26 November, 2013

क्लोज अप में तुम्हारी आँखें ज्यादा खूबसूरत दिखती हैं

कहाँ जा रहे हो तुम? समंदर किनारे गीली रेत पर तुम्हारे पैरों के निशान है...मेरे दिल पर तुम्हारे आने की आहट जैसे. कुछ देर में धुल जायेंगे...अगली लहर आने तो दो भला.
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आज फिर डाकिये को देखा. ना ना कोरियर वाला नहीं. असली डाकिया. भूरे ड्रेस वाला. पॉकेट में भारतीय डाकखाने का मोनोग्राम भी बना था. मैं काली साया बन उसकी नौकरी के ऊपर डोलती हूँ. मुझे वो एकदम अच्छा नहीं लगता, न वो घर जहाँ वो रोज चिट्ठियां गिराता है. कभी कभी दिल करता है उसे गले लगा कर एक बार जोर से रो पड़ूं. घर के रास्ते में जो रेड लेटर बोक्स आता है, जहाँ तुम्हें हफ्ते में दो दो चिट्ठियां तक गिराया करतीं थीं. कभी कभी दिल करता है उससे टेक लगा कर बैठी रहूँ और रात का कोहरा गिरता रहे. पूरी रात कोहरे को सियाही बना कर तुम्हें चिट्ठियां लिखूं कि तुम्हें समझ न आये कि उनमें आंसुओं की मिलावट है.

क्या लिखे कोई और क्यूँ...सब तो लिखा जा चुका है, फिर मैं कहाँ रीती जाती हूँ लिख लिख कर. पढ़ने का दिल नहीं करता. अपना लिखा भी नहीं पढ़ा कई दिनों से. मैं आजकल दो चीज़ें शुरू करना चाहती हूँ. मेरे मन का भी एक अल्टरनेट रियलिटी होता है, जहाँ मैं ये सारी चीज़ें कर सकती हूँ. मैं एक चिट्ठी लिखने वाला ग्रुप शुरू करना चाहती हूँ. जिसमें सब एक दूसरे को चिट्ठियां लिखें. कितना कुछ होता है न कहने को, जो कह नहीं सकते. ये लिखने की कैसी जिद है कि कागज़ कलम की खुशबू से सिंचता है.
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तुम्हें मालूम है, मैं तुम्हारे सवालों का जवाब होती जा रही हूँ. उन सवालों का भी जो तुम जिंदगी से करते हो. उन सवालों का भी जो तुम खुदा से करते हो...तुम्हारे उलाहनों के बाद का विस्मयादिबोधक चिन्ह जैसा. मेरे बिना अधूरा सा कुछ दिखता रहता है तुम्हारे वाक्यों में. तुम्हारी गलत मात्राओं में....तुम्हारे लिखे किरदारों का अपमान मैं अपने नाम लिखा लेती रही हूँ. उनकी विरक्ति में भी अपना अक्स देखती हूँ.

तुम वहां नहीं हो...मैं यहाँ नहीं हूँ...अगर तुम्हारे लिखे में नहीं हूँ तो मैं हूँ कहाँ? कैसी आदतें लग जाती हैं, न लगने वालीं. तुम्हारे हिज्जे की सुधारी हुयी गलतियों को देखती हूँ तो लगता है गाँव की पगडंडियों पर से दुबारा गुज़र रही हूँ. मैं हूँ हर उस जगह...वो जो बिंदी गलत लगाई थी तुमने, वो मैंने ताखे पे रखे आईने से उठा कर अपने माथे पर चिपका ली थी. छोटी, बड़ी मात्रा कहाँ समझ आई तुम्हें...
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मैं तुम्हारा चेहरा भूल गयी हूँ. कुछ इस तरह कि भीड़ में तुम्हें तलाश न सकूंगी. कैसी तो थी तुम्हारी मुस्कान?
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इस मौसम में सुबह कितने बजे होती है? खिड़कियाँ पूरब को खुलती है. मेरे उठने का वक़्त सात साढ़े सात बजे है लगभग. सूर्योदय शायद ही कभी देख पाती हूँ. कल दिन भर सर में बेतरह दर्द रहा है. वजह नहीं मालूम. जिंदगी अजीब सी लगती है. कहीं भाग जाना चाहती हूँ. लम्बी छुट्टियों पर. पलायन किसी समस्या का हल नहीं है. मुझे लगता ये है कि महीने भर की छुट्टी ले लूंगी तो शायद ठीक लगेगा सब कुछ, ये सोचते सोचते साल बीत जाता है. घबराहट ख़त्म नहीं होती. नींद चार बजे से खुली हुयी है. ठीक ठीक मालूम नहीं कैसे खुली. नींद खुलने पर भी नींद आ रही है पर घंटे भर तक नींद नहीं आई और बेतरह उलूल जुलूल ख्यालों ने दिमाग ख़राब कर दिया तो उठ गयी और लैपटॉप खोल लिया. यहाँ न कुछ पढ़ने में मज़ा आ रहा है न लिखने में.
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चूल्हे की तरह धुआंता है औरत का मन. सीला सीला कुछ. सबसे नीचे कोयले बिछाती हुयी देखती है कि...
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मैं सांस लेना चाहती हूँ. गहरी सांस. ऐसी गहरी कि मन के सबसे गहरे कोने तक की हवा ताज़ी महसूस हो. 
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I wake up with a heartache.
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मुझे मालूम नहीं क्यूँ. सोचती हूँ कि दर्द का कोई सबब मालूम होता तो बेहतर होता. सुबह की हवा बेहद मीठी है. जैसे दुनिया में सब कुछ अच्छा है. फीकी धूप है. ऐसी जिससे ज़ख्म के किनारों पर की उदासी ज्यादा उजागर न हो.
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तुम्हें पता है आज गुलज़ार की आवाज़ को पॉज करके तुम्हें सुना है. पसंद के सारे गानों, साउंडट्रैक के सारे अबूझ अनजान भाषाओँ के शब्दों को पॉज करके तुम्हारी आवाज़ का एक कतरा तलाशा है. कि बस एक तुम्हारी आवाज़ का कतरा ही चाहिए बस. सोचती हूँ, तुमने कभी कपड़े पसारे हैं? कभी कोई तौलिया तो निचोड़ा ही होगा तार पर डालने के पहले. वैसे ही सारा का सारा इन्टरनेट निचोड़ कर एक तुम्हारी आवाज़ का कतरा निकाला है. तुम्हें मालूम है तुम्हारी आवाज़ कितनी जिन्दा लगती है? अमृत जैसी. सूखे पौधे पर पड़ती है तो बिरवे फूट पड़ते हैं. कोई खूबसूरती नहीं है तुम्हारी आवाज़ में, यूँ कहो कि एक तरह का गंवारपना है, ठेठ बोली का लहका हुआ टोन आ जाता है अक्सर. जैसे पुल के ऊपर भागती ट्रेन दिखती है गंगा के पानी में नीचे.
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साइड प्रोफाइल में, एक खास एंगल से रौशनी पड़ती जब उसपर, तभी उसकी आँखों का दर्द उजागर होता था. बहरूपिया थी वरना वो...उसके हज़ार चेहरे, हर चेहरे पर मुस्कान, आँखों में उजली खिली धूप.
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जिन लोगों ने मुझे जिलाए रखा है.
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इससे पहले कि मैं भूल जाऊं. मुझे शुक्रिया अदा करना है इस फोटोग्राफर का. सीरिया में तसवीरें खींचते हुए, ख़ास इस तवीर को उसने सिर्फ काले और सफ़ेद रंग में खींचा. मैं डरते हुए जानती हूँ कि ये सियाह धब्बा खून का हो सकता है फिर भी दिल को तसल्ली दे सकती हूँ कि शायद टूटा हुआ पलस्तर हो. शायद भीगी हुयी दीवार हो या कि चराग जलाने के कारण जमा हुआ हो धुआं. काला सा ये धब्बा चीख चीख कर कहता है कि इसका रंग लाल है मगर मैं फिर भी शुक्रगुजार हूँ उस फोटोग्राफर की कि उसने ये तस्वीर ब्लैक एंड व्हाईट खींची है.

कभी कभी मैं बंद कर लेना चाहती हूँ अपनी आँखें. मुझे करना है शुक्रिया अदा उन सारे संगीतकारों का जो मुझे आत्महत्या के छोर से बचा कर ले आते हैं वापस. जिंदगी के अजीब से विरक्त दिनों में जब अवसाद का गहरा रंग मुझे रंगता जाता है गहरा नीला मैं किसी मुर्दा संगीतकार को सुनती हुयी जीने की वजहें तलाशती हूँ.
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तुम्हारा नाम कितना अद्भुत है तुम्हें मालूम है? संगीत के तीनों सुर, वो भी सही क्रम में...सारंग...सोचो ऐसा होता होगा क्या कि पहले सारंग में सिर्फ तीन सुर निकलते होंगे- सा, रे और ग इसलिए वाद्ययंत्र का नाम सारंग पड़ा?


तुम्हारे नाम को थोड़ा सा तोड़ दूं तो संगीत के तीन सुर बिलकुल सही लय में लग जायेंगे, तुम्हें मालूम है?
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मैंने अपने किरदारों को सर चढ़ा रखा है. बेहद मनमौजी और जिद्दी किस्म के हैं सारे के सारे. मैं छोटे बद्तमीज बच्चों को देखती हूँ तो बहुत गुस्सा आता है मुझे कि उनके माँ बाप किसी करम के नहीं हैं. कुछ सिखाया नहीं है बच्चे को, मनमानी करते हैं. बात मगर खुद की आती है तो किरदार सारे इतने लाड़ले हैं कि किसी का एक डायलॉग तक कभी बदल नहीं सकती. जो एक बार लिख दिया, मजाल है कि कभी बाद में खुद को समझा पाऊं कि बदल देना चाहिए.

उनके ख्वाब उनकी ख्वाहिशें...उनके मूड स्विंग्स. मेरा क्या. जब मन होगा चले आयेंगे, बिना वक़्त, महूरत देखे. मनहूस कमबख्त. क्या क्या न करना होता है उनके लिए. बहरहाल, एक की कहानी सुनाती हूँ. वोंग कार वाई की किसी फिल्म देखते हुए एक किरदार कमरे में चला आया. मुझे मालूम नहीं कि फिल्म का कोई एक्स्ट्रा था या यूँ ही परछाई भर से उभरा कोई. उसे सिर्फ कैंटोनीज भाषा आती है. उदास सी आँखों वाली लड़की है. मेरे साथ घर में रहती है कई दिनों से. अपनी कहानी सुनाने के लिए कई बार मुझे कई सारी चाइनीज फिल्में दिखा चुकी है. एक फिल्म से एक सीन समझ आता है उसकी जिंदगी का. 

चुप चुप सी रहती है. फोटोग्राफी का शौक़ है उसे. कोई अगर कहता है कि एक तस्वीर में हज़ार कहानियां होती हैं तो गलत कहता है. उसकी हर तस्वीर से एक ही कहानी दिखती है. किसी छूटे हुए को तलाश रही है वो.

किससे पूछ कर आया था ऐसा बहका हुआ मौसम. क्या बारिशों को मालूम नहीं था कि घर लौट आने का वक़्त अँधेरा होने से पहले का है? अगर दोपहर में ग्रहण लगते वाला हो और उसपर घने बादल छा जाएँ तो पंछी भी अपने घोसलों को लौट जाते हैं. मगर इस लड़की को किसी से मतलब ही न था. अरे बिना रोशनी के कौन सी तस्वीर खींचनी है उसे. आजकल जमाना कितना ख़राब है. ऐसी भटकी हुयी लड़कियों को कोई भी फुसला लेता है. थोड़े से प्यार से पिघल जायेंगी. फिर जाने कौन देश के किस रेड लाईट एरिया में भेज दी जायेंगी. कहाँ ढूंढूंगी मैं उसे फिर.

किसी की आदत लग गयी है ये सिर्फ तब मालूम हो सकता है जब वो इंसान पास न हो. जो हमेशा पास रहते हैं उनके बारे में कभी मालूम ही नहीं चलता कि उनकी आदत लग गयी है.
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ड्राफ्ट्स हैं सारे के सारे...कुछ नए...कुछ पुराने. अधूरे सब. मुकम्मल सिर्फ मैं. 

5 comments:

  1. "मैं एक चिट्ठी लिखने वाला ग्रुप शुरू करना चाहती हूँ. जिसमें सब एक दूसरे को चिट्ठियां लिखें. कितना कुछ होता है न कहने को, जो कह नहीं सकते. ये लिखने की कैसी जिद है कि कागज़ कलम की खुशबू से सींचता है."

    Such a novel thought...!
    ***
    मुकम्मल सिर्फ तुम... !

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  2. ..वो जो बिंदी गलत लगाई थी तुमने, वो मैंने ताखे पे रखे आईने से उठा कर अपने माथे पर चिपका ली थी :)

    Aur wo chitthi likhne wala group agar shuru ho to I would like to b a part of that for sure ... as its easy to talk wid strangers

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  3. चाहे कोई भी मौसम हो, कोई भी वक्त हो, कोई भी वजह हो...अपने साथ बहा ले जाने को पूजा और प्यार लहरों के बीच हमेशा मुझे गुमी हुई सोंधी मिटटी की खूशबू के तरह मिलते हैं

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  4. इन अधूरों में पूर्णता है, जो प्यास व्यक्त होनी थी।

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