A door, Paris |
तुम्हारा गाँव था नदी किनारे। वहीं तुम्हारा बड़ा सा घर। धान के टीले लगे हुए थे। धूप में निकाली हुयी खटिया थी। फिर पता नहीं कैसे तो मेरे पापा तुम्हारे घर वालों को जानते थे। कितने खेत थे घर के आसपास। कोई त्योहार था। शायद सकरात या फिर रामनवमी। गाँव के एंट्री पर चिमकी वाला झंडी लगा हुआ फहरा रहा था हवा में फरफ़र।
घर पर सब लोग जब ऐडजस्ट हो गए। गपशप मारा जा रहा था। कहीं आग लहकाया हुआ था। गुड़ की गंध भी आ रही थी आँगन में। लड़ुआ बन रहा होगा। तिल, चूड़ा, मूर्ही। मिट्टी वाली दीवार थी, हम बाहर आए तो तुमको देखे। तुम बैगी वाला स्वेटर पहने मोटरसाइकिल लेकर कहीं जा रहे थे। शायद मिठाई मिक्चर कुछ लाने को। ऐसा स्वेटर 90s में ख़ूब चला था। स्वेटर का रंग हल्का नारंगी लाल जैसा था। एक तरह का मिक्स ऊन आता था। उसी का। गोल गला, हाथ का बुना हुआ स्वेटर। लाल बॉर्डर का कलाई और गला। हम पीछे से जा के पूछे, हम भी चलें। तुम हँस के बोले हो, डरोगी नहीं तुम? फिर एकदम एक जगह से फ़ुल ट्विस्ट करके बाइक घुमाए हो। हम पीछे बैठे हैं तुम्हारे। पुरानी यामाहा बाइक है। ठंढा है बहुत। हवा
एकदम सनसना के लग रहा है। दायाँ गाल और आधा चेहरा तुम्हारी पीठ पर टिका हुआ है, माथा भी। आँख बंद है। ऊन का खुरदरापन और गरमी दोनों महसूस होता है गाल पे। तुम्हारा होना भी।
नहर किनारे पुआल का टाल बन रहा है। आधा हुआ है, आधा का काम शायद शाम को शुरू होगा। कोहरा है दूर दूर तक लेकिन अब थोड़ा धूप निकलना शुरू हुआ है। हम एकदम ठंडी हथेली सटाते हैं तुम्हारे गाल से। तुम एक मिनट ठहर कर मुझे देखते हो, मैं तुम्हें। हाथ पकड़ कर तुम मुझे थोड़ा पास लाते हो और गले लगाते हो। जाड़ों वाली फ़ीलिंग आती है तुम्हारे गले लग के। अलाव वाली। तुम कोई मौसम लगते हो। जाड़ों का। धीरे धीरे जैसे आँखें मुंदती हैं…जैसे रुकते हैं मौसम। कुछ महीनों तक।
***
मैं सोचती हूँ मेरे सपनों में तुम और गाँव दोनों अक्सर आते हैं। एक साथ ही। अक्सर नहर के पास वाली कोई जगह होती है। हम कहाँ रह गए हैं कि ऐसी छूटी हुयी जगह जाते हैं सपने में साथ। पता नहीं क्यूँ एक और बात भी याद आती है। कहीं पढ़ा था कि हम सपने में अगर किसी को देखते हैं तो इसका मतलब वो व्यक्ति हमारे बारे में सोच रहा होगा, या कि उसने भी सपने में हमें देखा होगा। इस थ्योरी के ख़िलाफ़ ये तर्क दिया जाता है कि उनका क्या जिन्होंने सपने में माधुरी दीक्षित को देखा है, माधुरी थोड़े ना उन्हें सपने में देख रही होगी। फिर मुझे याद आते हैं वे सपने जिनमें आए हुए लोगों की शक्ल मैंने पहले नहीं देखी थी। ये तो वे लोग हो सकते हैं ना? तो हो सकता है, माधुरी ने वाक़ई सपने में ऐसे लोग देखे हों जिन्हें उसने ज़िंदगी में कभी नहीं देखा, बस सपने में देखा है।
***
कभी कभी कुछ दुःख इतने गहरे होते हैं कि हम उनके इर्द गिर्द एक चहारदीवारी खींच देते हैं कि हम इन्हें किसी और दिन महसूस करेंगे। कि हमारा आज का नाज़ुक दिल इस तरह का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। कल तुमसे बात करना ऐसा ही था। हमारे बीच भी बात करने को चीज़ें ना हों। किसी अजनबी की तरह तुमसे बात करना तरतीब से मेरे टुकड़े कर रहा था। मैंने उस दोपहर को ही अपने ख्याल से परे रख दिया है। मैं सोच ही नहीं सकती इस तरह से तुम्हारे बारे में।
किसी रोज़ इत्मीनान से सोचूँगी कि हमारे बीच ऐसे पूरे पूरे महाद्वीप कब उठ खड़े हुए। मेरे तुम्हारे शहर इतने दूर कैसे हो गए। कि तुम्हारी हँसी के रंग का आसमान देखने के लिए कितनी स्याह रातें दुखती आँखें काटेंगी। कि तुमसे प्यार करना दुःख कब से देने लगा। कि हम प्रेम में बैराग लाना चाह रहे हैं। ख़ुद को बचाए रखना, इतना ज़रूरी कब से हो गया।
एक दिन तुम बिसर जाओगे। पर तब तक जो ये ठंढ का मौसम तुम्हारी आवाज़ में उतर आता है। मैं इस मौसम में ठिठुर के मर जाऊँगी।
No comments:
Post a Comment