31 December, 2018

फ़ुट्नोट्स


उसने अलविदा कहना ईश्वर से सीखा था। उसने मेरी पलकें चूमीं और मेरी मुट्ठी में एक शब्द रखा, 'अचरज'। उसने कहा कि जब भी तुम किसी नए दृश्य, रंग, गंध या स्वाद को लेकर अचरज से भरोगी, तुम्हें मैं याद रहूँगा। जिस दिन तुम्हें दुनिया पुरानी लगने लगेगी, मैं बिसर जाऊँगा।












When it's time, there is beauty in letting go.
Goodbye 2018.

26 December, 2018

लम्हों ने ख़ता की थी

शब्दों में जीने वाले लोगों से ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वे ज़िम्मेदार रहें। बेवक़ूफ़ी और बचपना एक उम्र तक ही ठीक रहता है। फिर हमें चाहिए कि लिखने के पहले नहीं तो पब्लिश करने के पहले तो ज़रूर सोचें एक बार। कि हम किसी काल्पनिक दुनिया में तो रहते नहीं हैं। न ही वे लोग जो रैंडम ही हमारे लिखे में चले आते हैं।

लेकिन सोच समझ के लिखना हमसे हो नहीं पाता। सारे शब्द नापतोल कर लिखने पर भी कभी कभी कोई एक शब्द रह जाता है ऐसा बेसिरपैर का और चुभ जाता है तलवे में... या कि आँख में ही और दुखता है बेसबब। 

फिर हम कैसी अजीब बातें सुनते बड़े हुए हैं जैसे कि, 'एक ग़लती तो भगवान भी माफ़ कर देता है'। भगवान का तो पता नहीं, लेकिन ग़लतियाँ माफ़ करने के केस में अपना भी क़िस्सा थोड़ा बुरा ही है। हाँ ग़लतियाँ करने में शायद अच्छी ख़ासी केस हिस्ट्री निकल आएगी। पता नहीं कितनों का दिल दुखाया होगा। जान बूझ के नहीं...लेकिन फ़ितरतन। मतलब कि ऐसा कुछ कह देने, बोल देने का आदत है। बोलते भी उसी तरह हैं बिना कॉमा फ़ुल स्टॉप के, लिखते भी उसी तरह हैं। इतना कहने लिखने में कभी कभी हो जाता है शब्द का हेरफेर। 

हम लेकिन कभी कभी रेस्ट्रोसपेक्टिव में देखते हैं। यूँ भी साल के आख़िरी दिन कुछ ऐसे ही बीतते हैं। हिसाब किताब में। कितने लोग खो गए। कितने हमारी ग़लती से बिसर गए। फिर ज़िंदगी जब सज़ा देती है तो गुनाह को ठीक ठीक माप के थोड़े ना देती है। हाँ स्लेट कोरी रहती तो शिकायत भी करते, थोड़ी ग़लती तो है ही हमारी।

आज पहली बार लग रहा है कि लोग खो जाते हैं कि हमको वाक़ई बात कहने का सलीक़ा नहीं है। कितनी बड़ी विडम्बना है ये। लिखने में हम जितना ही सुंदर रच सकते हैं कुछ भी, रियल ज़िंदगी में उतने ही हिसाब के कच्चे हैं। रिश्ते निभाना नहीं आता। सहेजना नहीं आता। 

फिर लगता है। यूँ ही हम ख़ुद को विलगाते जा रहे हैं सबसे। अच्छा ही है। कभी कभी तो लगता है एक ज़रा भी क्यूँ टोकना किसी को। कहना किसी से कुछ भी। पहले इस दुनिया के थोड़े क़ायदे सीख लें। फिर सोचेंगे। वैसे रहते कहाँ हैं हम... साल का सात दिन का बुक फ़ेयर। बस। फिर तो फ़ोन कभी बजता नहीं। मेसेज हम ज़्यादा किसी को करते नहीं। कभी कभार। थोड़ा बहुत।

कैसी उदास सी फ़ीलिंग आ रही है ये लिखते हुए। कि मेरे होने से, मेरे लिखने से अगर किसी को दुःख पहुँचता है, तो हे ईश्वर... उससे ज़्यादा दुःख मेरी क़िस्मत में लिखना। 

अस्तु।

21 December, 2018

नींद की धूप में सोने के दिन हैं

A door, Paris
सुबह का गुनगुना सपना था। मैं नींद की धूप में सोती रही देर तक।

तुम्हारा गाँव था नदी किनारे। वहीं तुम्हारा बड़ा सा घर। धान के टीले लगे हुए थे। धूप में निकाली हुयी खटिया थी। फिर पता नहीं कैसे तो मेरे पापा तुम्हारे घर वालों को जानते थे। कितने खेत थे घर के आसपास। कोई त्योहार था। शायद सकरात या फिर रामनवमी। गाँव के एंट्री पर चिमकी वाला झंडी लगा हुआ फहरा रहा था हवा में फरफ़र।

घर पर सब लोग जब ऐडजस्ट हो गए। गपशप मारा जा रहा था। कहीं आग लहकाया हुआ था। गुड़ की गंध भी आ रही थी आँगन में। लड़ुआ बन रहा होगा। तिल, चूड़ा, मूर्ही। मिट्टी वाली दीवार थी,  हम बाहर आए तो तुमको देखे। तुम बैगी वाला स्वेटर पहने मोटरसाइकिल लेकर कहीं जा रहे थे। शायद मिठाई मिक्चर कुछ लाने को। ऐसा स्वेटर 90s में ख़ूब चला था। स्वेटर का रंग हल्का नारंगी लाल जैसा था। एक तरह का मिक्स ऊन आता था। उसी का। गोल गला, हाथ का बुना हुआ स्वेटर। लाल बॉर्डर का कलाई और गला। हम पीछे से जा के पूछे, हम भी चलें। तुम हँस के बोले हो, डरोगी नहीं तुम? फिर एकदम एक जगह से फ़ुल ट्विस्ट करके बाइक घुमाए हो। हम पीछे बैठे हैं तुम्हारे। पुरानी यामाहा बाइक है। ठंढा है बहुत। हवा

एकदम सनसना के लग रहा है। दायाँ गाल और आधा चेहरा तुम्हारी पीठ पर टिका हुआ है, माथा भी। आँख बंद है। ऊन का खुरदरापन और गरमी दोनों महसूस होता है गाल पे। तुम्हारा होना भी।

नहर किनारे पुआल का टाल बन रहा है। आधा हुआ है, आधा का काम शायद शाम को शुरू होगा। कोहरा है दूर दूर तक लेकिन अब थोड़ा धूप निकलना शुरू हुआ है। हम एकदम ठंडी हथेली सटाते हैं तुम्हारे गाल से। तुम एक मिनट ठहर कर मुझे देखते हो, मैं तुम्हें। हाथ पकड़ कर तुम मुझे थोड़ा पास लाते हो और गले लगाते हो। जाड़ों वाली फ़ीलिंग आती है तुम्हारे गले लग के। अलाव वाली। तुम कोई मौसम लगते हो। जाड़ों का। धीरे धीरे जैसे आँखें मुंदती हैं…जैसे रुकते हैं मौसम। कुछ महीनों तक।

***
मैं सोचती हूँ मेरे सपनों में तुम और गाँव दोनों अक्सर आते हैं। एक साथ ही। अक्सर नहर के पास वाली कोई जगह होती है। हम कहाँ रह गए हैं कि ऐसी छूटी हुयी जगह जाते हैं सपने में साथ। पता नहीं क्यूँ एक और बात भी याद आती है। कहीं पढ़ा था कि हम सपने में अगर किसी को देखते हैं तो इसका मतलब वो व्यक्ति हमारे बारे में सोच रहा होगा, या कि उसने भी सपने में हमें देखा होगा। इस थ्योरी के ख़िलाफ़ ये तर्क दिया जाता है कि उनका क्या जिन्होंने सपने में माधुरी दीक्षित को देखा है, माधुरी थोड़े ना उन्हें सपने में देख रही होगी। फिर मुझे याद आते हैं वे सपने जिनमें आए हुए लोगों की शक्ल मैंने पहले नहीं देखी थी। ये तो वे लोग हो सकते हैं ना? तो हो सकता है, माधुरी ने वाक़ई सपने में ऐसे लोग देखे हों जिन्हें उसने ज़िंदगी में कभी नहीं देखा, बस सपने में देखा है।

***
कभी कभी कुछ दुःख इतने गहरे होते हैं कि हम उनके इर्द गिर्द एक चहारदीवारी खींच देते हैं कि हम इन्हें किसी और दिन महसूस करेंगे। कि हमारा आज का नाज़ुक दिल इस तरह का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। कल तुमसे बात करना ऐसा ही था। हमारे बीच भी बात करने को चीज़ें ना हों। किसी अजनबी की तरह तुमसे बात करना तरतीब से मेरे टुकड़े कर रहा था। मैंने उस दोपहर को ही अपने ख्याल से परे रख दिया है। मैं सोच ही नहीं सकती इस तरह से तुम्हारे बारे में।

किसी रोज़ इत्मीनान से सोचूँगी कि हमारे बीच ऐसे पूरे पूरे महाद्वीप कब उठ खड़े हुए। मेरे तुम्हारे शहर इतने दूर कैसे हो गए। कि तुम्हारी हँसी के रंग का आसमान देखने के लिए कितनी स्याह रातें दुखती आँखें काटेंगी। कि तुमसे प्यार करना दुःख कब से देने लगा। कि हम प्रेम में बैराग लाना चाह रहे हैं। ख़ुद को बचाए रखना, इतना ज़रूरी कब से हो गया।

एक दिन तुम बिसर जाओगे। पर तब तक जो ये ठंढ का मौसम तुम्हारी आवाज़ में उतर आता है। मैं इस मौसम में ठिठुर के मर जाऊँगी।

17 December, 2018

लौट आते चूम कर, दरगाह की चौखट, और शहज़ादे की स्याह उँगलियाँ।

ये बहुत साल पहले की बात है। ज़िंदा शब्दों के जादू और तिलिस्म में पहली बार गिरफ़्तार होने के समय की। इसके पहले हमने बेजान काग़ज़ पर छपे क़िस्से पढ़े थे। फिर भी ऐसा कभी ना हुआ था कि किसी लेखक से प्रेम हो जाए। कोई बहुत अच्छा लगा भी कभी तो ज़िंदगी से बहुत दूर जा चुका होता था।

उन दिनों हमारी दुनिया ही नयी नयी थी। बहुत सारा कुछ पढ़ना लिखना जारी था। लाइब्रेरी में कई तल्ले थे और इश्क़, दोस्ती और आवारगी के बाद भी हमारे पास पढ़ने के लिए बहुत वक़्त बच जाता था। मुझे जब पहली बार उन शब्दों से इश्क़ हुआ तो उनका कोई चेहरा नहीं था। यूँ भी वे शब्द ऐसे मायावी थे कि पढ़ते हुए लगता कि मैंने ही लिखे हैं। दोस्तों में बड़ी सरगर्मी थी। सब जानना चाहते थे इन शब्दों को लिखने वाले के हाथ कैसे हैं। उसका चेहरा कैसा, हँसी कैसी और उसकी उदासियाँ किस रंग की हैं। मैंने कभी नहीं जानने की कोशिश की। मेरे लिए वो काला जादू था। रात के स्याह अंधेरे से मेरे ही रूह के काले क़िस्से लिखता हुआ। वो मेरा अपना था कि उसका कोई चेहरा नहीं था। 

एक दूर से खींची हुयी तस्वीर थी जिसमें उसका चेहरा नहीं दिखता था। फिर एक रोज़ बड़ा हंगामा हुआ कि बात होते होते मुझ तक पहुँची कि किसी ने शब्दों के पीछे का चेहरा देखा है। उसने कहा मुझसे कि ये तिलिस्म रचने वाला कोई अय्यार नहीं, हमारे जैसा कोई शख़्स है। मैंने उस रोज़ नहीं माना कि वो हमारे जैसा कोई है। उसकी तस्वीर देखी। अच्छा लगा। वो भी अच्छा लगा, उसकी तस्वीर भी। फिर दिन, महीने, साल बीतते रहे, उसकी कई तस्वीरें आयीं। मैंने कई बार देखा मगर ख़्वाहिश बाक़ी रही कि उसकी एक तस्वीर मैं उतार सकूँ कभी। 

उससे पहली बार मिली तो उसके हाथों की तस्वीर उतारी। वो कुछ लिख रहा था। उसके हाथ में हरे रंग की क़लम थी। उसकी उँगलियाँ लम्बी, पतली, साँवली थीं। वो ख़ुद, क़यामत था। उसे देख कर वाक़ई मर जाने को जी चाहता था। मैंने जो पहली तस्वीरें उतारीं उनमें वो इतना ख़ूबसूरत था जितने उसके रचे गए किरदार। इतनी ख़ूबसूरत तस्वीरें कि डिलीट कर दीं। उन्हें देख कर ऐसा लगता था, तस्वीर खींचने वाली उस शब्दों के शहज़ादे से इश्क़ करती है। 

यूँ तो मेरे लिए ज़िंदा चीज़ों की तस्वीर खींचना मुश्किल है। इंसानों की तो और भी ज़्यादा। उसके ऊपर कोई ऐसा जिसके शब्दों के तिलिस्म में आपने सालों बिताए हों… नामुमकिन सा ही कुछ। कैमरा से देखती तो भूल जाने का मन करता कि क्लिक करना है। उसे देखते रहने का मन करता। देर तक धूप में। कोहरे में। उसपर सफ़ेद कुछ ज़्यादा खिलता। कोरे पन्ने जैसा। वो सफ़ेद पहनता तो गुनाह करने को जी चाहता। दरगाह में स्त्रियों को अंदर जाने की इजाज़त नहीं। हम दरगाह की चौखट चूम कर लौट आते और शहज़ादे की स्याह उँगलियाँ। हमारी ज़ुबान पर उनका नाम होता। 

वो रूह है। उसे तस्वीर में क़ैद करना मुश्किल है। बहुत साल पहले मैं सिर्फ़ फ़ोटो खींचना चाहती थी। मुझे लगता था रोशनी सही हुयी तो फ़्रेम में कैप्चर हो जाएँगी उसकी स्याह उँगलियाँ... उसकी पसंद की क़लम... उसके शहर का मौसम। लेकिन कैमरा में इतनी जान नहीं कि ज़िंदा रख सके तस्वीरों को। फिर जब ऐसी ख़्वाहिशें होती थीं तो Monet और पिकासो की पेंटिंग्स कहाँ देखी थीं। ना जैक्सन पौलक को जानती थी कि समझ पाऊँ, रूह को पेंटिंग में कैप्चर किया जाता है। पौलक को पहली बार देखा था तो वो अपनी एक पेंटिंग के सामने खड़ा था। उसने जींस पहन रखी थी जिसकी पीछे वाली जेब में एक हथौड़ी थी। उसकी पेंटिंग्स में कहीं कहीं सिगरेट के टुकड़े भी हैं। खोजने से मिलते हैं। बहुत ज़िंदा होती है उसकी पेंटिंग। एकदम तुम्हारे शब्दों जैसी। छुओ तो आज भी आत्मा को दुःख होता है। 

मैं उसकी पेंटिंग बनाना चाहती हूँ अब। एक लकड़ी की नक्काशीदार मेज़ हो। किनारे पर सफ़ेद इन्ले वर्क। खिड़की के पास रखी हो और खिड़की के बाहर धूप हो। वो मेज़ पर बैठ कर काग़ज़ पर कुछ लिख रहा हो। दाएँ हाथ में क़लम और ऊँगली में फ़िरोज़ी स्याही लगी हो कि क़लम मेरी है। उसे किसी भी क़लम से फ़र्क़ नहीं पड़ता। बाएँ हाथ में सिगरेट, धुँधलाता हुआ काग़ज़ का पन्ना। मैं चाहती हूँ कि एक ही पेंटिंग में आ जाए उसका सफ़ेद कुर्ता, उसका स्याह दिल, उसके रेत के शहर, उसके सपनों का समंदर, उसकी कहानियों वाली प्रेमिकाएँ भी। 

इस चाह में और कुछ नहीं, बात इतनी सी है। किसी ख़ूबसूरत शहर का स्टूडीओ हो जिसमें अच्छी धूप आए। जितनी देर भर में उसकी पेंटिंग बने, वो मेरी नज़रों के सामने रहे। मेरा रहे। बस। शब्दों से तिलिस्म रचने वाले को रंगों में रख सकूँ, ये ख़याल कितना विम्ज़िकल है...सोचना भी जैसे मुश्किल हो। 'वे दिन' में उसका एक शब्द है पसंदीदा, 'विविड'। वैसी ही कोई विविड पेंटिंग हो। उसके हाथ देखो तो कविता लिखने को जी चाहे। या कि प्रेम पत्र लिखने को। 

और काग़ज़ कोरा छोड़, देर रात अपनी कलाइयाँ सूँघते हुए, उसके नाम के अत्तर को याद करने को भी तो। वो जो छूने में ख़्वाब जैसा हो, उसके जैसा, कोई, वहम। 

16 December, 2018

छोटे सुखों का रोज़नामचा

कभी कभी जो चीज़ें हमसे खो जाती हैं, हम नहीं जानते कि उनके खोने में कौन सी बात हमें सबसे ज़्यादा परेशान कर रही है। कि उसके किस हिस्से को सबसे ज़्यादा याद कर रहे हैं। फिर जब वो चीज़ वापस मिल जाती है तो हमारा ध्यान जाता है कि ‘अरे, अच्छा, इसलिए इसकी ज़रूरत थी’।

इधर कुछ महीनों से कुछ न कुछ कारण से स्कूटी या मोटरसाइकल, दोनों नहीं चला पा रही हूँ। कुछ दिन हम टूटे-फूटे थे, हम ठीक हुए तो गाड़ियाँ दोनों मुँह फुला कर बैठ गयीं। स्कूटी तो कुछ ज़्यादा ही दुलरुआ है, उसपर जब से एनफ़ील्ड आयी है बेचारी का डीमोशन हो गया है, कि उसको बाइक नहीं कहती, स्कूटी कहती हूँ। तो, आज फिर से स्कूटी ठीक करवायी। रात आठ बजे के आसपास वापस मिली। बहुत दिन हो गए थे तेज़ रफ़्तार चलाए हुए। जब बाइक पर उड़ते हुए जा रही थी तो याद आया कि किस चीज़ की याद आ रही थी ज़्यादा। बाइक चलाते हुए हवा की आवाज़ होती है, साँय साँय कानों में चीख़ती है। सिर्फ़ तेज़ चलाने से ऐसी आवाज़ आती है। ये आवाज़ बहुत दिन बाद सुनी। और एकदम। उफ़। यहाँ घर के पास एक बड़ा सा तालाब या झील जो कहिए है…फ़िलहाल वहाँ बहुत कचरा है, बैंगलोर के बाक़ी सभी झीलों की तरह लेकिन उसकी साफ़ सफ़ाई चल रही है। उसके इर्द गिर्द की सड़क एकदम ख़ाली रहती है और बहुत तेज़ हवा भी चलती है उस तरफ़ से।

शाम को चाय पीने के लिए और थोड़ा सा और स्कूटी चलाने के लिए यहाँ पसंद का एक रेस्ट्रॉंट है, वहाँ गयी। मुझे वहाँ की निम्बू की चाय बहुत पसंद है। गयी तो थोड़ी भूख लगी थी, सो एक प्लेन दोसा का भी ऑर्डर दे दिया। मेरी आदत है कि अगर खाना ऑर्डर किया है तो पहले खा लेती हूँ, फिर निम्बू की चाय का ऑर्डर देती हूँ। तो आज निम्बू की चाय एकदम कमाल की आयी थी। मुझे जब चाय बहुत ज़्यादा पसंद आती है तो मैं चश्मा उतार के चाय पीती हूँ। एक सिप के बाद की धुँधली पड़ी दुनिया अच्छी लगने लगती है। (literally, not figuratively). कोई शार्प एज नहीं, सब कुछ आउट औफ़ फ़ोकस। फिर लगता नहीं है कि सामने मेज़ पर पड़ी चाय के सिवा और कुछ देखने की ज़रूरत भी है। हम चश्मा उतार कर रख देते हैं। दुनिया पहले दिखनी बंद होती है और फिर पूरी तरह गुम जाती है। बस चाय होती है हक़ीक़त। एक कप गर्म। सुनहली। निम्बू की चाय। मैं छोटे छोटे सिप लेती हूँ। अक्सर आँख बंद कर के। डूब जाती हूँ एक छोटे से चाय के काँच ग्लास में। चाय ख़त्म होती है। चश्मा वापस पहनती हूँ और दुनिया अपने पूरे तीख़ेपन के साथ दिखने लगती है। मैं इंतज़ार करती हूँ ऐसी चाय का…जिसके पीने भर तक दुनिया गुमी हुयी रह सके…

फिर मुझे लगता है। दुनिया का क्या है। एक गिलसी चाय में मोला लें हम।

 वहाँ अकेले खाते हुए और फिर बाद में चाय पीते हुए भी In the mood for love के किरदार की याद आयी, मिसेज़ चान की। लंच बॉक्स लेकर संकरी सीढ़ियों से गुज़रने के दृश्य का इतना कलात्मक प्रयोग है फ़िल्म में कि उफ़! उसे अकेले के लिए खाना बनाना पसंद नहीं था। मुझे घर में अकेले खाना खाना नहीं पसंद है। ख़ास तौर से डिनर। बाहर किसी जगह अकेली कैसे खाना पसंद है, मालूम नहीं। ऐसे सेल्फ़ सर्विस वाले रेस्ट्रॉंट जहाँ ठीक ठाक भीड़ हो, मुझे अच्छे लगते हैं। ये वोंग कार वाई की मेरी सारी पसंदीदा फ़िल्मों में कहीं ना कहीं दिखते हैं।

तृश कहता था कि वो सिर्फ़ उनके साथ खाना खाता है जो लोग उसे बहुत पसंद हों। मैंने तब तक इस बात पर ग़ौर नहीं किया था, लेकिन मैं भी ऐसा ही करती आयी थी। ऐसे किसी रेस्ट्रॉंट में लोगों को देख कर कहानी दोतरफ़ा सोचती रहती हूँ। सोचती हूँ वो पर्ची काटने वाला मेरे बारे में क्या सोचता होगा। अक्सर रात को मैं गयी हूँ वहाँ और कमोबेश एक ही ऑर्डर होता है। दोसा और चाय। ये फ़ैमिली रेस्ट्रॉंट है और अधिकतर लोग यहाँ परिवार के साथ खाने को आए होते हैं। मेरे पास अक्सर एक नोट्बुक रहती है। जब तक खाना तैय्यार होता है मैं कुछ स्केच कर रही होती हूँ या लिख रही होती हूँ। मुझे इतनी भीड़भाड़ में लिखना अच्छा लगता है।

मुझे अपनी रैंडमनेस अच्छी लगती है। ये जो थोड़ा जो मन में आया, सो करती हूँ। वो।

दिल्ली में पहली बार जब अकेले घूमना शुरू किया था तो बहुत जगह अकेले खाना खाया। स्कूल और कॉलेज में भी टिफ़िन अकेले करने की आदत रही, हमेशा कुछ पढ़ते हुए। मैं सोच रही थी कि जान पहचान की जितनी औरतों को जानती हूँ, उनमें से कोई होगी जो पति के शहर से बाहर जाने पर इस तरह किसी जगह बाहर डिनर करें, अकेली। फिर मुझे अपने जैसे लोगों की याद आयी। मेरी अपनी दोस्तों की। कॉलेज के टाइम की।

कई सारी जगहें याद आयीं। क्रैको का टाउनस्क्वेयर - राइनेक ग्लोनी … वहाँ की धूप में बैठे हुए अक्सर पेस्तो पास्ता और पीच आइस टी ऑर्डर करती थी। आसमान में एकदम नीले बादल रहते थे उन दिनों। स्विट्सर्लंड घूमते हुए तो सिर्फ़ चोक्लेट खाती थी या फिर कोई तरह की पेस्ट्री। बैठ के अकेले, इत्मीनान से खाना खाना पहली बार पोलैंड से शुरू किया। डैलस में ट्रेन स्टेशन के पास एक मेक्सिकन जगह थी। वहाँ मैं टोरतिया खाती थी। कभी कभी म्यूज़ीयम में भी खाना खाया है, वो भी अच्छा लगा है।

लौट कर घर आयी तो बहुत एनर्जेटिक फ़ील कर रही थी। इतनी एनर्जी मुझे बौरा देती है। आजकल अमेजन प्राइम म्यूज़िक पर गाने सुन रही हूँ, तो उसी में कोई डान्स मिक्स लगा दिया और जी भर डान्स किया। पसीने पसीने होने के बाद थोड़ी राहत मिली। सोफ़े पर आ के उलट गए। आराम से। बोस के स्पीकर से फ़ोन कनेक्ट कर दिया था। जैज़ सुन रही थी। हल्की ठंढ थी हवा में। शाम में ऊनी स्टोल निकाला था उसी को ओढ़ लिया थोड़ा सा। ख़ाली घर में बजता हुआ जैज़ जादुई लगता है। सोफ़े पर ऐसे पसर जाना भी। शाम से देर रात तक बस यही किया। सोफ़े पर पड़े पड़े जैज़ सुनती रही। फिर थोड़ी भूख लगी तो दूध में दालचीनी डाल के खौला लिए और थोड़ा केक के टुकड़े निकाल लिए। टेबल पर रखी तो इतना ख़ूबसूरत कॉम्पज़िशन था कि तस्वीर उतारे बिना रहा नहीं गया।

छोटी छोटी चीज़ें ज़िंदगी को सुंदर बनाती हैं। जीने लायक़। हम अपनी उदासी परे रख दें तो पाएँगे कि जाते मौसम के कुछ आख़िरी गिरे हुए फूल भी हवा में ख़ुश्बू छोड़ जाते हैं। हाँ, उदासी पर ध्यान दें तो कुछ भी सुंदर महसूस नहीं होगा।



ज़िंदगी में बड़े बड़े दुःख हैं और यही, इतने से छोटे छोटे सुख। लेकिन फिर भी। ज़िंदगी हसीन है।

15 December, 2018

पानी पानी रे...

मुझे बेहद अजीब चीज़ों का शौक़ है। और एकदम अजीब से, पर्सनल भय हैं, सामाजिक भयों से इतर। कुछ भय सामाजिक होते हैं। जैसे अंधेरे में बाहर जाने का भय। चोर, लुटेरे, डाकुओं का भय। युद्ध या दंगे होने का भय।

बैंगलोर का मौसम सालों भर थोड़ा ठंडा ही रहता है, इसलिए हल्के गर्म पानी से नहाने की आदत पड़ गयी है। जब तक कि मौसम एकदम गर्म ना हो, ठंडे पानी से नहीं नहा सकती। 

पिछले वाले घर में बड़ा गीज़र था जो गर्म पानी को स्टोर करके भी रखता था। इस वाले घर में धूप से पानी गर्म करने वाला गीज़र है, सोलर पावर वाला, जो पता नहीं कितना पानी गर्म रखता है। जब से आयी हूँ, कमोबेश बीमार ही रही हूँ। ज़्यादा देर खड़े होने में दिक्कत रही है इसलिये शॉवर लेना शुरू किया। पर आदत बाल्टी और मग से नहाने की है तो शॉवर लेकर अक्सर संतोष नहीं होता। विदेश जाती हूँ तो जैसे नहा के दिल ही नहीं भरता भले ही आधा घंटा शॉवर में नहा लो। 

गाँव में कुआँ था और देवघर में भी। हम लोग जब छोटे थे तो कुआँ पर ही नहाया करते थे। पूरा एक बाल्टी पानी माथे पर ऊझलने का ग़ज़ब ही मज़ा है। गाँव में तो अब भी टंकी और मोटर नहीं है, तो जब जाते हैं, कुआँ पर ही नहाते हैं। दुमका में थे बचपन में। उन दिनों घर से थोड़ा दूर चापाकल था। सब बच्चे लोग वहीं नहाते थे। घर में हौद में पानी स्टोर होता था। मुझे वो हौद बहुत विशाल लगती थी उन दिनों में। पटना में सप्लाई का पानी दो टाइम आता था और बड़े बड़े ड्रम में स्टोर करके रखते थे। उस समय या तो पानी आते समय नहा लिए, वरना स्टोर किए पाने से नहाना पड़ता था जो मुझे एकदम ही पसंद नहीं था। 

हमारे देवघर वाले घर में दो तल्ले थे। जब ख़ूब बारिश होती थी और छत का पानी दूसरे तल्ले से गिरता था, उस धार में नहाने का मज़ा मैं आज भी नहीं भूल पाती हूँ। वो हमारा पहला झरने का अनुभव था। बचपन में बहुत सी चीज़ें अलाउड होती हैं। ख़ूब ही नहाते थे हम लोग। ख़ास तौर से बहुत ज़्यादा वाली गरमी के बाद जब बारिश आती थी तो अपनाप में त्योहार होती थी।

दुनिया में जितने समंदर देखे हैं, पट्टाया का समंदर सबसे अलग था। उसका पानी गुनगुना था। मैंने कभी समंदर का पानी गर्म नहीं देखा था। वो कमाल का अनुभव था। कोरल आयलंड था और उसके इर्दगिर्द पानी। मन ही नहीं करता था पानी से निकलने का। ऐसे ही जब सन फ़्रैन्सिस्को गयी तो समंदर देखा। ठंढ थी और कोई समंदर में जाने को तैयार ही नहीं। और हम कि ऐसा तो हो नहीं सकता कि समंदर किनारे आए हैं और पानी में पैर ना डालें। वहाँ समंदर का पानी बर्फ़ीला था, धारदार जैसे। लगा पैर कट जाएँगे ठंडे पानी से... वो भी पहला अनुभव था कि समंदर का पानी इतना ठंडा भी हो सकता है। 

मुझे पानी बहुत पसंद है। नदी, समंदर, झरना, बाथ टब, स्विमिंग पूल। कहीं का भी पानी। पटना में सप्लाई का पानी होने के कारण ये डर होता था कि नहाने की लाइन में अगर आख़िर में गए हैं, जब कि पानी के जाने का टाइम हो गया है तो पानी चला जाएगा। वो मुझे बहुत ख़राब लगता था। बहुत, अब तक भी। गर्म पानी ख़त्म हो जाता है तो ऐसे ही बुरा लगता है।

कि पानी आते रहना चाहिए जब तक कि आत्मा तक धुल के साफ़ ना हो जाए। यूँ हमारी आत्मा साफ़ सफ़ेद ही रहती है। लेकिन कभी कभी लगता है कितनी स्याही लग रखी है। फिर हम देर तक रगड़ रगड़ के बदन से स्याह धुलते रहते हैं कि आत्मा साफ़ हो। लेकिन कमबख़्त उँगलियों के पोर कभी साफ़ सफ़ेद होते ही नहीं। हमेशा फ़िरोज़ी। हमेशा।

14 December, 2018

typing...

सोच रही हूँ, कह दूँ तुम्हें।

शाम किसी से बात कर रही थी। देर तक उसकी हँसी किसी की याद दिलाती रही, ये याद नहीं आ रहा था कि किसकी। फिर धुँधलाते हुए याद आयी तुम्हारी। बहुत साल पहले, जब हम बहुत बातें करते थे और तुम बहुत हँसते थे… ऐसे ही हँसते थे तुम। मैं तुम्हें सुन कर सोचती थी, तुम्हारी हँसी का रंग उजला होगा, धुँधला उजला। जाड़ों के कोहरे वाली रात जैसा। मैं तुम्हें दिल्ली में मिलना चाहती थी, कि दिल्ली दुनिया में मेरा सबसे फ़ेवरिट शहर है। 

पता है, दिल्ली दुनिया में मेरा फ़ेवरिट शहर क्यूँ है? क्यूँकि दिल्ली वो शहर है जहाँ मैं आख़िरी बार पूरी तरह ख़ुश थी। घर पर माँ, पापा, भाई थे, एक अच्छी नौकरी थी जिसमें मुझे मज़ा आता था, एक बॉयफ़्रेंड जिससे मैं शादी करना चाहती थी, बहुत से दोस्त जिनके साथ मैं वक़्त बिताना पसंद करती थी। सीपी, जहाँ हिंदी की बहुत सी किताबें थीं और मेरे इतने पैसे कि मैं जो भी किताब पसंद आए, वो ख़रीद सकती थी। मेरे पास वाक़ई सब कुछ था। 

दिल्ली में आज भी कभी कभी मैं भूल जाती हूँ कि मैं कौन हूँ और बारह साल पुरानी वही लड़की हो जाती हूँ। PSR पर खड़ी, दुपट्टा हवा में लहराते हुए, लम्बे बाल, खुले हुए। मैं उस लड़की से बहुत प्यार करती हूँ। वो मेरे अतीत में रहती है, हमेशा पर्फ़ेक्ट्ली ख़ुश, ख़ुशी की ब्राण्ड ऐम्बैसडर। लोग अक्सर उससे पूछा करते थे, तुम हमेशा इतना ख़ुश कैसे/क्यों रहती हो। 

लोग अब नहीं पूछते, तुम हमेशा इतनी उदास कैसे रहती हो। उदासी सबको नौर्मल लगती है। ख़ुशी कोई गुनाह है, कोई ड्रग जैसे। चुपचाप ख़ुश होना चाहिए। बिना दिखाए हुए। ख़ुद में समेट के रखनी चाहिए ख़ुशी। 

धुँध से उठती धुन का कवर सफ़ेद है। जैसे तुम्हारे बारे में सोचना। जिसमें कोई मिलावट नहीं होती। कुछ नहीं सोचते उस समय। दुःख, दुनियादारी, टूटे हुए सपने, छूटे हुए शहर, अधूरी लिखी किताब… कुछ नहीं दुखता। बस, तुम ही दुखते हो। 

प्रेम में शुद्धता जैसी कोई चीज़ होती है क्या? ख़ालिस प्रेम? बिना मिलावट के। कोई मशीन नाप दे। कि इस प्रेम में कोई ख़तरा नहीं है। ना दिल को, ना दिमाग़ को, ना भविष्य को, ना वर्तमान को, न ज़िंदगी में मौजूद और किसी रिश्ते को… 

मैंने समझा लिया है ख़ुद को… कम करती हूँ प्यार तुमसे। नहीं चाहती हूँ तुम्हारा वक़्त। तुम्हारी आवाज़। या तुम्हारे लिखे ख़त ही। तुम्हारे विदा का इंतज़ार भी नहीं है। ज़रा से बचे हो तुम। कलाई पर लगाए इत्र का सेकंड नोट। हार्ट औफ़ पर्फ़्यूम कहते हैं जिसे। भीना भीना… सबसे देर तक ठहरने वाला। देर तक। हमेशा नहीं। 

तुम हवा में घुल कर खो जाओगे एक दिन। मेरी कलाई पर सिर्फ़ स्याही होगी तब। मैं ख़ुद ही एक रोज़ चूमूँगी अपनी कलाई। जहाँ दिल धड़कता है। वहाँ। धीरे से पेपर कटर से एकदम बारीक लकीर खींचूँगी। कोई दो तीन दिन रहेगा उसका निशान। और फिर भूल जाऊँगी, सब कुछ ही। 

पता है। आख़िरी बार जब तुम मुझसे बात कर रहे थे। मुझे लग रहा था कि जाने ये शायद आख़िरी बार हो। Whatsapp पर तुम्हारे नाम के आगे typing… आ रहा था। मैंने एक स्क्रीन्शाट लेकर रख लिया है उसका। याद बस इतना रहेगा। बहुत बहुत साल बाद भी।

हम बहुत बातें करते थे। हम बहुत हँसते थे साथ में। बस।

10 December, 2018

Paper planes and a city of salt


जिस दिन मुझे ख़ुद से ज़्यादा अजीब कोई इंसान मिल जाए, उसको पकड़ के दन्न से किसी कहानी में धर देते हैं।

इधर बहुत दिन हो गए तरतीब से ठीक समय लिखा नहीं। नोट्बुक पर भी किसी सफ़र के दर्मयान ही लिखा। दुःख दर्द सारे घूम घूम कर वहीं स्थिर हो गए हैं कि कोई सिरा नहीं मिलता, कोई आज़ादी नहीं मिलती।
चुनांचे, ज़िंदगी ठहर गयी है। और साहब, अगर आप ज़रा भी जानते हैं मुझे तो ये तो जानते ही होंगे कि ठहर जाने में मुझ कमबख़्त की जान जाती है। तो आज शाम कुछ भी लिखने को जी नहीं कर रहा था तो हमने सिर्फ़ आदत की ख़ातिर रेख़्ता खोला और मजाज़ के शेर पढ़ कर अपनी डायरी में कापी करने लगी। हैंडराइटिंग अब लगभग ऐसी सध गयी है कि बहुत दिनों बाद भी टेढ़ी मेढ़ी बस दो तीन लाइन तक ही होती है, फिर ठीक ठीक लिखाने लगती है।
इस बीच मजाज के लतीफ़े पढ़ने को जी कर गया। और फिर आख़िर में मंटो के छोटे छोटे क़िस्से पढ़ने लगी। फिर एक आध अफ़साने। और फिर आख़िर में मंटो का इस्मत पर लिखा लेख।
उसके पहले भर शाम बैठ कर goethe के बारे में पढ़ा और कुछ मोट्सार्ट को सुना। कैसी गहरी, दुखती चीज़ें हैं इस दुनिया में। कमबख़्त। पढ़ वैसे तो रोलाँ बार्थ को रही थी, कई दिनों बाद, फिर से। "प्रेमी की जानलेवा पहचान/परिभाषा यही है कि "मैं इंतज़ार में हूँ"'। इसे पढ़ते हुए इतने सालों में पहली बार इस बात पर ध्यान गया कि मुझे प्रेम कितने अब्सेसिव तरीक़े से होता है। शायद इस तरह डूब कर, पागलों की तरह प्रेम करना मेरे मेंटल हेल्थ के लिए सही नहीं रहा हो। यूँ कहने को तो मजाज भी कह गए हैं कि 'सब इसी इश्क़ के करिश्मे हैं, वरना क्या ऐ मजाज हैं हम लोग'। फिर ये भी तो कि 'उट्ठेंगे अभी और भी तूफ़ाँ मेरे दिल से, देखूँगा अभी इश्क़ के ख़्वाब और जियादा'। 

कि मैंने उम्र का जितना वक़्त किसी और के बारे में एकदम ही अब्सेसिव होकर सोचने में बिताया है, उतने में अपने जीवन के बारे में सोचा होता तो शायद मैं अपने वक़्त का कुछ बेहतर इस्तेमाल कर पाती। सोचने की डिटेल्ज़ मुझे अब भी चकित करती है। मैंने किसी और को इस तरह नहीं देखा। यूँ इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि मैं चीज़ों को लेकर इन्फ़िनिट अचरज से भरी होती हूँ। बात महबूब की हो तो और भी ज़्यादा। गूगल मैप पर मैंने कई बार उन लोगों के शहर का नक़्शा देखा है, जिनसे मैं प्यार करती हूँ। उनके घर से लेकर उनके दफ़्तर का रास्ता देखा है, रास्ते में पड़ने वाली दुकानें... कुछ यूँ कि जैसे मंटो से प्यार है तो कुछ ऐसे कि उसके हाथ का लिखा धोबी का हिसाब भी मिल जाए तो मत्थे लगा लें। ज़िंदा लोगों के प्रति ऐसे पागल होती हूँ तो अच्छा नहीं होता, शायद। हमारी दुनिया में ऐसे शब्द भी तो हैं, ख़तरनाक और ज़हरीले। जैसे कि स्टॉकिंग।

मैं एक बेहतरीन stalker बन सकती थी। पुराने ज़माने में भी। इसका पहला अनुभव तब रहा है जब मुझे पहली बार किसी से बात करने की भीषण इच्छा हुयी थी और मेरे पास उसका फ़ोन नम्बर नहीं था। मैंने अपने शहर फ़ोन करके अपनी दोस्त से टेलिफ़ोन डिरेक्टरी निकलवायी और लड़के के पिताजी का नाम खोजने को कहा। उन दिनों लैंडलाइन फ़ोन बहुत कम लोगों के पास हुआ करते थे और हम नम्बरों के प्रति घोर ब्लाइंड उन दिनों नहीं थे। तो नाम और नम्बर सुनकर ठीक अंदाज़ा लगा लिया कि हमारे मुहल्ले का नम्बर कौन सा होगा। ये उन दिनों की बात है जब किसी के यहाँ फ़ोन करो तो पहला सवाल अक्सर ये होता था, 'मेरा नम्बर कहाँ से मिला?'। तो लड़के ने भी फ़ोन उठा कर भारी अचरज में यही सवाल पूछा, कि मेरा नम्बर कहाँ से मिला तुमको। फिर हमने जो रामकहानी सुनायी कि क्या कहें। इस तरह के कुछेक और कांड हमारी लिस्ट में दर्ज हैं।

ये साल जाते जाते उम्मीद और नाउम्मीद पर ऐसे झुलाता है कि लगता है पागल ही हो जाएँगे। न्यू यॉर्क का टिकट कटा के कैंसिल करना। pondicherry की ट्रिप सारी बुक करने के बाद ग़ाज़ा तूफ़ान के कारण हवाई जहाज़ लैंड नहीं कर पाया और वापस बैंगलोर आ गए। पेरिस की ट्रिप लास्ट मोमेंट में कुछ ऐसे बुक हुयी कि एक दिन में वीसा भी आ गया। कि पाँच बजे शाम को पास्पोर्ट कलेक्ट कर के घर आए और फिर सामान पैक करके उसी रात की फ़्लाइट के लिए निकल भी गए। 

कि साल को कहा, कि पेरिस ट्रिप अगर हुयी तो तुमसे कोई शिकायत नहीं करूँगी। जिस साल में इंसान पेरिस घूमने जाए, उस साल को बुरा कहना नाइंसाफ़ी है... और हम चाहे और जो कुछ भी हों, ईमानदार बहुत हैं। फिर बचपन में इसलिए तो प्रेमचंद की कहानी पढ़ाई गयी थी, 'पंच परमेश्वर', फिर किसी कहानी में उसका ज़िक्र भी आया। कुछ ऐसे ही वाक़ई बात मन में गूँजती रहती है, लौट लौट कर। 'बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?'। तो इस साल की शिकायतें वापस। साल को ख़ुद का नाम क्लीयर करने का मौक़ा मिला और २०१८ ने लपक के लोक लिया।

मगर ये मन कैसा है कि आसमान माँगता है? ख़ुशियों के शहर माँगता है। इत्तिफ़ाकों वाले एयरपोर्ट खड़े करता है और उम्मीदों वाले पेपर प्लेन बनाता है। ऐसे ही किसी काग़ज़ के हवाई जहाज़ पर उड़ रहा है मन और लैंड कर रहा है तुम्हारे शहर में। कहते हैं सिक्का उछालने से सिर्फ़ ये पता चलता है कि हम सच में, सच में क्या चाहते हैं। इसलिए पहले बेस्ट औफ़ थ्री, फिर बेस्ट औफ़ फ़ाइव, फिर बेस्ट औफ़ सेवन... और फिर भी अपनी मर्ज़ी का रिज़ल्ट नहीं आया तो पूरी प्रक्रिया को ही ख़ारिज कर देते हैं। 

इक शहर है समंदर किनारे का। अजीब क़िस्सों वाला। इंतज़ार जैसा नमकीन। विदा जैसा कलेजे में दुखता हुआ। ऊनींदे दिखते हो उस शहर में तुम। वहाँ मिलोगे?

03 December, 2018

Au revoir, Paris. फिर मिलेंगे!

 सोचो, जो पेरिस पूछे, कि पूजा, तुम हमसे प्यार क्यूँ नहीं करती, तो कुछ कह भी सकोगी?

उसकी बहुत पुरानी चिट्ठी मिली थी, घर में सारा सामान ठीक से रखने के दर्मयान। हमने बहुत साल बाद बात की। उसने कहा, नहीं हुआ इस बीच किसी से भी 'उस तरह' से प्यार। प्यार कभी ख़ुद को दोहराता नहीं है, लेकिन अलग अलग रंगों में लौट कर आता ज़रूर है।

मैं दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत शहर में हूँ। इमारतें, मौसम, लोग, संगीत, कला... सब अपनी परकाष्ठा पर हैं। कविता जैसा शहर है। लय में थिरकता हुआ। बारिश में भीगता है तो इतना ख़ूबसूरत लगता है कि कलेजे में दुखने लगे। छोड़ कर आते हुए हूक सी लगती है। लौट कर आना चाहते हैं हम, इस शहर में रहते हुए भी।

भाषा की अपनी याददाश्त होती है। दिन भर आसपास फ़्रेंच सुनते हुए उसकी याद ना आए, ये नामुमकिन था। मैंने पहली बार उसी को फ़्रेंच बोलते सुना था। वो लड़का जिसने पहली बार मुझे ‘je t’aime’ का मतलब बताया था, कि i love you और कि जिससे कभी फ़्रेंच में बात करने के लिए मैं फ़्रेंच सीखना चाहती थी। कि फ़्रान्स के इस नम्बर से उसे फ़ोन करने का मन कर रहा है। कहूँ इतना, vous me manques. फिर याद आता है कि उससे दूर होने के सालों में कितना कुछ सीख गयी हूँ मैं। कि उसे vous नहीं, tu कहूँगी… कि फ़्रेंच में भी हिंदी की तरह इज़्ज़त देने के लिए आप जैसी शब्दावली है। फिर ये भी तो, कि तुम्हारी याद आ रही है नहीं, फ़्रेंच में कहते हैं मेरी दुनिया में तुम्हारी कमी है। मैं सोचती हूँ। कितनी कमी रही है तुम्हारी। ज़रा सी, दोस्ती भर? एक्स फ़्रेंड्ज़ जैसा कुछ, अजनबी जैसा नहीं।

शाम में चर्च की घंटियाँ सुनायी देती हैं। बारिश के बाद की हवा में धुल कर। शहर के बीच बहती नदी पर पेड़ों की परछाइयाँ भीग रही हैं। सुनहला है सब कुछ...याद के जैसे रंग का पीलापन लिए हुए। मैं अब लगभग किसी को भी पोस्टकार्ड नहीं लिखती। बस एक दोस्त को आने के पहले ही दिन लिखे बिना रहा नहीं गया। ‘मोने के रंग हर शहर में साथ होते हैं, ख़ूबसूरती का अचरज भी’।

सामान बंध गया है। टेबल पर दो गुलाब के फूल हैं। थोड़े से मुरझाए। चार दिन पुराने। गहरे लाल रंग के फूल। हल्की ख़ुशबू, पुरानेपन की... अच्छे पुरानेपन की, अपनेपन वाली... जैसे पुराने चावल से आती है या वैसे रिश्तों से जो नए नहीं होते हैं। मैं इन्हें ले नहीं जा सकती। ये मेरे मन में रह जाएँगे, इसी तरह... अधखिले।


शाम से बारिश हो रही थी, लेकिन इतनी हल्की कि छतरी ना खोलें। एफ़िल टावर के पास पहुँचते पहुँचते हल्का भीग गयी थी। रास्ते में एक बड़े सूप जैसे बर्तन में कुछ खौलाया जा रहा था और उसकी ख़ुशबू आ रही थी। दालचीनी, लौंग और कुछ और मसालों की...देखा तो पता चला कि गरम वाइन है। तब तक हाथ ठंडे हो गए थे और आत्मा सर्द। खौलती वाइन चाय के जैसे काग़ज़ के कप में लेकर चले। हल्की फूँक मार मार के पिए और ज़िंदगी में पहली बार महसूस किए कि गर्म वाइन पीने से सर्द आत्मा पिघल जाती है। बहुत शहर देखे हैं, ऐबसिन्थ, ब्लू लेबल, वाइन, शैम्पेन, कोनियाक... बहुत तरह की मदिरा चखी है लेकिन वो सब शौक़िया था। पहली बार महसूस किया कि ठंड में कैसे किसी भी तरह की ऐल्कहाल काम करती है। वो अनुभव मैं ज़िंदगी में कभी नहीं भूलूँगी। वाइन ख़त्म होते ही ठंड का हमला फिर हुआ। एफ़िल टावर पर तस्वीर खींच रहे थे तो मैं इतना थरथरा रही थी कि मोबाइल ठीक से पकड़ नहीं पा रही थी।

यूँ, कि आज शाम ऐसी ठहरी थी कि लगता था कोई पेंटिंग हो। कि जैसे ये रंग कभी फीके नहीं पड़ेंगे। पानी पर परछाईं जो किसी तस्वीर में ठीक कैप्चर हो ही नहीं सकती... कि मोने होता तो शायद घंटों पेंट करता रहता, इक ज़रा सी शाम।

मैं लिख रही हूँ कि इस पल को रख सकूँ ज़िंदा, हमेशा के लिए। कि इस लम्हे का यही सच है। मैं कितने कहानियों में जीती हुयी, उन सब लोगों को याद कर रही हूँ जिन्हें मैंने चिट्ठियाँ लिखी हैं… जिन्हें मैं पोस्टकार्ड भेजना चाहती हूँ। कि बिना पोस्टकार्ड गिराए जैसे छुट्टी अधूरी रह जाती है।

अब जब कि लगभग छह घंटे में यह शहर छूट जाएगा, मैं सोचती हूँ एकदम ही सिंपल सी बात… ज़रूरी नहीं है कि जो सबसे ख़ूबसूरत, सबसे अच्छा, सबसे… सबसे... सबसे superlative वाला हो… हमें उसी से प्यार हो। हमें किसी की कमियों से प्यार होता है। किसी के थोड़े से टूटे-फूटे पन से, अधूरेपन से… कि वहाँ हमारी जगह होती है। पर्फ़ेक्शन को दूर से देखा जा सकता है, प्यार नहीं किया जा सकता। या कि हमें प्यार कब होता है, हम कह नहीं सकते। तो पेरिस शायद दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत शहर हो। मैं प्यार सिर्फ़ दिल्ली और न्यू यॉर्क से ही करती हूँ। मैं उनके ही मोह में हूँ। पाश में हूँ।

तो पेरिस, मुझे माफ़ करना, तुमसे प्यार न कर पाने के लिए। तुम दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत शहर हो, लेकिन मेरे नहीं हो। और कि तुम मेरे बहुत कुछ हो..., बस महबूब नहीं हो... कि मेरे दिल पर किसी और की हुकूमत चलती है।

फिर मिलेंगे। Au revoir! 

23 November, 2018

नवम्बर ड्राफ़्ट्स

सपने में तुम थे, माँ थी और समुद्र था।

तूफ़ान आया हुआ था। बहुत तेज़ हवा चल रही थी। नारियल के पेड़ पागल टाइप डोल रहे थे इधर उधर। सपने को भी मालूम था कि मैं पौंडीचेरी जाना चाहती थी और उधर साइक्लोन आया हुआ था। उस तूफ़ान में हम कौन सा शहर घूम रहे थे?

ट्रेन में मैं तुम्हारे पास की सीट पर बैठी थी। तुम्हारी बाँह पकड़ कर। कि जैसे तुम अब जाओगे तो कभी नहीं मिलोगे। तुम्हारे साथ होते हुए, तुम्हारे बिना की हूक को महसूस करते हुए। हम कहीं लौट रहे थे। किसी स्मृति में। किसी शहर में। 

मैंने तुमसे पूछा, ‘रूमाल है ना तुम्हारे पास? देना ज़रा’। तुम अपनी जेब से रूमाल निकालते हो। सफ़ेद रूमाल है जिसमें बॉर्डर पर लाल धारियाँ हैं। एक बड़ा चेक बनाती हुयीं। मैं तुमसे रूमाल लेती हूँ और कहती हूँ, ‘हम ये रूमाल अपने पास रखेंगे’। रूमाल को उँगलियों से टटोलती हूँ, कपास की छुअन उँगलियों पर है। कल रात फ़िल्म देखी थी, कारवाँ। उसमें लड़का एक बॉक्स को खोलता है जिसमें उसके पिता की कुछ आख़िरी चीज़ें हैं। भूरे बॉक्स में एक ऐसा ही रूमाल था कि जो फ़िल्म से सपने में चला आया था। ट्रेन एयर कंडिशंड है। काँच की खिड़कियाँ हैं जिनसे बाहर दिख रहा है। बाहर यूरोप का कोई शहर है। सफ़ेद गिरजाघर, दूर दूर तक बिछी हरी घास। पुरानी, पत्थर की इमारतें। सड़कें भी वैसी हीं। सपने का ये हिस्सा कुछ कुछ उस शहर के जैसा है जिसकी तस्वीरें तुमने भेजी थीं। सपना सच के पास पास चलता है। क्रॉसफ़ेड करता हुआ। मैं उस रूमाल को मुट्ठी में भींच कर अपने गाल से लगाना चाहती हूँ। 

मुझे हिचकियाँ आती हैं। तुम पास हो। हँसते हो। मैं सपने में जानती हूँ, तुम अपनी जाग के शहर में मुझे याद कर रहे हो। सपना जाग और नींद और सच और कल्पना का मिलाजुला छलावा रचता है। 

तुम्हें जाना है। ट्रेन रुकी हुयी है। उसमें लोग नहीं हैं। शोर नहीं है। जैसे दुनिया ने अचानक ही हमें बिछड़ने का स्पेस दे दिया हो। मैं तुम्हें hug करती हूँ। अलविदा का ये अहसास अंतिम महसूस होता है। जैसे हम फिर कभी नहीं मिलेंगे।

नींद टूटने के बाद मैं उस शहर में हूँ जिसके प्लैट्फ़ॉर्म पर हमने अलविदा कहा था। याद करने की कोशिश करती हूँ। अपनी स्वित्ज़रलैंड की यात्रा में ऐसे ही रैंडम घूमते हुए पहली बार किसी ख़ूबसूरत गाँव के ख़ाली प्लेटफ़ॉर्म को देख कर उस पर उतर जाने का मन किया था। उस छोटे से गाँव के आसपास पहाड़ थे, बर्फ़ थी और एकदम नीला आसमान था। सपने में मैं उसी प्लैट्फ़ॉर्म पर हूँ, तुम्हारे साथ। जागने पर लगता है तुम गए नहीं हो दूर। पास हो।

मैं किसी कहानी में तुम्हें अपने पास रोक लेना चाहती हूँ। 

***
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कुछ तो हो जिससे मन जुड़ा रहे। 

किसी शहर से। 
किसी अहसास से।
किसी वस्तु से - कहीं से लायी कोई निशानी सही।
किसी किताब से, किसी अंडर्लायन लिए हुए पैराग्राफ़ से।
किसी काले स्टोल से कि जिसे सिर्फ़ इसलिए ख़रीदा गया था कि कोई साथ चल रहा था और उसका साथ चलना ख़ूबसूरत था। 
किसी से आख़िरी बार गले लग कर उसे भूल जाने से। 

आख़िरी बार। कैसा तो लगता है लिखने में। 

कलाइयाँ सूँघती हूँ इन दिनों तो ना सिगरेट का धुआँ महकता है, ना मेरी पसंद का इसिमियाके। पागलपन तारी है। कलाइयों पर एक ही इत्र महसूस होता है। 
मृत्युगंध। 

तुम मिलो मुझसे। कि कोई शहर तो महबूब शहर हुआ जाए। कि किसी शहर की धमनियों में थरथराए थोड़ा सा प्यार… गुज़रती जाए कोई मेट्रो और हम स्टेशन पर खड़े रोक लें तुम्हें हाथ पकड़ कर। रुक जाओ। अगली वाली से जाना। 

मैं भूल जाऊँ तुम्हारे शहर की गलियों के नाम। तुम भूल जाओ मेरी फ़ेवरिट किताब समंदर किनारे। रात को हाई टाइड पर समंदर का पानी बढ़ता आए किताब की ओर। मिटा ले मेरी खींची हुयी नीली लकीर। किताब के एक पन्ने पर लिखा तुम्हारा नाम। मुझे हिचकियाँ आएँ और मैं बहुत दिन बाद ये सोच सकूँ, कि शायद तुम याद कर रहे हो। 

पिछली बार मिली थी तो तुम्हारी हार्ट्बीट्स स्कैन कर ली थी मेरी हथेली ने…काग़ज़ पर रखती हूँ ख़ून सनी हथेली। रेखाओं में उलझती है तुम्हारी दिल की धड़कन। मैं देखती हूँ देर तक। सम्मोहित। फिर हथेली से कस के बंद करती हूँ दूसरी कलाई से बहता ख़ून। 

कि कहानी में भी तुमसे पहले अगर मृत्यु आए तो उसे लौट कर जाना होगा।
चलो, जीने की यही वजह सही कि तुमसे एक बार और मिल लें। कभी। ठीक?

***
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लड़की की उदास आँखों में एक शहर रहता था। 

लड़का अकसर सोचता था कि दूर देश के उस शहर जाने का वीसा मिले तो कुछ दिन रह आए शहर में। रंगभरे मौसम लिए आता अपने साथ। पतझर के कई शेड्स। चाहता तो ये भी था कि लड़की के लिए अपनी पसंद के फूल के कुछ बीज ले आए और लड़की को गिफ़्ट कर दे। लड़की लेकिन बुद्धू थी, उसकी बाग़वानी की कुछ समझ नहीं थी। उससे कहती कि बारिश भर रुक जाओ, पौधे आ जाएँ, फिर जाना। यूँ एक बारिश भर रुक जाने की मनुहार में कोई ग़लत बात नहीं थी, लेकिन शहर में अफ़ीम सा नशा था। रहने लगो तो दुनिया का कोई शहर फिर अच्छा नहीं लगता। ना वैसा ख़ुशहाल भी। उदासी की अपनी आदत होती है। ग़ज़लें सुनते हुए शहर के चौराहे पर चुप बैठे रहना, घंटों। या कि मीठी नदी का पानी पीना और इंतज़ार करना दिल के ज़ख़्म भरने का। उदास शहर में रहते हुए कम दुखता था सब कुछ ही। 

शहर में कई लोग थे और लड़की ये बात कहती नहीं थी किसी से…लेकिन बस एक उस लड़के के नहीं होने से ख़ाली ख़ाली लगता था पूरा उदास शहर। 

20 November, 2018

November Mornings

मेरा मैक चूँकि नया है और इतना साफ़ है कि मन करता है लिखने के पहले साबुन से हाथ धो कर आएँ :) हाथ में ज़रा सी भी चिकनाई हो तो कीबोर्ड पर फ़ील होने लगता है। क़लम से लिखने के साथ तो ये बात हमेशा से रही है कि हाथ एकदम साफ़ हों, लेकिन नॉर्मली कीबोर्ड के बारे में ऐसा नहीं सोचते थे। उसपर मेरे हाथों में पसीना बहुत आता है, ज़रा भी गरमी हुयी नहीं कि मुश्किल। स्कूल कॉलेज के टाइम अगर किसी इग्ज़ैम में रूमाल ले जाना भूल गए तो आफ़त ही आ जाती थी। लिखते हुए इतना हाथ फिसलता था कि बस! वरना तो बस स्कर्ट में हाथ पोछने के सिवा कोई चारा नहीं होता था। स्कूल के टाइम में मेरे पास एक ही स्कर्ट हुआ करती थी। तो अगर स्कर्ट गंदा कर दिए घर जाते साथ पहले स्कर्ट धो कर सुखाने के लिए डाल देते थे। बैंगलोर का मौसम लगभग पूरे साल ठंडा ही रहता है तो दिक्कत नहीं होती है। मैं भूल भी जाती हूँ कि लिखने में हाथ फिसलता था। फिर जब से Lamy डिस्कवर किए हैं, लिखने का सुख कमाल का है। क़लम की ग्रिप मेरे हाथ के लिए एकदम ही पर्फ़ेक्ट है, हाथ कभी नहीं फिसलता। लम्बे समय पर लिखने पर भी उँगलियाँ नहीं दुखतीं। अच्छा डिज़ाइन इसी को तो कहते हैं। जहाँ भी अच्छा डिज़ाइन होता है, वो साफ़ पता चलता है। जैसे कि मैकबुक के नए वाले ऑपरेटिंग सिस्टम में एक डार्क मोड है जो मुझे बेहद पसंद है। इसमें काग़ज़ एकदम साफ़ दिखता है बीच में। आसपास सब कुछ काला। ऐसे लेआउट में लिखने का ख़ूब मन करता है।

ऑफ़िस में अपने इस्तेमाल के लिए एक डेस्क ख़रीदनी है। कल पेपरफ़्राई पर देख कर आए लेकिन अपने पसंद की डेस्क नहीं मिली। इधर पापा आए हुए थे तो बता रहे थे कि वो जब कश्मीर गए थे तो लिखने के लिए इतना ख़ूबसूरत डेस्क देखे कि उनका मन किया कि आगे की ट्रिप कैन्सल करके वही एक डेस्क ख़रीद के लौट आएँ। अखरोट की लकड़ी का डेस्क। अब वैसी ही किसी डेस्क पर दिल अटका हुआ है मेरा। कैसी कैसी चीज़ों के लिए सफ़र करने का मन करता है। अब लगता है ऐसे किसी शहर जाएँ जहाँ लकड़ी पर inlay वर्क होता हो। एक अच्छी लकड़ी की डेस्क और किनारे पर सफ़ेद बारीक काम किया हुआ हो। इस बार घर जाएँगे तो सोच रहे हैं कि डेस्क तो बनवा ही लें लकड़ी की… हाँ उसपर काम होता रहेगा। घर पर अक्सर बढ़ई काम करने आते हैं। ससुराल में कुछ ख़ूब बड़े बड़े पलंग वग़ैरह बने हैं। फिर बड़ा घर है तो कुछ ना कुछ काम चलता ही रहता है हमेशा। उन्होंने कह भी रखा है, कुछ भी डिज़ाइन आप दिखा दीजिए, हम बना देंगे।

टेबल या डेस्क कुछ चौड़ी हो जिसपर लिखने के अलावा की चीज़ें रखी जा सकें। कुछ पेपरवेट, कुछ इधर उधर से लाए गए छोटे छोटे स्नो ग्लोब, एक नटराज की छोटी सी मूर्ति। फिर मुझे अपने लिखने के डेस्क पर नॉर्मली दो चार किताबें और कई सारी नोट्बुक रखनी होती है। कलमें होती हैं कई सारी। एक छोटा सा फूलदान होता है। अक्सर ताज़े फूल रहते हैं। चाय या कॉफ़ी का मग रहता ही है।

कल पेपरफ़्राई में एक बहुत सुंदर छोटी सी लकड़ी की टेबल देखी। उसपर मोर बना हुआ था। एक मन तो किया कि ख़रीद ही लें। मेरी वाली टेबल अब बहुत पुरानी हो गयी है। लेकिन दिक्कत ये थी कि उस टेबल में इंक्लाइन नहीं था। मुझे हाथ से लिखने के समय थोड़ा सा ऐंगल अच्छा लगता है। जैसे स्कूल के समय डेस्क में हुआ करता था। कोई पंद्रह डिग्री टाइप झुकाव। उसपर हाथ ठीक से बैठता है। चूँकि मैं अभी भी बहुत सारा कुछ हाथ से लिखती हूँ वैसा ज़रूरी होता है।

कितने शहर जाने का मन करता है। यायावर। बंजारा मन। 

19 November, 2018

रोज़नामचा - नवम्बर की किसी शाम


हम कहाँ कहाँ छूटे रह जाते हैं। इंटर्नेट पर लिखे अपने पुराने शब्द पहचानना मुश्किल होता है मेरे लिए। ऐसे ही कोई जब कहता है कि उनको मेरी किताब का कोई एक हिस्सा बहुत पसंद है। का किसी कहानी की कोई एक पंक्ति, तो मुझे कई बार याद नहीं रहता कि ये मैंने लिखा था। 

8tracks एक ऑनलाइन रेडिओ है जिसका इस्तेमाल मैं लिखने के दर्मयान करती थी। ख़ास तौर से अपने पुराने ऑफ़िस में स्क्रिप्ट लिखते हुए या ऐसा ही कुछ करने के समय जब शोर चाहिए होता था और ख़ामोशी भी। कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जिनसे हमें किसने मिलवाया हमें याद नहीं रहता। किसी शाम के रंग याद रहते हैं बस। बोस के noise कैन्सेलेशन हेड्फ़ोंज़ वाले चुप्पे लम्हे। 8tracks के मेरे पसंदीदा मिक्स पर कमेंट लिखा था मैंने। अब मैं वैसी बातें करती ही नहीं। पता नहीं कब, क्या महसूस किया था जो वहाँ लिखा भी था। “My soul was searching for these sounds...somewhere in vacuum. Thank you. Your name added to the playlist's name makes a complete phrase for my emotional state now...'How it feels to be broken my mausoleums'. Redemptions come in many sounds. Solace sometimes finds its way to you. And darkness is comforting. Thank you. So much.”

आज बहुत दिन क्या साल बाद लगभग ऑफ़िस का कुछ काम करने आयी। मैं काम के मामले में अजीब क़िस्म की सिस्टेमैटिक हूँ। मुझे सारी चीज़ें अपने हिसाब से चाहिए, कोई एक चीज़ इधर से उधर हुयी तो मैं काम नहीं कर सकती। चाय मेरे पसंद की होनी चाहिए, ग्रीन टी पियूँगी तो ऐसा नहीं है कि कोई भी पी लूँ… ‘ginger mint and lemon’ फ़्लेवर चाहिए होता है। कॉफ़ी के मामले में तो केस एकदम ही गड़बड़ है अब। starbucks के सिवा कोई कॉफ़ी अच्छी नहीं लगती है। लेकिन उस कॉफ़ी के साथ लिखना मतलब कोई क़िस्सा कहानी लिखना, टेक्नॉलजी नहीं। 

फिर मैं जाने क्या लिखना चाहती हूँ। जो चीज़ें मुझे सबसे ज़्यादा अफ़ेक्ट करती हैं इन दिनों, मैं उसके बारे में लिखने की हिम्मत करने की कोशिश कर रही हूँ। सब उतना आसान नहीं है जितना कि दिखता है। जैसे कि पहले भी मुझे डिप्रेशन होता था ऐंज़ाइयटी होती थी लेकिन हालत इतनी बुरी नहीं थी। इन दिनों ज़रा सी बात पर रीऐक्शन कुछ भी हो सकता है। ख़ास तौर से कलाइयाँ काटने की तो इतनी भीषण इच्छा होती है कि डर लगता है। मैं जान कर घर में तेज धार के चाक़ू, पेपर कटर या कि ब्लेड नहीं रखती हूँ। इसके अलावा सड़क पर गाड़ी ठोक देने के ख़याल आते हैं, किसी बिल्डिंग से कूद जाने के या कि कई बार डूब जाने के ख़याल भी आते हैं। मुझे डाक्टर्ज़ और दवाइयों पर भरोसा नहीं होता। आश्चर्यजनक रूप से, मुझ पर कई दवाइयाँ काम नहीं करती हैं। ये कैसे होता है मुझे नहीं मालूम। पहले ऐसा बहुत ही ज़्यादा दुःख या अवसाद के दिन होता था। आजकल बहुत ज़्यादा फ़्रीक्वंट्ली हो रहा है। 

इन चीज़ों का एक ही उपाय होता है। किसी चीज़ में डूब जाना। तो काम में डूबने के लिए सब तैय्यारी हो गयी है। टेक्नॉलजी मुझे पहले से भी बहुत ज़्यादा पसंद है, सो उसके बारे में पढ़ रही हूँ। एक बार सारी इन्फ़र्मेशन समझ में आने लगेगी तो फिर लिखने भी लगूँगी। आर्टिफ़िशल इंटेलिजेन्स, मशीन लर्निंग, एंटर्प्रायज़ ऑटमेशन…सब ऐसी चीज़ें हैं जिनके बारे में में मुझे एकदम से शुरुआत से पढ़ाई करनी है। फिर, आजकल अच्छी बात ये है कि हिंदी अख़बार शुरू किया है। सुबह सुबह हिंदी में पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ऐसे भी शब्द अब रोज़ाना मिलने लगे हैं जिनसे मिले अरसा हो जाता था। जैसे कि प्रक्षेपण। इंदिरानगर में रहते हुए दस साल से हिंदी अख़बार पढ़ा नहीं, कि उधर आता ही नहीं था। इस घर में राजस्थान पत्रिका मिल जाती है। यूँ मुझे हिंदुस्तान पढ़ना पसंद था, लेकिन ठीक है। पत्रिका का स्टैंडर्ड ठीक-ठाक है। कुछ आर्टिकल्ज़ अच्छे लगते हैं। हिंदुस्तान पढ़े कितना वक़्त बीत गया। देवघर में ससुराल में भी प्रभात ख़बर आता है, वो तो इतना बुरा है कि पढ़ना नामुमकिन है। 

आज पूरा दिन बहुत थका देने वाला रहा। ऑफ़िस में दूसरे हाफ में तो नींद भी आ रही थी बहुत तेज़। कल से सोच रही हूँ अपना फ़्रेंच प्रेस कॉफ़ी मेकर और कॉफ़ी पाउडर ले कर ही आऊँ ऑफ़िस। काम करने में अच्छा रहेगा। फिर कभी कभी सोचती हूँ कॉफ़ी मेरी हेल्थ के लिए सही नहीं है, तो पीना बंद कर दूँ। 

इंग्लिश विंग्लिश बहुत सुंदर फ़िल्म है। और सबसे सुंदर उसका आख़िर वाला स्पीच है। श्रीदेवी ने कितनी ख़ूबसूरती से स्पीच दी है। मैं अक्सर उस स्पीच के बारे में सोचती हूँ। ख़ुद की मदद करना ज़रूरी होता है ज़िंदगी के कुछ पड़ावों पर। कि आख़िर में, सारी लड़ाइयाँ हमारी पर्सनल होती हैं। चाहे वो हमारे सपनों को हासिल करने की लड़ाई हो या कि अपने भीतर रहते दैत्यों से रोज़ लड़ते हुए ख़ुद को पागल हो जाने से बचा लिए जाने की। जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है, ज़िंदगी के कई स्याह पहचान में आ रहे हैं। ऐसा क्यूँ है कि अवसाद का रंग और गाढ़ा ही होता जाता है? 

मैं अपने शहर बनाना चाहती हूँ लेकिन विदा के शहर नहीं। बसे-बसाए शहर कि जिनमें भाग के जाने को नहीं, घूमने जाने को जी चाहे। ख़ूबसूरत शहर। बाग़ बगीचों वाले। कई रंग के गुलाब, गुलदाउदी, पीले अमलतास, सुर्ख़ गुलमोहर और पलाश वाले। कहते हैं कि हमें जीने के लिए कुछ चीज़ों से जुड़े रहने की ज़रूरत होती है। चाहे वो कोई छोटी सी चीज़ ही हो। बार बार याद आने वाली बातों में मुझे ये भी हमेशा याद आता है कि रामकृष्ण परमहंस को लूचि (अलग अलग कहानियों में अलग अलग खाद्य पदार्थों का ज़िक्र आता है। कहीं गुलाबजामुन और जलेबी का भी) से बहुत लगाव था और उन्होंने एक शिष्य को कहा था कि दुनिया में अगर हर चीज़ से लगाव टूट जाएगा तो वे शरीर धारण नहीं कर पाएँगे। मोह जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा है। बस, कुछ भी अधिक नहीं होना चाहिए। अति सर्वत्र वर्जयेत और त्यक्तेन भुंजीथा भी पढ़ा है हमने। पढ़ने से इन बोधकथाओं का कोई हिस्सा अवचेतन में अंकित हो जाता है और हमें बहुत ज़्यादा अवसाद के क्षण में बचा लेता है। बीरबल की उस कहानी की तरह जहाँ बर्फ़ीले ठंडे पानी में खड़े व्यक्ति ने दूर दिए की लौ को देख कर उसकी गर्माहट की कल्पना की और रात भर पानी में खड़ा रहा। 

कभी कभी किसी और को अपनी जिंदगी के बारे में बताती हूँ तो अक्सर लगता है कि life has been extremely kind to me. शायद इसलिए भी, छोटी छोटी चीज़ों में थोड़ी सी ख़ुशी तलाश के रख सकती हूँ। ख़ुद को बिखरे हुए इधर उधर पा के अच्छा लगता है। मैं रहूँ, ना रहूँ…मेरे शब्द रहेंगे। 

02 November, 2018

काँच की चूड़ियाँ

मेरी हार्ड डिस्क में अजीब चीज़ें स्टोर रहती हैं। अवचेतन मन कैसी चीज़ों को अंडर्लायन कर के याद रखता है मुझे मालूम नहीं। 

मुझे बचपन से ही काँच की चूड़ियों का बहुत शौक़ था। उनकी आवाज़, उनके रंग। मम्मी के साथ बाज़ार जा के चूड़ियाँ ख़रीदना। कूट के डब्बे में लगभग पारदर्शी सफ़ेद पतले काग़ज़ में लपेटी चूड़ियाँ हुआ करती थीं। जब पटना आए तो वहाँ एक चूड़ी वाला आता था। उसके पास एक लम्बा सा फ़्रेम होता था जिसमें कई रंग की चूड़ियाँ होती थीं। प्लेन काँच की चूड़ियाँ। वे रंग मुझे अब भी याद हैं। नीला, आसमानी, हल्दी पीला, लेमन येलो, गहरा हरा, सुगरपंखी हरा, टस लाल, कत्थई, जामुनी, काला, सफ़ेद, पारदर्शी, गुलाबी, काई हरा, फ़ीरोज़ीलड़कियों को भर हाथ चूड़ी पहनना मना था तो सिर्फ़ एक दर्जन चूड़ियाँ मिलती थीं, दोनों हाथों में छह छह पहनने को। मेरे चूड़ी पहनने के शौक़ को देख कर मम्मी अक्सर कहती थी, बहुत शौक़ है चूड़ी पहनने का, शादी करा देते हैं। पहनते रहना भर भर हाथ चूड़ी। 

मम्मी रही नहीं। शादी के बाद बहुत कम पहनीं मैंने भर भर हाथ चूड़ियाँ। लेकिन चूड़ी ख़रीदने का शौक़ हमेशा रहा। उसमें भी प्लेन काँच की चूड़ियाँ। पटना का वो चूड़ीवाला मुझे अब भी याद आता है। उस समय हाथ कितने नरम हुआ करते थे। दो-दो की चूड़ियाँ आती थीं। प्लेन जॉर्जेट के सलवार कुर्ते पहनती थी और बेपरवाही से लिया हुआ दुपट्टा। हाँ, चूड़ियाँ एकदम मैच होती थीं कपड़े से और नेल पोलिश। माँ के जाने के साथ मेरा लड़कीपना भी चला गया बहुत हद तक। मैं सँवरती इसलिए थी कि मम्मी आए और पूछे, इतनी सुंदर लग रही हो, काजल लगाई हो कि नहीं। नज़रा देगा सब। 

आजकल साड़ी पहनती हूँ, लेकिन चूड़ी नहीं पहनती। चूड़ियों की खनक डिस्टर्ब करती है। मैं जिन शांत जगहों पर जाती हूँ, वहाँ खनखन बजती चूड़ियाँ अजीब लगती हैं। मीटिंग में, कॉफ़ी शॉप में, लोगों से मिलनेऐसा लगता है कि चूड़ियाँ पहनीं तो सारा ध्यान उनकी आवाज़ में ही चला जाएगा। 

मुझे काँच बहुत पसंद है। शायद इसके टूटने की फ़ितरत की वजह सेकुछ इसकी ख़ूबसूरती से और कुछ इसके पारदर्शी होने के कारणफिर काँच का तापमान थोड़ा सा फ़रेब रचता है कि गरम कॉफ़ी पीने में मुँह नहीं जलता। हैंडब्लोन काँच के बर्तन, शोपीस वग़ैरह के बनाने की प्रक्रिया भी मुझे बहुत आकर्षित करती है और मैं इनके ख़ूब विडीओ देखती हूँ। भट्ठी में धिपा के लाल किया हुआ काँच का गोला और उसे तेज़ी से आकार देते कलाकार के ग्लव्ज़ वाले हाथ। 

आज मैसूर क़िले के सामने एक बूढ़े बाबा चूड़ियाँ बेच रहे थे। मेटल की चूड़ियाँ थीं। नॉर्मली मैं नहीं ख़रीदती, लेकिन आज ख़रीद लीं। पाँच सौ रुपए की थींख़रीदी तो पहन भी ली, सारी की सारी दाएँ हाथ में। मेटल चूड़ियों की आवाज़ उतनी मोहक नहीं होती जितनी काँच की चूड़ियों की। मुझे चूड़ियाँ और कलाई में उनकी ठंडक याद आती रही। गोरी कलाइयों में कांट्रैस्ट देता काँच की चूड़ियों का गहरा रंग। लड़कपन। भर हाथ चूड़ी पहनने की इच्छा। 

यूँ ही सोचा कि देश में काँच की चूड़ियाँ कहाँ बनती हैं और अचरज हुआ कि मुझे मालूम था शहर का नाम - फ़िरोज़ाबाद। क्या फ़ीरोज़ी रंग वहीं से आया है? मुझे क्यूँ याद है ये नाम? कि बचपन से चूड़ियों के डिब्बे पर पढ़ती आयी हूँ, इसलिए? कि कभी खोज के फ़िरोज़ाबाद के बारे में पढ़ा हो, सो याद नहीं। गूगल किया तो देखती हूँ कि याद सही है। हिंदुस्तान में काँच की चूड़ियाँ फ़िरोज़ाबाद में बनती हैं। 


ख़्वाहिशों की फेरहिस्त में ऐसे ही शहर होने थे। मैं किसी को क्या समझाऊँ कि मैं फ़िरोज़ाबाद क्यूँ जाना चाहती हूँ। कि मैं वहाँ जा कर सिर्फ़ बहुत बहुत से रंगों की प्लेन काँच की चूड़ियाँ ख़रीदना चाहती हूँ। कि मेरे शहर बैंगलोर में जो चूड़ियाँ मिलती हैं उनमें वैसे रंग नहीं मिलते। ना चूड़ी बेचने वालों में वैसा उत्साह कि सिर्फ़ एक दर्जन चूड़ियाँ बेच कर ख़ुश हो गए। एक दर्जन चूड़ी अब बीस रुपए में आती है। बीस रुपए का मोल ही क्या रह गया है अब। 

मैं कल्पना में फ़िरोज़ाबाद को देखती हूँ। कई सारी चूड़ियों की दुकानों को। मैं लड़कपन के पक्के, गहरे रंगों वाले सलवार कुर्ते पहनती हूँ मगर सूतीदुपट्टा सम्हाल के रखती हूँ माथे पर, धूप लग रही है आँखों मेंऔर मैं भटकती हूँ चूड़ियाँ ख़रीदने के लिए। कई कई रंगों की सादे काँच की चूड़ियाँ। 

मैं लौटती हूँ शहर फ़िरोज़ाबाद सेलकड़ी के बक्से में चूड़ियाँ और एकदम ही भरा भरा, कभी भी टूट सकने वाला, काँच दिल लेकर। 

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