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04 October, 2015

Let's begin from the end. अंत से शुरू करते हैं.

धूप की सुनहली गर्म उँगलियाँ गीले, उलझे बालों को सुलझाने में लगी हैं. आज गहरे लाल सूरज के डूब जाने के बहुत बाद तक भी ऐसा लगेगा जैसे धूप बालों में ठहरी रह गयी है. मुझे अब गिन लेना चाहिए कि तुम्हें गए कितने साल हुए हैं. मेरे शहर में ठंढ की दस्तक सुनाई नहीं देती है...मैं दिल्ली में रहती तो मुझे जरूरी याद रहता कि तुम्हारे जाने के मौसम बीते कितने दिन हुए हैं. धुंध इतनी गहरी नहीं होती कि कमरे में टंगा कैलेण्डर दिखाई न पड़े. अगर तुम्हारे जाने के मौसम को चेहरे की बारीक रेखाओं से गिना जा सके तो मैं कह सकती हूँ कि तुम्हारे जाने के सालों में मैं बूढ़ी हो गयी हूँ. आजकल मेरे जोड़ों में दर्द रहता है और मैं अपनी कलम में खुद से इंक नहीं भर सकती. यूं घर नाती पोतों से भरा पड़ा है लेकिन मेरी कलमों के बजाये वे मुझे कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. अब सोच रही हूँ कि कार्टरिज का इस्तेमाल शुरू कर दूं. आखिर ख़त तो तुम्हें टाइप करके नहीं भेज सकती ना. पेन्सिल से लिखने में मिट जाने का डर लगता है. पेन्सिल यूं भी सालों के साथ फेड करती जाती है. अब ये न कहो कि हमारे साल ही कितने बचे हैं या फिर ये कि मैं अब तुम्हें ख़त नहीं लिखती. मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि अब भी सुबह का पहला ख्याल तुम्हारे नाम की गुलाबी स्याही में डूबा ही उगता है. हाँ अब उम्र के इस दौर में चटख रंगों के प्रति मेरा रूझान कम हो गया है और मैं सोचने लगी हूँ कि काली स्याही दरअसल काफी डीसेंट दिखती है. हमारे उम्र के हिसाब से. नहीं? ग्लिटर वाली कलम से छोटे छोटे दिल बनाने का मौसम अब कभी नहीं आएगा.

पिछले साल मेरे पड़ोस में एक नया परिवार आया है. उनका बड़ा बेटा ऐनडीए में पढ़ता है. फिलेटली का शौक़ है उसे. जाने कहाँ कहाँ के डाक टिकट इकट्ठे कर रखे हैं उसने. मैं उसकी बात हरगिज़ नहीं मानती लेकिन हुआ यूं कि एक दोपहर मैं इसी तरह बाल सुखा रही थी धूप में...शॉल में छुपे हाथों मे लिफ़ाफ़े थे. वो बालकनी में आया और उसने पेस्ट्री का बौक्स बढ़ाया मेरी तरफ...लिफाफा हाथ से फिसल गया और ज़मीन पर गिर पड़ा. उसने लिफाफे पर लगे डाक टिकट को देख कर बता दिया कि ये हांगकांग का स्टैम्प है...तिरासी में लागू हुआ था. फिर हम बातें करने लगे. मैंने उसे किताबों का रैक दिखाया जहाँ तुम्हारे सारे ख़त रखे हुए हैं. यूं तो बहुत ही तमीजदार बच्चा है, अपनी सीमाएं जानता है मगर शायद उस जेनरेशन ने इतने ख़त देखे नहीं हैं तो उत्साह में पूछ लिया कि मैं आपके ख़त पढ़ सकता हूँ. मैंने भी क्या जाना था कि उसे ऐसा चस्का लग जाएगा...हाँ बोल दिया. मुझे जानना चाहिए था तुम्हारे खतों का जादू ही ऐसा है, एक जेनरेशन बाद भी असर बाकी रहेगा.

मुझे डर ये लगता है कि बार बार खोलने बंद करने से कहीं बर्बाद न हो जाएँ तुम्हारे ख़त. इस बार दीवाली में बड़ी बहू जब घर की सफाई कर रही थी तो उसे आईडिया आया था कि खतों को लैमिनेट करा देते हैं. कोई गलत बात नहीं कही थी उसने मगर ऐसा सोच कर भी मुझे ऐसी घबराहट हुयी कि क्या बताऊँ. जैसे जीते जी अनारकली को जिंदा दीवार में चिन दिया हो. तुम्हारे ख़त तो जिंदा हैं...सांस लेते हैं...उन्हें छूती हूँ तो तुम्हारी उँगलियों की खुशबू रह जाती है पोरों में...वो शामें याद आती हैं जब दिल्ली के सर्द कोहरे में तुम्हारा एक हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच लिए रहती थी देर तक...सूरज डूब जाने तक. पता है, जाड़े के दिनों में शॉल में हाथ छुपे रहते हैं तो कई दोपहरों में मैं कोई न कोई लिफाफा लिए धूप में बैठी रहती हूँ. यूँ लगता है तुम पास हो और मैंने थाम रखा है तुम्हारा हाथ. सिगड़ी की गर्माहट होती है तुम्हारे लिफाफों में. इसलिए मुझे गर्मियां पसंद नहीं आती हैं. मैं हर साल जाड़ों का इंतज़ार करती हूँ.

उसका नाम अंकुर है. बड़ा ही प्यारा बच्चा है. छुट्टियों में घर आता है तो पूरा मोहल्ला गुलज़ार हो जाता है. आये दिन पार्टियाँ होती हैं. ठहाके मेरे कमरे तक सुनाई देते हैं. वो सबका हीरो है. लड़के उसके साथ क्रिकेट खेलने के लिए जान दिए रहते हैं और लड़कियों का तो पूछो मत. मेरी बड़ी पोती भी उन दिनों बड़े चाव से सजने लगती है. हर ओर रंग गुलाबी यूं होता है कि मुझे इस उम्र में भी अपने दिन याद आने लगते हैं कि जब तुम छुट्टियों में शहर आते थे. मैं कुछ कांच की चूड़ियाँ पहन लेती थी, कि गोरी कलाइयों में सारे रंग फबते थे. चूड़ियों से ये भी तो होता था कि मेरे आने जाने से तुम्हें आहट सुनाई पड़ जाए और तुम बालकनी से झाँक लो. इक रोज़ अचानक तुम्हें सामने पा कर कितना घबरा गयी थी...दरवाज़ा हाथ पर ही बंद कर दिया था. वो तो चूड़ियाँ थीं, वरना कलाई टूट जाती. उफ़. किस अदा से तुमने गिरे हुए कांच के टुकड़े उठाये थे कि बुकमार्क बनाओगे. तुम्हारी किताबों में मेरी चूड़ियों की खनखनाहट भर गयी थी. मेरी खिलखिलाहटें भी तो. तुम शहर में होते थे तो मैं काजल लगाती थी...के आँखें सुन्दर दिखें और इसलिए भी कि मेरी इन चमकती आँखों को नज़र ना लगे किसी की. मैं जो अधिकतर गले में मफलरनुमा दुपट्टा डाले मोहल्ले में मवालियों की तरह डोला करती थी, तुम्हारे आने से झीने दुपट्टे ओढ़ने लगती थी. काँधे से कलाइयों तक कि दुपट्टे की खूबसूरती नुमाया हो. तुम शहर में होते थे तो लगता था कि दिन को सूरज इसलिए उगता है कि तुम किसी बहाने घर से बाहर निकलो और मैं तुम्हें देख सकूं. उन दिनों में तुम्हारे घर की हर चीज़ के ख़त्म हो जाने की मन्नतें माँगा करती थी. कभी चायपत्ती, कभी चीनी, कभी सब्जियां...तुम और तुम्हारी वो साइकिल. उफ़. तुम्हारी मम्मी अक्सर तुम्हें पूछ लेने बोलती थी मेरे घर में कि कोई सामान ख़त्म तो नहीं है. मेरा बस चलता तो उन दिनों घर की सारी रसद चूल्हे में झोंक आती. महज़ तुमसे एक लाइन ज्यादा बात करने के लिए.

गर्मी की बेदर्द दुपहरों में कभी कभी अंकुर घर चला आता है. मेरी बड़ी पोती को लगता है कि वह बहाने से उसे देखने आता है और वो मेरी स्टडी में आती जाती रहती है. आजकल सजने का अर्थ भी तो बदल गया है. मेरे दुपट्टे निकल आते थे और यहाँ मिन्नी की मिनी स्कर्ट्स निकल आती हैं. पगली है थोड़ी, उसे समझाउंगी एक दिन कि अंकुर को तुम्हारी लॉन्ग लेग्स में नहीं तुम्हारी नीली आँखों में इंटरेस्ट है...तुम्हारी टेबल पर फेंके हुए तुम्हारे जर्नल में लिखी उल्टी पुल्टी कविताओं में और तुम्हारे कमरे में लगे बेहिसाब पोस्टर्स में. पिछली बार पूछ रहा था मुझसे कि तुम क्या वाकई कवितायें लिखती हो. उसका एक दोस्त भी राइटर है और बड़ा होकर दूसरा शेक्सपीयर बनना चाहता है. वो सोचता है कि मिन्नी उसके दोस्त को समझा सकेगी कि शेक्सपियर एक डायनासोर था और उसकी प्रजाति के लोग लुप्त हो गए हैं. इस तरह से अंकुर अपने दोस्त की अझेल कवितानुमा कहानियों से बच जाएगा. वो मुझसे तुम्हारा पता मांग रहा था एक रोज़...पूछ रहा था कि मेरी जेनरेशन में सारे लोग इतने खूबसूरत ख़त लिखा करते थे क्या एक दूसरे को...और अगर ख़त इतने खूबसूरत थे तो फिर किताबों की जरूरत भी क्या पड़नी थी किसी को. मगर ये तब की बात है जब मैंने उसे ये नहीं बताया था कि तुमने किताबें भी लिखी हैं. कहानियां भी और कवितायें भी.

खतों में तुम्हारा नाम नहीं इनिशियल्स होते थे. एक दिन अंकुर ने जिद पकड़ ली कि वो तुम्हारा पूरा नाम जानना चाहता है और तुम्हारी लिखी किताबें पढ़ना चाहता है. मैंने बात को टालने की बहुत कोशिश की मगर वो तुम्हारा दीवाना हो चुका था. मैं नहीं बताती तो शायद किसी और से पूछता. और फिर जाने कितना सच उसे सुनने को मिलता. तो मुझे लगा कि बेहतर होगा कि मैं ही उसे बता दूं.

तुम्हें सत्ताईस की उम्र में मरने का बहुत शौक़ था न. बचपन का ये मज़ाक जिंदगी की क्रूर सच्चाई बन जाएगा ये किसने सोचा था. हम अपनी अपनी नयी नौकरी में सुहाने सपने बुन रहे थे. छोटेमोटे मीडियाहॉउस में नौकरी लगी थी लेकिन हम खुश थे कि अपनी बात को बेहतर तरीके से लोगों तक पहुंचा पायेंगे. हमने पहली बार साथ मिल कर एक कौमिक्स शुरू करने का सोचा था. ज़ी डायलॉग लिखता और मैं स्केच करती. हम उस उम्र में थे कि जब दुनिया बदल देने के ख्वाबों पर यकीन होता है.

हमारा समाज एक टाइम बम पर बैठा था और पलीते में लगी चिंगारी किसी को नहीं दिखी थी. विश्व में किसी भी बड़ी घटना की व्यापकता को नापने का पैमाना मौतें हुआ करती थीं, बात सिर्फ चंद इक्की दुक्की मौतों की थी. ये दार्शनिक, साहित्यकार और इतिहासकार थे जो कि अपने विषय में प्रतिष्ठित विशेषज्ञ थे और जिनका पूरे विश्व में मान था. मीडिया ने लोगों का ध्यान हल्के विषयों के प्रति भटका दिया कि उन्हें भी डर था कि आग जल्दी न भड़क जाए. गहरा मुद्दा सबकी नज़र से छिपा हुआ था. समाज की परेशानी का कारण भूख, गरीबी, बेरोजगारी थी मगर लोगों के उन्माद को दिशा धर्म की मशाल दे रही थी. हम एक मुश्किल समय में जी रहे थे जहाँ धर्म हमारा इकलौता आश्रय भी था और इकलौता हथियार भी.

सब अचानक ही शुरू हुआ था. जैसे एक ही समय में. एक महीने के अन्दर. उस महीने विश्व के हर कोने और हर धार्मिक बस्ती को एक ही इन्टरनेट कनेक्शन से जोड़ा गया था. आदर्श सरकारों को लगा था कि इससे लोग एक दूसरे से बेहतर जुड़ेंगे, मगर जैसा कि डायनामाईट और ऐटम बम के साथ हुआ था. तकनीक का गलत इस्तेमाल होने लगा. चूँकि इस वर्चुअल दुनिया में किसी को ट्रैक करना मुश्किल था, आतंकवादी और दहशतगर्द लोगों को डराने और धमकाने लगे. वर्चुअल दुनिया की दीवारें नहीं होतीं मगर असल दुनिया में लोग धार्मिक बस्तियों के बाहर दीवारों का निर्माण करने लगे थे. यही नहीं पहचान के लिए धार्मिक चिन्हों का प्रचलन भी बढ़ गया था. लोगों को ये डर लगा रहता था कि कहीं वे गलत धर्म के लिए न मारे जाएँ.

उन्ही दिनों में मैंने और जीरो ने कोमिक्स शुरू की और उनका नाम दिया 'ज़ीरो' ये आईडिया उसका ही था. शून्य से शुरुआत करना. हमने एक ऐसा कोमिक्स लिखा जो धर्म आधारित था, लेकिन हमने हीरो और हीरोइन अलग अलग धर्मों के लिए थे और एक ऐसे काल्पनिक समाज की रचना की थी जिसमें हर व्यक्ति दो या तीन धर्म को मानता है. हमने एकदम आधुनिक किरदार रचे जिनके नाम तकनीक की सबसे नयी खोजों पर आधारित थे. हमारे किरदारों के टाइटल हमेशा मॉडर्न फिजिक्स के पार्टिकल के नाम पर होते थे 'ऐटम, टैकीऑन, बोसॉन, फोटोन, क्वार्क' इत्यादि. 

हमारे देखते देखते विश्वयुद्ध देश की सीमाओं में नहीं बल्कि धार्मिक बस्तियों के दरवाज़ों के बाहर होने शुरू हो गए थे.  भीषण धार्मिक दंगों की व्यापकता बढ़ती ही जा रही थी. लोग दिनों दिन कट्टरपंथी होते जा रहे थे. एक उन्माद था जिसकी लपेट में पूरा विश्व आता जा रहा था. मैं और ज़ीरो चूंकि मीडिया से जुड़े थे इसलिए अपनी इस काल्पनिक दुनिया में जाने अनजाने किसी न किसी खबर के इर्द गिर्द चीज़ें बुनने लगे थे. हमारी दुनिया के इश्वर मोबाइल टावर में रहा करते थे. उनका आशीर्वाद तेज़ इन्टरनेट स्पीड और डेटा के रूप में मिलता था और तपस्या के लिए लोग इन्टरनेट से दूर रहने की कसमें खाते थे. 

हमने अपनी कॉमिक स्ट्रिप कभी ऑनलाइन नहीं डाली थी, हम इसे छापते थे और ये लोगों तक बंट जाते थे. एक दिन किसी फैन ने उत्साह में आ कर बहुत सारी स्ट्रिप्स को स्कैन कर के अपलोड कर दिया. दुनिया को शायद ऐसे ही किसी बहाने की जरूरत थी. ज़ीरो नयी जेनरेशन का पोस्टर बॉय था. दुनिया भर में इस धार्मिक हिंसा से थके हुए लोगों ने ज़ीरो को अपना इश्वर मानना शुरू कर दिया. कुछ दिन तक तो लोगों को लगा कि ये क्षणिक रूझान है, वर्ल्ड कप फीवर की तरह. उतर जाएगा. मगर जब मामला तूल पकड़ने लगा तो कट्टरपंथियों ने ज़ीरो के निर्माताओं की खोज शुरू कर दी. हम दोनों अंडरग्राउंड हो गए. ये ख़त उन्ही दिनों लिखे गए थे. 

हर देश की सरकार ने 'ज़ीरो' की कॉपीज ज़ब्त करने की कोशिश की, लेकिन ज़ीरो वायरल हो गया था और नयी जेनरेशन हथियारों से तौबा कर चुकी थी. 'अहम् ब्रह्मास्मि' की तरह 'आई एम ज़ीरो' एक नारा, एक फलसफा बनता चला गया. मैं और ज़ीरो इसके लिए तैयार नहीं थे. हर नयी कॉमिक स्ट्रिप दुनिया को दो हिस्सों में बांट देती. पुराना और नया. ज़ीरो हेटर्स और ज़ीरो लवर्स. कट्टरपंथी और ज़ीरोपंथी.

फिर एक दिन एक ख़त आया. ज़ीरो का आखिरी ख़त. उसने आत्महत्या कर ली थी.
'व्हाट?' अंकुर जैसे नींद से जागा था. किसी मीठे सपने से. 'बट व्हाई?' 

हम इस दुनिया का हिस्सा होते चले गए थे. एक नया पंथ बनने लगा था. हमने एक काल्पनिक दुनिया बनायी थी. इसके सारे सिरे थामने में बहुत एनर्जी लग जाती थी. हम इतने वोलेटाइल समय में रह रहे थे कि ज़ीरो को कुछ दिन और भी अगर लिखा जाता तो शायद बात हमारे सम्हालने से बाहर हो जाती. हमने ज़ीरो की रचना जब की थी तो एक ऐसी दुनिया की कल्पना की थी जिसमें सेना की जरूरत नहीं रहे क्यूंकि इंसान की ह्त्या का हक किसी को भी नहीं था. उस रोज़ अख़बार में एक ग्रुप की तस्वीर आई थी जिसमें ज़ीरोपंथी वालों ने कट्टरपंथियों को अपने धार्मिक निशान मिटाने को मजबूर कर दिया था. बात यहाँ से शुरू हुयी थी...यहाँ से बात किसी और जंग तक जाती ही जाती.

'फिर?' अंकुर किसी ख्याल में खोया तुम्हारे खतों को उलट पुलट रहा था. 

अचानक से तुमसे वो चीज़ छिन जाए जिसमें तुम्हारी आस्था है...और तुम १५ से २० साल के बच्चे हो तो तुम कैसे रियेक्ट करोगे? दुनिया में चारों ओर खलबली मच गयी. अराजकता. अनुशाशनहीनता. बच्चे पागल हो गए थे. रोने धोने और सुबकने से जब ज़ीरो के वापस आने की कोई राह नहीं मिली तो वे विध्वंसक हो गए. उन्होंने तोड़फोड़ शुरू कर दी. 

बड़ों की दुनिया में हड़कंप मच गया. इस तरह की दिशाहीनता घातक थी. ये एक वैश्विक समस्या थी, हमारा भविष्य खतरे में था और हमारे वर्तमान का कोई हल दिख नहीं रहा था. एक 3 डी कर्फ्यू लागू किया गया जो रियल और वर्चुअल दोनों दुनिया के बाशिंदों पर बाध्य था. हर देश में अनिश्चितकाल के लिए मिलिट्री रूल लागू किया गया. समस्या का हल जल्दी तलाशना जरूरी था. एक सेक्योर हॉटलाइन पर दुनिया के हर देश के लीडर को मेसेज भजे गए और सब दिल्ली में इकट्ठे हुए. उनमें से कई लोग मुझसे बात करना चाहते थे. उन्हें लगता था मेरे पास इसका कोई उपाय होगा...या शायद कोई सही दिशा. मुझे आज भी वो मीटिंग रूम याद है. लगभग २०० लोग थे उसमें. सबके पास लाइव इन्टर्प्रेटर डिवाइस थी ताकि वो मुझे सुन सकें. मेरे पास भविष्य की कोई प्लानिंग नहीं थी...मगर हमारे वर्तमान के लिए जरूरी था कि कहानी कि शुरुआत के सारे एलीमेंट्स उनसे डिस्कस किये जाएँ. वे सब ज़ीरो के बारे में और जानना चाहते थे. मैं उन्हें बता रही थी कि जैसे हमें बचपन से सिखाया जाता है कि हम किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रार्थना कर सकते हैं...हम मज़ार पर भी जाते थे और चर्च में भी, मंदिर में भी हाथ जोड़ते थे और स्तूप में भी. हमारा इश्वर एक भी था और उसके हज़ार रूप भी थे. इन्हीं कुछ बेसिक चीज़ों के हिसाब से हमने किरदार रचे जिनपर किसी एक धर्म का हक नहीं था. मैंने उन्हें अपने इनिशियल स्केचेस दिखाए, अपना आईडिया जितना डिटेल में हो सके डिस्कस किया और बाहर आ गयी.

कई सारे लोगों को लगा था कि ज़ीरो को रचने वाले किसी बड़े संगठन का हिस्सा होंगे जिसकी अपनी फिलोसफी होगी और तरीके होंगे. उनके समाधान में कई विरोधाभास थे...हम कई बार चीज़ों को जबरन पेचीदा करना चाहते हैं जबकि वे होती एकदम सिंपल हैं. लेकिन साथ ही चीज़ों का अत्यंत सरलीकरण भी बुरा होता है. जैसे कि हम ऐसे समाज में रहते हैं जिसके लोगों को किसी वाटरटाइट खांचे में बांटना नामुमकिन था. पर हुआ वही 'डेस्पेरेट टाइम्स कॉल फॉर डेस्पेरेट मेजर्स'. वर्ल्ड आर्डर का नया नियम लागू हुआ...बेहद सख्ती से...दुनिया एक धर्म को मान कर विध्वंस की तरफ जा रही थी. इसका एकदम सिंपल उपाय निकाला गया.

'एक ही धर्म के लोग शादी नहीं कर सकते'. दुनिया के बाकी सारे नियम ख़त्म कर दिए गए थे. बॉर्डर्स ख़त्म कर दिए गए. लोग विश्व नागरिक हो गए थे. इस नियम को दुनिया के सारे दस्तावेजों से मिटाया गया और पूरा पूरा इतिहास फिर से लिखा गया. जैसे कि जीने का तरीका हमेशा से ऐसा ही रहा था. अनगिन भाषाओं में लोग पिछले कई सालों का इतिहास बदलने में लगा दिए गए. इसमें सारे धर्म और धार्मिक चिन्ह, पूजा करने की जगहें, एक दूसरे से मिला दी गयीं, कुछ वैसा ही कि जैसे मैंने और ज़ीरो ने शुरू में लिखी थीं. कई सारी किंवदंतियाँ लिखी गयीं. तुम इसे एक तरह का प्रोपगंडा भी कह सकते हो.
'तो आपका कहना है कि धर्म की सारी हिस्ट्री मैनुफैक्चर्ड है?'
'हाँ' वी आल वांट द कन्वीनियेंट ट्रुथ. हमें आसान सच चाहिए होता है. लोगों को अपनी ज़िन्दगी में कोई खलल नहीं चाहिए था. वे मिलिट्री रूल के तले दबे नहीं रह सकते थे. नियम की बहुत खामियां थीं...लोगों को आइडेंटिटी क्राइसिस होते थे. मनोवैज्ञानिकों का एक बड़ा तबका सामने आया और उन्होंने लोगों को हर तरह से मदद की. धीरे धीरे सबने इसे एक्सेप्ट कर लिया. सब कुछ ऐसे चलने लगा जैसे कहीं कोई युद्ध कभी हुआ ही नहीं था. तानाशाही में बहुत बल होता है. सरकारें चाहे तो कुछ भी कर सकती हैं. जर्मनी के बारे में तो तुमने पढ़ा ही होगा. कैसे एक पूरा देश जीनोसाइड में इन्वोल्व था और कई बार लोगों को मालूम भी नहीं था कि वे किसी बड़ी मशीनरी का हिस्सा है. अनेक धर्मों में अपनी आइडेंटिटी ढूँढने को ग्लैम्राइज किया गया. और देखो, तुम सोच भी नहीं सकते कि एक ऐसा वक़्त था जब धर्म के लिए लड़ाइयाँ होती थीं. तुम्हारी पीढ़ी के अधिकतर बच्चे कमसे कम तीन धर्म में विश्वास करते हैं'
'तो केओस नाम का कोई इश्वर नहीं था जिसने वृन्दावन में रासलीला की, जिसमें सारे धर्म के अलग अलग इश्वर आये थे? 
'उनका नाम कृष्ण था'
'तो केओस था कौन?'
'केओस इस न्यू वर्ल्ड आर्डर का इश्वर था जिसे हमने रचा था'
'कोई कभी सवाल नहीं करता इन चीज़ों पर?'
'हमें आसान जिंदगी चाहिए अंकुर, ये बहुत मुश्किल सवाल हैं और सच जानकार भी तुम इतिहास को बदल नहीं सकते हो. लोग अभी भी रिसर्च करते हैं कि इसका क्या फायदा हुआ...इन फैक्ट तुम अपनी अकादमी में अभी इन चीज़ों के बारे में जानोगे. तुम्हें मालूम कि आर्मी का क्रेज इतना ज्यादा क्यों है लोगों में?'
'नहीं. क्यों?'
'क्योंकि सिर्फ उनके पास सच है. पूरा का पूरा सच. तुम्हें जब इतिहास पढ़ाया जाएगा तो कोई पन्ने ढके नहीं जायेंगे. पूरा का पूरा कड़वा सच बताया जाएगा तुम्हें. अभी के तुम्हारे क्लासेस के पहले तुम्हें ध्यान करने को कहा जाता होगा. तुम्हारे मेंटल टेस्ट्स भी हुए होंगे...सिर्फ वही लोग जो इस लायक है कि सच का भार वहन कर सकें उन्हें सब कुछ बताया जाता है'
'ये सब इतना मुश्किल क्यों है'
'क्यूंकि तुम्हें चुना गया है. अभी तुम्हारी जगह कोई नार्मल बच्चा होता तो इस सब को सिरे से ख़ारिज कर देता और अपनी उम्र के लोगों से मिलने चला जाता. बैठ कर मेरी चिट्ठियां नहीं पढ़ता. मेरी कहानियों में यकीन नहीं करता'
'मेरे यकीन करने से सच बनता है?'
'हाँ'
'कितने लोगों को बतायी है आपने ये पूरी बात?'
'सिर्फ अपने साइकैट्रिस्ट को'
'साइकैट्रिस्ट?'
'हाँ. पर वो कहता है मैं सिजोफ्रेनिक हूँ. मुझे लोग दिखते हैं जो सच में होते नहीं'
'मेरी तरह?'

30 December, 2014

जिंदगी। नीट ओल्ड मोंक में मिली किसी सरफिरे की याद है।

जिंदगी.
सुख का मुलम्मा है. सुनहला. चमकदार. जरा सा कुरेदो तो अन्दर की मिट्टी दिखेगी. सबकी अलग अलग.

जिन्दगी। ऐसी है कोई। जरा सी धुँधली। जरा सुर्ख। जरा सियाह
जिंदगी.
एक टहकते ज़ख्म पर जरा सा तुम्हारे नाम का बैंड एड है. दिल को झूठा सा दिलासा है कि भर जाएगा एक दिन. उन ट्वेंटी नाइन स्टिचेस से फॉरएवर बचे रहने की कवायद है. हर शाम का टूटा हुआ वादा है कि आज भी देर हो गयी ऑफिस से और डॉक्टर के पास नहीं जा सके. 

जिंदगी.
उस निशान की ख्वाहिशमंद है जिसके पीछे कहानियां छुपी हों. घुटनों पर के निशान...फूटी हुयी ठुड्डी का निशान...माथे पर नब्बे डिग्री का एल बनाता हुआ निशान. शर्त बस यही है कि निशान दिखने चाहिए. टूटे हुए दिल की कद्र कहाँ. उन टांकों की तलाश किसे. इसी बात पर जरा सा ब्लेड मारो न कलाई पर अपनी. जरा सी फूटे खून की धार. जरा सा घबराये तुम्हारा दिमाग ऑक्सीजन की कमी से. जरा सा नीला पड़े तुम्हारे होठों का स्वाद. 

जिंदगी.
सफ़ेद रुमाल पर काढ़ा हुआ तुम्हारा ही नाम है. शर्ट की बायीं पॉकेट में हमेशा रखा हुआ. लोगों के बेवक़ूफ़ सवालों पर एक झेंपी हुयी चुप्पी है...एक जिद है कि मुझे नहीं रखना पैंट की पॉकेट में रुमाल सिर्फ इसलिए कि सभी रखते हैं. मुझे रखने दो ना बायें पॉकेट में. जब तक जागा रहता हूँ उसके लगाए सारे स्टिचेस मेरे दिल के ज़ख्मों को भरते रहते हैं जरा जरा. ये रूमाल नहीं है...संजीवनी है. जब जब याद करता हूँ कि मुझे सोचते हुए महबूबा ने काढ़ा होगा रुमाल तो उसकी हर अदा पर दिल से उफ्फ्फ्फ़ निकल जाती है. उसके कमरे में सुबह धूप आती है. वो उस सुबह कोई सात बजे अपनी कॉफ़ी का मग और ये नन्हा सा रुमाल लेकर बैठी थी कि आज जो हो जाए ये जानेमन का रुमाल काढ़ के उठूँगी. रेशमी धागों का उसका आयताकार डिब्बा है स्टील का...उसमें से हरे रंग के धागे चुनने शुरू किये कि मेरी वादी के हरे चिनारों के रंग से लिखना था उसे मेरा नाम. अपने होने को मार्क करने के लिए मेरे इनिशियल्स के बीच उसने दो नन्ही बिंदियाँ रखीं...एक गुलाबी और एक पीली. वो गुनगुना रही थी एक बहुत पुराना गीत...'तुम्हें हो न हो...मुझको तो...इतना यकीं है...कि मुझे प्यार...तुमसे...नहीं है...नहीं है'. गीत के बीच में रुकना होता था उसे जब धागा ख़त्म हो जाता. ऐसे में वो अपने होठों के बीच सुई दबा लेती. मेरा दिल कैसे धक् से हो जाता था, पता है. सुई को ऐसे होठों के बीच रखना कितना खतरनाक है. 
बिलकुल हमारे इश्क जैसा. 

जिंदगी.
उसकी जिद है कि उसे मुझसे प्यार नहीं है.
मैं सिर्फ उसके ख्यालों की दुनिया का बाशिंदा हूँ. वो मानने को तैयार नहीं होती कि इसी दुनिया में इसी आसमान के नीचे मैं सांस लेता हूँ. उसकी दुनिया का चाँद मेरी आँखों में रिफ्लेक्ट होता है तो उसपर अपराजिता की बेलें लिपटने लगती हैं. नीले फूलों में गंध नहीं होती, वे बस तारों की तरह टिमटिमाते हैं. वो हाथ बढ़ा कर सारे फूल तोड़ लेना चाहती है कि अपने बालों में गूंथ सके. उसके मेरी आँखों की उदासी से डर लगता है इसलिए वो अपनी आँखों के पानी से इस अपराजिता को सींचती रहती है. वो जब मेरी आँखों में आँखें डाल कर देखेगी तो मैं एक नन्ही सी कलम उसकी आँखों में भी रोप दूंगा. फिर उससे दूर रहने पर भी उसे मेरे शहर के मौसमों की खबर होगी. 

जिंदगी
मेरी हार्टबीट्स के ओपेरा की कंडक्टर है जिसका उस छोकरे पर दिल आ गया है.
वो अपनी घुमावदार बातों में उसे हिल स्टेशन की सड़कों की तरह घुमाता और लड़की चकरघिरनी सी घूमती रहती. कहता कि मैं बाइक पर तुझे किडनैप कर के ले जाऊँगा और लड़की बस खिलखिलाहटों की फसलें उगातीं. लड़की भूल जाती कि मुस्कराहट का एक मौसम है मगर आँसुओं की नदी सदानीरा है. वो सीटी बजाता हुआ आता और लड़की मेरी हार्टबीट्स की स्पीड भूल जाती. कोई और ही धुन बजने लगती. उसके इश्क में डूबी लड़की, कसम से मेरी जान ले लेगी किसी रोज़. 

जिंदगी
उसका यकीन है कि आर्मी की हरी वर्दी पर लगे सितारों की उम्र आसमान के सितारों से कहीं ज्यादा होती है.
दुआओं में भीगी चिट्ठियां हैं. बॉर्डर पर पहुँचती राखियाँ हैं. एक सलोनी सी उम्र में ऐनडीए वाले पड़ोसी लड़के के क्रू कट पर फ़िदा हो कर बॉय कट बाल कटाने वाली लड़की है. मिलिट्री के ट्रक के पीछे पीछे बिना ओवेर्टेक किये धीमी रफ़्तार में गाड़ी चलाती कोई पगली सी है. एक कहानी है जिसमें इश्क से हरे रंग की खुशबू आती है. 

जिंदगी
नीट ओल्ड मोंक में मिली किसी सरफिरे की याद है.
जिसे भुलाने के लिए पीनी पड़ती है बहुत सी नीट कोक और बहुत सा नीट पानी. फिर पुराने किसी ख़त से आती है उसके होने की खुशबू. फिर जाने किस फितूर में लिखती है लड़की जिंदगी को जाने कितने ख़त. जबकि जिंदगी भी जानती है कि उसका सिर्फ एक ही और नाम है...और वो उस लड़के के नाम से मिलता जुलता है.

19 September, 2014

ब्लैक टी विद अ स्लाइस ऑफ़ लेमन

भोर से तीन बार उठ चुकी हूँ मगर मौसम में ठंढक कुछ ऐसी है कि वापस कम्बल ओढ़ कर सो जाने का दिल करता रहा. अब आखिर झख मार के उठी हूँ कि दस बजने का अंदाजा हो रहा था. ये ख्वाब नींद के किस पहर देखा मगर ठीक ठीक याद नहीं है.

सामने चाय के बगान वाले ऊंचे पहाड़ थे...और आसपास बहुत से पेड़. सब कुछ इतना हरा था जैसे ग्रीन फ़िल्टर से दिख रही हों चीज़ें. ये केरल की कोई जगह थी. ठीक कौन सी जगह याद नहीं. मैं अकेले किसी ट्रिप पर निकली थी कि जाने क्या देखना था मुझे. इन पहाड़ों पर जाने के लिए सीढियाँ थीं. पत्थर की पुरानी सी सीढ़ियाँ जिनमें कहीं कहीं काई लगी हुयी थी. जरा जरा सी ठंढी हवा बह रही थी. आँख भर देखने के बाद भी सब इतना सुन्दर था कि जैसे वाकई आँखों में समा नहीं रहा था. मुझे किन तो लोगों की याद आ रही थी. किसी के शहर को जानना उस व्यक्ति को जानने जैसा होता है. मुझे वैसे भी जगहों से ज्यादा लगाव होता है लोगों के बनिस्बत.

मैं वहां मुग्ध खड़ी थी. मुझे किसी के गाँव जाना था उससे मिलने. उसके गाँव की तसवीरें देखी थी मैंने. वहां एक नदी बहती थी. इस खूबसूरत नज़ारे में क्रॉसफेड हो रहा था उसका चेहरा और उसकी आँखें. कोई आधी दूर चली थी तो जंगल में एक गेस्टहाउस था जहाँ मेरी जान पहचान के कुछ लोग थे. इनमें कुछ कॉलेज की क्लासमेट्स थीं और एक ऑफिस के जानपहचान वाली थी. ये दोनों एक जगह कैसे हो सकती हैं, या एक ट्रिप पर कैसे आयीं मुझे कोई आईडिया नहीं. उनमें से एक के पास मेरा पुराना हैंडीकैम था. कोई सात साल पुराना होने के बावजूद वो बहुत अच्छे से काम कर रहा था. फिर वहां अचानक से मेरे कुछ पुराने बक्से दिख रहे थे. वो कमरा जैसे कोई स्टोरेज रूम था जिसमें मेरी खोयी हुयी चीज़ें जमा हो गयीं थीं. मेरी शादी के बाद की एक खोयी हुयी झांझर मिली उसमें...बहुत सारे घुँघरू थे. मैंने अपने पैरों में डालने की लिए देखी तो पाया कि अट नहीं रही. पहले शायद मेरे पैर बहुत पतले और सुन्दर रहे होंगे. हम तीनो लड़कियां हँस रही थीं फिर.

वहां कोई तो प्रेजेंटेशन होने लगा. एक हॉल था. लोगों को कहानियां सुनानी थीं. लोग अलग अलग डेस्क पर बैठे थे. मैं अपने किसी दोस्त के साथ थी जिसे कोई तो काम था. वो पेपर्स में कुछ कुछ तो लिख रहा था. फिर सीन चेंज हुआ और मैं अचानक से वापस उसी स्टोरेज वाले रूम में थी और मैंने पाया कि मेरे पास बहुत सारा सामान है जिसे लेकर मैं आगे नहीं बढ़ सकती. फिर मैंने अपनी दोनों दोस्तों से कहा कि कुछ चीज़ें वो अपने साथ वापस ले जायें. मैं सिर्फ उतनी सी चीज़ें अपने साथ लेकर जाना चाहती थी जो जीने के लिए एकदम जरूरी हों. एक नोटबुक, मेरी कलमें, पानी की एक बोतल, मेरा फ़ोन और कैमरा. एक छोटे से बैग में ये सब आ गया. मैं जंगल में फिर से अकेली निकल पड़ी. सब कुछ ख्वाबों जैसा था. मैंने ऐसे जंगल देखे थे मगर सिर्फ फिल्मों में...भारत में ऐसी कोई जगह है भी यकीन नहीं हो रहा था.

सुबह नींद खुली फिर भी जरा जरा सी वहीं रह गयी हूँ...ढलानों वाले चाय के बगान में...सोचती हूँ अब फाइनली चाय पीना शुरू कर ही दूं...नींद में आते बगान यही गुजारिश कर रहे होंगे...ब्लैक टी...जरा सी नीम्बू की खुशबू लिए हुए. जगह का नाम याद आ रहा है जरा जरा सा...वायनाड. जाना है मुझे. जल्दी.

03 May, 2014

ये मौसम का खुमार है या तुम हो?

याद रंग का आसमान था
ओस रंग की नाव
नीला रंग खिला था सूरज
नदी किनारे गाँव

तुम चलते पानी में छप छप
दिल मेरा धकधक करता
मन में रटती पूरा ककहरा
फिर भी ध्यान नहीं बँटता

जानम ये सब तेरी गलती
तुमने ही बादल बुलवाये
बारिश में मुझको अटकाया
खुद सरगत होके घर आये

दरवाजे से मेरे दिल तक
पूरे घर में कादो किच किच
चूमंू या चूल्हे में डालूं
तुम्हें देख के हर मन हिचकिच

उसपे तुम्हारी साँसें पागल
मेरा नाम लिये जायें
इनको जरा समझाओ ना तुम
कितना शोर किये जायें

जाहिल ही हो एकदम से तुम
ऐसे कसो न बाँहें उफ़
आग दौड़ने लगी नसों में
ऐसे भरो ना आँहें उफ़

कच्चे आँगन की मिट्टी में
फुसला कर के बातों में
प्यार टूट कर करना तुमसे
बेमौसम बरसातों में

कुछ बोसों सा भीगा भीगा
कुछ बेमौसम की बारिश सा
मुझ सा भोला, तुम सा शातिर
है ईश्क खुदा की साजिश सा 

13 November, 2013

थ्री डेज ऑफ़ समर

यूँ रोज़ का जीना तो हो ही जाता है तुम्हारे बगैर. तुम्हारी आदत ऐसी भी कुछ नहीं है कि बदन से सांस छीन ले जाए. हाँ एक दिल है ज़ख़्मी जो गाहे बगाहे दुखता रहता है. नसों में धड़कन की रफ़्तार थोड़ी मद्धम सही, तुम्हारे बिना कई साल और जीने का माद्दा तो है मुझमें.

कभी कभार ही ऐसे बेसाख्ता याद आती है तुम्हारी. लू के थपेड़ों में जलते बदन के ताप जैसी. माथे पर लहकी आग जैसी. जंगल में फूले पलाश जैसी. चारों ओर फिर कुछ नहीं बचता एक तुम्हारे नाम के सिवा. तुम्हारा है ही क्या मेरे पास जो जोग के रखूं मैं. ले देकर कुछ तसवीरें हैं, कुछ वादे, झूठे मूठे, कुछ कहानियों के किरदार हैं तुम्हारी तरफदारी करते हुए. तुलसी चौरा में जल ढारते हुए कभी तुमको सोच लिया था. हनुमान जी की ध्वजा पर अटका हुआ तुम्हारा इंतज़ार है...पुरवा में बहता...दस दिशाओं को एक अधूरी इश्क की दास्तान कहता. चाचियों के ताने में जहर सा घुलता. यूँ तुम्हारे बिना पहले भी जीना कोई नामुमकिन तो नहीं था, मुश्किलों में जीने की आदत गयी कहाँ थी. तुम थे तब भी तो हज़ार परेशानियाँ थी जिंदगी में.

बिट्टू की फीस भरनी थी...माँ के लिए नयी साड़ियाँ लानी थीं. बड़की दीदी के नंदोई को बेटा हुआ था. हफ्ते भर का भोज रखा था उसकी सास ने. गुड्डू के हॉस्टल में पैसे भेजने थे. रोज रोज की जिंदगी में  बारिश के झोंके की तरह ही तो आये थे तुम. यूँ तुमने कभी कोई वादा भी तो नहीं किया था कि एक तुम्हारे होने से सर पर हमेशा गुलमोहर की छाँव रहेगी...अमलतास के गीत रहेंगे...तितलियों की उड़ान रहेगी. जिंदगी होम ही तो कर दी थी मैंने घर के लिए, अपने घर के लिए. आखिर बड़ी बेटी का भी कुछ फ़र्ज़ होता है. तो क्या हुआ अगर मेरे होने पर माँ ने अनगिन ताने सुने थे...तुम बस सूखी हवा की तरह लहकाने आये थे मेरी आंच को. तुम जितने दिन रहे...कितने ताप से जलती थी मेरी अंतरात्मा.

आँखें बंद करने से रौशनी ख़त्म नहीं हो जाती मगर हम अँधेरे के लिए बेहतर तैयार हो जाते हैं. मैं जानती थी तुम्हारा छल. सदियों से. जैसे कि कृष्ण को महाभारत का अंत...फिर भी अपना कर्म तो करना ही था. तुम्हारे आने पर अगर मैं बदल जाती तो तुम कितने बड़े हो जाते. जो किसी के लिए कभी न बदली, तुम्हारे लिए कोई और हो जाती तो शायद खुद से जिंदगी भर आँख न मिला पाती. अभी भी मेरा इतना अभिमान तो है कि मैंने तुम्हें अपनी तरह से चाहा. तुम्हारे आने का मौसम था...तुम्हारे जाने का मौसम है.

अच्छा सुनो, तुम सच में कह पाते थे इतना सारा झूठ? थियेटर के नामचीन कलाकार हो...शब्द, रंग, रौशनी पर तुम्हारी बेहतरीन पकड़ है ये तो मानना पड़ेगा. इतने सालों से नियत लोगों के सामने लाइव परफोर्म करते आ रहे हो. ऑडियंस का मूड समझते हो...उसके हिसाब से स्क्रिप्ट में भी वहीं बदलाव कर देते हो. मुझसे भी ऐसा ही था न प्यार तुम्हारा? तुम्हारी आवाज़ की मोड्यूलेशन ऐसी थी कि लगता था दुनिया की सारी तकलीफें ख़त्म हो गयी हैं. तुमने वो तीन शब्द अनगिनत लोगों को कई माहौल और मूड में बोले होंगे, हर बार उनकी पसंद और मूड भांपते हुए. लेकिन सुना है कि बहुत सारे किरदार जीने से एक्टर भूल जाता है कि वो वाकई में कैसा है. उसकी ओरिजिनल हंसी कैसी है...बिना मिलावट का प्यार कैसा है...अनगिन मुखौटे लगाने वाले लोगों के लिए आइना भी कारगर नहीं होता...हमेशा कोई और अक्स दिखाता है. शायद किसी के आँखों में तुम अपने आप को पा सकते. मगर तुम्हें खोना कहाँ आता है...जरा सा अपने को गिरवी नहीं रखोगे तो कैसे पाओगे कुछ भी वापसी में. लेकिन तुम्हें इसकी चाहत नहीं होगी शायद. तुम सिर्फ जायका बदलने के लिए इश्क को करते हो. झूठ को जीना तुम्हारे लिए खुशनुमा रहा है. इसलिए तुम्हारे हिस्से मेरी दुआएं नहीं हैं.

तुम यूँ ही दफन रहो शहर के बाहर की परती जमीन पर नागफनियों के साथ. मुझे जाने क्यूँ तुम्हारा क़त्ल कर देने का अफ़सोस कभी नहीं नहीं होता है. अफ़सोस यूँ तो तुमसे इश्क करने का भी कभी नहीं होता है. जबसे तुम्हें दफनाया है इत्मीनान रहता है कि किसी रात तुम अपने हिस्से का इश्क मांगने नहीं पहुँच जाओगे. मैंने तुम्हारे जैसा भिखारी कहीं नहीं देखा. गरीब से गरीब आदमी बुद्ध के लिए अपनी झोली से एक मुट्ठी अनाज दे सकता था मगर तुम ऐसे कृपण थे कि अपनी ओर से बुआई के लिए अन्न तक नहीं देते.  यूँ तुम्हारा क़त्ल अपने हाथों करने की जरूरत नहीं थी...किसी और से भी करवा सकती थी मगर सुकून नहीं आता.

ठंढ के दिन थोड़े मुश्किल होते हैं मानती हूँ मगर इतना भी नहीं कि तुम्हारी आवाज़ के अलाव के बिना रात ठिठुरते हुए मर जाए. वो दिन याद हैं जब तुम्हारी आवाज़ को ऊन की तरह उँगलियों में लपेट कर कविताओं का मफलर बुना था. नर्म पीले रंग का. उस सर्दियों में मेरा गला  कभी ख़राब नहीं हुआ. इन जाड़ों में सोच रही हूँ अपने पुराने प्यार कीट्स से फिर से इश्क कर बैठूं, सच ही कहता था न...

“I almost wish we were butterflies and liv'd but three summer days - three such days with you I could fill with more delight than fifty common years could ever contain.” 
― John Keats

10 May, 2013

जरा सा पास, बहुत सा दूर

इससे तो बेहतर होता कि वे एक दूसरे से हजारों मील दूर रहते. ऐसे में कम से कम झूठी उम्मीदें तो नहीं पनपतीं, हर बारिश के बाद उसको देखने की ख्वाहिश तो नहीं होती. ऊपर वाला बड़ा बेरहम स्क्रिप्ट राइटर है. वो जब किरदार रचता है तो मिटटी में बेचैनी गूंथ देता है. ऐसे लोगों को फिर कभी करार नहीं आता.

इस कहानी के किरदार एक दूसरे से २०० किलोमीटर दूर रहते हैं. एक बार तो सोचती हूँ कहानी को किसी योरोप के शहरों की सेटिंग दे दूं...वहां शहर इतने खूबसूरत होते हैं...बरसातों में खास तौर पर. लेकिन उस सेटिंग में मेरे किरदार नैचुरल नहीं महसूस करेंगे. उनके अहसासों में एक अजनबियत आ जायेगी. यूँ मुझे वियेना और बर्न बहुत पसंद है. पर उनकी बात फिर कभी.

उन दोनों के शहरों के बीच हर तरह की कनेक्टिविटी थी. बसें चलती थीं, ट्रेन थी, हवाईजहाज थे और उन्हें जोड़ने वाला हाइवे देश का सबसे खूबसूरत रास्ता माना जाता था. वो रहता था सपनों के शहर मुंबई में और वो रहती थी बरसातों के शहर पुणे में.

आज किरदारों का नाम रख देती हूँ कि कुछ तसवीरें हैं ज़हन में...तो मान लेते हैं कि लड़के का नाम तुषार था. किसी सुडोकु पजल जैसा था लड़का, सारे खानों में सही नंबर रखने होते थे जब जा कर उसके होने में कोई तारतम्य महसूस होता था वरना वो बेहद रैंडम था और जैसा कि मेरी कहानी की लड़कियों के साथ होता है, उसके नंबरों से डर लगता था. वो उसे सुलझाना चाहती थी मगर डरती थी. हालात हर बार ऐसे होते थे कि वो मिलते मिलते रह जाते थे. वे सबसे ज्यादा ट्रैफिक सिग्नलों पर मिलते थे, जिस दिन किस्मत अच्छी होती थी उनके पास पूरे १८० सेकंड्स होते थे.

एक लेखक ने अपनी किताब का कवर सरेस पेपर का बनवाया था ताकि उसके आसपास रखी किताबें बर्बाद हो जायें. तुषार ऐसा ही था, उसे पढ़ने की कोशिश में उँगलियाँ छिल जाती थीं. उसके ऊपर कवर लगा के रखना पड़ता था कि उसके होने से जिंदगी के बाकी लोगों को तकलीफ न हो. गलती मेरी ही थी...मैंने ही ऐसा कुछ रच दिया था कि लड़की को कहीं करार नहीं था.

लड़की कॉफ़ी में तीन चम्मच चीनी पीती थी, तुषार ने उसके होटों का स्वाद चखने के लिए उसके कॉफ़ी मग से एक घूँट कॉफ़ी पी ली थी, मगर उसने लड़की ने इतना ही कहा कि मुझे देखना था तुम इतनी मीठी कॉफ़ी कैसे पी पाती हो. तुषार को ब्लैक कॉफ़ी पसंद थी, विदाउट मिल्क, विदाउट शुगर. लड़की ने वो कॉफ़ी मग अपनी खिड़की पर रख दिया था. उसे लगता था जिस दिन कॉफ़ी मग बारिश के पानी से पूरा भर जाएगा उस दिन उसे तुषार के साथ बिताने को थोड़ा ज्यादा वक़्त मिलेगा.

दोनों शहर इतने पास थे कि दूर थे...और ये ऐसी तकलीफ थी कि सांस लेने नहीं देती. लड़की सोचती कि ऐसे मौसम में मुमकिन है कि वो वाकई आ सके. तीन घंटे क्या होते हैं आखिर. वो छत के कोने वाले गुलमोहर के नीचे खड़ी भीगती और सोचती बारिशों में तेज़ ड्राइव करना जितना खतरनाक है उतना ही खूबसूरत भी, या कि खतरनाक है इसलिए खूबसूरत भी. एक्सप्रेसवे पर गहरी घाटियाँ दिखतीं थें और उनसे उठते बादल. दोनों उसी रास्ते से विपरीत दिशाओं में जाते हुए मिलते. तुषार उसका गहरा गुलाबी स्कार्फ पहचानता था. ऐसा हर बार होता कि जब तुषार का पुणे आने का प्रोग्राम बनता, लड़की को बॉम्बे जाना होता. वे तकरीबन एक ही समय खुश हो कर एक दूसरे को फोन करते कि अपने शहर में रहना. जब उनकी गाड़ियाँ क्रोस करतीं लड़की अपना स्कार्फ हिला कर उसे अलविदा कहती थी.

इतनी दूरी कि जब चाहो उससे मिलने जा सको लेकिन उतना सा वक़्त न मिले कभी, धीमे जहर से मरने जैसा होता है. फिर भी कभी कभी उनके हिस्से में कोई बारिश आ जाती थी. कैफे में बैठे, अपने अपने पसंद की कॉफ़ी पीते हुए वे सोचते कि जिंदगी तब कितनी अच्छी थी जब एक दूसरे से प्यार नहीं हुआ था. या कि वे दोनों बहुत दूर के शहर में रहते जब आने की उम्मीद न होती...या कि एक दूसरे को सरप्राईज देने के बजाये वे प्लान कर के एक दूसरे के शहर आते. लड़की के सारे दोस्त भी तुषार के साथ मिले हुए थे...तो अक्सर उसे उसकी किसी दोस्त का फोन आता कि कैफेटेरिया में तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ और वहां तुषार मिलता. कभी कभी लगता कि अचानक उसे देखने की ख़ुशी कितना गहरा इंतज़ार दे जाती है कि वो हर जगह, हर वक़्त उसे ही तलाशती फिरती है.

वे अक्सर टहलने निकल जाया करते थे. घुमावदार गलियों पर, सीढ़ियों पर, शीशम के ऊंचे पेड़ों वाले रस्ते पर...तुषार दायें हाथ में घड़ी बांधता था और लड़की बायें हाथ में, अक्सर उनकी घड़ियों के कांच टूटते रहते थे. उन्हें कभी हाथ पकड़ के चलना रास नहीं आया. अक्सर जब ऐसा होता था तो वे ध्यान से अपने चलने की साइड बदल लेते थे.

इस कहानी में बहुत सारा इंतज़ार है...उन दो शहरों की तरह जो अपनी सारी बातें सिर्फ उनको जोड़ने वाले एक्सप्रेसवे के माध्यम से कर पाते थे. कहानियों को फुर्सत होती है कि वे जहाँ से ख़त्म हों, वहां से फिर नयी शुरुआत कर सकें. मैं उन्हें इसी मोड़ पर छोड़ देती हूँ...जहाँ प्यार है और इंतज़ार है बेहद. उम्मीद नहीं है क्यूंकि ख्वाहिश नहीं है. दोनों अपने अपने शहरों से भी उतना ही प्यार करते हैं जितना कि एक दूसरे से.

बेचैनी के इस आलम में सुकून बस इतना है कि दोनों जानते हैं कि हर बारिश में यहाँ से कुछ दूर के शहर में रहने वाला कोई उनसे प्यार करता है और चाहता है कि वो एक्सप्रेसवे पर २०० की स्पीड से गाड़ी उड़ाता हुआ उनके पास चला आये.जीने के लिए इतना काफी है.

16 July, 2012

क्राकोव डायरीज-३-बारिशों का छाता ताने

यूँ तो इस कासिदाने दिल के पास, जाने किस किस के लिए पैगाम हैं
जो लिखे जाने थे औरों के नाम, मेरे वो खत भी तुम्हारे नाम हैं
-जान आलिया
डायरी में लिखा हुआ...
12th July, 12:26 local time Krakow
किले के पीछे विस्तुला नदी बहती है. मैं नदी किनारे बैठ कर हवा खा रही हूँ. लोगों के आने जाने की आवाजें हैं. नदी की लहरों का शोर. घूमने को कई सारे म्यूजियम हैं, देखने को कई सारी जगहें...ऐसे में बिना कुछ किये बैठे रहने में वैसा ही भाव है जैसे गर्मी की छुट्टी का होमवर्क नहीं करने में था. M lovin it :)
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वे धूप की खुशबू में भीगे दिन थे...गुनगुनाते हुए. 
मेरे फोन में 3G आ गया था तो शहर घूमना थोड़ा आसान हो गया. मुझे वैसे भी रास्ते अच्छे से याद रहते हैं. क्राकोव में मैं जहाँ ठहरी हूँ वो 'ओल्ड टाउन' का हिस्सा है. सारे किले, पुराने चर्च, म्यूजियम आसपास ही हैं और पैदल घूमा जा सकता है. १२ की सुबह आराम से तैयार होकर घूमने निकली तो सोचा ये था कि यहाँ का जो मुख्य किला है...वावेल कैसल उसके अंदर के म्यूजियम घूमूंगी. आज दूसरा रास्ता लिया था कैसल जाने के लिए. इस रास्ते के एक तरफ पार्क था और दूसरे तरफ बिल्डिंग्स. यूरोप का आर्किटेक्चर लगभग एक जैसा ही है...स्लोपिंग छत वाले घर और बालकनी...खिड़कियों के बाहर फूलों वाले गमले जिनमें अक्सर लाल फूल खिले रहते हैं. 

इस दूसरे रास्ते पर चलते हुए किले के नीचे पहुँच गयी...नदी के किनारे. यहाँ ड्रैगन की गुफा का बाहरी दरवाजा है...जहाँ एक ड्रैगन बना हुआ है जिसके मुंह से आग निकलती है. नदी के लिए क्रूज भी यहीं से मिलते हैं. क्राकोव में बहुत सारा स्टूडेंट पोपुलेशन है इसलिए यहाँ धूप में पढ़ते हुए लोग दिख जाते हैं...नदी किनारे, पेड़ के नीचे पढ़ते लिखते लोग देख कर लगता है कि जिंदगी इसी का नाम है. कोई बारह बज रहे थे और माहौल इतना अच्छा था कि कहीं जाने का मन ही नहीं कर रहा था. शहर में आये हुए ये तीसरा दिन था. कुछ खास देखा नहीं था अभी...कैसल में भी म्यूजियम हैं, राजाओं की कब्रें हैं और इसके अलावा टाउन स्क्वायर जिसका मूल नाम रैनेक ग्लोव्नी होता है में भी एक बड़ा सा म्यूजियम है जिसे क्लोथ हॉल म्यूजियम कहते हैं. इसके अलावा ३ बजे मेन स्क्वायर से जुविश क्वाटर के लिए टूर शुरू होता है...उसे देखने का भी दिल था.

घोर गिल्ट महसूस करने के बावजूद मैं वहाँ कुछ देर ठहरी रही...ठंढ के दिन में धूप...उसपर इतनी खूबसूरती...सारा गिल्ट महसूस करने के बावजूद कहीं जाने का दिल नहीं कर रहा था. सोच ये रही थी कि यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड लिखने में कितना मज़ा आएगा...किले की बुर्ज पर बने कमरेनुमा वाच टॉवर को देखा तो बिलकुल पुराने जमाने के लाल-डिब्बे जैसा दिखा. कुछ देर वहीं धूप खाने के बाद ऊपर किले पर पहुंची और पोस्टकार्ड ख़रीदा...फिर खाने का इन्तेज़ार करते हुए पोस्ट कार्ड पर पता और मेसेज लिखा. फिर कार्ड को असली वाली पोस्टबोक्स में गिराया. यहाँ के स्टैम्प्स बहुत अच्छे लगते हैं मुझे.

टाउनहाल की नींवें
आज की कहानी है नीवों की...पार्ट वन में आपने यहाँ की नींव के बारे में सुना...अब बारी थी उन्हें असल में जा कर देखने की. क्लोथ हॉल म्यूजियम एक बड़ी सी इमारत है. जब मैंने सोचा कि आज म्यूजियम देखना है तो मुझे लगा कि ईमारत में जाना है...सीढ़ियाँ नीचे की ओर जाते हुए देख कर भी मुझे नहीं लगा था कि म्यूजियम दरअसल ऊपर की इमारत नहीं...वाकई टाउन स्क्वायर की गिरी हुयी इमारत की नींवों में है. म्यूजियम के एंट्रेंस में एक विडीयो चल रहा था...मुझे लगा कि कोई दीवार है...जिसपर प्रोजेक्शन है...मगर तकनीक इतनी आगे बढ़ गयी है...वो असल में हवा में थ्री डी प्रोजेक्शन था...कोई दीवार नहीं थी. 


१५०० AD: मेन टावर, क्राकोव टाउनहाल
क्राकोव का टाउनहाल १२वीं शताब्दी से उसी जगह पर है. म्यूजियम में बहुत सालों पुरानी बनी नींवें थीं...थ्री डी टेक्निक और प्रोजेक्शन से हर सदी के साथ कैसे नींव की रूपरेखा बदली ये भी दिखता था. १६ वीं शताब्दी में जहाँ आज का टाउनहाल है वहाँ पर एक बहुत बड़ा बाजार हुआ करता था फिर एक भीषण आग में सब जल कर भस्म हो गया. आर्कियोलॉजिकल सर्वे में उस समय का काफी कुछ सामान मिला है. पुराने जमाने में लुहार, स्वर्णकार किस तरह काम करते थे इसे मोडेल्स और छोटी फिल्मों के माध्यम से दिखाया गया है. यहाँ कई सारे स्कूल के बच्चे भी आये हुए थे जिनके साथ टीचर और गाइड भी थीं. नीवें पूरे टाउन स्क्वायर के नीचे नीचे हैं...और म्यूजियम भी इन्ही नींवों के बीच बना हुआ है...यानी कि पूरा अंडरग्राउंड है. सबसे अधिक आश्चर्य हुआ जब एक जगह पानी की परछाइयाँ देखीं. मुझे लगा कि फिर से कोई इन्तेरैक्तिव वीडियो है...पानी में पैर भी देखे...बहुत देर बाद जाकर अहसास हुआ कि नींव की सुरंगनुमा गलियारों में चलते हुए मैं मेन स्क्वायर के बड़े से झरने के ठीक नीचे खड़ी हूँ...और जो पानी है वो उसी फाउंटेन का है...और जो पैर नज़र आ रहे हैं वो असल में ऊपर पानी में खेलते बच्चों के हैं...किसी वीडियो फिल्म के नहीं. म्यूजियम इतना बड़ा है कि अगर लोग कम हों तो कई बार डर लग जाए कि कहीं खो न जायें.
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उस शाम से हर शाम बारिशें हो रही हैं...मैं सोचती हूँ अच्छा हुआ कि धूप में कुछ देर बैठने का मन था तो बैठ लिए...कल का दिन कैसी बारिशें लिखा के लाता है कोई नहीं जानता. इधर बारिशें होती हैं तो मैं जींस मोड़ कर...फ्लोटर्स पहन कर फोन-वोन होटल के कमरे पर छोड़ कर  निकल जाती हूँ. भीगता हुआ शहर भीगती लड़की की तरह ही खूबसूरत दिखता है. पुरानी पत्थर की बनी इमारतें...और सड़कें. बारिश में लगभग हर कोई भागता हुआ दिखता है...एक मैं ही हूँ जो इस शहर की कहानियां सुनने को भटकती रहती हूँ. रंग बिरंगे छाते तन गए हैं हर तरफ और शोर्ट्स में घूमने वाली लड़कियां जींस और जैकेट में बंध गयी हैं.

हर शहर में पहली बारिश की खुशबू एक ही होती है फिर इस शहर में क्या खास है...फुहारों में वायलिन की आवाज़ भी आती है...यहाँ की बारिश में संगीत घुला होता है. मैं यहाँ कभी हेडफोन लगा कर नहीं घूमती कि यहाँ के हर चौराहे पर कोई न कोई संगीत का टुकड़ा ठहरा होता है...कभी वायलिन, कभी गिटार तो कभी ओपेरा गाती लड़की तो कभी बांसुरी की तान छेड़ता कोई बूढा...यहाँ कितना संगीत है...और कितनी ही उदासी. यहाँ की हवाएं ऐसे ठहरती हैं जैसे गले में सिसकी अटकी हो.

पूछना बादलों से मेरा पता...
मैं बारिशों में यहाँ की दुकानें देखती हूँ...सबके लिए कुछ न कुछ लेकर जाउंगी इस शहर से...दोस्तों के लिए पोस्टकार्ड छांटती हूँ...सबसे अलग, सबसे अच्छे...सबसे रंग भरे...क्या भेज दूं यहाँ से...इस शहर से मुझे प्यार हो गया है...यहाँ से लोगों से...गलियों से...पुरानी, रंग उड़ी इमारतों से...किले के नीचे चुप  बहती विस्तुला से...ड्रेगंस...स्ट्रीट आर्टिस्ट्स...बारिश...हवा...पानी...सबसे. बहुत सी बारिशों में बैठ कर पोस्टकार्ड लिखती हूँ...किले की खिड़की से बारिश बाहर बुलाती है...मैं पोस्टकार्ड पर फूँक मार रही हूँ...इंक पेन से लिखा है...यहाँ और देश की बारिश में धुल न जाए.

कितना अच्छा लग रहा है...इतने अच्छे और खूबसूरत देश में...बारिशों को देखते हुए...बहुत से अच्छे प्यारे दोस्तों को लिखना...कि जैसे जितनी मैं यहाँ हूँ...उतनी ही भारत में भी. कि जैसे दुनिया वाकई इतनी छोटी है कि आँखों में बस जाए. कि प्यार वाकई इतना है कि पूरे आसमानों में बिखेर दो...कि तुम्हारे शहर में बारिशें हो तो समझना, मैंने दुआएँ भेजी हैं.

बस...दूर देश से आज इतना ही.

Mood Channel: Edit Piaf- Bal dans ma rue

25 April, 2012

लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

मैं ऐसी ही किसी शाम मर जाना चाहती हूँ...मैं दर्द में छटपटाते हुए जाना नहीं चाहती...कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जाना चाहती.

उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.

ये शहर बहुत तनहा कर देने वाला है...यहाँ आसमान से भी तन्हाई ही बरसती है. आज दोपहर बरसातें हुयीं...किताब पढ़ रही थी और अचानक देखा कि बादल घिर आये हैं...थोड़ी देर में बारिश होने लगी...अब एक तरफ मिस्टर सिन्हा और उनके सिगार से निकलता धुआं था...दुनिया को नकार देने के किस्से थे...बेजान किताबें थीं और एक तरफ जिंदगी आसमान से बरस रही थी जैसे किसी ने कहा हो...मेरी जान तुम्हें बांहों में भर कर चूम लेने को जी चाहता है. मैंने हमेशा जिंदगी को किताबों से ऊपर चुना हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता...तो बहुत देर तक बालकनी से बारिशें देखती रही...फिर बर्दाश्त नहीं हुआ...शैम्पू करके गीले बालों में ही घूमने निकल गयी...एक मनपसंद चेक शर्ट खरीदी है अभी परसों...फिरोजी और सफ़ेद के चेक हैं...थोड़ी ओवरसाइज जैसे कोलेज के टाइम पापा की टीशर्ट होती थी. 

मेरी आँखों में मायनस दो पावर है पिछले दो सालों से लगभग...उसके पहले बहुत कम थी तो बिना चश्मे के सब साफ़ दिखता था. आजकल आदत भी हो गयी है बिना चश्मे के कभी नहीं रहने की...कुछ धुंधला फिर से किताब का याद आता है...गुरुदत्त को चश्मे के बिना कुछ दिखता नहीं था और एक्टिंग में आँखों का सबसे महत्वपूर्ण रोल है ऐसा वो मानते थे...हालाँकि ये बात उन्होंने कहीं सीखी नहीं...पर जीनियस ऐसे ही होते हैं. आज जब कोलनी में टहल रही थी तो चश्मा उतार दिया...ताकि बरसती बूँदें सीधे चेहरे और आँखों पर गिर सकें...आसमान को देखते हुए पहली बार ध्यान गया कि बिना चश्मे के चीज़ों का एकदम अलग संसार खुलता है...किसी गीली पेंटिंग सा...किसी कैनवास सा...खास तौर से बारिश के बाद. पेड़ों की कैनोपी...गुलमोहर के लाल फूल...सब आपस में ऐसे गुंथे थे जैसे मेरी यादों में कुछ नाम...कुछ लोग...और दुनिया जब साफ़ नहीं दिखती ज्यादा खूबसूरत दिखती है...थोड़ी सब्जेक्टिव भी हो जाती है...बहुत कुछ अंदाज़ लगाना पड़ता है...सामने से आती कार या बाइक में बैठे इंसान मुझे देख कर अगर हंस रहे थे तो मुझे दिखता नहीं. कभी कोई फिल्म बनाउंगी तो इस चीज़ को जरूर इस्तेमाल करूंगी...ये बेहद खूबसूरत था. 

बारिशें होती हैं तो कुछ लोगों की बहुत याद आती है और ये शहर एक बंद कमरा होने लगता है जिसमें बहुत सीलन है...और गीले खतों से सियाही बह चुकी है. मैं नए ख़त लिखने से डरती हूँ कि जब उदास होती हूँ ख़त नहीं लिखूंगी ऐसा वादा किया है खुद से. तन्हाई हमारे अन्दर ही खिलती है...और मैं यकीं नहीं कर पाती हूँ कि कितनी जल्दी सब अच्छा होता है और अचानक से जिंदगी एकदम बेज़ार सी लगने लगती है. 

ऐसे मूड में गुरुदत्त पर कुछ लिखूंगी तो सब्जेक्ट के साथ बेईमानी हो जायेगी इसलिए वो पोस्ट लिखना कल तक के लिए मुल्तवी करती हूँ...ऐसा सोच रही हूँ और रोकिंग चेयर पर झूलते हुए गाने सुन रही हूँ. आज एक दोस्त ने कहा उसे मेरी बहुत याद आ रही है...मुझे अच्छा लगा है कि किसी को मेरी याद आई है.

आज किसी से फोन करके दो तीन घंटे बात करने का बहुत मन कर रहा था...पूरी कोंटेक्ट लिस्ट स्क्रोल करके देख ली...हिम्मत न हुयी कि किसी से जिंदगी के तीन घंटे मांग लूं...मेरा क्या हक बनता है...ऐसा ही कुछ उलूल जुलूल खुद को समझाती हूँ...बालकनी से आसमान देखती हूँ...अनुपम की याद आती है...promise me you will never say that writing is a curse to you. वादा तो निभाना है. 

ऐसी किसी सुबह उठूँ...थोड़े से दर्द के साथ...कुछ दोस्तों से बात करने को दिल चाहे और फोन न कर पाऊं...बार बार फोन स्क्रोल करूँ...सोचूँ...कि कितना सही होगा खुद के लिए दो तीन घंटे का वक्त मांग लेना किसी की जिंदगी से...सोचूँ कि किसपर हक बनता है...फिर हज़ार बारी सोचूँ और आखिर फोन ना करूँ किसी को..चल जाने दे ना...रात को पोडकास्ट बना लेंगे. 

कल हमारे साहिबे आलम दिल्ली तशरीफ़ ले जा रहे हैं...जल्दी का प्रोग्राम बना है...हम यहाँ मर के रह गए दिल्ली जाने के लिए...पर कुछ मजबूरियां हैं...शाम से उदास हूँ जबसे खबर मिली है. अब कल गुरुदत्त को ही आवाज़ दूँगी...पुरानी चिट्ठियां पढूंगी...दर्द को दर्द ही समझता है...ओह...काश कि थोड़ा सुकून रहे...थोड़ा सा बस...काश!

05 March, 2012

हिज्र का मौसम. दसविदानिया.

उसमें मेरी कोई गलती नहीं थी...पर वैसा पागलपन, वैसी शिद्दत, वैसी बेकरारी...वो जो मेरे अन्दर एक लड़की जी उठी थी जाने कैसे तुम्हारे प्यार की एक छुअन से...वो लड़की जो जाने कितने पर्दों में मैंने छुपा के रखी थी तुमने उसकी आँखों में आँखें डाल बस एक बार कहा की तुम उससे प्यार करते हो और वो तुम्हारी हो गयी थी...मन को जितना बाँधा मन उतना ही भागता गया तुम्हारे पीछे...पर तुम कोई पास तो थे नहीं...तो दौड़ते दौड़ते लड़की के कोमल पांवों में छाले पड़ गए...उसका दुपट्टा कंटीली झाड़ियों में लग के तार तार हो गया...अँधेरे में तुम्हें तलाशने के लिए उसने एक दिया जलाया तो सही पर उसकी आंच से उसकी आँखों के सारे आंसू भाप हो गए...मैंने उस लड़की को वैसे नहीं रचा था...उसे तुमने रचा था.

जो लोग कहते हैं की रो लेने से आराम मिलता है झूठ कहते हैं...कुछ नहीं होता रोने से अगर रोने से तुम उठ के आंसू पोछने नहीं आते हो...आराम रोने से नहीं, उसके बाद तुम्हारी बांहों में होने से होता है...पर जाने दो...तुम नहीं समझोगे...ये कहते हुए लड़की रोज खुद को समझाती थी और दिन भर फर्श पर लेटी जाने क्या सोचती रहती थी...उसे खुद को समझाना आता भी नहीं था. शाम होते तुम्हारी याद के काले बादल घिरते थे और उसका कमरा सील जाता था...तुम्हारा नाम उसकी विंड चाइम पुकारती थी, हलके से. बस...बाकी लड़की ने सख्त हिदायत दे रखी थी की तुम्हारा कोई नाम न ले.

लड़की को यूँ तो धूप बहुत पसंद थी...पर तुम तो जानते ही हो...धूप में अगर गीले कपड़े डाल दो तो उनका रंग उतर जाता है...वैसे ही कमरे में धूप आती थी तो लड़की की आँखों का रंग उड़ा कर ले जाती थी. हर रोज़ एक शेड उतरता जाता था उसकी आँखों का...वो थी भी ऐसी पागल कि धूप की ओर पीठ नहीं फेरती, आँखें खोले खिड़की के बाहर देखती रहती जहाँ इकलौता अमलतास वसंत के आने पर उसका हाथ पकड़ बुलाना चाहता था. अमलतास ने कितना चाहा उसके फूलों का कुछ रंग ही सही लड़की की आँखों में बचा रहे मगर ऐसा हुआ नहीं. कुछ दिनों में लड़की की आँखों में कोई रंग नहीं बचा...शायद तुम उसे देखो तो पहचान भी न पाओ.

लड़की नर्म मिटटी सी हो गयी थी...बारिश के बाद जिसमें धान की रोपनी होती है...मगर पिछले कुछ दिनों में बारिश और कड़ी धूप आती जाती रही तो लड़की किले की दीवार सी अभेद्य हो गयी. सिर्फ कठोर ही नहीं हुयी वो...वैसा होता तो फिर भी कुछ उपाय था...लड़की के अन्दर जो हर खूबसूरत चीज़ को जीवन देने की क्षमता थी वो ख़त्म हो गयी और उसकी प्रकृति बदल गयी...पहले उसे हर चीज़ को सकेरना आता था, सहेजना आता था...अब उसे बस आत्मरक्षा समझ आती है...सिर्फ इंस्टिंक्ट बची है उसमें...जो बाकी भावनाएं थी...अब नहीं रहीं...परत दर परत वो जो खुलती थी तो नए रंग उभरते थे...अब बस एक फीका, बदरंग सा लाल रंग है...उम्र के थपेड़ों से चोट खाया हुआ.

लड़की का पागलपन कर्ण के कवच कुंडल की तरह था...वो उनके साथ ही पैदा हुयी थी...हमेशा से वैसी थी...उसे किसी और तरह होना नहीं आता था. मगर उसे ये नहीं मालूम था कि ऐसा पागलपन उसके खुद के लिए ऐसा घातक होगा कि आत्मा भी चोटिल हो जाये. लड़की खुद भी नहीं जानती थी कि वो अपनाप को कितना दुःख पहुंचा सकती है...उसे कहाँ मालूम था कि प्यार ऐसे भी आता है जिंदगी में...दर्द में जलना...जलना जलना...ऐसी आग जिसका कहीं कोई इलाज नहीं था...ये ताप उसका खुद का था...ये दावानल उसके अन्दर उठा था...वहां आग बुझाने कोई जा नहीं सकता था...तुम भी नहीं, तुम तो उसका कन्धा छूते ही झुलस जाते...और वो पगली ये जानती थी, इसलिए तुम्हें उसने बुलाया भी नहीं.

ओ रे इश्क माफ़ कर हमको...उम्र हुयी...अब तेरी उष्णता नहीं सही जाती...रहम कर इस बेदिल मौसम पर...पूरे मोहल्ले में वसंत आया है और मेरा महबूब बहुत दूर देश में रहता है. वो जो लड़की थी, वो कोई और थी...बहुत रो कर गयी है दुनिया से...और हम...मर कर दुबारा जिए हैं...और कुछ भी मांग लो...पर वैसा प्यार हमसे फिर तो न होगा. अबकी बार अंतिम विदा...अब जाके आना न होगा.





लड़की अब भी तुमसे बहुत प्यार करती है...बस पागलपन कम हो गया है उसका...दुनिया की निगाह से देखो तो लगेगा ठीक ही तो है...ऐसा पागलपन जिससे उसे दुःख हो...कम हो गया तो अच्छी बात है न...पर जानते हो...मुझसे भी पूछोगे न तो वही कहूँगी जो तुम्हारा दिल कहता है...मैं भी उस लड़की से बहुत प्यार करती थी जो तुमसे पागलों की तरह प्यार करती थी. 




26 November, 2011

लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां

चलो, कमसे कम मौसम तो अच्छा हुआ. अच्छा भी क्या ख़ाक हुआ, मूड का पागल हिसाब है. आज देर रात से बहुत बारिश हो रही है और हवाएं तो ऐसे चल रही हैं की जैसे घने जंगलों में रह रही हूँ कहीं. बारिश अच्छी लग रही है, बेहद अच्छी. जैसे बचपन की सखी हो, राजदार, सरमायेदार.

पिछले कुछ दिनों से मौसम अजीब सा हो रखा था, न धूप निकलती थी, न बारिश होती थी...बस जैसे इंतज़ार में रखा हो मौसम ने भी. स्टैंडबाय मोड पर...कि पहले मैं अपना मूड सेट करूँ...उसके हिसाब से मौसम आयेंगे. जैसे जैसे चेहरे पर मुस्कान आती गयी, मौसम भी दरियादिल होते गया...पहले तो मेरी सबसे पसंदीदा, फुहारों वाली बारिश...कि जैसे कह रहा हो, कहाँ थी मेरी जान, मैंने भी तुम्हारी मुस्कराहट को बड़ा मिस किया...और मैं शैतान मौसम से ठिठोली कर रही हूँ, झगड़ा कर रही हूँ कि तुम्हें कौन सी मेरी पड़ी थी, तुम तो खाली अपना सोचते हो, तुमको हमसे क्या मतलब...और ये मस्का भी पक्का कोई कारण से लगा रहे हो, सच्ची सच्ची बताओ क्या काम है मुझसे, कहाँ सिफारिश लगवा रहे हो मुझसे.

फ़िल्मी होना कोई हमसे सीखे, या फिर बंगलौर के मौसम से. तो जब मौसम ने देख लिया की हलकी बारिश से मेरा मूड ख़राब नहीं हो रहा, तब फुल फॉर्म में आ गया...और क्या जोरदार बारिश हुयी कि सब धुल गया. जैसे कंठ से पहला स्वर फूटा हो, शब्द पकड़ने लगी फिर से. हवाओं में श्लोक गूंजने लगे, अगरबत्ती में श्रुतियां महकने लगीं...कुछ आदिम गीत के बोल आँख की कोर में बस गए. तुम्हारे नाम का पैरेलल ट्रैक थोड़ा लाइन पर आया तो दुर्घटना की सम्भावना घटी. कोहरे वाले मौसम में तुम्हारे हाथ याद आये.

छप छप करती बारिश में लौट रही हूँ तो कुछ शब्द गीले बालों से टपक रहे हैं...कुछ शब्द गा रही हूँ तो हवाएं लिए भाग रही है...अंजुली बांधती हूँ तो तुम्हारा नाम खुलता है उसमें...कैसी तो लकीरें मिलती जा रही हैं तुम्हारी हथेली से...सब बारिश का किया धरा है, इसमें मेरा कोई दोष नहीं. कल को जो चाह कर भी मेरी जिंदगी से दूर जाना चाहोगे न तो बारिश जाने नहीं देगी, देख लेना. कुछ चीज़ें अभी भी तुमसे जिद करके बातें मनवाना जानती हैं. तुमने जाने कब आखिरी बार बारिश देखी थी...तुम्हें याद है?

चलो मेरे शहर का मौसम जाने दो...दिल्ली में कोहरा पड़ने लगा न...एक काम करो, थोड़ा सा लिफाफे में भर कर मुझे कूरियर कर दो...न ना, साधारण डाक से मत भेजना, आते आते सारा कोहरा बह जाएगा लिफ़ाफ़े से...और फिर लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां भी सील जायेंगी. सबसे फास्ट वाले कूरियर वाले को पकड़ना...मैं वो थोड़ा सा कोहरा अपनी आँखों में भर लूंगी...फिर शायद मुद्दतों बाद मुझे सपनों वाली नींद आएगी...नींद में सफ़ेद बादलों का देश भी होगा...और एक डाकिया होगा जो तुम तक मेरी बारिशें पहुंचाता है.

सुबह के इस पहर सब खामोश है, शहर अभी सोया हुआ है...सब के जागने में अभी थोड़ा वक़्त बाकी है. कहते हैं इस पहर में हर दर्द शांत हो जाता है...सभी को नींद आ जाती है. फिर बताओ भला, मैं क्यूँ दुनिया से अलग जागी हुयी हूँ? मुझे कोई दर्द नहीं है इसलिए? रात सोयी नहीं और अब इतनी देर हो गयी है तो सोच रही हूँ, सूरज का स्वागत कर ही लूं...कितना तो वक़्त हुआ उसे आते नहीं देखा...हमेशा जाते देखती हूँ. तुम्हारी तरह...तुम कब चले आये जिंदगी में पता ही नहीं चला.






भोर की पहली आवाजों के साथ जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल ज़ेहन में तैर जाती है...एक पंक्ति चमकती है...जैसे छठ पर्व में सूरज की पहली किरण उतरी हो और उसे अर्घ्य दे रही हूँ. 

'तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है...'

26 September, 2011

इस आस में किनारे पे ठहरा किये सदियों तलक

आवाजों का एक शोर भरा समंदर है जिसमें हलके भीगती हूँ...कुछ ठहरा हुआ है और सुनहली धूप में भीगा हुआ भी. पाँव कश्ती से नीचे झुला रही हूँ...लहरें पांवों को चूमती हैं तो गुदगुदी सी लगती है. हवा किसी गीत की धुन पर थिरक रही है और उसके साथ ही मेरी कश्ती भी हौले हौले डोल रही है.

आसमान को चिढ़ाता, बेहद ऊँचा, चाँद वाली बुढ़िया के बालों सा सफ़ेद पाल है जो किसी अनजान देश की ओर लिए जा रहा है. नीला आसमान मेरी आँखों में परावर्तित होता है और नज्मों सा पिघलने लगता है...मैं ओक भर नज़्म इकठ्ठा करती हूँ और सपनों में उड़ेल देती हूँ...जागी आँखों का सपना भी साथ है कश्ती में. 

शीशे के गिलासों के टकराने की मद्धम सी आवाज़ आती है जिसमें एक स्टील का गिलास हुआ करता है. मुझे अचानक से याद आता है कि मेरे दोस्त मेरे नाम से जाम उठा रहे होंगे. बेतरतीब सी दुनिया है उनकी जिसमें किताबें, अनगिन सिगरेटें और अजनबी लेकिन अपने शायरों के किस्से हैं...मैं नाव का पाल मोड़ना चाहती हूँ, फिर किसी जमीन पर उतरने की हूक उठती है. जबकि अभी ही तो नयी आँखों से दूसरी दुनिया देखने निकली थी. उनकी एक शाम का शोर किसी शीशी में भर कर लायी तो थी, गलती से शीशी टूट गयी और अब समंदर उनके सारे किस्से जानता है. 

जमीन पर चलते हुए छालों से बचने के लिए इंसान ने जूते बनाये. नयी तकनीकें इजाद हुयी और एक से बढ़कर एक रंगों में, बेहद सुविधाजनक जूते मिलने लगे. जिनसे आपके पैर सुरक्षित रहते हैं...हाँ मगर ऐसे में पैर क्या सीख पाते हैं? दुनिया देख आओ, हर शहर से गले मिल लो, नदियों, पहाड़ों, रेगिस्तानों भटक आओ...मगर पैर क्या मांगते हैं...मिट्टी. तुम्हारे घर की मिट्टी, भूरी, खुरदरी कि जिसमें पहली बार खेल कर बड़े हुए. आज समंदर में यूँ पैर भीग रहे हैं तो समंदर उन्हें मिट्टियों की कहानी सुना रहा है. समंदर के दिल में पूरी दुनिया की मिट्टी के किस्से हैं.

शोर में कुछ बेलौस ठहाके हैं, कि जिनसे जीने का सलीका सीखा जाए और अगर गौर से सुना जाए तो चवन्नी मुस्कान की खनक भी है. इतनी हंसी आँखों में भर ली जाए तो यक़ीनन जिंदगी बड़े सुकून से कट जाए. तो आवाजों के इस समंदर में एक ख़त मैं भी फेंकती हूँ, महीन शीशी में बंद करके. कौन जाने कभी मेरा भी जवाब आये...कि क़यामत का दिन कोई बहुत दूर तो नहीं. 



इस आस में किनारे पे ठहरा किये सदियों तलक 
कोई हमें फुसला के वापस घर ले जाए

11 August, 2011

निर्मोही रे

निर्मोही रे
तन जोगी रे
मन का आँगन 
अँधियारा

निर्मोही रे
लहरों डूबे 
सागर ढूंढें 
हरकारा 

निर्मोही रे
आस जगाये
सांस बुझाए 
इकतारा 

निर्मोही रे
रीत निभाए
प्रीत भुलाए
आवारा 

निर्मोही रे
गंगा तीरे  
बहता जाए 
बंजारा

14 July, 2011

गुज़र जायें करार आते आते

मेरा एक काम करोगे? बस आईने के सामने खड़े हो जाओ और अपनी आँखों में आँखें डाल कर कह दो कि मुझे दुःख पहुँचाने पर तुम्हारी आत्मा तुम्हें नहीं कचोटती है...क्यूंकि मुझे अब भी यकीन है कि दुनिया में अगर कुछ लोगों के अंदर आत्मा बची हुयी है तो तुम हो उनमें से एक...मेरे इस विश्वास को बार बार झुठला कर तुम्हीं क्या मिलता है?

पता है...अच्छा बनना बहुत मुश्किल है, दुनिया के हिसाब से तो बाद में चला जाए सबसे पहले हमें अपने खुद के हिसाब से चलना होता है. क्यूंकि अभी भी वो वक्त नहीं आया है कि हम अपने अंदर के इंसान को गला घोंट कर मार सकें...बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं. लोग आते हैं चोट देकर चले जाते हैं और हम कुछ कर नहीं पाते...इसलिए नहीं कि हम चोट पहुँचाने के काबिल नहीं है...लेकिन इसलिए क्यूंकि हम चाह कर भी किसी को उस तरह से तोड़ नहीं सकते. अपनी अपनी फितरत होती है.

कितना अच्छा लगता है न कि तुम इस काबिल हो कि किसी को चोट पहुंचा सको...बहुत पॉवरफुल महसूस होता है...कि किसी को कुछ बोल दिया और लड़की रो पड़ी...तोड़ना सबसे आसान काम है...मुश्किल तो बनाना होता है. किसी रिश्ते को खून के आंसू सींच कर भी जिलाए रखना...सहना होता है...धरती की तरह तपना, जलना और फिर भी जीवन देना. सिर्फ इसलिए कि तुम जानते हो कि किसी को तुम्हारी जरुरत है...भले छोटी सी ही सही तुम उसकी जिंदगी का हिस्सा हो...उसे इस बात का और भी शिद्दत से अहसास दिलाना. अरे जी तो लोग भगवान से भी नाराज़ होकर लेते हैं...क्या फर्क पड़ता है किसी के होने न होने से.

बुरा बनना आसान है...कोई कुछ भी कहे तो कह दो कि हम ऐसे ही हैं...तुम्हें पता होना चाहिए था  कि हम बुरे हैं. बुरा होना कुछ नहीं होता...बस अपनी गलतियों के लिए बहाना होता है. कुछ लोग राशि को ब्लेम करते हैं और कुछ फितरत को. वाकई अच्छा बुरा कुछ नहीं होता...होती है बस जिद- दिखने की कि तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं हो. अंग्रेजी में कुछ शब्द वाकई बड़े सटीक हैं जैसे Status-Quo यानि पलड़ा बराबर का रखना. कुछ देना तो बदले में कुछ लेना भी. पता नहीं हमारे संस्कार ही कुछ ऐसे हो जाते हैं कि रिश्तों में इतना मोलतोल नहीं कर पाते.

-----------
पता नहीं क्यूँ आज शाम बारिश ने कई पुराने ज़ख्म धुला कर नए कर दिए. कितने शिकवे गीले हुए तार पर पड़े हैं...आज दुपहर ही सुखाने डाला था...बस ऐसे ही.
होता है न जब आप सबसे खुश होते हो...तभी आप सबसे ज्यादा उदास होने का स्कोप रखते हो.

26 April, 2011

जो ऐसा मौसम नहीं था

वो ऐसा मौसम नहीं था 
कि जिसमें किसी की जरुरत महसूस हो 
वो ठंढ, गर्मी, पतझड़ या वसंत नहीं था
मौसम बदल रहे थे उन दिनों

तुम आये, तुम्हारे साथ 
मौसमों में रंग आये
मुझसे पूछे बगैर
तुम जिंदगी का हिस्सा बने

तुमने मुझसे पूछा नहीं
जिस रोज़ बताया था 
कि तुम मुझसे प्यार करते हो
मैंने भी नहीं पूछा कि कब तक 

यूँ नहीं हुआ कि तुम्हारे आने से
बेरहम वक़्त की तासीर बदल गयी
यूँ नहीं हुआ कि मैं गुनगुनायी
सिर्फ मुस्कराहट भर का बदलाव आया 

तुमने सोलह कि उम्र में
नहीं जताया अपना प्यार 
और मैं इकतीस की उम्र में
नहीं जता पाती हूँ, कुछ भी 

शायद इसलिए कि
हम बारिशों में नहीं भीगे
जाड़ों में हाथ नहीं पकड़ा 
गर्मियों में छत पर नहीं बैठे 

जब पतझड़ आया तो
पूछा नहीं, बताया 
कि तुम जा रहे हो 
और मैं बस इतना कह पायी 

कुबूल है, कुबूल है, कुबूल है 

04 March, 2011

नीले पांवों वाली लड़की

बहुत सालों पहले जब घर बनवाया गया था तो सड़क से लगभग दो फुट ऊंचा बनवाया गया था...अनगिन घपलों और सावनों के कारण सड़क साल दर साल बनती रही...अब हालात ये थे कि हर बारिश में पानी बहकर अन्दर चला आता था और वो लड़की जो सिर्फ खिड़की से ही बारिश देखा करती थी उसके तलवे हमेशा सीले रहने के कारण पपड़ियों से उखड़ने लगे थे. 

उसे कुरूप होते अपने पैरों से बेहद लगाव होने लगा था...वैसे ही जैसे गालों से लुढ़ककर गर्दन के गड्ढे में जो आँसू ठहरता था उससे होता था. वो अक्सर दीवार में सर टिका कर रोती थी...पलंग भी नीचा था तो उसके पैर गीले फर्श से ठंढे होने लगते थे...खून की गर्मी का उबाल भी सालों पहले ठंढा हो गया था, बात बेबात तुनकने वाली लड़की अचानक से शांत हो गयी थी. उसी साल पहली बार सड़क के ऊंचे होने के कारण पानी घर में रिसना शुरू हुआ था.

लड़की ने बहुत कोशिश की...टाट के बोरे, प्लास्टिक दरवाजे के बीच में फंसा कर पानी अन्दर आने से रोकने की...पर ये पानी भी आँखों के पानी जैसा बाँध में एक सुराख ढूंढ ही लेता था. अगले साल तो पानी में उसकी चप्पल तैर कर इस कमरे से उस कमरे हो जाती थी. देर रात चप्पल ढूंढना छोड़ कर उसने नंगे पाँव ही चलना शुरू कर दिया. वो पहला साल था जब उसके पाँव ठंढ में गर्म नहीं हो पाए थे...वो पहला साल भी तो था जब बारिश के बाद धूप नहीं निकली थी...सीधे कोहरा गिरने लगा था...वो पहला ऐसा साल भी था जब वसंत में उसकी खिड़की पर टेसू के फूल नहीं मिले थे.

उसने वसंत के कुछ दिन खुद को बहलाए रखा कि शायद इनारावरण* में जंगलों की कटाई हो गयी हो, भू माफिया ने जमीन पर मकान बना दिए हों...वो चाह कर भी नहीं सोच पायी की वो लड़का जिसका कि नाम अरनव था और जिसने कि वादा किया था उसके लिए हर वसंत टेसू के फूल लाने का...वो अब बैंक पीओ है और चाहे उसे हर चीज़ के लिए फुर्सत मिले, हर सुख सुविधा उपलब्ध हो...वो अब दस किलोमीटर साईकिल चला कर उसके लिए टेसू नहीं लाएगा...लड़की को यक़ीनन सुकून होता जान कर कि जिसे वो हर लम्हा उम्मीद बंधाती आई है उसके सपने सच हो गए.

लड़की के कुछ अपने सपने भी थे...होली में टेसू के फूल के बिना रंग नहीं बने...होली फीकी रह गयी, वो इतनी बेसुध थी कि मालपुए में चीनी, दही बड़े में नमक...सब भूल गयी. उसकी आँखें काजल तो क्या ख्वाबों से भी खाली हो गयीं...इस बार सबने बस पानी से होली खेली. जब रंग न हों तो होली में गर्माहट नहीं रहती बिलकुल भी...वो घंटों थरथराती रही, पर उसके गालों को दहकाने अरनव नहीं आया.

सरकार ने सिंचाई की किसी परियोजना के तहत एक नदी का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया...इसमें इक छोटी धारा ठीक उसके घर के सामने वाली सड़क पर भी बहने लगी...उसके कागज़ की नाव तैराने के दिन बीत चुके थे...वैसे भी बिना खेवैया के कब तक बहती नाव...यादों में जब वो डूबती उतराती है तो उसे बहुत साल पहले की एक शाम याद आती है जब अरनव ने जाने कैसे हिम्मत कर के उससे पुछा था 'एक बार तुम्हें गले लगा सकता हूँ, प्लीज' और लड़की कुछ शर्म, कुछ हडबडाहट में एकदम चार कदम पीछे हट गयी थी. आज इन भीगी, सर्द रातों में वो एक लम्हा तो होता...उसकी लौ में हौले हौले पिघल जाने वाला एक लम्हा...एक खून में गर्मी घोल देने वाला लम्हा...कि तब ऐसी ठंढ शायद नहीं लगती कभी भी.

उसके पैर नीले पड़ने लगे थे...चप्पल जाने कहाँ खो गयी थी...सामने का रास्ता नदी बन गया था. वो अपने ही जिस्म में कैद हो के रह गयी थी...जिंदगी भर के लिए. 

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