क्या करेगी रे लड़की ड्राफ्ट के इतना सारा पोस्ट का. खजाना गाड़ेगी घर के पीछे वाली मिटटी में कि संदूक में भरे अपने साथ ले जायेगी जहन्नुम? कहानी पूरा करने के लिए तुमको कोई लिख के इनवाईट भेजेगा...हैं...बताओ. दिन भर भन्नाए काहे घूमती रहती हो?
भोरे भोरे छः बजे कोई पागल भी ई मौसम में उठता नहीं है. कितना धुंध था बाहर. मन सरपट दिल्ली काहे भागता है जी...और जो दिल्लिये भागना है तो एतना बाकी शहर घूमने के लिए जान काहे दिए रहते हो रे? भोरे उठे नहीं कि धौंकनी उठा हुआ है...कौन लोहा है जी...दिल न हुआ कारखाना हो गया...गरम लोहा पीटने वाला लुहार हो गया...खून वैसे चलता है जैसे असेम्बली लाइन पर अलग अलग पार्ट. ऊ याद है जो मारुती के फैक्ट्री गए थे गुडगाँव में...कितना कुछ नया था वहां देखने को.
लेकिन बात ये है कि छुट्टी मिलते ही दिल दिल्ली काहे भागता है. जैसे एक ज़माने में पटना में आ के बस गए थे लेकिन दिल रमता था देवघर में. वहां का सब्बे चीज़ बढ़िया. अब कैसा तो देवघर भी पराया हो गया. घर है कहाँ? कहीं जा के नहीं लगता कि घर आ गए हैं. केतना तो चिंता फिकिर माथे पे लिए टव्वाते रहते हैं...यार ई स्पेल्लिंग सही नहीं है. जो शब्द दिमाग में आये उसका स्पेलिंग नहीं आये तो माथा ख़राब हो जाता है. भोरे भोर बड़बड़ा रहे हैं.
अबरी देवघर गए तो सीट के रसगुल्ला खाए...एकदम बिना कोई टेंशन लिए हुए कि वेट बढ़ेगा तो देखेंगे बैंगलोर जा के. सफ़ेद वाला...पीला वाला और ढेर सारा छेना मुरकी. अबरी गज़ब काम और भी किये कि एतना दिन में पहली बार सबके लिए खाना भी बनाए. वैसे तो हम बेशरम आदमी शायद नहियो बनाते लेकिन गोतनी को देख कर लजा गए...नयी बहुरिया...आई नहीं कि चौका में घुस गयी...सबको चाय बना के पिलाई और सब्जी बना रही थी. चुल्लू भर पानी डूब मरने को तो हमको मिलने से रहा. उसका आलू गोभी का सब्जी देख कर बुझा रहा था कि चटनी नियन भी खायेंगे तो घर में पूरा नहीं पड़ेगा. कुल जमा आदमी घर में उस समय था १८ चार पांच कम बेसी मिला के.
धाँय-धाँय जुटे एकदम. छठ का ठेकुआ बनाने में बाकी सब लोग था. तुरत फुरत आलू छील के काटे...फिर बैगन और टमाटर. हेल्प के लिए दू ठो लेफ्टिनेंट भी थी...छुटकी ननद सब...छौंक लगा के आलू बैगन डाले. इधर तब तक रोटी का कुतुबमीनार बनाना शुरू किये. सब्जी सिझा तो मसाला डाल के भूने और फिर टमाटर डाल दिए. इतने लोग का खाना पहले कभी बनाए नहीं थे लेकिन आज तक कभी नमक मसाला मेरे हाथ से इधर उधर नहीं हुआ था तो डर नहीं लगा. खाना बनाते हुए याद आ रहा था मम्मी बताती थी कैसे शादी के बाद ससुराल आई तो उसको कुछ बनाने नहीं आता था और ऊ सब सीखी धीरे धीरे. हमको खाली उतना लोग का आटा सानना नहीं बुझा रहा था. हम जब तक कुणाल का ब्रश खोज के उसको देने गए तब तक आटा कोई तो सान दिया था.
कभी कभी लगता है हम अजब जिद्दी और खत्तम टाइप के इंसान है. इतना लोग का रोटी नॉर्मली ऐसे बनता है कि एक कोई बेलता है, दूसरा फुलाता है. अब हमको सब काम अपने करना था...कोई और करे तो नौटंकी...रोटी जल रहा है, नै कच्चा रह रहा है...दुनिया का ड्रामा. सब ठो बन गया तो सोचे एक महान काम और कर लें, पता नै कब मौका मिले फिर. नहा के परसाद का ठेकुआ भी छाने खूब सारा. लकड़ी वाला चूल्हा में बन रहा था ठेकुआ...खूब्बे धाव था उसमें. हमको खौला हुआ तेल से बहुत डर लगता है तो ठेकुआ झज्झा पे धर के डाल रहे थे घी में...कहाँ से सीखे मालूम नहीं...अपना खुद का इन्वेंशन है कि किसी को देखे. घर पर लोग बोला 'लूर तो सब्बे है इसको...खाली कोई काम में मन नहीं लगता है'. थोड़ा देर के लिए तो मेरा भी मन डोल गया. सोचने लगे कि सब लोग कितना काम करती हैं रोज...अगला बार से छुट्टी पर घर आयेंगे तो रोज खाना बनायेंगे सब के लिए. पता नहीं सच्चे कर पायेंगे कि नहीं.
देवघर में खाना में इतना स्वाद आता है कि बैंगलोर में हम कुछो कर लें नहीं आएगा. भुना हुआ रहर का दाल में निम्बू और अपने खेत का चावल...आहा. सुबह नीती वाला सब्जी भी ख़ूब बढ़िया बना था आलू गोभी का लेकिन मेरे खाने टाइम तक बचा ही नहीं था. नानी लोग बोल रही थी कि इतना अच्छा बिना प्याज लहसुन वाला आलू बैगन ऊ कभी नहीं खायी थी. घर पर बचपन से बिना प्याज लहसुन के ही खाना बनता देखे हैं तो असल सब्जी हमको भी बिना प्याज वाला ही बनाना आता है. जब तक दादी थी तब तक तो घर में कभी नहीं आया.
नीती एक दिन खूब अच्छा चिली पनीर भी बना के खिलाई सबको. गोलू हमको बोला...भाभी अब आप भी कुछ खिलाइए ऐसा बना के...इतना दिन हो गया. हम तो हाथ खड़ा कर दिए हैं...हमसे नै होगा. कुछ और करवा लो...लिखवा लो, पढ़ाई करवा लो...तत्काल टिकट कटवा लो हमसे. खाना बनाना हमसे नै होगा. गज़ब सब काण्ड करते हैं हम भी...अबरी तीन बार देवघर स्टेशन गए टिकट कटाने. फॉर्म भर कर लाइन में लगे हुए फोन पर तत्काल टिकट कटाए. वृन्दावन में जा के भर दम मिठाई ख़रीदे और घर आ गए. और एक स्पेशल काम किये...स्कूल जा के सर से मिले. उसपर एक ठो डिटेल में पोस्ट लिखेंगे आराम से.
दस बीस ठो नागराज और ध्रुव का कोमिक्स खरीदे. छठ स्पेशल ट्रेन इत्ता लेट हुआ कि फ्लाईट छूट गया. वापस आये हैं तो तबियत ख़राब लग रहा है. अबरी पापा से मिलने भी नहीं जा सके. पाटली में इतना भीड़ था कि दम घुटने लगा...झाझा में उतर कर जनशताब्दी पकड़ के वापस देवघर आ गए. आज भोरे से कैसा कैसा तो दिमाग ख़राब हो रहा है. बुझा ही नहीं रहा है कि क्या क्या घूम रहा है माथा में. एक ठो दोस्त को बोले हैं कि आज गपियाते हैं आ के. ऊ भी पता नहीं जायेंगे कि नहीं.
भोरे सोचे कि पापा को फोन करके पूछें कि मन काहे बेचैन रहता है हमेशा...फिर सोचे पापा परेशान हो जायेगे. खूब देर तक बैठ के पुराना फोटो सब देखे. स्विट्ज़रलैंड का, पोलैंड का, अलेप्पी और जाने कहाँ कहाँ तो. कुछ देर गुलाम अली को सुने...फिर भी सब उदास लग रहा था...तो DDLJ का गाना लगा दिए. अनर्गल लिख रहे हैं पोस्ट पर. सांस लेने को दिक्कत हो रही है.
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
भोरे भोरे छः बजे कोई पागल भी ई मौसम में उठता नहीं है. कितना धुंध था बाहर. मन सरपट दिल्ली काहे भागता है जी...और जो दिल्लिये भागना है तो एतना बाकी शहर घूमने के लिए जान काहे दिए रहते हो रे? भोरे उठे नहीं कि धौंकनी उठा हुआ है...कौन लोहा है जी...दिल न हुआ कारखाना हो गया...गरम लोहा पीटने वाला लुहार हो गया...खून वैसे चलता है जैसे असेम्बली लाइन पर अलग अलग पार्ट. ऊ याद है जो मारुती के फैक्ट्री गए थे गुडगाँव में...कितना कुछ नया था वहां देखने को.
लेकिन बात ये है कि छुट्टी मिलते ही दिल दिल्ली काहे भागता है. जैसे एक ज़माने में पटना में आ के बस गए थे लेकिन दिल रमता था देवघर में. वहां का सब्बे चीज़ बढ़िया. अब कैसा तो देवघर भी पराया हो गया. घर है कहाँ? कहीं जा के नहीं लगता कि घर आ गए हैं. केतना तो चिंता फिकिर माथे पे लिए टव्वाते रहते हैं...यार ई स्पेल्लिंग सही नहीं है. जो शब्द दिमाग में आये उसका स्पेलिंग नहीं आये तो माथा ख़राब हो जाता है. भोरे भोर बड़बड़ा रहे हैं.
अबरी देवघर गए तो सीट के रसगुल्ला खाए...एकदम बिना कोई टेंशन लिए हुए कि वेट बढ़ेगा तो देखेंगे बैंगलोर जा के. सफ़ेद वाला...पीला वाला और ढेर सारा छेना मुरकी. अबरी गज़ब काम और भी किये कि एतना दिन में पहली बार सबके लिए खाना भी बनाए. वैसे तो हम बेशरम आदमी शायद नहियो बनाते लेकिन गोतनी को देख कर लजा गए...नयी बहुरिया...आई नहीं कि चौका में घुस गयी...सबको चाय बना के पिलाई और सब्जी बना रही थी. चुल्लू भर पानी डूब मरने को तो हमको मिलने से रहा. उसका आलू गोभी का सब्जी देख कर बुझा रहा था कि चटनी नियन भी खायेंगे तो घर में पूरा नहीं पड़ेगा. कुल जमा आदमी घर में उस समय था १८ चार पांच कम बेसी मिला के.
धाँय-धाँय जुटे एकदम. छठ का ठेकुआ बनाने में बाकी सब लोग था. तुरत फुरत आलू छील के काटे...फिर बैगन और टमाटर. हेल्प के लिए दू ठो लेफ्टिनेंट भी थी...छुटकी ननद सब...छौंक लगा के आलू बैगन डाले. इधर तब तक रोटी का कुतुबमीनार बनाना शुरू किये. सब्जी सिझा तो मसाला डाल के भूने और फिर टमाटर डाल दिए. इतने लोग का खाना पहले कभी बनाए नहीं थे लेकिन आज तक कभी नमक मसाला मेरे हाथ से इधर उधर नहीं हुआ था तो डर नहीं लगा. खाना बनाते हुए याद आ रहा था मम्मी बताती थी कैसे शादी के बाद ससुराल आई तो उसको कुछ बनाने नहीं आता था और ऊ सब सीखी धीरे धीरे. हमको खाली उतना लोग का आटा सानना नहीं बुझा रहा था. हम जब तक कुणाल का ब्रश खोज के उसको देने गए तब तक आटा कोई तो सान दिया था.
कभी कभी लगता है हम अजब जिद्दी और खत्तम टाइप के इंसान है. इतना लोग का रोटी नॉर्मली ऐसे बनता है कि एक कोई बेलता है, दूसरा फुलाता है. अब हमको सब काम अपने करना था...कोई और करे तो नौटंकी...रोटी जल रहा है, नै कच्चा रह रहा है...दुनिया का ड्रामा. सब ठो बन गया तो सोचे एक महान काम और कर लें, पता नै कब मौका मिले फिर. नहा के परसाद का ठेकुआ भी छाने खूब सारा. लकड़ी वाला चूल्हा में बन रहा था ठेकुआ...खूब्बे धाव था उसमें. हमको खौला हुआ तेल से बहुत डर लगता है तो ठेकुआ झज्झा पे धर के डाल रहे थे घी में...कहाँ से सीखे मालूम नहीं...अपना खुद का इन्वेंशन है कि किसी को देखे. घर पर लोग बोला 'लूर तो सब्बे है इसको...खाली कोई काम में मन नहीं लगता है'. थोड़ा देर के लिए तो मेरा भी मन डोल गया. सोचने लगे कि सब लोग कितना काम करती हैं रोज...अगला बार से छुट्टी पर घर आयेंगे तो रोज खाना बनायेंगे सब के लिए. पता नहीं सच्चे कर पायेंगे कि नहीं.
देवघर में खाना में इतना स्वाद आता है कि बैंगलोर में हम कुछो कर लें नहीं आएगा. भुना हुआ रहर का दाल में निम्बू और अपने खेत का चावल...आहा. सुबह नीती वाला सब्जी भी ख़ूब बढ़िया बना था आलू गोभी का लेकिन मेरे खाने टाइम तक बचा ही नहीं था. नानी लोग बोल रही थी कि इतना अच्छा बिना प्याज लहसुन वाला आलू बैगन ऊ कभी नहीं खायी थी. घर पर बचपन से बिना प्याज लहसुन के ही खाना बनता देखे हैं तो असल सब्जी हमको भी बिना प्याज वाला ही बनाना आता है. जब तक दादी थी तब तक तो घर में कभी नहीं आया.
नीती एक दिन खूब अच्छा चिली पनीर भी बना के खिलाई सबको. गोलू हमको बोला...भाभी अब आप भी कुछ खिलाइए ऐसा बना के...इतना दिन हो गया. हम तो हाथ खड़ा कर दिए हैं...हमसे नै होगा. कुछ और करवा लो...लिखवा लो, पढ़ाई करवा लो...तत्काल टिकट कटवा लो हमसे. खाना बनाना हमसे नै होगा. गज़ब सब काण्ड करते हैं हम भी...अबरी तीन बार देवघर स्टेशन गए टिकट कटाने. फॉर्म भर कर लाइन में लगे हुए फोन पर तत्काल टिकट कटाए. वृन्दावन में जा के भर दम मिठाई ख़रीदे और घर आ गए. और एक स्पेशल काम किये...स्कूल जा के सर से मिले. उसपर एक ठो डिटेल में पोस्ट लिखेंगे आराम से.
दस बीस ठो नागराज और ध्रुव का कोमिक्स खरीदे. छठ स्पेशल ट्रेन इत्ता लेट हुआ कि फ्लाईट छूट गया. वापस आये हैं तो तबियत ख़राब लग रहा है. अबरी पापा से मिलने भी नहीं जा सके. पाटली में इतना भीड़ था कि दम घुटने लगा...झाझा में उतर कर जनशताब्दी पकड़ के वापस देवघर आ गए. आज भोरे से कैसा कैसा तो दिमाग ख़राब हो रहा है. बुझा ही नहीं रहा है कि क्या क्या घूम रहा है माथा में. एक ठो दोस्त को बोले हैं कि आज गपियाते हैं आ के. ऊ भी पता नहीं जायेंगे कि नहीं.
भोरे सोचे कि पापा को फोन करके पूछें कि मन काहे बेचैन रहता है हमेशा...फिर सोचे पापा परेशान हो जायेगे. खूब देर तक बैठ के पुराना फोटो सब देखे. स्विट्ज़रलैंड का, पोलैंड का, अलेप्पी और जाने कहाँ कहाँ तो. कुछ देर गुलाम अली को सुने...फिर भी सब उदास लग रहा था...तो DDLJ का गाना लगा दिए. अनर्गल लिख रहे हैं पोस्ट पर. सांस लेने को दिक्कत हो रही है.
ये धुआं सा कहाँ से उठता है
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ReplyDeleteगोतनी माने??
ReplyDeleteकभी मारे आलस के कमेण्ट नहीं किये मगर इस शब्द का मतलब गूगल पर भी नहीं मिला तो लिखना पडा.. :)
जिठानी को भागलपुर तरफ गोतनी कहते हैं. पति के बड़े भाई की पत्नी :)
Deleteगोतनी के मूल रूप वाले कई शब्द होते हैं...गोतिया...परिवार के एक्सटेंडेड लोगों को इनक्लूड करता है...गोत्र से बना होगा शायद...इतना सुना हुआ शब्द है कि कभी ध्यान नहीं लगा.
गूगल में क्यूँ खोजा, किसी बिहारी से पूछ लेती :) :)
जिस किसी से भी पूछती उसे पूरी रामकथा सुनानी पडती कि काहे पूछ रही हो.. बडे जागरूक लोग हैं बाई गॉड की कसम :P
Deleteतुमसे पूछना ही सही रहा कि गोतिया का मतलब भी पता चल गया और बातचीत की शुरुआत भी हो गई :)
जागरूक लोगों से बच के रहा करो, वो तो कभी भी कोई सवाल पूछते फिरते हैं....
Deleteबहुत खूब .... बहुत खूब .... बहुत खूब ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा सोमवार 18/11/2013 को एक आम भारतीय का सच...हिन्दी ब्लागर्स चौपाल चर्चा : अंक 046(http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/)- पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर।
सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteई का ह रे :) एकदम लहरवा में उछाल मार दी है , ढेलवा बहुत दूर तक गया है , बंग्लौर से लेकर देवघर तक और ठेकुआ से लेकर तत्काल टिकट तक ...एक्के सांस में पढ गए ..बोले तो रमकौआ , झमकौआ पोस्ट बांची हो जी :) :) अबे अब दिल्लीए कौन दिल्ली जईसा रहा है ..कहीं होनोलुलु त कहीं मोजहप्परपुर हुआ जा रहा है एकदम से ....धांसू पोस्ट
ReplyDeleteमेरे दिमाग में आज डाउनलोड होते विचार
(:(:(:
Deletepranam.
बहूत खूब
ReplyDeleteएकदम से , एक बार में ही पूरा पढ़ गये और अच्छा भी बहुत लगा ....
ReplyDeleteएक ही सांस में हम तो पूरा पढ़ गए...मजा आ गया....दरअसल सब बूझ गए न..इसलिए
ReplyDeleteउ का कहते हैं, अईसा लगा जईसे घरवा होके फिर से आ गय, बहुत ही सुन्दर लिक्खे हैं आप अउरी का कहें एक्के साँस में फरफरा के पढ़ गए, अब बधाई स्वीकार करिये लीजिये।
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