10 May, 2013

जरा सा पास, बहुत सा दूर

इससे तो बेहतर होता कि वे एक दूसरे से हजारों मील दूर रहते. ऐसे में कम से कम झूठी उम्मीदें तो नहीं पनपतीं, हर बारिश के बाद उसको देखने की ख्वाहिश तो नहीं होती. ऊपर वाला बड़ा बेरहम स्क्रिप्ट राइटर है. वो जब किरदार रचता है तो मिटटी में बेचैनी गूंथ देता है. ऐसे लोगों को फिर कभी करार नहीं आता.

इस कहानी के किरदार एक दूसरे से २०० किलोमीटर दूर रहते हैं. एक बार तो सोचती हूँ कहानी को किसी योरोप के शहरों की सेटिंग दे दूं...वहां शहर इतने खूबसूरत होते हैं...बरसातों में खास तौर पर. लेकिन उस सेटिंग में मेरे किरदार नैचुरल नहीं महसूस करेंगे. उनके अहसासों में एक अजनबियत आ जायेगी. यूँ मुझे वियेना और बर्न बहुत पसंद है. पर उनकी बात फिर कभी.

उन दोनों के शहरों के बीच हर तरह की कनेक्टिविटी थी. बसें चलती थीं, ट्रेन थी, हवाईजहाज थे और उन्हें जोड़ने वाला हाइवे देश का सबसे खूबसूरत रास्ता माना जाता था. वो रहता था सपनों के शहर मुंबई में और वो रहती थी बरसातों के शहर पुणे में.

आज किरदारों का नाम रख देती हूँ कि कुछ तसवीरें हैं ज़हन में...तो मान लेते हैं कि लड़के का नाम तुषार था. किसी सुडोकु पजल जैसा था लड़का, सारे खानों में सही नंबर रखने होते थे जब जा कर उसके होने में कोई तारतम्य महसूस होता था वरना वो बेहद रैंडम था और जैसा कि मेरी कहानी की लड़कियों के साथ होता है, उसके नंबरों से डर लगता था. वो उसे सुलझाना चाहती थी मगर डरती थी. हालात हर बार ऐसे होते थे कि वो मिलते मिलते रह जाते थे. वे सबसे ज्यादा ट्रैफिक सिग्नलों पर मिलते थे, जिस दिन किस्मत अच्छी होती थी उनके पास पूरे १८० सेकंड्स होते थे.

एक लेखक ने अपनी किताब का कवर सरेस पेपर का बनवाया था ताकि उसके आसपास रखी किताबें बर्बाद हो जायें. तुषार ऐसा ही था, उसे पढ़ने की कोशिश में उँगलियाँ छिल जाती थीं. उसके ऊपर कवर लगा के रखना पड़ता था कि उसके होने से जिंदगी के बाकी लोगों को तकलीफ न हो. गलती मेरी ही थी...मैंने ही ऐसा कुछ रच दिया था कि लड़की को कहीं करार नहीं था.

लड़की कॉफ़ी में तीन चम्मच चीनी पीती थी, तुषार ने उसके होटों का स्वाद चखने के लिए उसके कॉफ़ी मग से एक घूँट कॉफ़ी पी ली थी, मगर उसने लड़की ने इतना ही कहा कि मुझे देखना था तुम इतनी मीठी कॉफ़ी कैसे पी पाती हो. तुषार को ब्लैक कॉफ़ी पसंद थी, विदाउट मिल्क, विदाउट शुगर. लड़की ने वो कॉफ़ी मग अपनी खिड़की पर रख दिया था. उसे लगता था जिस दिन कॉफ़ी मग बारिश के पानी से पूरा भर जाएगा उस दिन उसे तुषार के साथ बिताने को थोड़ा ज्यादा वक़्त मिलेगा.

दोनों शहर इतने पास थे कि दूर थे...और ये ऐसी तकलीफ थी कि सांस लेने नहीं देती. लड़की सोचती कि ऐसे मौसम में मुमकिन है कि वो वाकई आ सके. तीन घंटे क्या होते हैं आखिर. वो छत के कोने वाले गुलमोहर के नीचे खड़ी भीगती और सोचती बारिशों में तेज़ ड्राइव करना जितना खतरनाक है उतना ही खूबसूरत भी, या कि खतरनाक है इसलिए खूबसूरत भी. एक्सप्रेसवे पर गहरी घाटियाँ दिखतीं थें और उनसे उठते बादल. दोनों उसी रास्ते से विपरीत दिशाओं में जाते हुए मिलते. तुषार उसका गहरा गुलाबी स्कार्फ पहचानता था. ऐसा हर बार होता कि जब तुषार का पुणे आने का प्रोग्राम बनता, लड़की को बॉम्बे जाना होता. वे तकरीबन एक ही समय खुश हो कर एक दूसरे को फोन करते कि अपने शहर में रहना. जब उनकी गाड़ियाँ क्रोस करतीं लड़की अपना स्कार्फ हिला कर उसे अलविदा कहती थी.

इतनी दूरी कि जब चाहो उससे मिलने जा सको लेकिन उतना सा वक़्त न मिले कभी, धीमे जहर से मरने जैसा होता है. फिर भी कभी कभी उनके हिस्से में कोई बारिश आ जाती थी. कैफे में बैठे, अपने अपने पसंद की कॉफ़ी पीते हुए वे सोचते कि जिंदगी तब कितनी अच्छी थी जब एक दूसरे से प्यार नहीं हुआ था. या कि वे दोनों बहुत दूर के शहर में रहते जब आने की उम्मीद न होती...या कि एक दूसरे को सरप्राईज देने के बजाये वे प्लान कर के एक दूसरे के शहर आते. लड़की के सारे दोस्त भी तुषार के साथ मिले हुए थे...तो अक्सर उसे उसकी किसी दोस्त का फोन आता कि कैफेटेरिया में तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ और वहां तुषार मिलता. कभी कभी लगता कि अचानक उसे देखने की ख़ुशी कितना गहरा इंतज़ार दे जाती है कि वो हर जगह, हर वक़्त उसे ही तलाशती फिरती है.

वे अक्सर टहलने निकल जाया करते थे. घुमावदार गलियों पर, सीढ़ियों पर, शीशम के ऊंचे पेड़ों वाले रस्ते पर...तुषार दायें हाथ में घड़ी बांधता था और लड़की बायें हाथ में, अक्सर उनकी घड़ियों के कांच टूटते रहते थे. उन्हें कभी हाथ पकड़ के चलना रास नहीं आया. अक्सर जब ऐसा होता था तो वे ध्यान से अपने चलने की साइड बदल लेते थे.

इस कहानी में बहुत सारा इंतज़ार है...उन दो शहरों की तरह जो अपनी सारी बातें सिर्फ उनको जोड़ने वाले एक्सप्रेसवे के माध्यम से कर पाते थे. कहानियों को फुर्सत होती है कि वे जहाँ से ख़त्म हों, वहां से फिर नयी शुरुआत कर सकें. मैं उन्हें इसी मोड़ पर छोड़ देती हूँ...जहाँ प्यार है और इंतज़ार है बेहद. उम्मीद नहीं है क्यूंकि ख्वाहिश नहीं है. दोनों अपने अपने शहरों से भी उतना ही प्यार करते हैं जितना कि एक दूसरे से.

बेचैनी के इस आलम में सुकून बस इतना है कि दोनों जानते हैं कि हर बारिश में यहाँ से कुछ दूर के शहर में रहने वाला कोई उनसे प्यार करता है और चाहता है कि वो एक्सप्रेसवे पर २०० की स्पीड से गाड़ी उड़ाता हुआ उनके पास चला आये.जीने के लिए इतना काफी है.

15 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(11-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  2. aisa emotional atyachhar bada preshan kar deta hai. Pls give us this full stoty as soon as possible

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  3. Bahut he khoobsoorat mod per choda hai kirdaaron ko.. Ufff.. Baarishen aur Pyaar.. ISSAE KHUBSURAT KUCH NAHI HO SAKTA..

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  4. मैं तो सोचता हूँ कि काश वे पुरानी सड़क का प्रयोग करते ज्यादा खूबसूरत है न.

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  5. kitne dino baad padahi aapki story. gazab likhte ho aap :)

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  6. This comment has been removed by the author.

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  7. jine ke liye itna hi kafi hae.....hmesha ki tarah shandar

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  8. Kahani Jitni Ki Adhuri Hai Usase Kahi Jyada,Khatm Hote-Hote Pure Hone Ka Ehsas Karati Hai.
    Umda Lekhan...

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  9. आपके अधिकाँश पोस्ट को पढ़ने पर निर्मल वर्मा जी की झलक दिखलाई पड़ती है कुछ दिनों पहले तथागत ब्लॉग के सर्जक श्री राजेश सिंह के टैरेस गार्डन से भी यही भीनी खुशबू मिली वाह मज़ा आ गया आप सब के लेखनी को प्रणाम ....

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  10. sach hai yahi ummid kafi hai ki koi intezar karta hai

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  11. Excellent Selection of Words....ऊपर वाला बड़ा बेरहम स्क्रिप्ट राइटर है. वो जब किरदार रचता है तो मिटटी में बेचैनी गूंथ देता है. ऐसे लोगों को फिर कभी करार नहीं आता.

    Padh ke maja aa gaya...........sochne pe majbor ho gaya

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  12. जानदार कहानी ऐसी कि मन पात्र बन जाना चाहे.

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  13. मन भागा भागा फिरता है और पीछे पहुँच जाता है हमारा पूरा अस्तित्व। २०० किमी की दूरी कहाँ पता है मन को, वह तो तुरन्त ही पहुँच जाता है।

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