होते हैं तो चेहरे पर एकाग्रता का भाव होता है...उसमें मुस्कुराना एक काम होता है...पार्ट ऑफ़ दा प्रोसेस. नारद जी कैसे एक लोटा दूध त्रिलोक में लेकर घूमते हुए नारायण नारायण जपना भूल गए थे...बेचारे नारद जी  का सारा ध्यान दूध को गिरने से बचाने में लगा था.

खैर...पहली बार के हिसाब से बहुत ही लाजवाब काम किये हम. दूसरी बार जब ट्रैम्पोलीन सेट हुआ तो हम तैयार होकर एकदम ड्यूड बन गए थे. हमारे साथ एक बन्दा था जो हवा में कूदते हुए पलटी मार सकता था...हमने ऐसी कलाबाजी पहले तो नहीं देखी थी. जब वो नीचे उतरा तो पहला वाक्य यही आया...यु डोंट हैव फीयर इन योर हार्ट...तुम्हारे दिल में डर नहीं है. (अनुवाद अपने खुद के लिए चिपकाया है :O वो क्या है कि कुछ वाक्य अंग्रेजी में ज्यादा अच्छे लगते हैं...और बोला भी अंग्रेजी में ही था...तो इमानदारी बरतते हुए). ट्रैम्पोलीन पर कूदना अच्छा ख़ासा थका देने वाला अनुभव होता है...सांसें तेज़ चलने लगती हैं...पसीने छूट जाते हैं.

सही तरीके से जम्प करने के लिए कुछ छोटे छोटे जम्प लेने चाहिए फिर धीरे धीरे जैसे झूले की पींगें बढ़ती हैं वैसे ही जब हवा में कुछ ज्यादा ऊंचे जा रहे हैं तब आप अपने पोज मार सकते हैं...जैसे कि हवा में दोनों पैर पूरे ऊपर मोड़ना या फिर हाथों से भरतनाट्यम की मुद्रा बनाना इत्यादि...ये सब करते हुए जरूरी है कि आप कैमरा की ओर देखें और मुस्कुराएं जरूर...तब जाके एक अच्छा शॉट आता है. कल बड़ी अच्छी धूप थी बैंगलोर में और जमीन तपी हुयी थी...उसपर कुछ देर नंगे पाँव खड़े रहे...दौड़ते भागते रहे.
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नवम्बर सनलाईट. तुम. उफ़.
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मुझे सफ़र करते हुए और काम करते हुए बहुत भूख लगती है...तो मैं खाने पीने का पूरा इंतज़ाम करके चलती हूँ...चोकलेट...बिस्किट...जूस...कुछ स्नैक्स...और जाने कैसे मैंने कभी लोगों को खाने के बारे में थोड़ा सा ध्यान रखते या प्लानिंग करते नहीं देखा है. खैर...सबको मेरी तरह भूख लगती भी नहीं होगी. तो कल भी मैंने राशन पानी का इन्तेजाम कर रखा था...लेकिन मुझे ठीक मालूम नहीं था कि क्रू में लोग कितने होंगे...तो तीन बजते मेरा राशन ख़तम और मेरी भूख शुरू. तो फिर लगभग पांच बजे कैंटीन जा के कुछ कूकीज ले कर आई...किसी ने बताया था कि बिस्किट वो होते हैं जो मशीन से बनते हैं और कुकी वो होती है जो हाथ से बनती है...खैर...मुझे बहुत से लोग बहुत सा भाषण देते हैं. तो कल फिर बेचारे भूखे प्यासे लोग काफी खुश हुए...जोर्ज ने बोला...अब से पूजा को हर शूट पर ले जायेंगे (actually he said...now onwards Puja is a part of every shoot) जब आपको भूख लगी होती है तो आप अच्छी तरह से परफोर्म नहीं कर पाते हैं क्यूंकि दिमाग का एक हिस्सा हमेशा ये सोचता रहता है 'भूख लगी है'. वैसे तो ऐसे भी लोग होते हैं जो खाना पीना छोड़ कर काम करते हैं. पर मैं वैसी हूँ नहीं. मैं वैसे काम करने के पहले इन्तेजाम करके चलती हूँ.
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तुम मेरी याद  में उग आते हो.
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ट्रैम्पोलीन जम्प...प्यार के जैसे...हवा में उड़ रहे होते हैं...ऊपर जाते हुए मालूम नहीं होता कितना ऊपर जायेंगे...नीचे आते हुए मालूम नहीं होता कैसे गिरेंगे...मुंह के बल...एकदम फ़्लैट...पीठ के बल...या फिर पैरों पर तमीज से लैंड करेंगे. जरूरी ये सब होता भी नहीं है न...जरूरी होता है कि जब हम हवा में हो...उस फ्रैक्शन ऑफ़ सेकण्ड में...एक अच्छा पोज होल्ड कर सकें...जब हम प्यार में हों...उस लम्हे भर...जी सकें...मुस्कुरा सकें...बिना ये सोचे हुए कि आगे क्या होने वाला है. जरूरी है कि थोड़े बहादुर हों...कुछ गलतियाँ कर सकें...गिरने के डर से ऊपर उठ सकें...बिना ये सोचे हुए कि आसपास के लोग देख कर हंस रहे हैं...हम पर हंस रहे हैं...बेखबर दोनों हाथों को पूरा फैलाए हुए आसमान को बांहों में भर सकें...तो क्या हुआ अगर हम नीचे एकदम फ़्लैट-आउट होते हैं. प्यार हमें थोड़ा बेवक़ूफ़ होने की इजाजत देता है...कभी कभी मुझे लगता है कि हमें प्यार होता ही इसलिए है कि हम डर से निकल सकें...उसके सामने कुछ भी कह सकें...बिना ये सोचे हुए कि वो मुझे एकदम ही पागल समझेगा...इत्यादि.
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तुम मुझे बहुत रुलाते हो
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प्यार ये तो नहीं होता कि सिर्फ उस लम्हे आपसे प्यार होगा...प्यार तब भी होगा जब आप गिरेंगे...चोट आई होगी...तब उठाने समझाने प्यार ही तो आता है. प्यार ये कि कह सकें...जो दिल करे...कर सकें दुनिया भर का झगड़ा...हो सकें वो जो होने में डरते हैं. प्यार में डर नहीं होता. बेवकूफी में भी डर नहीं होता. तो अगर A=B and B=C, तो A=C तो माने...प्यार यानी बेवकूफी?

ये हर इक्वेशन में प्यार कमबख्त कहाँ से एंट्री मार जाता है...सोच रही हूँ प्यार वाले पैराग्रफ्स को डिलीट मार दें...लेकिन फिर जाने दो...इतना एडिटिंग करने का सरदर्द कौन ले. दो दिन से इनफाईनाईट काम है...दिन भर दौड़...भाग...उसपर ये सैटरडे वर्किंग. उफ़...वर्ल्ड इज नोट फेयर. हम सोच रहे हैं...कि इतना सोचना कोई अच्छी बात नहीं है...अपनी फिल्म लिखते हैं...सारे टाइम दिमाग में कोई और फिल्म चलती रही...कुछ लोग, थोड़ी लाइटिंग...थोड़ा म्यूजिक... ओ तेरे की! ये तो पैरलल सिनेमा हो गया!!

दो दिन में इतने लोगों से मिली कि सर घूम रहा है...कितने लोगों से बात की...कितनों को मस्का लगाया कितनों को बुद्धू बनाया...बहला के फुसला के पुचकार के रिकोर्डिंग के लिए तैयार किया...गज़ब किया! अपनी पीठ ठोके दे रहे हैं. मैं कहाँ डेस्क जॉब में फंसी हूँ...मुझे ऐसे ही काम में मज़ा आता है...किसी रिकोर्डिंग स्टूडियो में होना चाहिए. रुको...एक आध फिल्म बनाते हैं फिर...जैसे कल जोर्ज नेहा के बारे में बोला...कि अब वो किसी भी रिकोर्डिंग स्टूडियो में जाने के लिए रेडी है. वापसी की लॉन्ग ड्राइव थी...अकेले...पसंदीदा म्यूजिक के साथ...बहुत सारा कुछ सोचने का वक़्त मिल गया.
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मैं ये सब क्यूँ लिख रही हूँ...रिकोर्ड के लिए...कल को खुद ही सेंटी होकर सोचते हैं कि खाली डार्क लिखते हैं...तो आज थोड़ी धूप सही. सुबह हुयी...सात-साढ़े सात टाईप...धूप में खड़े हैं...चेहरा गर्म हो रहा है. सोच रहे हैं. जिंदगी बड़ी खूबसूरत है. 

06 November, 2012

धूप देश की लड़की...छाँव देश का लड़का

लड़का बिखेरते चलता...धूप, हवा, खुशबू...लड़की समेटते चलती उसके पीछे, धानी दुपट्टा, दूब और पगडंडियाँ...लड़का उँगलियों से खड़े कर देता पहाड़...लड़की उनमें खींचती नदियाँ...लड़का बनाता रात का गहरा काला आकाश...लड़की उसमें उकेर देती बिजलियों की अल्पना...लड़का चलता चुप-चुप-चुप...लड़की चलती गुन-गुन-गुन. लड़का रचता जेठ का महीना...लड़की रचती बारिशें.

फिर एक दिन दोनों बिछड़ गए...फिर लड़के ने बनाया आँसू तो लड़की ने घोल दिया उसमें नमक...लड़के को नमक की तासीर कहाँ मालूम थी...उसने आँसू से नमक निकालने को बनाए समंदर तो लड़की ने बनाए नमक पत्थर के अभेद्य किले...कि लड़का बनता था पानी तो लड़की होती थी चट्टान...कि लड़का लगाता था आग तो लड़की बनती थी हवा...कि उनमें जो भी एक जैसा था वो टूटने लगा था.
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टूटने के यही दिन थे कि जब दुनिया में कुछ का भी नाम नहीं था...सिर्फ स्वर थे...संगीत के स्वर...षडज, रिषभ, गन्धर्व, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद...लड़की उसका नाम ढूंढ रही थी...कोमल सुर या तीव्र...मगर धीरे धीरे उसकी स्वर पहचानने की क्षमता घटती जा रही थी...एक एक करके उसके जीवन से सारे सुर लोप होते जा रहे थे...सबसे पहले गंभीर और अनुभवी षडज कहीं दूर चला गया. लड़की ने खुद को समझाया कि उसकी उम्र हुयी...कौन जाने किसी दिन अलंकार के जंगल में रास्ता भटक गया और भूखा कोई ताल उसे खा गया हो. फिर एक दिन रिषभ भी ज़ख़्मी हालत में वीणा के नाद में गुम हो गया...अब लड़की को गन्धर्व की चिंता शुरू हुई...वो कहाँ गुम होयेगा? कैसे जाएगा? गन्धर्व उसका पसंदीदा सुर था...कोमल 'ग' और शुद्ध 'ग'. दोनों उसके बचपन के दोस्त थे...जुड़वां भाई जो कुछ कुछ एक जैसे थे. फिर एक दिन एक सन्नाटे का अंधड़ चला और लड़की के हाथ से दोनों गन्धर्व छूट गए...लड़की बहुत रोई...बहुत रोई. फिर उसने बाकी बचे सुरों को समेटा और उनसे एक राग बनाया...अपूर्ण...षडज के बिना शुरुआत नहीं होती थी.
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लड़की चुप होती गयी...मध्यम ने बहुत दिन कोशिश की...वो समझाता कि एकदम चुप न रहे...कभी कभार कुछ तो कहे...कि वो समझता था कि लड़की का चुप रहने का मन करता है...फिर भी कभी कभार कुछ कहना जरूरी होता है. पंचम, धैवत और निषाद बहुत कोशिश करते थे कि कोई राग बना सकें कि लड़की का फिर से गाने का मन करे मगर लड़की एकदम चुप हो गयी थी. ऐसी कि तार सप्तक का षड्ज जब मिला तो उसे पहचान भी नहीं पाया.
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मगर उन्हें मिलना था तो वे फिर मिले...लड़के का अब तक कोई नाम नहीं था...युंकी देखा जाए तो लड़की का भी कोई नाम नहीं था...पर उसे नाम की जरूरत नहीं थी कि लड़का कभी उसे पुकारता नहीं था वो खुद उसकी परछाई की ऊँगली पकड़ कर उसके पीछे चला करती थी...कभी कभार लड़का ज्यादा तेज़ चलने लगता था तो लड़की को उसे बुलाना पड़ता था...इसलिए उसे एक नाम चाहिए था...लड़की ने सप्तक तोड़े...फिर से उसे अपने दोनों नन्हे, भटके, खोये हुए गन्धर्वों की याद आई...उसे याद आई वीणा...जंगल का अँधेरा.

लेकिन लड़के को ठहरना नहीं आता था...वो फिर चल पड़ा...लड़की की आँखों में बहुत अँधेरा था इसलिए उसने रचा सूरज...लड़की के होठों पर बहुत उदासी थी इसलिए उसने रची गुदगुदी...लड़की के दिल को चोट लग गयी थी इसलिए उसने रचा इश्क.

बस...यहीं गलती हो गयी लड़के से...इश्क एकदम अपनी किस्म का मनचला था...जिद्दी...बद्दिमाग...और उसकी संगत में लड़की भी कुछ कुछ अलग ही होने लगी थी...पहले से ही वो बावरी थी...इश्क से मिलने के बाद तो उसके मूड का कोई ठिकाना ही नहीं रहता...लड़का परेशान रहने लगा था. उसे लड़की की बहुत फ़िक्र होती थी...वो खुद से रास्ते नहीं तलाश सकती थी. हर बार लड़का उसे ढूंढ के लाता...वो हर बार टूटी और सुबकती हुयी मिलती थी.

लेकिन लड़की अपनी तरह की जिद्दी थी...लड़का अपनी तरह का...लड़के ने बनायी डार्क चोकलेट और लड़की ने बनायी सिल्वर रैपर...लड़के ने उड़ायी केसर की गंध तो लड़की ने बनायी चावल की खीर...लड़का मुस्कुराया तो लड़की शरमाई...वे साथ चलते रहे...कभी लड़का आगे हो जाता...कभी लड़की...फिर लड़की ने बनाया रूठना तो लड़के ने बनाया मनाना...फिर लड़के ने बनाया कमरा तो लड़की ने बनाया घर...फिर लड़के ने बनायी कतार तो लड़की ने रोपी खुशियाँ...

फिर...

08 June, 2012

मेरी कन्फ्यूजिंग डायरी

लिखने के अपने अपने कारण होते हैं. मैं देखती हूँ कि मुझे लिखने के लिए दो चीज़ों की जरूरत होती है...थोड़ी सी उदासी और थोड़ा सा अकेलापन. जब मैं बहुत खुश होती हूँ तब लिख नहीं पाती, लिखना नहीं चाहती...तब उस भागती, दौड़ती खुशी के साथ खेलना चाहती हूँ...धूप भरे दिन होते हैं तो छत पर बैठ कर धूप सेकना चाहती हूँ. खुशी एक आल कंज्यूमिंग भाव होता है जो किसी और के लिए जगह नहीं छोड़ता. खुशी हर टूटी हुयी जगह तलाश लेती है और सीलेंट की तरह उसे भर देती है. चाहे दिल की दरारें हों या टूटे हुए रिश्ते. खुश हूँ तो वाकई इतनी कि अपना खून माफ कर दूं...उस समय मुझे कोई चोट पहुंचा ही नहीं सकता. खुश होना एक सुरक्षाकवच की तरह है जिससे गुज़र कर कुछ नहीं जा सकता.

कभी कभी ये देख कर बहुत सुकून होता था कि डायरी के पन्ने कोरे हैं...डायरी के पन्ने एकदम कोरे सिर्फ खुश होने के वक्त होते हैं...खुशियों को दर्ज नहीं किया जा सकता. उन्हें सिर्फ जिया जा सकता है. हाँ इसका साइड इफेक्ट ये है कि कोई भी मेरी डायरी पढ़ेगा तो उसे लगेगा कि मैं जिंदगी में कभी खुश थी ही नहीं जबकि ये सच नहीं होता. पर ये सच उसे बताये कौन? उदासी का भी एक थ्रेशोल्ड होता है...जब हल्का हल्का दर्द होता रहे तो लिखा जा सकता है. दर्द का लेवल जैसे जैसे बढ़ता जाता है लिखने की छटपटाहट वैसे वैसे बढ़ती जाती है. लिखना दर्द को एक लेवल नीचे ले आता है...जैसे मान लो मर जाने की हद तक होने वाला दर्द एक से दस के पॉइंटर स्केल पर १० स्टैंड करता है तो लिखने से दर्द का लेवल खिसक कर ९ हो जाता है और मैं किसी पहाड़ से कूद कर जान देने के बारे में लिख लेती हूँ और चैन आ जाता है.

खुशी के कोई सेट पैरामीटर नहीं हैं मगर उदासी के सारे बंधे हुए ट्रिगर हैं...मालूम है कि उदासी किस कारण आती है. इसमें एक इम्पोर्टेंट फैक्टर तो बैंगलोर का मौसम होता है. देश में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं बैंगलोर में होती हैं. ऑफ कोर्स हम इस शहर के अचानक से फ़ैल जाने के कारण जो एलियनेशन हो रहा है उसको नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते...लोग बिखरते जा रहे हैं. हमारे छोटे शहरों जैसा कोई भी आपका हमेशा हाल चाल पूछने नहीं आएगा तो जिंदगी खाली होती जा रही है...इसमें रिश्तों की जगह नहीं बची है. बैंगलोर में सोफ्टवेयर जनता की एक जैसी ही लाइफ है(सॉरी फॉर generalization). अपने क्यूबिकल में दिन भर और देर रात तक काम और वीकेंड में दोस्तों के साथ पबिंग या मॉल में शोपिंग या फिल्में. साल में एक या दो बार छुट्टी में घर जाना. बैंगलोर इतना दूर है कि यहाँ कोई मिलने भी नहीं आता. उसपर यहाँ का मौसम...बैंगलोर में हर कुछ दिन में बारिश होती रहती है...आसमान में अक्सर बादल रहते हैं. शोर्ट टर्म में तो ये ठीक है पर लंबे अंतराल तक अगर धूप न निकले तो डिप्रेशन हो सकता है. सूरज की रौशनी और गर्मी therapeutic होती है न सिर्फ तन के लिए बल्कि मन को भी खुशी से भर देती है.

इस साल की शुरुआत में दिल्ली गयी थी...बहुत दिन बाद अपने दोस्तों से मिली थी. वो अहसास इतना रिचार्ज कर देने वाला था कि कई दिन सिर्फ उन लम्हों को याद करके खुश रही. मगर यादें स्थायी नहीं होती हैं...धीरे धीरे स्पर्श भी बिसरने लगता है और फिर एक वक्त तो यकीन नहीं आता कि जिंदगी में वाकई ऐसे लम्हे आये भी थे. मैं जब दोस्तों के साथ होती हूँ तब भी मैं नहीं लिखती...दोस्त यानि ऐसे लोग जो मुझे पसंद हैं...मेरे दोस्त. जिनके साथ मैं घंटों बात कर सकती हूँ. पहले एक्स्त्रोवेर्ट थी तो मेरा अक्सर बड़ा सा सर्किल रहता था मगर अब बहुत कम लोग पसंद आते हैं जिनके साथ मैं वक्त बिताना चाहूँ. मुझे लगता है वक्त मुझे बहुत खडूस बना दे रहा है. अब मुझे बड़े से गैंग में घूमना फिरना उतना अच्छा नहीं लगता जितना किसी के साथ अकेले सड़क पर टहलना या कॉफी पीते हुए बातें करना. बातें बातें उफ़ बातें...जाने कितनी बातें भरी हुयी हैं मेरे अंदर जो खत्म ही नहीं होतीं. बैंगलोर में एक ये चीज़ सारे शहरों से अच्छी है...किसी यूरोप के शहर जैसी...यहाँ के कैफे...शांत, खुली जगह पर बने हुए...जहाँ अच्छे मौसम में आप घंटों बैठ सकते हैं.

लिखने के लिए थोड़ा सा अकेलापन चाहिए. जब मैं दोस्तों से मिलती रहती हूँ तो मेरा लिखने का मन नहीं करता...फिर मैं वापस आ कर सारी बातों के बारे में सोचते हुए इत्मीनान से सो जाना पसंद करती हूँ. अक्सर या तो सुबह के किसी पहर लिखती हूँ...२ बजे की भोर से लेकर १२ तक के समय में या फिर चार बजे के आसपास दोपहर में. इस समय कोई नहीं होता...सब शांत होता है. ये हफ्ता मेरा ऐसा गुज़रा है कि पिछले कई सालों से न गुज़रा हो...एक भी शाम मेरी तनहा नहीं रही है. और कितनी तो बातें...और कितने तो अच्छे लोग...कितने कितने अच्छे लोग. मुझे इधर अपने खुद के लिए वक्त नहीं मिल पाया इतनी व्यस्त रही. एकदम फास्ट फॉरवर्ड में जिंदगी.

इधर कुक की जगह मैं खुद खाना बना रही हूँ...तो वो भी एक अच्छा अनुभव लग रहा है. बहुत दिन बाद खाना बनाना शौक़ से है...मुझे नोर्मली घर का कोई भी काम करना अच्छा नहीं लगता...न खाना बनाना, न कपड़े धोना, न घर की साफ़ सफाई करना...पर कभी कभार करना पड़ता है तो ठीक है. मुझे सिर्फ तीन चार चीज़ें करने में मन लगता है...पढ़ना...लिखना...गप्पें मारना, फिल्में देखना और घूमना. बस. इसके अलावा हम किसी काम के नहीं हैं :)

फिलहाल न उदासी है न अकेलापन...तो लिखने का मूड नहीं है...उफ़...नहीं लिखना सोच सोच के इतना लिख गयी! :) :)

03 June, 2012

चूल्हे के धुएँ सी सोंधी औरतें और धुएँ के पार का बहुत कुछ


छः गोल डब्बों वाला मसालदान होती हैं 
आधी रात को नहाने वाली औरतें

उँगलियों की पोर में बसी होती है
कत्थई दालचीनी की खुशबू 

पीठ पर फिसलती रहती है
पसीने की छुआछुई खेलती बूँदें 

कलाइयों में दाग पड़ते हैं
आंच में लहकी कांच की चूड़ियों से 

वे रचती हैं हर रोज़ थोड़ी थोड़ी
डब्बों और शीशियों की भूलभुलैया 

उनके फिंगरप्रिंट रोटियों में पकते हैं
लकीरों में बची रह जाती है थोड़ी परथन 

खिड़की में नियत वक्त पर फ्रेम रहती हैं
रोज के सोप ओपेरा की तरह

किचन हर रोज़ चढ़ता है उनपर परत दर परत
रंग, गंध, चाकू के निशान, जले के दाग जैसा 

नहाने के पहले रगड़ती हैं उँगलियों पर नीम्बू
चेहरे पर लगाती हैं मलाई और शहद 

जब बदन को घिस रहा होता है लैवेंडर लूफॉ 
याद करती हैं किसी भूले आफ्टरशेव की खुशबू 

आधी रात को नहाने वाली औरतें में बची रहती है 
१६ की उम्र में बारिश में भीगने वाली लड़की

25 May, 2012

बोली बनाम भाषा ऐंड माथापच्ची इन बिहारी

इन्सोम्निया...कितना रसिक सा शब्द है न? सुन कर ही लगता है कि इससे आशिकों का रिश्ता होगा...जन्मों पुराना. ट्रांसलेशन की अपनी हज़ार खूबियां हैं मगर मुझे हमेशा ट्रांसलेशन एक बेईमानी सा लगता है...अच्छा ट्रांसलेशन ऐसे होना चाहिए जैसे आत्मा एक शरीर के मर जाने के बाद दूसरे शरीर में चली जाती है. मैं अधिकतर अनुवादित चीज़ें नहीं पढ़ती हूँ...जानती हूँ कि ऐसे पागलपन का हासिल कुछ नहीं है...और कैसी विडंबना है कि मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म कैन्तोनीज (Cantonese)में बनी है...इन द मूड फॉर लव. ऐसा एक भी बार नहीं होता है कि इस फिल्म को देखते हुए मेरे मन में ये ख्याल न आये कि ट्रांसलेशन में कितना कुछ छूट गया होगा...बचते बचते भी इतनी खूबसूरती बरकरार रही है तो ओरिजिनल कितना ज्यादा खूबसूरत होगा.

मेरे अनुवाद को लेकर इस पूर्वाग्रह का एक कारण मेरी अपनी विचार प्रक्रिया है. मैं दो भाषाओं में सोचती हूँ...अंग्रेजी और हिंदी...ऐसा लगभग कभी नहीं होता कि एक भाषा में सोचे हुए को मेंटली दूसरे भाषा में कन्वर्ट कर रही हूँ. अभी तक का अनुभव है कि कहानियां, कविताएं और मन की उथल पुथल होती है तो शब्द हमेशा हिंदी के होते हैं और टेक्नीकल चीज़ें, विज्ञापन और सिनेमा से जुड़ी चीज़ों के बारे में सोचना अक्सर अंग्रेजी में होता है. इसके पीछे कारण ये है कि पूरी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम में हुयी है और फिर ऑफिस भी वैसे ही रहे जिनमें अधिकतर काम और कलीग्स के बीच बातें अंग्रेजी में होती रहीं. वैसे तो सभ्य भाषा का इस्तेमाल करती हूँ लेकिन अगर गुस्सा आया तो गालियाँ हमेशा हिंदी में देना पसंद करती हूँ.

मुसीबत तब खड़ी होती है जब कुछ उलट करना पड़े...जैसे किसी कारणवश कुछ मन की बात अंग्रेजी में लिखना हो...कई बार तब अनुवाद करना होता है और हालाँकि ये प्रक्रिया बहुत तेज़ी से घटती है फिर भी मन में कुछ न कुछ टूटा हुआ चूरा रह ही जाता है जो कहीं फिट नहीं होता. ये बचे खुचे शब्द फिर मेरा जीना हराम कर देते हैं. फिल्मों या विज्ञापन पर हिंदी में लिखने पर ऐसी ही समस्या का सामना करना होता है...पूरे पूरे वाक्यांश अंग्रेजी में बनते हैं...फिर उनके बराबर का कुछ हिंदी में सोचना पड़ता है...और कितना भी खूबसूरत सोच लूं ऐसा बहुत कम होता है कि किसी फ्रेज(Phrase) के हिंदी अनुवाद से तसल्ली मिल सके. अच्छा होता न दिमाग में एक स्विच होता जिसे अंग्रेजी और हिंदी की ओर मोड़ा जा सकता जरूरत के हिसाब से.

मुझे ये भी लगता है कि लेखन में, खास तौर से मौलिक लेखन में परिवेश एक बेहद जरूरी किरदार होता है...कांटेक्स्ट के बाहर आप चीज़ों को समझ नहीं सकते और कुछ चीज़ों का वाकई अनुवाद हो ही नहीं सकता है. अनुवाद की सीमा से परे जो शब्द लगते हैं वो अक्सर 'बोलियों/dialects' का हिस्सा होते हैं, इसका कारण होता है कि कई शब्दों के पीछे कहानी होती है कि जिसके बिना उनका वजूद ही नहीं होता...कुछ शब्दचित्र होते हैं जिन्हें समझने के लिए आपको अपनी आँखों से उन दृश्यों को देखना जरूरी होता है वरना शब्द तो होंगे मगर निर्वात में...परिवेश से अलग उनका कोई वजूद नहीं होता. आप भाषा का अनुवाद कर सकते हैं पर बोली का नहीं...ये कुछ वैसे ही है जैसे भाव कई बार कविता में व्यक्त हो सकता है लेकिन गद्य में नहीं.

बिहार के बारे में एक फेवरिट डायलोग है...यू कैन ओनली बी बोर्न अ बिहारी...यू कैननोट इन एनी वे बिकम अ बिहारी...यानि कि आप जन्म से ही बिहारी हो सकते हैं...और कौनो तरीका नै है बाबू...बिहार में पैदा होने के कारण बचपन से अनगिनत बोलियां सुनती आई हूँ...हमारे यहाँ कहावत है...कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी...अर्थात...हर कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और चार कोस की दूरी पर बोली बदल जाती है. गाँव में ऐसे लोग होते थे जो अनजान आदमी से पाँच मिनट बात करके उसका घर बता देते थे. बोली पहचान का उतना ही अभिन्न हिस्सा थी जितना कि किसी का नाम. ऐसे लोग रिश्ता तय करने, बर्तुहार आने के समय में खास तौर से बहुत काम के माने जाते थे. यही नहीं गाँव में कोई नया आदमी आया नहीं कि उसे टोहने के लिए इन्हें बुला लिया जाता था.

बातचीत का एक बहुत जरूरी हिस्सा होती हैं कहावतें...पापा जितने मुहावरे इस्तेमाल करते हैं मैं उनमें से शायद ४० प्रतिशत ही इस्तेमाल करती हूँ, वो भी बहुत कम. हर मुहावरे के पीछे कहानी होती है...अब उदहारण लीजिए...अदरी बहुरिया कटहर न खाय, मोचा ले पिछवाड़े जाए. ये तब इस्तेमाल किया जाता है जब कोई बहुत भाव खा रहा होता है...कहावत के पीछे की कहानी  ये है कि घर में नयी बहू आई है और सास उसको बहुत मानती है तो कहती है कि बहू कटहल खा लो, लेकिन बहू को तो कटहल से ज्यादा भाव खाने का मन है तो वो नहीं खाती है...कुछ भी बहाना बना के...लेकिन मन तो कटहल के लिए ललचा रहा है...तो जब सब लोग कटहल का कोआ खा चुके होते हैं तो जो बचे खुचे हिस्से होते हैं जिन्हें मोचा कहा जाता है और जिनमें बहुत ही फीका सा स्वाद होता है और जिसे अक्सर फ़ेंक दिया जाता है, बहू कटहल का वही बचा खुचा टुकड़ा घर के पिछवाड़े में जा के खाती है.

जिंदगी जो अफ़सोस का पिटारा बना के रखी हूँ उसमें अपने घर की भाषा(भागलपुरी/अंगिका) नहीं बोल पाना सबसे ज्यादा सालता है. पटना में रहते हुए पड़ोसी भोजपुरी बोलते थे...दिल्ली में एक करीबी दोस्त भी भोजपुरी बोलता था...तो काफी दिन तक ठीक-ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे पर अब फिर से एकदम हिंदी पर आ गए हैं. अधिकतर दोस्तों से बात हिंदी में होती है. लेकिन बिहारी को बिहारी में गरियाने का जो मज़ा है ना कि आह! फिर से कुछ उदाहरणों पर आते हैं...एक शब्द है 'चोट्टा'...बेहद प्रेमभरी गाली है...सन्दर्भ सहित व्याख्या ऐसे होती है...

'शाम ऐसे लगती है जैसे किसी छोटी लड़की के गालों पर किसी बदमाश लड़के ने चुट्टी काटी हो...और उसके सफ़ेद रुई के फाहे जैसे गाल गुलाबी हो गए हों...गुस्से से भींचे होठ लाल...और वो शुद्ध बिहारी गाली देते हुए उसके पीछे दौडी हो.
चोट्टा!'

एक दोस्त है मेरा...उसे बात करते हुए हर कुछ देर में ऐसा कुछ कहना ही पड़ता है...लात खाओगे...मार के ठीक कर देंगे...डीलिंग दोगे बेसी हमको...अपनी तरह बोक्का समझे हो...देंगे दू थाप...ढेर होसियार बूझते हो...तुमरा कुच्छो नहीं हो सकता...कुछ बुझाईबो करता है तुमको...और एक ठो सबसे ज्यादा मिस्युज्ड शब्द है...थेत्थर(verb-थेथरई, study of थेथर एंड इट्स कांटेक्स्ट: थेथरोलोजी). अब इसका अनुवाद करने में जान चले जाए आदमी का. वैसे ही एक शब्द है...चांय...अब  चांय  आदमी जब तक आपको दिखा नहीं दिया जाए आप समझ ही नहीं सकते है कि किस  अर्थ में प्रयुक्त होता है. इसमें इनटोनेशन/उच्चारण बेहद जरूरी हिस्सा है...भाषा में चूँकि शब्दों के अर्थ तय होते हैं पर बोली में शब्द के कहने के माध्यम से आधा अर्थ उजागर होता है.

बचपन से हिंदी में बात करने के कारण कितना कुछ खो चुकी हूँ अब महसूस होता है लेकिन उसे वापस पाने का कोई उपाय नहीं है...अब जब नन्हें बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देखती हूँ तो अक्सर सोचती हूँ...पराये देश की भाषा सीखते ये बच्चे कितने बिम्बों से अनभिज्ञ  रह जायेंगे...इन्हें petrichor तो मालूम होगा पर सोंधा नहीं मालूम होगा...सोंधे के साथ गाँव की गंध की याद नहीं आएगी. कितना कुछ खो रहा है...कितना कुछ कहाँ, कैसे समेटूं समझ नहीं आता. स्कूल में सिर्फ युनिफोर्म से नहीं दिमागी तरीके से भी क्लोन बनके निकल रहे हैं बच्चे...मेरी जेनेरेशन में ही कितनों ने सालों से हिंदी का कुछ नहीं पढ़ा...बहुतों को देवनागरी लिपि में पढ़ने में दिक्कत होती है. 

चौकी पर रखा हँसुआ.
इन सब ख्यालों के बीच एक दिन का धूप में बैठ कर अचानक रो देना याद आता है कि जब अचानक से ख्याल आया था कि मेरे बेटी अगर होगी तो उसको कभी कटहल बनाना नहीं सिखा पाउंगी क्योंकि कटहल काटने के लिए जिस हंसुए का इस्तेमाल जरूरी होता है वो उसके बड़े होने तक गायब हो जाएगा. ऐसे ही गायब हो जायेंगे कितने शब्द...कितनी दोस्ती...कितना अपनापन. कि जो इस मिट्टी में पैदा हुए हैं वही जानते हैं कि माथा दुखा रहा है में जो रस है वो सर दर्द कर रहा है में कहाँ.

सागर को सगरवा कहने का सुख...बचपन की याद से लहरों की तरह लौटता...गूंजता...नितुआ गे... बड़ी दिदिया...छोटकी फुआ...कुंदनमा... रे जिमिया...और आखिर में मंच पे पर्दा गिरने के पहले लौटता वो नाम जो बहुत सालों से गुम हो गया है...रे पमियाsssss 

पुनःश्च - कहाँ से कहाँ पहुँच गए...शायद इतना सारा कुछ धीरे धीरे मन में उमड़ घुमड़ रहा था...एक दिन राहुल सिंह जी के ब्लॉग पर छत्तीसगढ़ी पर ये आलेख पढ़ा था तब से.

बिहारी में एक लाजवाब सीरीज अभिषेक के ब्लॉग पर भी चल रही है...पटना की अद्भुत झलकी और कमाल के रंगीन लोग...जरा हुलक के आइये. 

16 May, 2012

मुस्कुरा कर मिलो जिंदगी...

परसों एक एचआर का फोन आया एक जॉब ओपनिंग के बारे में...मैं आजकल फुल टाइम जॉब करने के मूड में थी नहीं तो अधिकतर सॉरी बोल कर फोन रख दिया करती थी. इस बार पता नहीं...शायद हिंदी का कोई शब्द था या दिल्ली के नंबर से फोन आया था या कि जिस ऑफिस में पोजीशन खाली थी वो घर के एकदम पास था...मैंने इंटरव्यू के लिए हाँ कर दी.

मेरे इंटरव्यू नोर्मली काफी लंबे चलते हैं...कमसे कम दो घंटे और कई बार तो चार घंटे तक चला है...अनगिनत बातें हो जाती हैं. मुझे खुद भी महसूस होता है इंटरव्यू देते वक्त कि मैं काफी इंटरेस्टिंग सी कैरेक्टर हूँ और मेरे जैसे लोग वाकई इंटरव्यू के लिए कम ही आते होंगे. कभी कभी होता भी है कि इंटरव्यू के लिए गयी हूँ तो लाउंज में बैठे बाकी कैंडिडेट्स को देखती हूँ और सोचती हूँ कि कैसे लोग होंगे. उनमें से अधिकतर मुझे काफी सजग और एक आवरण में ढके हुए लगते हैं...मैं इंटरव्यू में भी फ्री स्पिरिट जैसी रहती हूँ. कितना भी  कोई बोल ले...कभी फोर्मल कपड़े पहन कर नहीं गयी...वही पहन कर जाती हूँ जो मूड करता है. जैसे आज का इंटरव्यू ले लो...प्लेन वाईट कुरता पहना था फिर दिल नहीं माना तो बस...चेक शर्ट, जींस, थोड़ी हील के सैंडिल, प्लेन सा बैग और पोर्टफोलियो. हाँ दो चीज़ें मैं कभी नहीं भूलती...हाथ में घड़ी और पसंद का परफ्यूम. 

आज भी बारह बजे दोपहर का इंटरव्यू था...मैं बाइक से पहुंची...हेलमेट उतारा...बालों को उँगलियों से हल्का काम्ब किया और पोनीटेल बना ली...रिसेप्शन डेस्क पर जो लड़की थी उसने एक मिनट वेट करने को कहा...तब तक जार्ज...जिसके साथ इंटरव्यू था सामने था. जो कि नोर्मल आदत है...एक स्कैन में पसंद आया कि बंदे ने पूरे फोर्मल्स नहीं पहने थे...डार्क ब्लू जींस, ब्लैक शर्ट और स्पोर्ट्स शूज. लगा कि ठीक है...क्रिएटिव का बन्दा है, क्रिएटिव जैसा है. उसने पूछा...चाय या कॉफी...मैंने कहा...नहीं, कुछ नहीं...बहुत दिन बाद किसी ने हिंदी में पूछा था...दिल एकदम हैप्पी हो गया...फिर जब वो मेरा पोर्टफोलियो देख रहा था तो मैंने देखा कि वो वही इंक पेन यूज कर रहा है जिसपर आजकल मेरा दिल आया हुआ है...LAMI का ब्लैक कलर में. एक पहचान सी बनती लगी...और इंस्टिंक्ट ने कहा कि इसके साथ काम करने में अच्छा लगेगा...अगेन...मुझे नोर्मली लोग पसंद नहीं आते. आजकल तो बिलकुल ही महाचूजी हो गयी हूँ.

इंटरव्यू कितना अच्छा होता है अगर इस बात का प्रेशर नहीं है कि जॉब चाहिए ही चाहिए...कितना अच्छा लगता है कोई आपसे कहे...टेल मे अबाउट योरसेल्फ...और आप फुर्सत और इत्मीनान से उसे अपने बारे में बताते जाइए. कई बार तो इगो बूस्ट सा होता है जब सोचती हूँ कि हाँ...कितना सारा तो तीर मार के बैठे हुए हैं...खामखा लोड लेते हैं, हमको भी न...उदास रहना अच्छा लगता है शायद मोस्टली. (प्लीज नोट द विरोधाभास हियर). मैं एकदम मस्त मूड में चहक चहक कर बात कर रही थी. 

इंटरव्यू लेने वाले लोग दो तरह के होते हैं...पहले थकेले टाइप...जो आपसे इतने गिल्ट के साथ बात करेंगे जैसे वो उस जगह काम नहीं करते किसी पिछले जन्म के पाप का फल भुगत रहे हैं और आप भी उस कंपनी में आयेंगे तो उनपर अहसान करेंगे टाइप...वे बेचारे दुखी आत्मा होते हैं, अपने काम से परेशान. मुझे ऐसे लोग एक नज़र में पसंद नहीं आते...अगर आप खुद खुश नहीं हो जॉब में तो नज़र आ जाता है...मेरे जैसे किसी को तो एकदम एक बार में. दूसरी तरह के वो लोग होते हैं जिन्हें अपने काम से प्यार होता है...जब वो आपको कंपनी के बारे में बता रहे होते हैं तो गर्व मिश्रित खुशी से बताते हैं...ये खुशी उनसे फूट फूट पड़ती है...ऐसे लोगों से बात करना भी बेहद अच्छा लगता है...उनके चेहरे पर चमक होती है और सबसे बढ़कर आँखों में चमक होती है. ऐसे लोगों के साथ किसी का भी काम करने का मन करता है और इंटरव्यू का रिजल्ट जो भी आये...मैं वहां ज्वाइन करूँ या न करूं पर इंटरव्यू में मज़ा आ जाता है. आज के इंटरव्यू में ये दूसरे टाइप का बन्दा बहुत दिन बाद देखने को मिला था...एकदम दिल खुश हो गया टाइप. 

मुझे एक और चीज़ भा गयी...मेरा नाम अधिकतर लोग Pooja लिख देते हैं...नाम के स्पेलिंग को लेकर बहुत टची हूँ...सेंटी हो जाती हूँ. मेरे ख्याल से ये दूसरी या तीसरी बार होगा लाइफ में कि किसी ने खुद से मेरे नाम की स्पेलिंग सही लिखी हो. मुझे नहीं मालूम कि फाइनली मैं वहां जॉब करूंगी कि नहीं...पर आज का इंटरव्यू लाइफ के कुछ बेस्ट इंटरव्यू में से एक रहेगा. 

कुछ दो ढाई बजे वापस आई तो कुणाल का फोन आया उसके इनकम टैक्स के पेपर की जरूरत थी ऑफिस में. मौसम एकदम कातिलाना हो रखा था...ड्राइव करते हुए मस्त गाने सुने और उसके ऑफिस पहुंची. वहां बगल में फोरम मॉल है जहाँ उसे कुछ काम था. हम वहां गए ही थे कि भयानक तेज बारिश शुरू हो गयी...आसमान जैसे टूट कर बरस रहा था. काफी देर सब वेट किये उधर फिर ऑफिस में डिले हो रहा था तो बारिश में भी भीगते भागते सब लोग गए. मैं उस झमाझम बरसती बारिश में एक प्यारे दोस्त से बात कर रही थी...हवा बारिश से भीगी हुयी थी...मॉल में मेरी पसंद के गाने बज रहे थे...इंटरव्यू अच्छा गया था. ओफ्फ क्या मस्त माहौल था. 

आज कुणाल ने ऑफिस थोड़ा बंक किया कि आठ साढ़े आठ टाइप छुट्टी...फिर घर पहुंचे. इधर एक App बनाने के मूड में हैं हम लोग तो उसी का रिसर्च चल रहा है. अभी तीन बजे तक साकिब के साथ डिस्कस किये हैं...अब सोने का टाइम आया...पर जैसा कि होता है, जाग गए हैं तो नींद नदारद. सोचा कुछ लिख लूं...अच्छे मूड में लिखने का कम ही मन करता है. बस ऐसे ही...यहाँ सकेरने का मन किया. इतनी अनप्रेडिक्टेबल लाइफ में कभी पुराने पन्ने पलटा कर देखूं तो यकीन हो तो सही कि खिलखिला के हँसने वाले दिन भी होते हैं. भोर होने को आई...अब हम सोने को जाते हैं. आप मेरी पसंद का गाना सुनिए जो मॉल में बज रहा था...बीटल्स का है. मेरा फेवरिट बैंड है. 

ग्लास फ्लूट के इन्स्ट्रुमेन्टल में ये गीत...ओह...जानलेवा था...कुछ गीतों पर ऐसे ही यादें स्टैम्प हो जाती हैं...मैं इस गीत को अब कभी भी सुनूंगी..उधर फोरम मॉल की रेलिंग से नज़र आती बारिश, एक दिलफरेब आवाज़ और अनंत खुशियों को महसूस करूंगी.

Sometimes...really...all you need is a tight hug... the wonderful thing about life and friendship and love is...sometimes...a friend sitting in some forlorn corner of the world says those simple words...and you really feel like you have been hugged...tightly. Imagine...underestimating the power of words! It simply is about the intensity behind those words...when you say those words as you feel them...even if you are kilometers apart...a friend's embrace melts all your sadness away. Words heal. Words hug. Words hold your hand.

Thank you...so much...I am glad I have you in my life. I love you.

PS: It just started raining again...my friends in Delhi...I am thinking of you...and for those in the parched corner of the country...for you too. Hugs.

04 May, 2012

जे थूरे सो थॉर...बूझे?

ऊ नम्बरी बदमास है...लेकिन का कहें कि लईका हमको तो चाँद ही लागे है...उसका बदमासी भी चाँदवे जैसा घटता बढ़ता रहता है न...सो. कईहो तो ऐसा जरलाहा बात कहेगा कि आग लग जाएगा और हम हियां से धमकी देंगे कि बेट्टा कोई दिन न तुमको हम किरासन तेल डाल के झरका देंगे...चांय नैतन...ढेर होसियार बनते हो...उ चोट्टा खींस निपोरे हीं हीं करके हँसता रहेगा...उसको भी बहुत्ते मज़ा आता है हमको चिढ़ा के.

एक ठो दिन मन नै लगता है उसे बतकुच्चन किये बिना...उ भी जानता है कि हम कितना भी उ थेत्थर को गरिया लें उससे बतियाए बिना हमरा भी खानवे नै पचेगा. रोज का फेरा है...घड़ी बेरा कुबेरा तो देखे नहीं...ऑफिस से छुट्टी हुआ कि बस...गप्प देना सुरु...जाने कौन गप्प है जी खतमे नै होता है. कल हमरा मूड एकदम्मे खराब था...उसको बोले कि हम अब तुमसे बतियायेंगे नहीं कुछ दिन तक...मूड ठीक होने दो तब्बे फोनियायेंगे...लेकिन ऊ राड़ बूझे तब न...सेंटी मारेगा धर धर के और ऊपर उसका किस्सा सुनो बारिस और झील में लुढ़कल चाँद का...कोई दिमागे नै है कि कौन मूड में कौन बात किया जाता है...अपने राग सुनाएगा आप जितना बकझक कर लीजिए हियाँ से. कपार पे हाथ मारते हैं कि जाने कौन बेरा ई लड़का मिला था जो एतना माथा चढ़ाये रखे हैं...इतने दुलरुआ तो कोइय्यो नहीं है हमरा.

कल बतियावे से जादा गरियावे का मन करे...और उसपर छौड़ा का लच्छन एकदम लतखोर वाला कि मन करे कि कोई दिन न खुब्बे लतियायें तुमको...एकदम थूर दें...थूरना बूझते हो न बाबू? इधर ऊ पिक्चर देख के आये 'अवेंजर्स' तुमको तो अंग्रेजी बुझायेगा नहीं तो तुम जा के उसका हिंदी वाला देखना...देखना जरूर...काहे कि उसमें एक ठो नोर्स देवता है...'थॉर' उसके पास एक हथोड़ा होता है जिससे ऊ सबको थुचकते रहता है. हमको लगता है हो न हो ई जो भाईकिंग सब था कभी न कभियो बिहार आया होगा...यहाँ कोई न कोई थूरा होगा ऊ सबको धर के...तो ई जो थॉर नाम का देवता है न...असल में कोई बिहारी रहा होगा...जे थूरे सो थॉर...बूझे? देखो केतना बढ़िया थ्योरी है. त बूझे ना बाबू जो दिन हत्थे चढोगे न बहुत पिटोगे.

राते में ई सब प्रेम पतिया तोरे लिखने के मन रहे बाबू लेकिन का है कि सूत गए ढेर जल्दी...कल मने बौराये हमहूँ निकल गए थे न घर से बाहर...भर दुपरिया टउआते रहे थे, गोड़ दुखाने लगा, खाना उना खा के चित सूत गए सो अभी भोर में आँख खुला है. कल का डीलिंग दे रहे थे जी...अंग्रेजी में बात करो, काहे कि हमको अपने जैसन बूझते हो का...भागलपुरी नै आता है तो अंग्रेजीयो में पैदल रहेंगे का...बहुत बरस पहले सीरी अमिताभ बच्चन जी कहे गए हैं से हम भी कोट करे देते हैं...आई कैन वाक इंग्लिस, आई कैन लाफ इंग्लिस, आई कैन रन इंग्लिस...बिकोज इंग्लिस इज अ भेरी फन्नी लैंगुएज.'

बाबु दुनिया का सब सुख एक तरफ और एक बिहारी को बिहारी में गरियाने का सुख एक तरफ...का कहें जी कल तुमसे बतिया के मन एकदम्मे हराभरा हो गया...वैसा कि जैसा पवन का कार्टून देख के हो जाता है...एकदम मिजाज झनझना गया...सब ठो पुराना चीज़ याद आने लगा कि 'लटकले तो गेल्ले बेट्टा' से लेकर 'ले बिलैय्या लेल्ले पर' तक. गज़बे मूड होई गया तुमसे बतिया के...कि दू चार ठो और दोस्त सब को फोन करिये लें...खाली गरियाये खातिर...कि मन भर गाली उली दे के फोन धर दें कि बहुत्ते दिन से याद आ रहा था चोट्टा सब...ढेर बाबूसाहब बने बैठे हो...खुदे नीचे उतरोगे चने के झाड़ से कि हम उतारें? सब भूत भगैय्ये देते कि फिर दया आ गया...बोले चलो जाने देते हैं...चैन से जी रहा है बिचारा सब.


लेकिन ई बात तो मानना पड़ेगा बाबू...मर्द का कलेजा है तोहार...हमको एतना दिन से झेलने का कूव्वत बाबु...मान गए रे...छौड़ा चाहे जैसन चिरकुट दिखे...लड़का...एकदम...का कहें...हीरा है हीरा.

चलो...अब हमरा फेवरिट वाला कार्टून देखो...जिससे एकदम्मे फैन बन गए थे बोले तो पंखा बड़ा वाला कि एसी एकदम से पवन टून का...और बेसी दाँत मत चियारो...काम धंधा नहीं है तुमको...चलो फूटो!

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